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कबीरसागर
( सम्पूर्णं ११ भाग )
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१२०० रूपये मान्न
मूल्य
हमरे पकाशनो की अधिक जानकारी व खरीद के लिये हमारे निजी स्थान
खेमराज
ऊध्यद्ष : श्रौवेकूटे र एेस.
९९ ६०९. डेपराञ श्रीकष्णदास मार्ग.
ॐ जौ खेतञाडौ वेक रोड कार्नर.
= भ< ठर.
दूरभाष कैक्स-०२२-२३८५७४५६.
खेमराज श्रीकृष्णदास `
६६. हडपसर इण्डष्टियल इस्टेट,
^ पुणे - ४६९ ०६३.
दूरभष- ०२० -२६८७१० २५.
गंगादिष्णु श्रीकृष्णदास,
लक्ष्मी बंकटेश्वर प्रेस ठ बुक डिपो |
श्रीलक्ष्मौदेकटेश्वर प्रेस विल्डीग,
जूना छापाखाना गलौ. अहिल्यावां चौक,
कल्याण. जि. ठाणे. महाराष्ट - ४२१ ३०१
दूरभाष - ०२५९१-२२०९०६१.
खेमराज श्रीकृष्णदास *
चौक, वाराणसी {उ.प्र.) २२९१९००१
दूरभाष - ०५४२-२८२००७८.
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फरवरी २०२०, संवत् २०७६
१०० रुपये मात्र ।
सस्करण
मूल्य : १
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श्रीज्ञानप्ागरकी अञचकमणिका
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विषय. पृष्ट चिवथ, वच्छ.
मृक्तिभेद, अमरलोक वणन १ ्रह्मका समुद्र खुदवाना ध
सत्य पुदष का वणन ट् ८
सृष्टि उत्यतति वणन प्रारंभ ट भवानीकी आज्ाते तीनों देवका समुद्र मंयन
कत ब ८ करना आट तीन कन्याका प्रकट होना ??
धमरायके दवीप नहीं पानेका वणन ह ग्व अज्ञाते तनो देवका चारे सम्-
धरमरायका सत्य पुरुषकी सेवा करके दवीष दको मंथन करना शौर उससे कंद आदि-
पानेका वणन । सहज कौ विन्त ७ कानार त ९५
धमरायका अधिक स्थान मांगना ओर मान- चार लानिको उत्पति ०
सरोवरका पाना ८ ब्रह्याको वेद पट्कर सदेह होना ओर माताकी
धमरायका कामिनीको निगल जाना १ आज्ञाते पिताकी जोजमें जाना २९१
पुरुषका निरञ्जनको .शाप देना ९ मायाका गायत्रीको उत्पन्न करके व्रह्माको
पुरुषका योगसंतायनको जीवको कालके फन्दसे बुलानेकं लिये भेजना ओर जायाका 8
छडानेको आज्ञा देना ओर योगं संतायन ब्रह्माको सूठे बोलनेके कारण शाप देकर :
तथा कालका युद्ध ?१ निरंजन से आप शाप पाना २२ <
कन्याका धर्मरायके पटसे निकलना ओर नायाका ` (ना व व 6
धर्मरायका उसे ठगना तथा दोनोका मिल- भेजना । विष्णुका शुक्लसे श्याम हो ४
कर सृष्टिको रचना करने का विचार करना जाना । मायाके षास आकर विष्णुका सत्य .
भौर रचना ११ बोलना ओर तीनों लोकका राज्य पाना २३
चौदह यमका नाम ओर कमं १२ नाव र । त अ २४ २8 = =
कालका जीवोंको दुःखित करना ओर सत्य तोनोंे 9 |
पुरुषकौ आल्लासे ज्ञानीजीका पृथ्वी-
पर आना । १३
धर्मराय ओर ज्ञानीजीका वार्तालाप ओर
कौल करार » | वचन
धर्मरायका ज्ञानोजीसे जगल्नाय को स्यापनाका
वचन लना „1 रै
सृष्टि उत्पत्तिको कथा वणन = |
तीन देवका प्रगट होना ओर आदि मायाका
तीनोका काम बताना
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(५६) ज्ञानसागरकी अनुक्रमणिका
{दय . पृष्ठ. विषय. पष्ठ.
नारदचरित्र ३१ कलिय॒ग मे कबीरसाहबका प्रागरचय ६७
दणदरित्र ३२ जगन्नायक मन्दिरकी स्थापना ६८
सतो दाहरणे कथा ३३ चन्दवारेमे कवीरसाहवका जाना ७ १
†शवको समाधि धुडानेकं लिये कामदेवका की मिलक कथा ५
न् रीके पूव जन्मको कथा
यत्न करना ओर नारदका कामवश ~ ~
बाललोला आर रामानन्दको गरु करनेका
होना तथा दिष्णुको शाप देना ३४ ल ७५
दिष्णुका दशरथकं घर अवतार लेना अर्थात् सिकन्दरशाहको वार्ता ओर रामानन्दजोका
रामकथाद्णन ३५ कत्ल होना ७७
ङष्णचरित्रवणन ४४ मगहर गमनको कथा १
पाण्डव यज्ञ तथा सुपच सुदशन कया-वणन ९५२ रतनाकी कथा ८ 9
कृष्णका स्वर्गारोहण ओर जगन्नायकी वि =
स्त ४ योग कमका वणन ८५
निकलंक अवतारको वार्ता ५५ व धः
क गेही रहनी ९०
उत्पत्ति परलयका लेखा ५६ आरतोका योगरूपसे वणन ९१
कबीर वचन योगको शेष्ठता ११
पूनोको बडाई ९२
3 गुरुवाकं लक्षण ९३
कृत्ययुगम कबोरसाहबका पृथ्वीधर आना ५७ गुरुलक्षण ९६
तरेतामे कबीर साहबका पृय्वीपर आना ५८ परलोकका मार्ग । सत्यलोक ओर हंसका
द्ापरमें कबोरसाहबका प्थ्वीपर आना ६१ वणन ९७
न्दुमतीको कथा -) भविष्यत् कथा । चक्ररयीका वणन १०५
इति अनुक्रमणिका समाप्त
॥॥५ 7
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+ ॥ च,
श १९
॥*५
पत्यघुकृत, आदि अदी, अजर, अचिन्त, पुरुष
नीन्द्र, कस्णामय, कबीर रति.योग संतायन,
धनी धमदाक्च, चररामणिनाम, यदशनं नाम
कुट्पति नाम प्रमोधयस्वालापीरनाम, कमल
नाम,अमोनाम, स॒रतिसनेदीनाम,दक्नाम
पकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम,
उग्र नाम, दयानामसाहबको दया
वरा व्याङोस्की दया.
|. 4
उक्थ ल्कखामर प्रल्स्ः
सोरगा-सत्यनाम है सारः ब्ूञ्लो संत विवेकं करि।
उतरो भव जरु पार, सतशुरूको उपदेश यह ॥
सतशुङ दीनदयाल, सुमिरो मन चित एक करि ।
छेड़ सके नहिं काल, अगम शब्द प्रमाण इमि ॥
वेदौ गुरु पद कंज; बेदी्छोर दयाल रथ ।
तुम चरणन मन रंज देत दान जोयुक्तिफल॥
चौपाई | > °
शक्ति मेद मं कौं विचारी । ता कं नहिं जानत संसारी ॥
बहु आनंद होत तिहि ग । संशय रहित अमरपुर गा ॥
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(२) ज्ञानसागर
तर्दैवा रोग सोग नरि होई । कीडा विनोद् करे सब कोई ॥
चंद्र न सूर दिवस नह राती ! वरण मेद् नहि जाति अजाती ॥
तर्हैवा जरा मरन नरि होई । बह आनद करं सब कों ॥
पुष्प विमान सदा उजियारा । अभरत भोजन करत अडारा ॥
काया सन्दर ताहि प्रमाना । उदित भये ज षोडस भाना ॥
इतनो एक हंस उजियारा । शोभित चिङ्कर तहां जनु तारा ॥
विमल बास तर्ैवां बिगसाई । योजन चार खँ बास उड़ाई ॥
, सदा मनोहर क्ष सिर ऊजा । बुह्च न परे रंक ओ राजा ॥
नटि तहां कार वचनकी खानी । अभरत वचन बोर भर वानी ॥
आख्स निद्रा नदीं पकासा । बहुत प्रेम सुख कर विखासा ॥
साखी-अस सुख है हमरे घरे, कद कवीर ससुञ्चाय ।
सत्त शब्दको जानिके , असथिर बैठे जाय ॥
न
सन धर्मनि मे कदो सथ््ञाईं । एक नाम खोजो चित रई ॥
जिरि सुमिरत जीव होय उबारा । जाते उतरो भत् जख पारा ॥
कार वीर बांका बड़ रोर! बिना नाम बाचै निं कोई ॥
कारु गरल रै तिभिर अपारा 1 सुमिरत नाम दोय उजियारा ॥
काल फास डरे गल मारीं । नाम खद्ध काटत परु मादी ॥
काल जंजाल रै गरल स्वभा ) नाम सारस विषयं बुञ्ञाञ ॥
विंषकी दर मतो संसारा । नरि क सृञ्चे वार न पारा॥
सुर नर माते नाम विहना । ओट खये ज्यो जर् बिन मौना॥
भक परं पासंड व्यवहारा । तीरथ वृत्त ओ नेम अचारा ॥
सुण जोग जगति जो गाव । विना नाम सुक्ती नदिं पते ॥
साखी-गण तीनोकी भक्ति, भूल. परयो _ संसार ।
कुँ कवीर निजः नाम विन, कैसे उतरे पार ॥
ज्ञानस्ागर ( ३ )
घमदास वचन-चौपाई
विन स्वामी दोह कर जोरी । कहौ असा नामकी डोरी ॥
निरंकार निरंजन नाड । जोतस्वश्पघुमरत सवठाॐं ॥
गावि विद्या वेद अनवा ।जगरचनाक्रियोज्योतिसङ्पा॥
भक्त वत्सल निजनाम कदाईं । जिन यह रचि सषि दुनिर्यांई ॥
सोहं पुरुष किं आहि निनारा । सो मोरहिस्वामी को व्यवहारा॥
जि्हिते दोय जीवको काजा । सो मै करटं छोड़ इर् खाजा ॥
दोह दयार दयानिधि स्वामी । बोल वचन सुधा रस वानीं ॥
नाम प्रभाव निज मोहि बताओ । रोह दयाल मम तृषा बञ्ञाओ॥
साखी-जो कुछ सञ्च सन्देह है, सो मोहि कहो सञ्ञ्चाय |
निश्चय कर गुह मानि, ओ वदो तुय पार्य ॥
साहि कबीर वचन-चौपाई
तुससों कहो जो नाम विचारी । ज्योति नदीं बड पुरूष न नारी ॥
तीन टोकं ते भित्र पसारा। जगममजोत जं उजियार ॥
सदा वसत होत तिहि गञ | संशय रहित अमरपुर गाॐ ॥
तैवा जाय अछ सो होई । धरमराय आवत फिरि रोह ॥
व्रनों लोक सुनो सत भा । जाहि खोकतें हम चलि आॐ ॥
जगमग जोती बहुत सुहावन । दीप अनेक गिने को पावन ॥
जममग ज्योति सदा उजियागा । करी अनेकं भगिने को पारा ॥
छद्
जर ज्योति जगमग अति सदावन तत्व वारिष अति चले ।
८हत दोह कुर तिमिर मनो पञ्च ्रदल इट ॥
फेन उडगन बहन लागे शसि मनोहर हेरि को ।
किमि देँ पटतर बूञ देखो भाव नहिं वहां जोर को ॥ |
सोरग-शोभा अगम अपार, वृणत बन पकषत
| करी नजात विसतार जो खल होवे पदमसत ॥ `
६९) ज्ञानसागर
ध्रमदाच वचन-चौपाई
हे स्वामी सोहि आदि सुनाओ । केसे पुरूष वह खोक बनाओ ॥
कैसे द्वीप करी नि्मीवा । रोड दयार सो मोहि बतावा ॥
साहव कवोर वचन
सुन इसा तोहे कब विचारी । रोकं द्वीप जिमि करी सम्दारी ॥
इते अदेद दुतिया नरि का । सुरति सनेही जान कडु भाऊ ॥
नरि तरा पांच तत्व परकाशा । गुण तीनों न छिनहीं अकाशा ॥
नहि तौ ज्योति निरंजन राया । नहिं तहं दशौ जनम् निमाया ॥
नरि तरद ब्रह्मा विष्णु महेशा । आदि मवानी गवरि गनेशा ॥
नरि तहं जीव सीव कर मूला । नरि अनेग जिहते सब एूखा ॥
नहि तहं षी सहस्र अठासी । षट द्रशन न सिद्ध चौरासी ॥
सात वार पन्द्रह तिथि नारीं । आदि अतनहिकाल्कोडछारीं ॥
च्छद
नहि कूर्म चक्रिय वारि प्वैत अथि वसुधा नारदी)
ञ्न्य विश्यन्य न तहां होई अगाध महिमा सो कदो ॥
जिमि पुष तिमि छाया राखो बास भरो ता संगं मइ ।
स्वरूप बृद्चो अगम आदि महिमा अक्षर अग मई ॥
सोरठ-प्रकर कदो जिमि रूप, देखो दय विचारिके ।
आदह रूप स्वद्प, जिर ते सकल प्रकाञ्च भयो ॥
चौपाई
तिनि भयो पुन य॒प्त निवासा । स्वासा सार तं पुड्ुमि प्रकारा ॥
सोई पुडुप विना नर नाला । ज्योति अनेकदोत ज्ञर् दाला ॥
पदप मनोदर सेतई॑ भाऊ । पुष द्वीप सवी निर्मा ॥
अजे सरोवर कीन्दो सारा अष्ट कमते आटो वारा ॥
पोडश सुत तबही निमावा । कद्र प्रगट कडु शत प्रभावा ॥
ज्ञानसागर ( ५ )
पुद्धुप द्वीप किमि करव बखाना । आदि ब्रह्म तवा अस्थाना ॥
सह संख पंखुरी राज! नौसौ पंख द्वीप तो जे ॥
तेरह संख स॒रंग अपारा । तिहिनहिजान का वरियारा॥
धमदास वचन
धमदास कहं सनो असाई । द्वीप अनेकं पुरूष के ठाई ॥
सो स्वामी मोहि भेद बताओं । दया करो जनि मोहि इराओं ॥
त॒मसों वरि कदां सत भां । मै मनो आज महा निधि पां ॥
सनत वचन गदगद सिर मोरा ¦ थकित भये जनु चंदं चकोरा ॥
म भुजंग त॒म मल्या गीरा । करइ दया मम इवित शरीरा ॥
साहिवि कवीर वचन
धर्मदास पछो जो मोहीं।सो चै भेद कों सब तोही ॥
कृमल असंख मेद कहं जाना । तहवा पुरूष रहे निवना ॥
मोही सतर दियो बताई । सो सब भेद कों चम पाइ ॥
सत्त पखुरी कमर निवासा । त्हवा कीन्ह आप रहि वासा ॥
साखी-शीश दरस अति निम, काया न दीस्तत कोश ।
पद्म संपुट ल्ग रहै, बानी विगसन होय ॥
चोपाई
प्रगट द्वार अब देखौ शीशा। धर्मनि दिये देखो अहै ध ईशा ॥
पार द्वीपं जरह निर्मल गोरा । सो सब मेद कदो कड आरा ॥
अब्र द्वीप रस को थाना । पाइर द्वीप पृष निवाना॥
नौ सो करी ताहि के रीग । गुरु प्रसाद सब इम दीठा॥
तहां आई पुन पाइर द्वीपा । मंच मंगलं करी समीपा ॥
तहेग जाई अल सो दौड । धमराज अव फिर रोई ॥ ॐ
द्वीप अनेक ओं करी अनेका । पाईर द्वीप इस के चका॥
चार करी है सबसे सारा । बह शोभा तह सूप अपारा॥
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(&) ज्ञानसागर
साखो-करी भेद सुन ईसा, आई देखु सत लोक ।
गुर् जो बतावदीं, मिर जाई सब धोख ॥
धमदास वचन-चौपाई
हे स्वामी यै विन तोही । कदु संशय जिव उपज्यो मोरी ॥
घमेराय नरि पायब दीपा ओर स्वे सुत दीप समीपा ॥
कारण कोन द्रस नहिं होई । कटौ अगम जनि राखो गोहं ॥
साहिब कबीर वचनं
जो तुम पूछो अगम सन्देसा । सो सब तोहि कौ उपदेसा ॥
आदि पुरूष अस कीन्हो साजा । पांच बुन्द इलास उपराजा ॥
बुन्ददि बुन्द अड परकाशा । धम धीर जेहि अड निवासा ॥
अट जोत सुरंग उजियारा । तर्हैवा अड रहै मनिथारा ॥
धम धीर जरी उतपाना। आदि व्रह्म तबदी सक्चाना ॥
एकि मूल सवे उपजाई । मेयो तेज अड इन्याई ॥
साखी-तेज रद्यो जिरि अड मो, तेर नदि शीन्दीं गैर ।
तेहिते उपज्यो धय अब, वेश्च अगिन के जोर ॥
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बावन लक्ष वेर अनमाना। मेटो न मिरत शब्द परवाना ॥
एकटि मूर सवे उपजाई । मिटे न अड तेज अन्याई ॥
धमेराय दै काल अकूरा। उपजो तहं काट को मूरा॥
तबहि पुरूष अज जगत विचारा । रहै धमे द्वीप सो न्यारा ॥
जपे रहै सदा सवि काई। तो एकं द्वीप तुमि निर्माई ॥
पुङ्ष शब्द ते सवे उपराजा । सेवा करं सुत अति अनुरागा ॥
जानें भेद न दमर कोई । उत्पति सबकी बाहिर दोह ॥
अभिभन्तर जो उत्पति होई । काया द्रश्च पाय सब कोई ॥
दर्श सुरति इक प।वे । संगहिं द्वीप सवे निर्मावि ॥
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` धावहि दशदू दिशा रिसाई । कते अंडं केडं मै जाई ॥
ज्ञानक्षागर् ( ७ )
धर्म धीर नहि पवे द्वीपा । ओर सवे युत द्वीप समीपा ॥
धर्मराय अस कीन्ह बनाई । कर सेवा तेहि जागदहिं आई ॥
सेवा बहुत भांति सों किणड । आदि पुरूष तब इषित भये ॥
साखी-सेवा कीन्ही धमे बड़, दियो गौर अब सोय)
जाय रहो वहि द्वीप मर, सेवा निफर न दोय ॥
चौपाई
सात द्वीप को पायो रानु । भयो आनन्द धमं मन गाजु ॥
सेवा करि पुन कीन्ह निहोरा । खनो सहज तम जाता मोरा ॥
सेवा बसहि दीप मै पाड । केसोरचो मोहि गम्यन आए
पुरूष सों विनती कर् यह भारी । ह आता नँ वम बलिहारी ॥
करिहौ सोई जो आज्ञा पाऊं । कैसे मै नव खंड उना ॥
चरे सहज जर द्वीप अमाना । कीन्ह जाय दण्डवत प्रणामा ॥
बहुविधि विनती सहज कियोजवही। बेग युहुप बानी भइ त ही ॥
पुरूष वाणी ते भया उजियारा । सुनह सहज तुम वचन हमारा ॥
पक्षि पालना पाय है अडा। सो ठे धमे रच नव खडा॥
चरे सहज तब बार न खावा । धमं धीरसों मता खनावा ॥
साखी-सुनत संदेशो पुरूष को, धमं शीस तब नाव ।
पायो आज्ञा पुरूष की , अब फाबी मो दांव ॥
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सुनत संदेश भयो हरता । आन अड. जो चरे तुरता ॥ `
देखो धमे जब ङम शरीरा । बारह पारग है बर बीरा ।
नव पालंग ध भमाना । कने न घात तव कर तिना ॥
कीन्ह डे = तोरि शी स छि ए 8 882 =
तवहि जक्ति अस कीन्ह बनाई । तार शास अस करयो उषाई ।
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ज) तब ४ सों (4 द ४ 1 8 निके) (क ^+ रिषि इ ॥ #==
$ ४ नख ॥ ५ 1 + &, ॥ न क
(< ) ज्ञानसागर
शीस तोरि छियो द्वीप अपारा । तबहि धमं मयो बरियारा ॥
पांचो तत्व अडसो लीन्हा । गुन तीनों सशीस कर कीन्हा ॥
पांसौ तत्तव तीन शुन सारा । यरी घम सब कीन्ह पसारा ॥
तब कियो नीर निरंजन राया । मीन हप तबरी उपजाया ॥
करि चरि घमं तब आया । आज सहज सों विनती लाया ॥
साखी-जाय कहौ तुम पुरूष सो, बहु सेवा भै कीन्द ।
सब् सुत रहि खोकमर्ह, नव खड हम कर दीन्ड ॥
चौपाई
इतने में नहि मोर रहा । जर्हवा रहव देव मोहि उड ॥
चरे सहज पुरुष पर जबहीं ¦ विनतौ धम कीन्ह पुनि तबहीं ॥
मांग्यो बीज कीन्ह बड रोभा । जति दीप पावों मे शोभा ॥
सृदज विनय पुरुष सो कन्दा । हे स्वामि तुव सुन बरु रीना ॥
मनि ओर टर पुनि सोई। धमे धीर जो तुव सत बर रोई ॥
अति अधीन ममि जो बीजे । सोहे द्रीप पुष्प वहि दीजे॥
तबि पुरुष सेवा वश भयऊ । अषठांगी कामिनि सो दयः ॥
मान सरोवर ताकर नाॐऊ। सोर दियो ध्म कर गरड ॥
अष्ठांगी कन्या उत्पानी । जासौं किये आदि भवानी ॥
ङ्प अनूप शोभा अपिकाई । कन्था मन सरोवर आई ॥
साखी-चौरासी लक्ष जीव सव, मूर बीजके संग ।
ये सब मान सरोवरा, रच्यो धमं बड रंग ॥
1.1
सहज संदेशो स्याये जर्दैवा । धम धीर ठादे है तवा ॥
कृद्यो संदेश धमै मन गाजा । मान सरोवर जाइ विराजा ॥
साखी-देखि शूप कामिनि को, पर भर रद्यो न जाई ।
आगे पीछे ना सोचिया, ताको टीन्हेसि खाई ॥
ज्ानक्तागर् (९)
चौपाई
कन्या सों अस्त कीन्ह अन्याईं । सदजसों छियो जो तुरत छडाई॥
यदे चरित पुरूष जब देखा । दीन्दं शाप सो कहां विशेखा ॥
सवा लक्ष जीव करौ आहारा त न उद्र भरे तुम्हारा ॥
खमिरन कूम्मं पुरूष को कीन्हा ¦ अहहो पुष धरम सिर डीन्डा ॥
त॒व आज्ञा म अंड जो दीन्हा । धमराज काहे सिर ङीन्डा ॥
सुनत वचन प्रथु बहुत रिसाने । जोगजीत तबही उतपाने ॥
आज्ञा भई तुम वेग सिधारो । धर्मराज कँ मार निकार ॥
आज्ञा मांग चरे तब ज्ञानी । ध्मेराय सो बति. उनी ॥
अरे पापी तू पुरूषको चोरा । भाग बेग कहा सखन मोरा ॥
सुनतहि कोध भये धम धीरा । जोग जीते सन्घख भीरा ॥
जोग जीत तबदीं फटकारा । जाय रहौ तब लोकते न्यारा ॥
जोग संतायन चर भये जवदी । धम धीर आयौ पनि तवही ॥
बार अनेक युद्ध जिरि कीन्हा । मारे न मरत बहत ब कीन्हा ॥
घरमराज वचन्
तव मे हतौ पुरूष के ठा । तब नहि स॒न्यो तम्हासौ ना ॥
को तुम हौ सो मोहि बताऊ । सहज भाव तुम फेर बना ॥
जानी वचन
धम धीर सों कहा बखानी । मर्दन धमं नाम मम ज्ञानी ॥
` जब तुम कौन्ह चार का काजा । तातं पुरूष मोहि उपराजा ॥
मारहुं तोहि कदौ सतभाऊ । अष्टांगी तै कामिन खाऊ ॥
सुनतहि कोध धरम पर जरेऊ । जरत इताश मनह् घृत परेड ॥
साली करई यद्ध बहु भातिसो, कैसेहक्षमानदोय।
क्षण एक छुरय सहज त॒म, करु उपाय अब सोय ॥
६.३२ ) ज्ञानसागर
चौपाई
पुरूष आज्ञा अस भयउ अपारा । मारह धम के माञ्च कपारा ॥
आज्ञा पुरूष ज्ञानी दियो जबरी । मारौ शीश परो खस तवदी ॥
संशय भयो तास की देहा । ताक भयो जी महं संदेहा ॥
घम धीर कौ रूधिरसे जवी । विषम सरोवर उपजो तवबही ॥
कन्या निकस जो बाहिर आई । संशय काल तिरि घटदि समाई॥
शीश दियो ठे कम्मे के पासा । पुरूष आज्ञा सों कीन्ड निवासा ॥
आज्ञा कीन्ही बेग निकारड । करै जोड अब धमं सिधारह ॥
छाड्इ अंश खंड का गा । विषम सरोवर मारि सा जाउ ॥
देखो बहत खूप उजियारा । अस कामिनितें कन्द अहासया ॥
फिर चै गयो पुरूष के पासा । धम धीर अस करहि तमाशा ॥
कट् कामिनि सुन पुरूष पुराना । ये अपना क्कु मरम न जाना ॥
कोन पुरुष मोरी उपजाई । सो मोहि गम्य कौ सञुश्चाई ॥
धमराय वचन ्
कन्या य उपजायो तोदी । रदो अलख नरह मेंटसि मोदी ॥
कृन्या कड सुन पिता हमारा । खोजो वर दोय व्याइ दमारां ॥
वर खोजौं जो दुतिया होई । कन्या मे अब व्याह तोही ॥
पुरी पिता न होवत व्याहा । पितदि पाय बहते ओगाहा ॥
साखी-धमे करै सुन कन्या, भम भयो मति तोहि ॥
पाप पुण्य इमरे घरे, क्या उहकस ते मोहि ॥
चौपाई
आदि भवानी ओर धमेराॐ । इन सब कीन्ह सृष्टि निमांऊ ॥
पांच तत्व तीन गुण रदे । बीज सहित अष्टांगी दए ॥
चौरासी लक्ष जीव दियो सम्दारी । रच सृष्टि अब आदि कु्ांरी ॥
सेवा कर॒ सृष्टिकी ओरा । अलख निरंजन नाम है मोरा ॥
ज्ञानन्षागर् (११)
कहै भवानी सुनहर निरंजन यह मन्व निजं सो$ भले।
अस करहु रफ कपाट दै सब जीवे जाहि ना चे ॥
दस चार सुत दीजे भयंकर जिहितै हेय आस हो।
तिहु खोक होत टा पटा अब चार जगन निवासं डो ॥
सोरटा-चौदह वीर अपारः चित्त दु्गदानी सम ।
आन देहं अहारः, सवा लक्ष जिव रात दिनि ॥
चौपाई
जस कष्ठ मत कियो आदि मवानी। घरमराय देसी मति अनी ॥
जाइ रहौ जो पांजी वाका । धरती शीस सरग का नाका॥
दशौ दिशा रथे सब ठा । है द्वार मै कडि सञुञ्चाॐ ॥
गुरू जो करै ओं पन्थ वबतावे । ओहि पन्थ ईस घर अवे ॥
धर्मराय सूदो वह द्वारा । तबहिं भवानी युक्ति विचारा॥
तीनों गुण तिय अण्ड सम्हारा । पुनि भाखो आगिरव्यतडारा॥
नाम करौं कह राखो गोह । रजग॒न तमशुन सत्न डोड ॥
अष्ठांगी. अण्डन मन दीन्दां। धरमराय कड उद्यम कीन्डां ॥
मीन कूपजो प्रथम सुभा ता पीछे कर्महि निर्मा ॥
ता पीछे बाराह को थाना। ता पर उ कोन्ह उतपाना ॥
चन्द्
अस कीन्ह सबदि निरंजना तब दीन्ड मही कोथेग हो॥
महीतल दीन्हा मीन कच्छप सूकर दीन्हा रेष. हो ॥
सुम्मेर पर्वत अति धुरंधर दीन्ह मही जो नाचे ॥
दशौ दिशा दिग्गज चार दीन्ह जिदितें मही ना ग मगे॥
सोरड-दीन्हौं महि कौ भार, वारी जगत ल्गायके ।
जाकौ तमहि अपारः चतुर विधाता ठ्गभये॥
( १२) ज्ञानसागर
धरमदास वचन-चौपारईं ।
धर्मदास ॒टेके गहि पाड । नाम जमन को मोहि सुना ॥
चौदह यम मोहिवरनी खुनाओ। दया करहु जिन मोहि दुरावो॥
साहेव कवीर दास
दुग दौनी चिगुप्त वरियारा । एता जमन के दै सरद्ारा ॥
मनसा मह अपरबरु मोहा कारू सेन सकरदी मोहा ॥
चित चञ्चल ओ अन्ध अचेता ! मृत्यू अन्ध जतन जो खेता ॥
सुरा संख ओर कमं रेखा । भावी तेज ताडका पेखा ॥
अभि ओ कोधित किये अन्धा । जा जीव जन्तु सब बन्धा ॥
परमेश्वर अप. धर्मेराया । पाप पुण्य सवसो बिरुछाया॥
ये सब जम जो निरेजन कीन्हा । लिखना कागज रचकं दीन्हा)
छन्द
चिरयपत रेखौ . लगवोँ बधु दोडइ चतुर भर ।
लख चौरासी रसन जाके खखि लावत के छले ॥
' ठेखा लगावत जोव को जब अवधि पूजे आई दो ।
सवा लक्ष प्रमाण बाध्यो ठग निरजन राई दहो ॥
सोरठा-षेसा कीन्द विचार, वारी जगत खगाय क ।
भूल परो संसार, एक नाम जाने विना ॥
1 चौपाई
देख भयंकर जम की काया । चौरासी लक्ष जिव डरपाया ॥
विकट रूप देखत जम पासा । सब जीवन भये जो बहु जआासा॥
सब मिलि के तब स्तुति ठाना । सुमरण एकटि आद् प्रवाना ॥
यहि विधि विनती हसन टानी । तबि भई धर अधर तें वानी॥
वानी विगसत भये उजियारा । जोग संतायन तब पगुधारा ॥
आज्ञा कहा पुरूष मोहे कीजे । करब सोई जो आयु दीजे ॥
ज्ञानसरागर ( १३२)
पुरुष वचन
हस दुखित भये कार के पासा । जाई इडावह कार्की फसा ॥
कहा करो जो हारो बोला । बरवस करव तो सुकृत डोला॥
जोग जीत तुम बेग सिधारो । भव सागर ते ईस उवारो ॥
ज्ञान (वचन
चे ज्ञानी तब मस्तक नाई । प्हैचे तहे जरै धरम रहाई ॥
धर्मराय ज्ञानी करै देखा । कोष भयो ज पावक रेखा ॥
यर्हेवा आये किरि व्यवहारा ! छोकदि से मोहि मारिनिकारा॥
मानेव आज्ञा छांड़ि रोका । यही जान परे तुम धोखा ॥
करो सदार सहित तोहे ज्ञानी । मरम इमार त॒म कड नजानी॥
साखी--सदार करौ पक भीतरः कटौ वचनं प्रचार ॥
पेलो मान सरोवर? विध्वेसौ द्वीप सब आर ॥
च पि
ज्ञानी कह सुन धर्मनि आगर । तो कह ठर दीन्ड भवसागर ॥
तीनौ पुर दीन्हौं तोहि राज । पुरूष आज्ञा आयो धरि पांड॥
चौरासी रक्ष जीव तोहि दीन्हा । तै जीवन बड़ सासत कौीन्डा ॥
आज्ञा पुरूष करौ परवाना । जीवं खोक सब करौ पयाना ॥
पुरूष वचन मेटे फर पावहु । किंयो अवज्ञा लोकसे आवइ॥
सोह करहु रहन जो पावहु । की यवो ते वेग सिधावहु ॥
कै जीवन कहँ दीजे बांटा । बोल्ड वचन धमं तुम छं ॥
साखी-धरम क सुन ज्ञानी, आज्ञा पुरषं की सार ॥
सेवा करत रेन दिनि? पर परु सहित विचार ॥
पा
आज्ञा मान लीन्द भै तोरा । अब सुनिये कड विनती मोरा॥
सोना करब जो मोर विगारा। मांगो वचन करो भरतिपारा॥
पुरुष दीन्ह मोरे राज बुराई । तमहीं देव जो संशय जाई ॥
( १९) ज्ञानसागर
लीजे ईस जो भक्त परमाना । तीनों जग है मेरे थाना॥
सोथा जग तबरी उत्पानी । तबहि सम्हार सुनो दोज्ञानी॥
कैसे सम्हारो मोरी समञ्चावहु । की भक्ति जो मोदि सुनावड॥
कहं धर्मं सुन जोग संतायन् । एेसे हस न दोय सुक्तायन् ॥
हरि मन्दर भ रचौ बनाई । तर्हैवा दस करत मम नाई ॥
जो कोई गम्य न केरे विचारा । सात जन्म रँ चोर मारा ॥
सुन ज्ञानी विसित मन कीन्हा । केसा इरि मंदिर का चीन्डा ॥
धमरायवचन
जब मम कन्या भयो प्रसषगा । मनमथ उपज्यौ मयौ उमंगा॥
चल्यौ रुधिर कामिन केजरी । नख रेखा मग उपजी तबही ॥
चल्यो रुधिर ताको रज भए । गम प्रसंग अड तिय ठण्ड ॥
तहि प्रसग तिय शण उपराजा । तबते अधर निरजन राजा ॥
साखी-ज्ञानी करं धमं सो, छल मतौ तुर्ोर ॥
जाको में चतावहूः सो तुमहीं सो न्यार ॥
च पाड |
विनती तोर करो प्रतिपाला । जग तीनों जीवन वर साखा ॥
चौथा जग अंश मम आवहि । नाम प्रताप ईस शक्तावहि ॥
घधमरायवचन्
हे स्वामी वर आयसु होई । कद मांगों अब दीजे सोई ॥
सोन करब जो सब जिव जाईै। भवसागर खारी परजाई ॥
एेसा मत ज्ञानी तुम र्गोनहु। आज्ञा पुरुष की तुमह मानडू॥
पुरुष बोल दारा मोहि पादीं । सोन करब जो सब जिय जारी ॥
कृद ज्ञानी सब भ मानी । क्यौ वचन सो करब प्रमानी॥
सतज्ञग ता द्वापर जाई । कलियुग को प्रभाव जब आई॥
चार अश मै कीन्दौ थाना। खट गरौ तो नहीं भमाना ॥
ज्ञानघ्ागर ( १५)
धमरयवचन
साखी--वोवन नरसिंह अंश ममः, प्रसराम बलवीर ॥
रामचन्द्र आगे करौ, तब पुनि कृष्ण शरीर ॥
चोपाई
कृष्ण देह छांडव मैं जिया । कडिथुग चोथायुग होय तद्यो
तब हम करिह बौद्ध शरीरा । जगन्नाथ सरोवर के तीरा ॥
राजा ईद दवन पर्वोना । मंडप काम लगाव तर्वोना ॥
मंडप तास उटन नहिं पाई । सायर उममग _ खसावन आई ॥
तब ज्ञानी पे यह बाता | तोहि ते उपजे सायर साता ॥
जगत्राथ ते कष्ठ बनाई । सायर कवन भोति खसाई ॥
हस्यो धमं कहि सतौ अपाना । कहौ करतत खनौ परिाना ॥
दैत्य अनेकं जीव जो मारयो । अंश मोर तेहि जाय सहर ॥
राम रूप जब होय इमारा । तिनसौ होइ है दोड अपकारः ॥
दैत्य अनेकं जीव को केरा वाछि वधे ओ सायर तेरा ॥
वालि वैर में तरत दिवायव । व्यादि फौसी सोक्ृष्णमरायव॥
साखी--सायर बेर ना पाव, करि है बा सौं घात ॥
मंडप उन न पाइ है, जातें कहौ अस बात ॥
चौपाई
ह ज्ञानी अस मतौ विचारड । ्रथमहि साग्र तीर सधारडइ ॥
मोर थापडु मैं करहु निहोरा । ततिं भाव जुरे नहिं. मोरा ॥
मण्डप उ अटल हो राजू । पुरूष वचन कह तम कहं छाजू ॥
पिले थापहु मो कहँ ज्ञानी । सागर तीर बेर अन्तर्यामी ॥
कै जोग जीत सुनो धमम॑राई । पुरूष बोर मेटा नहिं जाई ॥ '
सतज़ग तेता द्वापर मादी तीनों चग अंश मोर जें जादीं॥
कोई कर ईस शब्द जो पावईं। तीनौ चग जीव थोरा आवह ॥ _
कलियुग मोर मदुष्य शरीरा । जा करद सनियों नाम कबीरा ॥ _
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( १६ ) ज्ञानक्ञागर
जो जिव नाम शरण गति आवे । होय निशक लोक कर जावे ॥
ओर इकोतर नामहि पावे । तुम कह जीत दंस घर आवे॥
मोग्यो वचन करो प्रतिपाखा । जग तीनों जीवन वरशाला ॥
जातें पुरूष वचन अब रहारा ! करौ सो वचनन के प्रतिपारा॥
साखी--जगत्नाथ मे ्थापब, जायब सागर तीर ॥
हंस रोकं ठँ आएब, देह जब धरब कबीर ॥
चोपाई
यटि प्रकार आयो ज्ञानी जबहीं । मारयो तुरत बांधके तबदीं ॥
कियो अवज्ञा गरस्यो नारी । मान सरोवरते मार निकारी ॥
धरमराय वचन
हे स्वामी मे कहौं विचारी । रोकौ न हस जो शरन तुम्हारी॥
जो कोई जीव जो होय तुम्हारा। अपने काधि उताररौ पारा ॥
साखी-यह चरि सब ज्ञानी, कीन्ह धरम के पास ॥
जाय कल्यो तब् परप सौः सुख साखर कन्द निवास॥
पा
अभेपक्च ज्ञानकी कौ द्वीपा । तदी सत्ताईस दीप समीपा ॥
तर्हैकी कारु खबर नं पाईं । तरे न सतादे कारु अन्याईं ॥
घमदास वचन्
ध्रमदास तब कीन्ह प्रमाना । अगम अपार सुने यह् ज्ञाना ॥
हे स्वामी यह कटौ बुञ्ञाई । कौन मते अब स॒ष्टि बनाई ॥
सो विरतत कदौ सथुञ्ाईं । जिरि ते मन की संशय जाह ॥
तुम्दरे वचन मोहि सार शसाईं । सुन दषेब धन रंक की नार ॥
साहब कबीर वचन
कृटै कवीर सुनौ धमंदासा । जब कन्या कष्ठ कीन्ह तमासा॥
तीनों अण्ड भये तिय वारा । ताके ङूप भये अधिकारा ॥
ज्ञानस्षागर ( १७ )
रजशुन भाव ब्रह्मा उतपानी । सतगुन भाव विष्णु कोजानी॥
तमशुन भाव श्दर का रेखा) तीनों युन तिय अड विशेषा ॥
जब देवी तिन सत उतपाने। धरमराय निद्रा अरुसाने ॥
सोवत चार युग गय बीती ) इक् युग प्रथम अंडसौ प्रीती ॥
उठि जागे कोई जान न मेदा! ताकी स्वांस तैं चारौ वेदा ॥
स्तुति वेद कियो पुनि तर्हैवा । चतर हप विधाता जहवा ॥
मीनङ्प जो कीन्ह बनाई! तीन डि रह बोथे गह ॥
जो तुम संशय करट धर्मदासा । बेद चरिते अब कौ प्रकाशा ॥
कूम्मं घाव कियो काल अन्याई। इद् परसेदं तदो पुनि - पाई ॥
एक वंद धरती परगासा । दसरा इन्दं वट मारीं नि्रासा॥
बुद् प्रभाव वेद् भये ताही। रेषे बुन्द की. उतपति.आदी ॥
ओर चरि जप कीन्ह भवानी। सो अब तमसो कडा बखानी ॥
साखी-तीन देव जब उपज, बह्मा विष्णु यदेश #
कर जोरे स्तुति कर, तें अब कहौ संदेश ॥
आज्ञा कह मोहि माता, सोह कहौ सशरञ्ञाइ ॥ ,
सोई करब हम निहचे, बोके तीनो राइ ॥
ब्रह्मा करड तुम सृष्टि उरेहा । जात जीव धर सब देदा ॥
कैसे करहि सो युक्ति बतावहु । क्रिया करह जनिमोहि दुरावडु॥
सतन पिरे भयो उतपानी । तेतिष्त कोरी देव बखानी ॥
रजगुन तमयुन अंड जो भयऊ। दैत्य अनेक तबि निरमयऊ ॥
दैत्य देव सों होय संमामा। जो में करौ करब सो कामा ॥
जाय खनावहन सागर साता । जातिं देत्य न करं उतपाता ॥
सागर नीर करौ उतपानी । जाते देत्य गति रहै युलानी ॥
रचौ सिन्धु जल होय अपारा । तब कहि दौ आगिर व्यौहारा॥ _
¢ शष्ट ) ज्ञानसागर्
चल्यो ब्रह्मा साति सिरनाई । सोच रद्यो कस करब उपाई ॥
हतक जने परिश्रम कीन्डा । चलो प्रस्देद् सोई पथ चीन्दा॥
साठ सहस्र बुन्द अनुसारी । इन्द् प्रभाव समे नख धारी ॥
नख धारिनं स्त॒ति अनुसारा । कहा करं सुन पिता दमारा ॥
ब्रह्मा वचन
साखी --खनहु सिन्धु मम वचन इम, मन् कटौ समुञ्ञाय ॥
सारी उढे ज खनत मह, ता कड घाखिबि खाय ॥
च,पाई
चतुर रूप कीन्हा तिन चारी । करौ नार सवते अधिकारी ॥
रचा सिन्धु कंड लागि नवाय । सागर सात रच्यो विस्तारा ॥
सागर नीर जब भयो प्रकाशा । नख धारि तब काट गरासा॥
सागर रचि ब्रह्मा अनरागा । अडसठ तीरथरचन तब खागा॥
साखी -गङ्ा यथुना सरस्वती, गोदरी समान ॥
रची नदी तब गंडकी) जह तदहं शिख उत पान ॥
चौपाई
सालिग्राम गंडक अंङ्ूला । पान पूजत पंडित भला ॥
ओर नर्मदा नदी गोदावरी । सोनभद्र पुनि करमनासावरी)
ओर अनेकं रच्यो विस्ताया ) जाते भू परयो संसारा ॥
सिन्धु सम्हार गये देवी ठाॐं । चतुर सुख आन गहे तब पाडं॥
हे माता आज्ञा तुम मानी । स्च्यो सिधु तुव वचन प्रवानी ॥
भावाना बदन
मथौ सिन्धु सुत कदा दमारा । वरिम वेदौ कामिनि वारा ॥
तीनों जनँ चले सिर नाई । मथन सिन्धु कंस करब उपाई॥
परवैत आनि मथनियां कीन्दा । फनपति छेद फाहरी दीन्हा ॥
मथतहि षिन्धु मतौ अस कान्दा। आपन अंश उतपानर्ह लीन्दा॥
ज्ञानस्ागर ( १९. )
अंश बारि मँ पाये जबहीं । कन्या तीन उत्पन्न भई तवहं ॥
पाय कन्या तब भये आनन्दा । देवी पास चरे तिय संमा ॥
कै कन्या तव॒ आगे कीन्हा कर जोर प्रणाम मन दीन्हा ॥
साखी-दे माता यह कन्या; पायो सिन्धु मञ्चार ॥
जस कड आज्ञा कीजिये, तस क्कु करब विचार्॥
भवानां वचनं चपादइ
के भवानि सुन ब्रह्म कर्वरा कामिन के तुम सदा भरतारा ॥
सावित्री ब्रह्मा कहे दीन्हा । खक््मी कृपा विष्णु पर कौन्दा॥
पारवती रहि संकर पादीं । गट अहिवातकग्यो भवमारी॥
वायो कामिनि भयौ इलासा । बहुरि विनय कियो दैवी पासा
हे माता तुव आज्ञा सारा! जो कड कहा सो करो विचारा॥
कहे भवानी सुन बह्म कर्वरा । जाई मथो अब सागर खारा ॥
पटटौ वस्तु सो आनह जानी ) अस क बोली आदि भवानी ॥
चठ देव चिय लगन वारा । मथ्यो सिन्धु करि इवे अपारा॥
पायेवेद ब्रह्मा सो लीन्हा । विष्णु भाव सो रमहू चीन्डा #
साखी-चार वेद ब्रह्मा लिया, अमृत विष्णु सम्हार ॥
मथे अनिर जो ति् भया, सो लीन्हा अिषुरार ॥
ई
यह चरि चयं देव बनाया । यहि सुधि देत्य सुने जब पाया॥
आई कीन्द सब बाद विवादा । पायहु वस्त॒ वेड मोर आधा॥
वेद अनिर विष सन् तुम रू । सुधा आहि सो इम कंडं देहू ॥
फे विष्णु सन दैत्य अधीरा । खदा खाइकर विपति शरीरा `
दोनो मिट अस कीन्ह विचारा । सब मि खये अग्रत सारा ॥
दोई पाति ठे भल जोरी । दत्य देव तैंतीस करोरी॥
विष्णु चसिि काहू नदिं जाना । बटत अमृत छ्छजोटठना॥
क 3 (न
| ॥ धि भु > क.
` "व ५५ कः
(२० ) ज्ञानस्रागर
साखी-देवन अपरत पानयो, काह न कोन्द प्रसाद् ॥
बाटत राहू तब भ्रस्यो, चन्द्र मायु कियो बाद् ॥
चौपाई
जब सब मिकिकि आयस पाई । सभा वैठ कैसे के खाई ॥
सुनक विष्णु कोध तब कीन्दा । चकर मार राइ सिर. छना ॥
अमत परयो ताहि के पे । शीश के राहु देद सो केता ॥
भयौ यद्ध दोनों दर भारी । बहत दिन ररे जो बेर सम्दारी ॥
चन्द्र भाव जो राहु भरावा । भासे जान बेर को भावा ॥
यह चरित भयो सागर तीरा । देवी पास चले जय वीरा ॥
तब् देवी अस मतौ विचारा । रचहु सषटिजग दई उजियारा॥
अडज माता किया उतपानी 1 पिडज् भाव बरह्मा को जानी॥
उष्मज विष्ण कीन्ह व्यवहारा । शिवकीन्दौ रोम अगसी धारा॥
लख चौरासी योनिन कीन्हा । आधा जल आधा थर दीन्डा॥
साखी-जलके जीव पताल सद, ओ पृथ्वी प्रचंड ॥
रचो अहार शभू समे वनस्पती को अग ॥
पा
स्थावर महेश जो कीन्हा । उष्मज दोह तत्तत कर चीन्हा॥
तीन तत्तव अंडज य दीन्हा । चार तत्व पिडज को कोन्दा ॥
मुक्ति सेर नर कौ अवतारा । ता म्ह पांच तत्व ह सारा ॥
ओर जो इन मे बरत भाज । मनुष्य जन्म मे प्रगट स्वभाउः ॥
मनुष्य जन्म उत्तम सो होई। विना नाम पुनि जाइ बिगोई॥
स्वासा सार ति वेद जो भए । सो पुनि मीन पास ठे धरेखः॥
एकि सुरति तब ब्रह्मा पावा । तेहि पटिबे का मन चितलावा॥
वेद पटृत बृञ्च अस परेः । पृथ्वी आकाशजोत अनुसरेड॥ .
साखी-निराकार निरंजन, सृश्ि कन्द उतपान॥
मरे जानौं भल मरम अव, नहिं कीन्द्यो आदि भवान॥
ज्ञानस्रागर ( 2१ )
चौपाई
चङे बरह्मा माता पर आये । दोई कर जोरिक विनती लाये॥
हे माता चै प्रश्ण तोदीं। जो पँ सो किये मोदीं॥
कोन पुरुष युहि कीन्ड प्रकाशा! सो सब मात कहो मोहि पासा॥
कहे भवानि सुबु व्रह्म क्वारा । पृथ्वी अकाश मे अचुसारा ॥
मे कीन्हा दतिया नहिं को । तुम कंस भूरे सो कड भे ॥
हे भाता भ वेद विचारा रै कोई शन्यमें सिरजनहारा॥
निरंकार निर्न राया । ज्योतिअवार अति शणगाया॥
साधु साधु कहि आदि भवानी । आदि पुङ्ष जेहि तें उत्पानी ॥
कहां अहै सो मोहि बताओ) कृषा करो जिन मोहि राओ
साखी-चरण स॒प्त पाता ई सात स्वगं दै माथ ॥
पुहुप लेकर परसो; जामे दोह सनाथ ॥
चौपाइ्
चले ब्रह्म मातहि शिर नाई । उत्तर पन्थ सुमेर्हि जाई ॥
जाइ गढ भये तिरि अस्थाना । शून्य आद् जह शशिनहिभाना॥
बहु विधि स्तुति ब्रह्मा करई । ज्योति भभाव ध्यानअस धरई ॥
दुखित सुतं जो भई तुम्हारी । स्तुति करत भये जग चारी ॥
यड विधि बहुत दिवस चलि गएड। आदि भवानी मन चित ठएऊ॥
जेठा पच जो जह्य कुवारा । कहां गयो वहं पुत्र हमारा ॥
साखी-अब मँ करब उपाय सो, जिर ते बह्मा आय ॥
गायज्ी उतपानऊ, ताहि कही सञचुञ्चाय ॥
चौपाई
बरह्मा गये पिता के गंँर। पिता दरश अजहू नरि पाई ॥ `
बहत दिवस भये बेग ठे आवह ।बहुत भांतिकर तिहि सस॒ञ्ञावइ॥ _
चली गायत्री ब्रह्मा पासा । तिनसो जाइकर वचनश्रकाशा॥
( २२ ) ज्ञान॑स्ागर
पुदुप खेकर दरशन आहु । पिता द्र अजहू नहि पाएड् ॥
बरह्मा करै कवन ते आरी मोर मरम पाये कि पादी ॥
द्गन्
आदि भवानी मोहि उपजाई । तुमहि खेन को यहां पटाई ॥
चल्ड बेगि जिन लाह बारा तुम विन सृष्टि न दो अनु सारा॥
कंडे ब्रह्मा केसे मे जा । पिता दरश अजहू नरि पाड ॥
एक उपाय चलो सुब बाता । तो कहं बात पृचिहै माता ॥
मोरे हित कह ठ स्वमा! तो तुव संम अब धारौ पा ॥
गायनी कहं आयसु रोई । पुन परमारथ है बड सोई ॥
चौपाई
साखी- चु ब्रह्मा माता पर, होवे सृष्टि उपाय ॥
जठ वचन मे भाषिके, जाय सुनाइब माय ॥
चङि गायत्री बह्मा साथा । माताप्रेमसोँ द्भ्यो माथा॥
कुशल प्रभाव सोँचरम्यो शीसा। ओर मातु दियो बहत अशीशा॥
केसो भयो तहां तोहि भाज । सो सब ब्रह्मा मोहि सनाञ॥
ब्रह्मा कटै सुनो हो माता । यह पछी गायञ्री बाता ॥
गायिहि आज्ञा भई जवदी । अचरज बात कदी कु तवदी॥
परस पुपर पितु दी माथा। देखो सवे रही मे साथा ॥
आदि भवानी बहुत षिरहैसानी। दोर ञ्जूठ कदी सहिदानी ॥
ज्येष्ठ पुत्र मम व्रह्म वारा । बहुत श्चूठ तिन वचन उचारा ॥
ब्रह्मदि शाप दियो तब जानी । रोह अपूञ्यकटि आदि भवानी ॥
ओ कमलकेतकी अस अविश्वासा। निरधिन टर तोर दौड बासा॥
गायत्री होई वृद्ध भरताग । पांच सात ओं बहुत पारा ॥
साखी-धाप्यौ ब्रह्मा गायत्री) फिर पारे पञताय ॥
` क्रोध क्षमा निकोन्देऊ अबकस करे निरञ्जन राय॥
ज्ञानस्ागर ( २३)
चौपाड
ततक्षण भई अकाश तै वानी । नहिं भर कन्दी आदि भवानी
उंचे होड जो नीच सतावें । ताकर बैर मोहि सन पव ॥
ले बेर सन कहा हमारा । तोरे हेड ई पञ्च भर्ता ॥
सतयुग उतायुग जेर जवद्ी । द्वापर को प्रभाव होय तवी ॥
राजा द्रपद घर तो अवतारा । दरौपदी नाम तोर उजियारा ॥
पांडव रोई है केत तुम्हारा । निय मानह कदा इमाय ॥
शाप बेर देवी जब पावा) सोच केरे मनमें पछतावा ॥
साखी-सोच करा कह अब मे, दुर्गं निरंजन राई ॥
आह परी वस अधम के, विष्णुहि देखौ जाइ ॥
चोपाडं
सुनहु विष्णु तुम कहा हमारा । बेर गमन कर सप्त पताखा ॥
जाय पिता कर पर पाॐ।सो सब विष्णु तोहि सथुञ्चाडं॥
अच्छत पूजा लियो कर जोरी । पताक पथ की अगम ३ डाररी॥
चलत जात क्क अंत न पावा । शेष नाग विष गरल स्वभावा॥
विष के तेज विष्णु ङुम्दलाना । येहि चरित निरंजन जाना ॥
स्वान शरीर भय विष के ज्वाला । मईइ अकाशवानी तत काला ॥
सुनह विष्णु तुम कहा हमारा । विषम पेथ है सप्त पतारा ॥
प्रथम पतालको है अस ज्वाला। आगे होइ तोर जिव काला ॥
साखी-फिर्यो विष्णु परमान इमि, कड जो दिया सञञ्जाय॥
मध्य पथ रै दार्नः केसे परसौ पाय ॥
चोपाई
गरल भाव उर स्यामल अगा । ताकर वैर कहौ परसंगा ॥
जोको करै जीव वरियाई। दुगं राइ तिहि बेर दिवाइ॥
सतयुग चेता गत रो जवहा। द्वापर को प्रभवो. तथी ॥ ~
( २४ ) ज्ञानसागर
विष्णु भाव पुनि कृष्ण शरीरा नाथरहि कारु कालिन्दी तीरा ॥
जो ङ विष्णु पातारुहि सुना । देवी पास कटौ सतश॒ना ॥
सुनकर देवी विहेसत मए । विष्णु अशीश बहत कै दिएञ॥
सत्य वचन ते भयो इरूसा । रेउअशौ श विष्णु मोहि पासा॥
जह खग जोव जंतु उतपानी । सब पर विष्णु तुमहिपरमानी ॥
तीनों पुर मे आन तुम्हारी वचन मोर सुनु सत्य सुरारी ॥
साखी-यह चरि कर देवी, चकि जो शिव के पास ॥
कर॒ जोरे स्तुति. करः कीन्दों बहत इस ॥ `
चभ्पा
दोइ पुत्र को मतौ सुनावा । मां महादेव तुम मन भावा ॥
मांगोसो जो कीजो दाया । यह नहि बिनसे हमरी काया ॥
वसे रोड सुनो रो वारा साधौ जोग जो मतौ अपारा॥
जब रुग पृथ्व अकारा पतारा ।तबलगकाया न विने तुम्हारा ॥
बरह्मा विष्णु तजे शरीरा तेतिस॒ कोट देव रनधीरा ॥
जब लग चन्द्रं सूयं ओतारा । बिन न देह सुव॒ कडा हमारा॥
तीनों पु को कीन्ह सन्माना । तब माता अस आज्ञा ठाना ॥
रचौ सृष्टि तुम तीनों भाई । प्रथमदि केसे युक्ति बनाई ॥
नर नारी कन्दो दोह देदा । तातें उपञ्यो मदन सनेहा ॥
दृश द्वारा सुर नर भनि कीन्हा । धरती भार भए अङलीन्दा ॥
साखी-दशौ दिशा तब निरमयो, भयो मनुष्य अपार ॥
पुथ्वी भरं तब व्याकर सदि न सके अख भार ॥
पाद्
गौ ङ्प हो वषुधा गय । विष्णु स्थान गाढ पुनि भयञ॥
हे स्वामी भयो मदष्य अपारा। मोर अग बलसहि न सम्दारा ॥
चलत पथ नि भूमि अडाही । माथे परे हाथ चटाही ॥
सुनक विष्णु समाध लगावा । निरंकार सौं अस्तुति लावा ॥
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ज्ञानकस्षागर ( २५ )
अहो पुरूष का करब उवाह । पृथ्वीं भार बहत अङलाईइ ॥
ततक्षण भई अकाश ते वाणीं । सुनह विष्णु कर सबकी हानी॥
शिव विहाय चादह सत मोरा। इनं अंडकर शंकर ओरा॥
साखी-जाहू प्रभ्वी घर अपने, करो चरित अव सोय ॥
भार उतारो मही को, आज्ञाअस जो होय ॥
चटी आय वसुधा निज गेहा । जयन विष्णु तव कीन्ह सनेडहा॥।
मारद् जारद अब जिव जन्त सुन अन्तकं सन भयो अनंत्ू॥
आई पावकं तब रखना ढीन्डा । सव जिव मार विष्ण कहदीन्डा॥
मारे देव तैंतीस करोरी। बरह्मा मार मही सब घोरी ॥
कीन्हो युग निकंद् भयो जबही । चग निकंद विष्णु कियो तबही॥
सब जीव घाल आप म ीन्हा) प्रथम स्वभावजमनतव कीन्डा॥
साखी-सवा लक्ष जीव बिष्णुते, चङे जातं नितं नेम ॥
जस अनाज कां कोटरी, करि कृषा बड़ प्रेम ॥
च} पाई
ले अनाज कोटी वहरावे। खरच ठह पुन फेर अदवे॥
अस चरित्र कियो अन्त कराञ।अवकष् भाखौं अगिलस्वभाॐ॥
विष्णुर सें सतमाव जो देखा । जंडो अश करौ सषि उरेहा ॥
सतगुण भाव विष्णु को जानी। नामि कमल बह्मा उतपानी ॥
ततक्षण ब्रह्मा गयो अकाशा । विष्णुध्यान अस वचन भरकाशा॥
येहो स्वामि निरंजन राया । वसुधा कैसे करौं उषाया ॥
बारी सहित मदी जो बोरी । प्रकट करन की युक्ति थोरी ॥
रजगुन भयो जो बह्मा निवासा । ताकी नामि से पतन प्रकाशा॥
नौं यन तिय अड जो भयञ। दत्य देह तिन दोनों धरेऊ ॥ __
उठि गाटे नहिं पावहि थाहा । गये जहां तई प्रमु अवगाहा ॥ +
( २६ ) ज्ञानस्षागर
करि युद्ध बड युजा पसारी । बे दोहं बांह विष्णु थुजचारी ॥
बडुतकं दिवस युद्ध जो कीन्हा । तिन पुनि एेसो बोल लीन्दा ॥
मांगहू विष्णु देवं मोहि सोई । भै भय छर भाखों अब सोई॥
मशु केटम् तुम दत्य अपारा । अवश्य दोह तुम वध्य हमारा॥
होड वध्य जर्हैवा जर नारीं । दोनों गये विष्णु के गदीं॥
यै चरि विधाता कीन्हा । तेजयजरु सब सिन्धु मरह दीन्दा॥
तदि कियो पुन सप्त पतारा । भीन ङ्प वसुधा अनुसारा ॥
तेजय बरु सब सिधुमे दणड । उनचास कोट मेदनी ठणएऊ ॥
साखी-तहां बेढठ जो दैवत, जब भयो पृथ्वि प्रचार ॥
तीन देव विन्ती केरे, कीजे सृष्टि विचार ॥
चौपाई
प्रथमं सतयुग कीन्ह थाना । कन्दो जीव जन्तु उतपाना ॥
सत्यदेह पुनि भयर कुमारी । यह प्रकार रचना अनुसारी ॥
वडवा नार अग्नि प्रकाशा । सो तीनौं पुर कीन्ह निवासा ॥
कौन्द्यो षि सव सदस अठासी । नौई नाथ सिद्ध चौरासी ॥
कौन्द्यो देव प्रथम परगाशा ये सब कीन्ँं अपने आशा ॥
ओर अनेक राजा सब कीन्हा । यह चरित काहू नरि चीन्दा ॥
यहि कारण मारहिं उपजावरि। आप स्वारथी जीव इतावदि ॥
नरि बञ् परत अपार महिमा सुरत एेसी विधि कियो ।
बाज लगाव भावहू सब जीव जमके वश रद्यो॥
त॒म बञ्ि देखो चरि वाको जन न कोई बद्चई।
सेवा केरत सव स्त॒ति यम जीव को अटकावई॥
सोरठा-सनु धर्मदास भुजान, नाम गहौ चितलाय के ।
शब्द् गहौ परवान, विना नाम नर्दि सक्ति फट॥
ज्ञानसरागर ( २७ )
घमदास वचन-चौपाई
धमदास वन्ती अदसारी ह स्वामी तुम्हरी वठिडारी ॥
अव म पायो भेद तम्हारा । मोरम नोरथ् करौ प्रतिषारा ॥
पृथ्वी केर चरित्र खनव । जन्म जन्म के भाव बताह ॥
जग समीप इरि को विस्तारा । तम कड स्वामी अगम विचारा
आदि अन्त ब्रह्य प्रभु राया । अब गुरु कौ गदँ तव पाया ॥
साहिब कबीर वचन
सुन धमन मै तोहि इञ्चाॐ । इरि चरि सब तोहि खनाऊँ ॥
दत्य महा बलि भये अपारा । यज्ञ अशथमेध कौन्ह विस्तारा ॥
बलि चरित
बलि भयो दानी महा पर्चडा । स्वगे पताक मही नौ खंडा ॥
जो जांच तिहि देय तुरन्ता । जांचय फिर आवै इरषन्ता ॥
जाचके भयो जौ धनी बहुविधि दीन्ड नहि कोई जग र्यो ।
पाईं सक्ति वर अवराध्यौ दैत्य ठेसो बरत गह्य ॥
श॒क्र मन्यी मन्ञ ठान्यो अश्वमेध यज्ञ जो कीजिये!
भुक्ति बर पवे नरींतो स्वम ब्रषस्र छीजिये ॥
सोरठा-अश्वमेष रचि राज, जान महाफर सक्ति कर ।
करब स्वगं कर राज) इन्द्र करब बस आपने ॥
चौपाई
जारी तीन रोकं के भूपा । तब पुनि कीन्हो वामन रूपा ॥
तोन प धरि गये पताखा । जवा बलि राची यज्ञ साला ॥
प्रतिदारे तब बात जनाई। है दज गढ सनौ बरिराह ॥
महा पडत सुख वेद उचवारा । आज्ञा कदा सो कहौ युवारा॥ _
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( २८ ) ज्ञानसागर
सुनतरिं कि अब धरे उपा । अधे पाबडे कीन्ह बनाऊ ॥
नमस्कार कर ॒पृछछो बाता आज्ञा कडा सुनौ तुम दाता ॥
मागो सो मोहि दीजे रा । दानी सुन आएऊ तोहि ग ॥
मोहि देव मागां जो स्वामी । महा पंडित तुम अन्तयामी ॥'
परनङ्टी छावन चै महि देव तुम ब्िराईं दो ।
पग तीन मांगों नापते जै रोय अटाव दो ॥
सुनि विर्हेसे बखिराय तबरीं अरहो विप्र मगौ कडा ।
रीरा रत्न मानिक पदार्थं छंड मदम क्या रहा ॥
सोरडा-मांगौ थोरा दान, यही रचि मोहि छन वपति ।
प्रथम वचन परमान, तष्णा स्वारथ निधि कहौ ॥ `
चौपाई
साक मंचि सुन शीश इखावा । हे नृप दान मोहि नहिं मावा ॥
राजा सुनत कोध तब कीन्हा । बृञ्च बोरू मन्त मतिहीना ॥
लीन्हा नृपति हाथ कुशपानी । कन्द संकर्पे मदी दियौ दानी ॥
मानड विप्र वचन परवाना । ठेव तहां जरहरवो मन माना ॥
तीनो पुर तीनों पग कीन्हा । प्रगटे हरि तब सबहिन चीन्ा ॥
देव परा तरप आधा पाड । नातर जाय पुण्य परभा ॥
टेव नापि प्रथु पीठ हमारी । ततिं विष्णु वाक्य मे हारी ॥
नाप दीन्दी पीठ अपनी बलि नृपति बड़ राई दो ।
वाचा व्रतमें बांपि राख्यो लक्षमता पेठाय दहो ॥
विश्वास दीन्हा सुक्तिकौ भरमाई राख्यो तेहिदो।
यदी भांति प्रपंच कीन्ट्यो तपी सिद्ध सबहि दो ॥
सोरठ -रूञ्चो सन्त सुजान, हरि दीन्हा जस मुक्ति फट ।
पछतइदो अन्त निदान; एक नाम जाने विना ॥
ज्ञानक्षागर ( २९ )
सनक सनंद्न चसखि
सनक सनदन चे दरषाई । पुर वङंठ सुमेर पर जाई ॥
जय र् विजय दो रहै प्रतिहारा । रोकि न तेहि न दीन पेठारा ॥
सुनिके कोध ऋषि तव् कीन्हा ।जय र् विजय कर शाप जौ दीन्हा)
हाऊ दत्य तुम दाना भाई । जाई रहा श्रत्छु मृड ठाई ॥
सुनिकै शाप दोनों गये ज्वा । इरि बैठे रक््मी संग त्हेवा ॥
किन जाइ तिहि ऋषिकर भाऊ । खनकर विष्णु कीन्ड पकता ॥
थोरी चक शाप बड़ दीन्हा । नहिं भर कीन्ह अवज्ञा कीन्हा ॥
ऋषिन बकाय कदी अस बाता । है परभावं बैर कर घाता ॥
साखी-जय र विजय कहं शापेऊ, हौहू दैत्य भभावं ।
ताको सुत तुम हहं अब, शाप का दल पाव ॥
चोपाई
अब स्वामी त॒म वचन प्रमाना । मो कहं देव भक्ति भगवाना ॥
जय अर् विजय काठ वश मयॐ। तिन कौ जन्म मञुष्यडि उएॐ ॥
हिरनाङ्श वा हिरनाक्ष रा । कीन्हा सेवा बह शम्भ्र ठाॐ ॥
पा. वरदान भये बल्वन्ता । नई कोई देव यक्ष यणवता ॥
सोहं आन पुनि कौन्ड संग्रामा । भाजे देव छांड़ि सब धामा ॥
साखी-तव पपच हरि कीन्हा, अस ठाना व्यवहार ॥
ताको नार ओषान् रहि भयो पु अवतार ॥
हिरनाङ्श जब भये हरषता । चरे असुर धर जन्मो पूता ॥
सेवकन दीन रतन पदारथ ।शिव सुत दीन्ड जन्मममस्वारथ॥
वषं पांच को भयो जो बारा । गुर इलाय पदुने वैटारा ॥
शिवकी भक्तितम याहि पद्वु । माग इच्छा सो फल पाबहु ॥
खे घर विप्र गये तव् बारा । पदौखसतरिवमक्तिविचारा॥
प्रदलाद् शिवको भक्ति जो धरं । हरषे नृप मम बिथा विसरहू ॥
(३० ) ज्ञानसागर
साखी-केतौ गुरु प्रबोधे, शिवि न पद प्रखाद ।
विष्णु विष्णु गुदरावई, सुन गुर करं विषाद् ॥
चोपाई
एक बार नृप समा मञ्चारी । बेटे सुत कहं कीन्ह शदारी ॥
गये प्रतिहार ठे आए बारा । गुरू समीप पटने वेंटारा ॥
हषेत चम्यो सुत को शीसा । सकरुसभा दियो बहुत अश्ञोसा॥
खत मोहि क्क पाठ सुनावह । कहौ वचन मम इदय ज॒ड़ावहु ॥
तब प्रहखाद पटन अलुसारा । धन्य विष्णु जिन काय सम्हारा॥
पानी तें जिन पिण्ड बनावा । तिरिप्रभुको कोड अन्तनपावा॥
अलख निरंजन देव सुरारी । सनौ तात यै तुव बलिहारी ॥
सुनत वचन रहिरनाङ्श रा । कोध कीन्ह जस अभि स्वभा ॥
सखाखी-अहो मंद जड़ अकरमी, किमि ठानो मम बार ॥
जाइ पटावहु रशंकर, नातर अंको भार ॥
च पाड
दिन दशमे पटाइ ठे आवहु ।शिवकरिभक्ति भली भांति सिखावहू॥
नृप आज्ञा पट्वे को दीन्ा । तब प्रहखाद पद अप्त लीन्डा ॥
हरि तज काहि पदों म ताता । चार पदारथ के फर्दाता ॥
भक्ति पक्च सन्तन सुखदाई । जिन प्रथु सकल सृष्टि उपजाई ॥
तब नृप सुन अस वचन उचारा । मारह सुत यह श्रु इमारा ॥
इस्ति बुराए अति बल्वन्ता । चरत छि भुव देह पदता ॥
ता कद् आज्ञा दीन्ड भुवा 1 देव महाबल आंकुश भारा ॥
साखी-दस्ति देख प्रदखाद् कह; चदे पराह पराय ॥
नरसिंह प दिखराय म इरि भक्ति करत मन ठखाय ॥
चं
तब नृप ेसी युक्ति विचारी । जरत अच्नि देव सुत कं डारी ॥
अचि जरत तब पवन उडानी । प्रहलाद् पंट् तब सारग पानी ॥
ज्ञानसागर (३१ )
तब नृप ठेसी युक्ति अरंभा। बाधो त कदं गाड़ो खंभा॥
जो कोई दोय तोर रखवारा । ता कं खुमिरो खत हो वारा ॥
नातर छांड विष्णु कर नाॐ । अवही वात करो यहि ऊ ॥
तब प्रहलाद सभिरे भगवाना । कदा त्रु करब दैत्य बल्वाना ॥
अहो धरणिधर अहो अरारी । यहि ओकर प्रभु लाय य॒हारी ॥
साखी-खभा सौं इरि नीकठे, की भयंकर गात ॥
आधा नर आधा सिह का; कीन्ह दैत्य दी घात ॥
दो बधु महा बलि मारा | देत्य मारि महि भार उतारा ॥
फारयो उदर नखन सो छीना । सुर ओं नरन इरष बह कीना ॥
मांग प्रहराद् इच्छा फर आज् तोहि भक्त लग हनौ दैत्यहिराज्)
कृर जोरे प्रहलाद अस भाखा । इ स्वामी भक्तन ष्रण राखा ॥
मोक्ष पिता करदं दज स्वामी । मोहि भक्तिं खन अन्तयांमी ॥
साधु साधु विष्णु अस भाखा । पुर पिता प्रण भर तुम राखा ॥
दोई जन्म आगे ओतारब । तब तोर पिता देख गै तारब ॥
तैं मम म्ति कीन्ह बडि सेवा । ताकर फर भाषौ कड मेवा ॥
दैत्य इते जब बाल कन्हाई । अवि देव सबै तेहि ठाई ॥
करद सुयस हरि सबहि बखाना । प्रहखादरि देव स्वगे अस्थाना ॥
साखी-कीन्ह इन्द्र प्रहलाद कह, सब मिलि कीन्ह विचार ॥
नरर्सिरहृषूप नर कीन्हा, ताको यह व्यवहार ॥
नारद चि
चौपाई
एकं समय इन्द्र यज्ञ ठानी । निवते सिद्धि ऋषि ओ ज्ञानी ॥
पचे गन ग॑प्रब सब री । सब मिलि कीन्ह सान खधारी ॥
जो कोई गया इद्र अस्थाना । इच्छा भोजन सवबकहठाना॥
(३२) ज्ञानसागर
बृह विधि इद्र करे सतकमां । पुरे न घंट जानसको मरमा ॥
तब नारदं अस कीन्ह विचारा । धरो धीर करौ वचन उचारा ॥
ऋषि जमदि इच्छ खावा । तिरि प्रभाव अनग जनावा ॥
ऋषि रत करं के ऊंडं उवा । बजे घंट असं मता स्नावा ॥
खनत हि षि तब कीन्ह पयाना । बल्यो घेर पूरण यज्ञ जाना ॥
साखी-ऋषि मन में तव ब्रूहयो, जान करौ अब व्याह ॥
ऋतमान जब आये, राजा कश्यप ठह ॥
चौपाई
देव चृपति कन्या इक मोरी । मांगौ आज्ञ जाव तृषं तोही ॥
तब कन्या नृप दीन्ह बुराई । कीन्हो व्याह षी तेहि ठाई ॥
के कन्या ऋषि धरहि सिधाये । भगु ङक दरि ओधानहि आये ॥
जो घमेदास संशय कड तोदी । कटौ बुञ्ञाय चरि अब वोदी ॥
भय क्षी महि व्याकु भय । मारन तास जन्म इरि ख्य ॥
निच कीन्द बह जीव संहारा । वैर देतु भृगुङरु ओतारा ॥
सहसबाह षिगन जो मारी । पिता बैर सो प्रथम सम्हारी ॥
्ष्री मारि निक्षजी कीन्हा । भगु रूप विष्णु को चीन्हा॥
साखी-यरहि विधि क्ष्री निकंद्ऊ, परसराम बली वीर ॥
आमे भाव बताव, सनौ सत मत धीर ॥
श्रवण चि
चौपाई
अवध नगर दशरथ बड रा । पुरुषारथ जिन करौ प्रभारु ॥
तिनि नारि बह सबदि पियारी । रात दिविस जौ कर हित भारी ॥
एकं समय आखेट गये रा । पड भोरे कियौ ऋषि कर चाउ॥
पानी तट ऋषि हरि हरि कीन्हा । नृप पछितानो जब मुनि चीन्दा॥
ताके पितहि अवणकी बाता । तुव सुत दशरथ कीन्हो घाता ॥
ज्ञानसागर ( ३३ )
साखी-अदो ऋषि तुव सत कर्है, दशरथ मारयो बाण ॥
यह चरित सुन भुनिवर,) ततक्षण अंडयो माण ॥
दोनों ऋषी काल वस भयऊ । नूप अन्याय वैर इरि ठय ॥
सुत बिहून जस ऋषि तनलत्यागा ' तेसं काठ नरप तोर अभागा ॥
पुजके शोकं कार होय तोरा । देह वैर कहा सुन मोरा ॥
नारद ऋषि तब कीन्ह तिवाना । राजा दक्ष यज्ञ जो ठाना ॥
देव ऋषी आये तिहि ठाई । षब वप बहते सेवा खाई ॥
ऋषि तव कहै सुनो दश्च रा । शिवको जियत निवत बल्वाॐ॥
इन्द्र यज्ञ जव निवत ज आये । गण गन्धव खव देवं रहाये ॥
तह शिव कीन्ह तोर अपमाना । आई कहौ सुन बपति खजाना ॥
सुनतहि कोध नृप पर जरेऊ । जरत इता मनह् चत परेड ॥
साखी-शिव विहाय सब निवते, चले सवे तिदडि पास ॥
देख गगना मुनि वरन को, सती वचन प्रकास्च ॥
चोपाई
हे प्रथु कहां जार्यै सुनि राई । सो प्रभाव भ्रु मोहि उता ॥
राजा दक्ष॒ यज्ञ जो उना 1 तहां जाये पि चटे विमाना ॥
हे प्रभु मो कहँ आयस्रु होई । यज्ञ तात कर देखों सोई ॥
निवते विन न बृक्धियत नारी । ेसी इच्छा आहि तुम्हारी ॥
चली सती तब खगि न बारा । पिता भवन त्वा पर धारा ॥
देखत. नृपति महा उर जरे । काहू समाधान नहिं करेड ॥
ग्याङ्कछ भई दिगम्बर नारी । यही व्याह मम इर भई गारी ॥
सुनत विषाद सती मन जागा । परी अनल तब देही त्यागा ॥
हाहाकार भयो सभा मञ्चरी । यज्ञ विध्वंस भयो सुन चारी ॥
हिमाचल गृह सती अवतरिया । गणदीन्हनाम पारवतीधरिया॥ __
यदै चरि विष्लु जब देखा । शिव विवाह यण मनम पेखा ॥ _
( ३४ ) ज्ञानसागर
साखी-शिव समाधि छूटे नदीं, कन्दं विष्णु उपाय ॥
काप माग परपेच कर संगहि दीन्ह लिपाय ॥
खर समीर रागो जब अगा! बार बद्ध ग्यापौ सब संगा ॥
खार बार सब जग बस भयऊ ।षिसुनिव्याप्िकाम जो ठयञ॥
नारद षि पारासर दोॐ। भये काम बस मुनिवर सो ॥
तिन कर व्यासदेव उतपानौ । इनहू रति जो बरबस ठानी ॥
पारासर गए सागर तौरा । दख नारि मन धरहि न धीरा ॥
मछछोदरो जा कहं जग कंदई । व्यासं देवकी जबनां अहईं ॥
नारद् षि किय तहां तिमाना । राजा एक स्वयस्ब्र ठाना ॥
ता कुल कन्या है कुलवती । निय व्याह करो जिहि संती ॥
चर ऋषि दरिमां बिन्ती कोन्डा । ब्रह्मा पु कहिं वचन अधीना ॥
हे स्वासी मोहि दीजे रूपा । करिहौ व्याह मोहि श्चि भूपा ॥
विष्णु अपन मन कीन्ह विचारया । कर परपंच पि सव रा ॥
साखी-शिव की नारि बना, सोई करब उपाय ॥
भयो काम बस नारद, वेर देव मम भाय ॥
नहि जाने नारद मतिरीना । वानर कर भुख ऋषिकर दीन्हा ॥
चलो षी मन भयो अनदा । कृपा कीन्द मोहि बाखगुविन्दा ॥
अवशि जाय हम व्याह नारी । जह पुनि पहुचे तहां कवारी ॥
द्पन दीन्दों सभा मंञ्चारी । षि अपनो प्रतिवि निहारी ॥
देखन पि कोध तब कीन्हा । विष्णु भाव कबहू नहि चीन्दा ॥
जव दरि विर्देसे नारद पादीं । सती यज्ञ तम. बूञ्चव नारीं ॥
परबस देखत भें तन जारा । अब यँ कीन्हा भाव तुम्हारा ॥
साखी-ब्रूञ्च परयो नारद् जब, गहे विष्णु के षांय ॥
क्षमा करो अपराध प्रथु, नर को रूप बनाय ॥
ज्ञानक्तागर (३५)
चौपाई
कन्या हाथ टीन जयमाला । नवह गङे गहि चरण गुषाला ॥
शिव विवाह पार्वती सों कीन्हा । सतीं हैत तिन भखके चीन्हा ॥
तवी हप प्रथम कर दीन्हा । दीन्ह शाप विष्णु स्न लीन्हा ॥
अहो विष्णु तुम वैर विचारा! तमह वैर देव व्यवहारा ॥
वसुधा भारदि व्याकुल आदी । सत पुलस्त महा बल तादी ॥
रे अवतार मारहूगे सोई । सो पुन इर तुम्हारा जोह ॥
नारदका जस कीन्ह अगा । तईसन जाय करो परसंगा ॥
बरबस वैर खव सव पाहीं) विधिना हप बनावे ताहीं॥
विष्णु अपन मन कीन्ह तिवाना । काके गिरह छं अवधाना ॥
पूवं जन्म जो दशरथ रा! सेवा कीन्ह यहां प्रथा ॥
मागिन तिन फर अतक बारा । षु होड गौपार हमारा ॥
आये वपति सग अञनारी। सेवा कीन्ही यरी पकारी ॥
साखी-रेव अवतार अयोध्या, दैत्य बधन जो होय ॥
आज्ञा मयी आकाशते कङ् उपायं अब सोय ॥
दिरनाङ्श दिरण्याक्षहि मारा । ताको दियो अुनिगृह अवतारा ॥
सुनि पुरस्त गह जन्मौ बारा । रावन कुभकणं बरियारा ॥
जा कर विष्णु स्वगे कर रा । भक्ति देतु ता कहं जन्मा ॥
नाम विभीषण भक्त हरि केरा । जपे पिष्णु नहि लवे बेरा ॥
नृप कश्यप दतिया अवतारा । सो तो भयऊ अवध अरुवारा ॥
तिनके गड अवतारहि ीन्दा । अपने अंश चार तिन कीन्हा ॥
राजा के शह जन्मौ वारा ज्योतिषं राम वग उच्चारा ॥
जेष्ठ पुज कौशल्या सुती । राम नाम थापो एन ४८ ॥>
सुमिता के दोहं बालक आदी । रुषन शङ्खहन भाषो तदी ॥
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( ३६ ) ज्ञानसागर
दोई जन्म समिजा किये सेवा । ताते इरि प्रगटे दोई भेवा ॥
केकर सतहि भरत जो भाखा । विप्रन दीन्द पदारथ थाका ॥
कोशिक षि आये तेहि खाई । चप दशरथ तब दित बहु पाईं ॥
बार अनेकं दण्डवत् कन्दा । चृप करं आशिवाद जो दीन्हा ॥
है प्रथु कह आयसु जो रोह । कृषा करो जिन राखौ गोरं ॥
जे पु जो राम सुजाना । ताहि देव नरपरो मम माना॥
साखी-चप बूञ्ो मन आपने, दिये बनै परकाज ॥
थाती सपो पुनि तुमदहि, आन देख सुनिराज ॥
चौपाई
राम रुषण चङे सुनिके साथा ' ताडका बंपि व्याहब रघुनाथा ॥
चरे राम ्छमन सुनि संगा । देख रूप जसे कोटि अनेगा ॥
दिक्षा मे दियो षि जानी । दीन्ह जाप कहि अमत बाणी ॥
ऋषि आश्रम आये रघुराया । यज्ञ शाखा श्रुनिवर वेठाया ॥
दीन्ह तुरंत तब निर्भय भारा । सुनिकिं दैत्य जो करे संबारा ॥
आये बीर महाबल भारी कखागी दोन परस्पर मारी॥
मुनिवर आज्ञा दीन्दी जबदी । ताडका दैत्य मार हरि तबदी ॥
ताडका दैत्य राम जब मारा ।ऋषि मुनिवर तब कियो यज्ञश्ञाखा
साखी-मिथिला नगरी रहत है, रच्यो स्वयंवर राय ॥
चलो राम सो देखिये, अुनिवर संग सहाय ॥
चोपा
चले राम लक्ष्मण ओ रां । मिथिला नगर अब धरिये पाॐ॥
पाहन शिखा जवे पग रागा । प्रथु प्रगरेजो खटका भागा ॥
गौतम नारि अस्या ना । ताको हरि पठई निज ठा ॥
समाचार वि ति पाये । आद्र के सुनिवर ले आये ॥
समाधान नृपति बड़ कीन्हा । उत्तम मंदिर बेटक दीन्दा ॥
ज्ञानस्ागर ( ३७ )
जो कोई आय् जान यज्ञ शाला । सव कं पोषण कीन्ह थुवाला ॥
पटच. अवधि सदिन आये । राजा नगर महँ ढोर बजाये ॥
साखी-जाके बल बहु होवे, धनुष उठावै सोय ॥
सीता व्याहों तारकः मिथ्या वचन न होय ॥
च पाई
चर भई सीता जहं फुल्वाई । देवी पूजन मातु पटठाई ॥
आवत राम माग जब देखा । सफर जन्म आपन तव रेखा ॥
अहो अविका आदि भवानी । खनिये मातु वम अन्तजामी ॥
मोर मनोरथ पुरबो माता! सो षर देव जो मनम राता ॥
बिधि बिन्ती सीताकी जानी । ततक्षण भई अकाशतें वाणी ॥
अहो सीता लक्ष्मी अवतारा । निश्चय तोरे राम भरतारा ॥
सनत सदेशा भयो अनन्दा । जिमि चकोर पाये निशि चंदा ॥
देवी पूजि गई निज सीता । मनमें इषे बहत पुनि कीता ॥
आईं सिय जरं सृष्टि थुवारा । उदे न धटुषं सवै बर हारा ॥
रावन बालि महा. बलधारी । उडे न धवुष सवै बर हास ॥
जब नृप जनक भयो बिसमादा । उदे न धनुष जन्म मम बादा ॥
तब रघुवर सुनिको शिर नावा । सभा माञ्च तब धनुषं उगावा ॥
खेंचो राम धनुषं चट जबही । महा अघोर शब्दं भयो तबही ॥
साखी-ुनि गण त्याग्यो ध्यान तब, महि मंडल थुडं चारु ॥
हरष्यो राजा जनक तब, सिया दीन्ह जयमाल ॥
चौपाई
टूटयो धनुष धूम भई भारी । परसराम तब लखाग शारी ॥
आवत तासु जो दृपति सकाने । बहुत नाम जो सनत प्रमाने ॥
सभा मांञ्च आये प्रसरामा । सबमिल देडवत कीन्दप्रणामा॥
भृय॒कुल कह सुन मिथिला राड । तोस्यौ ठु किन मोहिवता ॥ =
( ३८ ) ज्ञानसागर
रघुपति कहै धनष भै मापा । तुम किडि काज करतदैदापा ॥
देखि राम भृगक्रु किय रोषा । मारो शीस जो करौ सरोषा ॥
विसे राम लखन दोह भाई 1 हे द्विज यान करौ सुरमाई ॥
जान बुञ्चि जिन होड अयाना । भिरे तिमिर उमे जब भाना ॥
द्विज कल देखि किया परमाना । ततिं तुमको भयो अभिमाना ॥
साखी-द्विज कर धष जो आपनो, दीन्ह रामके हाथ ॥
मै क्ष्री बरु भजन, खचो हौ रघुनाथ ॥
चौपाई
खैच्यो राम तासु धनु कैसा । तरणि उटाय लेत है जेसा ॥
परशराम गदि ताके पाञ । क्षमा करो कोशिल्या रा ॥
कर प्रणाम भृगु वन्हि सिधारे । रामचन्द्र रहै सभा मज्ञारे ॥
ये जो आरि सो अिभुवन राॐ । तिन मदि मंडरू तेज प्रभा ॥
करै सवे इरि को अवतारा । परशुराम ओ राम थुवारा ॥
जो निज इच्छा आवत जाई । तौन गर्भं कादे दुख पाईं ॥
एसा निरंकार परकाशा । सबतं न्यारा सबमं बासा ॥
इच्छा कर जस चिभुवन राज । इच्छा आस कर निमा ॥
बाजा लगा जीव जो राखा । ताकी भक्ति सवे मिरुभाखा ॥
साखी-कोई इक ज्ञानी पारखी, परखे खरा ओ खोर ।
कदे कबीर तव बाचि दै, रही नाम की ओट ॥
चौपाई
राम कखन के सुनो प्रभावा । मिधिखापति एकं दूत पठावा ॥
नृप दशरथ बेगदि चखि आहू । राम खन कर सुनो विवाहू ॥
नृप दशरथ बेगिदी चलि आणू । षिन करायवो तदां विवाहू ॥
चारौं भाई व्याई् तिरि पादीं । बहुत अरनेद् कीन्ह मन मादीं ॥
चारौं भाई ओर अुवारा। ठै चङि आये अवध मञ्ञारा ॥
तहां आई विप्रन दिय दाना ।कषुदिन कियौ सुखराम सुजाना॥
ज्ञानस्नागर् (३९ )
भरत गये जदं जननी ताता । विद्या पट बहुत इरषाता ॥
अवध नरेश मता अस ठाना । रामह राज देह मन माना ॥
सब मिलि ठेसा मत उषराजा । करब बिहान राम करं राजा ॥
यह चरित जव देख भवानी । समञ्ची निराकार की वानी ॥
साखी-मरट मनुष्य न ब्धे; राम छीन्ह अवतार ॥
मारे दैत्य संघारे, ख्का के सरदार ॥
चौपाई
सवा लक्ष जीव प्रतिदिन खाई । कौतुक राज बनावत राई ॥
अबिका गहं केकेहं पासा । ३ रानी तुव पति मति नाशा ॥
रामहि काट देत है राज् । निथय हई तौर अकाजु ॥
जो वर दियो नृपति तोहि कादीं । सो वम मांगो आजि माहे ॥
भरतहि राज राम बनो वासा । मागइ आज जो रोड इलासा ॥
गयी केकेडं मांगा बर सोई । राम बिकोह पराण चप खोई ॥
त्यागो प्राण अवध नृप जबहीं । सरवन बर जन्म ख्यो तबहीं ॥
चले राम लक्ष्मण सिय साथा । करहि शोकं धुनहीं बड़ माथा ॥
रामह संग दूर खग जाई । फिर राम तुम तात इहा ॥
सुमंत मजी अस वचन सुनाये । पठ्ये दूत तब भरत खाये ॥
जाइ बुखावहु भरतहि आजु । उन कर देहु अवध कर रानु ॥
आज्ञा मयी फिस्यो सब छोगा । सब कहं भयो राम कर शोगा ॥
साखी - भरतहि पठे संदेश पुनि, तबरि भयो रवि साज ॥
गये जहां तहां रघुपति, बेठ गये वनमांज्ञ ॥
चौपाई
राम लखन वटे सिया लाई । पिर मरत तुम तात इहाई ॥
फिर भरत प्रथु आयस होई । भजा लोक संग सब कोह ॥
(४०) ज्ञानसागर
राम रष्मण ओ सिय साथा । वन मारग लीन्है घन हाथा ॥
बहु दिनि रहै ॐषिनके ठाई । समाचार लकापति पाई ॥
लीन संग मारीच बर्दता । इरे सिया मनो दर्षता ॥
मारोच ही कीन्ह सग वेषा । नरह छर बरञ्चे राम नरेशा ॥
खग को देख त्रपत तब भ्रखा । छोभ मोहको वन जो फूटा ॥
भगटयो सांञ्ञ अन्ध भो माना । बिगरयो मोहजोज्ञान छिपाना॥
राम रुखन गए सरगहि शिकारा । सीति रावन रथ वैठारा ॥
आगे मारग रोक जटाऊ । मार गयो तिहि रावण रा ॥
मारीचरि राम कीन्ह जब चाता । ब्ञ्च परी नारदकी बाता ॥
सिय इर रावन मार दुटेवा । जाकी जगत करत रै सेवा ॥
दृढ लक्ष्मण वन गुदराईं । मोई भयो जब सिया न पाई ॥
मारीचदहि मार राम पछिताना । जबहिं जटाउ कदी सदहिदाना ॥
इमान मिरु पथ ` मञ्चारा । रावन मासयो राम भुवारा ॥
सुन स्वामी तू जिथुवन नाथा । कृषा करो त॒म मोरे साथा ॥
हनूमान जब कीश अनुसारा । कुशल प्रभाव पं तिरि बारा ॥
बाकि सुग्रीव दोह जन भाई । बालि लीन्ह वध वधु डाई ॥
जो परु कौजे कपि पर दाया । मारो बालि सुनो रघुराया ॥
साखी-रामचन्द्र अस बोले, कने बालि कुकर्म ॥
मारो ताहि पटर भीतरः जान कहौ अस म॑ ॥
आए रघुपति जहं गए राजा । बाछि मार सुम्रीव निवाजा ॥
मार बालि कहं एकि तीरा । बरूञ्ञो सन्त गदी न्ह पीरा ॥
यह तो भेद जानि रै सोहं । सतगुरु दया जादि पर होई ॥
तब इनुमान लक कियो गवना । पहुंचे जाय जौँ रह रवना ॥
पटच जाय भेट भह सीया । दैत्य देख वह कौतुक कीया ॥
ज्ञानस्ागर् ( ४१)
मारि कपि कहँ कौतुक जानी । तवं इनुमान आप बर उानी ॥
जारि नगर तब कीन्हों छारा । नगर छोग सब केँ विकारा ॥
साखी-आय कं रघ्पति सौ, समाचार इलु वीर ॥
सिश्ु बाधि इरि उतरे, दैत्य वधन रनधीर ॥
आए कान्ह दत्य संग्रामा । मारे दैत्य बहुत तब रामा ॥
कुभकरण निद्रा सँ जागा ! रघुवर सौँ युद्ध करे अ्रागा ॥
कहै विभीषण सुन चरृपःरावन । आए राम जो असुर सतावन ॥
सिया संग ठे .जाह दरंता । क्षमा अपराध गृह पग इषैता ॥
मारी छात बिभीषण भाई कोधित मिलो राम कं आई॥
समाधान व्रृपति बड कीन्हो । रंका बकसि तादहिकौ दीन्डौँ ॥
कुभकरण गहि समर अपारा ! ताको हरि बह बर सौ मारा ॥
इद्र जीत तब राग शुहारी कर अश्वमेव तपस्या भरी ॥
तिन कपि रोके कपिदरू च॒थ्था । विभीषण भेद कडो अज शथ्था ॥
जौ पर्णं जज्ञ ना होई मारह राम बध करै सोई ॥
मयो प्रभात राम जब देखा । खक्ष्मण् खाभ्यो बान विशेखा ॥
साखी-मार सो महाबली, मेघनाद जिहि नाम ॥
सुनत कोध, रावन कियो, कठिन कीन्ह संगाम ॥
चौपाई
दैत्य महाबरु शक्ति संधाना । जुञ्चे लक्ष्मण भया निदाना ॥
तुम दनुमान ठे आवह सूरी । उत्तर दिशा देश बड़ दरी ॥
दौनागिर पवेत कर ना । संजीवन सहित ताहि छे आ ॥
संजीवन बासते लक्ष्मण जागा । हषं भये तब केपिकर भागा ॥
तब रघुवीर चेर गढ टका । दैत्यनके जी उपजी शका ॥
तब रावण गहि समर अपारी । बेषुहि भ्याङल ह सब आरी ॥
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(४२) ज्ञानसागर
रामचन्द्र रावन कहं मारा । वार अनेकं सीस भुड पारा ॥
मारयो दय ताक के जबरी । रावन कार वश्य भयो तबरी ॥
सीता समाधान इरि कीन्हा । ताको ङ्प न काहू चीन्हा ॥
सिया लीन्ह रघुवीर इुखाईं । राज विभीषण दीन्द सुहाई ॥
ङे सीतहि अवघपुर आना । भरतहि कीन्ह बहुत सनमाना ॥
सीता सती रदी अवघाना । गभं वास ङश उतपाना ॥
साखी-राज करे रघुवश मणि, तब अस कीन्ह पमान ॥
थाप्यो कोर अयोध्यहि, सनो मंच इमान ॥
चौपाई
जवहि राम लङ्का से आये ' अयोध्या कोर उढडावन खाये ॥
छक्ष्मण भाई संग तब लीन्हा । सुदिन जानक तब निव दीन्डा ॥
उठत कोर सो भय अस शोरा । है क्ख द्रव्य नीच अस बोला ॥
सुन अस वचन राम रघुराई । खन खनडइ अस आज्ञा पाई ॥
चह दिश खन जो बाज कुदारा । तपसी एक देख तर्वारा ॥
लुदिडा माथे दे तप करई । जोग अरंभ सदा चित धरई ॥
मोह बार मुख रदे छिपाने । वेढे महि के तरे सयाने ४
देखा ऋषिदि बहुत भय माना । शाप न देहं बहुत सकाना ॥
छांडि समाधि निरखि जब देरा । राम दृडवत किये चहुं फेरा ॥
साखी-बोरे वचन उषी तब, कोदो सो कहू मोहि ॥
ङ्प भाव बहु आगर, देखो तृप सम तोहि ॥
रामचंद्र वचन-चौपाईं
दशरथ तनय राम मोदि ना । रदं समीप अवधपुर गा ॥
ऋषि को भयो राम अवतारा । पो यइ कड करब थुवारा ॥
हे ऋषि राज भरँ कीति बना । जातं रहे यरि जग मे नाड ॥
कृह ऋषिराज जीवन है थोरा । छांडो कोट कहा सुन मोरा ॥
ज्ञानञ्चागर् ( ४३)
राम कद्यो ऋषि सो निज म्मा । केते दिवस किया तपधमां ॥
लोमश ऋषि मोर रै ना ) अपने जन्म को कृद्यो परभाख॥
आठ पर रात दिन होई । अहो रात कहै सब कोहं ॥
दोई पाख कर प्रहर भरमाना । सो एकं दिवक्च पित्रन कोजाना॥
वर्षं दिवस जव उनको होई । एक दिवस देवन को सोई ॥
बारह वपं दिवस जव जाना । चौदह सदख इक मनुजो बाना ॥
सप्त मच जवी जाइ विगोईं । तब इक इन्द्र काल सब होइ ॥
सत्त इन्दर जव होवै नाशा । इक बह्मा को दोहं बिनाशा ॥
साखी-सत्त ह्या जब विनशहीं, तब एक विष्णु को नाश॥
सप्त विष्णु जब बीतहीं, तब इक रुद्र विनाश् ॥
सोरा स्र गति जब हो जाई । तब इक रोम मम षरे खसा ॥
तातं खोमस नाम है मोरा । करा समाध जीते है थोरा॥
सुन रघुवीर अचंभित भय । ऋषिको वचन भरतीतं न र्यड॥
राम चरि ऋषी तब जाना । क्या सोच रघुवीर सुजाना ॥
देव अंगुष्ठ भँट्ह जो मोही) तेसे अंगष्ठ देऊं म तोही ॥
यै कमंडल मोरे साथा । काढ गिन जो आति हाथा ॥
करोधित हाथ डार भगवाना । गिनि उनचास कोट परवाना ॥
परचो पाय रघुवीर न जाना । लोमश वचन सत्त कर माना ॥
एतिक श्ुदरी गिनी विशेषा । कमंडरुको कहं किये रेखा ॥
इतने राम रावन होय गणएऊ । सुनि रघुवीर अचंभौ भण्ड ॥
साखी-जान्यो जन्महि अल्प जब, चरे स्वगं अस्थान ॥
निराकार निरजन, तासु मर्म नहिं जान ॥
त्याम्यो राजपाट बन्धु चारी । गये स्वगं दष सेन सिधारी ॥
आप इच्छा जन्म पुन लीन्हा । कष्ण चरि आगे पुन कीन्दा॥
न. १ कबीर सागर - ।
( ४९ ) ज्ञानसागर
जाहि राम को जपत संसारा । ताको तो रएेसो व्यवहार ॥
बाजी दिखाय जीव सब राखा । मारे अन्त केरे अस खाखा ॥
काद करे जिव बसर परेड । तात सत्त शब्द् चित धरेऊ ॥
जमराजा रै अति बरबडा । मारं ब्रह्मा विष्णु नौ खंडा॥
कारु फास केसे य॒क्तावे। जब लग सत्तनाम नरि पावे ॥
सासी-नाम अदर जो पवि, कहै कबीर विचार ॥
रोय अरर जो निश्चयः जमराजा रहे दार बार॥
सुन धमं य तोहि सुनाऊं । कृष्ण चरित को भाव बता ॥
कृष्णच्रिवि
राम श्प अता अवतारा । गयो बियोग सकल संसारा ॥
केरे मेख बहत विधि केसा 1 ठेखा मूर व्याज रै जेसा ॥
एक नार रघुपति दुख पाया । सोरा सदस गोपि निरमाया ॥
प्रथमहि गोपिन को निरमाया । पीछे कृष्ण देव हं आया ॥
देवकी कर जन्म ॒लियौ जाई । दीन्ह सबै गोद्धर परचारं ॥
नद के गेड आन तिन राखा । है मम पु जसोधा भाखा ॥
करं नद जसोधा महरी । परु भर कृष्ण राख न बहरी ॥
गोपी सवे विलास बनावैं। रात दिवस हरिके यण गावैं ॥
नृप दशरथ वदेव अवतारा । कौशिल्या मिता देवकी वारा॥
नारद ऋषि कंसहि कह भे । यइ निज जन्म न जाने के ॥
उपजो तुब वैरी भगवाना । नंद गेद गोकुरकु अस्थान ॥
सुन नृप कन्द जो बहुत उपाईं । मारह तादि कै अस राई ॥
कागाप्र इक देत्य अपारा । बल पौरुष जिर्दिके अधिकारा ॥
ताको कंस वचन अस् भाखी । राम कृष्ण कर फोर आंखी॥
चल्यो देत्य आयो हरि पादीं ! सखा संग जह बार कन्दादीं ॥
जान्यो कृष्ण दुष यह आदी । चपट के मारयो है हरि तादी॥
ज्ञानक्रागर् ( ४५ )
साखी-मारौ दैत्य महा बली, दैत्य राज् अयमान ॥
भगनी तासु जौ पूतना, ता कं दन्डो पान ॥
चटी पूतना कर छल मेषा । गरर कमाई पयोधर रखा ॥
ठेकै पयोधर कृष्ण लरगाई । तारी तवै सवै विष खाई ॥
एक वार ग्वालन संग गष ! जान बकासुर छके ठव्ॐ ॥
मारयो कृष्ण ताहि षर माहीं । नहीं दैत्यं जीते कोड जाहीं ॥
इन्द्र पूजा नहि दीन्ह गवारा । ववं इद अखंडित धारा ॥
डारयो इद्र वषां दिन साता) इरि गिर लीन्ड्यो उपरदहाथा॥
साखी-सात दिवस जब वषड, जान्यो इद अवार ॥
क्षमा अपराध अब कीजिये , देव विनय अनुसार ॥
एक बार कालिन्दी तीरा बच्डे ङे गए जादौ बीर ॥
लागी प्यास पियावर्हिं पानी । पीवत ही भइ सब की डहानी ॥
देखत कृष्ण _अचंभौ भयर । उरग गरल सावर तन् भयॐ॥
पुन ैस गये तहं यदुराइ । नाथ्यो नाग वारि महं जाई ॥
साखी-यहं चरि माधव कियो, जानत नाहिन कोय ॥
बञ्ेगे कोइ विरे, स॒तयुरू मिलिया सोय ॥
केसी नाम वेध बड़ बीरा । तिन पुनकीन्दा असुर शरीरा ॥
तब निकंद कीन्हे जो ठाना । छलके मारच तेहि भगवाना ॥
सुकर केश कँ बेग॒पटावहू । राम कृष्ण कों बेग रे आवहु॥
चरू अक्रूर आये इरि पादीं । कष्ण चरि ञ्चे पर मादीं ॥
सोर। सदश्च अबला सँ नेहा । ब्रूञ्च न परे जीव दोह देहा ॥
साखी -बहु कीडा हरि कीन्दीं, जानत नाहि न कोय ॥ ध
अजिया पुतरहि पाल्यि, आप स्वारथी हेय ॥
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( ९५६ ) ज्ञानसागर
चौपाई
मारत तासु बार नरि खवा एसा देखो हरी स्वभावा ॥
रावन कुभकरन जा मारा ।ताकोजन्म शिङ्चपार अवतारा॥
चलत कृष्ण गोपिनि किएशोगा। संग भरे तब जादो रोगा ॥
मारन कौं हरि मता जो ठाना । मथुरासे इरि कीन्ह पयाना ॥
सु चार ओर दोह खंडावा । सब असुरनर्दि कंस शुहरावा ॥
रेग श्रूमि चप कंस बनावा । कार रंग भूमी दी आवा ॥
चर् भए कृष्ण जहां कहं तबही। कुबरीको सन्मान कियो जबही ॥
पूवे जन्म तिन सेवा कीन्हा । भक्ति देत ताको रति दीन्हा ॥
साखी-कुबरीको सन्मान कर, चरु भयो राज द्वार ॥
हस्ती कौं बरु महाबल, तिनको पिरे सार ॥
चौपाई
मारत तासु वीर जो धाये। ष्ठ चार अङ् दो खंडाये ॥
भुये चप पुन तब खस परेड । कालिन्दी तट आन जराएॐ॥
उग्रसेन कीन्दों सन्माना । गये दरि मात पिता अस्थाना॥
पूवे जन्म सेवा तिन कीन्हा । भक्तिदहेतु म दशन दीन्हा ॥
जरासन्ध नृप खाग गुहारी । सह बार तिन कीन्हीं मारी ॥
तेतिस क्षोदणि दल तिन जीता । जमन केर सम्हर पर बीता ॥
नृप मुचकुदहि तब पुनि मारा । ताको इरि पुनि बेर विचारा ॥
साखी-यह चरि कड केसौ, जमन को आनि मराव ॥
जीव कौ बदला जीव रै, अदल अंञ्च कर न्याव॥
चौपाई
कस मार हरि गोकूरु गणड । गोपिन समाधान हरि किंएडः॥
सब मिलि कीन्शे मंगलचारा । तब दरि एेसौ वचन उचारा ॥
दुरवासा ऋषि तप बड़ कीन्दा । इच्छा भोजन मगर टीन्हा ॥
ज्ञानस्ागर् ( ७ )
जाय सबे ठे जञ्नहि पारा । छे चलि भोजन अर भर थारा॥
जुन बह विधि आय शुक्राईं । तब हरि एेखा वचन नाई ॥
कृह्) जाह कालिन्दी तीरा । कृष्ण छवा नर्हि मोर शरीरा ॥
होइ है थाह जाह हो वारा चछमोगमोषपीलखागन बारा ॥
साखी-कष्ण सन्देश्जा किष; स्वै भई तब पार ॥
जाई कराइन भोजन, तब विन्ती अनुसार ॥
चौपाई
तब गोपिन अस बचन सुनावा । हे प्रथु पार जादि किडि भावा॥
कालिन्दी से कहि सब मादा ! षि नहिं खाच्व मोर परसादा॥
कहत सन्देशा सब भई पारा । अचरज भयो यन माई विचारा॥
ठगई लगा तीनों पुर माहीं । कष्ण काये अचरज नाहीं ॥
चौथे लोकं वसे प्रधाना । ताहिखवर कड विरश्छन जाना॥
तपके तेज कहा बड़ भदऊ । तीन लोकं जो अचरज उण्ड ॥
एकवार शिश्चुपार यवाय । कष्ण से कीन्हजो खमरअवारा॥
मासयो तबे दैत्य बरु वीरा । निकसे प्राण जो छांड डारीरा॥
सब के देखत कृष्ण जो खावा । तेह न चञ्च कार स्वभावा ॥
सब के देखत भप् जो कीन्हा । तासों कदे युक्ति हरि दीन्हा ॥.
साखी- कारु सबन को भास्यो, वचन कद्यो सथुञ्चाय ॥
कहै कबीर म का करो ;› देख नहीं पतिआय ॥
बूञ्चो संतो कार की हानी । हरि को भाव भरे में जानी ॥
कृष्ण के भयो जो परुमन बारा ।ताङ्ख अनिरूष लीन्द अवतारा॥
सुन प्रवीन बानासुर राऊ। शिव सेवही महाबल पाऊ ॥
ता नृप के दुहिता एकं भयऊ । उखा नाम तास सो ठय ॥
हप आगर किमि करो बखाना। तादि देख कर काम लजाना ॥
उन्मद यौवन भयो पुन जबदी । काम बान सर खगेड तबदी॥
५
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( ४८ ) ज्ञानकसागर
साखी-तासु दूत गए दारिका, अनिरूघ अंश भुवार ॥
दोऊ उपजो ममं अब्, जस दंसनकी उवार ॥
चौपाई
दिवस आठ दस बीते जबदी । अनिरूष कुंवर प्रगट भयो तबदी॥
बानासुर ने कोष दरु साजा । अगमित बाज सम्दरको बाज ॥
युद्ध करें दैत्य तरै जाई । अनिरूध सब कँ मार टाई ॥
छ प्रकार जीतो उन जबही । सातई बार भम भयो तबही ॥
दैत्य मार गहि समर अपारा । बांध चपर कं कृष्ण कुंवारा ॥
कोई करै मारो विषको भूल । श्रु राखके नृपकस भला ॥
मजी कईं सुना युवारा। शिव की आज्ञामे यह सारा॥
नारद ऋषि तबही सुधि पाईं । कृष्णि बात जनावहु जाई ॥
चरु भयो कृष्णजो कोष अपारा । देत्य जहां तदवा पशु धारा ॥
साखी-गरुड् चदे तब कृष्ण स, पुरी पचे आय ॥
जादी नम्र अभि दियो, दत्य राज तिहि ग्य ॥
चौपाई
आय दैत्य केरे संग्रामा । हरि भटे तेदियम उन थामा ॥
मारो दल्धर अगिनित वीरा । बानासुर देख परे तेहि भीरा ॥
मोरा कृष्ण मता सुन आन् । अटल दियो महि शकर राज्॥
बहु विधि युद्ध दत्य तब कीन्हा।कृष्ण चपर तेदि बाधि खीन्दा॥
बध्यो नृप शंकर सुधि पाई । कोपित आई तब कृष्ण लराई॥
दोनों वीर महा बरु धारी । लागी दोन परस्पर मारी ॥
दोनों मंत्र पुनि दीन अडाई । तारी मार मार पुन धाई॥
दोह जरे पुन मछ समाना । कौतुक आइ निरंजन जाना ॥
दोऽके समर पावकं उखि जबही । आदि भवानी चलभई तबही ॥
दोनों सुत कँ जब बिरगावा । बादर पवनके जसे स्वभावा ॥
ज्ञानक्षागर ( ४९ )
साखी-दोई सत॒ तब बरजीः आदिं भवानी आय ॥
ब्र उषा अनिरुदधको? शंकर दीन्ह मिटाय ॥
चले कृष्ण ओर सुत भामिनि । ता अंग चमक जिमिदामिनि॥
कृष्ण द्वारिका पहुंचे जाई । सो वृत्तान्त कौं सञुञ्ञाई ॥
जोपे हर हरिको नत धरई । थु सेवक कड कहि लरई ॥
प्रभु सेवक कह केसे क्ड़ाई । सो गति मोहि कहौ सश्च ॥
हरि इर युद्ध स्वे कोड जाना । सदसनाम किमि करबबखाना॥
यमराजा ज॒ ठगोरी लायी । ज्ञान देख कर चेतो भायी ॥
बूञ्चौ सब मिङि पाखंड धरमा। मँ जानौं भल काली मरमा ॥
अदेख देख सब कटि सञुञ्ञाईं । ताकौ विरला जन पतति आई ॥,
साखी-शङ्कर कियो युद्ध इरिसों, तब कहं कंसो दास ॥
पंडित जन सब थाप" सदस नाम विश्वास ॥
च पाड ।
चारौं वेद को मूर बताॐ । सदक्च नाम को सार बुञ्चाॐं ॥
काशीमे विश्वास जनावईं | विश्वनाथके मंदिर धाव ॥
विश्वनाथको भेद बतावहु । सार मन्थ मोदी समञ्चावहु ॥
सवे मन्थ करि आगिर कीन्हा । भक्ति तत्तव सवे मिलि चीन्डा॥
सब पर सहस नाम परवाना । जह लग शाश्च र वेद पुराना ॥
तेहि जाने जेते सब कोई । ब्रूद्ये मरम ज षिरला कोड ॥
बद्धो पडित मेद बताई । प्रथु सेवक कड केसे ररा ॥
यह सव बन्ध बहुत मे भाखी । ते यमराज सब ठग राखी ॥
ज्यों नारी पिय को ब्रत तजई । दूजे ज प्रम भीति सों भजई ॥
तैसो देखो यह संसारा। नाम बिना किमि उतरे पारा॥
साखी-भूरु परी सब दुनियां, पाखंडके व्यवहार ॥
मूल छांड़ि डारे गहै, कैसे उतरे पार ॥
( ५० ) ज्ञानस्षागर
चौपाई
तञ इरि कीन्हे चरित अपारा \ सो अब भाखोअगिलवग्यवहारा॥
पांडव पांच सेवा बहु करई । तिन सां कृष्ण देतु बह धरई
मारन तासु को मतौ बिचारा पांडव कौरव नृप दोई मारा ॥
दोनोमें छल कियो भगवाना 1 ताको ममं काहू नरि जाना ॥
बश्च विरोध वैर उपजाई ) प्रतिदिन समर करं तदहं आईं ॥
राजा द्रपद् स्वयम्बर ठाना । तहं पारथ राहू संधाना ॥
दुर्योधन अस कीन्ह उपाईं । कन्या मारि ठेव पाचों भाई ॥
कृष्ण् ताहि रुर मत उपजावा । ताते ताहि पांच पति भावा ॥
तेहि मारन इरि मतौ बिचार । गीता कद अध्याय अटरा ॥
कौरव आइ जो करहि क्डाई । ताहि कृष्ण ॒छटसे मरवा ॥
मारयो करण गंगसुत दोना । सबको मारि कियो द सूना ॥
मासयो दुर्योधन जो राई । अटारह क्षोदणी सार भिराईं ॥
सखाखी-पांचों पांडव बचि रहे, ओ जूञ्चे सब आर ॥
घरमराय अस कन्दा, कृष्ण प्री ईकार ॥
चौपाई
चल भये कुष्ण स्वगं अस्थाना ।शुन्यआदि जर शशिनि भाना॥
पुर वेकुढ ते आगे गयेऊ । तदां जाइके स्तुति किये ॥
अर्ख निरंजन अंतर्यामी । सवते न्यारे हौ तुम स्वामी ॥
` सबमे व्याप्त निरंजन राया । पांचो तत्त्व शून्यं उपजाया ॥
तुमही बह्मा विष्णु महेशा । आदि अत तुम देव गणेशा ॥
अरो कपाट कृपानिधि स्वामी । करहु दया तुम अंतरयामी ॥
ततक्षण भह अकाशतं वाणी । अहो कृष्णं सबको उतपानी ॥
अब जो के करो सो जानी । सोई वचन रेव सिर मानी ॥
तुम भेजा महि भार उतारह । असुरनको विष्वंसके मार ॥
ज्ञा नस्चा गर् ( ५१ )
साखी-मारहु जादव वेश कः मानो वचन रसाल ।
गोपी जाय संहारो, तेहि पछ तुव कार
क्ष्ण कव्चन-चौपाई
कृष्ण कटै सुनु पुरुष पुराना । कार अभे कदां मोर ठिकाना
तँ मम अंश मोहम वासा ) कार प संसार निवासा ॥
पातक जीव जो रहै महावर ।मारड तिनिदी ठम अतिबल छल
उपजत विनसत क्षीन भह देहा } कलियुग आं क्षीण स्नेहा ॥
क्षीण शरीर अवधि भह थोरा । प्रजी अवधि आई कै तोय ॥
` जस कदु कटो किया सो चहिहौ) जाक दिया राज मदहिकर्दि॥
छाडो महि मंडल्को भाऊ । जगत्राथं मे कष्ठ बना ॥
तजो कृष्ण अब बेग शरी । आये अन्न अब दास कंीङ ॥
क्त्ण वचन
साखी-सुन कियो कृष्ण अचंभो, केसो दास कवीर ॥
सो मोहि स्वामी कहब सब, तब मे तजों शरोर ॥
निरंजन वचन~-चौयाई ।
कटी अनेकं राज है मोरा । कलियुग नरदिअवधि दरे थोरा॥
पांडव नदन यज्ञ जो ठानहि ।ऋषिगण सबही निवत आवदि॥
यज्ञ पर्णं न्ह ताकर होई । नाम प्रभाव करै निं कोई ॥
केलि उत्पन्न मवुष्य शरीर । जा कं सुनियो दास कबीर॥
तिनके शिष्य सुपच जो होई । पूरण यज्ञकर ततक्षण सोई ॥
या सहिदानी तोहि बताऊ । तोहि सेती महि मंडर छा ॥
बाछिही राम रूप तुम मारा । ताकर रोह व्याध ओतारा ॥
ताकर वैर देह तुम जाई। फेर जीव कङ्क संशय नाई ॥
सुनिके कृष्ण चले सिरनाई । नगर द्वारिका पहुचे आई ॥
( ५२) ज्ञानसागर
पांडव निवते यज्ञ॒ पठाये । चलिये स्वामी बेग बुखाये ॥
मारन बध्ुया श्रिया कखागा। ततिं यज्ञ रची रहै रागा ॥
चर भये कृष्ण बार नहि खये । पुर पांडव के आश्रम आये ॥
आवत समाधान तृप कन्दा । छत तानि सिदासन दीन्हा ॥
आवत कृष्णसमभा सिर नावा । मोजन को तब आज्ञा पावा॥
साखी-बेठे गन्धरव देव गण, षि मुनिवर सब आर ॥
सब मिलि कीन्हा मोजन, इच्छा के अबुसार ॥
चौपाई
भोजन मये चंर नहि बाजा । राय युधिष्ठिर को मयी खजा॥
अहो कृष्ण का करौ उपाईं । सो मोदिस्वामी किये सुञ्चाई॥
जबहि कृष्ण अस भाव बताया । सुनहू मं युधिष्ठिर राया ॥
खोजड भक्त जो निंण गावयी । सतश्ण महिमा सदा बतावयी॥
आनब ताहि यज्ञ॒ निवताईं । दीन भाव कर तादि छिवाई ॥
कुष्ण वचन सुनि युधिष्ठिरराया। भगत बुखावन दूत पठाया ॥
सखुनिके दूत चरे चहुं देशा । नहिं कोह भक्तन भेटं वेशा ॥
चले भीम तब खागि न वारा । चहु दिश फिर काशी पशधारा॥
बेटे सुपच ताहि सों कई । निनं भक्त यहां कोड रदईं ॥
करै सुपच निशंन को जानो । सतगुङ् महिमा सदा बखानों ॥
साखी-करे भीम सुन हरिजन, कृपा करो मम संग ॥
चलो जहां दरि बेट १ स्वामी बाल शुविन्द् ॥
कृरै सुपच प्रथु केसे कह । कालदि जान कृष्ण परिहरञ॥
सुनतदि भीम कोप तब कीन्हा । यामि कहा भक्त वर चीन्हा ॥
यहि मारो तो राख रिसाई । कद्यो मंज राजा पर जाई ॥
तीन रोकं के जे प्रभुरा । तिनको भाखे कार कसाई ॥
ज्ञानस्रागर ( ५३ )
कृष्णदि करै कार की फांसी । कीन्दी आय भक्त की हसी ॥
मारयो नरि पर तुव भय माना ! यह श्ुनकर विदिसे भगवाना ॥
साखी-जाव युधिष्ठिर वेग दे, तुम आनो गहि पाय ॥
आज्ञा मानि चरे तव, आये युधिष्ठिर राय ॥
च पाई
अहो संत तजिये अपराधा । अधम उधारन खनियत साधा॥
चलो स्वामी मेरे ग्रह आनू) कृपा करौ मम होवे कानु ॥
हैं सुपच सुन पांडव रा । तोर काकाज होय वहि गञ॥
तुम्हरे गये दोय मम काजा । परमारथ तुम को बड़ साजा ॥
चर परमारथ कारण संता। सभा मारं वे इरषता ॥
आवत स्वपच कृष्ण जब जाना) होय काज द्रण सनमाना ॥
राय युधिष्ठिर पखारे पांड । भोजन सादर आन जिवाॐं ॥
भोजन करके सुपच भयो गढ! बाज्यौ घंट शब्द भयो गाड ॥
बाज्यो घट यज्ञ॒ भयो पूरा । कौतुक देखि षीगण भूखा ॥
पूरण यज्ञ विष्णु जब जाना । तबदी कीन्ड दारक षयाना॥
साखी-ब्रूञ्यो रे नर परानी, क्या सुप्चे अधिकार ॥
गण गन्धव मुनि देव ऋषि, सब मिलि कीन्ह अहार॥
सब के खाये घट नि बाजा । धर्मं की देह युधिष्ठिर राजा ॥
सो सब रहे पूणं यज्ञ नाहीं । नामहि महिमा जानत नाहीं ॥
सुपच जान भल नाम प्रभा । तातं पूरण यज्ञ॒ करा ॥
कृष्ण शक्ति मे सुनि ऋषि ्ुला। जान इक्क पंडित भूला ॥
बूञ्लो सन्तो नाम इमारा। नाम विना किमि उतर पारा॥
कृष्ण पारथ दी वेग बुलावा । तेदि एुनि निज मतो नावा ॥
गोपी लेके जाऊँ मे जरहवा । पुर वेड स्मेर ह तड्ा॥
(ए षके ) ज्ञानक्षागर
मथुरा ते तुम वेग ठे आवह । जाहु तुरन्त गहर जनि खावहू॥
चरु भयो पाथं हाथ धतु तीरा । गोपी केन कोरिन यदुबीरा ॥
आपस मे जो करे छुड़ाई । इक मारे एक मरजाई॥
छप्पन कोटि जो सबे सिरानो ! सो नर षट कृष्णहि के जानो॥
अष कन्या लखी चिजसारी। तिनकर कृष्णजो यहि विधि मारी॥
साखी-मारिन सब जेती इती, कृष्ण कार बरि यान ॥
तब अपने मन मे शुनो, करो उदधि अस्थान ॥
चौपाई
वधिकं देव॒ घात संधाना । बा बेरको भाव जो जाना ॥
जम सब प्रान घेर रे गयेञ । मारयो कृष्ण सूच्छित भये ॥
निरकार निरंजन राज आपहिमारिजो ताहिनसाॐ ॥
बालि का बेर व्याधा जब लीन्हा यहतो मेद न काहू चीन्हा ॥
तीन लोकं के कृष्ण भुवारा । रहै न बैर जीव व्यवहारा ॥
जो जोव आप स्वारथहि मारा । सोजीव अपनो किमि निस्तारा ॥
तबि कृष्ण असर मता विचारा । तत्व मता अस शूप संहारा ॥
जादव शूप कृष्ण सब मारे । पारथ बान रहै सब हारे ॥
गोपौ रही जो प्राणहि प्यारी । तिनको कृष्णयेहिषिपि मारी ॥
आये कृष्ण पहं अजन वीरा । खाज न छांडे अच शरीरा ॥
साखी-क कृष्ण सुन अर्जन, छडो यहि संसार ॥
हम तो जात है स्वगं को, इत॒परपच अपार ॥
गये पारथ जह चारौ भाई । चलो वदी जह यादो राई ॥
कहै सन्देश सनौ हो रा । यह्वा मोर दरश नि पाड ॥
मृत मंडल नहि मेदव मोरी । डौ महि बोलों अस तोदी ॥
छाड़ो राज पार सव भाई । पुत्र राज देऊ सब जाई ॥
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ज्ञानसागर ( ५५ )
चारेड पांडव काट बद भये । राययुधिष्ठिर सदेडतव गयेॐ॥
ता कहँ बड़ शासन जो कीन्हा । नाम विना देखो अक्त चीन्डा ॥
देखत कृष्ण अपन तन त्यागा । चिता ताञ्च की रचनजो खगा ॥
चन्दन का ताञ्च तन जारा) चर ययो काष्ठ खञुदर म्लारा ॥
इद्र देवन हरि सपना दये । तिन पुनि काद आन धरि ख्ये ॥
मूब्ायो द्वार काह नहिं जाना । उकं २ उढे दिन रात ग्रवीना ॥
शिञ्चुपारु युजा चार रदो जादी । मारयो कृष्ण जो भक्ष्यो तादी ॥
साखी-सवे अग सम्पूणं ई जगन्नाथ को भाव ॥
शिज्ुषाल की खजा उ उखारी, ताको वैर दिवाव ॥
दोइई भुजा काष्ठ जेहि उरेहा । बैरन टे सो गहि देहा ॥
जो काइ जीव जोर कर मारा । ताञ्च जन्म किमिद निस्तारा ॥
राम कृष्णतें को बड आही । बेर घात तासों न राही ॥
कृषी केरे किसान जस भाञ । देसी दसों जनम निमा ॥
दसों जनम ेसे दी बीते। तासों कै कि अक्ति करते ॥
बद्धो नहि चरि भगवाना । तीन जग गये कार नियराना ॥
हे बड़ ठाङ्कर ज्योति स्वदया । तिन सब रच्यो मही ओ भूषा॥
आष स्वार्थी तिनहू मारे । ज्यौ नकटी विश्वासहि वारे ॥
साखी-जिस सिरदार मही. कोः केरे चरि अुवार ॥
जरं तहं शीर पटवे, › मह बली तब धार ॥
चं
कलियुग अन्त मलेच्छ व्यवहारा। तब इरि निष्कलंक अवतारा ॥
मारि मेच्छ सवै पुर कैसे । पावक मध्य तण है जेसे ॥
पावक ङूपनि कलंक अवतारा । वण समान् मलेच्छ संहारा ॥
बहर कलंकी ज्योति समाई । कौतुक करे निरंजन राई ॥
फेस दसों जन्म निमाये। निरंकार पनि ताहि सताये ॥
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५ ५& ) ज्ञानसागर
धमेदास कै खनो शसाई । दसों जन्म कटि मोहि सुनाई ॥
करप अनेक निरंजन राजा । आगे केसा करि रै साजा ॥
सो. सब स्वामी सोहि जनाओ । उत्पति प्रख्य भाव बताओ ॥
उत्पति प्रल्य सुनो तुम पारी । कटो समे जो संशय जादी ॥
साहिब कबीर वचन
चारों युग है रहट स्वभाञ । सो अब तोहि करौ ससुञ्ञार॥
चारों युग अत जब होई वषं अभि निरंजन सोईं॥
पृथ्वी जार करे सब पानी रहै स्वगंसो करौ निशानी ॥
रहै जो देव तेतीस करोरी । रहै जब तपसी तपकी जोरी ॥
चन्द्र सूयं तारागण री । जबरी देह तजे शुखं चारी ॥
विष्णु बीती दस अवतारा । निं शिव बीत योग जो धारा॥
यदि विधि बहत्तर चोकड़ी जाई । सेवा फल पव अन्यां ॥
उत्पति करे पुन प्रथम स्वभा। एसे भवसागर निर्मा ॥
छंद्-महा प्रख्य जब किया निरंजन अभि सेवत ना रदो ।
लोमस ऋषि तबदोय अतदि शशि भानु पानी सब गयो॥
तीन गुन पांच तत्वं बीते दस चार सुत आकाश हो ।
महा देवी आदि कन्या तादी केरे वह गरास दहो ॥
सोरठा-सब भक्षे निरंजन राय, आदि अंत ना कठुर ।
शिव कन्यानाम विहाय, सब जी राखे आपमें ॥
चौपाई
सत॒ दया जाहि पर होई । नाम प्रताप बाच जन सोई ॥
निज घर इसा करहि पयाना । ओर सकल जीव तहां समाना॥
जाई रहै जहां धर्म॑हि द्वीपा । प्रथमकरीजो ोक समीपा ॥
उत्पति कारण सेवा करीं । पुनि यदि भांति खृष्टिअलुसरदी॥
ज्ञानस्षागर ( ५७ )
भक्त अभक्त सवे पुनि खाई । सवको _ भक्ष निरंजन राई ॥
सो पुनि महिमा वेद वखाने । वेद पटे पर भद ना जाने ॥
छंद -जेहि को भरोसा सोह चरावे कहौ तब केषी बने |
सवा केर जहिं परूषक सो भक्षण प्रति दिन केरे ॥
जानी के ब्द नहि केतो कहौ सञुञ्चाय दो)
आदि अंत स्वे अकं असख निरंजन राय दो ॥
सोरठा-काठ सबनको खाय; हरि इर बह्वासे सवे )
वाचे कोन उपाय; एकं नाम जाने बिना ॥
ध्रमदासवचन-तचौपःई
धमंदास टेके गहि . पा । ह स्वामी मोदि भद बताॐ ॥
कैसे आयो यहि संसाया । सो किये मोसों ध्यवहास ॥
साहब कवर वचन
सत्य युगम कवीर साहबका पृथ्वी पर प्रगट होना
सुन धर्मनि मे तोहि बताउ । टोक छोड मे इवं आउ ॥
सतयुग सत सुकृत मम नाउ । सोहं॑सवे तोरि समञ्ञाड ॥
दंस उवारन आयेड जबही । मथुरा नगरहि पचे तबही ॥
गुरुमठ मांज् जो आसन कीन्हा । र्या अत मोहि काट न चीन्हा॥
केदो भक्ति बह भाति दटाईं । बिन अकर न जीव जगाई ॥
बिवसी नाम रहै इक नारी । ज्ञानवेत ओ वरण मारी ॥
तासों कहो भक्ति परमाना । बिवसी सने अचंभो साना ॥
बिवसी वचन
साखी-अचरज कही तुम स्वामी, लोक वणं उजियार ॥
पटिरे टोकं दिखाओ, पीछे हो इतवांर ॥
१ रानी-एसा भी पाठ है । र्-बिश्वास
४ ट ) ज्ञानसागर्
४१.१८
तब इम मता अष कीन्हा ताके शीश राथ जो दीन्हा ॥
प्रसत शीश ताकर मय भागा । शून्य मंदिरे अहरा जागा ॥
देखत सरति निरति सो रोका । बिबसीका मेरयो सब धोखा ॥
डे स्वामी अब कीजे दाया । यमके घरसे जीव सुक्ताया ॥
बार अनेकं विनय तिन कीन्हा । तब इम नाम ठखाईं दीन्हा ॥
भक्ति भावसो करे अनदा । ज्यों चकोर पाये निशि चन्दा॥
ताके गृह निदक सब रई । िषरसी देखत ही पर हरदं ॥
साखी-जाके पाके देस जो उब्रे, तिनदिको जो बताव ॥
देस ग्यारह आयः गुरुप कीन्ह भिटःब ॥
तिन कड सत्त साब्दं जो दीन्हा । परम पुरूषके दोन कीन्हा ॥
तब उठि गयो पुरुषके गडः । सतयुग सत सुकृत मम न[ॐ॥
आवत जात लखे निं कोई । आज्ञा पुरूषकी जापर होई ॥
त्रेतायुगमे कवीर साहबका प्राकटय
चौपाई
रेतायुग आयो पुनि जबरी । युग अनुमान चरो मेँ तबदी ॥
नाम मरुनीदर धरो निःशका । प्रथम जाय् देखेड गद्लंका ॥
द्वारपाल सों कहि समुञ्ञाई । राजाको ठे आव बुलाई ॥
सन प्रतिहार कद अस वानी । रावन् मरम सिद्ध नहिं जानी ॥
महा गव कु गिने न आनो । शिवके बल क्यु शंक न मानो॥।
मारदहि मोहि करौं जो जाई ॥ गर्वं प्रहारी दै रावन राई ॥
जाहु तुरत कडा सुन मोरा । बार बंकं नहि रोव तोरा ॥
प्रतीहार जब बात सनाई) सिद्ध एक रै ठाद गसाई ॥
सुनिनृपक्रोध अनल समकीन्दा । प्रतीदार तुम मति अति हीना॥
भिष्चुक एक जो मोटि बुला । शिव सुत मार दरशन पावे॥
ज्ञानसागर् ( ५९ )
साखी-कहा प तेहि ऋषीकर, मोहि कदो समञ्चाय ॥
जोममिसो देव वहि; खे बहर घर जाय ॥
हे प्रथु आहि सेत जो भाज ! सेत अग जसं शशि रा ॥
मारा तिरक बदन है सेतः । कट च पति कोई आहि अजता ॥
मन्दोद्रि कै खनो हो राजा । एेसा हप ओर नरि ऊजा ॥
सेत ङ्प महिमा मेँ जानो) निश्चय दै कोई पुरूष पुरानो ॥
जाई तुरन्त गदौ तुम पा । डौ अकल सुन रावन राॐ॥
दक सिर बचन सनत प्र जरेंॐ ! जत इताशन जन घत प्रेॐ॥
चकि भयो असुर अनिर समचीन्हा।बहत वेग मनम अस कीन्हा)
सत्तरवार खड्ञ सो चरखावा । तब इम ओट तरणकी खवा ॥
साखी-त्रण ओट जहि कारणे, गवं परिहरौ राव ॥
तृण जवदी ना ट्व्यो, सराजदि शोक जनाव ॥
केह मन्दोदरि गहि मम पाड गवं न छड़ रावन राॐ॥
शिवकी सेव केरे मन मानी । अर राज दीन्हा तिन उानी॥
तब चलत हम कही अस बाणी । मठ नृपति त॒म मम न जानी ॥
सुनु. रावण जो ककं मञ्चारा । सब कहं रामचन्द्र जो मारा ॥
मुक्ति गम्य नरि .पाइ। तातेमे कदु कों बुञ्चाई॥
तो कहं भक्षहि कार अन्याई । काचा मास स्वान जिमि खाई॥
काठ मक्ष जिव सबहि निदाना । अधिक तोर कद्ध मरदे माना ॥
अगिला जन्म तोर रोड जवी । भक्षी कृष्ण देख पुन तबरी ॥
उनमे करिदो बह अभिमाना । ताकर तोहि कहा परवाना ॥
तृण नरि टरो बल तुम ब्रञ्चा। आगे कहा तोह बरु सूञ्चा ॥
वालि नाम इकर कपि जो दोह । रख छह मास तोदि कं गई ॥
4 -39
तिनकी कांख ररि क मासा । एेसा कदं पग कान्ह प्रकाशा ॥ ~ |
(६० ) ज्ञानसागर
साखा-रावणको अपमान करि, अवध नगर चलि आय ।
दशा सन्त कौ जान के, सधुकर पके पाय ॥
नमस्कार कर गहि ल्ि पां । बार गोपाल चरण तर नाड ॥
ताकी प्रीति नीक मे जाना । तासो लोक संदेश दखाना ॥
तिन कीन्ही बिन्ती बहुवानी ¦ दे पय देखो लोकं सहिदानी ॥
लेकर चरे पथ तेहि ज्हवा । पांजी एक रहे घम तरहवा ॥
देखि ताहि दौरे यम दता । कहां छे चरे विप्रको पूता\
कहं युनाद्र सुनो यमराईइं । इनको जिन रोको त॒म आई ॥
जाकर दूत जाव तेहि पासा । पे करोते की आशा ॥
सह्या विष्णुं शिव आज्ञा देदी तीन छोक मँ जिव गहि लेही।
साखी-छोड् देव यह मारग, तुम अब आहू कौन ॥
यहां कोई नरि अवे, तुम कह करत हो गौन ॥
चौपाई
तव भ्रुनीदर अस बोले लीन्हा । दोह दत तुम सब बरदीना ॥
शब्द् प्रमाण न रोइ बरु थोड़ा । दूतन जीत गये महि ओरा ॥
तिनको दिव्य दृष्चि कर दीन्हा । तर्हवा जाय रोकं तिन चीन्हा ॥
देखि स्वदूप सुरंग अपारा । अर्के जोत जहां उजियारा ॥
देखत मथुकैर वहत प्रतीती । दे स्वामी त॒म यम क जीती ॥
मो कहं दीजे शब्द् उढाईं । जेहिते हम परम पद पाई ॥
अति आघीन देखा मै जबहीं । नाम दटाय दियो बेहि तबहीं ॥
अति आधीन जो बोरस्वभाञ । मोरे ग्रह अब घारे पाञ॥
ताके गरड आयो म जबहीं । सोर जीव शरण भये तबहीं ॥
साखी-मधुकर जते जीव सब, रोक कीन्ह पयान ॥
तातं नाम सुनींदं करि, जीवे संत्त दियो दान ॥
ज्ञानक्षागर् ( &१)
चौपार्ट
तब हम गये आप सख सागर । अभय पश्च जदं नाम उजागर॥
विन्ती दंडवत कीन्ह अनेका । पुद्प दीप द्वीपन को थेगा॥
क्रीडा विनोद होत बह भावा । द्वापर युग धम न नियराया ॥
द्रापरमे कीर साटिका प्राकटय
आज्ञा पृक्ष दीन्ह मों सारा । तति बहुरि नाम उर धारा ॥
कर्णा मय मम नाम प्रकारा । बह जीवन कहं डायो फांसा॥
आयो जह चन्दविज बवडराॐ । गड गिरनार नगर तेहि ॐ ॥
ताकी नारि रदे व्तधरी । पूज साधु कुर खाज विषारां॥
तिन पुनि सुपि सो हमारी पाई । ठेगयी बृह विधि तुरत छ्वाई॥
आईं चरि बिन्ती कीन्हा । तुवं दर्शन रानी चित दीन्डा ॥
म नहि राजा रावकर जाऊ । उठ रानी आपरि चङि आॐ ॥
नमस्कार कै कटि अस वानी । मोरे शह पय धारो ज्ञानी ॥
ताको प्रीति नीक यै जाना । राजा शह तब कौन्ह पयाना ॥
रानी कह उपदेश जो दीन्हा । राजा कर कड शंक न कीन्हा ॥
साखी-एक दिविस जो रानी, ब्ञ्ञा मता अपार ॥
कहा मता तुम ज्ञानी, सो कडु कहो विचार ॥
रानी इन्दुमतीका कबीर साहवसे ज्ञान चर्चा करना-चोपार्
तासो कद्यो सनौ दो रानी । अधर्हिं रों नाम मम ज्ञानी ॥
जो कोड माने कहा हमारा । ताको पठ जम सों न्यारा ॥
कृहे रानी मोहि कीजे दाया । जातें नदिं इते यमराया ॥
बहत भांति त्व जो चीन्हा । बहु विधि विन्ती सक्ति अधीना॥
कृष्ण-विष्णु-व्यवहार
सोवत कष्ण स्वप्र इक देखा । बहु वैङुंढ सेत जु रेखा ॥
उग्यो बादर सेति एला । सपना देख कृष्ण मन भला ॥ श
( ६२) ज्ञानसागर
अहो ब्रह्ला चै सपना देखा । बादर उमग पदप की रेखा ॥
सोवत देखा पुरमे अपना । ब्रह्मा वेद देख कडु सपना ॥
रास उश गनि मोहि बताओ । जेहि ते जीवका मम मिरा॥
तब पुनि ब्रह्मा वेद विचारा । पुनि माष्यो ताकर उपचारा॥
खनो विष्णु समञश्चाञ तोही । यरी आज्ञा मयी सो मोही ॥
साखी-रै कोई ज्ञानी जीव बड़ा, तेहि कारण प्रथु आव ॥
दूत ताहि नरि पावई, सत्त पुङ्ष सुन नाव ॥
चौपाई
सुनिके विष्णु अचरज मनकीन्दा। ब्रह्मा सों तब बोरे लौन्डा ॥
सोइ करौ जो जीव न जाई राखो तादि महि भरमाई॥
सनिके ब्रह्मा मतौ विचारा । तक्षकं रूप दूत पु धारा॥
यदह सब भेद जवे इम जानी । इन्दुमती सो आज्ञा ठानी ॥
काल ङ्प तक्षकं को आरी । डस रै तोरि जो कष्ठ जनां ॥
बिरह शब्द गहो मन लाई । यमको दूत जीत नहि जाई ॥
रानी शब्द बिरही पाईं । ता कँ तव प्रतीति मन खाई ॥
बहुविधि सुमरे शब्द अघाई । कार घरी निकटे हवै आईं ॥
चारो दूत पठाव यम राऊ। गद् गिरनार वेग चरु आ ॥
साखी-रानी भक्ती ीन्ह मन, कार न पावे दवि ॥
साध चरे घर आपने, रानी मस्तकं नाव ॥
चौपाई
राजा रानी दोई शिष्य मोरा । रानी लीन्ड राव मति मोरा ॥
तब यमदूत मता अस कीन्हा । चिचरसारमे पर्हचे लीन्दा ॥
रानी चली सिज्या पर जबहीं । तक्षक मास भर्म मयो तवहीं ॥
रानी कहे उस्यो मोहि संपा । राजा कियो कठिन संतापा ॥
मं्ी गणी सव तुरत बुलाये । राजा आज्ञा सों सब आये ॥
्ञानसागर ( ६३ )
रानी शब्द् बिरही भाखा । दूर दूर सवदिन को राखा ॥
रानी कोध बहत तब कीन्दा । बहुत हौय त्रप अति आधीना ॥
अरे भाई मम प्राण प्यारी । यही बार तुम चेव सम्हारी ॥
भूदित रानी सव चरि आये । जाथत जान के सवे सिधाये ॥
तक्चक विषं नहि ङभ्यो नारी । अंतक इत रहै सव हारी ॥
साखी-रानी उठि गदी भह, राजहि इरष अपार ॥
सुमिरन इम को कियो, धन्य है गु इमार ॥
चौपाई
तक्षक राव तब आये जवां । ब्रह्मा विष्णु महेधर तवां ॥
विष क तेज शब्द सों जीता । स॒निके विष्णुं भयी तब चिता॥
धमयय का तुरत ईकारा । यम इतन कौ जौ सिरदारा ॥
ताका इरि अस मता नावा । करियो सबै तुम सेतडि भावा ॥
आने छलिकं जो नृप नारी । निश्चय आज्ञा आहि इमारी ॥
सुनिके दूत भेष कियो रंगा । अपन कीन्ह सब सेति अङ्ना ॥
आये दृत नगर नियरावा । रानी ेा सपना पावा ॥
आये गुर ज्ञानी जौ हमारे बोलत अभृत वचन सुधारे ॥
ज्ञानी वचन
सुन रानी तोहि भेद बताॐं । कार चरित्र सब तोहि सुनाऊं ॥
छलबे अड ताहि सम्हारो । सेत ङप जिन भाव विचारो ॥
साखी-मस्तक उचा कालका, चित्तम गुणका रंग ॥
यदी चिह्न तुम चीन्दियो, ओर सेत सब अंग ॥
चौपाई
भये प्रभात काल तब आवा । सेत इष सब अंग बनावा ॥
आये जहां तहां नृप नारी । तिनसौं एेसो बचन उचारी ॥
( ६४ ) ज्ञानसागर
भे तो तोक दीक्षा दीन्हा । तक्षक उसे तोहि करं छीन्हा ॥
तब तोहि मं दियो यें सोई । कार को अजय जाहिते रोई ॥
ते पुनि तेसो तत्व विचारा । दषत भये तब धनी तम्हारा ॥
बेगी चलो गहर जिन लाओ । प्रु को द्रस तुरत तम पाओ ॥
इदु मती सपना जो देखा । वेसो देखो ताकर रेखा ॥
ह गुण चक्षु में राता। ओर एुन देखो उचा माथा ॥
र स्वेत सब देख्यो अगा । पाह प्रतीत स्वप्र प्रसंगा ॥
अरे कारुतें क्या ठग मोही इस शूप नरि छाजे तोदी॥
यह छर मता न लागु तुम्हारा । रै समर्थं बड़ गुरू हमारा ॥
साखी- मम शुरूकी परतीत यह, धरनी ध्रै न पवि ॥
काग न दोय मरार सम, यह छति तोहि न भाव ॥
चौपाई
सुनिके दूत कीन्ह तब रोषा । इन्दुमती को दीन्ह सो दोषा ॥
तिन पुनि सुमरे अपने स्वामी । भक्त हेतु चरे अन्तर्यामी ॥
ज्ञानी आवत कार पराना | ता कहँ छे पुनि रोक सिधाना ॥
घन्य भाग तिन रानी केरा ज्ञानी आय कारुसों फेरा॥
रानी मानसरोवर आई । अमी सरोवर ताहि दिखाई ॥
कबीर के सागर पांव परो जबही । सुरति सागरे पहँची तबही ॥
पटुचत तासु दंस हरषाने । सब मिलि कीन्ह तासु सन्माने ॥
सतगुर दाया कोन्ही जबदी । षोडश भानु शूप भयो तबदी ॥
भयो दषं रानी अति शोभा । राजा छग्यो करन अति क्षोभा ॥
हे सतगुर् मे तुम बिहारी । राजि आनो पतहि हमारी ॥
सतगुर् कै सुन संत सुजाना । राजा भाव भक्ति नर्द जाना ॥
आ तोहि भयो हंसको रूण । कारण कवन चरै तु भूपा ॥
ज्ञानसागर् ( ६ )
साखी-राजा भक्ति न जानदीः ततिं ईस न आव ॥
बिना तच्च नर्हि दिरम्मरः, ईस न होय भुक्ताव ॥
चपाद्
हे स्वामी मँ भव जव रदहिया ¦ राजा भक्ति न वरजे कटिया ॥
है संसार का ठेसा भाऊ । पुरूष पराय ध्यान नहि आॐ ॥
जो कोड राते भिया विरानी। ताकी करै सवे मिलि हानी ॥
छोटे वड़े को यह व्यवहारा । धन्य नृपति जिन ज्ञान बिचारा॥
करो साध सेवा मे जबदहदी राजा मोहि न बरजे कवही ॥
जो राजा अटकावत मोही कैसे भदत तब मै तोीं॥
धन्य नृपति जिन भक्ति दटावा ' आनिय ताहि ईस पति रावा ॥
सुनि ज्ञानी ताही की वाता चङे तहि तर्दैदी बिहैसाता ॥
आये भवसागर जव ज्ञानी । यहां नरपति कौ अवध खुटानी ॥ `
आये लेन ताहि यमदूता । राजिं कृष्ट जो देत बहता ॥
साखी-हंस ताको नरि षवे; धेर रहो जो रावं ॥
राजा परो अगाध मे, सतर को शुहराव ॥
चौपाई
राजा तत्व मता नरि चीन्दा । ताते यम राजन इख दीन्हा ॥
पावे यम नहिं छाड़े तादी । भक्तियोग जो देसो आही ॥
तब ज्ञानी आये तेहि ठाई । देखत जीव बहत संका ॥
ज्ञानी टीन्ड जीव कर आगे । देखत दूत ताहि सब भागे ॥
दूत चहुं दिशि देखत जाव । मरकर रष्टि पक्षि नहि पं ॥
जस आकाश कँ जाय पेष । मरकट दृष्टि आये सत इङ ॥
ठेसे तादि दूत यदहरावे। नहिं जब देखे तब पताव ॥
जहां गि गम तहँ र्ग हेरा । आगे देखा धुन्ध कुदेरा ॥
हस गये जब रोक द्वारा । षप अनूप देख उजियारा ॥
गये नृपति ईेसन कौ पाती । ता मध्ये पुन जहस अजाती ^ भ
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( ६६ ) ज्ञानसागर
साखी-रानी चीन्हों नृपति को, आन धरे तब पांव ॥
नृप सन मे बहु संङुचे, रुला ताहि जनाव ॥
चौपाई
कह रानी सुन साधु थुवाया । चीन्ह नृपति दों तुम दारा ॥
इन्दुमती दै मेरा नाञ। यहि कारण रेकष्यो तुव पाड ॥
राव कहे किम करो प्रमाना | बणं तुम्हारो इस समाना ॥
शोभा बहु देखों तुम अगा । केसे तोहि कहं अर्धंगा ॥
देख करुणामय वचन उचारा । निश्चय मानो वचन हमारा ॥
हस खूप होवे नर नारी । जिन भवसागर भक्ति विचारी ॥
नृप को भयो इस का भावा । जिन पुनि ठेसी शोभा पावा ॥
भुई मे रदं जो अंतकं दता । तिन पुनि विस्मय कीन्द बहूता॥
दूत चलि गये जरह भिय रा । तिनसों जाय कयो सत भा ॥
स्वामी त वरण यक आवा । रानी तृष रेह रोक सिधावा ॥
केसो रोकं ब्रह्मा पर जरे ! जरत इताशन जवु धृत परेड ॥
चरो इरी इर संग हमारे । जह्वा राजा रानी सिकारे ॥
चरे बेग तब तीनों भाई । बाहन साज चरे तिय राई ॥
साखो-सुम्मेरते ॐच गये, तब देखा अंधियार ॥
नव खड महि तब शंडिके, आमे को पगधार ॥
चौपाई
परैचे विषम सरोवर जाई । विज्ञली हुओ द्यां अन्याई ॥
ब्रह्मा रिव बाहन थकिं गयऊ । सतगुन तेज विष्ण का भयउ ॥
अलख निरंजन भयो तिहि टाॐ । ओ देवी ते आशिष पाञ ॥
तेहि ते विष्णु गो अमर जर्हेवा । कामिनि मान सरोवर तंवा ॥
देखत रूप विष्णु मन भूला । श्वेत पुष्प पद्म जस एूटा ॥
कामिनि मान सरोवर रजे। जुत्थ जत्थ जोड़ भ साज ॥
ज्ञानक्षागर् ( ६७ )
न अध्रान तहां तिन्ह छागी । सत्त सुकृत बोरे अनुरागी ॥
सब मिलि भयो अचंभो बाता । एेखा अचरज नरकौ बाता ॥
कोई कहे नर देख पखेह । ऊँची दृष्टि सबै मि इड ॥
वेग निकासी यहति आजु) रहन न षवे करौ सों काजू ॥
साखी-दोईं सब्डारजो भेजे; नर सेकडो बुञ्ञाय ॥
छांडो मान सरोवर; यहां नहीं तुवं ठय ॥
चौपाई
प्रतिहारन तब आज्ञा कीन्हा । तिनसोंहरि अस बोरखन रीन्डा॥
देखा चाहो तुम पुर पाटन) डे भथ मेद करो कड आपन ॥
तव॒ प्रतिहार करं समञ्जाईं। नरको हप दरश नहिं पां ॥
जौ लग बीरा नाम नहि पवे। सो जीव केसे खोक सिधावे ॥
भयो जो बड़ो निरंजन रा तेड यां रहन नदिं पाड ॥
जातू विष्णु कहा सुन मोरा नातर चक्षु हीन होय तोरा ॥
चरे विष्णु तब रागि न बारा । हरि कमखासो मं विचारा ॥
यह क बात अचभो आही । कहत न बने ङ्प मोहि णी ॥
देख सटिहारन वेग निकारा । चरे जीव जहां राज तुम्हारा ॥
अचरज बात की नरि जाई । धन्य पुरूष जिन खोक बनाई ॥
जब मै ध्यान धरा प्रमु केरा। अलख शूप देखो बहतेरा ॥
ेसा ङ्प कहू नहिं देखा । अचरज भयो नजाय विशेषा ॥
साखी-चले बरह्मा हरि शंकर, शडि रोकके खोज ॥
बस राशि के परभावतं, सङ्कचन होत सरोज ॥
कलियुगे कवीर साहिबका प्राकट्च-चौपाई
सतयुग जेता बीत जब गयञ । कलियुगको प्रभाव तब भयॐ॥
छाडो रोकं रोकंकी काया । प्रथमहि मान सरोवर आया॥ `
(8८ ) ज्ञानसागर
पांच तत्व तीन शण साना अिशुण शूप कन्द उतपाना ॥
रूप मदष्य सदेह सम्हारा । नरि ठेर अहार व्यवहारा ॥
जो कोइये विधि करे उेदा।सोतो हैकरताको मेदा ॥
करता देह तबे निरसावा । तामरितच्च प्रकृतिदिस्वभावा॥
आयो निरयण काक रारीया । आवा गसनकी टन पीरा ॥
जगन्नाथके मंदिरकी स्थापना
प्रथमरहि आयो सागर तीरा । जगन्नाथ जर काष्ठ शरीरा ॥
जाते परम वचन मे हारा । बाजी माड किया प्रति पारा॥
आसन वेर तीर मे लीन्हा । सो स्वरूप काहू नरि चीन्डा ॥
आया राम विप्रके शूपा। तासों कथि कष्मो अजगूता ॥
साहिब कबीर वचन
साखी-वाचा वध मे आइया, मंडप उठि है तोर ॥
मान जास सिधू जवे, दशन देखौ मोर ॥
चोपाई
तो कहं थाप वचन प्रवाना । तीन लोकं तुम करत बखाना ॥
तो परे को कदा अधिकारा । सोई कटौ तुम बौद विचारा ॥
बौद्ध वचन
मन वच कम परमे जो मोई । कोटि जन्म रखुगि विप्र सो होई॥
ओं पुनि विया ओ धनवंता । यहि सुनके जो भयो हरषता ॥
सःहिवि कबीर पचन
आवा गवन निरवारन आयो । सत्त शब्द् ते जीव छुड़ायो ॥
जो बहु जन्म थाकौँ तुहि पादीं । कैसे जीव लोकं तब जादी ॥
बिना नाम नरं जीव उबारा । कदि अब भाखौं कषु उपचारा॥
मारकंडे तर जाइ नदाई। अस रहस बोरे भिथुवन राह ॥
ज्ञानसागर ( ६९
अक्षेबट कृष्णरोद्दिणी अस्नाना । इन्द्र दमन सथद्र अस्थाना ॥
यहि विधि तीर्थकरे मन जानी । पुनर्जन्म ना हवे प्रानी ॥
साखी- हसे ष्ण छर मता कटि, जिमि माहुरको मी ॥
असर पुरषोत्तम क्षे फर, ज्ञानवन्त कहं दीट ॥
चौपाई
समाधान इरिको जव कौन्डा । आसन उदधि तीर मेँ लीन्हा ॥
चौरा कीन्ह तरौ पुन जाई । इन्द्र दमन तब आज्ञा पाईं ॥
जवरहीं मंडप काम लगवा सागर उमंग खसावन आवा ॥
उठावह मंडप करि निःशका । उदधि जाखकी मेटब शंका ॥
आयो क्रोध ठहर जब पानी । मेटयो पुरूषोत्तम सदहिदानी ॥
लहर उमंगी सागर तीया) आय जहां तहं चत्त कबीर ॥
देखत दरस महा भय मानी । बोल्यो वचन जोर ग पानी ॥
हे स्वामी त॒व ममं न जाना । जगन्नाथ वर किया पयाना ॥
क्षमौ अपराध मोर अरथुराया । रेड वैर अस कीजे दाया ॥
तासों पुनि अस वचन उचारा । बोर द्वारिका बैर तम्हारा ॥
साखी-राम शूप सागर बध्यो, ततिं उदधि उमंग ॥
बोरौ नगर द्वारका, भयो शुचिर प्रसंग ॥
चोपाई
तब तै उजर द्वारका भयञ । पेडनको तब स्वप्रा दय ॥
आये मोपर साहिब कबीरा । आवा गमनकी मेटन पीरा ॥
तेसा स्वप्न पेडन दीन्हा । तीथं स्नान तेहि सब कीन्हा ॥
उञ्चो जो मंडप बाज बधावा । कनकं उरे नरं हाथ बनावा ॥
एक दिना कौतुक अस भयऊ । सागर तीर पडा चङि गय ॥
करि असनान चलो मेडप पासा। मनमें . एसा वचन भरकासा ॥
प्रथम चौरा म्र को गय । गकुरके नहिं दशन किय
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(७० ) ज्ञानसागर्
तेदिके मन पाखंड जब देखा । किय कौतुक सो कदं विशेखा॥
जरं खग मंडप पूजि बीरा । तरह लग देखि खूप कवीरा ॥
गयो जहां कड मूरत आरीं । कबीरको रूप भयो तेहि पारी ॥
अच्छत पुहुप ङे विप्र मन भूला। नरि राङ्कुर जो परूजहू फूटा ॥
साखो-तब पडा सिर नायो; प्रभु चरि अवगाह ॥
कोघ छोडिये स्वामी, पा करो मोहि पांह ॥
चौपाई
अपने मन आन्यो प्रथु दीना । ततिं प्रथु तुम कौतुक कीन्हा ॥
तासौ बचन मे बौल्ये लोन्हा । सो पेडा पुनि कदी जो कीन्दा॥
सुनड विप्र तुम्हे आयसु होई । दुबिधा भाव करौ मत कोई ॥
ब्राह्मण छाडड जात अजाती । ताते मेरब् सबकी फांसी ॥
भाजन मादि भमे जो करदीं। ताकी अङ्क दीन अन॒सरदीं ॥
तब पडा विन्ता अस उना! इंस्वामी रै तोहिन जाना ॥
क्रो सोई जो आज्ञा दीजे । कदु जां चों सो भरदानञुहि कीजे ॥
जो मन इच्छा दोय तुम्हारी । देउ सोई अस वचन उचारी ॥
साखी-सागर नीर बड़ खारा, सोतो्रसो न जाय ॥
निमेल जल मेंरमागौ, सो दीज प्रथुराय ॥
जरं चोरा दै सागर तीरा खनहू कूप दोय निमैर नीरा ॥
तहां खनासो आय तब कीन्हा । जल मगाय पेडन कहँ दीन्दा ॥
कूप बनायो सागर तीरा । तहां भयो पुनि निर्भर नीरा ॥
यह तो भेद जाने सोई संता । कबीर सागर वञ्च मतता ॥
हरी भेद मै सागर आयो । तेदी सकल चरि स॒नायो ॥
भगी को कीन्दी मे दाया । ताको एकं जो भेद बताया ॥
ताकी दियो मता कंडारी । जीव भेद सों लेत उबारी ॥
नञानसागर (७१ )
पठ्वे जीव नाम दे जवा । भुक्ति पदारथ फट हे तर्हैवा ॥
चार भाव कामिन उजियारी मान सरोवर रै वह नारी ॥
धमदास कहै अस बानी । स्वामी कद स॑त उतपानी ॥
ट्ख श्प जो षोडश भाना। कामिनि चार भाव परवाना॥
साखी-कारण कौन द कामिनि, चार भाद कुं थोर ॥
शब्द गहं सव हंसा, संशय भह जब मोर ॥
साहिब कवीर् वचन-चौपारई
सुन धर्मनि मँ तोहि बताॐ । यह सब भेद मैं तोडि बञ्ञाॐं ॥
चोरासी लक्ष जोडन ठाना । भुक्ति छेच नरको उत्पाना॥
तातं प्रभु प्रगटे नर भा) ताते शोभा ईस बह पाङ ॥
आय अदेह पुरूष रह ज्हवा } नर को इष प्रगट भये तेवा ॥
जेहि मुक्ति चदा निमाई। इस प्यार शुक्ति अधिका ॥
भगी कीर शिष्य जो होई । पवि भेद मथ हीय सोई ॥
सिधु मध्य राह तिन केरा। अवे जीव ताहिसों फेरा॥
वहै राह भेग राज कर दीन्हा । यरी भेद विरङे जन चीन्डा ॥
पाहै मेद सन्त जन सोई) आन्यो सतगुरु जदि गम होई ॥
निज बीरा जो चोरा पव) इकोतर सो जीव लोकं सिधावे॥
साखी-यदी चरि करि आयो, चोरा के व्यवहार ॥
निज बीरा जो पे, तव जीव होय उवार ॥
चन्दवारेमं प्राकटयकी कथा
चौपाई ।
आसन कर आयो चदवाया । चंदन शाह तहौँ प्र॒ धारा ॥
बर रूप धर आयो तर्हेवा । आ पहर रह्यो मं जहवा ॥
( ७२ ) ज्ञानसागर
ताकी नारि गई अक्लाना। रूप देखि ताकर मन माना ॥
ङे गये बालकं सो निज गेहा । बहत भांति तिन कीन्ह सनेहा ॥
चंदन साड देखि रिसियाना । चरु गयो नारि तोर अब ज्ञाना ॥
बेग डार बालक को आन् । सुने रोग तो दोय अकान् ॥
जाति ङटम्ब सुने जो कोई । यह तो भली बात नरि होई ॥
चेरी हाथ तिन दीन्ड पाईं । उद्यान मास तिन दीन्ह अडाई॥
नूरीको मिलख्नेकी कथा
काणीमें प्राकट्य
कदु दिन काया घर दुख पावा । यहि अतर इक चङ्हा आवा ॥
सूरि नामजोवा संग नरी। देखत साटक भइ सुखारी ॥
बालक देख नारि मन भला । रषिके उदय कमर जस एटा ॥
साखी-अति सनेह जिन कीन्हा, नूरी देख रिसान ॥
बाखकं लीन्हो नारि अब, कहा भयो अज्ञान ॥
बालक वच्न-चौपाई
बारक दीन्ड मरी महं डारी । अस सुनि बालक दीन्द ईकारी॥
बूह्ञा कार फास नर नारी । एवं जन्म तेदि न्द उबारी ॥
पाछिलि प्रीति भयी अब मोही । ततिं द्रश भयो अब तोही ॥
नूरी वचन
तुम जानो अब मैं नरं जाना । सो अब मोहि सनाओ काना ॥
नूरीके पवजन्मकी कथा
कवीर वचन
पूवे जन्म ते ब्राह्मण दूखी । तोरे शद कबहू न्ह सुखी ॥
श्वपच भक्त मम् प्राणन प्यारा । ताको मान पिता अवतारा ॥
श्वपच भक्ति करं पुनि जबही । मात पिता प्र छागे तवदी ॥
ज्ञानस्ागर ( ७३ )
ताकी प्रीति भक्त मन धारा । ततिं भयो विभ अवतारा ॥
प्रथम प्रीति मोरे मन भावा । तोरे ग्रह यैं यहि विधि आवा ॥
तोसों कदी इक भक्ति दढाई । राखौ ममे इमार छिपा ॥
देव सुवर्णं नित्य तै तोदी ) एक युर पुनि ताकी डोई॥
साखी- बोलो नहि यहि कारणे, ताहि अक्ति न्ह माव ॥
माया देख भुनो, यहिं कारण तब पाव ॥
घर नरि रदो पुरूष ओं नारी । यें शिव सों अस वचन उचारी ॥
आनि देव लक्ष्मी संसारा ' आपन को निज भीख अहारा॥
आन कीं बार बदत दो योगर आपन नार करत हौ भोय ॥
काशी मरे जन्म नहिं होई । तुव महिमा वणं खव कोई ॥
ओ पुन तुम सब जग ठग राखा । काशी मरे अजल तुम भाखा ॥
जब शंकर होवे तुव काला कडां रहे तव भक्तं विचारा ॥
जीवन करत जो होय अकाजा । या शंकर तब त॒म कहं खजा ॥
सनि शंकर तब चल्यो छजाई ।यहि अन्तर चरूरिनि चलि आई॥
हे स्वामी मम भिक्षा रीजें। सब अपराधक्षमा पथु कीजे ॥
एक पु जो विधि मोहि दीन्दा । कबह बात कहै नहिं लीन्हा ॥
तोरे शृह पंडित अधिकारी । ठ बोर कस बोर्ह नारी ॥
हरि कमरा सम देखो ज्ञाना । बुद्धिवत त॒म ॒पुच खजाना ॥
साखी-सनकर महिमा प्रकी, नारे धरे तब पांव ॥
हे स्वामी मम च्छा) श्रवणन बचन सुनाव ॥
कहा खजान कदा फिर आवा । बिहसि कदा त॒म सिद्ध कडवा ॥ _
सुनिकै वरै दषे बहु कीन्हा । भिक्षा कनकं जाति को दीन्हा ॥
( ७४ ) ज्ञानक्षागरं
भिक्षा दे प्रमुदित चकि आई । दस्तामल् को खोज न पाई ॥
वाचा बन्ध तहं एनि आयो । काल कृष्ट भ तोर मिरायो ॥
सुन ऊख्दा मन भयो आनदा । जिमि चकोर पायो निशि चदा ॥
ङे सुत चके दष मन कीन्हा । तासों एुनिअस बोरेहि टीन्दा॥
आगिल जन्म जब होइ तुम्हारा । तुम्दै पठायब यमते न्यारा ॥
साखी-सुत काशी को ङे चरे, रोग देखन तहं आव ॥
अन्न पानी भक्ष नरह उख्हा शोकं जनाव ॥
तब ज॒हा मन कीन्ह तिवाना । रामानन्द सों कहि उत्पाना ॥
पे खत पायो बड़ गुणवता । कारण कौन भखे नहि संता ॥
रामानन्द ध्यान तब धारा । जख्हा सो तब वचन उचारा ॥
पूवं जन्म तें ब्राह्मण जाती । दरिसेवा कौन्हेसि भलि भाती ॥
कङ्क तुव सेवा हरिकी चूका । ताते भायो जलदा को हया ॥
प्रीति प्रभ गहि तोरी लीन्हा । ततिं उदाने सत तोहि दीन्दा॥
हे प्रथु जस कीन्ट्यो तस पायो । आरत हौ तुव दशन आयो ॥
सो किये उपाय गुसाई । बारुकं क्षुधावेत कड खाई ॥
रामानद अस युक्ति विचारा । तुम सुत कोई ज्ञानी अवतारा ॥
बलिया जारी बेरु नरि कागा । सो ठे उदे केरे तेहि आगा ॥
साखी-दूध चे तेहि थन तें, दृधदहि धरो किषाई ॥
्षुधावेत जब दोव \ ता करट देड खवाई ॥
जुरा इक बलिया ठे आवा । चल्यो दूत कोड मम न पावा ॥
चल्यो दूत जलदा हरषाना । राख छिपाई काहू नहि जाना ॥
सुन भामिनि आगे चल आवा । सो ठे जाई कोई भेद न पावा ॥
ज्ञानक्षागर ( ७५ )
दूध न पीवत नाम कवीरा । चेरत संत संम मत धीरा ॥
तिनसौं करै जागौ रे माई । बिना नाम नहं कार पराई ॥
कोहं न बद्धे मेद् हमारा । रामानद प्र तब पगु धारा ॥
तव अपने मन कीन्ह उपाई । तिनि दरश केसह् नहि पाई ॥
रामानन्दको गृरु करना
जाहि रामानंद गंग द्लाना ) वहि मारग् मँ जा पौढाना॥
तबहि पाव गङ् छाग कषीड् ¦ रामानंद सोद्यो मत धीड् ॥
उठ कवीर तव॒ वचन उचारा । रामानंद दै गड हमारा ॥
साखी-करहि गोष्ठी शिष्य सवः, कों ज्ञान जीत नि जाय॥
सप्त ऋषि सुधि पाई, शर् सों बोरे आय ॥
विद्या कदे मलेच्छ को दीन्डा । रामानेदं कोष तब कौन्ह् ॥
चरे शिष्य तब आज्ञा पाई । कबीर संतको आन बाई ॥
सुनतरि शिष्य चहू दिशि धाये। हैर खोज क्षीरे छाये ॥
आये कबीर कामि नहि बारा । शङ मंडलमें आन पयु धारा ॥
अन्तर कपाट शिष्य तब खाया । पूजत रामानंद हरि राया ॥
सुन कबीर आगे चरि आये । गुहि आनकर मस्तक नये ॥
लक्ष्मीनारायण सङ्कर सिरनाये। परिरे वच्च मारु नहीं समाये ॥
तवदि कबीर वचन अस भाखा । वच्च पिरि माखा तुम रखा ॥
अतर कषार खोर तब दीन्हा । रामानद् सुन अचरज कीन्हा ॥
दिव्यज्ञान तुम कर्द केहि दीन्हा ।जोर कर यरुदि विनोदित कीन्हा॥
कब इम त॒म को दिक्षा दीन्हा । नाम हमारा काहे तम लीन्हा॥
गुरू हमे तुम दिक्षा दीन्हा । ठ बोलका क्या फल चीन्हा॥
ने.१ कबीर सागर |
( ७६ ) ज्ञानस्ागर
साखी-गुङू जब चङे नहाने, तब इम दिक्षा पाव ॥
तते गुर कहि थाप्यो, फिर पीरे पताव
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पूज्यो पादन पेडित धमां । पटिरु न जानो तुम्दसो म्मा ॥
ञे तो चाहत युक्ति पदारथ । तुम पारहिन जापूजे निश्चारथ॥
तब गुर् सुनके अचरज भयउ । योग समाधि वैकुंठ गय ॥
सत्त समाधि षिष्णु जब देखा ' तापर देश कवीरदहि लेखा ॥
जह देखा तहां सत॒ कबीरा । ज्ूट ध्यान भूरे मत धीरा ॥
हे कबीर तुम ममं न जाना जान मरेछ किया अपमाना ॥
जो कङ्क आदि मुक्ति सन्देश्चा । सो सब मोहि कहौ उपदेशा ॥
साहिब कवीर वचन
छोडो सवे मान अभिमाना । तो कह देव शुक्ति फर दाना \
शिष्य सखा सौं बात जना । कारु तोर शरणागत आड ॥
कहे कृवीर कारु रहै काला । दै बड़ दाङूण कारु कराला ॥
साखी-ुक्तिदेव नहि खेव तुमः, रामानद् युर देव ॥
भोरटि जन्म गर्वाय दो, कारि पाहन की सेव ॥
सिकन्दर शाटकी बारता-चोौपाई
ता निशि को तब भयो प्रभाता । काशी आइ भयी एक बाता ॥
आये सिकन्द्र शाह सुल्ताना । दै व्याधा बहुं भेदं न जाना ॥
रामानंद की सुनी बडवा । ताते शाह आप चङि आवा ॥
आये मडप जहां स॒स्ताना । रामानंद तब देख रिसाना ॥
आये शाह सन्शुख भये जबही । रामानेद मुख फेरा तवी ॥
वार अनेकं तिहितं सुख फेरा । ताकी ओर कोथ कर हेरा ॥
मास्यो खग प्रयो खसि धरनी । शाह के अङ्क अनिल सम बरनी ॥
आये शाह जहां दुःख नसाबन । अधिकं भई जो देह सतावन ॥
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ज्ञानसनागर् ( ७७ )
पय ओं रुधिर चल्योग॒रु अंगा । पावक उदी शाइ के अगा ॥
तवे शाह ने सधि अस पाईं । महिमा जान कबीर बलाई ॥
साखी-कबीर दशन दीन्ल जवे, तपन भई सव द्र ॥
शाह कडा वम साच ही, ओं अ्छहका चूर ॥
पय ओ र्धिर चल्यो युङ् अगा । शाह कहै यह कौन प्रसंमा ॥
जेहि तन मान्यो शब्द हमारा । तेहि तँ चङे वध की धारा ॥
कीन्हा काठ केर विचारा । आधा अङ्क ङ्धिर अङ्खसाय ॥
अगले जन्म मुक्ति जो दाइ अङ्री जीव कहावै सोई ॥
गक जिलाना
यदै चरि तशं पुनि भय । तव नरी कै मंदिर गय ॥
काजी स॒द्धा सवे रदये' गाय आनि के गलो कटाये ॥
देखि दुखित मये सत्त कवी । महा व्याधि गाई की पीड ॥
केहि कारण गाई जो मारा सो सब मोहि कदो उपचारा ४
काजी काया देख ब्िचारी। एकहि ब्रह्म गाय क्यो मारी ॥
गाय जिवावह मगो साषरू। नातर वेद अथवेन इङ ॥
सत्त शब्द रहै जासु शरीर । व्यापी महा गाय की षीष्ट ॥
साखी-उरिकि गाय ठादी भई, आज्ञा जंवही कीन्ह ॥
काजी सदा जानि के, पाव पकर तब लीन्ह ॥
चोपाई
नगर के लोग अचंभो कागा । यह कबीर कत्ता दो जागा ॥
मगध गवन
तब तरह से पुनि कीन पयाना । उत्तर देश मगध अस्थाना॥ +
नूवा तूरी कार बस भयऊ । तिन पुनिजन्म मवुष्यहिख्य॥
५ ७< ) ज्ञानेसागर्
राजा बीर्सिह् देव बड रा । ताके ग्रह अब धास्यो पाड ॥
कमलावतो तासु नृप नारी । तिन बड़ सेवा कीन्ह हमारी ॥
ताको दीन्ह पान परवाना । तिन कु मेद हमारा जाना ॥
कंट्यो तासों सक्ति प्रभा । सुनत भयो आनदित चा ॥
वि्लोखां पठान बड ज्ञानी । सन्त जान जिन सेवा ठानी ॥
तासों कही शुक्ति परभाञ । ज्ञान गम्य तिन बहुत कराॐ॥
साखी-अति आधीन जब देखा, ता कर दीन्दा नाम ॥
प्रीति जानि क ताकी, कु दिनि किय विश्राम ॥
चौपाई
विजलीखां करै पीर हमारे । नृप वीरसिंह शिष्य तुम्हारे ॥
साहिब आप तजो जब देहा । दोह दीन सो कीन्ह सनेहा ॥
सुनि विहसि अस आज्ञा ठानी । दोह दीन से हम निरवानी ॥
हिन्दू तुरक नदीं दो भाईं। सुन पठान संशय उपजाई ॥
जो तुम दोडसों न्यारी रीती । मेरे मन कैसे होय प्रतीती ॥
तुम तो दो अदछइ के बन्दा । यह तो अरै आदमी गंदा ॥
त॒महि शरीर तजोगे जबदी । शरीर उपाय करो क्या तवबही ॥
के पृथिवी कै देहो जारा करहु दुक्मसो पीर इमारा॥
जो कडु होई रोकं भ्यवदारा । सोई कहो मम षीर पियारा ॥
जो सादिब इक्म जस करिदौ । मजार तुम्हारा रचिके घरिदौ॥
साखी- विसि कद्यो तब तिनसे, मजार करौ सम्हार ॥
दिन्द् तुरक नदीं हौ, एेसा वचन हमार ॥
चौपाई
दिन कषक गये तासु संबादा । राजा वीरसिह ने भेजे प्यादा ॥
बन्दीछोर आं मम गेहा। रानी विन्ती कन्द सनेहा ॥
ताकी प्रीति तदां पगुधारा । दुःखद्रन्द तिन सबे विसारा ॥
ज्ञानस्नागर् ( ७९ )
तिन पुनि कदी सनौ र् ज्ञानी । दतिया व्याह खगन मे गनी ॥
व्याह जो होय बिकट अस्थाना। क्या जान होवे संयामा ॥
कोई घायल कोह जाई मारा । खाड़ो आदी इह दिशि धारा
ताकी आज्ञा करं गुसाई । तिनि देह क्या करो उपाई ॥
गाड के जारो धूर । यह संशय मेटो रथ मोस ॥
करो सोई लोक कुर धमां । बिन कगे कोह जानै न म्मा #
साखी-जो गडोतो मारी, जो जारौ तो र ॥
करो लोककौ जो कति, बोख्ता बह्म निनार।॥
हे स्वामी तुम मोहि बताओ । तुम तनतजोतो काडिकराओ॥
जस प्रथु तस पुन सेवक करई । सेवा युक्तिं सदा सो तरह ॥
जो तुम कितहू करद प्याना । गाड़रि छग तमहं पठाना ॥
हसे सषे यह देखि परतच्छा । यङ तुम्हारो आहि यख्च्छा ॥
तस कठ भेद बताओ स्वामी । करोज्पा सो अन्तर्यामी ॥
वास्तव तेही कहा बु्ाइ जारौ देह जो क्षार उड़ाई ॥
ततिं लोकं में नहीं इडाओ । यतिं दोइ दीन फरमाअ ॥
गयो व्रेपति तर्द साज बराती । कौतुकं रचो देह तब त्यागी ॥
सुनत साज दरु चरे पठाना । राना मुदा ठे बिर खाना ॥
लेकर गाड करे निमाजा । करन बिशंनक दरी काजा ॥
साखी-रानी भेजे प्यादहदीं, तन जब तजो कबीर ॥
आयो विजा खान तब, सुनि वृत्तान्त गंभीर ॥
राजा पास पठाओ पाती । सुनतदि कोध जरी तब छाती ॥ : .'
छाडयो व्याह चरे दर साजी । हनं निशान सम्दर की बाजी॥ `
बाजा गाजी तुरदी आवदि । यह बिज्लीखां युक्ति बनावहि॥
ठेसी भांति सो कीन्ह पयाना । रन के आगे बज निशाना॥ `
५८० ) ज्ञानसागर
बंधी अञ्च अस चे बह सीरा । कुहक बान ओ बह धन तीरा॥
ब्रछीं सेरु ओ री कटारी । खड र तुरी चपर परचारी ॥
दोह दिशि देख अच्च चमकारा । मानो साज चलो जल धारा ॥
राजा कीन्ह म्रन का ठाना । वयरख रोप जो रहो पाना ॥
जब देखा भ रोत रराई । युद्ध जानि अस कम्यो उपाई॥
रानी जान मोर कड ममां । तिन पुनि कही तजो नृप ममां
साखी-परिरे खोदो मारी, सदां देखु निहार ॥
सुरदा नहिं वहि भीतरे कडा करत हौ रार ॥
सत्त कबीर नहीं नर देरी । जारे जरत ना गाडे गड़दी ॥
पठ्यो दूत पुनि जहां पठाना । स॒निके खान अचंभौ माना ॥
दो द आई सराहा जबदी । बने शुरू नहिं भटे तवी ॥
ठोनों देख तबे पछतावा । एेसे शु चीन्ह नरह पावा ॥
अपने मनं अचभा ठाना । रकं माहि चन गया छिषाना।
दो दीन कीन्ड बड़ शोगा । चकित भये से पुनि रोगा ॥
रतनाको कथा
तब अपने मन कीन्ह विचारा । रतना कदोडइन के पगु धारा ॥
रतना समाधान बहु कीन्हा । राजि षस्य सदेशा दीन्हा ॥
तुम नृप किमि करते पछताना । निश्चय आदी शब्द् प्रवाना ॥
रहौ सदा शब्दहि मन लाई । दरीन मोक्ष होय नरि भाई ॥
साखी -बिजचलीखां सौं दज करि, क्रिमि कारण पर्ता ॥
रहौ नाम लौ राइके, जाते कमं कटाव ॥
चौपट
लोकं वेद मँ एसे विचारा । किमि कारणमनदुखी वम्हारा ॥
सुने दंडवत बहु विध कीन्हा । तत्व मता नामदि गहि ीन्हा॥
रतना सों कहि मता अपाना । तेहि सुनिके दरष बहुं आना ॥
ज्ञानस्ञागर ( ८१ )
हे स्वामी मोहिं कीजे चेरी जतै कटे कमं की बेरी ॥
धन्य शब्द धनिजो कदु चहिये । सो सब स्वामी मासँ किये ॥
सवा सेर मिष्टान ठे आवह । ओर सवाक्रौ चान ंगावहू ॥
इतना चदिये ओर न काजां ) तति भाग चङे यमराजा ॥
सोई अश पान निज लीन्हा । ताको जीव दान मं दीन्हा ॥
अकूरी जिव भटे निज गेहा ! चबा नाम जो प्रथम सनेहा ॥
साखी -ताको पठ्यों निज भवन, तीन रोक तें न्यार ॥
नूरी के मन इच्छा, धर्मदास अवतार ॥
चौपाई
सुन धमं दास यह कुर धर्मा } मेटो तीरथ बरत इङ भमां ॥
कोटि जन्म कीन्हों तप धमां । बिन सत रं नहि मिटिहैभमा ॥
घमदासवचन
हस राज जो दीन दीन्हा । जन्य स्वारथ अधमको कीन्हा)
हे प्रभु मोरे बन्दी छोरा । हौं आधीन दाङ में तोरा #
आनह पान ओर मिठाई । जितनौ रतना के मन भाई ॥
आन रतना कहौ तुम स्वामी । कृषा करो तुम अन्तयामी ॥
कवीरवचन
प्रथम हि जो पव निज बीरा । पुरूष रच्यो सुख साग्र तौरा
जाके रहे पुरूष ओ नारी । बीरा नाम जीव रखवारी ॥
सवा लक्ष जीव नित्त जो मारा । तति सवा सेर व्यवहारा ॥
साखी-सवा सेर पिष्टठान जो, ओर सवा सौ पान ॥
इतना ङेजो शिष्य हो, यम तेहि देखि डरान ॥
चौपाई
रहर देखि जसे घट वारा । जिन्दै घाट उपर बेठारा ॥
जो कोइ इ्ूढा रूप बनावे। बिना पान जान नहि पावं॥
( <>२ ) ज्ञानसागर
आने फेर परवाना सोई । जेसा अक मुहर पर दों ॥
इतनी सुन हरषे धमं दासा । रिरनी पान खाई धरे पासा ॥
सेत् सहासन सेतु ई साजा । सेत् पान सिर क्षत्र बिराजा ॥
पाने दर्ते सबरी कीन्हा । तामे अक अग्र को दीन्हा ॥
पथस हि तिका वेग तुरायी । मारग मेद तवे समञ्ञायी ॥
बांए दाहिने रै सहि दानी । इक दिशि घमद्वितीय दुगंदानी॥
पाछे चित्र गपि को थाना । तेहि तजि इसा देइ पयाना ॥
ट्टे घाट असा क्रोरी। हसा चदे नाम की डोरी ॥
साखी-यमसो तिका तौरके, तब दीजौ निजपान ॥
पा प्रसादे इष तब, शब्द देख मन मान ॥¦
चौपाई
जाई उबारो इदस अकरा मनकी दिरा देख मन भूखा ॥
डे प्रथु कोन शब्द् दै सारा । तोन शब्द तें जीव उबारा ॥
एक शब्द पुनि दीन्हा देरी । यदी शब्द ॒तें जीव उबेरी ॥
जस दरषर ठे दीजे हाथा । दशन देखे ख ओं माथा ॥
धमं दास सुनत मन माना । विकसे कमर उदे जव भाना ॥
यही वस्तु से जीव उबारा ओर ज्ञान रै बहुत अपारा ॥
मूर नाम अक्षर धुनि साचा ' जेहि ते जीव कार सों बाचा॥
आदि नाम पुरूष कर आदी । भाग जीव पराव पुनि तादी ॥
घन्य भाग वस्तु जिन पाया । सोकं सत गु अलख ल्खाया ॥
अक्षर मूल ओर सब डाला । डारदि म फट एूल रसाखा ॥
किंचित को फ़ पवि सोई । क कबीर अमर सो दोई ॥
अक्षर मूक अमी पव शाखा । साखी रमेनी ताकी पाता ॥
सुमिरन डर पुषटरुप हे जोगा। तेदि सम आहिनाद्सर भोगा॥
साखी-अक्षर धुनि खौ लावई, अपराधे परिचय योग ॥
कह कीर संशय गयी; भोगहि मध्ये भोग ॥
, 4
ज्ञानस्चागर ( ८३ )
चौपार्द
भव मे अक्षर परचै पे) सत्त गर सतलोक सिधावे ॥
पुट्ुपहि से फल उपज सारा । फर है भुक्ति भोगसे न्यारा ॥
हे प्रभुजो इतना नर्दिजाना सो जिव कमे छोग पयाना ॥
पच अमीका सुभिरन दीजे ) बदी ओर ताहि किमि कीजे ॥
ओ पुनि ताहि देव जप माला । आवहिं खोकसो मौनडिडाला॥
निश्चय कहो पथ कर भाऊ । इविधा भाव खरो मत काड ॥
कटो पंथ जो पौजी वाका) धरती शीश स्व्मंका नाका ॥
साखीौ-यदहि विधि राइ चरावहु, सख॒नह दो धर्मदास ॥
जीव डाओ काठ सो, सत्त शब्द प्रकाश ॥
धरमदास्र वचन-चौपाई
हे प्रथु मे कहत उराऊं। कहं सो एकं वस्तु जो पाऊं ॥
जो नरि पावहि एती साजा तासों किमि. डरि ३ यमराजा॥
कनीर कचन
साठ समय बारह चौपाई । एही तत्व ईस धर जाई ॥
पांच अमी मर्ह एको पवे। है परमान सो रोग सिध ॥
अथवाजो एकौ नरि पवे। चार करी तच्वन मन र्वे ॥
चार करी बूञ्ने मन लाई । यमराजा तेहि देख उराई ॥
अदेख देख तत्व मन धरयी । बोख्ता ब्रह्म सो परिचय करई॥
इनकी देख नाम लौ खव । डोर गहै सत्य लोकं सिधावे ॥
धरमदासं वचन
हे प्रु जो इतना निं जाने । सो जिव कडा केरे विश्रामे ॥
नामदि पाई तत्व मन धरई । दुबिधा भाव कब नरं करई॥
निं नाम रहे खव लाई । ताके निकट कार नहिं जाई ॥
( <१ ) ज्ञानसागर
साखी-खोजकर सत शब्द का, गहै तत्व मत् धीर ॥
निश्चय रोकं सिधाई ह, अस कथ कहै कबीर ॥
धमदासदचन- चोपाई
हे प्रभु जापर दाया होई । पवे वस्तु सार पुनि सोई॥
अथवा जो एेती नहिं पवे। हेप्रथुतो केसी बनि अवें॥
साहब कबीर वचन
पावे सार जान निज बीरा । निश दिन सुभिरे धन्य कवबीरा॥
जहां सुने सतशुङ् को नामा । सने भक्ति छंडे सब कामा ॥
सुने जो भक्ति तत्व मन कवे । देह छोड़ि सत रोक सिधावे॥
धमदासं वचन
ड प्रयुजो इतना नरि राता । तासौ कैसी ८ कदिये वाता ॥
माया जीव अधिकं लपटाना । तातिं प्रु पूछो इट भ्याना ॥
साह्वि कबीर वचन
धमदास मोहि यहि भावे । करदी जाप धनी जो पावें॥
आवे मह तब केर लड़ाई । जाने दाव घात चतुराई ॥
तबही बने कृषी को साजा । कोठी बीज खेत उप राजा ॥
साखी-श्ुरा बेर भल खोजिये, बीज धरदि को सार ॥
टयाया बीज न बोदये, एेसा मता इमार ॥
चापा
बिना नाम बहु तन उदकाया । पिर फिर भोजल भटका खाया॥
जुग जुग जन्म वद्वारे भव खीन्हा । दोह दित नहि नाम विहना ॥
नाम पाय जो तच्च न धरई । ते पुनि जन्मे गुरू क्या करई ॥
तत्तव प्रमाण यदी धरमदामा । ततिं मिटे कालकी फासा॥
धमदाम वचन
बालकं कहा तत्व को जनँ । मुक्त होय तेहि कौन प्रमान ॥
ज्ञानसागर ( <)
साटहिव कवीर वचन
बालक नाम कौ दीजे वीरा । पहुचे कोक जव तजे शरीरा ॥
तिया कह सनेह है सारा । उपज भाव होय जम न्यारा ॥
जतं नर अचेत अज्ञाना) ततिं तच्च नाम परमाना ॥
तत्व है मुरु ओर संव साखा । ताको नाम जोग मय भावा ॥
मो नर तत्वन राखे ज्ञाना | ताक ज्ञान बाककं सब जाना॥
पावै आदि अत निज बीरा । पुर्ष रच्यो सुख सागर तीरा॥
छठे मास बीरा निज पवि है प्रमनसो लोकं सिधि ॥
साखी-तच्व युक्ति ₹ै निधय; ओ बीसा निज सार ॥
माया टीन्ह नर पाणी, भूर प्रा संघार ॥
धमं दास चचन-चोपार्ई
निसिदिन रह माया ल्पटाना । सो ब्रु केसे हौय निवाना ॥
साहिव करवीर वचनं
निस दिन रहे माया विस्तारा । परुकौ मज तो उतरे पारा ॥
पलको नाम चित्त ना धरइ ते पुनि जन्ये शङ क्या करई ॥
कुर्म रिवारन जेरिते रोइ । परिचय सहज तत्व र सोई ॥
धर्मदास वचन
सो मोहि स्वामी परगट बताॐ । केहि विधिजोगकमसमञ्चाञ।
साटिव कबीर वचन
प्रथम सत्य आसन आराधे । निवरीकमं जो या विधि साधे॥
काम मारियि अल्प -अहारा । ज काम तहि जोग बिकारा ॥
कोई कषु कहै दय नदि धरइ । निन्दा बन्दा मब प्रिहरइ ॥
तनै देह जिमि कांचरि सांपा। आलस निद्रा सहज निदापा ॥
दष्िन जवे मल ओौ मंदा । मनदिन आनं संसो नदा ॥
धोती वस्ती नेती करईं। जिमि कामिन सो यहं बहरई॥ +
( <६ ) ज्ञानस्ञागर
तिनका खेह भंदिरि मे हों करई दूर भामिनी सोई ॥
या विधि काया संयम राधे | बांधे मूरु अङ् नाको साधे ॥
छद् -मूर बाधे नाम साधे काया संयम जानिके ।
मन पवन दो तुरी साज युक्ति जीव बनायके ॥
देह ताडना चित्त कौ तुबक सर छाडे आस हो ।
तेरी आस चद टोरेममासाजीवहोय निकास हो॥
सोरठा-एेसी बाजी होई, मनके संग दौराहये ।
मन रा पुनि सो, कष्ठ प्रे पुनि ना टरे॥
चोपार्ह
परे कष्ट तब तोरिगे वासा। रासे खद्ध नाम को पासा ॥
नाम् अघर ते दूत उराई। भागे अरि शरा जिमि पाई ॥
आरि के भाज दोय इराप्ता । दुविधा मिरे कमल परगासा ॥
अष्ट कमर् देखे पुनि सोई । मानौ रंक महा धन रोई ॥
देखे ब्रह्म जहो अस्थाना । भय भँ तब हो निकवाना ॥
अष्ट कमर् तोहि भेद बताऊ । अजपा सोहं परगट ॒बुञ्चाईः ॥
मूल कमल दल चार ठिकाना।देव गणेश तदां कीन्ह पयाना॥
ऋद्धि सिद्धि बासा तदहं होई । छे सौ जप अजपा तरह सोई ॥
द्वितीय कमल पटदर परमाना । तर्द कमर्न कर आदिठिकाना॥
साविच्ी ब््या रै जवां । षट सस्र जाप रै तरहैवां ॥
छन्द् -य कमल दल अष है हरि लक्ष्मी तिहि संगमं,
षट सदस जहं होई अजपा निरखि देखो अग मीं ॥
कपल चौथा द्वादश दर शिव को तहां निवासु दो ।
सुरति नरति करि रोक परहुचेषट सहक्च जहांजासु दो॥
ज्ञानस्रागर ( ८७ )
सोरठा-पचरये कमठ प्रकाशः; तिहि षोडशं दल अहं ॥
आतम जीव निवास, कड सदस अजया क्यो ॥
छटवां कमल अहै दरू तीनी । सरस्वती तहं वासा कौनी ॥
दोसौ एक अजपा जह होई ब्ह्चे भेद सो बिरला कोड ॥
भोर गुफा दो जल परवाना । सातो कमल्को आदि डिकाना॥
एक सदस अजपा प्रकाशा । तहां बोख्ता ह्य को वासरा ॥
तहां जोग साधे बहु जोगी । इगलखार्षिगखा सुख मनि भोगी॥
तहां देख असंख्य जो एला । जह्य थापकाया में भला ॥
सात कमल जाने सब कोई । अघम कमर बिचु्ुक्ति न दोई ॥
बिनु सतगुक् को मेद वतव । नाम व्रताप जोग डि अविं ॥
काया त जो वादहिर हदोईं। भाग जीव पावे पुनि सोई ॥
छन्द्-बह् भांति मुमि ऋषि जोग उन्यो भयोरदित नहिं ङस हौ
काया थापी सुरति सों सब काग भये नहिं ईप दो ॥
पक्षी होई तब रोड महाबल नाम विनातोकामहो ॥
पक्षी त्यागी जो नाम साषे दंस दोय बड़ भागदो॥
सोरग-जोग तो आहि अपार, पक्षौ भया पर नयन नहीं ॥
जोग नाम उजियार, नाम तेहि जो पावदही ॥
चौपाई
- पक्षी भाग नयन जिन पावे। ताके जहां तहां उड़ जावे ॥
देखे लोक जो गुरू बतावे। पक्षी नयन को यहे स्वभावे ॥
अथवा नाम नेकं जो पावे। साधे तत्त जो खोक सिधावे ॥
नाम नयन पक्षी जो होई । तेहि समान दूसर नहिं कोई ॥
बाहिर को मे कहब ठिकाना । सुरति कमल सतयुरू निरवाना॥
( << ) ज्ञानसागर
छः सौ एके एकसौ बीसा । अजपा उपर देखे ईसा ॥
खात दरू कमर देव ऋषि माना । अष कमर् उनहू नदि जाना ॥
छन्द-यह भांति अजपा तत्वऽराधे बस करे षां चों भूत दो ।
रनक जनकं बाजेआदि अक्षर दिमेकर बाचे तार हो ॥
घट चक्रं बांधे देदमे तब जोग समुद्रा सार हो।
प्रेम को बाजे पखावज प्रति दिना ततकारदो॥
सोरठा-आतम् जीव जो जाय्, खक्ति सक्ता संग मं ॥
तिन संग ब्रह्म समायःजिमि जा सरिता सागरे ॥
चोपाई
सरिता परे सिन्धु मर्द जबहीं । दुबिधा भावं न उपज कबहीं ॥
सरिता संग रहे यक नीरा) भिन्न माव कथ कैं कनीरा ॥
दक्षिण नयन जब नेह निहारी । ते समरे बहते अधिकारी ॥
चन्दन निकट वृक्ष जो रोई । भेद सुबास परब रै सोहं ॥
संगति का फर एसा होई । यह तौ मेद् जाने जन कोई ॥
चन्दन नाम सुमेर रै जोगा । इतनी प्रगट करे जो भोगा ॥
आतम जीव मेद पुनि दोई। चन्दन बेर कहै सब कोई ॥
चन्दन कष्ठ सब कोई जाना । यहे मेद॒बिररे पटिचाना ॥
छन्द्-जोग सम कडु भोग नादी देखु ङदय विचारि के ।
पांच को बस करो आपने बसे पांच सम्हारिके॥
तीन गुण ओ नाम चौथा बहुरि इनहि सम्हारिये ।
तब जीतियेनिष्केटकारो प्रति योग यहि विधि साधिये
सोरग-मेटे जम को दंड, भुक्ति दोय तेहि अल पुन ॥
विष को करे निकन्द्, जोग दोय जो नाम फल ॥
ज्ञानक्षागर् ( ८९ )
चौपाई
संशय भिरे जोग के धारे । मँ अवने मन कीन्ह विचारे ॥
संशय को खंडन है जोगा। ता सम आहि न दसर मोमा ॥
जीव को काज जादहितं दोहं । सोहं जतन करो सव कोई ॥
अथवा देह जोग कोई न साधे । तो अव सहज जोग अवराधे ॥
तामे मिक जो यह निश्च रइईं । दुबिधा भाव कबहु नहिं करइ ॥
साखी-षांच तच्च शुण तीन है, ओर प्रङ्कति वच्चीस ॥
चोँतीस उपर उरा करई, नाम तततव इक्कीस ॥
चोतीस उपर डरा करई । नाम तत्व पर्कं नरि उरई ॥
ये सव एकं नखा यै राख ' उड प्रघाद् अमीरस् चाखे ॥
सत गु दया सम्पुट उधराइ । शून्य शहर मे वेड जाई ॥
देखे बोलता बह्म तेहि ठ) करं इषं धष सी जाई ॥
ब्रह्म देखि भिङरी मे युक्ता । जीव सीव होय इक जगता ॥
जीव सीवं एके ठख जाना । देह जीव तब देख पयाना ॥
शब्द प्रतीतं देख सत॒ लोका । गङ् को दया मिटे सब घोखा॥
अगम अलख सो युङ् समञ्चावे । सुरती निरति से दर्शन पते ॥
गुरू की दया गम्य जो होई । निशथ्य दशन पावे सोहं ॥
एकं बार जो दशन पावे । देखे बहुरि विरम्ब न लव ॥
एके सुरति निरति जो धारे । सुरति सनदी दीपं निहरे ॥
यह निस तत्व मता जो धारे । गुर् प्रताप सों लोक सिधार ॥
जाते सहज योग नहिं रोई तातं आरति साधे रोई ॥
जो मनसा मारे नरि कोईं। तो पुन दासी कर निज सोई ॥
जो कोड काछे सन्त का मेखा । तासों किये जोग का ठेखा॥
साखी-गेदी लीन्हें आरती, संत सोहं सो भोग ॥
इडा पिंगला साधिके, सुषमनि राधे जोग ॥
६.9 ५ ज्ञानसतागर्
चौपार
जेसे मेरी के मन नेहा । तैसे साधे जोग सनेहा ॥
आसन हट प्र नारि न जवे । मेदी रै न मेषं बनावै॥
देखी देखा भेष बनावे राधजोगतो शोभा पावे ॥
भेषे धरे घूरता चाही । काद्र भेष की हांसी आदी ॥
जाते मन सुरमा नहि होई ततिं मेही थाप्यो सोई ॥
मरी मे छल मता अपारा । ततिं सत्य भक्ति चित धाय ॥
केरे जो सेवा सन्त की सोई । आरत भक्त महा फर रोई ॥
धन्य सन्त जो आरति साजा । कार जंजाल तेहि घरतें भाजा॥
आरति समान भक्ति नही दूजा! सब ते भली सन्त की पूजा ॥
चरणामृत तासु को लेड । सुरति निरति चरणन चित देई्॥
साखो-सन्त आरती जोग मन, करहि गगने बास ॥
मरही जोगन जनह , कर आरति परकाश ॥
विनाजोग मे दोय उबारा) कै नेवर कै दीपकं बारा ॥
ताते सहज जोग में भाखा । शिरनि पान महातम राखा ॥
आरति तो नानाविषि साजे । पन भिष्ठान्न भक्त भय माजे ॥
जो कड आहि जोगकर भा । सब भाखोौ आरति षर भा ॥
वृह देही यह भरी भ्यवहारे । काया सजम दे अनुसारे ॥
निशिदिनसुरति निरति विचारा । तातं मंदिर सेत सम्हारा ॥
पांच तत्व तीन गुण साधे । ताते मन बिच आरति राधे ॥
ईगला पिगखा सुषमनि वासा । मन बिच कर्म आरत परकाशा ॥
बधि मूल नाम को साधे । दुबिधा मिटे एकं अवराधे ॥
एकं धरे कर प्रकृति पचीसा । सोई पुरूष आरति मे दीसा ॥
साखी-उलट पवन जब आवै, जिकुटी मेंट जो होय ॥
गुरु की दाया प्रकट हो, संपुट उधरे सोय ॥
ज्ञानसरागर् ( ०9
चौपाई
उघरे संपुट शुक् की दाया । नरिअरकौ देखे प्रभाया ॥
तत्त मूल नरिअर मो जाना । ज्ञानवेत भजि हौ निर्वाना॥
अनहद वाजै बिकृटी ताला । ताति भक्ति जो होय रिशाला ॥
विन करताल पखावज बाजे । अनहद धुन निस दिन तहं गाज॥
अष दल कमल फूट जो फूटा ! तातं मिरन क्रिमे समतल ॥
सुन अति जोग छतीसौं रागा । ततिं भांति भांति पद जागा ॥
जोग करत म देह बिसरि! या संसारम काज सम्दरे ॥
जोग समाधि दटत नहि देखा । आरत मे मिटे कर्मं॑विशेवा ॥
प्रतिदिन जो समाषि मन ख्व) ततं खदा आरति गवि ॥
जोग हीन तत्त नहिं लदई । ततिं पान पटोता चहई ॥
देखो मन ब्हरंग अपारा) तातं पुष सेत विस्तारा ॥
देह समाधि गंध वहु दो) सथ अभ्र अवल है सोई ॥
चौका सेत इस मर ऊजे । सेत विशहास्न ज बिराजे ॥
साखी -परचे मेँ मन बांध, करे जोग मन बास ॥
संतन आरत जोग मन, दीपक करे पकाश।॥
चौपाई
मन ओ पवन आहि दो धारा । ततिं पवन अनिर घत जारा ॥
जोग जगत बिन संग न रोई । पाटे पवन प।हन द सोई ॥
गगन बाव गरजे जो जाई । दीप शिखर द्वारे ठदराई ॥
ल्यावै जोग अमीरस चाखा। तते महाप्रसाद जो भाखा॥
धन्य अकर जीव है सोई । परिचय जोग करे तन जोई ॥
जोगन रोय आरती करई । सोई जीव भवसागर . तरईं ॥
मूर नाम ओर सब शाखा । पुहुप जोग महातम राखा ॥
जोगी दृष्टि भाव बहु करई । घट घटम सुमिरन अवुषरई ॥ ` "+
वि =
4 5 श =
॥ न “द च
ॐ शेः ५ ह क जन्य
क क वि पौ
( ९२) ज्ञानसागर
सूल नाम युक्ति फर जोगा । तते नरिअर मिष्टानका भमोगा॥
देह विसार जोग फर चाखा । सन वच क्म नरिअर सत भाखा॥
उज्ज्वल मंदिर सेत सम्हारा । तेदि शूप साज्यो पनवारा ॥
घुक्ति पदारथ अबेधा दीरा । तेहि पाये कोई गिर गंभीरा ॥
चंदन काष्ट॒सिहासन चाही । सुभिरण नाम इकोतर आदी ॥
साखी-उत्तम पान बडो नाद्रा भेगन होय ॥
नरिअर चहिये निम, महा शुक्ति फर टोय॥
चौपाई
ओर कड बात संपत्ति आदी । काचा जीव सुन विचरेतादी ॥
ताते सहज बताओ भा । प्रच जीवको प्रम स्वभा ॥
अथवा जो इतना नहिं रोई । सहज आरती थापो सोई ॥
सवा सेर आनो मिष्टाना । सत्त स्वासो आनो पाना ॥
प्रति पनों जो आरति करई । सोई जीव भवसागर तरई ॥
धघधमदास वचन
डे प्रभु पूनों कह अधिकारा । दया करौ इख भंजन हारा ॥
साहिब कबीर वचन
तुम कह दीन्ड यरी दिनि पाना । तासौ पनों आरति ठाना ॥
अथवा सबई अथं नदि जाना । दोहं आरति थाप प्रमाना ॥
छठे मास साजौ निज वीरा । तातं दोईं आरती मत धीरा ॥
साखी-जोग आरती फल बड़ा, सत्त बचन परकाश ॥
दुविधा मेटो निश्चय, सत्तलोकं रोय वास ॥
चौपाई
सत्तभाव देखहु मति धीरां । गन साखि देऊ निज बीरा॥
विना लगन करो मत शिक्षा जोती खेती जो भल दिक्षा ॥
ऊस वीज डारही कोई। निःफरुखेती किसानकी होई ॥
ज्ञानस्ागर ( ९३ )
ऊसर बीज का रेखा भा । बोवदहि बीज अब्रथा जाॐ॥
काचे जीवकं सभिरत देर । प्रिवय जीव तात गहि रेड ॥
ता कर कैसी करहि जमराजा । देह धरे तो शर् करै खाज ॥
बिना कगन मगन भयो जानी ! ठेसो अहै शिष्य सहिदानी ॥
पूरा जव शिष्य जो होई) शुङ्् देव भेद बतवे सोहं ॥
अथवा जो गुर् अन्तर सख्यौ । श्प धोखं सन्त अ भाखो ॥
लीक करी ओ पथ बते) शोभा अधिक ग सों ववै ॥
जस बाना तस हवे करनी । ता उङ् सम ओौरनं बरनी ॥
सदा लीन नाम जो भाखे। पांच आत्मा अबुङ्चि राखि ॥
पांचमे करे पच्चीसों नारी । ते बस किये जोग अधिकारी ॥
मरत तजो जस काँचरी संपा) तातं सब को येदवं दाषा॥
करो शिष्य जो यहि विधि कोई। बुरइन पान रहै जलल सौ ॥
साखी-जो ठेसी बनि अवे, ओर बान है सार ॥
तातं मदी थापो, कंडारी संसार ॥
गृरुवाके लक्षण चौपाई
आप स्वारथी मेष बनवेै। मनकी दशा ताहि चित खतै॥
तष्णा जक्त करे शुर्वाई । जम सों बाचे कोन उपाई ॥
निश्चय मानो शब्द हमारा । पर दोही केसा कडिहारा ॥
आप अब्रूञ्च ओरन समञ्चवे । साखी रमेनी अगरो रवे ॥
जातें साधु सेवा नहिं अवे । तष्णा कारण मेष बनावे ॥
सिह न चारै स्वान सियारा । पेरच बिना केसे कडिहारा ॥
प्र नारी ओ मन्मथ कमा । यह तो मेद कालको ममां॥
मारहि मनसा होई सो रोह । नातर नारि करे पुनि रोई ॥
मरी माहि मक्ति को भेवा। नामजपे ओ साधू सेवा ॥
जोपे सहज भाव ॒कडिहारा । शिष्य कियेका क्या अधिकारा॥ ^ एः
५०५) ज्ञानसागर
ररी माहि युक्तं फर वासा । सो सब वचन करौं प्रकाशा ॥
नाम गहै राख सत करमा । सब जीव तजे एक पुनि भरमा ॥
साखी-मद र मांसकोत्यागे, ओरन केरे जीव घात ॥
अथवा जो कदु चकि हु, साधु सेव चित राख ॥
चौपाई
करे आरती मन बिच करमा । पर घ्र तज जान निज भरमा॥
गृह मे जो रहे उदासा । निश्चय सत्तरोक मे वासा ॥
जो कोइ यरै अवज्ञा करई । कषु दिन इपदीन अनु सरई ॥
जोकोचके साधु की सेवा! ताकर फर भाखों कं मेवा ॥
जाई सो लोकं नाम .परतापा । तजे देह जिमि कचरी सांपा॥
दखे जाई दसन की पाती । ता मध्ये अस बेठ अजाती ॥
जातिं चकं परै सेवकाई। ततिं शोभा दीन लजाई ॥
जो कोड याकी करे उछेदा। ततिं म समञ्ञाडं मेदा ॥
गरी तरे सो कोन विशेखा। गुर् को अचरज यौ बड़ देखा॥
शृ नदीं कोड यहि भवसागर । सतगुङ् आप अजरमनि आगर॥
जाप आहिजो नाम हमारा । तातं नाम धरा कंडिहारा ॥
कंडिदहार लवे जीवका भारा । तेहिन सञ्च किमि उतरे पारा॥
साखी -जेसे मदिमा प्रक्र है, तेसे सिन्धु का नीर ॥
सरिता सब कडिदार भये, सतगर सिन्धु कबीर॥
चौपाई
सरिता माहि बारि जो दोई। जीव जन्तु सुख पावे सोई ॥
सरिता रहै पुण्य परमारथ । सत कंडिहारी जोग स्वारथ ॥
अथवा नीर अथाह न होई । सहज जोग भाखौं पुनि सोई ॥
नदी में सोदसदा जो बारी । एेसी उत्पति आहि हमारी ॥
प्यासा जाय नदी के पासा । बिन पानी सो जाय पियासा॥
ज्ञानञ्षागर ( ९५ )
प्यासा पानी नदी न पव । जं पानी तदहं त्रपा अञ्जवे ॥
इक जीव मेही आप उवारा । बार नदा नहिं सत कडारा ॥
वांधे अघ करे श्ुग्माई) तिनके जस सां दुजन डरा ॥
काछे रहै ञ्चर का साजा आयो समय काद्र हो भाजा ॥
यहि विश्वाक्त रहे जो कोई | स्वारथ पिंड परे जन सोई ॥
परे पिंड तव हवं हंसा दं विश्ास्र जाव जौ फांसी ॥
चतुरा परटिरे केरे उपाई । व्य न मिरे अनते नहिजाई॥
धन मिले का यही उपाह । अदी भाव रचो जौ भाई ॥
्षुधावत जाके गृह् अवे। भरे बुरेकं असन न जवे ॥
्ुधावत जो करही भासा सन्तुष्ट होय तुरते ही पासा ॥
ओ जहां देखे सत्त का वाना । ता कहं बहत करे सन्माना ॥
साघु सेवा मनराता। ता कहे मे बर्णो विख्याता ॥
जस जासूस द्रव्य नहि पव । तके नय सेध दे अवे ॥
चतुरा केरे ताश सन्माना। जो पुन ताको करे वखना ॥
ताके पुर का मता बतावे। विवेककी महिमां दरस ॥
ताके गेह दरब न चे जबही । ताकी महिमा इत करे तबही ॥
बहुविधि महिमा करे जमदृूता । तासों कोई न करे अजगूता ॥
भाज्े कादर नगर बधाई । ताके मिकेट जान नहि पाइ ॥
धन्य सोह जो गेही करई । भट मन्दाको उद्र भरई॥
ता करं होई पुन्य परमारथ । नाम गहै जन्मे होय स्वारथ ॥
कडिहार सोइ जो श्रा दोह । भाखों ताहि आपसम सोई ॥
साखी-कडिहारा ओ गृही को, कोई न जने अन्त॥
बिन परचे विसमाद रहै, हरषत परच सन्त ॥
चौपाई
भाषो संयम सत के राऊ। असगेही जो करे उपा ॥
प्रात नेम जो करे अस्नाना । प्रथम प्रफ़लिति कमलबिगसाना॥ +
( ९६ ) ज्ञानस्षागर
मद् ₹ मांस कं त्यागे दो । मिथ्या जीव घात पुनि सोञ॥
सत आसन पर निदा त्यागी भली बुरी से रहत विरागी ॥
जाइ जहा बर जहं हितकारी । ऊचर न प्रई अन्तर भारी ॥
क्चुघावन्त हित कारौ रोई । अति प्रिय जानसमोवहि सोई॥
यहि सम दृषर ब्रत निं जाना । ते जन पूनौ आरत ठाना ॥
कहौ जान दासा तन जोई! भागी जीव पावहि निज सोई॥
शिष्य होय जो तन मन वारे । शुङ् आज्ञा कबह् नरि रारे ॥
गरु दं शब्द् युक्ति जे होई । तेहि समान दूसर नरि कोई ॥
साखी-तन मन गुरू को दीजिये, सक्ति पदारथ जान ॥
गुर कौ सेषा युक्ति फर, यह गेदी सहिदान ॥
गुरु लक्षण-चौपाई
गरू सोई जो सब ते न्यारा । सो सवभ भाखौं उपचार ॥
जल तं पुरइन का दहै मखा । पानीपत न लगे एूला॥
जातें देह धरा कडिहारा । ततिं चहिये सब ॒ उपचारा ॥
जसे मूल पुरन को पानी । एेसेहि दुनियां की सरहिदानी ॥
काया धरं सब न कंडिदारा। पुर्न भेद तें उतरे पारा ॥
शिष्य करे सनमाना । ते पानी पुरइन सम जाना ॥
इतना सुन रहै लपटाईं। तो वह जग समान है भाई ॥
पुरन मुक्ति लोकम वासा । शश षिन परहि कालकी फांसा ॥
कारु बस जीव निं तरईं। तदि विश्वास जन्म सोई धरई॥
कहा सन्त॒सबहि मे भेदा । आप स्वारथी करहि उच्छेद ॥
साखी-नदीं सदज सत गुर वचन, करम कुरिरता ठान ॥
चले रोकं गति नरक, सरिता सिधु समान ॥
लोक गवं गति राखे भाऊ । ताको देख मास पुनि खाज ॥
बहुत यत्न मे भाव बताया । जो नरि बृञ्च अन्त परिताया ॥
ज्ञानत्तागर ( ९७ )
धर्मदास वचन
हे स्वामी तुम सुनो सत भाॐ। जो परौ सौ मोहि वता ॥
जव तन तजे बोरता व्रह्मा । किटि विधि जाइ कहो सो म्मां॥
सो मोहि स्वामी भेद वता ! धर्मदास रेके गहि पा ॥
अवे अंत होय नर जवी । अतक अमै पसव तवही ॥
जो जीव नाम तच्छ मन छै । ताको अंतक दूत नहिं पावे ॥
नौ द्वारा कग कके जाई। दशबों द्वार अब देड बताई ॥
दसो द्रारन केते न्यारा भोर शफा मेसो 2 तारा ॥
गुह प्रताप पथ तहि जायी । आदि पवन तेहि होत सहायी॥
अरध उरध म पवन का वापा । मर पवन प्रथम्र जो भाषा ॥
तेहि पर इस होय असवारा । पचासी पवन काजो सिरदारा॥
तिहि चट हंसा घरको जाई । मान सरोवर जा उहराई ॥
अंतक दूत करं पछताहं। सो सब भेद कटौ सञ्जञ्यार ॥
भक्षं यहि कारण यम राया । तबहि जीव तोहि समञ्चाया ॥
साखी-कारु फास जेहि बि, जो नहिं रचि नाम ॥
तत्व हीन जीव व्याकुल, अंतक राखे यम ॥
चौपाई
जो कडु परिरे भेद बताया । सो नहि केरे हते यमराया ॥
छठे मास बीरा निज होई । सो नहिं होऽ करो क्या कोई ॥
किंचित् तच्व भाव विधि धारे । गुरु प्रतापते लोक सिधारे ॥
लोक निकट अंतक जो जाई । होय बलीन चक्षु ही नाई ॥
तवां आहि पथ का फेरा। एक हमारे इक यमकेरा ॥
गुरू जो प्रथमर्हिं भेद बतावे। निज घर बेठ हंस सो अवै ॥
अवे सीश उपर दै पाञ। जाय तहां सो कहौं प्रभाऊ ॥ |
यहि विधि हारे यम कौ दूता । पौजी रोक धर्मं अवधूता ॥
६ २.८ ) ज्ञानसागर्
प्रथमरि मान सरोवर जाई । जहवों कामिनि राज बनाई ॥
शोभा रीन रहिरंमर वारा । ताते अर्के हस पियारा॥
इस दीप मे पर्हुवे जाई । शोभा रीन सो बहुत ख्जाई ॥
साखी-ते पुनि करे अधघोनता, ईस सुजन जन पास ॥
कहा अपराध गुसाई, ङ्प न रोय प्रकाश ॥
चाड
जबर रग मूल दरश नहिं पवे । शोभा तब ठन नादीं अवे ॥
जब र्ग शोक भगे नहिं भाई । सोभा तब कग नादी आई ॥
एकं इख नहि शोक भराई । जा नदि जीव इकोतर जाई ॥
पावे सार जान निज बीरा ' पकरि शोकं सरं पुन धौरा ॥
प्रथमहि हेत द्वीप पर जाई । शोभा अधिक तं पुन पाई ॥
शोभा तस षोडश जस भाना । रवितैंक्षीन दो सखिल समाना॥
यद्वां सूरज कांति प्रकाशा । वहवां जोती स्थिर निवासा ॥
रासे सूरज शशि निम्पाई । वहां न सतावे काल अन्याई ॥
जस कमोदिनि सम्पुर प्रभा । तेसा वहां यै युक्ति बनाऊ ॥
साखी -जस रविके परभावते, कमोदिनि सम्पुट काग ॥
एसे रवि है निमंरु, पावत तनदी जाग ॥
रविके उदय जस मिरे चकेवा । ईसा रस भिरे जस भेवा ॥
रेन तज तब देही त्यागा । पर्वे लोक दंस मिरु जागा ॥
मि जक् चकईं चकवा कम्दी । देसा ईस भाव तस धरदी ॥
रविके उदय कमर जस पएूला । देस कमल सूरज रवि तूला ॥
रविके उदय तिमिर जस भागा । रषि धमं रस् मन जागा ॥
सरक् गरल तं अन्तर जानी । धमंराय अपने मन आनी ॥
काया शोभा उड़गन वांती। अस बृञ्च चिकुरन की कांती ॥
सो पुनि चिङ्कर आदि उजियारा। अस शोभा रहै दस पियारा ॥
रजनी मुदित दिविस जो भण्ड । ज्योति अटल तस दसा गए
ज्ञानस्ागर् @
साखी-नयन दोह मठ छाजे, मानौ शशिकी ज्योति ॥
शशि स्वभाव सो देखियेः देसी शोभा दति ॥
चौपाई
वरण तासु चश्च शोमाई एूदी चंद दो दिञ्चा समाई ॥
नयन दामिनी हत् ट्दाल । पछ नहिं अनिल उजियाख् ॥
बादल घन विली चमकाई । शोभा मानों तेज ख्जाई ॥
वण सोहं मनौ रवि के चाक्रा । शोभा अधिक स्च जाञ थका ॥
शोभां कण्ड जसे गिरि दवा । नाकं कीन्ह सिष्ठ जु देवा ॥
शोभित कहे भिरनार सरोजा । शख जो कमर मिरनार इरोजा॥
है मिरनाल जनु सेतहि भाऊ । वदन प्रकाश शोभा बह पाॐ ॥
विगक्तत कमल उदित जिमि तरणी । इस पदम दीपकं जस वरणौ ॥
काया तापर कदी नेहा । रोम रोम अक्ता को रेहा॥
हे स्वामी मं ^ पठं भाऊ) जो प्सो मोहि उताॐ ॥
अन बेधा जस देखियत दीस । रोमत होवे ईस शरीरा ॥
साहिव कवीर १चन
साखी-जच पिडरी पग अंगुष्ठा, शोभा अधिकं अपार ॥
शब्द शप कारीगर, रवि शशि अनि जन ठार ॥
४।।.1
नख शोभा किमि करौ बखाना । जातिं इंसन कौ उतपाना ॥
नख न होय जेसे नख हीरा । अगरी बाद बरन चद चीरा ॥
हथली सोहै मल प्रण चंदा । अशुरिन पाति शोभा अरषिदा॥
जस कांती शोभा बह मती । छने तरह नखन की षांती॥
एही सवै रै रूप पर भा । सब उजियार पुरुष से आऊ ॥
सो सब शोभा भाव बताऊ । अगम उपेक्षा सबहि बता ॥
जातै भयो मानो अधिकारा । ततिं कों प -व्यवहारा ॥
जस अकाश मह उगहि सूरा । हो उजियारा सो तिनहू षरा ॥
( १००) ज्ञानसागर
पाहर द्वीप रोई बड चोखा । परमारथ सो करत बड़ तोपा ॥
रविगण पुरूष र्गन जो रोका । उड़ गये ईस मिटा सब धोखा ॥
दोप सार ओ करी सम्हारी । तेज वरना चन्दा अधिकारी ॥
साखी- तीनों पुर उजियार भयो, उगे भानु अकाश ॥
तेसे पुर को ज्योतिमे, सजो केरे प्रकाश ॥
एकं सूयं का किंचित भाउ । जाग उपेक्षा भाव बताञ॥
हस सुजन हस के राजा । परु परु हंस दंडवत जा ॥
एतिक हेत दीप उजियारा । वेढे सब जह ईस पियारा ॥
ते पुन हंस देडवत करदी । क्षणक्षण माथ चरन तर धरदी ॥
धमदास् वचन
डे प्रथु इत द्वीप सुख पाया । अथ द्वीप ताहि करी दाया ॥
साहिब कबीर वचन
हस सुसनन दंडवत् कादीं । पुरूष सों फिर विनती अचसरदही॥
जोग सन्तायन दस ठे आवह । हेत द्वीप तिन को बेगवह ॥
देखा चाहे चरण जौ द्वीपा । मंजल मंगल करी समीपा ॥
आज्ञा पाय चरे रै दसा । चरणा द्वीप पहुचे निःशसा ॥
अभय पक्ष इस तरं आवि । जोग संतायन माव बतावहि ॥
जिदहितं आदि आदि परवाना । पावे दस तब करहि पयाना ॥
हेष राज तब मोन दोय जाई । आवे दंस बहुत तेहि गई ॥
साखी-सदख अगसी पाठंग, ओर सदस से तीन ॥
इतने दंस तब आवें, यह अस्थिर कहं चीन्ह ॥
बन्दौं गुर चरणं, सुरति संतायन योग ॥
बन्दौं रस सुजन जन, तिन प्रसाद यह भोग ॥
धन्य पुरूष जिन परिमर छाया । हसन सुख बहते मन भाया ॥
तब ईसा बहते दषोना । प्रथम दंस सुजन जन ज्ञाना ॥
ज्ञानसागर (१०१)
सुरति सनेरी गर की दाया । ईस खख बहते मन भाया ॥
युष द्वीप ताको विस्तारा । चार करी केता उजियारा ॥
प्रथमहि महिमा जोत विस्तारा । बैठे जिन कदं जोत अपारा ॥
नौसे संख ओ तेरा करोरी । एतिक अहिमा द्वीपहि केरी ॥
ता भीतर करी कस् देखा । महिमा क जस रवि कोरेखा॥
अस जनि जानो रवि कौ मा 1 उतपक्षा खव भावं बताऊ ॥
अम्बर करी बहुते उजियारा । धन्य पुरूष जिन शब्द् उचारा ॥
साखी -इतना भाव सुख उपजे, अम्बुकरी महं जाय ॥
नाम तत्व जो रायः, सो अस्थिर बेटे आय ॥
जुम करी किम करौ प्रवाना । जतं कम्मं कारू उतपाना ॥
पक्षि पालना द्वीप बत्तीसा तापर ङ्प स्रुयं पञ्चीसा ॥
इकं दिन मनो सूयं की पाती । इविधाभावनजङ्पको कांती ॥
वरणो सुरज ज्योति अपारा ' सोहै अटक हप उजियारा ॥
ओ सब श्र करी को भाऊ । सब उजियार पुरूष से आ ॥
सिन्धू मध्य मेधं जस भरहं । पुरूष शब्द ज्योति अद्चसरडं ॥
जस जीव रहै विषय की आञ्चा । शब्द् पुरूष सत करे निवासा ॥
प्रथम करीका ममे न जाना। सो पुनि केसे जाइ डिकाना ॥
दसर द्वीप मम महा सरग । परम ईस बेठे तिन संगा ॥
तीसर द्वीप जोगा जह रदईं । ताहि द्रीपका मरम ना लह ॥
आदि द्वीप पुरूष अस्थाना । तहां हिरंमर सुख कर थाना ॥
साखी- पक्षि पाना द्वीप बड़, जामे ज्योति खरंग ॥
नाम तत्व जो राधे; १ तो मेटे इख इन्द् ॥
चं
मूल द्वीप मूर नाम॒ उचारा । ततिं अभ बीरा निज सारा ॥
मूल अय बीरा निज पावे । इकोतर सौ जीव खोक सिधावे ॥
शोकं भरे काया नदिं छजा । शोभा हीन हंस होय खजा ॥
(३०२ ) ज्ञाना गर
ते पुन करे त पक्तितावा । सुजन देस सों बिन्ती लावा ॥
हंस सुजन जन करै अस बानी । शब्द मार सुनो दो ज्ञानी ॥
जातें जीव कारु बस रद ¦ पुरूष शब्द जो नारीं गई ॥
एक निमिष हंसा कर होई । पुरुष सेज तेहि दोव सोई ॥
सोई दंखा तन मन धरई । परम पुरूष सों परिचय करद ॥
परम द्वीप शोभा बहु होई । सब विस्तार कहौं अब सोई ॥
तहां बिराजे जस पुन कमला । उडगन सुर सनेह जु जवला ॥
साखी-रत्न पदारथ थाका, पदम अनूप सुरंग ॥
उदित अवास बहुरि जिते बिगसत सुर ओ चद् ॥
च पाद्
जग मग ज्योति दस शिर सोहै । ख्ठित मौन रतनन ज॒ मोह ॥
ॐ सीस छत्र जो धारा । पुङ्ष बानी तें दोय उजियारा ॥
भट तिमिर उदय जनु भाना । दिरंमर भांति सब प प्रताना ॥
सब रूप जस _ भये चकेवा । दसा हस मिरे तस ॒भेवा ॥
प्रथम हस बेटे तदं रदहं । सो पुनि भक्ति परम पद करई ॥
बु दिन रहै नकं की खानी । धन्य गुर दसा कियो पयानी ॥
बेटे देस सवे इक पाती । मेरो दुख जब भये अजाती ॥
संशय सवै पिछली. गणड । रंक महानिधि मानौ रदे ॥
पुष द्वीप मै बेठे जाई । अमृत फे जहां मिक पाई ॥
मंगर करी देख जब जाई । देखत शोभा बहुत लुभाई ॥
मैच महर सो दै ब्रह्मडा। तह तस सग रहै अरबिन्दा ॥
जर लग मेष बुन्द टरकाई । तसे कमर तरौ बिगसाई ॥
साखी-पुरूष आप जस स्वाती, भरे मेव शब्द इनकार ॥
जल सब्र भरो जो पोखरी › सामा भूमि निनार ॥
बुन्द निरंकार बरषवे । शयन्य शिखर तब सोभा पावे ॥
कृरो स्वाति तहं अमृत आदी । प्रथम ईस देखे पुनि तादी ॥
ज्ञानक्षागर ( १०३)
तिन पुनि ध्यान पुरूषसौँ धारा । बिगस्यो पुद्प बाणी उच्ारा ॥
फल अमृत तब ट्टे चारी । तिहते फ अनेक वित्तारी ॥
जेते देस दर्शन को आये) एक एक सब हसन पाये ॥
आज्ञा मांगि हस सव पाया । तवते ईं अमर की काया ॥
आस प्यास सव हंस अघाना । निवृति स्चधामो क्षुधा बुञ्चाना ॥
निषृति करी किम करव बखाना । उदित भयेज अगनित भाना॥
पाटेग कोरि तीनकौ केरा) निवृति करी इतनोौ विस्तेरा॥
साखी ईस अवे बह व्याकुल; बहुत केरे पछिताव ॥
दयावेत भ्रमु महिमा, भृतकं दरस दिखराव ॥
प्रगर हप देख्या पुन केसा ।जल बिरग गगन ताञ्च रवि जंसा॥
हस सवै तव दर्शन पावा। भया इरष भिरा परितावा ॥
हस समे तव भये अधीना । उड़गन मादी शिक चीन्दा ॥
अस जिन जनेड शशिका भाज । उत पक्षा सबङ भाव बताऊ ॥
चातक निस दिन बारि निहरि । पते जरु तब तया विसारे ॥
पुरूष दर्शं स्वाती को पानी । देखिषशूप सो तषा उुञ्चानी ॥
पदमे संपुर रागा जबहीं । हसा परम शूप भयो तबहीं ॥
निज अस्थाने ईस न तब जादी । ईस द्वीप तदहवां ठउहरादीं ॥
एकि जात खूप सब माहीं . दुविधा भाव सो देखत नारीं ॥
ता भीतर पुहुपन की सेजा । पकज बीज आदि जनु खजा ॥
अभ दीप ज्ञानी कौ वासा । तर्हवां हंस करहि खख रासा ॥
पाटंग तीन सोहै पुन द्वीपा । तहा पुरूष रहै अधर समीपा ॥
पुहप द्वीप मिगसो पुनि गजा । गंज मनौ शशि भाच अङजा ॥
भये पग स्थिर दंस सुखारी । हप द्वीप सिरजे छवधारी ॥
हसा तब पग अस्थिर आये । अमर चीर शोभा बह पाय ॥
मान सरोवर बहु नौनाईं। शोभा रूप राशि बहताई॥
(१०६) ज्ञानसागर
सुरति सागर डोर समोह । सक्ति द्वार तदं सों गों ॥
सो द्वारा जो गुरू बतावे। मानसरोवर ते चङि आवि ॥
तहां इस शोका थाना । माणिक मध्य दीप निवांना ॥
रासी लक्ष दीप को फेरा) आवे हस तरं कीन्हौ डेरा ॥
३ पुनि कामिनि राजा ।जगमगज्योतितदों पुनिखाजा॥
ब्रणो शीश रूप मल आही । चार भाद जानौ तिहि पादी ॥
छन्द -रीश अर्कं बह ब्रणा पाती खूप शोभा राशि दो ।
नो राख उड़गन पोह राखे माच शसिको भासि ॥
जग मगा चीङ्कर अतिहि सोहै राज जेसे पुर सदी ।
अटल जेहि रूप बरनो शशि व्रणा काया करी ॥
सोरठा-शशि ओं भाव निचोर, शोभा राखी शीश प्र ॥
सेत वरणा अंजोर, मान सरोवर कामिनी ॥
भरे नेच द्रसन कख देखा । मानहु अकेहि सुगर विशेखा ॥
शब्द् कारीगर रूप चम कारा । शशि अनेकं तादी जनु टारा ॥
अवण गातु शोभा अपिकाई । जैसे छीर के काट सलाईं ॥
छीर भरो जनु शशि ओ भाना । माखन शप कामिनीं उना ॥
मोज अनेक ताके तन चीर । खागेरवि शशि अगनित हीरा ॥
चमके डप ज्योति बहु भाऊ । सव उजियार पुरूषसे आ ॥
साखी-शोभा बहते कामिनी, नख शिख सुन्दर शूप ॥
बेटे माना माव धरे, चन्द्रभानु वहु यूप ॥
चौपाई
सर शब्द पावे जो ताई। ताके बरु रसा घर जाई ॥
इतना खूप कामिनी अगा । नंरि उपजे तदं भाव अनगा ॥
बैठे रई हंस सुख पावहं । दृष्टि भाव प्रम मन भावं ॥
छेसी भक्ति नदिं मरि माहीं । पटतर बन देत नरि तादीं ॥
जस पाहन मंम डारा। देखो शोभा अगम अपारा ॥
ज्ञानक्षागर् ( १०५ )
मदर पंच भूत तहं नाहीं। हसा बेटे खख करे तादीं॥
अथ चिर छव सिर जा । इंसा इत बडूत खख साजा ॥
जाय दिव्य तदं करहि निवासा । विमल अंग शोभा बड़ पासा ॥
मिटे अम तव परिचय पाई । जहां रहै तद्वां ग्ुराई ॥
साखी-करहीं देस खख अस्थिरः अभ्बर करी अस्थान ॥
देखौ द्वीप सौ पावनः कमल करी निर्वान ॥
धन्य जीव पुरूष शब्द उचारा । जातं शोभा अमम अपारा ॥
हे प्रथु सुन्यो ईस कर भेऊ । जो कड पर्छ सो कडि देॐ ॥
जो कदु होय आगे व्यवहारा । आगे होय सो कहौ विचारा ॥
सुलु धर्मदास में कद बुञ्ञाई । आगे जस करि है अन्याई ॥
वेश ग्यालीस अचल तुम्हारा । नाद् बइत ई विद विचारा ॥
तेदी पाछे चरित अस होई । कौ प्रगट नहिं राखो गोई ॥
अभ्र कौन अचिन्तपुर गाञ । तहां को बरणन तुमहि सना ॥
अमत नयन विकट है काया । नाम चक्ररथी कार स्वभाया ॥
माने जीव सो कदो विचारा । जस रविकोर है सत्यु रै सारा ॥
ताहि नकी राज् ५ ङुवारी । सोभा चरै सहित जञ नारी ॥
ताकौ मेद म कहौं बुद्याई । घर् ऊुम्हार के जन्मे आई ॥
जनमत तात जननी कर खाई । दृष्ठि परत इतन होड जाई ॥
जस पावक महँ तने समाई । वहिनी खाय जो देखन आई ॥
अभि समान च्कर्थी भाई । वरण समान मले अधिकाई ॥
वत्ति अंशुल तासु शरीरा । कदी अगम अस् दास कबीरा ॥
श्रवृण एकं नौ अगु तादी । डेढ नाक दो जिभ्या जाही ॥
यदी स्वरूप विश्व कँ टाव । तेहि अन्तर रानी चङि आवे ॥
रानी दृष्टि परे तेहि पादीं । भाज गज केदरि की शंहीं ॥
( १०६) ज्ञानसागर
तसरं भाज अंतक दूता । वंश तुम्हार थके अजगूता ॥
भिरि पथ घमेदास तुम्हारा । काल चरि करे अपारा ॥
हे सतशुरू सो पुनि बतावहू । चकररथी को माव बुञ्ञावहु ॥
जब दिखगाय काल को माऊ । घमदासर मन जास जना ॥
साखी-बहुत जास जब कन्हं, भये व्याकुर मति भग ॥
चक्ररथी को भाव बतायो, कद्यो वचन प्रसंग ॥
साहिव कबीर वचन-चौपाड
अबरी भाव दूर है तादी । जनिडरोजास वन्न जिव चाही ॥
दट्ता जान करौ गुरूवाई । जातिं जीव लोक कँ जाई ॥
जीवको बन्ध छुड़ावह यम ते । ईस युक्तावह नाम जतन ते ॥
साखी-नाम जतन जो केरे, ताकर होड न हानि॥
ज्ञान सागर सुख आगर, कहे कनीर बखानि ॥
सत्य विचार-चौपाई
ज्ञान सागर ग्रन्थ को भाऊ । समञ्ि ब्ूञ्धिके पारख लखाञ ॥
सनन्त प्रकार के शब्द पसारा । विव पारख नदीं होय उबारा ॥
शब्द परख की युगती आदी । यर् युख कटा रमेनी मादी ॥
रमेनी सताईस तदिको जानू । बृञ्ि विचारके दिरदय आनू ॥
पारख करनकी युक्ति जब जानो । सांच ञ्जठ की परीक्षा आनो ॥
काल दयारको स्वरूप पिखानौ । काल सन्धि आईं मन जानो ॥
सार शब्द का पाओ रछेखो । उभय आनद तबहीं तुम देखो ॥
कर् पारख तब बन्धन छृटे । बिनु पारख जमे धारे कूट ॥
इति श्रीज्ञानसागर समाप्त ॥
अग् र्मसारमर
( कबीरदर्शन अन्थमाखाकी द्वितीय मणिका
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कबीराश्रमाचायं स्वामी युगलानन्दः
बिहारी द्वारा सादित
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अन् रागसागर आजतक लखनऊ, पटना, काशो, नरसिहयुर ओर बम्बई मं भिच्र-भिन्नख्यसे
छपच्केह् । जिनमे से अंतिम वार बम्बईमेंजोग्रन्य छपा है वह् मेरे नाम से छापा गया है । क्योकि
वहू ग्रन्थ मेने हौ शश्रवेकटेश्वर प्रसाध्यक्षको दिया था । यद्यपि इसके म् द्र णके आरभमे मेरे पास
इस ग्रन्यको १३ हस्तलिखित प्रतियां उपटि्थत थी, तयापि प्रंचवालोको शीघ्रताके कारण उसे पुणरूपसे
सब प्रतयो द्वारा शुद्ध करनेका अवसर नहीं मिल सका, इसलिये विशेष स्थानों पर अन्य ग्रन्थो के
साय मिलकर छपनेको दे दिया था 1 यही कारण है कि उसकी प्रस्तावना भौ लिखी न जा सको ।
किन्तु उस समय भो उपयुक्त १३ प्रति्योँको देखनेका अवसर भिलनेसे मसे ज्ञान हो गया कि,
उन तेरहों प्रतियोँमं परस्पर वहुतहौ विभिन्नता है । इससे किस शृढ ओर पुरानोसे पुरानो प्रतिको
खोजमे मं लग गया । जिसका परिणाम यह हुआ कि, छपी ओर हस्तलिखित सब मिलाकर इस समय
४६ प्रतियां मेरे पास उपस्थित ह, जिनका ब्योरा इस प्रकार है :--
१ प्रति जो सबसे पुरानी है, प्रमोद गृ बालापीरसाहबके समय को लिखो हई जान पडती ठै,
क्योकि कंशावलो लिखते हुए लिखनेवातेने वहीं तक वंशोका नाम लिखा ठै ओर वह् समय
भो उर्हीका था।
२ प्रतियां-कमलनाम साहबके समयको लिखो ह, इसके अतिरिक्त ८ प्रतिर्यां ओर भो सं. १८६०
से लेकर १९३० तकको लिखो हुई म् क्ष अपने पिता श्रीजी के पुस्तकालयते प्राप्त हई थी । ।
१ प्रति-अमोलनाम साहबके समय की लिखी है, जो गया जिलेके किसी सन्तको लिखी हुई है
१ प्रति-सुरतसनेही नाम साहनके समयक लिखी है जो खास सिर्धौडीमे बठकर लिखी गई है
जो खास म काम सहरांव पो. कांया जि. उन्नावके कबोरपंथो सेवक आसादीन तम्बोलोसे
भिली थो, जिसके वंशम कई पोढठो तक महन्तो चली आयी थो ।
५ प्रतियां-पाकनाम साहब के समयको लिखो हुई ह् ।
८ प्रतिर्या-प्रकटनाम साहबफे समयको लिखो हं ; जिसमं १ तो धीरजनाम साहब को प्रधान
धर्म॑त्नौ शरीरान सुरजकुवरसाहबेके हाथको लिखो हई हे । |
९ प्रतियां-प्रकटनाम साहब के पश्चात्को लिखी हं जिनम से ४ प्रतिहीमं वंशावली धीरजनाभ |.
साहबतक ओर शेष ५ मे. पं. श्रौउग्रनाम साहबतक लिखो हं, इसोसे १ प्रति वह भो है जो कबोरधमं | __
नगरके कनोरधमप्रकाश्मं छपनं के लिये लिखायी गयो थो कितु छप नहीं सको । {हि --2
१ प्रति-बाधोगढ़ सिलौडो स्थानके वंशग्र गोसाहं मधकर नाम साहेब के पुत्र भोगोपालदास- `
जोके हायको लिखो है, जो मुकाम कसना जि. पुनिया के महन्त भोहरिचरणदासजो
कृपा करके ग्रन्थ छपते समय भज दी थी ।
२ भ्रतिया-छषरा जिलेके बाधोगद़के अनुयायो महन्तोको लिखी हं। =. `
= 1
र् भ्रतियां-जागूसाहबके धरानेवालोकी लिखी हई (५ १ शः | ५९१ ९११९९१९» १ ५५ ग {कि तै |
1. बः ~ ~ `
प्रतिया-पाच स्थानों कोछपी हृ प्रतियाहे।
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(६) प्रस्तावना
ह प्रकार इस प्रन्थके 2 समय ४६ प्रतियां मेरे पास उपस्थित थीं यदि इन प्रतियों की
परस्पर विभिश्रताके विषरमे जो कुछ मेने नोटकर रखा है उसे यहां लिखने लग जाॐ तो एक अच्छी
पुस्तक तयार हो जायगो इस लिये मेने विचार फिया है कि ' 'अन्रागसागरको भूमिका नामकी
। एक पुस्तक अलग हौ लिखकर पाठकों को भट कर्गा ।
तयापि इतना तो अवश्य कहे बिना नहीं रहा जाता कि,इन ४६ प्रतियों को परस्परविभि-
श्ताके कारण एक-एक विषयको जाननेके लिये कभी तो कुल ४६ प्रतियोंको उलटना पडता था, कभी
एक विषयको जाननेके लिये सच्चे प्रन्यको हौ पढ़ जाना पडता था, ओर भिन्न भिन्न शाखा (पंय)
वालोने अपनो बड़ाई जताने के लिये एक दूसरे को निन्दा ओर खण्डनमण्डन लिखे हए हे, एसे स्थानो
पर कईं कई दिनोतक दिचार करना पड़ा था । जिसका विशेष वृ तांत जाननेके लिये उप्यक्त मूमि-
काको अवश्य देखना चाहिये, इस प्रकारसे कई महीनोके कठिन परिश्रमसे सब प्रन्योको भिलाकर
मने यह ग्रन्थ ठोक किया है ।
द्यपि भरे परिश्रमका फलस्वरूप यह् प्रय एेसा सुन्दर ओर इतना बड़ा हा है कि, आजतक
¦ किस भो मठ मकान जर स्थानके साधु, संत, महन्त ओर आचा्यके पास इसके जोडका ग्रन्थ मिलना
| असम्भव है तयापि जिन ग्रन्थेकि द्वारा शद्ध ओर मिलान करके यह् ग्रन्थ छपाया गया है उम ग्रन्थो क |
परस्परविरोधताको देखकर भेरा मन परस्यरके एते स्वार्थसाधक खण्डवाले ग्रन्थते घबरा उठा है
भौर मे इस बातको खोजमे हू कि, इन प्रतिर्योते भो पुरानो प्रति भिले तो उससे फिर इसे शढ कर
कबोरधर्मनगर दामार, खेडा, भवदीय-
१-४-१९१४ कबोराशरमाचायं स्वाम
श्रीयुगलानन्द् विदारी.
वेशाख नदि ८ स. १९७१ वि.
=
अनुरागसागरकी विषयालुकमणिका
विषयाः
प॒व्ठाकाः
सव्ग्रस्तुति
सद्ग दस्तुति पंचश्लोक
ग्रन्था रम्भ मङ्गलाचरण
गू ददेव पूणं हं
अधिकारी कौन है?
बिना अन्राग वस्तुको पा नहीं सक्ते
अनुरागोके लक्षण विषय प्रश्न
अन् रागोके दृष्टांत
पतङ्गका दुष्टांत
सतोका द्ष्टात
ततत्वानरागोके लक्षण
(~ कौन छड़ा सकता है ?
सद्गरु क्ष्या करताहै?
अविचल देशको कौन पहुंच सक्ता है
अधिकारीकी बुलंभता
मृतक किसे कहते हे ?
मूतकके दष्टांत
भृंगीमात्रकी प्राप्ति कंसे होती है
हस कौन है
मृतकके ओर दृष्टांत
पथ्वीका दृष्टांत
ऊखका दुष्टात्
मृतकभाव कौन धारण कर सकता है
मतका ही साधु होता है
साधु किसे कहते हे 7
चद् वशीकरण
© @ ^ ^ ^ ^ ¢^ ¢^ © @ @ @ @ @ ^ ^ + ^. € € ० ० 9 ० ० ॐ © © ,& तक
विवयः युष्ठाकाः
कामदेव लटेरा है ९
काम लृट् रेसे वचने का उपाय ९
अनलयक्षीका दृष्टांत ९
सधु अनलयक्षी समान कब होता वै १०
एसे साघुको गुरक्यावेतेहं १०
अविचलधामको भाष्ति किससे होतीदहै १०
नासध्यानमाहात्म्य १०
नाम पानेवालेको क्या भिलला है ? १०
सारशब्द (नाम जपनेी विधि
गुरुगमभेव ११
धर्मदास आनन्दोदगार १२
धर्मदासकी अधीरता १२
सृष्टि उत्पत्ति विषयक प्रशन १२
सृष्टि के आदिमं क्ष्या या १२
सृष्टिको उत्पत्ति सत्पुरुष को रचना १४
सोलह सतक भ्रगट होन १४
निरंजन की तपस्या गौर भानसरोवर
तथा शन्यको प्राप्ति १५
सहजका निरजनके पास जाना १६
निरंजनको सृष्टि रचनाका साज
भिलनेका यत्तांत १७ |
सहजका लोकको जाना १७
पुरुष की माजा सहजसे १७ |
सहजका धममरायके निकट जाकर
पुदषको आन्ञा सुनना १८ |
निरंजनका श्मंके पास साज लनेके
लिये जाना ५. ६
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५८) अआचुरागरू(ग्र
[| ३ पष्ठ.काः । पष्ठांकाः |
सत्यपुरुषका अथाको म्लबोज देना २१९ | म्रह्माको (ध्यानसे) जगानेके लिये
\ पुनि सहजका निरंजनके दिग जाना २१ अथयाका गायत्रो को यक्ति बताना ३४
। निरंजनका अद्याको निगल जाना ब्रह्माका जागकर गायत्रीपर क्रोध
| ओर सत्पुरुष! उसे शापदेना २२ करना ३४
= ऋन्वि
सत्पुरुषोका जोगजोतजोको निरंजनके
ब्रह्माका गायभ्रीको भ्रूठी साक्षी देनके
पास उसे मानसरोवरसे निकाल
लियं कहना ओर गायत्रीका
देनेको आज्ञा देकर भेजना २३ ब्रह्मासे रति करनेकी बात कहना ३४
अद्या ओर निरजनका परस्पर संभोग सावित्री उत्पत्तिकी कथा ३५
। करना निरंजन वचन अधयाप्रति २२३ | ब्रह्माका गायत्री ओर साविक्रीके साय |
भवसागरको रचना (प्रारभ) २५ माताके पास पटुना ओर सबका |
तोन सुतको उत्पन्न कर निरजनका शापपाना ३६ ||
गुप्त हो जाना , २६९ | अद्ाका ब्रह्माको शाप देना ३७ ||
{सिधमयन ओर चौदहरत्न उत्पत्ति को अद्याका गायत्रो को शाप देना ` ३८
कया (प्रारम्भ) २७ | अय्याका सावित्रीको शाप देना ३८
भ्रयमवार {सिधमयन २८ | शाप देने पर अद्ाका पश्चात्ताप ओर
हितोयवार सिन्धमयन २८ निरजनके डरसे डरना ओर शाप
तृतोयवार सिन्धूमयन २९ पाना, निडर होना २९
पाच खानिकी उत्पत्ति २९ | विष्णुका गोरेसे श्याम होनेका कारण ३९
ब्रह्माका वेद पदृकर निराकारका अय्ाका विष्णुको ज्योतिका दर्शन
पता पाना | २९ < ४०
अधा ओर ब्रह्माका वार्तालाप २९ | ज्योतिदशन रहस्य ४१
बह्माका हठ देखकर पितादशनके मायाका विष्णको सवं प्रथम बनाना ४२
लिये अद्ाका उसे ऊपरको ओर अथाका महेशको वरदान देना ४३
ओर विष्णुको नोचेको मर भेजना २९ | शाप पानके कारण दुःखित होकर
विष्णुका पिताके खोजते लं;टकर ब्रह्छाका विष्णुके पास जाकर
पिताके चरणतक न पटुचनेका अपना दुःख कहना ओर विष्णु
वत्तांन्त माताते कहना ओर का उते आश्वासन देना ४२
माताका प्रसन्न होना ३२ | कालप्रपच ४३
पिनाको खोजमं गये ब्रह्माकी कथ। ३२ | गायत्रीका अय्याको शाप देना ४५
ब्रह्माके लिये अथाकौ चिन्ता ३३ | जगत्कौ रचनाका विशेष वृ्तात ४
| गायत्रो उत्पत्ति ३३ | चार खानिको गिनती
३३ । चौरासी लाख योनिको गिनती
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विषयानुक्रमणिका (2
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= ` £ पष्ठाकाः विषयाः पुष्ठांकाः
मन्ष्य खानिकी सबसे अधिक क्यों निरंजनका अपने जालका वर्णन
हं ४६ करना ६२
किन किन खानिमं कौन कौन तत्वह ४६ | निरंजनके जाल काटनेका हयियार ६३
सब मनरष्योका ज्ञान एक समान क्यों हारजानेपर निरंजनका कबीरसाहबसे
नहीं हं? ४७ विनती करना ६३
योनिप्रभाव मेटनका उपाय ४८ | कबीरसाहनका निरजनसे तीन यम-
चार खानिके लक्षर्णोको पारख ४८ हारकर चौय युगं पंथ चला-
अण्डजलानिस्े मन् च्यदेहमे आय हुए नकी प्रतिज्ञा करना ओर व्यालि-
जीवको पारख ४९ सवेशकी बात कहना व.
ऊष्मज खानिसे मनृष्यदेहमं आयं कालका अपने बारह पंयकी बात
हृए जीवको पारख ४९, कहना ६४
| स्यावर खानिसे मनुष्य शरीरम आये कालका जगन्नाय स्यापना करनेका
, हए जीवको पारख ५० वरदान पाना ६५
` पिडज खानिसे मनुष्यशरीरमं आये धमं रायका कवर साहुबको धोखा
| हुए जोवको पारख ५१ उनसे ग्प्त भेद पना ६६
। मन्ष्यशरीरसे मनृष्यदेहमं आनेवाले कालका कबीर साहवके जोदों को नहीं
| जीवको पारख ५२ छोडनकी प्रतिज्ञा करना ६६
|| आय् रहते भ म॒त्यु होतो है ५२ | कबर साह्बका ब्रह्मासे भट ६७
चौरासी धारा क्यों बनो? ५३ | कबोर साहबका विष्ण्के पास पहुंचना ६७
मनृष्यके लिये चौरासी बनो है ५३ | कबीर साहबका नागलोकमे जाना
जोवोके लिये कालका फन्दा रचना ५४ ओर शेषनागसे वार्तालाप ६८
तप्तशिलापर कष्ट पाकर जीर्वोका त्रिदेवका ध्यान करनेपर रामनाभका
गृहार करना ओर कबीर साह- प्रगट होना ६८
जका सत्पुरुषको आज्ञासे उन्हे सत्युगमं सत्सुकरृत (कबीर साहब) 2
छडाना ५६ के पृथ्वीवर आनको कया | ६९ || 5
जोवोकी स्तुति करना ५६ घोधल राजका वत्ताति ` "+ | ६९. ८.
जहां आशा तहां वासा ५७ | खेमसरीका वृत्तांत ~
ग् रु महिमा ५८ | खमसरीको लोकका दशन करना ७० | ` `
शुकदेवकी कथा | ५९ | टीकापूरनेपर ही लोक्कोप्राप्ति ` ७०|| _ `
| कबीर साहब का सत्यलोके चलकर जोवोको उपदेश करणकारुल . ७०.
निरंजनसे वार्तालाप करके पुथ्वो- खेमसरीका सफल परिवार सहित `
पर आनेका वत्तात ` ६ षरवाना लेना ओर उपदेश
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। अताय॒गमे म् 7 (कबीरसाह्ब) के
पृथ्चोपर आनको रूया ७३
| कबोरसाह्बका जोवोंको उपदेश
करना ७४
, विचित्र भाटको कथा लंकामं ७४
¦ मन्दोदरोका व॒त्तांत ७४
; विचित्र वधूका वत्तांत ७४
, मनोद्रका रावणके पास जाना
मधकरको कथा ७७
। हापरयगमे करुणामय (कबोरसाहब )
| के पुथ्वोपर आनेको कथा ७९
ज्ञानो ओर निरजनका वार्तालाप ८०
रानो इन्द्रमतोको कया ८ १
सुपच सुदशनको कया ९५
कलिय॒गमं कबोरसाहबके पथ्वीपर
आनेका वत्तात ९६
धमरायका वाट रोकना ओर कबीर
साहबका उसे परास्त कर आगे
नदना १००
निरजनका कबीर साहबतसे नाभभेद
पूना १०१
कालका कनोरसाहबका भेद न पानके
कारण अपना पन्थ चलानेकी
बात कट्ना १०९१
जगन्नायपुरोको स्थापना वुत्तांत १०९१
[| चार गुदको स्थापना का वुत्ति १०४
| राय बकेजो १ १०४
अचर गतागदर
विषयाः
कुलपति ओर महेश्वरी ब्राह्मणकी
प॒ष्ठांकाः
कथा १०६ |
चन्दन साहुको कथा १०७
नीमा नीरूका व्तांत १०८
रतनाको कथा १०९
सुकृत अंशकोप् थ्वीपर भेजनका व॒त्तांत ११०
धमराज (सुकृत अंश) का कालफन्दमं
पड़ना ११० |
सुकृत अंश (धमंदास) को चितानके
लिये क 7रसाहबका पथ्वीपर
आना १११ |
कबीरसाहबका चौका करके धमदास-
जोको परवाना देना जरतो
विधि ११३ |
चौकाका साज ११३
कबोरसाहबका धमं राज †को उपदेश
देना ११४
नारायणदासजीका कबोरसाहबको |
अवज्ञा करना ११५
धर्मदासजीको नारायणदासजीके अव-
ज्ञाका कारण कबीरसाहबसे
पुना ओर कबोरसाहबका गुप्त
कथा कहना ११५
दवादश पन्थका वणन १२०
मत्य् अन्धा दूतका पन्थ १ १२०
तिभिरदूतका पन्थ २ १२०
अन्ध अचेत दूतका पन्थ ३ १९२०
मनभङ्ग इतका पन्थ ४ १२१
ज्ञानभडग इतका पन्थ ५ ५.१
विषयावच॒करमणिका ( ११)
विषयाः पष्ठांकाः ! विषयाः पुटठाकाः
मननकरन्द दूतका पन्थ ६ १२१ | गरु महिमा १४९१
चित्तभद्धः दूतका पन्य ७ १२९ धमदासजीका पुनः नारायणदास्रजी
अकिलभद्खुः दूतका पंय ८ १२२ के उदधारके लिये विनती करना
विश्वम्भर दूतका पंथ १० १२२ ओर कव्रीर् साहूवको उनको
नकटानन इतका पंय १० १२२ समाधान करनेपर उन्हु त्याग
दगदानी दूतका पय १९१ १२२ देन? ओर् कबीर साह्वका शाप
हंसम् नि इतका पय १२ १२२ गूर शिव्यके व्यवहार वर्णन १४१
धममंदास साहवकी आतम अंशका नारायणदातजीके वंशोके तरनक्ता
दशन होना १२४ उवाव १४२
च् राभणिकी उत्पत्तिको कथा १२५ | विश्वास (श्रद्धा) का माहात्म्य १४६
व्यालिश वंशके राज्यको स्थापना १२६ | गृह महिमा १४६
| चूरामणिको कबोरसाहबका उपदेश विश्वात्तको दृढताके लिये दृष्टांत कयन १४७
देना १२७ | अविश्वासे हानि १४७
वंश का माहात्म्य १२८ ग् र शिव्यको रहनी १४७
भविष्य कथा प्रारम्भ १२९ | गुरुमक्तिका फल १४९
निरंजनका अपने चार अंशको पंय अधिकारी जीवका लक्षण १५०
` चलानेको आज्ञा देना १३० | कायाकगल विचार १५०
चार दूतो का नाम वणन ` १३२ | षट्चक्रनिरूपण १५१
१ रम्भ इतका वर्णन १३२ | मनका व्यवहारव्णन १५२
२ कूरम्भदूतका वणन १३३ | भनके फरसे बचनका उपाय १५२
३ जय दूतका वर्णन १३५ | निरंजन चरित्र श्प
४ विजय दूतका वणंन १३७ | मूक्तिमागं (षंयसहिदानो) वर्णन १५५ |
दू्तोसे बचनेका उपाय १३८ | षंयको रहनी ` १५६ || ह 3 3
भविष्यकयन आगल व्यवहार (नाद बेरागी विरक्त लक्षण १५६ ||
ओर बिन्दवंशका ओर बढ़ाई गृही लक्षण
बंशके धोखा शालः दशहजारी
इत्यादिका पुरा-पुरा वतत इस दर ॐ
भागल व्यवहारमें वणित है) य क 8 ड
आरतो माहात्म्य
दिषयाः पष्ठांकाः
सावधानोका फल १५९
कोयलका दुष्टांत १५९
हंस लक्षण, ज्ञानोका लक्षण १६१
परमाथका वणन १६२
(१२) अनुरागसागरकी विषयानुक° स°
[1
जोय, क = यि कक ~
विषयाः पष्ठाकाः
परम परमार्थो गऊका दृष्टांत
परमार्थो संत लक्षण
ग्रन्थको समाप्ति
ग्रःथका सार निचोड
इति अनुरागसागर की विषया क्रमणिका समाप्त
+ क ग्म र बधि ऋदितः
स
पी. ~ ~थ
१६२
१६२
१६३
१६३
सद् श्स्वतिः
श्लोकाः
सत्यं ज्ञानस्वरूप विमलमधिगतं बह्म सा्षान्नरूयं
ङीषन्यस्ताच्छरत्नद्यतिसि तसुक्कट शतवासोऽभिरामम् ।
भास्वन्सुक्तावल्टीभिः कृतरुचिहदय दिव्यसिहासनस्थं
भक्तानां पारिजाते षिकसितवदन सद्ग नोम्यह तम् ॥९॥
सत्य ओर ज्ञानक स्वल्प, विमल साक्षादब्रह्मक प्राप्त मन् जत्वशूप, मस्तकमें धारण किया हुमा,
स्वच्छ हीरा आ दि रत्नोको कातिसे धवलित मृ कुटसे यु कषत, शेत वरत्रोसे अलशृत, देदप्यमान मोतिया
को मालाओंते शोभित हृदय, दिव्य सिंहासन पर विराजमान, भक्त लोगोके लिय कल्पवृक्ष प्रषटल्सित
मखारविद है जिसका उस सदगुदको मं प्रणाम करता हे ।॥ १॥
यदेप्रयतध्यानविधूतमोदाःसन्तो महस्व शमवाप्य यन्ति । |
बह्याऽद्ये निगोणमाश्वनूहे त सत्यनामानमहं नतोऽस्मि॥२॥
जिसके चरणके ध्यान करनेते संत लोग मोह पाशते छूटकर महत्व खीर कल्याण को प्राप्त | _ `
होते हं, उस अद्रत ब्रह्य स्वरूप सत्य नामको मे नमस्कार करताहं ॥२५॥ ग्य ८ „3 | क
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(२)
जिसके स्वच्छ यशसे परिमाजित इस संसारं मन्ष्य शीघ्र ही अक्तानांधकारको नाश फर,
| सत्पुरुषको प्राप्त होकर कल्थाण पदपर पहुंचता है उस शवेष्ठ धौसत्यनाममं जगतको प्रीति होवे ॥ ३ ॥।
। अकृध्यया यस्थ सदासिनाऽऽशां छित्वा स्वगेहादिषु योगिवन्याः ।
| विन्दंत्यथाऽऽनन्दममद्भेते ख खत्यनाभा विदधातु भूतिम् ॥ ४ ॥
लोग जिसके ध्यान रूपो खड्गते स्वगहादिर्कोमि जो आशा है उसे छेदन कर योगियोति वन्द-
नोय होते हं ओर विशेष आनन्द को पाते हं वह सत्य नाभ एश्वर्यको बडावे ।। ४ ॥
| अकलितमहिमान पूणेकाभ कृपालं धृतनलुजश्षरीरं भक्तखन्तार णाय
खुरखुनिगणवदय दिव्यदेहाधिरामं हद यतिनिरभालं सत्कवीरस्मरामः
| जगणितमहिमवान्, पूर्णकाम, दयायक्त, भक्त लोगोके उद्धार करनके लिये भनुष्य शरोर
धारण करनवाते, देवता ओर मृनिगणोति वंदनोय, दिव्य देह करके मनोहर हदयान्धकारके नाश
| करनेके लिये सूर्यके समान एसे सत् कबोरको हम लोग स्मरण करते हे \। ५ ।।
सवेमं = .
अधमोद्धारणं देवं सद्गुरं भ्रणभाम्यह्म् ॥ ९ ॥
य सवश्वरदव हि स्तुवंति सततं खुराः
ध्यायन्ति सुनयश्चापि त गर प्रणमाम्यहम् ॥ २ ॥
दाश्चजन्मजरामयाधिनिधनण्डंखः सदा पीडितान्,
दृष्टा पाणश्तः ऊरोडायदरे स्वेरं च धृत्वा पुः ।
दाखान्ध प्रविगाह्य बीजकसखधान्ञान च तभ्यो ददो
त् बन्दे शिरसा भणम्य चरणौ वीरं कवीरं गुरूम् ॥२॥
नित्यानन्दस्वरूपो यो मायाऽऽतीतो महोदयः ।
सच्छाख्रविषयः साक्तात्कवीर भरणतोऽस्म्यहम् ॥ ४ ॥
नमः श्रीधमेदासाद्यमहासुन्यन्तसत्तमान् ।
द्विचत्वारिशद्ाचाय्यान् भूतमग्यभविष्यतः ॥ ५ ॥
चक
अनुरगसागर प्रारभ
सत्यसकृत, आदिअदली;) अजर; अचिन्त पुरूष, अुनीन््,
करूणामयकबीर सखुरतियोगखन्तायन; धनीधमदाख;
चूरामणिनाम, खुदशरेन नाभ, ऊलयति नाम अमोधः
शुरबालापीर) केवल नान, अमोलनाम, सरति,
सनेही नामनः इक्कनाम) वाङ्नाम; गड नाम;
धीरजनाम, उन्नाभ; खाहवक्छी दया,
वञव्याटीसखकी दया । |
भ
| मंगलाचरण 1} छन्द हरिगीतिका
प्रयमवन्दोंसतिक्ष्चरणजिन,अगमगम्यलूखाइया #
गरज्ञान दीपग्रकाशकरि पट.खोठिदररदिखाइया॥
जिहि कारणे सिद्धयापचेसी, छर पाते पाडया ॥
अकह मूरति अमिय सुरति, ताहि जाय समाया
: गुरुदेव पूण है
सोरठा-कपासिधु शरदेव, दीनदयाट कपाट हे ॥
विरे पावहि मेव, जिन चीन्ह्या परगट तहां॥ |
अधिकारी कौन है ? छन्द |
कोई ब्रं जन जोहरी जो, शब्दकी पारख करे ॥ ||
चितठाय सुनहि सिखावनो,हितजाके हिरदय धरे।|
( 9 ) अदुराग॑सागर
| तम मोह मोसम ज्ञान रषि.जच् प्रगट हो छ ॥
| कहत हं अकरागसागरःसंत् कोड् कोड शरजञई ॥ २॥
ना अनुराग वस्तुको पा नहीं सकते
सोरठा-कोईइकसन्त् युजान, जो ममशब्द बिचार
पावे पद निबान, बसत जासु अराग उ२।२॥
धमदास वचन-अनुरागीक लक्षण व्रिषय प्रश्न
है सतगुरु विनवौं कर जोरी । यह संशय मेटो प्रथु मेरी ॥
जाके चित अनुराग समाना । ताकर कहो कवन सहिदाना॥
अनुरागी केसे लखि परईं । बिन अनराग जीव नरि तरई॥
सो अनुराग प्रथु मोहि बताञ। देइ दृष्टान्त भरे समञ्ञाः ॥
रतगङवचन-अनुरागीके दुष्टान्त
धमेदास परखह चितटाई । अनुरागी लच्छ कटं ससुञ्चाई)
मृगाका दृष्टान्त
जेसे मृगा नाद् सुनि धवे । मगनहोय व्याधा दिग अवै॥
चित कडु संकं न अवे तादी । देत सीसर सो नाहि डरादी॥
सुनि सुनि नाद सीस तिन दीन्हा। एसे अनुरागी कदं चीन्हा ॥
पतंगका दुष्टान्त
ओ पतंगको जेषो भाज । एसे अनुरागी उर आऊ ॥
सतीका दृष्टान्त
ओर रच्छ सुनियो ध्मदासा। सतय शब्द करो प्रकाशा॥
जरत नारि ज्यो भूतपति संगा। तनिको जरत न मोरत अगा॥
तजे सुग्रह धन धाम सुरी । पिय विरदिन उटि चङे अकेली॥
सुत छे लोगन आगे कीन्हा । बहुत मोह ताक पुनि कीन्दा॥
बालक दुबल तोहि बिनु मरिदै। घर भोसुत्नकादि विधिकर ६॥
बहु संपति तुमरे घर अदर । पट चलुगृद अस बस कदई॥
| ताके चित क व्यापे नाहीं । पिय अनुराग वसे दियमाई॥
अनुरागसागर (९ )
तेहि बहत कदिययश्चावीं नहिंनार्सि॒ञ्चतसोधनी॥
नहि काम है धन धाम सोक मोहितो रेसीवनी॥
जग जीवना दिनि चारि दै.कोडइ नाहि साथी अंतको॥
यह सुधि देयो ए खल्ली.ताते गह्य पदकंतको॥३॥
सोरग-घ्यि कियाकरमाह, जाय खरा उपर चदी॥
गोद छियो निज नाह, रामनामकहते जरी॥३॥
तत्वानुरागी के लक्षण
धर्मं । येह अनुरागी बानी । ठम तत देख कटं बिङ्कानी
एसे जो नामर्दि खँ ख्व इर परिवार सवरि विखरावे॥
| सुतको माह न आने । जीवनजनम सपन केरि जाने
जगम जीवन थोरो भाई । अन्त समय सो नारिं सहाई ॥
बहुत पियारि नारि जगमादीं । मातु पितहु जाहि सर नाहीं॥
तेहि कारण नर सीस ज देदी । अन्तसमय सो नारिं सनेदी ॥
निजं स्वारथ क रोदन करई । तुरति नेहरको चित धरई ॥
घत षरिजनधनं सपनसनेही । सत्यनाम गहू निजमति एदी॥
निजतबुसमप्रिय ओरन आना।सो तन संग न चरत निदाना॥
कारुते कौन छुंडा सकता है
ठेसा कोई न दीखे भाईं। अन्त समयमें रेह छुड़ाई ॥ |
अहै एकं सो कहौं बखानी । जेहि अनुराग दोय सों मानी॥
सत गुर आदि छंड़ावन शारा। निय मानो कडा हमारा ॥
सदगुरु क्या करता हे ? | ¦
काल्हि जीत हंस रे जारीं। अविचरूदेश पुरुष जह आईी॥
न. २ कबीरसागर २
जहां जाय सुख होय अपारा। बहुरि न आव यहि संसारा ॥|
( ६) अतुरागसागर
अवि चर देरको कोन परुच सकता हे? छन्द
विस॒वास कर मनवचनको,तब चदे सतकी ए |||
ज्यों सुरमा रने धते, फिर पाछ चितवन नाहहो ॥ |
छती शरा माव रखके, संत सो मम् धारये ॥
मृतके भाव विचारथस्गम, का कष्ट निवारिये ॥
अधिकारीकी दुलभता
सोरटा-कोइक, अर् जीव, जो एेसी करनी करे ॥
त।[हि मिरुगो पीव, कदे, कबीर विचारिङे ॥५॥
धमेदास-व चन पतक किसे कते है
मृतकं भाव प्रथु को बुञ्ाईं । जाते मनकी तपनि नसाई ॥
केदि विधिमरत कटो यह जीवन। कटो विरोय नाथ अमरतघन्॥
कवोर ब चन-मृतकके ट्टा
धममदास यह कठिन कहानी । गुरूगम ते कोह विररे जानी ॥
भृह्नीका रष्टांत
मृतकं दोयके खोज्दिं सन्ता । शब्दविचारि गहै मश अन्ता॥
| जेसे भद्ध कीटके पासा । कीटदिगदिपुरूगम परगासा॥
| शब्द् घातकर मदितिदि डारे। भद्धी शब्द् काट जो धारे ॥
। तब लेगो भद्धी निज गेदा । स्वाती देह कन्दो समदहा ॥
भृद्धी शब्द कीर जो माना । वरण फेर आपन करजाना ॥
बिरखाकीट जो होय सुखदाई। प्रथम अवाज गहे चितलाई॥ ्
कोड दूजे कोई तीजे माने । तनमनरदित शब्ददित जाने ॥
भृद्धी ब्द कीट ना गदहं । तो पुनि कीट आसर रहं ॥
धमंदास यह कीर को भेवा । यहि मति शिष्य गहे गुरूदेवा॥ |
अवुरागसागर ( ७)
र शद्रीभावकी प्रापि केते होती दे छन्द
| गि मति दिटक् गहे तो, करो निनस्षमओहिं हो ॥
हृतियामाव् न चित व्याप, सो छे जिव मोहिहो ॥
ष शब्द निश्चय सत्यमाने, शरंगि मत तव पावई॥ |
तज सकल आता राब्द् बू्ताकाग ईस काव
हस कनन ईः
सोरटा-तज कगेकी चाङ.सत्य शब्द गहिं ईैसहो॥
षुकता ग रसाछ, परप पच्छ छट मग गवन ॥५॥
मुतक्कं अृ।र₹् दष्टात
सन संत यह मृतकं खभाऊ। विरखा जीवपीवं मगं धाड॥
ओरे सुनहु मृतकका भवा । मृतकं होय सतय पद सेवा॥
मृतकं छह निभाव उरधारे । छह निभावदहि जीवं उबारे ॥
पथ्ती का दांत
जस पृथ्वीके गंजन डोह । चित अवमान गहे युणसोई।॥
कोई चन्दन कोई विष्ठा डारे । कोई कोई किरषी अबुसारे ॥
गुण ओगण तिन समकर जाना। महाविरोध अधिकञ्चखमाना॥
ऊखका दष्टान्व
ओरो भृतक भाव सुनि रह् । निरखिपरखिशरूमगपशुदेहू ॥
जैसे उख किसान बनावे । रती रती कर देह कटावे ॥
कोह महँ पुनि आप पिरावे । पुनि कड़ादमें आप उटावे ॥
जिन तलु दाहे शड़ तब होई । बहुरि ताव दे खांड विरोई॥
| ताह माई ताव पुनि दीन्हा । चीनी तबे कहावन लीन्हा ॥
चीनी होय बहुरि तन जारा । ताते मिसरी है अवुसारा ॥
मिसरीते जब कंद कहावा । कहे कवीर सबके मन भावा॥
यदी विधिते जो शिष सई । रु कृषा सहजे भव तरह ॥ || ५ य
५८) अनुरागसागर
=> जका 9 कक =
् मृतकभाव कौन धारण कर सकता है ? छन्द
सिरत भाव है कठिन ध्मनि, रदे विररश्चरदो ¦ |
। कादर सुनतेहि तनमन दैप न चितवतकरहो
एसे रिष्य आप सम्ारे, नाव सदी शस्ल्ञानको ॥
रुहे मेदी मेद निश्चय जाय दीप अमानको ॥६॥
मृतक दहीसाधु होता
सोरढ-प्रतक हो सो साघु, सो सतय॒सको पावर
मेटे सकट उपाध, ता दव आसा कर ॥६५॥ ||
साधु ।कस्लं कट् |
साधूमागे कलिन धममंदासा । रहनी रहे सो साधर सवासा ॥ |
पाचों इन्द्री सम करि राखे । नाम अमीरसनिशिदिनं चाखे॥
च्षुबश्ाकरण
प्रथमं चक्षु इन्द्री कहं साधे। गुर् गम पंथ नाम अवराघे ॥
सुन्द्र शूप चक्षुकी पूजा । रूष कूप न भावे दूजा ॥
। रूप कुरूप सम करजाने । दरस विदेह सदा खख भाने ॥
श्रचणवञ्चोकरण
इन्द्री श्रवण वचन शुम चारै । उत्कट वचनसुनत चित दादै॥ |
बोर कुबो दोउ सह । हदय शुद्ध यज्ञान विशेखे ॥
नासिावशोकरण
नासिका इन्द्री बास शाता । यहि सम राखे संत प्रवीना॥
| बकी करण
जिभ्या इन्द्री चाहे स्वादा । खटा मीग मश्रर सवादा ॥
सहज भावम जो कद अवे । खा फीका नर्द विलगावे ॥
जो कोई पचामृतं छे आवे । ताहि देख नर्द दरष चटावे॥
तजे न रूखा साग अटूना । अधिक प्रेमसो पे दूना ॥॥
अनुरागसागर ८४)
„ ~= -निवनवकीदि न = =
& दष्ट महा अपराधी । कुटिलकाम होई विर्टेसताधी ॥
कामिनि शूप कालकं खानी ) तजह तादु सग हो यरज्ञानी॥
कामव्दा]करण
जबदी काम उमंग तन आगे । ताहि समय जो आप जगै॥
| शब्द विदेह सुरत छे राखे । गहिमन मौन नामरसचाखे ॥
जव निहतत््वमं जाय समाई | तवहं काम रहं सुरञ्ाईं ॥
कामदेव ठृटेरा टे । छन्द
काम परवल अति मर्यकर, महा दारण काठ हो॥
सुरदेव मुनिगणयक्षगंधवं,सवहि कीन्ह विलास हो॥ |
| सबहिं लूटे विरल हट, ज्ञान खण निजं इटं गहे ॥
शुसज्ञान दीप समीम् सतुभेदमारग तिन छहे॥७।
कामदठुटरेसे वचने का उपाय
सोरटा-दीपक ज्ञान प्रकाङ'मवन् उजेश् करि रहो॥
पतयसशब्द विलास्भाज चौर जोश जब॥\७)
अनलपकषिका टष्टान्त
गुङू कृपासों साधु कदावे । अनल्पच्छ ह खोक सिधवे॥
धर्मदास यह प्रखो बानी । अनलपच्छ गम कहो बखानी॥
अनलपच्छ जो रहै अकाशा । निशि दिन रहै पवनकी आशा
दृष्ठिभाव तिनरति विधिठानी । यहविधिगरम रदेतिहिजानी ॥
अडप्रकाश कीन्ह पुनि तवां । निराधार आर्बरिं जहवां ॥
मारग माई पुष्ट भो अंडा । मारग माहि बिरह नोखण्डा॥ ||
मारग मार्ह चक्षु तिन पावा । मारग मादिं पंख पर भावा॥ ||
महिटिग आवा सुपि भडइतादीं। इहां मोर आश्रम नदिं आदी॥ || ।
सुरति सम्हार चके पुनि तवां । मात पिताको आश्रम जहवां॥ || ~ हः
+ न)
९
(१०) अनुरागसागर
क
< पछी जग साहि रदवं स अनलपच्छ सम नारि कदां
अनलपच्छजसपच्छिन मारीं । अस पिरे जिव नाम समाँरीं॥
यहि विधि जो जिव चेते भाईं। मेरि कार सतलोक सिधाई ॥
साधु अनलपक्षी समान कब टोता ह् ? छन्द
निराब अंब खतशर, एक आसा ह नामकी ॥ |
गस्चरणलीनअधीननिरिदिन,चाहनहिधिनधामकी
त रि सकर विसारिविषया, चरणयस्टटकेगहे ॥
एेसे साधुको गुर्
सतणसकृपाटुखटुसहनाशे, धाम अविचटसो र्दे ॥
अविचल धामकी प्राप्ति किससे होती देः |
सो-मनषचक्रमयरध्यान, य॒रआज्ञानिरखत चे ॥
देहि मुक्ति य दान, नाम विदेह रृषखायके ॥ < ॥
नाम ध्यान माह्ास्म्य
जबलग ध्यान विदेह न आवे । तबलगनिवमवभटका खाते॥ |
ध्यान विदेह ओ नाम विदेहा। दौड खल पावे मिटे संदेहा ॥
छन इक ध्यान विदेह समाई । ताकी महिमा वरणि न जाई॥
काया नाम सवे गोहरावे । नाम विदेह विररे कोई षावे॥
जो युग चार रहे कोई कासी । सार शब्द् विन यमपुरवासी॥
नीमषार बद्री परधामा । गया द्वारिका प्राग अक्नाना॥
अडसठ तीरथ भूपरिकरमा । सार शब्द विन मिरे न भरमा॥
कलग कहो नाम परभा । जा सुमिरे जमजास नसाॐ॥
नाम पानेवाङेको क्या भिरता हि
||सार नाम सतयुरुपो पावे । नाम डोर रदि रोक सिधावे॥
धर्मराय ताको सिर नावे। जो ईसा निःतत्व समावे ॥ |
अनुरागसागर् ( ३११ )
सार खन्द क्याद्ं
सार शब्द ॒विदेह स्वषपा । निअच्छर वटि रूप अनूपा॥
तत्व प्रकृतिभाव सब देहा । खार शब्द नितत्वं विदेहा ॥
कहन सुननको शब्द चोौधारा। सार शब्दसों जीव उबारा ॥ ,
पुरुष सु नाम सार परबाना । खमिरण पुरूष सार सहिदाना॥ |
बिन रसनाके जाय समाई । तासो काठ रहे मुग््ाई ॥ |
सूच्छम सहज पन्थ है पूरा ! तापर चट रहै जन सूरा ॥
नहिं वहं शब्द न सुमरा जापा। षूरन वस्तु काठ दिख दापा॥
हंस भार तुम्हरे शिर दीना । तमको कों शब्दको चीन्हा॥
पदम अनन्त पंखुरी जाने । अजपा जाप डोर सो ताने॥
सुच्छम द्वार तहां तब परसे । अगम अगोचर खत्पथ परसे॥
अन्तरश्चून्य महि दोय प्रकाशा। तर्हर्ब आदि पुरूषको बाखा॥
तारि चीन्ह हंस तं जाई । आदि सुरत तह ॐ पडचाई॥
आदि सुरत पुरूषको आदी । जीव सोहंगम बोलिये ताही॥
धमदास तुम सन्त सुजाना । परखो सारशब्द निरवाना ॥ |
सारशब्द ( नाम ) जपनेकी -विधिगुरुगमभेद छन्द ्
अजपा जाप हो सहजधुना, परखिययरूगम डारिये॥
मन पवनथिरकर शाब्दनिरखे, कम॑मनमथ मार्यि
होत धुनि रसना विना.कर माछ विन निखारिये॥ |`
शाब्दसार विदेह निशखत,अमरटोक सिधार्यि॥९॥
सोरठ-शोमा अगम अपारकोरिमावुशशिरोमईक॥
षोडरा रवि छिटकार, एकरस उजियार तञ ॥९॥
धमेदासकाआनन्दोदृगार
हे प्रभु तब चरण बिहारी । किये सुखी सब कष्ट निवारी॥
५५५५
|
~
( १२ ) अनुरागसागर
व कमीर वचन
घमेदास तम॒ अंस अक्री । मोहि मिरेउकीन्हे दुख दूरौ॥
। जस त॒म कीन्हे मोमन नेहा । तजिधनधामर् सत पितु गेदा॥
आगेशिष्यजोअसविधिकदिरै। गुरुचरण मननिश्वलधरिंहै ॥
गुरूके चरण प्रीत चित धारे । तन मन धन सतगुूपर वारे॥
सोजिवमो्हिअपिक प्रिय होई। ताक रोकि सके नरि कोई ॥
शिष्य होय सरबस नहिं वारे । इदयकपट मुख प्रीति उचारे॥।
सो जिव केसे रोग सिधा । बिन गुर् मिरे सोहि नरि पाई।
अवीसीकप्रेधनदाता
षपब तो प्रभु आपरि कीन्दा। नरि तो हतो यँ परम सरीना॥
| करके दया प्रथु आपदि आये। पकड वांद प्रथु काल छड़ाये॥
सृष्टि उत्पत्तिविषयप्ररन
अब साहब मोहि देउ बताई । अमर लोग सो करां रहाई ॥
|| रोकदीप मोटि बरनि सुनावदहु। तेषनावन्तको अमी पियावहु॥
कोन द्वीप दसको वासा कौने द्वीप पुरूष रह वासा॥
भोजन कौन दंस तहँ करई । ओर बानी क पुनि उच्चरई॥
केसे पुरूष रोग रचि राखा । द्वीपि करकेसे अभिरखखा ॥
|| तीन लोक उत्पत्ती भाखो । वर्णुसकर गोय जनि राखो ॥
कालनिरजनकेहि पिधि भयउ केसे षोडश सत निमय ॥
केसे चार खानि विस्तारी । केसे जीव काट्वश डारी ॥
केसे कूमं शेष उपराजा । केसे मीन बराहर्हि साजा ॥
अय देवा कौने विधि भय । कैसे महि अकाश निरमयञउ॥
|| चन्द्र सुं कहू केसे भय । केसे तारागण सब ठयं ॥
किडि षिधि भई शरीरकी रचना। भाषो सादब उत्पत्ति बचना॥
जाते संशय दो उच्छेदा । पाय भेद्. मन रोय अखेदा॥
अव॒रागसागर ( १३ )
छन्द ।
- आदि उतपतिकदोसतथर, कृपाकरी निजदास्तको ॥
वचन सुधा सु प्रकार कीजे.नारा हो यमत्रास॒को॥।
| एक एक विखोयवणंहू, दाच मोहि चिज जानिके॥
स॒त्य वक्ता सदथ॒रू तुम, टेव निहचयमानिके॥3०॥
सो °-निहचयवचनतुम्हार, मोहिंअधिकप्रियतादहिते॥
ठीखा अगम अपारःधन्यभाग दरौन दिये3०॥
| कवार वचनं
| धर्मदास अधिकारी पाया । ताते चै कि मेद सनाया ॥
|| अब तुम सुनहु आदिक बीनी। भाषो उत्पति प्रल्य निशानी॥
सृष्टिके आदिमे क्याथाः
तबकी बात सुनहु धमदासा । जबनर्हिमदिषातार अकाशा॥
| जब नर्हिक्म बराह ओर शेषा। जब नहिं शारदगौरिगणेशा ॥।
जव निं हते निरजन राया । जिनजीवनकदरांधिद्ुखाया॥ |
तेतिसर कोटि देवता नाहीं । ओर अनेक बताऊ कारी ॥
ब्रह्मा षिष्णु महेश न तहिया । शाघ् वेद पुराण न कदिया॥
तब सब रहे पुर्षे माहीं । ज्यों बर बश्च मध्य रह छरीं ॥
आदि उत्पति सुनह धर्मनि,कोइ न् जानत तादिहो१
सहि भो विस्तार पे, खास देउ मे काहि हो ॥
वेदचारो नादिं जानत, सत्य पुरुष कहानिया ॥
(= तुब मूर नाही,अकथकथा बखानिरयो॥११॥ ||
सोरग-निराकासे वेद, आदिमेद जाने नहीं ॥| `
पण्डित करत उदेद,मते बेदके जग चले॥११॥ + +
र
च
क ^ "त ऋ,
+न
व)
( १९ ) अतुरागसागरे
वयर ~
सृष्टिक उत्पत्ति सत्तपुरुषकी र चना
सत्य पुरूष जबर गुपत रहाये । कारण करण नरी निरमाये॥ |
समपुट कमर रइ गुत सनेहा । पृहुपमाट रह पुरूष विदेदा॥
इच्छा कोन्ह अंश उपजाये । हन देखि इरष बहुपाये \ |
प्रथमरि पुरुषशब्द परकाशा । दीपलोकरचि कीन्ह निवासा॥ ||
चारि कर सिंहासन कीन्हा । तापर पुद्ुप दीपकर चीन्दा ॥
पुरूष कला धरि बेठे जिया । प्रगरी अगर वासना तदहिया।॥
सहस असी दीपरचिराखा । पुरूष इच्छते सबभभिलाखा॥
सब द्वीप रह अगर समायी । अगर वासना बहुत सुहायी।॥ |
सोरद् सुतका परगट होना |
दूजे शब्द् भयेचपुर्षप्रकाशा । निकसे करर्मचरण गहि आशा॥
। तीजे शब्दभयेजपुरूष उच्चारा । ज्ञान नाम सुत उपने सारा॥ |
टेकी चरण सम्मुख दै रदे । आज्ञा पुरुषद्रीपतिन्ह दएड॥
चौथे शब्द् भये पुनि जवदीं । किवकनाप सुत उपजे तब्दीं॥।
आप पुरूष किये द्रीपनिवासा। पंचम शब्दसो तेज परकासा॥
पांचवे शब्द जव पुरूष उच्चारा। काट निरंजन भो ओतारा।॥।
तेज अंगते काट दहै आवा । ताते जीवन कह संतावा ॥
जीवरा अश पुरुषका आदीं । आदिअन्त कोउ जानत नारीं
छठे शब्द् पुरूष सुख भाषा । प्रगटे सहजनाम अभिलाषा॥
सतयं शब्द भयो संतोषा । दीन्हो द्वीप पुरूष परितोषा॥
अर्ये शब्द् पुरूष उचारा । सुरति सुभाष द्वीप बेठारा ॥
नवमे शब्द् भानन्द् अपारा । दशयं शब्द क्षमा अनुसारा॥
ग्यारह शब्द् नाम निष्कामा । बारह शब्दं जलरंगी नामा॥
तेरह शब्द अर्चित सुत जाने । चौदह शब्द सुत प्रेम बखाने॥
|| पन्द्रह शब्द् सुत दीन दयाला। सोल शब्दमे धीयंरसाला ॥
01 77 । साट शाब्दम् घु ५
अवुगगसागर ( १५ )
स्रवे शब्दसुतयोगसंतायन । एक नार षोडवस्ुत पायन॥
शब्दहिते भयो सतन अकारा । शब्दते कोक द्वीप विस्तारा ॥ |
अग्र अभी दिव्य अंश अहारा) द्वीप द्वीप अशन बेढरा ॥
अंशन शोभा कला अनन्ता । होत तां सुख सदा बसन्ता॥
अंशन शोभा अगम् अपारा । कला अनन्त को वरणे पारा॥ |
सब सुत करे षुङ्षको ध्याना । अमी अहार खदासुख माना॥
यादी बिधि सोलह सत भे । धमेदास तुम चितधरि छेक ॥ |
दीप् करी को अनत शोभा, नहि बरणतसरो बने ॥ |
अमितकल् अपार अदत, खनत शोभाको गने ॥
रके उजियारसे सन, सवे दीप अनौ रदी ॥
सृत पुरषरोम प्रकाश एकहि,चन्द्र सयं करो एद ॥
सो°-सतगरआर्नधाम, शोकमोहटुःख तई नहीं ॥
हैसनको विश्राम, पुरुष दरश अचवन सध ॥३२॥
निर जनकी तपस्या ओर मानसरोवर तश्रा शल्यकी भराति
यदिविधिव्रहुतदिवसगये बीती। ता पीछे देसी भइ रीती ॥
धरमराय अस कीन्दतमासा । सो चरि ब्र्धह धमंदासा ॥
युग सत्तर सेवा तिन कीन्ही । दकपद् गढ पुरूष दर्षित दीन्डी॥
सेवा कठिन भांति तिन कीन्दा। आ दिपुरूष दषित होय चीन्दा॥
पुरुष व चन निरंजन मापि
पुरषं अवाज उदी तब बानी । कहा जानि त॒म सेवा गनी॥
जनवचन
कै धरम तव सीस नवायी । देह ठीर जहां बेडों जायी ॥
आज्ञा किये जाह सुत तवं । मानसरोवर द्वीप है जवां ॥ || `
चरयो धरम तब मानस्रोवर । बहुत हरषचितकरतकरोहर ॥ ||,
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( १६ ) अनुरागसागर
| मान सरोवर आये जहिया । मये आनन्द धरमणुनितरिया॥ सरोवर आये जहिया । भये आनन्द धरम पुनि तहिया॥
बहुरि ध्यान पुरूषको कीन्हा । सत्तर जग सेवा चित दीन्दा॥ |
यकं ॒पगु ठादे सेवा लायी । पुरूष दयादु दया उर आयी॥ |
| पुरुषव चन सहजप्रति
| बिकस्योपुरूषडठ्योजब बानी। बोटत बचन उठ्यो अघरानी॥
जाइ सहज तुम धरमकेपासा। अवकसध्यानकीन्ह प्रकासा॥ |
सेवा बहु कीन्हा धर्मराॐ । दियो गोर वहि जौँ रहा ॥
तीन लोग तब पल दीन्हा) खखिसेवकाई दया अस कीन्हा॥ |
तीन लोक कर पायो राज् । मयो अनन्द धरम मन गाज्।
अबका वचँ प्रछो जाई । जो ङु कद सो देउ सुनाई।॥ |
सहजका निरजनके पास जाना |
चङे सहज तब सीख नवाई । धरमराय पँ पचे जाई ॥
कहे सदज सुव॒ भ्राता मोरा । सेवा पुरूष मान ख्ह तोरा } ।
अबका मांगह सो कह मोदी । पुरूष अवाज दीन्हा यह तोरी॥
निरजनवचन सहजप्रति
। अहो सदज तुम जेठे भाई । करो पुरूष सो विन्ती जाई ॥
। इतना ठार न मोहि सुहाई । अब मोहि बकसि देदहुठकुराई॥
मोरे चित असमो अनुरागा । देउ देश मोदि करहु सभागा॥
के मोदि देवलोक अधिकारा । कै मोरि देह देश यकं न्यारा॥। |
सहजवचन सप्पुरुषप्रति
चले सहज सुन धमकी बाता । जाय पुरूषसो कदे विख्याता॥
जो कड धममराय अभिलाषी । तैसे सहज सुनाये भाषी ॥
| सहजप्रति । छन्द
सुन्यो सदजके वचन, जवही पुर्ष बेन उच्चारेॐ॥
धरमषे षन्त॒ष्ट हे हम, वचनं मम उर धार ॥
अलुरागसागरं ( १७ )
खोक तीनों ताहि दीन्हो, न्य देश वसावहू ॥
करहु श्चन जाय तदह्वाःचहज वचन नावह् ॥१२॥
| सो -जाहु हज तम वेग, अघ कहि आबो धमस्ो
दियो शन्यकर थेग, रचना श्चहु बनाई ॥ १३ ॥
निरजनको छि रचनाक साज भिलकानेका वत्तात
सहज वचनं निजन् परति
आये सहज वचन सुनावा । सखत्यपुङ्षजसकदिसभुञ्चावा॥
कवीर वचन धमराज प्रति
सुनतहि वचन धमं हरषाना । कटकदषकडषिस्यय आना॥
| निर् जनव चनं सहज प्रति
कहे धमं सुनु सदज पियारा । कैसे रच करौं विस्तारा ॥ |
पुरूष दयाल दीन्ड मो रान्। जा न भेद करो किमि काञू॥
गम्य अगम मोहे नहिं आयी । करो दया सो युक्ति बतायीं ॥
वन्ती करौ पुरूषसों मोरी । अहो भ्रात बलिहारी तेरी ॥ |
क्किहििधिर्चनवखण्ड बनाई । हे भ्रात सो आज्ञा पाई ॥
मो क देह साज प्रथु सोई । जाते रचना जगत्की होई ॥ ।
सहजका लछोककौ जाना
तबरी सदज लोक पग धारा । कीन्ह दंडवत बारम्बारा ॥
पुरुषव चन सहज मरति
अहो सहज कस इहैव आई । सो हमसो तुम शब्द् सुना₹॥
कबीर वचन धमे दास मरति |
कहो सहज तब धर्मकी बाता । जो कदु धर्मं कदी विख्याता॥ ॥
धर्मराज जस विन्ती छायी । तैसे सहज सुनायडउ जायी ॥
| ` पुरुषकी आज्ञा सहजसे | |
| आज्ञा पुर्ष दीन्द तेहि वारा । सनौ सहज त॒म वचन इमारा। " ॥..
( शष्ट ) अतुरागसागर
कूमके उद्र आदि सब साजा । सो रे धर्म करे निजवतजा ॥
विनती करे कमं सो जाई ।मांगि रेति तेहि माथ नवाई॥
सहज धमेरायके निकट जाकर पुरुषकी आज्ञा सुनाना
गये सहज पुनि धमके पासा । आज्ञापुरूष दीन्ह परकासा॥ |
विनती करो कूमंसो जाई । मांगि लेह सीस नवाई॥
जाय कूमं दिग सीस नवावहू। करिह कृषा बहुत तव पावह्॥ |
निरं जनको कूमंके पास साज लेनेको जाना
कथोरव चन धमंदास प्रति
जलिमो धरम हदरष तब बाटो। मनदिकीन मान अतिगाटो॥ |
जाय कू्मके सम्मुख भयऊ । दंडपरनाम एक निं कियञ॥ |
अमी स्वप कमं सुखदाई । तपननतनिकोअतिशितखई॥ |
करि गमानदेख्यो जब काला। कूमं धीर अति है बर्वाना ॥
बारह पटंग कूम शरीरा । छ पलंग धरम बलबीरा ॥
धावे चँ दिशि रहै रिसाई । किदिविधिलीजेउत्पति माई ॥ |
कन्दो कालसीस नख घाता। उद्रते निकसे पवन अघाता॥
तीन सीसके तीनहु अशा । ब्रह्मा विष्णु महेश्वर वंशा ॥
पांच तत्व धरती आकाशा । चन्द्र सूयं उडगन रहिषासा ॥
विसस्यो नीर अग्नि शशिघुरा। निसर्यो नभटाकनमदिथूरा ॥
मीन शेष बराह महिथम्भन । पुनि पृथ्वीको भयो अरम्भन।॥
छीना सीस कुमंको जबरी । चले प्रसेव ठांव पुनि तबदी॥ |
जबरी प्रसेव द जल दीन्हा । उचासकोट प्रथ्यीको चीन्हा॥
क्षीर तोय जस परत मलाई । अस जरप्र पृथ्वी ठहराई ॥
बारह देत राहु मदिकरमूला । पवन प्रचण्ड मरीस्थूला ॥
अस्वरूप आकाशको जानों। ताके बीच प्थ्वी अनुमानं ॥
अ्ुरागसागर ( १९)
कूर्म उद्र सुत कूर्मं उत्पानो । तापर शेष वराहको थानौ । |
शेष सीस या प्रथ्वी जानो । ताके हेड कमे विरयानो ॥
किरतम कूम अण्डके माही । कमं अंश सो भित्र रहादी ॥
आदि कूम रह लोक न्चारा । तिनपुनिषुश्ूषध्यानअदसाया॥
2३चन् सप्पुहधप्रति
निरंकार कीन्हो बरियाया । काककलाधरि मो परं आया॥
उदर विदार कान्ह उन मोरा आज्ञा जानि कीन्ह नहि थौरा॥
पुरुष व चनकूमेम्रति |
पुरूष अवाज कीन्ह तहिषारा । छोटे वं वह आहि तम्हारा॥
आरी यही बडनकी रीती । ओशन उर्व करदं वह प्रीती॥
कवीरवचन धमेप्रति
पुह्षव चन मुनि कूम आनंदा । अमीसदह्ष सो आनैदकंदा ॥
पुरूष ध्यानपुनि कीन्हनिरंजन! चग अनेकं किय सेवा संजन ॥ ।
स्वार्थं जानि सेवा तिन लाई । करि रचना वेढे पताह ॥
धूर्म॑राय तब कन्दं विचारा । कहवालो जयपुर विस्तारा ॥
स्वगे मृत्यु कीन्दो पाताला । विनाबीजभरिमिकीजे ख्याल
कोन भांति कस करव उपाई ।किंदि विधि रचो शरीर बनाई॥
कर सेवा मांगों पुनि साई । तिह पुर जीवित मेरो होई ॥
|| करि विचार अस हठ तिनधारा। लाग्यो करने पुरूष विचारा ॥
एकं पांव तब सेवा किये । चोँसढ युगलो उादे रहे ॥
व हुरि पुरुषका सहजको निरंजनके निकट भेजना । छन्द श
दयानिधि स्तपुष साहिब, बस घसेवाके भये ॥
बहुरि भाष्यो सहज सेती, कहा अब याचत नये॥
सहज निरंजनापह' देउ नो कछ मांग ॥ |
श्चना पर्ष वचना, छ मता सब त्यागं ॥
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(२०) अनुरागसागर
वस
यिय किक
सहजका निरजनफे निकट् परह चना
सो "सहन चलेसिरनाय,जबहि पुरुष आज्ञा कियो
तषा पहृचे जाय,जहां निरंजन खदरह ॥१५॥
देखत सहज ध्म हरषाना । सेवा वस पुरूष तब जानः ॥ |
सह् जवे चन्
कहै सहज सुनु पमाया । कडि कारणअब सेवा खाया॥ |
र₹जन्व् चन्
धमं कहै तब सीस नवायी । देहु ठर जह बेटे जायी ॥ |
सहज द चनं
तब सहज अब भाषे लीन्हा। सुन धमं तेद पुरुषसब दीन्दा॥
कूम + उद्र सो जो कडु आवा । सो तोहि देन पुङ्ष फरमावा॥
तीनो लोकं राजा तोहि न्दा रचना रचहु दोह जनि भीना॥ |
जन् च चन्
तव निरंजन् विनती खायी । कैसे रचना रघर॑बनायी ॥ |
पुरुषि कहौ जोर युग पानी । मेँ सेवक् दुतिया नि जानी॥ ||
पुरूष सो विनती करो हमारा । दीजे खेत बीज निज सारा #
भे सेवक दुतिया नदीं जावर ।ध्यानपुरूषको निशिदिन आनू॥
पुरूष कहौ जाय यह बानी । देह बाज अम्मर सदिदानी॥ |
कबीरवचन धमेदासप्रति
सहज कद्यो पुनि पुरुषि जाई। जस क क्यो निरंजनराई॥
गयो सहज निजदीपसुखासन । जबदिपुरूष दीन्डेअनुशासन॥
सेवा वश सत्पुरूष दयाखा ।गुण ओगुणनदिचितकिष्वाला॥
अधाकी उत्पति
इच्छा कीन पुरूष तेदि बारा। अष्ठंगी कन्या उपचारा ॥
अष्ट बाहु कन्या दोय हई । वायि अग सो गद् रहाई ॥ |
अद्या उत्प
। माथ नाय पुरुष सो कहं ।अदो पुरुष आज्ञा कस अहद॥
अनुरागसागर (२१)
सत्य पुरूषका आद्याको मूलखबीज देना
पुरुष वचन अद्याप्रति
| तवबहीं पुरूष वचन परगासा । पुची जाइ धरमके पासा ॥
देहं वस्तु सो लेह सम्हारी । रचह धर्म मिलि उतपतिवारी॥
कवीरवचन ध्मेदासप्रति
दीन्हो बीज जीव पुनि सोई । नाम. खुहंग जीव कर होई ॥
जीव सोेगम दूसर नादी । जीवसों अंश रूष को आदी
शक्ति पुनि तीन पुरूष उत्पाना। चेतनि उखुवनि अभया जाना
पर्ष सेवावश मये तब, अष्ट अंगहिं दीन्हं ही ॥
| मानसरोवर जाह कहिया, देह धमहि चीन्हं हौ ॥
अष्टङ्गी कन्या इती जेहि खूप शोभा अति बनी
| जाहकन्या मानसरवर, कर रचना अति, धनी ॥
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सोर्डा-चौरासी छखजीव, म्रूरवीज् तेहिसंग दे ॥
रचना स्चह सजीव, न्या चङि सिरनायके॥
यह् सब दीन्हो आदि इमारी। मानसरोवर चछिभहईं नारी ॥
ततकछ्छिन पुरूष सदंज टेरावा। धावत सहज पुरूष यटि आवा॥
पुरुषवचन सहजप्रति
जादी सदज धरम यह केह । दीन्ह वस्तु जस तुम चेह ॥
मू बीज तुमपृह पठवावा । करड सृश्जिसत॒वमनभावा॥
मानसरोवर जाहि रदा । ताते होड है सृष्टि उराहू ॥
पुनि सहजका निरजनके दिग जाना
चले सहज तद्व तब आये । धर्म धीर जरं गढ़ रहाये ॥ ||
कृहेउ सुवचन पुरूषको जबहीं । धर्मराय सिर नायो तबहीं ॥ || ` ^ 6
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(२२) अनुरागसागर
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| निरजनका मानक्षरोवरमे अयाको पाकर मोहवश्च हो उक्ते निगल
जाना ओर सत्यपुरुषका श्चाप पाना
पुरूष वचन सुन तषी गाजा । मानसरोवर आन विराजा ॥
आवत कामिनी देख्यो जबरी । धर्मराय मन हर्या तबरी॥
कहा देखि अष्टगी केरी । धर्मराय इतरान्यो देरी ॥
कृडा अनन्त अत कदु नारीं । काल मगन है निरखत तादहीं॥
निरखत धमंसु भयो अधीरा । अग अग सब निरख शरीरा॥
धमेराय कन्या करै मासा । कारुस्वभाव सुनो धर्मदासा॥
कीन्हीं आस काल अन्याई । तब कन्या चित विस्मय छाई
तत छण कन्या कीन्ह पुकारा । काल निरंजन कीन्ह अहारा॥
तबही धमं सदज लग आई । सहज श्न्य तब लीन्द छुडारई।।
पुरूष ध्यान कूमं अनुसारा । मोसनकाल कीन्ह अधिकारा
तान शीश मम भच्छण कीन्ट्यो। हो सत पुरूष दयाभर चीन्ट्यो॥
यही चरि पुरूष भरु जानी । दीन्ह शापसो कों बखानी ॥
पुरुषका शाप निरजनप्रति
रच्छ जीवं नि भ्रासन करद् । सवारच्छ नितप्रति विस्तरहू॥ |
छन्द
पुनिकीन्दपुरुषतियानतिदी, किमिमेटिडारोकाट्हो
कठिन् काठ करा जीवन्, बहुत करई बिदा ह॥
यहि मेटत अवन् बने सुदि, नालाइक य॒त षोडसा॥
एक मेरत् सवे मिरिरै, वचन् डो अडोसा॥१६॥
सोरठा-डीटं षचन हमार, जो अब मेरा धरमका॥
वचन करो प्रतिपाट देश मोर अब ना छर्े॥१६॥
अतररागस्चागर (२३)
सप्पुरुषका जोगजीतका निरजनके पास उते मानसरोवरसे
निकाल देनेकी आज्ञा देकर भेजना
जोगजीत कह पुरूष बुलावा । घमचरित सब कटि सघुञ्चावा। |
सत्पुरुष वचन जोगजीत प्रति
| जोगजीत तुम वेगि सिधायो । ध्मरायको मारि निकारो ॥ |
मानसरोवर रहन न पव । अब यदि देशकार नरि अवे॥
धर्मके उद्र मा है नारी । तासो कहो निजश सम्हारी॥ |
जाकर रहो धमं वहि देशा । स्वं ब्त्यु पाताल नरेशा ॥ |
उद्र फारिके बाहर अवि । धर्म॑विदार उदार फर पावे॥ |
धर्मरायसो कदो विरोह । वहै नारि अब तब्डारी दौड ॥
कवीरवचन धमदासप्रति
जोगजीत चरू भ शिर नाई । मानसरोवर पचे जाई ॥
जोगजीत कं देखा जबहीं । अति भो कार भयंकर तवबरीं ॥
निरजनवचन जोगजीतपरति
पु्ा कार कौन तुम आई । कौन आज तुम यहां सिधाई॥ |
जोगजीतव चन निरंजन भति
जोगजीत अस कद पुकारी । अहो धमं तम भसेड नारी॥
आज्ञा पुर्ष दीन्ह यह मोदी । इर्हिते बेगि निकारो तोही ॥
जोगजीतवचन मघा प्रति हु
जोगजीत कन्या सो कहिया । नारी कह उदरमहें रहिया ॥
उद्रफारि अब आवह बाहर । पुरूष तेज सुमिरो तेहि गहर॥
कबीरवचन धममदासप्रति
सुनिके धर्म कोध उर जरेॐ। जोगजीत सौ सन्मुखभिरेञ॥
जोगजीत तब कीन्हे ध्याना । पुष प्रताप तेज उर आना॥
पुरूष आज्ञा भई तेदि काला । मार माज्ञ छिलार कराखा॥
जोगजीत पुनि तेसो कन्दा । जस आज्ञा पुरुषतेहि दीन्हा॥ || .
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( २७ ) अलतुरागसागर
` ` ्स्व्कत्क्न्यज
|
गहि युजा फटकार दीन्दां, परेड छोकतं ॥ ||
मयो वासित पुरुष डरते, बहुरि उटेउ सम्हार दो॥ |
निकसि कन्या उदरते एनि,देख धमहि अतिडरी)।
अब नाहिदेखोदेदा बह.कहौ कोनविधिकदर्वौ परी १७ |
सोरटा-कामिनिरदीषकाय,्ासितकारकडरअधिक |
रदी सो सीस नवाय्, आसपासचितवत खंडी ॥१७॥।
रजन वचन् अदयाप्रति
कहे घम सुनि आदि कुमारी । अब जनि रपो बास हमारी॥ |
पुरुषा रचा तोहि हमरे काजा । इकमति दोय करहु उपराजा॥ |
हम ई पुरुष तुमहि हौ नारी । भव जनि रपो आस हमारी॥
अद्याव चन् नस्जनम्रात
कहै कन्या कस बोलह बानी । भ्राता जेठ प्रथम हम जानी॥
कन्या कहै सुनो हो ताता । एसी विधिजनि बोलहु बाता॥ |
|| अव मेँ पुत्री भई तम्हारी । ताते उदर मांञ्च छ्य डारी॥ |
जेष्ठ॒बन्धु प्रथमरिके नाता । अब तो अहो हमारे ताता ॥
निरमलदष्टिजिब चितवडु मोहीं । नरि तो पाप दोय अब तोदी॥
मन्द् दृष्टि जनि चितवह मादी । नातो पाप होय अब तोरी॥
रजन् कवचन अद्याप्र
|| करै निरंजन सुनो भवानी । यह भँ तोहि कदों सदिदानी॥
| स; पुण्य डर हम नर्दिडरता। पाप पुण्यके हमदहीं करता ॥
|| पाप पुन्य हमसे होई । लेखा मोर. न रेदै कोई ॥
` | पाप पुन्य हम करब पसारा । जो बाञ्चे सो दोय हमारा ॥
|| ताते तोरि कहौ सयुञ्चाई । सिख दमार रो सीस चद़ाई॥
|| पुरूष दीन तोरि हमक जानी । मानहु कदा हमार भवानी ॥
अवुरागसागर ( २९ )
= धमेदास्च प्रति
|
बिरदेसी कन्या सुन अस वाता । इक मति होय दोई रंगराता॥
रहस वचन बोटी श्रद् बानी । नारिनीवड्खधिरतिविधिगनी॥
|| रहसवचन सुनि धरम हरषाना। भोग करनको मनमें आना)
| मन नदि कन्या कहती अवचरितिकीन्ह निरंजना॥
नख घात क्ियिभगदारततदिण, बारउत्पतिभनना।
नखं रेषशोनितचल्या, तिहैको खव खासआर॑मनी ॥
| आदिउत्पत्तिञ्चनह् धमं ~ कोड नहि जानत जम मनी ॥
त्रियावार कीन्दी शति तवे.भ्ये ब्रह्मा विष्णु महकाहो।
| टे विधि विष्णु छघु तिदहिःतीज श्च शेष दो 9<॥
घोश्ग-उत्पति आदिप्रकाश.यहिविधितेहिप्रसंगभो
कीन्हो मोगविलास.इक्मनि कन्या काक है ॥१८॥
भवसागरकी रचना
कः ¬ क्का +
निरजनत चन अयामरति
अभिपवनजर्मरि आकाशा । कूमं उदसरतं भयो प्रकाशा ॥
पांचौ अस ताहि सन लीन्डा। गुण तीनों सीसनसों कीन्डा॥
यहि विधि भयेतत्वगुण तीनों । धर्मराज तब रचना कीनो ॥
कबीर वचन घमंदास मरति
गुणतसम कर देविदहि दीन्हा । आपन अंश उत्पने कीन्हा ॥
बुन्द तीन कन्या भग डारा । तासंग तीनों अग सुधारा ॥
१ यह तो पुरानी प्रतिर्योमं एेषाही है किन्तु नवीन प्रतिर्योमे उपयुक्त दोनों
पक्ति नहीं हैँ जो विचारपूवेक प्रसंगोकि पढनेसे ठीक नहीं जान पडता ।
तेहि पीछे एेसा मो रेखा । धर्मदास त॒म करौ विवेका ॥ |
(२६) अनुरागसागर
पांच तच्छ २ पांच तत्व गुण तीनों दीन्हा । र कीना
प्रथम इुन्दते ब्रह्म जो भयऊ । रजगुणपेचतत्तव तेहि दय ॥
दूजो इन्द् विष्णु जो भयऊ । सतशुण पंच तत्वतिन पयञ॥ |
। तजे बुन्द रद्र उत्पाने । तमशुण पच तत्त्व तेहि साने॥
पंच तत्व गुण तीन खमीरा । तीनों जनको रच्यो शरीरा ॥
ताते फिरि फिरि पर्य होई । आदि भेद जाने निं कोई॥
करै धमं कामिनि सुनबानी । जो भँ कहू लेह सोमानीं ॥
जीव बीज आह तुव पासा । सो रे रचनां करहु प्रकाशा॥
कणं निरञ्जन पुनि सुनु रानी । अब अस करहु आदि भवानी ॥
जय सुत सोप तोहि करं दीन्हा। अबहम पुरूषसेवचित्त लीन्हा॥
गाज करहु तुम ठे तिह बारा । भेद न कहियो काट इमारा ॥
मोर द्रस जय सृत नहिं पह । जो सहि खोजत जन्म सिर है॥ |
एसो मता दिटेहो जानी । पुरूष भेद नरि पते प्रानी ॥
जयसुत जबहिं होहि बुधिवाना। सिधुमथन दे पठडु निदाना।॥
कबीरवचन धमेदासप्रति
कदेड बहत बुञ्ञाय देविहि, गुप भये तब् आहि हो॥
दन्य गफहि निवास कीन्हों, मेद छहको ताहिदो॥
वह शप्त मा एनि सङ सबकेमन निरंजन जानिये ॥
मन पुरुष भद् उच्छेद देवे, आप परगट आनिये ॥
सो-जीवभयेमतिहीन,परिसि अगमसो कालको॥
जनम जनम् भये खीन, मुरूचा कमं अक्मको १८
जीव॒ सतावै काट, नाना कम टगायके ॥
आप चवे चा, कष्ट देय पुनि जीवको ॥२०॥
"म
अवुरागक्षागर ( २७ )
सिन्धुमथन ओर चौदह रत्न उव्पत्तिकी कथा
अय बालक जब भये सयाने ¦ पठये जननी सिधु मथाने ५
॥ वालक माते खेट खिलारी । िध्ुमथनदहिं गयडउ खरारी ॥
तेहि अतर इक भयौ तमाक्षा । सो चरित ब्रञ्यो धमंदासा ॥
धास्यो योग निरंजन राई । पवन आरंभ कीन्ह वहता ॥
त्यागो पवन रहित पुनि जवी । निकसेउ वेदस्वास संग तवरी॥
स्वास संग आयड सो वेदा । बिर्छा जन कई जनेभेदा॥
अस्तुति कीन्ह वेद पुनि तहां । आज्ञाका मोहि निनादं ॥
| कद्यो जाव करू सिधुनिवासा) जेहि भटे जहौ तिदहिपासा ॥ |
| उटी आवाज खूप नहिं देखा । जोति अगम दिखलावतथेखा।
| जेड वेद पुनि तेज अपाने । तेज अन्न पुनि विष संधाने॥ |
| चले वेद ॒तर्हवा, क जाई । जरदैवा सिञ्च रचा धर्मराई ॥ |
| पहुचे वेद् तब सिधु मञ्चारा । धर्मराय तब युक्ति विचारा ॥
गुप्त ध्यान् देविहि ससुञ्चावा । सिधुमथनकरैकसषिख्मावा।
। पठवह वेगि सिधुत्रय बारा । दृटृके शोचह वचन हमारा ॥
| बहुरिआपपुनि सिध समाना । देवी कीन्ह मथन अबुमाना ॥ ||
| तिहुबालकं कह कह सथुञ्ञायी । आशिष दे पुनि तहां पठायी॥
| पेहो वस्तु सिन्धुके पाहीं । जाइ वेगि तीनों खत ताहीं ॥
चलिभौ ब्रह्मा मान सिखाई । दोउ ठहरा पुनि पाके जाई॥
छन्द्
चय सुत बाठ खेत चकले,ज्योँयुमगबाटमराटहो॥ ||
एकगदिषछोडतमीएनि,एककरगदिचलतकटपटचालदो॥
्षणदिधावतक्षणस्थिर खड, क्षणथुनदिगरटावही ॥ ||
तेहि समयकी शोमा भटीभनहि वेद ताक गावहीं॥ |
सिघुके पास, भये खाद तीनों जने ॥
। युक्तिमयनपरकास.एक एकको निरखही ॥२१॥
| प्रथमवार सिन्धु मथन
तीनों कीन्ह मथन तब जाई । तीन वस्तु तीनों जन पाई ॥
बह्मा वेद तेज तेहि छोटा । लहर तासुमिरेविष खोरा ॥
भेटि वस्तु जय तीनों भाई । चकिभये हषंकहत जर्हैमाई ॥
। मातापहं आये_ अय वारा । निजनिजवस्तुप्रगट अनुसारा॥
माता आज्ञा कीन्ह प्रकाशा । राखुवस्तुतुमनिजनिज पासा
| द्वितीय वार सिन्धुमथन ९
पुनितुम मड सिन्धु कटे जाई। जौ जेदि मिरे ठेउ सो भाई॥
| कन्डचरितअस आदिभवानी। कन्या तीन कीन्ह उत्पानी ॥ |
कन्या तीन् उत्पान्यो जबहीं । अंसवारिमहं नायो सबरीं ॥ |
सब माताको आगे कीन्हा । माताबांरितिन्दनकर दीन्हा ॥
पठयो सि महि एनि तादी । जय खत म्मसो जानत नादी॥ |
पुनि तिन मथनर्सिधुको कीन्दा। भेटयो कन्यादपितहै रीन्दा॥ |
कन्या तनह लीन्हे साथा । ओ जननी कर नायह माथा॥
माता कहे सुनहु सुत मोरा । यह तो काज मये सब तोरा॥
एकएक्वाटि तीनहको दीन्दा । का मोग कस आज्ञा कीन्दा॥
सावित्री ब्रह्मा तुम लेड । है लक्ष्मी विष्णु कर देड ॥
पारवती शंकर कहं दीन्दी । पेसी माता आज्ञा कीन्दीं ॥
तीनउ जन लीन्दीं सिरनाई । दीन्ह अय्याजस भाग लगाई
पाई कामिनि भये अनन्दा । जस चकोर पाये निशिचंदा ॥
काम बसी भए तीनों भाई । देव॒ दैत दोनों उपजाई ॥
धमदास परखो यह बाता । नारी भयी हती सो माता॥
माता हि कहं समञ्चाई ।अबर फिर सिथु मथो तुम भाई॥
|| जो जदि मिङे रसो जाई । अबजनिकरोविलंब तुम भाई॥
अवरागसागर (२९ )
तृतीयवार् सिधुमथन |
| जयसुत चरतव माथ निवायौ । जौ कड कडैड करव इम जायो
मथ्योर्सिधुकदुविलंबनकीन्हा मिला वेदसो बह लीन्हा ॥
चौदह रतनकी निकसी खानी । ठे माता हँ पडचे आनी ॥
तीनहू बन्धु रषि ह रीन्हा ।विष्णुश्धापायउदरविषदीन्डा॥
अधाका तोनों पर््रोको खष्टिरचनेको आज्ञा देना ओर सव
मिलकर पांच खानक उत्पत्ति करना
पुनि माता अस वचन उचारा। रचहु सषि तुम तीनों बारा॥
अण्डज उत्पत्ति कीन्हा माता। पिडज बह्मा कर उत्पाता ॥
| उष्मजखानिविष्णु व्यवहारा! शिव अस्थावर कीन्ह षसारा॥
चौरासी छख योनिन कीन्हा । आधाजरू आधाथरू कौीन्दा॥
| एक तत्व अस्थावर जाना । दोय तत्त्व ऊष्मजं प्रवाना॥॥
| तीन तत्त्व अण्डज-निरमाई । चार तत्त्वं पिडज उपजायी॥
पांच तत्व मानुष विस्तारा । तीनों गुण तेहि मारि रवारा ॥
् त्रह्माका बेद॒पठकर निराकारका पता पाना
ब्रह्मा वेद पदन तब रागा । पदृत वेद तब भा अनुरागा॥
कहे वेद पुरूष इक आही । है निरंकार रूप नरि तादी ॥
शन्य माहि वहि जत दिखावे । चितवन देह दि नहं आवे
स्वगं सीस पग आदि पताखा। तेदिमत बरह्ना भो मतवाला॥
चतुरानन कट विष्णु बुञ्ञावा । आदिपुरूष मोहि वेद रुखाव्ा॥
पुनि ब्रह्मा शिवसों अस कदई। वेद् मथन पुरूष एक अदं ॥ |
ब्रह्मावचन विष्णुप्रति ं
अरै पुरूष इकं वेद बतावा । वेद कहे इम भेद न-पावा ॥ |
कवीर वचन अद्याप्रति ` |
तब ज्मा माता पर आवा । करि प्रणाम तब टेके पावा ॥ |
बरह्मावचन अद्याप्रति ।
र 3
हे माता मोहि वेद रखावा । सिरजनहार ओर
ह ~ च, न्क 0 `
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जक
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क्वीन कै ॥ ॥
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(1 ॥ । 4
च
द
(३० ) अनुरागसागर
| ब्रह्मा कहे जननी घनो, कह कन्त तुम्हार हे ॥
कीजे कपा जनि मोहि ुरावोकरहो पिता हमार रै॥
कहे जननीखनहब्रह्माकोउ नहिं जनक तम्हारहो ॥ |
हमहितेयहं सब उत्पति.हमहिसवकीनसम्हारहो २१॥ |
नहा बचन अय्ाप्रात
सोरठा-्ह्मा कहे एकार, युद जननी तें चित्त दे ॥
कहत वेद निस्वार, पुरुष एक सौशप्न है ॥२२॥
कंडे अद्या सुनु ब्रह्मकुमारा । मोसे नरि कोड खषा न्यारा॥
स्वगे मृत्यु पातारु बनाई । सात सन्दर हम निरमाई॥ |
ब्रह्माब चन अद्याप्रत
मानो वचन तुमहि सब कन्दा । प्रथमयुप् तुम कसरखलीन्हा ॥
जवे वेद मोहि कहै ` बुञ्याई । अलखनिरंजन पुरूष बताई ॥
अब तुम आप बनो करतारा } प्रथम केन किया विचारा॥
जो तुम वेद आप कथि राखा ।तोकसतुमअलखनिरंजनभाखा
अपे आप आप निरमाई । काहे न कथन कीन तुम माई॥
अब मोसनतुमछकजनिकरहू । साचे संच सब कहि उखरहू॥
जब ब्रह्मा यदहिविपि ठाना । तब अद्यामन कीन्दतिवाना॥
कवबोरवचन धमदासप्रति
|| केहि विधि याहि कहूं समञ्चाई। विधि न्ह मानत मोर बड़ाई॥
जो यदि कँ निरंजन वाता ।केदिषिधिसमञ्चेयह विख्याता॥
| प्रथम. क्यो निरंजन राई । मोर दरश काटू नहि पाई ॥
|| जवे जो यही अरुख रुलार्वोकेदिविधिकदिताकोदिखलार्वा
अनुरागसागर (३१)
अदययावचन तऋ्या प्रति
असविचार पु्ब्रह्ये समञ्जावा।अर्खनिर्जनर्हिंदरसदिखावा॥
ब्रह्माव चन अद्याप्रति
रह्मा कहे मोहि ठौर बतावो । आगा पीडा जनितुमलावो॥
भे नहि मानी तुम्हारी बाता । शेसी बात न मोहि बुहाता ॥
प्रथम तुम युहि दीनथुखावा । अब तुमको न दरसदिखावा॥
तासु दरशन पदो पता! ेसी बाति कहो अजगूता ॥
छन्द
दरशदिखायतत्काक्दीजे, मोहिनभरोसतम्डारहौ ॥
सरायनिवारयहिकाठ्दीजे, कीजेनविटंबलगारदो॥
अद्यावचन व्ह्याप्रति
कह जननी सनो ह्या, कहीं तोसों सत्तही ॥ |
सातस्वगे ह माथ ताको, चरण पताटसप्तदी॥२२॥ |
सोरा-ेह पष्प ठम हाथ,जो इच्छा तेहि दरडकी |
जाय नवाओ माथ ब्रह्मा चले हिरनाई॥२३॥ |
जननी गुन्यो वचन चितमाहीं । मौरि कहो यह मानति नाही॥ |
यह कर वेद दीन्ह उपदेशा । पे दरश ते नहि पावै मेशा ॥ |
कह अष्टगि सुनो रे वारा ।अल्खनिरज्न पिता वुम्हारा॥ |
तारु दरश नरि पेहै पता । यह भँ वचन कों निजगूता॥।
ब्रह्मा सुनि व्याकुल हवे धावा । परसन सीस ध्यानहियलखावा॥
ब्रह्मा चरे जननि सिर नाई । सीस परसि अवे तेदी गई ॥
तुरतहि बहना दीन्द रिगायी । उत्तर दिशा बेगि चलि जाई॥ ||
आज्ञा मांगि विष्णु चरेबारा। पिता दर्शको चरे पताखा ॥ | `
इत उत चितयमहेशन डोला । सेवा करत कटक नदीं बोखा॥ |
|तेदि स्थान पवि . ग जाई । नहि तर्रविशशि श्न्यरडाई॥ |
वि त, + ति कत 0 1 । जयाति ममावर्यानत म 4 ग्य न पी तिनि २ ` ~ शु = नः ऋ न्य च
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8
( ३२) अनुरागसागर
तेदिशिवमनअसर्वितअभावा । सेवा करन जननि चितलावा॥
यदिविधिब्रहतदिवसचलिगयउ) माता सोचपु कं कियञ॥
विष्णुका पिताके खोजसे रौटकर पिताके चरणतक
न पहूचनेका वृत्तान्त कहना
प्रथम विष्णुजननी दिग आये । अपनी कथा कहि समुद्याये॥।
भेर्यो नहि मोहि पय॒ ताता । विषज्वाखास्यामल भौगाता॥
व्याकुल भयउ तबे फिर आवा । पिता पगुदरश मैं नरि पावा॥
सुनि हरपित भई आदिकृमारी । लीन्दविष्णुकरैनिकरदुलारी॥ |
चूमेउ बदन सीसं दिये हाथा । सत्य सत्य बोलउ स॒तबाता॥
धमेदासव चन कनीरप्रति
कहे ध्रमनि यह संशय बीती । सादब कदु ब्रह्मकी रीती ॥
पितासीस तना परसन कीन्हा। किंटोयनिरासपीरेपग पीन्दा॥
छन्द्
गय ब्रह्मा सीस परसन, कथा ता दिनकी कटी
भयो दिष्ट मेराव किनहि तासु दरशन तिनटदी
यह ब्रनि स् कटौ सतर, एकएक विीयके ॥
निजहास जानि परगासकीजे, परहनिजजनिगायके२२॥ |
सो-प्रथ हम दे ठव दास, जन्मङ्तारथमोर्किरि।॥ |
कृरह वचन परगास,तेदि पीठे जो चरित भा ॥२५॥ |
` पित्राके खोजमे गये हए त्रह्माकी कथा । कबीरवचन धभेदासप्रति |
| षरमदास सुदि अतिभ्रिय अदू । कहो संदेश परसि दटगहदू ॥
|| चरत ब्रह्म तब वार न॒ खावा । पिता दरश करईअतिमनमाव॥
करे बनायी । ज्योति प्रभावध्यानतलाई॥
अचरागसागर ( २२)
ेसे बह दिनि गये बितायी । नहि पायो बह्मा द्रशपितायी॥ | द्रशपितायी॥ |
शून्य ध्यानयुग चार गमावा। पिता दरश अजह नदि पावा॥
रह्मा के ( अदयाकी चिन्ता
बरह्मा तात दरश न्ह पाई । शुन्यध्यान मर्ह जग बड जाई।
माता चिता करत मनाय । जेठ पुत्र बरह्मा रह काँ ॥
किरि विधिरचना रच बनाई । ब्रह्मा अवि कौन उपाह ॥
गायत्री उत्पत्ति
उवरि शरीरम (न) गहिकाटी। पुरी प कीन्ह रचिगटी॥
शक्ते अशनिज ताहि मिखावा। नाम गायज्नी ताहि धरावा॥
गायत्री मातहि सिर नावा ।चरणच्रमिनिज सीस चडावा॥
गायत्रीवचन अद्ाप्रति
गायत्री विनवे कर जोरी । सनु जननी यक विनती मोरी॥
कोन काज मोहं निरमाईं । कहो वचन लेड सीस चदाड।
सद्ययावचन गायत्रीप्रति
कहे अद्या प्री सुनु वाता । ब्रह्मा आदिजेठहि तव ्राता॥
पिता द्रश कहं गयो अकाशा। आनौ ताहि वचन प्रकाशा॥
द्रश तातकर् वह् निं पावे । खोजत खोजत जन्म गमाव्॥
जौने विधिते इवा आई । करो जाय तुम तीन उषार॥ ॥
गायत्नरीका त्ऋ्ाके खोजमे जाना । कबीर वचन धमेदासप्रति |
चि गायत्री मारग आई । जननी वचन प्रीति चितलाई॥ |
चरत भई मारग सुकुमारी । जननी वचन ध्यान उर धारी॥ |
छन्द |
जाय देखो चतरम॒ख कं ना पटक उघारई ॥ |
कटक दिनि सो रदी तह, बहरि युक्ति य ८
कौन विधि यह जागि हैअबकरों
( ३७ ) अनुरागसागर
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ब्रह्माको जगानेके खयि अद्याका गायत्नरीको युक्ति बताना
सोऽ-अया आयसु पाई, गायत्री तब ध्यान् महँ ॥
निज कर परसेड जायब्ह्या तबरीं जागि हे ॥२५॥
गायत्री पुनि कन्द तेसी । माता युक्ति बताई जेसी ॥
गायत्री तब चित्त लगाई । चरणकमर कर परसेउ जाई॥
त्रह्माक्रा जागकर गायत्रीपर क्रोध करना
ब्रह्मा जाग ध्यान मन डोला । व्याङ्करु भयो वचन तब बोला॥
कवन अहै पापिन अपराधी । कदा छुड़ायह मोरि समाधी॥
शाप देह तोकं मे जानी । पिताध्यानमोहिखण्डयोआनी
। गायत्रो वचन ब्रह्माप्रति
कहि गायत्री मोहिन पापा । बुञ्चि लेह तब देदड शापा ॥
कहो तोहिसो सांची बाता । ताहि रेन पठयी तुव माता
चलहु वेगि जननिलावडबारे । तुम षिन रचना कों विस्तारे
नह्षावचन गायत्रोप्रति ४ क
बरह्मा कहे कोन विधि जा । पितादरश अजह नरि षा॥
गायत्रीवचन बऋह्याप्रति
गायत्री कह दरशन पेहो । बेगि चल नरि तो षचछ्ते ह॥
न्रह्माका गायत्रीको साक्षो देनेको कहना ओर गायत्नरीका
्रह्मासे रति करनेकी बात कहना
बह्मा कहे देह तुम साखी । प्रस्यो सीस देख मैं आंखी॥
एसे कहो मातु समुञ्ायी । तो तुम्हरे सद्ग हम चछिजायी॥
गायत्रीव चन ब्रह्मा प्रति
कह गायत्री सुन ति धारी । हम नहीं मिथ्या बचन उचारी॥
जो मम स्वारथ पुरवहु भाई ! तो हम मिथ्या कहब बनाई॥
ब्रह्मा वचन गायत्र प्रति
केह बरह्मा नरि रखुखी कहानी । करौं बञ्चाय प्रगटकी बानी ॥
अवुरागक्षागर ( ३4 )
गायच्री वचन्
कह गायत्री देह रति मोही । तौ कड ञ्ज जितां तोही ॥
| कवारवचन धमेदासप्रति
गायथ्री कह है यह स्वारथ । जानि कौ मँ पुन परमारथ ॥
सुनि ब्रह्मा चित करे विचारा । अबकां यत्न करहुं इदिबारा॥
जो विघ्यु या कृहं ग अब तौ नहीं बन आब ॥
राखि तो य॒ह देय नहीं जननि मोहि छजाबहं ॥
यहां नाहि पिता पायो म न् एको काज हो ॥ |
पाप सोचत् नहिं बन् अब कूर रति विधि घाजहो २
सो--कियो मोगरतिरंग, विस्षर्-यो सो मनदरदाका
दोउ कर्द बटयो मग, छल्मति इदिभकाशकिले २६॥
सावित्री उत्पत्तिको कथा
कह ब्रह्मा चर जननी पासा । तब गायनी वचन भकाशा ॥
| ओरो करौ युक्ति इक ठानी । दूसरी सासि ख उत्पानी ॥
|| जहा कहे भटी है बाता । करड सोई जेहि मानं माता ॥
तब गाय॒जी यतन विचारा । देहि मेर गडि कीन्ड नियारा॥।
कन्यारचि निज अंशमिरावा । नाम सावित्री ताञ्च धरावा ॥
गायती तिदि कड सयुञ्चावा । कियो द्रशृभह्म पितु पाव्॥
कह साविनीडम नदि जानी । इट साखि दे आपनि हानी॥ |
यह सुनिदोऽकचिन्ता व्यापा। अद भूयो कठिन संतापा॥ |
गायत्री बहु विधि समुञ्ञाई । ५.५) मन नदिं आयी॥ |
पुनि गायत्री कहा इञा । तब सावित्री वचन सुनाई ॥ |
न्ना कर मोसों रति साजा । तो भ ठ कों यदं काजा॥
गायग्री_ जह्महि_ ससुञ्ञावा । दे रति या क काज बनावा॥
रह्मा रति साविबरिहि दीन्हा । पापमोट आपन रिर लीन्दा॥||
( ३६ ) अनुरागसागर
साविन्नी कस दूस नाऊ । कदि पुडुपावति वचन सुनाउ॥ ||
तीनों मिलिक चङि मे तहवां। कन्या आदिकुमारी जदहवां ॥
ब्रह्माका गायत्री ओर सावित्री के साथ माताके पास पर्हैचना
ओर सनका शाप पाना
करि प्रणाम सन्मुख रहे जाई । माता सब पी कुशराई ॥
अदयावचन त्रह्मा प्रति
कह ब्रह्मा पितु दरशन पाये । दूखरि नारि कहास छाये ॥ |
कंह बह्मा दोऊ है साखी | । परस्यो सीस देव इन आंखी॥
अदाव चन गायन्नीप्रति
तब माता बञ्चे अनुसारी । कहं गायत्री बेचन विचारी ॥
तुम देखा इन दशन पावा । कहा सत्य दशन प्रभावां ॥
गायत्री वचन
त॒ब् गायत्री वचन् सुनावा । ब्रह्मा दशं सीस पितु पावा ॥ |
मे देखा इन परसेड शीशा । बरह्महि मिले देव जगदीशा ॥
लेह पुष परसेउ शरां इन दृटमें देखत रदी॥ |
जल् पुहप य ४ हे जन न है स ॥
पहुपते पुहपावती मयी प्रगट तादी ठामते ॥
इनह दरोन छद्यो पितुको परह इरि बामते ॥२६॥
| हे जननी यह् है सही त॒म पि छो पहपावती ॥|
| सबही साच मे तोसों कटं नदि इठे एको रती ॥
| अद्यावचन पुहुपावतीप्रति ,.
| माता कह कहो सत्य हि मो सना ॥
१ यदह छन्द पररानी प्रतिर्योमें नहीं है
॥ जो चद 4 तम वचन. बोलहु ततखना॥
अब्ुरागक्षागर ( २७ )
[= ---~-------नन--------~-------------------------------- -- ~> ---------------- यस्य
~--_~~ ~~~ ---- ~~~
सो०-कह् पुहपावति मोहि, दरदा कथानिरखारके॥ |
| यह पां तोहि किम ब्रह्माद्रदान किये॥२७॥
सावित्री वचनं
पुुपावती वचन तव बोटी । बाताक्षत्य वचन नहीं डोटी॥
दशन सीस द्यो चत॒रानन । चदे सीस यह धर निश्चय मन॥
कयीरवचन धमदास भति
साख सुनत अय्या अङ्कखानी । भा अचरज यह मम न जानी)
अदयाक्रा चता
अलखनिरंजन असप्रणभाखी। मोक कोड न दैखे आंखी ॥
ये तीनहं कस कहहिं ख्बारी । अर्खनिरंजन कह सम्हारी॥
ध्यान कीन्ह अष्ठंगी तिरिक्षण। ध्यानम अस क्य निरंजन ॥
निरंजन वचन
बरह्मा मोर दरश नहि पाया । ठिसाखिहन आन दिवाया॥ |
तीनों मिथ्या कहा बनाई । जनि मान यह है रुबराई॥
अयाका ब््माको शाप देना
यह् सुनि माता कीन्हे दापा । बह्मा कर्है तब दीन्दो शापा ॥
पूजा तोरि केरे कोहं नाहीं । जो मिथ्या बोरे मनमाहीं ॥
इकं मिथ्या अङ् अकरम कीन्हा। नरक मोट अपने शिर रीन्ा॥
आगे है जो शाख तुम्हारी । मिथ्या पाप करि बहुभारी॥ ॥
परगट करर बहु नेम अपारा । अन्तर मेख पाप विस्तारा ॥
विष्णु भक्तोसे करहि हकारा । ताति परिरं नरक मेञ्चारा ॥
कथा पुराण ओर ससुञ्चे है । चारू बिहून आपन दुख पेरे॥
१ पुराने अन्थोमिं यह चौपाई इस प्रकार है-
सावित्री अस वचन उचारी । मानो निश्चय वचन हमारी ॥ ॥.
|
न. २ कबीरसागर ३
(२३८ ) अनुरागसागर
-
~~~
| उनसे ओर सुन जो ज्ञाना । करिसो भक्ति कों परमाना॥
ओर देवको अश र्खे । ओरन निन्द कार मुख जेरै॥
| देवन पूजा बह विधि केह । दछिना कारण गला क है॥
। जा कहा शिष्य केर पुनि जाई । परमारथ तिहि नरि क्खायी॥
प्रमारथके निकट न जहे । स्वारथ अथं सवे सखुङ्ञेहे ॥
| आप स्वारथी ज्ञान सुनेहे । आपन पूजा जगत दृ हँ ॥
आप ऊच ओरदहि कहं छोटा । ब्रह्मा तोर सखा शइ खोरा ॥
कवीर वचन धर्मदासप्रति
जब माता अस कीन्ह प्रहारा । बरह्मा सूचित महीकर धारा ॥
अद्याकागायत्रीको शाप देना
गायी जान्यो तेहि वारा । हए रै तोर पच भरतारा ॥
गायजी तोर होई वृषभ भर्तारा । सांत षां च ओौर बहुत पसारा॥
धर ओतार अखजतुम खायी । कहा जानि यह दीन्दी खाखी॥
निजस्वारथ तुम मिथ्या माखी। कहा जानि यह दीनी साखी॥
मानि शाप गायत्री लीन्ही । सावित्रिहि तबचितवन कीन्दी॥
अद्याका सावित्री को शाप देना
पुहुपावति निजमान धरायेहु । मिथ्याकनिजजन्मनशायेह॥
सुनहृपुष्पावतितुम्दरोविश्वासा।नर्ि पूजि तुम्से कड आशा॥
होय कुगंथ ठौर तव बासा । थुगतह नरक कामगहि आशा॥
जो तोहि सींच र्गावे जानी । ताकर होय वेशकी हानी ॥
|| अब तुम जाय धरौ ओतारा । क्योडा केतकी नाम ठम्हारा॥
कबीरवचन धेदासप्रति छन्द
भये शाव तीनां विकटमति, दीनछीन ऊकमते॥
|| यह काठ कटाप्रच॑डकामिनि,डस्यो सब कर चमते ॥
ककि जिः
अवरागसागर ( ३९ )
ब्रह्मादि रिवस्नकादिनारदको उन वचि भागहो ॥
व निविरछावच शब्द सतसो कामि हो ॥२८॥ |
-°सत्य शाब्द परताप, काठकृख व्यापे नहीं ॥
निकट न अव पाप.मनवच कम जो पदगहे२९॥
शाप देदेने पर अयाका परचाताप ओर निरंजनके रसे डरना । छन्द
शाप तीनाोंको देलियो मन माहीं तब पडछताब्हं ॥
कस करहि मोहि निरजनापल छमा मो हि नआवह॥
निरजनका अयाको चापं देना
आकाडावानी तवे मयी यह काह कीन सवाचिया
पत्तिकारणतोहिपठाई कहा चस्ति यह सानिय॥
°-नीचहि उच सिताय, बद मोहिं सोषावहै॥
हापर युग जब आय तमहं पञ्च भतार हौ ॥३०॥
अदयाका निडर होना । कबीर वचन धमेदासमति
शाप ओयल जब सुनेड भवानी। मनसन ने कडा नहि बानी ॥
ओय प्रभाव शाप हम पाया। अब कहा करब निरंजनराया॥
तोरे वस परी इम आहं। जस चाहौ तस करौ मिताई॥
विष्णुका गौरसे ₹याम होने का कारण अद्यावचन विष्णुमरति
पुनि कदि माता विष्णु दुलारा। सखनहु पुर इक वचन हमारा ॥
सत्य सत्य तुम कदो बुञ्ञाईं । पितुपद् परसन जब गे भाई
प्रथमहू तो तुम गौर शरीरा । कारण कौन श्याम भये धीरा॥
विष्णुव चन अद्या प्रति
आज्ञा पाय हम तत्काला । पितुपद परसन चङे पताखा॥
अक्षत पुहुप लीन्द करमाहां । चरे पतारु पथ मग जाहां ॥ |
पचि शेष नाग परं गय । विष्के तेन इम अलसय ॥ | न
( &० ) अजरागसागरं
। भयो श्याम विषतेन समावा । भई अवा अस् वचन सुनाव॥
| अहो विष्णु माता पह जाई । वचन सत्य कहियो सस॒ञ्चाई।॥
| सतयुग अता जैसे जब्दी । द्वापर ह चोथा पद् तबदी ॥
। तब तुम रोड कृष्ण अवतारा । ठेदौ ओयलसो कदी विचारा॥
नाथ हु नाग कलिन्दी जाई । अब तुम जाहु विंब न राई
ऊच रहोडके नीच सतवे । ताकर ओयल मोदहिसो पावे॥
जो जिव देहं पीर पुनि काहू । हम पुनि ओयर दिखावे ताहू ॥
पहुचे हम तब ही तुव पासा । कन्हे सत्य बचनप्रकाशा॥
भेटउ नाहि मोहि पद् ताता । विषज्वाखा सोवल भो गाता।॥
| ग्याङ्करु भयो तवे फिर आयो। पितु पद् दशन मे नदि पायो।
अयाका विष्णुको ज्योतिका दशन कराना
इतना सुनि इषित भई माई । ीन्ह विष्णु कं गोद उग्ई॥
पुनि अस कदेड आदि भवानी । अब सुनहु पु्परियममबानीं ॥
देख पु तोरि पिता भिटावों। तोरे मन कर धोख भिटाबों ॥
प्रथमरि ज्ञान दष्टिसो देखो । मोर वचन निज दय प्रेखो ॥
मनस्वशूप करता कंदं जानो । मनते दूजा ओर न मानो ॥
स्वगे पतारु दौर मन केरा । मन अस्थिर मन अहै अनेरा॥
क्षणम कला अनन्त दिखावे। मनक देख कोड नदि पावे ॥
निराकार मनदीको किये । मनकीआशादिवसनिशिरदिये
देखह् पररि शुन्यमह जोती । जवां कचिलमिलक्चालर दोती॥
फेरहु श्वास गगन कह धायो ।मार्गं अकाश ध्यान खगायो॥
ज्ञेसे माता कहि समुञ्ञावा । तैसे विष्णु ध्यान मन खावा॥
| पेडि य॑फा ध्यान कन्दो श्वास संयम छायके ॥
धका दियो जबते गगन गरज्यो आयक ॥
अचुरागसागर ( 9३ )
वाजायुनततबमगनमभापुनिकीन्हमनकसष्याङहौ ॥
शन्यस्वेतपीतसम्नछकदियायरंगजगाटही ॥३०॥ |
सो°-ताहपीछे धमदासु, मनपनि आपदिखायङ ॥
कीन्ह ज्योति परकास,देखि विष्ण हित भये२०॥ |
माति नायो शीर, बह अधीन एनि विष्णमा ॥।
मे देखा जगदीशा, हे जननी परसाद तष ॥ ३१ ॥ |
वमद्ास् कवचन
धर्मदास गहि रेके पाया ! हे साहिबडकसंशय आया ॥
कन्या मनको ध्यानं बतावा । सो यह सकल जीव भरमाता॥
| सद् युर वचन
धर्मदास यह कार स्वभा } पुङ्ष भेद विष्य नहिं पाड॥
। कामिनिकी यह देखहु बाजी । अभरतगोय दियो विष साजी।।
जात कार दूना जनिजानहु ।निरखि धमे सत्यहि पुरआनह्॥
प्रगट सु तोरि कटो सञञ्चाईं । ध्मेदास परखड वचितखाई ॥
जब प्रगट तस गुप्त खुभाज। जोरह इदयं सो बाहर आ
जब दीपक बारे नर रोऽ । देखडु ज्योति सभाव विरेई॥
देखत ज्योति पतग इलासा । प्रीति जान अवे तिदिपासा॥
प्रसत होवे भसम पतंगा । अनजाने जरि परहि मतगा ॥
ज्योतिस्वरूपकाल अस आदी। कठिनकाल यह छंडत नाहीं
कोरि विष्णु ओतारहि खाया। बरह्मा रुदरहि खाय नचाया ॥
कौन विपति जीवनकी कहॐ। परखि वचन निज सहजदि रदॐ |
खाख जीव वह नित्यहि खाई। असविकराखसोकालकसाई ॥ ||
` है कै मोर चित्त संशय असओआईं ॥ |
धमदास कह सुनहँ शसाई । मोरे चित्त संशय असओआई ॥ ||
अषगीहि पुरूष उत्पानी । जिहिविधि उपजी सो मे जानी॥
( ७२ ) अुरागसागर
पुनि वहि रास रीन्ह धमराई। पुरूष प्रताप सु बाहर आई ॥
सो अष्टगीहि असछल कीन्हा। गोइसि पुरूष प्रगटयम कीन्दा॥
| पुरूष भेद् नटि सुनन बतावा। कारनिरजन ध्यान करावा ॥
यह कस चरित कीन्ह अष्ठगी। ताजा पुरूष भडकाट किसंगी॥
सद गर् वचन
धमे सुनहु जन नारि सुभा अब तुरि प्रगटवरणिसमञ्चाउ॥।
होय पुरी जेहि धर माहीं । अनेकं जतन परितोषे तारी
वञ्च भक्ष सुख सेज निवासा! घरबाहर सब तिहि विश्वासा॥
यज्ञ कराय देय पितु माता । बिदाकीन्दहितपीतिसों ताता॥
गयी सुता जब स्वामी गेहा । रात्या तास संग शण नेहा ॥
माता पिता स्वे बिसरावा । धमंदास अस नारि स्वभावा ॥
ताते अद्या भह बिगानी । का अंग है रही भवानी ॥
ताते पुरूष प्रगे लायी । काल्प विष्णुहि दिखलायी।
धमेदासवचन कबीर प्रति
हे साहब यह जान्यो भेदा । अब आगेका करहु उदा ॥
कबीर वचनं धभदास प्रति
पुनिमाता कदि विष्णु दुखारा। मरो म [न जेठ निजबारा ॥
अहो विष्णुतुम हु अशीशा। सब देवनमे तुमहीं ईशा ॥
जो इच्छा तुम चितमें धरिदौ। सो तब तोर काज भैं करिह ॥
मायाका विष्णुको सवेप्रधान बनाना
प्रथम _ पुतरब्रह् दुरि गय । अकरमञ्लूरितादि प्रिय भयञ॥
देवन श्रेष्ठ तुमर्हि कं माति । तुम्हारी पूना सब कोई ठानरदि॥
कनीरवचन धमदासप्रति |
| कृषा वचन अस माते भाखा । सबते भ्रष्ठ विणुकह राखा ॥
|| माता गयी श्द्रके पासा । देख श्र अति भये हलासा॥
अनबुरागस्षागर ( ३ )
अद्याका महशको वरदान देना
पुनि रहरा कर परे माता । तुम शिव कहो डदयकी , ॥
माग जो तुम्हरे चित भवे । सो तोहि दे माता कुरमावे॥
दोउ पुत्रन कहं मात दढावा | मग महेश जो मनभावा ॥
मह शवचनं
जोरि पानि शिवकडबे लीन्हा । देड जननि जो आज्ञा कीन्डा॥
कबर्दि न विनसे मेरी देदी। हेमाता म गों. व्र एही ॥
हे जननी यह कीजे दाया । कबह्न न विनशै मेरी काया ॥
जद्यावचनं
कह अष्गी अस नहीं होई । दसरा अमर भयो नर्हिकोई॥
कः
तभो
क
करहु योग तप पवन सनेहा । रहै चार युग तम्दरी देहा ॥
जोर पृथ्वी अकाश सनेही । कब न बिनशे तुम्हरी देही॥
धमद्ासबवचन्
धमेदास विनती चित्त खाई । ज्ञानि मोहि कहो सञ्च्ञाई ॥
यह तो सकर भेद हम पायी । अब बह्माको कहो उथायी ॥
अद्या शाप ताहि कहं दीन्हा । तेहि पीछे बह्मा कस कीन्दा॥
कबीर वचन
विष्णु महेश जब वर पाये । भये आनन्द अतिहि इरषाये॥
दोनों जने इरख मन कीन्हा । बह्मा भयो मान मद दीना ॥
धर्मदास मै सब कुक जानो । भिन्न भिन्न कर प्रगट बखानों ॥
शाप पानकं कारण दुःखित हो ब्रह्मा विष्णुके पास जाकर
अपना दुःख कहना ओौर विष्णुका उसे. आरवासन देना
ब्रह्मा मनम भयो उदासा । तब चलि गयो विष्णुकेपासा॥
ब्रह्मावचन व ॐ ४
जाय विष्णुसे बिन्ती गना । त॒म हो बश देव परधाना ॥ ||
तुम पर माता भई दयाखा । शाप विवश तुम भये बिहाला॥ ।
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( && ) अनुरागसागर
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| अब अस जतन करोह भाता।, चङ परिवारे वचन रहै माता॥
कंदे विष्णु छोड़ो मन भंगा । पे करिहौ सेवकाई संगा ॥
| तुम जेठे हम रहुरे भाई । चित् संशय सव देहु बहाईं ॥ |
| जो कोह दोवे भक्त हमारा । सो सेवै तुम्हारो परिवारा ॥
| छन्द
|जगमाहि एस दिटाई हों फल्एुन्य आशा जो यहो!
य॒ज्ञ धूमं ₹ करे पजा टज् बिना नहिं दोय हौ ॥
ना के सेवा दिजनकी तेहि महाप्य प्रमावहो ॥
सो जीवमोकर्हैअधिकप्यरिशखिहं निज बहो २.4
कबीरवचन धमेदासप्रति
सो०-न्रह्मा भये अनंद, जबृहि विष्णु असमे ॥
मेटेड चितकर दंट, सखा मोर सब सुखीभौ ॥३२॥ |
क ल्भ्रपच
देख धमनि काल पसारा । इन ठग टग्यो सकर संसारा॥ |
आशा दे जीवन बिरपाये । जन्म जन्म पुनि तारि सतावे॥
बलि दरिचेद् बेनु बहरोचन । कती सुत ओरौ मदिसोचन ॥
ये सब त्यागी दानि नरेशा । इन कह रे राखे केहि देशा ॥
जस गंजत इन सबकी कीन्दा। सो जग जानेकाल अधीना ॥
जानत दै जग दोय न शुद्धी । काल्अमरबरुसबकीदर बुद्धी ॥
मन तरंगमे जीव थुलाना ।निजघर उलटिनचीन्ड अजाना॥
धमदास वचन
|| धर्मदास कड सनो यसांई । तबकी कथा मोदि ससुञ्चाई॥
| तम प्रसाद जमको छल चीन्हा । निश्चय तुम्हरे पदचित दीन्दा॥
म
अवुरागसागर ( ४4 )
भअ अअ अअन ~~~ ~~
भव बरूडत तुमसी गहि राखा । शब्दं खधारस मोसन ॥ |
अब्र वह कथा केदो सथुञ्चाईं । शाप अंत किया कौन उपाई॥
3
कवी रवचन धमदासश्रति गायत्रीके अद्याको शाप देनेका वृतान्त
धमनि तुम सन कटां बखानी । माषो ज्ञान अगमकी बानी ॥
मातु शाप गायत्री खीन्हा । उख्टि शाप पुनिमातहिबन्हा
हम जो पांच पुरुषकी जोई । पांचोँकी त॒म माता होई ॥
बिना पुरुषकी तु जिनिहैबारा। सो जानही सकल संसारा ॥
दुहन् शाप फर् पायो भाई । उगरह भयो देह धरि आई॥
जगतको रचनाका विशेष वृत्तान्त
यह सब दद्र बाद हं गय । तब पुनि जगकी रचना भयऊ
चौरासी ख्ख योनिन भा । चार खानि चारि निरमाञ |
छन्द्
प्रथम अंडजरच्यो जननी, चतुरथुख पिण्डज कियो ॥
विष्णु उष्मज रच्यो तवी ^ सद्र स्थावर छियो ॥
दन्द रचि जेहि खानि चारो, जीव बधनदीन्हो
होन लागी कषीकारण, करण कतां चीन्हहो ॥
सो०-यहि विधिचारो खानिष्चारह़ दिशि विस्तार किया
धमदास चितं जान, बाणी चारि उचारको ॥३३॥
,धमदास वचन कबीरप्रति
¦ धमनि कदं जोरि युग पानी । तुम सदग॒रू यह कल्यो बखानी॥
चार खानिकी उत्पति भाऊ । भित्र भिन्न युहि वरणि खनाञ॥
चोरासी छख योनिन धारा । कौन योनि केतिक बिस्तारया॥
. चार खनकी गिनती । कबीरवचन धमेदास प्रति
कह कबीर सुन धमेनि बनी । योनि भाव तोहि कही बखानी॥
| भिन्न भिन्न सब कटु सयुञ्चाञ। तुमसे अन्त न कष द्राङ् ॥ ||
| तम जिन शंका मानहु भाई। वचन हमार गहो चितराईं ॥॥
( ७६ ) अनुरागसागर
चौरासी लाख योनिकीो गिनती
लख जके जीव बखानी । चौदह राख पक्षी परवानी ॥
किरम कोट सत्ताइस लाखा । तीन लाख अस्थावर भाखा ॥
चतुर लक्ष माचुष परमाना । मानुष दे् परम पद जाना ॥
ओर योनि परिचय नरि पवे। क्म बध भव भटका खे ॥
मनप्यं खानि सवते अधिकं क्यों है ? धमदासवचन
धमदास नायो पद शीशा । यह समुञ्चाय करो जगदीशा॥
सकलयोनि जिव एकसमाना । किमिकारणनर्दिइकसमज्ञाना॥
सो चरि सुनि कदो बुञ्चाई । जाते चित संशय भिरिजाई॥
सद गृर्तवच्न
सुनु धमनि निज अंश अभूषण।तोदि बुञ्चाय कहौं यह दूषण ॥
चार खानि जिव एके आदीं । तत्व विशेष अहं सुन तादी ॥
सो अब तुमसों कों बखानी । तत्व विशेष अहँ सुन तादी ॥
ऊष्मज दोय तत्व परमाना । अंडज तीन तत्व गुण जाना॥
पिण्डज चार तत्वगुण किये पांच तत्व मानुष तन लदिये॥
तासों होय ज्ञान अधिकारी । नरकी देह भक्ति अनुसारी ॥
किन २ खानिमे कौन २ तत्व है । धमदासवचन कनीरप्रति
हे साहिब युहि कहु सथुश्चाई । कोन कोन तच्च इन सब पाई॥
अडज अङ् पिडजके संगा । उष्मज ओर अस्थावर अगा॥
सोसादिब मोदिवरणिसुनाओ। करो दया जनि मोदिदुराओ॥
् कबीरवचन धमदासप्रति छन्द
|| सतह कह सुन् दास. धमनि तच्तखानिनिविरनो॥
जाहि खानि जो तत्व दीन्दोँ कों ठमसो टेरनो॥
१ इस पदको कड प्रतियोमें लिखा दै ।
सकल जिवन जिव एक समाना । नर सत्र ओरनको नहि जाना
9 व
अखरागसाग्र ( ७ /
खनिण्डज तीन तत्व है' आप वाध अश तेजहो॥
अचल खानी एकतक्वहि, तत्चनलरका थेगहो २३॥
सो <-उष्मज तत हँ दोय, वाघ तेन सखमजानिये॥
पिडज चारहि सोयप्रथ्वी तेहि अपवायुसम ॥३५॥
पिडज नर ॒परधान, पांच त्तेन संग हे॥
कदे कीर परमान्, धरमदास् ठेहपरखिके ॥३५॥
पिंडज नरकी देह संवारा । तायं पांच तच्च विस्तारा ॥
ताते ज्ञान दोय अधिकाई । गहै नाम सत रोकड जाई।॥
सव मनुष्योका ज्ञान एक समान क्यों नहीं ? धमंदासं वचनं
धमदास कह सुनु बन्दी छोरा। इकं संशय मेटो प्रघ मेरा ॥
सब नर नारि तत्व सम आदीं इक सम ज्ञान सबनको नाही॥
दया शील संतोष क्षमा गुनन । कोई शून्य कोड होय सम्पूरन।॥
कोई मनुष्य होय अपराधी ।कोईंशीरतलकोहकार्डषाधी॥ |
कों मारि तन करे अहारा । कोई जीव दया उर धारा ॥
कोई ज्ञान सुनत सुख माने । कोई काल गुणवाद् बखाने ॥
नाना गुण किहि कारण दो । साहिब बरणि सुनावो सोह ॥
कबीरवचन धम्मदासप्रति ५
ध्मेदास प्रखो चित लाई । नरनारी गुण कहं बुञ्चाईं ॥ |
जानते नर है ज्ञानी अज्ञानी । सो सब तोहि कदो सदिदानी॥ | `
नाहर सपं ओ स्वान सियारा। काग गिद्ध सूकर मजारा ॥
ओर अनेकजो इन अघखानी। खाहि अखजअधमथणजानी॥
|| इन जो इतने जे जिव आवा । नरकी जोन जन्म जिन पावा॥
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|| पीछे जो इन सुभावन टे । कमे प्रधान मदापुन ३ श
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( ७८ ) अतुरागसागर
जिहि जो इतने जो नर आऊ । ताको वेसो आहि स॒भा ॥ |
अघकरमी घातके विष पूजा । जो इन प्रभाव होय नहिं दूजा ॥
तगर मिरे तो ज्ञान ख्खवे। काग दशा तव सब बिसरे ॥ |
सुरचा जो इन टे तब भाई । ज्ञान मसकला पिरे बनाई ॥ ||
जब धोबी वस्तर कहै घोवे । जससाद्ुन मिल उज्वर होवे॥
थोर मेख कर वस्तर भारी । थोडे परिश्रम मेरु नसाई ॥
निपट मलिनजे वस्तर आदी ।ताकर्दै अधिक अधिकश्रमचाही |
जैसे मेरु वस्तर कर भाऊ । एेे जीवन करे सुभाञः ॥ |
कोइ कोइ जो अङ्कर होई । स्वल्प ज्ञान सो गहे विरोई॥
धद्मद्ापस्ष वचनं
यह तो स्वर्प जोनि करर्ेखा। खानि भाव अब कहं विशेषा॥ ||
चारि खानिको जिव रै जोई । मनुष्य खान अवे सोई ॥ |
| ताकर ्च्छन मोहि बताओ।विकगबिलगकरिथुरिसमञ्चाम |
| जेदि परली सुदि मर्ह चेत् । कर अब साव यहि बड़ इेत्॥ |
चारि खानिके लक्षणोकी पारख । कबीरवतच्न
धमदास प्रखड चित लायी । चारिखानिशुणकह सश्ञ्ञायी ॥
चारों खानि जीव भरमाया । तब छे नरकी देह धराया ॥
देदह धरे छोड जस खाना। तैसे ता कर ज्ञान बखाना ॥
लच्छन भौ अपलच्छन भेदा। सो सब तुमसों कौं निषेदा ॥
अण्डजखानसं मसुष्यदहम आयं हुए जीवक पारख |
प्रथम कों अण्डजकी बानी । एकर्ि एक कों बिरुछानी ॥
आलस निद्रा जा कर दोह । काम कोप दारिद्री सोई ॥
|| चोरी चच अधिक सुहाई । तरष्णा माया अधिक बढ़ाई ॥
| चोरी चुय॒ली निन्दा भावे । घर बनञ्चाड़ी अगिन रगावे॥
रोवे कूदे मंगल गावे। भरत प्रेत सेवा मन भवे ॥
ता 21
मायो
अजुरागस्षागर ( ४९)
देखत देत ओर पनि काहू । मन मन ञ्यखे बहू पछताहू ॥
वाद विवाद सवसा ठन् ।ज्ञानध्यान कडु मनहिं न आने॥
गुरूसतगर चीन्दं निं भाई । वेद शाद सब देइ उगाई ॥
आपन नीच उंच मन दोहं । हमसमसरि दृसर ना कोई ॥
मेले बस्तर नदीं नहाईं । आंख कीन रुख खार बडाई ॥
पांसा जवा चित्त मन आने । गुङ्चरणननिशिदिननईडिजाने।।
कुबरा मूड ताहिका दोईं ) रबा होय पाव पुनि सोई ॥
यहि मांतिट्क्षणम् कहा, ठम घन् धमनि नागर
अंडन खानिन गोय॒राखा, कद्यो भद् उजागर ॥
यह खानि वणेन कहां तोसो कष्ट नाहि छिपायङॐ॥
घोसयुञ्चावानीजीवथिरके, धोखस्करूमिटायङ ३४
उष्मज खानिमे मनुष्य दहमं अये हुयं जीवनकी पारख
सोरख-दनीखानि वताय, ताहि क्च तोसां कहो
उष्मजते जिय ओय, नर देही जिन पाइय ॥ ३६॥
कँ कबीर सुनो धममदासा । उषमज भेद कहीं परगासा ॥
जाई शिकार जीव बहु मारे । बहुतसे आनन्द होयतेहिवारे॥
मारि जीव जब घरक आयी । बहुविधि राध ताडि कहं खाई॥
निन्दे नाम ज्ञान कद भाई । शुर कहं मेठि करे अधिका ॥
निन्दे शब्द ओर गुरू देवा । निन्दे चौका नरियर भेवा ॥
बहुत बात बहुतेनरि आयी । कृथे ज्ञान बहते ससुञ्चायी ॥
जू वचन सभाम कई । टेद़ी . पाग _ छोर च उरमदई ॥ ||
द्या धरम मनहीं नहिं आवे। करं पुन्य तेदि हंसी खावे ॥ ||
माल तिरक अर् चन्दन करई। हार बजार चिकन पटफिरई॥ ||
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( &० ) अनुरागसागर
अन्तर पापी उप्र दाया । सो जिव यमके हाथ विकाया॥
क्ब दांत अर् बदन भयावन । पीरे ने ऊच अति पावन ॥
छन्द
कहे सतर सुनहु धमनि, भेद मट् तुम् पाइया ॥
। श विना नहिमेदपवेभटीविधितोदिदरसाहूया
भूटिय्[ तुम मोदको, कछ नाहि तोहि राइ ॥
जो बृञ्चिहो तम मोहिसो, सककयेद बताह ॥२५॥
स्थावर खानिसं मनुष्यं शरीरम आये हुए जीवनकी पारख
सो<-तीजी खानि सुमाव अचलानि 1 कहत् |
नरदेदी तिनपाव, ताकर रक्षण अब बताटदौ।\२.७॥।
अचर खानिको कदो रदेसा। देह धरे जस दवें भेसा ॥
छनिकं बुद्धि होवे जिव केरी । परटत बुद्धि न मे बेरी ॥
ङ्गा फेटा सिर पर पागा। राज द्वार सेवा भल लागा॥ |
घोडा पर होवे असवारा । तीन खरग ओ कमरकटारा॥ |
इत उत चित सेन जो मरईं । षर नारी करि सैन बुरुवाई॥
रससों बात कं यख जानी । काम बान लगे उर आनी ॥
पर घर ताक चोरी जायी । पकर बांपि राजा पैलायी॥
हांसी करे सकल पुनि जगहूं । लाज शमे उपज नर्द तबहु ॥
छिन इक मन मर पूजा करई । छिन इकमन सेवा चितधरई॥
छिन इक मन मरं बिसरे देवा । छिन इक मनमर्कीजे सेवा॥
| छिन इकं ज्ञानी पोथी वांचा । छिन इकमांिसबनघरनाचा॥
चिन इक मनम सूर कोई । चिन इकम काद्र दो सोई ॥
छिन इक मनम साहु कदाई । छिन इक मनमें चारि ख्गाई॥
छिन इक मनम करे ज धम्म । छिन इक मनमें करे अकम्मा॥
(म
---- -- -----------~---- काम
भोजन करत साथ खज आई । बह जोव पुनि मींजत भाई॥
भोजन करत सोय पुनि जाई ! जो जगाय् तिहि मारन धाई॥
आंख छाल होहि पुनि जाकी । कलग भेद कों मँ ताकी ॥
छन्द
अचटलानीमेद धमनि, छिनक इद्धि सो दीयहो ॥
छिन मादिं करके मेर डरे, कदो ठमसाँ सोयहो
मिले सतय सत्य जा कटः खान् अुधिसबमेटही॥
| शरुचरणलीन अधीन हवै, लोकसो्हसपिंठही॥३६॥
पिडजं खानि मनुष्य शरीरमं आये हुए जीवनकौ पारख
सोरढा-घुन्ह हो धरमदाक्ष पिंडज लक्षणछणकहो)
कों तम्हारे पास चौथीखानिकी युक्तिसो ॥ ३७ ॥
पिंडज खानिके लच्छ सुनाई। गुण अवशणका भेद बताऊ ॥
वैरागी उनश्ुनि मत धारी । करे धमं पुनि वेदं विचारी ॥
तीरथ ओ पुनि योग समाधी । यूके चरणचित्तभलर्बोधी ॥
बेद पुराण कंथे बहु ज्ञाना । सभा बेठि बातें भर ठाना ॥
राजयोग कामिनी सुख माने । मनशंका कबहूं नहिं आने ॥
धन संपति सुख बहुत सहायी । सेज सुपेद पलंग बिछायी ॥
उत्तम भोजन बहत सुहायी । रोग खपारी बीसों खायी ॥
खरे दाम पुन्य महं सोई । दिरदे सधि ताकर पुनि होई॥
चच्छु तेज जाकर पुनि जानी । पशक्रम देही बर गानी ॥
देखो स्वगं सदा तेहि हाथा । देखे प्रतिमा नावे माथा ॥
छन्द
बहतरीन आधीन धमनि, ताहि जितकर्हनानिहो॥ |
सतथसचरणनिरिदिनगदे'मतशब्दनिश्चयमानिहो || ` ५
~~~ -- ~
( «र ) अनुरागसागर
एक एक विरोय धमनि, कट्यो सत में तोदहिसों ॥
चारखानी क्ष माषे, सनो आगे मोहिसों ॥२<८॥
| मनष्य शरीरसे मनष्यदहम आनेवाले द ग पारख स
सोरठा-छटे नरकी देह, जन्म धरे फिर आयक ।
ताका कही संदेह. धमदास सलु कानदे॥६९॥
हे स्वामी इक संशय आयी ।सो पुनि मोहि कहो समञ्जाई॥
चोरासी योनिन भरमवे । तब मानुष की देही पावि ॥
यह् विधि मोसन क्यो बुञ्चायी। अब कैसे यह् संपि ल्खायी।
सो चरि युङ् मोहि ल्खाऊ । धर्मदास गहि के पाड ॥
मानुष जन्म धरे पुनि आयी । रक्षण तास कहो समञ्जायी ॥
कवोरवचन
धमदास तुम भल्िषिधि जानो । होय चरित सो मले बखानो॥
आय् रहते भो मत्य् होत
। आइ अछत जो नर मर जायी। जन्म धरे मादुषको आई ॥
, जो पुनि मूरख ना पतियाई । दीपक बाती देख जराई ॥
बहुषिधि तेर भरे नि तादी। रागे वायु तमे बश्च जादी ॥
अग्नि छायके ताहि ठेसावे । यदिविधि जीवहू देहं धरावे॥
ताको लक्षण सुनहु सुजाना । तुमसों न गोय राखुँ ज्ञाना ॥
6 होवे नरके मादी । भयउ उरताके निकट जादी॥
माया मोह ममता नहि व्यापे । दुश्मन ताहि देखि डरकपि ॥
सत्य शब्द् प्रतीति कर माने) निन्दा हप न कवी जाने ॥
सतश् चरण सदा चितराखे । प्रेम प्रीतिसो दीनता भाखे ॥
|| ज्ञान अज्ञान दोह क ब्रञ्चे । सत्यनाम परिचय नित सुञच॥
जो मानुष अस लक्षण होई । धमेदास रखि राखो सोई ॥
छ
जनमजनमको मे छट, एष शब्द जो पाव ॥ |
नाम भा घुमिरण गहे सो, जीवे छोक् सिधावईं ॥
गस्शब्द निश्चय दृदगहेसो, जीव अमियअमोलहो
| स्तनामबल निज घर चले,करे हस कृछोलही१२८॥ |
सोरडा-सत्यनामपरताप, कार न रोके जीवक ॥
दे खिवदशको छप, काल रह सिर नायके ॥ ७०॥
् चौरासी धार क्यो बनी 2 धर्मदास्वचन
| चारि खानिके ब्रूञ्चेउ भा । अब चञ्च सो मोहि बताॐ॥
| चौरासी योनिनकी धारा । किह कारण यह कीन्ह पक्चारा॥ |
| नर कारण यह सृष्टि बनाई । के कोड ओौर जीव थुगताई॥ ।
| है साहिब जनि मोदि एओ रीजे करपाबिल्ंबजनिखाओ॥
| मनुष्यके लिये च)रासो बनी है सद्गृरुवचन
| धभेनि नर देही सुखदायी । नर देही ग॒ ज्ञान समाई ॥
सो त॒ पाय आप जँ जावे ) सतगुरूमक्ति विनादख पादे॥
नर तत्र॒ काज कीन्ह चौरासी । शब्द न गहे मूदृमतिनाशी॥
| चौरासीकी चार न छड़ । सत्य नाम सो नेह न माड॥
ङे डरे चौरासी मादीं। परचे ज्ञान जहां कङ्क नाहीं ॥
पुनिषुनि दौडि काभरुखजादही। ताहूते जिव चेतत नाहीं ॥
| बहुत भांतिते कहि समुज्ञावा। जीवत बिपति जान गहरावा॥
यह तव पाय गये सतनामा । नामपरताप रुहे निजधामा ॥
+ ्
| आदिनाम विदेह अस्थिर.परखि जो जियरा गहे।
पाय बीरा सार स॒भेरण, रहं कपा मारग छदे ॥| 4
( &«९& ) अवुरांगसागरं
| तजिकागचारु मरा पथगदहि, नीरक्षीरनिवारिके ॥
ज्ञानरष्टिसोअदृष्टि देखे, क्षरअक्षरसूविचा रिके॥२९९)
सोरढा-निह अक्षर ह सार, अक्षरते ठखि पाई
। करो विचार निह अक्षर निहतक्छ दै ॥४१॥
धमदास कहे जुम दिन मोरा । हे प्रभु दरसन पायडं तोरा ॥
महि किंकर पर दाया कीजे । दास जानि मोहि यह बरदीजे॥।
निशिदिनरहो चरण लोलीना । पल इक् चित्त न होवे भीना।॥
त पद्पकज रुचिर सुहावन । पद प्रागबहूपतितन पावन॥
कृपासिश्च करूणामय स्वामी । दया कीन्ह मोहि अतरयामी॥
हे साहिब मे तव बलिहारी । आगर कथा कहो निरवारी॥
चारखानिरवि पुनिकसकीन्हा। सो सब मोहि बतापो चीन्ह्ा॥
जीवोंक लिये कालका फन्दा रचना । कबीरवचन
सुनु धमनि यह रै यम्राजी । जहि नहि चीन्हे पंडितकाजी॥
जा यम ताहि गोसडइयां भाखे। तजे सुधा नर विषकहं चाखे ॥
चारिहु मिलि यह रचना कीन्दा। कच्चा रंग सु जीवहि दीन्हा॥
पांच तत्तव तीनो गुण जानो । चौदह यम ता संग पिछानो ॥
यहि विधि कीन्ही नरकीकाया। मरे खाय बहुरि उपजाया ॥
ओंकार दै वेदको मूला । ओंकारमे सब जग भूला ॥
है ओंकार निरंजन जानो । पुरूष नाम सो युत्त अमानो॥
|| सहस अटसी ब्रह्मा जाया । भा विस्तर कार्की छाया ॥
ब्रह्माते जिव उपजे बारा । तिन पुनि कथे बहत विस्तारा॥
स्मृति शाश्च पुराण बखाना । तामे सकल जीव उरञ्चाना॥
जीवनको ब्रह्मा भटकावा । अडखनिरंजन ध्यान ददावा॥
अनरागसाग्र ( 4५ )
अ मते सब जिव भरमाने ) सत्य पुर्षको मम न जाने॥ |
निरंकार कस कीन्ह तमास्षा । सो चरित ब्रह्चो धम दासा॥
| अमुर है जीवन सतावि, देव ऋषि युनि कारकं ॥ |
पनि धरि आओतार रक्षक, असुर करं संहारक ॥ |
जीवको दिखलाय छटा, अपनी. महिमा घनी ॥
यहिजानजीवन्ांधिओश्चा, यही दै रक्षक धनी
सो०-रक्षककला दिखाय्, अन्तकार भक्षण करे ॥
पीले जिव पछताय, जवि कारके यखं परे ॥५२॥ |
अडसठ तीरथ ब्रह्मा थापा । अकरम करम पुण्य ओ वापा॥
बारहराशि नखत सत्ताइस्त ) सात वार षद्रह तिथि खाडस॥
चारो युग तव बांधे तानी । घड़ी दंड स्वासा अमानी)
कार्तिक माघ पुन्यकदहि दीन्हा । यमवाजी कोड बिरले चीन्डा॥
तीरथ धामकी बाधि महातम। तजेन भरम न चीन्डे आतम॥
पाप पुण्यम सवे फैदावा । यहि विधिजीव सबे उरञ्चावा॥
सत्य शब्द विनु बांचे नाहीं । सारशब्द बिन यमश्चखजाही॥
जास जानि जिव पुण्य कमावे । किंचित फल तेहि धा न जावे॥
जबलग पुरूष डोर नदिं गईं । तब ग योनिन फिर रलह
अमित कला जम जीव कुगवे। पुश्ष भेद जीव नहि पावे ॥
लाभलोभ जिवि खगे धायी। आशा बध कार घर खायी॥
यम बाजी कोई चीन न पावे । आशा दे यम॒ जीव नचाव ॥
प्रथमे सतयुगको व्यवहारा । जीवदहि यम ले करे अहारा॥
रच्छ जीव यम नितप्रति खाई। महाअपरबल कार कसाई ॥
। तप्तशिछानिशिदिन तह जरई। तापर ठे जीवन कं धरई ॥ ||
न= न==--=---------------=----=----------------------------=~- ~ भयाय
~ ---~~~~~~ - ~~ ~= ~ ~ -~-~------
( ५६ ) अनुरागसागर
जीवि जारे कष दिखाते । तब फिर ठ चोरासी नपे ॥
ता पी योनिन् भरमवे । यदि विधि नानाकष् दिखावे॥
| बहू विधि जीवन कीन्ह पुकारा काठ देत है कष्ट अपारा ॥
तप्त शिलापर कष्ट पाकर जीवोका गृहार् केरना ओौर कबीर
साहबका सतपुरूषको आज्ञासें जाकर उन्हे छृडाना
| = ८
। यमकर कष्ट सद्यो नहिं जाई । हे गुर् ज्ञानी होहु सहाई ॥
छन्द
जबदेखिजीवनकोविकल अतिटया पुरुषजनाइया ॥
दयानिधि सत पुषसाहिव, तवे मोहि बुखाईया ॥
कहे मुदि ए सशाय बहुविधि, जीवजाय विता ॥
तुम द्रशदेतेह जीव शीतल.जायतपनदुञ्ञायट् ०१
षोरठा-आज्ञालीन्हामानपुस्षसिखापनसीश्चधरि ॥
ताक्षण कीन्ह पयान, सीक्षनायसतपुरुष कर ।॥।९२॥
आये जह यम जीव सतवे । काल निरंजन जीव नचावे ॥
चटपटं करे जीव तह भाई । गदे भये तहां पुनि जाई ॥
मोहि देख जिव कीन्ह पुकारा । हे साहिब भुहि ठेहि उबारा॥
तब हम सत्य शब्द् गुहरावा । पुरूष शब्दते जीव जडावा ॥
जी वोका स्तुति करना
॥ सकल जीव तब अस्तुति लाये। धन्य पुरूष भर तपन बुश्चाये॥
|| यमते छोर खेव तुम स्वामी । दया करो प्रयु अन्तरयामी ॥
| कबीरवचन जीर्वोप्रति
तब मैं कहा जीव सयुञ्ञाईं । जोर करो तो वचन नसायी॥
| जब्र तुम जाय धरौ जग देहा । तब तुम करिदो शब्द सनेहा॥
॥| पुर्ष नाम सुमिरण सहिदाना। बीरा सार कहो परवाना ॥
॥ दह भरी सत शद् समाई । तव _ईसासत रोके ना३॥
अनुरागक्षागर ( «५७ )
सा भ = क ज ककः का
क == त वा = क = ज
जटा आणा तहा वासा
जं आशा तहं वासा होई । मनवच करम समिर जो कोई॥
देद धारि कीन्हे जिहि आस 1 अंत आय खीन्डेड तहँ वास]॥
जब तुम देह धरो जग् जाई । सरथ पुरुषकार धरिखाई॥
। जवने वचन कडार प्रत
|| कहे जीव सुनु पुरूष पुराना । देह धरी विसर्यो यह ज्ञाना॥
पुरूष जान सुमरेड यमराई । वेद पुराण कहे समुञ्चाई ॥
वेद पुराण कहे पति एहा । निराकार ते कीजे नेहा ॥
सुर नर सनि तेतीस करोरी , बांधे सवै निरंजन डोरी ॥ |
ताके मते कन्द ये आषा ।अबमोरहिचीन्दप्रेयम फांसा॥
कवोर वचन जीवोप्रतिं
| सुनो जीव यद छक मम केरा। यह यम फेदा कीन्ड चनेरा ॥
| छन्द
का कला अनेक कीन्ह, जीव कारण ठट हौ ॥
तीथत्रत जग योग एन्द्, कोड न पावते बाट हो ॥
आप तन धरि प्रगट हैके सिफत आपन ङीन्देङ॥
नानाएणनमन् कम कन्दे, जीव् बंधन दीन्देउ॥२॥
सोरठा-काठकरा प्रचण्ड, जीवपरे वरा ताहिके॥ |
जनम जनमभ दण्ड, सत्यनाम चीन्हे विना ४० |
१ यह छन्द कई ग्रथ कं प्रकारसे लिखा है द् सरे प्रकारसे जो दो सौ वषसे भी
अधिककं लिखे पुराने ग्रथ मे इस प्रकार है- ।
छन्द-काल कन्या अनेक कीन्ह जीव कारण जालहो। |
वेद शास्त्र पुरान स्मृति ते रुधे काल कराल हो । ।
देव धरि नर प्रगट हो फ़िरे, ताहि आशा कौन्हऊ, 1
ज्रमत इत उत काल वसि, बहुपंथमे चित दीन्हेऊ ।। |
कबीरवचन धमदासभ्रति | ॥
( ९८ ) अजुरागसागरं
॥ छन इकं जीवन कर सुख दयऊ। जीव प्रबोध पुर्ष पँ गयञ॥ |
| छन इकं जीवन करँसुख दीन्हा । जीवन कदय ज्ञानको चीन्दा ॥
। जब तुम देह धरो जग जाई । तब हम शब्द् कबर गोदराई॥
। जो गहि हो सत नामकी डोरी। तब आन हम जमसे छोरी ॥
| जीव परमोपि पुरुषपहं गयञ। जीवनको दुख वरनि सुनयउ॥
दयानिपिस्वामी। जिनके मरु अमान अकामी॥
क्यो मोरिं बहुविधि समुञ्ञाई। जीवन आनों शब्द चेताई ॥
धमद्स्षव चन
धमेदास अस विनती रखायी । ज्ञानी मोरि कटो समञ्चायी॥
जो कड पुरुषशब्दसुख भाखो । सो साहिब मोहि गोयनराखो॥
कोन शब्दते जीव उबारा ।सो साहिब सब कटो बिचारा॥
पुरूष मोहि जेसे फुरमायी । सो सब तुमसो सधि र्खायी॥ |
कहे मोहिबहविधिसमञ्ञायी। जीवदहिआनो शब्द् चितायी ॥
गुप्त वस्तु प्रथु मोक दीन्हा । नाम विदेह अुक्तिकर चीन्द्ः॥
दीन्ह पात परवाना हाथा । संधिकछाप मोहि सौप्यो नाथा॥
बिनु रसनाते सो धुनि दोश । शुश्गमते टखि पवे कोई ॥
पच अमीय सुक्तिका मूला । जाते भिरे गभ अस्थूला ॥
यहि विधि नाम गहेजो हसा । तारौ तास इकोतर बसा ॥
नाम डोरि गहि लोकि जायी। ध्मराय तिहि देखि डरायी ॥
ज्ञानी करो शिष्य जेहि जाई । तिनका तोरो जर अंँचवाई ॥
जिदिविधिदीन्ह तुमहिं पाना।तेदिविधिदेदशिष्य सदिदाना॥
गृमहिमा
गुरमुख शब्द सदा उर राखे । निशिदिन नामसुधारस चाखे॥
पियानेह जिमि कामिनि खगे । तिमिर युरुरूप शिष्य अनुरागे
क क क = क
अबुराग्ागर ( «९ )
पठ पटर निरते गुश्मुखकान्ती । शिष्यचकोरयहश्िशान्ती॥ |
पतिव्रता ज्यों पतित्रत ठाने । द्वितीय पुरूष सपने नदि जाने॥
पतिव्रना दोउ कुलईिं उजागर } यड गुण गहे संतमति आगर
ज्यों पतित्रता पिया मन खवे । गङ् आज्ञा असशिष्य ज॒मावे॥
गुरते अधिक ओर कोड नाहीं। धर्मदास परखहु हिय माहीं \
गुरते अधिक कोड नि दूजा । भर्मं तजे करि सतयुकूपूजा ॥
तीथं धाम देवल अङ् देवा । शीश अपिं जो खवँ सेवा ॥
तो नहि वचन कदं हितकारी । भरे भरम यह संसारी ॥
न्द्
शु मक्ति अर अमानधमेनि, यहि सरस दजा नदीं ॥ ,
जप योगतप् त्रतदान पजा'वणसदृश यह जग करही॥ |
सतयुष्दयाजिहिस॒न्तपर तिहिदययहिविषि आ।
ममगिरप्रलेहरषिकेदिय, तिमिरमोहनदाव्३।५३॥
सोरटा-दीपकसतयसन्ञान, निर्खेह सन्तअंजोरतोहि
पावे सक्ति अमान, सतर जेहि दाया करे ॥५७॥
शकेदेवजीकी कथां
शुकदेव भये गरभ जोगेशर । उन समान नहि थाप्यो दूसर॥
तपके तेज गये हरि धामा । शुरू बिन नहीं रूहे विय्ामा॥
विष्णु कहे ऋषि कंवा आये । यरु विहीन तप तेज थुखाये ॥
गुर् विरीन नर मोहि न भाषे । फिर २ जो इन संकट आवे ॥
जाहु पररि गुर करड सयाना। सब पदो यहवां अस्थाना ॥
सनिमुनि श्ुकंदेव वेगि सिधाये। ग॒रुविहीन तहं रहन न पाये ॥
जनकं विदह कीन्ह शुरूजानी । हरषि मिरे तब सारंगपानी ॥ ||
नारद बरह्मा सत बड़ ज्ञानी । यह सब कथा जगतमं जानी॥ ||
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( ६० ) अकरार्गसागर
ओर देव ऋषि मुनिवर जेते । जिन गुर्लीन्ह उतर सो तेते॥ |
जो गुरू मिरे तो पथ बताषे। सार असार परख दिखटरपे॥
गुरू सोई जो सत्य बते । ओर गुरू कोई काम न आवि॥
सत्य पुर्षे करे संदेशा । जन्म जन्मका मिरे अदेशा॥ |
पाप पुन्यको आशा नारीं । बेठे अक्षय वृक्ष की छदी ॥
| शर्धो मत होवे जिहि पासा । सोह गुरूसत्य सनो धर्मदासा॥
छन्द
जो रहित् घूर बतठावदै, सो शरु साचा मानिये ॥
तीन तजि मिलि जाय चोथतासुवचनप्रमानिये१ |
पाच = अधीन काया, न्यार शाब्द विदेह ई ॥
देह माहि विदेह दरदोसुमत निज ए कहौ ॥९५९॥ ||
सोरडा-ध्यान् विदेह समा, देह धरेकां फक यदै ॥ |
नहिं आवे नहिं नाय.मिह देह विदेह होइ ॥५६॥ |
अपु णश कर बनाय, बहुरि न जग देदी धरे ॥
नहिं आवि नहिं नाय,जिहि सतश॒रूदाया करे॥५७॥
घमद्ासव चन
हे प्रभु मोदि कृतारथ कीन्हा । पूरण भाग्य दरश खुहि दीन्दा॥
तव गुण मोसन वरणि न जाई। मो अचेत कँ टीन्ह जगाई ॥
सुधा वचन तुम मोदि प्रियलागे। सुनतदि वचन मोह मद भागे॥ |
अब वह कथा कदो समुञ्चायी ।जिहि विपि जगमे परथमे आयी॥
कबौ रमाट्बका सत्पुरुषक्ो आज्ञा पाकर जी वोको चितानेके लिये
चलना.निरजनसं भेट होना ओौर उससे बात चीत करकं आगे बडना
[1 क
कबीरवचन
धर्मदास जो प्रछ्यो मोदी । युग युग कथा कहँ मे तोरी॥ |
जबही पूरुष आज्ञा कीन्डा । जीवनकाज प्रथ्वी पग दीन्दा॥ |
अबुरागक्षागर ( ६१ )
केरि प्रणाम तवहीं पञ धारा । पर्हैचे आय धर्मं दरवारा ॥
प्रथमे चले जीवके काजा । पुष प्रताप शीशपर आजा॥
तेहिथुग नाज अचिन्तं काये) आज्ञा पुरूष जीव वहं आये॥
आवत मिल्यो धर्म अन्याई । तिन पुनि हमसों रार बदाई॥
मो कर्द देखि धर्म दिग आवा) महा कोध बोरे अतुरावा ॥
योगजीत इदां कस अवो । सौ तुम इमसो वचन सनावो।॥
कै तुम हमको मारन आओ । वर्ष वचन सो मोदिञ्नायो॥
ज्[गजति वचन्
तासो कद्यो सुनो धर्मराई । जीव काज संसार सिधाई ॥
बहुरि क्यो सुन सो अन्याई । तुम बहु कीन्ह कपट चतुराई ॥
जीवन कह तुम बहुत थुलावा। बार बार जीवन संतावा ॥
पुरूष भेद तुम गोपित राखा ) आपन महिमा प्रगट आखा
तप्र शिलापर जीव जरावह । जारिबारि निजस्वा करावड॥
तुम अस कष्ठजीव कह दीन्हा । तबदहिपुरूषमो हिआओज्ञा कीन्हा)
जीवं चिताय लोकं ठे जां । कार कष्ठसे जीव बचा ॥
ताते हम संसारहि जायब् । दे प्रवाना खोक पडायब ॥
पमराय वचन
यह् सुनि काट भर्यकर भयॐ। हम क जास दिखावन ख्यॐ॥
सत्तर युग दम सेवा कन्दी । राज बड़ाई पुरुष युहि दीन्डी॥।
फिर चोंसठ युग सेवा ठय । अष्ठ खंड पुर्ष मुहं दय ॥
तव तुम मारि निकारे मोही । योगजीत नरि शंडों तोही ॥
अब हम जान भटी विधि पावा। मारो तोहि खड अब दावा ॥ |
जोगजीत वचन ॥
तबर इम कदा सुनो धर्मराया । हम तुम्दरे डर नाहि डराया॥ ||
हम कहै तेज पुरूष बल आदी। अरेकालतुबर डर मोहि नादी ॥ ||
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( ६२) अनुरागसागर
श तः
पुरूष प्रताप सुमिरितिहि बारा । शब्द अंगते कालि सारा ॥
ततछण हशि ताहि पर हेरा । श्याम खाट भयो तिहि केरा॥
पख घात जस होय पखेङ । एेसे कारु मोहि पहं दे ॥
करे क्रोध कं नारिं बसाई । तब पुनि परेड चरण तर आई
धमरायव चनं छन्द्
कह निरंजन् सुनो ण करो विनती तोहिसों ॥
जान बन्धु विरोध कीन्हघाट मयी अब मोहिसो
परुष सम अब तोहि जानोँ नहिं दनी भावना ॥
तुम बडे स॒वज्ञ साहिब, क्षमा छत तनावना ॥ 9 ् ॥
सोमं करो बखशीश पर्ष दीन्द नसराजयुदि)
पोडरामरह तुम ईरा, ज्ञानी पर्ष एकसम ॥४८॥
ज्ञानो वचन
कह ज्ञानी सुनु राय निरंजन । तुम तो भये वेशम अघ्नन् ॥
जीवन करं मे आनब जाई । सत्य शब्द सत नाम दद्ाई॥
पुरूष आज्ञाते हम चलि आये। भौ सागरते जीव भक्ताय ॥
पुरुष अवाज टार यहि बारा। छनमह तो करै देडं निकारा ॥
धममराय वचन्
धमेराय अस विनती ठानी । म सेवक द्वितीया नहि जानी॥
ज्ञानी विनती एक हमारा । सो नकरहु जिहि मोर विगारा॥
पुरूष दीन्ड जस मोक राज् । तमहं देह तो होवे कान् ॥
अब इम वचन तुम्हारो मानी। खीजो हसा हम सो ज्ञानी ॥
विनती एक करो तुहि ताता । दढ कर मानो हमरी बाता ॥ ¦
कहा तुम्हारो जीव नर्द मानहि। हमरी दिशिहे बादबखानिर्ि॥
दृढ फन्दा ह रचा बनायी । जामे जीव _ रहे उरज्ञायी ॥
वेदशाच्च सुमिरिति यणनाना । पुत्री तीन देवन परधाना ॥
अब्रुरागसागर ( ददे)
तिनहू बह बाजी रचि राखा । हमरी डोरि ज्ञान ॥
देवल देवं षखान पुजाई । तीरथ वत जप तप मनलाई॥
| पूजा विश्व बलदेव अपराधी । यहि मति जीवन राख्यो बांधी॥
जग्य होम अङ् नेम अचारा । ओर अनेक फन्द मँ डारा ॥
जो ज्ञानी जैद संसारा । जीव न मने कहा तम्दारा॥
त्ञानोवचन
| ज्ञानी कहे सुनो अन्याई । काटो फन्द् जीव ठे जाई ॥
जेतिक फन्द तुम रचे विचारी) सत्य शब्दते सवे बिडारी ॥
| जोन जीव हम शब्द ददृवि । फं तुम्हार सकल शुक्तावे ॥ |
| जबजीव चिन्दी ह शब्द हमारा। तजहि भरम सब तोर षसारा॥ ।
| सत्य नाम जीवन समञ्चायब । ईस उवार लोकं रे जायब ॥ |
छन्द्
है सत्यराब्ददिटायदैसहि, दयारीर श्चमाघनी ॥
। सहज सीर सन्तोषसारा, आत्मपूजा शन धनी ॥
एर्ष सुमिरन सार वीरा, नाम अविच गाइहौं ॥
रीस म्द पवि देके, सहि छोक् पटाइह॥५६॥
सो°-अमीनाम विस्तार, सहि देह चिताइहं ॥
मरदहिं मात्र तुम्हार, धमदास सुलु चित्ते ॥४९॥
चौका करी परवाना पाईं । पुरुषनाम तिहि सेड चिन्हाह॥ |
ताके निकट काल नरि आबे । संधि देख ताक शिर नावे ॥
इतना सुनत कार सकाना । हाथ जोरिके विनती ठाना ॥
द्यावन्त तुम साहिब दाता । एतिक कृपा करो दो ताता ॥
पुरूष शाप मोक अस दीन्हा।लच्छजीव नित आसन कीन्डा॥
षभेरायव चन
( &% ) अनुरागसागर
। जो जिव सकललोक तुव आवे। केसे क्षुधा सो मोरि बतावे
पुनि पुरूष मोपरदाया कीन्हा। भौसागर कर राजसुदि दीन्दा॥
तुमह कृषा मोपर करहु । मांगो सो वर शुहि उच्चर्हू॥
| सतयुग अता द्वापर माहीं । तीनहु युग जीव थोरे जादीं ॥
चोथा युग जब कलियुग अपे। तब तुव शरण जीव बहु जावे॥
ेसा वचन हार सुरि दीजे । तब संसार गवन तुम कीजे ॥
ज्ञानो वचन
अरे कारु परपंच पसारा । तीनों युग जीवन दुख डारा॥
विनती तोरि खीन्ह में जानी । मोक ठउगा कारु अभिमानी॥
जस विनती तू मोसन कीन्दी ¦ सो अबबसि तोरि कर दीन्दी॥
चौथायुगजब कलियुग आये । तब हम आपन अंश पटाये॥
छद्
सुरति आटा अराघुङृत, प्रगटि द जग जाके ।
ता पीछे एनि सुरतनौतन, जाय ग्रह धमेदासके ॥
अश ॒व्याटिस पुरषे बे, जीवकारण आदह ॥
कठिपन्थ प्रगट पसारिकेवह जीव ठोकपराबई ०७
सोर-रत्यशब्द दे साथ जिहि परबाना देईहं ॥
| सदा ताहि हम साथ, सोजिवि यम नहिं पा दै ॥
धमेराय वचन १
हे सादि तुम् पन्थ चलाऊ । जीव् उवार रोक ठे जाऊ ॥
वेश छाप देखो जेहि, हाथा । तादि दंस हम नाउत्र माथा॥
पुरुष अवाज छन्द मे मानी । विनती एक करो तुरि ज्ञानी ॥
कारका अपना वाहर पन्थ चलानेकी बात कबीरसाहनसे कहना
पन्थ एकं तुम आप चरा । जीवन छे सत लोक पठाञः॥
द्वादश पन्थ करों मे साजा । नाम तुम्हार रे करो अवाजा॥
अबुरागसागर ( ६4 )
र श यह यम संसार पटेहां। नाम वम्दारे पथ चेदा ॥
| मृतु अन्धा इक दृत हमारा । सुकृत अह ठे है अवतारा ॥
| प्रथम दूत मम प्रगटे जायी । पीर अंश तुम्हारा आयी ॥
| यहि तिपि जीवनको भरमा । पुरूष नाम जीवन समञ्चाऊ ॥
| द्वादश पथ जीवजो णं सो। हमरे खख आन समेदें॥
| एतिका बिनती करो बनाई । कीजे कृषा देड बगसाई ॥
कारुका कवारसादहवस जगन्नाथ ब्धापमाकर
वरग्द्धान मगना
कलियुगप्रथमचरणजबआयब। तब इम बद्धं शरीर बनायब ॥
राजा इन्द्रदवन पहं जायब । जगत्राथं इम नाम धरायब्।॥।
| राजा मडप मोर बनैदै। सागर नं।र खसावत जेहै ॥
। पुत्र दमारा विष्णु तहं आदी । सागर ओडर सात तेहि पादी ॥
| ताते मण्डप वचन न पाईं । उर्मगे सागर ॐ उवाई ॥
| ज्ञानी एक मता_ निमा । प्रथमे साग्र तीन सिधा ॥
तुम कर सागर लांधि न जाई। देखत उदधि रहे सुरञ्चाई ॥
| यहि विधि मोकर्देथापिहूजायी। पीछे आपन अंश पठायी ॥
भवसागर तुम पथ चलाओ । पुरूष नामते जीव बचाओ ॥
सन्धि छाप मोहि देह बतायी। पुरुष नाम मोदि देह सञ्चायी॥
विना सन्धि जो उतरे घाय । सो हंसा नं पावे बाटा ॥
ज्ञानोव चन छन्द
धमे जस ठम मांगट्र सो, चसितिहमभट चीन्हिया॥ |
पैयटादश ५ कदेउ सो अमी घोर विष दीन्हिया॥
जो मेरि डरो तोहिको अवपलटिकलादिखावऊॐ॥ ||
ठ जीवबन्द छडाय यमसों अमरलोक सिधावरँ ५८ |
१
9: प क 4 ।
च ५.
११ 9 क»)
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( ६६ ) अनुरागसागर
सो =-पुरुषवचनअस्नादहिःयहे साच चित कन्देः ॥
ङे पहुचावहं तारि, सत्यशब्द जा टट गहै ॥ ५१ ॥
द्वादश पन्थ कहे अन्याई । सो हम तोहि दीन्ह बगसाई॥
परिरे प्रगे दूत तुम्हारा । पीछे ठेहि अंश ओौतारा॥
उदषि तीर कर मे चलि जायब। जगन्नाथको माड मडायब ॥
| ता पाके हम पन्थ चलायब । जीवन करै सतरोकं पठायब॥
धमेरायका कबीरसाहबको धोखा देकर उनके गृप्त भेदका पूना
धमराय वचन
सन्धि छाप मोहि दीजे ज्ञानी! जस देहौ ईंसहि सदहिदानी ॥
जो जिन मोकहं सन्धि बतवे । ताके निकट काल नरि आवे॥
नाम निसानी मो कहं दीजे । हे साहि यह दाया कीजे ॥
ज्ञानी वचन |
जो तेहि देहु सन्धि लखाई । जीवन काज दोहो दखदाई ॥
तुम परपच जान हम पावा । कार चरे नहि तुम्हरो दावा॥
धमराय तेहि परगर भाखा । गुप्त अकं बीरा हम राखा ॥
जो कोई ठेईं नामः हमारा । तादिछोडि तुम होड नियारा॥
जो तुम हसि रोको जायी । तो तुम काट रहन नहि पायी॥
धमराय वचन
कहे धमे जाओ संसारा । आनहु जीव नाम आधारा॥
जौ दसा तुम्हरो गुण गाये । ताहि निकट तो हम नर्दिजाये॥
जो कोई जरै शरण तुम्हारा । हम शिर पग दै होवे पारा ॥
हम तो तुम सन कीन्ह टिटाई। पिता जान कीन्हीं टरिकाई॥
कोटिन ओगण बालके करई । पिता एकं हिरदय नर्द धरई॥
जो पितु बालकं देह निकारी । तबको रक्षा करे हमारी ॥
धभराय उठ सीस नवायो । तब ज्ञानी संसार सिधायो ॥
क ~~ ~ यवको कक क
अनुरागसागर ( &७ )
कयीरवचन धमम॑दा सपति
। हम देखा धम सकाना । तवर तहवति कीन्ह पथाना ॥
कह कवीर सुनु धमनि नागर। तवमे चङि आयडं भवसागर॥ |
कबीर साहवकी ऋ्या $ भेर |
आया चतुराननके पासा । तासों कीन्ह शब्द् प्रकाशा॥ |
ब्रह्मा चित दै सुनवे टीन्हा । पूख्यो बहुत पुरूषको चीन्हा॥ ,
त्वार निरंजन कीन्ह उपाई । ज्येष्ठ पुज बह्मा मोर जाई ॥ |
नीराजन मन चेट विराजे । ब्रह्मा इद्धि फेरि उषराजे ॥ |
ब्रह्मा व चनं
निराकार निशुण अविनाशी । ज्योतिस्छह्प ज्ुन्यके वाती ॥
ताहि पुरूष कँ पेद बखाने । आज्ञा वेद ताहि इम जाने ॥
कथीरसाहवका विष्णुक पास पहुंचना
जब देखा तेदि कादयो । तते उदे विष्णु पहं आयो॥
विष्णुहि कष्मो पुरूष उपदेशा । काख्वशी नहिं गहे सैदेशा ॥
विष्णुवचन
कहे विष्णु मोसमको आदी । चार् पदारथ हमरे पादी ॥
काम मोक्ष धर्मार्थ सादी । चाहेजैन देह म ताही ॥
ज्ञानी वचन
सुनहु सो विष्णु मोक्षकरस तोदी। मोक्ष अक्षर परे तर होही ॥
तुम नहिं थिर धिर कस करहू।मिभ्यासाखि कवण गुण भरहू॥
कबी रबचन ध्मदासप्रति
रहे सङ्च सुन निर्भय बानी ।निज हिय विष्णु आपडरमानी।॥
|| तब पुनि नागलोक चकि गयञ। तासे कुछ्कुछ कदिबे ख्यञ॥
पुरुष भेद कोड जानत नादी । लागे समे काकी छह ॥
राखनहार कं चीन्दों भाई । यहसों को तहि रेड ड़ाई ॥
यावै। वेदे जासु यण निशिदिन गाे॥ ||
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ब्रह्मा विष्णु श्र जिहि ४
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सोह पुरूष तेहि राखनहारा । सोइ तमि ठे करिरै गारा॥
राखानेहार ओर कोउ आरी । कर् विश्वास मिञ तारी॥
शेष खानि विष तेज सुभा । वचन प्रतीत हदय नरीं आञ॥
सुनहु सुखक्षण धमनि नागर । उब मे आयडउ या भवसागर।॥
आये जब घरत्युमण्डर माहीं । पुरूषजोव कौउ देख्यो नारीं॥
काके कंहिय पुरूष उपदेशा । सा तो अधिके यमको मेषा॥
जा घातक ताको विश्वासा । जो रक्षकं तेदि बोल उदासा॥ ||
जाह जपे सोई धारे खाई । तब मम शब्द् चेत चित आई॥
जीव मोहवश चीन्हे तादी ।तबअस भावउपज हियमारीं॥ |
मेटि डारो कार शाखा, प्रगट काट दषा ॥
लेऊ जीवन शछोरि यमसो, अमरटोक पठावः ॥ |
जाहि कारण रटत डो, सो मोक चीन
कालके वरा परे जीव सम, तनि खधाविषटी र र ॥
सो <-परुषवचन स्नाहि, यदीसोचचित कीन्ह
ले पर्हुचायो ताहि, शब्द परख टृटको गहे ॥ ५२॥
पुनि जस चरित भयो धर्मदासा। सो सब बरनि कों त॒वपासा॥
|| बह्मा विष्णु शंभु सनकादी । सबमिलिकीन्दीश्चून्यसमाधी॥
कवन नाम सुमिरो करतारा ।कवनर्हि नाम ध्यान अनुसारा॥
| सबदि युन्यमह ध्यान लगाये। स्वाति सनेह सीप ज्यों लाये॥
|| तूर निरंजन जतन विचारा । श्ुन्य गुफति शब्द् उचारा ॥
|| ररी सु शब्द् उठा बहुबारा । मा अक्षर माया संचारा ॥
| दोउ अक्षर कर समके राखा । रामनाम सबहिन अभिराषा॥
रामनाम छे जगि टटायो ।काल फन्द कोई चीन्द न पायो॥
| यह विधि रामनाम उत्पानी । धमनि परख लेह यह बानी॥
(म-~र
अवुरागसागर (8९)
| धर्मदाल बचन ~^
धभदास् कहे सतु प्रा । छटेड तिमिर ज्ञान तुव सरा॥
माया मोह घोर ओअधियारा । तामहं जीव परे विकारा ॥
जब तुव ज्ञान प्रगट है माना । टे मोहं शब्द् परखाना ॥
धन्य भाग हम तुम कं पायी । मोहि अधम् कहं छीन्ह जगायी॥
अब वह कथा कों सशुञ्चायी । सतथुग कौन जीव अुकताईइ ॥
सत्यु गमं सतयुकरत ( कबीरसाहव ) के पृथ्वीपर
आनका क्या । सद्मृदह्वचन्
धर्मदास सुव॒ सतयुग भाऊ । जिन जीवनक नाम खनाऊ ॥
सतयुग सत्तसुकृत मम नाऊ ) आज्ञा पुरूष जीव चेताऊ ॥
धोंधल राजाका वृत्तान्त
नृप धोधर पह म चजिजाई । सत्य शब्द् सो ताहि खनाई॥
सत्य शब्द तिन हमरो माना । तिन कह दीन्ह पान परमाना॥
शय धोंधल् सन्तं सजन, शब्द मम टटके श्यो ॥
सारसीत प्रणाद रीन्हौ, चरण परसतं ज द्यो ॥
रमसे गदगद सब मयो, तजेड भम विभाय हो ॥
सारशब्दहिं चीन्ह लीनो, चरण ध्यान र्गायहो
खेमसरीका वृत्तान्त
सो °-धोंधल शब्द चिताय,तब आयडउ म ग नगरं
घेमपस्तरि आयो धायनारि शद गो बालिस ॥५३॥
कहे खेमसरी पुरूष पुराना । करवत त॒म कीन्ह प्याना ॥
तासों कहे शब्द् उपदेशा । पुष भाव अर् यमके |
सुना खेमसरि उपजा भाऊ ।जब चीन्डा सब यमका दाउ॥ | (1
~ ~ -कर्यागर् ४
( ७० ) अुरागसागर
0 त्क च
खेमसरीको लोकका दशन करना
पे धोखा इकं॒ताहि रहाई । देखे रोक तब मन पतियाई॥
| राखेउ देह ईस रे धावा । पलदक मारि रोकं पटुचावा॥
लौकं दिखाय हंस ठे आयो । देह पाय खेमसरी पछतायो ॥
डे साहेब रे चटु वहि देशा । यहां बहत है कार कंठेशा ॥
तासो केड सुनो यह बानी । जो ये कहू लेह सो मानी ॥
टीका पूरनेपर ही लोककी प्राप्ति होती है
जबलों टीका पूरन भाईं। तब ख्गरहोनाम लौ खाई ॥
तुम तो देखा लोक हमारा । जीवनको उषदेशह सारा ॥
जोवोंक्ा उपदेश करनेका फल
एकह जीव शरणागत आबे । सो जीव सत्य पुर्षको भावे
जेसे ग बाघ सुख जायी।सो कपिरहि कोई आय छड़ायी॥
ता नरको सब सुयश बखाने। गऊ छुड़ाय वाघते आने ॥
जस कपिला कह केहरि तासा । एेसे कार जीव कहं भाषा ॥
एक जाव जो भक्ति खावें । कोटिक गृ पुण्यं सो पावे ॥
खेमसरी वचन |
खेमसरि परे चरणपर आयी । हे सादिब मोह लेह बचायी ॥ |
मोपर दाया करहू प्रकाशा । अब नहिं परौ कालके फांसा॥
सुकृत वचन
सुन खेमसरि यह यमको देशा । बिना नाम नि मिरै अदेशा॥
पान भ्रवान पुरुषकी डोरी । ठि जीव यम तिनका तोरी॥
पुरूष नाम बीरा जो पावे । फिरके भवसागर न्दं आवे॥
खेमसरी वचन
कहे खेमसरि परवाना दीजे । यमसों छोरि अपन करि छीजे॥ |
जीव हमरे गृह आदी । नाम पान प्रभु दीजै तादी ॥
मोरे गृह अब धारिय पाॐ । मुक्तिसन्देश जीवन समञ्ञाऊ॥ |
न दे
[1 ~ ^ क नकः
ऋ ~र + कायक = ~
अलुरागसागर (७१)
कवीरवचन धमंदासप्रति
भयर तासु अह भाव समागम । परेड चरणतर नारि खधासम | |
खेमसरी सब कहि समञ्चायी । जन्म सफर कर्रे सब भायी॥ |
खेमसरीवचन परिवारप्रति
जीवन भुक्ति चाह जो भाई । सतयुङ्् शब्द् कहो सो आई॥ |
यमसो येहि इडावन हारे । निचय मानो कहा हमारे ॥ |
कवीरवचन धमदासप्रत्ि
सब जीवन प्रतीत ददावा ) खेमसरी संग सवजिवं आवा॥
सब मिलकर विनय करते हुं
आय गये सब चरण हमारा । साहिब मोर करो निस्तारा ॥
जाते यम नहि मोहि सताये । जन्म जन्म दख इसह नाये
कवी रवचन घमदास प्रति |
अति अधीन देखेड नर नारी तासों हम असं वचन उचारी॥
जो कोई मनिरै शब्द हमारा । ताक कोई न रोकनहारा ॥
जो जिय माने मम उपदेशा । मेटो ताकर कार करेशा ॥
पुर्ष नाम प्रवाना पावे । यमराजा तिहि निकट न जावे
सुकरृतवचन खेमसरी प्रति |
आनह साज आरती केर । कार कष्ठ मेटो जिय केरा ॥
खेमसरी वचन
कह खेमसरी प्रभु कहो विरोई। कवन वस्तु के आरति होई ॥
सुकरृतवचन खेमसरी प्रतिछन्द
माव आरती खेमसरि यूठ, तोहि कटं समु्ञाय॒के॥
मिष्ठानं पान कपूर केरा, अष्ट मेवा छायके ॥
पांच बसन उवेत वस्त्र, कदटिपत्् अच्छन्दना ॥
नारियर अर पुहूप श्वेतदि. खेत चोकाच॑दना॥९१॥ |
यि
गन जन
|
( ७२ ) अनुरागसागर
सो --यह् आरति यव॒मानि, आचखेमसर्सिजसषब।
| पुगोफर परमान, राब्द अंग चौका करे ॥५॥
ओर वस्तु आनड् सुटिपावन । गो घृत उत्तम श्वेत सुहावन ॥
कबीरवचन धमप्रति
खेमसरि सुनि सिखावन साना। ततक्षण सब विस्तार सो आना॥ |
सेत॒चदोवा दीन्हों तानी । आरति करनयुक्तिविधि गनी॥
पच साधु इच्छा उपराजा । भ क्ति भजन गुश्ज्ञानविराजा॥
। इम चोकाप्र बेटकं ल्य । भजन अखंड शब्दधुन भयञ॥
भजन अखंड शब्दध्वनि होई । दुनियां चांप सके नट कोई ॥
सत्य समय ले चौका साजा । ज्योतिप्रकाशअखंडविराजा ॥
शब्द् अग चोका अनुमाना । मोरत नरियल काल पराना॥
जब भयोनरियर शिलासयोगा । कार शीश पुनि चम्पे रोगा॥
नधियिल मोरत बास उड़ायी । सत्य पुरूष कह जानि जनायी॥
पांच शब्द कटितब दल फेरा । पुरूष नाम ठीन्हो तिहि बेरा॥
|| छन एक बेटे पुरूष तरे भाई । सकल सभा उटिआरति खाई॥
| तव पुनि आरति दीन्द मडाई । तिनका तोरे जल अंचवाई ॥
| प्रथम खेपसरि लीन्हों पाना । पे ओर जीव संमाना ॥
हेड ध्यान अग समुद्ाईं । ध्यान नामते हंस बचाई ॥
|| रहनि गइनि सब दीन्ड दद़ाई । सुमिरत नाम दस घर जाई॥
हंस हांदश्च बोधि सत्र, गयर सुखसागर करी ॥
|| सतपुसष चरण सरोज परसेउ.विहसिके अंकमभरी ॥
१ किसी किसी प्रतिमे ादशके सथाने त्रयोदश लिखा है । ओर किक्ती
किसीम द्वादश त्रयोदश कुछभी न लिखकर “ दिनदश बांधि '' लिखा है
^ क्क
अगनुरागक्लागर् ( ७ )
ृक्चिकुदाट प्रसन्न बहुविधि ग्ल जीवनके धनी ॥
वधुहर्षितसकटशोमा, मिटी अतिञन्दर बनी ॥५२॥
सो--रोमाबरणि न जाय, धमनिहंसनकान्तिकर् ॥
रविषोडश शशिकाय, एक ईस उजियारजौं ॥५९॥
कदु दिन कीन्दो खोक निवासा । देखे आय ब्डरि निजदासा॥ ||
निशिदिन रों गुप्त जगमादीं । मोक कोड जिव चीन्हत नादी)
जो जीवन प्रबोध्यो जायी । तिनकरह दीन्दो लोक पठायी॥
सत्य् छोक दसन सुखवासा । सदा वसंत पुरूषके पासा ॥
सो देखे जो पहुचे जाई । जिन यदिस्वा सोकदा चिता
तरेता युगमें म॒नीद्र (कबीरसाहव) कं पृथ्वीपर आनको कथां
सतयुग गयो ञतायुग आवा । नाम अनींद जीवं सथ्ञ्चावा ॥
जब आयेड जीवन उपदेशा । धर्मराय हितभये अदेशा ॥
इन भवसागर मोर उजारा । जिव रे जाहि पुरूष दरबारा॥
कैतो छल बल करे उपाई । ज्ञानिडर तिहि नाहि ठराई ॥
पुरूष प्रताप ज्ञानिके पासा । ताते मोइन खमे फाँषा॥
इनते कारु कदु पे नाहीं । नाम प्रताप हंस घरजादीं ॥
्त्यनाम प्रताप धमनि, हसाघर निन के चे ॥ |
जीमिदेख केहि गज, हिय कंपकरधरनीरटे ॥
पर्ष नाम प्रताप केहरि, काठ गज सम जानिये ॥ ||.
नाम गहि सतलोक पहैचे,गिराममफुरमानिये॥९३॥ ||
°-सतगुस्राब्द समाय आज्ञा निरखन चरे ॥ |
रहै नाम लोटाय कमं भम् मन मति तजे ॥ ५६ २९॥ | ध
( ७& ) अनुरागसागर
ता युग॒जबही पयु धारा । मृत्युलोक कीन्हों पेसारा ॥
जीव अनेकन पूछा जाई । यमसे को तुरि ठेर ङडाई॥
कहे भमे वश जीव अयाना । हमरा करता पुरूष पुराना ॥
रिष्णु सदा हमरे रखवारा । यमते मोर छडावन हारा ॥
कोड महेशकी आश गवे । कोह चण्डी देवी गावें ॥
कंहा को जिव भयो रिगाना। तजेड खसमकरदैजारषिकाना॥
। कमे कोटरी सब दिन डारा । फंदा दे सत जीवन मरा ॥
। सत्य पुरूषको आयस पा । कालि मेरि छोर जिवराॐ॥
जोर करो तो वचन नसाई । सहज जीवन खे चिताई॥
जो भसे जिव सेवे तादी । अनचीन्हे यमके षुख जादी ॥
विचित्र भाटको कथा लंकामें
चहु दिश फिरि अयेडं गदृटंका। भार विचि मिस्योनिःशंका ॥
तिनि पुनि पेड मुक्ति संदेशा। तासों कट्या ज्ञान उपदेशा ॥
सुनि विचित्र तबहि अम भागा।अति अधीनहवै चरणन खागा॥
कंहे शरण सहि दज स्वामी । तुम सब पुरूषससुखधामी ॥
कीजे मोदि कतारथ आज् । मोरे जिवकर कीजे काजू ॥
कृद्यो ताहि आरति को छेखा। खेमसरिहि जस भाषे रेखा ॥
अने भाव सहित सब साजा। आरति कीन्दशब्दधुनिगाजा॥
तृण तौरा वीरा तिहि दीन्हा । ताके गदमे काह न चीन्हा ॥
सुमिरणध्यान तादिसो भाखा । पूरण डारि गोय नर्द राखा ॥
विचित्र वनिता गयी नृप दिग जाय शनीसो कही
इकयोगी सुन्दर है मदायुनिताघमहिमा काकदी॥
सेतकला अपार उत्तम, ओर नहिं अस देखे
पतिहमारेशरणगहितिहि, जन्मञ्चुम करिटेखेऊ 49
अनुरागक्चागरं ( ७4 )
वृत्तान्त
सो°-घुनत दोदर चाव, दरदाठेन अङछानैखः |
वषटी संगठे आव,कनक रतने पड धस्यो।९अ।
चरण टेकिके नायो शीशा। तब श्रनीन्द पुनि दीन्ह अशीशा॥
कहे मदोदरिञ्चुभ दिन मोरी } बिनती करो दोड कर जोरी ॥
हेषा तपसी कबहु न देखा । शवेन र सब श्वेति भेखा॥
जिवकारज मम हो जिहि भाती) सो मोडिकदो तजो कलजाती॥
हे समरथ मोदि करहु सनाथा । भव बडत गहि राखौ हाथा ॥
अब प्रतिप्रिय मोदि तुम रागे । तुम दयार सक भम भागे॥
मुनीद्रवचन मन्दोदरीप्रति
सुनहु वधू प्रिय रावण केरी । नाम भरताप कटे यपर बैरी ॥
ज्ञान दृष्टिसों परखहु भाई । खरा खोट तोहि दे चिन्हाई॥
पुरूष अमान अजरमनिसारा । सो तो तीन रोकते न्यारा ॥
तेहि सादिब कटं सुभिरे कोई । आवागमन रहित सो होई ॥
कनीरवचन धमेदासप्रति
सुनतदि शब्द् तासु भम भागा । गह्य शब्द श्ुचिमन अदरागा॥
है साहिब मोहि लाज शरणा । मेटह मोर जन्म अर् मरणा॥
दीन्दों ताहि पान परवाना । पुरूष डोर सौप्यों सदिदाना॥
गदगद भई पाय घर डोरी । मिर्िरंकदि जिमि दग्यकरोरी॥
रानी टेकेड चरण हमारा । ता पाके महलन पय॒ धारां ॥
विचित्र वधूका वृत्तान्त
विचित्र वधूरानी समुञ्ञावा । गदी शरण जीवन सुकतावा॥
विचिज्रनारिगदिशनिसिखापन।लीन्हेसिपानतजाभम आपन ॥
मनीद्रका रावणके पास जाना ४
सुनायो ॥ ||
तब में रावणपहँ चलि आयो । द्वारषारुसों वचन सुन
।
१
।
( ७६ ) अनुरागसागर
नि
विय | = ककः
मूनोद्रवचन द्वारपालभ्रति
तासो एक बात समुञ्चाईं । राजा कहं त॒म आव लिवाई।॥
रपाल वचन
तब पौरिया विनय यह खाई । महा प्रचड है रावण राई ॥
शिषबल इद्य शकर नहिं आने। काहूकेर वचन नहि माने ॥
महागवे अर् कोध अपारा । कों जाय मोहि पलमे मारा॥
मुनीद्रवचन द्वारपालघ्रति
मानहु वचन जाव यहि बारा । रोम वेकं नरि होय तुम्हारा ॥
सत्य वचन तुम हमरो मानो । रावण जाय तुरत तुम आनो॥ |
प्रतिहारवचन
| ततक्षण गा प्रतिहार जनायी । दरे कर जोरे ढ् रहाई ॥
सिद्ध एक तो दम परं आयी । ते कह राजि छाव बलाई ॥
रावणका क्रोध प्रतिहारप्रति
सुबु नृप क्रोध कीन्ह तेहि बारा।ते मतिरीन आदि प्रतिहारा ॥
यह मति ज्ञान दरों किन तोरा । जो तें मोहि बुलावन दौरा॥
दशं मोर शिवसुत नदिं पावत। मोक भिक्षुक कदा बुलावत्॥
हे प्रतिहार सुन मम बानी । सिद्धशूप कहो मोहि बखानी॥
वणेन है कोन कौन तेहि भेषा । मो सन दृष्टि जस येहि देखा॥
प्रतिहारवचन
अहो रावण तेहि शवेतूपा । श्वेति माला तिलक अनूपा ॥
| शशि समान है शूप विराजा । श्वेत वसन सब श्वेति साजा ॥
मन्दोदरीवचन
| कदे मदोदरी रावण राजा । एेसो रूप पुरूषको छाजा ॥
|| वेगे जाय गो तुम पाई । तो तुव राज अटल दोय जाई॥
| छोडह राजा मान बाई । चरणटेकि जो शीश नवाहं ॥ । |
अनुरागसागर ( ७७ )
कवीरवचन धमदास प्रतिं
रावण सुनत कोध अतिकीन्हा। जरत इताशन मनुघ॒त दीन्हा ॥
रावण चखा शच ठे हाथा । तुरत जाय तिहि कारों माथा॥
मारो ताहि सीस खसि प्रई । देखो भिश्ुक मोर का करड॥ |
जं मुनींद्र॒ तदं रावण राई । सत्तर वार अच्च कर खाई ॥ |
लीन्ह सुनींदर तृण कर ओखा । अति बर् रावण मारे चोरा॥ |
तृण ओट यहि कारणे, गवं धरी राय हो ॥
तेहि कारणे यह युक्ति कीन्दी,खाज रावण आयो ॥ |
कहे मन्दोदरि स॒नह शजा, गवं छोडो छाज दहो ॥ |
पाव टेकट पुरषे गहि, अटल होवे राज हो ॥५५॥
रावण वचन
सो °-तेवाकरों शिवजाय.जिनमोदिराज अट्छदियो
ताकरटेकां पाय पट, दंडवत क्चणितादहिकछो ॥ ^८॥
मुनोद्रवचन
सुन अस वचन भुनी पुकारी । तुम दो रावण गवे अहारी ॥
भेद हमारा तुम नि जाना ।वचन एक तोहिकों निशाना॥
रामचंद्र मारं तहि आयी ।मांस तुम्हार श्वान निं खायी॥
कबीरवचन धमदासप्रति
रावणको कीन्हो अपमाना । अवधनगर पुनि कीन्ह पयाना॥
मधकरकी कथा छन्द
रवणको अपमान करी, तव अवधनगरहि आयॐ॥ |
विप्र मधुकर मिकेड मारण, दरदातिनमन् १ विप्र मुकर मिलेड मार, दरशतिनमन पाय ॥ | `
१ इसके बदले पुराने ग्रन्थोमे एेसा लिखा है- ॐ ह ; ६
तीन जीव परमोधि लंका, तव अवध नगरहि आयक" = || `
ऋऋ
षी ॥ न च. 2
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(७८ ) अनुरागसागर
मिलेड मोक चरणगरि, त्बरीसनायअधीनता ॥
करिविनयबहुलेगयोमदिर'कीन्दबहविधिटीनता ५६
सो०-रंकविप्र थिर ज्ञान, बहुत प्रममोसो किया ॥
। शब्द् ज्ञान सहिदान.धासरितविर्सतवदन॥९९॥
देख्यो ताहि बहुत क्वलीन्हा । तासों कल्यो ज्ञानको चीन्हा ॥
पुरूष संदेश केउ तिहि पासा।सुनतव चन जिय भयउ इलासा॥
। जिमि अङ्कुर तपे बिन वारी । पूणं उदक जो मिरे खरारी॥
| अम्बुमिरुत अंङ्कर सुख माना । जेसेहि मधुकर शब्दहि जाना ॥
मधुकरवचन
रूप भाव खनेदि हरता । मोक लोक दिलावड् संा॥ |
मुनीद्रवचन
चल तोहि ठे लोक दिखावों । रोकदिखाय बहुरिङे आबो ॥
कृबो रवचन धमदास प्रति
राख्यो देह हंस ले धाये । अमर रोके तिहि पहंचाये॥
शोभा लोकं देख हरषाना । तव मधुकरको मन पतियाना॥
मधुक्रर वचन
परयोचरण मधुकर अङखाई। हे सादिब अब तषा बुञ्ञाईं ॥
अब मोटि रह चलो जगमाहीं। ओर जीव उपदेशो तादीं ॥
ओर जीव गृदमाटिं जो आई। तिनकर हम उपदेशब जाई ॥
कबीर वचन धमेदासप्रति
सहि ठे आये संसारा । पठि देहि जाग्यो द्विजवारा ॥
मधुकर घर षोडशजिव रदई । पुरूष संदेश सबनसों कहं ॥
गह चरण समरथके जाई । यदी खो जमसों सुक्ताई ॥
॥ मधुकर वचन सबन मिलि माना मुक्ति जान लीन्ो परवाना॥
2 णर
अब्ुरागसागर (७९ )
= मधुकर विनती सुन लीजे। खोकनिवास सबनक दीजै ॥ ।
यह यम देश बहत दुख होई । जीव अम्बु बद्चे नहि कोई ॥
मोहि सब वग सुस्वामी । कृषा करहु प्रथु अन्तर्यामी ॥
ठंद-यहि देशा है यममहापरल.जीवस॒कठसताषृहै।
कष्ठ नाना माति व्यपे, मरण जीवनं छावर ॥
काम कोध कटोर तृष्णा, छोम माया अतिबही
देवयुनिगण सहि व्यपिकोट जीवन दङपटी ७
सो०-तिह पुर्यमको देश, जीवन् कहसुखछ्नकहि॥ |
मरह काट कटरा, ल चल निन देशकर॥६०॥ |
बहुत अधीन ताहि दम जाना। करचौका तब दीन्ह रवाना ॥
घ्ाडश जिव प्रवाना पाये । तिन कर्हङे खतलरोकं षठाये ॥
यमके दूत देख सब्र ठाड़े । चितवहिं तेजन उदं अखाड॥
पंच जाय पुरूष द्रबारा । अशन इसन हषं अपारा ॥
परसे चरण पुर्षके दसा । जन्म मरणको मेरेउ संसा ॥
सकल ईष पी ङशखाई । कहुदविज कशल भये अब आई॥
धमेदासर यह अचरज बानी । गुप्त प्रगट चीन्हे सो ज्ञानी ॥
हसन अगर चीर पदिराये । देह ईिरम्मर रुचि सुखपाये॥ |
षोडश भावु दंस उजियारा । अमृत भोजन करे अहारा ॥
अगर वासना तृप्त शरीरा । पुरूष द्रश गदगद मतिधीरा ॥
यहि विधि उतायुगको भावा । हंस भुक्त भये नाम प्रभावा ॥
हि ापस्युगमे करुणामय ( कबीर साहब ) के पुथ्वीपर् आनेकी कथा
रेता गत द्वाप्र युग आवा । तब पुनि भयो काट्प्रभावा॥ |
द्वापर युग प्रवेश भा जवी । पुरुष अवाज कीन्ह पुनितबही॥ ॥ _
९८० ) अनुरागसाग्र
पूरुषवचन
ज्ञानी वेगि जाहु संसारा । यमसों जीवन करहु उबारा ॥
कारु देत जीवन कहँ आसा । काटो जाय तिनरिको फांसा॥
कालि मेटि जीव ठे आबो । बार बारका जगहि सिधावो ॥
। जे नि।बतचम
| तब हम कहा पुरूषसों बानी । आज्ञा करहुं शब्द् परवानी ॥
पूरुषवचन |
| करा पुरूष सुनु योग संतायन। शब्द् चिताय जीव शुक्तायन॥
जो अब कार कीन्ह अन्याई। हो सत तुम मम वचन नसाई॥
अब तो परे जीव यह फन्दा । जुगुतदि आबु परम आनंदा॥
कारु चरित परगर है जाई । तब सब जीव चरण ग्र आई
ज्ञान अज्ञान चीन्ह नरि जाई । देखह भाव जिवनको भाई ॥
सहज भाव जग प्रगटह जाई । जाय प्रगट ह जिवन चिताई॥
तोहि गहे सो जिव सहि पेहे । तव॒ प्रतीत बिररे मय खेहै ॥
जाई करहु जीव कंडिहारी । तौ पर है परताप हमारी ॥
हमसो तुमि अन्तर नादीं । जिमि तरंगजलमाईि समाद)
हमहि तुमह जो दुहकर जाना । ता घट यम सब करिह थाना॥
जाहु बेगि वा तुम संसारा । जीवन खेड उतारहु पारा ॥
कवीरवचन धमदा सपति
चले ज्ञानी तब माथ् नवायी । पुरुष आज्ञा जगमा सिधाई॥
पुरुष अवाज चल्यो संसारा । चरण रेकु मम घम ल्वारा॥
तहे धरमराय अधीन ह बह मति विनती कीन्हेठ
किहिकारणे अब नगसिधारेह.माहि सोमति दीन्देयु
अस करहननिसवजग चिताबह इदे विनती मै करो
तुमबघु जठे छोट में कर जोर त॒म पायन परौ^<
अनुरागस्ांगर् ( ८३ )
्ानीवचन |
सो --कद्योधमयुन बात.विरट जीवमोहि चीन |
दाब्दनको पतियाततुम अघ के जीवन ठे ॥६१॥ |
कवीरवचन धमेदासप्रति
अस कह मृत्युखोक पशु धारा। पुनि परमारथ शब्द पुकारा॥
छोड़यो खोक टोककी काया) नरकी देह धारि तव आया ॥
मृत्युरोकमे हम प्ण धारा । जीवनसो सत शब्द पुकारा ॥ |
कङूणामय तब नाम धरायां ! द्ापर य॒ग जब महिमें आया |
कोई न बञ्चे हला मेरी) बांधे कार विषमभरम वैरी ॥
रानी इन्द्रमतोको कथ]
गद़गिरिनारतवहि चि आये। च॑दूविजयं दृष तहां रहाय ॥
हि वरप गरहरह नारि सयानी। प्रजे साश्च यहातम जानी ॥
| चदी अटारी वाट निहारे । संत दरश करं कायागारे ॥
| रानी प्रीति बहत हम जाना । तेहि मारग कँ कीन्ह पयाना॥
मोदि पहं हृष्टि परी जब रानी । वृषी रसना कह यह बानी ॥
ट्न्द्रमता वचनत
भारग बेगि जाह तुम धाईं । देखह साधु आयु गहि षाई॥
दास वचन
वृषी आय चरण कषटानी । तृप वनितामुख भास सयानी ॥
कदी वृषली रानि अस भाषा । तुम दशन करं अभिटाषा ॥
दे दरश मोहि दीनदयाला । तुम्बरे द्रश मिटे सब शाखा॥
करुणामयं वचन दासोप्रति
तब ज्ञानी कहि वचन सुनवं । राज रावघर इम नहिं जावे ॥
राज काज है मान बड़ाई । हम साधू नरप गृह नहि जाई॥ ||
१ दासी लौडी (
` = "न" =" नकर कव्य क क्रक.
५ ८२) अतुरागसागर
=
दासोवचनं रानीप्रति
चर बृषली रानी परं आयी । दे कर जोरे विनय सुनायी ॥
साश्ु न आवे मोर बुलाई । राज राव घर हम नरि जाई॥
| यह सुन इन्द्रमती उटि धा ध कीन्ह देडवत रेके पाईं ॥
इन्द्रम तृचन
हे साहिब मोप्र करू दाया । मोरे गृह अब धरिये पाया ॥
| केवोरवचन धमेदासप्रति ¢ ` <
पीति देख हम भवन सिधारे । राजा घर तबहीं पग धारे ॥
कहे रानी चटु मन्द्र मोरे । भयो सुखी दशन ल्यि तोरे॥
परीति देखितदहि भवन सिधारे । दीन्ह सिंहासन चरण खटाये॥
दीन्ह सिंहासन चरण पखारी । चरणपरछारखन अगोछाधारी॥
चरण धोय पुनि राखे सिरानी। पटपद् पोंछ जन्मञ्भ जानी॥
इन्द्रमती वचन
पुनि प्रसादको आज्ञा मांगी । ३ रयु मोक कर् सुभागी॥
जूठन परे मोरे गृदमादीं । सीताप्रसाद् ठै हम्ह खादीं ॥
करुणामयव चन 4
सुलु रानी मोदि क्षुधा न कोई । पचतत्व॒ पावे जेहि सोई ॥
अमृत नाम अहार दै मोरा । सुनु रानी यह भाष्यो थोरा ॥
देह हमारि तत्व गुण न्यारी । तत्वप्रकृतिदि कालरचिवारी॥
असी पच किह कालसमीरा । पच तत्वकी देह खमीरा ॥
ताहम आदि पवन इकं आदीं । जीव सो्ग बोखियो तादी ॥
यह जिव अदै पुरुषको अशा । रोकसि काल ताहि दे संशा ॥
नाना फन्द् रचि जीव गरासि । देह लोभ तब जीवदहि फसि॥
जिवतारन हम यदि जग आये । जो जिव चीन्हेताि सुक्ताये॥
|| षमेराय अस॒ बाजी कीन्दा । धोक अनेक जीव कर दीन्दा॥
[| नीर पवनकृत्िम किं काला । विनशिजाय बहुकरे बिहाला॥
य
अवरागसागर (८2).
~------~----------
{ र यरे
तन हमार यदि साजते न्यारा।मम तन नहि तिरज्यो करतारा॥
शब्द अमान देद है मोरा । परखि गदड भाष्य कड थोरा॥
कबीरव चन धर्मदास प्रति
सुनी वचन अचल भो मारी । तब रानी अस वचन उचारी॥
रानो इन्द्रमती वचन
हे प्रथु अचरज यद होई । अस खभाव दूजा नहिं को$॥
ठ्
इन्द्रमती आधीन ह कै, कृपा कर दयानिधी ॥ ||
एकं एक विोय बरणहु, मोहिते सकट्ह विधी ॥
विष्णु सम दना नहिं कोई सद्र चतुरानन् यनि ॥,
पंचतत्व खमीर तनहिःतत्तके वड गणयणी ॥५९॥|
सो °-तम प्रयु गम अपार, बसन मते किंतमये ॥
भेटह तृषा हमार अपनो,परिचिय मोहि ईइ॥६२॥ |
हे भरथु अस अचरज जरि होई। अस सभाव दूजा नहिं कोई॥
कौन आह कहर्वति आये । तन अर्चित प्रु करवा पाये॥
कौन नाम तुम्हरो यर् देवा । यह सब बरणि कंडो मोहिभेवा॥
| इम का जानदि भेद तुम्हारा । ताते प्छ यड व्यवहारा ॥
करुणामय वचन |
पा सुनो ष व । २८ समुञ्चाय कं व |
7 हमार न्यार तिह पुरते ।अदिषुर नरपुर अरु सुरपुरते॥
तहां नहीं यमकेर प्रवेशा । आदि पुरूषको जहवां देशा॥
सत्य रोक तेहि देश सुदेला । सत्य नाम गहि कीजे मेखा॥ | `
अद्भुत ज्योति पुरुषकी काया। हंसन शोभा अधिक सखदाया॥ |
आदि पुरूष शोभा अधिकारा। परतर काहि देहं संसारा ॥ |
| दवीपकरी शोभा उजियारी । पटतर दें काहि संसारी ॥
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( ८& ) अनुशागसागरं
यहि तीनो पुर अस नर कोई । जाकर तटपर दीजे सों ॥
। चन्दर सूर याहि देश मंञ्चारा ।इन सम ओर नहीं उजियारा॥
। सत्य लोककी एेसी बाता कोटिक शशि इकरोम ख्जाता॥
एकं रोमकी शोभा एसी । ओर वद्नकी वरणो कैसी ॥
ठेसा पुरूष कान्ति उजियारा । दंसन शोभा कों बिचारा ॥
| एकं हस जस षोडश भाना । अभ्र वासना दंस अपाना ॥
। तहं कबहूं यामिनि नटि होर । सदा अजोर पुष तन सोई ॥
कंहा कहो कद कहत न अवे। धन्य भाग जे ईस सधात ॥
ताहि देशते इम चकि आये । कर्णामयं निज नाम धराये
सतयुग अता द्वापर नामा । तोसन वचन कों सख धामा॥
युगन युगनमे म चलि आवो । जो चेते तेहि लोकं पटादौ ॥
इन्द्रमती वचनं
हे प्रु ओरो युग तुम आये । कौन नाम उन युगन धराये ॥
कृर्णामय वचन
सतयुगमे सतनाम काये । उता नाम सुनी धराये ॥
युगन युगन इम नाम धरावा । जो चीन्हा तिदिलोक वठावा॥
कवबौरवचन धर्मदास प्रति
धमदास तेदि कट्यो बुञ्चाई । सतयुग उता कथा सुनाई ॥
सो सुनि अधिक चाह तिन कीन्हा।ओर बातसु पून लीन्हा ॥
उत्पति प्रख्य ओर बहु भा । यम चरि सब बरनि सुनाञ॥
|| जेदि विधि षोडश सुत प्रगटाना। सो सब भाषा सुनायो ज्ञाना॥
|| कूर्मं॑विदार देवी उत्पानी । सो सब ताहि कडा सदिदानी॥
ग्रास अष्टगी ओर निकासा जेहि विधि भये मरी आकासा॥
|| सिथुमथन जय सुत उत्पानी। सबदि कंदेड पाछिल सदिदानी॥
अवुरागस्ागर ( ८& )
जेहिविधिजीवनजमठगिराखा। सो सब तादिञनायड भाषा ॥
सुनत ज्ञान पाछिलन्नम भागा । हरषि सो चरण गहे अयुरामा॥
इन्द्रमता वचन
जोरि पाणि दोटी बिर्खायी । रधु यमते टे बड़ाई ॥
राज पाट सव तम् पर बार ।धन सम्पति य॒ह सबतजि डारो॥
| देहु शरण युर दीनदयाला । बदिशछीर अहि करड निहाखा॥
कर्णामय कचन
| इन्द्रमती खन वचन इमारा । छोर नि्वय वेदि तुम्हारा ॥
| चीन्हेड मो परतीत टटाना । अब देहं तोहि नाम परवाना॥
| करह आरती लेह परवाना । भागे यमं तव इर पयाना ॥
| चीन्हों मोहि करो परवाती । र पान चां भौ जर जाती॥
| आनहु जो कड आरती साजा। राजपाट कर मोहिं न काजा।॥
| थन सम्पति कु मोहिन भाव्ा।जीव चितावन यहिं जग आब्#
| धन सम्पति तुम यवो लायी । करहु सन्त सम्मान बनायी ॥ |
सकर जीव है साहिब केरा । मोह वश जिय परं अधेरा ॥॥
सब घट पुरूष अशक्यो बासा।यही प्रगट कहि गुप्त निवासा ॥
छन्द
सव जीव् है सतपुहषका वरा.सोह भम विगानहौ |
यमराज यह् चस खब,मजाल जग परधानही॥ ।
निव कालवश ररत मोसे भमव मोहि चीन्दईं ॥।
तजिदधारीन्होनेदविषसे.खोडिष्ठत अचे मही&०॥ |
सो °-कोददकविरख् जीवपरसि शब्द मोहि चीन्हई॥
धाय मिरे निज पीव, तजे जारको आसरो ॥६३॥ |
इन्द्रमती वचन ॥
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दमती न नन ममान गोलीम ञान ण वाी॥
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( ८& ) अबुरागसागर
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मोरि अधमको तुम सुख दीन्हा।तुव प्रसाद आगमगम चीन्हा॥ |
हे प्रथु चीन्ह तोहि अब पाहू । निश्वय सत्यपुरूष तुम आहू॥
। सत्य पुरूष जिन रोक सवारा। करे कृपा सो मोहि उदारा ॥
। आपन दिरदे असहम जाना । तुमते अधिक ओर नटि आना॥
। अब भाषह् प्रथु आरती भाञ। जो चादिये सो मोहि बताउ॥
कनी रवतन धमेदास प्रति
। हे धमनि सो ताहि सुनावा । जस खेमसरिसो मावेड भावा॥
चौका कर खेवह परवाना । पीछे कहों अपन सदहिदाना ॥
आने उसकठसाज तब रानी । चौका बेरि शब्दध्वनि नी॥
आरति कर दीन्हा परवाना ।पुरूष ध्यान सुभिरण सदिदाना+
उठि रानी तब माथ नवायी । ठे आज्ञा परवानी पायी ॥ |
पुनि रानी राजहि समुक्चावा । हे प्रथु बहुरि न रसो दावा॥
गरो शरण जो कारज चाहो । इतना वचन मोर निरवाहो ॥
राजा चन्द्र विजय वचन
तुम रानी अरधंगी सोई । हम तुम भक्त होय नरि दोई॥
तोरि भक्ति कर देखो भाज । किंदिषिधि मोदि ले सुक्ताउ॥
देखो तोरि भक्ति परतापा । पर्हैचे खोक भिरे संतापा ॥
कबीरवचन धममदासप्रति
रानी बहुरि मोदिपं आयी । हम तिहिकार् चरि ख्खाई॥
रानी आई दमरं पासा । तासों कियो वचन परकासा॥ ।
कर्णामये वचन
सुनु रानी एक वचन हमारा । काल कला करे छल धारा॥
काठ व्यार है तोप आयी । उसे तोहि सो दे बतायी ॥ |
ताक शिष्य कीन्ह भँ जानी। डसे काल तक्षक ह्वे आनी ॥ |
तब इमतो क मंज लायी । काल गर तब दूर परायी ॥ |
न गें
क चानि =
अन्ुरागागर ( ८७ )
दीन्डां शब्दं ॒विरहुली तादीं । काठ गरक जेहि भ्यापे | ॥
पुनि यम दूसर छल तोहि ठनी। सो चरित मँ कों बखानी ॥
छलकर यम आये तुम पासा । सौ तहि भद कहां परगासा ॥
हेसवणं वह दूय बनायी । हमसम ज्ञान तोहि समञ्चायी।॥
तुमसन कहे चीन्ह मोदहिरानी । मरदन कार नाम ममज्ञानी॥
यहि विधि काटढगे तोहि आयी।काल रेख सब देड बतायी ॥
मस्तक छोर कालकर जात्रू । चक्षु शंपनको रंग बखानर ॥
काल क्ष मे तोहि बतायी । ओर अग सब सेत रहायी॥
इन्द्रमता वेचन
रानी चरण गहे तब धायी । है प्रथु मोहि लोक ठे जायी।॥
यह तो देश आही यमकेरा । ठे चट खोक भिर ्कञ्चोरा॥
यदं तो देश कालकर थानी । हे प्रथु ठे चड् देश अमानी॥
कर्णामय वचनं
तब रानीसों कहे अुञ्ाईं । वचन हमार खनो चितलई।
अब तोर तिनका यमसों टूटा । परिचय भयो सकलभमद्टा॥
निशिदिन समरो नाम इमारा। कहा करे यह् धर्मं क्बारा ॥
जब रुगि उका पूरे नाहं । तब गि रहो नाम कौ खाई।
छन्द
समर नामहमार निरिदिन.काटतो करट जब छले
टीका पुरे नादिं नौर तलो जीव नाहीं चले ॥
काट कला प्रचंड देखो, गजशूप धर जग आवह।॥
दैषि केदरि गजतरसमाने.धीर बहरि न ाव३।६१॥
सो°-गनरूपी दै का, केहरि पर्ष प्रताप हे ॥ |
रोप रहो ठम दाठ.काठ खड व्याप नाही॥९०॥ || _
ट्ट ) अवुरागसागगर
इन्द्रमती वचन |
हे सादिब मे त॒म कदं जानी । वचन तुम्हार रीन्ह सिर मानी॥ |
| विनती एकं करो तुहि स्वामी । त॒म तो सादिब अतरयामी ॥
काल व्याल इए माहि सताई। अर् पुनि हसशूप भरमायी॥
तब पुनि सादिब मोपहं आञ। दंस हमार लोको ठे जाञ ॥
कर् णापर्य तरचन
केह ज्ञानी सुन रानी बाता । तुमसों एक कं विख्याता
काल कला धरती पहं आयी । नाना रंग चरि बनायी ॥
तोरो ताहि मान अपमाना । मोहि देखि तब कारु प्राना ॥
तेहि पीठे हम तुम लग अवं दंस हमार रोक पच ॥
शब्द् तोहि हम दीन्ह टखाई। निशिदिन सुषरी चित्त ख्गायी॥
कबीर वचन धममंदासप्रति |
इतना कट् हम गुप्त छिपाया । तक्षक कूप काठ हो आया ॥ |
चिच्रसार पर तक्षकं आया । रानी केर तहं परग रहाया ॥
जबेही रात बीत गईं आधी । रानी उठि चली सेवा साधी ॥
रानी तब कं सीस नवायी । चली तवे महलन करं आयी
सेज आय रानी पोदायी । डसेडव्याल मस्तक मह जायी॥
इन्द्रमती वचन
इन्द्रमती अस वचन सुनायी। तक्षक उसेड मोहि कँ आयी॥
सुन राजा व्याडल ह धावा। यणी गारूणी बेगि बुखावा ॥
राय कहे मम प्राणपियारी । ठे चिताय जो अबकी बारी॥ |
तक्षकं गरल दूर हो आयी । देहं परगना तोहि दिवायी ॥ |
इन्द्रमती वचन छन्द
शब्द् विरही जपेड रानी, सुरति साहब राखिहो॥
वैद गारणि दूर भाग्या, द्रर नरपति नादिं हो ॥
अनुरागद्लागर ( ८९ )
मन्त्र मोहि छाय सतह, गर मोहि न छागः ॥
हात घु्प्रकारा जेदिध्ण, अन्ध घौर नशावह।९६२॥
सोरडा-षेवे ग हमार, बार बार विनती कथँ ॥
खाटभयी उरिनारराजा छखि हरषित भयो ॥६९॥
परमदतवचन
चल्यो दूत तव् उहवां जायी । जह बह्मा विष्णु महेश रदायी॥
कहे दूत विषतेज न खागा । नाम प्रतापवध छो मागा ॥
दिष्णवचनं
कहे विष्णु सुन हो यम दूता । सेतहि अंग करो तम परता ॥
छक करि जाह छिवाहय रानी । वचन हमार लेह त॒म मानी ॥ ।
न्ह दूत सेत सब अगा । जख्ड नारि पह बहत उयेगा ॥
स मदेतवचन
रानीसों अस वचन प्रकाशा । तुम कस रानी मई उदासा |
जानि बूञ्चि कस भई अचीन्हा। दीक्षा मन्त तोहि हम दीन्डा॥
ज्ञानी नाम दमारो रानी । मरदो कारु करौ पिसमानी॥
तक्षक काठ होय तोहि खायी।तब हमराख ीन्ह तोहि आयी
छोड परग गहो तुम पाई । तजह आपनी मान बड़ाई ॥
अब हम लेन तोरि कर आवा। प्रथुके दर्शन तोहि करावा ॥
इन्द्रमतः वचन
इन्द्रमती तब चीन्हेड रेखा।असकड साहिब कडेउ विशेखा॥
तीनों रेख देख चक मादी । जदं सेत अर् राता आदीं ॥ |
मस्तक ओ देख पुनि ताको। भयो प्रतीत वचनको साको॥ ||
जाह दूत तुम अपने देशा । अब हम चीन्हेउ तुम्हारो भेसा॥
काग प जो बहुत बनाई । देस रूप शोभा किमि पाई॥ ||
तस हम तोरा शूप निदारा । है समथं बड़ गरू हमारा ॥ |
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(९० ) अतरागसागर
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| यमदूतवचन
यह सुन दूत रोष बड़ कीन्दा। इन्द्रमतीसो बोरे लीन्हा ॥
बार तो कहं समुञ्चावा । नाहिन समरुञ्चत मती हिरावा॥
बोला वचन निकट चलि आवा। इन्द्रमती पर थाप चलावा ॥
| थाप चलाय सुञ्चखपर मारा । रानी खसि परि भूमि मञ्चारा॥
इ्न्द्रमता वचन
इन्द्रमती तब सुमिरण खाई । हे गु ज्ञानी रोह साई ॥
| हमकटं कारु बहुत विधिम्रासा। तुमसादिब कायो यमफांसा॥
कबोरवचन धमदासप्रति
सुनत एकार सुनि रहो न जायी । सुनह् धर्मनि यह मोरस्भायी॥
रानी जवही कीन्ह पुकारा । तबछिन चै तहांहि पशधारा॥
देखत रानी भयी इलासा । मनते भाग्यो कालको जासा।
आवत इमरे काल पराया । भयी श्चुद्ध रानीकी काया ॥
दुन्द्रमतीवचन
पुनि क इन्दरमती कर जोरी । ह प्रथु सुनु विनती एक मोरी॥
चीन्टि परी मोहियमकी छाहीं। अव यदि देश रहब हम नादी ॥
दे साहिब छे चटु निज देशा । तदवां ह बहु कार कंठेशा ॥
इहि विधि कदी भटी उदासा । अबहीं टे चु पुरूषके पासा॥
कृ न् धमदासप्रि त
प्रथमरि रानी कीन्दो संगा । मेटयो काल कठिन प्रसंगा॥
तबही टीका प्रर भराया । ठे रानी सतरोक सिधाया॥
रे पर्ुचायो मान सरोवर । जवां कामिनि करि कतोदर॥
अमी सरोवर अमी चखायो । सागर कीर पांव परायो ॥ |
तेहि आगे सुरतिको सागर । पहँची रानी भई उजागर ॥ ¦
लोकं द्वार ठाद तब कीनी । देखत रानी अति सुख भीनी ॥ |
देस धाय अकम लीन्हा । गावर्हिमंगर आरति कीन्हा ॥
क्क रिं
अनुरागसागर (९१ )
सकल हस कीना सनमाना । धन्य हस सतश् । |
मर तुम छोड़ड कालका फंदा । तुम्हारो कष मिट्यो दशखद्रदा॥
चलो हस त॒म हमारे साथा । पुर्ष दरश करिनावह माथा॥
इन्द्रमती आवह संग मोरे पर्प दरश होवें अव तोरे ॥
इन्द्रमती अक् हस भिखाहीं । करहि कतरह मगल गाहीं ॥ |
चलत हेस सव अस्तति रखें! अब तो दरश युर्षको पव |
तब हम पुरूष सन विनती लावा!देह् दरस अब ईस दिग आवा॥ |
देह दरश तिर दीनदयाल ! बदीश्ोर ख होड कपाला ॥
बिकस्यो पुष उटी अस बानी) सुनहु योग संतायन ज्ञानी ॥
। दसन कहं अव आव लिवाई । दर्श कराई लेड तुम आई ॥
ज्ञानीखारउ हंस ठग तव, हंस सकला ठे भये ॥
| पुरुषदरेन पाय हंसा, शूप शोभा तब भ्ये ॥
करि दंडवत दस सबही, पुरुष पहं चित छाइया १
अमीफठ तव चार दीन्दीं'हंस सब मिह पाइया॥६२॥
सो--जस रविके परकार, दरश पायपकज खछे ॥
तेसे ईप विलास, जन्म जन्म इखमिटि गयो॥६६॥
इन्द्रमतीको लोकम पहुंच पुरुष ओर करुणामयको एकही
रूपमे देखकर चकित होना
पुरूष कांति जब देखेउ रानी । अद्भत अमी खधाकी खानी ॥
गदगद होय चरण लपटानी । ईस सुबुद्धि सुजन गणज्ञानी॥
दीनो शीश हाथ जिव मूला । रविप्रकाश जिमि पकज एूखा॥
इन्द्रमती वचन
केह रानी त॒म धनिकरूणामय।जिमित्रममेटि आनियहिगमय | | कं रानी तम धनिकरणामय।निमिनमभि आपियन्मच ॥
च्च
पायो
क
(९२) अखुरागलागर्
ऋः = अक = क
= 3 कि भि कि क = ` ज = का
सा य कज
पुरुष वचन
कडा पुरूष रानी समञ्चायी । करुणामय कर आतु इराई॥
| कबीरषचनं 438
| नारि धाय आईं मो पासा । मदिमा देखि चकित भये दासा॥
| इन्द्रमतीोवचन
कृ रानी यह अचरज आदी । भिन्न भाव कड देखो नादीं ॥
जे कोड कला पुरूष कहं देखा । केरूणामय तन एक विशेखा॥
। घाय चरण गह रस सुजाना । हे प्रभु तब चरि सब जाना॥
। तुम् सतपुरूष दास कदलाये । यह शोभा कस कहां छिपाये॥
मोरे चित यद निश्चय आह । तुमदि पुरूष द्जा निं भाई
। सो मै आय देख यिं गईं । धन समरथ युहि छया जगाई॥
| इन्द्रमती स्तुति करती है । छन्द
त॒म धन्य हो दयानिधान सुजान नाम अ्चितयं ॥
अकथ अविचरुअमरअस्थितञअनघअजषुआदिये॥
असंशय निःकाम बाम अनाम अटल अखंडितं ॥
आदि सबके तुमदि प्रयु हो सवे भतसमीपतं६४॥
सो-मोपर भये दया लियह जगाई जानि निज
काटेह यमको जाट, दीन्हो सुखसागरकरी ॥५०॥
कबीरवचन धमंदासप्रति
संपुट कमर् गो तेहि बारा । चरे दंस निज दीप ्षारा॥
करुणामय ( ज्ञानी 8 वचन इन्द्रमतीप्रति
|| ज्ञानी ञ्च रानी _ बाता । को ठेस तुम्हरो विख्याता ॥
|| अब दुख द्वद तोर मिरि गयऊ। षोडश भाव रूप पुनि भयञउ॥
[| एेसे पुरुष दया तोहि कीन्हा । संशय सोग मरि तुव दीन्दा॥
अनुरागस्रागर ( ९३ )
इन्द्र मतीका अपने पति राजा चन्द्रविजयको लोकम लानकं लिये
विनती करना इन्द्रमती वचन
नदरमती कह दोऽ कर जोरी। े साह इक विनती भोरी |
त॒म्दरे चरण भागते पायी । पुरूष दर्शं कीन्हा हम आयी॥ |
अग हमार शूप अति सोदरी । इक संशय व्यापे चित मोदही॥। |
मो कहं मयो मोह अधिकारा । राजापति आहि हमारा ॥ |
आनहु ताहि हंसपति राई ! राजा मोर कालञ्चुख जाई ॥ ।
कर्णा वचन्
के ज्ञानी सुन देस सुजाना । राजा नहिं वाये प्रवाना ॥।
तुम तो हंसरूप अब पाया } कौनकाज कं राव बलाया
राजा भाव भक्ति नहि पाया । सत्वहीन भव भटका खाया॥
इन्द्र मती वचनं
हे प्रथु हम जग रमाह रदेऊ।भक्तितुम्दारि बहुत विधि करेड॥
राजा भक्ति हमारी जाना । हम कं बरजेउ नहीं खजाना ॥
कठिन भाव संसार सुभा । पुरूष छोड़ कड नारि रहाॐः॥
सब संसार देहि तिरि गारी । सुनतहि पुरूष डार तेहि मारी॥
राज काज अतिमान बड़ाई । पाखंड कोध ओर चत॒राई ॥
साधु संतकी सेवा करऊ । राजकेर आस ना उर ॥
सेवा ५ करो संतकी जबहीं । राजा सुनि हरषित हो तबदीं ॥ |
जो मोहि तजि न देता राजा । तो प्रथु मोर होत किमि काजा।॥
रयकी हम हती प्यारी, मोहि कबं न बरजेऊ ॥ |
साधु सेवा कीन्द् नित हम, शब्द मारग चीन्हड॥ |
चरण मो कं मोहिं बरनत रायजो॥
नामपाननमिरत मोक केते स॒धरत कानजो॥९९॥ | ५ 3
( ९७ ) अदरागसागर
~ ~ ~ ` ~~ ` ~ ` = ~~ ~ ^ 9 य कक =-= ममः
सो--धन्य राय सज्ञान, आनह् ताहि हंस ॥
| वम रस्दयानिधान, भूपति बंद छडाइये ॥६८॥
कबोरवचन धमदासपरति
| सुन ज्ञानी बहते विर्ैसाये । चङे तुरंग बार न्ह खाये ॥
| बेगि चलि आया। तृपति केरि अवधी नियराया॥
धेर्यो ताहि खेन यमराईं । राजि देत कष्ट बहुताई ॥
राजा परे गाढ् मह आया । सतशुरू कहे तहां गहराया ॥
घोडे नृप नाहीं यमराई । एेसे भक्ति चरकं रै भाई ॥
भक्ति चूक कर एेसे ख्याला । अवधि पर यम करे विहाला॥
चन्द्रविजयका करगदि लीन्हा तत्क्षण रोक पयाना दीन्हा ॥
रानी देखि वपति दिग आईं । राजा केर गद्यो तब पाई ॥
इन्द्रमती वचन
इन्द्रमती के सुनहु भथुवारा । मोहि चीन्हो मरे नारितम्हारा॥
राजा चन्द्रविजयं वचन |
राय कहं सुनु हस सुजाना । वरण तोर षोडश शशिमाना॥
अग अग तोरे चमकारी । कैसे कों तोहि भैं नारी ॥
तुम तो भक्त कीन्ह भल नारी। हमहू कहं तुम टीन्ह उवारी॥
धन्य गुर् अस॒ भक्ति दद़ाई । तोरि भक्ति हम निज घर पाई॥।
कोटिन जन्म कीन्ह हम धमां । तब पाई अस नारि सुकर्मा ॥
हम तो राजकाज मनलाया । सतशुर् भक्ति चीन् नहि पाया॥
जो तुम मोरि होत ना नारी । तो हम जात नरककी खानी ॥
तुव गुण मोदि वरणि ना जाई । धनु धन्य नारि हम पाईं ॥
जस हम तो कहं पायउ नारी । तैसे मिरे सकट संसारी ॥
कबीरवचन धममंदासप्रति
सुनत वचन ज्ञानी वहसायी। चन्द्रविजय कहं वचन सुनाय॥ | सुनायी॥
अनुरागसागर ( ९९ )
कर्णा मत्रं वर्च॑न
सुनो राय तुम वृषति सजाना । जो जिव शब्द हमारा भाना॥
ते पुनि आय पुष द्रवारा ! बहृरि न देखे वह संसारा ॥
हेस शूप होवे नर नारी। जो निजमाने वात हमारी ॥
पुरूष दशं नरपति चितलायी । हस हप शोभा अतिषायी ॥
षोडश भावु हप त्रप पावा ¦ जाञ्मर्थकम टार बनावा ॥
धमदासर विनती करे, युग छेख जीवं अनायङ ॥
धन्य नाम तुम्हारा साहिब, राय छोक सचमायङ ॥
तत्वभाव न गहे राजा, भक्ति ठव निजलनिया॥
नारिमक्ति प्रतापते, यमराजसे चप आनिया ॥६९॥।
सो -धन्यनारिकोज्ञान.टीन्ह बुछायस्वच्पति कहे॥ |
आवागमन नरान, जगमे बहुरि न आइया ॥६९॥
ता पीछे पुनि का प्रयु कीना । सोई कथा कहो परबीना ॥
केसे पुनि आये भवसागर । सो किये हसन पतिनागर॥
कबीरवचन ध्मदासप्रति
धमनि पुनि आये जगमाहीं । रानी पति ॐ गये तहांहीं ॥ |
राख्यो ताहि लोकं मञ्चारा । तत छिन पुनि आयउ संसारा॥
काशी नगर तहां चङि आये । नाम सुदरशन सखुपच जगाये॥
सुपच सुदशंनको कथा
नाम॒ सखदर्शन सुपच रहाई । ता कहे हम सतशब्द खटाई॥
शब्द विवेकी संत सुदेला । चीन्श मोहि शब्दके मेला ॥
निश्वय वचन मान तिन्ह मोरा।रखि परतीत वंदि तिहि शोरा॥ |
नाम पान दियो सक्ति पदेशा । मेटथौ सकल का कठशा॥ | 3
( ९६ ) अद्तरागक्षागर
॥ -----
शंब्द् ध्यान तेहि दीन्ड रढाई । हरषित नाम सुमिरे चितटाई॥
। सतगुरु भक्ति करे चितलाईं । छोडी सकर कपर चतुराई॥
तात मात तेहि इषे अपारा । महाप्रेम अतिदहित चितधारा॥
घमनि यह संसार अधेरा ।विनु परिचय जिव यमको चेरा॥
भक्ति देखि इषित हो जायी । नाम पान हमरो नहिं पाई ॥
भ्रगट देखि चीन्हे नरह मूढा । प्रे कारके एन्द् अगढ़ा ॥ |
| जसे श्वान अपावन राचेउ।तिमिजगअमीखोडिविषखां चेख'
नृपति युधिष्ठिर द्वापर राजा । तिन पुनि कीन्ह यज्ञको साजा॥ |
| बन्धु मार अपकीरति कीन्हा। ताते यज्ञरचनकफे चित दीन्हा ॥
=
कृष्ण केर जब आज्ञा पाई । तब पांडव सब साज गाई ॥
| यज्ञकी सामी गहि सारी । जँ तदेते सब साधु कारी ॥
पाण्डव प्रति बोरे यदुपाखा । पूरन यज्ञ॒ जान तिहिकाला ॥
चण्ट अकाश बजत सुनि आवे । यज्ञको फर तव पूरन पावे ॥
संन्यासी वैरागी ्ारी। अवि ब्राह्मण ओौ ब्रह्मचारी
भोजन विविध प्रकार बनाई । प्रम प्रीतिसे सबहिं जेवांई ॥
इच्छा भोजन सब मिदि पावा! घण्ट न बाजा राय जावा ॥
जबहिं घण्ट न बाज अकाशा। चकित भयोराय बुधिनाशा॥
भोजन कीन सकल ऋषिराया । बजा न चण्टभूष अम आया
पांडव तबहिं कृष्णपह गय । मन संशय करि पूछत भयञ॥
युधिष्ठिर वचन
करिके कृपा कटो यद्राजा । कारण कौन चण्ट न्ह बाजा॥
कृष्ण उत्तर
कृष्ण अस कारण तासु बताया। साधू कोह न भोजन पाया ॥
१ “शन्द ध्यान” के बदलें किती प्रतिमे “ सुरति ध्यान "' लिखा है ।
वससे
अवुरागक्षागर ( ९७ )
युधिष्ठिरवचन
चकिंत भे तब पाण्डव कटेड । कोटिन साश्च भोजन ठेऊ॥
| अब कह साश्व पाह्य नाथा । तिनते तव बोरे यदुनाथा ॥
कृष्ण वचन
जकतय-का-क कापोतः क ए ककि कत य:
नभो
सुपच सुदशनको ङे आवो । आदरमान समेत जिमावो ॥ |
सोई साधु ओर नहिं कोई । प्रन यज्ञ॒ जाहिते होई ॥ |
कव्रीरवचन धर्मदास प्रति
कृष्ण आज्ञा जब अस पय । षाण्डव तब ताके दिगगयङध॥ ।
सुपच सुदर्शनको ठे आये 1 विनय प्रीतिसे ताहि जेवयि॥ ।
भरपभवन भोजन कर जबहीं । बजा आकाशम घंटा तबही॥ |
सुपच भक्त जब रास उठावा । बाजौ वण्ट नाम प्रभावा ॥ ।
तबहु न चीन्हे सतशुरू बानी । इदि नाश यम इद विकानी॥ |
भक्त जीव कहं काल सताये । भक्त अभक्त सवन कहं खाये॥ ¦
कृष्ण बुद्धि पांडव कर दीन्हा वेश्च घात वांडव तब कीन्हा ॥
पुनि पांडव कहं दोष रगावा। दोष लगा तेहि यज्ञ करावा ॥ |
ताहूपर पुनि अधिक दखावा । मेजि दिमाख्य तिन्दैं ल्गावा॥
चार वेश्च सह द्रौपदि गदे । उबर सत्य युधिष्ठिर रहेड ॥
अजन सम भिय ओरन आना। ताकर अस कीन्हा अपमाना॥ '
बि हरिचन्द्रं करण बड़ दानी।कार कीन्ह पुनि तिन्डकी हानी॥ ।
जिव अचेत आशा तेदि खावे। खसम विसार जारको धावे॥ |
कला अनेकं दिखावे काला । पीछे जीवन करे विहाख् ॥ ,
शक्ति जान जिव आशा खव । आशा बांपि काटुख जावे॥
सब कं काल नचवे नाचा । भक्त अभक्त कोड नहि बाचा॥ |
जो रक्षकं तेहि खोजे नाहीं । अनचीन्दे यमके खख जादी॥ || `
बार बार जीवन समुज्ावा । परमारथ कहं जीव चितावा॥॥
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(र्ट ) अनुरागक्ागर
। अस यस बुद्धि इरी सब केरी। फंद गाय जीव सब घेरी ॥
सत्य शब्द कोई प्रखे नाहीं । यम दिशि दोय ररे हम पादी॥
जबरगि पुरूष नाम नरि मेरे।तब रमि जन्म मरण नर्हि मेरे॥
पुरूष प्रभाव पुरूष पर्दे जाई । कृतिम नामते यम धरिखाई॥
पुरूष नाम प्रवाना पाये । काल्हि जीत अमर घर जावे॥
घत नाम प्रताप धर्मनि, दंस छोक सिधाबईं ॥
जन्ममरणको क्ट मेटे.बहरि न भव जरू आव्ह॥
पुरुषकी छवि दंस निरखहिःखदे अति आर्नद् घना॥
अंशदैसमिलिकरेकुतुहट.चन्द्रकयुदिनिर्धेगबना ६६
०-जेसेकमुदिनि भाव.चन्द्र देखि निशि हहं ॥
तेस् दंस युख पाव, पुरष दशके पावते ॥ ७० ॥
नहि मटीन समाव, एक प्रभाव सदा उदितं ॥
हेससदा सुख पाव.शोकमोह दख क्षणक न हि॥७१॥
जवे सुदर्शन ठेका पूरा । रे सत खोक पठायो सुरा॥
मिरे रूप शोभा अधिकारा । हंसन संग त्रु सारा ॥
| षोडश भावु रूप तब पावा । पुरूष दशं सो ईस जड़ावा॥
| हे सादि इकं विनती मोरा । खसम कबीर कट ंदीोरा॥
भक्त सुद्रशन लोक पठायी । पीछे साहिब करां सिधायी ॥
| सो सतशुर् कहो मुदि सदेशा । सुधा वचन सुनि मिटे ॐदेशा॥
अब सुनु धमनि परम पियारा कल करं वा प
द्वापर गत कलियुग परवेशा । पुनि हम चल जीवन उपदेशा
धर्मराय क देख्यो आईं । मोदि देखि यम गयो सुञ्चोई
भयनणिणगििानय-क------ -~ ----~-----------------~
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अ्ुरागस्ाग्रं (९९ )
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धमरायथ वचनं
कहे धमे कस मों इलावह । भच्छ इमार रोकं प्ैचावड॥
तीनों युग गवने संसारा । भवक्षागर तुम मोर उजारा॥
हारी वचन पुर्प माहि दीन्हा।तुम कस जीव छुड़ावन खीन्हा॥
ओर बधु जो आवत कोई । छिनमहं ताक खावि बिोई॥
तुमते कष न मोर वस्ताइई । वम्हरे बल हंसा घर जाई ॥
अब तुम फेर जाह सगमाहीं । शब्द तुम्हार ने कोड नाईी॥
केरम भरम मम असके गटा। ताते कोई न पावै बाद ॥
धर घर भरम भूत उपजावा । धोखा दै दै जीव नचावा ॥
भरत भत हि सब कर्हं खमे । तोहि चिन्दै ताकेँजम भाभे॥
मद्य मांस खव नर रोई) स्व मांस भिय नरको डोईं ॥
आपन पथ चँ कीन परगासा। भांम मच सव माद्ष यास्ता॥
चण्डी जोगिन भूत पुजाओं । यही भ्रम है जग जरै माडाओं
बां धि बहुफंदर्दिफन्द् फन्दाओअतकारकर सुधि षिसराओ॥
तुम्हरी भक्ति कठिन है माई कोह न मनि कहौं अ्ञाईं ॥
धर्मरायते बड़ छल कीन्हा। छट तुम्हार सकलो इम चीन्हा॥
पुरूष वचन दृसर नरि होई । ताते तुम जीवन कँ खोई ॥
पुरूष मोहि जो आज्ञा देही । तो सब होय नाम ॒सनेही ॥
ताते सहजं जीव चेताऊँ । अंकुरी जीवसकरु अुकताॐं॥
कोरि फन्द जो तुम रचिराखाषेद शाख निज महिमा भाखा॥
प्रकट कला जो धरिजग जाॐ। तो सब जीवनको अुकताॐ ॥
जो अस करौ वचन तब डोङे। वचन असंड अड़ोरु अमोे॥
जो जियरा अकूरी शुभ होई। शब्द दमार मानि हे सोई ॥ ||
अंङरी जीव सकल मुक्ताओ॥फन्दा काटि कोक ठेजाओं ॥ |
काटि भरम जो देहौ तादी । मरम तम्हार मानिदैनादी॥|
( १०० ) अनुरागसागर
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सत्य शाब्द दिटाय सबं भ्रम तोरि सब डारिहं
छरूतोर सब चिन्दाई् तवी नामबर जियतारिहा ॥
मनवचनसत्यजनो मोहि चीन्दी, एकत्व खाइ
त॒बसीस तुम्हारे पब देही, अमटलोक जिव आईहै९८
सो--मदहि तोरा मान्, सृरा ईस यनान कोई ॥
सत्यरान्द् सदहिदान, चीन्दहि हसहरषञअती ।॥७२॥
कहै धमं जीवन सुखदाई ! बात एक शुदि करो बञ्ाई॥
जो जिव रहे तुम्हं खो आई । ताके निकट कार नहि जाह॥
दृत हमार ताहि नरि पवे । मूछ्ित दूत मोहि पँ आदे ॥
यह न्ह ब्रञ् परी मोदि भाई । तोन भेद मोहिं कहो इद्चाई॥
ज्ानतातच
सुनहु धम जो पृषु माही । सो सव हाल कटो मँ तोरीं॥
सुन धम तुम सत सहिदानी ।सोतोसत्य शब्द आरि निरवानी॥
पुरूष नाम है गुप्त परमाना । प्रकट नामसत हंस बखाना ॥
नाम दमार दंस जो गहई । भवसागर सो सो निरबहई ॥
दूत तुम्हार दोय बर थोरा । जव मम हंस नाम ठे मोरा ॥
वमर वचन
कद धम सुनु अन्तरयामी । कृपा करो अब मोपर स्वामी॥
यहि युग कोन नाम तुव होई । सो जनि मोंपर राखड गोई ॥ ¦
वीरा अक गुप्त गन आ । ध्यान अंग सब मोहि बताड॥ `
केहि कारन तुम जाह संसारा।सोह कदहु मोदि भेद गुन न्यारा॥
हमहू जीवन शब्द् चेतायब । पुरूषटरोकं करं जीव पठायब्॥
। मोहि दास आपन कर रीजे। शब्द सार प्रभु मोक दीजे ॥
अवुरागसागर (३०१)
्लानी वचन
सुनड धम तम कस छल करू । ठ सुदास प छ धरहू ॥
गुप्त भेद नि देहौ तोदं । पुष अवाज कदी नहिं मोदी॥
नाम कवीर मोर कलिमाहीं । कबीर कंडत यम निकट न जाहीं
वबवरयव वत्रचन
| कहै धम तुम मों दुरे ह । खेर एक पुन इमु खे हो॥
एषी छठ बुधि करव बनाई । ईस अनेकं लेव संग लाह
तुम्दार नाम छे पथ चाय ।यहितिधि जीवनधोखदिखायवब
जननि तचन
अरे काल तू पर्ष दरोरी । उलमतिकदहाखनावसि मोही॥
जो जिव होई है शब्द् सनेही ! छल तम्हार नटि कमि तेदी॥
जौहरी. हस ठेहि पहिचानी । परखि ह ज्ञान अंथ॒ मम बानी
जेहि जीव मे थापवब जाई । छल तुम्हार तेहि देव चिन्डाई॥
कवोरवचन ध्मदासभ्रति
यहि सुनत धर्मराय गडु मोना) ह अन्तधांन गयो निज भौना॥!
धरमैनिकठिन कालगति नन्दा। छल बधक जीवन क फन्दा॥
घर्मदयस वेचन
कह धर्मनिप्रभु मोहि सुनाओ। आगर चरि कदि समञ्जाओ॥
जगन्नाथ मंदिरकी स्थापनाका वृत्तान्त
कवीरवचन धमदासप्रति
राजा इन्द्रदमन तेहि कारा । देश उडसेको मदहिपाला ॥
सद्गृरुवचन
राजा इन्द्रदमन तहँ रहईं । मंडप काज युगति सो कडई॥
कृष्ण देद छाड़ी पुनि जवी । इन्द्रदमन सपना भा तवी ॥
स्वप्ने हरि अस ताहि बताई। मेरो मदिर देह @ उगईं ॥
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मोक स्थापन कर राजा । तो पह मँ आयउ यदहिकाजा॥ ||
( १०२) अलुरागसागर
मंडप उठा पणं भा कामा | उदपि आय बोरा | रामा॥
पुनि जब मंदिर राग उटावा । कोधवेत सागर तब धाव्। ॥
क्षणम धाय सकर सो बोरे । जगन्नाथको मदिर तोरे ॥
मंडप सो षट बार बनायी । उदधि दौर तिदिरत इषायी॥
हारा तृप करि यतन उपायी । हरिमंदिर तर उटे न भाई ॥
मंदिरकी यह दशा विचारी । वर पूरब मन माहि सम्दारी॥
हम सन काल मांग अन्याईं । बाचा बन्ध तहां हम जाई॥
आसन उदधि तीर इम कीन्हा काहू जीव न मोदी चीन्दा ॥
| पीछे उदधि तीर हम आई । चौरा तह बनायउ जाई ॥
| इन्द्रदमन तब सपना पावा । जहो राय तुम काम कगावा॥
मंडप शंक न राखो राजा । इहव हम आये यहि काजा॥
जाड बेगि जनि लावहु बारा । निश्चय मानह वचन इमारा॥
राजा मंडप काम लगायो । मंडपदेखि उदधि चर आयो
सागर छहर उटी तिरि बारा । आवत छहर कोधचित धार्
उदधि उमंग कोध अति आवे । पुरषोत्तम पुर रहम ना पावे॥
उर्मगेड दहर अकाशे जायी । उदधि आय चौरा नियरायी॥
द्रश हमार उदधि जब पाई । अति भय मान र्यो ठहराई॥
रूप = 44 तब्. उदधि हमपर्हू आइया ॥
चरण गदहिके माथ नायो, समे हम नहि पाडया ॥
उदधिवचन
| जगन्नाथ हम मोर स्वामी, ताहिते हम आया ॥
॥ अपराध मेरो श्चमा कीजेमेद अब हम पादया॥९.९॥
$ ति ककत जिर > =
।
क्षमा अपराध करो भभु मोरा । बिनती करो दोह करजोरा ॥ |
पो °-तुम प्रयु दीनदयाछ.रघपति बोइढ दिवाहये
अबुरागसागर ( १०३ )
वचन करो प्रतिपा कर जोर विनती कशे ॥७३॥
कन्हेउ गवन कंक रधघुबीरा । उदधि बोध उतरे रणधीरा ॥
जो कोड कर जोरावरि आयीं । अङ्खनिरंजन बोहर दिखाई
मोपर दया करट तुम स्वामी । रेड ओहटसुबु अन्तरयामी।॥
कृलीर् वचन
ओईल तुम्हार उदधि हम चीन्हा। बोर नगर द्वारका दीन्हा ॥
यह सुनि उदधि धरे तब पाई । चरण टेकिके चे हरषाई ॥
उदधि उमङ्् छहर तब धायी । बोख्यो नगर दारका जाई ॥
मण्डप काम पुर तब मय । इरिको थापन तहवों किय ॐ
तब हरि पण्डन स्वपन जनावा । दासकबीर मोहिषपहं आवा ॥
आस्न सागर तीर बनायी । उदधि उमङ्ग नीरतंहं आयी॥ |
द्रश कबीर उदधि हट जाई । यहि विधि मण्डप मोर बचाई॥ |
पृण्डा उदधि तीर चङि अये ।करि अस्नान मंडप चकिया ।
कण्डन अस पाखंड कगायी । प्रथम दरश मछ्च्छ दिखायी
हरिके दर्शन भँ नरि पावा । प्रथमहि हम चौराख्ग आवा॥
तब हम कौतुक एक बनाये । कों वचन नहिराखु छिपाये ॥
मंडप पूजन जब पण्डा गय । तहंवा एक चरित अस भयॐ॥
जर लग मूरति मण्डष मादी । भये कबीर रूप धर तादीं ॥
हर मूरति कँ पण्डा देखा । भये कबीर रूप धर भेखा॥
अक्षत पुहुप रे विप्र थुखाईं । नरि गङ्कर कं प्जहं भाई ॥
देखि चरि विप्र सिर नाया । ह स्वामी तुम ममं न पाया॥
पण्डा वचन
हम त॒म काहि नहीं मनलाथा । ताते मोहिं चरि दिखाया ॥
जाक
( ३०७ ) अुरागसागर
केब्ा{र् वचन । न्द्
वचन एक म कहो तोसो, विप्र सुतु तू कान दे ॥
पूज ठाकुर दीन्ह आयस, माव दविधा छोड टे ॥
भ्रम भोजन करे जो जिव, अंगदीन हो तादिको॥
क्रे मोजन छत राखे, सीस उदरे ताहिको ॥७०\॥
सोरडा-चोशकखियवहार, धमाविमोचनज्ञानदृद् ॥
। तहत कियो पसार, धमदास सव कानदे ॥७
धमदस कच
धमदास कहे सतुष पूरा । तुम प्रसाद भयो दख दूरा॥
| जेहि विधि हरि करं थाप जाई। सो सादिब सब मोहि खनाई ॥
ता पीछे कवा तुम गय । कोन जीव केसे श्रुकृतयॐ ॥
कट्युगकेर करो परभा । ओर हस वरमोधेड काऊ ॥
सो माहि वरणि कहो गुरूदेवा। कौन जीव कीन्ही तुम सेवा॥
कवर वचन
धमदास तुम ॒ब्रञ्ह भेदा । सो सब हमसों को निषेदा॥
चार ¶रुको स्थपनाका वत्तांत
| सुन सन्त यह ज्ञान अनूपा । गज थलदेसर परमोध्यो भूषा॥
रायेबकजा
| रायबेकेज नाम तेदी आदी । दीनेउ सार शब्द् पुनि तारी॥
कन्ह्यो ताहि जीवन कडिहारा । सो जीवनका करे उबारा ॥
सहतेजी
| शिलमिी दीप तदां चलि आये । सहतेजी एकसन्त चिताये॥
१ कि ग्रन्थमें यह चौपाई एसे ल्खी है-
सुनो संत यह कथा अनूधा । गज अस्थल परमोध्यो भूपा ॥
न --------------------------------------------- रे
अनुरागसागर ( १०९ )
चतुरनज
तहाति चलि आये धमदासा । राय चतुरभुजयपति जहं बासा॥
ताकर देश आहि दरभङ्ा । प्रखिसि मोहि सतर संगा॥
देखि अधीन ताहि समश्चावा। ज्ञान भक्ति विधि ताहि दृदावा॥ |
हृदता देखि ताहि पुनि थापा मिला मोहि जडि जम आषा॥
मायामोह न तनिको कीन्डा | अमर नाम तब तादी दीन्हा॥
|| ताहू कहं कडिहारी दीन्दा । चतरथुजशब्द् हेत करि खीन्डा॥
| हंस निरमल ज्ञान रहनी, गहनी नाम उजागस्च ॥
| कट कानि सवे विसारि विषया,जौहरीयण नागश् ॥
| चतुभज बकेन ओं _सहतेज, ठम चाथ सही ॥
चारि कडार निवके.गिशनिश्चल हम कटी ऽ3॥ |
सो --जग्बुदीपके जीव, तुम्हरी बाहं मोक मि |
वचन इट पीव, ताहि कार पावे नरी॥ज स्स)
धमेरास चचन
धन सत गुक् तुम मोहि चेतावा। काल फंदसे मोहिं युकतावा॥
परै कर तुम दासके दा्ा । लीन्हों मरि काटि जमफांसा॥
मोते चित अतिहरष समाना । तवयुणमोहि न जाय बखाना॥
भागी जीव शब्द् तुव माना । पूरण भागजो तुवर बत ठाना॥ |
मे अधघक्मीं कटि कठोरा । रहेडं अचेत भम जिव मोरा॥
कहा जानि तुम महि जगाये । कोने तप हम दशन पाये ॥ |
सो समुञ्चाय कहो जियमूला । रबि तव गिरा कमल मनपफूला॥ |
धरम॑ंदासके पिछले जन्मोंकी कथा कबीर वचन
इच्छा कर जो प्रछा मोदी । अब मेँ गोड न राखो तोही ॥
| धर्मनि सुनहु पाछली बाता ।तोहिसमञ्ञायकदो विख्याता॥ ||
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( १०६) अनुरागसागर
सन्त खदशन द्वापर भयऊ । तासुकथा तोरि प्रथम सुनयञ॥
तेहि र गयो देशनिज जबहीं । विनती बहुत कीन तिन तबहीं॥
सुपचत्रचन
कहे सुपच सतगुरु सुनलीजे । हमरे मात पिता गति दीजे ॥
बन्दी छोड़ करो प्रभु जाई । यमके देश बहुत दुख पाई॥
म बहु भांति पिता समुञ्चावा । मातु पिता परतीतिन पावा॥
बालकवत नदिज्ञान सिखावा। भक्ति करत नदि मोहि डरावा॥
भक्ति तुम्हारी करन जब लागे । कब न द्रोह कीन्ह मम आगे॥
अधिक इषं तादी चित होई । ताते विनती करौं परभु सोई ॥
आनहु तेहि सत शब्द् दृढाई । बन्दीखछोर जीव भुकताई ॥
कबीरवचन धममदसप्रति
विनती बहुत संत जब कीन्हा। ताकर वचन मान हम लीन्हा ॥
ताकर विनय बहुरि जग आवा। कलियुग नाम कबीर कहावा॥
हम इक वचन निरंजन हारा । वाचा बेध उदनि षग धारा॥
ओर दीप ईदंसन उपदेशा । जम्बुदीप पुनि कीन प्रवेशा॥
सन्त सुदशनके पितु माता । लक्ष्मी नर हर नाम सुहाता॥
|| सुपच देह छोड़ी तिन भाई । मानुष जन्म धरे तिन आई॥
| सुपचसुदशंन माता पिताक पहला जन्म कुलपति ओर महेश्वरीकी कथा
| सन्त सुदर्शन केर प्रतापा । मानुष देह विप्रके छापा।
दोनो जन्म दोय तब टीन्हा।पुनि विधि मिङेताि कं दीन्हा॥
| रपतिनाम विप्रकर कदिया। नारि नाम महेसरि रिया ॥
बहुत अधीन पुत्र हित नारी । करि अस्नान सुर्य्रतधारी ॥
|| अचल ठे विनवै कर जोरी । इदन करे चित सुतकह दौरी॥
|| तत्क्षण इम अचर पर आवा । हम क देखि नारि हरषावा॥
कारु रूम धरि मेटो बोदी । विप्र नारि शह रे गई मोदी॥
अबुरागसागर ( १०७ )
| करै नारि कृषा प्रभु कीन्हा । सूयं बत करफल यह दीन्डा॥
बहुत दिवसलग तहां रहाये । नारि पुरूष भिर सेवा खाये॥
रहे दरिदते दुखी अपारा । हम मनम असकीन विचारा॥
प्रथम दरिदता इनकर ट।रोपुनिभक्तिथुक्तिकरवचनउचारो॥
जब दम पलना टक कोरा । मिलत सुवणं ताहि इकतोरा॥
नितप्रति सोन मिटे इक तोलखा। तति भये वह् सुखी अमोला॥
पुनि दम सत्य शब्द् गोहराई । बह्टप्रकारसे उनरिं सयुञ्ाई॥
ता इदये नहिं शब्द् समायी । बारक ज्ञान प्रतीत न आई॥
तारि देह चीन्हेसि निं मोहीं। मयोश॒त्त तहं तन तजि वोरी॥
सुपच सुदर्शनक पिता माताक दूसरे जन्ममे चन्दसाह
ओर ऊदाको कथा
नारि द्विज दोहं तन त्यागा । दरश भ्रमाव मल्रजतत् जागा॥
एनि दोनों मये अंश मिकाज। रहहि नगर चन्द् वारे नाॐ ॥
उदा नाम नारी कहं भयऊ । पुरूष नाम चन्दन धरि गय
परसोतमते हम चरि आये । तब चन्दवारा जाइ पगटाये॥
बालक हप कीन्ह तेहि गमा । कीन्हेड तार माहि विश्ामा॥
कमल पत्र पर आसन लाई । आठ पहर हम तहां राई ॥
पीछे उदा अस्नानदहि आयी । सुन्दर बारुकं देखि डुभाई॥
दरश दियोदेहि शिश्चतनधारी । रेगईं बाकुकं निज घर नारी॥
ठे बालक गृह अपने आहं । चन्दन साहु अस का सुनाई॥
चन्दनसाह वचन
कहू नारी बालकं कँ पायी । कोने विधिते इवा खायी ॥
कद उदा जर बालकं पावा । सुन्दर देखि मोर मन भावा॥
चन्दनसाहुवचन इ
कद == अ इदि क "9
क् चन्दनत भूरख + लक ¢ डारी न ४ ॥ # ् | | | र; ~ == क्षः
लोग उपज णि
१ तमन नरः कौला 18
जाति कुटम्ब सिरे सब ोगा । दसत रोग उपज तन सोग
1 ४. ० छि
।
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( १०८ ) अजरागसागर
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कबोरवचन धमदाप प्रति
उदा जास पुरूष कर माना । चन्दन जवे रिसियाना॥ |
चन्दनस हुवचन धमंदास प्रति |
बालक चेरी लेह उठाई । ठे बालकं जर नेह खसाई॥
¢ कीर वचन धर्मदास प्रति |
चल चेरी बारुकं कं लीन्हा ।जलमहंडारनतादिचितदीन्दा॥
चकिभह मोहि पवांरन जबहीं । अन्तरधान् भयो भ तवबरीं ॥
भयउ गुप्त तेहि करसे भाई । रुदन करे दोनों बिख्खाई ॥
॥ विकर होय मन दूठत डो । मुग्ध ज्ञान कषु युख नर्द बोरै॥
सुपच सुदशंनके माता पिता तीसरे जन्ममे नीमा हुए
|| यदिविपिबहुतदिवसचलिगयऊतनजितनजन्मबहूरितिनषय
| माष तन चल्हा कुल दीन्हा।दोउ संयोग बहुरि विधि कीन्हा॥
| काशी नगर रहे पुनि सोई । नीरू नाम जलादा दोई ॥
नारे गवन रावे मग सोई । जेठमास बरंसाइत होई ॥
|| नारे छ्वाय आय मगमादीं। जलअचवन गहबनितादीं ॥
ताल नाहि पुरइन पनवारा । शिशु होय मेँ त पगुधारा ॥
तहां जस बालके रह पोटाईं । करौ कुतूहल बार स्वभाई॥
नीमा दृष्टि परी तिरि ठाॐ । देखत दरश भयो अति चाउ॥
जिमिरविदरशपदुमविगस्ताना। धाय गयो धन रंक समाना॥
|| चाय गही कर छखिया उठायी। बालकं ठे नीरूप आयी ॥
|| जल्हा रोष कीन्ह तेहि वारी । बेगि देह तुम बालकं डारी॥
|| दषे शनावन नारी लाई । तब हम तासो वचन सुनाई॥ ।
¶ १ वरसाइत वटसाविव्रीका अपञ्नंश है । यह वटसावित्री ब्रत ज्येष्ठ शुढपू्णं-
॥| मासीको होता है इसकी विस्तारपूर्वक कथ। महाभारतमें है । उसी दिन कबीर साहब
| नीमा भौर नूरीको मिले थे इस कारणसे कबीर परंधिरयोमें बरसाइत महातम पंथकी
|| कथा अचलित है । मौर उस दिन कबीरपंथौ लोग बहत उत्सव सनाते हे
वक क- - .- = । त् ज
पकाय > कमण [य
~ वचन हमारे नीमा, तोहि कह समञ्चायके ॥ |
प्रीत पिछिटी कारणे तुहि' दश्ख दीन्हो आयके ॥
आपने ग्रह मोहि ठे चट, चीन्हिके जो य करो॥
दँ नाम दृटाय तो कः एन्द् यमके नापरो।॥७२॥
| सो°-युन्त वचन अस॒ नारिनीरूवाम न राखेड॥
गद् गेह मँ्चार काशि नगर तव प्च ।॥\७६॥
नारी न मान जास तेहि केरा । रंक धनदं सम ठे चलि डरा॥ |
| जोलहा देखि नारि लोलीना । रेह चलो अस आयस दीना॥
दिवस अनेक रहे तेहि गइ । कक्ष तेहि परतीत न आई ॥
| बहत दिवस तेदि भवन रहावा। बाख्क जान न शब्द् समावा॥
सुपच सुदशनके माता पिताका चौथे जन्ममं मथुरामे
प्रगट होकर सत्यलोक जाना
व्रिन प्रतीत काजा नरि होई । दढ के गहड़ परतीत विलोई॥ |
। ताहि देह पुनि मोदिन चीन्ा । जानि पुर माहि संग न कीन्दा॥
। तजि सो देह बहुरि जो भाई । देह धरी सो देहं चिन्डाईं ॥
ज॒लहाकी तब अवधि सिरानी। मथुरा देह धरी तिन आनी
हम तर जाय दरश तिन दीन्हा। शब्द् हमारा मानसो खीन्हा ॥
| रतना भक्ति करे चितखाईं । नारि पुरूष परवाना पाह ॥
| ता कै दीन्देड रोकं निवासा। अज्री प्ये निज दासा ॥
| पुरुष चरण भेटे उरलाईं । शोभा देह दंसकर पाई ॥
| देखत दस पुरुष इरषाने । सुकृति अंश कदी मन माने॥
| बहुत दिवस गि लोक रहाये। तब लगि कार + जीव संताये॥ ||
| जीवनदुःखअतिशय भयो भाई। तबही पुरुष सुई स ॥॥ ¦
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च ॐ अ कद) नि 2 1. क
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( ११०) अनुरागस्ागर
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। आज्ञा कोन्हा जाहु संसारा ' काल अपार प दुखारा॥
खोक सदेशा ताहि सुनाओ । देह नाम जीवन युकताओ॥
आज्ञा सुनत सुकृत हरषाये । तुरति खोक पयाना आये॥
सुकृत देखि कार हरषाई । इन कहँ तो हम ख्व साई)
करि उपाय बहुत तब काला । सुङ्कत रै पाय जलम डाला॥
बहुत दिवस गयो जब बीता। एकह जीव न कारि जीता।॥
जीव पुकार सतलोकं सुनाये । तव्रहीं पुरूष मोक हकराये॥
कबोरसाहवका ध्मदासजीको चित।नके लिये लोकसे पृथ्वीपर
अनना पर्ष तृचन्
पुरूष अवाज उटी तिहि बारा। ज्ञानी वेगि जाह संसारा ॥
जीवन काज अंश पठ्वायी । सुकृत अंश जग प्रगटे जायी॥
दीन्ह आज्ञा तेरिको भाई । शब्द् भेद ॒वादही समञ्ञाई ॥
|| खावहु जीवन नाम अधघारा । जीवन खे उतारो पारा ॥ |
सुनत आज्ञा वहि कीन पयाना। बहुरि न आये देश असमाना ॥ |
सुकृत भवसागर चलि गयऊ। कालजारते सुषि बिसरयॐ ॥
तिनकर जाय चितावहु ज्ञानी । जेहिते पथ चले निरवानी ॥
वेस व्यालिसि अस हमारा । सुकृत गृह रे ओतारा ॥
|| ज्ञानी वेगि जाहु तुम अंसा ।अब सुकृत असकर मेटहु फंसा॥ ||
कबीर वचन
चेह हम तव सीस नवाई । धममेदास अब तुम लग आई॥
धमेदास तुम नीरू ओतारा । आमिन नीम प्रगट बिचारा॥
तुम तो आहू प्रिय मम असा । जाकारन दम कीन्हा बहुसंसा॥
पुरुषि आज्ञा तुमरे दिग आये। पिछली हेतु पुनि याद् कराये॥
। यहि संयोग हम दशेन दीन्हा ।धमृनि अबकी तुम मोहि चीन्दा।
पुरूष अवाज कहू तुम् पासा । चीन्ेह शब्द् गह बिश्वासा॥
| धाय परे चरणन धमदासा । नेन वारि भर प्रगट प्रगासा ॥
गि दु मिम भक जः आक ==
जयया र
धरहि न धीरज बहुत सतोषा । तुम सादि मेटह जिवधोखा॥
| धरे न धीरज बहुत प्रबोधे । विद्ुरिजननिजिभिमिल्यो अबोधे
युग षग गहे सीस अहं छाये । निपट अधीरन उठत उटाये ॥
बिख्खत बदन व चन नदीं बोले) सुरति चरणते नैक न डोडे ॥
निरखत बदन बहुरोपदगददीं । गदगद दय गिरा नहि कहीं
बिखखत बदन स्वास नहि डोरे उनस्चनिदशा परक नहि खोडे॥ ¦
धमराज वचन्
बहुरि चरण गहि रोव भारी। धन्य भरु मोदितारनतनधारी)
धरि धीरज तब बोरे सम्हारी। मोक प्रथु तारन पगधारी ॥
अब प्रभुदया करहु यहि मोदही। एको पल ना विसये तोही
निशिदिनरहों चरणतुम साथा यह बर दीजे करड खनाथा ॥
कब[र् वचनं
धमदास निह संशय रहहू ।व्रेम भ्रतीति नाम दिड गह)
चीन्हेड मोहि तोर भरम भागा । रहै सदा तुम इद अद्खरागा॥
मन बचकमे जाहि जो गदईं । सो तेहि तज अंत केस रइड॥
आपन चाल षिना दुख पावे । मिथ्या दोष युङ् करं खे॥
पथ सुपथ गुर् समञ्चावे । शिष्य अचेतन इदय समावे॥
तुम तो अश हमारे आहू । बहुतकं जीव रोकं ठे जाह ॥
चार माहि त॒म अधिक पियारे । किहि कारण तुम शोचविचारे॥
हम तमसो कङ्क अन्तर नाहीं । परक शब्द् देखो हियमाहीं ॥
मन बच कर्म मोदि ठो लवे । इद्ये दुतिया भाव न अवे॥
तुम्हरे घट हम वासा कीन्हा । निश्चय हम आपन कर लीन्हा ॥
छन्द
आपनो कर रन्ह धमनि, रदो निःसंराय दिये ॥ |
करहु जीव उवार दृद हनाम अविचठ तहि दिये ॥ ||
( ११२ ) अचुरागसागर
युक्ति कारण शब्द धारण पुष सुमिरण सारहो ॥
सुरति बीरा अक्धीश जीविका निस्तार हो ॥५७६५॥
षो=-त॒मतो हो धमदाषज॑बदीप कटिहार जिव्॥
। पवे छोक निवास, तुहि समेत सुभिरे युञ्े ॥७॥
| घधमदास वचन
धन सतगुर् धन तुम्हरी वानी। मुरि अपनायदीन्दगनि आनी)
मोहि आय तुम रीन्ह जगायी । घन्य भाग्य हम दशन पायी॥
धन साहब सुनि शापन कीन्हा।मम शिर चरण सरोश्ह दीन्दा॥
| म आपन दिन श्चुम करिजाना । तुम्हरे द्रश मोक्ष परमाना ॥
अब अस दया करह दुख भंजन। कबहु मोदि न धरे निरंजन ॥
कार जार जौनी बिधि टे । यमबंधन जोनी षिषि दूरे ॥
सोई उपाय प्रथु अब कीजे । सार शब्द् बताय मोहि दीजे॥
कबीर वचनं
धमेदास तुम सुकृत अशा । रेह पान अब मेरहु संशा ॥
घमेदास आपन करि रेड । चौका करि परवाना दे ॥
तिनक्ना तुडाय हु परवाना । कारूदशा इरे अभिमाना ॥
शालिग्रामको शड् आसा । गहि सत शब्द् होहु तुम दासा ॥
|| दृश ओतार ईश्वरी माया । यह सब देखु कारुकी छाया॥
तुम जगजीव चितावन आये । काठ फं तुम आय फसाये॥
अबहु चेत करो धमदासा । पुरषं शब्द करो परकासा॥
छे परवाना जीव विताओ । काल जारे हस अुकताओ॥
यदि कारज तुम जगम आये । अबन करहु दोसर मन भाये॥
१ कर्णधार मल्लाह् नाव खेकर पार उतारनेवाला भवसागर सं गृरुपार
उतारते हँ इस कारण उन्हं कडिहार कहते हें ।
अछरागक्षागर् ( ११३)
छन्द
चतुथुन ब॑केन सहतेज्, ओरं चौथे ठम अहौ |
| चार श्॒ृकडिहार जगके वचनं यह निश्चय गही ॥
| यदी चार अंडा संघार जीव काज प्रगटाहया ॥
छ्षेदसोहन्ग दियो,जेदि खनि कार भगाहया॥७४॥ ।
पोरटा-चरोमे धमदास्र, जम्बुदीपके यद्र सहि ॥
व्यास वंश विलास तरं नौव तेहि शरणमहि॥७८॥ |
आरतीविधिवणन |
कबीर साहवका चौका करकं धर्मदासक्ो परवाना दना |
धमदासं वचनं
धर्मदास पद गहि अबुरागा 1 हो भरु मोहि कीन्ह सुभागा॥
हे प्रथु ! नहि रसना प्रभुताई ।अमित रसनयण बरनि न जाई
महिमा अमित अहै तुम स्वामी केहि विधि बरनों अतरयामी॥
| द अधमर्हितुम छीन उषारी॥ |
अव चौका मेद को ख॒हिस्वामी।कादिकदहतिनका सुखभामी॥
जो तुम कहो करौ मे सोई । तामहँ फेर न परि ह कोर ॥
कबीरवचन चौकाका साज
धर्मदास सुनु आरति साजा । जाते भागि चरे यमराजा ॥
सात हाथको बस्तर खाओ । श्वेत चदोबा छ तनाओ ॥
घर आंगन सब शुद्ध कराओ ।चौकाकरि चन्दन छिड़काओ॥
तापर ओंँटा चौक पुराओ । सवासेर तंदुर छे आओ ॥
स्वेत सिंहासन तहां बिदाई । नाना सुगंष धरु तहां र्गाई॥ ||
स्वेत मिठाई स्वेते षाना । पंगीफर स्वेतदि परमाना ॥ |
लग इलायची कषुर संवारो । मेवा अष्ट केरा पनवारो ॥ |:
कक
( ११९ ) अ्ररागसागर
| जिर पीछे नरियक ठे जआओ। यदसब साजसुआमि धराओ॥
| जो क साहब आज्ञा कोन्दा। घमदास सब कड धरि दीन्दा॥
| बइुरिषमनि विनती अनुसारा।अब समरथ कटु सुक्ति विचारा॥
सबि वस्तु मे आने साई ।जस तुम निजस्ुखभाखिसनाई॥
सुनत वचन साहब इषाने ।धन्य धमेनि अब तुम मनमाने॥
चौकाविधिते पोति अष आसन बेखिया जायहो ॥
ठ्घु दीरघ जीव धमनि, सबहिं छीन्ह बाय हो ॥
नारिपुस्ष एक मति करि, टीन् नरियङ् हाथ दौ॥
णुस्सन्य॒खधरि भेट कीन्हाबहविपि नाये माथ हो
| सो --सतयस्चरणम्थक, चितचरोर धमनि कदा
मेटयोसबमनरांक, मावभक्ति अतिचितध्यो॥७९॥
चोका कीन शब्द् धुनि गाजा तार मिरदंग ्ांद्यरी बाजा ॥
धमदासको तिनका तोरा । जाते कार न पकरे छोरा ॥
सत्य अकं साहब लिख दीना । ततचछिन धर्मदास गरदिङीन्हा।
धमंदास परवाना न्दा । सात दण्डवत तबरीं कीन्दा॥
सतगुरू दाथ माथ तिद दीन्हा । दे उपदेश किरतारथं कीन्डा॥
कबीर साहबका धमदासजीको उपदेश देना
कटै कबीर सुनो धर्मदासा । सत्यभेद मेँ कियो परकासा॥।
| नाम पान तुहि दीन रखाईं । कालजार सब दीन मिटाई॥
अब सुनु रहन गहनकी बाता । बिनजाने नर भटका खाता॥
सदा भक्ति करो चितराईं । सेवो साधु तजि मान बड़ाई॥
परे कुल मरजादा खोवो । भयसे रदित भक्त तब दोवो॥
सेवा केरो छौँडि मत दूजा । गुरूकी सेवा युरूकीः पूजा ॥
अब्ुरागस्ागर ( 93.)
यक करे कपट चतुराई । सौ हंसा भव भरमे आह ॥ |
ताते गुरूमे परदा नाहीं । परदा करे रहे भवमाहीं ॥
गुरुके वचन सदा चित दीजे । माया मोह कोर न भीजे ॥
यहि रहनी भव बहुरिन अवे ! गुङ्के चरणकमल वितलवे॥
युवह धमदास दटक गही, एक नामकी आ हो ॥
जगत जाख्वह जजाठ है, काठ छ्गाये फस हौ॥
रष नाम परताप धमनि, मति हीय सुधि छह ॥
नारिनरपखिारस॒बमिलि.काट कराल त्ब ना २७६
सोरढ-त॒म धरजेतिक जीव.सब कर बेगि इव् ॥
| सुरति धरे दृढ पीव, बहरि काछ पते नहीं<०॥
घरमदास्ष तचत
हे भरूथु तुम जीवनके मूला । मेटेउ मोर सकर तन सुखा ॥
आहि नरायण पुन्न इमारा । सोप ताहि शब्द टकसारा॥
इतना सुनत सद्रयरुूदसि दीन्दा। भाव ्रगट बादर नहिं कौन्हा॥
। कवार दवचन
धमदास तुम बोखाव तुरन्ता।जेहिको जानु त॒म शुद्धअन्ता॥ |
धर्मदास तब सबहिं लावा । आय खप्तमके चरण रिकावा ॥
चरण गहो समरथके आई । बहुरि न भव जल जन्मो भाई॥
इतना सुनत बहुत जिव आये। धाय चरण सतगुङ लपटाये॥
यकं नहि आये दाक्ष नरायन । बहुतक आय परे गुरू पायन॥
धर्मदास सोच मन कीन्हा । काहे न आयो पुर परबीना ॥
नारायणद।सजीका कबीरसाहवबको आज्ञा करना
धर्मदास वचन अपने दासदासियोपर
|| दास नरायन पुत्र हमारा । कदां गयो बाख्क पयधारा॥.॥ _ `
( ११६ ) अतुरगसागर
| ताके दूद् लाह कोई र । दास नरायन गुरूपरं आई ॥
ङूपदास गुरू कीन्ह प्रतीता । देखहु जाय पटृत जर गीता॥
| वेनि जाह कटु तुम्हं बुलायी । धमेदास समरथ गु पायी॥
सखुनत संदेशी तुरति जायी । दास नरायण जहां रहार्थीः
सदेशोवचन नारायणदासप्रति
चलहु बेगि जनि बार लगाओ । धममेदास तुम क ईकराओ ॥
न्] रपणव्यस वचन
ज का ---~---~
हम नहि जाय पिताके पासा ।बृद्ध भये सकर बुद्धि नाशा
| दरिसिम कतां ओर कर आदी । ताको छोड़ जये हम कारी ॥
वृद्ध भये जचलदहा मन भावा । इम मन गुर् विरटङेश्वर पावा॥
काहि कौ कद कटो न जाई । मोर पिता गया बोराई ॥
संदंशो तचन
चर संदेशी आया तर्हैवा । धमेदासर वडा रह जर्हैवा ॥
कह संदेशी रह अरगाये । दास नरायण नाहीं आये ॥
यह सुन धमदास पगुधारा । गये तहां जह बेठे बारा ॥
ध भदासवचन न।रायणदासप्रति । छन्द
चल पुत्र मवन सिधारह, पुरुष साहिब आया ॥
करह विनूती चरण टेकहुकम् सकल कटाइया ॥
सतगुकरोतिदहिआयकर्हचटुबेगितजिअसिमानर॥
बहुरि एेसो दाव बने नहि, छोड दे हट बाबरे॥७०॥
| सो--मटसतय् हम पाव, यमके फंद कटाइया॥
बहुरि न जनम आव, उटह॒ पुत्र तुम वेगिरही <१
| तुम तो पिता गये बोराई । तीजे पन जिदा गरु पाईं ॥
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जियो काको = ककन कक ---- => > -- ~ = = ~~~ --- -- --- - -------- `
अनुरागसागर ( ११७ )
राम नाम सम ओर न देवा । जाकी षि युनि खावर्हि | ॥
श् विटटेश्वर छडिड दीता । ब्द भये जिदा युङ् कीता ॥ |
मदास वचन
बांह पकर तत् टीन्ह उठाई । युनि सतगुरुके सन्थुख खाई ॥
सतश् चरण गहो रे बारा । यमके फन्द् इुड़ावन हारा ॥
बहुरि न योनी संकट आवे । जो विन नाम श्रणगत पावे॥ |
तज संसार लोकं कहं जाइ ¦ नाम पान गुर् होय खदहाइ ॥
नाराथणदास कवचन
तब सुख फेरे नरायन दासा । कीन्ह मरेच्छ भवनव्रगासा॥
करवाते जिदा ठग आया । इमरे पिति डारि बोराया ॥ ।
वेद शाश्च कहं दीन उढाई । आषनि महिमा कइत बनायी॥
जिंदा रहे तम्हारे पासा तो र्ग घरकीं छोडी आखा ॥ |
इतना सनत धमदास अङ्कखानेना जानो खतं का सतं उने ॥
पुनि आमिन बहुविधि समज्ञायो नारायण चित एङ न आयो) ।
तब धर्मदास शङ् पहं आये । बहुवि धिते पुनि बिनती खाये॥
धमदास वचन कबीर वचन प्रति
कटो प्रयु कारन मोदि बताई । कोड कारन पुर दुचिताई ॥
तब सतगुङ बोरे मुसकायी । प्रथसर्हि धमनि भाखसुनायी॥
बहुरि कदो सुनहू दे कानी । याम कु अचरज ना मानो ॥
पुरूष अवाज उटी जिदहिबारा । ज्ञानी वेगि जाह संसारा ॥
कार देत जीवन कं जसा । वेगि जाडं काटड यमफांसा॥
ज्ञानी तत्क्षण मस्तक नाई । पर्वे जहां धमं अन्याई ॥
धमराय ज्ञानी कह देखा । विपरीत शूप कीन्ड तब भेखा॥
धमराय कवचन
सेवा बस दीप् पाया । तुम मवसागर कैसे आया॥
म ज
| करो संहार सही तोहि ज्ञानी । तुम तो ममे मार न जानी॥ |
११८ ) अवरागसागर
ज्ञानी वचन
ज्ञानी करै तब सुनु अन्याई । तुम्हरे डर हम नारि राई ॥
जो त॒म बोरे वचन हंकारी । तत्क्षण तोकदं डारी मारी ॥
धमररय कचन
। तबे निरंजन बिनती खाई । तम जग जाय जीवस॒क्ताई् ॥
सको जीव लोकं तुव जावे । कैसे क्चुधा सु मोरि बुञ्चावे ॥
लक्चजीव हमनिशि दिन खाया। सवालक्ष नितप्रति उपजाया॥
पुरूष मोर दीन्दी रजघानी । तेसे तुमह दीजे ज्ञानी ॥
| जगम जाय दसा तुम लाह । काटः जार्ते तिन्दं ह्ुडावह्॥
| तीनों युग जिव थोरा गय कलियुगमें तुम माड मडयञउ॥
अब तुम आपन पथ चलेरो । जीवन ठे सतोकं पटहो ॥
इतना कही निरंजन बोला । त॒मते नदीं मोर बसर डोटा॥
ओर बन्धु जो आवत कोई । छिनमर्ह ताक खात बिगोई।
मरै कटौ तो मनिहो नाहीं । त॒म तो जान जगतके मारीं
दमहू करब उपाय तर्हाहीं । शम्द् तुम्हार माने कोई नारीं
करम भरम अस करू ठाटा । जाते कोइ न पवे बाटा॥
घ्र घर भूत भरम उपजायब । धोखा देइ देइ जीवभुखायब्॥
मद्य मांस भक्षे नर॒ खोई । स्व मांस मद नर प्रिय रोई॥
ध तुम्हरी कठिन भक्ति दै भाई । कोई न मनि कटौ बुञ्चाई ॥
। तादीते मे को त॒म पादीं । अव जनि जाहु जगतके मादी॥
कबीर वचन
तेरिक्षण कालसनहम भाखा।छल्बल तुम्हरो जानि हमराखा॥
|| देर सत्य शाब्द दिदाय, हदि भरम तेरो टार ॥
ठक्च बढ तुम्ारसब चिन्हायडारु नामबलजिवतारऊ ॥ ||
अवरागसागर (११९ )
मन कमं बानी मोहि समिर एक तत्व छौँाइहे॥
सी वम्र पवि दे जिव,अमरटोक सिधाईइहे७<॥
सोरठा-मरद तुम्हरे मान,सूरा दस जान कोई ॥
सत्यरञब्द परमान, चीन्हे हसहिं हषं अति ॥८२॥
इतना सुनत काल जब हारा । छर मत्ता तब करन विचारा ॥
कहे धरम अंश सुखदायी ' बात एक अदिं कहो इञ्चायी॥
यरहियुग कोन नाम तुम्ह कोई । तोन नाम अहि भाखो सोई ॥
कनौीर वचनं
नाम कबीर हमार कठिमाहीं कबीर कहत जम निकट न आही
घमराय वचनं ।
इतना सुनत बोला अन्याई । सुनौ कबीर मै कटौ द्चाई ॥
तुम्हरो नाम ठे पथ चटायब।यदिविधिजीवनधोखख्खायब
दादश पंथ करब हम साजा । नाम तुम्हारे करब अवाजा ॥ |
मृतु अन्धा है हमारो अंशा । सुकृतके घर होवे वशा ॥
मृतु अन्ध तुम्हरे गृह जेहै । नाम नरायन नाम धरे है॥
प्रथम अंश हमारा जाई । पीछे अश तुम्हारा भाई ॥
इतनी विनती मानो मोरी । बार बार मे करौं निहोरी ॥
कबीरवचन धममंदासप्रति
तब हम कदा सुनो धमराया । जीवन काज फंद् तुम लाया॥ ||
ताक वचन हार हम दीन्हा । पीछे जगदहं पयाना कीन्हा ॥
सो मतु अन्धातुम घर आवा। भयड नरायन नाम धरावा ॥ ||
काल अश तो आहि नरायन । जीवन फंदा कार ख्गायन॥ |
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( १२० ) अनरागसागर
| | भेद् न जीव पावे, जीव न्रकिं नावर् ॥
। जिमिनाद् गावत पारधीवहश.नादम्रग करट कीन्हे
नाद् सुनि टिगमरग आयो जब,चोटतापर दीन्देउ॥७९॥
। सो--तस यम् फन्द लगाय, चेतनहारा चेति है ॥ |
वचन् वरा जिन पायते प्हैचे सतटोक कर्ट<३॥
द्वादश पेथका वणेन
धमदास वचन
द्वादश पन्थ कासो हारा ' सो साहिब मोहि कदो विचारा॥
| कौन पंथकी कैसी रीती । किये सतशङू दोय प्रतीती॥
। इम अजान क्कु ममं न जाना। तुम साहिब सतपुङ्ूष समाना ॥
|| मो कंकर पर कीजे दाया । उरि धर्मदास गहे दोह षाया ॥
कबोर वचनं
धमनि बह प्रगट संदेशा । मेर तोर सकल भम वेषा॥
द्वादश पंथ नाम समा । चा भेद सब तो रुखाॐ॥
जस कड होय चार व्यवहारा। धर्मदास मैं कों बुकारा ॥
तोर जिवका धोक मिटा । चित संशय सब दूर बहाऊँ॥
मृ-युजन्घा दूतरका पन्य १
प्रथम पन्थका भाखौ रेखा । धर्मदास चित करो विवेका॥
मृतु अन्धा इकं दूत अपारा । तुम्हरे ग्रह लीन्दों अवतारा॥
जीवन काज होय दुखदाई । बार बार मेँ कों चिताईं ॥
तिमिर दूतका पन्थ २ &
दूजा तिमिर दूत चक आवे । जात अहीरा नफर कावि १५६
|| बहुतक ्रन्थ तुम्हारा चुर । आपन पन्थ नियार चर६॥
अन्ध अचेत दूतका पन्थ ३
|. पन्थ तीसरे तोहि बताऊ । अन्ध अचेत सो दूत रखाउ॥
अुरागन्लाग ( १२१ )
होय खवास आय तुम पासा । खुरत डपारू नाम परकासा । |
अपनो पन्थ चवे न्यारा । अक्षर योगजीव अम डारा ॥
मनभगदूतक्रा पन्थ ४
चौथा पन्थ घुनो धर्मदासा | मन्भग दृत कर वरकासा ॥
कथा मूल रे पथ चले । म्रुपन्थं कहिं जगमहिं अवे॥ |
खटी नाम जीव सपुञ्चाई । यहीं नाम पारस उदरा ॥
हग शब्द सुमरिन अख भाखे । सकर जीव थाका गहि राखे॥
ज्ञानभङ्कोदुतका पन्थ
पथ पाचों घनो धमनि ज्ञानं भगी इत जो ॥
प॑य तिदिं टकतार हे छर साच आगम मा जो॥ |
जीमनेत्र टलाटके सब रेखा निवंके परखाबह ॥
तिह मघा परिवियदे खि तब जीवधोखरूगवावई ॥८०॥ |
सो °जसजिहि काम छ्गाय.तघ तिहि पान खाई ई
नारी नर बधाय, चह दिश आन फरि ई॥८७॥ |
मनमकरद दूतका पन्थ ६
छठे पन्थ कमाली नाऊ । मनमकरन्द दूत जगं आॐ॥ |
घुरदा मारि कीन्ह तिर्दिबासा । हमसुत होय कीन परकासा॥ ।
जीवदिक्चिलमिरज्योतिदृदाई। यदि विधि बहत जीव भरमाई॥ |
जौँ खुगि दृष्टि जीवकर होई । तौ लगिमिरञ्चिरुदेखो सोई॥ |
दोनों दृष्टि नारि जिन देखा । केसे चिर कचि रूप परेखा॥
ञ्िलमिर रूष कारुकृरमानो । दिरदे सत्य ताहि जनि जानो॥
तभंग दुतक्रा पन्थ ७
साते दत आहि चित भंगा । नाना कूप बोर मन रंगा ॥ ||
दौन नाम कह पन्थ चखवे । बोलनहार पुरूष टदरावे ॥ ॥
किस स ककः न
ने
( १२२ ) अनुरागसागर
| पांच तत्तव गुण तीन बतावे । यहि बिधि एेसा पथ चलावे॥
। बोकत वचन जहम ह आपा । गुङ्वसिष्ठ राम किमिथाप्॥
कृष्ण कान्द गुर् की सेवकाई।ऋपि सुनि ओर गने को भाई॥
नारद शङ् केह दोष रगावा । ताते नरकवास अुगतावा ॥
| बीजक ज्ञान दूत जो थापे । जस गूरखर कीडा घट व्यापे॥
आपा थापी मखा न होई! आपा थापि गये जिव रोई॥
अकिलभंग दूतका पन्थ ८
| अब भे आस्व पन्थ बता । अकिरु भंग दृत सश्चाड ॥
| परमधाम कहि पथ चवे । ककु कुरान कदु वेद चुरावे॥
क कडु निरणण हमरो लीन्हा।तारतस्य पोथी इक कीन्हा ॥
राह चलावे ब्ह्मका ज्ञाना । करमी जीव बहत लपटाना॥
विशम्भर दूतका पन्थ ९
| नवव पथ सुनो धमदासा । दूत विशम्भर केर तमासा ॥
राम कबीर पथ कर नाऊ । निरशुण सरगुण एक मिखाञ॥
पाप पुन्य करद जाने एका । एेसे दूत बतवे रेका ॥
नकटाननदूतका पन्थ १०
अब् में दशवां पथ बताडं । नकटा नैन दूत कर नाड ॥
मतनामी क पन्थ चले । चार वरण जिव एकं मिटावे॥
ब्राह्मण ओर क्षी _ प्रभा । वेश्य श्र सब एक मिरां॥
सतगुरू शब्द न चीन्दं भाई । बांधे रेकं नरकं जिव जाई ॥
काया कथनी कहि समुञ्चावे । सत्य पुरूष की राह न पावे॥
छन्द
| सुनह धमनि काठ बाजी, करहि बड़ फन्दावली ॥
अनेक जीवन् लइ गरास, काठकम् कमौवटी ॥
जो जीव परे शब्द मम,सो निस्तर नमजाठते।
| गहेनाम प्रताप अविचल.जाय ढोक अमानते॥८१॥
सो--परषराब्द हे सार, यमिरणअमी अमोख्यण॥।
१
| अस्काटपरल य॒नह धभनि करे छलमति आयके ॥
अवुरागबागर ( १२द)
हैष होय भौ पारमन बचकर जो दृढ गहे॥८॥
दुरगदानी ` दूतका पन्थ ११
पथ इकादश को विचारा । इरगदानि जो दत अपारा ॥
जीव पंथ कहि नाम चरे ! काया थाप राह समञ्चवे ॥.
काया कथनी जीव बतायी । भरमे जीवं पार नर्हि पायी ॥ |
जो जिव होय बहुत अभिमानी) सुनके ज्ञान प्रेम अतिटानी ॥ |
हंसमुनि दूतका पन्थ १२
1
वि 5 ॐ ~ | = जक ।
9 ऋय के ऋक ऋ == =
अब कहूं द्वादश पथ भरकाशा। दूत इंसञुनि करे तमाशा ॥
वचन बस घर सेवक होई । प्रथम करे सेवा बह तोह ॥ ।
पाे अपनो मत प्रगटावे । बहुतकं जीव फंदं फंदृवि ॥
अंश वस्र का करे विरोधा । कड अमान कड सान भरबोधा॥
यहि विधि यम बाजी खे । बारह पथ निजं अंश षगटाबे।।
फिरि फिरिअवेफिरिफिरिजादबार बार जगम प्रगटाइ ॥
जहां जहां प्रगटे यमदूता । जीवनसे क ज्ञान बहता ॥
नाम कषीर धरावे आपा । कथित ज्ञान काया तहँ थापा
जब जब जनम धरे संसारा । प्रगट दोयके पन्थ पसारा ॥
कृरामात जीवन बतलवे । जिव भरमाय नरकं महं नवे ॥
। मम वचन दीपक दृटगहे, मे ठह ताहि बचायके ॥
| अंश दसन तुम चितायउ, सत्य शब्द हि दानते ॥
शब्द परखे यमहि चीन्हे हृदय दृढ शस्क्ञानते ॥८२॥
सो°~चितचेतो धर्मदास, यमराजा असछक करे ॥|
। गहे नाम विश्वास ताक यम न पावर हि।८६॥
( १२४ ) अबुरागसागर
घ मद्ास कवचन
हे प्रु तुम जीवनके मूला । मेरह मोर सकर्दुख ञ्चुखा॥
आहि नरायन पुर हमारा । अब हम तर्हकर दीन्द निकारा॥
कार अश गह जन्मो आई । जीवन काज भयो दुखद्ाई ॥
घन सतगुरु तुम मोहि रखुखावा। कारु अंशको भाव चिन्दावा॥
पु नरायन त्यागि हम दीन्हा। तुमरो वचन मानि हम लीना॥
धमदास साहवको नौतम अन्शका दशन होना
| घमेदास विनवे सिर नाई । साहिब को जीव सुखदाई ॥
| किरि विधि जीव तरेभौसागर।कंहिये मोहि हसपति आगर ॥
। केसे पन्थ करौं परकासा । कैसे हंसर्दिं रोकं निवारा ॥
। दास नरायन सुत जो रदिया।कार जान तारकेह परिदरिया ॥
| अब सादिब देह राद बताई । कैसे हंसा रोक समाई ॥
बेस ॒हमारो चलि है । केसे तुम्दरो पंथ अनुसरि है ॥
। आगे जेहिते पथ चलाई । ताते करो विनती प्रभुताई ॥
कबीर वचन
धर्मदास सुनु शब्द सिखापन।कों संदेश जानि हित आपन॥
नौतम सुरति पुरुषके अंशा । तुव गृह प्रगट दोहदे वंशा ॥
वचन वंश जग प्रगटे आई । नाम चुणामणि ताहि कदाई॥
पुरूष अंशके नौतम वेशा । कार फन्द काटे जिव संशा॥
|| कठि यह नाम् प्रताप धमनि, हस छटे कारसो ॥
|| सत्तनाम मन बिच दृद्गह, सोनिस्तरे यमजाटसो ॥
1 नकट न आवह जदि बैशाकी प्रतीतिदो॥
||कठिकाठके सिर पावे चरेमवजलजीतिहो ॥८२॥ |
अनुरागसागर ( १२९ )
पो °-तमसों कों एकार, धमेदास्च चित परखह् ॥
तेहि जिव छेड उबार वचन जो वञ्च दटगहे ॥८७॥
हे प्रभु विनय करो कर जोरी । कहत वचन जिव जासे मोरी ॥
वचन वेश युङ्षके अशा । षावडं दर्शं मिटे जिव संशा॥
इतनी विनय मान पथु लीजे । ह साहिब यह दाया कीजे॥
तब हम जानि सतक रीती । वचन तुम्हार होय परतीती ॥
कवबीरवचनं मक्तामणि प्र
सुन सादिब अस कचन उचारा। मुक्तामणि तुम अंश इमारा ॥
अति अधीन सुकृत इठलायी । तिनं दर्शन देह तुम आयीष
तब सुक्तामणि क्षण इक आये । धमेदासर तब दर्शन पाये ॥
वमद्सवेचन्
गहिके चएण परे धर्मदासा । अब इमरे चित पूजी आसा
बारम्बार चरण चितलाया ।भटे पुरूष तुम दशं दिखलाया॥
दर्शं पाय चित भयो अनदा । जिमि चकोर पाये निशिचंदा॥
अब प्रभु दाया करो तुम ज्ञानी। वचन वैश प्रकटे जगजानी ॥
आगे जेहिते पथ .चखाई । तेदिते करौं विनती भथुताई॥
कबीरवचन । चडामणिकी उत्पत्तिकी कथां
कहें कीर सनौ धर्मदासा । दशै मास भ्रगटे जिव कासा॥ |
तुम गृह आय छेहि अवतारा।दहंसन काज देदह जगधारा ॥
धर्मदास सुनु शब्द् सिखापन। कहो संदेश जान दित आपन्॥
वस्तु भडार दीन तुम पाहीं । सौषहु वस्तु वतावह् तादी ॥
अब जो दोह दै पुज म्डारा। सोतो होइ है अंश हमारा ॥
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( १२६ ) अक्रागसागर
मिम मीीीीीिी सिपि मस सिरो
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कृत्रोर वचन्
। तब आयस साहब अस भाखेसुरतिनिरति करि आज्ञा राखे॥
पारस नाम धमनि छिखि देहू। जाते अंश जन्म सो ले
खड सेन मे देऊ खाई । धमेदास सुनियो चितलाई ॥
ङ्ख पान पुरूष सहिदाना । आमिन देहु पान परवाना ॥
घमद्स कवचन
| गयडउ धमदास कह शंका । रशि समीप कीन्हा परसंगा॥
॥ धमदास आमिन रहकरावा । खाय खसमके चरन परावा॥
| पारस नाम पान छवि दीन्हा। गरभवाषष आसा सो ठीन्दा॥
रतिषुरति सो गरम जो भयज।चरामनिदासबास तहँ खयञउ॥
| धमदास परवाना दीन्हा । आभिन आय दंडवत् कीन्दा॥
दसो मास पूजी जब आसा । प्रगटे अंश चूरामणि दासा॥
कदिये अगहन मास बखानी । शुक्ल पृक्ष सातमदिन जानी॥
मुकतायन प्रगरि जब आये । द्रव्य दान ओं भवन लुटाये ॥
धन्य भाग मोरे गृह आये । घ्मदास गहि रेके पाये ॥
कबीर वचन
जाना कबीर मुकतायन आये । धर्मदास गृह तुरत सिधाये ॥
मुक्तकेर अक्षर मुक्तायन । जीवनकाज देदधर आयन ॥
|| अजर छाय अब प्रगटे आये । यम सो जीव खेहु सुक्ताये ॥
जीवन केर भयो निस्तारा । अ॒ुक्तामनि आये संसारा ॥
व्यालीसकंशक राज्यकी स्थापना
कृदुकं दिवस जब गये बितायी । तब साहिब इकं वचनसुनायी॥
धमदास खो साज मंगाहं । चौका जगत करब हम भाई॥
| थापन वंश बयाछिप् राजू । जाते होय जीवकी काजू ॥
|| धर्मदास सब साज रमँगाहं । ज्ञानी आगे आन धराईं ॥
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अवरागतागरं ( १२७ )
धमेदास वचन
ओर साज चाहो जो ज्ञानी ।सोसादिबमोदिकोबखानी |
कयोर् वचन
साहिब चौका गमत मडावा। जो चादिये सो तुरत मेमावा॥
बहुत भांतिसों चोकं पुरायी । चरामणि कहै ठे वैठायी ॥
पुरुष वचन जगम आये । तेहि विधि जीव लेह अुकताये॥ |
वंश बयाङिसि दीन्हा राज् । त॒मते होय जीव कहं काजू
चडामणिको कवीरखाहवका उषदश दना
तुमते वंश बया होर । सकर जीव कहं तरं घो ॥
तिनसो सार होड है शाखा । तिन शाखनते होड पर शाखा
दश सदख परशाख तुव ह ई वंशन साथ सवै निरवहि है
नाता जान करे अधिकाहईं । ताकहं लोकं बदों नहिं आई
जस तुम्हार हह रै कडिहारा । तैसे जानो साख ठम्डारा ॥
पुरुष अंशा नहि दसरे तम, स॒नह य॒वंश्च नागरा ॥
अहा नोतम पस्षके ठम, प्रगट मे मोघागरा ॥
वैद जीवन कहँ विकट तब, पुरस्ष तोहि पठायङः ॥
हश दजो कहे तेहि, जीव यम छे खाय ॥८७॥
सोरटा-वैश पस्षके रूप, ज्ञान जौहरी परसि हे ॥
होवे ह॑स स्वषूप, वश छप जो पड हे ॥८८॥ |
कबीर वचन धम॑दासप्रति
सतशरू कटै धमनि सुनिखेहू । अब भंडार सोपि क
प्रथम तुमदि जो सोपा भाई । सबि सबदि तुम देह
तब चूडामणि दोव पूरा । देखत का दोय चकच्रा ॥ |
आज्ञा सुनत उढे धर्मदासा । चूरामणि दंकराये निजपासा॥
भाया
४).
( १२८ ) अनुरागसागर
"चकः = ~
ध वस्तु रुखाय तेहि छन दीन्दा। तनिको विरंबन ताम कीन्दा॥ |
दौड आय पुनि गुरुपदं प्रस । कापिन रुग्यो कार तब डरसे॥ |
| सतगुरु भयेइलास मनमाहीं ।देखि चुरामणि अतिदरषारीं॥
| बहुरि धमनि सन भाषन खागे। सुनहु सुकृत तुम बहत सुभागे॥
वेश तोर भये जग कंडिहारा । जग जीवन होड है भवपारा ॥
इतने होड है वग्याङिस बसा । पथमे प्रकटे सोई मम अंसा ॥
वचन वेश मम सोई कवे । बहुरि होय सों विदजग आवे॥
वंशंका माहात्म्य
| वंश हाथ परवाना प ई । सो जिव निभरयलोक सिपेद॥
| ता कहं यम नि रोके वाटा। कोर असी दे घाटा ॥
। कोरज्ञान भाखे सुख बाता । नाम कबीर जपे दिनराता ॥ |
| बहुतकं ज्ञान कथे असरारा । वंश बिना सब शूठ पसारा ॥
| जो ज्ञानी करी है बकवादा । तासो बुञ्ज व्यंजन स्वादा॥ |
कोट यतनसों विजन करई । साम्हर बिन एीका सब रइई॥ |
जिमिषिजनतिमि ज्ञानबखाना।वंस छाप सतरस समजाना॥ |
चौदह कोटि है ज्ञान हमारा । इतने सार शब्द् रै न्यारा ॥ |
नो रुख उड्गन उग अकाशा। ताहि देख सब होत इलासा॥
होवे दिवस भायु उगि आवे । तब उडगनकी ज्योति छिपावे॥ |
नौलख तारा कोटि गियाना । सार शब्द देखड जस भाना॥
कोटि ज्ञान जीवन समुञ्चावे । वंश छाप ईसा घर जवे ॥
उदधि माञ्च जस चं जहाजा।ताकर ओर सुनो सब साजा ॥ |
जस वोदित तस शब्द् हमारा।जस यरिया तस वैश तमारा॥
मूतिधमेनि कहां दमस परप मू बलानिहो ॥ |
|
[व
अवुगगदघागर ( १२९ )
| छाप न पाव जौ रिव, शब्द निशिदिन भाव ॥
काट फन्दमे फट् तेहि, मोहि दोष न छाव ॥ ८९५॥
घो-सजे कागकी चाल, परखि शब्दसो हघहो ॥
ताहि न पवि कार, सार शाब्द जो दृद गहे ॥८९॥
भववप्यक्रयथा प्रार्म्नब । धमदास वचन
धमदापसत विनती अब्रुसारी । है प्रथु मै तुम्दरी बलिहारी ॥
जीवन काज वेश जग आवा । सो साहिष सब मोहि सखनावा॥
वचन वैश ॒चीन्दे जो ज्ञानी) ता कह नहि रोके ढं दानी॥
पुर्ष षप दम वशि जाना । इजा भाव न डदये आना ॥
नौतम अश परगर जग आये। सो नै देखा ठकं बजाये ॥
तबहूं मोहि संशय एक आवे । करहु कृषा जाते मिट जावे ॥
हमकहं समरथ दीन पठायी । आये जग तब कालफसायी ॥
तुम तो कदो मोदि सुकृत अंसा। तदहं कारु करार उदिडंसा ॥
देसि जो वंशन कर होई । जगत जीव सब जाय बिगोड॥
ताते करहु श भजन । वेशने नरि कारनिरंजन॥
ओर कृष्ट मै नाहीं । मोरखाज प्रथु वुमकरं आडी
कबीर वचन
धर्मदास तुम नीकं विचारा । यह संशय सत आदि तम्हारा॥
आगे अस दोहं धर्मदासा । ध्मराय एक करे तमासा ॥
सो में तुमसे गोय न राखो । जस होहर्हितससतसत भाखों॥
प्रथम सुनो आदिकी बानी । करिके ध्यान ले तुम जानी॥ ॥
सतयुग पुरम मोही ठकराई । आज्ञा कीन्ह जाहूजग भाई॥ |
तते चले काल मग भटा । बहु तकरार दपं तिदि मेदा ॥ |
तब तिन कपट मोसन कीन्हा। तीनयुगमांगिमोर्दिसनटीन्दा |
पुनि अस केसि कार अन्याई। चौथायुग नर्द मांगो भाई ॥ ||
[वि
( १३० ) अदुरागसागर
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। एेसा वचन हार हम दीन्हा । तब संसार गमन हम कीन्हा॥
युग तीनोहार तिहि हम दीन्हा । ताते पंथ प्रगट नहि कीन्हा ॥
चौथा युग जब कलियुग आयो बहुरि परुष मुदिजगत पठायो॥
| मगमहं रोकष्यो कार कसई । बहुत विधि सोँ करी बरियाई॥
| सो केथा हम प्रथम जनाई । बारह पन्थको भेद बताई ॥
। कपट करयो बारह बतटखायो । ओरो बात न मोहि जनायो ॥
तीनि युगन मोहि दीन दिरायी । किथुगमां बहुफन्द मचायी॥
बारह ् प्रगट मोहि भाखा। चार पन्थ सो गुप्ति राखा ॥
जब मे चार शुरू निरमाया । कार्ड आपन अंश पठाया॥
। जब हम कोन्हा चार कडिहारा । धर्भराय छल्ुधि विस्तारा ॥
पुरूष हम सन कीन परकासा ।जानि परमारथ कटो धर्मदासा॥
यह चरि सो बुद्चि ह भाई । जासु दय निज नाम सदाई॥
निरजनका अपने चार अंशको पंथ चल।नकी आज्ञा देनेकी कथां
चारहि अश निरज्ञन कीन्हा। तिनकहुं बहुत सिखापन दीन्दा॥
निरजन व चन
तिनते कट्यो सुनहु दो अंशा । तुम तो आह मोर निज बंसा॥
तुमसे कौ मानि सो रीजे । आज्ञा मोर सो पाटन कीजे॥
वेरी हमार अरै एक भाई । नाम कबीर जगमा कदाई॥
भवसागर मेटन सो चाहे । ओरलोक सो बसावत आहै॥
करि छल कपट जगत भरमावे । मोर राते सबहिं छुटवे ॥
सत्य नाम॒ कर टेर सुनाई । जीवन कँ सो रोक पठाई ॥
जगत उजारन सो मन दीन्हा । ताते तुमि हमउत्पन्न कीन्डा॥
आज्ञा मानि जगत मरं जाह । नाम कबीर पंथ प्रगटाहू ॥
जगत जीव विषया रस माते । मेँ जो कदं करइ सोइ घाते॥
पंथ चार तुम जग निरमाओ । आपन आपन राह बताओ॥
[1
अनुरागसागर ( १३१ )
नाम कबीर चारों घरि राखो। विना कबीर न वचनश्चुख भाखो।
नाम कबीर जव जिव अवँ । कह वचन तिनके मन | |
कलियुग जीव ज्ञानसुधि नाहीं) देखा देखी राह चलाहीं ॥ |
| सुनत वचन तुम्हरो हरबवे । बार बार तुम्हरे टिग अवै
जव सरधा तिनकी दढ होई । भेद भावना मनि ह कोई ॥ |
तिन पर जार आपनो डरो भेद न पर्वं देखि सम्दारो ॥
जम्बुदीप महं करिहौ थाना । नाम करवीर जँ परमाना ॥ ।
जव कबीर बाधो गद् जवे । धर्मदास कँ निज अपनावे॥ ।
व्याछिस वेश तब थापे राज्। तबरी सोवै राज बिरान् ॥
चौदह यमते नाका रोका । बारह पन्थ इम लाया धोका॥
तवहं हम करं संशय भाई । ताते तम कँ देत पठा ॥
व्याछिसपर तुम करिह घाता। तिन्ह फैसावह अपनी बाता
तवहीं तो हम जानब भाई । वचन मोर तुम लियं उठाई॥
चारों दूत वचन
सृनत वचन हरषे तब दूता । आज्ञा मान रीन् तुव बूता॥
जेसी आज्ञा तुव मोहि दीन्हा । मानि वचन हमसिरपर लीन्डा॥
दाथ जोर विनवन लागे । तुम किरणा इम होब सुभागे॥
कबीरवचन धमेदासम्रति
इतना सनतं कारु इरखाना । अतिदी सुख दतनते जाना॥
ओरहु तिनको बहुत बुञ्ञावा । कारु अन्याई राह बतावा ॥
जीव घात बहुत मन्ञ सुनाई । तिनके केहे जाह जगभाई॥
चारहु चार भाव धनि जाहु । ऊच नीच छांडड न ॥
अस करि फानफनह तुम भाई । जेहिकरि मोर अहार न जाई॥
छ॒नत वचन तिन मन अति हरषे। काल वचन जिमि अमृत वरषे॥ |
यही चार दूत जग भरगटे ह । चार नामते पंथ चले है ॥ |
( १३२ ) अनुरागसाग्र
यय भः | 1 आः = कि
। चार दूत कहं नायकं जानो । बारह पन्थकर अगुवा मानो॥
इन्हहीं चार जो पथ चँ हँ । उलट पुलट तिनहू अरथ हे॥
। चार पथ बारह कर मूला । वचन वेश कर होई है ञ्चला॥
सुनत वेचन धमनि घबराने । हाथ जोर विनती तिन गाने॥
घ मद्ास्च वचन्
कह धमदास सुनो प्रथु मोरा । अबतो संशय भयो बरजोरा॥
अब तो विम्ब न कीजे साई । प्रथम बतावह तिनकर नाई ॥
| जीवन काज मै पृं तोही । तिनकर चरि सुमावहु मोरी॥
| तिन दूतन कर भेष बताओ । कहो चिह्न ताको परभाओ॥
कोन रूप तिन जगम धौ । केहि विधिते सो जीवन पर॥
कौन देश परगरि है आईं । हे सादिब अनि देहु बताई ॥
र् वचन्
धमदास मे तोरि रखाओं । चारि दूतकर भेद बताओं ॥
चार दूतोके वणन
तिनकरनाम प्रथम सुनि लीजेरंभ रंभ जयविजय भनीजै॥
१ रभ दूतका वणेन
|| रभ दूत कर करौं बखाना । गढ कार्जिर रोपिरै थाना॥
| भगवान भगत वदिनाम धराई। बहुतक जीव रई अपनाई ॥
जो जियरा होहि अंङ््ूरी । सो बांचहि यम फन्दा तूरी॥
रभ जोरावर यम बड़ द्रोही ।त॒महि खंडि अङ्खंडिदहि मोदी॥
आरती नरियर चौका संहारी । खंडिदहि लोकदीष सबञ्मारी ॥
| ज्ञान अन्थ ओ खंडि बीरा। किं रमेनी काल गभीरा ॥
| मोर वचन रेह करे तकरारा । तेदी फास पसे बहुसारा ॥
॥ चारों धार कथे असरारा । हमार नाम रे करे पसारा ॥
| आपहि आप कबीर कां । पांचतच्तव बसि मोहि ठदराई॥
थापि जीव पुरुष समाई । खंडि परुष जीव वर राई॥
अतुरागसागर ( १३३ )
हंस कबीर इष॒ ठदराई । करता कहं कबीर गहराई ॥
कर्तां कार जीवन इखदाई । तेहि सरीख मोहि यह यमराई॥
कर्मी जीवहि वुर्षं ठदहराई । पुरूष गोहं आपु प्रगटाई ॥
| जो यह जीव आगहि होई । नाना इख कस यते सोई॥ ,
| पांच तत्ववसि जीव इख जवे) जीव पुरूष कटं सम ठहरावे॥ |
| अजर अमर पृर्षकी काया । कला अनेक इप् नहिं जया॥
| अस यमदूत खण्ड देह तादी ! थापे जीव पुरूष यह आदही॥
| तिस सागर बाई निज देखी । धोखा गहै निअच्छर रेखी॥
बिव दर्षण दरसे निज इषा । ध्यनि यड शङ्गम्य अनूवा॥
छन्द
| यहि विंधिरम्भअपबट्ुनिधमनि"करइ छ्लमत आहकै॥
बहु जीवहि फस पफँसबिदिनगनाम्कबीरहि गाके॥
अहा वैशहि चेता हौं ठम, शब्दके सहिदानते ॥
परखिममदब्दहियमाहिचीन्दे रदेयस्गमज्ञानतै <८&
सो°चित चेतो धमदास, यमराजा अपस करे
गहि शब्दं विवास, हसन शब्द चिताइदहीं ९०॥
२ करम्भ दूतका वणर्ते
रम्भकथा तोहि कहि सम्ुञ्चावा। अब कुरम्भके बरत भावा ॥
मगध देशमें परगटि है जाई । धनीदास वहि नाम धराईं ॥
ज्ञानी जीवन करं भटकावे । ङम्भदूत बहुजारु खिडावे ॥
जाको छुद्र ज्ञान घट होई । धोक दे यम ताहि बिगोई ॥ |
| धर्भराय वचन |
हे साहब मोहि कटौ बुश्चाईं । कोन ज्ञान वद कथि है आई॥ |
ज > ठकतीरसागर ६
( १३४ ) अनुरागसागर
कबीर वचन
धमनि सुनो ङरम्भकी बाजी । कथी कसार फन्द् रटसाजी ॥
चन्द्र सुर तत रगन पसारा । राह केतु कथि है असरारा ॥
पांच तत्वं मतिसार बखानी । जीव अचेत भम नि जानी॥
ज्योतिष मत टकसार पसर । मह गोचर वश प्रभु बिसरे ॥
नीर पवन कं कथि है ज्ञाना । पवन पवनके नाम बखाना ॥
आरति चौका बहु अरथे रहै । धोका दे जीवन भरमे है ॥
| शिषजब करिहै करि विशेषा) अग अंगकी निरचै रेखा ॥
नखसिख सकल निरखिहै भाई। करम जाद जीवन भरमाई ॥
निरखि परखि जिव सूर चटाई । सुर चटाय जीव धरि खाई ॥
कनक कामिनि दिना अरपाई। यह विधि जीव ठगौरी खाई ॥
गांठ बांशि फेरहि तब फेरा । करम रुगाय करिहि यम चेरा॥
पवन पचासी कार्की आरीं ।पवन नाम लिखि पान खवारी॥
नीर पवन कथि करे पसारा । पवन नाम गहि आरति तोरा॥
पवन पचापी करि अनुह।री । आरति चौका करे विचारी ॥
क्या नारी क्या पुरूष दे भाई । तिर मासा निरखे सब शई॥
शंख चक्र ओ सीपकर देखिह । नख सिखरेखा सवे प्रखिरै॥
एेसो काल दुष्ट मति भाई । जीवन कँ संशय उपजाई ॥
संशय गाय गरसि दै काखा। करहि जीवको बहुत बिहाला ॥
सुनहु काल व्यवहारा । जस क्कु कथिहै कार खबारा॥
साठ समे बाहर चौपाई । देहि उटाय भरम उपजाई ॥
पच अमी एकोत्तर नामा । सुमिरन सार शब्दशुण धामा॥
जीव काज बदि जो कडु राखा । तामे काल धोखां अभिखखा॥
|| पचो तत केर उपचारा । कथि ह यदी मता दै सारा॥
|| पचो तत्व परकीति पचीसा । तीनों यण चौदह यम इशा॥ ।
अवुरागसागर ( १३९ )
माया
यहि फन्दे जिव फन्दैँ भाई । पांच तत्व यम जा बनाई॥
तृन धरि सुरति तत्वमो खावे। तन छट कहँ कहां सभवे ॥ `
जहं आशा तहं बासा पावे । तत्तव मतो गहि तत्व समावे॥
नाम ध्यान सो देह छुड़ाई । राखे तत्तव फास अङ् बाई ॥
धमनि कं टमि को बखानी । दृत रम्भ करिहै चमक्षानी ॥
ताकी छलमति चीन्हे सोई । जो जिव मोहि रखिहै समोई॥
पांचों तत्व कालके अंगा । ताके यते जीवं होय भगा ॥
=
द्
स॒नेउ धमनि कुरम्भवाजी, करि बह फंद फेंसावई॥ |
अनन्त जीवन् गरासि छेवे, त्व मता परावह ॥
लेड नाम कबीर जग मह पंथ वहि परगट करे ॥
भ्रमवश जिषे जाय तेहि दिग.काल्के खमे परे<७
सो °-पुस्षशब्द हे सारघुमिरन अमी अमोल शण॥
सो हैस हो भवपार,मन वच कमं जो टट गहे ॥९१॥
३ यमदूतका वणेन
रभ ङरम्भ यह कद्यो बखानी । अब परखह तुम जयकी बानी॥
यह् यमदूत कठिन विकरारा । मूटमूर वह कथिहि ख्वारा॥ |
ग्राम ढुरकुट प्रगे आई । गढ़ बांधोकै निकट रा ॥
छल चमारके प्रगटे सोई । उवे $ विगोई ॥
साह दास करावै दूता । गणपत शह ताकर एता ॥
दोह काल प्रबल दुखदाहं । तुम्हरे बंसको षेरिहिं आई ॥ |
कथईं मूल हमारे पासा । म्द उगय दह ध्मदासा॥॥
अनुभव कदि भथ बहुभाई । ज्ञानी परुष संवाद बनाई ॥ |
कथि मूलन पुरुष मोर्दिदीन्हा। धर्मदास निजमूल न ५ न्डा॥|
अस वहि कारु जोरावर होई । कहं भरम वंशको सोह ॥॥
केकः = कके चछ).
न ण रा स) =) का क-म ७ ७
॥ # धि ध
# 1.6 = न "नः ३, (त 9 ^ 4
क न + । ॐ & ४ म ए
= च 1 ष क `
य क = गी 99 ~, "9 ~ १ ॥ ॥
च
॥ १ =“
( १२६ ) अत॒रागसागर
| वेशि निज मत देह दिदराहं । पारल थाका भरु चटाई ॥
सूरु छापे वंश अभिगोईं । पारस देहि कार मति सोई॥
जग शब्द् वह कथि हैँ भाई । कच्चे जीवन देइ भुरखाई ॥
जाहि नीर ते काया रोई ।थापिरहि ताक निजमति सोई॥
काया मूक बीज रै कामा । राखिहि ताक गप्र नामा॥
प्रथमं थाका गुप्ति राखी । सिषर्ि सापि संधी तब भाखी॥
प्रथम ज्ञान भथ समुज्ञायी । ेदि पी फिर कारु दिदायी॥
। नारि अग कहं पारस देर । आज्ञा मांगि शिष्य परं लइ
प्रथमहि ज्ञान शब्द समुञ्ञर । तेदि पीछे फिर भूर पिके ॥
। नरकखानि तेहि मू बखानी । यमब॑का असछरू मतिटानी ॥
द्यरी दीप कथा अरथा । ञ्यग नाम ठे ध्यान घराई ॥
अनहदं बाजे जमको थाना । पांच तत्व करिह चमसाना॥
पाचों तत्तव॒ गुफामे जाई । नाना रंग करे तहँ भाई ॥
पाचों तच्छ करे उजियारी । उटे इग फ़ामे मारी ॥
जब सोहगम जीव तन छोड । तब कहँ ञ्चगकवनविधि मांडे॥
इंञ्जरी दप कारु रचि राखा । इंगदेग दोउ काकि शाखा॥
अथि है अविहर्करु अन्याई । अविहरधोख धमकर भाई ॥
आरतिचौका कथिहि अपारा । होइ तेस बहुत कंडिदारा ॥
का नाम वह साजे बीरा । प्रखो धर्मदास मतिधीरा ॥
॥ गम ठाम घट कमं करे है । हमरे नाम ले हम्ह हमहै॥
|| जनिहै जगतसबयदिसम आदी । बरह्लहि भेद भरम तब जादी॥
|| कहं गि करीं कालकर रेखा । ज्ञानी होय सो करे पिवेका॥
छन्द
|| ममनज्ञानदीपकजाहिकरसो, चीन्दि है यमराजदो ॥
|| तजि काट विषयजज्ञारुदंसा.धाइहे निज काजहो॥
अजुसमन्षागर् ( १३७ )
रहति गहनि विवेकं बानी, परखिही कोड जौहरी ॥
गृहि सार अपार परिहरि, गिराममजेहियुधरी८८
सो-धमदासलेहुनान, जम् बाङकको छट्मतो॥
हैसहिं कह पहिदान, जाते यम रोकै नही।९२॥
धर्मदास तव॒ बस अज्ञाना । चिनदिदनहींकार सदहिदाना॥
जब रुग बंस रहं र्वरीना । तव लग काछरहै अतिदीना ॥
रहै कार ध्यान _ बक लाई । तजि ह नाम कार भगटाई॥
| बेधि मूर बंसमो रगँ । तब टकसार धोकमहँ पगिं॥
छेके काल बेस कं आई । वस्तुके धोखे कार अ््याङ॥
इमरी चालसे बंस उदे है । मूर टकषारके मग अर्द ३॥
नाद् पुत्रसो न्यारा रहि ह । मम बानी नरि वहं इटं गहिडै॥
रहै उजागर शब्द अधारा । रहनि गहनि शन ज्ञान विचारा
ताहि न भासे कार अन्यां । यह तुम जानह निश्चय भाई।॥
४ विजय दूतका वणेन
अब तुम सुनु विजयको भाऊ । एक एकं तोहि बरनि खनाॐः॥
बुन्देलखण्ड यह प्रगे जाई । ज्ञानी जीवहि नाम धराईं ॥ |
सखा भावको भक्ति दिटाई । रास रची ओ भुरङ्ि बजाई॥
सी अनेक संग रौलाई । आपरि दसरा कष्ण कंडाई॥
धोका दहं जीवन करट सोई । बिन परिचे कस जाने खोई॥
चच्छु अग्र रह मनकी छाया । नासा उर अकाश बताया॥
कुटिरा प्रे धोखा यमकेरा । श्याम सेत चित रंग चितेरा॥
| छिन छिन चच अस्थिर नादी।च्मं॒दषटिसि देखे तादी ॥
मनकी छाया कार दिखा । शक्ति मूल छाया ठहरा ॥
सत्य॒नामते देह दुड़ाई । जाते जीव काल्घख जाई ॥ || `
( १३८ ) अतुरागसागर
| धमनि तोहि कहा समश्चाई । जस चरि करि रै जमराई॥
। चारों दूत करे घन घोरा । यह् विधि जीव चोरावै चोरा॥
| दूतोसे बचनेका उपाय
ज्ञान ` धरो दिढ बारी । जाते कार न केरे उजारी ॥
इन्द्रमती कहं प्रथम चितावा । रदी खचेत काल नरि पावा॥
भविष्यं कथन अलग व्यवहार
जस कषु आगे होय है भाई । सो चरित्र तोहि कों बु्चाई।
जबर तुम रहि हौ तनमाहीं । तौर कार प्रगरिहै नाहीं ॥
गहो किनार ध्यान बकं खाये। जब तन तजो कार तब आये
|| छेक तोर वबेसको आई । कारु धोकसो बंस रिञ्ञाई ॥
बहु कडिहार बंषके नादा । पारस बस करहि विषस्वादा॥
बिन्दहि मूर ओर टकसारा । दोदहि खीर बंस मँश्चारा ॥
बंसहि एकं धोक बड़ होइ दै । हंग दूत ददि मा समेरै ॥
आप इग अधिक है तादी । आपमाहि सो ञ्जगर करारी॥
बिन्द् सुभाव आदेग नरं छोडे।मन मन आय विन्द मनमोडे॥
अस मार सुपन्थ चले है ताहिदेखिसो रार बदरै॥
ताको चिन्हि देखि नहि सकिटै। आपन वाट बंस मँ तकिरै॥
वेस् तुम्हार अनुभव कथिरखिहै। नाद पु्रकी निन्दा भखिहै ॥
सोह षटि द वेश कडिहारा । ताको होइ बहत रंकारा ॥
स्वारथ _आया चीन्ह न पह । अनन्त जीवन् कटं भटके ॥
ताते तोहि कहीं सम्चाई । अपने वंशन देह चिताई ॥
नाद पुत्र जो प्रकट रोई । ताको भिरे प्रेमसे सोई ॥
` || तुमह नाद् पुत्र गम आहू । यम मन परखडू धमनि साहू॥
| केमाङ पुत्र जो मृतकं जियावा । ताके घटम दूत समावा ॥
ककम का न्म
अ्दुरामनक्षायर् ( १३९ )
पिताजानितिन आर्ईेग कीन्डातब हय थाति तोहि कष |
हम है प्रम भगतिके साथी । चाह नहीं तरी ओ हाथी ॥
त्रम भक्तिसे जो मोहि गदहिदै। सो इख मम इदय समे ह ॥
अहकारते होतेड राजी तौ चै थापत पंडित काजी ॥
अधीन देखि थाति तेहि दीना। देखेउजब तोह भरेम अधीना।॥
ताते धर्मेनि मानु सिखाई । नाप थापी सौँपिहु भाई ॥
नादपु्र क सौपिह सोई । पथ उजागर जास डोह ॥
| वस करि है अहकार बहूता । इम है धर्मदास क पूता ॥
| जहां ईंग तवां हम नाहीं । धरमनिदेखु परखि मनमाईह॥
| जहौ ग त कारु सर्वा । नहिं पावे सतोकं अन्रूषा ॥
| धमद्स्च वचन्
| हौं प्रथु मँ तव दास अधीना । तुव आज्ञाते होर न भीना ॥
नादि थाती सौपब स्वामी ) वश तरे मोर अन्तरयामी ॥
कबीर वचन
धरमदास तुव तरि ई वंशा । याहि बातको मेटो संशा ॥
नाम् भक्ति जो दिदके धरि । सुव॒ धरमनि सोकसना तरि ॥
| रहनि रहै तौ सवे उबारो । वचन गहै तो व्याछिक् तारो॥
वचन गहै सोह बेस पियारा । विना वचन नहिं उतरे पारा॥
धमद्ास वचन
बस ग्याछिसितो तुम्हारा अशा। ताको तास्यो कोन भरसंसा ॥
वेष अश जो तारह साई । तबहीं जगमें आई बड़ाई ॥
कत्रीर वचन |
बंस व्याछिस बिद वुम्ारा । सो मेँ एक वचनते तारा ॥ |
ओर वैश ल्घु जेते होई । विना छाप इटे निं कोई ॥ ||
विद मिलि तौ वंस कहावे। विना वचन नाहीं घर अवे॥ |
वचन बेश व्याङिसि ठेका । तिनका समरथ दीन्डं टेका॥ |
वोत उक न्य. यि
वस॒ अंस वचन एके सोई । दीधे वेस अंस रघु होई ॥
| जेठो अस वचन मोर जागे । ओौर बस लघु पे रागे ॥
चारू चङे ओ पथ चलाव । भूरे जीवनको समुञ्चातै ॥
| नाद् बिन्द जो पंथ चरे । चगमणि हेसन सक्ततावे ॥
। घमेदास तुव वैस अज्ञाना । चीन्है नदीं अंस सहिदाना॥
जम कङ्क आगे होड है भाई । सो चरि तोहि कों बुञ्चाई॥
छठे पीढी विन्द तुव होई । भूरे वंश चिन्दु तुव सोई ॥
टकसारीको ले है पाना ।अस तुव विन्द् होय अज्ञाना॥
| चार हमार बस तुव आदे । रकसारीकै मत सब डे ॥ |
चोका तैसे करे बनायी । बहुत जीव चौरासी जायी ॥
आपा इस अधिक् दोय तादी। नाद पुञ्रसे अगर करारी ॥
होवे दुरमत बेस तुम्हारा । वचन बैस रोके वरपारा ॥
घमदास केचन
अबतो संशय भयो अधिकाई । निश्चय वचन करहु मोदि साई॥
| प्रथमे आप वचन अस भाषा । निजरच्छामहंग्याटिससयखा ॥
अब कहु काल वदा परि है । दोडबातकिटि षिधिनिस्तरिरै।
नाद वंशकरो बडाडइ कनीर वचन
धरमदासर तुम ॒चेतहु भाई । वचन बश कहं देहु बुञ्चाई ॥
जब जब् काल इपाटा लाई । तबे तवे दम होब सहाई ॥
नाद् हंस तबि प्रगटायब । भरमतोदिजगभक्तिदिटायब ॥
नादं पुत्र सो अंश दमारा । तिनते होय पंथ उजियारा ॥
वचन वंश तो होय सचेता । बिन्द् तुम्हार न माने होता॥
वचन वंश नाद् सग चेते मेटे कारु घात सब तेते॥|
विन्द तुम्हार न माने तादी । आया वंश न शब्दं समादी॥
१ नाद अर्थात् शब्द-शब्द से ही वाला पुत्र अर्थात् शिष्य, साधू, सन्त इत्यादि ||
अनुरागसागर् ( १४१ )
शब्दकी चास नाद कँ होई । विन्द् तुम्हारो जाय विगोई।
विद्ते होय न नाद उजागर । परखिके देख धर्मैनि नागर।॥
चारहु युग देखहु समवादा । पन्थ उजागर कीन्हों नादा॥ |
कहं निरगुण कर सरयन भाई। नाद् विना नहि चल पंथाई।॥।
धर्मनि नाद पुर तुम मोरा । ताते दीन्ड अक्ति डोग ॥
याहि विधि हमग्यालिस तर । जब गिरे वह तबे उवार ॥
नाद् वचन जो विन्द् न माने) देखत जीव काठ धर ताने ॥
ओर वंस जो नाद सम्हारे। आप तरे ओ जीवि तरै॥
कहां नाद कहं बिन्दु रे भाई 1 नाम भक्ति विलोक न जा
गरूमह्मा
गुरूते अधिक काह न्ह पेखे। सबते अधिकं युङ् कहँ लेखे॥ ,
सबते रेष्ठ रू क मानै । गुरू सिखापन सतक जनै ॥ |
बिन्द तुम्हार करे असगरा । बिव गुक् चहै होन भवषारा॥
निगय रोड जगत सथुञ्चावे । आप बडे सो जगत उडवे॥
बिना गष नाहि निस्तारा । ुर्ूरि गहै सो मवते पारा ॥
नाता जानि केरे अधिकार । वंसहि कार गरासे आई ॥
जब जग नात गोत अश्श्वे। ए वेश धोखा तब पवे॥ ,
तबहिं काल गरासे आई । नाना शूप पिरि जग खाई ॥
तबहिं गोहार नाद मम अवे। देखत काल तुरत भगि जवे ॥
ताते धर्मनि देह चिताई। वचन वेश बह विधि सञ॒ञ्चाई॥
नादवस संग पीति निबाहे। काल धोखते बचन ज चारे॥
नाद ॒वंशकी छोडे आसा । तति विन्द जाय यमफांसा॥
बह विपि दूत गावै बाजी । देख जीव होय बहुराजी ॥
|| ते तो जाय काठ शख परिह ।नाद् वेश जो हित् नहिं धरिई॥ |
ताति तोदि कों समञ्चायी । सबदीं कें तुम दे चितायी॥ ||
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( १९२ ) अनुरागसागर
वेशकहं जो जिव जाना । वचन वस चीग्हे सदहिदाना | ।
ताक यम नर रोके आई । सत्य शब्द जिन चीन्दा भाई॥
। घरमदास मे कहौं बुञ्चाई । वचन हमार गदो चितरखाईं ॥
जीवन कहं तुम कदिहौ जाई । वचन वस जब तारन भाई ॥
वचन वेस वहि नाद् न छंडे। सदा प्रीति नाद संगमांडे ॥
| नात गोत कहं पच्छ न करई । पच्छ करे तो दुखमहँ परह ॥
बहुत विधी मे दीन्ह चिताईं | चेत करे दुःख नहि पाई॥
बिन्द् तुम्हार नाद संग जवे । देखत दूत मनि पतति ॥
याहे उपाय भख होय बहुता । वचन नाद विद् रगे न दूता
धमदास्र द चन्
घ्मदास उठि विनती छाये । अव प्रभु मोदी कड बुञ्ाये॥
नाद् महातम एसो राखा । वचन वेसर अधीन करि भाखा।
कारन कोन कहु मोहि साई । वचन वस काहे निरमाई ॥
नादे बेस जगत चेते ह । वचन वंस् कामे कव देर ॥
कबीर वचन
सुनत वचन सतय वि्हसाये।ध्मदासकरविविधि समञ्चाये॥
गागन नाद् वचन नरि माने । ताते विदं हम निरनय ठाने ॥
बिद एकं नाव बहुताई। बिद मिरे सो बिद कहाई ॥
वचन वंस ह पुर्षके असा । तिनके सदन छूटे जगरंसा ॥
नाद् बिन्दु युगबन्ध जब होई । तबदीं काल रै शख गोई ॥
प्रथमे जस हम तुमहिं बताना। नाद विदं करयोग दिखाना॥
विना नाद् नहि विद् पसारा। विना र्विद्िं नाद् उबारा ॥
कंखियुग काल कठिन दै भाई । अदेषूप धरि सबको खाई ॥
नदे अदे त्याग कर होई । बिन्दे अरे विन्द संजोई ॥ |
याते अंङुश पुरूष निरमाया । नाद् बिन्द् दोउ रूप बनाया॥
^" ------------------
भ भ = भ क क काम
अनुरागसागर ( १४३ )
छाडि अह भजि सतषू्णा । सो दोहदे दंस सख्या ॥ |
नाद षिद् कोई हो भई । अभाव निं नीक बताई ॥ |
अहे करे सो भवम इरे । का फंस पड सो ख्बे ॥
अभाव जव वंसहिं अवि । नादे बिन्दु भेद पड़ जावे ॥
बेस विरोध चले पुनि आगे । काठ द्वा सब पथि खागे।
धमद्ास् बचन
|| साहषर विनती सनो दमारी । तुम्हारी दया जीव निस्तारी॥
नाद् विन्द कहं हप ल्खाया । तिनके तरनको भेद बताया
| सकल जीव तुम लोकि जाई। दास नरायण काह कराई ॥ |
मोर = जग माहि कवे । ताते चिन्ता मोर मन आवे॥
| भवसागरके जिव सब तरिहै । दासनरायण कार्ष परिह
| यह तो भली होय नहिं बाता । सुबु बिनती खसागरदाता।
| ताकां शुक्ति करो तुम स्वामी । यहि मोरविनती अन्तरयामी॥
कवार वचन
बार बार धमनि सयुञ्चावा । तुम्हरे ददयम्रतीत न आवा ॥
चौदह यम तो टोक सिधवें । जीवन फन्द कहो किन खे) |
अब हम चीन्हा तुम्हारो ज्ञाना । जानि ब्रूञ्जितम भयो अजाना॥ ।
पूर्ष आज्ञा मेटन लगे । बिसर्या ज्ञान मोहमद जागे॥
मोह तिमि जब दिरदे छावे । बिसर ज्ञान तब काज नसते
विन प्रतीत भक्ति नहि होई । बिनु भक्ति जिव तरे न कोई)
बहुरि काल फास तोहि खागा। पुत्रम तब दिरदय जागा ॥ |
प्रतच्छ देखि सबे त॒म लीना । दासनरायण कार अधीना॥
ताहू पर तुम पुनि हठ कीना । मोर वचन तुम एकु न चीन्दा॥
धर्मराज जो मोस्न किया ।सोऊध्यान तबद्दयनरदिया॥ ॥
मोर प्रतीत तुम्हे नह आवे । गुरुपरतीत जगत कसरवे ॥ |
जाड
( १७९७ ) अबुरागसागर
= न ~ = न ------- ~ ~
| आया छोड मिले गुरु आई । सत सीदीपर चदे सुभाहं ५
| आया पकड़ मोह मद् जागे । भक्ति ज्ञान सब तजे अभागे
| पुरूष अश तुम जगमें आये । जीव चेतावन कार उटये ॥ |
तुम्दरहि प्रतीत गुरूकर त्यागो । देखत रष्टि मोह जगपागो ॥
ओर जीवका कोन ठिकाना । यह सो अरैकार सहिदाना ॥
जस तुम करहु सुनहु धमंदासा। तस तुव वैस केरे परकासा ॥
मोह आग सदा सो जरिहै । वेस विरोध यादहिते परिरं ॥
सुत बिन नाम नारि परिवारा।कुरुअभिमानसबकालपसारा।॥
इनमे तब परिवार भुके । सत्यनामशो राहन पेहै॥
देखा देखी जीव साईं । देखत दूत मगन हं जाई ॥
तबहि दूत प्रबरु हवं जेहै । धरि जीवनक नरकं पेठेहै॥
कालफांस जब जीव फेसवे । काम मोहमदरोम भुरि ॥
गुर् प्रितीत तेहि नि रहई । सत्य नाम सनते जिव दद
जाके घट सतनाम समाना । ताकर कहौं सुनो सहिदाना ॥
काल बात तेहि लगे नाहीं । कामक्रोध भद् रोम न ताहीं॥
| मोह तष्णा दुर आश निवार । सतशुङ् वचन सदाचित धार
छन्द
जस युवंगम मणिजुगावे असशशिषग॒रु आज्ञागहे ॥
सुत नारिसब विसराय विषया ह॑सदोयसतपदृहे।
ग वचन अटक अमान धमनि सहे विरछाश्चरहो॥
दंसहो सतपुर चे तेहि जीवन सुक्ति न दरहो<९॥
| सो =-यर पद कीजे नेह, कमं भम जरा तज ॥
| निज तन जाने खेह.स्थुख शब्द विश्वास द९२॥
अवुरागक्षाग्र (१४७९ )
= वृ चनं |
| सुनेत वचन धम॑दास सकाने । मनद माहि बहुत पछताने॥
| धाइ गिरे सत शुरूके पाई । हौ अचेत भ्रथु होड सहाई ॥ |
चकं हमारी वकसह स्वामी । विनती मानह अन्तरयामीं ॥
हम अज्ञान शब्द तुम टारा । विनय कीन्ह हम बारंबारा॥
अब मे चरणः तुम्हारे गयॐ । जो संतनिकी विनती करॐ॥
पिता जानि बालकं इढ खे ।गण ओश्ण चित ताहिन आबे॥ |
पतित उधारण नाम वुम्हाग । ओश्ण मोर न करहु विचाय॥
करवीर वचन
धमेदास तुम पुरूषके अशा । त्याग्ह दास नारायण वंशा॥
| हम तुम धमनि दूजा नाहीं । प्रखह शब्द देखि दियमाईही॥
| तुम जो जीवकाज जग आऊ भौसागर महं पन्थ चाड ॥
| धमद्ास् वचन्
| हे प्रथु तुम सुख सागर दाता । शरञ्च किंकरको कर्यो सनाथा
| जबलग हम तुमहीं नरि चीन्हा।तब ल्ग माता काङहरलीन्हा॥
जबते तुम आपन कर जाना । तबते मोहि भयो चट ज्ञाना ॥
अबनर्हि दुनिया मोहि समायी। निय गीं चरण त॒व घाई ॥ ,
तुम तजि मोहि आनकी आसा। तो मुरि होय नरकमहं वासा॥ |
सतेगृर् वचनत
धर्मदास धन मो क चीन्हा । वचन हमार पुज तजि दीन्दा॥
|| जब शिष दद यञुङरमरताहां। गुर् स्वकूप तबहीं दरसादीं ॥
जब सिखनिजदिय गुरूपद राखे। मे? सबहिं कालकी साखे ॥
जौ कमि सात पांचकी आसा। तौ रगिय॒रूनर्हि निरते दासा॥
इक पत शिष्य गुरूपद खगे। रटे मोह ज्ञान तबर॒ जामे ॥ ||
दीपके ज्ञान हदय जब् आवे ! मोह भमं तब सबै नशते ॥ ||
| उलटि आय सतगुरु केह दरा। इन्द पिन्धुका भयो निबेरा॥ ||
( १४६ ) अतुरामसागर
सन्धुहि इन्दं समाना जाई । कहे कबीर मिटी दुचिताई ॥
| घमनि यह गुरू पद प्रतापा । गुरू पद गहि तज भ्रम दापा॥
यै गहै सब दुःख नशायी । बिन गुरूशिष्य निरासे जायी।॥
अब मे तोीं कटौ बुञ्ञाईं । सुनि संशय तब दूर पराई ॥
दास नरायन तोरे मनि है । वह तो आपनमन निज तनिरै॥
ताकर पन्थ चरे संसारा । यामनि कद सोच विचारा॥
अंश हमार जो पन्थ चलाई । ताहि देखि सो रार बदाई ॥
ताकर चदी देखि नहिं सदिहे। आपन बद बस मत कटिरै॥
पन्थ चलाय हग बहु आने । आपन सब छोर बखाने ॥
साधुसत सो कर अभिमाने । नाद पुत्र सो नि वह माने
| जब लग एसी चारु चवे । तबलग तो नरि सतपथ पावे॥
| वचन वैश ओर नाद कडिहारा। इनर्येग मिङे तो दोय उवार्
छोड़ अकार मान बदाई । सत्य शब्द जब दय धराई॥
|| वचन वेशको अंश कै ह । धनि तवै मोर मनभेहै।
जात तजे ओर मोह न अवे । सोई अंश वश कहै ॥
कुलक दशा जानकर खोवे । निश्चय अश वेश वह होवे
तब॒तेदी हम खेव उदारी । निश्चय कदर नदि संतख्बारी॥
यहि विश्वास धमेनि मन राखो ।विनविश्वास वचनन भाखो।।
गृुरुमहिमा
कीन विश्वास जीव नहिं तरई। गुरुपरतीतिविनु नर किं वरई।
गुर सम ओर न दानी भाई । गुर् चरनन चित राख समाई॥
छ
द्
दानी ओर न इषा जग मक्तिदानी जानिया॥
अधूम चाल ऊड़ायके य॒न्ञान अङ ठखानिया॥
हंसहि भक्ति दिटावदीं दे, अंक बीरा नाम हो ॥
दष्ट मित्र चिन्हायके, पर्ैचावदीं निन ठाम हो ॥९०॥
अदुरगन्लाग्र् ( १४७ )
सोरटा-णरू पर्ष नहिं आन्. निश्चयके जो मानहीं॥ ||,
, ताहि मिटे सदिदान,मिटे काटकटेडा सृव॥९९॥
सगुण भाव वेषु धर्मेदासा । कस इट गहेग्रतीत विश्वासा॥
कर्मी जीवन देखु विचारी । कस दढ गृहे भरतीत सम्हारी॥ |
आपदि ठे अव नर मादी । कृरता कहं मूरति गढ उदी॥
तापर अक्षत पुहुप॒चटवे । परेत प्रतीत ध्यान मन खवे॥
करता कर थापे पुनि तादी ! भग् अतीत होय नहिं जादी॥
जस धोखहु मह पेम समवे । सोई भेम सजिव बन आवे ॥
सौ जिव हाय अमोल अपारा। साहिषको हं ईस पियास ॥
उन जीवनको प्रेम बखाने । केसे दढ हय धौखं छ्यटाने॥
शू नाम हम आप कृदाया । यङ पुष नहि भिन्न बताया॥
अस जिव कार वस हव रहृई । हट प्रतीत कैर् नहिं गइईं ॥
सबं मूरति परतीत न अवे । न्य ध्यान धोखेह मन रूवै॥।
जो निश्चय ह गरू प्रन धरहीं । सक्ति शेय टारे नहिं टरहीं ॥
एसे करि ज विश्वास दद्व । गुरूतजिचित्त अनतनरिंखपे॥
यहि रइनीको ईस अमोखा । प्रेम रंग जो रंगे चोला ॥
प्रेम जानि ह अमृत गिरागुङ् । अचवतहोतखानिदुरमतदर ॥
धर्मदास दिय देखु विचारी । श्पतीत दिढ गहा सम्दारी ॥ |
छन्द
अस केप्रतीत द्टाय् ग॒श्षपद, नेह ३ स्थिर. छा य ॥
ग्ज्ञानदीपक बार निजउर, मोहतिमिरनशाइये ॥
शस्पद पराग प्रतापतें अब, पंन निश्चय जावह ॥
ओर मध्ययुक्तिनतरनकी,किदवासशब्द समावह ९१
सो यह मव अगम अथाह, नाम प्रमदृटके गहे ॥
ठेहङ्ृपा यस्थाहयकगिरा कडिहार मिले॥९५॥॥
( १७८ ) अनुरागसागरं
= क ~ = = =
(4 --------------------
धमेदासवचन-गुरुश्िष्यकी रहनी
घमदास विनती अदुसारे । तुम साहब हम दास तुम्हारे ॥
इक जो कडु पो गुरूराया । सो किये करिके अब दाया॥
शिषकीं रहनी ह जेसी । सो सञ्ञाय कहो यङ् तेसी॥ |
ग्रुपमहिमा कबीर वचन
सतशुर् कहै गु वतधारी । अथनसयुनबिचशुङ्आधारी॥
गुू बिना नहिं होय अचारा । गु विना नहिं होय भवपारा ॥
शिष्य सीपग॒र् स्वाती जानो । युूषारसशिष रोहसमानो ॥
गरु मख्यागिर शिष्यभुजगा। गुश्णुरूपरसिशीतर्होय अंगा॥
गुर् समुद्र है शिष्य तरंगा । गुर् दीपक है शिष्य पर्तगा॥ |
शिष्यचकोरगुरूकोशशिजानो।गुकूपदरविकमलशिषविकसानौ |
यहि स्नेह शिष निश्चय लदहई । गु्पद प्रस दरश दिय गई
जब शिषयाविधिष्यानविशेखा। सोई शिष्य शरूसम रेखा। |
गुड गुरुनमे भेद विचारा । यु्गुङ् कहै सकर संसारा॥ |
गुर सोई जिन शब्द् रकखाया । आवागमन रदित दिखलाया।॥
गुर् सजीवन शब्द् लखावे । जाके बरु हसा घर जावे ॥
ता गुर्सों कष अन्तर नाहीं । गुरू ओशिष्यमताएक दी
छन्द
मन कम नाना भावना यह, नगतसबलपुटानहो ॥
जीवमयभ्रमजाल डरिउ,उल्टिनिज नहिं जान्हो॥
य बहत हं संसारम एव, पदे कतम जाल ही ॥
सतय विना नहिं भ्रममिरे, बड़ाप्रलकालकरारदी९२
|| सो ~सतयंकी बलिहार, अजर सदेसा जो कटै ॥
ताही मिलेहोयन्यार, सतयुस्ष जिवर्भेरई॥९६॥
०
अनुरागसागरं ( १९९ )
निशिदिन सुरत गुर सो खषे। साध्र न्तके चितहि मावे ॥
जिनषर दाया सत्क केरे । तिनका फँसि करम सब जरे॥
करनी करे ओ सुरति ल्गवै। ताको खोक सतश् पंचव)
सेवाकरि मन राखे न आसा । ताका सतश् काटे कासा ॥
गुकचरणन जो राखे ध्याना । अमर रोकं वह करत पयाना ॥
| योगी योग साधना करई । विना शुक सो भव नहिं तरई॥
| शिष्य जो यर् आज्ञा धारी । य॒ङ्की कषा होय मवपारी॥
| गुर् भगता जो जिव आदी । खाश्चगुू नदिं अन्तर ताही॥
| साचा शु ताहि कर मने । साश्रु नरि अन्तर आने॥
| जो स्वारथ पागे संसारी । नर्दिशरूशिष्य न साश्चुअचारी॥
| तिनको कार फन्द तुम जानो । दूत अंस कार कर मात्रो ॥
| तिनते दोय जीवकी हानी । यह तो अहे धम सदहिदानी॥
| जोई गुर प्रेम गति जने । सत्य शब्दको राई पिाने॥
| वरम पुङ्ूषकी भक्ति दिढावे । सुरति निरतिकरतईं पड चावे
| तासों प्रीति करे मन खाई । छोडे इरमति ओर चतुराई ॥
| तदं निहक्षशय घर पे । भवतरिके जग बडूरि न आवे॥।
| सत नाम अमी अमोर अविचल, अंकवीरापाव्हेष
| तनि काग चाठमरालमतिगहिःस्चरणलोलावह ॥
| ओर पथ कुमारग सकट बह, सो नहीं मनलावहं
| र चरण प्रीति सुप॑ंय धमनि, दंसटोकसिधावहे ॥
सो ०-ग॒स्पद कीजे नेह, कम भम जज्ञा तनि ॥
निज तन जाने खेह, यस्युखशब्दप्रतीतिकरि॥९७)।
धमदास वचन
धर्मदास दियबिच अतिहरषे । गदगद गिरा नयन जल्वरषे॥ |
( १९९० `) अनुरागसागर
---~--- ~~ ---- -- -
ममहियतिमिरआदिर्अधियारा। सिहर पतगकीन्ट् उजियारा।।
| पुनि धीरज धरि बोर विचारी। केरिविधिकरोप्रभु स्तुति तम्हारी
। जब गुरू विनती सुनो हमारी । जीवन निरनय कटो विचारी ॥
कोन जीव करं देदों पाना । समरथ कहो वचन सहिदाना॥
अधिकारी जोतवनके लक्षण सदगुरु वचन
धमेदाष निःसंशय रदहू । मुक्ति सदेशा जीवन कहू ॥
देख जाहि दीन लो लीना । भक्तिसुक्तिकह बहतअधीना ॥
| द्या शील क्षमा चित जादी । ध्मेनि नाम पान दी ताही ॥
तासन पुरूष सदेशा करिहौ । निसदिननामध्यानदटगहिरौ ॥
दयारीन जो शब्द नहि माने काटदिशा दो बादं बखाने ॥
चञ्चल रषि होय पुनि जादी । सत्य शब्द न ताहि समारी।॥
विड्क बाहर दशन छिखाये । जनह दूत भेष धरि आये ॥
मध्यनेच जिदितिल अनुमाना । निश्चय काटदप् तिदहिजाना।
ओछा शीश दीधे जिरि काया । ताके इदय कषट रह छया॥
तेहि जनि देह पुरुष सदिदानी । यह जिष करे पंथकी हानौ ॥
काया कमल विचार । धमदास वचन
हे प्रथु जन्म सुफर मम कीन्दा। यमसों छ रि अपनकरलीन्हा॥
जौ सहस्र रसना मख होई । तो तव शुण व्रणे नरि कोई॥
हे प्रथु इम बड़ भागी आदीं । निज सम भाग कों भे का्ी॥
सोह जीव बड़ भागी होई । जासु दय तव नाम समोई॥
अब इक विनती सुनो हमारी । यहि तन निर्णय कदो विचारी॥
कौन देव कँ कव रदई । कद्वो रहि कारज सो करई ॥
नाडी रोम रुधिर ( कत अहं । कने मारग स्वासा बहईं ॥
ओति पित्त ओ फेफसा ञ्चोरी । साहब करहु विचार बहोरी ॥
१ यह दोनों चौपाई किसी भी पुराने ग्रन्थोमं नहीं है ।
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म न्स
अवुरागसागर ( १५१ )
जाहि ठाम रै जासु अस्थाना । साहब बरनि कहौ सदिदाना॥
| कोनकमलकेता जप परगासा । रात दिवसख्ग केतिकस्वासा॥
| कद्वाते शब्द ऽटि अवे । कौ कृवा वहं जाई समते ॥
| कोईजीव ्िखमिर कदं देखा । सौसाहिवमोटि कदो विवेका।॥
कौन देवके द्रशन पाई । तिहि अस्थान कहो सथरञ्चाई॥
सद्गृर् नच
धर्मनि सुनहु शरीर विचारा । पुरूष नाम कायति न्यारा ॥
प्रथमहि मूखकमल दरू चारी । तहं रह देवं गणेश पसारी ॥
विद्या गुण दायक तेहि किये ।षटशतअजपाध्यानसोकदहिये॥ |
मूर कमरूके उं अखारा । बट पडरीक कमर विचारा॥ |
| बह्मा साविजी खर राजे । षरटसइख अजया तहं गाजे ॥ |
| पदुम अष्ठदर नाभि स्थाना । हरिखक््मीतरं बसहिं पधाना॥
| जाय जहां षरसदसर प्रमाना । शुङ्गमते ख्खि परह ठिकाना ।
| ता उप्र पकज दल द्वादश । शद पारवती ताहि कमल्बस॥
| षट सदस अजपा तहँ होहं । युगम ज्ञानते देखु बिखोई ॥ ।
पोडश प्र कमल जिव रहं । सहस एक अजपा तहँ चहई॥
भवर गुदाफल दोड परमाना । तहवां मन राजाको थाना ॥ |
सहस एके अजपा तेह गई । धरमदास परखो चितलाई॥ |
सुरति कमर सतगुर्के बासा । तर्हएतिक अजपा परकाशा ॥
एक सहस षटशत ओ बीसा । परखहु धमनि दंसन इसा ॥ |
दोडृदल उध्वै शन्य अस्थाना। क्रिरमिखज्योतिनिरंजन जाना
ध्मेदास सुत॒॒शब्द संदेशा । घट परचेका कं उपदेशा ॥
अब पुनि सुन शरीर षिचारा। एक नाम गहि धरहु करारा ॥
सवे कुम्भ तन रुधिर संवारा । कोट ध रोम तन प्रथी सुधारा ॥
नाडि बहत्तर रै प्रधाना । नौपहं तीन प्रजान सुधाना ॥
( १९५२ ) अनुरागसागर
| जय नाडो मह एक _ अरूपा [व सोके रहे गहे सतशूपा ॥
जेतिक् पतर पदुम जो आदी । उठे शब्द् प्रगटे गुण तादी ॥
। तहवाते पुनि शब्द उठायी । श्ुन्यमा्हिसो जाय समायी॥
आंत एकडइस हाथ प्रमाना । सवा दाथ ञ्चोरी अनुमाना ॥
सवा हाथ नभ फेरी कंदिये । खिरकी सात युफामें रदिये॥
छंद-पित्त अणी तीन ज पाच अश दिरुकही
सात अंग फेफसा है सिधु सात तदं रदी ॥
पवन धार् नितार् तनो साघु योगी गम द्द ॥
यहिकमयोगकियेरहित्नाहिं भगति बि जोहनवहे ९७ |
सो >-ज्ञानयोगयुखराशि नाम र्दे निज घ्र चले)
अरिपखलको नारि, जीवनघुक्ता दोय रह ॥९<॥
धमनि यह मनको ग्यवहारा । गुरू गमते परखो मत सारा ॥
मनुआ शुन्य ज्योतिदिखलावे। नाना भम मनि उपजवे ॥
निराकार मन उपजा भाई । मनकी मांड तिद पुर खई।॥
अनेक ठाव जिव माथ नवावे। आप न चीन्हे धाखा पवे॥ |
यह सब देखु निरंजन आमा । सत्यनाम विन मिटे न फांसा)!
जैसे नट मर्कट दुख देईं। नाना नाच नचावन लेई॥
यहिविधियह मन जीव नचावे । कमं भम भव फंद् दिटप्रे ॥
सत्य शब्द मन देह उचेदी । मन चीन्हे कोई बिररे भेदी॥ |
पुरूष सदेश सुनत मन दह । आपनि दिशा जीव रे बहई॥
सुनु धमनि मनके व्यवहारा । मनको चीन्द गहे पदसारा ॥
या तन भीतर ओर न कोई । मन अर् जीव रहे घर दोई॥
पाच पचीस तीन मन सचेला । ये सब आदि निरंजन चेला॥
पुरुष अश जिव आन समाना। सुधिभूलीनिजधर सदिदाना॥
इन सब मिलिक जीवी घेरा । बिनपरिचयजिवयमका चेरा॥
अरागक्षागर ५ १५ ,
| भम वशी जिव आप न जाना। जस सुगवा नखनी कैदाना ॥ |
| जिमि केहरि छाया जल देखे । निजच्ाया दुतिया वह खेखे॥ ¦
धाय प्रे जल प्राण गँववे । अस जिव धोखा चीन्हन पावे॥ ।
| कांच महल जिमि भके स्वाना । निज अकार दुतिया करजाना॥ ।
दुतिया अवाज उठे तहँ भाई । भक्त स्वान ठेह टखि धाई ॥ |
हेसे यम जिव धोख लगाई । भासे कार तबे पछताई ॥
| सतय शब्द प्रीति नदिं करई! तते जीव न्च सब प्रई ॥|
| किरतम नाम निरंजन साखा । आदिनाम सतगुर् अभिलखा |
सतशुङ् चरण प्रीति न करई । सतशु् मिल निजवरसंचरई॥ ।
| धमेदास जिव भये विगाना । धोखे सुधा गरङ छ्षराना ॥
| अस कै फन्द् रच्यो धर्भेराई । धोखा वसि जिव परे अुलाईं॥
| | ओर सुनो मन् कम पसारा । चीन्ि दुष्टजिष हीय नियाग्॥
| ठंद-चीन्द ह रहे भित्र धमान्.शब्द ममदीपकट्हे॥
| यह भिन्न भाव दिखात तोकहदेखनिवयमना गहे ॥
| जोल गदपति जगे नाहि, सधि पवत् तस्करा ॥
| रहत भाफिर ममक वरि, तहँ तस्कर संच्रा॥९९॥
| सो "जाग्रत् कला अन्रप, ताहि कार पावे नहीं
भम तिमिर अधकूप.छछ्यमराजीवनग्रसे॥९९॥
| मनक पापं पुण्यका विचार
मननको अंग सुनो जन शूरा । चोर साह परखो शर् पूरा ॥
मनरी आदी कार कराला । जीव नचवे करे बिहाला ॥
सुन्दर नार दृष्ि जब अपरे । मन उमगे तन काम सतवे ॥
भये जोर मन ठे तेहि धावे । ज्ञानरीन जिव भटका खवे॥ |
नारि मोग इन्द्री रस लीन्दा। ताकर पाप जीव सिर दीन्डा॥ ||
( १५९७ ) अनुरागसागर
।
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| द्रव्य पराई देख मन हरषा । कदेरेब अस व्यापेड तिरषा॥
| | पराई आन सो आने । ताके पाप् जीव ठे साने ॥
कमं कमावे या मन बोरा । शासत सहे जीव मतिभोरा॥
प्र निदा प्र उव्य गिरासी । सो सब देखहु मनकर फांसी॥
संत् द्रोह अर् शर्की निदा । यद मन कमे कार्मति फंदा॥
गृही होय पर॒ नारिन जोवे । यहं मन अंधकमं विष बोव ॥
जीव घात मन उमग करवे । ताञ्च पाप जिव नक १
तीरथ त्रत अर देवी देवा । यद मन धोख रगावे सेवा ॥
दाग द्वारका मनि दिखावे । दाग दिवाय मनि बिग्रावि॥
एकं. जनम राजाको. होई । बहुरि नरकमे थुगते सोई ॥
बहुरि होय सांडकर ओतारा । ब्डं गाहनको होय भरतारा ॥ |
कमं योग् है मनको पदा । होय निइक्मं मिट दुख दंदा॥
छंद-युनो धमनि मन् मावनार्दैरोकदां नरबारके ॥
तरय देव् तेतिम्॒ कोटि फट् शेष घुर् रदे हारके ॥
सतणविना कोईरख न् पावे पड़े इन्निम जाठहो॥
विरिलासेत किविकृकरी चीन्हिखोडयो काठुही ९९
सो ° स॒त्शस्क विश्वास, जन्म मरण् मय नश ॥
धमनि सो निजदामसु,सत्यनाम जो दृदगे॥१०॥
धमे चरि सनो धममेदासा । छटबुधिकरनजीवनतिनफांसा
धरि ओतार कथा तिन् गीता । अं् जीव कोई गम्यन कीता॥
अञ्न सेवकं अति रौलीना । तासों ज्ञान क्यो सब भीना ॥
ज्ञान प्रवृत्ति निवृत्ति सुनावा । तज निवृत्ति परवृत्ति खावा॥
द्या क्षमा प्रथमे तिन भाषा । ज्ञान विज्ञान कम अभिलाषा॥
अर्जुन सत्य भक्ति रबलीना । कृष्ण देवसँ बहुत अधीना॥
अवुरागस्ागर ( १५८ )
| प्रथम कृष्ण दीन्ही तेदि आशा पी दीन्ह नके बासा ॥
ज्ञान योग तजि कर्म दढाया। केम वशी अञन दुख पाया॥
मीरठ दिखाय दियो विष पा । जिव बटपार संतछवि काॐे॥
करटं कहाँ छनद्धि यमके संत कोई कोई परख ॥
ज्ञान मारग दृट रिह तव सत्य मारग चञ्चि ह॥
चीन्दि ह यम छटमता तव चीन्डि न्यारा तो र्दे॥ |
| सतशस्रारणयमनाखनार अटलटसुख आनंद ॐ ॥९७॥
| सो ०-दैसराज धमेदास, ठम सतह् महिमा छ्हो॥ |
। करहुं पथ परकास, अजरसंदेशा तोहि दियो १९१.
| मुक्तिमारग पन्थसहिदानी वणन धमंदास वचनं
हे प्रथु तुम सतपुरूष दयाला । वचन तुम्हारा अमितरखाला॥
| मनको रहन जाति इम पावा । धन सत शर् त॒म आन जगावा।
अब भाषो प्रथु आपन डोरी । केदिरहनी जम तिनका तोरी॥
संदगृदतचन
धर्मदास सुल पुरूष प्रभाञ ।पुरूषडोरितोहि अबहि चिन्दाऊ
पुरूष शक्ति जब आय समाई । तब नर रोके कारु कसाइ ॥
पुरूष शक्ते सुन षोडश आदीं । शक्ति संग जिवलोकटि जाही॥
बिना शक्ति नरि पन्थ चलाई । शक्तिहीन जिव भो अश्ञाई॥
ज्ञान विवेकं सत्यं सन्तोषां । प्रेमं भाव धीरजं निरघोषां ॥
द्या क्षमां अङ्शीटनिःकरमी। त्यौ गवेसंग शौ तिनिजधरमा॥
कृर्णा करि निज जीव उबारे । मि्रसमान सबको चित धारे॥
इन मिखि लहे लोके विश्रामा। जले पथ निरखी जेहि धामा॥
शङ् सेवा शरूपदे परतीती । जेहि उर बसे चरे जम जीती॥ |
आतम पुजा सन्त समागम । महिमासंत कह |
4 9
9 8
( १९५६ ) अतुरागसागरं
(1 शुरू सम॒ संतभक्ति ओराधे । ममता मोह कोध गुण साघे॥
अमृत वृक्ष पुरूष सतनामा ।पुरूषसखासतअविचरूधामा॥
यह खबं डोरी पुरूषको आही । सत्यनामगदहिसत्यपुर जारी ॥
चक्षु रीन घर जाय न प्रानी । यह सब कदेड पथ सदिदानी॥
पुरषं नाम चक्षु परवाना । रहै जीव तब जाय ठिकाना
दिढ प्रतीति गहे गुरूचरना । मिटे ताञ्च जनम ओ सरना॥
पन्थको रहनी धमदासं वचन
प्रभु तुम सतपुरूष दयाला । वचन तुम्हार अमानरिसाल॥
अइ ब्रनो प्रथु पंथानेजदासा ।विरक्तगिरदीकरदरदनिपरगासा॥
सद्गृर् वचन्
वरागी विरक्त लक्षण
प्रेम भक्ति आने उरमाहीं । द्रोह घात दिगचितवे नाहीं ॥
जीव दया राखे दिय मारीं । मनवच कर्मघात कोड नादी॥
लवे षान सुक्तिकी छापा । जाते भिरे कमं भ्रम आण ॥
` [| ईस दशा धरि पन्थ चावे । श्रवणी कंठी तिलकं रूगावे॥
|| खा फीका करे अहारा । निसदिन सुभिरे नाम हमारा ॥
ओं पुनि रेह तुम्हारो नामा । पटवो ताहि अमरपुरधामा॥
[| कमे भम सब देह बहादी । सार शब्दे रदे समायी ॥
१ शरीरकं पोषणम जिनका काम नहीं पडता है उसे अखज अर्थात् उसको अभक्ष
कहते ह, जसं तम्वाक् गांजा, भग शराव मांसं तथा लहसुन प्याज इत्यादि तमोगुणी
पदार्थं जिससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । इसी लिये सदगुरुका वचन है । “जसा जो
{| लाइये, तैसी उपज बुद्धि । जाको जेसा गर मिला ताको तंसी शुद्धि ॥
कोन रहनि वेराग कमवे । कौन रहनि गेरी शन गावे ॥ |
घमेदास सुन शब्द सेदेशा । जीवन कहौ भुक्ति उपदेशा ॥ |
वैरागी वैराग दिटे दो। गेदी भाव भक्ति समञ्चेो॥ |
वैरागी अस चाल बता । तजे अखज तव हंस कदाॐ॥ |
।
|
अनुरागसागर् ( १५७ }
नारि न परसे बिन्द न खोवे । क्रोध कपट सब दिलसे | ॥
नरकं खान नारी क त्यागे इक चित होय शब्द् गङ् छामे॥
क्रोध कपट सब देह बहाई । क्षमा गंगमे पि नहाई ॥
विहंसतबदनभजनको आगर ! शीतल दशा प्रेम श्खसागर॥
रहै अजांच न जच काहू । का परजाका राजा साहू ॥
पच्छिम लहर जगे जानी ) अजपाजाप भजन शुन ठानी॥
रहित रहे बहे निं कवी । सो वैरागी पवे इमहीं ॥
हम्ह मिरे दमदीं अस होई । दुबिधा भाव मिटै सोई ॥
गुर् चरणनमे रहे समाई । तजि भम ओर कपट चत॒राई॥
गङ् आज्ञा जो निरखत रहईं । ताकर खट कार नरि गई ॥ |
गुक् प्रतीत दढके चित राखे । मोहि सम न गङ् कहं भांखे॥
शुङ् सेवा सब फर जावे । शङ विश्चुखं नर पार न पावै
जसे चन्द्र कुमोदिनि रीती । गहे शिष्यं असं गुङ्परतीती ॥
देसी रइनि रहै वैरागी । जेदिशर् प्रीति सो$ अलरागी॥ ।
गृह् गेलक्ष ण्
गेदी भक्ति सुनह धभमेदासा । जेहि छे गेदी षरे न कासा ॥
काग दशा सब देह बहाई । जीव दया दिर रखे समाई॥
मीन मांस मद निकट न जाई । अकर भक्ष सो सदा कहा३॥
लवे पान शुक्ति सहि दानीं । जाते काल न रोके आनी ॥
कण्ठी तिलक साश्ुको बाना। ग॒रुसुख शब्द प्रीति उर आना॥ ।
१ प्रायः लोग अकुरजकी आड् लेकर तम्बाकूगाजाभंग चरसं आदि तमो-गुणीन-
शेले पदाथा को भक्षण करते जाते हं ओर जब कभी उन्हे समञ्चःओ तो अंकुर भच्छे ||
सो मानवा, कहकर कन्नी काट, जाते हु ओर यह नहीं समस्ते “कि” फेर शरा नहीं |
अंगम. नहीं इन्दरिनकं माहि । फर परा कच्छ बुायो सो निरबारेउ नाहि ॥ जो ||
सद्गुरुने कहा है सो इन पदा्थोक सेवनसे बुद्धि नाश होकर सत्यको सञ्ञ होना
& =»
अत्यन्त कठिन है, विशेष देखो-' कबीरधमं
#। ५ #\ १. ॥
( १५८ ) अनुरागसागर
प्रेम भाव सन्तनसो राखे । सेवा सत्य भक्तिचित राखे॥
गुर सेवा पर सर्वस वारे। सेवा भक्ति गरूकी धारे ॥
सुभिरण जो गरू देह दटाई । मन वच करमसों सुमरे भाई॥
पुरूष डोरि सुनह धमनि जाहिते गेदी कतरे ॥ ¦
चक्षु विन घर जाय नाहीं कोन विधि ताकर करे॥
वैरा अरा हे चश्च धमनि जीव सब चेतावह् ॥
विश्वास कर मन वचनको तब जगमरण नराबह्॥
सो°-राब्द गहे परतीतः, पुसूषनामअदहिनिशिजप ॥
मवजठजीतिरजंकनामभिन पाटया १०२॥
आरती माहात्म्य
| गेही भक्त आरती आने । प्रति अमावस आरती ठने॥ ।
अमावम आरती न्दं होर । ताहि मवन रह कारु समोई॥
पाख दिवस निं होवे साजू । प्रति एनो कर आरती कान्
पूनो पान रेदं धर्मदासा । पावे शिष्य होय सुख बासा ॥
चन्द्र कला षोडस पुर आवे । ताहि समय प्रवाना पावे ॥
यथा शक्ति सेवा सदिदाना । इसा पचे रोक रिकाना ॥
धमदास विनती अनुसारा । अस भाखो जिव होय उबारा॥
कल जीव रंक बहू दोहं । ताकर निर्णय भाखों सोई
सकलो जीव तुम्हारे देवा । केसे कटो करं सब सेवा ॥
|| सब जिव आदि पुरुषके अंशा । भाषहु वचन मिरे जिव संशा॥
धमेनि सुनो रक माड ॥ छठे मास आरति रौलाॐ ॥
छटे मास नि आरति भेवा । वषे मा यङ चौका सेवा ॥ 1
अब्ुरागसागर ( १९५९ )
=-= ==> ~ - --------- - - ~-- ~~~
सम्बत माहि चक जो जायी । तवे संत साकट ढ- राही ॥
सम्बत माहि आरती करई । ताकृर जीव धोख ना पर् ॥
नाम कबीर जपे लौ लाई । तुमरो नाम कहे गहराई ॥
करत अखडित् शुरपद गहह । शरूपदभ्रीति दो निस्तरई ॥
एेसी रहनि गोहि जो धरं । यङ प्रताप दो ` निस्तर ॥
एसो धारण गेहि जो कर । यङ प्रताप खोक संचरे ॥
वैरगिगेदिदोउकरँ धमनि रहनि गहनि चितायहू॥
निन् रहनी दोउतरि द शब्द अंग थ॒नायह्र॥
निपट अतिविकराक अगमअथाहमवसागर अहै ॥
नाममौकागहे च्दकरिदरं मबनिधि तब अहै।९९॥
सो<-केवरते कर् प्रीति, जो मवपार उतारईं ॥
चरे सो मव जरूजीति.जबसतथरु केवट मिले १०३
असावधानीका फल
जब लग तनमे ईस रहा । निरखे शब्द् पन्थ चङे भाई॥
जैसे शूर खेत रह मांडी।जोभागे तो होवे भंडी ॥
सन्त खेत गुर शब्द अमोला। यम तेहि गहे जीव जो डोखा॥
गुङ् विमुख जिव कतहु न बांचे। अगिन कुंडमह जरि बरिनाचै॥
सासति दोय अनेकन भाई । जनम जनम सो नर्कहि जा३॥
कोरि जन्म विषधर सो पावे। विषज्वालासदहिजन्म गमावे॥
विष्ठा माहीं क्रिमि तनु धरई । कोरि जन्मलों नकि परई ॥
कडा कों सामति जिवकेरा । गुश्खुख शब्द गो दिद बेरा॥
गुर दयार तो पुरूष दयाला । जेहि शरवत इुए नहि काला॥ | _
जीव कहो परमारथ जानी । जो य॒रुभक्त ताहि नहि हानी॥ | `
१ किनारा ` नन ` क ल = क
१, +). न ~+ + ~+ -
च
= निक र क
(१३०) . अतुरागसागर
| कोरिके योग अराधे प्रानी । सतगुङू विना जीवकी हानी ॥
। सतगुङ अगम गम्य बतरवे । जाकी गम्य वेद् नरि पावे ॥
वेद् जाहि ते ताहि बखाने । सत्य पुरूषका मर्म न जाने॥
| कोई इक टस विवेकी होवे ।. सत्य शब्दं जो गरी बिरोे॥
कोटि माहं कोई संत विवेकी । जो मम बानी गहे परेखी ॥
। फन्दे सवे निरञ्जन फन्दा । उलटिन निजचर चीन्हे मंदा॥
सावधघधानी-कोयलका दृष्टान्त
सुभाव कोद्र सुत केरा । सथुक्चि ताष्घ॒ यण करे निबेरा॥
कोइ चित चातुर स्दुबानी । वैरी तास काग अचखानी ॥
ताके गृह तिन अण्डा धरिया । दु्ठमिचईक समचित करिया ॥
सखा जानि कागा तेहि पारा । जोगवे अण्ड काग बुधिकाला॥ |
पुष्ट भये अण्डा बिहराना । कुछ दिनगत भो चक्षु सुजाना॥
पक्ष पुष्ट पुन ॒ताकर भयेऊ । कोयरु शब्द सुनावनं येड॥
सुनत शब्द् कोयल सुत जागा।निजढर वचन ताहि मिय रागा
काग जाय पुनि जबहिं चरावे। तब कोर तिहि शब्द् सुनावे ॥
निजअकुर कोडइल सुत जहिया । वायस दिशादिये नहि रिया ॥
एकं दिविस वायस दिखलायी । कोरु खत उडचटा परायी ॥
| निज बोली बोलत चटुबाखा । धाये वायसं विकल विदहाल॥
धावत थकित भई नरि पाई । बहुरिमुरछित भवन फिरि आई॥
कोयलुत मिलिया परिारा। वायस काग भुरछिञ्खमारा॥
|| निजवचनबोलतयुतचला, तबधायमिटापरिवारही।॥
धाय वायप्च विकट हे भयो थक्तिनिबनहिं पावही॥ |
| काग मूषित भवन आयो मनहि मन परितायके ॥
| कोटृटय॒तमिस्यो तात अपने कागरद्योञ्चखमारिके१° ०॥ |
"`
अवरागसागर् ( १६१ )
सो °-नघ्कोयलद्तदहीय, यहिविधिमोकर्हैनीवमिषे
निजघर परहैचे सोय, वंश इकोत्तरताश्ड ॥१०४॥
| कोयर सुन जस श्रा हीइ । यहि विधि धायमिरे मुरि कोई।॥
| निज घर सुरतिकरजो हसा ! ताये ताहि एकोत्तर वसा ॥
| काग गवन बुधि रछडह भाई इस दशा धरि लोकि जाई।
बोरे काग न काहू भवे । को$ वचन सबै सुख पवे॥
अस हसा बोले विल्छानी । प्रेम सुधा सम गह शुशुषानी।॥
काहू कुटिरं वचन नहि किये । शीतल दशा आप गहि रहिये ॥
जो कोई कोधअनल सम अवे । आप अम्ब ह तपन बुञ्चावे॥
| ज्ञान अज्ञानकी यहि सहिदानी। कुटिल कठोर मति अज्ञानी॥
| प्रेम भाव शीतल गुर् ञानी सत्य विवेकं सन्तोष समानी॥
नन।क्ा तक्षण
ज्ञानीसोह जो कुड्ुदधि नशावे । मनका अंग चीन्ह विसरावे ॥
ज्ञानी दोय कहै कट् बानी । सो ज्ञानी अज्ञान बखानी ॥
शुर का कारे जो प्रानी । सन्मुख मरे सुजस तब जानी ॥
| तेदिविधिज्ञानविचारमयआनी। ता कं कटू जान सदहिदानी ॥
भूरख दिये कम ना सूञ्चे। सार शब्द नहिं युर कं बञ्े॥
चक्षु दीन पग विष्ठा परईं । हांसी तासु कोइ न्ह करइ ॥
हगन अछत षग धरे कुगईं । ता करं दोष देइ नर आई ॥
धर्मदास अस ज्ञान अज्ञाना । परखे सत्य शब्द गुर् ध्याना॥
स्वं माहं है आप निवासा । कीं गुप्त किं भगट प्रगासा॥
सबसे नमन अंश निज जानी । गही रहै शरु भक्ति निशानी॥
| रग काचा कारणे प्रहलाद, कस ट्ट हे र्यो ॥
( १६२ ) अल्रागसागर
| तेहि बह कष्ट दीन्दाःअडिगहो हरियुणगह्यो |
अस धरन् धरि सतयुर्गहै,तब हंस होय् अमोहो
अमररोक निवास पषे,अरछहोय अडोलहो १०१
सोमम तजे यम जाल, सत् नाम छौखावहं ॥
चलठेसत्तको चार, परमारथचितं दै गहै ।॥१०५।
परमार्थ गऊका दष्टान्त
गको जानु परमाथं खानी । गड चाल गुण प्रखहु ज्ञानी॥
आपन चरे तरण उद्याना । अँचवे ज दे क्षीर निदाना॥
तासु क्षीर धत देव अघाहीं । गो सुत वरके पोषक आदीं ॥ |
विष्ठा तासु काज नर अवे । नर अघ कमी जन्म गमावे॥
टीका पुरे तब गो तन नासा । नर राक्षप्त तने तेहि आासा॥
चाम तासु तन अति सुखदाई । एतिकं गुण इकं गोतन भाई॥
१रमार्थ सन्त लक्षण
गौ सम सन्त गहै यह बानी । तो नदि कार करे जिवहानी॥
नरतन रहि अस बुद्धी होई । सतगुङ् भिरे अमरहै सोई ॥
सुनि धमनि परमारथ बानी । परमारथते दोय न हानी ॥
पद् प्रमारथ सन्त अधारा । गुङूसम रेह सो उतरे पारा॥
सत्य शब्दको परिचय पावे । परमारथ षद् टोकं सिधावे ॥
सेवा करे विसारे आपा आपा पाथ अधिकं संतापा॥
यह नर अस चातुर बुधिमाना। गुन सुभ कथ कटे हम ठाना ॥
उच क्रिया आपन सिर छीन्हा। ओगण करे कटे करि कीन्हा ॥
तात होय ञ्जुम कम विनाशा । धमदाप्त पद गो निराशा॥
आशा एकं नामकी साखे । निजञ्युमकमे प्रगट नहि भाखे॥
अबुरागसागरं ( १६दे)
भोभा
नौ रहे सदा खौ टीना । जैसे जखदहि न विसरत मीना॥
गुरुफे शब्द सदा टौ रवे । सत्यनाम निशदिन युणमवि॥।
जैसे जलदि न विक्षर मीना । देसे शब्दं गहे प्रवीना ॥
पुरूष नामको अस परभा । दसा बहुरि न जगमहं आॐ॥
निश्चय जायपुरूषके पासा । कूमंकला प्रखंड धमदासा ॥
चन्दः
निमिकमटबाल सभाय तिमि म॒म इईसनिवरधावई॥
यमदरत हो बलदहीन देखत, ईस निकट न आवह ॥ |
हस निगय निडर् गाजई, सत्य नाम उच्चारई ॥
हंस मि परिवार निजयमदत सब ञ्चकमा२६।१०२॥
सो°-आनदधाम अमो, ईैसतश्ख विरुषहीं ॥
हसि ह॑सकटोढ.पुस्षकान्ति छवि निरखहीं ३<॥
ग्रन्थको समाप्ति छन्द
अवुरागसागरसयन्थकथितोदहिःअगमगम्य खाया ॥
पुस्षलील कालको छट, सब बरणि सुनाइया ॥
रहनि गहनि किक बानी, जौहरी जन् बक्चि हे ॥
प्रखि बानीजो गहैतेहि अगममारगसुक्षिहै॥१०३॥
ग्रनथका सार निचोड़
सो °-सतुरपद् परतीति, निश्चयनाम समक्त ॥
स॑तसतीकी रीति पिय कारण निजतन् द्है॥१०७॥
सतर पीय अमान, अजर अमर विन् नहीं ॥
क्यो शाब्द परमान.गहे अमर सो अमरहो ॥१०८॥
1
( १६७ ) अकुरा्गसागरं
ज ~ = == ~ ----=
~ - ~~~ ~~ ~~ -=--~--~-- = ~~
त् धरे तिहि आस, गहे जीष अमरहिं तहँ ॥
चितचेतो धमदासःसतशरः चरणन ीनरहु॥१०९॥
मन अङि कमर् साव,सतय पदपकज रुचिर् ॥
शसू्चवरणन् चितलाव.इस्थिरघरतबहीं मिरे ॥११०॥
| क शब्द् मिखे संत र चले ॥
घुका खे, मि तो दूजा को कृहे।१११॥
शब्द युरतिका खेल, तगर मिरे छृखावह ॥
सिधुुन्दको मे, ग्ि तो दूजा को कहे ॥११२॥
मनकी दशा विहाय, यर मारग निरखतं चे ॥
हंस खोक कह जाय,युखसागर यख सो छदे ३१३॥
बुन्द जीव अलुमान, सिधु नाम सत्र सदी ॥
कहे कबीर परमान, धरमदास तुम ब्द ॥ ११४ ॥
इतिश्री भतपूवं कबीरनगर स्थित-रसीदपुर शिवह्रवाले वंशप्रतापौ महंत
स्वामी श्रीयुगलानन्द बिहारी हाल कबीराश्रम ( खरिसया ) निवासी
कबीराश्रमाचायं परमार्थी वंद्य आत्मनिष्ठ भारत पथिक
कञ्रीरपंथो म्रन्थोकं एकमात्र जीर्णोद्धःरक स्वामी
श्रीयगलानन्दविहारी द्वारा सगृहीत
अब्चुरागसागर समाप्त
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९३१॥ (४
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कथर् सगर्
तृतीय खण्ड
जिखमंं
अम्बु सागर, विवेकसागर
ओर
सर्व॑ज्ञसागर संयुक्त ह
भारतपथिक कबीरपंथी-
स्वामी श्रीयुगरखानन्दद्रारा संशोधित
श
मुद्रक एवं प्रकाशकः
खेकराज्र श्वी कष्णदास्ः,
अध्यक्च : श्रीवेकटेश्वर प्रेस
खेमराज श्रीकृष्णदास मार्ग, सुंबड - ४०० ००
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कबीरसागर तृतीय भागकी विषयाट्क्रमणिका
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जिसमे
अम्बुसागर पृष्ठ १ से पष्ठदेऽ तक है
विवेकसागर पृष्ठ &८ से पृष्ठ १२६ तक है
ओर
सर्वज्ञान पृष्ठ १२७ से पृष्ठ १४७ तक है
तीनोकी अनुकमणिका अलग नीचे देते है
अम्बुषागरको अबुकमणिका
{ बिषय. पृष्ठ, विषय. पुष्ठ
२ | विवेक स्तुति =
बलभद्र यगकी कथा ३ | विवेक स्थिति =. ~= ८
न्दर य॒गकी' कथा (जलंरंगनोध) ६ | विवेककी सेना "क्ट
पुरवन यगकी कथा (कुष्टम पकीगोध ) ९ | विवेक ओर मोहकी छेडछाड ... <°
अनुमान युगकी कथा (आद्यालोला) . .. १५ | विकेक ओर मोह युद्ध आरंभ न: 9
अधासुर युग कौ कथा
घीयमान युगकी कथा -.. २० | काम ओर जानका युद्ध “८0
तारण युग कथा (राजा बंगनोध) ... २३ कोध ओर क्षमाका युद्ध र
अखिल युग कथा (धनुष मुनिबोध) . .- ३६ | लोभ ओर संतोषका युद्ध <
विश्वायुग कथा (देवीबोध) 9 मोह ओर कयं
अक्षय तरुण युगं कथा (कमंबोघ) ... ४४ १ ववेककी
चौदह यमका नाम ; 5४७ व अनुकनागका
नन्वी युग कथा (गुप्तमनिनोध) ... ४९ धमदासजीका प्रश्न ८
हिडोल युग कथा ... ५३ | कबीरसाहनका उत्तर क
कंकवत यगकथा ... ५५ | भ्रव्ति वंश बेन ` =" - 9
चारों यगकथा ५८ मोह परिवार य दर् त स 3
काम परिवार 4 ५.२? ९९.
विवेक सागर को अनुकरप्णिक्ा लोभन परिवार न 1
० = ६८ दम्भ परिवार व ९३. ~
मोहराजाकाबणंन (मोहको स्थिति) ६९ गनं परिनार व == द
काम प्रताप ब्णेन 93 | +
ऋ ६ ७४ च (खद छो १५ ९०५५२
ध र पारिबार
८. क, नद ः र ॥ ~ | ॥ च दुः
न चद क ॐ ७६१ ५० ५।
न १ ॥; #
2
व ध
^ > 92 कक न
#.
हे
(४)
चिखय.
संतोष परिदार
सत्य षरिदार
लील परिवार
धसे परिवार
दराण्य षरिव।र
भ्रदत्तिरूी ईषा ओर युडक। सूल दिवे
का भेत्रियोसि घन्त्र विचार
लंडारईरी तच्यारौ
गुड वणेन
कम ओर सुमतिा यड
कथ भौर क्शमाका यदध
मोह ओर विवेकको सेनाका तुम्लं
युद्ध वणंन अपने जोटसे
लंङकर विवेककी सेनाका
मोहकी सेनाको हराना
भ्रनत्तिका मनक राजोन्ते निकट
जाना ओर मनका शोक करना . . .
निद्त्तिका अपनो सखिर्योको मन
राजक पास भेजना ौर प्रवत्ति का
कोध भौर पराजय
मन राजाका निवत्ति रानीपर प्रसन्न
होकर उसकं साथ रहना
इति ।
इतिअनुक्रमणिका समाप्ता
गि101615 & 74057615 :
14612] 31111451126855,
0100: 910 \/611/421651)५/81 01855,
वृष्क.
१२७
१२८
१२८
१२९
१२९
१२९
१३०
१३०
१३१
१३१
१३२
१३३
१३३
१३६
१२३८
१२३९
१३९
अनुकसणिका
पष्ठ. चिष्भ.
९६ स्वेज्ञ सागरकी अनुक्रमणिका
१९ | ध्मंदासजीकासवंलान का सार पूना . . .
९७ कबीर साहबका चार ज्ञान कहूना . . .
९७ धमदाससाहबका आदि अन्त ओर
९७ मध्यो गति पुरखन।
आदिक्ता वणन >
१९६ कवीरसाहबके लान विवय धर्मदास
१०१ साहवक। शंका रना
$ चार वेदकं भेद-वारह हं ६०
आदि अन्तङी उत्प्तिका प्रश्नोत्तर . . .
९०६ | सस्य य॒गका वणन
१९४ | नेतायुगका वर्णन
हापरयुगका वर्णन
कलिय॒गका वर्णेन
धर्मदासजीका भयमान होना
१२१ फवीरताहवका सब भेद फहनेग्ती
प्रतिज्ञा करना ओर
सष्टि उत्पत्ति वर्णन
५ सात सन्धि विषयक प्ररन
सात सन्धिका वणन
चौरासी लक्षका पभ्राकस्य
१२४ ज्ञान खंड वर्णनं
१२६ इति कवीरसागर तृतीय आगकी
1461172] 311114151808355 2/9, 710 1461//26,
/4098। - 400 004.
४89 16 : 1101011 ५//.1516-507.6011
20)8॥ : 1416112/@*5111.6071
अनुक्रमणिका
0117160 0 58013) 88 7017 ॥#//5. 1161172 311/114115111808338
?001161075 917 \/6111८21651५/३। 0716858, 11५1108} - 400 004,
०1 {617 511} \/6118{651\/81 01685, 66 18020581 11001513।
2851818, 72५06 411 013.
क = जनक क
षत्ययकृत, आदि अदी, अजर, अचिन्त, पसष
एनीन्द्र, कटणामय, कबीर सुरती योम्, संतायन,
धनी, धर्मदास, चशमणिनाम, अदरौन नाय,
कुटपति नाम, प्रमोध, स्वाछापएरी, केवल नाम
अमोल नाम, युरतिधनेही नाम, ईक नाम,
पाकनाम, प्रगट नाम, धीर्न नाम
उथ्रनाम, दयानामकी दया बा
व्यालीसके दया
अथ अम्बुसागर पारम्भः
् १
अथ प्रथमस्तरगः
अघासुर युगकी कथा वणेन
समगलाचरण
छन्द-आदि - अहम अनादि अकल अभेद अवनं आगरं ॥
सवं व्यापक आयं वीरज आनन्द धामी सागरं॥
तुष चरण रवि परकाश अविचल सकट कलि कर्मज हरे ॥ _
अघम जीव अघोर खर जे विना भ्रम भव जरू तरे॥ `
(८२) अस्बसागर
धमेदास बच्न
सोरठा-घभेदास शिर नाय, बिनय कीन्ह कर जोरिके ॥
तुम बहियां जिव आय, करहु अबुभरह दासको ॥
तुव चरणन बलिहार, युग लेखा मोहिं भाषिये ॥
जेहि विधि हस उबार, मदेन कीन्हो कारको ॥
सोरठा-हंसराज कहु कन्त, जोव उबारेड पन्थ जिमि ॥
अम्ब सागर न्थ) सो वणन प्रथु कीजिये ॥
सतगुरुवचन-चोपाइं
धमेदास पुरूष शण गाॐ । युग युग रेखा ज्ञान सना ॥
तुम बूक्यो जीवन के काजा । सत्य सत्य भाषू सब साजा ॥
आदि पुरूष सुकृत जब कदे । दाया कीन्ह पान तब दथ॒ड ॥
जबे पुरूष आज्ञा मोर कीन्हा । दोय सुङृत पुहुमी पग दीन्हा ॥
आदि अमर मन अम्ब सागर । पवे पान इस हो आगर ॥
प्रथम अघासुर युग विस्तारा । तवे सुकृत पुहमी पग धारा ॥
श्वेत स्वरूप कीन्ह सबिहारा । सत शब्दन भष संसारा ॥
गण गंधर्व भनि भेद न पवे। नर देही की कौन चलाते ॥
पाये पान सुकृत के हाथा । सो सविहार टीन्ह जियसाथा ॥
युग युग देह धरत हम आये । जो चीन्हा तेहि लोक पडाये ॥
घर के दूत खेद हम डारा। सब जीवन कँ पार उता ॥
अभय सेतु पान है भाईं। जो पावे अनभय हो जाई ॥
साधू बहत भये संषारा 1 आदि अंग कोई नारि विचारा ॥
आदि आदि सब करं बखानी । आदि अंतकी हार न जानी ॥
सबही कहँ पार भये भाई । पार केरि गति काह न पाई ॥
नाहिन साख शब्द में होई । ज्ञान नीं पोथी मे सोई॥
नाहीं ॒वेद पुराण बखाने.। योगी जती नदीं कोई माने ॥
अन्बुखागर (३)
शब्द खोज कीजो नर ग्रानी । बिन सत शब्द् बाधि यम तानी ॥
आगे अभिय रोक इक आदी । तां ब्द बेंटो अति छदी ॥
ताका ज्ञान करो हो साधू । सहजहि छरति ख्गाव समाध ॥
सहजहि युग अक् सहज वमाणा। पावे जीव दीय नराणा ॥
सहज षाय जिव सहजहि तरई । काया अमर सहज सों करं ॥
सजि शब्द सहज गहि राखा । सहजहि द्रश्च पुरूष अभिखाबा ॥
सहजहि अंक गत ३ भाई । पवि जीव इस दोय जाई ॥
सहजहि पुरूष जगामग ज्योती । पाप पुण्यं तेहि घर नर होती ॥
शुग अघासुर जीवन लायी । एक करोड़ ईस अुकतायी ॥
धर्मदास य सत ही भाखं पुर्ष नाम तोहि गोय न राख ॥
छन्द-आदि अम्बु अमर अदली अगमं निगम अपार डो ॥
आनंद आयं अचिन्त अविगत अकह अविचल खारडौ॥
कामोद कंकवत छ्वधारी अक्ति दाता गांडये ॥
अगाध पुरुषोत्तम च किये अर् अुकुट मणि कड ध्याये ॥
सोरडा-पुरूष नाम अपार, धमनि एतक वणे ॥
कृदेड वीश निरधार, तुम सुनियो चित खायके ॥
इति श्रीअम्बसागरे अघासुरयुगकथावणनो नाम प्रथमस्तरगः ।
अथ दहितीयस्तरंगः
बलभद्र युगकथा वणेन
धमंदास व्चन- चोपाई
धमदास बिनये प्रभुराईं । दूजे युग मोर कथा सनई ॥
तुच्छ बुद्धि हम तुम मति आगर । हंसराज भाषो प्रथु नागर ॥
सतगरु व्चन-चोपाई
धमेदास बञ्ञो मतिवाना । भाष शब्द सत्य सहिदाना ॥
(४) अस्बसागर
युग बरुमद्र॒ दूसरा भाखों । तुमसन गोय कष नरि राखी ॥
खोक वेद जिन दूर बहाईं । सोह जीव सु पुरूष मन भाई ॥
आदि नाम के सुमिरन पावा । एकं चित्त मन सुरति र्गावा ॥
चोद्ह लाख जीव पठवाई । सत्य खोक महँ वेड जाई ॥
तिन देखा इक हंस अनूपा । षोडश रवि तरह देख स्वङूपा ॥
तब हसा ते एछन लियञ । केहि आधार यहां तुम रहेऊ ॥
लोकके हंस वचन-चौपाई
कहे देस र₹ईंसनि सों बाता । सत्त पुर्ष निज अहि विधाता॥
उनका शब्द् गहा चितलायी । तव् पृथ्वी महं जन्प धरायी ॥
नाम प्न पोजी मोर दीन्हा । यहि आधार रोक इम चीन्ह् ॥
अब में तुम सन बरङ्खुं भाई । अपनी बात कहौ समञ्जाई ॥
दोहा-हम तुम कहं भल बृहद, को हस समञ्जय ।
कोन डोर चटि आयऊ, सो मोरीं देहु बताय ॥
हंस वचन-चौपाई
कंहे देस दसन सों बाता । सत्य शब्द. निज आह विधाता ॥
अजन बीरा दीन्हा हाथा । ताहि डोर आये हम साथा ॥
आदि पुरुष है रजन हरा । एकि मूल एक रै डरा ॥
हम तुम एक पुरुष के कीन्हे । अब काहे तुम अन्तर दीन्दे ॥
हम सन भेट करो तुम आयी । अब कि को गहर लगायी ॥
सकर हंस के पुर्ष रै राजा । युगन युगन जिन जीव निवाजा ॥
निथंण पुरूष आरि निर्वाना । नियंण नाम. पान सहिदाना ॥
इतना वचन हस समञ्ञायी । तबही दस भिरे उटि धायी ॥
युगल अक भर कीन्ह मिलाप । भयो हषे तब मिर्यो सन्ताप ॥
तवै ईष बैठे रुचि आसन । आज्ञा मागि पाय अनुशासन ॥
इतनी कथा मई तँ भाई । चार लाख युग गये बिताई ॥
अम्बुसागर (५)
तेदि क्षण चार अश चलि आये । आभा तादी बृरणि नहिं जाये ॥
कोटि मावु शोभा अति आगर । ईसा देखि चकित भयौ नागर ॥
बरूञ्ये हंस हष सुव बाता इनकर नाम कदो मों आता ॥
लोकक हंस कवचन
कहे हंस ईसा सुन भाई । एतो ईस युरूष के आई ॥
हसन केर अहि -उखदाई । जगमहं भगट होहि जिव खाई ॥
लोकै माहि पुरूष के अंशा) भव महं जाइ कंडे वंशा ॥
सोहकहत व्याल्िश अश अपारा) देह पान ईसा निस्तारा ॥
अकह अंश सत्ताइस वशा । नाम देइ यम मेटदहि संशा ॥
षोडश जो हंस अंग बखानी । नाम चतुंज सत की बानी ॥
राम रसाइन रेसहि साता । सह तेजी जग नाम अहाता ॥
ये चारों शङ् जग कटिहारा । इनकी बह जगत डो षारा ॥
हंस वचन-चौपाई
यह सुन दंस बहत हषाना । जस पंकज बिडषे क्ख भाना ॥
कर दंडवत चरण दिय लाई । चारों शकूके टेके पाईं ॥
भल साहिब मोहि दरशन दीन्हा । पतित जीवभापन कर ङछीन्डा ॥
हम सादिब चीन्हा प्रतापा । जन्म अनन्त मिटा सन्तापा ॥
छन्द्-दरश दे आपनो क्रियो मम जन्म कीन्ह कतारथा ॥
देस नायकं तुम धनी हो मोहि द्रशकी शारधा ॥
अमर पुरूष के द्रश कारण चित्त मम अभिखाष् ३ ॥
स्वाति चातकं जिमि रटत तिमि तषा अति अङलात है ॥
सोरडा-दशं करायो मोहः युग अनन्त बिद्धरत भये ॥
विनय करों श्रथ तोरि बेगि विलम्ब न कीजिये ॥
नं. ३ कबीरसागर- २
(६) अस्बुसागर
चार गुरु वचन
छन्द्-परूष आज्ञा लाय ततक्षण हंस जाय मिखइया ॥
च्रण कण्ठ लगाय् दयम रस सो भर पाहया ॥
अमिय फर हसन दिये मय ङ्प षोडश भवु दौ ॥
द्वीप द्वीपन कर कुतूहल, पुष्प सज्या वान हौ ॥
सोष्डा-हैसहि अनन्द, रजनी गत॒ जिमि दिवस रहौ ॥
कोक शोक मिट दन्द, ध्मेदास इमि ईसं सो॥
इति श्रीअम्बसागरे बलभद्रयुगकथाव्णेनो नाम द्वितीयस्तरगः ।
अथ तृतीयस्तरंगः
न्द्र युग कथा वणन
धममेदास .बचन~चोपाई
धर्मदास आर्नेद मन कीन्हा । गद्रदवाणी अति धिय चीन्डा ॥
ओर कथां कह बन्दी छोरा । हस उबारनं करो निहौरा ॥
| सतगुरुवचन
खत यङ् कै सुनो धमेदाश्र । सत्य शब्द भाषूं ष्रकासू ॥
जग दवन्दुर जब प्रगटयो आई । पुरुष् अवाज जीव ब्रलाई ॥
चीन्हेड मोटि कीन्द तेहि काजा । दीन्हेड नाम कार उठभाजा ॥
दोय हजार बोध जिव आये । नाम पाय तेहि खोकं पठाये ॥
युगहु अखिल दश लाख बेखाना। सतसत भाषूं करहु प्रमाणा ॥
पाय पान कीन्हा प्रकाशा । अगम निगम बेटे सुखवाशा ॥
भृत सेतु ईस छे जाई । अमर देह रसा त पाई ॥
र दीप कृथा माषं सदहिदानी । बेठे योग॒ सतायन ज्ञानी ॥
| स॒त्य अंश उन करै ना । युग युग पृथ्वी जीव सुक्ताऊ ॥
| उनते बोध जीव का होयी । तिनते कार रहे खख गोयी ॥
अन्ब्सागर् ( )
श्रुति उत्पन्न पुङ्ष जब खीन्हा । श्वास शब्दते सव कुक कीन्हा ॥
अछ्ष द्वीप इक शत्र रहाई । तर्द जर रंग अंश बैग ॥
तिनके बहत जीव ई साथा । जीवन माथ देवे हाथा ॥
श्वेत नाम द्वे चवर इला । कोटि ई वद माथ नवायी ॥
लगी वहां मणिन की र्वी । मक ञ्चमक जह बरत स्वाती ॥
नवौ रत्न मन्द्र महि कगे । ईसराज निद्रा अहं पामे ॥
युग असंख्य सहजदि चलि जाई } तब जर रंग जाग उठ भाई ॥
शविदारन सों बरञ्चहि बाता । मोन सत्य कंडो विख्याता ॥
इम निद्रा मर रहे भुरञ्ाईं । कौन अंश धरणी महं जाई ॥
शविहारा व्चन-चोौपाई
तब शबिहारन माथ नवाये । दौड करजोर विनयं उखछ्छाये ॥
युग इन्दर साहिब पगधारा । नाम कवीर इख रखवारा ॥
जीवन पान दीन्ह जग आई । दोय हजार ईस अकता ॥
या मारग पहुचे तब आई । खबर तुम्ारि कौनड बताई ॥
तब तुम निद्रा रखगी स्वामी । इसन रेह गये सुख धामी ॥
जलरग वचन
कृह जरूरंग सनो शबिहारा । पुरूष दीन मोहीं अग मारा ॥
सबकर उतपन कर भरू जाना । हमही सत्य सुक्रत है पाना ॥
साधु महन्त मोर पहं आई । संग हमार खेय घर जाई ॥
हम आज्ञा युगयुग चलिआवा । मो बिन यवां जीको पावा ॥
हम आज्ञा काहे नहिं टीन्हा । केसे कबीर पुड्मि पग दीन्हा ॥
अब कबीर यहवां नहिं आये । कैसे जग मरह पान चलाय ॥
द्वीप एकं माणिकषुर ना । आदि पुरूष तदं आप रहा ॥
रेख तिनके कुछ नारीं । वणेत वचन बनत निं ताहीं ॥
हीरा नखत सु माथे राजे । अनहद् ध्वनित अतिप्रिय गाजञे॥
(८) अस्बसागर
कोटिन रबि इकं रोम जाई । अभिय स्वरूप ठस मन भाई ॥
अविगत अचकु अभयपद देवा । षोडश सुत तेहि रावहि सेवा ॥
नाम सुपान पुरूष कर सारा । पवत जीव होहि भव पारा ॥
सत्य शब्द का करे निवेदा । ताको भिरे अभय पदं भेदा ॥
सत्य शब्द ङ बोरे माई । सत्य शब्द ठे बैठे जाई ॥
सत्य खोज सतदही ले रई । सत्य शब्द् तेहि कारु न दई ॥
जाके हियमे सत्य प्रकाश्य । ताक रोकं रोय संख बासू ॥
दोहा-रोक लोक सबही कँ, कौन दिशा है रोकं ।
कोक लाज कुर तोरदी, ताहि तार निं रोक ॥
चोपाई
उत्तर दिशा रोकं है भाई। अगम पुष ज आप् रहाहई ॥
ताहि नाम पावे परमाना। कोटिन मध्य ईस कोई जाना ॥
सतगुर् मिरे जेदि देहि खाई । सुरति निरन्तर ध्यान बताई ॥
मकर तार तहं लागी डोरी । पर्हैवे ईस नाम की सोरी ॥
ताहि रोक के नाम अपारा । षोडश नाम ताहि असार ॥
छंद-अजर अमर अपार अस्थिर अकह माणिक पुर अहै ॥
आनन्द कन्द् विरा निमंल पुष्प दीपं बिराज ई ॥
सत सुख सागर अभय पद रहत लोकं मनोहरं ॥
सन्तोष षोडश नाम संज्ञा लोकं वणेन को करं ॥
सोरठा-रेसे पुरुष अपार, तिन आज्ञा हम पाइये ।
बेटि पताल भैञ्चार, सन्धि दिखावन तब गये ॥
इति श्रीअम्बुसागरे द्न्दरयुगकथावणनो नाम तृतीयस्तरंगः ।
अम्बुसागर (९)
अथ चतुथेष्तरंगः
पुरवन युगकी कथा
चोपाई
युनत धमं मन भयउ अनन्दा । केषैउ वचन भेटेड द द्रन्दा ॥
शब्द् तुम्हार सुनत भिय छागा । दशन पाय मोह मद् भागा॥
अकथ कथा सुनि चित मम मोदा । तुम पारस इम हँ जिमि खहा ॥
आगे ओर कहो मोहि स्वामी ) चरण गहू भनु अन्तर्यामी ॥
सतयृर चचन
धर्मदास युग रेख सुना । पुरनथग जिमि जगम आऊ॥
अंश सजीवन नाम हमारा इरा पान दीन्ह संसारा ॥
पुरवन युग की आयु बखानी । खाख पचास वषे सहिदानी ॥
सुकरत इम घर घर पिरि आये । ईस कोहं नाइ शब्द गहाये ॥
जहां तद कृर देवन सेवा । आदि षुर्षको ख्खे न भेव्। ॥
आदि पुषं तिशंण है भाई । तीन लोक जिव रह इहकाईं ॥
प्राया बिश्रण सेव जग राचा । देही धर सकलं जग नाचा ॥
वारन्रह्म जो ताहि न चीन्हा । प्रेम पुरषं जिन रचना कीन्हा ॥
ध्रुव प्रहलाद सकल जग बीते । शिव सनकादि भये जग रीते ॥
साखी-गण गन्धव नि देव सब, इन्द्रादिक ओ शेष ।
शारद आदि न पानः खोजत थके गणेश ॥ `
पा
योगी यती तपी को आदीं । सिद्ध सकर काल धर खां ॥
विरा जीव कोई नामहि जाना । जापर दया पुरूष अनुमाना ॥
हीरा षान जीव कहँ दीन्हा । सात खाख हंसा संग टीन्हा ॥
तिनम सो पचीस नशाये। शब्द डोर प्रतीति न लाये ॥
जीव पचीस गये यम द्रा । फिर गभहि टीन्डे अवतारा ॥
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(१९०) अम्बुसागर
सूल मेर तिन गहि नरि पाई । ताते जीव गयो उहकाई ॥
जो कोह रसा रोय हमारा । सो देखे पुरूष द्रबारा ॥
सहस वषे आयु जिव कीन्हा । सकर हस ज्ञानी सग रीन्दा ॥
ज्ञानी संग सब च्वि लीन्हा । सत्य रोकृकी याचा कीन्हा ॥
पटच तरां जहां जन र॑ंग् । जरु शोभा तदां उठत तरंग ॥
जर रूपी तहां छ विराजे । सिंहासन तरद अति पिय साजे ॥
श्वेत स्वङ्प देखि सब ठोरा । आभा कहां कँ तेहि ओरा ॥
जलरग बचन
तब जल रंग कंडे को भाई । कोन अंश तुम कहां सिधाई ॥
हम निद्रा महं रहे अलसाई । तुम इसन रे रोक सिधाई ॥
अमर पुरूष रपौजी वेरा । संग होय होवे जिव षारा॥
हाथ हमार दीन्द टकसारा । तम मोरिं मेरि गये कस षारा ॥
पुरूष वचन कस मेटड भाई । विन बुञ्ज ई्षन ठे जाई ॥
सतग्र् उवाच
कंह ज्ञानी सुनो जल रगु । हम तुम ठक नारके संग ॥
दसराज सो या मग तोहीं। सो हम जान कदा कड मोदीं ॥
हम तुम एक आदि कोड भाई । कस संशय आपन चित खाई ॥
हम तो युगन युगन मग आये । अमर पुषं का संधि बताये ॥
सोहं संधि आय हम पासा । कस आपन घट आनड जाता ॥
हम रघु तुम जेठे मम आता । एक ओर सुनिये विख्याता ॥
कुष्ठम पक्षी एक रहायी । तिन इमसोंँ इक वचन सुनायी ॥
युग असंख्य बहु गये बितायी । ता दिनकी उन कथा स्नायी ॥
पक्षी के नयन दम देखा । युगन युगन का कहूं विशेषा ॥
| जलरंग वचन
तब संशय जल रंग जनायी । सुनिके वचन बोर अकुलायी ॥
महा प्रख्य होवे जब भाई । पक्षी कौन अधार रहाई॥
मम्बुलागर (११)
सो वृत्तान्त कहो मोहि भाषी । वक्षी मोहिं दिखाओ ओँखी ॥
सतगुड वचन-चोयाई
तब ज्ञानी अस कहे सघ॒द्ाई । ङष्टमपक्षी कँ बात सुनाई ॥
महा प्रख्य जब होवे भाई । स्वगं शृत्यु पाता जलाई ॥
ता पीडे गति अच्नि विशेषा ) चौदह अवन अजश इङ देखा ॥
उरूट पुकट पृथ्वी हो जायी । स्वगं रसातरू जात नज्ञायी ॥
बरह्म लोके वङुठ न् रदे । शिव इन्द्रादिकञ्चर नशि गयेऊ॥
तीन खोक जर इड भाई । इष्टमपन्षी तब जरू उतराई ॥ `
सो पक्षी किहि भोति राई । नीर माहि जस केन तराई ॥
देसे पक्षी ता दिन कईं तीन रोकं ख भातर रद ॥
ब्रह्मा इर इकर अख माहीं । आदि भवानी तहां समाहीं ॥
मच्छ कच्छ अङ् शेष वराह । धुव पहलाद इन्द्र शु माह ॥
सुर नर शुनि गंधवे जेते। यक्ष सराह सब अख तेते ॥
चन्द् सूर उडगण सब आरी । ऋषि अज् नाथ सिद अधिकारी)
ये स॒ब ङुष्ठमके सुख जायी । तीन खोक जिव तडं बचायी ॥
दोहा-तीन रोकं ॒चीद्ह भुवन, ओ वङ्कड पसार ।
जा कहं तपसी तप करे, सो सब अुखहि मञ्ञार ॥
चोपाई
महा प्रलय भयो सदस सत्ताहस । ङुष्टमपक्षी एक रहाइस ॥
यह इत्पद्र तहां ते जानो । तुम जर रंग सत्य कर मानो ॥
सत्य अधार सत्य वह रई । सत्य पुरूष अस्तुति नित करई॥
पुषं अंश पक्षी है सोह । महा प्रलय जानत सब बोई ॥
अगम निगम सुमिरन भर करई । नाम अधार सदा चित धरई ॥
१ जलमय । २ अग्निको ज्वाला ।
(९२) अम्बसागर
जलरंग वचन-चोौपारई
कह जल रंग सुनो त॒म वाणी । पक्षी दशन सुरति समानी ॥
अब तुम मोहि संग ठे जाई । पक्षी मो कदं देहु दिखाई ॥
तब जर रंग भजि शषिहारा । चलो इस सब संग हमारा ॥
ज्ञानी वचन चौपाई
यह सुनि ज्ञानी वचन उचारा । शब्द विमान दोह अस्वारा ॥
उभय विमान चे मिलि दोई । चरु विनोद देस संग सोई ॥
ज्ञानी अश चङे सबं आगे । तब जखरंग संग सब रगे ॥
क्षणमें गे पक्षी के पासा। रोकं निरन्तर जहां निवाप्ता ॥
दोय अंश तदं उद् राये । पक्षी कर्द तब जाय जनाये ॥
पक्षी बेठे आपन मारी । युग. पचासकी लागी तारी ॥
गृण वचन
शब्द् केर गण दीन्ह जगाई । खु गइ तारी देखत लाई ॥
तब गण अस्तुति विनवै लीन्हा । बारम्बार दण्डवत कीन्हा ॥
ज्ञानी अश पुरूष के आगर । अर् जररंग साथ तेहि नागर ॥
कोटिन दस संग तिन खाई । पौरि तुम्हार गट भये आईं ॥
कुष्टमपक्षौ वचन
ज्ञानी जर रंगहि लाव बुराई । तिनके साथ ओर नट आई ॥
गण कचन
दोर अंश सुनो मति मानी । पक्षी वचनन सुनु प्रमाणी ॥
सेना सकर छंडि तुम देदू । दोय अंश दरशन तब रू ॥
उभय अंश प्हचे तब जाई । पक्षी दर्शन ततक्षण पाईं ॥
आद्र बहत भांति तिन कीन्हा । सिंहासन रचि बैठक दीन्हा ॥
दृष्टि प्रसार देखि जग । बहत ज्योति पक्षी के अंगू ॥
जिमिकोटिन रवि शशि रे छाई । बहुत प्रकाश वरणि नरि जाई ॥
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अम्बुसागर ( १३)
कुष्टमपक्षी वचन-चोौार्ई
पक्षी कहे शनो हो ज्ञानी । केहि कारण तुम यहां सिधानी ॥
तुम तो अश पुरूष के आगर । केहि कारण पग धारेड नागर ॥
बडे भाग दर्शन हम पवा अति आर्नद मोहि चित आवा॥
हम तो पक्षी मत नहि जाना । तुम ह करता आदि पुराना ॥
तुम्दरी सुधि कोई नदिं पाई । कीन्ह कृतारथ मन्दिर आई ॥
जलरय बचन
तब जर्रंग वञ्च चितटखाई । केतिक युग ते यहं रहाह ॥
एकत संशय मम उर आवा । सत्य वचन मोहि भाषि स्नावा ॥
आदि अन्त जानो तुम बाता । मोसन भाषि कटो विख्याता ॥
महा प्रलय पुर्ष जब कीन्हा । कोन अधार कहां तुम लीन्हा ॥
उलरि पटलरि नभ धरणी जाई । तब सब जीवं कहां उहराईं ॥
जवां जीव वास सब खाई । सो थल मो कहं देह बताई ॥
कुष्टमपक्षी वचन
सुन जटरंग वचन मे भाषो । युगको कथा गोय नरि राखो ॥
महा प्रलय होवे जेहि बारा । तीनह रोक होय जरि छरा ॥
पृथ्वी जरी होय भरि पानी । स्वगं पताल जखहिजल आनी ॥
दश योजन लग उठत तरंगा । महा प्रख्य देखत जिव भंगा ॥
तीन लोक जल परल्य कीन्हा । इम तो जलमहं पगनहि दीन्डा ॥
जेसे फेन जहि उतराना । एसे बेठि पुरुष धर् ध्याना ॥
उतपति परलय भाषि स॒नाये । हम कबीर के अंश कहाये ॥
दोहा-जब पक्षी मुख बोलिया; अचरज भयो प्रसंग ।
कोरि शूप रुखि आपनो, इष्टि देखि जखरंग ॥
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कृट् देखि चकित मन भय । मन का गवं सब गय ॥ "
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जलरंग कवचन-चौपाई्
लीलखा देखि शीश तर दीन्हा । अर् कबीरकी अस्तुति कीन्हा ॥
देही धर इम रहे भुखाना । सत पर्ष हम तुमि न जाना ॥
आदि अन्त तुष पुरूष इमारा । अस्तुति केरे जररंग अपारा ॥
इम आपन मनम बड रोई । नाम कबीर पुरूष है सोर ॥
यह कोतुक देखा हम ज्ञानी । तुमही पुरूष ओर नहिं आनी ॥
हस चखन
अस्त॒ति केर देष सब उदे कौतुक देखि इषे चित बाढे ॥
घन्य घन्य तुम आदि गोसाई । पक्षी देहं कहो किमि षाइ ॥
यही वचनं तुम कहो विचारा । तो तुम कतां सिरजन हारा ॥
कुष्टमयक्षी वचन-चौाई
पक्षी कहे सुनो दो भाई। पूरव कथा कहं सशुज्ञाहं ॥
हम कबीर आज्ञा नरि कीन्हा । ताते पक्षी तन धर रीन्हा ॥
देह धरे भये युग दश्च लाषा । सत्य वचन हम तुयसन भाषा ॥
सहस सताइस प्रख्य कीता । टम आगे इतना युग वीता ॥
हो जलरंग कहां तकं कहॐ । शन्य असंख्य द्वीपे रइं ॥
वहां वैडि प्रख्य हम देखा । सबही बड़े जीव जरु येखा ॥
पुरवन युगकी कथा स॒नाई । देख हंस हर्षित हो आई ॥
हीरा पान जर रगहि दीन्हा । कष्टम दशन जिदि दिन रीन्हा॥
दिकि मिलि भेद एककर जानो । तीनेड अश बहुत सुख मानो ॥
, अब पक्षी के नाम सुनाॐ। सात नाम मैं प्रगट बता ॥
साखी-जिव सागर आनदसुख, देस उबारन धाय ।
प्रय देख विस्मित इदय, म, दायर कुष्ठम नाम ॥
। जलरग वचन-चं
जल रङ्ग पायउ हीरा पाना । संशय गत इषित मन आना ॥
त॒म कीला स्वामी अवगाहा । अंश देस नदि पावत थाहा ॥
अम्वसागर ( १५ )
खन्द-तुव चरित अगम अपार वावन रछखि न काहको परो ॥
मम चित्त गवं घटाववे यण देह पक्षी को धरो॥
तुव कला जानि परी न इमको धरेड अभित स्वह्त्व हो ॥
वहां पुरूष द्यां ईस इम जान हसन भूषदहो॥
सोर-चगण कमर बलिहार, कन्हं इण्डवत विनयं बह ॥
इरषित भये अपारः रंक नरहि जिमि निधि भिरे ॥
सकल हंत व्चन-चोपाई
खड़े ईस सब पौरि दवारा । तिन सब हिङिमिङि विनती धारा
कारण कौन दृशं नहिं पाये । तुम इसन नायकं ग्रथ आये ॥
गे शदष्ार हस ठे आवा । अङ् पक्षीके दर्ज करावा ॥
देखि ङप अति दषं समाना । तब ज्ञानी की अस्वति ना ॥
छन्द्-तुम आदिषपुर्ष अखंड अविचल वतित वावन नाय हदो ॥
जीव बन्धन काट फन्दनं जात छै निजं धाय हो ॥
योग जीत कबीर ज्ञानी ना जग अहं माइया \
अकह अभय अवार तम गति भाग जिन वदं वाइया ॥
खोरठा-जरे हंस बहु बन्द, फूल रहै अरविन्द जिमि ॥
गति यामिनि सुख कन्द्, अश्ण चरण रकखि अभिय कर ॥
विनयं कीन्ह बह वार, षद पकज को ध्यान धरि ॥
हे प्रथु तुम बिहारि, करे दृण्डवत हस सब ॥
इति श्रीअम्बुसागरे परवनयुगकथावणनं नाम चतुथंस्तरगः ।
अथ पंचमस्तरगः
अनुमानयुग कथा वणेन
धर्मदास वचन-चोपारई
धर्मदास रेके युङ् चरणा । अगम कथा भाषेड प्रथु वरणा ॥
बहुतकं अनथ सुनायउ काना । अम्बूसागर अन्थ बखाना ॥
सुनि दितवचन मोरिप्रियागा । चातक स्वातिपायजिमिपागा॥ _
( १६) अम्बुसागर
युग अनुमान कटो मोर भाषी । ओर शब्द् कह चित अभिराषी
सतगुरु वचन-चोपार्ई
घमेदास भ भाषि सुनाऊं आदि र् अंत प्रसंग बताऊ ॥
जा दिन पुरूष बोर अनुसारा । एक शब्द ते कीन्ह पसारा ॥
वाणो ते माया उतपानी। तीन पुत्र तिन कीन्हा नी ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर कीन्हा । तीन लोकं तिदह पुन दीन्हा ॥
ब्रह्मा हाथ चार दिय वेदा । तीन रोकं महं करत न खेदा ॥
नेम धमे अर् सकक् पुराना । यह बह्मा सब कीन्ह बखाना ॥
विष्णु देव भृरत्यु खोकदि आये । तुलसी माला पंथ चये ॥
माला गले शंखिनी डारा । तीन रोक महै है बड भारा॥
राजा प्रजा सेव सब करई । विष्णु इष्ठ सुमिरण मन धरई ॥
सेवत आये भये अनुरागी । करत संहार कहत इम त्यागी ॥
जार बारि तन कष्ठ कराई । योग पन्थ यहि भति चराई ॥
योगी यती तषी संन्यासी । आपन मुख कह हम अविनाशी ॥
शिव मदिमा माष संसारा । दक्षिणदिशि महिमा अधिकारा
तीन पुत्र तिहु लोक त सपरत । माता सों इन कन्दी धूता ॥
माया कह माने नदि कोई । आपहि आप कदावे सोई ॥
आद्या लीला
तब आद्या मन कीन्ह विचारा । तीन पुत्र भये सिरजन दारा ॥
माया मन क्ंखे बहु बारा। तीनों पुज भये बरियारा ॥
नाम इमारा दीन्ह चिपाहं । तीन लोकम अदर चलाई ॥
तब आद्या घट सुमिरण रावा । आपन माहि आप निरमावा ॥
अपनो मथ्यो शरी । शक्ति तीन उपजी बरु वीष्टः ॥
तिन का नाम कहू समञ्चाईं । रम्भा सुचिल रेणुका आईं ॥
इन दिकि मिहि गण गंधवे मोहा । राग रागिनी बहुविपि शोदा॥
कृर आभरूषण गंधवे लीन्हे। सकर साज तिन हाथन दीन्दे॥
अम्बुसागर ` . (१७)
तिनका नाम कू समञ्चाहं । भीनर बाबत मूरा खाई ॥
सितार कमायचं अश् भुहचगा । ताल श्रदेग नफेरी संगा ॥
जरतरग ओं भ्ुरटी किंकिन । मोहर उपग मंड स्वर तिन्तिन॥
बाजे ओर छतीसों कहिया । गंधर्व हाथ साथ सब लहिया ॥
मास महीना फागुन सोई । छतु वसन्त गवं नर छोई ॥
ठेस वनस्पती सव फूरे। अम्बा मौर डार सब इले ॥
चातक धारं वचन सदहावन । इस कोकिला कोयल पावन ॥
पिया पिया चातक प्रिय कहीं । पिरहिनि लग मदन इखजरडीं ॥
अग अवीर गुखरु चडाये । नाना मोतिन अतर लगाये ॥
कामिनि देतु काम ल्व खाये । अग अनंग बहत विधि छाये ॥
या चरि माया उपराजा । तीनह खोक रागं ब माजा ॥
जो सुन राग विषय मन धरदीं । बार बार ते यम चर षरहीं ॥
अविगत मोह राग रे भाईं। राग सुनत जिव गै उहकाई ॥
माया ध्वनि रागन को बांधा । जासे तीन लोक धर साधा ॥
प्रथम राग षष्ट विधि गावा । तिन रागन का नाम सुनावा ॥
#& रागोके नाम
दोहा मरौ ओर ईंडोल अति, पचम राग कवस्त ।
दीपकं मेधमलार भर, कीन्ह देव सब दस्त ॥
ॐ यद्यपि इसमे एसा लिखा है किन्तु समयक फरसे लखकोंकी कपास ग्र्थोकी जो
दुर्दशा हो रही है उसका न कहना ही अच्छा है इस कारण से अन्य संगीत की पुस्तक से
राग-रागनियों के नाम यापर लिखते हें ।
ष्ट्राग-दोहा
राग प्रथम भरो कल्यो, मालकोस पुनि जान ।
हिडोल राग तीजो कहत, दीपक राग बलान ॥।
भोराग कवि कहत हं, मेघ राग पूनि सार । ¦ कः ; `
षट् रागन के नाम यह्, कं भेद चिस्तार ॥ =:
(९८) अम्बुसागर
चौपाई
कीन्ह उचार राग तेहि वारा । षि शुनि मोह देव सब ञ्चारा ॥
माया डारी सब षर फांसी, योगी यती तषी संन्यासी ॥
ततक्षण देवी रची धमारा । इकसडठ रागिनि तहां उचारा ॥
रार्गोकी रागिनिर्योके नाम
भेरों को धनि भेरष्वी, बंगाष्लौो वेरा ।
मधुमाधवः अर सिन्धवी, पाचों विरहिन नारि ।।
टोष्डो गौष्टो गनकली, कुमायत हिचान ।
ओर कोक^ब को कहत हं, मालकोसकौ जानं ।,
राम'कलो पटभ्मंजरी, ओर कहै देवसाखं \
ये नारी †हिडोल की, ललित बिला"वल राख },
देष्शी न्ट अरु कान्ह्ष्टो, कदरो कास्ोद ।
दीपक को प्यारी सबे, महा प्रम परमोढ \,
धनाष्सरो आसावरी, मारू बहुरि वसंत
भ्रीराग की रागिनी, भाल्नी है अन्त \\
भोपा्लो अरु गृजभ्री, देश'कार अरु 'मल्लार ।
बक. वियोगिनी कामिनी, मेधरागको लार ॥
छहोँ रागक गुण
भरों श्र श्रता गहै, कोल चलं जु धाय ।
मालकोस तब जानिये, पाहन पिधिलि बहाय ।!
चलं †{हडोलो आपते, सुनत राग {हिडोल ।
बरसे जल घन धार अति, मेघराज कें बोल ।।
श्रीराग कं सुर सुने, सुखो वृक्ष हराय ।
दीपक दीयो बरि उठे, जो कोड जानं गाय ।!
रागोँका समय
पिले पहर निशि समे, भरों राग बखान ।
मालकोस तब गाट्ये, जब सब निकसे भान ।।
एक पहर जब दिन चठ, करे राग {हिडोल ।
ठीक दुपहरी के समय, वीपक कं सुर वोल
अम्बुसागर (१९)
तेदि रागिनि के नाम सनां । भिन्न भिन्न कर भ्रगट बताऊँ ॥
इकषट रागिनियोष्े नाम
१ धनाश्री २जेतश्री ३ माङश्री श्री € श्रजरी § विरावरी
७ आशावरी ८ जेतसारी ९ गन्धारी १° बरारी 99 सिन्धूरी
१२ पथश्री १३ गोरी १® जौनयुरी १५ विहागरा १९३ कान्हरा
१७ केदार १८ माङ् १९ मलार २० धूरिया मलार २१ गौड
मलार २२ गडमलार २३ भ्रूवाखी २४ सुरकली २९ श्रीमा
२६ धूरकली २७ रामकली २८ ङपकली २९ शुनकली ३० सु-
हैरी ३१ मोरवी ३२ पूर्वी ३३ कैरवी ३० भैरवी ३५ कान्हारा
३ दतिद्छाना २७ कल्यान ३८ यमन ३९ कल्यानी £ ° खजीवनी 9
सेरु ७२ मधुगंध ४३ सावन्त ४ रक्तं ७५ सोरठ ७६ रददी
४७ टोडी ४८ नट ४९ गोड ५० विभास 4१ सुदैज्ञ ५३ सहा
५३ प्रज ५8 काफी ५५ चन्द् && सुधराय जेजेवन्ती «७ चर-
नायका ५८ सारग «९ बगल & ° नायका &3 खन्या ।
चौपाई
मोहे ह्या षिष्णु महेशा । नारदं शारद ओर गणेशा ॥
शंकर जग महं बड अवधूता । काम जार हो रहे सप्ता ॥
कटवा भूर गये अनुरागी । काम विरह तन उठ उठ जागी ॥
भदन अनूप राग है भाईं। सत पुरुषन सों विचरन लाई ॥
सुरपति सनकादिक अनि जेते । काम कला सब नाचे तेते ॥
शीराग चौथ पहर, जौली दिन अथवाय ।
मेघराज तबहौ भलो, जब मेध बरसाय ।।
फागुन मं यं राग सव, जागत आों याम ।
वसत ऋतुमं निशि समय, एकयाम विभाम ।॥!
भेरों शरद कुसुप शिशिर, अर हिडोल वसंत ।
दीपक ग्रीषम हेमभी, मेध सुपावस अन्त ।।
(२०९) अस्ब॒सागर
देखत छबि मोहे सब ्ारी । सुर समान माया गहि मारी ॥
सकर देव जब गे अकरा । काहू कर मन थिर न राई ॥
बुञ्चो पेडित सुर शुनि ज्ञानी । जा महिमा तुम करत बखानी ॥
बद पुराण भागवत गीता) पटि गणि क कार हम जीता ॥
तीनों गुण ईश्वर उहरायी । माया फन्दा ताहि बनाई ॥
केसे ताहि दोय निस्तारा । जिन नहि माना शब्द हमारा ॥
राघवानन्द नाम युग केरा । माया चरित कीन्ह तेदि बेरा ॥
तेहि द्विराग का कीन्ह उचारा । सकर जीव् इमि मार षछारा ॥
अब हसन का भाष खेखा । धर्मदास चित करौ विवेका ॥
छन्द -ताहि युग हम आय जीवन दीन्ह अरत पान डो ॥
सहस सात उबारि जीवन जाय खोक समान हौ ॥
पुरुष दान कीन्ह ततक्षण इष अविचरु वाईइआ ॥
पुष्प शय्या वास कराइ फल अभरत ताहि चखाइञ ॥
सोर-तुम ब्ूञ्जहु धर्मदास, युग युग ेखा भाषे ¦
चीन्डे कोइ इक दास, जेहि सतगुङ् दाया करें ॥
इति श्रीअम्बुसागरे अनुमानयुगकथावणेनो नाम पंचमस्तरंगः ।
अथ षष्ठप्तरगः
धीयंमाल युगकी कथा
धमदास वचन-चोौपाई
धर्मदास कंदे सुनो गोसाई । अगम कथा तुम मोहि सुनाई ॥
माया चरित दृष्टि इम आया । तीनों गण बहु देव थुलाया ॥
अव जो ओर होय सो भाषो । समरथ मोसे युत्त नरि राखो ॥
सतगुरु वचन ५
आगे ज्ञान कदी समञ्च । मूल नाम की कथा सुना ॥
मूल नाम ना काहू पासा । पावे मूर कंदवि दासा॥
अम्बुलागर (२१)
कलियुग साधू बहुत काये । भूर शब्दं कोड विरे वाये ॥
मूल शब्द् ताकर है नामा । जाते वीर ईस भये कामा ॥
रंग रंगीले हस भये तीनी । पक्षी वीरा इस प्रवीनी ॥
वीरा दीन रहस पहंचाई ) महा पुरूष के दरश कराई ॥
सोई नाम साधु जो पवे। योनी संकट बहुरि न आवे ॥
द्वीप असंखन करे बिखासा । जरा मरण की छदी आसा ॥
जो वह नाम साधु नहि जाना । सो साधू भये जिवत मशाना ॥
अकह नाम कैसे कै जानी । छिखिनर्ि जाय पटोनदि बानी॥
कचग साधुं कहँ हम जाना । बूट शब्द् सुख करहि बाना ॥
कोटिक नाम जपो रे भाईं। कौनिहुर्भोति युक्ति नरि पाई ॥
नाम अनन्त अहौ ससारा । किंचित है निज शब्द इमारा ॥
देही नाम सवै कोड जाना) नाम विदेह विररू परिचाना ॥
काया धरि हम चर घर आये । काया नाम करमर पाये ॥
ताते मोहिं ओक कर जाना आप आष यें करे बखाना ॥
दिल करे कदे कबीर कबीह । पाचों तत्वे तीन शण थीङ् ॥
दिक म बोलत बरह्म बखाना । अन्तकाल होवे जिव इाना ॥
दिल म बोरत कोन ठोरा। भेद बताव्ह साधू मोरा ॥
टौर न जान कहे क ओरा । सो जिव मार काल कड्चोरा ॥ `
दिल भीतर महँ करे षिवेका । कंरे खोज तब आगे देखा ॥
रचि पचि धुनि माथो गहिमारा । बिन सतथरू नहि होवे पारा ॥
नाम सों वपि सुरति है भाई । सुरति निरति मिखि शब्द समाई॥
सुरति ओ निरति शब्दकेरेटौरा। सो साधू होवे निज मोरा ॥
तीनों गुण सों बांधे हेता । अन्तकारु होवे सो प्रेता ॥
माथे टोपी तिलकं बनायी । माला गरे सरवनी लायी ॥
कहे सकर सब हमरी पाये । पछि जीव यम द्वारे आये ॥
नं. ३ कबीर सागर - ३ ,
(२२) अस्ब॒सागर
अपने सुख हो शुरू काव ! गुर कटि कटि सब जीव थुखावे ॥
शुरू शिष्य दोनों डहकायी । विना शब्द् जो शुरू कदायी ॥
अथवा पांच नास नरि जाना । नरियर मोरहि मय विज्ञाना ॥
दोहा-बहत गुड संसारम, कोई न रमे तीर।
सभी गुरू बदि जागे, जायत शुरू कनीर ॥
चोपाई
भूर दीप कर ॒श्वेतहि पाना । धीरज भान ज्ञ भाषेड ज्ञाना ॥
वीरा नाम विरोधिक भाई । धीरमारु युगं जीवन पाई ॥
^ राख ईस कागज महं राखा । सुरति नाम जीवन सो माषा ॥
नाम अचिन्त पुरषं कर सारा । यशे नामं जीवनं रखवारा ॥
पुरूष नाम ॒खोजो जो भाई । पावे हस रोकं करट जाई ॥
रोक वेद् की छोडे आशा) अगम वानका कर विश्वासा ॥
आगम आन अगम के हाथा । आदि अन्त् वै सब के साथा ॥
वीरा नाम जीव उपदेशा । सतु आये काटि करेशा ॥
जो हंसा सतगुरु कहे करई । आज्ञा मान चरण कहे धरई ॥
आयं पुरूष फ दरशन पावे । षोडश भातु इष जँ आवे ॥
दक्षिण ओ पूरव पुनि पश्चिम । तनह शट देख इम सुक्षम ॥
उत्तर दिशा धनी को देशा । तहां न व्यापे यमका रेशा॥
छंद्-आयं परुष दीन्ह अज्ञा जीवं कारण आद्या ॥
युग धीयंमार मे दीन्ह वीरा लक्ष इस पठाहया ॥
अमर लोकि ठीन्ह वासा पुरूष के दशन रदे ॥
` हप षोडश भावु होकर अमिय आसन तहं अद ॥
सोरग-पुष्प मनोहर वास, कर कंकण शिर सुकुट मणि ॥
माथे छ विलास, कटा ङुतूहरु ईस मिलि ॥
इति श्रीअम्बसागरे धीयेमालयुगकथावणेनं नाम षष्ठस्तरगः ।
अन्बुसागर (२३)
अथ घत्ठमस्तरः
तारण शुग कथा वर्णन
- ध्मंदास वचन-चौषाई
धन्यभाग तुम मम गृह आवन । दशन दीन्ह कीन्ह मोहि पावन ॥
मोहि अधम कद कीन्ह सनाथा } बार अनेक नवायंड अथा ॥
खोजी दोय शब्द् पहिवाना ) जात ईस होय निर्वाणा ॥
जिन जीवन पर तुम्हरी दाया । तिन कड दीन्हेड खोकयषटाया ॥
ओर हस जिन सेवा लाये ) युग युग महिमा मोहि खनाये ॥
सतगृङ वचन- चौपाई
सुकृति सनो खोक कीं बानी । आदि पुरषं अङ् तरे ज्ञानी ॥
बीरा पुरषं दीन्ह मोहि हाथा । जाते ईसा हेय सनाथा ॥
तारण युग परमाना आनी । चार खाख युग आ बखानी ॥
युग आयुबेरु जीव का भाई सहस् एकादश वषै रडाई ॥
उत्तम पथ रहे इकं राई । धमंदास तहि कथा सना ॥
योगी यती तषी गहि बांधे । देखत ताहि कोठी धांधे ॥
सन्यासी ब्राह्मण वेरागी । देखत ताहि कोध अतिजागी ॥
षटदृशंन के देखत जरह । जरत इतास ज्वार घृत प्रई ॥
ब्राह्मण माथे दीका गदा । रेख परी घस ताहि कख ॥
ब्राह्मणको रे सारी मारे। तोर जनेऊ आगमी डारे॥
वेद पुरान पठन नर्द पाई। भक्ति राह मर्याद उठाई ॥
या विधि शासत जीवन देह । हरि इरि नाम न कबं रेह ॥
वनके भगा चरन नहिं पावे । द्विपद चतुष्पद धरि धरि खावे ॥
मारे जीव जन्तु बहुतेरा । कोइ न बचे मार बहु घेरा ॥
सा अधम चार तेहि राजा । जीवन कष्ठ देखि भह लाजा ॥
तब अपने चित कीन्ह विचारा । ग्यंग कोन आयड संसारा ॥
(रे) अम्बुसागर
वटका वृक्ष तासु दरवाजा । तारि तरे दम आसन शजा ॥
आसन सारि ध्यान महं पागे । एकि सुरति नाम चित लगे ॥
यहि अन्तर इक वृषली आई । नाम सगुनिया तासु रडाईं ॥
आय उाडि मह साहिब आगे ! विनयं कीन तब पून लागे ॥
कौन देश कोने अस्थाना। यह्वं साहिब कीन्ह पयाना ॥
जो मांगो सो देँ मेंगाई। रे भिक्षा आगे चरु जाई ॥
विषम द्वार यह राय अपारा । राजा दशन करदि तम्हारा ॥
राजा नाम सने जो पाई) त॒र्तहि गर्दन मारिहि आई॥
दोदा-इकईस पोरि के भीतरदि, तर्द बेटे हँ यय ।
कोई मम नदि पावर, रानी संग रदाय ॥
स्वामी वचन-चोपाई
स्वामी कहे सुनो तुम बाता । राजि जाय कटौ विख्याता ॥
दरश हमार करे जब आह । अगम निगम हम भेद बताई ॥
राय परीक्षा इमरी पवे। छटे दसं लोकं करं जवे ॥
तुम जिन शंका मन महं आनो । निश्चय वचन हमारा मानो ॥
वचन हमार राय पहं जाहू । सकर परिया बश तुम आहू ॥
सुनतहि वचन माथ तब नाई । तब भीतर कँ दीन्द रिंगाई ॥
पदिली पोरि उ्येड जबहीं । दृजी पोरि पर्ुचि गयो तबदीं ॥
तीजे पौरि पे पृछन लीन्हा । चौथी पौरि जाय पग दीन्हा ॥
पांच पोरि संग मिलि गय । बहु आधीन छठी तब भय ॥
सातो पवरि भयउ उठि गढ । आं परि दरष चित बाढा ॥
नवीं पौरि पर माथ नवाई। दशे परिया आदर खाई ॥
पौरि इकादश पे बाता द्वादश पौरि देख कड माता ॥
योदश पौरि वचन अनुसारा । चोदह पौरि लागि क्कु बारा ॥
पन्द्रह पौरि देखि वश मय । षोडश परि देख मन रेड ॥
अम्बुयागर (२५)
सह परि सांच तब बोढा । परि अटरह अन्तर खोखा ॥
उनदस पौरि सवन अधिकारा } वीसह परि कीन्ह पेठारा ॥
इकहस पौरि ठाट जब भय । छरीदार तब पनं खयं ॥
क काहे मीतर चर जाई कौन काज तदै राय रडाई ॥
राजा गर्दन मरि तोरी। खत्यं वचन माने इड मोरी ॥
् वृबलौ वचन-चौपाई
स्वामी रोकि बैठे दरवाजा । तिनकी खबर कहो तुम राजा ॥
भख जानो तो जाय जना । नातङ् फेरि बत पताः ॥
छरीदार संशय ` मन खाई । अगम बात यह जाय सुनाई ॥
सोच करन तब लाग शरीष । राजा वग बडे बर बीड ॥
सत्य वचन तुम कहो विचारी । गरदन यारे राव इयारी ॥
सगनिया वचन-चौपाई
कृद वृषली सुन बात हमारा! मे तो करता सिरजन हरा ॥
अनदित केर जनि बोहर वानीं । राजि खबर कटो तुम जानी ॥
छरीदार वचन~-चोपाई
छरीदार भीतर चलि गय । कीन्ह प्रणाम गढ तव् भये ॥
दोड कर जोरि बोल सत भावा । सिंह एक द्वारे तुम आवा ॥
राजा वरन-चोौपार्ई
तब राजा बञ्चन अस रावा । केहि कारण सन्प्ुख तुम आवा ॥
अपनी बात कटो समञ्चाई । कदि कारण त॒म इमल्ग आईं ॥
छरोीदारवचन- चोपाई
आय सशुनिया हमरे पासा । वचन एक इम सो प्रकाशा ॥
स्वामी एक वेढा है द्वारा । तिन राजा कह बेग पुकारा ॥
साहिब द्रशन देन क आये । तेहि कारण इम इहां सिधाये ॥
जो महाराजा आयस पाड । जाय सिखावन ताहि सुना ॥
(२६)
अस्बुसागर
राजोदाच-चोपारई
सुनतदिराय कोप चित रायो । वह स्वामी को भार डरायो ॥
करै सगुनिया वचन प्रकाशी । तो कर राय दिवावे फांसी ॥
यहं सुनि छरीदार उठ धाये । बृषी कँ तब वचन सुनाये ॥
भाग सगुनिया कहै संदेशा । छंडहु द्वार रेह ष्रवेशा ॥
राज् कोप बहु चिन्तन कीन्हा ! छरीदार मोहि मारन लीन्हा ॥
तुम यहां ते बेग सिधाई । ओर देश मरह बेठो जाई ॥
पर इक् महं अब होय पुकारा । यहां न रहना होय तुम्हारा ॥
कहू पुकार सुनो तुम बाता । पङ मँ राजा करिहै घाता ॥
साहिबसन चित कीन्ह विचारा । घट भीतर तब सुरति सम्हारा ॥
उठा कोप पुनि कीन्ह समाई । हम तो राय उबारणं आहं ॥
| साखी
जो अन इच्छा दोय मम, तुर्तं होत है नाश ॥
पुरूष वचन सम्हारके, अन्तहि करहु निवास ॥
चौपाई
यह तो जीव अबुध अज्ञानी । समञ्च अपन चट नार्दिन आनी॥
छोडि द्वार तब दीन्ह रिंगाईं । पुरी बाहर हम पर्हचे जां ॥
मान सरोवर जहं इक सागर । वेठेड जाय तहां प्रथु नागर ॥
नगर लोकं जरु तहां भराई । सागर दीरघ अति रहे शा भाई ॥
सोहं जल राजा करद जाई । क्षितिया रोडी रे पर्हचाई ॥
राजा रानी सवे अन्हाये। तेहि वृषली कर जल सब पाये ॥
सवा प्रहर दिन चटे प्रमाणी । तब कग राय नींद अरुसानी ॥
उठत राय क्षितिया चलजाई । कंचन कटशा जलकर्द जाह ॥
धय मांज जर घडा बुडावा । लीरा एक तहां इम लावा ॥
घडा तादु ॒बाहर निं होई । क्षितिया रँडी तब अति रोई ॥
अन्बुसागर (२७)
तब वृषली बहू कीन्ह वुकारा । तुरति राड डार मोहिं मारा ॥
गगरी भरे उढे नहिं भई) बहत नारि देखन कँ धाई ॥
सरवर भीतर रोग अन्हाहं | श्रौ बं गागर आन उठाई ॥
दश अङ् वीस षचीस्षक आये } गागर को सब छोगहि धये ॥
बजत हंकार ल्मे तव कीन्हा } रंचक वडा उठन नहि दीन्हा ॥
सवा पहर दिन देसी बीता । क्षितिया जस जीव बड कीता ॥
केसे जर तं धडा निकारी । भय अवैर राड मोहि मारी ॥
अपने चित अति मानेड जषा । जरम घडा ककड को गासा ॥
सागर आवत जन्म बिताईं) कोन चरि आज भौ भाई ॥
सो दो मानुष तवां आये । तेड हार बहत सङ्चाये ॥
खबर पाय राजा चलि आये । रानी उनिके अचरज पाये ॥
तब राजा कहं बात जनाई । सुनके राय रहै अरगाई ॥
तब राजा चित कीन्ह बिचार । यह तो बात अगम व्य॒बहारां ॥
चखा राय तब बाहर आवा । सकर रोग कँ वचन् खुनावा ॥
सुनिके रोग भये अज गता । घडा उडावन चरे सपूता ॥
राजा तबही तुरंग मगाई। हो असवार चङे चतुराई ॥
नेगी पंडित ओर प्रधाना । देखत सकल चरे अङ्लाना ॥
सहस वीस मानष तब जाई । राजा संग चरे सब ॒धाईं ॥
नगर लोग सबहि चलि आये । बारक भिया बद्ध सब धाये ॥
कुंजर रांकर राय नगावा । बांधो घट बह रोग रगावा ॥
सहस वीस माषं पचिहारे । किंचित घडा टरत नर टारे ॥
तबही राय बहत हैकराई । सहसन कुंजर व लगाई ॥
पीटवान आं कृश गज मारा । मारत गज तब देह चिकारा ॥
नेकं घडा न उठत उटये । राजा मन तब हार रजाये ॥
चार लाख मनुष रइ ठढा । देखत सकल अचम्भा बाढा ॥
५२८) अम्बसागर
न्द्राय देखत भयर ग्यक वार बह जर निरखरी ॥
आज अचरज भयो अति हि घडा गहि यह कोददी ॥
सइस ङुजर खाग मानुष नहीं किंचित सो ररे॥
कोन्ड बहत उपाय हारे अभय देखत जिव डरे ॥
खोरठ-मेजी करहु विचार, हम घट अति संशय मयो ॥
व्याकर चित इमार, कीजे कौन विचार अब् ॥
चोपाई
मजी कहे सुनो महशजा । कहत वचन आवत है छाजा ॥
साश्चु एकं आया दरवाजा । तापर आप कीन्ह इतराजा ॥
सो स्वामि यह चरित दिखायी । हमरे चित अस वर्तत आयी ॥
यहि अन्तर एक कीन्ह तमाशा । सो लीला भाष धमदासा ॥
सरवर भीतर बद्ध ॒रहाईं ! सुवा प धरि बडे जाई ॥
देखि पारधी ततक्षण आवा । बाण सच मारन कँ धावा ॥
उल्टा बाण पारधिहि खगा । कखगत बाण वारधी भागा ॥
दोय चार सो जाय जनाये । देखन ताहि रोग पुनि आये ॥
इष्टि प्रसार सुवा कहं देखा । सुन्दर सुषा वरणि अति रेखा ॥
कर शुर छे गुरा चटाये । टूटा गुरा खंड हौ जाये ॥
दो चार दश वीष्ठ पचासा । सुवा केर सत दीख तमाशा ॥
तारी ठेके टोरु बजाये। सुवा नहीं तर उडे उडाये ॥
तबहीं रोग राय कर जाई । सुवा एक यहि वृक्ष रहाईं ॥
बहुत शूप ताकर महराजा । कन्हे शोर बजाय वाजा ॥
तवां तें निं सुवा उठाये । वेटि वक्ष आनंद मन खाये ॥
गागर छोड राय चरु गय । आज्ञा राय पारधी दय ॥
जाय पारी खवा फैदावो । जो मांगो सो तुरततदि पावो ॥
चरे पारधी तुरतहि गय । सुवा पर फंदा तिन्द नय ॥
अन्बुसागर (२९)
जब फन्दा बह डारे भाई । तवदी सुवा छोट हो जाई ॥
जब वह फन्दा छोट कीन्हा । तबही इष बडा ध्र दीन्हा ॥
बहूुतकं यत्न वारधी छाये } ताहि खवा इथ नहिं आये ॥
सकर पारधी रह तब हारी । राजां सों तब कं घुकारी ॥
युवा न आये इमरे हाथा । चाहो तुरत कटाओ माथा ॥
बहुतक शूप सुवा के अगा) राजा दैखि भये चित भंगा ॥
सात रोज टेसहि जब बीता । राजा अन्न सुधा नहिं कीता ॥
हम क देख कीन्ह बड रीती । तब मोहं उठी सत्यक रीती ॥
तब यँ उडा तहां ते माई । राजा हाथहि वैञ्यो जाई ॥
ततक्षण रानी देखी आईं । देखि छवा बह संदरताह ॥
जगमग ज्योति बहुत उजियारा । उन शुन रहन खवा कौ धारा ॥
रानी तब भीतर चि जाई । अङ् राजा कदं वातं जनाई ॥
सुनतदहि राय हर्षं चित आवा । जसे रंक यहा निधि वावा ॥
वेगि राय तवां पगु धाग । देखि खवा इषंड बह वारा ॥
राजा चीन्ह सुवा वहि आही । जा कारण इम कष करा ॥
सरवर वक्ष सुवा मँ देखा । सोई सुवा यह आय विशेषा ॥
कंचन केरि कटोरी ीन्हा । दषे भात ता भीतर कीन्हा ॥
रानी लेकर आई धाईं। उडकर सुवा हाथ पर जाई ॥
तबही पकड प्रेम रित खावा । रानी राजा बह सुख पावा ॥
तब राजा मजी दकरायो । चतुर सोनारहि तुरत खायो ॥
ततक्षण राव कीन्ह ज्योनारा । आये खुनारा बहुत तेहि वारा ॥
राजाडिग गये चतुर सोनार । तिन सो राजा वचन उचारा ॥
अहह प्रवीण चतुर अधिकाईं । पिजरा देह दमार बनाई ॥
सहस प्चीस सहर तब दीन्हा । पिजरा तबे बनावन खीन्डा ॥
सवा लाख दीया र्ग मोती । दीन्हेउमणि तिनकी जडज्योती॥
घात हजार रारू की पाती । शोभा बहुत कहू का भाती ॥
५३७ ) अस्बसागर
बारइ वषं बनावत गय । तवरुग सुवा सहमदी रहे ॥
भयो सिद्ध पिजरा पुनि जवी । केकर सुवा नायउ तेहि तबरीं ॥
रानो तबे पटठावन लीन्हा । रामहिराम पदी मन दीन्हा ॥
तबही सुवा वचन अदुषारी । चतह राय प्रेत यम धारी ॥
इक दिनि विद्धुरन सब सों होई । मोह प्रीति छंडो सब कोई ॥
वाणी यही कदत बह बारा । दूजा वचनं नहीं चित धारा ॥
राजा रनौ कहत विचारा । सुवा बोरू इषोर पुकारा ॥
बार बार इम ताहि पठाव । रापराम चित एकन छवा ॥
इकं दिनि राय अहेरहि गयॐ । लीला एकं तहां हम किय ॥
राजा से चेतत नाहीं । तवे विचार कीन्ह मनमादीं॥
दीन्दी आहा अश्रिको जबहीं । महन महं धधकिउठी सो तबरही॥
सून्यो रनी आगी लागी) सत कलच ठे रानी भागी ॥
भयो तेज अति अभि अपारा । जरत इष्य सकटौ भण्डारा ॥
हीरा मोती शाल अपारा । पाट पटष्बर जर सब छरा ॥
जरे ऊट अङ् हस्ती चोरा । रानी देख कीन्ह बड शोरा ॥
राव साज वस्तु सब जरई । हाहा रानी रोवत फिर ॥
जरे ओरो जर जाई । सुवा जरे हमं बड दुख पाई ॥
बार वषं सुवा को भय । सुवा जरे मम प्राणहि गयं ॥
राव शिकार ते फिरी अयॐ । देख्यो राजा सब जरि गय ॥
राजा ब्रन रानी बाता । मोसों कटो सुवा विख्याता ॥
पिजरा सुवा जरा क बांचा । सोई वचन कहो मोहिं साचा ॥
यह सुनि रानी रोवन लागी । जर्यो सुवा भयो मोर अभागी ॥
सुनिके राय मोह बड लायी । सकर रोग कर लीन्ड बुखाई ॥
खोजो सुवा जाव सब कोई । देखत ताहि दर्षित मन होई ॥
बुनतहि लोग चे बहु धाय । डारेड जल तब अभि बुञ्ञाये ॥
अम्बुलागर (३१)
अवर सकल भये जर छारा । गिजरा कदं छागी नहि ्आारा ॥
पिजरा भीतर खवा रदहायी ! बोखत उदहै वचन वितलखायी ॥
रजा रानी देखत धावा । हाथ श्ुवा गहि अंक रख्गावा ॥
राजा रानी करै विचारा । यह तो कत्त भिरजन हारा ॥
रानी रावे चरण छषटाये । नगर खोक सब देखन धाये ॥
विनती राय कीन्ह तेहि वारा ! खनद सुवा तुम वचन इमारा ॥
बारह व्षं॑रहे इम पास) अपनी मता को निज ओंश्रु ॥
कै तुम करता पुरूष विदेहदी । कारण कौन धरी यइ देही ॥
द्रव्य जरेकी चिन्ता नाहीं । यह संशयं व्यापा वटमाहीं ॥
सवी जरयो कष नरि वांचा । तुम्हरी देह ख्गी नरि आचा ॥
ततिं तुम इम चीन्हा स्वामी । सत्य कहो भो अन्तर्याभी ॥
खवा लचचन
सोक सुवा कहे सुन राजा । बेतहर नातर होत अकाजा ॥
युगन ुगन जग आयो राया । तुम्हरे काज रोक तँ धाया ॥
तै राजा बड मुखं रवारा । ताते हम यह ख्यारू पसारा ॥
हम वट तर तुम द्वारे आई । केड सयुनिया खबर पठाईं ॥
तब तेहि राजा मारण धावा । भाग सशुनिया इमल्ग आवा ॥
साखी |
धाय सगुनिया आय, खब्र कही हम पास ॥
वेगी वदां ते इम चले, सरवर कीन्ह निवास ॥
चौपाई
तेहिक्षण क्षितिया जल कहँ आई । खीला एक तहां इम लाह ॥
सरवर भीतर गागर थम्भा । आगे डार धर ध्यान अरम्भा ॥
१ आला । यहां आशय सिद्धांत से है अर्थात् राजा पूछता है कि तुम्हारा सिद्धांत क्या
है सो मुक्षसे कहो । २हो। ३ नहींतो।
५३२) अम्बसागर
साखो व चन
एते ख्या न चेतेऊ, तोहि बाध्यो यमराज ॥
नाम राय गदो तुम, नातर् दोय अकाज ॥
चोपाई
जीव काज आये तुम द्वारा । तुम अचेत नर्द चेत थुवारा ॥
सुवा भेष इम महन आवा । रत्न जडित पिजरा तुम लावा ॥
राम राम तुम मोहि षपठाई । हम करै राय चेत यम आं ॥
अगम व चनको गम नहि कीन्हा । यहि विधितो हम प्रचो दीन्हा ॥
इतना ख्याल कान्ह यहि जागा । तौ न चेतह बडे अभागा ॥
राजा बग वचन
छंद-धाय राजा चरण गहे तुम पुरुष सिरजनदार हो ॥
हम देह नर अज्ञान है प्रथु दंसनायक सार हो ॥
आदि अत अनादि पुरुष भाग बड दान दियो ॥
करब आज्ञा शीश धरि हम आय सबं अघ हर छखियो ॥
सोरठा-कहो आपनो नाम, हंस वरण अब कीजिये ।
कोन द्वीप तुम गोव, सुवा भेष तजि रूप धर् ॥
सतगुरु वाक्य-चौपाई
सुवा भेष तजि मयो निनारा । ततक्षण शूप आपनो धारा ॥
सुनहू वचन तुम राय हमारा । सत्यरोक तं इम पशु धारा ॥
नाम कबीर इमारा दोईं। तोक बोधन आयो सोई ॥
राजा बग वचन-चौपाई
देहु शुक्ति मोटि नाम गोसाई । दपित भयो रंक की नाई ॥
पृथ्वी तज इम लोकि जायें । आदि पुरूष के दर्शन पाये ॥
ततक्षण राजा दूत पठ । भांति भाति सोनार बोखायी ॥
कचन महर बनायो राजा । शोमा ताहि अधिर् छबि छाजा॥
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अम्बुसागर (३३ )
केचन केर ॒रिहासन आदी । दीराखाल लगे बहु ताही॥
खाय सिदासन तहां धरावा । छ चदोवा भम तनावा ॥
साहेव लेय तहां बेढयो । रानी राय चरण ठपटायो ॥
राजा ओ दश रानी जानो । चतुर पुज तिन केर बखानो ॥
पुजी पांच हप अति शोभा । देख स्व्यं ताहि मन लोभा ॥
हीरदे जेदी तेहि रानी । कंचन ्ारी जर भरि आनी ॥
वृजी कनकेदे तेहि नां । माथ नवाय बैठे दिम आं ॥
तीजी स॒न्दरदे चकि आई ! साहिब माथे फू चडाई ॥
चौथी मणिकंदे भल होती । ज्यों तारागण चमके ज्योती ॥
पचम सत्य कुवरि है नाऊं । हाये पखा वायु इरां ॥
छटवीं रानी क्ष्मी नावा । चन्दन अगर चीसि करावा ॥
रुकंमादे सप्तम जो रानी । मश्रुर वचन बोरूत ञ्जु वानी ॥
सोनादे आटो चङि आई । साहिब चरन पलोटन खाई ॥
मुक्तिदेह नवमी कर नामा । तिन सतय॒र् कँ कीन रणामा ॥
दशवीं सनकेदे तेहि नाॐं । पग पग अन्तर वन्दन आं ॥
ग्यारहवीं थी जनक कुमारी । साहिब सों विनती चित धारी ॥
द्वादश रत्नादे कद दीन्हा । परु पठ चरण केरि रज खीन्हा॥
अयोदश मदनदेह तेहि नामा । देखत तासु लजित दो कामा ॥
साहिब सों सब प्रीति लगाई । भक्ति माष इच्छा बहुता ॥
रदश रानिन सो मत किय । साहिब की गति जान न पाय ॥
प्रथमहि बेटी वरणि न जाई । ईस कुवरि तेहि नाम कहाई ॥
दूजी बेटी रूप कुमारी । साहिब चरण गहे चित धारी ॥
तीजी मान कवर तेहि नामा । दर्शन पाय भयो विश्रामा ॥
१ हीरादेवी का अपभ्रंश है देशो बोलीमें प्रायः स्वियोकं नामकं साथ कुंबरि ओटदेवी `
अदि लगे रहते हँ वही देवी शब्द नोलनेमे कहीं तो ““दे"“ कहीं “दई गिक प
जाता हे ॥. "न अ
५२३४) अम्बुसागर
चोथे तारा कैवरि बखानी । यङ् चरणनमे सो रूपटानी ॥
पचम कुशर ऊुवरि तेहि रानी । बहुत स्वषूप अददि बड ज्ञानी ॥
पुञ्री पांच सुरति इक जाना । अगे कह पुत्र परमाणा ॥
चार पुत्र राजाके आगर । पांचो सुरति एक मत नागर ॥
प्रथमहि वत्सराज तेहि ना । साहिब ऊपर चवर टरा ॥
दूजे कक्षराज तेहि नां । सुमति सधम वसे तेहि गॐ ॥
तीजे मेवराज बड ज्ञानी । परपर चरण वन्द् गुर् आनी॥
चौथे तेजराज अब भाषो । साहिब कैर चरण अभिराषो ॥
चारो चरण वन्दना कीन्हा ) साहिब दशं इष चित लीन्हा ॥
आठ बहू तब दी चि आई । सादि चार कंठ दिय खाई ॥
येते जीव सुमति सब देखा । तासों तब इम वचन विशेषा ॥
तुम तो राव सुमति चित लावा । रबु दीरघ जीवन सथञ्ावा ॥
तुम तो होड थान सब रू । सुरति निरति चरणन चितदेहू ॥
राजा तबहिं सिखावन माना । चौका सजकर कन्हं प्रणामा ॥
चंदन धिस अङ् मदर छपाई । अतर कपूर सगन्ध धाह ॥
छत्र जडा अति तहं सोहा । दीवार गिरी देखत मनमोहा ॥
मणिन जडित विशसन आई । मेवा अष्ट युक्तिं सो खाई ॥
गज मोतिनकी चोकं पुराई। कंशूरा खु इजार बनाई ॥
पीताम्बर धोती तर आना । सात हाथ के पान प्रमाणा ॥
तीन हाथ तिन की चकराई। श्वेत भिडई तहं धराहं॥
हस्ती सम॒ नरियर अस्थुला । एता कहू के तोरि भूल ॥
आरति खार कंगूर करिया । चौका मध्य खाय सौ धरिया ॥
साहब बैठ तिहासन जबरी । जगमग ज्योति भई अति तबदी॥
ततक्षण साज रोकं से आवा । अनददं बाजे तहां बजावा ॥
त्री पुत्र बहु संग रानी। राय समेत बेद्गी ठानी ॥
अम्बुसागर (३५ )
हाथ नारसियिर सबहिन खीन्हा । स्षादहिबके आगे धर दीन्हा ॥
कीन्ह प्रणाम देडवत खाई । बार बार चरणन कपटाहं ॥
बहत भांति सो चौका धार । अनदद् बाजे बाज अपारा ॥
तिनका तोरेड जक तब खीन्हा । सीख षान सबहिन कदं दीन्डा ॥
अभी भक्त राजा मर कीन्हा । भक्ति शिकारी मनमहं दीन्हा ॥
सकल जीवं कीन्हे परनामा । अब साहिब खधरे खव कामा ॥
छंद-अति प्रेम राजा कीन्ह तब जब पाय पान परवान डो ॥
गहद्रद गिरा तन पुरक होई तब विनय अस्तुति डान हो ॥
हेस नायक परम लायक आय प्रथु दशन दियो ॥
काग पट मरार कर भव सिन्ध बूडत गहि छियो ॥
सोरग-सतथुङ् चरण मयंक; जित चकोर च्रुप निरखंही ॥
कीन्ह मोह निश्शंक; जरा मरण इख मिट गयो ॥
सत गुखवचन-चौपाई
राज वंग भर करनी रावा । राज शमान सकल विसखरावा ॥
अधम चारु सब दीन छकुडाई । हंस चार धर रोकं स्िधाई ॥
रेखी भक्ति केरे. जो प्राणी । इस हीय निज शब्द समानी ॥
तीस जीवं इकतीसो राजा । षये नाप सुधर तिन काजा ॥
छंद-अमिय अश जे पाय हंसा ते चरे सतलोक हो ॥
ताहि कार न बाट धत षह वहीं निध्शोक हो ॥
ताहि बदहिया संग चल इकतीसर दसन (६ चरे ॥
आर्यं लोकम षाय वासा पुरूषके दशन लये ॥
सोरग-देख्यो लोक भुआर, सतग॒ूके चरणन परे ॥
पाये श्प अपार, षोडश रवि ल्ग अंग जित ॥
इति भरीअम्बतागरे तारणयुगकथाव्णनं नाम सप्तमस्तरगः ।१
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५३६ ) अभम्बुसागर
अथ अष्टमस्तर॑गः
अखिलयुगकथाव्णन
चोपाई
धमेदास के बन्दी छोरा। जीव अधमीं कुटिल कटोरा ॥
पतित् उधारण नाम तुम्हारा । पतित जीव कं पार उतारा ॥
तुम्दरी द्या पाय प्रथु स्वामी । नर नारी दोषे सख धामी ॥
अब् क्क आगे भाषु सुना ! सतपुरूष जनि मोहि दुरा ॥
आगे ज्ञान कहो अनुसारी । जा विधि जीवन कीन्ह उवारी ॥
शब्द् छे कालहि मारो । कौन शब्द रे हंत उबारो ॥
कौन शब्द रे राखव पासा । कौन शब्द होवे जिव वासा ॥
सतगुरु वचन-चौपाई
शब्द् मलग कारु गहि मारा । सार शब्द् ठे जीव उबारा ॥
सरति डोरि ठे राखब पासा । आर्यं शब्द होवे जिव वासा ॥
चार ॒शब्दका माषेड भेदा । धर्मदास तुम कन्द निषेदा ॥
बृहुतकं साध जाय उदकाईं । जीव काल कर भेद न पाह ॥
योगाभ्यास जब उतपति कीन्हा। सवै बीज प्रमाणा दीन्डा ॥
सवे बीज प्रमाणा आई। चौदह हाथ थान लंबाई ॥
अठारह गागर केर जपत गोरा । तादिनि नरियर अस हम मोरा ॥
युगहु अखि दशलाख बखानी। द्वादश में जीवं मल प्राणी ॥
नाम धष सुनि ऋषी रहाई । तहां जाय दीन्दा तिन पाई ॥
गति तिन का भाषू परतीती । योदश सदस गये युग बीती ॥
उद्धंसुखी पंचाग्नि तपये । प्राण पुरूष अह्मांड चढाये ॥
बैठे देह नयन अति क्षीणा । साहिब देख बहुत बल हीना ॥
तब इम ताहि ह् चितराये । केहि कारण तुम कष्ट कराये ॥
अम्बसागर (३४७)
का कर सेवा केहि जप करहू । काहि ध्यान अन्तत धरहू ॥
सो तम मों सुनावह माई । अगम अगोचर भेद बताई ॥
धनुषमुनिवचन-चौयाई
मूर वस्तु कारण तप कीन्हा । अगम पुरूष सेवा चित दीन्हा ॥
अजपा जाप जपू चित खाई । सत अभ्यन्तर ध्यान धराई ॥
मर्कडेय प्रलय हो जादी) धलुष शुनी देखत इम ताहीं ॥
उतपति प्रख्य देखा बह बारा । कीन्ह कृष्ट नहिं साच विचारा ॥
सतगुर वचन-चोौपाईं
कीन्ह तपस्था कष्ठ अपारा । तुम तो चोर कारके चारा ॥
तपतं राज नकं दै भाईं। फिर फिर जन्म धरे भव आ ॥
बहुतक तपी भये संसारा । अन्तकारं यम कीन्ह अहारा ॥
मूर मेद तुम नाहिन जानी । कष्ट करत देही भवं आनी ॥
वह साहिव निं कष्ट वतावा । खखदाईं शे अभि बञ्चावा ॥
होइ निष्कर्म नाम _आराधो । सत्य भक्ति सतर कौ साधो ॥
अमर रोक महँ पचो जाई । आयं पुरूषके दशंन पाईं ॥
धनुषसुनिवचन-चोौपाई
तुम तो ओर रोक रचि रीन्हा । तप अङ योग ञ्जूठ सब कीन्दा ॥
ओर पुरूष तुम तहां बतावा । हमरे चित एकौ नहिं आवा ॥
लोक तुम्हारा मोदी दिखाऊ । वचन तुम्हार सत्य मन आऊ ॥
तब भे गहू तुम्हारे चरणा। टे मोर जरा अङ् मरणा ॥
सतगुरु वचन-चौपाई
यह सुनि साहिब चे रिंगाईं । लेकर सुनि कर लोक सिधाई ॥
देखि दृष्टि दंसनकी पाती । युथ युथ हंस बेठे बहु भाती ॥
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५२३८) अस्ब॒सागर
सुफरु जन्म भयो कृतारथ । पावन कीन्ह मयो श्चुमस्वारथ॥
चख्डु गोसाई अब इम चीन्हा । देहु पान आपन कर ीन्दा ॥
सतगुरु वचन-चोपाई
सुनि करं रय वेग भवक्ागर । ततक्षण शब्द गहे चित नागर ॥
माला ताहि गे मरं दीन्डा । श्रवण शरवणी बाधन लीन्हा ॥
यम सों तिनका तोरेउ भाई । हदय शुद्ध करि पान पवाई ॥
चनुषं अनी लीन्हा परमाना । चाखत पारस कीन्ह पयाना ॥
काया त्याग जु दीन्ह रिगाईं । पुरूष रोकं मह बेठे जाई ॥
हषहि रष मिक सब संगा । शब्द पायं भये निर्मङ अगा ॥
धनुषमुनिवचन-चौपाई
चकं भूल अब मेद॒ हमारा । तुम जीवनके तारणहारा ॥
यह् तो लोक अक्षय तुम राखा । अगमनिगम तेहि गम नदि माषा॥
सुर नर सुनि कोई नर्द पाष । तीन लोक जिव कार फँसवे ॥
दुनियां माया मोह फदाना । राग रंग निशि वाप्तर साना॥
तबहु न चेतत मृटि गवारा । पक़डि पकडि यम मारे धारा ॥
निशेण नाम भाषि त॒म दीन्हा । ताहिनाम षिर्ठे कोई चीन्हा ॥
गुणका बड़ा परस्षारा। जप तप योग यज्ञ मन धारा ॥
पुरूष भक्ति कोई नि जाने । आप आपको बह्म बखाने ॥
घट मह कारु विषय वट पारा । फैसे हंस पचे दरबारा ॥
लोकं लोकं भाषे नर रोई। रोकं ममे जाने नर्द कोई ॥
दोहा-धन्य नारि अर् नाम धुनि, स॒वं बीज निज आन ।
जा प्रतापतें रोक मह पहुचे पुरूष ठिकाण ॥
1
नस्थि उतपति मोदि सुनाओ । कैसे ब्ृक्ष ताहि निर्मांओ॥
सतगुरु-वचन
निगम दीपते नरियक आया । दीप संदी यत्त राया ॥
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अम्बुसागर (३९)
जलखंडी तहँ वासा टीन्हा । तरवां जाय गम्य इम कीन्हा ॥
जलखंडी करै मारा जबहीं । ताहि देह मथि काठेड तवदीं ॥
तब नियर हम आन जगावा । यत्न यत्न सौं वश्च बनावा ॥
म्रथम वृक्ष फर मे पांचा । सत्य सत्य मानो तुम साचा ॥
पिलहि फर बाधो कहं आवा । धमंदास के शथ धरावा ॥
जम्बु द्वीप थान वेह । देहि पान तब पन्थ चङाई॥
उत्तर दिश तिनकी शरुवाई । तहां चारु ङ्ग्वेद् चलाई ॥
वेश बयारिसि तिन के सारा । इसन खेर उतारदहि पारा ॥
कोरि वाणी दम तिनकर् दीन्डा । जगत जीव कहं निर्म॑र कीन्हा ॥
वजे फर वेकेजी पावा । करनाटक महं पेथ चखावा ॥
छ्ास द्वीप तिन की शुरूवाईं । बहुत जीव तिन्इ छेहि बचाई ॥
पूरव दिशा तादि वेठरा । यज्वंद तहं मता पारा ॥
वेश सताइस तिन के जाना । वाणी तिन कसार बखाना ॥
कर्नाटक इक शहर अपारा । तहां डि तिन ज्ञान पारा ॥
तीजे फल मणिपुर तब जाई । सहतेजी के हाथ धराईं ॥
शाल्मलि द्वीप ताहि करनामा । पिम दिशा अहै सो गमा ॥
तहां मता अथवेण वैदा । सात वंश तिन क निषेदा ॥
बीजक वाणी पथ चलाव । सार शब्दं दे ईस बचाव ॥
चौथा एक दरभंगा जाई । राय चतुथुज हाथ धरा ॥
कुशा द्वीप तिनका विस्तारा । दक्षिण दिशा ताहि बेरा ॥
साम वेद मारग तर जानी । षोडश तिन के वेश बखानी ॥
वाणी मूर तारि इम दीन्दा । सुकर हस् आपन कर लीन्डा ॥
पांच फल र दमरे पासा । लोक बेठि चौका परकाशा ॥
वाणी आयं रस कहं दीन्हा । सकट देस आपन कर लीन्हा ॥ ष
जव जव इम संसारहि आधे । बाण न सक्ताय ॥
वीरा नाम ईत निनं गानी । साह इम लोह
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(४०) अस्बुसागर
यरी नाम है अगम अपारा । जाने जीव उतर भव पारा ॥
छद्-जगत घ्र घ्र गुर कटावत कारके बन्धन परे ॥
शिष शु दो डाल फांसी विषम सरवर ते जरे ॥
चार गुह संसार दै यम ताप निकट न आवहं ॥
तारि गु जिन पाव वीरा कारु शिर तेहि नावरं ॥
सोरठा-बहुन शुरू संसार, ठाव ठव मर्मत रि ॥
जाग्रत गू हमार, तारि कारु देखत डरे ॥
इति श्रीअम्बुसागरे अखिलयुगकथावणेनं नाम अष्टमस्तरंगः ।
अय न्वमस्तरणः
विश्वा युगकथा वणेनं
धमदासवचन-चौपाई
यह सुनि धर्मदास वि्हेषाना । धाय धरे जिमि रक समाना ॥
धरे न धीर चक्षु चर वारी । बार बार चरणन चित धारी ॥
भयो अधीन अधिक मनमोहा 1 तरण उदय पकृज जिमि सोहा ॥
मोदि अधप तुम कन्द कृतारथ । ओर शुक रागे केहि स्वारथ ॥
आगे आनी मोहिं सुनाओ । आपन जान मोहि चेताओ ॥
सतगुरु वचन-चोौपाई
धेदास ब्रञ्लो तुम ज्ञता । सकल कथा भाषू विख्याता ॥
भाघ विश्वा युग परभा । पुरूष आज्ञा निकट बुखाॐ ॥
आयं द्वीप पुरूष रदिवासा । ततक्षण गये तहां हम पासा ॥
तहवां जाय गम्य इम कीन्दा । आदि पुश्ष जह बेठकं लीन्हा ॥
आसन मार बैठे तर आपू । दरशन पाय इटा ञे तापू ॥
कला अनन्त रूप अधिकाई । कोटिन रवि एक चिङ्कर जाई ॥
प्रथम अवाज पुरुष अनुसारा । माया पाष जाय शढदारा ॥
तीन लोक माया कर वासा । जीवन फंस डारि करे आसा ॥
अम्बुसागर (४१)
ताकी खबर रेह तुम जाई 1 तीन लोकम अदल चलाई ॥
शठहार वचन-चोयाई
तब शख्हार विनय उड कीन्हा । साहब आज्ञा इम कहं दीन्हा ॥
माया खग हम जाय सिधाई । वस्तु आपनी कहो उुञ्ञाईं ॥
होय अधीन जाहि तै माया । सो खाहब कीजे मोर दाया ॥
पुरुष उवाच-चौपाई
शब्द ध धरौ चितलखाईं । यदी ततव माया अुरञ्चाई ॥
जाह वेगि जनि खावह बारा । जीवन कष्ठ भयो अधिकारा ॥
शठहार वचन-चौपारई
परम पुरूष जब वचन उचारा । ततक्षण गे माया के द्वारा ॥
ताहि द्वार गण बेठि रहाय । माया सौं तब जाय जनाय ॥
देवी ततक्षण लीन्ह लाई । तब शबिहार वैठ तरं जाई ॥
देवीवचन-चोौपाई
बूञ्चे देवी मन चित लाय । कोन देश शशिहार रायश्च ॥
कौनं पुष तुम कहं पठावा । सो तुम हम कं वचन सनावा ॥
| शठहार वचन-चोौपाई
कह शटिहार खनो वम माया । सत्यलोक तें म चङि आया ॥
पुर्ष मोदि दिग तोर पठाये । तुम तो चपल सकर जग खाये॥
जीव जोर कर धर धर मारा । फन्द् लगाय पकर यम द्वारा ॥
जबहि दशदरा अवे भां । भसा बकरा तहां कटाई ॥
, फन्द अनेकन सकर फेदाना । मूरख जीव शब्द नहि माना ॥
तुम तो आहन पुरूष के चोरो । परू महँ बांध रसातङ बोरो ॥
देवी वचन-चोपाईं
कह देवी ठु केसे बोरे । शक्ति हमारी घर घर डोङे ॥
पुरूष तुम्हार भँ नाहीं उरॐं । तीनों लोक पांव तर धर ॥
(८७२) अस्बसागर
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तुम कर मारूं चापू हेड । तीन लोकं पसरे मम देढा॥
ब्रह्मा विष्णु दाथ सब सोरे । शिव सनकादिक केवर तोरे ॥
चौसठ लाख कामिनि होई । मेरे अंग बेहर सब कोई ॥
तुम रे दुष्ट कां चङि आवा ! केहि कारण तं पुरूष पडावा ॥
नाम श॒नाम कहो शबिहारा । इमरे चित डर नार्हि तुम्हारा ॥
खपर हाथ मम युजा अनन्ता । अपने वश कीन्दौ भगवन्ता ॥
हम प्र धनी ओर नहि आना । तीन लोकं मम नाम बखाना ॥
तुम क्या गवै करहु रे भाई । कटौ रोकं मँ देहु खसाहं ॥
तुरतहि रूप अनेकन धारो । रोक तुम्हार रस्ातर डरो ॥
शठहार वचन~-चौपाई
कह शढठहार सुनी श्री माया । काहे तम मति गयी थलाया ॥
जा दिन आदि अन्त नहिं जोती । ता दिन जन्म कहां तुव होती ॥
पुरूष अकार कहो जग जानी । शब्द डोरि तेहि बाधो तानी ॥
| कामिनी तोहि कह जरि क्षारी । सकर रस कृ लहु उवारी ॥
आदि पुरुष कर त कस मोटी । छोडेउ पुरषं काल उर भेंटी ॥
अस जिन जानहु सकर हमारा । देदों शाप दोह दो जरि क्षारा ॥
हम तो सत्यलोक तं आवा । देवी तुम्हारा ज्ञान दहिरावा ॥
कीन्दीं पुरुष तवै तुम भयऊ । तीन रोकं बख्श तोहि दय ॥
तं जानसी सब मै दी कीन्हा । पुरूष नाम तुम नारि न चीन्दा॥
अरुख निरंजन देवी राता । विधि इरिदरका करि दै घाता ॥
महा प्रख्य होवे तेहि बारा । तब जर वर सब होवे क्षारा ॥
तीनों रोक प्रख्य तर जायी । तब अद्या तुम कडा रहाय ॥
उन सन्तो कहं कौन शुमाना । जिनका चलत जगत मं पाना ॥
आदि पर्ष तुम्हरे ह ताता । अद्या भयो निरंजन अता ॥
ताहि तात को छोड संगा । भाता जार कीन्द अरधंगा ॥
अम्बुसागद ( ४३)
ताहि रंग ते गहं भुखायी । छोडेड पुर्ष जार मन खायी ॥
निशि वासर कीन्दा पिय नेहा । कामङूप कामिनि मति देहा ॥
त॒च्छ बुद्धि नारी तुवर बाता यही चारु जग नार समाता ॥
देवी वचन
यह सुनि माया बहुत छ्जाई । धरि हासन तव वैगई ॥
वचन हमार सुनो शठडारा । नाम जपे तेहि हंस उवारा ॥
हम पुरी पुरुष के आहू । शब्द डोर हसन छे जाह ॥
जो कोड नाम तुम्हार स॒नये । शीश हमार वांवं दे जाये ॥
चौसठ. युग इम सेवा कीन्हा । पृथ्वी बख्श पुरुष मोहि दीन्डा॥
तीन लोक हम मरदो माना | केसे इसा रोकं कयाना ॥
सतगुरुवचन-चौ पाई
कह शटिदहार सुनो तुम बाता । सकर जीव कान्हड तुम घाता ॥
जो कोड जीव हमारा होई ! ताके निकट जाय जिनि सोई ॥
जो घट शब्द् हमार समाये । ता घट कारु निकट नहि आये ॥
देवी वचन-चोौपाई
ताते वचन लाये शठि-हारा । को मेटे यह वचन अपारा ॥
हटकर वचन मेटि भैं डारा। तौ हम भयी रोक तें न्यारा ॥
जे. जिव पुरूष नाम चित राता । ताहि ईस नईं बोल बताता ॥
अक तुम्हार पान जो पाई । देवी देव देख शिर नाई ॥
भीतर करता बहुत शुमाना । ताकर जीव करब दम हाना ॥
गुूसों मन चित अन्तर राखा । सा सन्त सो दुर्मति भाखा ॥
ते जिव हमरे खपर भरई। बार बार चौरासी नाई॥
नाम तुम्हार कोई नरि जाना । सकर जीव इमही लपटाना ॥
सक्त सुक्तं भाषत सब प्राणी । स॒क्तहि नाम प्रमाण सुजानी ॥
मो करद ओर न जानत दूजा । निश दिनि हमचित तुम्इरी पूजा॥
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१: (लि `
(९४४) अम्बुसागर
सार नाम जिन पाव तुम्हारा । सो पहुचे पुरुषं द्रबारा ॥
ताहि देस दम रोकब सोई । दरोदी पुरूष केर हम दोर ॥
शठहारवचन-चौपाई
विश्वा युग चचो इम कीन्हा । या नर तन गिर जीवन दीन्हा ॥
तुर बराबर नियर जाना । चार हाथ लम्बा रह पाना ॥
हाथ दोय करके चकराई। एेसा युग हम पान बनाई ॥
बीस लाख युग आयु खाना 1 वषं सहस मानुष तन जाना ॥
अडसट हाथ ऊंचाई होई । एेसे नर॒ सकलो सब कोई ॥
सात सदख पाय जो पाना । सत्य शब्द निश्चय कर माना ॥
पुरूष दशे तिन जीव कराई । देवी वचन कदा सयुञ्ञाईं ॥
छद्-यह चरित कर शखठहार ततक्षण पुरषा के दङ्ांन रहे ॥
कीन्ह माया वाद् बहू विधि चरण हमार निश्चय गहे ॥
विश्व युगमें जाय कं हम रहस कीन्ह उवार हो ॥
सहस सात जिव पाय बीरा आय रोक मेँ्चार हो ॥
सोरठा-पुश्ष कीन्ह अवाज, भल तुम कौन्दे अंश मम ॥
हसन के सरताज, माया ग्वं नशायञ ॥
इति श्रीअम्बुसागरे विश्वायुगकथावणनं नाम नवमस्तरंगः ।
अथ दशमस्तरणः
अक्षयतशूण युगकथा वणेन
धर्मदास वचन-चोपाई
धन्य भाग इम सतगुङ् भटा । भवसागर का संशय मेरा ॥
कृथा अनप मोहि ससुञ्ाईं । सुनत चित्त मम अति सुख पाई॥
अमृतवचनमोदहिअतिग्रियलागा। चरण कमल तु हिय अुरागा ॥
तुम षद पंकज सुकर सुधारा । अमिय वचन सुनककिमि्टारा॥
वचन तुम्हार आदि अतिपांवन । कीन्ड सनाथ मोहि मन भावन ॥
अम्बसागर (४५)
तीनहू तपन बुश्चायह मोरी । दोय दयार कहो कुछ ओरी ॥
युग युग जीवन दर्शन दीन्हा । अधम जीव पावन कर लीन्हा ॥
दास जानि किये प्रभुराई । धम॑दास्र टके तब पाई ॥
सतग रव चन-चोौपादं
धमदास तुम मति के आगर । पुरूष अश तुम अहह उजागर ॥
सुकृत अश अहो धमदाघ्रु । इन के तुम हौ सुखरास्ु ॥
तुम बरञ्चो जीवन के काजा । गहि सत शब्द् छोडि कुक खजा॥
जो त॒म ब्रञ्यो दंसन धामा । पुष्प द्वीप पुरुष विभामा ॥
अभ्यन्तर दो कीन्ह निवारा । तहवां पर्ष वचन प्रकाशा ॥
तब ज्ञानी कं छीन्द बुलावा । आयष्ु देह संसार पटावा ॥
अक्षय तरूण युग दीन्ह रिगाये । चलि जलरंग लाभि इम आये ॥
तिममे एक असंख्य उचाईं । अक्षय द्वीप जई कमे राइ ॥
वाही कूम ध्यान तहँ धरई । पथम पुरूष का सुमिरन करई ॥
दादश पारग ताहि शरीरा । कच्छ इप् धरि बेठे नीरा ॥
सोलह माथा चौसठ पाईं । तर्हैवा प्हचे जाय गसाहं ॥
कम उवाच
बूञ्चे कूम कौन तुम आहू । सत्य वचन सो मोहिं सुनाहू ॥
कै तुम आप पुरुष चलि आये । अंश हप धारे वणं छिपाये ॥
हम पाताल बैठे जल माहीं । ध्यान पुरूषकी सदा कराहीं ॥
लानी व्चन-चोपाडं
ज्ञानी कै कमं सुच बाता । तमसो सत्य कडू विख्याता
ठंसन देत काज उपराजा । पुरुष मोहि पटये जिव ' कला काना ॥ ॥
(४६) अम्ब॒सागर
कौन द्वीप जल्खंडी वासा । कौन द्वीप माया परकाशा ॥
कौन दीप कूम बेरा कौन अंश तदहं करत विहारा ॥
दोडा-आदि अंत तोहि बञ्येड, कटो कूमं समञ्चाय ॥
सत्य सत्य मोसों कटो, चित संशय मिर जाय ॥
कमे वचन-चौ पाईं
कहे कमं ब्ल भल ज्ञानी । द्वीप द्वीप भाषू सदिदानी ॥
पुरूष द्वीप कमल्का एला । त्वां भयो कार अस्थूलखा ॥
जलखंडी रह सेदं द्वीपा । भव माया हो रदी समीपा ॥
अक्षयद्धीपमंहं हम भरा रदिया । इमइस खंड पिण्डप्र धरिया ॥
हमरे नीचे गदर गभीरा तदहगं डोरी शत अस्थीरा ॥
तेहि चौकी ` पठे जल रंग । जरु शोभां तै उठत तरंग ॥
हम जाना सो दीन्ह बताया । सोइ कथा हम भाष सुनायी ॥
ज्ञानी वचन-चोौपाहं
ज्ञानी कहे कूम सों वाता । ओर मोदि भाषो विख्याता ॥
तुम षर कार कीन्ह कस रचना । सो मोहि कूमं कदो टट बचना ॥
कमं वचन-चोपाहं
तुम कर ज्ञानी सब कुछ सञ्ञा । जानह आदि अन्त मोहि बूञ्ा ॥
वार अश जल्खंडी कीन्हा । रचना ताहि अपन कर लीन्हा ॥
हम पर मीन रूप निरमावा। ता पर कच्छ रूप बेटावा ॥
कच्छ पीठ पर कीन्ह बराह । आगे सदस फणहि तहं आहू ॥
तापर महि की रचना कीन्दा । गिरि सुमेश् तब भार तेहि दीन्दा॥
दशु दिशा दिग्पार लगाई । सड छाय तिन मही उगईं ॥
एतकं कालहि र्यो प्रचंडा । महिमा सात द्वीपे नव खंडा ॥
केत करौटा जेहि पर इमी । नीच गगन ऊंची भुवि तबदीं ॥
१ इस शन्दभे सन्देह है । जितनी भ्रति हं समं गड-बड है ।
अम्बुसागर (४७)
उलट पलट प्रलय हो जाह । तीन शोक जलर्माहि समाई ॥
हम तो चीन्ह पुरूष तुम आपू । देह पान भिटे सन्ताप ॥
चौदह यमका नाम
ज्ञानी वचन-चौवाहं
इतना सुन ज्ञानी विदाई । अब तुमसों कटु नाहि छपाई ॥
अक्षय पान वीरा डिख दीन्हा । ज्ञी्ञहि नाय कमं तव रीन्डा ॥
अस्तुति कीन्ह बहत चितलाईं । धन्य भाग मोहि द्रश दिखाई ॥
तुम तो पुरूष आह अविनाशी । सत्य यङ सत्यलोक निवासी ॥
ज्ञानी दीन्ह वचन तोहि बारा । कूमं चारू जेहि जीव मञ्चारा ॥
ताहि जीव हम रोग पठाउब । सोई इक्ष कार नहिं वाडवं ॥
चल ज्ञानी तहैवां ते अगे । चौदह यम बेठे अबुरामे ॥
कलिमल द्रप नाम तेहि राखा । कच्छप लोग वैद तेहि भाषा ॥
साहब तहां जाय गम कीन्हा ।. चौदह यम सों बोन लीन्हा ॥
कोन कौन तुम यम रे भाई । आपन नाम कहो समञ्चाई ॥
यमवचन-चोपाडइं
तब यम आपन नाम बतावा । एक एक करि वणं स्नावा ॥
ग्रथमहि नाम कहा मृत्यु अधा । दूजा यम है कोधित अधा ॥
तीजा यम दुगे अभिमाना । चौथे मन मकरन्द बखाना ॥
पांचों नाम अहै चितचंचल । छटां यम तेहि नाम अपरबल ॥
सप्तम अन्ध अचेत बताई । अष्टम कर्मं रेष यम आई ॥
नवमे अभि षंट वरियारा। दशं कासेन विकरारा ॥
ग्यारहे मनसा मूर बताई । ददश यम भय मीत रहार ॥
ञ्योदश नाम ताटका तादी । सर संहार चतुदश आही ॥
ज्ञानी वचन-चोपाद
चौदह यमन पकंडी दम लीन्हा । बहुत पुकार क
(९४८ ) अस्बुसागर
तब देखा दूतन कं जाई । चौरासी कं कुण्ड बनाई ॥
कण्ड कुण्ड पढे यमदूता । देत जीव कदं कष्ठ बहूता ॥
तहां जाय इम ठाद रहावा । देखत जीव विनय तब रावा ॥
क डहार वचन-चोौपाइं
मारत जीव॒ कर् बडज्ञोरा । बांध बांध कुण्डनमें बोग ॥
लाख अढहस पडे कडारा । बहत कष्ठ तरह करत पुकारा ॥
इम भूरे स्वारथ के संगी अब हमरे नारीं अ्धगी॥
हम तो मरत अभिके ्ारा। अग अग सब जरत हमारा ॥
कोन पुरूष अब राखे आहं । करत गुहार चक्षु टल जाई ॥
ज्ञानी कवचन-चोपादं
करूणा देख दया दिर आवा । अरे दूत जास मास दिखावा ॥
जीव अचेत भये अज्ञाना । गहे शब्द् अति कीन्ह गुमाना ॥
चौरासी दृूतन कहँ बांधा । शब्द् डोर चौदह यम संधा ॥
तब ज्ञानी सबदिन कंहं मारा । तुम तो जीवनके षटपारा ॥
हमरं साधन तुम भरमावा । परु पर सुरति जीव बगडावा ॥
गहि चोटी इतन पिसियाये । यम अर् दूत विनय तब राये ॥
दत वचन-चौपाहं
चूक हमारि बख्श कर लीजे । मन माने तस आज्ञा कीजे ॥
हम तो धनी कहे जस कन्दा । सो हम वचन मान शिर रीन्दा ॥
अब नहि हष तुम्हार विगारव \ नाम गहे सो रोकं सिधारव ॥
विनती कीन्ह केरे बड श्रा । हमतो नारिं करत कंक जोरा ॥
जस चाहो कीजे तष ज्ञानी । इम तो हाथ तुम्दार बिकानी ॥
ज्ञानी वचन-चौपादं
तुम ज्ञानी बहते हरषाई। दूतन बधन छोरो जाई ॥
फल इकं जीवन सुखकर दीन्दा । तब संसार गमन दम कन्दा ॥
अम्बुसागर (४९)
अक्षयतशूण युग हम चलि आवा। अक्षयं नाम वीरा जिह छवा ॥
जीव आय बोधेड भवसागर । वीरा दीन्ड . ईस भये आगर ॥
पांच सो लख वाय परवाना । सकल ईस छ लोक सिधाना ॥
छद-देस ठे ज्ञानी चरे जदं पुर्व आपि विराजहीं ॥
हंस हसन कर तह पुरूष केवल गाजहीं ॥
अमर पुरूष विनय इक हम मार कादि अति बडी ॥
तुम पद्म परतापतं यम इतं गहि इम दल्मी ॥
सोरग-हंसन कीन्ह उवार, ठ आयो अमररापुरी ॥
पाये द्रश तुम्हार, ईस इव तिनको भयो ॥
इति श्रीअम्बुसागरे अक्षयतरुणयुगकथावणनो नाम दशमस्तरंगः ।
अथ एकादीस्तरगः
नन्दीयुगकथा वर्णेन
चौपाई
धर्मदास हर्षित मन कैसे। गगन तङः पंकज छख जते ॥
तुम पराग सर मलन करीं । एुनिविनश्रमभवनिधिकरंतरदी॥
हमहि दयाल दयाकर एसे । जिमि कराल पारस भिर तैसे ॥
वचन तुम्हार सुधाको सागर । श्रवण करत निर्मल मति आगर॥
श्रवणकरत कलिमल इमि भागा । चन्दन विरह वचन फणित्यागा॥
चितवन तुम्हरे पद अब काग । आशा उभयन है अवुराग् ॥
आगे ओरह वर्णन कीजे । तृषावन्त कं अमी चखीजे ॥
सतगुरुवचन-चोपाहं
धर्मदाल तुम मति के परा । त॒म कं देखि कार हो दूरा ॥
हम त॒म सो इमि रदं समाई । समन सुगंध रहा जिमि ईं ॥
(५० ) अस्बुसागर
पुष्प् सुगंध प्रगट किमि होई । धमनि सुनो युक्ति इक सोह ॥
प्रथमं द्रव्य देय तिर राये । कंकर नाखि ताहि फटकाये ॥
देह कष्ट॒पुनि मीज बहुता । सेतु बनाय डाय छता ॥
कलिमल इरण ताहि करडा । मनन करतेहि निकर सुधारा ॥
उत्तम कम्भ सु तहां मगाये । प्रीति अनेक सुमन तिरुलाये ॥
पुष्प तिरो संगम जब कोन्हा । कोल्हू माहि पिरावन टीन्हा ॥
नाम छुरेक वासन संगा । एतकं कष्ट सहा दुख अगा ॥
अससिख सतश् पद अङरागा। माया मोह सकर चित त्यागा ॥
तिनह् तपन बुञ्यायो जाका । काट अब जिव रोमन बांका ॥
तुम दो सुमन घ्राण इम जेसे । शब्द बन।वत तिर जिव तैसे ॥
शब्द कंदे सतगुङू जी भटे । गुरू संग शिष वास ख्पेटे ॥
कोर्हू भक्ति शरू की आगर । सुरति समय पह चे सुखसागर ॥
एेसी चारु सीख जो आवा । हसत राम खग वासा पावा ॥
युग युग थीर भये नहिं आवत । सतय हाथ पान जिव पावत ॥
युगं नन्दी हम दीन पयाना । पुरूष आयुसं जगत सिधाना ॥
करच द्वीप महं षहचो जाई । तहां काल दधि सिध बनाई ॥
तर्हवां एक रस निवाणा । तिनको गोष्ठि तदां हम ठाना ॥
बेठि अरम्भ फा अनुरागा । माया मोह छोड चित भागा ॥
नाम शुप्त युनि तहां राये । दृष्टि मदि ध्यानहि मन राये ॥
तद्वां निकट बेट दम जाका । खोसि चक्षु सुनि हम कहं ताका ॥
बूञ्चे सुनि तुमको दहो भाई । आपन नाम कदो समञ्ञाई॥
सुंदर रूप अधिक अति शोभा । देखत रूप उठत अति रोमा ॥
अग अंग देखा चमकारा | शोभितमनुजिमिअगमअपारा॥
कोटि वषे इदां तप कीन्दा । एेसा रूप न कबहु चीन्डा ॥
अब तम कहो आपनो नामा । कौनेहि देश वसो केटि ग्रामा ॥
अम्बुसागर (५१)
सतगुरवचन-चौपाईं
तब हम अनिको मेद् बतावा । सत्यलोकको संदेश सनावा-॥
सनत सन्देश अती मन लोभा । देखनसत्यलोक कीन्दसो रोभा॥
बहुत विनती युत्तष्ुनि खाये । बहति विखि वचन नाये ॥
तब हम तादि बहुविधि जांचा } सब विधि तेहि पाये मै साचा ॥
ज्यों ज्यों जाचाो त्यों त्यों लोभे । टे यमर्फोस बटे बह शोभे ॥
बहुविधि तादी शब्द् सुनावा । कार जार सब दर बहावा ॥
देखि अधीन शब्द युनि.पागा । तब छे चल्यो ताहि वहि जागा ॥
प्रथम दिखायो मान सरोवर । सकर कामिनी एकं बरोबर ॥
चारभावु जिमि अंग क्पेदा । करहि तहर युथ युथ भेंट ॥
मान सरोवर देखि तडागम् । सिदी सिटीरवि शशिजललयू ॥
ता जल देखत जीव जडाना । उठत तरंग दुर जिमि भाना ॥
तरहैवां कामिनि मनन करई । मनन करत ङ्प बड धरई ॥
कामिनि खंड महा अति पावन । युथ युथ बैठ राग तह गावन ॥
गुप्तमुनिवचन-चोपाईं -
यह छबि देख कीन्ह मन लोभा । ग्याकुलभयो चित्त खखिशोभा॥
नाना भांति पूर फुलवारी । जिमि उडगण रवि रचि वैठारी ॥
देखि दृष्टि पद् तब लिपटाना । जस जर पाय मीन मन माना ॥
करहु अयु्रह अब नरि जाइब । एेसो टंव बहर नरं आइब ॥
| | सतगुरुवचन-चोपाईं
जब ठग पुरुष नाम नरि मंदी । तब खग कार जस मर्ह मेरी ॥
अब तुम चरो अपने ठामा । पावहु आदि पुरूष विभामा ॥
सतशुर मुनि आये जब तदियां । शप्त युनी आपन रह जदहियां ॥
यतत खनि नियंण सयंण भाषा । हे मधु रवण सनत अभिलाषा ॥ =
कौन ज्ञान ते तम कं पायब । सतयुरु तादि सक्त फरमायव
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(५२) अम्बसागर
सतगुरुवचन- चोपाई
निसैण ज्ञान युक्ति का वासा । सगण ज्ञान शरीर प्रकाशा ॥
खशेण ज्ञान खबर इम पावा । निगंण ज्ञान मोदि चित भावा ॥
सखगैण नाम अनन्त बतावत । निशंण माहि रहित घर पावत ॥
सर्गेण नाम सकर संसारा 1 निथेण दै इक नाम हमारा ॥
सगण नाम कारु भरमविं । निशंण नाम हंस घर आवे ॥
सर्शण निगुण रहे अकेला । ताके संग शू नदिं चेला ॥
मारग ज्जीन सुनो सुनि ज्ञानी । मकरतार ल्गावत तानी ॥
गत सुनी को चौका कीन्दा । छिखिके पान तुतं दम दीन्दा ॥
युगनन्दी की आयु बखानी । एकं करोर वषे प्रमान ॥
मालष आयु सहस रह तीनी । तहां शप्त सुनि भये अधीनी ॥
सतगुर नि छे चरे डोरी । टूटत घाट अटासी कोरी ॥
देखत सुनि दैसन युथ आवा । सकल साज मंगर भर गावा ॥
अनदद् बाजा बाजन छाग । मंगर भांति भांति उठ राग ॥
डस परछि संग कर लीन्हा । धन्य दंस सतयुरू भरु चीन्दा ॥
विषय वासना छोड भगीता । चरण प्रताप कारु तुम जीता ॥
छंद-जल्दरूखंडी भति षिदंडी अगुण दाइत अति भली ॥
ङ्प माया खण्डी काया जीव सब गदि दल्मी ॥
वीर ईसा भाग वाचे नाम जिन रिर नग गीं ॥
कारु जास न तादि व्यापत पुरुष के वेन कहीं ॥
सोर-पाये पुरूष अवाजः हस द ततक्षण भये ॥
के दंस समाज, भुक्तत निभेय हवं सकट ॥
इति श्रीअम्बसागरे नन्दीयुगकथावणनो नाम एकादशस्तरगः ।
|
अम्बुसागर (५३)
अथ हादश्चस्तरगः
हिडोल युग कथा वर्णन
चौपाई
धर्मदास बोरे भृदु वाणी । तमतो आप पुरूष हो ज्ञानी ॥
भरू हम श्रवण सुना विख्याता । शरद मंज पद् गहु युनि ज्ञाता ॥
पकज गहिविनु श्रम भवतरिया । ओर जीव काट अुख परिया ॥
इक मुख पद्म का वर्णन कर । समञ्च विचार अपन चित रहॐ ॥
जस गगा सपना कखि आवा ।ुमिरिश्चमिरि मन मन परितावा।॥
पाय राज अङ् हस्ती घोरा । मन्द्र कनक नारि संग जोरा ॥
भयो मोर तब देख निहारी । कहंवां राज पाट अङ् नारी ॥
समञ्च समञ्च मन व्याङुल होई । कर्देवा राज पाट सुख सोह ॥
कासो कहू विपति को बाता । एेसे मन मन मनहिं सिहाता ॥
जिन जाना तिनहीं पहिचाना । दृजा निं ओर हित माना ॥
जाना तिन जेहि तुम्हरी दाया । प्रररखुकालतेहि निकट न आया
रहे अचेत चेत नहिं कीन्हा । वचन सधा पावन कर लीन्हा ॥
कथा कहो अरु इंसन राई । ज्यों युग जीव की इ सकता ॥
सतगरु वचन-चोपाईं
द्रीष१ असंख्य ज॒ लोक निवासा । ज्हेवां हसन केर विलासा ॥
आयस पुरूष कन्द जब ज्ञानी । वेग जाव जग जीवन आनी ॥
मस्तकं नाय चरे तेहि बारा 1 पहुचे वेग आये संसारा ॥
युगं हिंडोर मदं आये आपा । भाषेड शब्द आर्यं की छपा ॥
हम तो जीवन सत्य बखाना । जान बरूञ्चि जिव भांति थुखाना ॥
हम तो सत्य शब्द् मनमाने । जीव श्युठ जिन मर्म नं जाने ॥
ता करई कडा करब रे भाई । सत्य ज्ञान चित नार्दिसमाहं॥
वाणी शक्ति जीव नर्हि पावत । फिर फिर कार ताहि डहकावत॥ __
कैसे जीव होय निश्शीका । माया कठिन फांसतेदिवेका॥
नं. ३ कबीरसागर-
(५४) अम्बुसागर
चमेदाख हम चर घर डोला । कोह जीव नाहि मुख बोला ॥
बूञ्ञो सातो शब्द करहु हमारा । विष अमत है एक मंञ्चारा ॥
सो तोहि भाषों हो रकसारा । विष अमत का कर् निवारा ॥
हस दोय तेहि न्यारा करहु । नातर् कारु जाल महं परह् ॥
असरत पाय अमर जब होई । एेसा अगम शब्द् रै सोई ॥
पानी सम अभरत जिनि जानो । शब्द् अमी हम ज्ञान बखानो ॥
शब्द् ज्ञान दै कठिन अपारा । ज्ञानी पण्डित करहु विचारा ॥
शब्द चोट दै राजत राज् । शब्द चीन सुधरत् जिव कान् ॥
शब्द् डोर इसा निश्शका । शब्द डोरदहो रसा रका॥
शब्दहि ते सब रचना कीन्हा । शब्द् पुरूष सुख भाषण रीन्डा ॥
सोई ब्द रसा वर पावा । शब्द गहे ओ रोक सिधावा ॥
मूरख जीव शब्द् नि माना । शब्द् सुनत मोदि ्ञगरा गना ॥
साखी-मूरख शब्द न मानदं, धमे न सुने विचार ।
सत्य शब्द नर्दि १ र सो जावे यमद्वार ॥
पा
इम तो घर चर करी पुकारी । विरला हस कोई कीन्द सम्हारी ॥
युग टहिडोखा लिये प्रमाणा । सात लाख जिव शब्द समाना ॥
बीता चार पान रे भाईं। गगरा सम नरियर तब आहं ॥
युग आयुर बरस पचीसा । नर॒ आयुर सत्ताईसा ॥
छंद-रीन्द छिखि जेहे अंक. जीवन ते चरे हम साथ हो ॥
` ताहि जीवन काल गाँसत पांव दे यममाथदहो॥
सात खाच छे दंस पर्हुचो पुरूष चरण मिराइया ॥
ङ्प भयो तेहि विषद् मंजर अक्षय तर् फल पाइया ॥ `
सोरढा-व्णं मनोहर अङ्क, अधिक रूप छवि ताको ॥
चे द्वीप सुरण, ईस हंस युत्थ जगमगे ॥
| इति श्रीजम्बुसागरे हिडोलयुगकथावणनं नाम दवादशस्तरंगः ।
अम्बुलागर् (५५)
अथ ब्रयोदशस्तरंगः
कृकवत् शुग कृथा
चोवाटं
धमंदास विनती बहु करदीं । सतगुङ् चरण शीश छे धरहीं ॥
राउर वचन रवि किरण बिपंगा । मम संशय यामिनि कङ् भंगा ॥
सूञ्जि पय्यो प्रथुचरित अनरूपा । तुम तो पुरूष एक दीश्पा॥
ज्ञान कथा मोहि कहू समज्चाई । खनत चित्त हिय अति दर्षाह ॥
जीव उबारे काटे बन्दा । होय सिद्द आर्नदकंदा ॥
ओर कथा किये अब सोई । साहब मोहि न राखो गोड ॥
युग रीखा कीन्हा जस स्वामी । सो किये मोहि अन्तर्यामी ॥
सतगुर वचन-चोपाइं
धमंदास ब्ञ्ञो मन भावो । सो चरित्र अब् वरणि खनावो ॥
नाम गुप्त सुनि रहा पताखा । शूप बनाय वेढे तरं काल ॥
जीवन काज गुप्त भये नासी । जसे छिपकर वैठत फांसी ॥
मारं जगाय फंद बह डारी । एेसी रचना काल प्रसारी ॥
शब्द शूप आप प्रकाशा । तब चरि गये ग॒प्त युनि पासा ॥
गुप्तमुनि वचन-चोपाइ
अंश शप्त युनि पृछत बता । कोन देश तम कहां रहाता ॥
काकर अंश कहां चकि आये । सो त॒म मोहिं कहो सति भाये ॥
इहां गम्य कोट नहिं लम्भा । तुमे देखि मोहि भयो अचम्भा ॥
शब्द सतोतर सत्तहि भाषो । दम सो गोय नहीं कङ्क राखो ॥
साखी-तबे यपत युनि पृषही, कह समरथ अथाय ॥ ५
अंश यहां के नाहं तुमः कौन देशे आय॥ ` `
ज्ञानी वचन-चौपाईं £ भ १
(५६) अस्बुसागर
सुनत श्रवण बहु दिना बिताई । तुम ऋषि वर पुरषं पठवाई ॥
सत्य ोक्तें हम चरु आयो । द्वीप तुम्हार देखन मन लायो ॥
इम तुम एक नार के आरीं । काहे भूर गये मनमारीं ॥
पिछिरो खबर विसर तुम भयऊ । इहवां आय गुप्त सुनि मय ॥
अब् तुम मोहि मिलो हितकारी 1 हम ई तुम्हरे सिरजन हारी ॥
लेह पान तुम तजो गुमानो । पुरुष वचन सत्य करि मानो ॥
गुप्तमुनि वचन-चौपादं
सुनत ग॒त्त सुनि एतिकं वानी । बहुत कोष तब मन सर आनी ॥
कौन मंच ठे सिरजउ भाई । कोन नाम तुम मोहि धराई ॥
खबर साठ युग की हम जाना । मोषो अधिक कहां है फाना ॥
सत्य वचन तुम भाषह नागर । तब तुम जाह यहां ते आगर ॥
हम ते भये बडे तुम ज्ञानी । मोक्ष शुक्ति तुम अशन जानी ॥
सप्त पतारु खबर इम जाना । तुम अस कोटिक फिर थुलखाना॥
प्रख्य होय जब धुन्धूकारा । शब्द ख्यारु की तरे तम्ारा ॥
नदिजख्थल जब गगन निवासा। नर्हि तब रहे मंदिर कवलासा ॥
सुरमुनिऋषि नरि सदस असी) तब तुम कां होत हो वासी ॥
साखी-इतने दिन तुम गुप्त थे, उपजा नहीं शरीर ।
उतपति परलय नादि थी, तब तुम कां कबीर ॥
ज्ञानीवचन
आदि अन्त तब ना हता, नाहि न बो शरीर ॥
शब्द् स्वषूपी वीरवा, तदह हम वसे कबीर ॥
चौपादइं
ज्ञानी कदे ग॒त्त सुनि बाता । जीव अनेक कीन्द तुम घाता ॥
कृर अब् तुम कर हम धरि पावा । पकरि बांघ यमलोकं चखावा ॥
युगयुग साठ कथा अनुसारा । युग असख्य हमदी विस्तारा ॥
अभ्वसागर (५७)
मही रोक कीन्द मन आवन । षोडश अंश भये तव पावन ॥
इतना कटि त बोके वाणी । कौन पुष तुम कृहं सतपानी ॥
तुम तो मोटि नाहि परिचानी । कहै कबीर बोर अभिमानी ॥
30
गुप्तमुनि वचन-चयाई
चतक सुनत कोष चित् बाट } उड ज्ञानी के सन्धुख गडा ॥
नहि भय भीर राख तेहि बारा । कीन्ह युद्ध बह भांति अपारा ॥
ज्ञानी वचन-चोवादं
सुर शुनि तेज पुरषं परताप । कारु पछार पावि तर चापू ॥
कालि मार खड दो करिया । गहि कका यम द्वारे परिथा ॥
यम ओ दत देख सब धावा । धनी हमार सारको आवा ॥
मार कार जब कीन्ह विध्वंसनं । अषने वद् कर रीन्डे इसन ॥
शुग कंकवत आवत अनुसारा । ता दिनका यह कथूं पक्तारा)॥
पतीस लक्ष आयु युग. होई । माष लक्ष वषं जिय सोई ॥
असी हाथ नर केरि उचाई । ग्यारह इाथ पान लंबाई ॥
हस्ती सम नरियरु बन्धाना । युग की कथा केहेड परमाना ॥
छंद्-काल मदेन कर॒ निकन्द्न दूत गंजन कीन्ह हो ॥
आनन्द कन्दन मेरि फन्दन लोक वासा लीन्ह हो ॥
पु्ष के तव दरश कीन्हे चरण वन्दन हिय लहे ॥
तब नाम पद परतापते रिपु जीत विनती अब कहे ॥
सोरठा-पुरूष कर गदि टीन्द, बेटो ज्ञानी अंश मम ॥
काठ निकंदन कीन्ह, ईस काज भर युक्ति कर ॥
इति श्रीअम्बसागरे कंकवतयुगकथावणेनो नाम त्रयोदशस्तरगः ।
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(५८ ) अस्बुसागर
अथ चतुथस्तरंगः
चारोयुग कथा वणेन
धमंदासवचन-चोपादं
धमेदास बोरे दितकारी । विनय करत चक्षुन चङे वारी ॥
विरुखत वदन टरत दोड नयना । धर धीरज तब बोरे वयना ॥
जीवन काज युक्त भल कीन्हा । मदेन धम रसातल दीन्हा ॥
भयो अधीन कारु तेहि बारा । गयो लोक हसन रखवारा ॥
काल जास जीवन सब दारी । घन्य भाग जो तुम्हरी वाही ॥
जो षद् गहे रंक अर भरुषा । वायस गति हो हंस अनरूपा ॥
तिनकी संगति गंजित कन्दा । जरा मरण गत दषित लीन्हा ॥
पकज गह पद जीव अनाथ । युग युग बैठदहि अमरके साथु ॥
धमेदास कर जोरे ठादे। शब्द सुनत हषित चित बाटे ॥
अब परभु ओर कहो परभा । चारों युग कर कथा सुना ॥
सतगृर वचन
ध्मेदास बञ्चह बहु वारा । सो अब कहू खोर भंडारा ॥
सत्य नाम सत्ययुग हम नामा । जीव उबार पठाये धामा ॥
बहुतकं जीव पाय परवाना । जो चीन्हा सो रोकं सिधाना ॥
सतयुग आयु सबरह खाखा । सहस अढाइस जेदिथुग भाषा ॥
मानुषं आयुबैर वषे इक लाखा । इकडस दाथ उच तन भषा ॥
ध्मेदास तुम चित अभिलाषो । दूजा युग अता अब्र भषो ॥
नाम सुनीन्दर हस उबारा) कारु शीश के मदंनदारा ॥
तहां शब्द् बहु भांति पुकारा । दसन खेय उतारे पारा ॥
द्वादश लक्ष छानवे दजारा । इतना युग का आगु विचारा ॥
मालुष आयु सहस दश जानी । हाथ चतुदैश केर अमाणी ॥
तजे द्वापर कहं बखानी । पुरुष अवाज जीव वरि आनी ॥
अम्बुसागर (५९)
करूणा मय नाम धराये । जीव देव भवसागर आये ॥
चर धर जीवन कहा सदेशा । जो मानो तेहि मिरे केशा ॥
युग आयुर्वल कट विचारा । साठ खख चौक्षठ इज्जारा ॥
मानुषं आयसु सहस प्रमाना । खात हशाथ ऊचा अबुमाना ॥
चौथा कलियुग कथा सना । जग मँ आय कबीर कहां ॥
चार खख बत्तीस दजारा । एते कलियुग आशं प्रसारा ॥
बीसंहि सौ नर आयु बखानी । दंडं हाथ देही परमानी ॥
तात मात आमे सुत नासु । कोई दश बीस कोई वषै पचास ॥
बहत होय जिव तुरत विना । काहू नाशे गर्भके वासु ॥
युग परमाण आयुबंल गायो । कलियुग अय कच नटि भायो ॥
कटियुग भक्ति विरल नर करई । अन्तकाल सुधि जान न परइ ॥
खबर करे जिव रागे तीरा । सत्य पुरूष कां पे वीरा ॥
उलट चार कलियुग का नाञ्च । उख्टी रहनी गहन प्रकाश ॥
गुर सन्मुख सेवा शिष्य करि । मुख पीछे युर निन्दा धरि ३ै.॥
साधुन निन्दा साधू करिहै। साधु मेरि आप अब धरि ॥
साधन वस्तु साधू ठे रई । नदीं साधू कं साधू देईं॥
कलयुग साधू बहत माना । काल पुरूष का ममं न जाना ॥
चट महं काक वसे हकारा । कलियुग साधू बिररू सम्भारा ॥
सादब चीन्हे घर को जावे । विन चीन्दे भव भटका खावे ॥
साहब घट धट साधुन पासा । साधन करयो नारिं विश्वासाः-॥
साधू देख साधु बह जरई। ततिं चौरासी में परह ॥
केलिथग साधू मुग्ध बखाना । सत्य ज्ञान विररे पिचाना॥ __
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(& ऽ) अस्बसागर
ज्ञान कथे अङ् गरा ले । क ज्ुढ अङ् सांच मिवे ॥
चौका काज सार रम रहै । सत्य शुकूको देखत डरे ॥
दोय चार चर बोधे जाई । पेल शुरू शुरू आप कहाई ॥
वेश नाम॒ नरि पावे पाना । ञ्जुठहि साखी कथा बखाना ॥
चौका बेठ करे बह शोभा) नारी देख करे बहु रखोभा॥
देखे नारी सुन्दर नेना । ताहि दूरते मारे सेना ॥
जाहि अपन वद् जने भाई । ताहि प्रसाद् देहि अधिकारं ॥
गवे गुमान महन्त कवे । भक्ति करन को दरबर धावे ॥
वेश विना जिन भक्ति च कीन्हा । यम शिर उपर दावा दीन्हा ॥
सबको जूठन सब कोहं खाई । केतौ खाय युक्ति नहि पाई ॥
जाके पार शब्द् रै साया । ताहि खोज नां केरे ख्वारा ॥
धमेदास जिन अशन ब्ूञ्ला | ताको ज्ञान दष्िका सूञ्चा॥
सृक््म सुषम पाय प्रसादा । ताकर जन्म गयो बहु वादा ॥
इक छा इक प्रा दोई । महा प्रसाद रेवत सोई ॥
छे जीव सकल संसारा । परे द निज वश तुम्हारा ॥
तिन पारस जब इसा पावत । कार बली तेहि निकट न आवत ॥
पावे देस वेश सदहिदाना । देखत यम तेहि दूर डराना ॥
शब्द पाय कैसे के जानब । पुरूष नाम वशदहि गहि आनब ॥
शब्द् केर पारख इमि करई । वीरा हस पाय निस्तरहं ॥
वीर ईस जाते तर जाई । सोई नाम रंस खव खाई ॥
निभअक्षर वाकी दै बाटा। विना वश निं पवेहैघार।॥
अक्षर है बहुत अनन्ता । निःअक्षर तुम खोजो सन्ता ॥
अक्षर उभय काम निं सरई । गह निःतत््व वश चित धरई ॥
यह अक्षर साधू जिन जाना । सो साधू चित हमरे मन माना ॥
ओर शब्द ब्रह गहै बनायी । सो साधू चित नार्दि समायी ॥
अम्बुलागर (६९१)
ओर शब्द वाँधे परतीती । एक नाम बिन यम नह जीती ॥
अक्षर एक मोहि कर्दैषवे ) ओर अक्षर सब ज्ञान बतावे ॥
धमदासं सुन वचन हमरा । कडिथ्ग साश्ुन के व्यवहाश ॥
मुक्ति युक्ति साधू जन करई) कहो अक्ति केसे निर्धरई ॥
एकं नाम विन शुक्तिन षवे) कोटिन साधर् यत्र करावे ॥
सार नाम की नादिन आशा । कोटिन नाम करे विश्वासा ॥
द्या धर्म॑ ओरन बतखवे ! आपन साधू देख कछिपावे ॥
साधू द्वारे तं फिर जायी । साधू रहनि नहीं चित आयी ॥
साधू तं साहिब पदिचानी । अगम पंथ वहि साश् बखानी ॥
कलियुग साधु केर सुन ममा । आप इडे ओौरन कह धर्मा ॥
देखी उदी रीति रे भाई । आपन बहे आर समञ्जाई ॥
ज्ञान ध्यान देखत जो करई । ताहि देख आपि जल्मरई ॥
देखी देखं केरे बह योगर । छीजत काया बाढत रोय ॥
शब्द् हमार द्विपाये धरे ह । करि अनीति बहुं जगते उरि ॥
आपन गहि दै शब्द प्रतापू । सब विसरिहै मंच ओं जापु॥
तुव वसनते सुमिरन पह । शिष शाखाको नहिं वतटेहँ ॥
तिनते जो पन देह । अपनी भक्ति ताहि द्टे ह॥
कहि ताहि सुनह रे भक्ता । करहू मम सेव जो टे जगता ॥
वैश नाम ङे जगको ठगि है । विषय विकारमें बहुविधि रगिं॥
यम दूतन ते करि असने । मम हसन ते करि है द्रोह ॥
द्रोह करन बह युक्ति उपह । रहे न दाव बहुत परठितिहै ॥
लोभ देह निज सेव दढायी । चेला चेरी बहुत बढ़ायी ॥
पुनि तिन संग कम सो करिह । करि कुकमं नरकमे परिह ॥
जो कोइ ईस शब्द मम गदि । तिनको देखत मनही जरि ॥
साधु महेत बह मेषा धारी । करिह ठगईं दोय मिथ्याचारी ॥
1 9
व.
११ 1
५६२) अस्बसागर
उद्यम धन्धा कद न सुहायी । भीख मांग सो पेट मरायी ॥
खाधु संत के नाम ते मणि ईह) करिह विषय काटमग पिह ॥
साधु सतको देखत द्वारे । धरि दै द्वेष मनहिं मन भारे ॥
जो कोइ सम शब्द् परगटे दै तिन सगसो रार बहेदहे॥
असख साधु सदेतन की करनी । केतिक सुनाऊं तोही बरनी ॥
अम्ब सागर तुम सन भाषा । समञ्चबूञ्च तुम दिर महं खा ॥
चर्मदास जिन जानह् ज्ञाना । कलियुग केर चरे बखाना ॥
कह पुकार चेत रे भाई।नाचेते मम का बिगराई ॥
चेते देस आय है द्वारा । नि चेते तेहि कारु अहारा ॥
चुर घ्र एएिरि बोकत करुकारी । करे अहती दम्भ पसःरी ॥
वेश नाम नाहि न हित जानी । आपन आपन मता बखानी ॥
ममता है जह तहं कङि भ्यापू । नहि ममता तहं साहब आपू ॥
ममता मोह दर कर डरे । सतशुङ् वचन सत्य उर धारे ॥
आज्ञा मानं रगे जिव तीष । रवत कहे हम सत्य कवी ॥
पुरूष निरन्तर खोजो भाई । घट भीतर रह कारु समाई ॥
काहू खोजन खोजत पावा । काहू खोजत जन्म गसावा ॥
काहू खोजत खोजत भयऊ । बहतक खोज खोज मर गय ॥
कलियुग भक्ति कठिन बह्ताई । उख्टि पलटिके षेथ नशाईं ॥
कलियुग जीव चतुर ते नाञ्च । शष्द् हमार न कर विशाश्च ॥
छद -कारुचरित अपार धमे न जीव कहा न मानी दै ॥
बार बार पुकार सबसों सत्य भक्ति नं ठानिदहै॥
यरी कठिन करार विकट यम तेहि अति बली ॥
वचन हिय नहि सत्य धारे जीव यमगहि दरमलीं ॥
सोरढा-करब रोक अब्र वास, पुरूष चरण उर भेंट अब्र ॥
हसन ईस विलास, करिथुग पग नदि धारॐ ॥
अम्बुसागर (६३)
धमेदाच वचन-चोवादं
धर्मदास संशय चित आवा ! बार अनेकं विनय प्रथु लावा ॥
का अपराध जीव कलि कीन्हा । जाते त॒म दर्शन नहि दीन्हा ॥
युग युग आये जीवन काजा । अब कस जास कीन्ह यमराजा ॥
यम अन्तरवट वट सव फांसी । जीवन अचेत कीन्ह इमि गांसी ॥
महा अधम पातक भर पूरा । शब्द तुम्हार होय अघ दश ॥
पुरूष नाम राव कीन प्रकाशा । जो नहिं कमे तिभिरकँ नाशा ॥
छन्द-तुम पद् पराग अध पंज दाहन ईस सतमन धारने ॥
पतित पावन नाम ध्यावन ईस किथि यम पावनं ॥
हंस नायक जिव सहायक अधम् जिवं षद पैकज गह ।
युग अनन्त न ईस लावहु कार कलि जिव किमि कंडे ॥
सोरडा-युग असख्य मे आय, पुरषं रील धारिके ॥
ेसे हस बचाय, उपेक्ष कमं कहि कि म कंडे ॥
सतगुरवचन-चोौ पाइ
धर्मदास तुम ईस नरेशा । सत्य पुरूष का कं सन्देशा ॥
कृटिथुग काल बहुत बरिआरा । तातं पुरूष वचन अदसारा ॥
पुरषं अवाज भई जग जानी । सुनो अश तेहि कूं बखानी ॥
चार शुरू है जग कडिहारा । सुकृती अश आदि अधिकारा ॥
मकेज चतुभज ओ सहतेजी । सुकृती जग महं चौथे भेजी ॥
जग म्ह नाम होहि धमंदासू । जीवन रे राखे सुख वासु ॥
अश बयालिस्ष हमरे आगर । जीवनकाज जारि भवसागर ॥
धर्मदास के प्रगटे जाईं। नाम चरामणि आप धराई॥
तिनके हाथ हन्द टकार । पुरूष नाम दे ईस उबारा ॥
कृटियुग यही नाम प्रताप । प्हैचे खोक मिटे सन्तापु ॥
वंश बयालिस्ष जग कडिहारा । देहि दान जिव उतरर्हि पारा ॥
(५६४) अस्बुसागर
छद्-करूणा रमण चित देखि दाया अचर वानी बोरे ॥
जाइ ज्ञानी कन्द आयसु जिवन बन्धन सोखेऊ ॥
आय घमहि मार ततक्षण कोल मह सों कीर्हिया ॥.
वेशं दाथन पान पावन ताहि हम नहि लीर्हिया ॥
सोरटा-कौरु कीन्ह धमेराय, पुरूष दीन्हेड वेश को ॥
काक पान जिय पाय, सो पहुचे सुख सिन्धु कर्हे ॥
धमदास वेचन-चौपाई
सुनतहि धमंदास दरषाने । सतश् चरण धाय पटाने ॥
वचन तुम्हार दिये इम धारा । चूरामणि है अश तम्हारा ॥
ओर को प्रथु दीन दयाला । हसन नायकं करो निहाला ॥
नागर वेकि कर्हवां तें कीन्हा । जाय अंक पुरूष कँ दीन्हा ॥
ताको आदि को मोहि स्वामी । कृषा करो प्रभु अन्तर्यामी ॥
सतगुरु वचन-चौपाहं
तुम तो ब्रञ्च कीन्ह बड अंशा । तुम्हरे चितका भेटं संज्ञा ॥
नागवेलिका भेद बताऊ । अकं देय ईसन चुक्ताड; ॥
कूमे पीठ पर वेछि रदाया । तै ते नागवेलि हम लाया ॥
ताकर मूक दीन्ह संसारा । तुमसों धमनि कँ विचारा ॥
साखी-एक पान बरईं का, दारहि हाट बिकाय ॥
एक पान सतगुङ् का, अमर रोकं छे जाय ॥
धमेदासं तब भये सनाथा । साहब चरण नवायो माथा ॥
अगम कथा भाष्यं प्रथुराई । दीन पयार हंस सुक्त।ईं ॥
छन्द-घमेदास कर जोरि कंद मोहि पतित पावन कर लहै ॥
गदगद गिरा अतिपुरक सादर प्रेम वश पंकज गहै ॥
अम्बुसागर (६५)
तुम वचन सुधा तडाग निम ताहि विच मन मीन हो ॥
सब जीवं यह् अज्ञान कर्मी मोह वश नरि ढीनदहो ॥
सोरग-युग युग भवन सिधायः; आय लोकं जिव ठेगये ॥
कृटियुग पन्थं चाय, ईस्तन मग अब भाषिये ॥
सतग् दवचन- चौपाई
देसन पग ॒ब्रञ्नो धर्मदास । जो जिव पद्गह होय निराञ्च ॥
तन मन धन हिय मोह न राखे । सदा रीन अस्तति चित भाखे ॥
हस चाल रहँ सदा अनन्दा ! सो जिवं बि यमके फन्दा ॥
गुरूणुख निशिदिन आज्ञाकारी । निदाह्य न चित्त विचारी ॥
गुर् मिदा क्षण इक चित व्याप । ताक कार करे बड़ दाप ॥
हर्षं शोकं चित नादहिन आवत । खदा लीन शङ् छरति खमावत ॥
जस चकोर चन्दहि चित रावत । न कहं सुरति न ३ विसरावत ॥
जेषे पंकज सर रह बासा । निशि बीते रवि उभे अकाशा ॥
द्रशं देख पंकज विकक्षाना । एेसे हंस वेश चित आना ॥
सत शङ् नेह जाहि वित आई । पाय अंक दिय साच बसा ॥
धर्मदास मोक जिमि पावा । तज धन धाम सकर बिसरावा॥
तेसे सत॒ वज्ञ गहि चरणा । टे ताहि जरा ओ मरना ॥
एतक हस वंश सहिदानीं । धमदास मे कहूं बखानी ॥
ताकहि यम दवें नहिं पायी । गदि पद् वश खोक जिषर जायी ॥
आय रोकमर्हे जगमग ज्योती । दीरालाल काग जहं मोती ॥
श्वेत दंस बेठे जँ पाती । कंचन खम्भ बने बहु भाती ॥
पुर्ष डोरि दसा चढ पावे । जीवन जन्म ताहि मिटि जावे ॥
सुरति अचिन्त है नाम हमारा । जिन्हें जान जिव उतरे पारा ॥
मूक वस्तु हम दीन्ड बतायी । जते दंस नष्ट नरि जायी ॥
(६६) अस्बसागर
पुरूष रूप स्रनो अति पावन । एकं चिकुर रवि कोर रुजावन ॥
दख रूप शोभा बह भाती । षोडश भातु हंस की कान्ती ॥
सक्त अमर मन जहां वासा । दशन पाय होत अध नाशा ॥
ठेसे घर साधून वर कीन्हा । पहुचे लोकं वेश जिन चीन्हा ॥
आदि अन्त सागर मय भाषा । अम्ब चाख सुरति जिमि राखा॥
मवनिधि उतर पार जिव जायी । यम शिर पाव देय घर आयी ॥
छेद-अम्बु सागर भअन्थ मे जह कमरु बखानियां ॥
सोरडा कंमोद शूरे वार अति चीौपाहयां ॥
यह कथा पावन अति सुहावन अमी स्र वणन कंरोँ ॥ `
जेदि करद मज्जन सन्त सज्जन अर्थवीची चित धरो ॥
सोरठा-खण्ड मनोहर वाट, साखी सिदियां खाश्ये ॥
चरे दस यह बाट, सुख सागर सुख सों रदे ॥
इति श्रीअभ्बुसागरे चारोधृग कथा वणनो नाम चतुदशस्तरंगः ।
इति समाप्तोऽयं ग्रन्थः ।
उपसंहार
सोरठा-अम्बमागर मन्थ भो पर, बरञ्चो संत विवेक करि ॥
शब्दे प्रखे सो शुर, परखि शब्द् सत षद् गहे ॥
` , चौपाड
काट चरित बहु अगम अपारा । भांति २ जग शब्द् पसारा ॥
दुख दुडावन् कंदं ललचावे । ललचनि जीवि फंद् गवे ॥
पटले कंदे सुकृत की बात । पीछे लावे आवन घातु ॥
परे दिखावे भक्ति ओ सकती । पीछे लगावै आपनि युकती ॥
यह सब जानो यम की बाजी । जेदिमा भरले पण्डित काजी ॥
अग्बुलागर (६७)
देह लोभ सब जीव रफेसावे। आपनमहिमाकरि भक्तिबटावे॥
कृ गि कौ कार्की रचना 1 एकटहि एक भिरे निं वचना ॥
पक्षपात लगाई जीवं विगते । सत्य पद छुटि नरक सो जोवे ॥
याते ओर् पारख विस्तारा । जेहि पाये जिव होयहि न्यारा ॥
देस दोर अपने पद् जोष) सत्य शुङू के शरण सु होवे ॥
दोहा-प्रखो संतौ शब्द् को, अभिविधि भेद विचार ॥
काल संपि जलाई ख्खी, पावो शब्द मति सार ॥
दोड प्रकार पारख करो, बानो खानि विचार ॥
गुङ पद तब पाष्टो;, रहै न अम कगार ॥
भरम छुटे जब जीवकाः, उभय अनन्द सौ पाय ॥
काठ देशते निकसिके, सत्य लोकं को जायं ॥
इति
घत्यघुक्त, आदि अदी, अजर, अचिन्त्, पुरुष,
ए़नीन्द्र, करुणामय, कवीर्, सरति योग, संतायन
धनी, _धमदास, अरशमणिनाम, सदन नामः
कृुपति नाम, प्रमोध, गस्बालापरी. केवर नाम,
अमो नाम, घुरतिष्नेदी नाम, दक चाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीश्ज नास,
उग्रनाम, दयानामको दया, कश
व्यालीसको ट्या
अथ विविकसरागरप्रारंभः
५
प्रयमस्तरगः
चौपादुं
ज्ञान दीप बड़ जानु सजाना । सुख न बहुत संतोष समाना ॥
सत्य त्रत सम त्रत न कोई। ज्ञान समान शु निं दोहं ॥
नटं विचार ते ओष सारा । बिना विचार सकर संसारा ॥
अगम ज्ञान न विचारे सारा । केसे उतरे भवजर पारा ॥
सोई विचार नाम रौ रावे । ज्ञान विचारि परमपद पवे ॥
शेष सहस मुख निशिदिन गावे । वरनत वेद् अन्त नटि पावे ॥
विवेकसागर (६९)
महा पुरूष का कों विचारा । तुम अनन्त गति छै को वारा ॥
करम प्रधान जीव संचरईं। तेहि को भिङे जां यन धरई ॥
जीत उष्ण सुख दुख संसारा । आयुहि चष्ट खीन्हते भारा ॥
यह सव सपन देहको आदी । भ्रक्रति भेदं क छिन्न न जाई ॥
रविधन जसे जीवर्हिं साधे माया ताहि सके नहि बाधे ॥
किमि मायाजिव ठकिसोई छह । भुलाई स्वह प सुख दुखते देड ॥
कहू मेद सुनु सन्त सुजाना ! कथा मोह विवेककर व्याना ॥
प्रथम मोह राजा का वणेन
मोह नृपति मायाते भयऊ ¦ ग्रबरू घटा तिह युर सी ऊय ॥
ब॒रनो ताप नाम युण वेना महा योह रजको सेना ॥
मोहक स्थिति
निज अज्ञान देश रजधानी ' आलस महर आशां पटरानी ॥
इच्छा बेटी खरी कटोरी । बधि अनेक जीवं उडि भोरी ॥
कुमति सखी ताके संग रइं । निति उदि ङदय सबनकी ६३ ॥
लडी शरत टह धर करई । जाके परसत सब जग उरं ॥
लौँडा लाटच नाहि अघावे । वरजत निलज सबके घ्र जावे ॥
रोग शोक संशय बहु भाती । षर द्रोही ओं दन्द सघाती ॥
ये राजा के पु प्रचण्डा । जाके डर आसे नौ खण्डा ॥
पाप सबन को ओगुन जानी । दुंख दरि मोह अभिमानी ॥
अधमे ध्वजा जाके अगवानी । बाजा प्रकट कलह निशानी ॥
दम्भ क्षर चौतरा शूखा। जह सिंहासन बडे फूटा ॥
कपट वजीर असत्य खवासा । पाखण्ड मन्ञी संग प्रकासा ॥
९ क्या । २ जिस प्रकारसे मेघ सुर्यको ठकं लेता है कितु उसका अनिष्ट नहीं कर सकता
उसके स्वरूप का नाश नहीं कर सकता है उसी प्रकार सं माया जीव का आच्छादन करती
दै किन्तु उसके स्वरूप मे अदल बदल नहीं कर सकती ।
(७5) विवेकसागर
साखी-यह सेना सब मोदकी, करै कबीर समञ्चाय ॥
इतने जो को वाचई, भवसागर तरि जाय ॥
सोह के सम॒साहिब-चोपार्द
प्रथम उमराव दम्भ बखाने । बाह्मण ए पर अव चन आने ॥
आरा बरनो उमराव जो आगे । तिनहू ते कोड उबरे भागे ॥
काम को गवे ओर लोभा महा मोद बधि संशोभा॥
काम कमान गति कीन्दो दापू । अहं ओ गर्वे समाने आपू ॥
लोभ भिरे उपजे संताप । चारिउ करे तिहु पुर दापु ॥
रन एक एकं को बाती । सुनि उघरी कायर की छाती ॥
कामअ्रतषप चणन्
प्रथम काम चघनुष कर न्दं । पांच बान सो तासंग चीन्दं ॥
मोहन वशीकरण उचाटा । बान र्गत चर भले बाया ॥
दुष्ट काम उर प्रकटे आयी । ज्ञान विचार बिसरि सब जायी ॥
ऋतु वसंत जिय सेन सिगारा । कटि न कामक सेन अपारा ॥
खोखह -वृगार देखी मन मानी । निरखत अग अग की वानी ॥
ेसी निरखि काल की सैना । सुर नर सुनि उर धरत न चैना ॥
साखी-यह काम अति प्रचण्ड है, दोत उत्पन्न तिय अंग ॥
सेन चेन अतिरी बहे, चटे छाम रतिरग॥
तन मन अस्थिरना रहे, काम बान उर साल ॥
एक बाण से सब किये, सुर नर सुनी विहार ॥
चौपाई |
चरे काम यह सवे पकाने । मदाश्द्रकी करत न काने॥
मदा रद्र पदं ॑ पहुचे जानी । मासयो पुदुप बान शर तानी ॥
देखि मोहनी मोहे देवा । पुह्प बानको कुछ र्यो न मेवा ॥
छांडि ध्यान धाये बिषुरारी । सधठञ्चे जबहीं जब परे जदारी ॥
विवेकसागर (७१ )
जान्यो काम कोध मन कारे । चितवत दृष्टि पाचो मति पारे ॥
तब रति देखि दीन ह गय । विन्ती करत विषय तन भय ॥
जब रति देखि दीन हि आहं । विन्ती करी तब ठखि पाई ॥
सृश्चिन होयन चके संसार । महा ङ्द त॒म करहु विचारा ॥
जब शिव देखि दया मन छावा । ता इख मेटन मनम आवा ॥
तब तिय जानि बहुरि निर्मयऊ । अंगहीन सो अति बलि भय ॥
बहुरि काम ब्रह्मा परह आया । देखत नाहि कोष मन भाया ॥
षट पुभिन करट दीन्दों शापू । षटजन्ममृतवत्सातुमहोआपू॥
बहुरि काम चरे समुहाईं । तेतिस कोड किये वशि जाई ॥
काम बवान शर धरि ङखीन्हा । जीतन चरेसो आषु वशिकान्दा॥
इन्द्रसेन जब गयी सब हारी । इन्द्रह कौ गहं बुद्धि मति मारी
जबरीं इन्द्र काम वश मय । गौतम नारि छलन तब मयऊ ॥
काम कोपि सुरपति पर आये । अति आतुर अहिल्या पदं धाये॥
जवते चितम चितये पाप । सहे उग्र गौतम को शाप ॥
सदश्च भग ताक भय । काम बान कर फल यड उयः ॥
काम चन्द्र पर चितवे जबहीं । जाइ हरे यङू-पत्नी तबहीं ॥
साखी-एेसो असुर धटमों बसे, सनह हो धम॑ंदास ॥
घट परिचय जाने विना, सबका भया विनास ॥
तन मन ल्जाना रहै, कामबाण उर साट ॥
एकं काम सब वसि किये, खुर नर अनी विहार ॥ `
चोपाई
रसो असुर वरनो कादी । जागे सोवत मारे चादी ॥
नृगी ऋषी जो वन मई जाये । कन्द मूर खनी वन फल्खाये.
एेसन ज्ञान ध्यान मन धरई । सोउकामवसिफिरिफिरिपरई॥
नारद आदि पेच शर तानी । ओर अनेकं जेहि नर ज्ञानी॥
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(७२) विदेकसागर
काम बाण जब दशरथ लागे । राम इरे तब प्राणे त्यागे ॥
काम् बरी अति बरख्वंडा । जासु बान रहे बिकरु ब्रह्मण्डा ॥
काम वशि भये रावण राज । हरण सीताकिय नाश उपाऊ ॥
उड २ ज्ञानी जग मरह भयऊ । काम जस् सबन कँ दय ॥
काम बाण ते बाचे सोई, शब्द विवेकं जाके हि दोह ॥
काम अतिपरबल सु धमदासा। सब कृद दिये निरजनफासा ॥
साखो-प्रेम प्रीती सो बांधिया, कहे कबीर समञ्जञाय ॥
ता प्रेम मरं विवेकं बिनु, रहे जीव अुरञ्ञाय ॥
सुर नर सुनि सब जीतिया, कोह न उबरे धाम ॥
महा मोह शिर नायके, कियो उपायन काम ॥
क्रोच प्रताप वणेन `
चोपाई
काम घाम परि सब अङ्कलाते । अब निज सुनो कोधकी बाते ॥
काम ते अधिकं क्रोध परचण्डा । जाके डर तरसे नौ खण्डा ॥
गुरू कुबुद्धि कोध के संगा । अटर भेष धरि चढत जो अंगा ॥
जव उर कोध परगटे आयी । कपिं देह थर थर हौ जायी ॥
टेढी मोहे अंकित नेना । अश्चुभ असार सुख बोले वेना ॥
जरे डदय मुख निकसे ्ारा । रोम रोम पावक पर जारा ॥
मार मार केरे अपघाता। ग्निनमत॒पिताओ भता ॥
दुरं जाय के विनशे आपा । दारण दहिया कोधके रूपा ॥
प्रथमे कोच ब्रह्मा को भय । षट पुजन कहं शाप जो दृयऊ ॥
ब्रह्म अहै सहै नहि ूपा । उपञ्यो कोष जो सबही भूपा ॥
सनकादिक वैकुण्डे गय । रोकत पौरी कोध मन मेय ॥
ब्रह्म पुत्र सद्यो नदिं छोहू । जय अर् विजय असुर दौड दोह ॥
उपल्यो रोध सहे को भूपा । दरशन भये क्रोध के रूपा ॥
विवेकसागर (७१)
तजि द्वार देह धरो जाई। जन्म तीक्षरे भिर आई ॥
क्रोधते वे तीन जन्म विहाला । हरिनाङ्कश रावण शिञ्चुपाला ॥
जब जब शिव कोध के संसारा । परल्य होत न खगे बारा ॥
जवसुरअघुरकोधकियो रामा । भयो ताडका मारन संगामा ॥
दुर्वासा कोथ न सदैऊ ) उरूटी हानी तप मे भये ॥
छप्पन कोटि यादवं संघार । आयपुहि आप कोच परजाया ॥
कोध किये सब करु नादी । सगर पुज जरे सदञ्च साठी ॥
कृरि को भये जरि अय राजा रकं गने को पारा ॥
कौरवं पाण्डवे कोहि जरे । आपि आप मये सब मरे ॥
साखी-दशो दिशा ते उदी, प्रवर कोधको आग ॥
संगति शीतल साश्रुकी, शरण उबरिये भाग ॥
चोपाडं
कहै कीर कोध पर हरे। सोई प्राणी भवक्षागर तरं ॥
क्षण क्षण कोध दयम अवे । जप तप ज्ञान रहै नहिं पते ॥
पण्डित गुणि योगी वैरागी । ये सब जरे कोध की आगी॥
पेच अग्नि अ्रीषम छतु धरई । एेसी विधि जकार तप करई ॥
पाचौ इन्द्र करे निरासा। सधे निद्रा भूख पियाषा॥
जतन जतन बहत तप करदीं । कोध छुड़ाय छन एकम हरदं ॥
क्रोध ते रोग शोकं संतापा । कोध फन्दा परि विने आषा ॥
कोधहि ते मुरख होय आवा । कोधे ते स्टेछ गति पावा ॥
क्रो ते नर॒ नरके जायी । जोनिन संग कष्ट भरमायी ॥
सिद्ध काज विनासे कोधा। सब फर जाइ न पवे सोधा ॥
साखी-बहत जतन तप कीनेऊ, सब फर कोध नसाय ॥
कृहै कबीर धन सचे, चोर मूसि. छे जाय ॥
कृ कीर विचारिके, कोध अभि बह जाग ॥
{ ७४ ) विवेकसागर
संगति साधु सतनाम की, शरन उबरिये भाग ॥
कोच अभि घट घट वरी, जरत सकल संसार ॥
दीन रीन निज भक्ति सो, ताकर निकट उवार ॥
लोम प्रताप वणेन
चौपाडं
व्रण्यो काम कोध मन जाथा । अब सुनु निरुज रोभकी गाथा॥
बुरा लोभते ओर न कोई । सकर अधर्मं रोम ते होई ॥
हाथ कटी नट कपिर नचावे । यहि विधि सकल जीव भरम ॥
पुनि ते मायादी मन रवे । अगम निगम दरश दिशि धाते ॥
अकिप आनिके जरे दामा । तन मन देह करे जम जामा ॥
खोवे बुद्धि करै जजाला 1 ससुञ्चे नदीं मृत्यु ओ काला ॥
आपदा दोय नदीं वि्रामा । कदी अगनित जो इवे दामा ॥
जब मन रागे द्रव्य के संगा । जागत सोवत सुख नि अगा ॥
पल एक म गुर ज्ञान बतावे । जब शिष चोर द्रव्य प्र रावे ॥
एेसी वस्तु गुरू मोहिं दे । जहि प्रकार मोरे धन दोहै ॥
ेसी आश ल्गवे चेखा । अपने दाव करे भक्ति दुहरा ॥
लोम विवश शङ भक्ति करई । मनमें लोभ भख भगती धरई ॥
शुरु महिमा कर मारु चटवि । परफुलित होय भक्ति मुख गावे ॥
मनम लवे क्कु ओरे। ठ बाट देखि सो दौरे ॥
साखी-शर रोमी शिष खालची, दोनों खेटे दाव ॥
दो बडे बापुरे, चडि पाथरके नाव ॥
चौपाहं -
कलियुग वैराग अस दवे भाई । सुव॒ धमदास मै कदी बुञ्ञाईं ॥
कदियुग पाप कमे बह बट । करि करि पाप दुख म पडि ॥
ताते दरिद्र होय बह रोग । सदिद बहते इदखरू सोग् ॥
विवेकसागर ( ७५ )
पाइ दुख बहु मेषसों धरि । लागे रोम पाप वह करि ॥
मांमगिमांगि कदु द्रव्य कमायी । छण व्याज दर दिह उगयी ॥
नाम साधु जग मांहि कदायी । सेह व्याज करि कमे कसायी ॥
मठ मन्द्र कारण धन ठै । सेवक साख बहत बटे ॥
साधू सेवा सबहि बतायी । नाम परमारथ करहि उगायी ॥
पाई दव्य विषय सो भोगी हँ । बह विधि इद्धिन सुख कमि ह ॥
विषय भोगको द्रव्य सो चाही । तब पडि है वह तरष्णा मही ॥
तृष्णा अति परषल जगर्भगी । सदा रहै वह लखोभ की संगी ॥
अद्धागिनी रोम की किये । अब ताकर वृत्तात सो रहिये ॥
साखी-जब मन खगे लोभ सो. गया विषमे विष बोई ॥
के कबीर विचारि के, यही पकार धनं होई ॥
चौपाई
परिले पेसा मों मन लवे । पैसा मिरे टकाको धवे ॥
टका देखि मन म सुख भयऊ । दो टका का उद्यम कियंॐ ॥
दह जोरे जोरे फिर चारी । रोभ पाति दीन्हों परचारी ॥
चारि जोरि मन उपज्यो रंगर । अब दृश कं जोर दोय जनि भ॑ग्॥
दश जरे मन रहे न टोरा। जोरि बीस मन आमे दौरा॥
बीस जोरि मन बादी आशा । अब जो केसेहू के जरे पचासा ॥
जोर पचास गांठ सो दीन्हा । तब सदस को उद्यम कीन्हा ॥
जोरि सदस तृष्णा नर्द साख । अबर॒ खगे जोरन खख ॥
लाख जोरि विनवे कर जोरी । अब परमेश्वर मोहि देहि करोरी॥
जोरि करोर क्षण कठ नरि परे । लोन अगिन छिन छिन तु जरे ॥
ज्यो ज्यों लोभ मिले नौखण्डा । त्यों त्यों लोभ भयो परचण्डा ॥
ज्यों ज्यों तरुण बालपन गय । त्यों त्यों तरुण खोभ अतिभय
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( ७६ ) विवेकसागर
साखी-धावे ओगुन धनि को, राल्च बान चडाइ ॥
कहै कबीर विचारि के, शुण शीर सब जाइ ॥
जहां लोभ शण ओशन है, तहां नरह शीर स्वभाव ॥
लोभ ओशुन ते वाचनो, शुरू वित्र कटै को दाव ॥
चौपाई
लोभ अभि लागे नहि जागे) सब गन आहि तौ काहे छागे ॥
खरब् अरथ् कदी दिखरख्वे । सुर सारंग जो गाई सुनावै ॥
चारि वेदं व्याकरण समाना । ओर अष्टादश पटर्हि पुराना ॥
जञ मंज जानत अति नीके) सब शुन अहित लोभके षीके ॥
करि तपस्या वह देह जरावे । उरूटा खटकर बहु सिदध कहाबे ॥
ओरन को परश्मोध बह करई । त्याग दावत जह तँ फिर ॥
ओर नहिं डवे परिवारय । मंडी बढावन सनये धारा ॥
करि परिश्रम बहु घन जोरई । खरचेनखाय किरपिनता धर ॥ `
यह सव काम लोभ का भाई । विन सतयुङ् नहि लोभ टाई ॥
साखी-भेष भक्त सुदित सवे, ज्ञानी गुनी अपार ॥
षट दशन फीके परे, एक लोभके रार ॥
भगत अुडिया जटाधारी, ज्ञानी शुनी अपार ॥
घट दशन भटकत फिर, एक लोभ की रर ॥
अथ गर्वैका कतेत्व वणेन
चोपाई
जाते दारण दुख सुख भा । बटयो अपरबरु लोभं उमरा ॥
निरज रोभकी कथा बखानी । सुन जीव गति गवे अभिमानी ॥
छिन छिन गवै दिया म आवे । आगे कुटिरु सबद दिखकावे ॥
ठेंडत चले निहारत पागा । गे खबीस तबहिं उटि लागा ॥
विवेकल्लागर (७७)
ठंड अकड अभिमानी माहीं । अभिमानी नीचा हीं नाहीं ॥
मरे ताव॒निदारत छह । कथे धुरे अवश्की बाहं ॥
टेढी पाग गरष मन धरई) मन महं ऊव्रतवालो फिर ॥
अनीति वचन आरन सों बके । इमरी बरोबरी को करि सके ॥
हम कुट बडे बडन के जाये । इमरी आदि साख चङि आये ॥
नाती प्रत इमारे चाही) दुम्ब बहुत हमारे आदी ॥
घर मडवा अगनाह हमारे । पूरे रिरि गवं के मारे॥
बूड कपट अभिमानी खे । कंचन बर्तन मारी मेले ॥
साखी-छर्बं ग्वं अति सवं सखः, विषय विकार न भूर ॥
कहै कबीर काठ शिर परः च्य हाथ चिह्र ॥
अति के गवं न होय भाई । गर्वहि'ते युनि सवं नज्ञायी ॥
अभिमानी नहि टे कबहु । बह विचक्षण ज्ञानी होय तवहं ॥
भगली दम्भ नितही मन माहीं । निकट सांच कड्कं अवि नाहीं ॥
हम हम हम करत सो डोखे । काहू ते सीधा नहिं बोडे ॥
ह्पवन्त श्प गरववे। कोई मोष्म इषि न अवे ॥
तङूणापा तरण षकारा । अन्ध बनाई गवं तेहि मारा ॥
धन ङक विद्या गर्बाना । धनो उच ज्ञानो विखंराना ॥
अहै भूप राजा अभिमानी । आपेही को सरवस जानी ॥
है योगी योग ग्वै धारे। बडेबडेसिद्धिका गहि मारे ॥
है भेसी टेक मन धरई। विचार विवेक दूर सो करहं॥
कहै पुकार धरी अभिमाना । मेरा नीका खन यह . ताना ॥
मरे फन्द जो आवे कोई । परसत मोहि नरकमहं सोई ॥
धनाभिमानी अपनेको सबसे न धनी जानता है ।
जात्यभिमानी अपनी जातिको सबसे ऊची मानता ह ।
विद्याभिमानी अपनेको सबसे अधिक ज्ञानी अनुमानता है।
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{ ७८ ) विदेकसागर
साखी-सवें प्रहारी नाशके, तुरतदि देइ सजाई ॥
ताकर दक्षं न पाइ नर, तुरति नरके जाइ ॥
इति श्री विवेकसागरे मोहदलपरीक्षावणेनो नाम प्रथमस्तरंगः ।
अथ टितीयस्तरगः
विवेकं दरु वणेन
अब सल विवेकराय की गाथा । पर सुखदाई जाकर साथा ॥
विवेक स्तुति
आदि अत रोक के राई। तुमरी गति क्कु वरनि न जाई॥
सब विस्तार तुमहीं विस्तारे । सत रज तम तीनो गुण धारे ॥
ेसे परम पुरूष के अंसु । प्रकरं पेम विवेकं सुख वश ॥
विवेककी स्थिति
निरमर साधु उर निजपुरगाना । तिलक ध्वजा मार ओ बाना ॥
ज्ञान देञ्ञ भरकाश रजधानी । आनन्द पी विवेक परवानी ॥
विवेककी सेना
सुनह् विवेक राज की सेना! जाके राज सकर सुख चेना ॥
उमरा धीरज धर्म ओ ज्ञाना) प्रेम भक्ति बाजे निश्शाना॥
निजानन्दं महर पग धरई । श्रद्धा रानी सेवा करई ॥
निभय संत सुशील सुभा । ये विवेकके पुत्र काऊ ॥
से वृष विवेक के अंशु । परगट आद प्रेम सुख वश् ॥
नृप विवेककी बेदी चरी । सत्य द्या क्षमा शुभकारी ॥
१ -इस पूस्तककी जितनी प्रतिर्यां इस समय मेरे सन्मुख उपस्थित हँ उन सों मे
सारद गौर सरधा इन दो प्रकारसे लिखे हं ।
२- लिखते तो हं बेटी चार किन्तु आगे नाम देते हें दया ओौरक्षमादोहीका यह
मूल पुस्तक रचयिताकी भूल तो कदी नहीं सकते क्योकि जो इस प्रकारक उत्तम पुस्तक
लिखते कौ अभिल।षा रबता होगा उसके पास सामग्री भी होगी किन्तु लेखक महाशयो की
करुपा काफल दहै।
विवेकसागर (७९)
सत्य संतोष साथ है तादी । नरक परत गहि राखत वाही ॥
डी सुबुद्धि सबनकी खाजा । रौ लौँडा पुरवे सब काजा ॥
सुचित शीर ओर अनुरागी । क्षमा स्वभाव वैडे वैरागी ॥
रहनी क्षत्र चौतरा सभाज । सहज सहासन बेटे राऊ ॥
ब्रत वजीर ओर सत्य खवास । मन्ञी निरभे संग प्रकासू ॥
करहि वेद ताके सुख सेवा । किविकं प्रसाद सदा सुखदेवा ॥
धीरज ज्ञान ध्म उमराॐ । ये राजाकी करि सहाऊ ॥
उरज्ञान प्रकटे जब आयी । ताक्षण मोह सवे पिरि जायी ॥
ज्ञानवन्त जब प्रकर है अवे । कार जजार सवै भिरि जतै ॥
चौकी मोह समै उठि भागे । भागे कषर ज्ञानके जाने ॥
दुष काठ पर खगत गय । ज्ञान चक्षु हिरदय तब भयॐः ॥
कों अञं कर्द ते आयो । जहौ कां काहि मन छायो ॥
कटौ को तुम को संसारा । कहि बध्यो सो करो विचारा ॥
शे मोह बधो संसारा । के बध्यो सो करो विचारा ॥
जरौ कृगतिलोम संचारा । ञ्ूञे मोह बन्धो संचारा ॥
दंपति सुख संपति परिवार । ये सव मायाको तिस्तारा॥
ज्ञेसे छिन बदरीकी छया । से गहे देत सुख माया ॥
ये सब सुख सपने को राजू । जागि परे कुछ सरे न काज् ॥
डूुठे आहि देहको नातो । ये सब माया केर समातो ॥
तन जारे भसम दोय जाई । मेहरी मातु नातु नदि कां ॥
ठेसो ज्ञान मन प्रगटे आयी । तो कड मोह कदां ठहरायी ॥
ज्ञान मोह दर देखी दाही । कदली गवं विचाखा चाही ॥
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(८० ) विदेकसागर
नाम देतु जो कीते कर्मा! कहै कबीर सोई निज धर्मां ॥
संचो धमं जानिये सोई । प्रग? स्नेह नाम सो दोह ॥
तन् मन घन जो नामे देह । सोई भक्त कबीर करै ह ॥
अभि जायके शिर धरयी । तोह न नाम मिमाते परयी ॥
कोटिक सुख कोटिन इख पावें । धीरजवेत नाम रो ठवें॥
विवेकं ओर मोहको शेड छड
एेसो ज्ञान प्रगट जब भय । विता मोह सबै भिरि मय ॥
उपज्यो काम कोघ मोह दापू । निज धीरजके विश भय आप ॥
कोम मोहकी अभि अतिदहरईं । सन्तोष पोष प्रवृत्त दोय रहं ॥
धीरज धमे ज्ञान मन दिय । तबरीं मोह चकित होय रदॐ ॥
विवेकं ओर मोदुद्ध वणन
तबहि मोह मन्ञ उपजावा 1 पाखण्ड भिज निकट बुखाव्ा ॥
सकर सेन को बुख्वायऊ । मिञ एक जोडि ठदरायॐ ॥
आये प्रबल विवेकं नरेश्चा । लीन्दं आई हमारो देशा ॥
अब मति मन्त्र करो ठहरायी । देश आपनो ल्ह छुड़ायौ ॥
कृद पाखण्ड सुनो मम राजा । यह बड कोन अहै सो काजा ॥
राजा मन्ञ हमारो रीजे । प्रथम कामको आयस दीजे ॥
आगे आगे काम रह भरपूरी । ज्ञान विवेकं जादि सब दूरी ॥
तबि काम करं आयसु दियञ; । दरु बादर सह रन सो गय ॥
काम ओर ज्ञानयुद्ध ट
काम कुपित वचन सुनायो । दमरे देश ज्ञान कर्ह आयो ॥
उते भयो काम उते भयो ज्ञाना । मानस भूमि रच्यो संम्रामा ॥
यदे कबीर यहै परमाना । काम ज्ञान युद्ध तव् ठाना ॥
बह रूप धरि काम तिवाना । तवबदी चावे. पांचो बाना ॥
निरफर कियो ताहि तब ज्ञाना । सुरति शब्द र रहे निदाना ॥
विवेकसागर (८१)
काम कहै यह नीक्रि सुन्दरी । कै ज्ञान यह विषं की दृहरी ॥
काम करै याके डिम जाई । ज्ञान कहै यह सांपिन अदई ॥
काम कटै कामिनि सम तूला । ज्ञान कै यह विष कर रखा ॥
कामासक्त ॒कदष्िसन राता । ज्ञानसक्ति करि बोरे माता ॥
यह सुनि बहुत अजबभौ कामा । सद्यो ज्ञान हमरो संग्रामा ॥
साखी-रच्यो कामछंद अ्नंगरती; अविधि मद भियासंग ॥
कहै कबीर यह अति बटे, जब बँ काम रतिरंग ॥
चौपाई
शब्द विचरे बोटे ज्ञाना । जीत्यो तोहि विवेककी आना ॥
तबही विचार ज्ञान सो कीया बका मेदं सवै सो लीया॥
ज्ञानं विचार उठे गल गाजी । काम निख्न नं काहे आजी ॥
धिगतिया पिगधिगअस राजा ) निरधिनङ्धिरममांस को साजा ॥
हाड त्वचा मुख रोम पसारा । नव दवार बंहै अति खारा ॥
रेट नाकं मख कफ लारा । कीचड आंखिन काने छरा ॥
नख शिख व्यापि सवे विस्तारा । विष्ठा मूर तिया तन भारा ॥
वाहि रचिं सो पव इक्छू । सपने नहिं तेहि होये सुक्खु ॥
दुख की राशि जो राजी कोई । साचो नके आहि पुनि सोई ॥
यह करि ज्ञान रहा ठहराई। काम सेन डरे विचलाईं॥
विचल्यो काम गयो खिसियाई । उर ज्ञानते कडु न बसाहं ॥
साखी-प्रेम भक्ति बल ज्ञानते, शूप र्यो रन पाय ॥
मोहि काम का करिरै, जो साहब होड सहाय ॥
चौपाई
विचल्यो काम मोह पदँ गय । सबदि वृत्तान्त सुनावन रय ॥
मनम मोह बहुत पछितायी । बोखाइ कोधको बात सुनायी ॥
आई क्रोध जब टे रदेड । तबदी मोह कोधसे केदेऊ ॥
(<२) विदेकसागर
तामस तेज नाम तोहि द्धा । कर् विवेक ज्ञानसो युद्धा ॥
करं अख प्रबरु तोहि को सदै । तोरे तेज ज्ञान करटं रर ॥
वृह सुनि कोध चरा सखुहाई । करी गवन पहचा रन आई ॥
तनसे आई कियो परवशा 1 छंडो ज्ञान इमारो देशा ॥
जो तुम निश्चय जीतो कामा) तो अब मोसों करो संमामा ॥
य् सुनिज्ञान अचम्भित भय । जाई विवेकं राई सों कहेऊ ॥
राजा तब यक मं विचास्यो जेहिषिपि प्रबरुकोधको मास्यो॥
साखी-यह अति कोष प्रचण्ड रै, कोपि करे मयमत ॥
सुधि बुधि धीरज ना रै जब यह कोपि चडटेत ॥
चषा
तब राजा मंतिन सो करै । प्रचरु कोध क्यहि कारण ददै ॥
तब सबहि मिलि मंज विचारा । यह तो जाय क्षमा ते मारा ॥
बोकि विक क्षमा सो कदै। तुमतो जाई कोध रन बह ॥
भक्ति ज्ञान तेहि देह सहाई । प्रबरु कोघको मारो जाई ॥
यदहिञुनि क्षमा रोपे रन आयी । ठीन्हो शीरजो धनुष चढायी ॥
कोघ ओर क्षमा का युद्ध
देखि क्षमा कोध चङे घायी । मना भूमि रोप्यो न आयी ॥
सुनो क्षमा कोध संग्रामा । रदी दोड जक्ष संम्रासा ॥
उतते क्रोध उठे रन कोपी! इतते क्षमा रहै रण रोपी ॥
मारन कोष उटे जब धायी । इतते क्षमा दीन्ह भुषकायी ॥
क्रोध आन तब गारी दयौ । सुनि क्षमा अन बोली मयी ॥
मीठे वचन क्षमा अति बोले । कोपे कोध पवन ज्यों डो ॥
क्षमा से अग्नि शितर ह जाई । जेते जलम अभि बञ्ञाई ॥
यहिषिषि कोष क्षमा सो भिरईं । मानह अंगार पानिमर् परई ॥
साखी-मलो भरो सब कोह करै, रहि गह क्षमा दुहाई ॥
कटै कवीर शीतर भये, गयी सो अग्नि बुञ्ञाई ॥
विवेकद्ागर ( ८३ )
चौयाई
कोथ जरनते गय बुञ्चायी । राजा मोह समाचार तव वायी॥
बहुते मन मर्ह कीन्ह पलिताईं । सकल सैन को लिये इुखाई ॥
हास्यो क्रोध काम जब जाना ) मह्य मोह राजा डर माना ॥
चफित मोह मन्थी ईकरावा । खम्युख मोह विवेके डवा ॥
लोभ मन्बी आय भये उाढा । देखत राव छोभ अति बाडा ॥
तब रोम मोदहि माथ नाई । कहू राजा मोहि काह उखाई ॥
जबटगि अहै मोह रणधीरा । तब कग काह दौड अधीरं ॥
जबटग प्रबल मोहं है अमे ! तब छग कदां ज्ञान कड जाभे॥
महा मोह राजा सुच वेना । जबरमिदौ तबलमि सब सैना ॥
जबलगिहौं तब गि आदी । मोरे गये सवे गिरि जादी ॥
हो निज सर्वं पापका भूखा । मोरे ते तुम रहत रहौ फला ॥
जीतोँ ज्ञान विवेक हि जायी । देश आपनो छेड ंडायी ॥
तोक फिर मे देहौ रानु । महामोह मोरे बरु गानु ॥
यह् सुनि इष मोह मन भयऊ। तत्क्षण लोभको आयद्च दयं ॥
मोह कहै देहौ सब रान् । तवदीं छोभ रणे महं गा ॥
जबदही मोह लोभदि कदे । देहं बीरा आयस दयॐ ॥
बाचा बन्ध राजा जब भयऊ । तवबदही लोम रण कहं गय ॥
जाई रण दियो लोभ हकारा । ज्ञान तुम का करहु तकरारा ॥
हम बन्दोबस्त कियो परषेशा । ओेडड ज्ञान इमारो देशा ॥
तजह ज्ञान तुम हमरो ठऊ । में भरचण्ड रोभ मोर नाॐं ॥
अब म रनमहं अभि परजारौँ। करि बल एक एक के मारौ ॥
चिन्ता शक्ति पापको मूला । कोड न जाने मम डर -भूला ॥
आशा तरष्णा तहां अति बहे । खनत ज्ञान तहां. नदिं रहै ॥
नरि जानो तम कोधओ कामा। हं अतिप्रबरुरोम् मोहि नामा॥
( <) विवेकसागर
छांडह ज्ञान दमारो ठञं । नहिं तो तोहि धरि धरि खाऊ ॥
यर सुनि ज्ञान मन्ब यक ठयउ फिर विवेकं राजा पहं गय ॥
राजा मन्ब करो उहराई। रखोभन मोपे जीतो जायी ॥
जो तुम कोभ जीतो आज् । तौ तुम करो निकेटकं राज् ॥
तब बोरे मन्वी प्रकाशा । यहि बिधि होरईरोभको नाशा ॥
राजा मन् कियो मन चारी । पुर तुम्हारो जीते यादी ॥
सो सन्तोष कुवरकर नामा। सो निश्चय जीते संयामा॥
तब राजा बोरे सन्तोखा । रोभे जीतौ श्रि सब धोखा ॥
भक्ति ज्ञान तोहि देहं सहाई ! प्रर रोम क जीतहु जाई ॥
लोभ ओर सन्तोषका युद्ध
इत भो लोभ उत भो सन्तोषा। मनसा भूमि उठो रन रोषा ॥
लाक्च बाण लोभ संचारा । क्षमा बाण सन्तोष तेहि सारा ॥
लोभ चरे धनुष कर्द खेची । सन्तोष टीन्ह् सुमिरनकी एेची॥
चिता शक्ति लोभ पठायी । ज्ञान क्षक्तिसो निष्फरु जायी ॥
अतिदख्फांसीरोम् कर लयउ उग्र ज्ञान सन्तोष भिरे ॥
परम सन्ताप रोम कर ख्य सोदया खड ते निष्फगय ॐ ॥
अचेत शक्ति लोभ चलाई । जागृत शक्ति सन्तोष पटहं ॥
रोभ करै पे त॒म रहिये । सन्तोष करै कच्छ नरि -चदिये ॥
लोभ कदे नीको दै ङूपा । सन्तोष कै छाडि गय भूषा ॥
लोभ कहे रेव कंचन मोरा । सन्तोष कंदे जीवन रै थोरा ॥
लोभ कड घोड। जोड! नीका । सन्तोष कटै कारज नदिं जीका ॥
लोम कहै हीरा ल्यो खाद् । सन्तोष कदे संग नदीं चाद ॥
सघांच धनुषं कर महि धय । चपल कोभ चापि दक गय ॥
उदासी शक्ति उरे उपजायी । कंप्यो लोभ भ्यो विष खायी ॥
धीरज ख्ख ग्य सन्तोखा ।बिचर्यो छोभ मिटयो सब धोखा॥
विवेकसागर (८५ )
साखी-काम कोध षिचरे, विचरे छो अकाज ॥
महामोह मनम खे, गयो इमारो राज ॥
काम कोध दोऊ गये, गये लोभ दर भाज ॥
दया क्षमा सन्तोष बलः रदै विवेक सो गाज ॥
चोपाई
मोह बुरखायि गवे सन कंटेऊ । बिचलो सबे एक तुम रहे ॥
अव मेरो तम करो सहा) मोरे सग॒ ग्वं उदि धाॐ॥
ज्ञान विवेकको मारि भगवं । जय तप साधन मारि ब छविं ॥
सोरे गर्वं मोह ते तबहीं। का बिसात विवेक की अहं ॥
मेरो हकार पिरे जेहि देशा । रहै न ज्ञान बि्वांरको लेशा ॥
बाकी सेन रहै सब जोदी । लीन्ह लाय मोह तव ओही ॥
लीन्ह सजाय सेन बहू रंगी । मोह गे चे एकसगी॥
मोह दल जब पहं चे रणमादीं । खबर भय। विवेक पहं ताहीं ॥
सज्यो सेन तब बहू सदाहं । दोय निशंक चङे रण बाई ॥
उतते मोह रण रंग मचा । इत विवेकं राजा चडि आवा ॥
साखी-दोउ दर चटि ठाढे भये, मनमें भये निचित ॥
कृहे कबीर बिचि, डरे मोह मदमन्द ॥
चोपाई
देख्यो गवं मोह सकाना । करी कोष बाण संधाना॥
बह बडाई सो बोखन खाग्यो । ज्ञान विवेक करटा अब भाग्यो ॥
आवे सन्थुख मोसे सब काहू । सुनत वचन माद उत्साह ॥
वेसुध बाण गे त्र धारा । उतते चेतन बाण सम्भारा ॥
बल करि ग्वं उठे सथुदाई । तब खवास गयो ठहराई ॥
उग्रज्ञान_ राजा पई गय्ऊ । गवे गवर दढ अति भयऊ ॥
राजा मोक आयस दह् ।कौन बाणते मारौ षहू॥
न. ३ कबीर सागर - ^
(< ८६) दिवेकसागर
दीन त्ब बाण राजा केर र्य । हित कै उअ ज्ञान कहि दय ॥
मारस्यो ज्ञान दीन तेहि बाना । हास्यो गर्वं खग्यो विरहाना ॥
हारयो गवे राजा जब जाना । तब निज गयो अपनपौ माना ॥
साखी-गवे सये विकर होई, चरे आष रणममांहि ॥
मनदी मन पछतावईं, मोर कुशल अब नाहि ॥
चोपाई
खुन्यो मोई चर्यो गर्गाजी । जीतन विवेकं चरखा दल साजी ॥
पटुची रण अस बोले मोहा । कहां विवेकं आऊ मम सोहा ॥
महा मोह राय मम नामा सहो ज्ञान मोरो संमामा ॥
सवे उमराव गयो हरायी । अब नहिं होई तोर कुशखाई ॥
भे बाण चलाओं जबहीं । क्षणमर्द दोह नाश तुम तबदीं ॥
कहै विवेकं बड़का हाको । करो रुडाहं नाशि ताको ॥
सुनत मोह कोध तब कीन्हा । धनुष उटाय कर गहि लीन्हा ॥
ममता बाण तवहीं ताना । विचित्र बाण विवेकं संघाना ॥
आलस शक्ति मोह उपजाई । चेतन शक्ति विवेकं चराई ॥
्रमण चक्र मोह गहि डारा ! चेतन चक्र विवेकं पारा ॥
अनथं खद्ध॒ मोह ख्य । अर्थं खड्ध ते निरफल गयॐ ॥
निद्रा शक्ति मोह संचारी । जाग्रत शक्ति विवेकं तहं मारी ॥
मोहफांस माया विस्तारी । विवेकं विचार छिनक महं टारी ॥
उपजायो तब मोह अघेश । हसे. विवेकं यदै बर तेरा ॥
प्रकाश बाण विवेक चलयऊ । ततक्षन अंधकार मिटि गय ॥
सत्यबाण विवेकं संचारा । असत खवास मोह कहं मारा ॥
ज्ञान बाण विवेक जब छडा । मूर्छित मोह महारथ पाडा ॥
कृरि विवेकं मोह तज दीदी । बिचल्यो मोह दय गौ पीटी ॥
बिचल्यो मोह दशदहू दिशि गयॐ। सुपथ सकल न्द् मिरि गय ॥
विवेकसागर ( ८७)
साखी-कटहै कबीर विवेक ठ्ठ, अटल ज्ञान द गाज॥
अब् तो विमल दोगये, गये मोह इर भज ॥
सुनहर धर्मनि सत्य विचारा ! विना विवेकं नहिं उतरे पारा ॥
विना विवेक काल धर खाई । धरि धरि मारे कार कसाई ॥
काल दूत जग रिरे पिरव) मोह सेन की बृद्धि करव ॥
जेत महातम जग मह होई 1 कारु फन्द् जानह सब सोई ॥
विवेकं दही न जीव जग जेते। सुनिसुनि धाय धाय तेहिरेते॥
विना विवेकं पारख नहि पावे । इ्ुटठी आश लगी सो घवें ॥
विना विवेकन न चीन्हे सोई 1 कार दयार दौड कस होई ॥
विना विवेक कार गुण ग्वै । बार बार भौ चक्कर जवं #
सतगुरू उपदेश जब देही) कारु जार इंडावनं रही #
विवेकं सागर जो सने सनव । केरे विचार परस पदं पं ॥
निंर बुधि अटर यण गावे । सो हंसा भवजरू नहिं अविं ॥
मोह षिवेक ठडाईं भाख्यो । छुडावन मोह पक्ष नरि राख्यो।।
साखी-यह व्तिकं सागरकथा, करे श्रवण मनं राइ ॥
अद्भत ज्ञान प्रकाश तेहि. जियत मोक्ष फर पाइ ॥
कृ कबीर धर्मदाससों निमंल ज्ञान विवेकं ॥
जाहि सने खख उपजे, संशय रहै न नेक ॥ `
इति श्रीविवेकसागर समाप्त
स॒त्पनाम्
अथ हससुक्तावरी
अन्तगंत
मोह ओर वििककी कथा सटीक
-
धरमदास विनयकरि शस्पदपंकज गहे ॥
हो प्रभु दोह दयार दास चित अतिहि दहे ॥
मन् स्थिर नदिं राजत पछ प्रति संधना ॥
केसे मन थिर होय कहो जग वन्दना ॥
टीका-एकं समयके विषय जब कबीर साहब ओर गुर्
धमदास साहब दोनोदी भ्रसत्रचित्त सत्संगमे मगन ये उस
समय मनके प्रसंग पडने प्र कबीर साहबने कहा कि मनको
स्थिर कर गरुकी वाणी में रौ लगाकर पारख करनेसे सत्य
पद् को प्राति होती र।
इतने वचनको सुनकर शुरू ध्मदासजीने सतग॒रूके चरणको
पकड़कर बहुत अधीनतासे विनय किया कि, हे भगवन् ! हे
भरु ! सञ्च दासका चित्त सदाही चिन्ता से दहन इआ करता
हे । चित्त किंस लिये दहन होता है इस प्रश्न के उपस्थित होने-
पर कहते ह कि, हे प्रथु ! आपने कहा कि, मनको स्थिर कर
गुरुके शब्दम रो लगा, सो मन तो परमा भी स्थिर नहीं
होता है, यह मन जिस प्रकारसे स्थिर होकर आपके चरण-
कमम कग जावे सो सुञ्चसे किये । हे प्रभो ! आप समस्त
जगत्के पूज्य ओर वन्दनीय हो, आप के विना मेरे चित्तका.
दुःख कों भी छृडनेको समथ नहीं दहै।
विवेकसागर (८९ )
गुर धर्मदासजीके ेसे विनय पूर्वकं जिज्ञास्ताको शुनकर
सद् गुर् कबीर साहव कहने रगे कि;
खंदगरुकलीर वचन
सुनो धमंदास थह भेद बजे बनिआवह ॥
सद् कै समतृ थिते जब पाव ॥
टीका-हे धम॑दास ! यह मन स्थिर करनेकी क्ति जो तमने
पछी सो ब्रूहमनेसेदी बन आती रै, किन्त मनुष्यको इसकी
समश्च कब पडती है जब कि, एक तो सदज्जङ्भी परणरीतिते स्पघ्च
समञ्ञाने वाखा दो ओर दसरे शिष्य अधिकारी शे । समञ्नेकी
योग्यता के साथ २ शर्म सच्ची अद्धा रखनेवाल हो । रेषे
गुरू शिष्य जब एकच होवें तब शिष्यको थरता मिरूती ह ओर
मन भी शान्त होता दै ।
यहां तो दोनों सत्य कबीर जसे गर ओर धमंदासजी जेषे
शिष्य ह स कारणसे सद्ररुने सेनसे यह दिखाया कि यह
पर सब सामभरी यथास्थितिहकटटी है । इसी कारणसे सद्शर्ने
विशेषकर न कहकर मनविरोधका मागं ( राजयोग ) कहना
आरम्भ किया ।
मन राजा अति दारुण तेहि दोय अगना ॥
एक कहे प्रटति अतिहिं तेहि रंगना ॥
टीका-सद्गुरु कबीर साद कहते है हे धर्मदास! यह मन इस
शरीररूपी नगरका राजा है राजा भी एसा वैसा नदीं बहुत
दारुण अथौत् भीषम अथात् भयंकर न दै। तहां भरी अनाथदास-
डिखी हे 12. ^. ् ५ 3
(९० ) विदेकसागर
दोहा-निविकरप व्यापकं सकर, साखी सर्वं असंग ॥
सवेरूप सवते प्रे, सखबविधि जान अभग ॥
आदि पुरूष सवैज्ञ अज, पूरण पं अनन्त ॥
यरी भांति इरि नित्त है, नेति वेदं गावन्त ॥
जगण नियन्ता इश जो, सत चित सद्ा निवृत्त ॥
ताकी इच्छा मारी, बर पायो प्राकृत्त ॥
प्रकृति पुरूष संयोगते, प्रगट भयो मन भूष् ॥
संकल्प विकल्प दो उटे तेमन शक्ति अनूप ॥
मन माया विस्पृति कियो, नाम विचित्रा तासु ॥
आच्छादन कर पुर्ूषको, विसे देह विलासु ॥
सन माया बहु छर कियो, कीन्हो बहु विस्तार ॥
सुग्ति गयी निजहूपकी, परगटयो तन हकार ॥
इस प्रकारसे इस मनकी उत्पत्ति इई ।
सद्गु कहते ई हे धर्मदास ! शरी को इस भयानक राजा
मनकी दो श्िर्यौ है तिनमेसे एक प्रवृत्ति हे । जिसमें यह मन
बहुत ही राग को प्राप्त इआ दै, अर्थात् उसके साथ अत्यन्त
स्नेह करता दे ।
| प्रवृत्तिवंशवणन
महामोह तेहि सम्भव सृत अति छायका ॥
गवं अति बलवा व विजय रण रायका ॥
पमरहाकरोध अनुजै तेहि निकट अधोरता ॥
लोम संगेतहि गद आशा अधिक कटोरता ॥
तृष्णा वीर महाबछि अखिल संचारः ॥
कौ बाचि मेरी धात सो एेसो विचारई॥
विवेकसागर (९१)
जडता ताहि सखी संग मनक राचहं ॥
अहनिशि कर्त कोलछाहर उभ ना छाज ॥
टीका-मनकी प्रवृत्ति न्ी है उसके यको बतलति है इं
धर्मदास ! उस प्रवृत्तिको सबसे बडा ओर योग्यपुत्र मोह उत्पन्न
इआ है । ओौर दृषरा उनका गवे मशबलख्वान ओर अवृत्ति की
रक्षा करनेमं महा योद्धा रणबांङ्करा ३ 1 महामोहका तीक्षरा भाई
अर्थात् प्रवृत्तिका तीसरा युज काम् है ओर चौथा कोध है। ये
दोनों बहुत ही मीनता से पूणं है । मोका पांच्वाँ भाई ओर
मरवृत्तिका पांच पु लोम ह जिसके साथ आशा ओर के-
रता दो बहिन रहती ई । ओर तष्णा वीरा भी उनके साथ है,
वह महाबख्वान है सवम उसका संचार ३, वह अपने मनम देखा
गर्वं रखती है कि भुञ्चसे कोई भी बच नहीं कता । ओर जडता
भी उसी तृष्णा के साथ रहती है जो मनको अत्यन्त व्यारी ई ।
मनकी अत्यन्त प्रीति के कारण वह जडता सदा कोलहङ
कृरती रदती दै अथात् सदा दन्द्र उठाया करती है ।
यद्यपि इस अन्थ मे प्रवृत्ति की संतानके वणेन करनेमे बहुत
कुछ भूल हह र क्योकि तृष्णा जो शनी खग शब्द् है उसको पुलिग
कृरके लिखा है ओर हसभुक्तावरीके प्रसिद्ध टदीकाकार श्रीभजन-
दासजीकी टीकामे भी एेसी भ्रु पायी जाती है, तथापि यदि यह
मानल्िया जावे कि यह भूल अन्थकता ओर टीकाकारकी है सो
ठीक नदीं है, क्योकि वर्तमानं कबीरपथ के साहित्य मंडार मबहूत `
परिश्रम करनेषर भी जब एक भी अन्थ रेखक भटाचार्य्योकी
कृुपासे शुध नहीं मिता है तब भ्रन्थकार अथवा टीकाकारके
उपर दोष कदापि नदीं आ सकता । इस कारण मूर प्रबोषच-
(९२) विवेकसागर
न्द्रोदयनाटक जिसके आधारपर यह मोह ओर विवेकके युद्धकी
कथा भरचङित इई हे, उसके अनुसार प्रवृत्तिकी सन्तानका
वणेन नीचे लिखता हँ \ देखो श्रीअनाथदासजीकरृत प्रमोचचन्द्रो-
दयनारक-
दोदा-चिया युगरु मनभूपके, तिन दिग सब संपत्ति ॥
एक. नाम प्रवृत्ति दैः एक नाम निवृत्ति ॥
परथमे दर प्रवृत्तिको, वरणि करौ विस्तार ॥
तेदि पे निवृत्तिको, वरणो सब परिवार ॥
प्रथमे पु प्रबृत्तिके, भयो मोहं भयभीत ॥
दूजो सूत उत्पति भयो, कामंसकररणजीत ॥
महाङ्ूर भो वीसरो, कों नाम अतितेज ॥
चोथो अतिदारूण भयो, लोभं पापको एज ॥
द्भ पुत्र भयो पञ्चमो, छटो ग॑वं परियार ॥
सातिं मदं उत्पनि भयो, विकटवीर विकरार ॥
अष्ठम पुत्र प्रवृत्ति, नाम अर्धंमं कुरूप ॥
मुक्तिपथते चरण गदि, डारत दै भेवकूप ॥
आटे पुत्र प्रवृत्तिके, असत्य वासना धीर ॥
वर्णनकरोङटुम्ब अब, जो जाको सत तीर ॥
मोहपरिवार
महामोदकी नारिप्रिय मिथ्या दृष्टि भमान ॥
पुत्र ताप हकार दे, ममता वधू सुजान ॥
कामपरिवार
मद्ननारि रतिप्रकट है, लालच सुवन बखान ॥
लोटुषता ताकी वधू, रच नदीं परमान ॥
न~
१ प्रबोधचनद्रोय नाटक संस्कृतका वेदान्त विषयक एक म सिद्ध नाटक है ।
विवेकसागर { ९३ )
कोधपरिवार
कोष नारि ईिस। असत, ताको त अविचार ॥
भूल वधू ताकी कठिनः, पौष पब परिवार ॥
लोभवपटिवार
तृष्णा्ली रोभकी, ताको सत ई पाप ॥
चिन्ता चिय जाके चिते, करं सदा सन्ताप ॥
दञ्भपरवार
देभ नारि आशा मलिनः, ताको सत षाखण्ड ॥
वधू अविद्या ताञ्च तिय, भरमवे नौ खण्ड ॥
ग्वंयरिवार
निन्दा वनिता गवेकी, जाको अपयशं पत ॥
` अपकीरति ताकी वधू, भरकट निरंङश धत ॥
सदपरिवार
नारी मदकौ ईषणा, जके | सुवन विरोध ॥
सा परधां ताकी, वधू, मेरे उरको बोध ॥
अधमपरिवार
अश्रद्धा नारि अधम॑की, सुत असत्य बलवान ॥
विषय वध् आसक्ति पुनि, मेरे युक्ति निधान ॥
आठ पुत्र कुटुम्ब यह, कृद्यो भिन्न विस्तार ॥
सुता परिया प्रवृत्ति की, वर्णो तेहि परिवार ॥
जो अद्या भगवान की, ताते भयो अज्ञान ॥
दीनी ताहि विवादि सो, मोह इषं बलवान ॥
मिलि अज्ञान वासना, तिनते बहु संतान ॥
जेते लिखनेमो परेः तेते करौं बखान ॥
प्रथमे सुत संशय भयो, ठे विक्षेप बड़ भाव ॥
१ स्पर्धा ।
( ९४)
व्विकसागर
आलस नींद अनथं पुनि, रजतम कपट चवाव ॥
कमे असंयम ताप्य, नानारोग विशार ॥
यंच मंच नारक घने, अर् प्रपच जगजार ॥
ओर अत धृषता, व्याङ्करुता अति चाद् ॥
भुक्ति कामना कृपणता, जनमन कर उरदाय ॥
अयश ईषणा विषमता, अकृपा कुरिरुता नाम ॥
इत्यादिकं ओरे घने, कहे काम दुख घाम ॥
असत्य वासनाके मये, पुज प्रचण्ड अनेक ॥
सुता भयी पुनि जगमती, भूरी कुरकी रेकं ॥
पु वासना को बली, असत्खग आलस्य ॥
ले विक्षेप मं तिने, करि राख्यो नृप वस्य ॥
सेना बहुत मोदकी, बणन बने न सोय ॥
पलमे हरे विवेकं बरु, रहै ममता रस भोय ॥
महा कुन्यायी अति छली, च॑चरु बली कुटेव ॥
जग पोषकं दोषक सुमत, केरे मोह पद् सेव ॥
छन्ट्-खाजतसेनमदमोहमंसा, कोध दारुणभटमहा ॥
आशातृष्णा तेहि मंडारी.विभोकी काछाकहा॥
टीका-स॒द्ुरू कहते ह हे धमदास ! इस प्रकारसे प्रवृत्ति की
सेना मोद, मदं महावीर कोध से सुञ्चोभित हरदी दै । ओर
आशा, तृष्णा, भडारी है जो चाहे किंतना भी उसके भण्डासमें
आवे किन्तु कभी उसकी तृप्ति नहीं होती है। जब मन
१ बाजीगरी हाथ चालाकीका काम 1 २ बेशर्मीं निलंज्जता बे अदनी इस भ्रष्टता कं
स्थानमें एक पुस्तक में भ्रष्टता लिखा पाया गया है, यदि भ्रष्टता यहां माना जाय तो
वह ज्रष्टताका विशेषण हौ जायगा. जिसका अथे होगा अगे चलानेवाली भ्रष्टता ओर
्रष्टता प्रधान है जहां किन्तु इसकी अपेक्षा भ्रष्टता शब्द यहां अधिक उपयुक्त है इस
कारणसे श्रष्टताही लिखा हे ।
विवेकसागर ( ९५)
राजाकी प्वृत्तिका यह गटवाट तव है मनकौ अन्य विभीकी
इच्छा कर्ांसे होवे |
अथ निवृत्तिवंश वर्णन
निदत्त द्रनी अंगना जहि तिहि मन् राजा थोरो चद ॥
परतत्ति पजा गति न दना ताहि चित निशिदिन रदै॥
दीका-उस मन राजाकी दसरी ल्ली निवृत्ति है जिससे मन प्रेम
नहीं करता क्योंकि मन प्रवृत्ति नामक् ज्ञीमें देषा इन्ध रहता दै
किं दिन् रात उसके बिना मनको क्षणमाञ्च भी कल नदीं पडता ₹।
तेदि युत जनेड विवेक परम इद आयना ॥
सात्तिक अचर ठे हाथ खड् सखो शासना ॥
टीका-उस मन राजाकी निघ्त्ति नासकं च्रीमें विवेक नामका
युज उत्पन्न इआ सो विवेक निर ओर चठ आसनवाला ई
ओर उसने अपने हाथमे सतोय्णका अच्च अहण किया है ।
वस्तु विचार, क्षमा दया तेहि आता भयो।
तेरिको अवज संतोष अतिहिं आनन्द व्यो ॥
विद्या ताहि सदेटी नीति षिचारई ॥
रीर सनेद, सिखावन, पाठ सुधारं ॥
टीका-विवेक के ओौर् भी भाई बहिन उत्पन्न इए । वस्तु
विचार, क्षमा, दया, संतोष, विद्या, नीति, शी, सनेह. शिख
पन् ओर अध्ययन इत्यादि निवृत्तिकी संतान इत्यादि भ्रकट
इई । प्र च° ना° ओआअ० दा० जी कत ।
दोहा-अब रानी निवृत्तिको, वर्णो सब परिवार ॥
जाके श्रवण विचारते, मिटे ऊमति संसार ॥
सुत् विवेक प्रथमे भयो, बड़ उदार शण धाम ॥
दूजो वस्तु विचार पनि, इरे कामना काम ॥
तीजे सुत धीरज भयो, अचल वीर सुखकन्द्॥
५१.
(८९६ )
विकेकसागर
सोथो सुत संतोष पुनि, ररे सकर जग द्रन्द् ॥
पञ्चम पुचसु हे सुक्ति धाम सुख शूप ॥
छल पु पुनि शीरु रै, लक्षण सबे अनूप ॥
घम्म पुर भयो सातवों इरमण्डन अतिधीर॥
अष्टम सुत वैराग है, मेटे ताप शरीर ॥
विष्णुभक्ति कन्या भयी, लक्षण खब गम्भीर ॥
सुवन समे निरवृक्तिके, केरे मोह उर पीर ॥
ये रानी निवृत्ति के करे, आठ पुर अति शूर ॥
भक्ति सुता कुरपोषिनी, करे कुमतिको दूर ॥
अब् इनके सुत्िय बधू, बरणिकरौं तिन नाम ॥
मुक्ति पथ अवुक्ूल सब, पुनिसुख प्रति अभिराम ॥
विदेकपरिवारः
रानी रायषिवेक कीं, ब्रह्मसुविद्या नाम ॥
पु ज्ञान आनन्द् त्रिय, ता असंग सुखधाम ॥
विचारपरिवार
रानी राय विचार की, निश्चय पूरण काम ॥
पु नेम दटता बभू, भय मिटे सुखधाम ॥
धीरज की तिय रै क्षमा, दरे कोको ताप॥
पु आजव गवे हर, मुदिता बधू अलाप ॥
संतोषपरिवार
तृप्ति नारि संतोष की, जाको खत आनन्द् ॥
कर्णा बधू अनुप है, भय मेरे सुखकन्द् ॥
सत्यपरिवार
सत्यनारि निज साधुता, सुत निष्कपट उदार॥
जिज्ञासा ताकी बधू, प्यारी सब परिवार ॥
विवेकसागर ( ९७)
शीलपरिवार
शीर नारि छना सुभगः प्रख्य करे उरुक ॥
सुयश सुवनं कीरति बधू, श्चुभ मारग अबुङ्कृल ॥
धमपरिवार
श्रद्धा नारिसो घमं कौ; खत प्रकाशता नाम ॥
सुता भयौ सतबासना; वध साधता जाम ॥
त्राग्यपारबार
रानी निज वैयग्य की, उदासीनता नाम ॥
सुत अभ्यास निराशताः बध खक सुखधाय ॥
प्ररत्ति सौत सिहात सी देखत परजरी ॥
स॒बहि सनत हकार पुष वातं करी ॥
धिग य॒त ठव परषाथं तक छर ॥
सौतिन सनत बिहार मरण निन पेखडं ॥
टीका-हे धर्मदास ! इस प्रकारसे मन राजाकी दोनों क्ियोके
परिवार इए उनमेंसे म्रवृत्तिके वंशकी अत्यन्त बृद्धि होने पुर
भी वड निवृत्तिके वंशको देखकर सिहाती ह । इससे अपने संब
पु्ोंको बुखाकर कहती है कि हे पुतो ! तम्हारे पुरुषाथंको
धिद्वार है । सौतनके वंशकी बृद्धि देखकर मेरा करना जलता
है । इससे यातो तुम निवृत्तिके पु्ोको मारकर मेरेको सन्तोष
दो नहीं तो अपनी सरत्युकी राह देखो ।
महामोह सनि ग्रजेउ 5 मावल सूनिय् ॥
तुव आज्ञा हीय निपातो चितकितगूनियो ॥
विवि आदि सँहारू नेक न वांच ॥
कर निकंटक राज प्रश्न मन रचे ॥
६२८ ) विवेकसागर
छन्द्-प्रश्च राच कोड् ब वाच् कटक देखत खु डरे ॥
ह्माण्ड कंपे असिरु इंपे इद्र दशदिशा खरमरे ।
विविधञआयुघ युल्थयुत्थप सुमट जरह तर्द तरनदीं ॥
पव् पात् सम अबघात मनो एकएकन गजंहीं ॥
रीका-हे घमदास ! पवरत्तिके उपर्युक्त वचनको सुनकर मोहने
कहा कि हे माता! आप चित्तम इतनी चिन्ता क्यों करती है !
आप आज्ञा देवं तो विवेकं आदि निवृत्ति आदिके समस्त
परिवारको नाश करद । मेरे मनसे तो सदा हेसी र्गी रहती
हे कि, विवेकं आदि सबको मारकर निष्कण्टकं राज कृष ।
अब तो आपके मनम भी जब ये बात आई है ओर आपने
सुञ्ञसे पूछा रै तब मे अपनी भवर सेनाके साथ विवेकका सतं
नाश कर दगा । मेरी सेना एेसी प्ररु दै कि, जिक्षके वेजसे
ब्रह्माण्ड भी कम्पायमान रोता है । मेरे इस प्रबरुसेनाको देख करके
शकी सेना कभी धीरज नहीं धारण कर सकेगी } मेरी सेना
अखिर ब्रह्माण्डको आच्छादन करनेवाली ह । इन्द्र जो देवतं
काराजा ३ वह भी मेरी सेनाको देखकर घबरा जाता रै ॥
तरी सेनाके योद्धा रोगों ने नाना प्रकारके अघ शब् धारण
किये दै ओर एकं २ बारकी गजनाही एेसी है जिसको सुनकर
पवनके पाटे लगनेसे समान सब गिर जाते दे ।
हे धर्मदास ! इस प्रकारसे मोह अपनी शूरता ओर प्रतापका
बखान करके, माताकी आज्ञा पाकर विवेकराजासे युद्ध करनेको
रवाना इआ ॥
जननी कर शिर नाय समर रीघदि चे ॥
यत्प दम समाज कहत रिपु दलमले ॥
विकेकसाशर (९९ )
रीका-माताको नमस्कार करके दम्भक स॒माजकौ आगे कृरके
मोद राजा विवेकके सन्धुल आया । तब विवेक उसका चमक
दमकको देखकर धबराने खगा । विवेककौ घषराते देखकर
निवृत्तिकी सहेटी विद्राने निवृत्तिषे जाकर सव वर्तत कडा ।
विया जाय निदत्तिहि तना ॥
तव सोतिन यतनं अद्ज विशेधहिं आयङ ॥
टीका-विद्याने नित्तिसे कडा रि तुम्हारी सौत भृवत्तिके पुत्र
तुम्हारे पुषे विरोध करके युद्ध कृरनेको आये ह आर |
चाहत बन्धु विमातहि तुरति धातर ॥
छाडं नेक न काहू सबहिं निपातं ॥
टीका-ओर वह एेसी इच्छा रखता है कि; वुभ्डरे सब
पु्ोंका नाश करके एकको भी जीता न छोड ॥
निदत्ति निज दरतहि धमं बुछायङ ॥
ताति छत कह बह भाव बुञ्चायङ )
टीका-विद्ययाकी बातको सुनकर निवृत्तिने अपने इत द्वारा
धमे आदि सब पु्रोको बुलाकर उसने कहा कि;
बन्धु विमातिकधरि सो, रणयुत्थ आवहं ॥
समर सोहं शन उयो पराजय पावहीं ॥
युमता करि सब घ॒न्द्र मंन विचारं ॥
दुविधा अरि अज्ञान सो जनानि समार ॥
टीका-निवृत्ति अपने पुतोसे कती रै हे पुज । देखो तम्हारे
सोतेरे भाई सब तुमपर चढ़ आयेहै ओरयुदध करके तुम्हारा नाश
६९००) विवेकसागर
करना चाहते है इस कारण तुम्दं अब उचित है कि, परस्परसुमति
करके फेसा उपाय विचारो जिसमें उसने अपनी रक्षा कर सको!
दृता दण्ड विमट्चित धीरज दीजिये ॥
दया पताका सानि समर सुत कीजिये ॥
टीका-निषृत्ति कती है हे पो ! दटता ओर राग द्वेष रदि-
तता ओर धीरज द्वारा परस्पर एकमेकं टदोकर दयाहूपी पताका
को फहराते इए तुम भी युद्धके सिये परस्थान कंरो ।
-पाहे शिक्षा मयी इच्छा भमिरणसर पनि चङे ॥
आनन्द तब बजाय तब रिपु सेन चाहतं दरमे ^
मद् मोद आदि विराजता सब ध्वजा ईंषीसजावहीं ॥
निजमृखेताको दण्ड गदि ममता निदान बजावहीं ॥
टीका-इस प्रकार जब निवृत्ति अपने पुोंको आज्ञा दे चुकीं
तब विवेकं राजा अत्यन्त ट इच्छाके साथ आनन्दका धसा
बजाकर इस उत्साहके साथ सेना रेकर रणभूमिको चङे मानो
तत्कालदी शतके दलका नाश कर देंगे ।
विवेककी सेनाको एेसे गटवारसे आती देखकर मोह राजा
अपने सब भादयोके साथ ईषाकी पताका स्वरूपकी अज्ञानताका
दण्ड ओर ममताका निशान रेकर आगे बडा ॥
तब विविक निजमन्ती तुरंत हकारे ॥
कह मन्त्री टट आगम समा विचारः ॥
टीका-मोहराजाकी सेना रणम प्रस्तुत देखकर विवेक राजाने
अपने मंत्रिर्योसि संमति पषी कि; हे मिज्रवरो ! समयाव॒सषार
विचार बतलाहये जिससे मोह राजाको प्रास्त कर सके ।
विवेकसागर (१०१)
य॒मती कंदे खद परगव मतिके आगरा ॥
समर वृ्िके कीजे. जगत उजागरा ॥
प्रथमहीं दत पडाय नीति बह विधि कदो ॥
नहि माने सतभाय तबहिं आयुध गहो ॥
टीका-विवेक राजाके पृचनेषर समतिने कडा किः ह राजन् ।
आप बुद्धिमान हो विग्रह करनेमें जहोतक हो विचार कर काय्यं
कृरना चाहिये । प्रथम दूत भेजकर मोहको बहत परकारसे नीति
द्वारा सम्ाइये यदि वह मान जाय तबतो ठीक डीह ओर
नहीं तो फिर पीछे हथियार उग्कर यद करना चाहिये ॥
रील दत करं॑बोी रिश्वापन दीनेङ ॥
चस्यो तरत रिर नाय बिदा जब कौनेऊ ॥
टीका-हे घममदास ! जब सुमतिने इस प्रकारसे कहकर नीति
का मागं बताया तब विवेकं राजाने शीलको इलाकृर कडा किः
दे शीर 1 आप दूत बनकर मोहराजाके पास जाओ। ओर जो
कुछ मोद राजासे कना था वह सब _ अच्छी प्रकार शील्को
सिखाकर बिदा किया । फिर तो शीरविषेकके पाससे चर कर
मोड राजाके द्रबारमं पहुचा ॥
मोह आदि भाता ज सवा सुनायङ ॥
बन्धु विमात संदेश स बु्ञायङः ॥
टीका-शीरु दूतने मोह राजाकी सभाम जह सब भाहयों
सहित मोह राजा बेडा था पहुच उसके सौतेरे भाई विवेकका
संदेशा सुनाया ॥
बन्धव सम होय कीजे रजन उनागरा॥ `
( १०२) विवेकसागर
रीका-शीलने मोहक सभामें कदा फि, हे चतुर राजा मोह्
किख कारणसे आपने विरोध ठाना है सो किये, आपको तो
सब भाइयोके साथ भिरूकर पूणं शक्तिके साथ राज्य करना
चाहिये ! देखिये तो- ध
मन राजा तबतात् त्रिुवनपति स्वामिया ॥
शुभ अष् अश्मको कारण अन्तर्याभिया ॥
अत॒मादिक अवगामि अतज त्रिदशपति ॥
तेरिके य॒त कमति कहा कनी गति ॥
टीका-आपके पिता मनराजा जो है सो स्वगं ( सतौशुण )
मृत्युलोक ( रजोगुण ) ओर पाताल ( तमोगुण ) के राजा ई
तीनों लोकम सनका आन फिरता है । ओर् वदी मनराजा ञ्जुभ
अञ्जुम दोनोका कारणस्वूप हो अन्तंयामी बना इआ है ! ह
मोड राजा! आपके पिता आपके पीछे २सदा आपको मद्(काम)
ते रहते है ओर जहां २ आप जाते हो सदा आपके पीछे वह
भी जाते ह । ओर आपके पिताका जन्म आपके पश्ात् होकर
तेरह भुवनके राजा बनते है । एेषा समथ राजा मन उसके पु
दोकर आपने यह कुमति क्यो ढानी है ।
अनुमा दिक शब्द अनु ओर मादिक शब्दके सयोगसे बना है इसका
अथे है अनु = पीछे । मादिक = मद करनेवाला अत् पीछे जो
मद अथौत् काम करे उसे कहते है अमा दिका । यहं मन जब प्रवृत्ति-
मे लुब्ध होता है तब मोहकी प्रवरुता होती है । मोहको प्रबढता होने
पर षन् सदा उसको सहायता देता है । |
अनुगामी शब्दका अथ है पीछे चठनेवाढा, जब मन प्रवृत्तिमे लब्ध
होता ह तब सदा मोहक पीठेही पीछे दोढता रहता है अ्थौत् जहौ
मोह दृ होता है बहांही मन भीटुम्धहोता है उमसे अलग नहीं होता।
--अन्त्मगमी किये सवक अन्तर अर्थात् अन्तःकरण का जाननेवाला हौ ।
विवेकश्षागर (१०३)
अनुज कहते है (अदु = पीठे, ज = जन्धना ) पीडे जन्म छनेवा-
टेको सो यहा मन को अनुज कहनेका तात्पयं यहं है कि जरह मोह
नही हो वरहा मन भी नहीं हौता) इस शरीरमं गोह इह होनेहीसे मन
को विशेष प्रवृत्ति इसमं होती है ।
जरयोदशपति (जयोदश = तेरह, पति = राजा) तेरह जौ प्च
ज्ञानेन्द्र ओर पांच करयद्री तथा बुद्धि, वित्त, अहंकार इन तेरो का
शजा है । अथौत् जव ये दद्विर्यो विषयमे भरवृत्त होती ह तबे मनमें
उन विषयोंका राग उत्पन्न होता है । इन तेरहोंको पशात उन बिषयोमिं
मनं प्रगट होने पर भी आप सवका राजा बनं जाता हे। अर्थाद् प्रथम
इद्रि्यौ विषय को बरहण करती हँ पश्चात भन् उनके ऊषर शजं करने
ठग जाता है, इतद्रियौं सब मनकी आज्ञाकारिणी बनती है जौर मनं
उनका शासक राजा बनता ३ ।
छन्द-कुमति कीन्हो अयश दीन्हौ बन्धु चित्त
धरिब्चिये ॥ अंत गवे न रहत काट मिथ्या आङ न
कीजिये ॥ नतं मोह शज समाज युत्थष कोध दाद्ण
खर भरयो ॥ चाहत संघारन दतको निमि आज्य
अनि मे परयो
टीका-शीलने कहा है मोहरा ! एेसे प्रतापी जो आपके
पिता मन राजा है उनको भी आपने अपने इस विरोधसे अय- `
शका भागी बनाया ह । सब यदी कगे कि देखो मनराजा रसा
हो गया ह कि अपने पु्ोको भी सम्हार नदीं ठे सकता, उसके
पुत्र सब स्वतन्त बनकर परस्पर कटे मरते है । इस हेतु हे मोह-
राजा! आप कुमतिके कहनेमे न आकर बन्धु विरोधमत कीजिये)
ओर यदि इस बात को नहीं मानते है तब इस बातको स्मरण
{ १९७४) विदेकसागर
रखिये छि, गवं किषीको रहा नदीं ह इस लियि मिथ्या आशा
को छोडकर सब भाई प्रेसपूवंकं राज्य करो ।
डे घ्मदास ! शीर दूतके उपयुक्त शिक्षाप्रद वचन सुनकर
मोड राजा सहित उसके स्वे समाज ओर सेनाभरमे कठिन
कोघका आविमौव इ । सब चारों ओरसे खर २ आखं
करके शीरको इस प्रकार देखने रगे मानो उसे नाश करनादी
चाहते ह । शीख्दूतको विवेक राजाने तो समञ्चा बुञ्चाकर मोदको
युद्धसे रोकने ओर सन्धि कराने के ख्ये मेजा था, किन्तु दूतके
वचनने मोह के समाजमें उल्यादी फर प्रगट किया । जिस प्रकार
जलती इई अभिमें घत षडनेसे उसकी ज्वाख ओर भी बढती दै
उसी प्रकार मोदकी सेनाका कोध अधिक् बट गया! मोह राजाने
उसी कोघके अवेशमे शीसे कदा ।
जाय कहौ निजनाथरी. जो उबरन् चह ॥
मागे तनि पितिरज मौनत्रत गहि रहै ॥
टीका-मोहने कदा हे रीर! अपने राजा से जाकर कटो कि,
यदि वह अपना कुशल चाहता है तो चुपचाप् पिता (मन ) के
राजसे निकर कर अन्यत्र भाग जवे । अथवा यदि राज्यमें
रहनादी है तो मोन्रत धारण करके अषना कालक्षेप करे ।
मोद राजाके एेसे गतित वचन को सुनकर शीरूदूत विवेक
राजाके पास पहुंचा ।
दूत वचन् प्रति उत्तर आय सनायङ ॥
सनत विविक समाज निशान बजाय ॥
टीका-शीलने षिषेक राजाके सम्मुख आकर मोह राजाके
द्रबारमे जो जो ङछ बीता था सब सनाय दिया। जब विवेक-
विवेकसागर (१०५)
ने देखा किं मोहरजा किसी रकार नहीं मानता तव अुदके लिये
प्रस्थान करनेकी आज्ञा देदी । आज्ञा षातेही निशानदार सवष
परे निशान केकर आगे निकला ओर उसके साथ ही साथ
बाजेवारे भी रणका बाजां बजाते इर रवाने इए ॥
महा मोह काद खिपदल आय ॥
अहं डिम्भ युत्थ व्याङ्क बहुत सिधायङ् ॥
टीका-हर तो विवेक राजाकी सेनने चर्टायी की । उधर
ज्लीरु इतको कंडी २ बातोको सुनाकर मोह राजा विवेकं राजाको
भय-मीत जानकर आनन्द विलासं अचेत ह गया । इतनेन
विवेक राजाके दके निकट पहुंचने पर इतोने जाकर मोह
राजाको सषमाचार दिया किं, विवेक राजाकी सेना यड केरनेके
लिये पजग होकर आगयी है । इतके व्र मान वचनको
सुनते दी मोह राजाकी सेनाभरमें कोखहल भच गया । अहेकार
सेना ओर दम्भ दोनोंही सेनापति बहत व्याद्र होगये ओौर
अपनी सेनाको रेकर वेभी अगे बदे। डिम्भ शब्द दम्भ शब्दका
अपभ्रंश रै ॥
( मोहवश्च हो देहाभिमानमे पडे इए विषयासक्त मल॒ष्योके
इदयमें सत्संग ओर सतशाद्लोके श्रवण दारा जब विवेक प्रवेश
करने गता है उस समय इद यमे घबराहट उत्पन्न होती ३ )
चल्यो तुरत गहि शर ङखुद्धि आयुध गह्यो ॥
समर युक्त है आयो अधमत्री क्यो ॥
टीका-घवराहरमें पडा इभा मोह राजा पापमंजीके कहनेसे
स्वयम् शूक ओर इुबुद्धि शाद्लोको धारण कर युद्ध कृरनेके लिये
तैयार हो आया । राजाको स्वयं रणम जानेके खयि परस्त॒त
(९०६) विदेकसागर
देखकर सेनापतियोपे से काम सेनापति दाथ जोडकर कटने रगा ॥
कामसेन् सेनापति तेहि शिर नायऊ ॥
हे स्वामी केहि कारण निजहि सिधारहु ॥
ठीका-सेनापति कामसेन शिर नवा करके मोह राजासे कहने
र्गा कि हे स्वामी ! आप स्वयम् युद्धके लिये क्यों जाते ई †
आज्ञा करो विवेकि गदिठे आवय ॥
भ्राता सब सेनापति तुरत धावः ॥
टीका-३े राजन् ! यदि आप आज्ञा करो तो राजाको उसकै
सब भइयों ओर सेनापतियों सहित बांधकर रे आड ।
कामसेनकी युक्ति ओर उत्षादपएूवेकं व चनको सुनकर मोहराजाने
उसे युद्धम जानेकी आज्ञा दी । तब-
आयु मांगि चले तब रिपुदङ आय ॥
१८९१८ पवत् आद वचन् दनाय ॥
टीका-मोह राजासे आज्ञा मांगकर कापर विवेक राजाके दके
सन्युख आकर उपस्थित इआ । उस समय कामके हठ कोधके
मारे फरकं रहे थे । करोधके अवेशमे आकर कामने विवेक-
राजाकी ओर सम्बोधन करके बहुत आतुरतासे कहना आरम्भ
किया । रद् = दतप्ट = परदा अथात् दोतोका प्रवू हो ॥
रे विवेक तोहि कच धरि तुरत संहारि ई ॥
मोहि देखत कोन सों मू उचारि हे ॥
टीका-काम विवेकराजासे त है रे विवेक ! देख अभी तेर
बार प्कंडकर में तेरा नाश कर देता ह । देख कौन मेरे सम्मुख
शब्द् भी बोर सकतादै! में तेरा मूल नाश करता ह।
( अन्तःकरण जब शुद्ध हो जाता है तब उसी शुद्ध अन्तःकरण
विवेकसागर ( १०७)
मे किक प्रगट होता । इस कारण विवेकका मूर जु अन्तः
कृरण है जिम समय मवुष्यको काम उत्पन्न होता है उक्ष समय
अन्तःकरण मलिन वासना ओर देहाभिमानसे परणं हो जता है
तब शुद्धान्तःकरणका अभावं होकर भलिन अन्तःकरणका
प्रादुमाव होता है)॥ .
मू गही उपार डर मीसन् करत सरमरे ॥
विचार खनि बोढत विवेकहि संपुट यगकरधर ॥
टीका-काम कहता है रे विवेकं त्रु क्या मेरी बराबरी करना
चाहता है! मैंतेरे मल्क दी उखाड कर रैक ईैगा । कामके
ठेसे अदेकार युत वचनको सुनकर विचारने राजा विवेकसै
हाथ जोडकर विनय किया किं इरि
सुबु घुमतिनायक परमटायक दाख कौतुक देखिये ॥
काम कोध अभिमानिया नट चेटका सखम छेखिये ॥
टीका-हे सुमतिके मालिकं परम योग्य विवेकंराजा ¡ इन
काम् कोध ओर अमिमानादिकोको नाटक चेटकियोके समान
जानिये । इनका बरही क्या ! अञ्च दासके कोतुकको देखिये ।
इस प्रकार विनय करके ओर विवेककी आज्ञा खेकर विचार
रणम कामके सम्मुख उपस्थित इआ ॥
एक दिरि गज॑त काम विचारं तब उभय दि्ा ॥
कूम करत छ जब अत तब तरनत श्या ॥
टीका-हे घमेदास् ! अब एक ओर तो महा दुर्धषं काम गरजने
लगा ओर द्री ओर विचार अपना प्रकाश फेलने लगा ।
अब दोनोंका युद्ध दोना आरम्भ हआ । कामने जब अपना पौ-
ङ्ष कके सुनाया, तब विचारने उसको तुच्छ बताया विचारे
मुखसे तिरस्कारके वचन सुनकर काम कहने र्गा ॥
(१०८ ) विवेकसागर
र विचार मतिदीन सकल वरि भैं कियो ॥
ब्रह्मा विष्णु महेरा सबहि ताजन दियो ॥
टीका-कास कहता है रे मतिहीन विचार ! तेरी क्या विसात
है, येने सब चराचरको अपने वशम कर छिया है । ओरकी कौन
है ब्रह्मा विष्णु शिवं आदि सबको मैने ताजन दिया रै,
(मारा है ) इतनेदी नदीं मेरे बरूका परताप तु. ओर सुनखे ।
सुरपति शसि दि राते गौतम त्रिय कटी ॥
विचार जो थाके बासा मैं गरी ॥
टीका-रे विचार । सुन जिष् समय नने इद ओर चन्द्रमा
को वशम किंथा, तब उनकी बुद्धि न्ट टोगयी, विवेकं विचार
सब जाता रहा ओर मेरी आज्ञासेदी प्रम पवित्र गौतम
खनिकों पतिव्रता श्लीको रष किया। उख समयभी रैन
तुम दोनों ( विवेकं ओर विचार) को पराजयं कियां था । इतनी
ही नरीं ओरभी
व्यास पिता मीन दुहिता रतिबर प्च छियो ॥
पमन शगसन बाण शिवहि बध्यो दियो
टीका-रे विचार व्यासके पिता परमज्ञान ओर विवेकं विचार
म प्रसिद्ध जो पराशर ऋषि थे उन्दीको जब यने अपना बाण
मारा तब वहां भ् तुम्हारा कोई बश नदीं चखा, उन्दीने मछली
के पेट से निकली मत्स्यगन्धा ( मच्छादरी ) से नदी के बीच
भोग किया । ओर जब मेने अपने बाणका र्य शिवजी को
बनाया तब उन्होने कामातुर रोकर मोदिनी को पकड़ने की
इच्छा की
दोदा-कहि कहाय मनसिज दस्यो, बोल्यो वचन उदार ॥
मो सम्भुख जल्पे कहा, मेरो बर अपार ॥
विवेकसागर ( १०९) `
मो रति अति इस्तरण छखिः, जीति मोरिं जग कोन ॥
ज्ञान विवेके आहिद; ख्खत मोहिं करि गौनं ॥
पग नर्द रिकत ञुधमको, नहिं धीरज उहराय ॥
मेरी दि परतही, वैरागी नशि जाय ॥
मे मन दर्यो विरञ्चि को, निज पुत्री वश कीन।॥
शतमख द्विजजाया निरखी, भयो परम अधीन॥
है कोतो बर अग तुव, अरे सुभट कड मोहि ॥
मेटो मार विम्ब नहि, प्रख्य करत हँ तोडि ॥
पछितान्यो काप्यो इदय, डओोचत वस्त॒ विंचार।॥
हो नि्ब॑र वैराग बिन, अहै सबरू अतिघार ॥
वस्तु विचार फिरे तवै, महा समर भय मान ॥
तुरते राय विवेकं पहं, बन्धन कन्दै आन ॥
मन संकोचि दग नीच करि, कहत वचन चरपयास ॥
मेरो बरु पहुंचे नदीं, निष्फल भयी सब आस ॥
तब मन्ञी सत्षग कर, ओं इजी अभ्यास ॥
उत्तम मन्य विचार के, कहत नृपति के पास ॥
मकरध्वज युज बर अमित, बाकं बीर समरत्थ ॥
वस्तु विचार महाषरी, करे ताहि निजहत्थ ॥
दीज ताहि सदायको, भक्ति ज्ञान वराग ॥
विजय करे रण सदजदी, वस्तु विचार बडभ।ग॥
सुनि विवेकं मन सुख भयो, मान्यो मन् हिय ज॥
तीनों तुरत बुखाइके, ताके संग किय ज॒ ॥
बरु पायो पूरो हदय, चरे समर समुदाय ॥
मनसा भूमि सुहावनी, रचे युद्ध तहं जाय ॥
१ इन्द्र 1 २ गौतमकीस्त्री। ३ कामदेव ।
(१९० ) विदेकसागर
सादो सहित सहाय तब, मदन वीर बख्वान ॥
दष्ि पर्यो वैराग जब, कंद्ुक ट्ठि सङ्कुचान ॥
वस्तु विचार बोल्यो ते, महाबली रण गाज ॥
सो है करत विवेककी, कित जेदै रिपु भाज ॥
महाकोप करि बोल्यो, तबदीं सबल अनंग ॥
मो सन्षुख एतो वके. करौ क्षणकमे मग ॥
कुसुम धनुष वर हाथके, करं बाण सन्धान ॥
सकर अग् पल्मे दर, मेरो बरु अप्रमान ॥
छटे शर जो समर के, भयो युद्ध भयभीत ॥
गावत युग समाज तरह, रणरसमत्त ज॒ गौत ॥
तब् विचार वैरागसो, ब्रञ्ञत मन्ञ विचार ॥
अहो बन्धु कीजे का. बडो सकर यह मार ॥
तब वेराग विचार के, दीन्हो मतो अनुष ॥
अहौ बन्धु शोचत कदा, शोधो शुद्ध स्वह्प ॥
जग मिथ्या रज् सपवत, सत्य ब्रह्म निरधार ॥
छुद्र निय नदिं चित धरो, दरो अनेग विकर ॥
जब वेराग महा बलो, दीन्हो मतो अभग ॥
वस्तु विचार चल्यो तरै, धरि उर परम उमग ॥
रे निलन पापी कुटि, दुबुद्धी धृक तोद ॥
कहा वस्तु विचार ने, दुष पिसन जन मोह ॥
क्यो मार अतिद्प् करि, म मन मोद्यो भूष ॥
शकरको मन मोर, धरयो मोहिनी रूप ॥
त्रे पराशर दहन कियो, रावणको घर खोय ॥
शद्ग ऋषि वनम छलयो, परे रिशा वश सोय॥
जीत्यो एक कटाक्षे _जीत्यो एक कटाकषमं . पिवामि सुधीर ॥ विश्वामिन्न सुधीर ॥
3 उवजर का नातर हए थे जिससे शकतला का जन्म हुवा ।
१ विइवामित्रजी मेनकाको देखकर कामातुर हए य जिससे शकुंतला का जन्म हुवा ।
विवेकस्रागर (१११)
देवंअगना संग के, छ्ट्यो धीर शरीर ॥
वस्तु बिचार बोस्यो तबे अब जान्यो तुव भेद्॥
कहा नारि जह गवं तोदी,अस्थि मासि त्वच मेद् ॥
यह मरकी पुतली प्रगट; नख शिख भरौ विकार ॥
प्रगट निरंतर मल खवे, अष्ठ थाम नवद्वार ॥
तांसो संगति जो करै, अति मलीन सो जान ॥
शुकर विष्ठा अश्चुभ योनि, कह तिनको परमान ॥
पुनि मनसिज बोले तवे, सुनहू वस्तु बिचार ॥
क्रियो मोग नहि नारको, ब्रथा जन्म संसार ॥
बडो पदारथनारि जग, षि तियं धामन काय)
ताको घमं क्कु न सधे, जाके घर नदि बाम ॥
ताते त्रिय सो धन्य दहै, तिहि पुर देखु निहारि ॥
सावित्री आज विष्णु ठे, उमा ल्ि िषुरारि ॥
कहे विचार यद्यपि अहै, बह्मादिक डिग बाम ॥
मो सहाय तद्यपि सवै, सदा शुक्ति निःकाम ॥
सनकादिक अनि जनकसे; नरि चितवत तुव रञ ॥
व्तुत्िचार स्वकूप लह, नाशे जगत प्रपञ्च ॥
गयी खर तेहि भूल वह, रे निलन मदमत्थ ॥
हनूमान यकं क्षणक्रमो, शंकर लायो इत्थ ॥
उढ्यो मदन तब कोपिकिरि, गद्य बेगिकर चाप्॥
इषुवषां लाग करन, वणेत नारि प्रताप ॥
कञ्चन सो तन भूक मठे, रग कमलनके माय ॥
ऊचे उरज विराजदीं, को न देखि लल्चाय ॥
चन्द्र वदन तन क्षीण करि, जघ केदली समान॥
१ मेनका इन्द्रके स्वगं की अप्सरा है इस कारण इसको देवंगना लिखा ।२ ले लक्ष्मी ।
५९९२) विदेकसागर
तापर चीर सुगन्ध बहु, भूषण भूपति जान ॥
विकट इषि जबहीं केरे, सुर नर सुनि वश रोत॥
कठिन कटाक्षे जब भिदौ, तब कर ज्ञान उदोत ॥
पुनि विचार बोल्यो तवै, जदं तिय तोदि यमान ॥
नरक प्रं तेहि संगते, संगति नाशे ज्ञान ॥
सोरडा-नारी वरने रूप, दुष्ठ चित्त विष सो भरी॥
व्रणे को कवि अन्रष, चन्द्र वदन कञ्चन तनय ॥
दोदा-अहै अस्थिको पींजरा, चाम ख्पेरेजाहि॥
उप्र चादर रंगि दई, भीतर विष्ठा आहि ॥
नेगी करि जो देखिये, यह तन सन्द्र हप ॥
यामो क्कु धोखो नद, प्रकट पिशाच स्वप् ॥
पथक अग जो देखिये, धिर अभूषण गन्ध ॥
तब मलीन चर कोच, सो भरी देखिये रन्ध ॥
विषसों दिग गुणअभ्चि सो चितवनि बाण समान ॥
हित सो दिग मन मिन सो, सुख चुरेर पकवान ॥
सो नर पावन है सदा,जोन करे तिय साथ ॥
धरे पखौवा मोरके, नन्दनन्द हू माथ ॥
प्रमो चन्द्रोदय ।
बोरे वस्तु विचार मृट नहि बुह्ल ॥
अंध चट्कविदीन निपट नहि सृङ्ष
कौन पुरुषको नारीडिग उभयो र्हा ॥
आतम ब्रह्म स्वरूप सबनमं रमिर्दा ॥ `
कित अनंग कित संग विवेक ते पाये ॥
सचिदानदसवम्यापक चित्तम ध्याये ॥
विवेकसागर (११३)
भेद अमेद् दो सम ज्ञान विचार ॥
अत अवस्था नानि सोई निरवारह् ॥
टीका-कामके डींग मारनेको सुनकर वस्तु विचारने कहा रे
मूढ काम ! त्र मूर्खं है तेरेको समञ्च नदीं पडता है, त्र अन्धा है
तुञ्जको कछ सूञ्चता नदीं ह
एकदी ब्रह्म आलत्मस्वकूष होकर जब सबपें रम रहाहै तब ज्ञी
ओर पुरूष यह दो स्मि करडा ह । जब एकदी सच्चिदानन्द सब
व्यापकं हो रहा है तब कहां काम रै ओर कां रति ३ । जिसने
इस प्रकारसे निज स्वूपको विवेककी खहायतासे जानकर भदा-
भेद को नाश कर दिया है उसके स्यि तेरा अस्तित्वही नहीं
तब तेरा वश क्या । स्वद्पन्ञान ब्रा हतेदी तेरी अत अवस्था
आजाती है फिर तेरा बर उसके उपर नदीं चलता । किञ्च इषि
को धारण कृरनेसे तेरा बर नदीं चरता सो खन ।
छन्द्-निरवारि देखे छानि रेखे दुतिय नहि कोई कहा ॥
नरवत इत उत करत जहं तहं ब्रह्म सब मोरमि रहा ॥
टीका-विवेकी पुरूष ब्रह्म विचारको भाप्त करनेके लिये जब
अन्वयव्यतिरेक करके स्वात्मज्ञानको जानता है ओर अपने प्राप्न
ज्ञानकी परीक्षाके ल्य स्वं शाघ्च ओर आचार्योके मतको छानता
है तब उसे विचार ज्ञान द्वारा स्वात्म-निश्यात्मक प्राप्त होता है
जिससे वह सवं द्वी पुरूष जड चैतन्य सब ही एक बह्मकी ही
लीला देखता रै । जिस प्रकार नटको जाननेवाखा पुरूष उसके
अनेकं स्वांगोमें भी उसे नट दी जानता टै, उसे उसके स्वागोमें
दूसरा भाव कदापि नदीं होता । उसी प्रकार ब्रह्मतत्वको जानने
षा व दृष्टिमे जब द्वितीया रै दी नदीं तब तेरी स्थिति
कहां है।
५११९४) विदेकसागर
इत काम सुनिक् अघ् डरि आनिके चरण पस्यो ॥
विचार ब्रह्य उड वीय्यं मोह भय वश खरभस्यो ॥
टीका-हे धमेदासं ! वस्तु विचारक निर्मरु ब्रह्मज्ञानद्पी
ब्!णसे विधा हआ काम तेजदीन हो गया ओर अपने सवै अभि
मान ओर घमण्ड को भूलकर विचारके आगे अपना हथियार
डारुकर उसके आधीन दोगया । उसके आधीन होतेदी उष्की
ल्ली रति आदि सब आकर विवेकरायके आगे माथा नवाकर
अपने सब पराक्रम छोडकर आधीन होगयी ।
( जिस समय मन कामातुर होता है उसी समय ब्रह्मविचार
द्वारा इसे मारनेसे वीर्यका षर जिसके बलसे काम अपना ष्रा-
कम दिखाता है एकदम शान्त हो जाता है! )
कामको मरते देख मोह राजाके दरम खरूबटी मच गयी
स्वयम् मोह भी भयभीत इआ तब-
कोध मोह सुनि तुरतदी निजबह भावेडः ॥
मोषन करि संग्राम कवन् पत राखेङ ॥
विचार विवेक सहित सव सेन संघारि हौं ॥
क्रों निकंटराज वचन प्रतिषारि हीं ॥
टीका-हे घमदास ! काम सेनाके मरनेका समाचार ओर उसके
मरनेसे राजाके भयभीत होनेकी खर जब क्रोधको पटुची तब
वंह उकी समय रणके ल्यि तेयार होकर मोहराजाके निकट
जाकर कहने खगा हे राजन् ! क्या आप जानते नदीं है कि, अुञ्चसे
संग्राम करके किसीकी पत ब ची नदीं हे। मे तो सबको जोतने-
वाला आपकी सेवाके लिय तेयार ईह तब आप एकं काम
१ मरन। गौर शत्रुके अधीन होना इन दोनो बातोमेसे आधीन हो जाना मान अपमान
पचक होने से मृत्युस भी अधिक है इस कारण “मरते.देख'” लिखा है ।
विवेकसःगर ६११५)
के मरने से देसी चितामे क्यों इषे इए है । देखिये प्रतिज्ञा करके
कहता हँ कि, अभी संव्राभमें जाकर विचार विवेक सहित उसकी
समस्त सेनाका नाश करके आपका राज्य निष्कंटकं बना ईूगा ।
आप किसी प्रकारढी भी वितान कर) इस प्रकार अपनी बड्ाहं
आपही करके रणभूभिनरे जाकर उपस्थित इअ ।
दोहा-मोह भूष यह सुनतदहि, दोगया ब्याङ्कुलू अंम् ॥
बूयये मन्िन से यहै, जूञ्चे बन्धु अनंग ॥'
बड़ो सुभट मोसे नमो; इतो सहस कन्दपं ॥
मो जीवत सो इत गयो, इस्तर कठिन जो सपे ॥
महामोहको वचन सुनि, योह उञ्चौ गण गजि #
मेरे बन्धुहि मारिके. किंत जह रण भाजि ॥
मेटौं मारि विवेकमन, ज्ञाने देहं बहायं ॥
डी सत्य संतोष सब, चितवतं जाहि षराय ॥
हौं जब प्रगयो तेज हि, संग पुत्र मस चार ॥
व्याकुल करि वैराग्यको, हरौ भक्ति परिवार ॥
असत्सग मन्ञी कहै, हे प्रथु बडभट कोध॥
आयुसं जाको दीजिये, विजय करे रण बोध ॥
हरष्यो मोह नरेश तब, सुन्यो कोध बर श्युर ॥
आज्ञा तत्र रणको दह, करौ रिपुहि चकञ्चर ॥
चल्यो कोध वेदन कियो, प्रु आज्ञा धरि माथ॥
आइ गयो रणभूभिभे, दल्बक लीन्हं साथ ॥
टीका-कोधका रणमे आगमन सुनकर विवेकं राजाने भी
विचार करके अपना योद्धा मेजा ॥
तब विवेक क्षमा कं आयर दीन्दिया ॥
प॒मट दोङ संग्राम समागम कीन्हिया ॥
५९९६) विदेकसागर
टीका-विवेक राजाने मंभियोसे विचार करके कोके सन्मुख
क्षमाको संापके खयि भेजा । अब दोनों ओरकी सेनाके बीचमें
एक ओरसे सहा विकार कोध ओर दसरी ओरसे मदाकोम-
रागी परमशान्त क्षमाका युद्ध आरंभ इआ ॥
दोदा-नुप विवेक विस्मित भयो,खुनतदि कोध प्रभाव ॥
बूड्यो मंजिनसे यै, कजे कौन उपाय ॥
दियो मन्ञ सत्संग वर, धीरज अच् सवीर ॥
क्षमा नारे सन भावती, पुत्र आयव घौर ॥
धीरज ङ क्षमा पठायो, ज्ञान भक्तितासंग॥
तेज कोधको सदजही, क्षमा करे तन संग ॥
धौरज क्षमा विदा कियो, पुत्र आय्यव जान ॥
दीन्हं सकल सहायको, विमल भक्ति अर् ज्ञान॥
धीरज धरि धीरज चल्यो, गयो आप रणभूमि ॥
जहां क्रोध गजेत रद्यो, नयन अद ञ्जुमि॥
भिदि दष्िषे दृष्टि जब, भयो कोध रिस अग॥
ग्रज्यो सन्युख जायके, मारि करौं बर भंग॥
क्षमाको सन्मुख लडनेके ल्य आया देखकर कोध गरज
कर कहने लगा । ह
कोध के सुबु भीता मोहिं न जानकी ॥
कम्पित हे त्रिरोक मरण निज ठनश्ची ॥
टीका-कोधने कहा हे डरपोक क्षमा ! क्या तरू ञ्चे नदीं
जानती रै कि, मेरे भयसे तीनों रोक कम्पायमान हो रदे दै एेसा
जानकरके भीतू मरनेक स्यि सामने क्यों आयी हे ॥
क्रोध सैघारेउ छितिपति राज जित कित कियो ॥
कोधविवश सुर्छोक दैतन जहरहि दियो ॥
विवेकक्चागर (११७)
क्रोध कटुक अतिदाहणको आड तोही ॥
तेदिको होत संधार मम दरेशा पर जोही ॥ ८
टीका-करोध कहता दहै कि, इमने असंख्य राजा
नाश करके उनका राज तितर वितर कर दिया दै। इमारेदी
कर्तन्यसे देवोन राक्षसोको विष पिलादिया था। हमारी सेना देसी
ग्रख्यहे किजो इसकेसन्युख आता है उसका एेसानाश हो जाता ह
किं कीं पता भी नहीं ख्गता। मख शेपषी बिकट सेनाके समश्च तर
क्या वस्तु है ओर तेरा रक्चककौन है कि तु मेरे सम््ुख आयी हे
दोहा-कहा बापुरी भक्तिदै, कहा बाषएरो ज्ञान ॥
कहा बापुरी क्षमातु, कहा तोहि यमान ॥
कहा नृपति तुव रंक है कडा धमं सन्तोषं ॥
सम्मुख मेरे ना र्कि, जब चितवो भरि रोष ॥
इस प्रकार कहकर फिर कोष कहने र्गा ॥_
माता पिशाची कुजन बन्धु करनकी सामानते ॥
शुरु कौन बाएरा वदन देख मोहि स बडज्ञानते ॥
निजनारिको अपमान करि इषटी सो छोकसमाजहै॥
क्षण सुरति ते तेहि कारिके तब करूं रज विराज है॥
टीका-हे क्षमा ! मेरे पिता राजा मनने अपनी खरी निवृत्तिका
अपमान करके उसको लोँडीसे भी नीच गतिको पड्ंचा दिया ₹ै,
जिससे समाजमे वह पिशाचनीके ४ समानदी आदरको पाती है ।
ओर तेरे भाईं जो विवेक आदि हैयेतोमहादुष्रैओरतूतो
तेजहीन साक्षात् व्णैसंकर समान देख पडती रै। हौतेरेको
मेरे सम्युख आनेकी शिक्षा देनेवाला गुरू कौनवबापुरा है । क्या वह
पुञ्चसे अधिक ज्ञानी है! अब देख क्षणमा्चरर ष्ठि डालतेहदी तेरे
सब प्रिवारका नाशकरके निवृत्तिका नामही मिटा देता हुं ॥
न. २ कबीर सागर - ६
(९९८ ) विवेकसागर
दोहा-तंबे भक्तिको बोकि दिग, करै क्षमा सुसकाय ॥
वचन कोघ कै सुनतर्हि, तुरति देव बहाय ॥
कोपि कोष सोल्यो तबे, धिग धिग है तुवं मात्॥
नाम निवृत्ति जासु तुव, प्रगट भयो कुरू घात ॥
तब क्षमा निज पियतन, चित दशि पसार ॥
कोपि वचनं सुनि करिक्षमा, सिये शब्द् विचार ॥
क्यो कोघ अतिरिस भर, रे धीरज मतिहीन ॥
कडा प्रातहि आई तुम, अश्म रि हि दीन ॥
लियो ज्ञानको बोलिके, क्षमा आपने तीर ॥
कहत वचन ओर कंच, भेटि कोधकीं पीर ॥
कहत वचन अति रिस मर्यो) रक्त वणे कृर नयन
तन षर स्वेद कंपित अधर, भुखते कट॒तर वयन
प्रकर भई ईसा तबे, कोध नारि विकरार॥
अब सबको धीरज गयो, प्रगट भयी ज्यों काज॥
बोरी हिसा रिसभरि, स्यि खल विषरीति ॥
कोपि क्षमा मारण चली, लिये खद् अषकीति ॥
शतमुख निजगुर् मारयो, शथु सतीको तात ॥
कटुको मोरे जियतते, निकसि बारे जात ॥
सुर नरयुनि व्याकुर किये, ताहि सके कहि कौन॥
लगी समापि युगाधि भर, ताहि छडावत मौन ॥
क्षमा कहे भृगु लात जब, इनी विष्णुके दीय ॥
क्षमा किये प्रभुता भयी, सुर नर भुनिके जीय ॥
क्षमा नाम यह भरूमिको,खुहत सकट अपराध ॥
रे सबके अपराध शिर, जेहि वन्दे सुर साध ॥
न ~ र< सङ्घ द३ च्नका शिर
१ इन्द्र । २ इन्द्रको ब्रह्यज्ञानकं उपदेश दनवालं दध्यङ्खऋषि थे । इन्द्रनं इनका शिर
काट लिया था उपनिषदों इसकी कथा प्रसिद्ध है आत्मपुराणमं विस्तार सं है ।
विवेकसागर (११९)
बहुरि क्रोध बोल्यो तहा, धरे भार बहु भमि॥
मोर भार सदसक, जाय प्रतार ञ्जुमि॥
को मोरी तेजे सहेः कडा बडो अस्र बीर ॥
ह्या विष्णु मदैशडह्, सो उर धरत नं धीर ॥
कहे क्षमा पुनि भक्ति सो, इम सब विधि छष्चु आहि ॥
केव सम्पति यह कोधकी, क्यों पटतरि है ताहि ॥
क्रोध सुमट बोल्यो तवै. कहत वचन यह क्रूर ॥
मेटो मार विरम्ब नही, दया धमे बड श्र ॥
जेसे कोऊ यूत्न करी संग्रि कीन्हो वित्त ॥
तस्कर परमे ठक्गयो, शोकं अश्रि जर चित्त ॥
धा पिपासा नीद पुनि, सिन्धु तरहि ज्यौ यार ॥
गोपद ठे बोलो तिन्ह, रेसेही वरियार॥
जने क्षमा सब सहि रहि, गहि रहि भगवत आस ॥
हदय _समज्ञ बौलत भयी, इम तो ह तुव दास ॥
यों कहत तुरत क्षमा कदे पौष बोकेड ॥
कुशल कुराछ कहि फिर उत्तर खोकेड ॥
दीका-हे धर्मदास ! जिस समय कोधने महा कट् ओर इदयं
शू उत्पन्न करनेवारे महानिन्य वचन ककर क्षमा समस्त परि-
वारको गारी दियो उस समय भी क्षमा शान्तिसे कहने र्गी ह कोध।
आपने जो कुछ कहा बहुत अच्छा कहा वाह ! वाह! ठेसेही चाहिये।
इस प्रकार बार बार उसकी स्तुति करती इहं क्षमाने कहा आपने
जो कुछ अपना पुर्षार्थं ओर बर वर्णन किया सब ठीक रै। इसमें
क्या सेदेद आप् बहत बड ह । इस प्रकारसे क्षमाके कहनेपर कोधने
उसकी बातोको कटाक्ष समञ्चकर ओौर भी अपनी शक्ति अधिक
प्रकाशित की । ओर
(९२७) विवेकसागर
कन्हेसि चरण प्रहार सो अति विहसत भयो
तो कुछ मम अपराध स्वामी अब गयो ॥
टीका-कोधने क्षमापर अपने खातसे प्रहार किया । उधर कोधने
खात मारा इधर उसके बदरे क्षमाने रंसकर हे भाई ! दे माछिक
अब मेराजो कुछ अपराधपथा सो सब छट गया । किन्तु
मम हिय अतिहि कठोर चरण सहुरे _ अहे ॥
रासन उचित सो कीजिये अबुजे निवहे ॥
टीका-मेरा द्य अत्यन्त कडोर ओर आपका चरण अत्यन्त
कोम है इससे आपको चोट गी होगी सो क्षमा करना, हे भाई!
मै आपसे छोर) हूं आप परे जो उचित शासन समष्चिये सो कीजिये
मेरा निवोह सब प्रकार हो सकता है ॥
दोडा-यदहि सुनि ञ्चख लागे बकन, कोध बहुत दुख पात ॥
दास कहत हियसो मनर्ह, लगे चरनको घात ॥
धम तपस्या दया धन, पुनि संयम अश् नेम ॥
ज्ञान भक्ति वेराग बल, तजत शीरुरो भेम ॥
मेरे तेज प्रतापते, ये सब जाहि पराय ॥
धीरजहू धीरज तजे, मेरो दशन पाय ॥
क्षमा कहे तुमहो बड, शुन बडे तुम मा ॥
जो कु कहो सो सत्य है, यामे संशय नारिं ॥
कृपा करी मोपर बडी, मे मान्यो बड भागि ॥
क्षमा दीनदहवि कोके, तुरते पायन लागि ॥
क्षमाकी रेसी अधीनताको देखकर कोधका तेज इत हो गया ।
विवेकसागर (१२१)
यह सुनि कोध शीतटगत अति ऊुठित मयो॥
हारयो कर अतिदाप स्वे जडता गयौ ॥
टीका-क्षभाकी अभृत समान अधीनताकी बाणीको सुनकर
कोधका सब तेज जाता रहा, अब वड शांत ओर ऊदित् होकर
आगे युद्ध करनेसे ङ्क गया आओौर अवने इथियार डा दिये ।
दोहा-कियो अनादर क्षमाको, शीतर भयो न रोष ॥
तबे क्षमा पायन परी, सवे हमारो दोष ॥
तुम विन दूजो को अहै, परम सीखकी बात ॥
से चकं मोसे परी, क्षमा कीजिये तात ॥
गये कोधके प्राण तब ङीतल भयो शरीर ॥
जीति क्षमा परिय दिग गयी, मिरी तनक पीर ॥
जसे चण्डी मरेड, महिषासुर विशार ॥
तेसे क्षमा विनाशे, कोधहि दिये शार ॥
क्रोधके मरतेदी इतोने मोहराजाको जाकर अपने पराजयका
समाचार सुनाया ।
काम कोध सुमटे युग पराजय पायऊ ॥
महा मोह अति संकेङ दाक्च उलायङः ॥
टीका-काम ओर कोध दोनों महावीरकी जब पराजय दोगयी
तब् मोह राजा अति भयभीत होकर अपने सवे सेनाको बुखाकर
एकदमसेदही विवेककी सेनासे युद्ध करनेको रणम आया । तब-
तब विवेक निनद कर आयघ दीन्हेङ ॥
निज निज जोरी जान निपातन कीन्देडः ॥
( १२२) विवेकसागर
टीका-जब् सोहराजाने एकदमसे अपनी समग्र सेना सहित
विवेककी सेना पर चटायी की, तब इधरसे विवेकं राजाने भी
अपनी समभर सेनाको श््ुसे युद्ध करनेको आज्ञा देदी । अब
क्या था, घमासान युद्ध आरंभ इआ । अपने २ जोडके योद्धा-
ओको दढ २ कर सब परस्पर युद्धं करने रगे । तहा -
बुद्धि बुबुदधि्दिं मास्यो धमं अधर्मता ॥
तृष्णा हतेउ संतोष सो कम अकर्ममता ॥
चचल तेहि थिर मारेउ पुण्य जो कुकमा ॥
दुविधहि एकता घातेउ ठिपट शुष््मश्रमा ॥
टीका-बुद्धिने कुबुद्धिको मारा, धमन अधममंको ताया, त॒ष्णाकरो
सतोषने उजारा ओर कर्मने अकर्मका नाश अरा । स्थिरतने
चैचर्ताको लुप्त किया तो पुण्यने पापको गप्र किया । देतभाव-
को अद्ेतने तो सहजम ही नाश कर दिया । इसी प्रकारसे मोह
राजाको समस्त सेनाका सव्यानाश रोगय् ॥
छन्द्-श्रम ही नमाच्योरिपु्मेहाय्योमोह हैहभी बाजई॥
प्रखत्ति पुत्र पौत्र सवगत अम्बिका युनि छाज ॥
टीका-हे घमेद्।स ! विवेकराजा तो इस व्रकारसे श्चको
नाश करके निश्चित दोकर बेठे, आनन्दद्पी दुन्दुभी बजने लगी
किन्तु जब प्रवृत्तिने अषने वशका नाश सुना तब अत्यन्त
लजित होकर पश्चाताप करने लगी फिर-
आदि आरा सखी मिलि प्रडत्ति आगे आयङ ॥
मन राजा पत्नी सनत क्षय रोक विपति षिरगेड॥
टीका-हे धर्मदास ! प्रबृत्तिके सर्वं पुत्र पौ कट्चका नाश
दोगया तब्र वह अत्यन्त शोक ओर पश्च ताप करतौ इई आदि
विबेकसागर ( १२३)
आशाको साथ ठेकर मनराजा के समीप पहंची (आदि आशा
प्रृत्तिकी सखी है क्यों कि, जब यह जीत अयने स्वङ्यकी
आदि अवस्थाका वर्णन श्म खनता है तब उस आदि
सुखकी प्रात्ति के लिये प्रवृत्तिमें कँंसता है यद्यपि आदि
आशा प्रथम उत्पन्न होती है तथापि पवत्ति अधिकं बख्वती
होनेके कारणसे उससे प्रधान होजाती है )
इस प्रकार प्रवृत्ति जब मनके निकट गयी तब मनराजा
अपनी प्यारी शची प्रवृत्तिके परिवारको नाशको सुनकर अत्यन्त
कृष्ठ॒ ओर शोक तथा विपत्तिको भरात्त इआ । वश्चात् उच
विराग आया ॥
( जब जीव किसी पदार्थं को अत्यन्त स्नेह पर्वैकं अहण
करता है तब अपने स्वषशूपको भूलकर उसी पदा्थमें तदाकार हो
जाता है किन्तु जब उस पदार्थसे वियोग होजाता ३, अथवा
उसभ किसी प्रकारसे कुक शानि. रोती है तब उसके चित्त को
बहुत कष्ठ, अनुताप ओर दुःख-दोता है, फिर थोडी दैरमेही
चित्तम स्थिरता आनेसे चित्तको शान्ति आजाती है ओर उससे
विरागो जाता है) ॥ जक मन राजा परवृत्ति से पकता है ॥
हे बाख अ ८५ सिधायङ ॥
यृहाय तुवं खत सतत किहि विधि मारेड॥
टीका-हे मेरी श्री प्रवृत्ति ! तू इस समय कहँ आयी है । तेरे
परम सुन्द्र पोको किसने किस भ्रकारसे मारा ॥
उधर तो प्रवृत्ति मनराजाके पासपर्ह ची है इधर अब निवृत्ति
ने देखा कि, अब समय आया है मनराजा को अपने वश
करना चाहिये इसलिये उसने अपने सखियोको सिखाकर
मनराजाके पास भेजा ॥
५९२४) विवेकसागर
निटत्ति निज सखियन् तुरत सिखायऊ ॥
पात् समीप तुम गोनो बात बरुञ्लायञ ॥
टीका-मन राजाको विराग संयुक्त देखकर निवृत्तिने अपनी
सखियोको बुखाकर ओौर उन्दं कु गुप्त शिक्षा देकर मन
राजाके पास भेजा । तब-
विद्या विनय अधीन् सखी तरते गयी ॥
करिप्रणाम कर जोरे माच बतं मयी ॥
टीका-निवृत्तिकी आज्ञा पाकर विद्या ओौर अधीनता तीनों
सखी मन राजाके पास जाकर प्रणाम करके विनयपूवेक बोरूने
रूगीं । क्या बोख्ने लगीं किं हे प्रु-
किति उदास. सघुश्च 4७ देखिये ॥
. एक वनितासंगमोग अव दितीय छेलिये॥
टीका-निवृत्तिकी सखियोने राजा मनसे कहा हे महाराज
अब आप किप बातकी चिता कर रहं ह । अबतक एक क्लीके
साथ समागम करके आनन्द विलास प्राप्त किया ओर उषकां
परिणाम भी देख लिया अब दृषरीकी ओर दृष्टि कीजिये ओरं
उसके आनन्द विलास ओर उषके परिणामको देखिये ॥
निवृत्तिकी सखि्योके वचनको सुनकर प्रबृत्तिकी सखी आशा
(जो प्रथमसेही वदो बेटी इई थी) को अच्छा न रगा ।
नत वचन् रिष्वश मयी आशा यों कही ॥
या द्रोह दुरशचारिणी कितह् न कही ॥
सुहावति सोत समाजहि सबहिं मरावसी ॥
कहि कि पाठ कुपाठ विवेकं पठावसौ ॥
ठीका-विद्याकी बातको सुनकर कोधित हई आशा कहने
विवेकसागर ( १२५ )
ठकगी-ढहे विद्रोहिणी ! दराचारिणी विद्या] त्र कहीं भी कती नहीं
३ । भ्बत्ति जो सौत निदृत्ति है उसके समाजमे सदा वास करके
उसके पु विवेकको पाठ कुपाठ अथात् सत्य च्जूकी बात क
कहकर उसे बहकाती है ओौर प्वृत्तिके वका नाश भी वृनेदही
कराया है ।
जो वादित सा कीनौ अब कितं मावसी ॥
जरे पर तें माहुर भटे छगावसी ॥
टीका-हे विद्या । जो तरे मनम था सो तूने कर जिया अब्
क्या करना चाहती है कि जचरेपर जहर ङगाने आयी है
आशाकी एेसी दष्ट वाणीको खनक्र विद्ययाने उसकी उचेश्चा की
ओर मनराजासे कहने र्गी । र {
स्वामी चित धीरज धरि नीति विचारिये ॥
उभय नारि प्रतिपाछक कितहिं विरिये ॥
टीका-विद्याने कहा हे महाराज मन ! आप नीतिषुर्वकं विचार
करके देखिये आप अपृनी दोनों ल्ियोके पान पोषण कर
नेवारे ह । सो आप इस ध्मको करा भूर गये ई । आप अबतक
भवृत्तिमे सम्पूणं लिप्त होरे ह ओर निवृत्तिको एकदमथुला दिया
है उसकी ओर भी दि उठाकर देखिये। इस प्रकारसे मनराजासे
कहकर विद्या आशाकौ ओर फिरी ओर उसको डांग-
माग् माग दूती मामिनी नित्य श चह ॥
प्रदत्ति है भारी देह अनह गहे ॥
न (4 - १५६ । ५५ ¡ यासे ५
यहांसे भाग जा। › मनराजाके साथ
ङ्प होकर साक्षात् इतने बडे स्वहूपसे विराज रही है तथापि
उसको फिरसे ओर भी बडा बनानेके लिये चिता कर रही है।
( १२६ ) विवेकसागर
यरा भाग, भाग दोबार करनेसे आशय यह है किं निवृत्ति
परायण पुर््षोको रोकिक पाररोकिक दोनों प्रकारकी आशा
त्यागनी चाहिये ओर यदी वेराग्यका स्वदूप दै । आशाको इस
प्रकार से दतकार विद्या फिर मन राजासे कटने कगी ॥
छन्ट्-ग हि निखत्ति स्नेह कीजे सुनहु स्वामी नागरा १
य सोचहि कदा कीजे कण्ट राजन उजागरा॥
रीका-विद्याने कहा हे बुद्धिमान स्वामिन अब आप निवत्त
को हण करके उसके साथ प्रेमपूव राज्य कीजिये ॥
मन् राजा सनि षड निटत्ति संगम आयङः ॥
पति प्री आदद भारी सफर जीवन पाय ॥
टीका-विद्याके शिक्षाप्रद वचनोंको सुनकर मनराजा मनमे
बहुत प्रपन्न इआ ओर विद्याके साथी निवृत्तिके समीप गया
डे धमंदास । उस समय निवृत्तिके आनन्दका क्या पारदो!
निवृत्ति अपने पतिको अपने उपर कृपा करनेके लिये निकट
प्राप्त इआ देखकर अपनी जीवनकी साफलट्यताको पराप्त जानकर
पतिके चरणपर पड़ गयी ॥
अब दोनो आनन्दपूवैक आनन्द विलासमें मग्र इए ॥
इस् प्रकारसे हे धर्मदास! जब यह मन प्रवृत्तिसे अरग होकर
निवृत्तिको प्राप्त दोकर गुश्युखद्वारा सच्चे पारख पदको प्राप्त
हाता है तब मन स्थिर होकर सुखकी प्राप्ति होती है
` इति श्रीहसठक्तावटी अन्तैगत मोह ओर विवेकका युद्ध कवीरपथी भारत-
पथिकक्तटीका सहित समाप्त
इति विवेकस्षागर समाप्त
उमया
सत्यघरक्ृत, आदिअदी, अजर अचिन्त, पुस्ष,
पनीर, कर्णामय, कबीर घरति योग् संतायन,
धनी, धर्मदास, चुरामणिनाम, अदन नाम
कुठपति नाम, प्रबोध, य॒स्बाछापीर, केवछ्नाम,
अमोठ नाम, सुरतिसखनेदी नाम, इक नाम,
पाकनाम, प्रगट नाम, धीरन नाम, उग्र
\ नाम, दयानामकी दया, वंशः
५ व्याटीप्षकी दया ।
अथ श्रीसर्वज्ञसागर पारम्भः
धमदास वचन~चौपाई
कहे धर्मदास सुनो साहं । सकर मता तुम कडा ससुञ्चाई ॥
वरनि मेद कष्मो बहमानी । सव ज्ञान तुम कदी बखानी ॥
सब को सार कहो सशुञ्ञायी । भिन्न २ मोर दे ल्खायी ॥
सावन भादो वरसे मेदा। एते शब्द् तुम कथे विदेहा ॥ `
बहुत अगम है मता तुम्हारा । कदं खगि गम्य करे संसारा ॥
नर देही क गम्य न जाने । जो कड सुने सोई अनुमाने ॥
तरको मेद कर सूरख पावे । तिव सतयुरको आन ख्वावे॥ _
जो नदीं गर्भवास मर्ह आवा । अजावन सोहं गरू कहावा ॥ _ `
९२८) सर्वल्ञसागर
साखी-बहुत भेद क्यो तुम, सुन्यो सुरति दे कान ॥
अब् कङ्क एेसो भाषिये, आदि अत बधान ॥
सतगुर वचन -चौपार्ई
तब सखतशगुङ् असवचन उचारा । सुज धमनि प्राण अधारा ॥
बहत ज्ञान सुनायो तोही । त॒म अतर जाना अब मोही ॥
कोरि अन्थ ज्ञान इम माखा ! सुनिके मेद तुम अन्तर रखा ॥
पुनि रकसार मं कहां अमानी । सो धर्मनितुव मन नर्िमानी ॥
बीजक ज्ञान में क्यो अरथाहं । सो तुमरे चित एक नहि आई ॥
चौथे मूल ज्ञान ठे आवा । स्वं लोकन को मेद बतावा ॥
चार ज्ञान म कडा समञ्चायी । तेदिमें तुम्हे परतीति न आयी॥
विदु प्रतीति काज नि होई । श्रद्धा विना जिव जाय विगोई॥
साखी--पुरूष इमसों जो कदी, सो तोहि दीन्ह दिखाय ॥
ओर धमं नहि गोदौ, सुव धमनि चित लाय ॥
घमंदास वचन- चौपाई
धमेदास विनती अनुसारी । सादिब विन्ती सनो हमारी ॥
सकर भेद गुर कटौ बुञ्ञायी । जाते संशय सब मिरि जायी ॥
आदि उत् मधि गति सोई । सवे कहौ राखो मति गोरं ॥
पटले आदि समरथ किमि होई । उत्पति प्रख्य भाषो त॒म सोई॥
तुम संदेशी आदिते आये । सवै मेद तुम इमे स॒नाये॥
चारि ज्ञान तुम भाषि सुनावा । ज्ञान चारिको अथं बतावा ॥
अब जयवाचिकमोटि सुनावड । दया करो जनि मोदि छिपावहूु॥
साखी-तुम निज सतगुरु आदि हो, दम ह वेश तुम्हार ॥
समरथ अन्त बतावहू, मिरे भर्मं कवार ॥
सतगुरुव चन-चोपाहं
तब साहिब अस वचन उचारा । सुनु धर्मनि प्राण अधारा ॥
आदि अन्त नरि कोई वासा । आपदि आप कीन्ह प्रकासा ॥
स्व्ञसागर (१२९)
साहब इते ओर नहिं कोई । शिष्यं शङ इते नहिं शई ॥
नरि तव ब्रह्मा षेद निशानी । नहीं तब शिवकी उत्यानी ॥
नरि तब विष्णुन निरंजन राया । नहिं तब अच्छरधष्ठि बनाया॥
नहि तब अतीत षुर्ष कर ताना । नर्द तब रचे लोक अड धामा।॥
नहिं सृष्टि न सिरजनशरा । न्हदिकड्क असारनर्दिकड् सारा॥
नदि नरसिग न कल्कौ नाहीं । ङ् ओर शिष्य बता कादी॥
साखी-पिण्ड ब्रह्माण्ड तब ना इता, नहीं खोक विस्तार ॥
पुरूष एक निश इता, जिनका सकल चस्।र ॥
धर्मदास वचन-चोपाई
सुबु सद्ररू विनती चित कायी । त॒म यर् खय खदा सखुखदायी ॥
ब्रह्मा देवता वेद विचारा। सो इम बृञ्च डदय नञ्चाय ॥
चारि दद भे तदै चारी । चारि धाम गुर् कहौ विचारी॥
सर्वं ज्ञान गति त॒म भाखा। क्षर अक्षर थापिंजो रखा ॥
उत्तर पुरूष सब कषु कीना । सो तौ हम जीवन सब चीन्डा॥
यही भेद विरि षिचारा। सोहं आटे योग पुकारा ॥
सोई सकर मुनिन ठहराहं । सोहं शुकदेव संसार सुनाई ॥
साखी-सोईं पुरुष त॒मदी को, हम चीन्डा जियमांहि ॥
तुम काहेको आय, सोई बतावो थाहि ॥
सतगुरु वचन-चोपाइं
तब सतगुरु बोले विर्दसाई । धमंदास बोरे ठडकाह ॥
जो कड ओर विरंचि विचारा ।सबकी गतिमति कल्यौ निरधारा॥
तेहिते ओर कहँ है भाई । यदी भेद सब जीवन पायी॥
भिवाचिक तुम पृछा मोही । नितप्रति अगम कों मेतोदी॥ _
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कहा करौ भै करत डर । ताते उत्पति कत लजार ॥
तब नहिं रोते पिण्ड ब्रह्मण्डा । तब ना दती पृथ्वी नौ खेडा ॥
तब नरि खोक द्वीप की बानी । तब नरि जीव जन्तु उत्पानी ॥
तब नहि पुरूष ओर प्रकीरती । तब नहि अक्र निरञ्जन जोती ॥
तब न्ह बह्मा विष्णु सहेशा । तब नरि गौरी गणेश ओौशेषा॥
तब नरि ज्ञान ध्यान ओ ज्ञानी) तब नरि बेद कितेवं निशानी ॥
तब नटि युर सतगुङ्की बानी । तब नहि सात सिन्धु उत्पानी।॥।
तब न्ह सुरति शब्द निमौवा । तब नरि ए दोय परभावा ॥
साखी -पांचतत्व तब ना इते, न हते आदं धाम ॥
नोद्धार तब ना इते, करटो रीन्द विश्राम ॥
धमदासवचन-चौोपारं
सतगुङ् मै बिहारी तेरी। जीवन की काटी तुम देरी ॥
द्या सिच्च दाया तुम कीन्हा । सर्वं जीव आपन करि रीन्हा।।
द्या करो जनि मोहि चिपाओ । आदि अन्त उत्पद्न सनाओ ॥
जो आपण करि जानो मोदी । सकर भेद बतावह॒तोदी ॥
साखी -धमंद् स विनती केरे, गहि कवीरको पाय ॥
साहिब तुम बीद्ुरे, शब्द वादिरे जाय ॥
सतग्रु व चन-चोपःई
सुनु धमेदास यह अकथकटानी । सुर नर शुनि काहू नहि सानी
तन मन धनसो चित्त लगावे । गुरूका अन्त कोड विरे षावे॥
युगन युगन मोहि आवत भयॐ। सत्य शब्द् म कते रहे ॥
कहा कौ कोई नरि मानें। जे समञ्च ते ञ्जगरा उानै॥
सत्ययुगका वणेन
सतयुग चारि दंस समञ्ञाये \ प्रथम राय मिसे नईं आये॥
सवलसागर (१३१)
चि्ररेला रानी कर॒ ना । तिन सुनि शब्द अवण चितलछाॐ॥
तिन शुगबन्ध चोका कीन्हा । युग बन्धी परवाना रीन्हा ॥
राजा रानी णएचत मोही। सो हकीकत कौं तरै तोद्ी ॥
अष्टचौकाको इाब्द सुनावा } राजा रानी लोक षठावा ॥
दुसरे गाय वरक्षेवके आवा । सतखुक्ृति तह नाभ धरावा ॥
तिन राजा परछा चित छायी । तव तेहि भद् क्यो सखमञ्चायी ॥
पान परवाना राजहं दीन्हा । राजा बास लोकम कीन्हा ॥
विसर राय हरचन्द कहु आये } बन्धं काटिके छक षठयि ॥
चौथे पुरी मथुरामे आयी । विकसी वालिनके समञ्चायी ॥
चारिदैस सतयुग समञ्जये) ते चारौं यर्वंश कडाये॥
चारिदिस नौ राख बचाये । शब्द भरोषे चरहिं पडाये ॥
वेता युगका वर्णेन
पुनि अता युग कौं विचारी । सात हस अतायुग तारी ॥
प्रथम ऋषीं शगी समञ्चाये । दुसरे अयोध्या मश्ुकर आये ॥
तिनसे शब्द कद्यो टकसारा । चौथे बोधे ककन मारा ॥
पचे चलि रावण लगि गय । तहां भेंट मन्दोदभ्सि भयऊ ॥
गर्वी रावण शब्द न माना । मन्दोदरी शब्द् पहचाना ॥
छ चङि वसिष्ठ कुगि आये । ब्रह्म निषूपन उनि सुनायें ॥
सतये ज॑गल्मे कियो वासा । जां मिरे ऋषी दर्वांसा ॥
सात ईस सातौ गरू कीन्हा । परमतत््व उनदी भर चीन्हा ॥
सातौ शङ् तामे भयऊ । देह उपदेश सो हंस पठथ ॥
द्रापरथ॒ग वणेन
ता गत द्वापर युग आया । सव्रह जीव् परवाना पाया ॥
प्रथमैरायचन्द विजयकरद गयऊ। ताकी रानी इन्दुमति रदेऊ ॥
(१३२) स्वज्ञसागर
दुखरे राय युधिपिर कं आये । दौपदी सदित परवाना पाये ॥
तिसरे पाराशर परह आये ! निणेय ज्ञान ताहि समञ्ञाये ॥
चौथे राय शधुधुर रहि भेदा । बहत ज्ञानको कीन्ह निखेदा ॥
पचयें पारसदास समञ्चावा । स्वी सहित परवाना पावा ॥
छटये गरूडबोध इम कीन्हा । विहग शब्द् गरूडको दीन्डा ॥
सातिं हरिदास सुपच समञ्चावा । नीमषार महँ उसको पावा ॥
अद्यं शुकदेव पहं ज्ञान पसारा ! सकर सरन मेद निरवारा ॥
नवम राजा विदुर समञ्चाया । भक्तिह्प उन दर्शन पाया ॥
दशमे राजा भोज बुञ्चाया । सत्य शब्द् पुनि उसे विह्वाया ॥
ग्यां राजा सुचङ्खन्द हि तारे । बारदं राजा चन्द्रहास उकारे ॥
तेरह चङि बृन्दावन आये । चारि गार गोपी समञ्ञाये ॥
शुर् रूप पुनि पन्थ चलाये । भौसे ईसा आनि डाये ॥
बावन लाख जो जीव उबारा । कडिथुग चौथे यँ प्र धारा ॥
कलियुग वणेन
प्रथमे गोरखदत्त समश्चाये । तारकं भेद हम त॒म बताये ॥
दुसरे शाह बर्खको बोधा । पटे आरबी बहुविधि सोधा ॥
तिरे रामानन्द पदं आये । गुप भेद हम उन्दं सुनाये ॥
चौथे पीरकी परचे दीन्हा । पचये शरण सिकन्दर लीन्हा ॥
छठे वीरषिह राजा भय । ताको इम शब्द सुनयॐ ॥
सतय कनकसिघच समञ्ञाये । सोह रानी रोकं षटाये ॥
अष्णं राव भूषारे आये । ग्यारह रानी रोकं पठाये ॥
नौ ९ पा । जाति स करत मिढाहं । |
शद अछिदास घोबी गय । सात जीव परवाना पयङ
9 राजा भोज समञ्चायी । तिन बहू भक्ति करी चितखायी ॥
बारहं खरम्मदसो कयो कुराना। हद इकुम जीव कर माना ॥
सवन्नसागर (१३३)
तेरह नानकसे क्यो उपदेशा । यत्त भेदका कहा सदेशा ॥
चौद साह दमोद्र समञ्चावा । करामात दै जीव थुक्तावा॥
चौदह दंस कठिथुगमे कीन्हा । अङ् स्वह व वरवाना दीन्हा ॥
पाचरखाख हय पिरे तरे ! पीछे धमनि तुम पश्ुधारे ॥
वशन थाप्यों कियो कडिहारा । छख ब्यालिस्च जीव उबारा ॥
साखी- तुम जानो हमद मिरे, फिर पञ्छो मोहि ॥
नाम भरोसे पहचि ईँ ज्ञान करे का होहि ॥
धर्मदा क्चन-चौयाई
धर्मदास जिव सशय मानी । जब बोरे सतशुङ् अश्च वानी ॥
दोई करजोरि चरण चित धरई । फिर फिर अक्सो विनती करई ॥
बड़ी भूल हमरे जिय आयी । समरस करके ज्ञान केडायी ॥
मेरयो धोखा साहिब मोरा । दयासिन्धु जिव बन्दी छोरा ॥
धमंदास जिय भये मीना । जेैसेकमलजिव सभ्वटदीन्डा॥
अजान जीव इम तुमह न चीन्डा। भाग बड़ मोहिं द्ञेन दीन्डा ॥
जो कुछ कहब सोहं हम मानब । वचन तुम्हार इदयं आनब।॥
साखी-धममंदास जिव डउरपे, शर्की मानी जस ॥
अब नर्िपूर्छीज्ञान भै, मोहि द्रशकी आस ॥
सतगुरखवचन-चोपाई
सुनु धर्मदास कौं भ तोसो । जो कङ्क भेद पिह मोसो ॥
प्रथसरि समरथ आप अकेला । उनके संग दोसर नहिं चेखा ॥
तब निश्चल शब्द उच्चारण भय । तेदि शब्द एक कमल नि्मयञः॥
तेहि कमलम आसन दिय । तर्ही शब्द एक कमल निर्मयउ॥
तेहि कायाको शूष अपारा । असंख पाखरीको विस्तारा ॥
( ९३४) ख्य॑ल्लसागर
तहौँ बेडि सब रचना कीन्हा । सोह शब्द अघार जो रीन्हा ॥
सुख हिरदय ते कीन्ह प्रकाशा । तदह शूप अति भयी उजासा ॥
काया ते काया निरमाये । सुख कमर हो बाहर आये ॥
ङ्प सुरतिका शूष अपारा । भृमि शब्द् पारस अदसारा ॥
सृभिशब्द पुनि पारस दीन्हा । निःकरकपुर्षप्रकट कर ीन्हा॥
ङ्प सुरति ते निकरकी भयऊ । तिनको आज्ञा उत्पति दिय ॥
निकलंक विनती तब कीन्हा । कोन सन्धि साहष सोहि दीन्दा॥
कहौ मेद जेहि उत्पन होई \ सोर शब्द शुरू भाषो सोई ॥
तब समरथ अस वचन उचारा । निष्करृक् सखन मता इमाय ॥
शब्द् हमार इट दिरदय धरहू । निज सुभिरण तुम हमरा करहू॥
जो वित सुरति तुम्हारे होई । तोन वस्तु सिख सब कों ॥
साखी-जो कुछ रचना चाहो करन, सुरति करत सो होई ॥
रचहु रोक तुम वेगि पुनि दीन्ह वचन भैं सोहं ॥
चोपाई
सुरति करत सबही बनि आई । इच्छा करत सन्धि दोय भाई॥
निश्चरु लोक हमारो बासा । अविगति कमल कीन्ह प्रकासा॥
साखी-जीव सृष्टि रचना करो, सकर जीव उत्पान ॥
शब्द भरोसे तुम रहो, रेड वचन सिर मान ॥
चोपाई
तुम धर्मदास सुनो चित राई । तब निष्कलंक सृष्टि निरमायी॥
निःकटंक सुरति स्वास ठदरायी । सहज सुरतिको टेक बनायी ॥
ददहिने अंश सो शब्द निमीयी । सदज शब्द सुरति अङ्करउपायी॥
सत करी विस्तार बनायी । यहि विधि रचना निरमायी ॥
स्वेलसागर ( १३५ )
खात करी अंङ्कर ते भयऊ । भिन्न भिन्न क्षम सो छ्य ॥
सीप सषूपी करी जो कीन्हा । स्वास स्वद्पी उच्छा दीन्हा॥
सात इच्छा सात करिनम भयऊ । स्वाति सङ बन्द तेहि दयं ॥
सातो करि भयी प्रकासा । नर्हितवब धरती नहीं अकाशा॥
अद्ध अंङ्कर रहा ठदरायी । तब शख शब्द स्थिर कहँ आयी॥
सरद अस जो जन विस्तारा । इतनी दि अंङ्करज वसारा ॥
तेहिभ सास करी उपजायी । ताकर ममं काट नहिं पायी ॥
तेहि कशिनि ते अण्डा भयऊ ! दोयकरी बिन अण्डा २३ ॥
नहि तब धरती नहीं अकाशा । अधरदि अधर अण्ड व्रकासा॥
मध्य मे अण्ड केरे चौ चण्डा । दक अण्ड उवल्यो प्रचण्डा ॥
भित्र भित्र गति न्यारी कीन्हा । शिवशक्तेअण्डमरं धरिदीन्हा॥
नौसे निमिष अन्तर होय छटा । तबदीं अण्ड उडचो युनि कूटा)
प्रथमरहितेज अण्ड विगस्यो भाई । तमि वांच तत्व नि्माह॥
बाहर पार्ठैग तेज अण्ड विस्तारा। तामरे पांच तत्व भौ सारा ॥
तत्तव स्नेह अण्ड सो कीन्हा । अस्थिरशब्द् कार थर दीन्हा॥
तबहीं श्रवण साजी वानी । तेहिते सूल सुरति उत्यानी ॥
अबोलषरस सुरति कटि दीन्हा । सात संधि प्रकट कर छीन्डा॥
सात सन्धि तब गुप्ति पेखा । पीछे सोहं शब्द विवेखा ॥
सोह शब्द सत्य अबु्ाा । सोह खरति अजावन पसारा ॥
जावन ते पुरूष अर्चित निमोयी । तेहि पुरूष अपने निकट ुखायी॥
तेदिसो पुरूष एसी कदी । सकल सृष्टि रचो तुम सही ॥
पुरूषको विनय कीन्ह करजोरी । हो सतशुरू विनती यक मोरी॥
केहि विधि रवौ सो देह बतायी। तोन मेद शङ देड पटायी ॥
नीकलंकी पुरूष वाच उच्चारा । शब्द् प्रतापकर अगम विचारा॥
शब्द प्रताप केओ शिर नायी । खमिरण करौ इमहिं लाई ॥
९.६९३६ ) स्वेज्ञसागर
पांच अण्ड हम पिरे कीन्हा । तेहिमे स्व त्व गुण दीन्हा ॥
जो कड इच्छा करो दिरूमादीं । सो सब कषक _पहौ तदांदीं ॥
शब्द् प्रताप अचित जब लीन्दा) सकर सश्ठिसो उत्पन्न कीन्हा
साखी--पुर्ष अण्ड ङेगये, देखा सकर पसार ॥
सद्र रहे निहार तब, समरथ वचन अधार ॥
धदासवचन- चौपाई
मेदस चरण गहे धाये । हे सतश् तुम अगम बताये ॥
पुरूष अर्वितके सषि फरमायी । तात सन्धि कहे राखे छिषाई॥
कोन लोक कर लीन्हे वापा । सोई भेद हौ परकासा ॥
सतगुरु वचन
जब अर्चितको सृष्टि फरमायी । तेहि पारे यक सुरति उगयी॥
सोरह असंख अकर पारा । तेहि म पांच अण्ड विस्तारा॥
मिदरसुरति अजर लोकं बनायी । तेदि मरह सातौ सन्धि छिपायी॥।
सातौ सन्धि उषं के राखा । समरथ मेद गोड कंञ् भाखा ॥
सातौ सन्धि सो गुप्त छिपावा । ताकोअन्त काहु नरि पावा ॥
मिदर खोक सन्धिन कर दीन्ा। आपन वा निरन्तर लीन्हा ॥
निरेतर गुप्त टिक निमीयी । तामे सतश् रहे छिपायी ॥
साखी- गुप्त भेद किया इतनौ, काहू न पायो पार ॥
पुर्ष अचितकी सृष्टिक, धमनि सुनो विचार ॥
चोपाई
पुरुष जब घटम कीन्ह विचारा । प्रेम सुरति तबदीं उचारा ॥
प्रेम अनन्द उपज्यो रे भाई । तेते परम॒ सुरति उपजाई ॥
त्रम सुरति भे कूप अपारा । प्ेमानन्द् घट शब्द् उचारा ॥
नेच हैर बुन्द सो टठारी। सोहसुरति दिर मांहिनिहारी ॥
स्वेक्ञसागर (१३७)
सुरति बन्द तब तासों खीन्हा । सोई बन्द अधर महँ दीन्हा ॥
ताहि बुन्दके अशक्चर. भय । स्वर स्वासा हौ बाहर गय ॥
पुरूष अचिन्त आज्ञा सव दीन्हा । तेज अण्ड जो वैठकं लीन्हा ॥
बारह पाटंग अण्ड है सोई । तहि मों ष्च तुम्हारी होई ॥
अच्छर आनन्द ताहि समाया । ताते परकुति सरति उपजाय ॥
प्रकृति तें चारि अश निमायी । दखि अंश आनन्द समायी ॥
तेहि अनन्द सो निद्रा आयी । सत्तर मिभिषजवबगयो सिरायी ॥
चारों जने समाधि लगायी । ताको मरम कहौं समञ्जायी ॥
तब सतगुकू एक अवगति कीन्हा । जर तत्व ते अण्ड तब दीन्हा ॥
जब अण्डा जलम उतराना । तब अन्तर निद्रा विखगाना ॥
अक्षर मनम कीन्ह विचारा । विकर भये तवहं वश्च धारा ॥
चरे चले अण्डा ठखगि आवा । देखत अण्ड कोवं उपजा्वा ॥
सोई को. अण्डमे आवा । तेज शक्ति ताकर प्रभावा ॥
तेहि कारण मो पएूट्यो भाई । तेदिते निरंजन उषजाई ॥
कृलषप सो प्रकट प्रचण्डा । महा भयानकं इष् अखण्डा ॥
अक्षर मनम शंका आह । तब चारों सुतन कँ लीन्ह बुला॥
उनको बहुत भांति समञ्चाई । पृरथ्वी बीज धरौ तुम जाई ॥
जग उत्पति तापे होय भाई । कूम शेष प्रथ्वी थाह्मो जाई ॥
जाते प्रथ्वी डमे निं भाई । साह उपाय करौ तुम जाई ॥
ध्मराय तुम लेखा रू । सकर सृष्िको रेखा देहू ॥
चारो अंशको सिखाप दीन्हा । आप वास मुक्तिदीपमें लीन्हा ॥
साखी-यह रचना अचिन्तक › अक्षर को विस्तार ॥
निरंजन बेठे जुम शिखर, मान सरोवर द्वार ॥
चौपाई
पुरुष अचित अस चित्तविचारा। सन्धि सुरति षट म उच्चार ॥
सबेक्ञसागर
तेहिते चौदह सुनि उपजाये । जर अण्डते अंश बनावे ॥
चोद्ड सुनि चौदह दीप बेडारा । पांजी पतार उनको विस्तारा ॥
संधि ऊप सोप सब दीन्हा । अच्छर रखोकमे चौका कन्दा ॥
यहि पुरूष चोदह अश बनावा । यहि अक्षरम मोह समावा ॥
तब अक्षरको संशय आई । तेहि ते स्वासा छंडे भाई ॥
स्वासा संगम उठी तब बानी ) माया सुरति तब भयी उत्पानी ॥
माया सुरति अच्छर उपजायी । अष्गी सो केसो शक्ती आयी ॥
अच्छर अष्गी सो कदर । जाब जहां निरंजन रहर ॥
अष्टगी तब कहे समञ्ञाईं । इम कैसे निरंजन पहं जाई ॥
तब॒ अक्षर अस कहे मे । निरंजने जाइ सिखापन देह ॥
कृन्या चङि निरजन गि आयी। आदि निरंजन भिरे तब धायी ॥
देखि कला तष गये भुलाई । हे कन्या तोहि को निमांई ॥
काम ज्योति प्रकटी प्रचण्डा । तब चित विकर भयो नरमण्डा॥
सकर खूप गयउ युखाहं । कामकि रूहरि दोउको आई ॥
तब संयोग भयो अय बारा । जेढे ब्रह्मा रघु विष्णु कुमारा ॥
तीजे शम्भ सबसे. छोय । ये निज भये ताहिके ढोटा ॥
साखी-जेसे खूप निरंजन, तैसे तीनो बार ॥
प्रलय काल पेदा भये, प्रख्य करत संसार ॥
धमंदासवचन-चोपाईं
घमदास जिव भये अनन्दा । भँ पाया पूरण शर् चन्द्] ॥
धन्य भाग मोदि मिरे गुसाई । आपन करि मोहि लियो सुक्ताई ॥
ओर एक पछनकी आशा । चौरासी लक्ष कैसे प्रकाशा ॥
तीन प्रकार सृषश्ठि किन पाञ । चोथेका मोहि भेद बताऊ ॥
साखी-धमदास सुख पायो, घट मो भयो अनन्द् ॥
संशय मिरे प्रफुलित भये, ज्यों पूनोको चन्द् ॥
सव्ञसागर (१३९ )
सतगुर वचन-चौपाईं
सुबु धमनि यैं कहं समञ्चायी । कक्ष चौरासी योनि बनायी ॥
माया चरि अब तोहि स्नाओं } एक एक के सब भेद बताओं ॥
चारि कखा स्वहूप धरि चारी । एक एक गति कौ विचारी ॥
एकं स्वहप सुरति ठ्गि रही ) तीन स्वह्य भिन्न घर सदी ॥
एकं कला गायची भय । जब पिता खोजको ब्रह्मे गय ॥
सो गायनी ब्ह्माको. दीन्हा । इसखरी कला लक्ष्मी कीन्डा ॥
मथ्यो सयुदर रतन कटि आया । लक्ष्मी तबही विष्णुने पाया ॥
तिसरी कला पावती कीन्हा । सोह कला शम्य कहं दीन्हा ॥
यह चरि मायाको भाई । जाकी गति मति ख्खी नजाई॥
तीन शक्तिको खेल अपारा । इनदी र्यौ स्कर संसारा ॥
साखी-माया परब सबनमे, जो चाहे सो होय ॥
ख चौरासी इन रची, मरम न जाने कोय ॥
माया सृष्टि माया रची, जीव अनेक बनाई ॥
उनते सब कडु होत है, कहै कबीर समञ्चाइ ॥
इति श्रीसवेज्ञसागरे सृष्टिख ण्डवणेनोनाम प्रथमस्तरंगः ।
अथ हितीयस्तरगः
ज्ञानखण्ड वणन
धमंदास वचन-चोौपाईं
धरमदास प्रछे चितलायी । उपति भेद सकर हम पायी ॥
अब जिव कारन कहौ विचारा । जेहि करनीसो हंस उबारा ॥
सो विधि ज्ञान कहो समञ्चायी । जाहि ज्ञान से रोक पायी ॥
जीव उबारन ज्ञान सुना । हे सादेव । मोहिं नारि दुराओ॥
सदज्ञसागर
साखी-सत्यसार बतावह जाते कारज रोय ॥
सोदर कोरि ज्ञान जो, सो हम देखि विलखोय ॥
सतगुरुदचन- चोपाई
खड सुकृत मोर प्राण अधारा ! तुमसे कौं अब सकल पसारा ॥
ऋग्वेद भेद भरुक पाया । चारि सुखको ममं ल्खाया ॥
प्रथमरि चारि वेद है सारा चारि धाम पर ुक्ति पसारा ॥
सेवकं शब्द सुभिरन चित रवे} सब सुख पृथ्वी प्र भक्तावे ॥
कोह सिद्ध कोइ पण्डित होई । कोड ङ्प पावे पुनि सोई ॥
जो लगि दान पण्यकी आशा । तब रमि है वेङण्ड निवासा॥
कोई विद्यया कोह वेदको पवि) फिरिके देह संसार धरविे ॥
अब् सुलु साम वेद विचारा । विष्णु ध्यान वेङ्कुण्ड सिधारा ॥
साखी-बीते पुण्य भोग सो कीन्हे, आइ धरे जग देह ॥
जब रग दान पण्य का आशा, तब र्ग सुरपुर नेह ॥
- चोपाई
तिरी शुक्तिको सुनो विचारा । सब मुनि योगी शुन्य सिधारा॥
सायुज्य युक्ति चौथी रै भाई । अक्षर ध्यान मानिकपुर जाई॥
पचईं जीवन शुक्ति है भाई । जहा देद धरे विन रहै समाई॥
कटि निज उत्तम पुरूष बतावा । परम धाम सब संतन गावा ॥
पुर्ष भक्ति जाके घट आई । एक ब्रह्म राखे उदराहं ॥
प्रम धाम सोई पर्वे जायी । जिन परमात्मा चीन्ह्यो भाई ॥
धमदास वचन~-चौपाई
धर्मदास पूछे कर . जोरी । एक भेद प्रथु कौं बदोरी ॥
सव्सागर ( १४१)
काहि पर वह किये भामा । जहां जीव पवे विथामा॥
करनी लोक अुक्तिको भेदा । तुमसे कौ नँ घुन्यो निखेदा ॥
सो सब मेद अहौ मोहि साह । संशय सब विधि देह मिराई ॥
साखी-काहे पर॒ समेरू हैः केषर कैलास ॥
काहे उपर शुन्यं है, करद अक्षरको वास ॥
सतगृर वचन-चौपाडईं
सुनु धर्मदास तोरि कौ विचारा । यह मेद अगमगति भरा ॥
सोरह नार पुरषं निरमायीं । रोकनको थम्भन नाक रहायी।॥
कदली नाल लोकते आई । सात शाख भइ ताकी भाई ॥
सुवरण रंग नार रै सोई । एकटि वर्णं नाक सब हो$ ॥
ग्रथमहि ग॒प्त नाल है भाई) तहां परषत पुनि नाम धराई ॥
तापर परम धाम बनाया । तेहि मों पुश्ष तत्व रहाया ॥
दुसरी मंम नाल जो आवा । मानिक पवेत नाम धरावा ॥
तेहि पर मानिक दीप बप्ताया । अक्षर पुश्ष दीप सो पावा ॥
तिसरी सरग ना है भाई। तापर ्ञ्लरी दीप रडहाई॥
तर्हवा रहै निरंजन राईं। तीन दष तिनरी निर्माई ॥
चौथी नार कांति प सोहं । ता ऊपर वेकुण्ठ जो होई ॥
पंच शिखर स्मेर रेवारी । एके इन्द्र एक कवेर भडारी॥
यकपे भुव एक पेयम विस्तारी । मध्यमे विष्णु सकल ब्रतघार॥
पांच ये नाल जो रचिराखा। ताकर नामकेलाष्त भसभाखा॥
तहवौं शंकरको है बासा। याग समाधिकी खव आसा ॥
छ्य नार उमंग ठहरायी । अधाचरही नाम सो पायी ॥
सतय भिङदी अह्न अस्थाना । तरंग नार पारस है ठाना ॥
कल्की नाटकी सातो साखा । सतो दरस यहां खों राखा ॥
५ १४२) सदललसागर
यही बनावे धरती मों होई । अधर वस्तुको जनमे सोई ॥
अधरदी चोका चारि प्रकासा । चन्द्र सूरजको तहां निवाक्षा ॥
भरथम अघर अङ्करहि निशानी । पांच अण्ड कीन्हे उत्पानी ॥
दूर अधर निकल्की जाना । तिसरे शूष सुरति परवाना ॥
चौथे अविगति नाम धराया 1 पांचे सरवन्ञी पङ्ष काया ॥
चारो अश अधर विस्तारा \ धर अधर दोनोसे न्यारा ॥
साखी-पांच तत्व तब ना इते, हतेन हाटङ् बाट ॥
लोकं द्वीप तब ना हते, ना इते ओघ घाट ॥
चोपा
सुनो धमंदास कौ मँ तोही । जो कष्ठ मेद पुछिहौ मोदी ॥
सब अशनके रोक बतावा । अश वंश सब तोहि छ्खावा ॥
करनी करे सो लोकहि जायी । विदु करनी फिरिफिरि पछितायी॥
साखी -सवेज्ञसागर खोजटि, सब अन्थनको सार ॥
के कबीर निज मूलको, सत्य शब्द् आधार ॥
इति श्रीसवेज्ञ सागरे ज्ञानखण्डवणेनो नाम द्ितीयस्तरंगः ।
समाप्तोयं म्रन्थः
उपसहार-चौपाइं
जेहि मानुष बुद्धि सब विधि आवे । अपनो कारज सोई बनावे ॥
केषपट कुटिता कार नशायी । स॒त्य विचार रै लोराई ॥
जवनी भांति जिव कारज होई । खाज मिटाय करे हट सोई ॥
लोककाज कुरकानके मारे । वरि वरि भव रह विचारे ॥
जेहि यम फन्द छूटे सो करना । नादकमें काहे पचि २ मरना ॥
सवेज्ञसागर ( १४३ )
भली भांति सो रेह विचारी । सकर अंचारज मतिं सुधारी॥
खराखोट जो परखा नारीं) अन्धा धोखे मरक नशाहीं॥
प्रथम विचारह ओषध रोगा 1 केहि विधि शब्द् हरे सब सोगा ॥
देखो शब्द प्रकाश विचारी) जाते पकट होय उजियारी ॥
गुरू एक सो कौन काव) जासो आवागमन नशे ॥
सेवा अनेक करिय केहि केरा । विन जाने सब धुन्ध अन्धेरा ॥
शुरू मत मनमत करे विचा । सो जिव निज करे निङअरा ॥
साखी-विन देखे नई देशकी, बति कटै सो इर ॥
आपे खारी खात दैः बेचत फिरे कषुर ॥
चौपाई
ओषध पांच राह सब करई ! ओषध विना न कई सडह ॥
शब्द स्परी ङ्प रस गन्धा । दवारा पच ओषधिको सन्धा ॥
सबही द्वार बुञ्ज रहायी । बिन ब्रञ्चे नहिं कोड उहरायी ॥
कोई जीना कोई मोदा द्वारा । तसि तास भिन्न व्यवहा ॥
जीना शब्दं है पवन स्वषूपा । तासो मोटा अनलको इपा ॥
अनलहू ते जल मोटा हो । जरते मोरी पृथ्वी है सोई ॥
पुनि प्रकाश एकते एका । भिर हो देखे करे विवेका ॥
पृथ्वी मोरी ओख प्रकाशी । तास्ते मध्यम इष्टि भ्रवेशी ॥
घरथ्वीसे जल ज्जीना होई । भीतर जो है दीसे सोई ॥
जल्सो श्चीन तेज प्रकाशा । जामे परशे धरति अकाशा ॥
षसो अधिक शब्द उज्ियारा । दष्टिमे अवे सब संसारा ॥
भूत भविष्य जो हो वर्त॑माना । शब्द् भीतरे समे समाना ॥
बूञ्च शब्द मे पेठे जायी । शब्दके भीतर अनर् रहायी ॥
अनर मध्य होयके ज देखा । जर्के भीतर प्रथ्वी पेखा ॥
१ आचाय्ये, धमंप्रवतक ।
( ९४४) सवेज्ञसागर
सखाखी-रेन समानी भादुभे, मत॒ अकाशे माहि ॥
अकाश समाना शब्दम, शब्द् रदा केड्कु नाहि ॥
चौपाई
पांचो ओषध केरे विचारया) मोटा ञ्जीना जो व्यवहारा ॥
आओौषघ अत्न जरु पेट समारी । जाते श्चा ओ प्यास नसादी ॥
बहत प्रकार रादके रोग \ सो सब जाय भोजन संयोमू ॥
गन्ध कपारे पहुचे जायी । गुण ओगण सब अग समायी ॥
रेपे गुण सब ठे पर्हुचवे । शुण ओगण सवमा समवे ॥
आंखिकी राद रूष गहि लें । शीत उष्ण सब अंगम दईं ॥
शब्द ओषधी कानके द्वारा । ब्रूञ्च समाय करे निरा ॥
हषे विषाद यं ओ मन्वा व्यपे सवै कोड कोई स्वतन्ता ॥
ममे स्वे द्वाराको बूञ्चे। विना शब्द् निर्णय नदि सूञ्चे ॥
स्पशं रूप इत्यादिक चारी । सो ९ब मोट स्थर अधिकापी ॥
पुनि अस्थल सो थिर न रहायी । तेसं ओषध ताहि समायी ॥
अंग अगको देश है जसः । अल्पे गहिये ओषध जेसा ॥
शब्द अति श्जीना बृञ्चविचारा । जाते दोय सकल निक्आरा ॥
शब्द् विना कोई पार न पावे । विन गुरू कौन जो दाव ल्खवि॥
सवै देश सर्वज्ञ रै सोई । तेदि बिनु कारज सधे न कई ॥
साखी-शब्द् विना शति आंधी. कदो करांको जाय ॥
द्र।र न पावे शब्दका, फिरि फिरि भरका खाय ॥
गुह गुशमे भेद रैः शङ गर्म भाव ॥
गुङ सदा सो वंदिये, शब्द बनावे दाव ॥
फेर प्रा नहि अंगमे, नदि इदिनकी मारि ॥
केरा परा कषु ब्रह्मे, सो निरबारयो नारि ॥
स्वंनसागर (१४५)
चौ पां
यटि संसार बह वेय विराजे । नाना माति ओषधी साजे ॥
साच एक ्ूठा बहतेरा ) विना साच नहि होय निवेरा ॥
एक असल पर नकर अनेका । अनेक नकर नदिं पावे एका ॥
बहुषिधि ठग सब करे ठग । यमके फन्दा रहे अश्ज्चाई ॥
बूञ्ि समश्चिके ओषध कीजं ! मिथ्यार्मे जिव काहेको दीजै ॥
मसला
गुक् कीजिये जानिके; पानी पीजे छनिक ॥
चोपाइ
वेद् पुराण किताब कुराना ) दोहा साखी शब्दं परमान ॥
अनन्त मोतिका शब्द् पसारा । विज्खु जाने नहि हयं खधासं ॥
सो सब ओषध बह विधि जाचे । यम फन्दासे तवबही बच ॥
पक्ष वाणीको मन मत किये । जाते दन्द सवै घ्र रिय ॥
निणय वाणी गुरू मत होहं। पक्षा पक्ष जाते सब खोई ॥
जब निर्णयकी वाणी अवे । ञ्चा खोटा आपु जावे ॥
निर्णय सो सबके हितकारी । जेहि परसे जिव होय सुखारी ॥
सार शब्द निर्णयको नामा । जाते दोय जीवको कामा ॥
गुर एक जो निर्णय करई । ञ्जगरा कहूं परे न प्रई ॥
जो कोड निर्णय आशित भय । सेवा करि निज कारज किय ॥
सो सब सेवा शिष्य कहा । मन मत सो जो ओर बता ॥
जग बुद्धि कंदे मम गुर् एका । जेहि तेहि सेवा करे अनेका ॥
पुनि जाको इन यर ठदराई । ताको दूसर शरू सहा ॥
तेहिकी सेवा केरे खौ खाहं। सो सेवा पद कैसे कहाई ॥
(९४६) सर्व्सागर
रहर करे टल् करव । तासो पद सेवा बनि अवे ॥
सोह सेवकं जो सेवा करई । विना विचार ब्ूञ्च न परह ॥
अपने अपने शुरूमत माने । ओर सब मन मत अनुमाने ॥
विु निणेय सो द्रन्द्र न जाई । पचि पचि मरि करि ख्डाह ॥
जह् अगडा तहं गुरूमत नादी । जहं शुश्मत तहं इन्द्र नसादीं ॥
साखी-पक्षा पक्षके कारणे, सब जग रहा भुरान॥
निपक्ष होहके दरि भजे, सोई संत सुजान ॥
शब्द् शब्द् बह अंतरा, सार शब्द मथि ीजे ॥
कहं कबीर जहं सार शब्द् नहीं, धृग जीवन सो जीजे ॥
चोपाई
खरा खोट प्रखहु बह मात । तबरीं होय जीव कशराती ॥
जेहि गर ज्ञान न छटत केरा । बहत अनुमान सो भ्रम बोडेरा ॥
भवसागर दुस्तर कठिनाई । नौका नाम तहँ सत्य दिटाई ॥
बरूडे भवको धार न सुञ्धे। मुए युक्ति रेसी इट बचे ॥
जहसे उपजे तदां समाना । कसर विकार भरर नरि जाना ॥ `
भ्रमे आप जीव भरमवे। नाटक चारकं सुयश बटावे ॥
करामात करतूत बखने । नास्तिक ज्ञान सोई सत्यक माने॥
सिद्धि सब जात नाई । नास्ति ज्ञान नाहीं कुशखरई ॥
त्यष श्यं नास्तिनि मारीं 1 जाके पीछे जिव. बौरादीं॥
आपु गये यजमानह खोये । भांति भांति फन्दा अङ्ञ्चोये ॥
रोगी वेदय दोनों क ठॐ । ओषध कही कल्पनाके गाऊँ ॥
जेहि कारण नर साई जो देर । सो सौदा जंचि काहे न ठेईं ॥
ठग भरमावे बद्ध विधि टे । यम घन्धासे कबहु न टे ॥
मोटि अविद्या डावन लागे । ्जीनी महा अविद्या पगे ॥
ञ्जनी मारे दोउ कष्ट से पा । कारण नास्ति परे त्यि कूपा ॥
स्वेन्नसागर (१४७)
पूरा घनी प्रशा सो सौदा । परखत मेंटे कालको कन्दा ॥
संधि छखावहि कारण रोग । मेंटर्दि सब विधि संधिक सोगरू॥
नहि सन्देह न यमके उसा । खदा सुखारी परख विखाक्चा ॥
धन्य सो बूञ्धि सुखि पग धरडं अंँघरन मटकि मटकि मव पश।॥
साखी -बङिहारी तेहि पुङ्षकी) पर चित परखनहार ॥
साई दीन्हों खांडको, खारी बुञ्ज गवर ॥
कर् बन्दगी विवेकं की) भेष धरे सब कोय ॥
सो बन्दगी बहि जानदे, जरं शब्द् विवेक न दोय ॥
मानुष देही पाइके, चके अबकी धात ॥
जाह परे भवचक्रमे सहे घनेरी छतं ॥
इति । माष विचारसे.
इति तृतीयखण्ड समाप्त
~ ७००9५ क १ ~ नषि च 7, "कक
6
अ
०.0 9
5६5
2,
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भारतपयथिक कबीरपंथी स्वामी श्रीयुगखानन्द् (विहारी)
द्वारा संशोधित
६
अप्रेल २०१९, संवत् २०७
१०० रुपये मात्र ।
90988
| क, "॥
11111811
श
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॥।{ || * | ` ||
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118
#॥.
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॥
004
बोधसागर प्रथमभागकी अदुक्मणिका
९२ प्र समाप्त हआ है ।
५,
इसमे तीन तरंग ह जिनमे प्रथम तरंग ज्ञानप्रकाश पृष्ठ स
आरम्भ होकर पृष्ठ ६५ पर समाप्र हआ है ।
दूरा तरंग अमरसिंह बोधहै जो पृष्ठ ६९ से आरम्भ होकर पृष्ठ
ॐ
तीसरा तरंग वीररसिंह बोध है जो पृष्ठं ९७ से आरम्भ होकर
पृष्ठ १२७ प्र समाप हुआ ।
अब्र तीनों तरगकी विषयायुक्रमणिका नीचे देते ३ ।
ज्ञानप्रकाशको अचुकमणिका
विषय.
कबीर साहवका जिन्दा रूपसे मयुरामें
धमदासं साहबको प्रथमवार भिलना
५ कबीर साहबका ग॒ष्त हो जाना (धम-
दासजीको विरह)
छटेः दिन कबीर साहबका धमदास साहबसे
दूसरी बार मिलना - -
धर्मदासजी का गरु रूपदासजीके निकट
जाकर ज्ञान पुना . .
धमंदासजीका साहबसे भिलनेको चिन्ता
करना ओर सद्गुरुका जिन्दा रूपसे
तीसरीबार दशन देना ओर धममदास
साहबका रसोई बनाते हए रचीटीके
दुखी होना ओर साहबको
पहचानना .- -
त्रिगुण जालका वणन
सत्यनामको महिमा +
सद्गुरुसे शिष्य करने के
लिये प्रार्थना ओर उत्तर ०
कबीर साहबका तीसरी बार गुप्त हो जाना
ओर धर्मदास साहनका व्याकूल होना
३१ धर्मदास साहबका सद्गु रुसे भिलनेके
लिये भंडारा करना ओर जौयोनार
सद्गुङका मिलना ०»
केष मता कणन र. ०१
@ ॐ
धम दासजीका सद्गुरेसे दीका उनेकी
ज्रायना करना तया रतनासे मिलना. ,
धमदाससाहबका चौका आरती कराके
गुखमत्र लेना . .
धमंदाससाह्का प्रतिमाके विषयमे भ्रश्न
करना ओर सद्गुरुका रहनी बतलाना
२१ धमंदासजोका अपने पिछले जन्मका
हाल पुना ओर सद्गुरुका बतलाना 1
सवनिन्दको कथा ,. „=.
आरती विधि .. =.
कबीर साहबका चौयीवार अन्तधनि होना
ओर धमदास साहबका व्याकुल होना
ओर पांचवीनार फिर मिलना
हंसरहनोव्णन | ०५ ०० =» पट { ८
३३
= 9 * ॐ २ 1
ङ. =
(४) बोधसागर प्रथसभागको अनुक्रमणिका
दिष्य पृष्ठ. ् पृष्ठ,
अथ असर्रासहबोधको राजाका रानीसे कबीर साहबको गुरुबना-
अनक्रसणिका नेकी बात चलाना ओर रानीका राजा
धसंदास साहवका सद्गुरुते युगकसोदक को नोति समाना .. १०३
दृत्तान्त पुना ओर सद्गु का उत्तर । नामदेव आदि भक्तोका कबीर साह्नकी
राजा अमर †सहको कथा आरंस - - ७० ईर्षा करना ओर उनका समाधान . . १०४
कूढोर साहबका अमर पुरोमे जाना आर ई
त राजाका शिकार खेलने जाना। पानी न
अमर †सहका भिलना । ओर कबीर &
भिलनेसे व्याकुल होना ओर कबीर
साहबका गुप्त हो जाना फिर राजाकी
- साहबका बाग प्रगट करके राजाका
विकलताका वणन सः +. स ३
ते नासहत प्राण वचाना. . ==> १९
पांच दिन पोछे फिर कबर साहुबका राजा ९
अमररासहको मिलना “* ७२ | राजाका कबीर साहबका शिष्य होना. . ११०
राजाका रानोको गुरूपदेश लेनेको कहना । राजा वीरसद गुरुस्तुति करना .. ११३
राजा रानीको वार्तालाप. . ७२ | कबीर साहुवका परलोके मार्गका वृत्तांत
रानीका साहबको शरणमे आना राजासे कहना .. .. ५११
राजाको सत्यलोक देखना . . -. ७३ ~ ~
~ राजाका अगर नाम चोका करानेके लिप
नरक्का वणन .. .. व ७७ गी ॐ ह
ब्राह्मणोके घर वस्त्र लेने जाना उस
चित्र गुप्तसे वार्तालाप .. ८४ स ः र ड षं
||
वैकुष्ठका वनेन. . ध वस्त्र न ज सायक चढाने जाना
राजाका कबीर साहबको आज्ञासे चौका फिर वहासि दशन न होनेके
कारण कबोर साहबके पास आना
आरती करना .. क ८९ ठ
२४ अजर चौका वर्णन .. १९६
राजारानोका सत्यलोक जाना .. . ९5
इति कबीर साहवका मगहर मे बिजुलोलां के
घर शरीर छोडना ओर राजा बीर-
अथ विरसिहबोधको अनुक्रमणिका सिहका फौज लेकर बिजुलोलां से
कबीर साहबका काशोमे जाना ओर भक्तों युद्धको जाना . १२०
के साय वार्तालाप करना. . (९.८ व
कबीर साहबका वेष स्वरूप देखकर वौ र- पान देकर सानिोके परलोक ले जा
सहका कवर साहवके पास आना ९९ समयके मागका वणन । . . .. १२२
राजावीरसिह ओर कबीर साहबकी नाम महात्म्य .. .. 5
वार्तालाप ध ट „ १०५० इति
इति
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भारतपथिक कवीरपथी-
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सत्यद्रकृत, आदि अदी, अजर, अचिन्त, पर्ष,
नीन्द्र, करुणामय. कवीर, सरति योग, संतायन,
धनी, धमदास, चशमणि नाम, अदशनं नाम
कुट्पति नाम, प्रमोध, ग॒सुबाछापीर, केव नाम
अमोल नाम, घुरतिसनेदी नाम, इक नाम,
पाक नाम, प्रगट नाम, धीश्न नाम,
उग्रनाम, दया नामकी दया,
वराव्यालीसको ट्या
4 क
नचा कबाधसागर्
अथ प्रथमस्तरंगः `
धमदासबोध-ज्ञानप्रकाश
सत्यपुरुष सतरोक निवासी । दखनाशक अविचर्सुखरासी॥ `
अमी अमान सो सत्य कदाये । अभे विद्यमान कहि गये ॥
विगति अलख अनाम सरूपा । अगह अल अबोल बोर अच्रपा॥
(१०) लान भरकाश
घर्मराय सिर अञ्न `सोई । आपुषहि तात मातु नरि कोई ॥
नरीं तीनि पोच तलघारे । रहै अमान नरकसो न्यारे ॥
ताके निशि दिन शिर नाऊ 1 गुप प्रकट वाको गुण गाॐ ॥
उनके टिगसो दस चङि आये । जिव निस्तारन हम्ह पये ॥
खत्यपुरूष सत्यगुरू सो आदीं । युगम सत्यशुङ् नाम समादीं ॥
सत्यगुङ् ध्यान जाहि पह होई । सो ईसा नि जारि विगोईं ॥
सत्यु शब्द गहै सो हसा । मेरे जन्म मरण भौ संसा ॥
छंद-सत्यनाम सतशुङू ध्यान सतपद वासी रस दहो ॥
सत्यरोक अशोकं निर्मोह पर्हुचे गहे अविचरू कंत हौ ॥
जीव ठै खुभिरण सत्यबीरा अङ् अ विचर् जोग है ॥
सत्यनाम सुभिरण काल उरप अुकित यम न्या रहै ॥
साखो-करों संदेश सत्य पुरूषको, समञ्चत र ङ् नरेश ॥
कहँ कबीर सो अमर दहो, जो गह मम उपदेश ॥
सोरठा-चीन्इद कितिम आदि, सत्य असत्य विचारहू ॥
छांडि देहु बकवादि, खोजहु अपिचर पुषं कहं ॥
चोपाई
यहि जग देखो अनकडठ रीती । तजहीं सौ च शूठ सो प्रीती ॥
जो चोखा तेहि सों चके मानि । सत्य सार तेहि नरि पदिचांन ॥
आदि ब्रह्मकं खोजहि नारीं । कृतिम कला जो सेवि तादी ॥
निज स्वामीके मत ना गहदीं । जरा मरण घर संकट सीं ॥
जो रक्षकं तेहि गहै न कोड । जो भक्षक तेहि धावं रोई ॥
कमे भम वसि तीर्थं नहादीं । पुण्य पाप वसि आवहिं जादी ॥
द्यादीन नर पटदि पुराना । पदिगणिके अरथावहि ज्ञाना ॥
अन्धा अगवा तिहर मादी । बहु अन्धा तेदि पे जादीं ॥
अगवा सहित कूष म्हारी । कासो कहं कोर बरह्े नादी ॥
बोधसागर (११)
छन्द-गुश््ञान दीन मलीन पण्डित शब्द् शाच् पद चनो ॥
अगम निगम विरञ्चि प्रमो सकल जग यहि सखा बनो ॥
जो कारु जीवनको स्तवे तासु भक्ति ददढावहीं ॥
विष्णु आदिक शिवस्नकादि अजञ्चर कारकेण गावं ॥
साखी-बिन बुद्ध कङ्आई अक्ष, रगिहै वचन हमार ॥
जब बृञ्च तव भमीदि हो, कै कबीर पुकार ॥
सोरडा-जस नीम जग मार्हिः नासि व्याधि कङ् दरि प्रथम ॥
तेहि दख चम्पे नार्हः जो चाखै सूरि अमर ॥
धर्मदास वचन-चोपाई
अहो साधु तुम को धौं अदहू । अनकट बात बहत तुम कडह् ॥
ताते तब नरि बोर बद्ायौ । जाते इरि सेवा चित लायो ॥
विष्णु इष्ट देवन्ह के देवा । तुमह तेहि कद करहि यम सेवा॥
विष्णते अधिक ओौर कोड नाहीं । जमरा विष्णु के चेरा आदीं ॥
अहो धर्मनि जो ठेसन कहू । तो हम कहै सो चित महं धरहू ॥
विष्णु कथा तोरि कदीसुनाओं । अगम अगोचर ज्ञान चिन्डाओं॥
तुम्ह भाषो यदह वचन संजोई । विष्ण ते अधिकं ओर नहि कोई॥
हमरौ शब्द् कर देखह साहू । अपनो द्या जनि कद्र) ॥
आपुहि विष्णु धनी जो रहे । तो किमि योनि नठरदुख सदे॥
जो यम होत विष्णुके दासा । तो नहि करते विष्णु गरासा ॥
सेवकं हाथ न स्वामिदहि घा । जो विगरे तौ दोऽ तेहि कारे ॥
बह्मा विष्णु शिव सनकादिक । सुनि खनीश नारद शेषादिक ॥
सबक यम धरि करहि अहारा । टूटहि सबहि कारु बरियारा ॥
तीनि लोक जेते कोई आई । कार निरजन सब कं डाहे ॥
तुम खोजहु अब सो घर भाई । जेहि घर यम सो बाच जाई ॥
अहो साधु के सूत सयाना । एती कंडेऊ सब सने पुराना ॥
पटि पुराण नि समश्च भेता । बिठ॒जाने ममं आचेता ॥
(९२) लानप्रकाश
रह्मा गये असंख सिराई 1 विष्णु कोटि यमरा धरि खाई ॥
चौद ओ सूर्यं तारागण लोर । कहै कबीर फिर रहे न कोई ॥
धमं दास वचन- चोपाई
अहो साधु अचरज तव बाता । करे न बने तुमि विख्याता ॥
गीता भागवत पुस्तक बहताना । निसिदिन सुनो जपो भगवाना ॥
विप्र भेष ओ छव दशेन के । महिमा सवै कँ भिवन के ॥
खै विष्णकै भक्ति ददायि । उयदेव सब श्रेष्ठ बतावें॥
तुम खण्ड इरि ओौर न कोई । अहो साधु यह अचरज दई ॥
छन्द-सुनु सन्त सुबुद्ध सयान सुनि ज्ञान इदय बिचारहू ॥
, गदि शब्द परख करि दिये मम बानि निर्ूआरहू ॥
सो कहत वेद बह विविध पुराण गुण तेरा पार धनी ॥
यह मायाजार है जगत फन्दा अविधि काल कला बनी ॥
साखी-जिगण ध्यान ते रहित नदीं, सुनहु सन्त चित खाय ॥
अस्थिर चर तब पावईं, चौथे पदर्हिं समाय ॥
सोरड-चौथा पद निरबान, पुण्य भाग ते पाद्ये ।
करै कबीर प्रमान, सत्य शब्द बिनु नहि तरे ॥
धमदास वचन-चोपाई ।
हे साहब इमसे भर कदू । तिं पुर प्रय कां तब रददू ॥
तीन देव सब प्रलय तर आई । तुम कौने विधि बो चह भाई ॥
अहये सन्त इम तदा रहादीं । यम प्रवेश जँ सपने नादी ॥
जाके डर कम्पत यमराई । अहो सन्त हम ताको शण गाई॥
तीनि लोक यह पर्य होई । चौथा लोकं खख सदा सम)ई ॥
तीन देवके पिता निर्जन । ते यम दारुण वशके अञ्जन ॥
नोधसागर (१३)
सवा लाख जिव नितसो खादी । सुर नर युनि कोड छडिं नाही ॥
सत्यपुरूष सत्य खोकं निवासी । सकर जीवके पीव अविनासी ॥
तिन्ह पुनि षोडश सुत निर्माया । षोडशमं एक काल सभाया ॥
पुनि तेदिमर्है एक काल काया । ज्योति स्वप निरजन राया ॥
जाक नाहि सोइ यम जाना । ध्रूत॑सता तिनि लोकमहं आना ॥
एक अण्ड दीन्हा तिन रोका । निरंकार है निष्काम अशोका ॥
निरंकार तीनि सुत उपराज् । आपु शप्त पुन दिय राज् ॥
तीन तीनि रोक उगि राखा । आपन आपन महिमा भाखा ॥
अर्चि रहा जिव तिरश॒न फसा । भरि षरा निज वर तब नासा ॥
जीवन्ह काल बहुत सन्तावे । बार बार यम जीवं नचाव ॥
सत्य पुरुष तब मोहि पठाये । जिवसुक्ता वन हमर चङि आये)
हे साहब कड पूर्छो तोदी । जो प्रच सो भाष मोदी ॥
निरङ्ार निरंजन राई । धूर्तमता तिन्ह काकरिय भाई ॥
जाते इन उहां रहै न पाईं। सो चरि मोहिं वरणि सुनाई ॥
सतगुरु बचन
अहो सन्त जो पह मोदं । ससुञ्चह चरि बु्यावां तोदीं ॥
सत्य पुरूष सुत षोडश कीन्हा । अष्टगीन एक कन्या रचिलीन्डा॥
सो कन्या इन्ह कीन्ह गरासा । ताते भौ यहि लोक निकासा ॥
पुरूष दरश इन्द बहुरि न पावा । तीनि लोकं महं आनि रदावा ॥
एकअण्ड सत्यपुरुषतेदिदीन्दा। अशख अण्ड लोक महं कीन्हा ॥
पुरुष रूप का बरणों भाई । मोसो वरणत वरणि न जाई ॥
तेहि सादब का दौ शग्दिारा । जीव खकाजको करो पुकारा ॥
जो ससुञ्चे सुनि हेला मोरी । कारं ताकी कमकी डोरी ॥
धमदासका बिरह
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(९४) ज्ानभकाश
विकर भये अवे नरि स्वासा । इमहि छौडि करं गये उदासा ॥
जो मँ जनतेडं होड वि्छोदी । परकन रइतों निरखत तोी ॥
छन्द-मोहि काह जानि दरश दिये प्रभु जदा पुनि काहे भये ॥
छिन पलक देत विम्ब नहि कौन दिशा गवनन किये ॥
बहु छोमे होत न जात विरह मन विकर धीरज ना धरे ॥
जष्ुनातर खड ञ्ञखर्हि जिमि पिया वियोगी भवन साेतपरे॥
साखो-शोच इडदया रेन दिन, भोजन भवन न भाव ॥
षड भाग्य सो मिरे प्रथु, विद्रे कबहु भेराव ॥
सोरठा-करत शोच मन भाव, सुख सम्पत न सोदहावरं ॥
मोहि चेन नहि आव, जौ खगि चरण न देखिहौं ॥
ह छठे दिन कबीर साहेबका फिर मिलना-चौपाई
दिवस पोच जब एेसहि बीता ।निषट विकलहियव्यापेउचिन्ता॥
छ्य दिन अस्नान कहं गयः । करि अस्नान चितवन किय ॥
पुदप वाटिका प्रेम सोदावन । बहु शोभा सुन्दर श्ुठि पावन ॥
तहां जाय पजा अनुसार । प्रतिमा देव सेव विस्तारा ॥
खोरि पेटारी मूति निकारी । मव ठेव धरि प्रगट पसारी ॥
आनेडउ तोरि पुष बहु भाती । चोका विस्तार कीन्दी यदिर्मोती॥
भेष चिपाय तौ प्रभु आये । चौका निकरं आसन राये ॥
धमेदास पजा मन खाये । निपट प्रीति अधिकं चित चाये॥
मन अहारि ध्यान लौटावई । कहि कदि मज पुहृप चटावईं ॥
चन्दन पुष्प अच्छत कर लेह । निमित दोय प्रतिमा पर देदी ॥
चवर डोलावरि घण्ट बजायी । स्तुति देवकी पटे चित खायी ॥
करि पूजा प्रथमहि शिर नावा । डारि पेटारी सूति छिपावा ॥
अहो सन्त यह का तुम करूं । पौवा सेर छटंकी धरहू ॥
` केहि कारण तुम प्रगट खिडायहं । डारि पेटारी काहे छिपायेडह ॥
बोधसागर ( १५)
बुद्धि तुम्हार जान नहि जाई । कसर अज्ञानता बोल भई ॥
हम ठाकुर कर सेवा कीन्हा । इम कहं युङ् सिखावन दीन्हा ॥
ता कदं सेर छट॑कीं कदर । पाहन इय ना देव अनुसरहूं ॥
अहो संत तुम नीकं सिखावा } इमरे चित यक संशय आवा ॥
एक देव सम सुनेउ पुराना । विप्रन कहे ज्ञान खनिधाना ॥
वेद वाणि तिन्ह मोहि खनावा । परयुके खीखा सुनि मन भावा ॥
कहे प्रभ वह अगम अपारा । अगम गहे नहि आव अकार ॥
सुनेडं शीश प्रथुकेर अकाशा । षग पतार तेहि अपर निवाशा ॥
एके पुरूष जगतके इसा । अमित हप वह लोचन अमीषा॥
सोक्ित पौतिन्ह माहि समाहीं । अहो सन्त यह अचरज आहं ॥
ओ युरूगम्य भँ खना रे माई । अहँ सङ्ग भ ख्खौ न जाई ॥
अहो सन्त मं प्रं तोदीं । बात एक जो भाषौ मोहौ ॥
यहि घटमहं को बोरत आहौ । ज्ञानहषि नहि सन्त चिन्डाही ॥
जौ लगि ताहि न चीन्दरह भाई । पादन पूजि शुक्ति नहिं पाई ॥
कोटि कोरि जो तीथं नहाओ । सत्यनाम विन शुक्तिन पाओ ॥
को तुद्य को तव को घट माहीं । सन्तो चीन्ह वेगि त॒म ताहीं ॥
सर्वं मई ओ सवते न्यारा। सो खे यह खेर रिसाला ॥
जो घरवा मे बोले भाई । काटि नाम तेहि कड बुञ्चाई ॥
कीन सन्दर यद साज बनाया । नाना रंग शूप उपजाया ॥
ताहि न खोजहु साह के पूता । का पाहन पूज अजगूता ॥
धर्मदास सुनि चकित भयऊ । पजापति बिसरि सब गय ॥
एक टक मुख जो चिते रदाई । परुको सुरति ना आनौ जाई ॥
प्रिय कगे सुनि जह्यका ज्ञाना । विनय कीन्ह बड़ भीति प्रमाना ॥
१ अमित का विगाड है।
(९६) लानभ्रकाश
अहो खाइब तब बात पियारी । चरण रेकि बह विनय उचारी ॥
अहो साहब जस तुम्ड उपदेशा । ब्रह्मज्ञान गुर् अगम संदेशा ॥
टये दिवस साथ एक आये । प्रीय बात पुनि उनहू सुनाये ॥
अगस अगाधि बात उन भाखां ) कृभिम कटा एकं नरि राखा ॥
तौरथ चरत अिशुण कर सेवा । पाप पुण्य वह् करस करेवा ॥
सो सब उन्हहि एक नहि भवे ! खबते भ्रष्ट जो तेहि गण गवे ॥
जस तुम कडेड विरो विरोई । अस उन मोर कडा जोई ॥
गुप्त भये पुनि इदमकरं त्यागी । तिन्ह द्रशनके इम वेरागी ॥
मोरे चित अस परचे आवा । तुमह वै एक कीन्ह दुई भावा ॥
तुम कं रहो कदो सो बाता 1 उन्ह साहब कँ जानु ताता ॥
केदि प्रथुके तुम सुमिरण करद । कद विरोई गोऽ जनि धरहू ॥
सतगुर वचन
अहो धर्मदास तुम सन्त सयाना । देखो तोहि मै निरमल ज्ञाना ॥
धमदास भे उनकर सेवक । जर्हहि सो भव सार पद देवक ॥
जिन कहा तुमरिं अप ज्ञाना । तिन साहेवकै मो सहि दाना॥
वे प्रथु सत्यलोकके वासी । आये यहि जग रहर उदासी ॥
नहि वौ भग दुवार होइ आये । नहि वो मग माहि समाये ॥
उनके पौव तत्व तन नारि । इच्छा हप सो देह नरि आरि ॥
निःइच्छा सदा ररदैहीं सोई । यत्त रहि जग र्खे न कोई ॥
नाम कबीर सन्त कदलाये । रामानन्द सो जान सुनाये ॥
हिन्दू तूकै दोउ उपदे । मेरे जीवन केर काल कंरेशं ॥
माया ठगन आई बह बारी । रै अतीत माया गई हारी ॥
तिनहि उढावा तोहि पारी । निश्चय उन्द सेवकं दम आरी ॥
अहो सन्त जो कारज चदृहू । तो हमार सिखाव्न गरू ॥
उनकर सुमिरण जो तुम करिहौ । एकोतरसौ पुरुषा ठे तरिहो ॥
बोधसागर (१७)
वो प्रभु अविगत अविनाशी । दासं कहाय प्रगट भे काशी ॥
भाषिन निरशण ज्ञान निनारा । वेद कितेव कोड पावन पारा ॥
तीन लोकं महं पहतो काटा । जीवन कहं यम केरे जजाला ॥
वे यमके सिर मदेन हरे! उनहि गहै सो उतरे पारे॥
जहौ वो रहरि काट तह नाहीं ¡ इसन सखद एक यह आदीं ॥
अहो साहब बि बलि जाऊ । मोहिं उनके सदेश सुनाॐ ॥
मोरे त॒म उन्हीं सम भाई तुम वे एक नाहि विगराई ॥
नाम तुम्हार काहदै स्वामी । सो भाषह प्रभ अन्तर्यामी ॥
धृर्मनि नाम साधु मम आही । सन्तन मोह इम खदा रहारी ॥
साधू संगतिनिरिदिनमन मवे) सतश् ज्ञान खाश्च मि ङि गवे ॥
जो जिव केरे साधु सेवकाई। सो जिव अति पिय कमि भाई ॥
हमरे सादिबको एेसन रीती । सदा करहि साध्ुन सो ब्रीती ॥
जो जिव उन्हकर दिक्षा खेदीं । साधर् सेव सिखावन देदीं॥
जीव दया पर आतम पूजा । सद्र भक्ति देव नरि दजा ॥
सद्र सङ्ट मोचक आरी । निरयण भक्ति इवे यम नारीं ॥
उन्द्-है आपु सत्यकबीर सद्र प्रकट कहू तुम सना ॥
सत्यनाम भक्ति दृटावहिं दया क्षेम निर मना ॥
मन कम भम अबाट परिहरि बाट घरको देतदै ॥
जो सीश्च अरपे भव तरे सार जेहि यइ लेतदै॥
साखी-सुनह संत मति धीर, इडदया करहु विवेख ॥
रो ज्ञाता परखह दिये, संत असंतको रेख ॥
सोरठा-जीवन यम धरिखायः सत्यनाम जाने बिना ॥
वाचै एक उपाय, सत्यकबीर कदि भव तरे ॥
(९८) ज्ञानप्रकाश
धमदास दचन-चौपार
अरो खादय तुम्द अविगत अरहू। अमृत वचन तुम निय कहू ॥
डे प्रभु पेड बात दइ चारा । अब मै परिचय भेद् विचारी ॥
सोतो हम नरि जान स्वामी । तुम कहु प्रथु अतरयामी ॥
सतगुरु वचन
अहोधमेदासतुम्दमल्यदभाखो। करो सो जो पतीतितुमराखो ॥
अह निगुरा किं गुरुकिहं भाई । तोन बात मोहि कडु बुञ्ाई ॥
डे सामर्थ्यं गुरू इमतौ कीन्हा । यई परिचे गुर् मोदि न दीन्हा ॥
ङपदास विषटेश्वर रदरीं । तिनकर शिष्य सुनहु हम अदी ॥
उन मोहि इहे भेद समुञ्जावा । पूजह शाटिथाम मन भावा ॥
गया गोमती काशि परागा । होड पुण्य शुद्ध जनम अद्ुरागा ॥
लक्ष्मीनारायण शिलाके दीन्दा । विष्णुपजर पुनि गीता चीन्हा ॥
जगन्नाथ _बल्मद्र॒सहोद्रा । पञदेव ओरो योगीन्द्रा ॥
बहते करी प्रमो दटाई । विष्णुर समिर शक्ति दो भाई॥
गुरूके वचन शीश पर राखा । बहूतकं दिन पूजा अभिलाखा ॥
तुम्हरी भेष मिरे प्रथु जवते । तुम बानी प्रिय छागी तवते ॥
वे गुर् तुम्ददीं सतगुङू अदहू । सारमेह मोर प्रथु कहू ॥
तोहरे दास कदाउव स्वामी । यमते छोडावह अन्तरयामी ॥
उनहूरं कर नादं निन्द करावे । अस विश्वास मोरे मन आवे ॥
वह गुर सर्गंण त्रिगुण पसारा । त॒महौ यमते छोडावनहारा ॥
सुनु धमेनि जो तव मन इच्छा । तौ तोहि दें सार पद दिच्छा ॥
तुम अब निज भवन च्िजा । गरु परीक्षा जाइ कराऊ ॥
जो युर तुम्हें न करै संदेशा । तब दम तुम्ह कं देव उपदेशा. ॥
हम जाहि सतय पं भाई । तुम्दरौ प्रीति अब उनि सुनाई ॥
बोधसरागर (१९)
घमदाचं वचन
हे साहेब एक आज्ञा पावो । दया करो कड प्रसाद ठे आबो ॥
सतगुङ वचन
हे धर्मदास मोहि इच्छा नाहीं । क्वा न व्याप सदज रहादहीं ॥
सत्यनाम है मोर अधारा) भक्ति भजन सतक्चग सहारा ॥
अहो साइब जो अन्न न खाहू । तो मोरे चितकर मिटेन दाहू ॥
तुम्हे इच्छा तो ल्यावडु भाई । अन्ते छेड पाइव इम जाई ॥
धर्मदास उदि हाट सिधाये । बतासा पेडा इचि ठे आये ॥
आनि धरे आगे प्रभुकेरा । विनय भाव कन बडतेरा ॥
अहो साह अब अज्ञा देह । युङ् पहं जाब आश्चिष रेह ॥
कृरि दण्डवत् धमनि केर जोरी । अवधौ सुदिन रोड कब सोरी ॥
तेहि दिन सुदिन ेखब भरथुराईं । जेदि दिन ठव प दरशन पाई ॥
हम कदं निज चेरा कृरि जानो । सत्य कहौं नि्यकरि मानो ॥
आशिष द प्रषु चरे तरन्ता । अबिगति खीला ख्खेको अन्ता॥
धर्मदास चितवर्हिं मग गटो । सपजा प्रेम दय अति गादो ॥
छंद-विलटखि लोचन जब प्रथु अन्तर भये तबदीं चित अति खरभरे॥
चक्षुवारिध प्रबल प्रवाह भव हिय धीरज तनिको ना धरे ॥
धरि स्वास आस विश्वास मिन बहुरि जो भवन सिधाय ॥
गिरि सेज विथा विकर होइ उर विरद अति इख आय ॥
साखी-भोजन केम मलीन तनः अः विभेष बनाई ॥
रोनि दिवस छिन कल नदीं, जह तहं बेठे जाइ ॥
(२०) जलानभरकाश
सोरठा-मिरूदिं जो मेष अनेक, प्रं तेहि सदेश पुनि ॥
रोय न चित मर एक, यकं सम बचन न भावई॥
ध्मदासरूा गुरुरूपदासजोके निकट जकर ज्ञान पुछना
ध्ठदासवचन-चौपाई
धर्दाख चङि भो गरू पाहौँ । रूपदास कर आश्म जाह ॥
पेचे जाइ शूक धामा 1 होइ आधीन तब कीन्ह भणामा॥
त॒म गुरूदेव शिष्य हम आदीं । परचे ज्ञान कहु मोहि पारी ॥
जीव सक्त कौन विपि रहोई। तन षरूटे कर जाय समोई ॥
(जिवकर मुक्ति कैसे होड भाई । पारब्ह्म सो कटं रहाईं !॥ )
आदि जह सो कर्दैवा रहाई । घट मर बोरे कौन सो आदी ॥
ताकर नाम कहो दम पारी 1 घटम बोले सो कसर आरी ॥
हम को है चट को दो । जग करता प्रथु कां समो ॥
चमेदासर तुम भयो अजाना । को सिखयो तीहि अस ज्ञाना ॥
सुम्मिरह रामकृष्ण भगवाना । टाङ्र सेवा कर बुधिवाना ॥
विष्णुपजर ओ लक्षिमिनरायन । प्रतिमा पूजन सक्ति परायन ॥
मन वच सुमिरह ङुञरविहारी । रहै वैकुंठ सोई बनवारी ॥
पुरूषोतम पुरि वेगि सिधाओ । जगत्राथ परसो घर आओ ॥
गया गोमती काशीथाना । तीरथ नहाय पुण्य परघाना ॥
निराकार निर्ग॑ण अविनाशी । ज्योति स्वरूप शन्यका वासौ ॥
ताहि पुरुषकर सुमिरह नामा । तन ष्टे पचहु दरिधामा ॥
. धर्मदास वचन
हो गर्देव पो यक बाता । कोध करि करहु जनि ताता ॥
जीव रक्षकं सो कँ रहादी । नियकार जिव भक्षक आदी ॥
लक्ष जीव नित खाय निरंजन । तिया सुत तादि करे बह गजन ॥
तीनो देव षडे ल काला । सुर नर सुनि सब करे विहारा ॥
बोधसागर (२१)
नर॒ वपुराकी कौन चलाव । कोनी ठोर जीव सचुपवे ॥
तीन लोकं वैकुण्ठ नशायी । अस्थिर घर् मोदिं देइ बतायी ॥
पाप पुण्य भरम जार पसारा । कमबन्ध भरमे संसारा ॥
किरतम भजि जोइन नहि टे । सत्यनाम बिनु यम धरि टूट ॥
अहो धमदास हम चक्रित होदी । यह कड सञुञ्चि परे नहि मोदं ॥
तीनि लोकके कर्तां जोह । तेहि भाषत हौ जमर सोह ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश गोसाई । तम्दतेहिकइड कार धरि खाइ ॥
तीनि लोकमे वैकुण्ठ श्रेष्ठा । सो सब वुम्ह मानह निकषा ॥
तीरथ ब्रत अरू पुण्य कमाई । तुम यमजाख ताहि उदरा ॥
ओर् अधिक मँ कहा बताऊ । जो जानो सो नहीं इराङ ॥
जिन्द तोदिअस बुद्धि दियाभाई। तिनदीं कह तुम सेव जाई ॥
ध्मेदास विनवैँ कर जोरी। चूक टिठाई बक्सहुं मोरी ॥
हम तेदी पद अब सेवै जायी । जिन्द यद अगम मोहि बतायी ॥
त॒म रो गर उन सतर मोगा । उन हमरे मन मेगल तोरा ॥
तुम्हह गर बो सतगुरु मोरा । उन हमार यमफन्दा तोरा ॥
तुम्हे गुण कीन्ह अभक्ष्य टावा ।उन मोहिअल्खअगम्य रखावा॥
धममेदास तब करी प्रणामा । मथुरा नगर पटच निज धामा ॥
केतिक दिनि यहि र्भोती गयऊ । धर्मदास मन चिन्ता भयञ ॥
केतिकं दिवस यहि विधि बीता । धमेदास चित बाढी प्रीता ॥
बहुत दिवस मो प्रभु नर्दिआये 1 कीधौ केहि सेवकं विरुमाये ॥
एकं दिवस प्रमु ध्यान खगाय । क्षोमित चित्त प्रसाद बनाय ॥
र मीति मन बह म । रति सतेह साद कातो
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जिन्दा खूप धरी प्रमु आये । वृक्ष एक तर आसन खये ॥
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(२२) ज्ञानप्रकाश
इत चका सरं अस मो माई । बहु विडी चूर्हे अरकाई ॥
इरि दरि करि धमेनि अङ्राने । महापाप खि मनर भरने ॥
ततक्षण धमनि जिन्दरि हेरा । आये प्रसाद् लेह यहि बेरा ॥
जिन्दा आय गट पुनि मय । कर प्रसाद् ठे चिन्तवन किय उ॥
घमेदास दीन्देड परखादा । तब जिन्दा पुनि कीन्ह समादा॥
जिन्दा वचन
चात कियडउ तुम जीव अनेका । सो प्रसाद रे मम शिर रेका ॥
जीव घात सुनि अचरज माना । दो जिन्दा तुम्द कैसे जाना ॥
कवन जाव हम कन्हं घाता । सो सथुञ्ाइ करो मोहि बाता ॥
जिन्दा वचन
अहो साह कस धरहु छिपायी । चिईँदी च्ूर्हा बहुत जराथी ॥
सुनि धमनि चित संशय आने । यह को आहि दय अनुमाने ॥
अगुन सगुन चित करं बाई । मनी मन बहु अचरज पाई ॥
भात सबे चटी तब भय । बह संशय धमनि मन रयं ॥
सवे भात विरी दोह बीता । बहत संदेश धभेनि हिय कीता॥
हो जिन्दा मे अचरज भयॐ । लीला देखि थकित होय गय ॥
दो जिन्दा मे पुछत सकाॐ । दया करि तृष्णा मोरि बु्आाऊ ॥
चिंउटी सरी जरी प्रभु हमते । सो अदृष्टि बहु अन्तर तुमते ॥
सो कैसे जनेह तुम ताता । ओ प्रसाद चिडटी होइ जाता ॥
कौतुकं देखि अचरज मुदि आवा। यदह लीला ते जानि न पावा ॥
जिन्दा वचन
धमनि यदह सतगुरुकी लीला । घन्यसतगुरूजिन्दख्याखकरीरा॥
जान सतगुरू नाम प्रतापा । भयो पपीट् सर जिवगत पापा ॥
सतशश नाम सुनत सुख माना । धमेदास दिय हरष समाना ॥
बोधस्ागर (२३)
धमदास वचन
जोरि पानि पै प्रौं स्वामी । कहो कृषा करि अन्तरयामी ॥
अहो सादेव नाम क आही । प्रच नाम् को मोहि पड़ीं ॥
अङ सतथुक् तुभका कँ कदं । हे प्रु कान देश तुम रददू ॥
जिन्दा वचन
हो धर्मनि जो पह मोही । खनहु छरति धरि कों मे तोय ॥
जिन्दा नाम अहै सुच मोरा । जिन्दा मेष खोज किंड तोरा ॥
हम सतग॒र् कर सेवक आरीं । सत् संग इम सदा रहाहीं ॥
सत्य पुरूष वह सत्यगुरू आदीं । सत्य लोक वहं सदा रडादीं ॥
सकल जीवके रक्षक सोई । सतर भक्ति. काज जिव होई ॥
सतयगुङू सत्यकवीर सो आदीं । युत्त परगट कोई चीन्दै नाहीं ॥
सतश् आ जगत तन धारी । दासातन धरि शब्द पुकारी ॥
काशी रदरहि परखि हम पावा । सत्यनाम उन मोहिं दडावा ॥
जम राजा कर सब छल चीन्हा । निरखि परखिभे यम सो भीना ॥
तीन रोक जो काल सितावे । ताको सब जग ध्यान गवे ॥
निराकार जेहि वेद बखाने । सोई काठ कोह मरम न जाने ॥
तिन्ह कर सत आहि भिदेवा । सब जग करे जो उनकी सेवा ॥
जिगण जाल यह जग फन्दाना । गहै न अविचलरू पुरूष पुराना ॥
जाकर ३ जग भक्ति कराई । अन्तकाल जिव सो घरि खाई ॥
सते जीव सतपुरूषके आदीं । यम दे धोख फन्दाइस तादीं ॥ `
प्रथमदहि भये असुर यमराई । बहुत कष्च जीवन कदं खाई ॥
दृसरि कला काल पुनि धारा । धरि अवतार अघर संघारा ॥
जीवन बह विधि कीन्ह पुकारा । रक्षा करन बहु करे पुकारा ॥
जिव जाने यह धनी दमारा । दे विश्वास पुनि धरे अवतारा ॥
प्रभुता देखि कीन्ह विश्वासा । अन्तकाल पुनि करे निरासा ॥
(२४) लानषकाश
कार भेष दयार बनावा दया रदाय पुनि घात करावा ॥
द्वापर देखड् कृष्णक रीती । घमनि परिखड नीति अनीती ॥
अजेन कर् तिन्ड दया हटावा । दया रटाय पुनि घात करावा ॥
गीतां पाठके अथं बतरावा । पुनि पारे बहु पाप रखगावा ॥
बन्धु घातकर दोष लगावा ) पाण्डो कर बहू काट सतावा ॥
भेजि दिमाख्य तेहि, गलाये । छल अनेकं कन्द , यम्राये ॥
बड गंजन जीवन कहं कौन्दा । ताको कदे युक्ति हरि दीन्हा ॥
पतित्रता बृन्दा बत रारा। ताके पापं पन ओौतारा॥
बकिते सो छर कीन्ह बहता । पुण्य नखाय कीन्ह अजगूता ॥
छल बुद्धि दीन्दे ताहि पताखा । कोई न र्खे प्रपची काला ॥
लघु सरूप दोय प्रथम देखाये । प्रथिवीलीन्ह पुनि स्वस्ति कराये॥।
स्वस्ति कराइ तबे प्रगटाना । दीधह्प देखि बक मय माना ॥
तीनि परग तीनौ पुर भय । आधा पौवनृपदानन दियञ ॥
देह पुराय नृप आधा पाड । तो नहि तव पुण्य प्रभाव नसाई॥
तेहि कारण पतारूरि दीन्हा । अन्धा जीव जर प्रगटन चीन्दा॥
तब ठे पीठ नपाय तेहि दीन्हा । दरि ठे ताहि पताल कन्दा ॥
यहि चर जीव देखि नदि चीन्दा । करै मुक्त हरि ₹मको कीन्हा ॥
जाकर बचन थिर होवे नारीं । ओ पुनि जीव दया नहि तादीं ॥
तासो कषृह लाम किमि दोई । तेहि सेवे सो जाय विगोई ॥
ओ हरिचन्द् केर कस रेखा । धर्मदास चित करो विबेखा ॥
यती सती त्यागी भयऊ । सबक कारु विगुरचन ख्यऊ ॥
काके ब्रत दृढ निं राखा । ताक खुक्तिदाता जग भाखा ॥
स्व्गेहि धोखा नरकरि जादीं । जीव अचेत छट चीन्दै नारीं ॥
पण्डौ सम जग को बतघारी। नरकं बास ताक ठे डारी ॥
कृरण मोरध्वज सत्यत्रत धारी ) ऊ कसनी ताहि दीन्द विडारी ॥
भक्त अनेकं जगत मदै भये । काहू कह वेङुण्ड न दय ॥
बोधसागर (२५)
नरक वास नहि टै भाई महा नरक भग जठर कहाई ॥
नरकते विष्णु छुटे नदिं पाये । जनम जनय जठरे अग आये ॥
जग अधा हिय गम्य न कीन्हा । सवे आस तादी कर रीन्हा ॥
जिव अचेत हियगभ्य न करई । सवै आस वेङ्कण्ठ्िं धरई ॥
विष्णु सरीखे को जग आदीं । बह भगता किमि वरणो ताही ॥
तिन्ह वैकुण्ठ वास नहि पाया । कमह वसि पुनि नकं भोगाया॥
सो वैकुंठ चाहत नर प्रानी । यह यम छर बिरङे पहिचानी ॥
जस जो क्म कै संसारा । तस्र भुगते चौराक्षी धारा ॥
मानुष जन्म बडे तप होई । सखो माबुषं तन जात विगो ॥
नाम विना नहि टे काट । बार बार यम नकिं घाद ॥
नरकं निवारण नाम जो आशी । खर नर नि खत कोह नादी ॥
ताते यम फिर फिर मरके । नाना जोइनि काल सतव ॥
विरछे सार शब्द पहिचान । सतशुङ् परिरे घतनाम समाने ॥
छंद-सुव॒॒धमेदास खजाना शब्द प्रमान सतगुङ्् जानहु ॥
सुरति निरति गहि ठम चीन्ो अब्रूष अर्ज्छन मानहू ॥
सत्यनाम अराघह मनदीं साहू चतुर चोर जो मन अहै ॥
मने अहै निरञ्जन कोह न चीन्दे सुत्रवासी सब करैं ॥
साखी-सुन्य सर्पी मन सोई, धमदास लेह जानि ॥
रेख रूप वाको नही, जिन्दा शब्द् प्रमान ॥
सोरठा-निरंकार निरूप, परिचय वेद ॒प्रकास इमि ॥
तिर्हुपुरके सोह भूपः नेति निगम यश गावदीं ॥
घमदास्र कचन
हे सादेब तुमको शिर नावा । तुमतो मोहिं अक्ख रुखावा ॥
समरथ नव चरनन बलि जावे । तुम्ह ते बह परचे हम पावें ॥
उन साहेब सम तुमहू अदू । वेसिहि बात तुमह प्रयु कहू ॥
(२६) ज्ञानप्रकाश
मेष तीनि दिय दरशन मोरी । तीनो मेष मै जानौं तोदीं ॥
सतगुर् प्रथम दरस मोदि दीन्दा । दम करं आय कृतारथ कीन्हा ॥
अष छिषाय बहुरि ओहि आये । सार बात बह मोहि सुनाये ॥
तिसरे तुम्ड आयउ तन धारी । हम ह तोहरे द्रश भिखारी ॥
तुम्ड मोरिआय परमसुखदीन्हा। हम कदं आय कृतारथ कीन्हा ॥
तुमतो प्रथु बहु सुख दीन्हा । तुमते प्रथु परिचय हम चीन्हा ॥
एक बात प्रथु कडु विरो । कद दया करि धरह न गोई ॥
चिडटी बडइत जरो मम पादीं । तुम परताप अच पायो नादं ॥
ओरौ कबहि होइ जो एेसी । दे प्रु कडु बने तब् केसी ॥
चेत अचेत पर्वे तर पर । हे प्रथु दास कौने विधि तरह ॥
घमदास निःसंशय रदहू । सद्रर्ध्यान अस्थिर चित गददू॥
जानिके जीव कबि नरि मारो । भरोसा ओर दया उर धारो ॥
भरपषक चको नादं कबहू। सब जीवनक रक्षा करद् ॥
साघू सेवा पर सरवस वारी । सेवा सन्त प्रीति चित धारो ॥
सन्त चरण कर अस परतापा । पटे दोष दुख करमज दापा ॥
साधू सेवा जीव जन धारो । नामध्यान धरि काज संवारो ॥
साधू सेवा चित देइ करई । जीवन घुक्तिसो भव जर तरईं ॥
तीगथ त्रत बहु कम्म कगरीं । सत्यभक्ति विनु तरे जिव नाहीं ॥
कोरि तीर्थं सन्तन्दपद वासा । अघा जीवहि नहि विश्वासा ॥
सन्त जाहि घर चरण पखारा । भूत पिशाच रोये सब न्यारा ॥
नौग्रह् कर वसि नरि चल्ई । सब विघ्न सदा सो टल्हं ॥
जेदि घर संत चरण परैं । सन्त उचिष्ट जादि घर डाँ ॥
ताकर फल कडु वरणि न जाह । जादि गदि विश्वास केरे सेवकाई॥
गुरू चरणोदक नित प्रीतिसे खेद । निचे . रोक पयान देहं ॥
गर्मुख कणिक प्रीतिसे पावे । ऊच नीचके भरम मिटा ॥
बोधसागर (२७)
शुशषुख सती महा परसादा । पावत मेटे करमकर कादा ॥
गङ् ह ब्रह्म अखण्ड अमाने । गर कहं नरि माजुष कर जाने ॥
शुक्ते द्रोह तजे विष बादा। शङ् निन्दा नि पव स्वादा ॥
नाम पान चरणोदकं सीते । कै कबीर भक्तिं इट रते ॥
शुङ् सेवा संतन सनमाना । दया धम ठे मोक्ष अमाना ॥
जग महं जीव घात बहुतेरे । जीव घात शिर पापं घनेरे ॥
दया न गुणे कौर जिव घाता । खेखि शिकार मगन मदमाता ॥
मारि मारि तन करै अहारा । जीव दया नरि केरे गर्वोरा ॥
जिव घातिक वहते दख पव । जनम जनम तेहि काल सतावें ॥
कागदेह धरि निरधिन खादी । जनम अभित तेहि विष्ठा माईीं॥
शुकर स्वान जनम पुनि पव । मीन मांस मद् जाकहं भवि ॥
साधु देव भक्ष अंङकर आदीं । मीन मांस मद् राक्षस खाद्य ॥
कोटिक जप तप पुण्य कमव । दया विना नर शुक्ति न पते ॥
छंद-जप योग दान विधान बह विधि कंरे कमे अनेकं हो ॥
सत कोटि तीरथ भूमि परिकरमा करि न पावें थेक हो ॥
जौ लौं दया नरह जीवको तो सबहि कमे असार हो ॥
कोई कखे सनन जो हरि मैं कष्या शब्द पुकारि दो ॥
साखी-जीव दया चित्त मों धरे, तजं अभ्य अहार ॥
हेस दया धरि नाम गहि, उतरे भवज् पार ॥
सोरठा-सत्यनाम गुण गाय, गरी माधु सेवा करे ॥
सहज परमपद पाय, सो सतगुरूपद विश्वास धरि ॥
जहां एल तरं अवे बाप्ता । जहां साधु तहं प्रभुर बासा ॥
एक तत्त्व मन गुनि नाम समवे । दया क्षेम सत्य मन भवे ॥
शुरू ओ साधर सेवा चित रवे । सत्यनाम गहि लोक सिधावे ॥
सत्यनाम सो पिनस नादीं। जण जाल्ते न्यार रहादीं ॥
(२८) लएनपरकाश
चिगण त्यागि चौथा पद् मेरे । तब जरा मरणकी संशय मेरे ॥
चौथा पद सत्यनाम अमाना । विरला पाह केरे पद् ध्याना ॥
सखत्यनाम रै खार अनूपा) परेम प्रीति गुरू दरस सरूपा ॥
काड भये यह अंगुरीके देखे । जो नरि शीश दरश प्रयु पेखे ॥
काद भये सविया के भटे शीश दरशाविनु मरम न मेटे॥
नख सिख सत्पद दरश जबरीं । सो जिव जठर न आवै कबरीं ॥
निश्च सत्य पर रहै समाई । कमे भभ तजि जिव द्रि ताईं ॥
सत्य पद जिन एकि मन खाया । शीश दरश निज निश्वे पाया ॥
सुरतिनिरति खत्यगुरूपद परसे । षोडश भालु चन्द्र छबि द्रशे ॥
सुधापान सिघासन सारा ) हसन्ह मिलि सुख बड़ा अपारा॥
पुरूष द्रश खोचन छकि जायी । पुरूष वचन शुभ घान अघायी ॥
अन्धकार तदवों नर्दि दोह । सदा अजोर अमरपुर सोई ॥
दीपअसंख्य तं गणिन सिरारीं । दसा निश्वरु राज कराह ॥
निराकार यम तौ न जाह । तिरदेवनकी कोन चलाई ॥
सतगुर् शरण गदर जो कोई । ताहि देसको पर्हचे सोई ॥
जब राजा सो तिनुका सूट । पाप पुण्यके आशा टे ॥
तबहौं सत्यगुरु शब्द मन जूटे । जन्म मरणका सराय छे ॥
असुर भक्ष सो रहै निनारा । तजि असग सत्संग बिचारा ॥
विरे ईस निःसंशय रोह । दृट् प्रतीति नाम गहे सोई ॥
गुरू करं सत्यपुरूष सम जाने । सन्त करट युर सम कारि मान ॥
होड निःकपट चरण गुरूआशा । सद्गुर् नाम गहै विश्वासा ॥
निराधार सतनाम अधारा । शब्द् सुरति जगबध विचारा ॥ ¦
कृप भ्म सो न्यारा होई । गुरुपद राखे सुरति समोह ॥
बह विधि ज्ञान गरूते पवि । यमका फन्दन सो कटावे ॥
यमके फन्द कटे सुख होई । पञ्ुआ दो नदिं पावे सोई ॥
गुरुका शब्द् सुने जो काना । केरे विचार बहत परमाना ॥
बोधसागर (२९)
कार श्प धरि शुष कहे । करि वारख तासो इस्ति ॥
अन्धविश्वास जगतसो सोवे । जाय नरक पुनि भूख खोवे ॥
निरखि परखिके शरणे जवे । अगम निगम सब सोई जन
रहै अजाचक नामलौ छइ । जीव दयां खन्तन सेवका ॥
निजआतमसम सबही जानो मेम प्रीतिसे सेवा डनौ॥
परमारथकी भिक्षा करिये । युङ् साधुन आज्ञा अञ्चुसरिये॥
अभ्यागत आतम सम जने साधुनाम सद्र सहिदाने॥
छद-गुरूसाधु महिमा अमित अगम अपार पारन्हि कोड ठरै॥
जीदेव दश ओतार हरि शुरू साश्च पद रज तेऊ चै ॥
सनकादिक सुरनरमुनि सिद्धि ज्ञानीसाशु गङ् आतित रहै॥
हरि आपु मुख महिमा प्रकाशं निगम अस्तुति नित कै ॥
साखी-अस नर पौवर अन्धमति, इदयं न कृररिं बिचार ॥
गु सन्तन्ह पद सारतजि; विष बेरी अरतिषार ॥
सोरठा-सुत नारीं हित प्रानः गुरु सन्तन्ह सो चातुरी ॥
जब यम बधि तान, तब पछितावहि सुग्ध नर ॥
धमंदासवचन-चोौपाई
धन सतुरू धन तुमरी बानी । मोहि अस अधम दीन्ह गति जानी
अब साहब मोहि आपन करट । मम शिरचरणसरोशूह धरहू ॥
मे आपन दिन श्ुभकरि जाना । तोहरे दरश मोक्ष परमाना ॥
अब अस दया करह् दुखभजन। कबहु मोहिन घरिपाव निरजन॥
जिन्दा कचन
अहो धर्मदास दरश तुम पावो । शब्द गहे होय जिवशरुक्तावो ॥
यमफन्दा तब निश्च छट । जब यमरासो तिनका ट्टे ॥
अमीअंक परवाना पवे। सुमिरण नामध्यान चितलावे॥
हियते ओर आस सब छडे । सद्रर चरण नेह चित माड ॥
(३०) लानघकाश
नाम कबीर जपो दिनराती । तजहुकमं भम् कुलजाती ॥
प्रतिमा धोखा दूरि बहावो । आतम परजानाम चितखाओ॥
पौतर पाथर दरि बहा । सद्र सन्त सेवा चित लाञ॥
तब जसरा तोहीं नहिं पाई । नाम प्रताप काठ सुरञ्चाई ॥
दोहदे जीव काज तब तोरा । निश्च वचन मानु दिढ मोरा ॥
धमदारस्त कवचन
हे साहब मे तब पग धर । तुम्हते कषु दुबिधा निं करञॐ॥
अब मोहि चिन्दिपरायमबाजी । तुम्हते भयउ मोरमन राजी ॥
मोरे खदय प्रीति अस आई । तुम्हते दोहै जिव यक्ताई ॥
तुमहीं सत्यकबीर दौ स्वाभी । कृषा करहु तुम अन्तर्यामी ॥
हे प्रयु देह प्रवाना मोदीं। यम तृण तोरि भजौ भ तोदीं॥
रे नदीं अवर सो कामा ।निसिदिन समिरोंसदगरनामा॥
पीतर पाथर देव॒ बदायी । सदगुर् भक्ति करष चितलखायी ॥
अरपो शीस स्वस सब तोही । हे प्रथु यमते छोडावह्न मोदीं॥
सन्तन्द सेवाप्रीति सों करि । वचन शिखापन निश्वयधरिरौ॥
जो तुम्द करहु करब हम सोई। । हे प्रथु दुतिया कबहुँ नि होई॥
सुचु धमनि अब तोदीं सुक्ताओं। निशे यमसों तोरि बचाओ ॥
देइ परवाना हस उबारो । जनम मरण दुख दारण टारो ॥
खे प्रवाना जो करे प्रतीती । जिन्दा कहै चरे यम जीती ॥
अब्र मोदि आज्ञा देह घमंदासा। दम गवनहि सदग॒रूके पासा ॥
सद्गु संग आइब तव पाहीं । तब परवाना तोहि भिरहीं ॥
ह प्रथु अब तों जाने न देँ । नहिं आवो तो मेँ पठितौ ॥
पछताई पछताई बह दुख पेहौँ । नहिं आवहुतो प्राण गवेहौँ ॥
हाथके रतन खोई कोई डरे । सो मूरख निजकाज विगारे ॥
बोधसागर (३१)
मोरे प्रान पियारे वम्हद हो । केहि कारण अनत च्जदहौ॥
कबीर साहवका तीसरी बार गुप्त हो जाना ओर धर्मदास साह्बकी व्याकुलता
यह कटि धर्मदास पर खडः । जिन्दा शप्त भये तेहि उड ॥
धर्मदास पुद्रमी पङ हारी! सद्रङ् कं षड कीन्ह गोहारी॥
मर्द समकोजग आहिअभागा। छटे नदेह उगोरी लागा ॥
जिमीयु्जंग मणि जाइ हेराई ।विकरू फिरिजिततितविरुलाई॥
उहै हार सद्र विन मोरा । कतपरूदियेड मन्द् मति मोरा॥
काह करौं किंत दर्शन पा । बिद्ध दशन यै पान गवां ॥
कन्द विवेक मन धीरज दीन्हा । मन मर्ह एकर एकं चुनिकीन्डा॥
कसं महोत्सव सत अवराधी । तब दशन देहि पुरूष अनादी॥
साहेव सन्त सनेदी आही । सन्तन तजि वह अत न जाहीं॥
असहिय ठानि भवन चलि गय) सन्त प्रसादक चितवन कियॐ॥
संतधाम जँ टमि गम पावा । तहां तहां विनती नेवतिषठावा॥
छन्द्-दिन अवधि वाही चरन लगे बह भेष पह आयो ॥
दीह चथ्थहि सेज आश्रम कीन्ह विनती जाइ हो॥
दे भाव भोजन गमनिरश्वहिं सकर मेष अरेखटी ॥
सबरह निरखरहि सुरति परख दद्य समाह विवेकी ॥
दोहा-पान सखपारी हाथ, करदं दण्डवत जाय ॥
भेषन सो चित विलखिकेः पूछ मन परिचाय ॥
सोरग-तुम्ह दो सन्त सखजान; निजदासन्ह सुख देतुहौ ॥
सत्य पुश्षं सदहिदान, सत्य लोक महिमा कहो ॥
वेष मता वर्णन
चौपाई .
कोई कहै अदेव अवराधौ । कोई कै बत करि तन साधौ ॥
कोर करै कर् प्रतिमा सेवा । कोई तीरथ कोह जपतप भेवा ॥
(३२) जलानभकाश
कृचिमयथक्ति जो सबे बटे । सत्य सारपद नाहि बते ॥
तब अकखायसंसखाधारे जोये । प्रगर नहीं गप्र हिय रोये ॥
मरति आश्रपगम्यउढठी निरासा । जिततित चितवर्दि घर्भनिदासा॥
पुनि चितवनउत्तरदिशिकीन्डा । मूरति एक मित्र तहं चीन्हा ॥
वमदास तहं बेगि सिधाये । प्रथम शूषको द्रशन पाये ॥
चायच्रणगदहि अति अदरागा 'बुन्दपाय चा्निकं जिमि षागा॥
शुक् पद पाय प्रीति चित जागा। दोखतगुङ् मोर कीन्हसभागा॥
चाये चरणनगदिअति अनुरागा। युगषदगहेड प्रीति चित लागा॥
करगहि दास उटठायेउ स्वामी । सुधा वचन कह अन्तर्यामी ॥
धमदास तुम्द दस सुदेखा । मोटि दरश कह कीन्डेड सेखा॥
इच्छा सफल भह सुन तोरा । अब तम्ह दरशन पायडउमोरा॥
हेप्रथुजां द्शेन नरि पावत । तौ हम निच्वै प्राण गर्वित ॥
अब प्रभु कौजे कृषा तुरंता । दीजे बीरा अविचल संता ॥
यमपे तिका वेगि तोराओ । वन्दी छोरि मोर घकताओ ॥
सतग्रु वचन |
खुचघमेनि जो कदो सो मानो । तजि संशय धीरज चित आनो॥
करहु जाय सन्तनसनमाना। ता पीछे दैदहों परवाना ॥
हे प्रभु कटो सोई हम माने । करब जाइ सन्तन्ह सनमाने ॥
हे प्रभु जौ कतहु अब जाह । तौ जीवित नि पडदौ साहू ॥
हे धर्मनि सुनहु मम वानी ।कतह न जाब सत्य दियजानी॥
कृरि प्रमान चितवत चटु पाछे । जौँ नटनिरत सुघरता काछे ॥
ज्ञाय कीन्ह सन्तन सनमाना । यथा शक्ति पूजा परधाना ॥
बोधसागर (३३)
विदा कीन्ह सन्तन करजोरी । बख्श जो मरी भह खोरी ॥
सब सन्तन निज धाम सिधये। धम॑दास सदर पृ आये ॥
कहै धर्मनि सुख दीनदयाल । आदर छोड बन्ध कषा ॥
सतगृड वचन |
धरमेनि जो चाहु पश्वाना । आनहं आरति साज जाना ॥
अहो साहब कस आरतिसाजा। सो भाषह आतुर जिवकाजा ॥
धुर्मनि चहिये नारियर पाना । मेवा सो अष कड मिद्यना ॥
चन्दन चौकसुगन्धि करा । कठ्शा पह्छौ पञ्च धराओ ॥
गोघृत वसन सकट श्चभ चाह्। साजि थार पुनि आरतिबाङ् ॥
सिचासन पनि सेत बनाओ । आरी दर कषर मेराओ ॥
श्वत वुहूप केदलो पनवारा । आनि वेगि जनि खकवडवारा ॥
रतना कंदईनिनगर म्ह आदीं । गड मिष्ठान्न तिनि कर चाहीं॥
धावह वेगि तुरति रे आवड । आनहु वेगि वार जनि खावड ॥
धर्मदासजीका रतनासे मिलना
छन्द-पदकंज टेक्यो चरे विचारत कर्हौधों रतना अहै ॥
कर पि लीजे भवन उनके निज हये खनता_ रहं ॥
तद आय रतना गदि भयी मिष्ान्न रे कर जोरि के ॥
भो साह येह प्रसाद् टीजे नाम रतना मोर. है॥
दोहा-घर्मदासर रह सकुचि चितः, यहं तो अचरज बात ॥
हो माता किमि जानेर, कडु सोइ विख्यात ॥
सोरग-सुवु धर्मनि हम नाहि यह लीला सद्रर् कियो ॥
दम उन सेवक आदि, जिन्ह तों शब्द ॒चेताहया ॥
नं. ४ कनीर सागर ~ «
(३४) ज्ञानप्रकाश
धमदास वचन-चौषाई
ले दाम धन्य हौ तुम माता । एक प्रान देखिये दुइ गाता ॥
रतना वचन
अरौ घमेदास कस मोर बताओ। उन्हको तन मनवेगि सिधाओ॥
ओरौ बस्तु लेह अतुराईं । गवनहू वेगि सुनहु गरू भाई ॥
चकि घमदास पुनि तबहीं । रतना आकर भाष्यो जबहीं ॥
लीन्हवस्तु पनि सकर सम्दारी। धनी पर सब जाय सर्वोरी ॥
के सादबके सनघुख राखे । सज्ञ थार अस आयस भाखे॥
सतग्रु वचन
चौका सर्वोरि थार रचि धरेड । सब विधान आज्ञा सम करेउ ॥
साहेबके पुनि चरण पखारा । चरण पखारि आसन वेडारा ॥
आसन बेठिके सुमिरन कीन्हा ।नारियर मोरि अंशगदहि टीन्दा॥
स॒त्य सुछृत केह माम कीन्द। तब् त्रिन तोरिपरवाना दीना ॥
रू नारेयर प्रसाद् खुख माना । धमंदास चित इषे समाना ॥
भरेम सरित चरणोदकं लीन्हा । मुख मई डारि मिगई दीन्हा ॥
सात द्ण्डवत ततक्षण कीन्हा । डदयमार्ि यर् रूप गदि लीन्हा॥
दण्डवत् सात धनो कहं कीन्हा । शब्दसुरतिपुनिवितगरि रीन्दा॥
सात दण्डवत् कीन्हा जबरीं । माये हाथ दियौ प्रथु तवी ॥
धमंदास चित इषं समानां । उपज्यो दिरदै निरे ज्ञाना ॥
सदृशुरूको जब सुरति समानी । विनश्य करम भरम यमखानी॥
सदशुङ पद् जबहीं अस्थापा । उदित ज्ञान पद् रज परतापा॥
घधबदास्र कचन
हे साव जो आज्ञा कीजे। परतिमा मूति काट करद दीजे ॥
गर्ते अधिक कौन दै देवा । अब इम करब तुम्हारी सेवा ॥
बोधसागर (३५)
सद्वु सम॒ नहि देखो आना । पूजि शिला मम जन्म सिराना ॥
कबहुँ न कहेसि युक्ति उपदेशा । तम मेरे मम कार करा ॥
धर्मदास यह चित गहि धरदू । प्रीति सो साधु सेवा अलुसरहू ॥
पीतर पातर प्रजहि अन्धा) जो शर् ज्ञानदहीन मति मन्दा ॥
प्रभु कर शिरादूप करि देखे । ताकर जीवन जन्म अंरेखे ॥
शिला मादि जो सरति क्गावे । तन धन शिखाड्प सो पृं ॥
जहौ आशा तहं बासा हो । ताक मेरि सके नदिं कोई ॥
चक्रित वृषभ ज्ञात बिनु भानी । जित जित भटे नहिं पडिचानी ॥
ज्यो कन्या रह पिता अवासा । कौतुकं करहि एजि यन आशा
भयेड वर कन्या कर व्याहा । तब सब तजेड मिले जब नाहा ॥
बिना खसम कस आस बुञ्चाई । अस परतिमाकी पजा आई ॥
जवं ज्ञान न दिये समायी । तब कमि धोखा भरमरहे यी ॥
जब गुर् पूरा मिरे मतिसारा । उदे ज्ञान रविकपित होय ताया ॥
जब उजियार दोय घर भाई ¦ धोखा भरम तब सहज नसा ॥
ताते गुरुपद् सुरति समाओ । सतश् ध्यान अभेपद् पाओ ॥
गुर ते अधिक न कोई उदरायी । मोक्षपथ नहिं यरु बिच पाईं ॥
राम कृष्ण बड तिरहपुर राजा । तिन गरु बंदि कीन्ह निज काजा॥
देवं ऋषी सुनिवर शुक शेषा । सबदीं बन्दे गुरु चरण सुरेशा ॥
` तन धरि करहु न युर कहं मेदा । गुरू गमि सब साहुषद भटा ॥
मूर्खं जीव कर गरूर अकेला । बिद यरु जगत कारको चेला ॥
गुर विन सार ज्ञान नहिं पायी । ज्ञान विनानहिआपु चिन्हायी॥
जौँ हिय आशु आप गमि नाहीं । तौ कगि जीव् भव भटका खादी॥
सो यर सत्य जो सार चिन्दावे । यम बन्धन ते जिव स॒कतवे ॥
धमनि तुम्द मम शब्द बिचारो । सरवमईं यक बह्म निहारो॥
१ वृथा किंसो लेखामे नहा २ नारद एक
(३६)
स(नञज्रकाश
बोरूत घट सहं ब्रह्म अखण्डा ! रोमर्हिं रोम गरजे ब्ह्मण्डा ॥
जो बोरे सो कबि न मरईं । गन्दा तन नर सरि गछ जरई ॥
बह्म देह धरि जीव कदावै । पाँच स्वाद् रति सो दुख पावे ॥
निज चर डोरी ष्टे भाई । जीव रहे यमफन्दं अश्ञ्जाई ॥
सदगुरु भिरे डोरि घ्र पावे । पोचन्द कर परपञ्च नसावे ॥
आपुहि जीव ब्रह्म है भाई । गुर् परिचय बिन र्खो न जाई ॥
निः अक्षर कख तत्व विदेदी । सत्यनाम गहि मिरे सुख तेदी ॥
जो लि तन मर्द ब्रह्म सुरंगा । तब र्गि रहै तन मन बहुरंगा ॥
यन्री बह्म यत॒ तन आही यंत्रीविबु नदीं यं बजाही॥
परिचे ब्रह्म दया चित रवै । सदगुक् सेइ परम पद पावे ॥
पूजहु सरजिव साधु अमोला । लहु अभयपद् निश्चय लोला ॥
छद्-परखि देखडु श्रेष्ठ वानी शाघ्च सुस्पृति मत घना ॥
जिन्ड साधु सेवा कीन्ह तिन्ह लीन्ह अभेषद् सुखसना ॥ `
योग यज्ञ॒. आरम्भ कन्दं ते गये पुनि हारिदहो॥
गुर भक्ति अर् सतसंग कीन्हो ते चरे इर तारि दो ॥
दोदा-मदहिमा अनित साधु य॒रू, समङ्जह सन्त सुजान ॥
पाटन सेवत भरम वश, ब्रूडे सकल जहान ॥
सोरग-साहब सन्तन पाहि, जो सेवे सो भव तरे॥
कृरम भ्रमके मारि, जाय विगशुरचे जीव बहू ॥
धमदास वचन-चौपाई
हो साहब तव पद् शिर ना । तब पद् परसि परमपद ||
केदि विधि आपन भाग सराही । तुम बरत गं भाग पुनि तादी ॥
कोधो यैं शजम करम कमाया । जो सदरगुरू पद् दरशन पाया ॥
सतगुर वचन
घभनिः सुनो आपनी करनी । तुम सुकृत आये जिव तरनी ॥
पुरुष॒ पठाये जीवन काजा । तुम पर का कीन्ह यमराजा ॥
बोधसागर (३७)
तब सत्य पुरूष आज्ञा मोहि कीन्हा! तत क्षण आय पृथ्वी पन दीन्हा
बार अनेक कीन्ह मिलाप । धरम दास नहिं चतह आप्र ॥
पाहन पूनि ध्यान मन खये } सदु शब्द चीर्हि र्हि पाये॥
तीरथ बत कीन्ह बहु करनी । हपदास् शर्की गहि शरनी ॥
ताघ प्रीति तोहि आन जगावा। नाम प्रताष यह् परभावा ॥
जो जिव नाम तुम्हारा ठै! ताहि जीवको कार न चेह ॥
सदशुर् भक्ति जाहि कल होई । तरे एकोतर पुक्षा सोई ॥
दूसरी प्रतियोनि नोचे लिखे अनुसार है
सद् गरु वचनं
धमनि सुव॒ आपनी करनी । जेहि तोहि मिरेडशब्द भोतरनी ॥
द्वापर अन्त सुपच तुम रहे । तव सुत एक सो मथ बत गईैॐ॥
तास प्रीति तोहिंआनि जगावा } है प्रताप नाम प्रभावा ॥
सदशुङू भक्ति जाहि इर होई । तरे एकोतर पछिला सोई ॥
वही संयोग तोहि इम भटे । तुव सुत प्रीति तार इख मेरे ॥
नोट-एक प्रतिमे तो ऊपरके प्रमाणहौी लिखा है किन्तु कई प्रतिथोने ऊपरक्ती नौ पंद्ितिके
बदले नीचेकी पंक्तियां लिखों हं । पाठक गण स्वयम् विचार करके जो उत्तम ओर प्रामाणिक
समन्ञे वह रखें ओर पाठ करं । किन्तु इतना तो अवश्य कहा जायगा कि भिन्न २ ग्रन्योमें इन।
दोनों बातों का प्रमाण भिलता ह। ओर लेखक महात्नाओंको कषा से पपात ओर अवियावशः
कबीरपंयके ग्रन्योकी जो दुर्दशा हई है वह साक्षर वर्भसे छिपा नहो है। प्रन्योकी यहो दशा
देखकर स्वयम् कबोर पंथ यहांतक वंशधर कहीं कतिपय महत संत लज्जावश हो किसीके
सामने इन ग्रन्थोका नाम लेते भो सङ्कचाते हं । ओर हदये इन सब ग्रन्थोपर अश्द्धा रखते
हे । इस ज्ञान प्रकाश कौ कई प्रतियां मेरे पास उपस्थित हं किन्तु कितो भो प्रतिका एक इसरे
के साय मिलाप नहीं होता है। इसी प्रकरारसे लगभग सब प्रन्योको दशा हो गयी है। जो जो
नवीन प्रतिय हं उन स्बोमिं अरकट छन्दोभण अ्थमंग ओर भावभंग आदि दोब पुणं रीतिसे
भरे हं । हां पहलेकौ प्रतिथां कुछ शुद्ध हं उपोके अतुसार जातक होता है रखनेका शभ्रयल्न
करता हूं । एसा करनेपर भो प्रस्तुत विषथके समान जहां संदिग्ध विषय आजातं हं वह"दोनों को
रख देना उचित जानता हं । इतना होगा जिनके पास जेसी २ प्रति होगो वे अपनी भरति--
(३८) लानघरकाश
सवोनन्दकी कथा
हे धनि परखह चिता । बिप्रगौशटि तोहि वरन सुना ॥
गहि पद घरमदास इरषाना । किये विप्र गोशि सहिदाना ॥
जख कड भयी विप्र सो चचां । सो स्वामी किये मोहिं परचा॥
भिन्न २ के वणेन कीजे। दास जानि दया प्रथु रीजे॥
भलघमेनि सुनहु अब सो कथा। गोषिभयी सवौनन्द से यथा ॥
सवीौनन्द् विप एक रई । कोइ न ज्ञाता तिनसम अहं ॥
सवानन्द द्विज जो रदे । तासम ज्ञान अवर नरि कदेड॥
बहुपण्डितसोगोष्टितिन्डकीन्हा। ज्ञानजीति पोथी बहु लीन्हा ॥
काहु न जीते गये सब हारी । सर्वानन्द मन गव बहु भारी ॥
जिन्ड पण्डितसों चौ कीन्हा । ज्ञान जीति पोथी बहु लीन्हा ॥
गो्टि वाद् कै निजचर आया । बाहु अभिमान गुमान चितलाया
सर्वानन्द वचन भाता भरति
मातासों तिन वचन उचारा । दो जननी बड़ भाग्य तुम्दारा॥
हम अस पण्डित है सुत तोरा । काह न जीते गोष्ट सो मोरा ॥
सबोजीत नाम मम धरहू ।अनजित तिलक सिर दमरे करहू॥
काहे जननी धन्य पुञ्र प्रवीना । सहि ज्ञाता तुम्ह हम्ह चीन्दा॥
हो सुतएक पंछी तोदिपादीं । कवीरजोलददि जीतेहुकि ना्हीं॥
र शअद्धाके अनुसार बागे । इसी प्रकारते अनुरागसागरको अनेक प्रतियोमिं भी सुपच सुदशेनके
पिताकाहौ अनेक जन्मके पश्चात् गुर धमंदास साहब बनना लिखा है किन्तु अभो जो इस पुस्तकके
साथहौ छपे हए अनुरागसागरमें सो बात नहीं है उसका कारण यह है कि वर्तमान आचाम्यं
चं शनी ` उप्रनाम साहबकी सेवम जो अनुरागसागरकी प्रति छषानेके लिथे सुक्को भिली थी
उवके अनुसारहौ यह अनुरागलागर छमा है
बोधसागर (३९)
सर्वानन्द वचन
सुनु जननी तब ज्ञान इताना । काजोलदहा संवादमतिजाना ॥
पण्डित कोई जीते मोदि नाहीं । सो जोलहा वादंहि इम पादीं ॥
सुनु सुततबदहि कहब हम ज्ञानी । जब जोरहदि जीतहू बुधवानी॥
जोलदहहि जीतिआवहु तुम जब्ही। सवांजित कहब तोहि तबदीं ॥
तवहं तोहि सिरसारव टीका । बिनु जोरूईदिजी जीतेब्दिफीका॥
स्बनिन्द वचन
अहो माता करवीर करट रहदीं । कोन भेषवानी का कहीं ॥
( कदां कबीर रहै हो माता । कौन मेष बाना है ताका)
हो सुत काशी रहत रै सोह । अविगत लीला र्खे न कोई ॥
( काशी है उनका अस्थाना । तिनकर लीला कहा बाना ॥
नाम कवीर जोख्हा कहरखावरीं। भक्ति भेष सो इरिथुण गावहीं॥
( जोरा नाम कबीर बतावे । भक्ति भेष इरिशुन गावे )
जब जनती बहते पिरकारा । बटचो कोध भयो विकरारा ॥
कन्द प्रणाम चितवत अभिमाना। काशी कपुनि कीन्ह पयाना ॥
आये नगर पेसारी कन्दा । घर पू्िकं चितवन लीन्हा ॥
तदा कमाटी तह कद गये । पन्थ विग्र तहि पे लिये ॥
वचन कमाली प्रति
अहो कन्या मोहि कहू बुञ्चायी । करवीर जोरा कदां रहायी ॥
कन्या बिहैसि केहेड एकबानीं । को अस घर कबीर गमिजानी॥
भिदेवता तिहपुर अधिकाई । तिनडइ घर कवीर गमिपाई ॥
_ न --------- „
बाद करेगा अर्थात् सर्वाजोत कहता है, कि, जब बडे पंडितो ने हमको नहीं जोता तो ओला हमले =
शास्त्रा करेगा । „6
(०) जलानघ्रकाश
सुर नरखुनि ओ जहां खमि देवा। तेहि घरकी कोई र्वे न भेवा ॥
लीचहि अरूञ्ि रहै यम फांसा । चीन्ड न पावे अविचरू वासा॥
चर कवीर जहां हे भाई । तरौ त यमराजा गमि पाई ॥
जाहि दया सद्गुरू की होई । घर कबीर गमि पाव सोई ॥
द्विज चकित कन्या की बाता । यह तो अचरज आहि विघाता॥
सवजोत वचन ।
दो कन्या तुम्ह अचरज भाषा । अबमोर्दिकदटुप्रगट अमिलाषा॥
यह कन्या तो निजकर् भाषा । धाम कबीर प्रगर क वासा ॥
काशी मांह रहि केहि ठाई । तौन भौन तुम्ह मोहि बताई ॥
कमालो वचन
चलुद्विज तो कहभवन दिखाॐँ। कहो सो जाय संदेश सुना ॥
तब सवानन्द् कीन्ह विचारा । जोहका ज्ञान देखो यहिवाशा ॥
सर्वानन्द वचन
जल पूरण वतन भरि रह । ठे कबीरके आगे धरिदेहू ॥
कडुरिसोमोरि स॒नावहु आई । हो कन्या यह सुन चित छाई॥
सन्धुख ले वतन धरिदेदो । जो कदु कै सो हमसे कदिहो॥
कन्या भौन तुरत चलि आई । आवतदीं अस वचन सनायी ॥
कृन्या अस्त वचन उचरता । विप्र द्वार उट बुधिवता ॥
जिन्ह जर पत्रदीन्ह मोदि पादीं। वचन संदेस कहा कु नादीं ॥
तब हम उठकरे सुड एकटेरा । जल मेदडारि दीन्ह तेहि बेरा ॥
कन्या वरतन देहु तेदि जाई । पाछे हमहुं तारि परं आई ॥
जाइ द्विज जलवरतन दीन्हा ॥ कन्य विप्र पछि पूनि ीन्हा॥
अहो कन्याकसकदिनविचारा रा ॥ भाषिमुनावह सोनिरूवारा ॥
वचन्
कन्या कदे भाषिन कड नाहीं । सुई एकं डारि दीन्दजलमारीं ॥
पण्डित मूरख मरम न पावा । कहत न बृञ्च सुई प्रभावा ॥
बोधस्ागर ( 4: )
गुनहीं विप्र बहुत शय माहीं । पुनि इमहू गै भरँ ताहीं ॥
कुशल प्रश्न पौ सनमाना ॥
सर्बनिन्द कवचन
कदे वृण्डित सुई मरम नहिं जाना ॥
तब हम कहा सुनो द्विजराई । अम्ड सुहगमि कहो ब्चाई ॥
पठय॒उ जकरभरि अस अबुमाने। इम विद्या सम्पूर्णं अघने ॥
जिमि वृरतन जलअम्बुन समाई। तिमिहम विद्या रहे अघाई ॥
भरे महं का भरे कवी । अस तुम्हरे चितं खनमतधीड॥
तुव हियगमि जानि द्विजराई । तब दीन्दी जल खं एकं नाई॥
जौ विद्या सम्पूरण हो भाई । तौ शब्द् इमार बेधि तोडि जाई।
सुनि पण्डित् चित सम्भ आन।। दय कटै अगमइन ज्ञाना ॥
तेहि क्षण रदे हिये अनुमानी । भराति करब गोह कंडानी ॥
छन्द्-तेहि दियो आसन आत्म पोषन भाव् सहित समप ॥
द्विज कीन्ड भोजन सेज पढे रेनि हिये बहु तकेड ॥
चिन्ता करत बहत शुनावन वेद विधान ज्ञान अटावहीं ॥
होत प्रात कीजे वाद् जो कहहिं जीव युक्ति अटावरीं ॥
साखी-वीतेड रेन प्रभात ओ, करि विचार मन माई ॥
सत्यनाम पद सुमिरिफे, पहु च गये तिहि पाह ॥
सोरग-भयेउ विप्र उठि ठट, गयेउ जंगख्की दिसा ॥
करत तरक चित गाठ, बैठे तजे शरीर मल ॥
चोपाई
हम गे रामनाम तेहि केँ । सुन विनि दृहेऊ॥
भयेरकोप अतिकीन्द प्रसन जर। इच्छायुक्ति नासिके तजीमल ॥
(४२) लानघ्रकाश
सर्दानिंद वचन
कहै विप्र देख्यो तुव ज्ञाना । फिरिजोरहा तुम्दजातिअयाना॥
फेसे समय राम तम्द बोले । कदा कहो हरि आस न डोरे ॥
कबीर दवचन
अरोविप्र मोरि कहु बु्चाई । कौनी समे रामरौ खायी ॥
सर्वानिदं वचन
कहा सवीनन्द्सुनहु जोलाहा । करम नीति भाषौ तोहि पाडा॥
वेद् प्रमान ले मारी पानी । तबञुख श्ञुद्धयम जपुजानी ॥
कबीर वचन
अहो विप्र जो हम अस करदीं । तौ सुख शुद्ध शोय संचरदीं ॥
सर्वानन्द वचन
करै विप्र है वेद् प्रमाना । तब श्ुख होय पवि सुजाना ॥
यह किचकिभौ सुरसरितीरा । कर पग मजर शुखदे नीरा ॥
हम पुनिकर पशु मजे लीन्हा । कर पखारि पुनि कुरा कीन्दा॥
कुदा कीन्ह द्विजव चन प्रमाना । एक कुदा तें उपर ताना ॥
सर्वानन्द वचन
विकि उटेद्विज यदका कीन्डा। फिरिजोरहातुम्दजाति कमीना ॥
कोर वचन
हो सवोनन्दमुख शुचि भयऊ । ङा कीन्द अश्युचि तर गयउ॥
यदिविधि सुखशुचि तुम भाषा। तुम्दरो कहा हिये मह राखा ॥
हो सवानन्द् तुद्य बड ज्ञानी । सत्य नाममर्म अजह नरिजानी॥
` रज अर बीज नरककी देदी । सदाअश्ुचि शुचिनाम सनेरी ॥
जो मल तजत प्राण करे गवना। करमुख शुचि दरिजप कवना ॥
सथुञ्चि शब्दसो रह मुखचाहू । उत्तर कुं तब दीन्ह न ताहू ॥
पुनि द्विजमंजनलाय शरीरा । ताभ्रपाज एक रीन्ड कबीरा ॥
बोधसागर (४३)
गोबर घोरि ताहि भरि टीन्हा । वरतन कर खख यकन दीन्हा ॥
ले जिन रेनु जर मंजे तादी । अके अधिक प्रगट मल नादही॥
सर्वानन्द कचन
कहा सवानंद सुन कबीर । भो सुन्दर वर्तन मति धीरा ॥
केहि कारण अब मजहर भाई । मरू नहि तनिको देह दिखाई ॥
कनीर वचन
सूनु पडित नीक तुम्ड कड । अप्र शुचि अन्तर पर रहेड ॥
मोदडा खोलिउर्टि दिखरावा। सर्वानन्द देखि धिन पावा ॥
सुनु सवानन्द् अस नर बाता । अंतर मरू प्रगट श्चि गाता ॥
जल्मञ्चन तन मेख नशायी । मन मर कृहो कौन विधि जायी ॥
विन ज्ज्ञानन मनज्चुचि होई । रन दिवस तन यजै कोई ॥
सवनिन्द वचन
कटै विप्र मन मल कह मोहीं ।
कनोर वचन
कहै कबीर कहं भै तोहीं ॥
कम कोष त्ष्णा हकारा । लोम भह मन मै विकारा ॥
परनिन्दा परघात अनीती । मन रहै अश्चुचि कमं कुनीती ॥
छन्द्-सुनु विभ सौई पंडित सोई ज्ञाता जो परमोधै पाचहीं ॥
जदं खमि योगी खनी अनीश्वर पांच वशि सब नाचदीं ॥
यहि पाचके प्रपञ्च मर्ह सब परे शिव सनकादिक हो ॥
इन्द्र आदि अङ् बहु भेष टट विष्णु ओ बह्नादि हो ॥
साखी-असरे पखेरिन्ह टिया, को नर कीट पतग ॥
कहं कबीर सो उबरे, निरख परखि करे संग ॥
सोरढा-करि यर् पद परतीति, सदय शब्द निरखत चरे ॥
निश्ये पाचौ जीति; धर अंजोर जागत रहै ॥
(४) लानप्रकाश
चौपारं
सवानन्द् मगन मन भयऊ । पे उत्तर कष्ओ नदि दियञ ॥
पुनि खगे जक अरपे सोई । चित् निश्चल छल एक न दोई ॥
इम जर उखिचन रागु करारे । सनन्द पुनि मोर निहारे ॥
सर्वानन्द वचन
करै सवोनन्द् सुनहु कवीरा । काह कवन उछिचन हौ नीरा ॥
कबीर वचन
कं कबीर सनु विप्र सुजाना । फुलवारी शुरू केर सुखाना ॥
तेहि सो चन कदं पठइन्डि नीर । सन पण्डित अस कृटडि कबीक्॥
सर्वानन्द वचन
कड सवानन्द् यह अनरीती । बात अगम भाषह विपरीती ॥
कदां धों एुख्वारी रै भाई । जर सुरसरि महं रै समाई ॥
कबीर वचन
तब हम कहा सुनु पण्डित राज् । तुम्ह् जल उखिचौ कोने काज् ॥
सर्वानन्द वचन |
कहा सवानन्द सुनहु गोसाईं । देव पितर जल तृषित अधघाई ॥
कबीर वचन
हो सवानन्द् कष्ट यह मोदी । कंदा पितर तुव प्रों तोदीं ॥
सर्बानिन्द वचन
कहे सवानन्द सुनहु सुजाना । देव पितर मम स्वगे अस्थाना॥
कबीर वचन
कहै कबीर जर ठाम रदई । कड पितरधो केहि विधि खइई॥
कीरधौ जलद रहै तव पुरखा । पटहं वेद यह रुखेड न घुरखा ॥
वेद शाघ् नं कृरु विचारा । हरिके कचन आं जग सारा ॥
पिचकप जना्देन भाखा । जनादेन आप सन्तन्द महं राखा॥
बोधसागर (४)
` हमरे अस मति जानिय भाई । साधु माहि प्रभु भ्रकट रहाई ॥
जहाँ हरी तदा पितर अङ देवा) सब दह तप्त साध्रुकी सेवा ॥
कटं अन्तै परभु खोजौ जाई । इम देसे थञ्ु॒सन्तन आह ॥
हरिओं सन्त दोय जनिजानौ । पथुकर्द सन्तन्द माहि पिखछानौ।
अस परतीति आनह उरमाहीं । सन्तन्दतजि अन्ते भ्रथु नाहीं ॥
जल तरंग जल आहै भाई ) इरे हइरेजन अस माहि रहाई॥
जेसे वृक्ष वृक्षकी या अस इरिदरिजनमाहि रदाय ॥
छन्द-त॒लसी अभूषण जीवदायातर्हा आदर निशिदिन खै ॥
अश् तहं प्रकट निवास प्रथु शङ् साध्चुसेवा जो गहै ॥
है आपु स्वै भ्रतमय प्रथु गत्र प्रगट छेखिये॥
हरि प्रगट सन्तन्ह गुप जग शाद निगम विविक्िये॥
दोहा-हरिप्ररण सब मादिहै, पण्डित कर विचार ॥
ज्ञान दृष्टि ते परखहू, कहै कबीर विचार ॥
सो०-ज्ञान दिव्य जब होय, करम गरम तब इट ॥
पण्डित गह विखोय, देव पितर सब साश्रु महं ॥
चोपाई
रहेउ मुग्ध दोय क्क नहिं बोखा। ज्ञाता शब्द् परखि हिय डोला),
पुनि चोकाकरि शिला बिडावा। परतिमापूजन कहं मन लावा ॥
वेद् नित्य बहू करर विधाना । तहँ हमहूं उपाय यकठाना ॥
सुरतिन कदं पुनि पछरिंङ्शल्ता। करै न मूरति कडु सुखबाता ॥
हो पण्डित कस देव तुम्हारा । एकह बात न स॒निं हमारा ॥
तब हम पण्डित सो यह करिया । । प्रतिमा पूजन जेहिचितरदहिया॥
हो पण्डित कस देव तुम्हारा । एकडबात न सुन इमारा ॥
मेवा मिगई साजि धर् आगे । खाहि न मूरति परम अभागे॥
५४६) लानभ्रकाश
अख कान ख नादी स्वासा । कटि बिधिमूरति करि गरासा॥
हो पण्डित् जनि खनत रिसाहू । कटो परमारथ शब्द उछाहू ॥
मूरति सरीजव पूजहू तादी । इन्ह ते सि उर सव आरीं॥
स॒रजिव पातीं तोरि तुम आना। सो ङे निरजिव पूजा ठाना ॥
दो पडत तुम आप न चीन्हा । वित गुशक्ञान चक्षुबुधि दीना॥
जगं सहं व्याह केरे जो कोहं । आपुते अधिकं दोय जो सोई ॥
आपुते अधिक मिरे जो नाहीं । तौ निज समन रखो जमिटाई॥
तुम सर्जीव चट ब्रह्म समायी । कस निर्जीव अबोरू मन खायी॥
सरजीव होय सरजीव करद सेवे । ज्ञानी शब्द् परखि दिय खेवे ॥
मे तोहि कहौ सुनो हो देवा । जिव है अमर अखेक अभेवा ॥
जोव अमर तन विनशे भाई । तन धरि जीव बहत दख पाई॥
अमर नाम जब जीए भटे । जेहिजन्म मरणको संश्चय मेरे ॥
अमर नाम खोजडू द्विज राई । जेहि प्रताप यम निकर न आई॥
अमरनाथ सत्पुरुषको सारा । सत्यपुर्ष सत्यरोक मँञ्चारा॥
अमरलोक सतलोकहि आदीं । तीनि लोक प्रेतर जादीं ॥
क्रिम कला नाम धङ् जेते । जनमे मरै प्ररख्यतर भे तेते ॥
जासु चेतना अमर है भाईं। तासु नाम अमर सुखदाई ॥
अमर देह सतपुर्ूषके आही । वो नहि अवे गभके सादी ॥
जो सतगुर् पद् रदै समायी । ते दसा सतरोकदीं जायी ॥
अमर नाम सतशगुरूते पवे । सतगुङ अस्थिर ध्यान लखावे॥
भूत भविष्य् जपे नर कोई । सत्यनाम विनु शक्ति न होई ॥
वरतमान मह सतु सारा । सतगुर भवतारण कडिहांरा ॥
जागृत स्वप्न सुषुप्तिः तुरीया । जागृत आदि संजीवन सुरिया॥
जाग्रत ररै तुरिया सो पवे। स्वप्न सुषुप्ति जग भरमावे ॥
पुरुष विदेद तुरिथा अस्थाना । जागृत ब्रह्म देहमों जाना ॥
१ करणधारका अपध्रश है ।
बोधसागर (४७) `
तीरथ बरत जप पूजा वाती । करम भरम ओजाति ङजाती॥
यह मति स्वप्न सबुप्ती अदई । जाग्रत विदु कोई भेद न लहई॥
जाग्रत ब्रह्म देह धर् सौई। सबसे श्रेष्ठ साधु शङ् होई ॥
बोलता तजिकिमि जडलो छायी। जडपबान सेवं कहं पायीं ॥
इतना कदि फिरि इम किया । तिनआपनदहाथयकवाइररखिया॥
हो षण्डित यक ञ्चं तोदी । कृरि विवेकं चित कषये मोही॥
बार्थूकर चोका के बाहर । केडिकारणसो कड् विद्याधर॥
सर्वानन्द वचन
सवानन्द् करै अस सुजा बां कर परसे मरू सू्ा॥
केहि कारणयहं कीन्ह निषेधा चौकाके बाहर कर जिन्दा ॥
कबीर वचन
करै कबीर यह अचरज बाता । उर्टी रीति अपथ जगजाता॥
तुम्हर हदय महं मल भरिया ' मल्द्रारे मङ त्याजित करिया ॥
कर ज्ुचि करे अश्चुचिमर्द्रारा । ताहि निषेध तुम करिडारा ॥
विपरीति कथा कौ कस भाई । राजा पण्डित सब अन्या ॥
धन्य पंडित धन्य तोर वेदा । कहै कदीर सिद्ध मत भेदा ॥
सुनिवाणी वितभयेड अजोरा । कगेड शब्द पेम हित मोरा ॥
नायशिरतिन दुइकर जोरा । जो कछ कहो सो है सब थोरा॥
पुनि जलपान केरे तिन चादी । जल माटीके वरतन माही ॥
करवा छह दीन्द इम भाई । सर्वानन्द चित रेड सका ॥
केर करवा ठे रह अख चाश । भरम बड़ो जल अच्वे नादीं ॥
संवनिंद वचन
कस छुयेउ मम वरतन स्वामी। इम ब्राह्मण तुम यती अनामी ॥
कबीर वचन
हो पंडित यह कहु बुञ्ञायी । उत्तम मध्यम सो कोरै भाई ॥
(४८) लानप्रकाश
छन्द्-तन अस्थि मांस र्षिर त्वचा सवमें सुच एक दहै॥
प्रकृति त्व शरिगुण स्वे यह कौन भेद विधेकरै ॥
सो जह्य विप्र सवेमयी स्वेमयी सुच एक् जो॥
पटि शास्तर निगम पुराण बहु भरम कदा मंडेकं जो ॥
दोदा-कमं अश्चुचि जेहि देखिये, सो अपर कर विचार ॥
सन्त सों दुचिताह किये, कै कबीर पुकार ॥
सोरठा-मन महं रदेड लजायः, सवानन्द् अनीति ठखि ॥
मम पदशीश नवाय, „कै धन्यं तुम्दह घन्य हो ॥
जब प्रसाद कं कीन्ह अरम्भा । तब जमि बालकको देतह थम्मा॥
हमि कसि गवन परथुगेहा । करब प्रसाद पोषन निज देहा॥
तासु इददय बुधिरुखिहमपाये । ताते वेगि भवन चलि आये ॥
तब उन अश्च कमयक कीन्हा । धमम॑दास त॒म सुनो भ्रवीना ॥
अजा एक पुनि ग॒त्त मगायो । ग॒प्तहि ताकर गरखा कटायो ॥
निज सेवकन सोकटि समुञ्चवे । अजगा सुधि कबीर निं पावे ॥
गुप्त रसोई मासु रंघापेसि 'बहुविधिं अन्तरपार दिआये्ि॥
तब् चौका पर बेठे जबहीं । दाड़ एक कर लीन्देसि तवहं ॥
तेहि क्षण हम पहुचे जायी । । मोदिं देखत रह शीश नवायी॥
तब हम क्यो सुनो द्विजराई । दइमते अन्तर पाट दिवाई ॥
गुप्त अकर्म केरे नर॒ कोड । प्रथु ते नारि छिपि पुनि सोई॥
जगकती तुम सङ्गहि देखे । नाहि न यै नर वह सब पेखे॥
पाप पुण्य नटि चपि छिपाये । केतिक जो नर राखु दुराये ॥
नरनारी जिमिलहसन खायी ।गुपत खारि वह पुनि प्रकटायो॥
तुम्ड अ शुतिधारी सज्ञानी । सो नहि जलह पाठ प्हिचानी॥
हाथ हाड ुख थारि हि हाडा । स्वान स्वांग बन्यो अतिगाट॥
बोधसागर (४९)
धन्य धन्य तुम्ह पण्डित राजु । तुम ब्राह्मणदोकाकर कान् ॥
कृरि अक्षानतिलक ञ्चुटि नकौ । कांधजनेउ चार विनुफीको ॥
उत्तम जाति चाध किमि नीचा । ख्ये चमार तब चाढह सींचा॥
तोहि ओ स्वानसो कस भीना । विप्र चमार चाद तम्ह हीना ॥
पछिली रीति नरि सथुञ्चह मेवा) सनकादिक नारद् ज्ुकदेवा ॥
किनअसकमं कीन्ह क्कु मोही ! द्विजकी चाल न देखौं तोही ॥
हो पण्डित तोहि दया न आईं । केसे परग काटे भाई ॥
कमं कसाई विप्र कहावह ) मानुषदेह तुम वादिवावड ॥
सवेमयी भाषहु मगवाना । केहि गरकारेह कड सयाना ॥
जीव दया जेहि डद्ये नाई । कह कबीर सो आरि कसाई ॥
गीता भागवत देखु विचारी । जीव दयां भावै बनवारी ॥
जिह स्वाद काज जिव खोवे । जानि बु्चि का जनम विगोवे ॥
एकं तो भटे गढ अयाने । तम्हका दष्ि देखि बौराने ॥
शूले मूढ जगत्के ज्ञानी । तुमको ष्ठि देखि बौरानी ॥
लाग्यो शब्द् सारदियमाहीं । चितगदिपरचे आड हियमाहीं ॥
तेजि हाड पदगहि अङ्खायी ।
मोहि अचेत कहं लियेड जगायी ॥
सवनिन्द वचन
म भूखे विद्या अभिमाना । अब हिय बेध्यो शब्द सदहिदाना॥
सुख मंजन करि उ तुर्ता । पद गहि कटै तबकला अनन्ता॥
अबमोरि शरणलेहु तुम स्वामी । कृपा करहु प्रथु अन्तर्यामी ॥
पुस्तक बहुत आनिधरे आगे. ।दीन वचनकहि अति अदगगे ॥
रामानन्द पहं तेहि ठे गय । गुरूकी दीक्षा तारि दिवयऊ ॥
भक्ति मेष तिन्द लीन्देसि भाईं। गरू दिगकदहि साधु सेवका ॥
शुरूते बिदा मांगि दिनि एका । जननी पहं कटि चरे विवेका ॥
(६५०) लानघकाश
न्य घन्य जननो सुखदायी । जिन्ह यद मोहि उपदेश बतायी॥
जाय भवन निज पहुचे जबरी । घाय जननि पग लगे तबही ॥
छन्द्-तुम घन्य साता मोहि उधारेउ कहेउ सार उपदेश हो ॥
जाय दास कबीर कहि उन्ह ₹हरेउ कालकठेश हो ॥
प थकेड उनते वाद् करि वे ह्म अविचल नाथ हौ ॥
क्कु कहत बने ना करा उनकी भयउ बहत सनाथ हो ॥
साखी -सुच॒ जननी यह चित दे, इम उनकर शिक्षा न्ह ॥
मोहि प्रतीति उनसे वेसी, उन्ह गुक् के दिक्षा दीन्ह ॥
सोरठा-भे जन्म ज्चुभ मोर, पहुंचे मोक्ष रू भुक्ति चर ॥
जननी यण बड़ तोर, कबहु न डदय तेविक्तारिहं ॥
इति सर्वानन्दकी गोष्ठो
सतगुरु वचन-चोपाई
हे घमंदास तोहि कटि सुञ्चावा । सवौनन्द सो जो बनि आवा॥
न्यधन्यसादिबअविगतनाथा। प्रयुमोहिनिशिदिन राखो साथा॥
सुतपारेजन मोदहिकड्चु न सोहाई। धनदारा तिहु रोक बड़ाई ॥
सुनु धमनि तुम्ह हमरे साथा । मिटीसुरति तब दइ नरिंबाता॥
निरखोसुरति नाम खो खाओ । तनद्टे सत्यरोक सिघाओ ॥
जीवन शब्द् ॒चेतावह भाई । चेतर्दि जीव पुरूष खौ रइ ॥
अङ्घ मोर तुम लेह सभारी । जम्बरूद्रीप तुम करहु कडिदारी॥
, ठे जीवन सतभक्ति घ्टाओ ।तब तुम्द सत्य पुरूष कर भाओ॥
सवालाख ङे आरति करई । बोध जादि रोक संचरईं ॥
धमदास्त वचन
हे सादब मे बरञचों तोदी। दयाकरी प्रथुकहिये सब मोही॥
सवालाख नहि होय जेहि पारीं। ताहि कहु बोधबकी नारीं ॥
बोधसागर (५१)
सतयुङ वचन
धर्मदास जनि ताहि प्रगोधो । सवा लाख अरपे तेहि बोधो ॥
धबदास्ं वचन
हो सिव तब बनि नादीं । सवारख वितु जीव यम खादी ॥
सुच धर्मेनि जौ आधौ रोई । करि आरति दैड पान सजोई ॥
हो साहेब भाषह कदु धोरा । होय निस्तार जीवन बन्दीखोरा ॥
धर्मदास जो विन्ती करू । सवा लाख चौथाइ ध्डू॥
हो समरथ यह दाया कीजे । बोञ्च थर जीवनपर दीजे ॥
द्रभ्यहीन जिव केहि विधि तरिं यम राजा तेहि भक्षण करि ॥
सतगुड दचन
धसैनि चौथाइट चौथाई । यहि प्रमाण के आरति छाई ॥
धमदास दचन
अहो साहेब कलिजीव अयाना। भाषहु शब्द थोर परवाना ॥
भाष थोर तुव षद् लौरीना । कलियुग जीव इन्यके दीना ॥
हो धर्मदास मान शिर नाई । अब जो कहा सो राख ढाई ५
हम निःइच्छा चाव कडु नाहीं । दै मयाद् गुरुसेवा चाही ॥
गरू साधु सेवा निं करिदै । कदोसो जीव कोने विधि तरि ॥
चौथाई कर जो चौथाहं। तासु चौथाई मान लहु भाई ॥
हो प्रथु में चित बहुत सकाडं । कत सादिब सो उत्तर खा ॥
जाहि न दोय राक्ति गरु एता । सो जिव ेसहि जाय अचेता ॥
ओरौ थोर कटौ प्रयु राई । जेहिते जीव न यम धरि जाई ॥
(५२) ज्ञानप्रकाश
सतगरु वचन
धमदास बडु कीन्ह निहोरा । कल्यो सो वचन मान्यो तोरा॥
यह जो के चौथाई तेहि होई । तास चौथाई करि आरति सोई ॥
दो भ्रमु कर्कि जीव दरा । जाहि न रोड एतिक शुद्र ॥
सो कैसे तोहि पेहै स्वामी । कड थोर प्रथु अन्तर्यामी ॥
सतगुरु वचन
धमदास बहु विये सहताईं । सवा पोच सुदा रेह भाई ॥
धर्मदास वचन
हो भ्रमु विनती करों बहोरी । जाहि न एतिक किमि बदी छोरी ॥
सुच धमनि दोय नारियर आने । सवा पाँच आधौ ॐ उने ॥
धमदास वचन
सवा पाच आधो जेहि नादी । हो प्रमु सो जिव कैसत राही ॥
सतगुर वचन
घमेनि जेहि इतनो नरं होई । तास प्रमोह कटौ बिरोई ॥
सवा सेर भिष्टात्र मंगाओ। पान सवा से उत्तम लाओ॥
सवा दाथ बस्तर पुनि श्वेता । अग्र पुहुप पूगी फर चेता ॥
गोघृत शुचि दीपकं बारी । वेडि सिंहासन नाम सुधारी ॥
अन्तरध्यान सुरति संचरिये । सत्यसुक्रत कर माम करिये ॥
यम तरण तोरह वीरा दीजे। शक्ति होय तब आरति कीजे ॥
प्रति सम्बत शुरू आरति चाही । आरति करे शक्ति रोय जारी ॥
शक्ति अख्तनहि आरति करई । भक्तिहीन बहु संकट परइ ॥
माया ठगनी आहि रे भाई । यदह काट्ूके संग न जाई ॥
जिन गुरु साधु सेवा चित लावा । सो माया कद जीति सिधावा ॥
जिन माया कहं जोगयो भाई । नरि प्रमारथ स्वारथ रई ॥
सो जीव अन्त बहुत दुख पवि । भक्तिरीन यम नाच नचाव ॥
बोधस्मगर (५३)
धभमदास बचन
हो प्रभु तुम्ड सतपु्ष कृपाला । अन्तर्यामी दीन दयाला ॥
मोहि निधय तुवपद विश्ासा । यदह माया स्वस्नेकौ आशा ॥
जिन्ह जिन्ह माया नेह बटाया । तिन्ह २ निज २जन्म गेवाया ॥
सवालाख तुम मोहि वतायो । सवाकरोड प्रथु आरति खायो॥
ओ जन सम्पति मोर चरआही । अरपाँ सभे संतन जो चाही ॥
तुम प्रथु निःइच्छा नहिं चाहो । धन्य समरथ मर्याद दिढाहय ॥
सो जिव पौवर नरके जायी । शक्ति अक्षतजो रादु छिपायी॥
हो प्रमु कषु विनती अवाहं । बकस् डिडाईतो वचन उचाड॥
सवाशेर माषह मिष्ठाना। ओरौ वस्तु सवासो पाना ॥
हो प्रभु कोई जिव भिक्षुक होई । भीख मौँगि तन पाङ सो ॥
सो जिव शब्द् तोहार न जाने । कहु कदि विधि लोक् पयाने ॥
हो धर्मनि जौ अस जिव होई । गु निज ओर करे पुनि सोई ॥
इतने विन जिव रोकि न राखा । छोरी बन्ध नाम तिहि भाखा ॥
धन्य धन्य तुम दीन दयाखा । दया सिन्धु दुखहरण कपाला
छन्द-तुम धन्य सद्थुरू जीव रक्षकं कार्मदंन नाम हो ॥
शम पन्थ भक्ति दिटायञ प्रभु अमर खखके धाम् हौ ॥
म सुदिन आपन तबहिं जान्यो प्रथमपद् जब देखेऊ ॥
अब भये सुखी निशङ्ड यमते सुफल जीवन रेखे ॥
दोदा-विनती एक करौं प्रभु; कृपा करहु जंगदीश ॥
दो सेवक जो तुम ग्रे, सो तो कहूं नहि दीश ॥
सतगुरु वचन
सोरगा-घर्मदाप्न लेह जानि, इम वो एके थान है ॥
कहौ शब्द परमान, वो हम मे उन माहि दम ॥
(८४) जल्ानपकाश
धमदास दचन-चोपाई
डो परभु उन मोहिबड़ सुख दीन्हा । तुम भये गृप्तराखिउन्ह रीन्दा॥
विरह सिन्धु ब्रूत उन्ह राखा । उन्ह द्रशनकी है अमिलाखा॥
डौ घमनि हमपोहि उन्ह देखो ।उन्दमोरिद्वितियमावजनिरेखो॥
स्वामा सेवकं एके प्रना। प्रिचे सुरति ना वि्गाना॥
रो घ्मनि तमहं इम मारीं । मोहि तोरि अब अन्तर नारही॥
जो सेवक गुर् सुरति खमीरा । जीवनभुक्ति सो आदि कबीर ॥
जेहि सेवक गुर्दीं परशंषा । कै कवार सो निर्मल ईसा ॥
सेवक कहं अस चाहिये माई । गरू रिञ्चवे आपु रौवाई ॥
जिपिनटकला मगनदोय खेखा। तिमि गरूभक्ति मगन रोय चेला ॥
निजतनमन सुख स्वादरगवावै । मन वच कर्म गङ् सेवा छाव ॥
निशिवासर सेवा चित देई । गरूर रिञ्ाय परम पद् ठेई ॥
जग पदं सेवावश भगवाना । धर्मदास यह वचन प्रमाना॥
सेवक सुरति प्रीति वश भाई । शुन्य महा वस्ती होय जाई ॥
तेसी प्रीति सुरति शुचि सेवा ।किमि प्रसन्न नरि होर शुुूदेवा॥
धमनि सो सेवक मोहि भवै । जो गुङूसाधु सेवा चित रवे ॥
सेवा करि नदिं धरे हकारा । रै अधीन दास सोह प्यारा ॥
दा धमनि तुम्द अससिख अदद । इम तुम्ह एकरसौँ च दियगददू ॥
धमदास पद गहे अनुरागा । होप्रथु तम्दसोदि कीन्दसुभागा॥
म पामर गुणदीन कुचाली । तुम्द दीन्देड मोदि पन्थमराटी॥
हे प्रथु नदि रसना भरभुताई । अमितरसनगुण॒वरणि नदिजाई॥
महिमा अमित अहै दो स्वामी । केहि विपि वणौ अन्तयांमी ॥
जेहि सेवकं पर दोय तव् दाया । ताके हदय बुद्धि अस आया ॥
पूरण भाग करे सेवकाई । धन्य सेवक मिन्द गुरुदि रिञ्ञाई॥
मरे सब विधि अयोग्य अविचारी । मोदि अथमहि तुम लीन्ह उघारी॥
बोधसागर (५५)
अब यह दया करो सुखदाई | दोउ सेवक कै दरशन पाई ॥
बड़ इच्छा उन्हे दरशन केरा । हौ प्रथु हम आदीं तुव चेय ॥
सुन ध्म निदरशन तिन्ह पैहौ । खीला देखि थकित होड जेदौ ॥
आप तीनष्ूप प्रकट दिखावा । एक् तीन होय एक समावा ॥
धरमदास अचरज है रहे । स्थिता होय अगर षद गदहेऊ॥
टीला देखि चकित भये दासा ।पुनि विनती एक की न्ड प्रगाक्षा॥
हे प्रथु अविगति कला तुम्हारी । हम दँ कीट जीव व्यभिचारी ॥
सत्यलोक तुम्ह वरणि सुनावा । सोभा पुरूष इईंखन सतभावा ॥
केसन देश राज वह आदी । चित इच्छा प्रथु देखन तारी ॥
धमंदासर यह निरधिन काया । यहितन पुरूष द्रशक्किमि पाया॥
तन दीका जब परि रै आई । सत्यरोकं तब देख जाई ॥
धमेदास गहि चरण 9 । हे प्रथु तृषा मभिटावह (४ ॥
चरण टेकि प्रभु विनवों तोदीं । पुरूष दरश विदुकर नहि मोदी
कबीर साहिबका फिर अन्तर्धनि हो जाना ओर धमंदास
साहबका दिकल होना
शप्त मये प्रथु अविगति ताता । धमंदास सुख अवे न बाता ॥
धमंदासविलाष
मै मतिदीनङुमति शर्दिखागा । मोहिसमको जग आदि अभागा॥
मे मूरख प्रतीति न कीन्हा । अस साहेब कह मे नहि चीन्हा॥
अब कौने विधि दरशन पाओ । दरशन विर मैं प्राण गवा ॥
च्रणोदक बिव करौं न यसा । तजो शरीर कहै धमंदासा ॥
दिवस सात कगि अन्न न खावा । भजन अखण्ड नाम रौलावा॥
(५६) जलानमभ्रकाश
कबोर सारहिबिका पांचवीं बार फिर धर्मदासजोको दशन देना
सतयं दिन प्रथु प्रकट दिखाये । धमंदास पद् गदि अदुलाये ॥
घर हि न श्वामरि निपट अघोरा । परे चरण महे क्षीण शरीरा ॥
कर गहि साहब् तबहिं उठावा । शीश हाथ दै अक मिलावा ॥
घमदास चरणोदक लीन्हा । चरण पखारि आचमन कीन्हा॥
सतगुरु वचन
डो घमदास प्रभाद कु पाओ । करि प्रसाद् तव मोप आभ॥
छन्द्-चित सकुचि धमनि विद्रन गुनि सवे सब रौरा किये ॥
क्कु जाइ अलप प्रमाद ततक्षण तरण जर अचवनं लिये ॥
पुनिवेगि समरथ निकट आये सङ्कचि चित ठटे भये ॥
अनुशासनो कह धमनि कदा चित चिन्ता भये॥
धमेदास बचन
दोहा-घमंदास कह नाइ शिर, सुनु प्रभु अगम अपार ॥
खात दिवस कवौ रहै, कोन दिशा पशु टार ॥
सोरठा-धमनि सुनु चित लाय, जोन दिशा हम गौन किये ।
कालिजर पहुचे जाय, तदं पुनि शब्द प्रकाशेड ॥
धर्मदास वचन- चौपाई
हो सादेव के जीव परमोधा। कौन शब्द सो आन समोधा॥
आरति चोका नरियर मोस्यो । के जीवन यमते तरणतोरस्यो ॥
सतगुरु वचन
धमनि सुनहु तारि, सदिदाना । ह जीवर्हि नहि दीन्द प्राना ॥
आरति चौका तौ न कीना । नहीं तहां नरियर् मोर प्रवीना ॥
वचन वेष जीवनक किये । साखी शम्द॒रमेनी दियेञ ॥
कदि भये तै वचन विकाना । धर्मदास सो न लिये प्रवाना॥
बोधसागर (५७)
जम्बद्रीप्, ककिके कडिडारा । धमनि बाह जीव दोयं पारा ॥
धमेनि बह जिय पचे आयी । देह दान जेहि आरति खायी ॥
शब्द् मानि पुनि मस्तक नाया । पुङ्ष द्रशके बात जनाया ॥
धभमंदास वचन
हो प्रभु चिन्तागण कर् मोरा । पुङ्ष दरश देड करो निहोरा ॥
धर्मदास यह हठ का कहू । मानँ शब्द शीश प्र धरहू ॥
हमरे गहे पुरुष पहं जेहा । विना गहै उहां जान न पेडा ॥
हमसों पुशूष सो देसी अहई । जर तरंग जल अन्तर २इह ॥
जिभिरवि ओ रवि तेजप्रकाश्चा । तिमिमार्दिपुरुषअन्तरधमंदासा॥
हमरी सुरति गहौ वचितलायी । तबदीं पुरूष पद दशैन पायी ॥
शिष्य हदय प्रतीति अस अने। ङ् ओ पुरूष भिन्न नरि जने॥
जो छ चित्त अस रीति न अवे! तौ लौं जिवन लोकसिधवै॥
धर्मदास चित बहत सकाने । चरण टेकिं बह विनती उने ॥
+ धमदास् चदचन
हो प्रथु सत्य कहौं तोहि पादीं । तम्दते क्कु दुचिताईं नाडीं ॥
मोरे तुमं पुरूष दौ स्वामी । यमते छोड़ावह अन्तर्यामी ॥
हो प्रभु बरणें लोककी शोभा । ताते आदि मारममलोभा ॥
तव लीखा बहुते इम देखा । पुरूष द्रशविवु रहै हिय रेखा ॥
जो ककर पर रोह दयाला । तौलिनि महंदायगतउरसाख॥
धर्मनि जौ एेसो चित कीन्हा । तव॒तजि चलौ लोकपबीना ॥
राखेउ तन गौने रे ईसा । तह पटच जरह काले संसा ॥
लवन एक महं पहुंचे जाई । अबिगति खीला र्खे को भाई॥
शोभालोक देखि सुख माना । उदितअसंख्य शशिओौ भाना॥
(५८) लानप्रकाश
जितदेखिये जगसगञ्ललकारीं । देखत छकित भये दियमादीं ॥
द्वारपारु रेख जो रिया । ता मह एकरस्िअसकहिया॥
एहि संसरि तुम्हजाह लिवाई । पुरूष दरश दे आनं भाई ॥
चरे लिविवाय पुरूष परह जबहीं । क्कि ईस बहु आये तब ॥
करत कोखादरु मंगल चारा । शोभा अद्वत अग अपारा ॥
डेसर शोभा कदं बता क्क प्रभाव सो वरणिसुनाॐ ॥
रतनमाल भिव शोभित हसा । ओर मणिमालकिभिकरोपरज्ञेसा॥
जगमग देदह रसन करदीं । अमर चीर बह शोभा धरहीं ॥
उडराख चिङ्र शोभारबि आे। रविकाकरतार रोम छषिकाङके॥
दसन्दभालशोभाकिमि कद । षोडस चन्द्र भार छवि रद ॥
दष कान्ति प्रतिरोम प्राञ्चा । रीरामणी उदित रोमास्ा॥
कोरिकविधुहसन छबिमोदा । देह घाण शोभा अमी गिरोदा॥
षोडरा रवि हंसन छबि मोहा । देह षाण श्चुभ अभरत सोहा ॥
कञ्चन क्लशजडितसणि लोना । रतन थार आरतिमदहिसोना ॥
हस मगन शब्द् मुख उचारा । कीडाविनोद् रतन मणियारा ॥
सुरति ईस करं आगे लीन्हा । चृत करत चरे ईस प्रवीणा ॥
सुरति दस अच्रानि अचाने । पुर्ष सकल देखत दरषाने ॥
सिघासन छबि देखत मनमोदहा । अदधत अमित कटातन सोहा ॥
पुरूष राम एकं कला अनन्ता । वरणत कोड न पावे अन्ता ॥
एक रोम रवि शशि कोरीशा । नखकोरिन्दविधुमलिनरवीशा॥
पुरुष प्रकाश सतलोक अॐजोरा । तहां न पर्हैच निर्न चोरा ॥
पुरुष कबीर देखा एकं भाई । धम॑दास पुनि रहे लजाई ॥
पुरूष दर करि आयेउ तर्हवा । प्रथम कबीर बेठे रदै जर्दवा ॥
इहां कीर बेठे पुनि देखा । कला पुरुष तन अचरजपेखा॥
का अजयत कन्दे भाई । उदां मो प्रतीति न आईं ॥
बोधसागरं (५९)
कृवीर पुरषं यक उद छिपाये । सत्य युङष जग दास काये ॥
धाये चरण गहु अति घकुचायी। हे भ्रमु हम परिव अब पायी॥
यह शोभा कस उदा छिपावा ।कष् नर्हिजगमहै्रगट दिखावा ॥
धर्भनि जोवहि छवि जग जाऊ) तो होय विकर निर्न राॐ॥
सब जीव तव मोहि लौलवे । उजरे भौ सब लोकि अवै ॥
ताते प्त राखो जग भाऊ । शब्द् संदेश जीवन सञुञ्चाड॥
शब्दपरखि चीन्हँ माहि कोह । गहि प्रतीति घर बहवे सोई ॥
कहै कवीर सुनहं सुकृति ईसा । दरश पुरूष मिरेह चितं नसा
अब तुम्ह वेनि चरा संसारा । जिवहि चेतावड़ करड वकारा॥
हो साहेब अब उहाँ न जादी । यहृश्ुख घरति कां ञ्जरादी॥
वहि यम देश अपरबल काला । नहिं जानौधौं मति होयवेहाल॥।
सतगुर वचन
धरमेदाष तोदि चिन्ता नाहीं । तुमरे सङ्ग हम सदा रडादीं ॥
तुम देखो सत्य लोक प्रभा । हसन कहौ संदेश सुनाऊ ॥
धमदास वचन
मानें शब्द् शीश पर राखो । लेचढ़ अंश सकृत तब भाषा ॥
छिन एक महजगहीं चकि आये। पदि देह धर्मनि अङलाये ॥
परेड चरण गदि साहब केरा । करि बनती पदगहि भख देरा॥
छन्द-घन्य साहेब सतगुरू तम सत्य पुरूष अनादि हो ॥
तुबअमितलीखा कोल्खे प्रभु सकल लोकके तुम आदिदहो॥
भिदेव सुनि सनकादि नारद कोईना लसि त॒म पावई ॥
तेहि ईस भाग सरादिये जो नाम त॒व लौ लाव ॥
(६०) लानप्रकाश
दोदा-निेण सगुण आदिद, अविगति अगम अथाह ॥
गुप्त भये जग मर्ह पिर, को तुव पावे थाह ॥
सोरठा -मोरि परचे तुम दीन्द, ताते चीन्दें तोहि प्रभु ॥
भये चरण रोलोन, दुचिताई सकलो गयौ ॥
चौपाई
कीट ते भृ्कः मोहि प्रथुकीन्हा । निश्लरंग आपनो दीन्हा ॥
जिपितिरूते जग दोय एुरेला । तिमिमोरिं भयोसमर्थपदमेला॥
पारस परसि रोहा जिमिहेमा । तिमि मोहि भयउनाथव्रतनेमा॥
अगर परसि जिपिभयोखुवासा । जरु प्रसंग बसन मरू नासा ॥
सखनपट शुद्ध सूत कटै न कोड । प्रभुगुण खुखित शिरनावे लोई ॥
हें प्रभु तिमिमारि भयउ अनदा। जिमिचकोरदरदितलखिचंदा ॥
जनम मरण भौ संशय नाशी । तवपद् सुखनिधान सुखराशी ॥
हे प्रभु अष शिख दीजे मोदी । एकौ परु न विसारो तोरीं ॥
जस मनसा तस आगे अवे । कहै कवीर ईजा नरि पावे ॥
धमनि शरू दोष देह प्रानी । आपु करर्दिनर आपनहानी ॥
जो गुर् वचन करै चित लाई । व्याप नारिं ताहि दुचिताई ॥
जो गुरूचरन शिष्य संयोगा । उपने ज्ञान न नात ्रम रोगा ॥
जिमि सौदागर साह मिलादीं । पजि जोग बहु छाम बद्दी ॥
सतगरुरू साह सन्त सौदागर । सजीशब्द् गुरूयोगा बहुनागर॥
जो गुर शब्द् कटै विश्वासा । गुरू पूरा पुरवरं आसा ॥
विन विश्वास पावे दखचेखा । गहै न निश्चय इदय शुरूमेटा॥
सुत नारी तन मन धन जाई । तन जोरहै न प्रीति दटाई ॥
ञ्चरा ईस सोहं कदरावे। अग्नि रहै तो शोकं न लावे ॥
जो विच तौ यम धरि खायी । अड़ा रहै तौ निज घर जायी ॥
बोधसागर (६१)
काल कसौरी ददे हसा । कडँ कबीर सोह सक्त अंसा ॥
सत्य असत्यजानि किमि जायी। कादर विच युर रहायी ॥
धर्मदास तोहि बहुत बुञ्चावा । रहनि गहनि सतपन्थ बतावा ॥
बहते बेर सिखायो तोही । देखो अयश न पावै मोही ॥
बहरि कोरि शिखापन तोदीं । देखहं कोड ईसे ना मोहीं ॥
रहनी वर्णन
अभ्यागत जो आवे द्वारा । सन्त असन्त सोहि विचारा ॥
दीजे भिक्षा दरष सो तादी । एहि सम योग पुण्य तपनाहीं ॥
धमेदासं वचन
हे सहेव विनती एकं कर । समरथ जानि पट उतर धरॐ ॥
हे प्रभु रंक दोय कोह दासा । जाय अभ्यागत ताहि अवासा॥
ताके घर कदु सुकृत न होई । सो कस केरे कंडो प्रु सो ॥
सो कस केरे कटौ प्रथुराई । केहि भरकार तेहि सेवा खाई ॥
सुनु धमनि पथ नीती भाखे । शक्ति अछत पुनि गोय न राखे ॥
तन बस्तर ठे गोय न भाईं। जब अशक्त तब काह कराई ॥
आप खाय तब ताहि खिअवे । नरि तो यक सम समय गवव ॥
तीरथ बत जप तप बहु करमा । काहे परे याहि निज धरमा ॥
कोरि तीर्थं भमर फर पावे । सो फर भरदीं साधु जिवाव ॥
मानो गर् साधुनका बानी । कह कबीर शब्द सदहिदानी ॥
कहै कबीर सत्यगुङू ओ साधू । सत्यनाम गहि मिटे उपाधू ॥
सत्यकवीर सत्यथुरू ओ साधू । सत्यनाम कदं सत्य अवराधरू ॥
सत्य नाम गहि तजे दुचिताई । कहं कवीर हम ताहि सहाई ॥
सत्यनाम करै चीन्दै सोई । करै कवीर गरू गम जेहि होई ॥
को हम को तुम को है अनन्ता । कँ कबीर यह बज्धे सन्ता ॥
(६२) लानप्रकाश
खोई डम सोइ तुम सोई अनन्ता । कहै कबीर शर् पारस सन्ता ॥
खन्त चेतु चित सतर ध्याना । करै कबीर सद्र परमाना ॥
खतगुङू शब्द् ज्ञान गुर् पुजा । करै कबीर खु मोहनकुजा ॥
कज सोहि मोहन उदरावे । कह कबीर सोई सन्त करावे ॥
सन्त काय जो सोघे आप्र । कहै कबीर तेहि पुण्य न पापू ॥
पुण्य पाप नदि सान शुमाना । कहँ कबीर सो रोक समाना ॥
जिन्दा सुरदा चीन्दै जीवा । कँ कबीर सतशुङू निज पीवा ॥
सुरदा जग जिन्दा सतनामा । कह कबीर सशर निज धामा ॥
यकं जग जीते यक जग हरे करै कबीर गङ् काज सर्वारे ॥
कौन जग जीते कौन जग हारे । कहौ कौन विधि काज सर्वर ॥
इन्द्रिन जीते साधून सो हारे । कै कबीर सतगुह निस्तार ॥
सतगुर् सो सत्यनाम र्खावे । सतपुर ठे दसन पर्ंचवि ॥
सत्यनाम सतगुङ् तत भाखा । शब्द न्थ कथि गप्तहि रखा ॥
सत्य शब्द् गुरू गम परिचाना । विव जिभ्या कर् अमृत पाना ॥
सत्य सुरति अम्मर खख चीरा । अमी अकका साजह वीरा ॥
सोदे ओद जावन वीरू । धर्मदास सो करै कबीर ॥
घरि मोय कदिहौ जिन कारीं । नाद सुशील र्खदो तादीं ॥
प्रथमहि नाद विन्द् तब कीन्दा । सुक्तिपन्थसो नाद् गहि चीन्हा॥
नाद सो शब्द पुरूष युख बानी । गुरमुख शब्द सो नाद् बखानी ॥
पुरुष नाद सुत षोडश अदई । नाद पुत्र शिष्य शब्द् जो दईं ॥
शब्द् प्रतीति गहै जो ईसा । शब्द् चाटु जेदिसे मम बशा ॥
शब्द चाल नाद दृट् गदई । यम शिर पण॒ देह सो निस्तरई ॥
सुमिरण दया सेवा चित धरई । सत्यनाम गहि दसा तरह ॥
बोधलागर (६३)
बिन्दो होय शब्द मम धव । नाह बिन्दु दोउ मोटि पहं आव॥
नाद सखा जेहि अहेविश्ुरचे । अहं रहित सो निज घर प्चे॥
केते पडि शुणि नकंहिं जह । कते पडि गणि लोक तिचैहे ॥
हो सहर म तम्शाये दासा । विनती करौं खसम् तुव पासा॥
पृ गुणे दुडदिशि किमिजादीं । सो चरित वरणो मोहिं पाहीं ॥
सुव धमनि बह पदि अरथावे । शब्द कै सो चाह न पै ॥
पदि णि नीति विचारे नादी । अस पड्कआ सुबु नरकं जादी॥
जिन्ह पटिशब्दचारू गहिभाई । खद धमनि सो छोकहि जाई ॥
छन्द-जो कथत बकेतौ तरे जग तो जग सबै तरि जायहो ॥
तजि तर्त _सुखुतान उबरे चष क्यों बनजाय डो ॥
तातं कहु निज सभरुञ्च पापी शब्द पडि खतपद गहै ॥
जो सत्य षद् निरखत चले तो नहिं फेरि जो नीवहै॥
दोहा-सत्यनाम सुमिरण करः सतशुरूपद निज ध्यान ॥
आतम पजा जीव दया, दै सो अक्ति अमान॥
सोरग-सदय॒रू कटै पुकारी, चाल चरे पथ निरखिके॥
हस होय भव पारि, शब्द् गहन सदगुङ् कृषा ॥
चोपाई
चौ
गुत्त भयो कटि शब्द प्रमाना । कारखिजर पुनि आय तलाना॥
कहै काखिजर विने बडाई । देह पान मोहिं अहो गसाई ॥
धर्मदास करै देडं परवाना । साहिब मोहि क्यो सदिदाना ॥
कह काङ्िजर सनहु गोसाई । का सदहिदान आदि तुव गई ॥
तब सहिदान कहा सुख बासा । सतयुङ बोर कीन्ह परगास्षा ॥
समय संयोग बोर सो के । सुनि भौमौन अगध होई रदेड॥
जात कमीना सुनत परायी । केहि कारण आरती लायी ॥
(९४) लानप्रकाश
ओरदि ओर बुञ्चा उनह माई । पान नलीन्ह वैस चलिजाई ॥
तेहि गौनत प्रथु प्रगट तुरन्ता । कला अभित को पावे अन्ता॥
घमदास गहि चरणशिर नायी । युगकर जोरि ठाद भौ जायी ॥
बेठे पुनि आज्ञा प्रथु पाईं । विश्चुख जीव कर बात जनाई ॥
प्रथु विरतन्त कहो अब ताहीं । वह पान शक्तिके ीन्देसि नादीं॥
म भाषे तुपरी सहि दाना । दुर्मति बरञ्येसि कड आना ॥
मेनि उन्ह जोन पानन टीन्हे । परि कालश्ुख जायकमीने ॥
तजि रणभूमि टरं जो भाई । तेहि जीवर्हि निश्च यमख ई॥
वह यम चोर कालके हसा 1 धर्मराय धरि करे विध्वसा ॥
धमदास तुम सुनहु हमारा । निशिदिनरदिहो नाम अधारा॥
अब तुम आपन करहु विचारा ।करिदह् निशि दिन ज्ञान विचारा॥
दुष्ट मित्र सों प्रेम बटे शो । भक्ति भजन आनन्द रहैदौ॥
अ्थं-दुष्ट ओर मित्र दोनोमे किसीते राग द्वेष न रखकर समान प्रीति रखना सबकी भलाई चाहन
किसौको बुराई नहीं चाहना ॥
जो सुख होय तो जनि इतरेहौ । दुख परे तौ जनि विरकेदौ ॥
संकट महं बहु साब कीजे । निश्वरु नाम ध्यान चित दीजे॥
चित निश्वन्त रहै जो भाई। तो तेहि संकर जाय नसाई ॥
यह मम देश दोउ दै भाई। दुख सुख तन धरि चास आई॥
चदिये साधुन नदि चित्त डोरवें । टट प्रतीतिनाम गुरू गवं ॥
कृच्चे जीवन कर यह लेखा । संकट परे विकट दिय पेखा ॥
सुख सम्पति धन पुत्र सगाई । यदह सब सपना आद भाई ॥
धमनि शरा देस जो रोहं। गन न दुख सुख एको सोई ॥
अर् घर ञ्जगरा निवेरेह भाई । गुरु गमदि पन्थ करौं उपाई ॥
बोधसागर (६५)
पौँचौो के प्रपञ्च मिटये । पांच भ्रतके स्वाद वाव ॥
नासा श्रवण रसना चक्षु इन्द्र । पचो चोर कार मतिमन्द्री ॥
पौ चहु स्वाद् विषयकी पूजां । शङ्गमिपन्थ परखहि तेहि दूजा॥
चक्षु स्वाद् रस हप सखोना । रोचि रहँ जगअकिरविरोना ॥
साधु चक्षु राते सतद्पा । शङ्पदनिरखत अकिलि अत्रषा॥
श्रवण स्वाद् रस गीत कबीता । मगन डोह सब्र रमत चीता ॥
सन्तन श्रवण स्वाद ङ बानी । शब्द भजन षड सार समानी ॥
नासा वास्त सुवास अवादी । कुबासच वासके निकटन जाहीं ॥
सन्तन ठमगे वासर कवाक्षा नाम विदेह जपे निशस्वासा ॥
रसना स्वाद षटरस मधुभोजन । तजे विलोना खरस ॒परोजन् ॥
सन्त न स्वाद् नाम् रससारा । षटरख व्यंजन छार असारा ॥
निःइच्छित जो पहुचे आई । सुरस व्यजन प्रीति सोपा ॥
इन्द्र स्वादु काम रति नेहा । नारी भोग रतन तजि देडा ॥
सत्य सुरति अतरग समवे । निशिदिन प्रेमभक्ति चितङवे॥
पाचौ आरि प्रबल घट माहीं । मन राजा वाचौ कर नाहीं ॥
सत्यग्॒ ज्ञान मन धुरि राखे । पांच चोरसाधि सत्यञ्चखमाखे॥
छन्द-घरि मनहिं बोधड पोच साधद सारसतगुङ् ज्ञानते ॥
यह देशहै यमराजको तरे सो विदेही नामते॥
सतनामव्रतगहिशब्द हियधरि करट सेवा ताघ्ुडो॥
तत्वध्यान सतपदषशूप स्थित होय अमर रोकेनिवासुहो॥
दोहा-ग॒ङ् सुखशब्द् प्रतीति करि, इष रोक विसराय ॥
दया क्षमा सतशीर गहि, अमरलोक को जाय ॥
पोरग-वर्ण्यो ज्ञान प्रकारः धमदास् सम्बोध मत॥
कहै कवीर कृवीर, जेहि मम शब्द् प्रतीति दढ ॥
इति श्री धर्मदास बोध ज्ञान प्रकाश समाप्तः ॥
इति श्री बोधसागरे धममदास बोधनज्ञानप्रकाश वणेनो नामप्रथमस्तरगः ॥
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सत्य कबीराय नमः
चाधसागर
दहितीथस्तरंगः
अमरसिहबोध
धमदास वचन-चौषाई
धर्मदास उरि उदे भय । दौडकर जोरिसो विनतीकियञः॥
जग जुग जीव चेताये ज्ञानी । कालफांस ते इडाये आनी ॥
युगकमोद कीना जिव काजा । सोईतुम भाषिकदोनिज साजा॥,
यमराजाते भये टारा । निभय इसालोक शिधारा ॥
सतगङ कचन
धर्मदास भ कहि सयुञ्ञाॐ । य॒गकमोदकी खबर सुना ॥
जब इम इते पुरुषमे पषांटी । तबकी बात कट सब तोही ॥
युग॒प्रवान चाकरी भयऊ । युग जग पंथपसारा किय ॥
अबे ख्बजिव असंख्य अपारा । सब उवार खाये पुरूष द्रबारा॥
रहे सब हस पुरुषके पासा । करते कुतूहल रोकनिवासा ॥
भूख प्यास निद्रा नदि भाई । पुरुष ध्यानम रहे
पुष दया दयाकरि भारी । षोडश रवि हंस उजियारी ॥
सेज पुष्प बनी अति भावन । सुख विनोद् सब लोकसुहावन।
वेढे पुरुष सेजपर आयी । तत्क्षन ज्ञानी ल्यि बुखाइं ॥
ज्ञानी त॒म जाओ संसारा । जाइ करो अब ईस उबारा ॥
सिगल्द्वीप अमरषुर गामा । अमररि च रिह राजा करनामा॥
ताको अबे चेताओं जायी । चेतन अंश जग ा रह सलयौ
(७०) अमर्रासिह बोध
लानो दवचन
ज्ञानी वचन कै कर जोरी । सत्य पुरूष एक विनती मोरी ॥
पुरूष मोहि पसवो संसारा । कोन नामते इदस उबारा ॥
साखी-कौन नाम रेखन क, कौन देऊ कडार ॥
कोन नाम नारिन कर्द, जाते होई उबार ॥
चौषाई
कारफोस जासे कटि जावे । सहजे ईैसलोक महँ आवि ॥
इतना बोर पुरुषसे पाड । तब भवसागरमे चलिजाॐँ ॥
पुरुष वचन
अहो ज्ञानी बचन सुनि रेहू । मान सिखापन शिरषर देहू ॥
सब राह दिखा मे तोही । उबरे हंसा अधिकारी सोहं ॥
सासी-बारककृू बीरा कल्यो, तिरिया इरिरु सनेह ॥
सुरतवेत को यह शब्द् दै पुरूष नाम निज रेह ॥
चौपाई
पुरुष कम दीना तेहि बारा । ज्ञानी वेग॒ जाओ संक्षारा ॥
मूलनाम परवाना देहु । सकर जीव अपना करि रू ॥
ज्ञानी चङे लोकते जबहीं । धमं धीर भिे पुनि तबहीं ॥
देखत धमरायमनरदिं संकाना । आपन दानि मनि अनुमाना॥
ज्ञानी तुम सुनो वचन दमारा । काहेको आये तुम संसारा ॥
चौदा भुवन राज लिख दीना । अब काहेको चितवन कीना ॥
आहार यदी इम कर दिय । पुरुषदया अब काहेङु कियञ॥
राज इमारो दै संसारी । सुखदुःख जीवन दे अपारी ॥
ब्रह्मा विष्णु मदेश कडाई। मेरे अंस जग्माहि राई ॥
मतो रदी शन्य मैञ्ञारी । गम नर्द पावे कोड. हमारी ॥
राज्ञ भार सब उनको दिये । हम न्यारे होड देखत रहेऊ ॥
नोधसागर (७१)
ज्ञानी वम जाओ संसारा । वचन एक अब शनो इमारा ॥
पुङ्ष बचनकी तुम कदं खाजा । ता षाक कृरियो जिव काजा ॥
ज्ानी चयन
सुनहु वचन निरंजन राई । सवे बात भ कह ससञ्चाई ॥
कोटि ज्ञान दम तुम कदं हारा । द्वादश पंथ चङे संसारा ॥
ताते चरिहै आदार वुमारा । इतना वचन धमं कषँ इरा ॥
धर्मदास स॒नियो चित छइ 1 धमधीर सा उहराइ ॥
तब हम आये यहि संसाया । जीवनकाज व॒थ्वी पञ्च धारा ॥
अमरपुरी एक नगर रहाई । सिगल्द्वीपके माहि वक्ाई ॥
तरं आईं हम कीन्ह पक्ारा । पहुंचे रायके महर् ैश्चारा ॥
षोडश रविकी ज्योति पारा । महन सारी भयो उजियारा ॥
अपमरसिदह राजाको नामा । लागी कचहरी बह विधि धामा॥
देख प्रकाश उठे तब राई । वृषं धये अहलनमे आई ॥
आये महलमे सतशुरू पासा । सतगुङ् चरन गहे विश्वाक्ा ॥
अमरसिंह वचन
अहो संत एकं विनती करिह । पूछत वचन कोध जनि धरिहो ॥
कै तुम तीन देवनमे कोईं। के परब्रह्म त॒म आये सोई ॥
ओर गम्य नहि चरत हमारी । सो तुम वचन कहो निरवांरी ॥'
साखी-हम आये सतलोकसे, जीवन करन उवार ॥
कालफांस निवारक, के जा रोकं मञ्चार ॥
यह कृहि युत्त भये पथु राई । राव परे धरनी अरञ्चाई ॥'
बिकलठ भये ख आवे न बानी । तरफत मीन जेसे बिन पानी ॥
सतथङ्ू बिन तरृफत नृप तेसे । स्वाति उंद बिन चा्िक जेसे॥
६७२) अमरांसह बोध
छन्द चचरी
सोहि कडा जानि दरशन दिये प्रथु गुप्त पुनि काहे भये ॥
हग पलक ॒देत॒वबिर्ब नाहीं कवन दिशि कर्हैवा गये ॥
इमहीं अभागी कीन्ह सतशुङू दरस देके चछिपं रहे॥
कैसे धू मन धीर तबख्ग दरश तम ना देखिहे॥
सोरठा-भये अभाग सहि जानः दरश देके छप रहे ॥
नदीं करू जलपान) जबल्ग दरश न देखहूं ॥
चोपाई
दिवस पाच तब एेसे बीता । निपट राय उर बादी चीता ॥
सुनी खबर तब पथ चङि आये । तिन राजाको आन उढाये ॥
ङे ्आारी सुख मेजन कीना । संत चरण चितवड विधि दीना ॥
सतगुङू द्रश दिये तेहि वारा । महर मांहि कीनो उजियारा ॥
तहां जाइ जब डे भयऊ । राजा चरण धायं तब गह्य ॥
दमि सनाथ किये प्रभुरा । दम निज सेवक तुमरे आई ॥
ज्ञानी कदे सुनो हदो राई । यमफांसीते रदो कडा ॥
सब जग परयो कालके फंदा । बहुविधि तिनको बाघे बघा ॥
नेम धम कुरु कमे लगाये । ये फंदा सब जगत फैदाये ॥
जो कोइ हसा दोय सुभागी । काल फांसते बचिरहै भागी ॥
धमकार ताको नरि पवे। सुरति निरति रे शब्द समावे ॥
' साखी-शब्द सुरत युग बांध, कमे भम दे छोर ॥
देस गति जब आव, कहा करे यम चोर ॥
अमरसिंह वचन-चोपाई
हे साहेब जो आयेष् पाड । तो रानीको वचन सुनाई ॥
अबके सतयुरु जाह इराई । तो हमक निं जीवत पाई ॥
बोधसागर (७३)
सतगुङ वचन
सतश् कहे सुनो दौ राई । भक्ति प्रेम बक्त कतं न जाई॥
तत्क्षण राजा चछिभे जवहीं । सात खण्डपर पहुचे तवहीं ॥
सुस्वरकटखा रानि तदहं रदे ! तासों राय वचन एक कहे ॥
सनो रानी एक वचन इमारा । अपने जीवका करौ उबारा ॥
साखी-राजा रानीसों करै, मानो वचन इमार ॥
साश्व आये खोकसे, चरन सोगहो सम्हार ॥
रानी वचन-चौपार्ई
रानी कहै सुनो दो राजा । विख वदन आयेकेडि काजा॥
केहि कारन आये तुम खरारी । इमसे वचन कटो निङ्वारी ॥
रानी तमसो कटं हवाला । जो सतश्श्ने दीनो प्या ॥
एक दिना लीला अस किये) महन उनजियाशा भये ॥
तब इम तत्क्षण धाये जबहीं । महखन बीच पह चे तवहीं ॥
दरशन पाये भयउ अनन्दा । बारह बार चरण गहि वंदा ॥
पलक ओट प्रथु गये विलायी । चार दिवस परे धरनि अुरञ्जाई॥
प्रोहित विप्र सब आये जबहीं । कहे सञ्ञा इमङ्क तवबहीं ॥
बनिया मोदी सगरे धाये । छीया सेठ चौधरी आये ॥
भाई भतीजे परजा धाह । काहे राय मरत हौ भाई ॥
सवे मिङि आनिउठाये जबहीं । के ्चारी भर दीना तबदीं ॥
ठे ज्चारी ख धोवत भयऊ । साहेब दरश बेगि तब दय ॥
द्रश पाय यै भयउ सनाथा । रानी सत्य कहत हौं बाता ॥
रानी वचन
राजा बात कहत हौं तोरी । सत्य कहूं जो मानो मोदी ॥
अब तुम बात कदत हो नीका । तेहि पारे पुनि खागे नर्द फीका॥
(७४) अमररासह बोध
राजा बात करीरौ आदी । पाछे जग्मे दोय न ररोसी ॥
राजा कचन
रानी $ कहा दमारा सादेबवं चरन बेगि चितधारा ॥
धन
बन तनरंग पतगा 1 छिन छार होत रै अगा ॥
तुरत मान जो रानी लीना संत दरश कामिनिजो कीना ॥
दाथ नारियर आरति लीना । सात खंडसे उतर पग दीना ॥
सात सहेखी संग गी जबहीं । स्वरकला पुनि उतरी तवबहीं ॥
संब उमराव बेठे द्रबारा । रानी आई बाहिर पग धारा ॥
तब॒ उमराव उठे भरराईं । स्वरकखा कष अचरज लाई ॥
रानौ कबहु न देखी भाई । सो रानी कस बाहेर आहं ॥
गजमोतिन से परे मांगा) छार हिरा पुनि दमके आंगा॥
आधा मस्तक कन्द उघारा । मानिक द्मके ञ्जखाहलपारा ॥
तब रानी सतय॒रू पर आईं । नारियरु भेट जो आनचटाई ॥
रानी थाल दाथमे लिय । करत निदछावर आरति कियञ॥
साखी-रानी गडि मेदानमे, सुनो संत धर्मदास ॥
सुरजकिरन अर् रानिको,एकदी भयो प्रकाश॥
। चोपाई |
लगिचकार्चोँधि अधिकं पुनिजवरीं। देखि न जाय रानीतन तबदीं ॥
राजा रानी दडवतं कीन्हा । एेसी भक्ति दयम चीन्ा ॥
दोड कर जोरि राय भयो टाढा । उपज्यो प्रेम हदय अति गाा॥
साहेब हमप्र दया जो कीजे । भुवन हमारे पांव जो दीजे ॥ `
तवहं हम मंदिर महै आये । पलंग बिछाय तहां बेटाये ॥
आरी भर तब राजा लीना । चरनामृतकी युक्ति कोना ॥
राजा उपरते डारत पानी । चरन पखारे स्वरकला रानी ॥
चरण पखारि अगा लीना । जेसी भाव भक्ति उन कीना ॥
बोधसागर (७५)
चरणाग्रत तब शीश चढटावा । छेचरणामृत बह विनती छावा॥
जे्ती भक्ति राव जो पावा । धरमदास्त तोहि बरनि्ुनावा॥
धनदास् कचन
ओर कहो राजाकी करनी । सो साहेब वम भमाखो वरनी ॥
तुरतहि तब सब साज बनावा । इमको सो अस्नान करावा ॥
दम अङ् राय बेढे जंवनारा । अनेड सार धरे दोड थारा ॥
अधर थार भूमिते रहईं । रानी तवहं चितवन करई ॥
रानी कहे रायसों तब्हीं। टीखा निरखो शर्की अबहीं ॥
अघर अभ्र जिनका पनवारा । महा प्रसादते आई अपारा ॥
नर नारी तब ठाटे भय आई । महा प्रसाद् अब देड शसा ॥
तब हम दीनेउ तहां प्रसादा । पाय प्रसाद भई तब यादा ॥
पुरुषरोककी मई सुधि तबहीं । ज्ञानी आय चेताये भल्हीं ॥
दम भरे तुम टीन चेताई। फिरि न विगोवे आई यमराई ॥
या यमदेश कठिन है फांसी । काम कोध मद लखोभविनाशी॥
साबी-काम कोध अर् खोभ यह; चिन बसे मन माहि ॥
सत्य नाम पाये विना, जमते टको नाहि ॥
चोपाई
श्रवन लागिनिजलाम सुनाई । तुरत राय कड चरे खिवाहं ॥
पहुचे जाय सुमेर पशरा। पुर बेङठ रच्यो जेहि गरा ॥
जय विजय जो तशं रहे । तेहि साहेवको देखत भये ॥
देखत पोरिया गड भय । आदर करि साहेवको ल्यॐ॥
पौरिया विनती लाई । भूपति लोक कहांको जाई ॥
तब दम पौरीयन सो कहेड । एकं जिव सत्यनाम जो गहेड॥
(७६) अमर्रासिह बोध
पुर ॒वेकड दिखायो चाही । ताते इम आये यरि ढाहीं ॥
तहाते इम चङे रिगाई। पहुचे चिजगुप्तके ठं ॥
खूग्यो दरबार विजको जरहवा । पुण्य पापको निबेरो तेवा ॥
देखि सादेवको ठाडे मय । दाथ जोरिके विनती किय ॥
डार सिघासन बेठक दीना । तब सादहेष सो बिनती कीना ॥
धन्य आजबड भाग्य हमारा । सेब आये इहां षग धारा ॥
आये गुप्त सदेवके पासा । विनति करत बहमये उदासा ॥
हे साहब हम पूछत तुमपे । कह खाये भूषन कड इमे ॥
यदह तो इमरो चोर कहाई । अधम पापि राजा यह आई ॥
तब साहेब शुपेतसे करेड । ीखनी तुमारी देर चकोई ॥
यह सुनि युप्ततवे रिसियाना । इमरी छिखाई बाद बखाना ॥
श॒पत कमं करे नर॒ कोई। सो निज चोर इमारा होर ॥
साखी -प्रकट करम जो करं नर, सोई चिर र्खि रें ॥
भूपतिरोकं कंहावहीं, पाप पुन्य कर ये ॥
चौवाई
तब साहेब एक जगति बनाई । पारसपथरी तहां दिखाई ॥
अनेक कमंसे लोहा भरिया । पारस भेटत कंचन करिया ॥
सादेव यु्तसे कहे सयुञ्चाईं । इनक रोदा करो रे भाई ॥
लोदासे जो कंचन किये । यदि विधि हंसा निरमल भयञउ॥
इतनी सुनि यम मये अधीना । फेर न तिनसे बोलन कीना ॥
अहो जमराय वचन सुनु मोरा । कदी करोतो करहू चोरा ॥
राजाकर ठे जाओ भाहं। इनक यमपुरी लाओ दिखाई ॥
तब यमराज इङकम करिदीयञ । दूत दोय राज संगं गय ॥
१ चित्रगुप्त । ।
बोधसागर (७७)
दूत रायको चरु. खिवाई । पहंचे जाय यमपुरी मां ॥
जास जीवको देतहै जर्हवा । देखत राजा मन वपहितावा ॥
नरकको वणन
एक तो केोद्हू माहि पिराई । घे मस्तक एक खाई ॥
एक तो बांध खभ ताते! चीसे देत बहती भति ॥
एक जीवको खात चबाई ) भागत फिरे वचत नहि भाई ॥
एक जीव कुंडमरदिं डरा | मोगरी शिस्यै मारे अपारा ॥
कुंड चौरासी बने है ति भाई) भांति भांति यमजास् दिखाई)
एेसे आस जीवनको दिय 1 देखत राजा व्याङ्करू भय ॥
एक कुंड तो रुधिर भराई । इजा ड तो पीब कहाई ॥
जीजो कुंड हि मूतर भराई । योजन एक ताकि गहराई ॥
योजन चारकी है चकराईं । योजन चार रुगि गन्ध उडाई।॥
परे जीव ता माहं अपारा! चौथा कुंड नरक्की धारा ॥
साखी -परे जीव ता कंडमें, कोड अब हमि उवार ॥
मारत मोगरी शीरपर, बहुतहिं करत पुकार ॥
चोपाई
पांच कुंड सो अभि कहाई । बहुत जीव तहं जरहीं भाई ॥
योजन लक्ष है ता गहराई । पांच लक्षकी है चकरा ॥
केरत पुकार तरह जीव अपारा । यहि अवसर कोडहमर्हिउबारा॥
राजा यमपुरी देखि बनाई । कहत न बने रहे शिरनाई ॥
लुडी वचन कदत रै जोई । जीभ्या कारिलेत पुनि सो$ ॥
कुटी बाह देखा जो कबही । काटे बां यम ठंडा करही ॥
बढी साख भरे जो भाहं। विषधर ताके जीभ लगाई॥
न 2 ---- ---- ----------------
१ अच्छो तरहसे ।
(७८) अमर्रासह बोध
दिन अपराध मारे जो कोई बहुत मार तेहि उषर होई ॥
स्वपुरूष तजि प्र पुरूष संग जावे। अगिनपुरूष तेहि संग भिरपि ॥
पुरूष दोय नारी कहं त्यागे । नारी ओरसो मन जो रमे ॥
अधिनारे तेदिसंग मिवे । यहि बिधि जीवनघास दिखा ॥
एक एकको जास दिखा । दाथ छरी ठे कण्ड चटविं ॥
एक जीवको ठाडे कीना । काग गीधकोहुकमकरि दीना॥
काग गीघ नोचत दै भाई। मागत रिरे जास अधिका ॥
जे नर नारी मदिरा पावें । तप्त तेरु पुनि ताहि पिरवे ॥
सत॒ साधुकी निदा करई! जुठी साख पंचम भरईं॥
ताको फर पावत है सोई । सब.अॐँगसे कष्ठ एनि होई ॥
एेसी यमपुरी देखी बनाई । देखत राजा मन पछताई ॥
साखी-देखी राजा यमपुरी, मने भये इशियार ॥
साहेवसो विनती करे, हमको के उवार ॥
चौपाई
तृष् अरु दूत पहुचे तदव । चित्रगुप्तको दरबार रहै जहर्वौ ॥
जहा बिराजे ज्ञानी सिंहासन । गहे चरन तहां बृपति ततक्षण॥
तब राय चरण प्रस्यो आयी । अबकी साहेब . रेह बचाई ॥
यह यम देश कठिन है गांसी । सुरनर शुनि प्रे यमफांसी ॥
साखी-सुनि कथा जब नरककी, धर्मदासभय मान ॥
सतशुर् सो कहने लगे, ओरो कहु बयान ॥
सतग॒रु वचन-चौपाई
कृ कवीर . सुनो धमंदासा । नरक वृत्तान्त करो परकासा ॥
धर्मराय अस बाजी रावा । पाप पुण्य दोउ कोन उपावा ॥
बोधसागर (७९)
वाप पुण्यं रचि जीव फँंसाया । जो जस करे सो तस्च फल वाया॥
करे पाप तेहि नरक थुगतवें । कर पुण्य तेहि स्वगं पठाव ॥
कर्महि युगुति गरभम जवै । यहि विधि कारजीव फंदावें ॥
सुव॒ धर्मदास नरककी बाता । सबही हमसन कदं विख्याता ॥
सकल सुनह यमपएुर इतिहासा । अदधत सुनि दोय जीव जसा ॥
टीका पुरे जब जिवकी माई । घर्भराय मन चिन्ता आइ ॥
आयस किकर गण तब पव । इङ्खम चिच्गुप्त ताहि सनव ॥
ते जग अवै आयस पायी ) जीवि पकरि तर ठे जायी ॥
ले जां्िसो यम सदन मंञ्चारा । करे ताहि यम सन्श्रुख आरा ॥
रवि सुत तदयं सिहौसन बैठे । यमगण तर्द विराजत ठठ ॥
काठ सेन तहं सबहि विराज । शाञ्च भवतंक अनिषर अजं ॥
घर्मश्च के जे जे करता । सबही देस जो जिवं मरता ॥
व्यास पराज्ञर आदिक सबहीं । ष्च यम पुरि तनं त्यागे तवहं ॥
ये सब यम सहाय सो करदीं । पाप युण्यकर रेखा धरहीं ॥
सबरह खुसाहिव कारके आदीं । निज नेनन हस देखत जाह ॥
धर्माधर्म विचारत नीको ।सबभमिटिन्याय करत करनीको ॥
चिजगप्त जब बरी स॒नावे। धमं राय कदिके ससुञ्चावे ॥
जिन २ पापकियाजग आयी । तिनकर खेखा जब सुनि पायी॥
ते सुनि दूतन कहत जनायी । यथा योग्य अुगतावडं जायी ॥
जब कोई जीव सुकर्मा अवे । श्चि सुन्दर इतन तन धावै ॥
रविसुत कहविलसाओ स्वर्गा । अर्थं धमं अभिमत सुखवगां ॥
यरी सुकृत जब श॒तिपथ आदी । बहुत ससुञ्चायौ हम तुव पादी॥
साखी पापी भवुषरि पाइ यम, दूतन कहे रिसाई ॥
रौरवादिकं की यातना; इनि थुगावौ जाइ ॥
५८०) अमर्रासह बोध
चौपाई
सुनहि वचन यसगण यमकेरा । जास दिखावर्ि नरि चनेश ॥
रोह दण्ड सुद्र इनि कोच । रोरवादि मर्ह तिनदी तोषं ॥
यहि विधि यम कर्हि विलाता अब विस्तर ते सुलु धर्मदासा ॥
बृह विधि विद्या जग सहं पावे ! वेदं विचारि जो ब्रह्म समाव ॥
आतम बह्म एकं करे जाने । बराह्मण सो तेहि वेद बखाने ॥
पसे नर कहं जो कोड मारे । बह्महत्या तेहि वेद पुकारे ॥
ब्रह्मरूप ब्रह्मविद् जाने । तेदिवधनकर् ब्रह्मवध अवमान ॥
जानि ब्रह्म वध पाप कराला । तब दूतन कह यम ततकाला ॥
कुभोपाक मारि ठेडारो । सुद्र परिघ मार बहु मारौ ॥
इन रिस करि मारयो मदिदेवा । सुनी न मम अनुशासन भेवा॥
रोरव माहि गिरावह घाती । काहू करै सुनौ नरि बाती ॥
जो तिय मारे गभं मिरावे। तेरु यंच तन्रु॒तास् पिरान ॥
जिन यर हने हने निज स्वामी । छरा धार ते पीडित नामी ॥
जे विश्वासघात नर करदीं । ते नर कालसूत्र मह परदीं ॥
बाख वृद्ध कर हरे जो प्राना । तप्त तेल महं पचत अयाना ॥
परदारा परकष्् जे हरदीं। जे नर परपुर सीम विगरदीं ॥
ते शुरू पाप नरक मर पचदीं । हादाकार शब्दत मची ॥
चक्रन ते तिनके तनु चेदं । खुद्रर परिघ श्ल बह भेदे ॥
गम्य अगम्य विचार न करदीं । खाज अखाज नदीं चित धरदी॥
तिनके तन को करकच छेद । बहुत भांति चोचनसों भेदै ॥
साखी-चोर बृत्ति करि जो जीवे, करे जो परसे दो ॥
शूठ बोछि अर् मद पिव, पर॒निन्दा करे जोह ॥
तिन पापिन कहं यम विकराया । गैर भयंकर माञ्च तेहि डारा ॥
जे नर॒ कन्यादान मञ्चरी । विन्न करत रौरव अधिकारी ॥
बोधसागर (८१)
दान देत रछखि भाजी मरे । योग्य अयोग्य जो नाई उचरे॥
प॑र तप महँ कर विघ्र अनेका । नहि हिय महँ जो करत विवेका॥
आप छ ओरन तत टारे! वेद शाल जिन नाहि उचारे ॥
हरि यश सनत दहै मन माहीं । इसर घने तो चित विचलखहीं ॥
तिनकर देह सो कूकर भखरीं । पुनि असिपत्र मां्च इख भरहीं॥
एक अक्षर शश्सों सीख । ताहि न मने मन कर तीखे ॥
ते प्रहीं नर रौरव माहीं) बहुविध इख अगति सो ताहीं॥
जे नर हरत दीनके म्रानन ) मिहि मारत दहत कानन ॥
तिनि अगारन माञ्च खतं । यमगण दाङ्न जास दिखा ॥
जे गुरून हारक संसारा । छिम ङ्प मह प्रत निदाय ॥
जोन शुरू व्यभिचारी होइ । प्रजहि इख देहं नर जोई ॥
शिष्य शकं जो नाहि मिटावत । प्रजहिन्यायजो नारिचकावत्॥
युक्त अयुक्त न जानत जोई 1 करत सपक्ष न्याय शढ कोई ॥
ते नर अथ तामिस्र मञ्ञारे । गिरत लखे पावत इखं भारे ॥
विन देखे पर दोष गिनावँ। यम गृण तिनके नैन टंक ॥
अप्रिय वचन ओौरदीं कहीं । कारण छेददुख ते शठ रददीं ॥
देव साधु बाह्मण धन दरईं । व्रष्णावश लखोभहि मन धरई ॥
सूचीमुख नरकरिं कर ना । ते तहं जाइ वस्व गाङ ॥
जे प्रतिय अभिलाषत प्रानी । निन्दत सुर शरू भूसुर जानीं ॥
धमशाश्च तीरथ हरिजन कर । निन्दा करत सुनड दख तिनकर॥
परिरे शटन पर॒ बेठविं। मुद्रर शुखनसे करि धावे ॥
पाछे काकं श्वान तेहि खादी । छेदहि दुख सख हेरत नाहीं ॥
भोगी बहुत कार भिय नारी । त्यागत ताहि अधम अविचारीौ॥
विद वैराग ताहिको त्यागे । ताहि त्यागि ओरिन महं पामे ॥
सो शठ नरकर्मारि इख षवे । कहं कग कदं कदत नहिं अवे ॥
कर पद बधि यम सासत देही । जो जस किये सो तस फर खेदी॥
(८२) अमरसिंह बोध
सूरज सुत जस आज्ञा देहं । दूतं उगय सब शिर रेदं ॥
चिचरशप्त सो लिखनी र्खे । धमेराय न्याय तहं पेखे॥
साखी-करे कमाई जो कड्, कभी न् निष्फरु जाय ॥
सात सुन्दर आडा परे, मि अगाऊ धाय ॥
भूमि ताघ्रमय तहां बनाई । तापर अथि प्रचण्ड बिदाई ॥
दइकत ज्वाखा सो महि कैसी । अति दुस्सह ्रर्यागिनि जेसी ॥
तह नर जाइ जरत दुख पावै । यमगण हानि तेहि माञ्च जरावे॥
ती नख रद् शुचीकच केते । पापिन करं इख दें सब तेते ॥
अति तत॒ कृश तनु बहु पापी । तर दुख पावत जन परितापी ॥
सांकरि बांधि बांधि गज खव । अति दृट द्र हानि तेहि दवं ॥
दुख छहि जब इतउत नर धावे । यमगण घरि तिहि माई गिर वे॥
पुनि निज कृतकर याद् करावै । परिघन इनि बह जास दिखा ॥
तप्त थम्म बहु गाड रदवं । पर तिय गामी तारि सरवे ॥
निज पति छोड परपुर्ष खुभार्वै। सोह तिया तदं राई भिलवैं ॥
यमगण ताहि मारे भिरावत । कर वचन पुनि ताहि सुनावत ॥
यमके दूत अस कै पुकारी । तबतौँ तन मन सकल बिक्षारी ॥
पाण समान चरी परनारी । अबकिनमेरेडु रूचि किमि मारो॥
उन्नत कुच भुजभरि जिमि भे । भुख चुम्बन रति करि दुख मे2 ॥
रदी जो तव जीवन जग नारी । यह सोह अपर न कर विचारी ॥
कलनरिछनजेहिविनतोदिपापी। मिल्डुन तिय संग करत अरापौ॥
यदिविधि यमगण वचन सुनि । इनि इनि अघमन खम्भ लगाव ॥
मद पीवत संग जे करि प्रीती । मांसर्दिं खाइ करत अनरीती ॥
तप्त तेर तेहि मारि पियाई । कदत मदि पीवडु शठ आईं ॥
हाहाकार कंरे जब् सोई । करे विनती सो बहु रोई ॥
ता उपर तैर सो डर । भीतर बाहर दोउ विधि जारे ॥
इतना कर बहुरि सो आगे । करन शासना सो फिर लागे ॥
बोधसागर (८३)
असिषन्र बिषिन मर्द चलू । खायो मसि सोहं फल खड ॥
त अरैतर् दर अतिदही ती । उपर परत केटत त दी ॥
रहत न बने तहँ पुनि भाजत । करिविलापबडुविधिदुखपावत॥
करि षरघात पार निज देही । कूटकरमगह विधिकिंय जेदी ॥
ते असिपत्र नरक मर जवै । चुनि रकटाइशिर दुख पव ॥
एक शिर काटि फेरि होई आवे । बहुरि कटं बहुरि हवै जवे ॥
जे परदहिसक अधम नरेशा । तेख्यंज तच पिस्षत इमेशा ॥
तेल चराय जो जगम छेते । यमगण तेहि बहत इख देते ॥
ते चोर कँ तेर कराह । घत चोर घत माञ्च गिराही॥
जेष्र दध मधू दधि हरदी । ते गण रक्त इण्ड महं परहीं ॥
पाश बाधि गरू तेहि महँ उरं । यम गण दारण जास विड ॥
तीरथ चर्त जानि फन हरीं । ते नर रक्त पीब दह प्रहीं ॥
देव सदन मदिर गूधामा । जे तोडत मन करहि अरामा ॥
बन वारिका पुम बहु छेदं । मठ मखं भवन संरभिधर भदं॥
दीन भवन चटशाल गिरं । अस्थिचरणं महं ते इख पतं ॥
प्र उपांनत् वञ्च शठ हरदं । पर भोजन् छ्पाय जो रहीं ॥
लोहयंज षिच ताहि पिरवे । बहूविधि तेदी दुःख दिखें ॥
जे नर धर पुर विपिन जरावत् । अग्नङ्ण्ड तच ता गिरावत॥
जे निज् स्वामि दोष लग । पर अपुवाद रीति करि ग ॥
तिन कं नकं शाल्मली डर । पाश बोधि क्टकात तरारे ॥
सुद्र परिघन यमगण मर । निदेय तनक न करूणा धारे ॥
जो तिरिया प्रपति रत होई । नाथवती विधवा किन दोहं ॥
तप्त लोदमय खम्ब नराकृति । यम वशसे तेहि तिय भरति ॥
लोड शूल खर तप्त विञ्ञाला । जीभ द् सुख करत विहाला ॥
इमिदुख रहि अधम नरनारी । कहं गिकं सो खे विचारी॥
१ यन्नशाला। २ गोशाला। २ ज्ता।
(८४) अमर्रासिह बोध
यरिविधिजोयस शासति करई । कदं रुगि कौं पार नरि परई ॥
सुनत हार व्याकर घर्मदा । सुख प्रस्वेद नहि अवे श्वास ॥
देखि दशा सदृशुरु बो । केहि कारण ध्मंनि ठुम डोरे॥
घरि धीरज तब धर्मनि भाषा । नरककथासुनिभयमन भाखा ॥
घमदयास् कदचन
हो साहेब यम बड विकरारा । केटि विधि दसा पवे पारा ॥
यही भय मम॒ मन महं आवे । चितवत चितव्याङ्ख्दोयजावें
सनत वचन प्रभु मन विहसाये । कदी शब्द धमनि सुञ्चाये ॥
धमनि त॒मदी भय कछ नारी । सतशुङ शब्द रै तुमरे पादी ॥
अपर कथा सुनहु चितधारी । संशय भिरे तो दोह सुखारी ॥
जब राजा विनती ममकीन्हा । तब हम ताहि दिखासा दीन्हा)
शब्द गहै सो नाहि उराई । तुम किमि डर सुनहु हो राई॥
स॒त्य शब्द मम जे जिव चेदै। काल फास सो सवे नशे ॥
सुनत वचन राजा धर् धीरा । बोरे वचन कारु बर्बरा ॥
चिन्रगप्त वचन
हे साइब तुम काह विचारो । नगर हमार उजारन धारो ॥
हो सादब जो तुम अस करद । न्याय नीति सबही तुम इरहू ॥
सुनो साहेब एकं बात दमारी । पथ तुम्हारा चरे संसारी ॥
ताते बिनती करं बोरी । सुनो ग॒षाइयां अरनो मोरी ॥
ब्रह्ना विष्णु शिव अधिकारी । तीनकी आश जगतमहं भारी ॥
उनको इम नदिं कबहु डरा । चकं चाल तो ताहि नचाव ॥
ओर जीवकी कौन चावे । इमते उबरन एको न पावे ॥
सीधि चाल चलुजीव सुजाना । सो जीव देदों टीकं पयाना ॥
परपच करी सादेवको धावे । हम ते जीव जान नदिं पावे ॥
चाल चरत लगे बडिवारा । ताते नाहीं दोष इमारा ॥
बोधसागर (८५)
सतगुङ वचन
ज्ञानी कदे सुनो जमराईं। हमरो ईसा न्यार् राई ॥
परपंच तुमरो देखि उराये जीवात कब नहिं लाये ॥
निशिदिन जीव दया उर धारे } ज्ञान थंथ मन माहि विचारे ॥
अहो यमराय जाह वेङंडा । राजा विष्णुस करावह भा ॥
चिजगुप्त उठे कर जोरीं! साहेब चक जो बखञ्चो मोरी॥
तुम दो धनी यदाप वुम्हारा । अपने दिर इम कीन विचारा ॥
साखी-इतना कही चलत भये, राजा छीना षा)
मध्य चौक ठाडे भये, देख्यो सबको बास ॥
चौपाई
अगिन कोन है इद्र कुबेरा । दक्षिण दिशा है कार बसेय॥
नैत कौन सुरनको बासा षर्िम देवी कीन निवासा ॥
देवं वासर वायव है भाई) गण गंधव अनि देवं रहाई॥
उतर दिशा भगवान जो होई । निज वैकुंठ काव सोई ॥
कनकं भूमि रतननकी पोती । बने वेङढ अधिक जग जोती ॥
सकल देव॒ द्रशनको आये । लक्ष्मी सहित बेठे प्रथु राये ॥
राजा साथ हम्ह चङि गय । देखि विष्णु तब डे भयऊ ॥
डारि सहासन बैठक दीना । आज सफर तुम हमको कीना॥
भरे आय तुम द्रश्च दिखाये । भूपति खड कहां तुम लाये ॥
अमरसिंह वचन
ओ भगवान सुनो मम वानी । सेवा तुम्री निष्फर जानी ॥
हम एकोत्तर मदिर बनावा । तामे मूरति ठे पधरावा॥
साश्रु राखि मदिरके मादी । शजन भोजन दीना तादी ॥
जेता धर्म हम सने पुराना । विप्रन कदे धरम विकाना ॥
सुरभी सोने सींग माई । पीतांबर पुनि ताहि ओढा ॥
(८६) अमरररासह बोध
यहि विधि गो एकशत भाई । दइ विप्रनको सुनो प्रभुराई ॥
यहि विधि सेवा कीन तुम्हारी । तहू कमं तुम हम शिर डारी ॥
सुदु राजा तोहि कदि समञ्चाॐ । पाप करे कस धरो छिपाॐ ॥
राजालोक कमं बहु धरहीं। जीव मारिके भक्षन करदीं॥
तुरी चदे बन खेरे शिकारा । नाहक मरं जीव विचारा ॥
मारे जीव तुमह सुनाई । इतनो पापकां धरो किपाई।
साखी -चार खाने भरम, कीनो कमं अपार ॥
विष्णु कहै राजा सुनोः कैसे होड उबार ॥
सतथुक ेसी जगति बनाई । लीला करी एक तेहि गई ॥
नृप शिर इहाथ धरयोतेहिवारी । निकसे कागस्ुखमांहिअपारी ॥
बहुत काग जरे उद्र मंञ्चाया । बहुतक भये पिडते न्यारा ॥
रुखि भगवान रहे शरमाई । फेर बात ना बोले भाई ॥
ततखन हदमहू चरे रिगाईं । पटैचे मानसरोवर जाई ॥
कामिनि शोभा बहुत अपारा । राजा परयो तब चरण सैँञ्चारा॥
द्यार्वेत भ लोक दिखाई । जत्थज्त्थ कामिनि अधिकाई ॥
करे ध्यान पुरुषको जह्य । चारभावुकी शोभा जहर ॥
लके अगकामिनिके भाई । रेन दिवस तहां जानि न जाई ॥
सिंहासन एकघयो तदि गहं । चंद्रअश तहां वेदकं पाई ॥
भाव प्रीति साहेव सो कीना । भटे ज्ञानी त॒म दरशन दीना ॥
बैठे एक सिहदाप्तन दोह । राजा संग इत पुनि सोई॥
अहो अंश दया अब होई । राजकं छे जाओ सोहं ॥
चन्द्रश तब शीश नवाई । आतुर इम तब चरे रिगाई ॥
ठे राजा तब शरीर समाया । भूपति बेगि उठे _अङुराया ॥
तबही राजा शीश नवाहं । हमको तारो बेग शसौंई ॥
बोधसागर (८७)
राजा सुनो वचन अब मोरा । कशे आरती तिद्धका तोरा ॥
धदास सब तोहि सुनाई । अमरदहिको वैङ्कण्ठ दिखाई ॥
धमदास तब दोउ कर जोरा दया करो तुम वदीशोरा ॥
ओर कथा मोहि वरनि श्रनाओं। दया करो जनि मोहि दुरावो ॥
धर्मदास भै कटं सभ्ुञ्चाइईं । जो कञ्च भगति करी सो राई ॥
जेतक जीव मुक्ति पद पाईं) सो अब तुमङ् बरनि सुनाई ॥
अमरसिंह वचन
साखी-राजा शीश नमाईके, बिनति केरे कर जोर ॥
हमको सतश॒ङ् तारिये, इम सो अधम नं ओर ॥
सतगृड बचन -चोपाई
सुन हो राय तजो अुरखाई । युग कंकवत इम चर आई ॥
मानसिह भूपति बड राजा । तासो कीना ज्ञान समाजा ॥
तीस लाख अङ् सात हजार । इतने हंखलोक पग धार] ॥
युग॒परवान चौकरी गय । इतने युग मोहि आवत भय ॥
कृं रेख पृ्छो राय सुजाना । अपने जीवको करो टाना ॥
छन्द-शुङ्चरण पद्यपराग पावन भ्दुल मंजर सोहावनी ॥
तक् सम सीर परकासते तिमिर मोह नशावनी ॥
करि आरती बिसरि जन उरमांहि जे नर खावहीं ॥
भक्ति ज्ञान वैराग्य प्रगटे मोक्षपदं तब पावहीं॥
अमरसिंह वचन
सोरग-तव चरनन अनुराग, ओर न दजी आस ॥
मे किकर पद् खाग, करहु अनुमह दास पर ॥
छन्द-आदि जघ्न अचित अविगत आदि अदली गाइए ॥
अजर नाम अचित अमर अकह अविचल धाइए ॥
(८८) अमरसिंह बोध
अक्षय नाम आनदशूपी अखिल सम अस्थिर मरी ॥
अघम उधारण अखिलपति अखंडसरूपी हौ सदी ॥
सोरठा-हंस उवारण नाम, हंसराज इंसनपति ॥
दस अवण सुखघाम, सारशब्द दातार गुर् ॥
चौपाई
भे कृमि गरुभृगी रोय आये । अमी पिरारके खूप फिराये ॥
मे ह् लोह कुधात काया । गुरू पारस मोहि हेमबनाया ॥
एकं सुख महिमा कटी न जाई । जो थुख कटं पदमसत पाई ॥
जिमि पछीका जोडा होई । नर नारी जग बध है सोई ॥
जिमि मोदि शब्द् दीन गुरूराई । तिमि रानीको करिय अुक्ताई ॥
तुम बदिछोर सबे विधिलायक । हम है जीव अकाम अरायक ॥
तेहि ते अरज करौ भ्रमु साई । करि दया जिव सुक्ताॐ भाई ॥
जलानी बचन
सुनो अमर हम के तुम सो । करनी बने करो कड तुम सो ॥
हम कहे सोइ सुन तुम राई । भक्ति करो अब सुरति लगाई ॥
तन मन धन सादेबको दीना । शिरके सारे भक्ती ढीन्हा ॥
रभा नाम पुरेथकी नारी । शङ् सेवामें रहे इशियारी ॥
तब राजा गुरसे विनती कीना । अपनाकर मोदि निजकर ीना॥
अब साहेब परवाना वीजे । जो कचु कदो सोई दम कीजे ॥
कौन वस्त॒ आनू गुरुदेव । सो सादेब भाषो मोहि भेवा ॥
जेहि विधि तरन दोय भवसागर 1 शब्द सषूप कहो तुम नागर ॥ `
साखी-सुक्त रोक जाते मिरे जहां पुरुष अस्थान ॥
_ ____जरामरण व्यपे नदीं सदा पुरुषको ध्यान ॥ __
१ पुरेय शब्द राजा अमरासिहका सम्बोधन है ।
बोधसागर (८९)
ज्ञानी बचन-चोपाई
भमत बुञ्चे राय ते मोही । निज गत कडू बचन इट तोही ॥
तब हम दीन सिखापन राजा । जाते होय जीवका काजा ॥
साखी-चौदा कदी खं रे, उत्तम ठैर गडाय ॥
मध्य चद्वा बाधिये, सिदासन कनकं बनाय ॥
गजयुक्ता थाल भराई । चन्दन चूनको चौक बुराई ॥
कंचनके पनवारा करहु । कंचन आरी जर भर धरहू ॥
तीन दजार गाये पाना कंद परसेरी सात श्रमानां ॥
सात पसेरी मिष्ठात्र मगाओ । छतिस नारियल संगदहि खओ ॥
दुइसे एकतिस्र आबु सुपारी । तितनी खारक कहं संभार ॥
एतिकं लौंग इलायची धारी । मेवा अष खा यहि वारी ॥
मिच जायफल आनो भाई । द्राख जाकी वेमि मंगाई॥
शकर बदाम कपूर बखाना । सात हाथ बस्तर परवाना ॥
कंचनथार गजमोती भराओ । मध्य आ ती मानिक धराओ॥
कंचन कलस धरो बहु भांती । तापर बारो पचो बाती ॥
फूल चमेली अगर मगाईं । परिमर ओर सगंध धराई ॥
नाना पुष्प बताये माला । सबकछ्कुआनि धरे ततकाला॥
तब हम बेठे सिंहासन जाई । सकल समाज शाब्द धुनि गाई ॥
अर्चित नामका चौका कीन्हा । ततक्षण थार हाथमे लीन्हा ॥
डादे सकल लखोग अनुरागा । शब्द विरह सबहिन मिलि पागा॥
दिवस कोकिला जिमि आनंदा । सकल ईस तिमि आर्न॑दकंदा ॥
तब इम वेठे थार धराईं। अति आधीन प्रे सब पाई॥
जब दम नारियल लीन्हा हाथा । सकट जीव तब भये सनाथा ॥
नरियल मोरि अंसगहि लीना । तिका तोर षरबाना दीना॥
भय इट जप निरभे नामा । सतयर् नाम भए विशरामा॥ `
(९०) अमर्ासह बोध
कारुजारूते रईस डाये । राजा रानी भक्ति मन लाये ॥
साखी-राजा रानी परेमसे, ओर सकर जिव साथ ॥
नाम पान सबदहिन दिये, मस्तक धरिके हाथ ॥
चोपाई
कन्दा दंडवत् सब बह भाती । राजा रानि पुर ओ नाती ॥
पुरेथभाणसा खीनो पाना। रभा नाम पुरेथनी जाना ॥
तबरी दवान खेमसिद आये । नर नारी परे गुरुके पाये॥
आये बखशी लीन्हा पाना । भाव भक्ति मन माहि समाना ॥
नाम रतनचद्र कंदे कर जोरी दया करो मम बधन छोरी ॥
आये चौघरी प्रेमचंद नामा । तन मन अरपी कीन्ह प्रनामा ॥
तबहीं शेढठ शमजा आये । परेमभावसे शीश नवाये ॥
ओर जीव बहु लीन्हा पाना । सबको चित्त गुरचरण समाना॥
छन्द्-राजा खडा करे विनती प्रमु दीनबेधु दयार हो ॥
हस नायक प्रभू लायक शब्द दीन्हा रसारु हो ॥
जेहि खोज ऋषि मुनि नारद ब्रह्मा हरि हर थक रहे ॥
नहि पार पावत शारदा सोह नाम सतगुरू मोर दिये ॥
सोरठा-मोहि अवग्रह कन्दः दास जानि दाया करी ॥
भक्तिदान मोहि दीन्ह, ठेह चटखो समरापुरी ॥
ज्ञानी बचन-~-चौपारई
ज्ञानी कहे सुनो हो राञ । तुम॒री अवध सो सव रदा ॥
एते दिविक्ष रहो भवसागर । पीछे चलो रोक कर्द नागर ॥
राजा रानी वचन
राजा रानि कहे कर जोरी । सतगुर सुनिये विनती मोरी ॥
कृठिन दुःख भवसागर मांदी । क्षण भर हमपे र्यो न जाही ॥
इकईस लाख जीव तुव शरना । बहुत बरसम होइ निज मरना ॥
बोधसागर (९१)
जो त॒म सतर हंस सहायक । होहु दयार ईस सुखदायक ॥
अधम उधारन नाम तुम्हारा । अवय॒न मोर न करट विचारा ॥
जानी वचन
ज्ञानी बचन कहे गोहराई । राजा सकल इसा बुटवाई ॥
सकर हंस सतगुह संग लागा । इकडस लाख इस तन त्यागा ॥
पावत पान गये एकं ठारा । बचे जाय पुरूष द्रबारा ॥
भाव भक्ति भक कन्द बनाई । सवस अरपि चरनाश्त पाई ॥
काल जाको चिह्न जो पावे । सार शब्दम सरति लगा ॥
मन निरंजन तेज ओंकारा । ये सब चीन्हे कार षर्ारा ॥
नामि कमलर्ते सुरति र्गवे । मकरतार चडि शब्द खमावे ॥
पुरूष द्रश पावे जब हंसा । जनम मरणको मेरे संखा ॥
षोडश भानु हस तेहि पा । समञ्च न परे रक ओ भूषा॥
एक बरन राजा ओ रानी । ताकी भेद सब जाने जानी ॥
पुरूष सज्या दस तहां आये । अमृत भोजन करत अचाये ॥
काया अमर अमरवर पाई । दुःख ओर द्वद संब मिट जाई ॥
एही विधि सकल जीव तदहं आवा । सबही हंस एक नाम समावा ॥
सोरग-कहा जीव करनी करे, कहा चख्ेगा चाल ॥
सतशगुङ् नाम प्रतापते, कबहु न खावे काठ ॥
कहन सुननकां है नहीं, देखा देखी नाय ॥
सार सबद जो चिन्ही, सोह मिखेगा आय ॥
चोपाई
पुरुषं इकुमसे जीव बुलाये । राजा रानी हस तहां आये ॥
देसन कद तब वचन सुनाये । भाग बडे तुव दरशन पाये ॥
पुरुष वचन
अदो जीव कस कीन्ह कमाई । ईस स्न मोहि कहो सुनाई ॥
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(९२) असररखिह बोध
राजा रानी दचन
माथ नवाय कर राजा रानी । बार बार विनती बहु ठानी ॥
करनी चारु हम नहि जाना । परे ते कूपमे अति अज्ञाना ॥
आय जगाये अध अचेता । सतश् शब्दते बांधे हेता ॥
पुरूष इकुमते ज्ञानी चलि आये । कहो जीव कस करि कमाये ॥
ज्ञानी वचन कहै परमाना । इन सम दंस ओर नि आना ॥
इनकी डोरी जीव सब आवा । पुरूष सुनी यह् आनंद पावा ॥
अक मिराई दंस तब रीना । अरध सिंहासन बैठक दीना ॥
सेत छत शिर दीन्ह तन।ई । सूरज कोटि छबि राजा पाई ॥
यदहिविधि राजा खोक सिधाये । सनत बोध धनि मन भाये ॥
एकं व चनको संशय आह । सो मोहि नाथ कौं ससुञ्ञाई ॥
षोडश रवि सब इस सराई । केसे रायको दइ अधिकाई ॥
कबीर वचन
धमदास तो कटि सभुञ्ञाॐ । तुमरे मनको धोख मिटा ॥
राज गुमान उन दिये वि्षारा । ओर जीवकी शुक्ति सधारी ॥
पुरुषं रायको पृछ न कीना । निज करनी कर नाम न रीना ॥
अपने मन तजि मान बडाई । ताते पुरूष दया उर आई ॥
धर्मदास सुनो चित लाई । यहिते राजा बढती पाई ॥
घमंदास कदे युग कर जोरी । दया करी तुम बेदीषछछोरी ॥
दीनदयाक दयाके सागर । अच्छी कथा सुनाये आगर ॥
साखी-घमदास आधीन दोह, विनती कंरे कर जोर ॥
कथा कदी अमरसिहकी, संशय मिरटायो मोर ॥
इति भीबोधसागरे कबीरधमदाससंवादे राजा अमरसिहबोषध कथा व्णनो
नाम द्वितीयस्तरंगः ॥ श्रो अमरसिहबोधः समाप्तः
भारतवथिक कबीरवंथी-
स्वामी श्रीथुगखानन्द् ( विहारी ) दारा संशोधित
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~ अथ बोधसागर `
ततीयस्तरग
बीरसिहबोध
धमदास वचन-चोपाई
धर्मदास पे चित टखायी । साहब मोहि को व ॥
बीरर्सिहराय किमि कीनी सेवा । करके दया कहो श
बीरसिहदेव बडा अभिमानी । केसे साहिब सेवा गानी ॥
सो वृत्तान्त कहो मोहि स्वामी । दया करि किये बहु नामी ॥
धर्मदास भर पृछ बाता । तुमसे बरनि करूं विख्याता ॥
तन मन घन अङ् मोहन रवे । जो जिव इमरे संग सिधावे ॥
आदि अन्त सुरति इम कीना । तबदी पग धरतीपर दीना ॥
ओर दिशा देख्यो हम जायी । पूरब पञिम दृष्टि फेखायी ॥
बीर्सिह देव काशीकर राऊ । इम प्ुचि तहं कीन गोहराॐ ॥
प्रथम चले भक्तपर गय । सकल संत जहं भक्ति करय ॥
नामदेव मक्ति करन मन लावा । सेना धनाजार तहं आवा॥
रका बक सदन कसाहं । पद्मावती दीपक ठे आह॥
चौहटे तान चदेव दीना । गड भक्त सब् गायन लीना ॥
(९८) नीर्ासह बोध
घना सृदंग_ पटह उनियारा । जरे भक्त सब संत अपारा ॥
धमदास तरहेवा हम गय । राम राम सबरी मिलि कियञ॥
तब इम वचन एक कटि लोना । सकल सक्तके दिये मन दीना ॥
नामदेव केडि पुरूष ध्याओ । भक्त करतका कर्म तुम लाओ ॥
नामदेव वचन
नामदेव कहे सन्त भुराओ.) दोखर पुङ्ूषं कौन ठदहराओ ॥
दारि इर ब्रह्म दै बड देवा । तिनकी केरे सकर जग सेवा ॥
वे जगकतां सब कडु अददीं । वेद शाश्च सब तिनकरदै कहीं ॥
दे प्रभु आदि मध्य अर् अता । शीश शुडाय जपो केदि संता ॥
कनीर वचन
इरि ब्रह्मा रिव शक्ति उपायी । इनकी उत्पन्न कटहं बुञ्ाथी ॥
विना भेदं सब फएूरे ज्ञानी । ताते कार् बाधि जिव तानी ॥
अजर अमर दै देश सुहेला । सो वे कहहिं पथ दुहेला ॥
ताका मरम भक्त नहि जाना । किरतम कतौसे मन माना॥
हम तो अगम देशसे आये । सत्यनाम सौदा इम खाये ॥
साखी-किरतम रस रंग भेदिया, वह तो पुश्ष न्यार ॥
तीन लोकके बादिरे, पुरूष सो रहत निनार ॥
चोपा
बीरसिददेव बघेखा राजा । वेढे आय महलके ऊजा ॥
राजा नजर सबन पर कीना । सबकी भाव भक्ति चित दीना ॥
गावें भक्त आनन्द व्यवहारा । एक भक्त बेटा सो न्यारा ॥
टोपी एक अन्रुपम दीने। माथा तिरक कूबरी रने ॥
प
स्वेत स्वरूप भगतकीं काया । महा आनन्द पुरूष छवि छाया॥
| राजाबीरसिह वचन | ।
छरीदार राजा करायी । नामदेवको आजु बुलायी ॥
बोधसागर (९९)
| ` छड़ीदार वचन
बेगि छड़ीदार चकि आये । नामदेव राजा बुख्वाये ॥
नामदेव प्रे चित खायी) राव संग को ओर रहायी ॥
छडीदार तव् वचन् नावा । कोड नहिं साथ रायके भावा ॥
नामदेव छडी हाथ रय ¦ खुले चले राजापहं गय ॥
राजा देखि गढ उडि भयऊ } कर गदहिके आसन वैठयङ ॥
राजा कै सनौ हो देवा । कहौ कौनकी करत दो सेवा ॥
नामदेव दचनं
सौखी-भक्ति करौ गोविदकी, एक चित ध्यान लगाय ॥
राजाबीरासह वचनं
श्वेत हप जौ भक्तं ३ है, सो कस न्यार रहाय ॥
राजा सुनो वचन यकं मोरा । इम तुम इरि इर ब्रह्मा दोरा ॥
ताकर भक्ति करे वह हंसी । कटै पुरूष यकं ओर अविनासी॥
माला मखी श्याम शरीरा । मिली जुलाहा सत्य कबीरा ॥
किरतन कदे सकल सब देवा । कहे सचि देख न्ह सेवा ॥
सूति कूटि पाथर का खाई । कारीगर छती दे पाहं॥
कासा तबा मूतिं बनावा। तामे कैसे बह्म समावा॥
हसे कदे कबीर लाहा । बुठे देवन इमँ मनाहा ॥
वह तो कदे हम पुरूष अभेवा । नि कोड जाने इमरो मेवा ॥
आप अपनपौ बहू विधि थापे । आपे देव सेवकं पुनि आपे ॥
भक्ति ज्ञान योग को भेवा। तीरथ त्रत तप अर सब देवा ॥
सबको कार जार बतटखवे । एकोको निं मनम रवे ॥
इम सन बह विधि वाद् विवादा । नहि माने वह अनहद नादा ॥
(९००) बोर्सह बोध
खाखी-जोरुहा नदत् सबनको, बन्द्त॒ काहू नाहि ॥
ञ्ठ कदत इरि ब्रह्मी, कहे निशंण एके आरि ॥
राजानीर्सह वचन
राजा नामदेव कह बानी । अगम ज्ञान वह करत बखानी ॥
नामदेद दवचन
कड नामदेव सुनो रो राजा । बहु विधि कहै शब्द् को साजा ॥
ज्ञो को निगेण नामि धावे । योनी संकट बहुरि न आ ॥
राजा छरीदार प्वाई । जाय कवीरहि आबु बुलाई ॥
राजाबोरासह वचन
परम खुरी हमरे मन आवे । जो कोह निशंण नाम सुनावे ॥
अस्तुति वेद् करत रै जाको । पार न पावत हरिं हर ताको ॥
अदिपति अस्तुति केरे जो तारी । कोड विधि पारन पावत जादी॥
तेदिकर भजन केरे जो कोई । तब विधिसे पूरा है सोह ॥
नाम देव सुनु संत सुजाना । वह निन्दकं नहि संत प्रमाना ॥
छडीदार भेजि तुरत बुखवाॐः । निशैण भेद अबहि खुरखुवाॐ ॥
ङ्प संत दय मम भवे । शांत रूप वह भजन प्रभावे ॥
देखो अबरीं आवत सोई । सब कदि तेदि भावत जोई ॥
छडीदार तरते चलि आय । जेवा हम वहं बेटे रदे ॥
छडीदार वचन
छडीदार तब विन्ती कावा । अहो कबीर तोहि राय बुलवा॥
विन्ती राय कीन कर जोरी । लावा कवीर वेगि ते दोरी ॥
कबीर वचन
कुर कवीर वचन अरथाई । केदि कारण मोदि राय बुलाई ।
ना इम पण्डित ना परधाना । ना गङ्कर चाकर तेदि जाना ॥
ची
ना इम विराना देश बसव । ना इम नाटकं चेटक छर ॥
बोधसागर (१०१)
पैसा दमरी नाहि दमारे । केहि कारणे मोहि राय हकारे ॥
गरज दोय तो यदो चङि आवे । इम तो बेठे भजन करावें ॥
साखी-च्डीदार तुम जायकं, कडो रायके पस ॥ :
महा प्रचण्ड बधेल है; इम नहिं मानत आस ॥
चोपाई
छडीदार अति कोधित भय । तुरतहिं चङि रायवहं गय ॥
छडीदार वचन
छडीदार कटै कर जोरी । महराज एकं विनती मोरी ॥
भक्त न आवे मोर इकारे । कचं भयभीरन राख तुम्डारे ॥
' कहै हमारे कोन है काजा । तरणहि समान गिनत हौं राजा ॥
एता वचन राय सुनि लीन्हा । अगम बात कड् घटम चीन्डा॥ `
वह तो परमपुरूष है सोई ओर होय तो अवे कोई ॥
सत्य भाव जाके उर आवे । मान बडाई लोभ सब जे ॥ `
निर्ण भक्ति जोई ख्वरीना । ताहि न उपजे भाव मरीना ॥
आशा त्रष्णा जेहि षट व्याप । चनवन्ता सो चाह भिरपि ॥
यहतो संत अविकल अविकारी । केहि कारण अवे के इआरी ॥
गचत राजा मनम गने । नामदेव मन रहे अ्ने॥ *
मान बडाई जो नर पागे। करत खुश्चामद न्रपती आमे ॥
साखी-नामदेव राजा के, चदा यहाँ न आव ॥
है अभिमानी बहुत सो, बहु अकार जनाव ॥
कीन विवेकं राय दिल माहीं । नहिं आये करवीर इम जादीं ॥
वह् तो सत्य भक्ति चित दीन्हा । कारण कौन जास मम कीन्हा ॥
यटि विधि कीन विवेकं विचारा । तबरीं राजा आप सिधारा ॥
१ नाभदेवजीने राजाके विचारका भाव नहो समस्ला ॥।
(५९०२) बीर्खसह बोध
इकस पाय आय असवारा । गज ओ तुरंग सु साज संवारा ॥
आवत देखा जब इस भाई । तब इम लीखा एक बनाई ॥
खन अघर कीन तदि वारा । सवा हाथ धघरतीसे न्यारा ॥
साला तिलक ओ रोष विराज्ञे । हाथ स्वेत कवरी सो छाज ॥
चपतिदेखि अचरज मन कीन्हा । यह तो पुरूष अगम कद चीन्हा॥
कीन अवलोकन जग हम सबं । एसे पुरूष न देखे कबहीं ॥
चन्यं घन्य अस्त॒ति सब गातं । धन्यं कवीर चरण सब् ध्यव ॥
राजा चरण पकंडि दोउ भाई । धन्य धन्यं नृप करई बडाई ॥
कहे राय धन भाग हमारा । दर्शन दीन्ह आय् करतारा ॥
राजा बीरसिह वचन
छन्द-अस्तुति करत वपति भाषे तुम जह्य निशैण आष दौ ॥
अनाथ नाथ सनाथ करि दिये माथ हाथ अनाथ दौ ॥
अपनो दास करि जानि साहब दरश दीनेउ आयके ॥
कीजे कृपा यदि दास्पे चछि भवन दरस दिखायके ॥
सोरठा-करपा कीन जस मोहि, तस्र मन्द्र पग दीजिये ॥
विनय करो प्रथु तोर्हि, वेगि विलम्ब न कीजिये ॥
कबीर बचन-चोपाई
कहँ कवीर तदं नदि काजा । तुम प्रचण्ड बघेला राजा ॥
काम कोष मद रोम बडाई । रोम रोम अभिमान समाई ॥
तुरी स्वा लक्ष सैेग तोरे। लक्ष स्वादो प्यादा दोरे॥
हस्ती चलत सहस तव संगा । निरिदिन भले कामिनि रंगा ॥
कंचन कृलसा महल अटारी । कैसे शब्द् गहै नर नारी ॥
हम भिक्षुकं जाने संसारा । कौन काज है तदा हमारा ॥
राजा बीररासह वचन ।
तुम सतय हौ दीन दयाला । करमवश्य दम अहै विहाला ॥
माया तिभिर नैन पट छागी । दशन पाय भये अनुरागी ॥
बोधसागर (१०३)
करो दया अपनो करि लीजे । दास जानि आयद् रधु दीजे ॥
दीन जानि मन्दिर पशु धारो । भक्तराज तम वेगि पधारो ॥
हम हं पापी अधम अजाना । तव विद्धक्रपषा काल धरिताना॥
देइ उपदेश प्रथु मोहि बचावो । पाप जाल्ते वेगि डाओ ॥
तुमरी कृषा सुनहु हो साइव । अंस विधास भवहि तरिजायब।
अब जनि खावह बार गुसाई । चल कृषा करि ईंसन राई ॥
साखी-भक्तराज दाता अहो, कीजे मोह सनाथ ॥
मे आधीन शरण तुव, चखो इयारे साथ ॥
चोपाई
बहुत अधीन तेहि जब देखा । चख्न विचार कीन तब च्ेखा ॥
ततक्षण राजा हस्ति गावा । ठे इमहीं तब इस्ती वैडावा ॥
गजते आस्न अधर धारा । चरे रयं तब वजे नगारा ॥
जवे राय मन्द्र छे गय । तवै रानि कँ तुरत बोरे ॥
मानिक देइरानी चकि आयी । तासे राजा बात ञनाई॥
राजा बीरसिह वचन ।
हम रानी गुरू कीन कबीरा । आदि ब्रह्म है मतिके धीरा ॥
चरण धोय चरणामृत लीजे । सतयुङ्् दया करम सब छीजे ॥
तब सो रानी करै सुनु बाता । ओटे चीर सुभग निज गाता ॥
रानी मानिक्देवी वचन
राजा विन्ती सुनो हमारा । सुचि बृञ्च शर करो थुवारा ॥
तुम राजा हौ बहते ज्ञानी । विनय हमार रेह सुनि मानी ॥
राजा बीरसिह वचन `
इतना सुनत राय सुसुकाये । रानौ ज्ञान कौन बह्ुराये॥
तुम हौ नारि भक्तिकं मानौ । साहबकी गति नहिं त॒म जानौ ॥
कती आप देह धरि रीना । भेक्तरूप दोय दशन दीना ॥
| ( ९७.४६ ) बोररासह् बोध
इम अर् राय उठे जेवनारा ! आनि सो वार धरे दोय थारा ॥
कंचन भारो आरी पानी । कंचनवटकी व्यंजन आनी ॥
अघरखु थार ई ते न्यारा । महाप्रसाद राय चित धारा ॥
पाय प्रसाद् राय जब लीन्हा । हम अक् राय बाहर पण॒ दीन्हा ॥
एकि आसन वेठे दोर । नामदेव तब ठाठे होई ॥
नामदेव कड आसन दीन्हा । बहु सन्मान ताहिकर कीना ॥
नामदेव वेढे जब जायी । प्रन्न करन तिन चित तब खाई ॥
नामदेव वचन
कद कंवीर मोदि सथुञ्जाई । करद तव गङ् शब्द कित पायी ॥
सादिब कौन सबनके पारा । मोसे कद वचन विचारा ॥
साहिब कोन जाहि तुम ध्याओ । करवा सुक्ति सुरति कित खा ओ॥
कौन भोति यमसे जिव बचे । भिन्न भिन्न कहू मोहि सचि ॥
आप न समक्षो बोधो राजा 1 राम विना होय जीव अकाजा ॥
केतो पटे गुने अर गावे । विदु हरि भक्ति पार नरह पव ॥
कबीर वचन
नामदेव भूरे तुम जंसे। हमको मति जानहू तुम तैसे ॥
निशेण पुरुष आहि यक आना । अस्त॒ति ताकर वेद बखाना ॥
शिव ब्रह्मा नदि पावत पारा। ओर जीव है कौन विचारा ॥
छन्द्-नित्य निगम अस्तुति अराधे दारि थके विर॑च महेश हो ॥
सब ऋषिदेव अस्तुति अगाध तेहि गावत सुरपति शेष हो ॥
जेहि गावत नारद् शारदादि पार कोई ना ल्डे॥
सो भेद सतगुरू गावदी कोई संत ज्ञानी चित गहे ॥
सोरढ-प्ूजदि हरि दर देव, जड मूरति पूजत बहे ॥
निशिदिन कावत सेव, जो रक्षकं भक्षक अहे ॥ |
नामदेव तब सुनत॒लुजाने । नर्द पाये भेदं मनि पछताने ॥
सुनि लजायके उटि सो गयः । राजा तबहिं कदत अस भयउ ॥
बोधसागर (१०५)
राजा वीरसिहु वचन
तब राजा अस वचन उचारा ! हम सग साहिव चरो शिकास॥
आगे सेना सबही ठढे) दृस्ती घोडा बाहर काटे ॥
आगे चरे निशान नगारा । सवा लक्ष सग चङे असवारा ॥
सवा लक्ष द्वय प्यादा दौरा! उड़े भट करत बड श्ोरा ॥
हरनी स्वान ठीन सग चीता) कोड सचान वाज कर लीता ॥
ब्हु दर इस्ती खीनी साथा । यहि विधि चङे शिकार नरनाथ
भोतिन भति खिरौना टीना । आयश्च सकल लोक कं दीना ॥
आगे सेन चली सब साजा । हस्ती वैडि चरे अङ् राजा ॥
कबीर कचन
जबही राजा चले रिगायी । तब इम तासों बात खनायी ॥
राजा संग मोहि ठे जाओ । जीव दकं मारन नहि पाओ ॥
कोरिकं यतन करो तुम राजा । जीवन भिरे होय तोरि छाजा ॥
राजा बीरसिह वचन
ततक्षण राजा वचन सुनावे । मारन कहौ तोहि जाई काते ॥
तब इम कहा हमका कहीं । यह नहिं धमै मलुषकर अहहीं ॥
यह सुनि राजा घोड कुदावा । शेर शिकारी प वबतावा ॥
एको जीव फन्द ना प्रई । कोध अभि घट भूपति जरई॥
खेरुत रमत दूर होय गयऊ । कितहँ न भेंट जीवसे भयञ ॥
फिरत अहरे परे थुखाईं । कतहु न ठैर नीर कहं पाई ॥
विना नीर सो तडपे राजा। व्यापी तृषा बने नहि काजा॥
साखी-बहूत दूर राजा गये, पीछे पिरे अुआर ॥
कटकं सुकल सबही रिरे, व्याक सबे अपार ॥
गरंकर्ता अथवा पश्चात् के लेखक महाशयको बलिहारी है, शिकारके लिये ईतनी तंयारी
बतलायी है ।
(९०६) बीररासह बोध
पानी पानौ सबरीं गोहर । विज्ञ पानी सबदीं मरि जवे ॥
राजा करै देखो सब जायी । बडो धूपं जिव गयो दरायी ॥
बडत लोगं जरु ईूटन लागे । बहुतक रोग भाग चरे आगे ॥
ठावं ठाव सब गये भुखाई । हस्ती घोरा सबि नशायी ॥
राजा तब कहन अस रागा । संशय बहत तेहि मन पागा ॥
राजा बौरसिह वचनं
आज अहेर् एको नहि आवा । एको जीव जन्तु निं पावा ॥
पाना कतई न पावा भाई । केसी कर्तां कीन गसाई ॥
जो जनितो अस होड बाता । करन अहेर न आइत् ताता ॥
सेना हमार प्राण सम प्यारी । सो मरत प्यास्षकी मारी ॥
अब कहां जाइ केहि विधि करिदै। विना नीर सब इतदी रिह ॥
न्याञ्धर्ता बहते मन बाढी । बहुत करौं सकौँ नरि कादी ॥
तेहि अवसर चर बहुतक आये । खोजिथके नह जल कत षाये॥
साखी-सेना सकल मरत है, पानि पानि गोदराय ॥
छह छइ सब दृटदीं, राजा रहे शिर नाय ॥
चोपाई
तेहि अवसर हम कीन विचारा । राय प्रतीति देखो यदि वारा ॥
बीरसिहदेव बघेखा राजा । देह प्रतीति करो यहि काजा ॥
विना भतीति भक्ति निं होई । विना भक्ति जिव जाय विगोई ॥
विनु भक्ती यर नारीं मेटे। विनु गुर संशय नारीं मेरे ॥
विन मेटे दिय संशय भाई । कार दयाल कड को विलगाई॥
मन परतीति होय जेहि प्रानी । होय तुरत चौरासी दानी ॥
करे प्रतीति नर सो. पावें) पा श्रद्धा गुरु शरणर्हि जवं ॥
गुरुके वचन जाहि विश्वासा । फिर नहि दोय नरकम बासा ॥
बोधसागर ( १०७)
शङ विन शुक्ति न पावत कोई । चौरासी भय मिटत न छोई ॥
याते इम सव कीन्ह उपाह । राजा मन श्रतीति जेहि आई ॥
सरवर रच्यो अन्रपम ठामा। बाग बगीचा ओ क्खंरामा ॥
नाना माति शटी फुख्वागी । बहु मेवा लागे तेहि बारी ॥
नाना भाति फू तहं पूर । बास सुबास् पाई मन भे ॥
नाना पक्षी करत कोख } जह तहं उड सो यकम रला ॥
छन्द््-परूर नाना भांति पएरे, केतकी जुही आदि ह ॥
चम्पा चमेकी मोगरा तहं एर दाख गुलाब ह ॥
खम्भा कदली खड तहा सेबती दवना बह अहै ॥
कदम्ब जाही मालती चमेटी बहत खखदा छह ॥
सोरग-नारियल अम्ब बदामः, कटहर वंडइर पीस्चता ॥
बहुविधि कदे खनामः, फर गे चह ओर सो ॥
चौपाई
एेसो बाग बनी फुख्वारी । बनी सो तुरत गी नहि वारी ॥
इहर्वौ सेन रही ङम्दलायी । षानी पानी सवै गोहरायी ॥
तब इम कहे राय सुलु बाता । सत्य वचन भाखं विख्याता ॥
उत्तर दिशा राय परशु धारो । थोडहि दर ज बहे अपारो ॥
कहे मरत ससेन ऊुम्हखाई । सेना सकर चलो तहं भाई ॥
यह सुनि राय गट तब भयऊ । दोय कर जोरि ख॒विन्ती कियॐ।॥
राजा बीरसिह वचन
सतश् वचन कहो जनि दसो । पान उपर जल बह कैसो ॥
बार अनेक अहैरे आये । पतेत पर जरू नां रहाये ॥
साहिब कड जनि एेसी बानी । हसे लोग गुरु अठ बखानी ॥
१ महल
(९०८) बीरसिह बोध
दीवान दवचन
राय दिवान के अस बाता । गुरूके वचन ञ्जूठ न्दं जाता ॥
करत दिवान जोरि दोउ हाथा । गुरूके वचन सत्य घर् माथा ॥
का जानो को आहि शसा । बेगि राय उठि रेके पाई ॥
राजा बीररासह् वचन
करो क्षमा सुन हे ग॒रूराई। दास- शुनादहि देह बहाई ॥
जस करिहौ सोई हम करिह । बचन तुम्हार सदा अवुसरिदै ॥
कबीर वचन
तब इम कहयो सुनो तुम राई । उत्तर दिशा तुम देह रिगाई ॥
सेन सिपाइ ठादे सब. भयः । ततक्षण उत्तरदिशि चङि गय्ञ॥
राजा कुंजर दीन रिगाईं। बाज निशान भेरि शहनाई ॥
चलत राय देखे चहुं फेरा । राजा नजर दर खमि फेरा ॥
दूरिते देखि परा सो गवा । सदर बाग ज रहै शोभावा ॥
राजा देखि दरष मन भरे । गरक चरण शीश तब धरेऊ ॥
सरवर निकट राय चलि जाई । देखत बाग रहै दरषराईं ॥
म्ब निम्ब ओ कदि घनेरा । दोना मश्आ लगे बहूतेरा ॥
भांति भांति तदं मेवा लागा । मई प्रतीति राय मन जागा ॥
एेसी सोभा बनी बनायी । देखत बने बरनि नदिं जायी ॥
राजा बीररासह वचन
छन्द -राय कुंजर उतरि ठे चरण सतशुरूके गै ॥
हम कटि अधम अघकमं राशी बचन पावन तुव अहै ॥
बालभाव सुभाव पितु हित बचन कबरहिकं टार जो ॥
पितु कण्ठ खावत आपने दिय तात ओर न आव सो ॥
सोरग-जो पितु तामन राव, तो बाखकं कासो कर ॥
अधम उधारन नाव, दीन जानि जन तायिये ॥
बोधसागर (१०९)
साखी-सेन सरोवर देखिया, उत्तम बरन सौ नीर ॥
गिरिवर पर रवर रचे, धन धन सत्यकवीर ॥
चोपाई
करी प्रणाम राय गहि पाईं महाप्रसाद देह यर्राई ॥
कीन प्रसाद राजा कं दीना । राजा बहत लोकं मिडि लीना॥
मेवा सकल टोकं मिी पाये । बहत माति सब लीन धराये ॥
राजा प्रजा सब केरे बडाई । काहि कहौं कड कहत न जाई ॥
जेसा मेवा सत्यश् दीना । नहि मिरु सो ञरछोकटि चीना॥
खात खात सो जनम सिशई । नहि देख्यो अस येवा भई ॥
लेह प्रसाद जल अचवन कीन्हा । इख संताप अलय सो दीन्हा ॥
फिरन लगे सो बगीचा माहीं । निं गमी नरि जीत तहरी ॥
परिमर वास उडे चहं ओरा । बहुविधि पक्षी करे कलोरा ॥
ज्यों २ देखे शर बगीचे। त्यों २मन आनन्द रस सींचे ॥
साखी-तरषा सबनकी बुञ्चि गयी; एेसा निमंरु नीर ॥
मेवा पाये सब मिली, तषित भये शरीर ॥
- कबीर वचन-चोपाई |
तब मै कयो सुनो दो राजा । सेना सकर भयो सब काजा ॥
होय असवार जाह धर राई । जर्हेको जरु तहं दे पटहं ॥
अब हम अपने लोक सिधायब । सत्य पुरुषका दर्शन पायब् ॥
वहंकी शोभा अनन्त अपारा । शिव ब्रह्मा नहि पावत पारां ॥
सुनत बचन राजा भय माना । जानि विछोहै मनदि संकाना ॥
हाथ जोरि विन्ती सो कीना । बहुत अधीन भयो परवीना ॥
राजा बीररसिह ।
राजा चरण प्रे अङ्खायी । अब सतय॒रू जनि करह दुरायी॥
अब स्वामी मन्द्र पथ दीजे । सकर जीव अपना कर टीजे ॥ .
भ
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(१९९०) बोररासह बोधं
अब सन जनि दोय करि जानो । इम सेवकं तुम निज के मानो ॥
राय प्रतीति बहुत मन माई । देखि प्रीति चलन फरमाई ॥
कुजर राय भये असवारा । ठे हमरीं पुनि तदं बेरा ॥
सब सेनाकी मयी तेयारी । बजा निशान र्गी नहि बारी ॥
ततक्षण राय बचन कहि दीना । भरि भरि वर्तन सबदी लीना ॥
छोडि सरोवर चङे रिगायी । क्षणरि सरोवर छर उडायी ॥
जब राजा पुनि पाछे निहारा । नहीं सरोवर उड तहं छारा ॥
देखत राजा चकित नं थोरा । मम पद् गहि चित्त बहु मोरा ॥
साखी-धन्य कवीर सरोवर रची, दूरं लीन जिवाय ॥
जहवाको जर रखायक, तहको दीन पठाय ॥
चोपाई
आगे मोहि करि जरी रीन्दा । तब पीछे राजा षग दीन्हा ॥
चरे राय महर पग दिय । सतगुरूको आगे करि ख्य ॥
मन्दिर कञ्चन पटेग बिछावा । ठे सतुहि तहँ बेठवा ॥
मानिक देड रानी चटी आयी । कहै राय रानी गहु पायी ॥
राजा बोरासह वचन रानो प्रति
च्रण टेकि चरणामृत लीजे । गरुकी दया अभृत रस पीजे ॥
लोकं लाज तुम तजडहु बडाई । गुर् केवीरकी शरणे आई ॥
शर् कृपा दोय दास पर जबहीं । काल आस ना व्यापे तबदीं ॥
ज्ञान भक्ति विन शङ न पवे । काल फन्द् स्वपने नि जावे ॥
सगण भक्ति जगत बतलावे । निशैण भक्ति ` ग॒रूषे पवे ॥
बिन निश॑ण नरि जीव छुटावे । बार बार यम फन्द् परावे ॥
छन्द-गर् कृषा होय जेहि दासे तेहि कार जास न व्यापई ॥
गुर् भक्ति मुक्ति दाता भक्तं आता छुटे जीव तह तापई ॥
बोधसरागर (१११)
संशय हरन अघ कमं दाहन है सदा इस सहाय हो ॥
गुरू पह मते अपवग वासा पुङ्ष छोक् सिधाय हो ॥
चोपा्द ं
सरवर एक रचे शुरू त्वो । पर्व॑त ऊपर जठ नहि जह्वौ ॥
बाग एक रच्यो तेहिके तीशा । निर्मल जल बै बिविध समीरा॥
नाना भाती तर् जेहि मादी । श्र पादप तेहि देखि जाहीं ॥
कदम्ब निम्ब अम्ब केचनारी । वड बेर बदाम सुपारी ॥
नाना रंग फटी फल्वारी । फर रस भरे ञ्जकीं सब डारी ॥
रानीसे अस कहि सो राजा । बिन्ती करन क्गा जिवकाजा ॥
राजा बीरसिह् वचन
चरण टेकि राजा कहे बाता । भये दयार दयानिधि दाता ॥
आवागमन रदित कर् मोही । अब मै खसम चरण गह्यो तोही ॥
मो कह अपना रोकं दिखाओ । अब हम धरयो तम्हारो षाओ॥
कबीर वचन
त्य प्रतीति जब राजहं देखा । बह विधि ताकी कौन परेखा ॥
भवण लागि निज नाम् खनाया । तरतहिं राजा ेह सिधाया ॥
तबहीं दूत रोकं गहि बारा । छन इत वेड तहं नादा ॥
दूत वचन
सादब तुम निर्म असवारा । भुई तरे कवा पश॒॒धारा ॥
कबीर वचन
तबे इम दृूतनसे कदे । यह् जिव नाम खसम कर रहे ॥
इतना सुनत दूत उठि भागा । देखत चपति भयो अबरागा ॥
राजा बीरसिह वचन
धन्य सतगुरु धन्य भक्ति तुम्हारी। धन्य दसा जेहि शब्द् उचारी॥
चले इम अरू राय तेहि ठोरा । जवा गम पावत नहिं चौरा ॥
पटच मानसरोवर जायी । शोभा कामिनि बत सहायी॥ `
(ककन
(९१२) बीररासह बोध
युत्थ युत्थ बैरी सब पौती । एक प तदवो नदि जाती ॥
चार भाज कामिनिकी कती । नर्दितं दिवस नितं राती ॥
राजा परे चरणतर आयी ।
राजा बीरसिह वचन .
। दयावत भल कोक दिखायी ॥
कबीर वचन
देखिनि राय लोककी शोभा । चकित होय राजा मन रोमा ॥
पुनि राजा कदन अस लागा । देखि खोक रोम महं पागा ॥
राजा बीरसिह वचन
अब जनि रेह चरो संसारा । राखो लोक शरण मंञ्चारा ॥
कबीर वचन
‹ तब हम् कहा सुवु राय सुजाना । तुम राजा सत्यलोक भुलना ॥
राजा मानो कहा दमारा । चरो तहां जह राज तम्दारा ॥
बरबस बाहं गदी तब राई! ङे राजा तैवा वेडई॥
छिन यके गहर तहां नहि फियऊ । देह जायके जागृत भय ॥
दोय कर जोरि राय रहे ठे । बहुत प्रेम हरष मन बाटे॥
् राजा बीरसिह वचन
अब् लगि साहब भैं नर्द जाना । सकल भक्त सम तमको माना ॥
अब हम जाना भेद तुम्हारा । सोहं करहु जेहि दस उबारा ॥
राजा कहे कौन विधि कर । सकर द्रव्य गुर् चरणे धरॐँ ॥
जाते जोव कार्ते वबांचे। सोई जतन करो गुर सांचे॥
कबीर वचन
तब इम कदा हह निर्वाना । राय गाव मिटाई पाना ॥
ध करो सब साजा । देउ सार पद् मेटो राजा ॥
घोती पान मंगाओ। महा कन्द ठे तहा षराओ ॥
बोधसागर (११३)
कटश ठे अक् पांचो बाती । साधु संत बेठे बह भती ॥
कंचन आरी जर धरवाई । तापर खर्चा सात चटाई ॥
स्वेत अदेवा स्वेत कनाता । सत्यघुर कह यकृत बाता ॥
सत्यलोक स्वेत है फूला । स्वेत सब देह जीवका मूला ॥
स्वेत सिंहासन चौका चारी । सतश्ङ् बैठे आसन मारी ॥
कदली पच॒ मेवा संयता । चन्दन धेत सुगन्ध बहूता ॥
राजा सकल साज लइ अये । साश्रु संत बेटे सब आये ॥
विधिपूर्वक श्जभ चौक पुराया । हाथ जोरे गढा भयो राया ॥
बोरे साधु शब्द धुनि तबदीं । रानी राय चरण गहे जबहीं ॥
राजा बीरर्सिहका सतशरूकी स्तुति करना
राजा लीन्ह नारियर हाथा । बहुत जौव तह भये सनाथा ॥
करी देडवत विन्ती कीना । हंस राज मोहिं दशन दीना #
धन्य भाग मम काह-सराहू । हे प्रथु तुम हो सत्य मम नाह ॥
छन्द्-आनन्द कन्द सवज्ञ शूप अखि जता अविगत ॥
` -दास जानि दीजे अमय पद ज्ञानदाता अस्थितं ॥
अविनाश सागर दयाकेः आगर धमे कटक मदनं ॥
संशय खण्डन रिपुविहंडन अजर वीरां समिरावेन ॥ `
सोरठा-अमर पुरी तुव बास, अमर स्वरूपी देस जह ॥
वास दीजिये दासु? सुरति्वेत मथु कीजिये ॥
करि चौका तब नरियर मोरा । कारि आरती भयो पुनि भोरा ॥
तिनका तोरि पान छिखि दय । रानी राय अपन करि ख्य ॥
बहुतक जीव पान मम पाये । ताघट पुरुष नाम सात आये ॥
जो कोह दमारा बीरा पवे। बहुरि न योनी संकट अवे॥
सीरा पबे भवते द्र बीरायम धरिर्ट्टे॥
दोररासह् बोध
खत्य कहू सुज ध्मेदासा । बिनु बीरा पावे यम फसा ॥
बोरा पाय राय मय भागा । सत्य ज्ञान इदयं -जागा ॥
कारु जार तब सबे पराना । जब राजा पायो परवाना ॥
गद्गद कंठ इरषं मन वाटा । विनती केरे राजा रोय गडा ॥
प्रेमाश्च दोइ नयन -ठरावे। मेम अधिकता वचन न आवे ॥
राजा बोररासहका स्तुति करना
करूणारमन सद्र अभय अुक्तिधामी नाम दो ॥
पुलकि सादर प्रेम वश दोय सुघरे सो जीवन कामदो ॥
भवसिन्धु अति विकरारू दारण ताघ्रु तत्तव बुञ्जायऊ ॥
अजर बीरा नाम दे मोहि पुरूष दरश करायॐ ॥
सोरठा-राय चरण गहे धाय, चलिये वहि लोकको ॥
जहवां दस रदाय, जरा मरण जेहि चर नहीं ॥
कवर वचन
आदि अन्त जब नहीं निवासा । तब नहि दृखर इते अवासा ॥
तोन नाम राजा कहं दीना । सकल जीव आपन करि छीना॥
राय श्रवण जब नाम सुनायी । तब प्रतीति राया जिव आयी ॥
सत्यपुरुष सत्य र ष्टा । सत्य शब्द् है जीवको मुखा ॥
सत्य द्वीप सत्य है रोका । नहीं शोक जह सदा अशोका ॥
सत्यनाम जीव जो पवे। सोई जीव तेहि लोकं समावे ॥
एेसो नाम सुदेखा भाई । सनत कार जाल नशि जाई॥
सोई नाम राजा जो पाये। सत्य पुरूष दरशन चित राये ॥
साखी-एेसो नाम दै खसमका, राय सुरति करि रीन ॥
` इषित पहुचे पुरुष घ्रः यमि चनौती दीन ॥
चोपा
जब ईसा यम छेके आयी । चलत बेर निज मना सुनायी ॥
मंडल अखण्ड ब्रह्मण्डे बासा । नीर पवन दस रदिवासा ॥
बोधसागर (११५)
सुकृत जहां आपे शबिहारा । रतन पलीता दीपक वारा ॥
कोडि ब्रह्मांड हस चर जायी ! दीप ठेसि उजियार करायी ॥
ठेस ` चले ` पुरूष द्वारा । उचघरे कूची इदफ किवार ॥
तहे हसन रोकत है दूता देखत तां बहत अजगशता ॥
साखी- चले हंस सतरोककौ, सरति शब्द गहि डोर ॥
. दोय पौँजीके बीचमे, बेठ कार तहं चोर ॥
चोपाई
धरती माथ स्वगको नाका । तदं दोय पौजी ३ बका ॥
तदवो दत रहत है भाई । पुङ्ष नाम सनि निकट न आई॥
युगदानी ठटे बटपारा। ममे देह जीव इमारा॥
प्रथम है युगदानि जगाती । दूजे षके वनरवाती ॥
तीजे भ्रत्य अध बटपारा । पररुम्बित चौथे रदाय ॥
पचे दत स्वयम्बर जानी । पाँचो यम जिव ऊेदत आनी ॥
जा घट नाम धनीका होइ। सो हस्रा नहि चञ्च सोह ॥
नाम पान दये मे गहईं। सो इसा यम सो निबेदई ॥
साखी-नर्हि धरती न अकाश जब, नहीं हार अङ् बाट ॥
तबका खसम कबीर है, दूसर यमकी हाट ॥
राजा बोरसिह वचन-चोपाई
साहब शब्द सार मोहि दीजे । आपन करि प्रथु निजके लीजे ॥
ओचट घाट बाट कहि दीन्हा । पौजी भेद सकर हम चीन्हा ॥ `
दयावेत विनती सुनु मोरी । इम पुरुषा परे नरकं अघोरी ॥
महा कुटिल बड कामी रिया । ताते नरक अघोर बड परिया॥
ते जिव तारो अरज साई । विन्ती केरों रंककी नाई ॥
भरमें जीवनको य॒कताञ । सो भाषो प्रथु शब्द् प्रभाऊ ॥
(९९६) अभर्सिह बोध
कबीर वचन
अजर नाम चौका विस्तारो । जेहते पुरूषा तरे तम्दारो ॥
गाव तुस्हारे ब्राह्मणि जाती । घोती कन्दी बहते मांती ॥
बारो मारि कपास ख्गायी । बहुत नेमसे काति बनायी ॥
सो घोती तुम राजा खाऊ । पाके चौका जुगुति बना ॥
राजा बौरसिह् वचन
तब राजा असर विन्ती कीन्हा । केसे जान्यो को कटि दीन्हा ॥
ब्राह्मणि मदिर नगर रहायी । ताकी सुधि हम्ह नरि पायी ॥
कबीर वचनं
तब राजा अपे चलि गय । साथ एक नेगीको लयंड ॥
पूछत ब्राह्मणि राजा गय । वही पुरीम जाई ठाढ रहैेड ॥
राजा आवन सुनी जब सोई । आदर देन चली तब ओई ॥
माई पुत्री आगे चकि आई । दधि अछत ओ हरिया छाई ॥
ब्राह्यणो वचन
बाह्मणि कद दईं कृर जोरी । राजा सुनिये विन्ती मोरी ॥
भाग मोर इम दशन पावा। मे बिहारी यरा सिधावा ॥
राजा बीरसिहु वचन
राजा कद ब्राह्मणीसे बाता । तुव धर धोती एक रदाता ॥
सो धोती इमको देहू। गोव टर तुम इमसे ठ् ॥
एतो वचन जो राखु दमारा । धोती देह कर् काज निवारा ॥
ब्राह्मणी वचन
बराह्मणी कहे सुनो दो रा । धोती सुधि तुहि कौन बताऊ ॥
राजा बीरसिह वचन
इम घर सतगुरु कटि समञ्चायी । घोती सुपि हम गुरूपे पायी ॥
. कबीर वचन धर्मदास प्रति
वचन सुनत तेहि सुधि सो भली । मन पछताय विनय सुख खोटी॥
बोधसागर (११७)
ब्राह्मणी वचन
छन्द््-माईइ पुत्री करइ विन्ती धोती नाथं अनाथकी ॥
गाव शुल्कं 4 नहिं चाहीं मोहि धोती अहै जगन्नाथकी ॥
हम् दीन ह आधीन भिश्ुकं शीस बर् मम लीजिये ॥
कारे जोडि विन्ती मेँ कडं जस चाहिये अब कीजिये ॥
कवीर वचन
सोरठा-राजा षरि सिधाइ टेके चरण तहँ खसम कर ॥
कहे उत्तर सथुञ्चाय, धौती ममि न दीने ॥
राजा बीरसिह् व्चन-चौाई
साहिब ब्राह्मणी लग हम गयऊ । धोती मोगत इम नहिं पयङ ॥
कहे घोती मोहि देह न जायी । जगन्नाथ हेतु धोती बनायी ॥
कहै बर् शीस लेह तुम राजा । धोती देत होय जत अकाजा ॥
कनीर वचन
एती खनते इम विसये । राजा कर एक वचन सुनाये ॥
छरीदार दो दे पठायी । ब्राह्मणी संग क्षें जायी ॥
यहि प्रतीति लेह तुम जाका । हम विन धोती ङ्ह को ताना ॥
राजा छडीदार पठवाये। ब्रह्मणी संग क्षे चङि जाये ॥
नरियुर रेह ब्राह्मणी हाथा । करि अस्नान परसि जगघ्राथा ॥
र धौती जब प्रस्यो जायी । तब धोती बाहर परि आयी ॥
ब्राह्मणी वचन
अब्र यह धोती काम न आयो । धोती फेरि कहो कस खायो ॥
जाके तरत त॒म काति बनायी । सो धर बेड गि पटायी ॥
अब तुम अपने षर छे जाहू । ठे धोती दै डालो काहू ॥
काया
(९९८) बोर्रासह बोध
ब्राह्मणौ वचन
तबे ब्राह्मणी कहै कर जोरी । ठाकुर सुनिये विन्ती मोरी ॥
राय बौीर्सिह मो घर आये । घोती मागि कवीर पटाये ॥
उनके मांगे भै नहि दीना । हम कहि जगन्नाथ ब्रत कीना ॥
तब राजा अपने घर गयॐ । दम ङे घोती इहां सधय ॥
जगन्नाथ तव् कहि समञ्चायो । तुम अपनी भरू माति नशायो॥
उनके मागे घोती देती । आपन जनम सुफल कर ठेती ॥
कनीर दवचन
जगन्नाथ जस कडि समञ्ञायी । छडीदार तब लियि अर्थायी ॥
छडीदार अर् ब्राह्मणी आये । जहाँ राय अङ् हम वैटाये ॥
बराह्मणी रे घोती धर दीनी । दोय कर जोरि सो निन्त कीनी॥
ब्राह्यणो वचन
दम अजान कु जान न जायी । धोती नहिं दीनी मम पायी ॥
छडीदार वचन `
छडीदार तब शीस नवाये । राजासे उडि बिन्ती लाये ॥
जगन्नाथ घोती नहि लीना । मंडप बाहर धोती कीना ॥
जगन्नाथ अस वचन सुनावा । यह धोती हम काम न आवा ॥
जब राजासे मांग पटहं कस ना घोती दीनेड माई ॥
जब हम मांगा तब ना दियं । अब् केस देन याँ चकि अयछ॥
कबीर वचन
छडीद्ार उत्तर जब कटे । तब मम चरण राय शिर र्य ॥
राजा वीरसिह् वचन
साचे सदूयुर् रै तुव बचना । सत्य छोककी सत्य ह रचना ॥
अब् मोदि धनी सिखापन दीज । हम पुरुषा आपन करि ली ॥
जाते अजर अमर पद पाई। सोहं विधि तुम करो सां ॥
बोधसागर (११९)
कबीर वचन
जब हम राजि दीन बुञ्चाह । अजश आरती साज मगा ॥
वीरसिहराय तब साज मंगावा । बहुत भांति पकवान बनावा ॥
मेवा भांति भांति मगवायी । भतिन भांति गन्ध धरायी ॥
सकल सुगन्ध खोजकर आने ! एलन माला बहत बखाने ॥
चोका विस्तार थार मगवायी । कोरा बास्न आनि धरायी ॥
ततक्षन मन्द्र नये सवारी । नये चन्दोवा कंचन आरी ॥
पाचो बाती कर्ष धरायी । ततचछिन सकल साज बनवायी ॥
अगर चौका तब करि दीना) मन प्रतीति राजा गहि ङीना ॥
तब राजा अस्तुति अबुसारा । बहुविधि विन्ती करे षचारा ॥
छन्द्-अजरनामको कीन्ह चोका दिवस चारि विराजिके ॥
अजर सुमिरन कीन्ह ततक्षण पुरूष प्रकटे आनिके ॥
धनी जब उदे भये नेप दशन तबही छीन डो ॥
धाय राजा चरण गहे प्रथु अधम पावन कौन डो ॥
राजावीरसिह वचन ~
सोरग-तुव चरण बङिदार, पाचिर पुरूषा मम तरे ॥
धनि २ धनी हमार, कागाते हंसा किये॥
कबीर वचन-चोपाई
यहि विधि प्राणी चौका करहं । कुलमादीं बह इसा तर ॥
दिवस चारि चौका विस्तारे । त्हंवा आप खसम पय॒ धारे ॥
निशि वासर सुमिरे निज नामा । टे पिण्ड चरे निज धामा ॥
रदिश राजा सुरति लगायी । यकटक ध्यान शब्द मन खायी॥
शशि चकोर सम गर पद रागे । छटे जनम मरण अम भागे ॥
यदी सिखापन राजिं दीना । मन बच करम राय शिर रीना ॥
राजा वौररासह वचन
राजा रहे दोउ कर जोरी । साहब सुनियो विन्ती मोरी ॥
(९२०) बीररसिह बोध
पु व्याह कर आयसु पा । तौ साह इम स्याह कराॐ ॥
महा कठिन दोनो दिशि धाया । पु काज रम तदा विचारा ॥
कबर वचन
आज्ञा लेह राय दरु साजा । सानि कृटक बहु ठाढ से राजा ॥
तब मम चरण शीस तरप लाये । करन विनय रेके गहि पाये ॥
राजा बीरसिह् वचन
विन्ती कीन भरि करूणा । नहि जानु होय धोखे मरणा ॥
साहब रदिहो सदा सहाई । देह विदेह दस सुकताई ॥
कनीर दचन
तब इम दाथ सीस तेहि दीना । कर्णा कहा राय तुम कोना ॥
तुम तौ राय हस मम आहू । दीन आशीष निडर दोय जाह ॥
चरण टेकि नरप भये असवारा 1 चले कटकं जब पछि नकारा ॥
बाजत वब चले तृप जबहीं । भांति माति बाजा बाजे तबदीं॥
साजि बरात राजा चलि गय । लीला एकं रचत इम मय ॥
तब इम तन तजि भये न्यारी । रानी चिता रचन मन धारी ॥
रानी बहुत शोच .मन कीन्हा । राजा गये गुरू अस लीन्हा ॥
.. --विजरीर्खो सुनि ` आतुर धाये । चिता मोञ्चते सुरदा रये ॥
गोर बनाय उन कीन निवाजा । कीन कटोरी बहुविधि साजा ॥
बिजलोखां वचन
कदत पठान पीर भल लाये । नातो रानी देत जराये॥
कबीर वचन
यदव रानी हिय अकुलाती । बीररसिंह देवको भेजी पाती ॥
छन्द-भेजी रानी रायको पाती सदय गये रोक सो ॥
नुप जात गुरू तन तजे मोदि देख भो बड शोक सो ॥
चिता स्वी दौ धरी तब आय विजलीखान दो ॥
जोर करि करि हमसो छे गये रे गाड गोरह दीन दौ ॥
बोधसागर (१२१)
सोरडा-बेगि चृषति चि आवः सतर काया लीजिये ॥
हसे खोक बड चाव, चप शुङ कहके म्रेच्छ सब ॥
कनीर वचन
पाती गदी देखु जब राया । महाक्रोध आतुर चलि आया ॥
डारत घृतहि इताशन जैसे । रोम रोम पावक वर् तेसे॥
चरे सकर दरु डि 8 । व्थाङ्कुर राय कहे तब बाता ॥
राजा बनीर्रासह् वचन
अरे दिवान सुनो मतिवाना । वैनि चलौ शङ् केसे ठाना ॥
बिजली मारह शद्ध इमारा । करी विचार बैठ हकारा ॥
र् वचन
आतर चरे बाजि गज धाये । कुक बाण गहि छीन चडाये ॥.
खद्धतुपक ओ सेक कटार! । धठुष बान करि वैनि सर्वरी ॥
कुहकं बाण हाथ करि छीना । अगनित बाजा बाजत दीना ॥
ढा भाट अनेक पुकारे । युण वरने चारन बहक परे ॥
भेजे राय पति तेहि बारा। खोदि कबर शङ् दे डमारा ॥
नहि तो विजटी बचे न पाई । एक एकको मारि गिराईं ॥
आहं पौति तब के पाना । । सुनि विजटी गहि छीन कमाना॥
† वचन
दिन्द्र काफिर पीर न षावे। जान माल जो सब गङ्ि जवे ॥
कबीर वचन
बिजली खान सेना ठे गढा । आपुन दीस बहत बड गाढा ॥
पीर आपना हम न्ह देते । विरसिह राय करेगा केते॥
तब दम रानी दर्शन दीना। मानिक दे चरणामृत लीना ॥
छोरी रै कमलापति रानी। सो मम चरण पखारे आनी ॥
रानी राय कहा मोहि चीन्दा । मानुष विधि तुम हमक कीना ॥
हाड मांस हमरे नहिं काया । काहे दोनों रार बढाया ॥
(९२२) लीररासिह बोध
राय पठान दोनों शुरू भाई । कारे दोनों करें लडाई ॥
पाती भेनह राय पठाना । खोदि कबर देखो मतिवाना ॥
गोर माहि शरदा जो होई । राय पठान ख्डो तुम दोई ॥
जो सुदो तुम ठ न पाओ काडेको त॒म रार बढाओ॥
मथुरा रतना कंदोइन नारी । तिन बड प्रीति हमारी धारी ॥
खात दिव खगि अन्न न पावा । हमरे दरस को सुरति गावा ॥
ताको दरोन दिये इम जाई । काहे मयो दो गुर् माई ॥
अन्तघान तब हम होइ गय । तत्क्षण रतना दर्शन पय ॥
यदहं राना पाती पठ्वायी । राय देखि अचरज मन लखायी ॥
गये वांचि जह रहै पठाना । सनत पठान अचम्भो माना ॥
सुनत सलाह कौन पुनि दोह । राय पठान आये सब कोई ॥
आइ पठान गोर खुदवाईइ । देखो तहां देह नहि षाह ॥
भये अधीन देख सब लोगा । कर्णा कर सकल भयो सोगा॥
छन्द्-भये सुकृत उदास सबदीं रंक निधि जैसे दर्यो ॥
घन्य शुरू कहा बद्ना तव चीन्ह शुरू सम ना परयो ॥
अमी पाय शुरू पकज गदेसो काग होय मरार हो ॥
पाय अस्थिर सदन निबष रस होय बड भागो ॥
अखंड धम विराज सतशुङू जरां कारु नरि पर्हच रै ॥
असंख्य रवि अर् कोरि दामिनि अमर शोभा तहां सहै ॥
दयासागर असर्हिं विराजत पुष्प सज्या सोददीं ॥
करहि कोहल हस सबदीं पुरूष दरश विरोकदीं ॥
सोरठा-षोडश रवि प्रभाव, चकोर उडगन पोहिया ॥
श्रवण आहि रवि भाव; अघ्रत फल हंसा चुगे ॥
गोर बनाय चरे सब कोई । दन्द मुसलमान पुनि दोर ॥
नाना भति करत सब सोभा । कंडी तिलक देखि सब लोभा ॥
बोधसागर (१२३)
धन्यं राय धन्य पठाना । एेसे शङ् पये मतिवाना ॥
ेसे बहत दिन गये बिताईं । रानी केरि अवधि नियराई ॥
घुन्दरदेइ रानी कर नाऊ! पाये शब्द् न प्रीति रगा ॥
शब्द पाह यु प्रीति न खागी । विना भीति सतभक्ति न जागी ॥
पाय शब्द् नि कीन कमाई । ताते यम बहते इख लाई ॥
चारि दूत हरि तबहिं बुलावा । तासे सकर मता स्ुञ्चावा ॥
नगर गदो जाय चप रानी । तर्हवा जाय वेगि त॒म आनी ॥
तब यमदूत गहि राजा गय । जाय उट मन्दिरमे भयं ॥
घट घट यम देखा व्योहारा । काया वेडि सो कीन विचारा ॥
तब रानीके वेदन भय व्याकर करी दतं चित रदॐ ॥
राजा वञ्च रानी बाता कहे रानी मोहि नादि खदाना ॥
एक बात सुनिये मम राई । साश्च संत सबं देह इुखाई ॥
राजा सकर साधु इुल्वाये । सतशुर्् भक्ति करो चित छाये ॥
बाट विथा रानीकी काया । ततक्षिन आप् पुरूष होय आया
तबहीं यम जिव षेरे आयी । अरध अरध स्वासा चङि घायी॥
भागि इस अिङकदी मे गय । तह्वां यम -जिव चेरे छ्य ॥
चारो जीव यम घेरे लायी । काहे बरु तुम बचिहो जायी ॥
चलो ईस हरि कीन बुला । तब हंसा यक वचन सना ॥
यद्वां कस आये बटपारा । इमरे है समरथ रखवारा ॥
हम चर शुक खसम यक आही । सो मोहि नाम दीन बतलादही ॥
वूत भूत यम तोहि चिन्दाई । आज्ञा देह खसम घर जाई ॥
जे साहेब मोहि नाम सुनाया । सो आवे गुरू जाय लिवाया ॥
` साली तबही यम अस बोखिया, कं है घनी तुम्हार ॥
ताक वेगि इखावहू, निं चटु इरि दरबार ॥
(९२४६) बीररासह बोध
९ | चोपाई
त्ब् जिव यमसे कडवे लीना । साहब एक वचन कहि दीना ॥
निगमके पार अगमके आगे ' सो सतगुङू मम ्रवणहि खगे ॥
खरनि अकाशते नगर निनारा । तरां विराजे धनी हमारा ॥
जह नरि चन्द् सूरकी कांती । तरो नदीं दिवस अङ् राती ॥
अगम शब्द जब भाषे ना । तब यम जीव निकट नहि आॐ॥
चरो जीव हरि ब्रह्मा पासे । तुम्हरे धनी मोहिना आसे ॥
तबहीं रसा कोन पुकारा । कहवा हो तम धनी हमारा ॥
मोसे यम॒ कीनी बरि याह । कस निं राखडहु सदय॒ङ् आई॥ `
छन्द्-कीन जीव पुकार ततक्षण खसम बेगि आइये ॥
षग ॒ खाशुं गहार सतशगुर् रस लोकं पठाइये ॥
काहि करो पुकार साहब मातु पिता नहि कोह जना ॥
करि टिटाई मारि जीव यम ज्जू जग मरह बन्धना ॥
सोरग-ल्गे खसम गहार, घार घाट यम छेकिया ॥
कठिन परी यमधार, अति व्याल अङकलाय जिव ॥
चोपाई
तब सतगुरुका आन डोखा । काल दग्ध जिव व्याल बोला॥
आइ खसखम तब दर्शन दिय । चरण बन्दि हसा तब छियॐः ॥
साहब देखि भगा यमराई । अति आतुर दोय हरिषे जाई ॥
हरिहर वचन
इरिहर बरञ्चे यमसे बाता । कस निं कियो जीवकी घाता ॥
दूत वचन
के यम स्वामी विन्ती मोरी । इम जिव छेकि कीन तेदि सोरी ॥
वह सुभिरे सतसुङकृत ना । सुनत पुकार धनी चलि आ ॥
आवत धनी भयो उजियारा । इम भागे चारो बरपारा ॥
बोधसागर (१२५)
कबीर वचन
वहाँ दूत पर्वे हरि पाक्चा । य्ह जीव कहत अुखवासा ॥
जीव वचन
विनय जीव घु बन्दी छोरा । हम कहं कष्ठ दीन बड चोरा ॥
नाम तुम्हार् बूच यमराया । कहा नाम तब बचने पाया ॥
तब हम ततदि दीन पुकारा । वेगहि आओ खस्व हमारा ॥
ज्ञानी वचनं
सुनो जीव नहिं शब्द्हिं घ्यावा । राजा यङ माषं विस्रावा ॥
गहे नाम अङ् करे कमाई । तब यम इत निकट न आई ॥
जीव वचन
जेहि ते हंसको चर पठवायी । तौन नाम मोहि भाषि नायी ॥
जाते जीव अमर घर जावे । दत भूत यम खबर न पति ॥
कबीर वचन
साखी-ग॒ुप्त नाम मुख भाखिया अकड़ अमर निज नाम ॥
अमर कृषा निधि जीव कू, पहुचे जीव निज अम ॥
चोपाई
पटच जीव खसम घर जबदीं । ख आनन्द भये बड तवहं ॥
कंचन कलस बरत तहं बाती । आरति करे हंस बहु भाती ॥
देखत जीव . ठस उजियारा । अंग अंग शोभा चमकारा ॥
देख द्वीप शोभा बह भाती ।रविशशि मनि लागे जिमि पौती॥
ता मध्ये जिमि लर जडाईं । बीच बीच चुनि ठे वैठई॥
मोतीसर आरि बह पोहा । देखत ईस रदे तहं मोहा ॥
तवर्दि पुरूष ज्ञानी दैकराईं । कौन वचन तुम जीव सुनाई ॥
कौन वचन तुम जीवन दीना । जाते जीव अटक यम कीना ॥
(९२६) लीररासिह बोध
जानी वचन
रोय कर जोरि कं शबहारा । युक्ति वचन जिव डार विसारा ॥
विसखरे नाम केके यम आयी । भाषि नाम यम जीव छडायी ॥
पुरुष दचन
आज्ञा जीव पुरूष रंकराईं । कहो जीव कस कीन कमाई ॥
केसे पहुचे लोकं हमारे । सत्य वचन सो कदो विचारे ॥
हसं वचन
मस्तकं नाय इख कर जोरी । अमर पुश्ष विन्ती यक सोरी ॥
हे सादब इम कद न चीन्हा । शुङ्को वचन मानि शिर ीन्हा॥
जा दिन गुरू मोहि दीनेउ पाना । तब मँ जानवो पद निर्बाना ॥
साधु गुरू मै जान्यो एका । काम क्रोध छोडो रेका ॥
साशु संत कर ॒बन्देड पायो । विसस्योनामशुरू मोहि सुनायो॥
अब पुरो यम छेकेड आयी । पर यक दुख मोर तदं दिखायी॥
साखी-खसम आई दशन दिये, दीना नाम सुनाई ॥
तब आये हम रोकदू, यम शिर पौव चटाई ॥
चोपाई
जो नहि नाम सुक्तिको पवे। माला डारि जगत बौराते॥ `
सुने नाम अर् करे कमाई । छाडे पाखण्ड अङ् अधमाई ॥
निमंर काया दोय संसारा । जाकर दया करे करतारा ॥
नाम कवीर जपे बड भागी । उन मन ठे गुरूच्रमन लागी ॥
जापर दया जो दोय तुम्हारी । ताक कहा करहि बटपारी ॥
पुरूष द्या जब होय सहायी । सत्यरोकमों जाय समायी ॥
छन्द्-पुरूष दाया कीन ततछिन अरर काया तब भयो ॥
ुहुप दीप निवास कीना सुमन शज्या आनन्दमयो ॥
बोधसागर (१२७)
दसन शिर क्षच राजे अग्रत फल आनन्द घना ॥
ङ्प षोडश भावु ईसा कोटि शसि अति बना ॥
सोरग-धाम व पाय अमो, हसा सुख तहं विल्टसदी ॥
द्वीपि दीष कलेर, जरा मरन त्रम मेटिया ॥
इति भीबोधस्तागरे कचीरधमदासेवादे वीरसिंहवोधवणनो
नाम तृतीयस्तरमः ॥
मन्थ बीरसिंहबोध समाप्त ।
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श्रीबोघधसागरान्तगंत
वीरसिहबोध समाप्त
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प१० श्री उय्रनाम साहब
श्री ३०८
बोधसागर द्वितीय भागकी अनुक्रमणिका
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इसमं चौथे तरंगसे लेकर आठवें तरंगतक है, जिव्मे-
चौथे तरगमें भोपालबोध है जो पृष्ठ १ से आरंभ होकर पृष्ठ १६ पर समाप्त
हअ है ।
पांचर्वां तरंग जगजीवन बोध है जो पृष्ठ १७ सें आरम्भ होकर ६० पर समाप्त
हआ है ।
छठा तरंग गर्डबोध है जो पृष्ठ ६१ से आरभ होकर पृष्ठ १०८ पर समाप्त
हज है ।
| सातवां तरंग हनुमानगोध है जो पृष्ठ १०९ से आरम्भ होकर दृष्ठ १३६ षर
समाप्त हुआ . है ।
आवां तरंग लक्ष्मण बोध है जो पृष्ठ १३७ से आरंभ होकर पृष्ठ १६० पर
समाप्त हा है ।
उपरोक्त तरङ्कोंको अलग अलग अन् क्रमणिका इस प्रकार है-
अथ भोपाल्बोधकी अबकमणिका
विषय. पुष्ठांक. विषय. परठाक.
धर्मदास साहबका सदगृरसे कालके जोवोकि राजाका जरतो ौका करके नामका उप
मारनेके विषयमं प्रश्न करना ओर देश लेना ११
कबीर साहबका उत्तर राजाको लेकर कबीर साहबका सत्यलोकः
धमंरायका मत्यको मन्ष्यकि भारनको -- को जाना १२.
ञाज्ञा देना मंत्रि आदिका राजाको महल मे न देखकर
सत्यपुरषका कबीर साहबको जीवो को रका स करके भयते नगर
के लिये पृथ्वीपर आनेको आज्ञा देना भोकर ति १५
कीर 1 जालंदर देशमं राय भोपाल ९
वा अथ जगजीवनगोधकी अनु- ` इ
के घर जाना =
1 कल्ल करने मणिका =
प कतीर साह्वरो करल करते ददात क
तलादक सवगर? उत्तर अ
राजाके अघौन होकर सवृगुरका हाल पूना ८ | गर्मोत्पतति वर्णन = `
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धनद >
(६)
{दषय. पृष्ठांक.
सगहबक¶ दया करके जगजोवनसे कौल लेकर
गभसे म् क्त करना २५
पिश्न कूम वणन २६
पिश्नके फरमे पडकर जगजोवनका गभ-
काकोलम्ल जाना ओर संसारी वंभवमे
मगन होना २९
सदेग्. रुका पाटनमे पहुंचना ओर एक सुखे
बागमं ठहरना, उसका हरा होजाना
ओर राजाका खबर पाकर बाग देखने
आना फिर कबीर साहबसे मिलना ३२
सद्ग् रुका राजा हो गभका कौल याद
दिलाना ३४
राजाका सदग् रसे उद्धारी चविन्तौ करना ३५
सद्गुरुका राजाको आरतौ करनेका उप-
देश देना ३०
राजाका पहलेके हंसोका हाल पूना ओौर
सद्ग रुका उत्तर देना ३७
राजा रानौ इत्यादि सब परिवारका सद्-
गुरको शरणमं आना ओर राजकूवरका
हठ करना पौ शरणमं आना ३९
कुकर्मा जोवके उद्धारफा उपाय ४०
सत्यलोकके आानेका मागं
आरती कराकर राजा तथा अन्य जोवो-
कापान तेना ४३
तन छूटने पर हंसका स्थान क्मनुसार भिन्न
२ लोकको प्राप्ति | ट
राजाका सद्गरुते लोक ॒लेजानेको बिन्ती
करना ४५
सद्ग रका प्रसाद पाना ४६
पान माहात्म्य ४७
काल् जान १,
सदगरुका पाटनसे चलनेका विचार प्रगट
करना गौर बहाके हंसको विन्त ४८
बोधसागर द्वितोयभागको अनुक्रमणिका
` 1 ------ ----------------- ~ ~
विषय. पष्ठांक
सद्गुरुका राजाको अपना प्रतिनिधि बना
कर गमन करना ४९
राजाका सत्यलोक गमनको तय्यारी करना
ओर अधिकारी हंसोँका साय जाना ५०
सत्य लोकके मागमे धमंरायसे हंसों का
वार्तालाप ५१
कामिनीसे बातचीत ५२
हंस सुजन जनसे बातचीत ५३
सब हंसोको लेकर ज्ञानोजोका सत्य पुरुषके
सन्मुख जाना ओर सत्य पुरुषको प्रसन्नता ५४
ग्रन्थसार ५६
इति
अथगर्डनोधको अनुक्रमणिका
सत्यपुरुषका ज्ञानीजीको संसारम जाकर
जीवोँको चितानको आज्ञा देना ६५
ज्ञानोजीका संसारम आना ओर गरुडसे
भेट होना ६६
गरुडक्ता श्रकृष्णके पास जाकरज्ञान करना ६७
गरुडका ज्ञानोजोके आधीन होना ६८
श्नीकृष्णका गरड को कबीर साहबको गृ र
बनानेको आज्ञा देना ७०
गरुडका आरतोका साज एकटठा करना ७१
गरुडका सब देर्वोको आरतोमं बलानके
लिये नेवता देनेको ब्रह्मसभामे जाना +
महादेवका बोध करना ओर गरड़फा उन्हे
समघ्षाना ७२.
गरुडको आरतीमें सब देवोका आना ओर
गरडका परथाना तेना ७३
गरुडका त्रिदेवसे चर्चा करने जाना ७४
गरुड ओर ब्रह्मासे चर्चा १
ब्रह्माका विमान भेजकर विष्णु ओर महादेव
को बलाना ॥ ७७
बोधसागर द्वितीयभागकी अनुक्रमणिका
( ७ )
<=: च
विषय. पुव्ठांक.
ब्रह्मा ओर विष्ण्की बातचीत ७९
गरुड ओर महादेवका वार्तालाप ८ १
तीनों देवोंका गरुडसे हारकर मातासे भेद
पुछन को जाना ८३
निर्गृण भेद वणन ८६
लौकिकं ज्ञान वणन ८७
महादेवका क्रोध ओर गरुडका जान ८८
गरुडका तीनों देवोकी परीक्षा लेनेके लिये
बालक लाना ८९
बालकका क1लसे रक्षके लिय त्रिदेवसे
विन्ती करना ९०
तीनों देवका काले रक्षा करनेमं असमथं
होना ओर गरुडका बालक को जिलाने को
प्रतिज्ञा करना ९३
गरुडका लोकं लोकान्तरमं अम् तके लिये
फिरना ओर सब लोकपालो चर्चा
करना ९६
गरुडका अमृत लाकर बालक को जिलाना
ओर तीनों देवका हार मानना १०४
गरुड बोधका संक्षपसार १०५
इति
अथ हनुमान बोधको अनु-
ऋमणिका
धम दास साहबका प्रश्न ११३
हन् मान शब्दका अयं ओर हनमान बोधका
भाव (टीष्पणीमं ) ५
बेतामें कबीरसाहबका हनम।न से मिलना
हनुम(नका अपनो बडाई करना ओर
म् नो्रजोका समक्षाना ११५
हनमान रामचन््रजीको सबके ऊपर
थापना (राभनामकी बड़ाई) ११६
म् नीनव्रजोका हनुमानके वच॑नका खण्डन
करदेना ११७
हृन् भानका निरंजन (काल) को बड़ाई
११९
करना
विषय. पृष्ठांक.
कि
मुनीन्द्रजीक्ा समभरथकती चडाई करना
ओर हनुमानका सन्देहमे आकर समरथ
को बात पुनः मुनीन््रजोका समरयकी
नात कहना
हन् मानका म्नोन््रजीसे सभरथके देशम
लेजा7नेषर उसको देख लेने पर विरवास
करन की बात कहना
मुनीन््रजीका लोप होजाना ओर इन् मानका
ववराकर पुकारना, फिर मनीन्द्रजीका
प्रगट होना 2
हनु मानक सुनीन््रजीसे अपनेको शिष्य कर
लेनेकी प्रार्थना करन!
मुनीन््रजोके योगजीत नाभस भ्रकट होकर
आदि उत्प्तिकी कथा इनुमानको
सुनाना ४
हेनुमानका साधु लक्षण विवय सृनीन््रजौसे
प्रश्न करना ओर नाना देव तथा योग
१२९१
१२३
१२४
य्क्तिका वणन करना १२५
साधुलक्षण (म् नन््रवचन ) १२६
हन्मानका समरथका ठिकाना ओर चहां
पटुंचनेकी यक्त पुना १२७
मृनीन््रजोका सुरति निरति एक करना
समरयके चर पटुचनेका मागं बताना ,,
हनुमानका सुरति निरति एक करनेको
य् क्ति पूना ~
मु नौन्रजोका समरथके घर पटहुंन के लिये
सुरति निरति एक करनेको य॒क्ति
हनमान को बताना १२८
हन्मानका कबीर साह्बका उपकार भानना १३१
ग्रन्थको समाप्ति कबोरका वचन धरमदास
भ्रति
सारविचार पचोसो
इति
१३२
१२२
५८)
दिष्ट. पृष्ठांक.
अथ लक्ष्मण बोधको अन् कमणिका संगला-
चरण ओर उत्यालिका ९१४१
कृष्णजोकरा शरोर त्याग देना, बलभद्रजो
का संदेशं ओर कृष्णका समसाना
बलसद्रजोका कृष्णक शवक दाह करके
सम्द्रमं बहा देना ओर कष्णजोका उडीसा
27
के राजाको स्वप्न देना १४२.
राजाका समुद्रम स्नानको जाना ओौर कृष्ण
के शवको पाकर स्वप्नको सच्चा समञ्च
रुर जगस्(थका मन्दिर बनवाना १४२२
सम् द्रका अपना बदला लेनेके लिये संदि-
रकोछःबारबहाले जाना
सातवं बार कूबोर साहबका समद्र तटपर
बेठना ओर समुद्रका पीछे लौट जाना
लक्ष्मी ओर कबोरसाहबकौ वार्तालाप १४४
समद्र ओर कबोर साहबको जातचीत १४६
त्रेताय् गको वार्ता (लक्ष्मणवोध) १४८
समुद्रका ढारिका डना लेना ओर कबीर
साहबक। जगल्राथके यज्ञम जाना पण्डा
का संदेह ओर अनंत कबोरका दशन
तथा जगनाथमं खत छात माननेवाले .
के दंडका वर्णेन १४९
ज्राह्यणका समृद्र तटपर स्नान करने जाना
बहां केबीर साहवको देखकर घणा
करना उसके देहनें कोट प्ूटटना राजा
बोधसागर हितोयसागकी अनुक्रमणिका
विषय. पुष्ठांक.
का कबीर साहुन्से प्राना करके
ब्राह्यणका शरोर अच्छा कराना १५०
जगत्नायजीकी काष्ठकी प्रतिभा यनानेके
लिये राजाको स्वप्न देना १५१
राजाका मलयागिरिसे चन्दन लाना ओर
मूरति बनाने लिये कारीगरका खोजना
ओर कारीगर न भिलनेसे राजाका
विकल होना
कबीर साहबका निरजनके अन्रोधसे
कारोगरका रूप धरके राजाके हार पर
जाना ओर सोलह दिनतक दार न खोलनेका
वचन लेकर प्रतिमा जनानेको वंठना १५३
कबीर साहबका निरजनके अन् रोधसे
कारोगरका रूप धरके राजाके दार
पर जाना ओर सोलह दिनतक दार
न खोलनेका वचन लेकर प्रतिमा
अपणं रहना १५४
जंगल्नाथजीका गोरखक्ो शाप देना ओर
योगियोका जगन्नाथ दर्शन बन्द होना
समाप्ति ओर कबीर साहबकष¶ सिहल
दीष गमनं ष
संक्षयसार ओर ग्रन्थयर साधारण दृष्टि १५४
इति
37
भारतवधथिक्त कवबीरयंथौ-
स्वामी श्रीथ॒गखानन्दद्वारा संशोधित
श्री-मोपाख्बोध
खुद्रक एवं प्रकाराकः
केकरा श्री क्कष्णदखः;
अध्यक्ष : श्रीवेकटेश्वर मेसः
खेमराज श्रीकृष्णदास मागं, बम्बई-४०० ००४ `
नं. ५ कबीर सागर - २
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व नेषि ॐ." ॐ 9 क जिन्क
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सत्वनाम्
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श्री कबीर साहिब
सत्यकबीराय नमः
यस्योषदेशमाराध्य नरो भोक्षमवान्नृयात् ।
तं कबीरमहं वन्दे मनोवाक्कायक्मंभिः ॥।
अथ श्रीबोधस्रागरे
चतुथंस्तरगः
भ्रीम्रन्थ मोपाल्बोध प्रारंभः
नन्त दप्=--
ध्मंदासवचन चौपाई
धर्मदास कहे बन्दी छोरा । कैसे जीवन मारत चोरा ॥
केहि विधि जीवन मारत आई । साहिब सो मोहि भाष सुनायी॥
कारण कौन मारत यम जीवा । मारन काठ कौन है नीवा ॥
सतगुरु वचन
सद्रक कै अश सुव॒ वानी । महदा काटकी करटौ निशानी ॥
धमराय आज्ञा जब करई । तवबहीं मीच प्रथ्वी पग धरई ॥
धमराय वचन
मयी सृष्टि बहुत अधिकाईं । प्थ्वी भार न जाय सहाहं ॥ प
(द) भोपालबोध
लोभ मोर् अम फस अपारा । यह् नरि मम र्खे संसारा ॥
यहि फन्दा जग सबहिं फन्दाओ) विरे देस सुकृत बन्दाओ ॥
साखो-यदि विधि जगे जाईके, जीव लाड दम पास ॥
फन्दा डारह जीव पे, दोह मीच दुख रास ॥
चौपाई
यटि विधि काल जब आज्ञादीना। चरे यमदूत सब साज सजीना॥
उत पुरूष आज्ञा मोहि दीन्हा । जीव शुक्तावन कर पठावन लीन्हा
कृटे पुरूष सुनु ज्ञानी बाता । कार करे अब जीवन घाता ॥
घात करी सो भक्षण करिहै। बहुरि जीव भोसागर परि है ॥
काट दुष्ट॒बहु जीव सतावै । सारशब्द विदु मोहि न पावे ॥
याते जगमहं अब तुम आओ । जीवि चिताय रोककर खओ।॥
आज्ञा मोरि ह सदिदाना । जाइ जगत जीव लाओ निदाना।॥
साखी- सुकृत जाह संसार में, उल्टी राह चराड ॥
शब्द्सार जीवन कहो, काल हस भ्रुक्ताउ ॥
चौपाई |
पुरूष आज्ञा हम शिर भानी । करि प्रणाम तब जगत पयानी ॥
देश जलंघर राय भोपाला । गयउ तहां जिन्दाके हाखा ॥
जाई पौरिमे ठट रहायी । कद्यो पौरिया बहुत चितायी ॥
राजर्हिं लाड हमारे पासा । दशन करे कम नृप नासा ॥
लागे कुजी कृटुफ कर्वरा । बहुत लोग बैठे शब्िदहारा ॥
कोड कटै न्याय जिन्द चारै । कोह करै बटपार यह आद ॥
कोर कहै मारि यहि खेदो । निर्यंण मेद ॒तिन्है नहि भेदो ॥
. चारि पहर तब रेन बितावा । भयो भिनसार भोर हो आवा॥
तब इम चरित दिखावन लागे । एटि कपाट भये दोह भागे ॥
नोधस्रागर ( ७
सवे कगरा भद खसि परेड । ज्ञानी ची राय पँ गय ॥
साखी-चकित सकर पौरिय, वाके छि सब धाय
जहौ राय भोपाल ह, तदं परिया जाय ॥
चौपाई
करत गोहार पौरिया जाई । मार मार बहुत हकाई ॥
राय भोपाल वैरि जह राजे । गये परिया तहं सब भाजे ॥
कीन्ह सलाम दोई कर जौरी यह जिन्दा बरवार बडचोरी ॥
कहें पौरिया पौर उधारो । तुरत राओ राय यदि बारो ॥
जिन्दा वचन नहीं हम माना । बीत रेन यये भोर सुजाना ॥
मज एक जिन्दा तब करिया । एूट कपाट कगरा भिरिया ॥
तब जिन्दा आयो महराजा । हम आये तेहि पीडे भाजा ॥
ना जानौ कोन यह आही । होय बटपार धसा घर माहीं ॥
साखी-हो राजा महराज मम,-कदयो सत्य इम बात ॥
तत्क्षण जिन्दा मारहू नातौ सब प्र घात ॥
चौपाई
सनो पौरिया कहे अस राजा । सुनिये वेद करौं तव काजा ॥
विप्र बुलाय सुनो मतिमाना । करिये तबे विवेक सुजाना ॥
आज्ञा वेद होय तब मारा । नहितो जिन्दा कहा बिगारा ॥
एतिक वचन राय शख बोखा । साहब आसन तवहीं डोला ॥
तत्क्षण इम अस रीखा कीन्हा । रायमदर सोने करि दीन्हा ॥,
कंचन कपाट रतनकी पांती । विपरीत बने खम्भ बह भाती ॥
बने कंगुरा रतन रसाला । चकित राजा भये भोपाला ॥
साखी-भयो विवेक मन रायके, देखत मन पतियाय ॥
कौन पुङ्ष त॒म समरथ, मोहं कहँ दरश दिखाय ॥
(< ) सोपालयोध
ज्ञारोदचन चोपाई
सत्य पुरूषके दम शटिहारा । जीवन काज आये संसारा ॥
पुरूष रोकं सत्य परवाना । ताका मरम कोई नरि जाना ॥
साखी-दो राजा भोपाल सुलु, चीन्दौं यमका जार ॥
शब्द हमारा परखहु, नातो पेद कारु ॥
चोपाई
छोड राम नाम हित जाना ) सद्भरू बचन गहो सतिमाना ॥
अलख निरञ्जन छाडो देवा अम तजि कङ् सतशुशूकी सेवा॥
सुमता दोय करो दृढ करनी । पर्हचो लोक पुर्षकी शरनी ॥.
आवागमन रदित दोय जाऊ । जो प्राणी सत्यश् कं पाॐ॥
पुरूष अवाज जाव उबराई । ताते दर्शन दीन्ह् तोहि माई ॥
छन्द्-करह राजा भक्ति दढ होय छोड राजा शुमान रे ॥
नारि पुरूष पुत्र पुरी ठेहु दिरिमिखि पान २ ॥
पुरूष नाम ठे करहु आरती जीव तरण तुराय के॥
पुरूष अंक रे पाव वीरा कार गहे नि आयके॥
राजा भोपाल वचन चोपाई
तब राजा बन्दे दोनों पाईं । करगहि मह्न छे जाई ॥
धन्य भाग मोदि दशन दीना । अधमजीव आपनकरि लीना ॥
कुरिरु कटोर अधम अघ पापी। दर्शन दीन दछुटे जयतापी ॥
महामोह तम पुञ्च अपारा । वचन तुम्हार कीन रविधारा ॥
उटो सुधर्मा मन॒ चित खायी । साहब चरण पखारहं आयी ॥
छन्द-गुर ब्रह्म रूप प्रकाश अघहर पुज तमर्ि विदारन ॥
` सक्ति दाता अखिल जाता कोटरवि छवि वारणं ॥
सोई रूप धरि जगत प्रगट होय जिन दीन् पतितन दुख दरे॥
भवसिन्धु ताप बुञ्ञाय शीतर जीव गदि आपन करं ॥
बोधसागर (९)
सोरढा-निज मन शङ्कर सुधार, ङ् पदपंकज उर धारिएु ॥
मिटे सकल अंपियार, अस्थिर घर तब पाड ॥
चोपार्द
राजा आज्ञा रानी मानी) साहब चरण पखारे आनी ॥
कंञचन ्आारी ठे जक धायी । साहब चरण वखारी आयी ॥
राजा रानी चरन धुवाये ) अंचरन रानी तबहि पुद्ायं ॥
चरण दिये मन्थे पर लायी । चरणाभतं सबही मिडि वायी ॥
कीन्ह दण्डवतं परपर रानी । साहब दरस दीन्ड भर आनी ॥
जानी वचनं
साखी-दमटिं जनि भार चढ्ावहू, इमरे नाम कवीर |
अगम निगम वह पुरूष है, जे गहि छागो तीर ॥
रानो वचन-चोपाई
सुनिके रानी वचन पतियानी । तब साहब सों विनती उनी ॥
ओर पुरूष जानो निं नीका । तुम सतपुरूष आइ यहि जीका
तुमहि पुरूष आह दद् जानी । ओर पुरूष नाहीं मन मानी ॥
रानी कहै सुनो महराजा । साहिब आये तुमरे काजा ॥
रानी करै बेगि गहु चरना । काल अजाषी है निज मरना ॥
आये पुरूष दमारे पासा । हमरे मनकी पूजी आसा॥
जानी वचन
सुनहु राय रानी निजं वचना । यह तो जार कारकी रचना ॥
मेह काम क्रोध हकारा । माया मोह तजौ संसारा ॥
ज्ञान हेतु दढ करनी करई । आवागमन का पूग प्रई ॥
तजि संसार शब्द् कं ध्याओ । गुरूगम पुरूष नाम वितलाओ ॥
साखी-ना फिर जन्मे जोहनि ना, स्वगं नकं को जाय ॥
-सो हसा रहित भये, अजर अमर धर पाय ॥
( १० ) सोप।ललोध
यदह तो माया जार रै, कठिन बीर सतवाल ॥
जीव शब्द न मानई, यक दिनि खेदे काल ॥
मोह नदी विकरारु रै, कोई न उतारे पार ॥
सतशगुर् केवर साथ रे हस दोय यम न्यार ॥
चोपाई
कोटि जहार होत नित तोदीं । कैसेकै लौ टावह मोदीं॥
कैसे छडो राज शुमाना ।किमि छोडो पाखण्ड अभिमाना॥
कैसे छाड्ह राज बडाई | कैसे खडहु शुख चतुराई ॥
बेठि सभा दोह ईसि बाता । कवर पचास संग निशि राता ॥
वेडि महर महं खेद सारी । कामिनि के संग सदा बहार ॥
छुटे न नाति कृटम्ब की आशा । छुटे न कञ्चन भोग विलासा ॥
साखी-यह सुख केसे छोडिदो, इम तो कथे निरास ॥
सेन चेन जब छोड, चट्ह पुर्षके पास ॥
राजा भोपाल. वचन
कहै राय सुनिये गुरूदेवा । मोक राख चरन की सेवा ॥
मस्तक मोर दीजिये हाथा । दम अच करमी हौं सनाथा ॥
छोडो सहस वीस में हाथी । अब पै चरं तुम्हारे साथी ॥
अब् हम दौलत छडें तुरगा । छोडो सकट कामिनी संगा ॥
` देहं गवं ओं राज गमान । छोड़ड सकर भक्ति मनमाना ॥
जव तुम अमृत वचन पुकारा । तेदि क्षण रूट सकर विकारा ॥
छन्द्-दया निधान करूणा विलोकट महादारूण दुःख दरे ॥
तरै अघम जीव अघोर अकरमी पतित पावन पद् गहे ॥
तुम ज्ञान घन विज्ञान आगर धमे कंटकं मदनं ॥
तुव नाम अमो समरथ कर दाया निधनं ॥
बोधसागर (~) ),
सोरग-अविरल भक्ति वुम्हारः पूरे भागते वाइये ¦
विनवों बारम्बार पुङ्ष दरश करवावहू ॥
ज्ञानी वचन चौपाई
नाम पदारथ दे ओ तोहीं। तँ रजा चीन्हा चठ मोहीं॥
पुरूष नाम एकं यज्ञ कराओं । जेहि नाम ते इस बचाओ ॥
जरी केर एक चन्दोवा तानो । कञ्चन केर सिंहासन आनो ॥
दिवाखगिरी लागे जरकेरा । मोतिन आर खा चघनेरा ॥
मोतिन छे भर थार धरा । तापर आरति जोति छक्ा ॥
कृचन कलसा पचो बाती । ्ारीजर रीर ठे पाती ॥
पूगी फल ओ स्वेत मिठाई । चन्दन पान धरो तई ख्ई ॥
कृदलीफर उत्तम तहं जानो । मेवा अह्न यक्त परमान ॥
कदरीपच कपूर सुगन्धा । आमषच छे चह दिधि बन्धा ॥
सात दाथ वस्तर ठे स्वेता । पुष्प शुलाव कहौ मङ् केता ॥
नौ रतन ठे थार धरायी । मनि मानिकके मध्य रडायी ॥
यह सब विधि जब दीनबतायी । राजा सबही लीन सजायी ॥
चौका बेटे सतगुङ् जबहीं । रानी राय चरण गहे तबहीं ॥
सवा लाख दीपक तहं बारी । बह आनन्द शब्द् विस्तारी ॥
सब मिलि हाथ नारियल लीन्हा। आगे धरा दण्डवत कीन्हा ॥
राजा तरण धरे अख माहीं । भये अधीन बांपि कर आदीं ॥
राजा भोपाल वचन
तुम दीननके आह दयाला । कृपा कीन्ह मोहि प्रतिपाला ॥
अब जनि मोन करहु दुराईं । अपने कर॒ खीजे सुकताईं ॥
यहि संसार नादि मम काजा । दारुण महा काल है राजा ॥
अब तुम आपन रोक दिखाओ। महा पुरुष के दशं कराओ ॥
( ९१२) भोपालबोध
सतगुर् वचन
नौ नारी भि विन्ती करई । कुवर पचास ठाद तरै रहई ॥
बेटी एकं सुरजकी जोती । ताहि छिखार पृहे जन॒ मोती ॥
साहब चरण. धरा तिन आई । अब हम चरणचछोडि नहिं जायी॥
कन्द आरती नरयर मोरा । सकर जीवके तिनुका तोरा ॥
सुकृत अश बुलाये ज्ञानी । पुरूष दरश कर राजा आनी ॥
रे अमरावह रोकं द्वारा । परु महै राय ठाट बेगरा ॥
दिना चार र्गी राख्यो काया । वेगी जाय पुरूष पह आया ॥
किखिकिखिपान सबन करदीना। सकलो जीवं वन्दन कीना ॥
जेते जीव प्रवाना पावा तेते रसा रोकं सिधावा ॥
काया छोडि हंस चरे आगे । सत्य सुकृत के चरनन छागे ॥
लागी डोर पुर्षके पासा तबे दूत यक कियो तमाशा ॥
सुकृत संग दंस सब जेते। आये दृत कला धारे तेते ॥
छापतिरकं तब विरि बनायी। मारगमोहि गाढ भय आयी ॥
आओ हस पुरुषके पासा । नातो होवे गट विनाशा ॥
बोरे दूत दस कर जायी । दम गुशज्ञानी तोहि सदायी ॥
दमरे संग चो दो राजा । हमरे शरण कारु उठि भाजा ॥
हंस रूप तुम धरं बटपारा । दम नहिं फन्दा प्रे तुम्हारा ॥
सुकृत करै हस चलि आऊ । हमरे संग काल नहिं पाड ॥
बाएं अंग कालका धारा । दहिन पौजी अहै हमारा ॥
ताहि द्वार होय सुरति लगाओ । बेगि द्रश पुरूषके पाओ ॥
सुकृत सागर पचे जायी । अहो हंस तुम रह नदायी ॥
सकल देस मिलि पेठि नहावा । निरखे द्वीप द्वीपका भावा ॥
बोधसागर ( १३ )
देखि लोक लोककी रचना । तब टके सुकतके चरनां ॥
बैठे लोकम हंस निदहारा । जह्वा बुष आप विस्तारा ॥
सकल हंसं तहं वेढे वाती । सोरह रविं ईसनकी कती ॥
पुद्प सेज सब दहं विराजा । तहंवो बुञ्चाय नरह रंक ओ राजा॥।
कंचन भूमि देख अति शोभा । बरनौ का ईस तहं खोभा ॥
राजा कीन्ह दण्डवत जबहीं । रानी पत्र कीन्ह पुनि तबहीं ॥
अब न्ह भवम जाड छिवायी। अति आनन्द बहत सुखयायी ॥
सुकृत कचन
सुकृत उत्तर कै समञ्चायी । चद् राय गदहिर जनि खछायी ॥
जो तुम गहर लगावह राजा । विनशे गट तब हौय अकाजा॥
तब पक्तेहो राय थुपाला । ततक्षण वेमि चलो यंहि हाला ॥
राजा भोपाल वचन
विनशे गर होय जरि छारा ।अब नहिं छोडब चरण तब्डारा॥
ठेसा रोक छोडि नहि जायब । बार बार तहि माथ नवायब ॥
छन्द्-राजा करे बह बीन्ती तुम दीन बन्धु दयारदौ॥
हंसन नायकं परम लायक काटिया फन्दा काल हौ ॥
चरण शरण आधीन समरथ शरण राखो आपनो ॥
दास जानि बन्ध छोरो कार तेहि नहिं पावनो ॥
सोरढा-अब हम शरण तुम्हार, दास जानि दाया करो ॥
आयो पुरूष दरबार, आपन के प्रतिपालये ॥
वचन-चोपाई
एती विन्ती राजा ठानी । ज्ञानी देश जलन्धर जानी ॥
भवसागर सो ज्ञानी आये । पुरुष दरश कीन्हा तब जाये ॥
दिना चार रसेहि चलि गय । राजा खबरि कोई नर्द दय ॥ `
(९.२) सोयालनोध
तबे पौरिया रावपरै जायी । महल देखि कोई नारि रदाथी ॥
करैवा राजा करवा रानी । करव पु ङुरवेर रजधानी ॥
करवा बेटी दै चन्द्रावति । ताकर रूप बरनो कोनी गति ॥
करवा रानी कामसुरंगा । परिमर अंग बसत जेहि संगा ॥
रोवत॒ गयड पौरिया द्वारा । जाय सबन सों कीन्ह पुकारा ॥
जाति कटम्ब सब देखन आये । जिन राजा ते बहु सुख पाये ॥
सासी-देखत अमिहत राजाकी, भयी अचम्मो बात ॥
रोवत कुटम्ब दीवान भिरि, किन यदह कीन निपात ॥
नगर रोग ग्याङ्करु भये, घरचघर रोवनं खग ॥
की यहि राजा मारिया, खबहिन कैर अभाग ॥
चौपाई
करै पौरिया सनो दिवाना । तुम हम बञ्चो हम सब जाना ॥
जिन्दा एक नगरमे आया । तासों राजा कौन फुकाया ॥
क्यो राय मँ बहुत ॒चिताई । तुरति जिन्दा कं मरवायी ॥
राजा बात नदीं पतियावा । वच शुनि राजा मोहि रिसावा ॥
राजा करै सुक्तिकरदाता । अस नरि जाने करे निपाता ॥
मोर का माना नरं भाई । जस कीन्हा तस फर नित पाई ॥
सासखी-वचन पौरिया सुनतदी, विकल भये सब कोय ॥
आज गरासे राय कर काल भ्रासे रोय ॥
चोपा
नगर रोग तब कीन्ह विचारा । सब भिकि भागौ करौ सम्हारा॥
भूलि अन्ध शब्द् नर्द चीन्डा । मारन कार तिहूं पुर दीन्हा ॥
साखी-सुकृत अश न पाद्या, अन्धा गये युलाय ॥
धन्य राम भोपाल दै, गहे शब्दं चित राय ॥
नोधसागर ( १५ )
छन्द-गये राजा रोक कँ तजिया सबं मान अमानो ॥
इमि हस धमनि जौ मिरे ठम देह ताको पान दहो ॥
कहै कवीर जो शब्द् मानै सकल तजि नामे गहै ॥
अपवर्गं निश्वय ताहि कहँ नहि पला पकडत काल है ॥
सोरग-जो दसा इमि होय, शब्द सार तासों कदो ॥
काग चार तिन खोयः हंस चार गहि खोक खो ॥
इति शीग्रंथ भोषालबोध खलाव्त
इति श्रीबोधसागरे कबीरधपमदाससम्वादे भोपालबोधवणंनो
नाम चतुथस्तरगः
"न्भ १* + =
` इति
श्रीबोषसागरान्तर्गत
४
भारतपथिक कवबीरयथौ-
स्वामी श्रीथुगखानन्दद्वारा संशोधित
श्री-जगजीवनबोध
ुद्रक एवं प्रकाराकः
केकर श्रीक्रष्णदख्
अध्यक्ष : श्रीवेकरेश्वर प्रेस
खेमराज श्रीकृष्णदास साग, बम्बई-४०० ००४
सत्यनाम
|||
(1.
सत्यकबीराय नमः
सत्यं शद्धं गुणातीतं कजयणंसमुःड वम् ।
स्वंशास्त्रार्थतत्वनज्ञं सद्गृरं श्रणतोस्म्यहम् ।।
अथ शओ्रीबोधसागरे
वचमस्तरगः
अन्थ जगजीवन बोध
( गभं चितादनी )
धर्मदास वचन-चोपाई
धर्मदास कह सुनहर स्वामी । को गरभकी अन्तयांमी ॥
कैसे जीव गरम मे आवे। कैसे जीव जठर इखं पावे ॥
कैसे जीव परवश भय । केसे न्द्री देद बनय ॥
कैसे जीव अपने पद परसे । कैसे जीव समरथ षद् प्रसे ॥
केसे जीव कौल रधावे। केसे साहब दर्शन पावे॥
सो सब मेद कहो शुर ज्ञानी । घट भीतरका भेद बखानी ॥
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( २२) जगजोवनबोध
नौ अवतार विष्णु जो रीन्हा । उनह गरभ वसे कौन्हा ॥
तेतिख कोरी देव काये) गरम वास महं देदह बनाये ॥
जोगी जंगम ओ तप धारी । गर्भवास म देह सर्वरी ॥
गभं वास तब छ्टे भाई जब समरथ शङ् बाहं गहाई ॥
रर्भोत्ित्ति वणन
नारि पुरूष बांधे संयोगा । कामबाण लगि देसुख भोगी।॥
सप्त॒ घातुका अंग बनाया । जिह दांत शख कान उपाया ॥
राथ पावं ₹ शीस निमाया । सुन्दर शण बनी बह काया ॥
नख शिख काहू नर बहू कीन्हा । दशदी दार युक्ति करि छीन्हा॥
दश द्वार नो नाडि बनायी । एेसे सबतर बन्ध रुगायी ॥
दीन्हा ठेकं बहत्तर॒ भारी । नाडी बन्धन बहुत अपारी ॥
नाद् बिन्दुसो कायं निरमायी । ताये प्रती आन समायी ॥
हद कारिगर इर कीन्हा जैसे दूध जामन दीन्हा ॥
तीनसों साठ चार बन्ध खायी । सोखह खांईं॑तदां बनायी ॥
सोह खाई चोदह दवौजा । अ्डं हाथ गढ खुब विराजा ॥
छाजे महल अधिकदी छाजा । तामे जीव जो आनि विराजा॥
अजब महर बहु खूब बनाया । छठे महर हस चितवन खाया ॥
छठे मांसम सुरती आयी । दख सुखकी तब पारख पायी ॥
छ मासको भयो जब प्रानी । दुख सुखकी मति सते पदिचानी॥
ओधे- युख अरे रटकंता । मेर बहुत तहं कीच रेता ॥
जठर अग्नि तहं बहत सतवे । संकट गभे तहं अन्त न आवे ॥
बहुत सांकरी पिजार ॒पोई । तडफडे बहुत निकसे नहिं जोई॥
मुखसों बोर निकसि नरि आ । करना कारि मन मेँ पछितावे ॥
अर्चे श्वास रोवे मन मारीं । कोन करमगति रागी आदीं ॥
कर्णा करि मन मेँ पचितावे । ज्यों करीब कंठ करद् बेटावे ॥
बोधसागर ( २३)
ता दखकी गति काञ्च कीजे । करम उनमान तह इःख सदी जे
यदि आलोच करे मनमाही । संगी भित्र कोड दीखत नाहीं ॥
पिछला जनम जब शुञ्चा भाई । तब जिव दिखा चिता आई ॥
मित्र कुटम्ब वरिवारा । खत नाती ओ सेन पियारा ॥
संगी सुजन बन्धु ओ भई) गरभ् कि चीन्ह परी नहिं ताई॥
महा दुःख सो गरम म पवे | बहुत वराग हियामे अबे॥
सूञ्ची सकट बाहरकी बाती । जो जिव पिछली हेती जाती ॥
जव जिव गरभमे ज्ञान विचारा । अब नै खम सिरजन इरा ॥
सोच मोह जिव कष न कीजे । अब सद्शङ् का शरणा छीजे ॥
जिव अपने दिर माहि विचारे । तब समरथ को कौन धकारे ॥
सुव॒ धर्मदास यक कथा सुनाऊं । यक राजाको जस बने बनाऊं ॥
राय जगजीवन ताहिकर नामा । जब वहं पह्च्यो एडी अमा ॥
करन विन्ती लागु अधीङ्् । सतश् कहं तब कन्दी रेड ॥
जगजीवन वचन
साहिब संकट दूर निवारो । यै निज खानाजाद तुम्हारो ॥
दिर तैं कर्णा करे अतिभारी । अब मोहि साहब लेह उवबारी ॥
करे अस्तुति बहते खुधिखवे । त॒म विन खाविन्द कौन डावे॥
अब दुःख दूर निवारो स्वामी । कौर कष प्रथु अन्तरयामी ॥
बाहर निकारो आदि सनेही । बहु दुःख पावे मेरी देही ॥
मे जन प्रथुको दास कदां । आन देव के निकट न जाडं ॥
सतगुरूका होय रहों चेरा । दम दम नाम उचा तेरा ॥
नित उरि गर् चरणामृत ले । तन मन धने निछावर दे ॥
मे तन सों कर कमाई । अ्धमार मं युरूहि चटाई ॥
कुबुद्धि सीख काहू नहिं मात्र । दराम म।र जहर करिजान्रं ॥
कुख्की त्याग मान .बडाईं । निर्भर ज्ञान एकं सेत सगाई ॥
( २४) जगजीवननोध
रात दिवस से ख्व ॒राॐऊ । करत फुरत भक्ति शुरू करा ॥
दुःख सुख प्रे सो तनसे सहं । भक्ति ट्टे गुरू चरणे रहू ॥
प्रजरिया ताकरू नदिं कोद । जननी बहन करि दे सोई ॥
दुष्ट चैन कब नरं खोर । शीतर बेन सदा सुख बो ॥
सवास उस्वासमो रटना लाऊ । आन उपाय एको नरि चा ॥
तन मन धन निखछावर देऊ । सतशुङ् का चरणाभरत ठेऊ ॥
सतगुर क सोई अब करिहौ ! आज्ञा रोप पाओं नरि धरिदीं ॥
ओर सकल बेरी कर जानू । सद्गु् कहं भित्र कर भानू ॥
ज्ञान बतावे सोई गुर्ूदाता । तन मन धन अपू उन ताता ॥
तन मन घन नै उनको देँ । नित उडि शुङ्ूचरणाश्रत रेड ॥
यहि गर्भवासमे कौर बधाॐ । बाहर निकारो शुर निबा ॥
जो भे छट गरभ सबेदी । तन मन अरं ओ गरू देही ॥
एक नाम सांचा कर मानु । ओर सवै मिथ्या कर जार ॥
कहा अस्तुति करो गसाईं । बहुत दुःख पावत हँ या ठाई ॥
यहां को मित्र नदि भाई । मातु पिता नहि लोग लुगाई ॥
देवी देवका कष नचा । गुङ् विन कौन कंरे प्रतिषाले ॥
अब तो खब्र परी यहि गरी । ओर कोका चाछे नाहीं ॥
पिछली बात म इदय जानी । कोई काहृक्का नदीं रे प्राणी ॥
अपने साथ चलेगा सोई। जो कदु सुकृत करे सो होई ॥
मद माया मेँ जीव भरमाया । सो तो कोई काम न आया ॥
बहत विचार किया में सोई । अन्तकार अपनो नहिं कोहं ॥
ठेसी कर्ण) केरे विचारा । दया करो दुःख भजन हारा ॥
साहिब वचन
तब सादिब यों कंदे एकारा । कदि समञ्ञाया तो बारम्बारा॥
अनेकं बार गरभमे आया । तै रतीकमं भरम नदिं पाया ॥
बोधसागर ( २५ )
कड बेर तँ कौर बैधावा। कड बार तैं गर्भं तरै आवा॥
गभ म ज्ञान उपजा है तोही । संकटमें सुमिरे सब कोरी ॥
बाहर निकसि नहि उवजे ज्ञाना । अंधकार अहेकार समाना ॥
वार अनेकं थुखाना भाई) नहि सतथङ् की दीक्षा पाई ॥
गरभ आस तब ष्टे भाई । जब सतय कर बह समाई ॥
जगजौीवन वचन
बोकत वचन कहौ अङ् देवा । जीवकी अवधि बताओ मेवा ॥
दीन दयाल दया युङ् कीजै । बूडत जीव आपन करि लीजै ॥
दयावंत गुर् दीन दयाला । भुक्तिहप जीवन प्रतिपाला ॥
मोकों अभय दान ङ् दीजे । अन्दर ज्ञानं उजाले कीजै ॥
सतगुड वयन
गरभ वासम कौर बन्धावा। सो केसे तै न बाहर निर्बावा ॥
बह संकट तोहि उपजे ज्ञाना । बाहर निक्त सब विसराना ॥
जोई जीव कौल नि्वांहै। सोह नहिं गरभवास महं आरै ॥
जगजीवन वचन
अब नाहीं भदू रू देवा । तन मन खाय क यङ् सेवा॥
मोक बाहिर काटो स्वामी । कौर न चर अन्तर्यामी ॥
सतग् ङ वचन
कौर बोर सब चौकस कीना । तवबदीं गभ सों बाहर टीना ॥
नौवें मास जो बादर आया । लोग कुटुम्ब सबही सुख पाया ॥
सबही हरषं करे मन माई । पज त॒ सब कर बधाई ॥
बाजा बाजे करे उछावा । गीत नाद आधिके चितओवा॥
सबे सजन भिङि गृड़ बैँटावा । रेन समय तिय मंगर गावा ॥
नगरखोकं सब कर बधाहं । घर घर साजे देह गाई ॥
घर राजाके जनम सो पहया । कोर किया सो सबं विसरेया॥
पीयुन मिरे सबहिं भुतारा । सवदीं ज्ञान भुलावन हारा ॥
( २६ ) जगजोवन बोध
ताका नाम सनो रे भाई। महा जालके फन्द फैदाई॥
इठे ठ भिरे संसारा । नरक ङुण्ड मे नाखन हारा ॥
पिसुन कमे वणेन
भयम माता
माता मनम करे बखाना । यह भल उग्यो आक भाना॥
बाक्कं जन्मा मोरे कोखा । जन्म भरेकी भागी धोखा ॥
नाइनं
नाइन एक बधाई खायी । तीन तो एकै बात जनायी ॥
मेरा कहा करो तुम कामा । नाक छेदि कहो नाथू नामा ॥
नार ओवर पीसो गाढो । दिदी को तब बारुक काटो ॥
यह तो बात भें शप्त सुनायी । युवा जिवाका तो सुदि दायी ॥
पिता
पिताके मनम रेसी अवँ । उमगे हरष दिय नाहि समवै ॥
बाटे पान मिठाइ बहूता । धन्य भाग्य मोर जनम्यो पूता॥
काका करै गे ८ उतरू पारा । बालक खरे घरके द्वारा ॥
कमजोर मोरे बड कीन्हा । कषत्रपारु मोटि बालक दीन्हा॥
दष्दा
दादा सनिके दौरे आये । पोता देख बहुत सुख पाये ॥
दासी हाथे कुवैर॒मँगाया । हेतु प्रीति से कण्ठ लगाया ॥
वादी
दादीके मन हषे अपारा । रेत बलाई बारंबारा ॥
मँ केरी बहुत सतियनकी सेवा ॥ भये प्रसन्न मोर कुरदेवा ॥
नं
नानी आवत वेगि उठाया । मुख चुम्बा ह कण्ठ गाया ॥
दून के शिर उपर वारा । द्रभ्य मारु पुनि बहत उतारा ॥
बोधसागर ( २७ )
नाना
अब नाना मुख देखन आया । दौहिजा देखि अधिक सख पाया॥
उमगे हरष दिये न अमायी । कंचन चरा दिया बधायी ॥
भुआ
बहुत करे हरष भुआ बाई । दिनि दिनि अ धिकी करे बधाई ॥
मुख चम्बा दे कंठ लगे । हिये इषं उर्येग नई मवे॥
मोसी
मौसी मन बहु दषं उटावै । धन्य बहिन को कोख तरवै ॥
मुख चमे अर् कण्ठ लगाव । अतिशय उमग हिये नहि मावै॥
अडोसी षपडोसी
बुटिया एकं जो बोरे आयी । तिन यक बात कही समञ्ञायी॥
बालक तैल खन सों लीजे। लौना नाम कहे धरि दीजै ॥
दूसरी पडोसिन
दूजी करै सुनो रे बाई। बाखक डरो छीतर माई ॥
सांचो रोना यदी कावों । इनको छीतर कहि बतलावो ॥
तीसरी पडोसिन
तिया तीसरी बोरे सयानी । मेँ जान्यो सो काह न जानी ॥
कोदरा बरोबर तौर के टीजे । याकर नाग कोद्रसिह कीजे ॥
। चौथो पडोसिन
चमरिन गोद् यदीको डारो । मोल रेह पुनि ताहि उजायो ॥
चमरूसिंह नाम यहि केरा । बाखुक याते जिव घनेरा ॥
पांचवी पडोसिन
याको धूर गनौर डरो इत पराछ्ति या विधिमारो॥
घूरन सिहं अङ् गेनौ नामा । दीजै ताहि सुधरे सब कामा म
( २८ ) जगजोवननोध
छठी पडोसिन
यह सब बात बताओ माई । चर्हे डारो चर्हन कहाई ॥
जेती नारि आयीं तेहि बारा । सबहिन आपन मता उचारा॥
कोइ काहू कोइ काहु बतावैँ । स्यानप आपन सबहि जतं ॥
ओक्ञा ओर स्याने
बुट्वे एक जो सीस धुना । वाके शिर षर भेरों आं ॥
सो कह हमको वेरु बधाओ । भरोसिच कही बतखाअ ॥
देवी पूजकं एक तब आया । देवीसह तब नाम बताया ॥
गाजी खुगीं कोइ चद्व । गाजीदीन तब नाम बताते ॥
यदि विधि अनेकनहू आये । आपन आपन उक्ति सुनाये ॥
पुर
घरको पुरोहित रेसी कही । मनको मनोरथ पूरण सदी ॥
यह तो बडा सप्त करावे । इनके तुर कोड नहीं आवे ॥
पुरोदित कह यजमान है मेरा । करु देवी भरोका चेरा ॥
चारण ओर भाट
चारण भाट जपे महामाई । भोजक भाट तहां चरि आई ॥
सबही मिरि दीनी आशीशा । महामाई सुत कीन्ह बख्शीशा॥
म॒सलमान फकोरः
द्वेश एक कटै ससुञ्ाई । नाम फकीरा को रे भाई ॥
बाधि गांठ गरे मे दीजे। सबपीरों का चारण खीजे॥
=
जोगी एक तहां चि आया । मेरी भभूत का प्रचा पाया ॥
कहा इमारा सुनिके रीजे । याका नाम सदाशिव दीजे ॥
दिगम्बर
यन्् मन्व जतीकरि राये । करि तावीज गरे पहराये ॥
वज्र वटु सूअरदांत मगायी । एक सुपारी मादि मटायी ॥
ब धस्तायर ५ २९)
भोजपत्र यं _ मटाया । सात भांतिका रेशम छाया ॥
गुगल वारि धूष ठे कीन्हा । सो पदहिराय गख दीन्हा ॥
दण्डितं लोग
ब्राह्मण सबही नगरके अये । पत्रा पोथी साथ खाये ॥
पीपल केरे पान रवैगाया। क्गन साधिके नाम सुनाया ॥
जगजीवन नाम जनमका सही । याका मरण होय ना कवी ॥
द्रव्यं माल दक्षिणा दीना । जनम पतिकाल्िलियजो खीना॥
बृह विधि सो संस्कार कराया । योह फासिमे पकरि दवाया ॥
गभे कोट तो सब ॒बिसराना । अमर रहनका जतन बहडाना॥
एक सो बात गुप्त ना होई । स्याना लोग कैं सब कोई ॥
फन्दा अनेकन मे फन्दाहईं । कोरु किया सब गया अुखाई॥
ठे अठ. मखे. सब कोई । इनते काज एको निं होई ॥
पिछली कोर सब विसरानी । महा जाख्मे बधे प्राणी ॥
यह सब ब्ज पाखण्ड सान् । इनस सरे न एको काजू ॥
साखी-कह कबीर सब चेतहू, आगे कारु करार ।
आल जंजाल तम छाडिक पिछले लोकं संभार ॥
चपा
जोन कोर ग्भ म कीया । मूरख विसारि-सब दीया ॥
फिर भी कठिन हो गया भाई । तुम करिहौ कौन उपाह ॥
इतने सब मिि करदं बधाई । तामे तेरा कौन सहाई ॥
तुम अबकी चेतौ जो नाहीं । मानुष जनम भाग बड पादी ॥
साखी-ये तेरे भित्र नही, सब वैरी करि जान ।
उबरा चाहो कार्ते, एर भित्र कर मान ॥
एक जीव बेरी बहुताई। यूथ युत्थ बाटन सब लाई ॥
कोई जीवको का तकसीरा । सबको जडिया मोह जंजीरा ॥ `
( ३० ) जगजीवननोध
ज्ञान ध्यान जिवि कैसे पावैं । इतने पिश्चुन ताहि भरम ॥
देखो दिर करि ज्ञान विचारा ! किटिविधि उतरे भवजर पारा॥
रे छुबुद्धि दुख भ मत ञ्जुरे पिछला कार बोर मति भटे॥
इक दिन फेरि परेगा गाढा । ुञ्चक बाधि यम करिह गटा॥
तुम मति जानो अपर है काया । यह दीसे स॒पनेकी माया ॥
यदि चकचोघ थुलो मति कोई । सेंवर फूरु जेसा तन होई ॥
जेसे नींद म सुपना आवै) जामि परै तब कचन पातै ॥
यद तन रसे देखो भाई । इठे ठ भिरे सब आई ॥
दिनाचार चटकं दिखरवि । अन्तकारु भासन ईँ धवे ॥
काल जजार सों इटा जाई । गुक्से प्रीति कयो रे भाई ॥
सत॒गुङू एसो युक्ति ठखावे । जासे जीव परम पद पावे ॥
सुनो जीव अब्रूञ्च कीं बाता । जनम गर्वेवि करम कमाता ॥
हष मोह यै सबहि सुनाॐ 1 जेते घर म सदि दिखाऊॐँ ॥
एक वप् लगि डोर डोलावे । पञ्च इषम जनम ववे ॥
उखली जीभ तोतला बोरे । मातु पिता सब दर्षत डोटे ॥
आज जजाल बोरे बहकावे । त्यो त्यों हरष दिये नहिं मावे॥
प्री केरे ओ उभा धावे । बाहर भीतर दौडा आव ॥
कंचन पूघुर बेगि गढाई। रेशम केरी डोर पोवाई॥
सोना शूपा. बहु पदिराया । दीरा मोती _ भूर युंराया ॥
बालन संगमे खेन जावे । नाच कूद के घरही अवि ॥
मनमे आनंद करे च॑चलाई । सोच फिकर कष भ्यापे नाई॥
करे छुतूदक मनम सोई । दिन दिन तेज सवाया दोई ॥
आरु बोले सोच न आने । कूर कपट कर बह सुख गानं ॥
संकटका दिन चित्त न आवै । करे अनीति जोई मन भवे ॥
चित्तम दुभेति रदे अति घनी । महा दु्ट बुद्धि पापी सनी ॥
द्वादश वर्षकी भयी रै देरी । अनन्त उपाय करे नर केही ॥
बोधसागशर ( ३१)
प्रगट काम काया के भीतर । सोच फिकिर च्हिं वयापे अंतर॥
अन्ध करे बहत अंकारा । निरे तिरिया घर घर द्वारा॥
परवश दती आनि भिख्वे । जोर करे तो पकरि मगवे ॥
नाहकेको त्र कान लगवि ) नरि मनि तो यमधघर जावे ॥
अघ करमी दोय तन डो । जोर बहुत ग्रभ् सो बे ॥
आंखिन माहीं वक्षं खोई । ज्ञान ध्यानकी सुधि ना दोह ॥
गुरू चरचाके निकट न जवे । इसी मसखरीसों मन भवे ॥
लूटी बात केरे ठबराई । तासों हेतु करे भितराई॥
साखी-यह नर गरभ थुखाह्या, देखि मायाको अङ |
कहै कबीर सब चेतद्ूः सुमिरि पार्लो कौर ॥
चोपाई
इन्द्री स्नेह न मने चेता) माया गब रिरि भैमता॥
ईगुण भ्रगटा अन्तर मादीं । कामातुर हीय करी विवादी ॥
परे विवादी एकं दुगाई । बहत परेम सग ताहि छिवाई ॥
विषय विवेक फिर उपजा भारी। पे ग्याही स॒न्दरि नारी ॥
अँगस्वशूप कामिनि अधिकाईं। कामातुरसों रहै कूपटाई ॥
भहा अनन्द भये मन माहीं । एक पलक संग डं नहीं ॥
कृरे खवासी कहत दै दासी । बन्धा मोह जाल की फांसी ॥
खिदमतगार सेली चनी । कई नायिका कई रामजनी ॥
नव नव खण्डके महल बनाये । सेना केरे करस चटाये ॥
करी बिदछछावन तहं बडभारी । गादी तकिया बहत अपारी ॥
बहुत मोको अतर गावे । पूरन केरी सेज बिव ॥
कहं गि बरनू यह विस्तारा । मायापिनको बार न पारां ॥
टपका स्वाद् भया तर अन्धा । आवै यम तब करे बह फंदा ॥
नित नित जिया नहं सयोगा । खान पान ओर षट रस भोगा॥
( ३२ ) जगजोवननोध
मता विषय रस कं न सञ्च । भैरों भरत॒ शीतला पूजे ॥
शूले कौट ग्रभको बाघी । अब चकर्चौष आई आधी ॥
सबही जीव कौलकरि आवि । बाहर निकसि सब बिसरि ॥
सतगुरुकं आसन
पेखे जीव भू रहे सारे) तब सतशुरू आई पशु धारे ॥
जीव चितावन सतगुङू आये । अलीदास धोबी समञ्ञाये ॥
ओर रस बहत चेताये। फिरत फएिरत पाटनपुर आये ॥
सतगुख्का पाटनयपुरमं पहुंचना
सतगुर् आये पाटन ठा । जगजीवन राय बसे तेहि गाङ ॥
राय न मानें भक्ति विचारा। हंसे भक्तो बारम्बारा ॥
भक्त खूप सब शर निहारा । कोउ न माने कहा हमारा ॥
तब आपन मन कीन विचारा । केसे मानँ शब्द हमा ॥
जाइ बाग मे आसन कीन्हा । गुप्त रहे काहू नहि चीन्डा ॥
द्रादश वषे भये बाग ॒सुखाने । सुरगेः काष्ठ होय पुराने ॥
चार कोस तेदि बाग लम्बाई । तीन कोसकी है चकला ॥
तदां जाय आसन हम कीन्हा । रों गतत काट नरि चीन्ा ॥
तदवां मे कौतुक अस कीया । सूखे बाग हरा कर दीया ॥
विकसे पुरुप जीव सब जागे । सबने हरियर देखा बागे ॥
माटी जाय के दीनं बधाई । जागा भाग तुम्हारा भाई ॥
देखा बाग जाय तेहि वारा । फर एूलनका अन्त न पारा ॥
हषां माली बाहर आया । देखा बाग बहुत सुख पाया ॥
फूलन छाब भरी इह चारी । नाना पिधिके एल अपारी ॥
नाना विधिके मेवा लाया । ले माली द्रबारे आया ॥
वेड राजा सभा मञ्चारा । उमरावनको तदं न पारा ॥
माटी सब ॐ घरी रसाठा । राजा पृ करे ततकाखा ॥
बोधसागर | ( २३ )
राजा जगजीवनं वचनं ५
कौन देश तँ माटी _ आया । एल अनूप कहासे लाया ॥
कौन वाग के फलन विशेखा । कानो नी न आंख न देखा ॥
माली बचन
नो लखा बाग रहा होय आया । फल प्रसून सच नये बनाया ॥
सुनिके राजा दरषा भारी । संग उटी ची परजा सारी ॥
राजा बचन
कह दिवान _यह कौन प्रकारा । समञ्चि इद्धिके करो विचारा ॥
उयोतिषी पण्डित सवे बुलाये ! वा पौथी सबरी लाये ॥
ज्यो तिबी वचन
लगन सोपि सव एसी कृह । कोह पुरूष यहं आये सरी ॥
है कोड नर के को पखेह् । सोधो जाय बाग सव इडः ॥
हेरे राय बागके माहीं । बेटे संत यक् ध्यान ल्गाहीं ॥
राजा जाय धरा तब पाई। नगर भरेकी परजा आई ॥
कहे राजा धन मेरो भागा । दशन पाय अमर होय खाया ॥
आलसी घर गंगा आयी । मिरिगई गर्मी मयी शितलखायी॥
| सतर वचन
तब॒राजासों कदी एकारी । खन राजा एक बात इमारी ॥
हम जनि भार चाओ भाई । काहे को तुम देह बड़ाई ॥
अच्छा बाग विमरइम चीन्हा । तासो आये आसन कीन्हा ॥
एेसा तुमहीं बाग बनाया । नाना विध के ङ्ख लगाया ॥
आसन किया देखि इम ठारी । बहुत एूरु फलकी अधिकारी ॥
। राजा वचन | |
फिर के राजा शीस नवाया । द्वादश वषं भये बाग सुखाया॥
सूखा बाग भये बह बारा । नहिं कोई रोक आहे संसारा ॥
नं. ५ कबीर सागर - ३ ।
( ३४ ) जग जीवनबोध
~ छाडी फर एूलनकी आसा । कोइ न आवै बागके पासा ॥
तुम समथं पग धारे आई । दरा हआ बाग सब ई ॥
राजा कै द्या अब कौजे । मोक सुक्तिदान फर दीजे ॥
मस्तक धरह् दहाथा। मै रहं सतश् तम्हारे साथा ॥
सतग्र कचन
तुमको कोर युखाना भाई। किया सो कौरु गया बिसराई॥
सकट ग्रभ म बाचा दीन्हा । बादरनिकसि करमबड कीन्हा ॥
किया कोल जब गये शुखाई । तब हम आईइके चरित दिखाई॥
बहु विधि बात कही चेताई । बादर निकसि इद्धि पलटाई ॥
तुमको तो कडु सूञ्चत नारीं । कन्दा मोदजारु के माहीं ॥
आवे यम दश द्वार मन्दी । तबहीं बाधि करेगा इन्दी ॥
सोच ब्रञ्च देख मन माहीं । इतने में तेय कौन सहादीं ॥
पिसुन मिरु सब वार न पारा । नरक बास में नाखन हारा ॥
बहु विधि तुमसों शब्द पुकारा । किया कौन नर भूल ग्वार ॥
घर घर दम सब कही पुकारी । कोह न मानँ कदी हमारी ॥
हे राजा जब तू मात॒गभभमे था तब तू वचनवद्ध हआ था कि
भजनके अतिरिक्त अब ओर कुछ न करेगे । उस दःखम तो तू
पुकारता था तथा दाय हाय करता था, कि सुञ्चको इस दुःखसे
निकाखो । जब तू गभके बादर आया तब त अपनी प्रतिज्ञा
भूक गया ओर शारीरिक कामना तथा पञ्चुध्मके वशीभूत
होकर तूने कोन कौनसे कुकम्मे न किये ! सत्यग॒रूकी दयाको तू
एकवबारगी भूल गया,भोगविलासमें फैसकर अन्धा हो गया ओर
भायाने तेरे ज्ञानको बिर्क दी न्ट करदिया।जब यमदूत आवेगे
ओर तेरी सुशक बांधकर नरकमें लेजावेगे तब तेरा कौन
मित्र सहायता करेगा 1 ओर तुञ्चको उनसे कौन छुड़ावेगा !
राजा ! तू सोच तथा समञ्च किः वे रोग -जिन्दं तू अपना
बोधसागर ( ३५ )
मि्र समञ्जता दै उनमें से कौन तेरा उस समय सहायक होगा!
कौन तुञ्चको नरकसे बचवेगा ! गरभभमे मैने वञ्चको बहत सम-
्आायाथासो है गवार ! तु उन सबं बातोंको ्ररगया तने
सबसे धर घर पुकार कर कहा मेरा कहना किसी मूरख॑ने न
माना । इतनी बात सुनकर राजा बोला ।
राजा वचन--चोौपाई
अब तो गरू दोह सदाई। मोकों यमसे ले इडाई ॥
सबही करम वख्सके दीजे । इवत मोड उवबारके लीजे ॥
सन करी पालकी मगाईं। ठे सद्र को माहि बिगई ॥
पाव उधार कांष धर लीन्हा । तबरी मइ पयाना कीन्हा ॥
सदगुरु पग धर महलके माहीं । सब रानिनको राय इलां ॥
समरथ दरशन दीन्हां आनी । धनधन भाग्य वन्ह्यरे रानी ॥
सद्रय॒र् को पलगा बेाई । सब भिरि पांव पलारो आई ॥
राजा भाखे शीश नवाहं । मोकों राखो यङ् शरनाई ॥
करिये सद्य॒रू जीवको काजा । दया करो मँ लाऊ साजा ॥
अब हम शरना रेव तुम्हारी । दया करो तन दुखत हमारी ॥
सतगुरु वचन
तब कदे सतगुरु रह संभारी । राजा सुनहू बात हमारी ॥
कस चर राजा लोक दमारे । मँ नहि देच लगन तुम्दारे ॥
कोटिन ज्ञान कथे असरारा । बिना लगन नहि जीव उबारा ॥
जो कोई बरूञ्चे भक्ति हमारी । ताको चहिये लगन संचारी ॥
जेसे लगन चकोरकी होई । चन्द्र॒ सनेह अंगार चुगोई ॥
एसे लगन शरसे दोहं । घर्मेराय शिर पग धर सोई ॥
तुम तो ह मोटे महराजा । कैसे छोडिदहौ ऊर मर्यादा ॥
केसे छोडिहौ मान बड़ाई । केसे छोडिहौ सुख चतुराई ॥
कैसे छोडिहौ हाथी असवारा । केसे ॐछोडिहौ अथ मैँडारा ॥
६२९) जगजीवनबोध
केसे छोडिरौो काम तरंगा । कैसे राजसे करो मन भमा ॥
केसे छोडिदौ कनक जवादहिरा । केसे छोडिहौ कुरु परिवारा ॥
तुम॒तो उनकी बाघी आसा । इम तो राजा कथे निरासा ॥
जो त॒म तज अन्तरकी बाथा । तबदहीं चरो हमारे साथा ॥
भक्ति कठिन करीना जाई । काहे को दिसं करत दो राई ॥
राजा कदचन
राजा कहे दोऊ कर॒ जोरी । सुनिये समरथ बिनती मोरी ॥
नगरके सब षट् बरन बुला । यदि अवसर सब माल टुटा ॐ॥
तुम तो कद्यो बाहर ख्व वासा । मै तो देहकी छोडो आसा ॥
अमृत वचन पियाओ आनी । ईस उवार करो निरबानी ॥
नगर कोटकी छोड़ी आसा । निश दिन रह तुम्हारे पासा ॥
इकुम करो सोई म राॐं । करो दया मँ शीस नवां ॥
उमग उठे इषित मन मोरा । थकित भये जनु चन्द्र चकोरा॥
सखा बाग जो फर परकाशा । तवते प्रजी मनकी आशा ॥
कसनी कसो सों सहं शरीरा । तवहं परीत न छोड तीरा ॥
जो तुम कहो सो भक्ति करा । दया करो तो शीश चटा ॥
सतर वचन
तब समरथ अस शब्द् उचारा । अब आरति का करो विस्तारा॥
चार गुरुको चोक॒ पुराओ । तिनका तोरायके जर अरषाओ॥
राजा गभं निवार तोरा। भाव भक्तिसे करो निहोरा ॥
भाव भक्ति इम चाद राजा । घन सम्पतिसे न कदु काजा ॥
दया करो सो "साज मगा । कौन वस्तु ठे आगे आड ॥
मँ हं जीव मतीका भोरा। कहँ जानूं चौका के ब्योरा ॥
समरथ कदो म आनू सोदी । चौका जगति बताओ मोरी ॥
करहु शु चौका विस्तारी । जीवहि यमसों रेह उवारी ॥
बोौधसागर ( ३७ )
सतगुर वचन
चार रू को साज गाओ । चार सवा सौ पान ठे आओ
चार सवा सेर कन्द मगा । आठ अंश नारियड के आओ
चार मारा अङ् खोटा चारो) खतशर आगे खाकर धारो ॥
चार थाली चार गादी कीजे) चार चंदवा तने टखीजे ॥
चार कलस जङ् भरि धरवाओ। तब सतशङ्के अगे आओ ॥
सब यह साज आगे धरि दीन्हा) तब खतशक्ये विन्ती कीन्हा ॥
राजा बचन
म दं जीव करम बहु कीना । कैसे यमसों करिहौ भीना ॥
गिनत गिनत नहि आवे चीना बारम्बार भँ ओंडन कीना ॥
चसा करम किया भारी! कैसे यमसे छदौ उबारी ॥
एक बात यङ् कहौ विचारी । मोसम पतित आगे कोड तारी॥
तब सतश॒ङ् बहत विदसाने । फिर राजासों निरणय उने ॥
सतग्ङ वचन
सतयुग सत्यसुङ्कत मम ना । जाइ मथुरामे धारेडं षाॐ ॥
खेमसरी गवाछिनी उबारी । बहत जीव ठे लोकं सिधारी ॥
दवादश पटच पुरूष इनुरी । ओर हंस द्वीपन रमंञ्जरी ॥
रेता युगे सुनिन्दर नाॐ। नगर अयोध्या धारे पाँ ॥
हंस वबयालिसर लीन्हा लारा । प्हैचे तदा पुरुष द्रबारा ॥
आर देस द्वीप महै गय । जिन जेसी जिव देह बनयड ॥
अब द्वापरका कहूं विचारा । नरहर राजका किया उधारा ॥
सात सौ हंस पावन कीन्हा । कुट॒म्ब सहित पयाना दीन्हा ॥
चन्द्रविजय घर इन्दुमति नारी । संकट राजा टखीन उबारी ॥
केता पृषो जीव सनेही। गिनत गिनतना आवे ॐेदी ॥
युगन युगन भवसागर आ । जो समज्ञे तेहि रोक पां ॥
( ३८ ) जगजीवनबोध
शब्द हमारा सने कोई। तौ नहि जाय यमपुरी सोई॥
इतनो बात करी समञ्चायी । दिल राजाके प्रतीति समायी॥
राजा कंचन
घन्य भाग मेरा कुरु करमां । कोरित यज्ञ कियो तप धर्मा॥
सत्यगुरू आय दरस मोहि दीन्हा बरूञ्लत देस उवार के लीन्हा ॥
हो प्रथु मोर करो निरवेरा। मतो चरण कमरा चेरा ॥
कृ सन्देश नगर मे भाई । जय जीवन राय लोकको जाई॥
नेगी जोगी सबहि बुखायी । ओर नगरकी परजां आई ॥
चन्दनका सिदासन कीन्हा । चौका परि कटश धरि दीना॥
सतगुरु शब्द उचारे लीना । युक्ति साजि गादी पशु दीना ॥
सब रानिनको बेगि बुखायी । करि दण्डवत् गुङ्ूचरणा आयी॥
जीव प्रति नरियल रे आये । सो सतथरू को आनि चद़ाये ॥
सासी-सब रानी बिन्ती कर, सुनु समरथ चित लाय ।
महा अकरमी जीव इम, सबहि लेह सुकताय ॥
। चोपाई
जेटी रानी चन्द्रमति जोई । सतय॒रूकी गति जानी सोई ॥
दूजी रानी दे मनकी युक्ती । निर्भय होय करे शुक् भक्ती ॥
तीजी रानी रै मनपोई। रज्या कारण ना माने कोई ॥
चौथी रानी भानुमति आदी । जीवत सती सुजानो तादी ॥
पांचवीं रानी धत्रा बाई। कलावत होय आगे आई ॥
छटठवीं रानी प्राणप्यारी । पूजे सन्त वद् खाज निवारी ॥
सत रानी दै सत मामा । निर्भय दोय जपे गुर नामा ॥
अठ्वीं आनन्दकला है रानी । सतगुरसों प्रीति निज ठानी ॥
रानी नामपियारी । भक्तिवित जने संसारी ॥
दशवीं रानी है दिर दायक । सब रानीकी सो है नायक ॥
ग्यारहवीं रानी है रंगरोषा । ताके कारन राव नरि लोपा ॥
( ३९ )
बारहवीं रानी सूरजमती । हस ह्व है ताकी गती ॥
द्वादश रानी सब बनि आयी । एक अंगहोय सब भक्ति करायी॥
राजा शडीदार पठवाई । तो वो कुवरको लाय बुखाई ॥
=डादार बचन
छडीदार कहै कर॒ जोरी ) राजवर सद्व विन्ती मोरी ॥
राजा रानि शङ चरणे आये ! ताते ठहुमको बेगि बुलाये ॥
गरभवाससों कर निङ्वारा । वरत चरो जनि छवो बारा ॥
कवर वचन
तुम छुडीदार कहो बात विचारी । केसा यङ् है सो अधिकारी ॥
छडीदार वचन
इम मति हीन कच नर्द जाना । निय आही पुरुषं पुराना ॥
यदह ॒सुपने नाहीं कं देखा । सुर अुनि नारद शारद पेखा ॥
कुचर चयन
कुवर बीनती कीन सुहाती । सनतं बात जडानी ऊती ॥
हस खूप चारों है भाई । उ्मग हरष दिये नारिं समाई ॥
जहां सतशगुङ् आसन कीन्हा । कवर चार आह दशन लीन्हा ॥
बडा कुवर वह सूरजभाना । गुर् स्वूष इदय में आना ॥
दूजा कवर इन्द्रमन दासा । शब्दे पीवे शब्दकी आसा ॥
तीजे किये चतुभज मारा । शब्द सुनत वह सीस उतारा ॥
चोथा कवर विक्रम दासा । जिन तन मनकी शओेडी आसा ॥
चारों कवर धरे गुरु पाई । तन मन धन-सब प्रीति चटाई ॥
कदटौ केर पतवार धरायी । गज सुक्तादल चौक पुरायी ॥
नरियल मोरिके मादटूम कीन्दा। लिखि परवाना सबक दीन्हा ॥
इतने हस भये मन भावन । तिनको सतगुङ् कीन्हा पावन ॥
तन मन धन सो बदला कीन्हा । शिरके सांट साहबको चीन्हा ॥
करी निकछावर मेरे गर्भफेरा । अब तो महं भगतिकी वेरा ४
( ४० ) जगजोवननोध
सतगर् वचन
तुमरी राय भरी बनि आदी । तुम गरभवासकी कौर निबाही॥
जोई कौर ग्रभका _ पाले । ताको सतगुङू होदि दयाछे ॥
ग्रमे कोरु कोई चके भाई । असंख्य जन्म चौरासी जाई ॥
साखो-गरमभ कोरु चके नहीं, वोदही हंस स॒जान ।
चौरासी भरम नरी, सो पहुचे यहि षरमान ॥
राजा--वचन चौपाई
राजा कहै दोऊ कर जोरी । सु समरथ यह विन्ती मोरी॥
महाङ्कमीं जो दोय प्रानी । करमनसे कैसे होय छटानी ॥
सतगुरु वचन
तब समरथ शर शब्द उचारा । करमन काटि कर निरवारा ॥
असख्यजन्म कमे किय आयी । पान पान म करम कटायी ॥
जो जिव कमं करे निरवारा । पाख पाख म कर्मे सुधारा ॥
विना पान नर्हि कर्मं कटाई । कोटिन ज्ञान करे जो भाई ॥
रेखा ंज विचारे जानी । विना गंज करे जिव हानी ॥
युग च्व सो दंस उवारा। छ भुनी से उतरे पारा ॥
युग बन्धन ते शिष्य करीजे । असंख्य जन्मका कर्म जो छीे॥
जेसा जीव् तेसा होय पाना । सबदी करम होय छ्य माना ॥
लख्गन॒ जेमुनि अवे हाथा । धर्मराय तेहि नवै माथा ॥
गुरुशिष्य युक्ति एक जो आवे । पारसपान छ सुनि पावे ॥
पान एकोतर केरे जोई । असंख्य जन्मका क्म नशाई ॥
राजा बचन
राजा सतगुरु विनती रखायी । लगन जेमुनि देह बतायी ॥
लगन जमुनी केसे पवि कैसे सतगुरु सों रौ लवे ॥
कौन जगति चरनामृत छेदी । केसे केरे जो बने बिदेदी॥
बोधसागर ( ४१)
कौन वस्तु कहां ठे अवै । काह भेट शङ् आगे धरत ॥
लोकलोक गुरू कहो समञ्ञायी । कहौ ईस कहं जाय समायी ॥
केसे पावे लोक निवासा कौन कौन चर करिहै वासा ॥
सतगङ बचन
तब सतय अस बचन उचारा ! शिष्यं होय सौरं डाय ॥
शिष्य दोय वारे देदी लोक द्रीपकी गम्य तब खेही ॥
शिष्य दोय गुरूवश कररीजे } तन अन धनही नश्वर कीजे ॥
जो क्कु आपन भक्ति करते । पान पान सग लोक पह्ंचावै ॥
ताकी देह बनत है भाई तामे हंस तब जाय समाई ॥
जोह वस्तु ध्यानमाहिं चटवे । सोह इसा सत्यलोक पहं चवे ॥
ताका नाम रेवती भाई । विना शिष्यं कोड पर्वे नाई ॥
तन मन धनको नेह न अवे । तब जिव खगन जैशनी पते ॥
तब राजा मन दरष अपारं । करहृ शिष्य जाॐं बलिहारी ॥
कवर वचन
कवर करै विलम्ब किमि सां । दया करो हो शीस उतार ॥
रानी वचन
रानी मनम हषं अनन्दा । मानों उगे कोटिक चन्दा ॥
तन मनसे करिहौ शङ सेवा । हमको शिष्य कर गुरू देवा ॥
अन्तर बात सब देह बनायी । जेसे सीप मोती कूं भांयी ॥
सतगृर वचन
करनी कठिन सत्य करिजानो । कनि करनि बह्भेद बखानो ॥
किन करनी रठे जो भाई । ताकर जीव बहुत दख पाई ॥
शिष्ठ होय जब कौल धावे । तन मन धन सब आनि चडटावे॥
कयि कौर निबाहे पूरा । करे गुरुसेवा शिष्य सो$ शुरा॥
पूरा होय के शुर कदावे। सतय॒रू बचन सदा रोवे ॥
१ भाव ।
(२) जगजीवनबोध
करी कोरु निबौहे नाहीं । एेसो शिष्य सोयम सुख जादीं॥
तन मन चढावे वही सुख पावे । आखिर धन यौवन बहि जावे ॥
कौर करे सो जारु थुलाई । अके मवने नारिं सहाई ॥
किया कौर रा जो देहं । बहु दुख संकट माथे ेई ॥
दोय दुखी दुख देह समाव । ताकी देह रोग हवै आवै ॥
गुरू को दोष देहु जन कोई । आज्ञा मेरे सजा तेहि होई ॥
सो जिव कदी न उतरे पारा । करन द्वेष जो शुर से धारा ॥
अन धन ताक चहिये भाई । जापर सतगुङ् रोहि साई ॥
कमं सतगुरू दया कट वे । साहब ध्यान सो फल यह् पावे॥
गुरू ॐोडि जो कमे करावे । उन मनम जो लीन रहावे ॥
सो नहिं पे वस्तु अपारा । मनमे देखह कर विचारा ॥
सहज भक्ति करो तुम भाई । दोय शिष्य न डर कक ताई॥
सदज भक्ति राजा तुम ॒करहू । शिष्य होइ भक्ति पद् तरद ॥
सहज भक्ति सबही सुखदाई । कठिन कमाई दुस्तर भाई ॥
कठिन कमाई खोँडिकी धारा । सहज भक्तिसे उतरो पारा ॥
सदा सुखारि भक्ति रस पीजे । सूखी उपर घर नईं कीजे ॥
सब कमं कठिन सहज कर जानू। तन मन धन कर लोभ न आनू॥
हमको सीख अब देउ गुसाई । कौल . कैः सो चक् नाई ॥
जो कटं किं कोल हम जवं । अपनी करनी हम भरि पावें ॥
कौल उके सो भट. गवारा । बिनु स्वारथ जग दवे स्वारा ॥
रंकके हाथ रतन 6 ष । $ बदले क वि ।
सतगुङ् दाया मोहि कीजे । चके कोलका फलदि कदीजे ।
किर कैसे सो संख पावे । कैसे वह फिर कौले आवि ॥
कैसे निर्धन धने बोरे । कैसेरोगी रोग सो छोरे॥
अब कर् शिष्य शब्द् मुदहिदीजे। नर्दि तो देह त्याग हम कीजे ॥
बोधसागर ( ४३)
साखी-चरण & कर जोरिके, सतश् सनो पुकार ।
लगत जेयुनि जब भिरे, तवही करब अहार ॥
सतगुड व्चन-चौपाई
एसे कष्ट करो मत भहईं। करो विचार मँ कं सुनाई ॥
करो आरती साज मँगाओ। ङेई पान परम सुख पाओ ॥
प्रथम सिंहासन खाई बिकछाओ । सवंजीव एकसुरति दोय आओ
सवा से पान जीव प्रति लाओ । सवा सेर महाकन्द मगा ॥
कपडा बस्तर धातु धराओ । तबा पीत वतन लाओ ॥
सोना हषा मोती हीरा) लार जवाहिर बने सो चीर्॥
जेसो साज जोहई ऊ अवे। तैसो ईसा देड बनव ॥
इतनी साज नदीं बनि आवे । ताके हतु यड गौ उदहरत ॥
गौ नाम पृथ्वी का होहं। पृथ्वी नाम यं देह संजाई ॥
सोधन चले अग्रकी धारा । अगर वास तहं होय अपारा ॥
पान संग सो दें पहचायी । लोक जात सो बार न आयी #
जब सतगुङ् आज्ञा फरमायी । तब राजा सब साज रैगायी॥
सब दी राज जब आनि धरावा। तब सतश॒ङ्को तख्त बिडवा ॥
जगति साजि चरणामृत लीन्हा । तन मन धन अपण करदीना ॥
पुनि सतगुरु पान सो रीना । जेसो जीव तसो तेहि दीना ॥
पाई पान सबही चित दीना । होय अधीन सत्य खुख खीना॥
तब सतय॒रु यक वचन उचारा । सबहीको कषयो करन विचारा॥
सतगुरु वचन
सुलु राजा यकं कूं विचारा । मानो राजा कहा इमारा ॥
जो वस्तु तुम दम सो पाओ । रखो चेत नर्द अनत गँवाओ ॥
लगाओ शब्दे करो कमाई । दढ करि राखो नर दे गवो ई॥
सेवा करत सुरति चलि जायी । तबहि कारुधघर बजे बधायी ॥
जे जिव शब्द् सुरति पर चारे । सबही बिधि सो होय निहाङे॥ `
( 8४ ) जगजीवनबोध
साखी-शिष्य दोय तने छिपाइ, ताका कहूं विचार ।
करै कबीर निभेय नदीं, निश्चय यमके द्वार ॥
राजा वचन--चोौपाई
राजा करै सुनो शुरू मोरा । भ रागत दहं चरने तोरा ॥
सहस अठासीं लोक बताओ । भिन्न भिन्न के मोदि बुञ्ञाओ॥
कोन रेस करै करे बसेरा । सब ही ईस कर कँ २ डेरा ॥
उत्तर समरथ कहो बुञ्चायी । यह् सन्देह उठा मन आयी ॥
खेमसरी को कहा संदेशा । द्वादश देस उन संग उपदेशा॥
चारों युगका कहा संदेशा । बहते हस बतायो मेशा ॥
बहते जीवहि बोध बताये । तन छूटे सब कँ समाये ॥
बूत देस पचे निज ठाई । तिनकर पता क्यो समञ्चाई ॥
र देस काको गय । ताका बहत संदेहा ठय ॥
सतगुरु वचन
दे राजा तोहि कहि समञ्ञाॐँ । भिन्न २कै वरनि बता ॥
जे जीव प्रवाना पावैं । सो सो जीव सत्यलोक सिधवै॥
प्रवाना की यदि अधिकाईं । हस विगोय ना कबं जाई ॥
जो हसा नदि देदह बनावे । सो सब मानसरोवर जावे ॥
मान -सरोवर दीप अमाना । दोइ है चार भाल परमाना॥
` प्रवाना की यह अधिकार । योनि गरम बहुरि नदि आई ॥
ताते ताहि वृत्तान्त बतायी । सकर कामना तोर मिटायी॥
सत्य सत्य सबको समञ्जायी । जब शुरूको चरणाभ्रत पायी ॥
जो कलु केरे सुकृत कमाई । सो सब पान प्र देहि चटाई॥
हेत द्वीपमं पहुचे जाई। तब दी दसा देदह बसाई॥
छेमी विधि जो पान चढावें । निज स्वरूप जीव् सो पावे ॥
तापर देस होय असवारा । पचासी पवन प्रे सरदारा ॥
बोधसागर ( ४५ )
जो रेसी नाहीं बनि अवै । ताके पान संग व्रषभ चटावै ॥
वृषभ चटावे पावे सोई । पुष दीप हप बह होई ॥
वृषभ नाम नील रै भाई । उनकी शोभा बहुतहिं पाई ॥
नाम नील वरन दै स्वेता । ताको शूप कहा कट केता ॥
जो वृषभ नहीं बनि अवे।तो ठे गौसो देह बनावे ॥
गौदेह सो पान जो पावे। म्र करि वह हंस रहावे॥
दश हजार सुर अलके ददी । पहुचे हंसा रोय विदेही ॥
हीरा मोती लार जवदिरा । पान चटे पुनि देह उजिहिरा ॥
बस्तर दे पुनि पान चढावे। ज्ञान दीपमे छे पहचावे॥
पांच सौ सूर्यं समान सरूपा । परसत तहँ सो होय अन्रषा ॥
कंचन रूपा धातु चटवे। तेसो शोभा देहमों पवे॥
कहूँ पुकार करो निवरा । देह विना कहं करे बसेरा ॥
राजा वचन
धरे राम सतशुरूको पा । हो सतश् तुम हस शकताॐ ॥
सत्यशुरू मे तुव बछि जाऊ । सवं मेद् तुम मोहि बता ॥
कंदर न मोसे राखु दुराई । देत दों तुमको पुरूष दहाई ॥
जो त॒म कहौ करौं मै सोई । तुमसो दिल पतियाना मो ॥
कृपा करो मेँ प्रीति लगाऊ । कसनी देहु सो सकट सहा ॥
सतगर घचन
तब सतगरू कहे समञ्जायी । काहे को तम देत दायी ॥
सबही कों तुम ॒प्रछो तेसी । खोक राह है सो पुनि जेसी ॥
गही बोँदि उबारू तोहि राई । यदि दंसन की अहे कमाई ॥
जो तुम किरिया दीन्दा मोई । क न तुम सों राख गोड (५ ॥
यह कदि सतगुरु युगति बनाया । ठे राजाको अंक मिलाया ॥
( ४६ ) जगज वननोध
उक् मिखाया मये नरप पारस । उघडी हशि अधिक भे आरस।॥
रोक द्वीप रदंशि मे आई भिन्न मिन्न सब द्वीप दिखाई ॥
भये राजा मन सहा अनन्दा । मानो उगे पूरण चन्दा॥
राज दचनं
घन सतगुर् तुम्हरी बखिहारी । ब्ूडत जीव तुम रीन्ह उवबारी ॥
अब सतगुर् प्रसादं कडु कीजे । महा प्रपाद जीवनको दीजै ॥
सतगुरु वचन
सतगुर् करै सुनो तुम राई । महा प्रसादकी जगति बताई ॥
छंचन केरी थार मगाओ। अमतकी री भर लाओ ॥
आसन डारिके पुरूष बेठाओ । स्वेत बहुत सब ईस ठे आओ॥
इतना कारि तब चरण खटारो । दोय अधीन तन सनको मारो
सुनि राजा सब युक्ती लीन्दा । सतगुरूको बहु बन्दन कीन्हा ॥
चरण खटारि पछि जब छियञ । आसन बिगय पुष कर दियउ॥
तब सतशुर अस करबे रीना । सीथ प्रसाद सबनक्ं दीना ॥
पाय प्रसाद भये बड भागा । शन्य महर मन मोहरा जागा॥
कहै समरथ कहु केसा स्वादा । कहत बने नहि बनत अघादा॥
साखी-मदाप्रसाद के करतदी, निःतच्व होय जाय ।
रंचक घरमे संचरे, सतगुर लोकं दिखाय ॥
राजा वचन--चोौपारई
सतश् कटिये बात विशेखा । रोकं द्वीप सबही हम देखा ॥
धन्य सतगुरु तुम्हारे बलि जाॐ। लोकं द्वीप सब ट्टिहि पाड ॥
। सतगुरे वचन
चौका युक्ती नदीं बनि आवै । महा प्रसाद के देदह बनावे ॥
तमसे राजा कट समक्चायी । पाख मास म पान तुम पायी॥
पुरूष पान सो पावे जबहीं । अगम ज्ञान सां सृञ्चे तबहीं ॥
बोधसागर ( ४७)
यदी ज्ञान भें भेद समज्ायी । तुम ईंसन से कहो ब्चायी ॥
हमरो प्रतिहार पान है भाई । परपर खवर हंसकी लाई ॥
सोई वस्तु ठे लोक पंचव । सोई पान संग हसन अवे ॥
जाका तुमसे कटर विचारा) पान ल्हैसो इस हमारा ॥
जेमुनि लगन पान जौ पावे) निभेय लोक हमरे अवि ॥
पान परख विन शठ कडिहारा । धोखे ठह जिवन कर भारा ॥
ध्मराय मागि दै _पाना। जब दी ईसा करे निर्वाना ॥
साखी-सब दी पहुचे लोकं, चटे पानपर अक्र ।
कटे कमं सब जन्मके, हंस रोय नि्शंक ॥
हंस ( र।जा ) वचन- चौ पाई
हस कहे सनो शरूदेवा । जीवकिं अवधि बताओ भेवा॥
जादिन अत अवस्था अषे। ताकर मेदं हस किमि वते ॥
सोम जु दिन ओं बुधवारा । ताका किये चन्द्रं सरदार ॥
आपनि आपनि चोकी अवे । तो यह जीव बहुत सुखं पावे॥
चले चकं चौकी कर फेरा। तौ कायानगरमें होय बखेरा ॥
गुखूवारका मेद बताऊ । दो भवे गुरू दरस दिखा ॥
एके अवे एक न अवै।ता दिनि जीव बहुत दुःख पावे॥
बार तिथि चौकी चरक करदी। तो निधय ना बाचै देही ॥
सरब भेद भै तोहि बताया । विरे ईस भेद यह पाया ॥
तुम सों हंस कटू समञ्चायी । युप्तमेदना बाहिर जायी ॥
अब हम पृथ्वी परिक्रमा जावे । भूरे इसन करं चितवें ॥
तुम राजा बेठि राज कराओ । सार शब्द् जपन चित लछाओ॥
राजा वचनत
जव सतगुरु तद ठेसो किया । तब राजा मन चिता भया ॥
राजा चरण धरयो तब आई । तुम बिनु कैसे रहं युसांई ॥
हमको राखो चरण लगायी । नरि देह सत्यलोक पठायी ॥
(२८ ) जगजोवनबोध
करकं संकान्ति चन्द्रकी भाई । जरु तत्व ते चन्द् कटाई ॥
जब चन्दा चर चन्दा सोई। रोग व्यापि शोक ना दोई ॥
चन्द् पेक्कि सूर समाषे । पास् छः म लोकि जावे ॥
अब पच तत््वका कट बखाना ! जानेगा कोई देस सुजाना ॥
प्रबत पच काया के बारे । गुर् गम रसा करं विचारे
पीत वरन है मन्दिर बारा । तामे पुर्ष दरश गुर् सारा ॥
स्वेत वरन है पुरूष प्रमाना । ताका दरश करे कोई स्याना ॥
तीजे लारवरन पुरूष परमाना } देखत दै सो रस सुजाना ॥
चौथा इरा रंग है मूरत ।ताको ध्यान धरि देखिये सुरत॥
पाँचवें स्याम वरन अधिकारा । सो देखें कोड दसा प्यारा ॥
जो कोई इनस सुरति लगे । स्वास स्वासकी खबर बताते ॥
रवि मगर शनिश्वर वारा । तापर सूर दोय असवारा ॥
कालज्ञान
सतगुरु वचन
सतश् कै सुनो रे भाई । अगम के मेद कहं सम्ञाई ॥
मिनन भित्र करके भेद् ब्रताङ । आगम किये दष दिखाॐ ॥
वषे छः मास मासका भां । पाख आदिन बरनि सुनाञ ॥
हंगखा पिगखा सुषुमनि नारी चरे लगन सो लेह विचारी ॥
पाच तत्व है उनके पासा । वह सब आगम कँ तमासा ॥
स्याना ईस दोय जो भाई । तिनको अगम देहु बताई ॥
छः मासका भेद बताऊ । अगम रहो सो करि सखञ्चाॐ॥
दोय संक्रन्तिका भेद बतायी । एकं मकर दूजा करक कदायी ॥
मकर संक्रान्ति सुरज सो देखा । तत्त्व पृथ्वी स्वर सूर विशेखा ॥
ज्ञो सूर घर सूरज आवे। छः मास काया सुख पावे ॥
सुरज पेलि चन्द जो अवे । छः मासमे जीव चलाव ॥
बोधसागर ( ४९ )
पल पल राय नवव माथा मोको केसे डाओ साथा ॥
शङ् विन कैसे रहौ अकेला । दिग दिग होये जीवं न चेखा ॥
सतगु ङ वचनं
सतगरङ् कहै खनो मोर भाई । इम संगे रहो ङे जाडं लिवाई।॥
सदा रहौ दंसन के पासा हमको रहै हसनकीं आसा ॥
देह सो दर्शन तुमह दिये राई । विदेदी होय संग रहं सहाई ॥
विदेही दरश जब हस्त पावे | देखि दरश होय अधिक उछादे॥
सतगुङ् चरन खबर सब पावा ! धीरे धीरे सब हंसा आवा ॥
आये रसा विन्ती करीं । हे साहब हम धीर कस धरहीं ।
जो तुम जाओ सतशुरू साद । दमडइ संग सब तुम्हरे आयव ॥
तुम बिनु यर् केसं रहि जावै । जल विड म॒च्छी ज्यां तडपावै
हम पाये आनद दरश तुम्हारे । मोकोन छडो स्वामि हमारे ॥
सतगुङ वचन
कहिको हठ करत दो भाई । सबही हंस सनो चित खाई ॥
देह धरी अब करो सुख वासा । सदा रखो निज नामकी आसा
घर मँ रि कुर धम निवाहौ । जो सब साचि भक्ति तुम चाहो॥
सबहस चन
भाता पिता भिया नरि चहिये । सुत नारीसे नहि नेह लगैये ॥
सतगुङ् तुमदी हौ यकं सांचा । ञ्जूठ ओर सकल जग काचा ॥
विना दशं सो इख दम पँ । नित चरणाभरत करसे खावें ॥
तुम विनु देद छुटि सो जावे । कहं गुरूवचन बह्वरि सो पावे ॥
पिना दरश सब जगकी माया । सबहि छटे नरि चहिये काया॥
सतगुरु वचन
सतश् कहै सुनो रे भाई । सबही रहो नाम खौ रायी ॥
सदा रहँ मँ उनके पासा। धरे ध्यान जो सांचकी आसा॥
( ५० ) जगजो वननोध
खुनो रेस गदो पद सांची । ध्यान विदेह म रहि दहो रंची॥
इतना कडि सतगुरू बतरावा । सबको विदेह ध्यान समञ्चावा॥
ध्यान पाई आनन्द सवे भयऊ । सतयुङ् दरश प्रत्यक्षहि एय; ॥
फिर सतगुर् राजदि समञ्ञावा । सब हंसन को करह चितावा ॥
पुनि हसनसे अस प्रथु माख्यो । हमरे टेर राय तुहि राख्यो ॥
दम सम राय को सबरी जानो । हमसन राय को अन्त न मानो॥
तब् सदगुर् तहं ते पशुधारा । सष दसन इख भयो अपारा ॥
चरत गुर सब सीस नवाया । करि मिलाप ग॒ कण्ड लगाया॥
तुम सों राजा कटू चितायी । रहो सदां शब्द लवलायी ॥
चले गुरू समरथ जेही बारा । रोवे हंस बहे जल धारा ॥
जेसे रंकहि रतन दिराना । जेसे भुजंग मणी विसराना ॥
मानि सतगुरु आज्ञा टीना । विदेह ध्यान गु दर्शन दीना ॥
ध्यान पाइ गुरू करं सब भक्ती । काल नाल सब छदी युक्ती ॥
केते दिवस एेसे चलि गय । तवी राजा आगम पयङ ॥
सब ॒दंसनको वेगि बुखायी । राजा कहै शब्द बतखायी ॥
राजा वचन |
जेहि कारण दम भक्ति कराई । सो दिन अब पचा है आई ॥
तार पखावज वेगि ठे आओ । शब्द चलावा गल गाओ ॥
बाजा बाजे बहत वधायी । सवे तिया मिलि मेगल गायी॥
सब दी लोकं खबर यह पायी । राय जगजीवन लोक सिधायी॥
पाटन नगर मे बहुत उछावा । घर घर तिरिया करे बधावा ॥
बेठे राजा आसन धारी । जरे हंस जरह बहुत अपारी ॥
ले प्रवाना बन्दगी कीना । सबही हेस परिकरमा दीना ॥
रानी पांच कुरवेर दोय जाना । % दासी चार हजूरी साना ॥
* इसके विरुद्ध इूसरो पृस्त्कोमं इस प्रकार लिखा है
जब राजा यक शब्द उचारा । कौन कोन चलं हमरे लारा ।1-
बोधसागर ( ५१)
चार प्रधान सात उमराञ । प्रोहित दोय दिये मन भाऊ ॥
इतना जन परवाना टीना राजा संग सो प्याना कीना ॥
पावत बीरा जिव निस्तारेञ अमर लोक कह प्याना धारेउ॥
दशम द्वार सो न्यारा द्वारा । जेदी राह ईस पथु धारा ॥
धन्य भाग हसन तब जाना । राजाके संग कीन पयाना ॥
आये प्रथम धरम के डरा जहं चौतरा रायधरम केरा ॥
धर्मराय जब लेखा मागा) तब दसा कच्खादेने कामा ॥
जिन जिन कौट चुकाने भाई । सोसौ रहे धर्मकी उह ॥
जीव बचन धघसराय भरति
जीव कहे सनो ध्मराया । हम सतश्ङ्का परवाना पाया॥
ज्ञान ध्यान इम बहते जाने । ओर जाने अमर सौ ज्ञाने ॥
हमको त॒म काहे रोकत भाई । संगी इमारे आगे उङे जाई ॥
घम रायवचचन
भला जीव मुख करे चतुरायी । एसी बतन शुक्ति न पायी ॥
साखी गवि सब संसारा । का सबही जिव उतरे पारा ॥
जो जीव दोषं कौल्के साचा । तिन सबषर इम पारे बाचा ॥
सतयुङू सेवा कीन बनायी ।हमरे शिरस पाव धरि जायी ॥
भक्ति दीन इए अंग हमारा । छव अग दोयं जरि छरा ॥
-तब इतने हंस आगे पगुधारा । संगं जान को कीन बोचारा ॥।
रानी पांच कुवेर दोय जानो । दासी अष्ट नव हजुरी सानौ ॥
पांच प्रधान ग्यारह उमराओ । छडी दार सातसो मन लाओ ॥1
बारह कापस्थ सत्रं साहूकाः । बढई चार अरु सात लुहारा ॥
सत्रह सुनार अठारह बनजारा । चौकोदार चले संग चारा ॥
नव कुरमो सत्रहु कोरी । तेरह कुम्हार सबं सर मोरी ॥
धोबी उजंला धोवन हारा । पांच चले राजाको लारा ॥
छः चमार बन्दगी कीना । राजा के सग प्याना दीना ॥
पाये बीरा जीव चलावा । निकसा जोव ठाठरी षपठढावा ॥.
( ५२ ) जगज वनबोध
चार सरस से सात ₹ बावन ।इतना जिय चटु रोक गवन॥
दोसे कोरु चुकाने भाई। सो रहे धमे राय की गई ॥
चार दजार सात से बावन । दोय से धरमराज ठहरावन ॥
चार दजार बावन से पचा । मानसरोवर पचो सो सौँचा॥
जदा कामिनी मगल गावे । सनि आरति रे आमे अवै ॥
कामिनी वचन
करी निछावर वञ्च बाता केसे आये यहि मग घाता ॥
माया मोह बन्ध्यो संसारा । केसे छडे कुल परिवारा ॥
हस वचन
कहे टस सतगुरू गम दीन्हा । जब हम दशन तुम्हारा लीन्दा॥
देह बनी सो आगे आये । रहिता सब जिव वहौँ रहाये ॥
चार इजार एकसौ बावन । एते दंस तेरी ठान ॥
चार सो आगे किया पयाना । हेतु द्वीप पहैचे अस्थाना ॥
मान सरोवर दंस रहायी । सबभिलि करि बहत बधायी॥
सव परे कामिनि सों वाता । यह सव हंस कदां को जाता ॥
कामिनी वचन
कह कामिनि स॒ दसा भाई । त॒म गुर् कर कह कीन कमाई ॥
परवाना की यहै बडावा। सो तुम मानसरोवर आवा ॥
उन दसन गुरू भक्ति करायी । जगति जगति उन देह बनायी ॥
आगे हैत द्वीप में जेह। हंस सुजन जन कंठलगे है॥
हस वचन
सब दसा मिलि विनती कन्दा । दम चाहें तुव दशन लीन्हा ॥
साखी-वेटि इस विन्ती करे, सुच समरथ अरदास ।
देही सवारे लोकम, उपजे प्रेम विलास ॥
=
बोधसागर ( ५३ )
चो पाई-यसुजनजन वचन
हस सुजन जन कहँ घुनायी । सबही हसा खनो चितलायी ॥
जेसी देह सर्वीरी ईसा । तेसी लेह हमरे पंसा ॥
दस चचन
चरणामरतदि त॒तं सो खीना। केसी महिमा ङ् की कीना ॥
हंस चुजनजन वचन
कितने पान शिष होये पायी । कौन वस्तु तम पान चटठायी ॥
जसां वस्तु संसार चटवे । वसी देदह इहौं सो परवि॥
ही मोती व्ही दीरा ठेहो । तेहि समश्पदेहसो वहो ॥
जेसी स्वरे देह तुम दासा । वैसे खोक करो तम वासा ॥
जिन वहि अवसर देह बनायी । मजर करी मे वैकं पाई ॥
द्वादश सहस सुर हंसनको ह्पा। बैठे इस दीप सम भ्रपा॥
गो चटायं पान जिन लीन्हा । पुहुप दीप तिन इसा चीन्हा ॥
आठ इजार सुरज परकासू । सब आनन्द होय सुख बास ॥
वृषभ चडाय परान जो पवे। मजु रोकं इस सो जावे ॥
दश सहस सुर छबि छजे। बेठे ईसा राज विराजे ॥
हीरा मोती ङे पानजो पवे। उदय द्वीप मे हंसा जवे॥
तेहि हंस में सुरज की जोती । ्जल्केरोम में जैसे मोती ॥
वस्तर देहके देह बनवे। सो हंसा सुख सागर पवि ॥
वहतो ज्ञान द्वीप मे जवें। चार सुरज ज्योति तिन पावें ॥
पेसा धातु बर्तन खाय । खख सागरम ध्यान र्गायी ॥
पेहैसो षोडश भाव सरूपा । बसे सो हंसा द्वीप समीपा ॥
तीन से बत्तिस जिन देदबनाये। आपन आपने दीप सिधाये ॥
पेसठ हंस पहुचे निज ठाई । जिन तो इल्म फकीरी पाई ॥
करै सुजन जन सनो रे भाई । धनि धनि तुमरी अधिक कमाई॥
तुम्दरी सरवर कोड न कन्दा । तुम तो य॒रूको वश कर लीन्दा॥
( ८४ ) जगजोवननोध
तन सन घनकी कौन चलायी । तुम तो आपा दिय विसरायी॥
इन सब रेसन देह बनायी । तुम तो देही गन विसरायी .॥
जो तुस करो करौं भे सोई । तुमरी सरवर नारीं कोई ॥
सुरति तुम्हारो अधिक सहाई । सतगु् तमरे प्राण समाथी ॥
यह् वस्तु त॒म केसे चीन्हा । कैसे गुरूको वश करि लीन्हा ॥
केसे तन आशा बिसरायी । कैसे इहम फकीरी पायी ॥
सब ॒हेसनकी देह बना । ताको तैसो दीष मिलाॐ ॥
सतर वरि करि राखे पासा । सुनो ईस सहि तमरी आशा ॥
सदा सतशगुरू दस सनेही । तुम अर्पित सतगर्की देदी ॥
सदा करे सत॒ की पूजा । तुमसा दंस न देखा इजा ॥
हंस वचन
देस कदे सुन पुरूष पुराना । दम कं जाने जीव अजाना ॥
दम तो हते भवज् के माहीं । महा अन्ध कषु सूञ्चत नाहीं ॥
तब समरथ गुर् आनि चिताया। ब्ूडत देखि उबारन आया ॥
गुरू कडा सोई हम कीन्हा । एक युष विन ओर न चीन्दा॥
तिनसों प्र कीन कर जोरी । समरथ मानो विन्ती मोरी ॥
हम नदि चाहें खोक ओ द्वीपा । सदा रहै गङ् चरण समीपा ॥
` तब् गुरू कषयो सुनो रे भाई । सर्वै ज्ञान का सू बताई ॥
हमरे संग रहा जो चाहो । नौतम सुरति कि देह बनाओ ॥
ओर सकर चठ कर जानो । एक शुरू इम साचे मानो ॥
तन मन धन सो बदला कीना । तब गुरू इदम फकीरी दीना ॥
तब युर आपा दिया मिरायी । देहीको गुण दियो विसरायी ॥
पान इकोत्तर से इम पाये। पानपान इम देह बनाये ॥
लोकं द्वीप हम कष न चाहा । मको सतर द्रशकि खाहा॥
हसा सुरति गरूकी कीन्हा । स्वरूप सहित य॒र्द्र्शन दीन्दा॥
सब ही हस धरेड यर् पा । करि बन्दगि सब सीस नवाञ॥
त्रोधसागर ( ५५ )
सतगुरु वन
सतगुर् कदे देस सुव॒ बाता ! कां षे जीव तुम्हारे साथा ॥
हंस युजनजन वचन
हस सुजन मिलि अक छखगाये । कहो इस कप्त कीन कमाये ॥
सतगृड वचन
इनकी मे का करं बडाई येतो सव निज हंसा आई॥
निश्चय बात हमारी मानी । काया माया खक जानी ॥
सतयुरु हंसको खोक चटायी । सहस्र असी द्वीप दिखायी ॥
जेहि जेहि हस सवारी काया । द्वीप द्वीप सवं दद्धि बताया ॥
देखो हस कह सब अस्थाना । देखो दीप सबही भन माना ॥
सबहीं हंस करे पछतावा । यह गति हम वहां नाहीं पावा॥
खे हसनको पुव तैवा । महापुरुष विराजे जरैवा ॥
साखी -द्रीप वनेन कह कों, सतं मनोरथ काज ।
स द्वपनते न्यार है, सत्यपुर्ष को राज ॥
चोपाई
जब हंसनको ठे पहचाये । तब सतपुर्ूष उटि कंठ लगाये॥
जब ही पुरूष अकं भरि टीना । पारक देह सब हसन कीना ॥
पुरुष वचन
कहै पुरूष ज्ञानी भर आये । इतने हस कवन विधि खाये ॥
ज्ञानी वचनं
ये तब जानो पुरुष पुराना । मं कडि खख सों करौ बखाना॥
चार हजार सातसों बावन पये । एते हस दरश तुव आये ॥
सबही आये लोकं मेञ्चारा । दइ से रोके धरम वटपारा ॥
कोल किया पुनि गये भुलायी । पांजी द्वार धरम प्र जायी ॥
मान सरोवर केते रहये। उनको देही नाहि बनाये ॥
( ५६ ) जगजीवनबोध
ओर द्रीपन सब कीन बसारा । जेसी हंसन देह संवारा ॥
इन तन सन सो बदला कीना । शिष्य दोय इन वस्तुहि टीना॥
जो सब सुना है अन्थन नामा । सोई सब कीना इन कामा ॥
एकोत्तरसे पान इन पावा नौ तम सरती देह बनावा॥
नेह कोन चर रहै जग मारी । काया के गुण दिया विसारी ॥
कसनी कसि सो तन बदरे चीन्हा । गुरूको इन सब वश करि टीन्दा॥
जीवत सतक दोय रहे जगमादीं । जास दरस तम्हारा पादीं ॥
सुनिके पुरुष _हरष वहु कीना । फिर फिर दस अंक भर रीना॥
कहा देड तोहि हंस बडाई । तुम तोको अमर रोकं चरि आई
अरध सिंहासन आसन पाये \ सव हसन शिर छ धराये ॥
षित बदन ओ बहुत इरासा । सदा रहो तुम हमरे पासा ॥
बेख्यो महा पुरूष दरबारा । कोटिन सूर हंस उजियारा ॥
अमृत फलका करो अहारा । धन्यं हंस बडभाग तुम्हारा ॥
पुरुष वचन-ज्ञानीप्रति
ज्ञानी ५.६१ फेर जाओ संसारा । पृथ्वी जाय् करो विस्तारा ॥
सवसो कियो यहि उपदेशा । सब ही चरो पुर्षके देशा ॥
साखी-कहै कबीर सुख अति धनो, पूरण गेम विलास ।
यह सवं जीव चितावनि, जगजीवन प्रकाश ॥
इति श्रीबोस्ागरांतगत जगजीवनबोध-
नामक पचमस्तरगः समाप्तः
श्नीग्रन्थ जगजोवनबोध समाप्त
परिशिष्ट भाग
ग्रन्थसार
संसारमें जन्म ठेनारी दुःखके महासागरमे पडना है । जन्मही
शोकका सागर ओर भयका पाड है जन्मदी अनेक कर्मोका घर,
बोधसागर ( ५७ )
पातककी खान ओर कालके दुःख देमेका स्थान है) जन्म विद्या
का फल, लोभका कमर ओर ज्ञानका आवरण है। जन्मदी
जीवका बन्धन, मृत्युका कारण ओर अन्त जंजाखोके मूल है ।
जन्म ही सांचे सुखका छर, विताका जंगल ओर वाप्षनाओंका
विस्तार है । जीवकी मिथ्या दशाः कल्पनाका भण्डार ओर
ममताषू्पी डाकिनीका लीढा स्थान जन्यदी 2) मायाकीं
लीलाकी रंगभूमि, तमोश्णकी गहरी ओर भयानक कष ओौर
जीवको मोक्ष मासे मरकानेका जड जन्म दी ३ । जीवको मिथ्या
देहाभिमाने फसाकर सत्य पदसे अष्ठ कर कारके नाना वाशेषिं
फसानेवाला जन्मके सिवाय दसरा कोन दै ! यदि जन्य न हौ
तो शरीरकी श्यूटी ममतामे पड़ा इआ यह जीव मिथ्या विषय
वासनामे ठकगकर अपने सत्य ज्ञानस्वह्पको भ्ररुकर मिथ्या
आशा ओर अटी त्ष्णामे केसकर क्यों कालका चारा बने! यदि
जीव शरीरके साथ सम्बद्ध न होता तो इसे नाना परकारकी वियत्ति
ओर संकटमें षड़कर दुःख उठनेकी क्या आवश्यकता थी † जन्म
लेनेवारे शरीरका मूर विचार करनेपर इस शरीर देसी अप-
विर वस्तु कोई भी नहीं मिरती । रजोदर्शनवाली च्जीके मासि-
कंसरावके प्श्ात् बचे इए ओर पताके शरीरसे निकलते हष
अपवित्र वीय्यं द्रारा इस शरीरकी उत्पत्ति है । जब ेसी अष-
वित्र वस्तुओके संयोगसे यह शरीर बना है तब इसमें पवि्न-
ताका कहां पता है । श्चीकफे रक्तके ओने पर इस शरीरका
लखोथडा बनता है यद्यपि ऊप्रसे देखनेमें अपवित्र जनको यह
सुन्द्र देख पडता है तथापि भीतर तो वैसेदी घृणित नरकका
थेला बना इआ है, फिर यह शरीर केसा देख पडता है, जेसे
चमडे भिगोनेका चमारका ण्ड हो । चमारका ण्ड तो
(५८ ) जगजीवनबोध
घोनेसे शद्ध भी रो जाता रै,किन्तु इसे नित्य प्रति धोने षर भी
न इसकी दुगंन्ि जाती है न इसमे पवित्रता आती रै ।
दड्योकी ठठरी बनाकर उसमें नस ओर नाडियोंका बन्धन
लगाया ह ओर मेद ओर मांससे इसे जोडा दै, जिस लोहूका
नाम ही अश्चुदध है उसी रक्तसे इस शरीरकी जब बनावट है तब
इसकी पविचताका क्या ठिकाना है ! शरीर दर्गन्धिसे भरा दै
क्योकि अन्दर बाहर मलिन वस्तुओंसे ही इसकी बनावट हई
दै । समस्त शरीरम शिर सबसे श्रेष्ठ कहा जाता ३, किन्तु
उसमे भी नाके से सदा इ्गन्धि बहा करती है ओर कान
पकनेपर एसी दुगेन्धि निककूती है कि, निकट भी खडा नही
रहा जाता । आंखमंसे कीचड ओर रदरमेसे थुक, खार ओर
दुगंन्धि निकला करती है । इस प्रकारसे समस्त शरीर अष-
वित्र ओर मलिन वस्तुओंसे बना हआ है ।
उत्तमसे उत्तम पदार्थं ॑भी भोजन कर छेनेषर वह कई
घण्टोही म वणित मल बन जाता है । निर्म॑र श्चुद्ध जरू पीनेसे
शरीरके संयोग द्वारा वह मूतर हो जाता है ओर इन्हीं पदा्थंसि
शरीरका पोषण भी होता है,राजासे प्रजातक महान भक्त,राजासे
महान पापी अघकर्मीतक सबके पेम ये अषपविच्र पदार्थं मरे
हए दै ओर इन अपवित्र पदार्थोका शरीरसे एेसा सम्बन्ध
है किं यदि कोह इन मरको शरीरसे निकार कर शरीरको
शुद्ध करना चाहे तो तुरत दी प्राणी मृत्युको प्राप्त होवे । जिस
समयमे यद जीव अपनी वासनाके अनुसार शरीर धारण कर
माताके गभमं प्रवेश करता रै ओर नव॒ महीनेतक यह शरीर
माताके उद्रम रहता रै, उसमे नाकं सद आदि नवों दवांजे
बन्द होते है ओर जिस समय वायुका तो प्रवेश भी नदीं होता,
वधसागर ( ५९ )
उस समय में माताके शरीर से जो अषवि्र रक्त निकलता है
उसकी गर्मी द्वारा दड़ी ओर मास जलता है । उपरमे चमडेकी
थैली न होने के कारण बाककका मांसयय शरीर माताकफे तीचे
चरपरे आदि पदार्थोकि सेवनसे महान कषित होता है । र्भके
ऊषर एक सेद २ चमडा ल्येटा होता है ओर गभ॑ मलब्रूज के
नरकं कुण्डके निकटदही होता है तथा उसकी नाभि एक नटी
लगौ होती है जिसके द्वारा गर्भका पोषण हता है। वात वित्ततथा
विष्टा आदि अनेक अप्वि पदार्थोसि ओर नाना प्रकारके वेटके
कडोके नाकं तथा युके पास फिरनेषर बाककका मन घववबरतां
है । इस प्रकारसे अनेकं असंख्य कष्ठे नव महीना तक कैद इये
जीवको अत्यन्त कष्ठ ओर दुःखके कारण इसे पञ्च सदशक्का
स्मरण आता है तब उस समय अत्यन्तं विनीत भावये वार्थना
करता है कि, “हे सदृगुङ ! हे परमात्मन् । यदि इख बार कपा करके
ञ्चे इस कषम से छुटकारा दे तो मैं अपने आत्याके कल्याणक
भागको धारण कर फिरसे एेसे कष्टम आने से छटकारा कर
लगा ” इसही प्रकार से अनेकं समयतकं पार्थना करते करते
प्रयुकी कृपासे समय प्रा होनेषर माताके पेट मे पीडा आरम्भ
होती है । उस समयम ह नाकं ओर मस्तिष्क जो चासके
मागं है । मांसके टकडंसे एकदम बन्द होजाते है श्वासोसका
दरार बन्द् होते दी बाककको मां आती है ओर जीव अचेतना
वस्थामें तडफडाने लगता है । तडफडानेमे यदि शरीर आड
टेडा हआ तब बाहरवारे रोग गर्भको काटकर निकालनेकी
सम्मति देते है । यदि किसी युक्तिसे ठीक इआ तो इआ नहीं
तो हाथ डारुकर बालका जोई अग हाथ आया उसीको काटना
आरम्भ करते है ओर कमशः काटकर उसे बाहर निकालते है ।
बहुत बार एेसा होता है कि स्वयम् बालक तो मरता ही ै उसके
( ६ ) जगजीवनबोघ
साथ २ माताकामी प्राण नाश दोता दै। यदि पूष पुण्यकी
सहायतासे शरीर सीघारी बाहर निकला तब प्रथम शिर बाहर
आता हे, मागे छोटा होनेसे धाई सिरको पकडकर बल पूर्वक
बाहर खींचती है इसमे भी कभी २ एेसा होता है कि शिर बाहर
निकला ओर धड उसमें दी अरकं जाता है। उस दशाम
बाखकको स्रत्यु होती रै ओर संयोगसे माता बच गयी तो
बाखकके शरीरको काटकर बाहर निकारूते ह । यदि पुण्यवश
सकर शरीर बाहर निकर आया ओर बाख्क जीता जागता
रहा तो बाहर ओतेदी बाहर के पवन लगनेसे बालकको इतना
कृष्ठ होता है कि, मानो सदस बिद्कवोने एकसादी क मारा है
एेसे असह्य कष्ठ के कारण कभी २ बालक अचेत हो जाता 8
तब उसको चेत दिलाने के लि नाना प्रकारके उषाय किये
जाते दै । कभी बालक को व्युंटी काटकर जगाते ह ओर
कभी २ शञ्जका प्रयोग भी करना पडता ३ । ओर जब बालक
रोता है तब सबको आनन्द आता है इस प्रकार से महान कष्ठ
भोगकर यह जीव जब बाहर निकर कर संसारके पदार्थोको
देखता है ओर नाना प्रकार के मोहम कैसानेवाली मायाके
जाल माता पितादि की प्यारी प्यारी बातों को सुनता है तब
गभ के कष्ट ओर प्रार्थना तथा वचन को भूलकर मोह माया मे
फसता है ओर जगतके नाना प्रकारके क्षणिक सुख ओर दुःखम
पडा हआ यह्, साहिब ओर अपने स्वरूप को भूलकर भी
कभी याद् नदीं करता। इस प्रकारका गर्भका दुःख सवे प्राणीको
होता है, वही कथा इस अन्थमे जगजीवन ( जीव ) के बहाने
से अन्थकारने छिखकर सबको उपदेश दिया है ।
इति `
ररि
भारतपथिक कवीरपथी-
क (
स्वामी भ्रीयुगलखानन्दद्वारा संशोधित
श्री-गरूडबोध
मुद्रक एवं भ्रकाराकः
केकरा श्रीेक्ष्णद्ख, `
अध्यक्ष : श्रीवेकटेश्वर प्रेस,
खेमराज श्रीकृष्णदास मागे, बम्बई-४०० ००४
= ज हिः भि ता का त ` = क जः जक का = = = = 9 + + ज #
किक = = = ॐ ` कक
सत्यन्
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वदस्व.
॥ 1 |
५) । 6 ज ति
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1
श्री कबीर साहिब
` „^ ७4). च
लि) न 3 (२8 ॥
10.
1."
के
श्रीसद्गुडभ्यो नमः
अथ श्रीबोधसागरे
ग्रन्थ गस्डबोध
सोरग-गुण गण जेहि अशेष, बने न वणंत सहसय्ुख ।
वंदौं सोइ दसेश, सत्यकवीर जो प्रगट जम ॥
धमेदास वचन
साखी-धरमदासर बिन्ती करे, खुनहू जगत ॒ उधार ।
गरूड बोधको भेव सो, अब कदू यहि बार ॥
सतगुरु वचन
सत गुर कदन तबि अस लागे। गरूड सो ज्ञान जेहि विधि पागे॥
सत्य पुरुष वचन `
आप पुरुष यक शब्द् उचारा । हो सुकृत त॒म जाह संसारा ॥
नाम पान तुम लेह हमारा । जाय छुडायह् जिव संसारा ॥
सत्य रोक ते करहू प्यानी । लेह शब्द् तुम बहुविधि बानी॥
लेह शब्द् अजरमनि ज्ञानी । सत्य शब्द बो सदिदानी॥
आज्ञा मानि ध हमारी रू । जाय पाव प्थ्वी तुम देहु ॥
कहो सबन सों शब्द बुञ्ञायी । भक्ति प्रताप सत्तनाम सहायी॥
शा भवत अ,
तब ज्ञानी उठि मस्तक ५. 4
जगन जगन मँ हम्ह सिधाये । जिन
न सागणर- (न ४
न्न ९५ 8 १०६ ह + ~ छ) ~ग च ॐ ८ ४
थ ~ ~ "ज ~
( ६६ ) गरुड खो ध
तब साहब मोटि दाया कन्दा । बचन मानि दम शिरपर खीन्हा॥
करि प्रणाम परदक्षिनि कीन्हा । पाछे जगि पयाना दीन्हा ॥
यरी ति धमनि जग आवा । बहुत भौतिते जिव सम्चावा॥
प्रथम गरूडसे सेट जब भय । सत्य नाम कह बोर सुनय्ञ॥
घमदास सुच क्यो बुञ्चायी । जहि बिधिसे तादी समञ्चायी ॥
गरड बचन
शीश नाइ तिन पृछा भाये। हौ तुम कौन कर्टौसे आये ॥
कोन दिशा तेतुम चछ आज । अपनो नाम कदी समञ्ञाऊ ॥
जा ठचन
कह ज्ञानी दै नाम दमारा । दीक्षा देन आय संसारा ॥
सत्यलोक से हम चकि आये । जीव छुडावन जग महँ आये॥
सत्यपुरूष मोदि आज्ञा दीन्दा । सत्य शब्द् हम रेह तव् लीन्हा ॥
गरुड वचन
सुनत गरूड अचम्भो माना । सत्य पुरूष आदी को आना॥
प्रत्यक्ष देव कृष्ण कदावें । दश ओतार सो धरि धरि आवे॥
ज्ञानो वचन
तब इम कहा सुनहु तुम स्याना । सत्य पुरूष तुम नरि पदिचाना॥
अवतारन का कटो विचारा । इतने साहिब रदै नियारा ॥
जाकर कीन्ह सकल विस्तारा । सो साहब नहि जग ओतारा ॥
योनी संकट वह महिं आवे । वह तो साब अछय रदावे ॥
जरां रख्गे जो जगम आये । तहौं लगि खबरी अंश कदाये॥
साखी-ताते साहब अखछ्य रै, तीन लोक सों न्यार ।
योनि संकट ना आवई, ना वह रेह ओतार ॥
गरुड वचन--चोपारई
तबरी ग्ड जो बोरू बानी । कौने देश. बसन है ज्ञानी ॥
हम बाहन दै कृष्ण के माहं । तिनकी गति तुमह निं पाई ॥
बोधसागर ( ६७ )
तीनि लोकके ठाकर आदी । तिनके आगे कौनको शाही ॥
तीनि लोकके उाङ्कर किये । तिनके ओर कौनको गहिये ॥
सोई मोहि अव देहु बतायी । मोरे मन विता सशहायी ॥
दसर कोन सो देह बतायी । इमरे मन शुमान नदिं आयी ॥
नानी वचन
सुनहु गरूड यक वचन हमारा । वह साहब है सबसे न्यारा ॥
यह तो समे ईश्वरी माया ।उपजहिं बिनसर बहुरि विखाया॥
वह नहिं आवे नहीं जाहीं । वह तो सदा अजर घरमाहीं ॥
उनको आज्ञा इनं पर अवं । तब इन ग्रभ् वासर सो पावें ॥
तुम पर सदा कृष्ण असवारी । काहे न दाया करहि विचारी॥
हम तो शब्द संदेशी आये । योनी संकट नहि निरमाये ॥
तब इम उसको तत्व खावा । होई विदेह तब वचन सुनावा ॥
तबही गक्डे अस्तुति ठानी । तुम साहिब नि्थंण सहिदानी ॥
तुमह प्रभ सथण ते न्यारा । नि्थंण तत्व साहिब विस्तारा॥
धरि अस्थूल मोहि दरश दिखावा। नि्थंण शब्द् प्रथु मोहि खनावा॥
अब रू मे बन्दां तव पायो । अब जाना प्रभु तुम्दरो भायो॥
निज प्रतीति इमरे मन आऊ । हंसराज मोहि दरश दिखा ॥
अब प्रभु मोदीं दशन दीजे । ईस उवार आपन करि लीजे ॥
भेद तुम्हार सकल भें पाया । घरि स्वहूपतुम दरश दिखाया॥
ज कचन
देह धरी हम दरशन दीना । तब उन चरणबन्दना कीन्हा ॥
| गरुड वचन
शीश नाइ चरणन र्पटामे । अब साइव मोर हु बचाये॥
साखी-निशंण प्राण अधार तुम, दरश दीन्ह प्रभु आय ।
आपन करि समञ्ावहू, खे जीव अुङ्कताय ॥
({ &८ ) गरुडबोध
ज्ञानी वचन--चोपाई
अदो गरूड तुम चीन्हा भाई । दे प्रवान रेड शुङुताई ॥
बाहर भीतर स्वे बताओं। तुमसों गरूड कं न छिपाओं॥
अब तुम जाइ कष्णके पासा । आज्ञा मानिके करहु विरासा ॥
आज्ञा मागि कृष्णसे आओ । तब आरति विस्तार बनाओ ॥
तबदी गरूड गये पुनि तदवा । श्रीकृष्ण बेढे रहे जहा ॥
जाइ गरूड तब विन्ती खाई ।
गरुड वचन श्रीकृष्ण भ्रति
ह क तुम प्रथु सदां संत सुखदाई ॥
हम यकं निेण भेद जो पाया । ताका इम प्रथु विन्ती छाया ॥
ओय कबीर सत्यलोकसे आये । तिन मोदि भेद की समञ्चाये ॥
उन अन्तर निं एेसो दिटावा । निज साहब नरि पृथ्वी आवा॥
नाम कबीर उन आप धराया । यहं शब्द् उनही भाष सुनाया ॥
नियंण मेद॒ सबनते न्यारा । अस उन हमसो कीन्ह पुकारा॥
जो मोहि आज्ञा करो गुसाई । तौ उनको शुक् करिये जाई ॥
दाया करि मोहि आज्ञा दीजे । सो हममानि अपन फिर रीजे॥
श्रीकृष्ण वचन
सुनिके कृष्ण उतर तब दीन्हा । भके ग्ड तुम उनको चीन्हा॥
भले गरूड तुम पूछा आयी । दुविधा दुर्मति कषर नशायी॥
जो यह भेद गुप्त करि रखते । हमसों तमसो अन्तर पढ़ते ॥
जो तुम हमसों पो भाई । उनकर मेद है अगम उपाह ॥
वद निशेण इम सण् भाई । निशेण सओेण बहु बीच रदाई॥
हम सगण कईं बार ओतारा । वह सादिब दै सबते न्यारा ॥
जाकर पठाये वह यह आये । तिनरी पुनि दम कं निमय ॥
उन आज्ञा जब कीन्ह उचारा । तब हम रीन जोहनि ओतारा॥
जो कबीर अदी अर्थाईं । सोहं वचन सत्य दै भाई ॥
बोधसागर ( ६९ )}
गख्ड वचन
गरुड कहे तव काहे न भाषा । कते मोहि छिपाईके राखा ॥
निगुण भेद प्रयु मोहि छिपायी । सणण भेद दीन्हा फैलायी ॥
श्रीक्रष्ण वचन
सुनो गरूड यकं शब्द् निदाना । निर्ण मेद् कोड विररे जाना ॥
देह धरी हम कीडा कीन्हा । यहै मानि सब काहू रीन्डा ॥
हम गीता महं सन्धि जनाई । ताको कोइ न चीन्हे भाई ॥
निभय भक्ति कषयो परमाना । ताकर भेद काह नरि जाना ॥
पटि गीता पण्डित बौराये अर्थं मेद को गम नहि पाये ॥
पठि गीता ओरहि ससुञ्ञावे। आप भरमम जन्म॒ गयावै ॥
करे अचार छतिके माने । ओौरनको दीनहि कंरि जाने ॥
सवेमयी दमं सब मादी । पण्डित अधरे सथुञ्जत नारीं ॥
हम सबमें सब इमरे माहीं । हमते भिन्न कोड जानत नादं ॥
करे सो कोन अचार बिचारा । पण्डित भरे धरि ईकारा ॥
सर्वमयी है नाम हमारा । पण्डित अर्थं न कृरे विचारा ॥
कृटि गीता हम सब समञ्चायी । गीता पडे सञुञ्चि नहि जायी ॥
कृव हम पूजा नेम बतावा । कब हम जीवं घात फरमावा ॥
बरना विष्णु ओर शिव कहवाये । 4: तीनों मिछि बाजी खाय ॥
तैदि बाजी अटका सब कोई । निशेण गमि केसे के होई ॥
बाजी रखायके जग भरमाया । निगणकी गति काह न पाया
जो जो कडु हम कदा उधार । सो का नहिं दृष्टि निहारी ॥
हम जानि सब भेद अवगाहा । ओर देव निं पावर थाहा ॥
ब्रह्मा विष्णु शिव बांजी खाये । उन काहू नहिं ओर सहाये ॥
अपस्वारथसों बहुविधि ीन्हा । परमारथ काहू नहिं चीन्हा ॥
गीता मथी कदी समञ्ञायी । सो अजन नहिं जानी भाई ॥
चारि षेद मथि गीता कही । धौ अन निज मानी सही ॥
( \७ ऽ ) गरडगोध
श्रवण रुगाय गीता उन सुनी । रहनि गहनि एको नरि गुनी ॥
रदनि गनि उनहँ नरि पायी । अथ॑ सुनी सब कान उडायी ॥
सुनि सुनि सो सब जग अङ्ञ्चवे। साचा भेद न कोई पवि ॥
उनहु अचार विचार न छटा । ब्रह्मा विनशे यमसो टूटा ॥
श्रवण अवाज सबरिकी लीन्हे । रहनी गहनी कोड न चीन्हे ॥
अदपेव कीन्हो अधिकारा ताते जाहि गरे सोहि मारा ॥
करे विचार पाखण्ड छ्टे भम विशुचन यमकी लूटे ॥
पण्डित बाचि गीता अथवि । गीता केर अथं नहि पावे॥
फिर फिर दमरीं को ठदहराषे । पठित अधरा मेद न पावे॥
सुनहु गरूड यकं शब्द् हमारा । दोय निशुण जिव केर उबारा ॥
हम कीर के निज करिजाना । उनरीं सकल कीन सण्डाना ॥
उनही सब अस्थान दटाया । जहर तीर्थं तिन सबहि गाया
जहां जहां उन चरन आया । सोड सोह तीर्थं अस्थान बनाया॥
आपु जानिके चणं जो दीन्हा । यहि विधि सबको थापन कीन्दा॥
वही मानि सब काहू लीना । आष ग॒प्त दोय काह न चीना
इन सबही मिलि बाजी लायी । आप आपकी कीन बडाई ॥
जिनको आज्ञा सब कदु भयऊ । तिनको छिषाये तीनो दयॐ ॥
साखी-कँ कृष्ण कवीरसों, गुरू तुम करो कबीर ।
देस ठे जइंहै रोक के, खेह लगे तीर ॥
चौपाई |
चरण टेकिंके गरूड रिगायी । कीन्हो भट द्वारका जायी ॥
वृन्दावन होय आज्ञा टीन्हा । दशन जाइ द्वारका कीन्हा ॥
च्रण टेकि प्रदक्षिण दीन्हा । मस्तकं नाइ बन्दगी कीन्हा ॥
समरथ कहो मोहि समञ्चायी । आरति साज में लेडं मंगायी॥
तब इम उनपे पे लीन्हा । को कृष्ण आज्ञा कस कीन्हा ॥
५ ७१,
गरड वचन
तबही गङ्ड क्यो अर्थाई । अस्तुति कीन्ह बहत खौ खाई॥
एको बात गोय नि राखी । कृष्ण बहुत कै अस्तुति भाखी।॥
निशंण के हम गम्य न जाना । बहुत भति उन गम्यं बखाना॥
उनतो निथ्ण गस्य बतावा ब्रह्मा विष्णुं शिव पार न पावा॥
ओं हम उन करहँदरु जो दीन्हा । उन आवे की आज्ञा कीन्हा ॥
सतगठ वचन
तब हम उनको भेद बतावा । एकोत्तर तै भरिथर फरमावा ॥
बहुत जतन कै मडप छावा । बह अल्ररागी साज सजावा ॥
जेतेक साधु द्वारका आया । सबको ग्ड कानि इर्वाया ॥
जेतिक साधू तहां रहाये । गरूड सवर्हिको दर पैवाये॥
जहं छे शुनि है सदस अगसी । नाग रोके नाग जो वास्ती ॥
वासुकि देव जो आपु रहाये । ओौरो नाग बहत चङि आये ॥
आय विष्णु ब्रह्न दोड भाई । शीव आय बहन तेज॒ जनाई ॥
सब षर तेज महादेव कीन्हा ।तुम सब मिलिक गक्ूडडि चीन्हा॥
तबहिं ग्ड पृछा सदिदानी । जोह कष्ण कडा मोहि बानी ॥
गरुड वचनं
सुनहू ब्रह्मा विष्णु महेशा । यह अहि कष्ण कडा उपदेशा ॥
एति समय बीति जब जाथी । तब इम तुमसों कब बुञ्ञायी ॥
जोई कृष्ण सब कहा विवेकी । सो तुम्दरी मति आंखिन देखी॥
महादव वचन
यह सुनि महादेव रिसियाने । हमरी गति तुम काहू न जाने ॥
हम तीनों दै त्रिभुवन राई । हमहीं छोडि अवर चित लाई ॥
तुम दै पी मतिके दीना । इमरहिंछोडि ओरं चित दीना॥
( ७२) गरुडबोध
गरड वचन
तबरी गरूड कंदे समञ्चायी । मति हमारि कोई विररे पायी॥
अजर अमर घर पहुचे सोई । मती दमार ल्खे जो कोई ॥
अवसर वीति जवे यह जायी । तब महादेव हम कब बुञ्ञायी॥
खब् साश्ुन की करिये सेवा । यह निज आहि भक्तिको सेवा॥
सबको गरूड जो भोजन दीन्हा । बहुत यतनकै भक्ति सो कीन्डा॥
करि प्रसाद् जब मांड अडायी । हमसे पछी विन्ती लखायी ॥
तबहि गरूड विन्ती अबुसारी । चलिये समरथ चौक विस्तारी॥
धमेदासख सुनि चोका कीन्हा ' रोक समान पयाना दीन्हा ॥
संत समाज सब गावहिं गाजी । एेसी भक्ति यक्त भरु साजी ॥
बजो शंख बीन स्वर सोई । आंश्चन केरी बाजन होई ॥
तार शदंग गगन सो बाजे । एेसी भक्ति भक्त भर छाजे ॥
शब्द् स्वरूप तबे हम भयऊ । तुरत जाई सत्यरोकहि गयंञ॥
सकलो साज वहां ते आना । बहुत भांतिकी सक्ति जो गना॥
सत्यलोक ते उतरे अशा । अधम कारका मया विष्वेशा।
584 समेत साज जो आये । जग मग ज्योति बरनि नर्दिजाये
निगेण भक्त हो सुरति संजोई । कोतुक देखि रहै सबं कोई ॥
नाग लोकं को कीना मोही । एेसी भक्तिन देखी कोरी ॥
शेषनाग भये आपु मोहाने । ओरकी बति कादि बखाने ॥
मोहे ब्रह्मा विष्णु महेशा । नारद मोहे श्चुकदेव शेशा ॥
गण गघवे मोदे सब ्आारी । निरण भक्ति न प्रे विचारी ॥
मोहे कृष्ण द्वारका वासी । मोहे सकर सिद्ध चौरासी ॥
यह समाज सो कैसो आई । तादि देखि सब रहै द्ंवाईं ॥
ताते रग उठे ततकारी। मोहि रहे सब सभा विचारी ॥
मोहे विष्णु वेकुण्ठके वासी । मोहे इन्द्र शुद्र रोकं केलासी ॥
बोधसागर | ( ७३ )
मोहे इन्द्र॒ ओर उरषशी । नौ ठ्ख तारा शुरज शशी ॥
यहि विधि कीन्ह भक्ति मनलखायी। तनमन दुधि सकल विक्षरायी॥
साखी-तेतीस् कोटि देवता, गण गन्धवं सब ्आार ।
सुर अघ्रुर सबही थके, रखीखा नाम अपार ॥
चौपाई
धन्य धन्यं सबं करहि दुकारा । धन्य गक्डजी ध्यान तुम्हारा
धन्य कीर जिन भक्त उधारा । भक्ति ज्ञान का कीन षसार ॥
धन्य ग्ड सबही अस कीन्हा । एेसी भक्ति डदय चित दीन्हा
भक्ति मडान पहर दोय भय । तहं इम उष्कि आरति कियॐ॥
आरति मह पुनि बहते भाती । बरणि न जाय शोभाकी कांती
एकोतर नरियर माडुम कीन्हो । बांटि प्रसाद सबनको दन्डो ॥
सत्य सत्य सबन भिरि कीन्हा । धन्यगङ्ड तुम यह सति लीन्हा)
गड्ड वचन
विन्ती करे गरूड चित लायी । सबसे करब हम चच जाथी ॥
द्या करट हमें गुरू देवा । तीनों देव सो कडिहौ सेवा ॥
हम तो चरचा करब गुसाई । हमको दो खखाइ सब ठाई ॥
जानो वचन
अहो गरूड तुम हौ बड ज्ञानी । विद्या देह सब धघरके जानी ॥
घर आयेसे राड न कीजे । क्षमावत हो बिदा सब कीजे ॥
बिदा देह सबही सावधाना । तिनके घर तुम करिह ज्ञाना ॥
अस्तुति ठनि चरे सब देवा । धन्य कबीर देवनके देवा ॥
साखी-क केवीर धमेदाससे, यहि विधि आज्ञा खीन ।
अपने अपने लोकं को, सबही प्याना कीन ॥
चोपाई
सबको बिदा जहि कारि दीन्दा। तबहिं गरड अस कदबे टीन्दा॥
(७४) गरूडबोध
ग्इ5 वचनं
पको इक्म तुम देहु ग॒साई । तुव ता करो बडाई ॥
तुमरो कृपा काल हम जीता । सबही भांति छरी मन चीता ॥
तुमरो दया आश सब ज्जूटी । भया निराश तब फन्दा टूरी॥
अब॒ मनम मोरी यकं आवे । चरचा करनकौ मनमें भारे ॥
जो आज्ञा हम तुम तुमरी पावें । फिरि सबि सो चचां छाव ॥
नी देवन सों कहूं बुञ्ायी । तिन कर पद् सब देहु तुडायी ॥
लानो वचन
तब दम् तिनको बहु समज्ञावा । निगुण सगुण सब भेदं बतावा॥
पाईं भेद गङ्ड मनसाने । जिदेव सो चरचा मन आने ॥
तब हम आज्ञा तेदी दीना । हमहू बिदा तहां से रीना ॥
साखी-दया लेह ग्ड चरे, इदये धरि गङ् ज्ञान ।
ब्रह्मएुरो ठादे भये, च्च कर॒ मन ठान ॥
| चोपाई
इते द्वारका ज्ञान सडाना । गरूड वहते कीन्ह षयाना ॥
जाइ सुमेर पर बेटे जायी । कीन्हो भट ब्रह्न सों आयी ॥
गर्ड ब्रह्म रोकहि जब आये । बरह्मा आद्र कीन्ह बनाये ॥
आद्र भाव ब्रह्मा तब कीन्हा । डारि सिंहासन बैठक दीन्हा ॥
जल करजोरि ब्रह्म ख्इ आये । गरूड के चरण पखारन आये॥
` ब्रह्या वचन
धन्य गक्ड यहा पगु धारी । अब पूरी सब आश हमारी ॥
तुमतो बादन कृष्ण के भाई । आज कृष्ण पग धारे आई ॥
जो तुम हमपर दाया कीन्हा । कृष्ण बदर हम तुमकर चीन्हा॥
आयस मौँगि प्रसाद जो भय । करि प्रसाद वैकुण्डमे गयं ॥
पान एरु जो अगर गायउ । इच्छा भोजन तदवा पायउ ॥
बोधसागर ( ७५ )
बेटे जाय पुनि ग्ड समाजा । उठि तब चर्चा निरयन साजा॥
ब्रह्मा कह त॒म केसे आये । सो मोहि वचन को सयुञ्चाये॥
कोने काज य्ह षर धारा कदे ब्रह्मा वम कृष्णक प्यारा॥
गरड वचन
तबही गक्ड के समञ्ञायी । बुम्हिं चितावन आयं भाई ॥
तुमहिं चितावन हौं पशुधारा । आदि पुर्वं वह २३ नियारा ॥
साखी-विनु देखे को जाय यह, नहिं पे कोई ठाम )
जन्भ अनेक भरमत फिर, मरे विच शर्के नास ॥
आदि पुरूष आगम है, जाको सकर प्रकाश ।
निरण मेद अपार है, तुम कँ बांधी आश ॥
चौपाई
कोटिन ब्ह्ला गये सिरायी अविगतकी गति काइ न पायी
कोटिन ब्रह्मा पृथ्वी विलखाने अविगतकी गति काइ न जाने॥
कोटिन विष्णू गये सिरायी । फिरि फिरिके पृथ्वीह विलायी॥
कोटिन क्द देह धरि टीना । अस्थिर होय जगतसो कीन्हा॥
कोटिन इन्दर अवतार जो लीन्हा ।अविगति पुरूष काहू नहिं चीन्हा॥ ,
गण गंधर्व नर कौन चवं । सनकं सनन्दन पार न पातँ ॥
शेष नाग बहु भांति युखाने । आदिपुरूषकी खबरि न जान्॥
सब परिवार जो भूरे भाई । अवगति की गति काह न पाई॥
भुला देखि जिव दया न आई । जीव अनेकं घात कि भाई ॥
सब भरे कोइ छाग न तीरा । महा अधम सो आहि शरीरा ॥
देह धरी सब भरम आई । आपन आप सब करे बडाई ॥
अदमेव कैसे खोजेह जाई । मौताको कहा न कीनेह भाई ॥
१ जिन २ पुस्तकों मे सृष्टि उत्पत्ति प्रकरणका वर्णन आया है, उन स्बोमे आद्याकी आज्ञाको न मान
कर हठ करके ब्रह्माका निरंजन के खोजमे जानेका वर्णन आया है वहांसे जानना चाहिये ओर यथाथ भेद
गुरते. । |
( ७६ ) गङडलरेस्
कन्दो खोज तुम आपु गुमना ! नहि पाये तब रहे खजाना ॥
खोज कन्दो जब अन्त न पावा, तब तुम आप आप ठदहरावा ॥
आपु डटाय थापना कीन्हा सोई अहम् निशेण नरि चीन्दा॥
तुमरे भूरे जगत अुलाना । आदिपुक्ूषको ममे न जाना ॥
यरि विधि जग सब रदत थुखायी। दीका सूल काहु नदिं पायी ॥
तेतीस कोटी देव॒ थुरखाये । यहि भूरे कोह गम्य न पाये ॥
साखी-भूरे गस्य न पाहया, भले मूढ वार
रीका भूल न जानई, अक्खि रहा संसार ॥
चोपाई
तुम बाजीगर बाजी रये । तुमतो सब इनियोँ भरमाये ॥
ब्रह्या वचन
सुनि बह्मा तबदीं रिसियाने । मते दूजा केहि को जाने ॥
गरड वचन
सुलु ब्रह्मा यक वचन हमारा । त॒म अस ब्रह्मा कोटि दजारा॥
कोटिन बह्मा टदे द्वारा कोटिनवेद सो कर्हि उचारा ॥
खोज करन ब्रह्मा तुम गयऊ । कूं पिता के अन्त न षय ॥
बूट कहे मातासो जायी । ताते ह्म शाप तुम षायी॥
माता ते तुम भये कबारा। आय जीवम सकल संसारा ॥
सबकी प्रतिमा थीर न आयी । आपु समेत सकलो भरमायी।॥
जो कोह कहै भूलकी वानी । कोटिन जन्म नरकंकीं खानी ॥
यह संसार रट की चरिया । कक बार राजा अवतरिया ॥
कंडकं बार नरक मे प्रई! कंडकं बार ब्राह्मण ओतरईं ॥
यहि विधि जीव आवे जायी । भरमि भरमि चौरासी पायी ॥
कोटिन बार अस्थावर जानी । कोटिन बार पिंडज उत्पानी ॥
कोटिन जन्म अडज अवतारा । यदिविधि भरमि जीव विचारा॥
यहि विधि भरम जीव विचारा । बिनु सतयुरू निं दोय उबारा ॥
बोधसागर { ७७ )
साखी-कहे गक्ड समङ्क, खनहं ब्रह्म यह बात ।
अविगत पुक्ष सु ओर है, जाके माय न तात ॥
ब्रह्या--वचन चौपाई
सुनि ब्रह्मा तब पू बानी । केसे अविगतिकौ गति जानी ॥
कौनी युक्ति साच कै मानी । सादिबकी गति कैसे जानी ॥
गृद्ड बच्चन
गरड कै तुम आपद ज्ञाना । जा ग तह पुरुष छिपाना ॥
गवं गुमान मे जो है प्रा । रहै सदा सो धूर अधूरा ॥
साखी-मानुषदेद् अपराधि (ल धर अभिमान ।
ताते सबे विश्च, भक्ति मम नहि जान ॥
चोपाई
भक्ति जो आदि अतसे आयी । जति सकर मोड नि्मांयी ॥
ताकर मजो जाने नायी । ताते कार फास निरमायी ॥
साखी-लोकं वेद जाने नहीं, करे भक्ति अभिमान ।
ताते सबे विशुरचे, भक्ति करन का जान ॥
ध्वजा जो फरके शन्यर्मे, बाजे अनहद् तूर ।
तकिया है मेदान में, पटुचेगा कोड श्जुर ॥
ब्रह्मा वचन चोपाई
ब्रह्मा कहै गरूड सुनु भाई । अपने शख तुम करहु बडाई ॥
इतना बह्मा किया विचारा । देव विमान तुरत भये गडा ॥
के ब्रह्मा तुम जाइ विमाना । खओ विष्णु बुलाई सयाना ॥
चला विमान विष्णु पै गय । तबहि विष्णु अस पून लय्ॐ॥
कटो विमान कँ प॒ धारे । सत्य सत्य कटो वचन सम्हारे ॥
विमान कचन
ग्ड भक्त यकं आया देवा । सो नहिं माने तुम्दरी सेवा ॥
(७८ )} गरुडनोध
सुनते विष्णु विमान चढाये । चडि विमान बरह्म लोकहि आये॥
विष्णुपुरीसे विष्णु जब आये । वैडे जाय ब्ह्ाके ठाये॥
विष्णु वचन
केदि काज पर मोहि बुखायी । सो मोहि मेद कदो समञ्जायी ॥
ब्रह्मा वचन
ब्रह्मा वचन कहै अथावे । कहै गरूड हम केहि चेता ॥
इमको मनुष देहे करि जाने । आदि पुरूष ओौरे को भाने ॥
भटे विष्णु तुम आये भाई । अब् शिवको तुम रह बुराई॥
गढ कैलास शिवका अस्थाना । तहको अब तुम जाइ विमाना॥
सब देवनको आनु बुलायी । सुनदीं चर्चा ग्ड की आयी ॥
महा विमान तुरत चकि गय । गढ केलास प्र गदे मयं ॥
शिवशंकर को माथ नवायी । पाछे ब्रह्माका बचन सुनायी ॥
ब्रह्मा गरूड जह ञ्जगर पसारा । तेहि कारण तुम सबके ईकारा॥
बरह्मा . विष्णु बेटे एक ठाई । कीन्ही चचां पड मेँडाई ॥
गरूड सबहि का करे उच्छेदा । सोमँ त॒महि . बतायो मेदा ॥
बाजे उम् हने निशाना । चले श्र तब साजि विमाना ॥
तुरत चरे नदिं लाये बारी । चरे श्र आये परशुधारी ॥
ब्रहमाको जहे भयउ उचेदा । बैठे जौँ करे बह भेदा ॥
इन्द्र छोके सो इन्द्र बुलाये । जेहि सग देव समे चङि आये॥
सो सब चि ब्रह्मा पं आये । वासुकि देव जो आप राये ॥
आवत उनके नाग बह आये । बहुते नागिन आयी बहुभाये॥
सुर नर सुनि स॒ब आनि डुलायी । जो जस आसन तस॒ बेठाई ॥
ब्रह्मा विष्णु बेटे यकं ठावा । गरूड तँ पुनि ज्ञान सुनावा॥
गरड वचन
अविगतिकी गति आदि निनारा । सब भूरे कोड पाड न पारा ॥
वोधसागर ( ७९ )
त्र्या वचन
ब्रह्मा कै विष्णु सों बाता । गक्डको ज्ञान खनो विख्याता॥
हम तीनों अवरे नदिं कोई । इमरे प्रे सुने सोई ॥
ब्रह्मा कहै विष्णु सों बाता । हमको कदत है परलय घाता॥
हम तो तीन लछोकको कीन्हा । इभको सकर देवता चीन्हा ॥
गरड वचन
तबहि ग्ड यकं वचन उचारा । जब कर्तां तुम स्रि स्वरा ॥
वह साहब सबही ते न्यारा । कस नहि ताकर करो विचारा)
जिन साहब तमहं निर्मायी । त॒म कस तको नाम छिवाई॥
विष्णु रहत हैँ तुम्हरे पासा । तिनहू को पुनि कार गरासा॥
क्रोधवत ब्रह्मा तब भयेञ । अचरज बात ग्ड जो कटैड॥
जाकी त पुनि सेवा करई। सोतो हमरे जास मर उरई ॥
सुर नर भुनि सब काह चीन्हा । सुनु पी तं मतिका रीना ॥
लोकं वेद सब हम कहँ जाने । न जातं कस आप चित आने॥
सुलु बह्मा तँ गवं भुलासी । तोहि अप्त बह्म कोटि मरासी॥
हम तो ह्या बहुत जो देखा । जी परच्ड तो काटों रेखा ॥
काटो विष्ण कोरिसे चारी । महादेव जाके भंडारी ॥
मै तो भक्त कवीरका चेखा । युगन युगन जिन कन्दो मेखा॥ `
हमसों कृद्यो केवीर ब्ुञ्चायी । तति आय कष्य गोहराई ॥
ब्रह्मा वचन `
ब्रह्मा कोपि उठे तब भाई । विष्णु महादेव सुनहु आहं ॥
विष्ण वचन
आये दनो जन ब्रह्मा गई । विष्णु कहै कस मता दि ॥
काह आज जिव बहत उदासा । कीन्हो कोध गरूड के पासा ॥
कहो वचन श्चख होय प्रकाशा । हम अजान है तम्दरे आसा ॥
( ८० ) गरुडबोध
बहा करै सुनो दो माई । अविगत कीगति ग्ड सुनाई॥
इमरीं तीन अवर नरि कोई । चौथे एक निरंजन सोई ॥
ताको गक्ूड न साने भाई । ताते मोहि कोच भौ आई ॥
तिहि कारण दम तुम्हे बुरावा । गक्ड ज्ञान दमी समश्चावा ॥
विष्ण दवचन
विष्णु कहै सुनो गक्ड विचारी । आदि अत कोई अगम है भारी॥
एक ध्यान महू नहिं कोना । अवि गति बात हमहू नदि चीना॥
अहमेव मटी सुरत लगाया ।अविगति ध्यान तवहं नहि पाया॥
ध्यान मध्य हम देखा जारी । ब्रह्मा विष्णु महादेव नाहीं ॥
साखी -विष्णु नहीं ब्रह्मा नरी, माहादेव निं कोय ।
ओम्ओंकार तहवा नहीं, निरखि देखा हम सोय ॥
ब्रह्माव चन-चोौपाई
तब ब्रह्मा अस वचन उचारा । यह है बडा काल बटकारा ॥
विष्णु वचन
सुच ब्रह्म अविगती कहानी । विना तत्व मै निरखा सानी ॥
ताकी का किये अब् बाता । अगम अपार कू विख्याता ॥
साखी-निःकामी निध्यानि सोई, निष्परेमी निवन ।
कटे विष्णु ब्रह्मा सुनो, अविगति यहि विधि जान ॥
चोपाई
बरह्मासों कहे विष्णु बखानी । है कोई आदि पुरुष नि्वानी॥
दुवांसा संग रदे जब भाई ।अविगतिकी गति तब हम पाई॥
तवका बो हम कीन्ह प्रमाना। ताते इम जानि निरबाना ॥
दुरवासा गुरूभक्ति ` दृटाया । तब ते हमहु परम षद पाया ॥
साखी-त्र्मा दमक जान, ओर न कोई सांच ।
हटा ज्ञान नहि आवड, ताते काया कांच ॥
नोधसागर ( ८१ )
ब्रह्मा कहै सुनो विष्णु विचारी । हमदी रचा पुरूष ओ नारी ॥
हमते ओर कौन टै माई सो मोहि मेद कहौ समञ्चाई ॥
हम तो सुण सकल वसार । इतो अगम निगम विस्तारा॥
मतो रचा पवन ओ पानी । इम कहं वेदभ्यासर बखानी ॥
हम चौरासी नाव जो कीन्हा । इम निथण सरण चीन्डा ॥
इतनी कथा कडि ब्रह्मा सनाई । तबह ग्ड न मानं भाई ॥
गड इ वचन
कृ ग्ड सुनो ब्रह्म कुमारा । वम क रची शि करतारा ॥
सबको रची सवे जिन कीन्हा । वह तो बुर्ष सबन ते भीना ॥
वह् तो पृथ्वी पौव न दीन्हा । शब्दहि ते कलो जग कीन्हा॥
जो आप रचना करि जाना । तो हमसे इडि भाषड़ ज्ञाना ॥
जो तुम रचा पवन ओं पानी । पृथ्वी अकाश तुमहिं जो जनी॥
रचा तुम्हार तब जानि भाई । अब रचहू तुम फिरि विनशाई।
जो तुम्हार है सकर बनाई । फिरिके प्रख्य करड तुम माश
तब हम जानि कीन तोहारा । यह मेर सकलो विस्तारा ॥
अपने हाथ रचे जो कोई । फिरिके मेरि सकै पुनि सोहं ॥
तब बह्मा सुनि रहे लजाई । सभ्युख उत्तर कषयो न जाई ॥
महादेव वचन
कहे महादेव सनो रे भाई । अचरज बात कही नरह जाई ॥
सुनु ब्रह्मा ग्ड जो कईं । ताकर भेद कोई विरा रइई॥
दश आओतार विष्णु जो छियञ । काया का आस जो कियॐ॥
तबही कृष्ण मेद यकं कीन्हा । ताको ह्या त॒म नरि चीन्हा ॥
गोपी वार सबै हरि खाये । तब जो कृष्ण सब दीन मेराये॥
इतनी बात ब्रह्मा तुम नदि जानो । अविगतिकी गति केसे पदिचानो॥
(यर) गरुडबोध
साखी-कोन सखूपी कृष्ण है, कोन धरे अनुमान ।
देह धरे नदीं चीन्दू, निगुण केसे जानु ॥
चौपाई
निरशणको शण है बड भारी । जिन उत्पन्न कियो सब सारी ॥
वह् तो पुरूष मूर हे माथा । गति प्रतीति तारीके साथा ॥
नरीं मातम पुरूष की पूजा । जप तपसंयमनाम बिव दृजा॥
वार पार नाम नर सेईं। अजर नामको सुमिरन देई॥
बारह बार नाम लो लवे । अजर अमरदहोयटरोकं सिधावे॥
नाम सिखापन बदन सो खोले । विना नाम विच महातम डोरे ॥
सतर विना ममं नरि जने । इमे तुम्हे सब जगत खाने ॥
ब्रह्मा वचन
खनो महदेव साच बखाना । नि्ुणके युण महं नहि जाना॥
अविगतिकी गति हम ना जानी। योगी जंगम सेवि हम जानी ॥
सुर नर सुनि सब हमको ध्यावें । हम उपजावें हमही विनशवें ॥
साखी-मे उपजावों मं विनसावोँ, मे खरचों मे खाड ।
तीन रोक पेदा करो, मोर बह्म है नाड ॥
गरुड वचन चोपाई
ममताते नर॒ नरके जायी । ताते बहुरि बहुरि जन्मायी ॥
तुदि अब ब्रह्मा बहत बिचारा । ताते काया बिनसे सब सारा ॥
तू ब्रह्मा अस जो धरे हकारा । तेरितेि कार भया वटपारा ॥
सुनु ब्रह्मा अविगति की बाता । एके पुरूष एकं रे माता ॥
सुनह सब सभा विचारो । यंक म निरखि कौं निरुभरो॥
वहि साहबकी खबरि न पावा । तव अस ब्रह्मा बहुत उपावा ॥
वही हम निरखि परखिके जानी । सादइब शब्द् लेह पदिचानी ॥
१ ब्रह्मा शिवकी बातकी व्यंगसे हेसौ करते हे ।
बोधसागर ( ८३ )
साखी -कंदो ब्रह्मका भरः कौं तोहि सथुञ्ञाय ।
मोर मोर कै धावदहूः ममता अमरू चलाय ॥
चौपाई
ममिता ते दशो अवतारा) ममिता महादेव धर् छारा ॥
ममिता लोमश योग जो कीन्हा । आभु बदी भगती नहिं चीन्हा॥
ममिता ते आपिं जो रहे । ममिताते तीन खोक बहि गयञः॥
ममिता तेज निरञन किय । ममिताते पुरूष दरश न पयॐः॥
तुम ब्रह्मा कीन्हे अभिमाना । तेहिते साहब अछय छिपाना ॥
साखी-त्रह्मा गर्वं तुम कोनिया, सनि राख यकं बात ।
जो साहब भमि अंतरे, सोहं सदा संघात ॥
त॒म अज्ञानी नहि जानहू, सुन ब्रह्मा यकं बात ।
अविगति अगम अपार है, समरथ सदा संघात ॥
विष्णु वचन-चोौपाई
विष्ण कड सुनो दहो भाई। चलू तुरत ज्योति षहँ जाई॥
ज्योति कै सो सुनिये भाई । सब मिल चर्ह सांचके आई॥
आंखिन देखी पछि न जाई । पाय अभिमान चीन्हे नरि पाई॥
अभिमान मता सब दूरि दीजे । साच बस्तुको धारण कीजे ॥
अभिमान समेत चीन्डे नरि कोई। देह धरी सब गये विगोई ॥
आपा थापि सुपि इुपि खोई । आपा छोड पावे सों ॥
महादेव वचन
तब महादेव करै विचारी । अहो विष्णु प्रह महतारी ॥
जो वह कहँ सो हम तुम मानँ । ओरी बात नाहि हम जानें ॥
ब्रह्मा विष्णु से हई यह बाता । तुम बडे हो कि बडी है माता॥
सव मिरी तब कीन्ह पयाना । जाह माता दिग कीन्ह बयाना॥
बोरह माता सत के भाज । नहिं अरुक्ञावह भाषि सुनाड॥ `
( ८४ ) गरुडनोध
तीनो देव कहै सल माता । ओर कौन पुरूष आदि विधाता॥
इम तीनों किं ओर है कोई । यह निज मेद॒ बतावहु सोई ॥
सातां कवचन
तब॒ माता बोरे हितकारी । कस न व्रह्मा करहु विचारी ॥
जब तम इते हमारे पासा । तब तुम कीन पिता कीआसा॥
तबकी बात विसरी तुम गय । पुरूष ते विश्चुख त॒म भय ॥
पुनि माता यक वचन अनुसारी । महादेव दौ कृतम भिकारी ॥
अमर वचन जो हमरीं भाखा । युग चारों देह अमर रखा ॥
सोई वचन भूरि जो गय । मातु पिता सो अंतर खय ॥
पुनि माता गरूडसे बोली अमृत व चनरसार अति खोटी॥।
कहै माता सुच गक्ड सुजाना । तमतो वचन कही प्रमाना ॥
गरड दवचन
गङ्ड तब पे ज्योतिसो बानी । केसे तुम यह सिरजा खानी ॥
माया कचन
तब उन कहा पुरूष सो बानी । पावक नीर पवन वैसानी ॥
जल रंग अश सो साथर रहईं । ताकी खबरि कोई नहि रुदई ॥
प्रथम अंशजल रंग जो कीन्हा । तबजलसिन्धुनाम करि दीन्हा ॥
साखी- ब्रह्मा विष्णु कोई नरी, महादेव भी नारि)
पुरषं एकं तब अविगति, अगम अगोचर मादि ॥
ब्रह्या वचनं चोपाई
कहे ब्रह्मा हम आपु प्रकाशा । हम पुमी नौ खण्ड निवासा॥
हम ह नीर हमि है पवना । हमदीं रचा सकल सब भवना॥
हमदीं पांच तत्व सब कीन्हा । दमहीं आप सृष्टि रचि रीन्हा॥
हमदीं सकल सृष्टि विस्तारा । हम कतां रै सकर पसारा ॥
हमहीं चन्द्र सूर दिनि राती । दमहीं कीन्ह किरतम उत्पाती॥
हमरीं आदि अंत मधि तारा । दमदीं अध कूप उजियारा ॥
बोधसागर ( ८५ )
महीं ब्रह्मा विष्णु महेशा हमहीं नारद श्चुकेदेव शेशा ॥
हमदीं कंस कृष्ण बलि वावन । हदमहीं रघुषति हमहीं रावन ॥
महीं है मच्छ कच्छ बाराहा । इमहीं भादों फाशन माहा ॥
महीं दशौ भये अवतारा । तीरथ बरत देहरा धारा ॥
महीं ईसा सथुद्र॒तरंगा । हमं सरस्वती यदना गंगा ॥
हमहीं योग युक्ति वत प्रजा! इमहीं जँडि देव नहीं जा ॥
हमदीं पटना गनना टीखा । इमं पाप पुण्य शङ् शीखा ॥
हमहीं विद्या वेद पुराना । हमहीं कीन कितेक कराना ॥
हमहां अवं दमहीं जें । हमदीं आदि अन्त की अविं ॥
तीन लोक हमं विस्तारा । सकर निब देही इम धारा॥
साखी-तीन रोक में रमि रहै, सबही मोही आन |
कहु माता सशञ्चायके किरतम कैसे जान ॥
माता वचन-चौपाई
तब माता अस बोली बानी।तूतो ब्रह्मा चत्र खजानी ॥
हमसे भयी उत्पत्ति तुम्ारी । तुमही पच इमही महतारी ।
पिता केर खोज जो कीन्हा । तब हम तुमको इङ्खम नदीन्डा॥
बरबस के तुम खोजेड जायी । तब हम पिताकी खोज बतायी॥
तब हम तुमसों बोरी वानी । दशन ते बेभुख तुम्डे जानी ॥
तब तुम पैज बोधि के चले । पिता के दर्शन नहीं भय ॥
जो तुम कीन्हे सकल बखाना । ताकर मोसों कहो विधाना ॥
जो तुम आपिं आप तुम रहञ। कवनके खोज करन तुम गयञः॥
काहे को बोल अनरीती । तुम ल्बार सो कीन्ही भीती ॥
बरबस खोज पिताके गय । खोजन पाय अमरख तब भयड॥
तब इमतो बोरे ज्जठे ख्वारा । तैसर्हि सब चली संसारा ॥
एकं बार बारी करेड । तबदम तोकर्हैशाप सो दयॐ॥
अब बोल तुम वचन सम्हारी । काहे अह्मा बोद्ध ल्बारी ॥
( ८६ ) गरुडबोध
खारखी-भाषहु वचन सभारिके, जनि बोल्ड अज्ञान ।
प्रम पुरूष एकं अगम ह १ ताकर कृरु ध्यान ॥
चवा
हम् तो सत्य वचन चित धर । इम तुम सत्य पुङ्ष ते भयञ॥
ममता तेज बहत तुम कीन्हा । आदि अन्तको नाहिन चीन्दा॥
माता वचन क्यो सब आरी । तब ब्रह्मा मन आयी हारी ॥
गरड बचन
सुनु ब्रह्मा तुम कौन मति ठानी । माता कहै सो कदा न मानी ॥
जो नहि यह वचन परमानो । ज्योति कै सो सब मिलि मानो॥
सुनि ह्या को गवै परहारा ।एक पुरूष जिय किया है चारा॥
परम पुरूष तेहि कीन प्रकाशा । जिनकी जगत लगावे आशा॥
चौसठ युग वदी प्रकासा। सत्तर शुग है वाके षासा॥
सदख युग गये न्य वे श्ुत्रे । निं तर पाप नदीं त पुने ॥
तुम सब ब्रह्मा केतिक गयऊ । हम तब सब कर भेदे ख्य ॥
साखी-सुनु ब्रह्मा का जानई, तुम तो करम के खोर ।
तेदिते हारं विनसिहो, जनी कावड छोट ॥
सुज ब्रह्मा करं भूलिया, जनि करहू तुम रोख ।
जन्म जन्म चौरासिया, यहि विधि पावो धोख ॥
कहै गरूड सयुञ्चायके, जनि भरमहु अभिमान ।
सादिब एक अगम्य है ताकर करहु पिछान ॥
चपा
टीका मूल एक इदम देखा । तदो है निज शब्द विवेखा ॥
ब्रह्म महादेव सुनहू भाई । सब प्र देव निरजन राई ॥
एकं निरजन ओर न कोऊ । तेहिते अपर ओर नहिं होऊ ॥
तेहिते ओर नदीं कोड पारा । सो तो सकर भुवन सरदारा ॥
बोधसागर ( ८७ )}
वही सकर भुवनका स्वामी । वही परम बह्म अन्तरयामी ॥
उनी नारी पुरूष बनावा । सकल सृष्टि उनदही सिरजावा ॥
लाख चौराक्षी उनहि संवारा । उनही गोरख नाम धरावा ॥
उनी छटि बलि पतार वठावा । कार इ पं धरि जगम आवा ॥
उनदी यह सब खेर खिलायी । उनही सकर सषि उपजायी ॥
साखी-के विष्णु ग्ड सवः कंडे सने का होय)
एकं निरजन आपु है दूजा ओर न कोय ॥
सात द्वीप नौखंडमे, एकं निरजन होय)
ओर कौन सो देखिये, ताको किये सोय ॥
गरुड वचन चोद
मैल मलीन सकल संसारा । सो निमंङ जाके अन्तं न पारा॥
भरे ह्या मेके इद । रवि मेखा मेरे शशि चन्दर ॥
मेरे. सनक सनन्दन देवा । मेरे यह जग है न भवा ॥
मेरे शिव॒ बह्यादिक देखा । मेरे रोकं ब्रह्माण्ड विशेखा ॥
निशि वासर मैरे दिन तीसा । मेरे काक मेरे अवनीसा ॥
मेरे जोत मैरे तन हेता । येखी काया यरु समेता ॥
मैरे निरंजन नर नि जाना ।उन यड सृष्टि कीन्ह पिसमाना॥
निर्मल नाम एक है श्वेता । निर्मल सो जो नामर्हि छेता ॥
कहै गक्ड ते जन प्रमाना ।जो निमंर निज नामि जाना॥
साखी-निरंकार ओंकार दहै, पार ब्रह्म है सोय।
एकनाम चीन्दे विना भरकि सुवा सब कोय॥
साहब इनि बनाहके, आपु रै निनार ।
सो निज नाम जने विना कैसे उतरे पार ॥
1
कृहत सुनत सबही सुधि पायी । कदत सुनत सब तीर्थर्दि जाई॥
कहत ॒सुनत ज्ञान बह करई । दम्भ अभिमान बहुत सो धरई॥
टट) गरुडबोध
कहत सनत नर तीथरि जायी । मरमतभरमतगलफांसलगायी॥
कदत सुनत सब सुने पुराना । कहत सुनत सब देत है दाना ॥
कृत सुनत सब खेती करं । कहत सनत नर माया धरई ॥
कृत सुनत जो चुगी करई । होय चंडाल नरक मह प्रई ॥
कहत सुनत नर कूप खुदावे । कदत सनत उद्यम मन खपे॥
कहत ॒सुनत स्वाद मन धरई । कहत सनत नर॒ गंटहे प्रई ॥
कहत सुनत नर माया जोरी । सौ सदस ओ लक्ष करोरी ॥
कदत सुनत शुर शिष्य जो करई। आप अजान भरम मँ प्रई ॥
कदत ॒सुनत भक्ति जो ठानी । कहत सुनत पायन प्र आनी॥
कहत सुनत सागर तराब बनावे। कहत सुनत पाप पुण्य कमातै॥
सासी-कदन सुनत सब गये हँ, कहत सुनत सब जाय ।
कदत सुनत करनी करे, तब प्रथु परसे आय ॥
महादेव वचन-चौपाई
करोधूव॑त महादेव तब भयऊ । दमहू को उठाय तुम धर ॥
महादेव बोरे बात विचारी । हमको जान्यो किरतम भिकासी॥
इमको मनुष्य देह करि जाना । भली बात करे बखाना ॥
महादेव अस युक्ति बतायी । कहोतो सकलो दे$ दिखायी ॥
कहो अकाशको बन्द बताऊ । सात द्वीप नौ खंड दिखा; ॥
अचरज एक बात उन भखी । कहोतो आनि दिखाओ साखी॥
कहो तो गरूडदी मारिके डारों । कदो तो योग जीति मायो ॥
कंहो तो काल ङ्प हम धारं । कहो तो परमहं मारि सैघार॥
कहो तो यादी देड भुलायी । बहुरि न इमसों हो बौरायी ॥
यह सो बकवाद विचारा । हमसों बाजी केरे अपारा ॥
यह . तो आदि अंतसे आये । तेहिते बरहा विष्णु काये ॥
इमदीं सिरजं पारे मारं । दानव देवी मारि उखां ॥
नोधसागर (८९)
ब्रह्मा तो है जेग भाई । वेद वाक्य सब कहै बनाई ॥
केसे जरह्ना शीव उटवि। कैसे विष्णुडि दीन दिखावे ॥
साखी-अगम निगम सब जानई, कटै शुक्तिका नीव ।
विष्णु काया ईिढावई योग दिढबि शीव ॥
गृड्ड बचन
सुनो महादेव मतिके हीना । तुम नहिं जानो वुक्ब भरवीना॥
तम तो आपहि गर्वं थुलाये । तुम सेवकं साइब होय आये ॥
तुम किंचित हौ जीव विचारे । व्हरे कहै दोयं का षारे॥
तम्हरा किया कष्ट ना होई । आप् युरुष उपजावे सोई ॥
आप सुरत प्रथु कीन उचारा । तब तहं चौदह अवन वारा ॥
सेवा बदरे पाय तिहंलोका । जीवन कारनं राये धोका ॥
धोका लाय ठरयो संसारा। तीन लोके फन्द वसारा ॥
साखी-ब्रह्ला विष्णु महेश्वर, अनह सत्यं विचार ¦
वृह तौ पुरूष अखण्ड है, अपरमपार अधार ॥
तुम तीनों मिि आपा थापी । आप थापी भये महा वापी ॥
सतगुरु वचन
सुवु धमनि ओरो यक बाता । उदं तो सवे ज्ञानम राता ॥
जब देख्यो सब आपा थापे । करत बडाई नहि तनिको धापै॥
तब अस युक्ति किया बनाई । जाते होय परीक्षा भाई ॥
बंग देश बालकः यक रहे । जाति ब्राह्मण सवे तेहि पयञ॥
ताकर आयू सबे खुटानी । मृत्यु निकट भयी तुलानी ॥
ताको ज्ञान अस हम दीना । मृत्यु निकट भयी आयु छीना॥
काट वचन उपाय विचारो । बह्मादिकके निकट परग धारो ॥
लाय गरूड तुरत षडुचाये । ब्रह्मा विष्णु शिवहि बताये ॥
(९०) गरुडलोध
करै गरूड सुनो यकं बानी । यहि बाखककीभृत्यु नियरानी॥
याको कोई नादिं सहाई। याते आयो तुव शरणायी ॥
यहि बाख्क् को कौन जो राखे । सत्य बचन हम सुखते भाखे ॥
तुम॒ तीनों शिथुवनके देवा । बारुक गान्यो तुम्दरी सेवा ॥
ब्रह्या वचन
तब् ब्रह्ला बारुकं सों बोले ।जानि प्ररुता आपन सुख खोले॥
कंडे बह्मा बचन दिति कारी । को तेरा बाप को है महतारी ॥
कड बालकं कराते आया । किन तुमको यहां पठाया ॥
कौन साहब दीन्हा ओतारा । कौन तञ्चको मारनहारा ॥
तब _बाखक बोरे अनुसारी । को है पिताको दै महतारी ॥
ना जात्रू किन दिया ओतारा। ना जावर को मारन हारा ॥
दम पे कोई राखहु भाई । तेहि कारन आये तम्हरे गई ॥
साखी-तीनलोक के ठाङ्कर तुम, बह्मा विष्णु महेश ।
मतो क्कु जानो नदीं, काहि कटौ संदेश ॥
महादेव वचन
सुनो बारक म कूं बुञ्ञायी । मृत्यु तुम्हारी नियरे आयी ॥
कोन है राखन हारा । धभेराज तुव कीन पुकारा ॥
केटि विधि यहां कैसे रदिहो । कौन शब्द पुरूष षद रैर ॥
भवसागर तरिहो । कौन भक्ति डदय चित धरिदो॥
कहो सयुञ्ञायी । जाते तुम्दरा दुःख नशायी ॥
हंसा ( बालक ) वचन
दम तो तुम्दरी शरणे आये । जस जानो तस कंरो उपाये ॥
हमरी तो अब मृत्यु तुलानी । हम का जानें शब्द ओ बानी ॥
बोधसागर ( ९१ }
अब कर् वेनि सम्भारी मेरी । अब जनि कर दैव तुम देरी ॥
मृत्यु हमारी तुली अब आयी । तुम अब हमको रेह बचायी ॥
जो तुमसे नहिं वात्र भाई । मिथ्या तुम का करहु बड़ाई ॥
तुम सेवकं साहब का होऊ । इसर साहब है निज कोड ॥
विष्ण कचन
विष्ण कहे सुबु बाकक भाई । अब तोको यहां कौन इंडाईं ॥
कैसे को अब राख भाई । कैसे को तुवं कार इुडाई ॥
कैसेको तोर काल डाओ । केसे आवा गमन मिटाओं ॥
साखी-कार बड़ा प्रर अहै, मोषे कछना हौय।
वासे नहिं कोई बाच, बरह्मा विष्णु विगोयं ॥
चौपाई
सब भिरि रहे कारु के साथा । काल फिरत है सबके माथा ॥
काल की गति हम नरं जने । धोखे यम के इहाथ बिकाने॥
साखी-काल कि गति जाने नहीं, बह्मा विष्णु महेश ।
ऋषी भुनी सब कम्पी, कम्पे शेषं सुरेश ॥
| चोपाई
केतिक देह हमदीं जो धरिया । फिरि फिरि कारके फन्दे परिया॥
देह धरी धरि जगम आये । यहि पृथ्वीम नाम धराये ॥
साखी-काटसों कोह ना बचे, सुबु बारक चित लाय ।
केसेके मै राखि, मोसों राखि न जाय ॥
चोपाई
देह धरे नरं बचिहो भाई । सबको काल धरी धरि खाई ॥
कारु बड़ो है अति बर्वता । देवी देवा खाय अनन्ता ॥
सप्त द्वीप जो दैनौ खण्डा । काल बी सबहिन को उण्डा॥
तीन कोक पे करे रजधानी । हमहूं ताकी सेवा मानी ॥
{ ९२) गरुडबोधं
विष्णु कदे ब्रह्मा सों बाता । यह् बालकं कन्दा उत्पाता ॥
यह वृत्तांत त॒म जानो भाई । तुम बालक को लेह बचाई ॥
ह्या तब सुनि रहै कजाईं । इमसे बालक राखि न जायी ॥
गङ्ड दचन
तब्ही गरूड जो बोले बानी । बालकं जिये तब तोरि जानी ॥
आपां रोपि रहे ठदराईं। किया तुम्हारन होवे भाई ॥
जो तुम आज बालकको राखो । तौ तुब बचन सत्य के भाखो ॥
गरूड सो तरकं लगायी । बाखक काहे न राखु बचाई ॥
एेसी विधि फिरि फिरि अवतरहू । पुनि अपनी बुधि भ्रमत २इद्॥
सबको ब्रह्मा देड उपदेशा । अपने गर्वैका न जानहु रेशा ॥
हम जानी तुमरी मति भाई । अब् तुम थापि रद ठउहराई ॥
गरूड कै अस ज्ञान विचारी । एेसी भ्रु प्री संसारी ॥
सतगुर वचन
धमदास तुम सुनो विचारी । ग्ड या विधि दीन्ह परचारी॥
तब तीनों मन मे कीन विचारा ।करि विचार ज्योति कर उरधारा।॥
तीनों मिखकि पै माता। जो वह कै सुनौ विधाता ॥
आप आपमे तीनों ठानी । अन्त काल गमि पुन आनी॥
| त्रिरेव वचन माता प्रति
माता ते प्रे वितखाई। सत्य वचन कहो तुम माई ॥
तुमरा चरित हमदीं नि जाना । आप आप मिलि कीन बखाना॥
माता कवचन
तब ज्योति उचारी बानी । अहै कार सब पर परधानी ॥
कौन हे बालक राखन हारा । आप पुरूष जो कीन हकारा ॥
जाइके तुरत दे पैचायी ।जहर्वोका जीव तदवा चङिजायी॥
नोधसागर ( ९३ )
सतग् ड कचनं
तब तो ब्रह्मा ध्यान रगावा । तुरतहि गये बह्मके उवा ॥
ब्रह्मा वचन तब उठा वपरमाना । आदि पुरूषका मं न जाना॥
तुम ब्रह्मा गर्वं बह भाखा। ताते जोति छिषाय के राला
भाता ते नहि अन्तर करते । फिरि फिरि देह ख काहे धरते॥
ब्रह्मा तवै रहे अथाह) सन्थुख बात की नहीं जाई ॥
ग्रदड चचन
तीनों देव ॒बिवस जब भय । दैखि ग्ड तब बोन छयंङ॥
अब जनि भटो तीनों देवा । आदि ुर्षकी करो तम सेवा॥
सत्तगुर वचन
तीनों देव मिलि मज यक कीना । बाल्कं को बिदा क दीना ॥
तीनों देब वचन
सुनु बालक तेरी मृत्यु तुखायी । कौनी शांति के तोहि जियायी।
तुमते केँ हम वचन प्रकासा । इम जो गये ज्योतिके पास्ता ॥
ज्योति स्वरूप दम कहा बुञ्चायी। अब तुम बरजह कार बनायी
तबदी ज्योति वचन अस भाखी। यहि बालककौ अबको राखी ॥
अवधि तोहार नियरिदोय आयी । अब कोह राखे राखि न जायी॥
साखी -दम तीनों को धिग, जीवन धग हमार ।
हमसे बालकं ना जिये, मिथ्या कीन्ह हकार ॥
बालक तो जीवे नदीं, मिथ्या जन्म हमार ।
यह चरि ना जानिया, केहि करं उपचार ॥
गरुड वचन-चौपाई
जो धिरकार तुम कीन एकारा । अपने मनमें करह विचारा ॥
गर्वे अभिमान छोड़ सब भारा । मन अपने त॒म मानहू हारा ॥
वो तो पुरूष गवं नरि भाखे । तुम यम काल अपने शिरराखे॥
( ९४) गरुडनोध
जो तुम ब्रह्या सुक्ति गति पायी । तो तुम राखह कारु बचायी ॥
जो बह्मा इतना नदिं जानो । तौ कादेको आपा ठनो ॥
बोलहु जानि तुम गब निदाना । तुम धिरकार आपको आना ॥
बरह्मा कस तुम आपा ठाना । ऊ गति काहू बिरले जाना ॥
जो बह्मा तुम सृत्युगति जानौ । इक्क ज्ञान त॒ काहि बखानो॥
बड तो पुरूष सवे ते न्यारा । अगम अपार पावे नहि वारा॥
साखी-त्रह्मा विष्णु जाने नहीं, जाने नहीं महेश ।
ज्योति आप न नानई१२च जो कारुको मेश ॥
चौपाई
सुन बह्मा मै कौं बुह्याहईं तुमरे किये रोय का भाई ॥
गब शमान सब देहु बहायी । तवहीं तुम सत् ष्दपायी ॥
साखो-एेसो कार वर जोर है, अ्ास्यो सत्तर योग ।
. अनृत नाम सो मन दह, लेह अमर रस भोग ॥
चौपाई
जो नि ब्रह्मा सांच के मानो । तौ यह बालक हमै आनो ॥
जो प्रथु हम कहं नाम सुनायी । ताक चरि तुमदेखह-आयी॥
साच ठका करहु निवेरा । आंखिन देखि करहु बहुतेरा ॥
सत्यलोकं अमरपुर डश । कार नदीं तब ताक घेरा ॥
जो कोई शब्द् का करे निवेरा । सत्य रोकं पावे सो डग॥
साखी-जो संशय अब टे, घट सो चले बरजोर ।
सुमिरन दीन दयालका, पचे सो वहि ठौर ॥
चोपाई
अस कहि गरूड यकज्ञान विचारा। बालक लाईसो उतरो पारा ॥
ब्रह्मा वचन
अचरज बात ब्रह्मा को लागी । देखतु विष्णु गरूड तुम्ह त्यागी॥
तुभरे सन्युख करे यह रंगा । तुमरी भाव भक्ति करे भंगा ॥
नाधक्तागर ( ९५,
जो बाखकं जीवित छे आने । हीय अचर तब जगत बखाने॥
ब्रह्मा विष्णु अस बात विचारे । ग्ड वचन परिहास निकारे ॥
उधर गक्ड कीन अस अरम्भ्रू । जो नहिं जाने हरिहर शम्भू ॥
मानसरोवर गङ्ड जव गयॐ । ताकी सुधि ईंसन तब पय ॥
आवह ग्ड महा खख ज्ञानी । भित सुनावह खोक कि बानी ॥
देस अजरभुनि द्वीप महँ रदहं । द्वीप देखिके बातें कईं ॥
मानसरोवर माहि है भाई । उपजन विनशन तहौँ न पाई ॥
मानसरोवर ज्योति बहु कोना । कामिनि कला पुर्ब रचिदीना॥
सरोवर मारि रदे सब भाई । बिनशे देह मृत्यु जो पाई ॥
अजरमनति वचन
कटो विसि मुनि कहरवेति आये । सो भेद मोहि कड ससञ्चाये ॥
== =
१ इस पुस्तक गरुडनोध को १०। १२ प्रति मेरे सम्मुख रखी हुई हं । जिनमं से १ भति सम्वत् १७०३
विक्रमौ की लिखो हई है जो मेरे पिता शिवरहर राज्यके पुव अमात्य कबीरपंथके विहार प्रांतीय स्तम्भ
परमज्ञानी श्नोभान् यशस्वौ गोषाल लालजोको पुस्तकालयको है । ओर इसरी प्रतिमं से ४ प्रतियाएं सम्वत्
१८०० से १९०० सम्वत् विक्रम के बीचकी लिखो हं । ओर १ प्रति सम्बत् १९१२ विक्रमीको तथा ४ पतिं
उसके पोछेकी लिखी हुई हें । सम्बत् १९०० तक की जिंतनो प्रतियां लिखी हुई हं सब बहौ ऊपर को चौपाई
लिखी है ओर उनम हंस अजरम्नि का हौ मानसरोवरमं गरुडजीसे मिलनेका हाल लिखा है किन्तु उसके पछेको
प्रतियोमं कही तो अजरमनि ओर कहीं चन्द्रमुनि लिखा है, इतन हो नहीं प्रन्यमं ऊपर लिखा हे “चन्द्रम॒नि-
वचन” तो नीचे लिखा है “अजरम्नि द्वीप रहाय” कही लिखा है हंस मनि इस प्रकारसे भेद पडनेके कारण
पुरानी प्रतियोके अन्सारही “अजरम् नि" रखा है 1 योतो उत्तरोत्तर को लिखी हई प्रतिर्योमिं लेखक महा-
शयोंको छृपासे ग्रन्योंभे कुछ कुछ भेद होता हौ गया है,तयापि १९००सम्बत् के प्रयभको लिख हुई पुस्तकोमं है ॥
इतना अन्तर नहीं है जितना १९१३ वाल प्रतिसे लेकर उसके पश्चात् को प्रतिरयोमिं है । इधरकी लिखो हई
प्रतिर्योमिं कई तो एतौ हं जिनमे “अ” के स्थानम समस्त पुस्तकमं “य” काहो प्रयोग किया है “अ” का गन्ध
भी नहं है ।
( ९६ ) गंरुडबोध
ग्र्ड दवचन
सुन अजरसुनि करौं बुञ्ायी । अकथ कथा क्कु क्यो नजायी॥
सुनत देख यह् अकथ कहानी । तीनों देव बडे अभिमानी ॥
ब्रह्मा विष्णु लगायी बाजी । अपनी अपनी सब कर्हि अवाजी॥
तब समरथ एकं कला उपायी । बाखकं मेद॒ न जाने माई ॥
तब हम एकं ॒बोल्यो बानी । बालकं एककी मृत्यु तुखानी ॥
प्रथम तो बाद बहु ठाना । बाुकं देखत बहुत र्जाना ॥
उन अपने जीव सोच बह कीना । यहि बालकको किनहन चीना॥
तब उन पुरूष साच कर माना । है कोई पुरषं आदि निर्वाना ॥
हारि मानि के बिदाजो कीना । तुम्हरे द्वीप तानि षग दीना ॥
अब एेसी युक्ति तुम उनो । जाते दोय सब काज प्रमानो ॥
बाखक जिए सोई अब कीजे । साचा अभृत मोक दीजे ॥
तीनों जने तब जारि जायी । सत्य पुरूष की सत्य कै षायी॥
ये तीनों तो गवे युखाना । निशुणतो वे आप कर जाना॥
महापुरुष कोई मान न भाई । आप मबे दुनिया मरमाई ॥
सनद अजरमुनि ईस सो ज्ञानी । केसे रहो सरोवर आनी ॥
कौन यतन सरोवर म आनी । सरोवर के गुण कटो बखानी ॥
साखी-केसा सरोवरमान रै, केसे रदे समाय ।
किंडि विधि इसको नांषि के, सत्यलोकको जाय ॥
अजर मुनि वचन-चोपाई
सुन गरूड तुम सत्य हो साधू । तुमरी भक्तिसों अरै अवाधू ॥
तुम तो आदि अत सब देखा । कदो तुमहि जो सकल विशेखा॥
जो कोड आदि अंतके जाने । तासों कोन वृथा हट ठाने ॥
सुनह गरूड मे करौ प्रमाना । ताको कदिये कहा जो माना ॥
जो प्रभुकी अतगति जाने कोई । तासों पुनि सत किये सोई ॥
बोधसागर { ९७)
सुनह गरूड साधन के स्वामी । सबकी महिमा तुम भर नामी॥
हम तो ज्ञान सब तुमसे पावा । ठुव धरताप इम खोक सिधावा॥
साखी-समरथ नाम अमरपुर, अजर द्रीषपं अस्थान ।
उहवौँं रहत हँ हंस सब, पावहि पद निरवान ॥
चोपाई
अक्षय द्वीप पुरूष अस्थाना । तहवां रई सब ईस खजाना ॥
सदा आनन्द होत तेहि ठा । नहिं तहं चरे काल्कर दा ॥
साखी-हंसा विलास द्वीपमह, भोजन करहि अघाय ।
जरा मरण व्यापे नहीं, नहिं अविं नदिं जायं ॥
गडड बचन
अमृत देहु बताइके पुरषं नाम कटिं देहं ।
बालक रेह निवाइके,३ › इतना यशं तुम हु ॥
पा
कह पुरूष केसे के बोला । कसे प्रथु सो सम्पुट खोला ॥
अजरन् वचन
अःपुहि मे वह असत कीन्हा । आपुहि साहब कहि जो दीन्डा)
अमी बुन्द प्रथमहि उपजाया । अमी बुन्द ते अभत आया ॥
साखी-ज्ञानी कहै विचारक । सुनो ग्ड चित खाय ।
गति को भक्ति दिगवहू, बारक् र जिवाय ॥
बालकं ठेड अमर कै, अमी द्वीप चङि जाउ ।
हट कै भक्ति दटावहू, अजर अमर होय आय ॥
गरुड वचन- चोपाई
कृहै गरूड बालक अङकलाई । अमत देके ट जिवायी ॥
अजरभुनि वचन
सुनह गरूड तुम ज्ञान गभीरा । तम तो पुरुष पा अस्थिरा ॥
नं. ५ कनीर सागर - ^
(९८ ) गरुडनोध
जाड तुरत ॒वृर्ण के ठाई । वर्ण् अहै दमार शरू भाई ॥
पवने द्वीप रहे वह वेसा, तोसों क्यो भेद है जैसा ॥
सखाखी-शीस अवण नि नासिका, इन्द्री साधे घाट ।
यदि रहनी वहं रहत दै, सुरति शब्द के बार ॥
चौवा्र
गरूड चरे वर्ण को ठाई । अमी द्वीप मोहि देह बताई ॥
तुरति वरूण दीन उपदेशा । हमते पृच्छ कौन देशा ॥
तुम सब भेद जानत हौ भाई । तुरतहि जाऊ भ्रवण की उई ॥
वहीं श्रवण करै सम मेवा । वह तो करइ समर्थ की सेवा ॥
वह लोलीन प्रभ को जाने। साधु संतको सेवा उने ॥
सत्य पुरूष को जाने भेवा । सकर खबर कह जाने देवा ॥
द्वीप दवीपकी करै जो बानी । जाहु जहां घर होय निर्बानी ॥
जाहू तुम उनी के पासा । सत्य शब्द् कहो परकासा ॥
जदा करूं . तद्वां चलि जाऊ । अभृत लेके वाल पिआ ॥
सतग्ङ कचन
तुरत ग्ड गये तब तद्वां । सत्य षुर्ष को द्वीष रै जवौ |
श्रवण दंस मोदि कह सघुञ्चाहं । कोन ठम अमृत देह बताई ॥
॥ भवन दवचन
तब श्रवण यक् बोरे बानी । पुरुषकी गति अजह निं जानी॥
विच आज्ञा केसे तुम कदं । कोनी भति भेद भँ लः ॥
है अमृत नि राख गोरं । इतना तः लागे मोई ॥
पुरुषड थापि अमत जो दीना । इमको केसे नास्ती कीना ॥
साखी -के श्रवण भरे भाषेउ, अमृत का सब भव ।
भारग कोड जानई, एेसो अखंड अभव ॥
बोधसागर ( ९९ )
तुरतहि जाउ निर्मरु पासा । ताते वुजिहै वम्बरी आशा ॥
ताके संग जोह भिछि रई । एसो शब्द दो मिक कदं ॥
गदड वचन
श्रवणदास कहि बह समञ्चाओ । ठुन्हरी दरशनको इम आओ ॥
द्वीषं सकल हम देखे आहं । सोई छप मोहि देह देखाई ॥
निर्भर संग यक वर रहाई | सोहं भौर रे सब भरमाई॥
निरमल रेके रोकं जावे ! भरम जीव को लोकं पडावे ॥
हन दोनों कृर॒ जाने मेवा । फिर भौसागर होय न खेवा ॥
साखी-अशृत पिआव विचार के, पुष नाम कडि दे ।
बाकक लेह अमराय के, इतना साच गहि छह ॥
चौपाई
पुरूष नाम तुम जानो भाई । हमते काह करइ चतुराई ॥
पुरूष नाम है तुम्हरे पासा । तुम्हरे घट म सत्य् निवासा ॥
जैसे रहे पुरूषमे बासा। एेसे पुरुष तुम्हरे पासा ॥
एक नाम को अनेकं विचारा । जिन जाना तिन उतरे पारा ॥
प्रथम पुरूष अदे यक भावा । दुसरे पुरूष देह धरि आवा ॥
तिसरे पुष परफुल्धित ना । चौथे पुरूष सत्यपुर गाऊ ॥
गरुडषचन
कहो पुरूष कौन विधि बोले । केसे के भरु सम्पुट खोरे ॥
कौन शब्द् प्रथु बोन रीना । कौन ति कूमं सो कीना ॥
कौन यतन अमृत फर खावा । कौन यतन हंस सो पावा ॥
कौन यतन उदां पुनि आवा । कोन यतन उन मान धरावा ॥
बारह पाठग कूमं जो कीन्हा । तेहि उपर प्रथु सेज्या दीन्हा ॥
` परफुषित दोय साहिब बोखा । उचरी बानी संपुट खोला ॥
( १०० ) गंरुडलोध
आपरि माहि आप प्रथु कीना । तर्हते अमत कूमं को दीना ॥
अम्ब नारु ते अभृत आया । अभ्बुज ते अश्रेत उपजाया ॥
सखाखी-श्रवण कहे विचारिके, खुनो गरूड चित खाय ।
चीरज भयो तेहि दद् भये, अशत पिये अचाय ॥
चौपाई
सन्धि नाम प्रथम सदिदानी । एेसे भये सब जीवन जानी ॥
भयड नाम अकह उगासा । सुकृत जोन नाम प्रकासां ॥
अजीत है ओंकार इकारा । निसरत है सो ओदी द्वारा ॥
उत्पति उध्वं गे उध्वं विशेखा । सो इम तुमसे भाषेड रेखा ॥
भयो प्रकाश सुरति जो कीन्हा । ऊर््व॑ते उध्वे प्रथु पार जो रीना ॥
साखी-अ्ं उध्वे दोऊ लखे, पार जो रहे उहराय ।
कहे श्रवण बहु गरूडसे, सुखसागर रहे समाय ॥
लोक रोकमहं प्राण है, रहे द्वीष अस्थान ।
उदय अस्त तदवा नी त ब्रह्म विष्णु नटि खान ॥
पा
देह घरी सुख बोर जो आवा । तब्दी प्रम युष कहलावा ॥
अजर अमर अधार है गॐ । अहै अटल वा पु्ष को ना॥
वदी पुरूष का सुमिरन करई । आवा गमन भवसागर तरई ॥ `
वही शब्द् है अपरत कूपा । वदी शब्द् अहै अजब अनूषा ॥
साखी-वदी शब्द् गह सत्यके, बालं कटू समुञ्चाय ।
बालक लेह यमराजते अभी दवीप पहंचाय ॥
विष्णुहि रोके माषा ॒देहू । शब्द हमार प्रमान के ठू ॥
विष्णुहिमाखा तिलक ओ छापा। ओर न दिरूमे आनहु आपा ॥
साखी-श्रवण कहे गरूड से, यदी तुम्दारो काम ।
देह उपदेश अब जायके, बाखदि दीजे नाम ॥
१०१
चोपाई
धन्यगक्ड ्त्थुटोकते आओ । बहुरि जाय ब॒ल्युलोक चिताओ॥
अब जाई तुम विष्णु चिताओ । जो वह चेते तो नाम इढाओ ॥
लीन ग्ड बालक अगराई । अगत पीवत अती जडा ॥
बालक अमृत मादिं जडाना । युगन युगन को क्षुधा इञ्चाना॥
गरूड बिदा हंसन सों लीना ' मस्तक नाइ प्रदक्षिण कीना ॥
श्रच्ण वचन
तब हंसा पुनि कीन निहोरा ।वुमतो गङ्डन कीन्ह यह जोरा॥
गृहउ वचन
तुमदी डि शीस केहि ना । त॒मरे चरणकमर चित ङखाऊ॥
तुम तो अमृत दीन दिखायी । सतशङ् शब्द लीन अर्थांयी ॥
शीस सोई जो साधु को नवे! पूजा सोई जो नाम लौ खावे॥
भख सोई जो उचरे नामा । देह सोह जो भञुके कामा ॥
दैवत सोई जो बन्दगी उने । दया सोह अमि अन्तर आने॥
साधू सोई जो ममता मारे। ममता मारि अषिको तारे ॥
साखी-बालक लिये अमरकरि विष्णुहि कल्यो सथुञ्चाय ।
चरे ग्ड भत्युलोकको, बह्मा रहे ल्जाय ॥
चौ पाई
यहि विधि बालकं लीन जिवायी । सकट सभा तर देखे आयी ॥
धन्य धन्य सब करि पुकारा । धन्य ग्ड है रहनि तुम्हारा ॥
धन्य धन्य सबही मन भावा । ग्ड बोर सब उपर आवा ॥
नाग लोग की कन्या रहाईं । अचरज होय कष न कहाई ॥
नागकन्या चचन
अविगत मता है गरूड तोहारा । कोड न जानै मेद अपारा ॥
इतना कहि अबुरांग सो धरिथा। शीस नाइ चरणन प्र परिया
( ९०२) गरुडघोध
वासुकि देवकी कन्या भाई । शीस नाई के विन्ती खाई ॥
रूप उम्र बहते उजियारा । मानिक रखवके मारि लिखारा॥
एतिक आग्री किये गारा । जगमग ज्योति बरे उजियारा॥
सो पुनि कन्या विन्ती करई । गर्डके चरण आय शिर धरई॥
वासुकि देवकी कन्याका वचन
दो साहिब तुम बन्दी छोरा) नष्ट जाय जिव तुमि निदोरा॥
दो साहिब विन्ती सुनि रेह । हमरे गृहै तुम चरण धरे ॥
ह्म दीक्षा प्रथु खे तुम्हारा । जिवका कारज करो हमारा ॥
गरुड चचन
कहे ग्ड सुनु कन्या वारी । तुप सबहिनकी प्राणपियारी ॥
पूछहु वासुदेव सों जाई । आज्ञा देहि तस करो उपाई ॥
अस॒ तुम जाय सिखापन छेद । पुनि फिर के हमरी दर देह ॥
कन्या कचन
ब्रनबाखा कन्या अस बोले । जो हम कदी कबहु नहिं डोरे॥
सादिब विन्ती सुनो इमारो । सकर समाज संग षग धारो ॥
इन्द्रलोकं ते इन्द्रं बुखाये । सुर नर सुनि गवे जो आये ॥
चले विष्णु जह गहरन रखायी । शिव ब्रह्मा तद चे रिगायी ॥
तेतिस कोटि देव तहं आये । सिद्ध चौरासी सबै सिधाये ॥
नौ नाथ अर् सब बचे बचाये । सबही चरे रहे नदि भाये ॥
शंख वीण धुनि बाजे भाई । इन्द्र को बाजा अति घडराई॥
ताकु मदग ओर शदनाई । सब दी बाजन बाजे भाई ॥
साखी-इन्द्र के बाजन बाजते, भये पताले आस ।
~- वासुदेव डरि कर्षे, बेरी आयो पास ॥
१ च॑मके ।
बोधवागर ( १०३ )
गरड कचन
ब्रजबाला ` कन्या हकरायी । आयद्चु देह के आश रिगायी॥
बासुकिदेव सों कह समञ्ञाईं । साध हष सब अवं माह ॥
सुनते कन्या तुरत रिगायी । वाश्चुकिदेव सों कही समञ्चायी॥
कन्या वचन
निर्ण भक्ति गङ्ड जो उनी । तेहि कारण हम गङ्डहि मानी।
होहु सुचित्त सवे परिवारा । निजके मानहु वचनं हमारा ॥
साखी-सकटठ साश्रु इदं आवी, होय चौका विस्तार !
चित मेंकोडडरौ नही, वह दहै भक्ति अधार ॥
वायुदेव वचन-चौपाई
बरजबाला कन्या सुन आनी । सबही तुरत ठ आनं बलाई ॥
जाह तुरत गक्ड के गॐ । दायां करहु धरत सब पाऊं ॥
सतण¶ड वचन
सुनि बाख ठे गयड विमाना ! दया करत सब संत जाना ॥
जबहिं शेष प्रतीति मन आनी । तबही गक्ड स कीन्ह वयानीं ॥
जब ग्ड जो चले रिगायी । बाजन बाजे बरनि न जायी ॥
बाजे उमर हने निशाना । महादेवं जब कीन्ह पयानां ॥
सबहि समाज षपतारे गय । इच्छा भोजन सबही ख्य ॥
एकोत्तर से नरियर आना । बहुत भांतिक कीन्ह मडाना ॥
जबही गरूड जो सुमिरन कीन्दा। तबं हम उनको दर्शन दीना ॥
गरूड आइके मस्तकं नाये । शीष नवाइ चरण वचितखाये ॥
सकल जमात उदी भहं भाई । सबदहिन उटि के मस्तक नाई॥
तब हम पुनि चौका विस्तारा । बहत भांतिके साज सुधारा ॥
सुथरी मिठाई उत्तम पाना । बजबाला सबही कड आना ॥
जव तिन सवे साजं सवरावा । तब हम लोकते हंस हंकरावा॥
आये साधू रोकं से भाईं। जग मगज्योति बरइ अधिकां॥
( १०४ ) गरुडयोष
बाजे तारु सृदंग अपारा । उ रंगसों अनदद् अंकारा ॥
तारौ उठे तत तत सों सारा रसे सब सब साधु विचारा ॥
नियेण भक्ति कन्दा लोलायी । चहंदिशि अगर रहा मर्हैकायी॥
देख सभा सब मोरी भाई सब मोहे कद कटी न जाई ॥
मोहि नाग नागेश्वर भारी मोहि रदी सब सभा विचारी॥
मोहे गण ंघबे सुनि देवा । कोई भक्त का जानेन मेवा ॥
वाघुकिदेव अस्तुति अनुसारी । धन्य कबीर जो भक्ति तुम्हारी॥
पायो दशं घन्य भाग दमारो \ धन्य कबीर यौ पग धारो ॥
धन्य कबीर तुम्हारी वानी । मोहि रही सब मगतिन रानी ॥
कन्दो भक्ति पदर दइ भाई । अति आनद होय मगर गाई
पुनि उठिके दम आरति लीना ! एकोतर नरियर माद्धम कीना ॥
परवाना व्रजबारहि दीनी ¦ वह् शिर नाई बन्दगी कीनी ॥
पुनि समरथकी अस्तुति सुनायी। दीन प्रसाद सबि ब्रतायी ॥
सब सतन छिन माथ चटादी ।आशिष दीन सकर मिङि तादी॥
दिन दशके आद्र करि लीना । सेवा भक्ति बहू विधि कीना ॥
संत साधुको बिदाई दीना । चादर धोती सबही लीना ॥
सबदि कहे मम् आशिष लीजो । साधन के चरणे चित दीजो ॥
एेसी भति बिदा जो किय । आपु आपु सब घरि सिधेउः॥
चलत् प्रेम सबहि को भाये । बहुत भति की अस्तुति छाये॥
साखी-क कवीर धममेदाससे, यहि विधि भौ विस्तार ।
गरूड ज्ञान सबसे कियो, हारे सबे थुआर ॥
वक्ता के कण्ठ बरु, श्रेतदि. भ्रवण आर्ि।
संतनके शीश व्यँ, ज्ञानिन दय माहि ॥
इति श्नीबोधसागरातगंत कबोरधमेदससम्वादे
गर्डबोध वनो नाम षष्ठस्तरंगः
बोधसागर ( १०५ )
गरस्डबोधका संक्षेप धारं
प
प्रायः कवीरषन्थी रोग देसे गङ्डबोधादि अंथोके भावके
न समञ्च कर अन्य वैष्णव आदिं सम्पदाइयोसे इन्हीं अन्थोके
प्रमाण द्वारा वाद करके परस्पर रागद्वेषमें कैसकर निन्दाके षा
बनकर, नास्तिकादि नामों के लक्ष्य बने हँ । ओर जिस प्रक्र
से इनमे अविद्याका विशेष प्रताप फला है उसी प्रकारसे अन्य
सम्प्रदाय वालोमे भी अज्ञान देवने अपना राज्य जमा रखा है।
जिस कारणसे विद्या ओर ज्ञानका तो उनमें षरवेश भी होने नहीं
पाता । यही कारण है कि; वे भी अपने इष्ठ देवके स्वरूपको ज
समञ्जकर कबीरपथियों के तकको सुनकर उन्हें समञ्चाने था
उत्तर देकर उनका समाधान करनेमेँं असमर्थं होनेके कारण
उन्हें नास्तिक ओर निन्दकं आदि नामोसे पुकारते ओर उनसे
रेष करते है । किन्तु दोनों दरम जो ज्ञानी ओर समञ्चदार है,
आत्मतत्त्वमें जिनका प्रवेश इआ है जिन्होने शाश्च ओर अन्थों
का मनन कृरके उनके भेदको समचार, षे नतो किसीके
उपर बहिरदष्टि ओर देष अथवा निन्दा के भाव से तर्कही कर
सकते है न उनके वाक्यको सुननेवारे ज्ञाता लोग उनमें
नास्तिकता दी का अनुमान कर सकते है
कबीर पथमे जितने अन्थ वर्तमान है वे सब अध्यात्म विद्या
की पुस्तक टै । जो कुछ उन अन्थोमें छ्खा है सबका आध्या-
त्मिक अथ॑ही अण करने योग्य है । यदि आध्यात्मिक अर्थको
छोडकर साधारण अथं ओर शब्दार्थको ही महण किया जाय
तो न जाने असम्भावता आदि कितने दोष आकर उपस्थित `
( १०६ ) गसडनोधं
रो जार्वगे \ ओर स्वयम् कबीर सादिबमे एेसे २ अनर्थका दोषं
रुग सकेगा कि, जिस कलकको मिटाना कथन ही नदीं ब्रन्
असम्भव है । इतना हौ नहीं अन्थोमे बात बातमे आध्यात्मिक
अथै भी. बतलाया गय है ओर जिस अ्रथकी जेसी प्रक्रिया
चली हे वेसेरी उसका निवह भी किया गया है जो लोग मनन
ओर विचार किये विना केवर शब्दों ओर पर्दोको रेकर लडते
छगड्ते रै उन्दं कबीर सादिबके इस मसर पर ध्यान देना
चादिये कि-“कवीरका गाया गावेगा । तीन रोकम धक्का
खावेगा ॥ कवीरका गाया ब्चेगा । तीन लोकं वहि सूज्ञेगा"-
जैसे इसी अन्थभ यदि गकूडका वही साधारण अथं लिया जावे
जेसा सर्वसाधारण समञ्जते है, तो इसमे कोई सन्देह नहीं कि
विष्णु उपासकोके समक्ष इस पुस्तकको बोंचनेवाखा मार खाये
विना नदीं रदेगा-किन्तु जब उसी का आध्यात्िकं अथं सम
ञञेगा ओर दसरोको समञ्चवेगा कि, गङ्ड नाम है जीवका;
विष्णु नाम है सतोगुणका अथात् सतोगुणमावों करके सम्पत्र
जो युसु्षु है उसको जब ज्ञानी गुरू भिर्ता है तब उसे अशुण
( रजोगण ) ( ब्रह्मा ) सतोशुण ( विष्णु ) तमोगुण ( शंकर ) के
जार से निकार कर अिगुणातीत कर देता है-अर्थात् सतपुर्ष
ङ्प उसके प्रत्येक आत्माके स्वशूपका ज्ञान करा देता है । तब
गरूड ङ्प पुसुश्चु तीनों गणोको जीत कर शरीर निवह अथवा
प्रारब्ध बरसे यावज्जीवन सतोशुणके दिष्य गुणोको समभ्ुख
रख कर आनन्द पूवकं विचरता ओर दृसरोको भी अधिकार
पूर्वकं उपदेश देकर सत्यपदकी पारख बतराता है। इसी प्रकारसे
कबीर पथके सवे ग्रन्थोका आशय आध्यात्मिक है ।
जो इन अ्रथोको पठकर अपने आत्माके कल्याणां
स॒त्य अर्थको भ्रहण न करके केवर शारीरिकं सुख ओर
बोघसागर ( १०७)
मनकी तुच्छ तुच्छ वासनाओंको पर्ण करनेके खये अपने
समञ्े विना दूसरे जीवों को मिथ्या जम म डारूते ह वेमिथ्या
श्रम को उठाकर पाप के भागी बनते ह । सदशुङ् को कृषा
होगी तो मन्थो को छववा छेने के पनात् सब अन्थों के सारको
प्रदशित करानेवाखा एकं स्वत वुस्तक् प्रकाशित करके मिथ्या
प्रचलित अम को दूर करनेका वरयत्न कड्गा ।
इसके प्रथम भोपालबोध आदि अन्थ जो छपे है उनका भी
माव आध्मातिमकं समञ्चना चाहिये
इति
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ग्रन्थ हवुमांनबोध
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अजर शान करणा यतन, सत्य कोर जगता
तासु चरण बन्दन किये, होवे जगत उधार ।
धर्मदास वचन--चौपाई
धरम दास विनवे करजोरी । त॒म समरथ हौ बन्दी छोरी ॥
युगन युगन म तुम चलि आये । आदिअत की खबर लगाये ॥
एक अनुराग मोरे मन आया । सो प्रथु कड करि मो पे दाया॥
इनुमतको कब मिल्यो गरसौई । सो प्रथु मोहिं किये सथञ्चा३॥
१ ह इति प्रसिद्धे नु इति वितकं इस व्युत्पत्तिसे जो मान्य के योग्य होवे, अथवा-“भं माया तत्कायं नही
ओर वह मेरा नहीं किन्तु मं तिसका ब्रष्टा हू" इस निश्वयवानका नाम हनमान है 1 सो मन इख्ियादिक
जर पदार्थो अपेलला प्रत्येक आत्माहौ (चतन्य होनेसे) भान्य करने योग्य ङे । इससे प्रत्येक आत्माको ही
हन् भान कहते हे, अथवा ~
अनादि पश्षके षट् वस्तुरओंमे जीव ईश्वर दोनों भाई हं \ उनमें राम ईश्वर हं ओर दमण जीव
रूप मुमुकष हे । मानरूप इन्तरदेवको जोतनेवालो गुर ही इन्रजोत हे ! सो गररूप दन््नोतके शा नरूप शक्ति
के मारने से मुमुभ् रूप को मूर्छा हुई अर्थात्-भावरण विशिष्ट अलानांशका नाशही मरण्छा है, तब विकेप
विशिष्ट अलानांश रूपमानने शंरौररूप प्वतसे प्रारब्ध रूप संजीवन बटो लाकर ममकस्य लव्मन खी `
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( १९४) हनुमानबोध
दलपत किये सहा असिमाना । केसे रीन साहब सो पाना ॥
केसे दञुपत सेवा उनी । केसे उन बचने सो मानी ॥
यह वृरतांत कटो तुम ज्ञानी । रामचन्द्र के दनुमत मानी ॥
कैसे तिन हिरदय नाम समाई । सब दया करि तुम कहू सो सांई॥
कबीर दचन
कहै कबीर सुनु धमनि आयी । ता युग महँ हनुमत चिताई ॥
सेतुबन्ध रापेश्वर हम गय । तदवो पट च हम शुनीन्द्र कहयउ॥
साखी-सेतु बन्द म जायके, देखा हयुमत वीर ।
बहत कला है ताञ्ुकी, सबरी बजर शरीर ॥
कहत सुनीन्द्र॒॒सुनो हनुमाना । तुमको अगम सुना ज्ञाना ॥
तुम्दरे मनम जो अभिमाना ।तजिअभिमान सुन तुम ज्ञाना॥
सत्य पुरूष की कथा सुना । अगम अपार भेद बतला ॥
सत्यसुकृत की कथा यह भाई । जाकर तुम सय नहि पाई ॥
सत्यपुरूष की कथा अपारा । ताकर तुमही करहु विचारा ॥
ताकी गति तुम जानत नारीं । जो पुरूष पूरण सब माहीं ५
काहि की सेवा करहू भाईं। सो सब मोहि कटो समञ्चाई॥
रामचन्द्र किये ओतारा । प्रख्य जाय सो बारम्बारा ॥
साखी-सेवत हौ तुम कौन को, करो कौन को जाष्।
सो मोको बतलावहू, कोन तुम्हारो बाप ॥
-खलना है । आशय है कि, हनुमान नाम अज्ञान विशिष्ट किन्तु विवेकको धारण करनेवाले जोव कहै ।
अथवा इसी प्रकार से गुदम् खदारा प्र॑यका आशय जाननेके प्रयत्न करने वाले को ज्ञान पारख गर उत्तम
रोतिसे समक्षावेगा तब इन ग्रन्थो का आशय समक्षम आसकता है नहँ तो स्वयम् मभिमानमे भरनेवार्लोको
सत्यका पय कदापि नही भिलता ।
दोहा-वेद उदधि विन गृरु मख लखे, लागत लौन समान ।
बादर गरमुख हार होय, अमत सो अधिकान॥
बोधसागर ( ११५ )
हनुमान वचन चवा
सुनो शुनीन्दर दटकरिके बानी । तुम जग अहँ हौ बड स॒ज्ञानी॥
मेरी कला न जगहि छिवानी । हम मेरी गति नाहीं जानी ॥
पौरष पराकम बल है मोरा । मो्तम ओर नहीं कोड जोरा ॥
बावन बीर वसौ जग माहीं) मोक्षम पराक्रम कोड को नादीं॥
सब बीन भ में सरदारा। मेरी कला सब मे अधिकारा ॥
सब जग जाने सब मोहि पूजे । मो सम इष ओर न्ह दृजे ॥
जो चाहो सों कारज सारों। ष्ठ करे तो तुरत उबारो ॥
ठेसो प्रसिद्ध जग दम आदीं । सब कोड जाने तम जानत नादही॥
साखी -खनो खनीन्द्र मोरी गति, मोसम ओर न दैव ¦
चारै सो कारज कर, इट के साधे सेव ॥
मुनीन्द्र वचन
सुव॒ दहृचुमान वीर ते बका अपे थापे बजवै डंका ॥
आपा थापे मखा न होयी । आपा थापी सब गये विलोयी ॥
समरथ की गति तुम ना पाये । आपा थापि तुम रहे थुलाये ॥
समरथ पुरूष ओर है कोई । ताकी गति जानं नहि रोई ॥
हनुमान तुम छोडो अभिमाना । तो समरथ को भाषो ज्ञाना ॥
समरथ इकुम चले जग माहीं । तुम उनकी गति जानत नाहीं ॥
बावन वीर कै हम जानी । काट्षुरूष की सब अगुवानी ॥
सब बैरिन को कारु धरि खावे । जो सत्य पुरूष को गम नर षावे॥
चौसठ योगिन बावन बीरा। काल पुरूष के बसे शरीरा ॥
काल पुरूष सब रचना कीना । बीरन को सरदारी दीना ॥
मारहि मार सबन को करई । यह अपराध कौन शिर प्रई ॥
कार पुरूष को करम अपारा । केसे धौं करिहौ निरवारा ॥
सो अब मोहि बताओ भाई । बट पौरुष कठ काम न आई ॥
( ९९६ ) हनु मानबोध
तुम ॒दलुमत साच हो बीरा! तुमरे इष्ट अहै रघुवीरा ॥
ताको तुमं जो करो बड़ाई । तुम समरथ को गम्य नहि पाई॥
राम काज तुम भले सुधारा । ताके इकुम रंका तुम जारा ॥
वह् जग में किये अवतारा । अगम मेद् तुम नाहि विचारा ॥
उनकी रागि रहै सब कोई । जो जस सुभिरं षावे तस सोई ॥
तुम भरे प्रथुता की माहीं । प्रथुता जग मे अस्थिर नाहीं ॥
स्थिर घर कोई नरि जाने । प्रथुता बड़ाई सबं अन जाने ॥
जो तुम मानों कहा हमारा । तो तुम षाओ समरथ दर्बारा ॥
साखी -समरथ गति अति निमेरः प्रथुता अहै मलीन ।
जिनकी तुम सेवा करो, सोड न वां चीन ॥
हनुमान वचन चौपाई
सुनो सुनीन्द्र बचन दमारा । रघुपति है सबके सरदारा ॥
इनदी समान कोउ दृसर नादी । तीन लोकं के साहिब आहं ॥
उन प्रताप हम जग सत जाना । हमसों कहा कथौ तुम ज्ञाना ॥
रघुपति को हम जाने.षरचा । दमसों कहा कथौ तुम चरचां ॥
सागर उपर पथर तिराया । एेसा नाम अहै रघुराया ॥
मरै पौरुष बरु आपन जार । कहा कोई का नाहीं मात ॥
यती नाम जाने जग मोदीं। सोर भाव् सुनाऊं तोही ॥
तुम जो पछी पिता की बाता । पिताकहत हूं ओ फिर माता ॥
महादेव देवन सरदारा । जिनको पूजे सकर संसारा ॥
नादि बीज की काया मोरी । बजर अग पायो सब जोरी ॥
गौतम ऋषि की पत्नी नारी । नाम अहिल्या राम उवारी ॥
नाम अजनी पुत्री ताकी । जनम ख्यो कूम जाकी ॥
साधु रूप धरि शिव बन आये । जहां अजनी को मंडप छाये ॥
प्यास प्यास कदि बोरे बानी । शिवकी गति माता नि जानी॥
बोधसागर ( ११७ )
कह अंजनी तुम पीय पानी । तब शिव बोङे ओर हि बानी ॥
तँ निशुरी हम साधु विचारा । तराजू नि करौं अहारा ॥
कहै अंजनी शङ् कँ पाड । जंग ते वैँ उठि कहं जाड ॥
तब शिव कै साधु है हमही । दीक्षा रेज देत हम तुम्ही ॥
सिगी नाद रह शिव षाप्ता । कूकष्यों कान रही तब आशा ॥
छल करि बीज दीन्ह् तब डारी ! तासौ उपजी देह हमारी ॥
कान रहा रीन्हा अवतारा । वन पुत्र जाने संसारा ॥
पिता मातकी सब बिधि भाकी) कहौ तो ओर सना साखी ॥
सत्य बात मोरी रै भाईं। सेवा करौ सदा रघुराई ॥
समरथ ओर नहीं है कोई । रामचन्द्रं बड समरथ डो ॥
समरथ समरथ कहा बखानो । यै तो सरथं रामको जानो ॥
बहुत कहत हौं बात बनायी । राम नाम तुमह नहिं पायी ॥
जाकी थाप तीन पुर माही । राम समान ओर को आही ॥
दधि ज्ञान तबही बनि आवे । जो कोड राम वदारथं पवि ॥
ज्ञान भक्ति सव ठखागे नीका । विना राम सब जानो फीका ॥
सुनो बुनीन्द्र बात हमारी । सेवो राम सदा खख कारी ॥
राम विना नाहीं कहं जागा । राम नाम मेरा मन लागा ॥
दशरथ घर टीन्हा अवतारा । उनकी गति है अगम अपारा ॥
बडे बडे उन कारज कीन्हा । त॒म मुनीन्द्र भेद निं चीन्हा॥
साखी-सुनो श्रुनीन्द्र मोर गति, रामनाम है आदि ।
सो दशरथ घर ओतरे, उनका मता अगादि ॥
मुनीन्र वचन --चोपाई
कहे ्ुनीन्दर॒ सुनो इनुमाना । साधु भाव गति तुमह न जाना॥
राम नाम सब जग गोदराई । काहे साधु होय नहि माई ॥
( १९८ ) हनुम नवोध
राम नाम इदम नीके जाना । तुमका मोसों करो बखाना ॥
रमता राम बसे सब मारीं । ताहि राम तुम जानत नाहीं ॥
एेसो राम आहि अवतारा । जिन रंकापति रावन मारा ॥
कार रूप सब करे संचारा । ताको स॒भिरन केरे संसारा ॥
चर चर बोले काकी छारी । मेद भाव तुम जानत नाहीं ॥
यह तो राम अहै अवतारा । विना राम नारीं निस्तारा ॥
परलय तर जिव रहै अथुलायी । कार गम्य काहू नदि पायी ॥
सुलु हनुमत तुम मानत नादी । कारु श्यो है तुम्हरी वादीं ॥
ताते तोहि बृञ्च नहि परईं। यह ओतार काल सब धरई ॥
बार बार धरि यह ओतारा। तीनोंषुर को केरे संहारा ॥
कार कला कोइ जाने नाहीं । सक्षम व्यापि रहै सब माहीं ॥
समरथकी गति कालसों न्यारी । ताको कहा जानै संमारी ॥
जो तुम हेतु करि पृछठो मोही । तौ सब भाषि सुनाओं तोदी ॥
समरथको गति अगम अपारा । तुम नहि जानो म्म विचारा ॥
हट प्रतीति करौ तो किये । साधु होड साधूशुण लदिये ॥
ससुञ्चा बिना को करे विबेखा । विना विवेकं सत्य को देखा ॥
विना सत्य उतरे निं पारा । राम राम कटि करौ पुकारा ॥
एसे कारज दोय निं भाई । कौन भांति ते साधु कदाई ॥
यती नाम जो अहै तुम्हारा । षटसो यती बसे संसारा ॥
कातिकभाष्म शंकर अङ् गोरख। लछिमन महाबली बड पौरख॥
छोटे तुम दनुमान कंहाये । षटमिलिकि जग नाम चलाये॥
सो यती षट सब बसे ससारा । विना सतगुङ् सब यमके चारा॥
कालषूप का सकर पसारा । कैसी विधि करिहौ निश्ूवारा ॥
१ इन षट यतिर्थो के नार्मोम कर प्रन्योमं कर प्रकार से लिखा हैजो ठोक जान पड़ वही रहने दिया है ।
बोधसागर ( ११९ )
सुनो हयुमंत मेरी बाता । सत्य वुक्षं है समरथ दाता ॥
ताका तुमसों कौ स्देशा । सुभिरण करो तजो यममेशा ॥
सत्य समरथ है वैरे पारा । कार कृटा उपज्यो संक्षारा ॥
सोइ समरथ है सिरजन हा तीनों देवं न पते पारा ॥
साखी-समरथकी गति को रखे, शिव विरंचि नदिं जान ।
काठ अकार तहां नहीं, पूरण पद निर्वान ॥
हनुमान वचन - चौपाई
कृत मुनीन्द्र अकथ कहानी । कार काल की बोलो बानी ॥
कारु कार कि मोहि राओ । वमतो कार कर गतिना पाओ।
काठ पुरूष आपे वह होई । ओर काक देखा नटि कोई ॥
आपुहि करता आपुहि काखा । चौदह भुवन अपि रखवाला ॥
काटपुरूष ते ओर न कोई । निश्वयकै भै माना सोई ॥
सबका पिता कार टै जोई । ताकी गतीच्खे ना कोई ॥
ज्योति स्वरूप जग उजियाखा । ताका नाम धरा तुम काला ॥
जो तुम कहौ सब इम जानी । सनो अुनीन्द्र मोरी बानी ॥
रचना सकल कार की डानी । तुम अपने मन हौ बड ज्ञानी ॥
काल पुरूष गति परे न जानी । सो हम जानि छानि के पानी ॥
काट पुर्षते बडा न कोई । उनके उप्र ओर न होई ॥
जाको नाम निरन्नं राया । तीन खोकेमें ताकी माया ॥
उनते ओर नहीं कोह इजा । तीनलोक मे उनकी पजा ॥
तीनों देव जो उनको ध्यावें । तेभी उनको पार न पावें ॥
ताको तम सक्षम करि जानो । तुम्हरे मन काहे नहिं मानो ॥
इतनी भयी हनुमान भख बानी । रचना सकर काल की खानी॥
उनको पार बताओ मोहीं।उटि के शीश नवा तोदं ॥
जो तुम आदि अत सब जानो । तो तुम ज्ञान अब हमसे ठानो॥
@ 2 हनमानबोध
पिरे सुनो दमारी बाता । तुम ख॒नीन्द्र दौ बडा ज्ञाता ॥
सोरे पौरष दै बड जोरा । जन्म रेत कीन्हे घनचोरा ॥
जादिन जन्म भयो महि मोरा । उदय भावु देखि भै दौरा ॥
सूरज बाहर आवन नहिं दीना । निकसन तुरत रीरि लीन्हा॥
एक फलांग उधांचरु गय । सो पौरष भैं तुमसे के ॥
माता कौन जब बोर अधीना । उनके कृहे छाडि हम दीना ॥
सूरज छाडि दीना हम जबहीं । जग प्रकाश मयो पुनि तबदी॥
जन्मत की यह कंथा सुनाई । कदो तो ओर सुनाऊँ भाई ॥
राम प्रताप का हम कन्हा। सो युनीन्द् नारीं तुम चीन्हा॥
एकं समे जो राम बतायी। लंका खब्र खाओ त॒म जायी॥
लेका छोडि पषल्का गय । जाय नगरे गदो भय ॥
तब तिन कही यह नटि रका । पीछे तजि आये पलंका ॥
कारो कथा कहौं जो माई । अपने खख कहा करौं बडाई ॥
लक्ष्मण मूत गिरे भुर भाई । तब दोणागिरि आनि जिवाई॥
जेहि पे वही सजीवन होती । देत्यन छली कीन्दी बह जोती॥
रातह को द्वोणगिरि रये रामवीरं को तुरत जगाये ॥
यही द्रोणगिरि लेके दौरा फिरि के धरो जाह तेहि टरा ॥
एेसे कारज अनेकं सर्वर । उनहि प्रताप कार्यं उजियारे ॥
साखी-सुनो शुनीन्दर मोर गति, पौरष ओ बरु जोर ।
अपना गुण मे जानिके, कासो कहो निहोर् ॥
१ जब शमदमादिका अभ्यास करके मुमुक्षु जान प्राप्त करनके निकट पहुचाता है तब यदि प्रारब्ध
उसौ शरोर तक होती है तब तो आत्मज्ञानको प्राप्त हो जाता है ओर जीवन्मुक्त पद को भोगता है किन्तु
यदि वतमान शरोर प्रारगभ्ध अनेक शरीरका कारण होता है तब वह ज्ञान कु समय के लिये छिप जाता है
२ बीर-भाई । रामवीर अर्थात् लक्ष्मण !
बोधसागर ( १२१)
मुनीश वचन चौर
बड हनुमान पौरष तुव आदी । आदि पुङ्ष तुम जानत नाहीं ॥
समरथ शूप नहीं कोह जाने । उरखी बात सब कोह वखानै ॥
समरथ गति कोह नहिं जनै । बिद देखी सो कदी को मनि ॥
बर पौरष हम सब विधि जाना। तीन लोकम सो करत पयाना ॥
तीन खोकमे अमल तुम्हारा चौथा रोकं सतद्ङका न्यारा ॥
तुमतो निर्जन निजकर जानी । ताका इङ्कम लीन्ह शिर मानी
पुरूष निरजन ते है पारी । समरथ लगी है बास इमारी ॥
तहां काह को बास न होई । वहां पचि सके नहिं कोई ॥
यह तुम कार्यं करत हौ माई । तुम्हरे इष्ट अहै रघराई ॥
सो का निर्न केरी । सत्य पुरूष गति तम नरि हेरी॥
साखी-तीन लोकम नाम निरजन, जाकी तम सिफत क )
वह को समरथ ओर है, जिन यह सब भंड धरी ॥
हनुमान वचन चौवाई
सुनो थुनीन्दर दढ करि ज्ञाना । तब तो भेद भया निरबाना ॥
समरथ को अब भद् बताओ । हम सों नहीं कड मेद राओ ॥
मुनीश वचन
सुबु हनुमत कं निज ज्ञाना । तोसों भाषों मेद विधाना ॥
समरथ को अब भेद बताऊ । तुम सों मेद अब नाई दुराऊँ॥
आदि अनादि पार के पारा । ताको अगम्य अब सुनो बिचारा॥
जो प्रतीति दोय जिव माहीं । सत्य शब्द् समरथ को ऊहं ॥
समरथ शरण बडा है भाई । बर पौरुष सुखसागर पाई ॥
तादिन की यह कथा सुनाऊं । जो मानो तो कहि समञ्च ॥
सभ्रुञ्ि करो अपने मन मादी । वह तो अकथ कहनकी नाहीं ॥
जो कदं तो कोन प्रतियायी । देखी सुनि नहि वेदन गाई ॥
( ९२२) हनुमानबोध
दख गति पाये नरि कोई) मोर सदेश मनि नरि सोई ॥
ताते गये विगोड विगोईं । नहिं माने दुख पायो सोई ॥
स॒त्य शब्द् मै कहौं बखाना । बृञ्च रोय तो ब्ह्लो ज्ञाना ॥
सासी-बुञ्च करो हनुमत तुम, दौ तुम दस स्वषूप।
राम शाम कह करत हौ, परे तिमिर के कूष॥
राम राम तुम कहत हौ, नहि सो अकथ सहप ।
वह तो आये जगतमे, भये दशरथ चर भूप ॥
अगम अथाह तुमसों कदां, सुनि खो अगम विचार !
उत्पति परलय तहं नही, साब सिरजन हार ॥
सुनो हनुमत यह कथा नियारी । तब नहि इती सो आदि कूमारी॥
जाते भयी सकर विस्तारी । सो न्ह होती रचने हारी ॥
आदि भवानी सो महमाया । ताकी रचना हती न काया ॥
नीं निर्जन की उत्पति कीन्हा । समरथ का घर काह न चीन्दा॥
तब नि ब्रह्मा विष्णु महेशा 1 अगम ठोर समरथ को देशा ॥
तब नटि चन्द्र सूर्यं ओ तारा । तब नहि अध कूष् उजियारा ॥
तब निं सात सुमेर ओ पानी । समरथ की गति काहू न जानी॥
तब नि धरणि पवन आकाशा। तब निं सात समुद प्रकाशा ॥
पांच तत्तव तीन शुण नादी । नारीं तदौँ ओर क्कु मारीं ॥
दश दिगपारु र्खे नहि ठेखा । गम्य अगम्य काहू नहिं देखा ॥
दशो दिशा इन रचना रांची वेद पुराण गीता इन वांच ॥
मूल डारु वृक्ष निं छाया । उत्पति पर्य इती नहि माया॥
तब समरथ इते आपु अकेला । घरम माया नरि मनको मेखा ॥
विन सतगुरु को टौर ल्खावे । भूरी राह कौन समुञ्चावे ॥
साखी-दनुमत यह सब बृक्िके, करो आपनो काज ।
निर्भय पद् को पाईके, दोय अभय सो राज ॥
ब।धसागर (१२३)
हनुमान व चन -चोपाइं
सुनो अुनीन्द्र वचन हमारा । इम नहिं जानै भेद वम्हारा ॥
कृद प्रतीति कौन विधि अवै । कैसेके यह मन प्रतिय ॥
यह प्रतीति कौनो विधि आयी । तब इम जानि करब सेवकायी ॥
जहं समरथ तहौं हम जावै । तवबही हमरा मन पतिया ॥
उदा जाह इँ फिरि आ । तव यै मन प्रतीति लगा ॥
जो तुम सत्य सत्य कहि भाखी। तो मोको दिखलाओ ओआखी ॥
करौं प्रतीति गरहौ तुव शरणा । बारम्बार बेदौ त॒व चरणा ॥
जो गहि तुम दिखवो मोको । तबही शठ न जानौं तोको ५
साखी-सुनो मुनीन्द्र मोरि गति; बिन देखे नि पति आईं ॥
आदि सृष्टिकी तुम कदत हौ, तर्द कौन विधि जार ॥
मुनीद्र वचन-चोपाईं
जब ठेसो कष्मो हनुमाना । उठे भ्ुनीन्् मनमादीं जाना ॥
उठते देखा किरि निं देखा । देह विदेह भये अवरेखा ॥
पवन शूप होह गये अकासा । बे पुरूष विदेही पासा ॥
चहूंदिशि देखे हनुमत वीरा । कौन सूरतिको भयो शरीरा ॥
गेल महिं चले पगधारी। परम प्राण तहँ ख्गी खुमारी ॥
देखत चन्द्र॒ वरण उजियारा । अमृत फलका करे अहारा ॥
असंख्य भाव पुरूष उजियारा । कोटिन भाव रोम छबि भारा ॥
देखा चारों दिशा सब चारी । पता न पाय रहे जब हारी ॥
तब दयुमत हाक तदहं मारी । तुम मुनीन्द्र अहौ सुखकारी ॥
अब प्रगट होहके दशन दीजे । तुम्हरी विरह मम दिरदय भीजे॥
साखी-भये विदेही देहधरि, आये हव॒मत पास ।
ओर वरन अर् भेषदी, सत्य पर्ष परकाश ॥
( १२४ ) हन्मानवोध
चोपा
तब इजुमत सत्य के मानी । सदी भुनीन्दर सत्यौ ज्ञानी ॥
अब तुम पुरूष मोहि दिखाओ । मेरा मन तमते पतिया ॥
अगरी कथा करौ क्क सोही । कौन नाम तुम्हारा दोही ॥
केसी विधि समरथको जाना । सो कद मोहि सुनाओ ज्ञाना ॥
वचन् तुम्हारो है परमाना । कह अब समरथ कौन अस्थाना॥
निज गुश्ज्ञान आपन सुटि दीजे । दास आपनो महि करि लीजे ॥
साखी-समरथको अस्थान अब, मोको दह बताय।
कोन जगत वह रहत है, सो शुनि कटू समक्चाय ॥
मुनीन्द्र वचन-चौपाई
करि परतीति मानो हनुमाना । बरु पौरष मोरा तुम जाना ॥
नहिं जानो तो ओर जनाडं । खमरथको अस्थान बता ॥
योगजीत मोरा दै नाऊ। होय ज्ञानी मै जगम आड ॥
दोऊ नाम रोकं के भाई । देह धारि जग करौ लखाई ॥
तादिन को अब कँ संदेशा । जबर मे इतो समरथके देशा ॥
एकं बार करि सुनौ हमारी । समरथकी गति कहौं विचारी ॥
पिरे भये निरञ्जन राया । फिरिके ध्यान पुर्व उपजाया ॥
फिरि तब भयी शक्ति भवानी । मेरो नाम धरयो तब ज्ञानी ॥
यह तो कथा बहुत हे भारी । तुम अपने मन रेह विचारी ॥
कं संक्षेप सुनाओ तोदं । निश्चयकेजो मानो मोदी ॥
महामाया समरथ सो आयी । ताको धरम ` आस्यो जायी ॥
लीलत कन्या कीन्ह पुकारा । समरथ मोरा करौ उबारा ॥
तत्र॒ मोक भयो ईकारा । योगजीत तुम करो उबारा ॥
मारो धर्पराय शिर फोरो । महाशक्ति को बन्धन छोरो ॥
महाशक्ति को बन्धन भारो । धर्मराय शिर कार जो डारो ॥
तबही तुरत तदं मे आया । काटयो माथ कदी महमाया ॥
मोरे मन तब आयी दाया । अभी संचि कै केर जिवाया ॥
धमराय समरथ के चोरा । सेवा करिके कीन्ह निहोरा ॥
काल नाम धर्मराह काया । जवते वह अस्यो महमाया ॥
भाया ब्रह्म दो मिलि साजा । तासों तीन लोक उपराजा ॥
तीन पुर तिनकर सो भयॐ ! तिन सब रचना सो करिल्यॐ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश बखाना । इन तीनोको सब जग जाना ॥
समरथ को कैसी विधि पे) जाको तीन देव भरम ॥
हनुमान वचन
सुनि दनुमत तब भये अधीना । अहो अ्ुनीन्द इम तुमको चीना॥
सत्य प्रतीत भयी जिव मोरे। अब मै तमसे करौं निहोरे ॥
होय आधीन पत हौं स्वामी । सो अहि किये अन्तरयामी ॥
साधु लद्षणविषयक भ्रश्न
साश्रु साधु संसार बलान । कहौ साधु कैसी विधि जानै ॥
साधु बडे की महिमा बड भाई । साश्रु नाहि महिमा अधिकाई ॥
ऋषि अनि सबरी साश्रु बखाने। कहौ साधु कैसे विधि जतै ॥
सेवा साधू सब गोहरविं। कहो साधु कैसे खि वाँ ॥
कोन साधु सो मोसे कहना । साधु शरण मोहि निश्य गहना॥
सोई साधु बताओ मोही । उषिके शीस नवाॐ तोडी ॥
तुम तो साभ्रं साश्वं मत जानो । सोह दटकरि मोरे मन आनो॥
जो तुम कहो साधु म सोहं । इन्द्र साधन मोप होई ॥
अथं -इनुमानजी कहते है कि, हे सादिब ! यदि आप कहो
कि इद्रीजित पुरूषको साधु कहते हँ तो भने सब इईदियोको
वशम कर रक्वा हैतोक्यामै साधुर!
साधन चेते साधु कहाई। के कोह साधु ओर है भाई॥
सो निश्चय मोहि कहौ समञ्चाई । मैं परतीति वम्हारी पायी ॥
( १२६) हनुमानबोध
साखी-कटो शुनीन्द्र सत्य के, कोन साधु जगमा ।
सो मोहि मेद बतावहु, क्कु कडु संशय नाहि ॥
साश्रु लक्षण
मुनीन्द्रवचन-चौपाई
साथ मदिमा सुनो हनुमाना । जाके संग पुरूष को जाना ॥
मोह मद् सो निरसंशय भाई । सोहं जग महं साधु कहाई ॥
साथ पुरुष खमरथ है सोहं । राग द्वेष इख सुख निं होई ॥
सोई लक्षण साधु करावे । सोई साधु अगम घर पावे ॥
प्रथम इन्द्र मनदी जीते । पूरण ज्ञान कब्हैँ नहिं रते ॥
तत्तव प्रकृति अपरबर माया । इनको जीते साधु काया ॥
काम कोध रोभ ईकारा । सोहइ साधु जिन ये सब मारा॥
होना साधु सुगम नहि भाई । साधु सरूप अति कठिनाई ॥
हार जीत मान न अपमाना। रेस रदित सो साधु निबाना॥
शीर संतोष दया कर भाऊ । क्षमा गरीबी साधु काऊ ॥
परेम प्रीति धीरज यण खानी । सोहै साधू निमंरु ज्ञानी ॥
हनुमाना यहे साधु सुभा । तुमही साधो साधु काऊ ॥
साधुलक्षन म तुमहिं सुनाया । ऋषिसुनि कोड गम्य नरि षाया॥
साधू महिमा है अति सांची । साश्रु वचन ते यमते बांची ॥
आदि अत गति साधु न जानो । सो साधू समरथ मन मानो ॥
स॒त्य सत्य साधु मन जाना । सो साधूको निर्म ज्ञाना ॥
साधु बडे बडापन नदिं चाहे । साधून की मति एसी आहे ॥
साधु समान कौन नहि दूजा । जाको अगम निगम सब सुञ्जा॥
तन मन घन सब साधि है जोई । जिन अपनी दुर्मति को खोई ॥
सोर साधु जगमा कहावे । नि तो बहत जगत रावे ॥
साखी-सुनु दयुमत यह साधु गति, को करि सके बखान ।
जाको सत संगति भयी, सो कद्ध पायो जान ॥
© ॥ ८५९११११९
हनुमान वचन-चोौपादं
सुनो खनीन्द्र॒मोर यक बाता । कां रहत है समरथ दाता ॥
ताको नाम कदो निय जागा । अब मेरा मन तमसो छामा ॥
सकल भेद कहि दीजे मोदी । मोरी सुरति ल्गी ३ सोही ॥
तुमतो संत सकर सुखदायी । तम्हरे है नर्हिकड मानबडायी॥
सत्य साश्रु सत्य मँ जाना । सत्य सत्य है तुमरो ज्ञाना ॥
पूरण पद है ध्यान तुम्हारा । गै अषने दिल कीन्ह विचारा ॥
साखी-पूरण प्रद निज ध्यान दै, सो मोहि देह बताय 1
धमे निरञ्जन तहां नर्हि, कारू दगा नहिं खाय ॥
मूरनीद्र वचन-चौपाई
खनो वीर इयुमान विचारा । कठिन विषेक खांडकी धारा ॥
ताका तुम कौजे इतवारा। निय कारज होय तम्हारा ॥
अब सन्देह रहै कड नाहीं । साश्रु भये साधो मन काही ॥
समरथ का तोहि नाम - सुनाऊँ । सो युक्ती तोको दिखलाड ॥
सनो इयमत खुशी मन आऊ । एसा अगम तोहि ठैर दिखा
साखी-अगम ठोर जेहि गम्य नहि, तहां नहीं कोह जायं ।
सुरति निरति यकं घर धरो, दवुमत गहो तुम आय ॥
हनुमान वचन-चोपादं
हे स्वामी यक संशय आयो ।कौन भाति तह सुरति खगायो॥
कौन भांति म लू धायी। सो तुम मोहि कहो समञ्जायी ॥
पौरुष बरसों लागो जाई । क्षण इक जाओं तेहि गई ॥
राह बाट तेहि मोदि बताओ । काया को सब मेद छखाओ॥
तुम समरथ समरथ को जाना । सो मोहि किये ठौर ठिकाना॥
जेतिक युक्ति तुम्हारे पासा ।सो मोहि दिखखओ अगम तमासा॥
( १२८ ) हनुमानबोध
कहो शिताब विरम्ब नहि करना । निश्चय हम आयो शरना ॥
रे पडुचाओ ठौर दिखाओ । एेसी वस्तु गहर जनि लाओ ॥
खारी गहर न ला सुनींद तुम, हो समरथ मतिधीर ।
मे सेवकं निज दास हौ, अरप सकर शरीर ॥
ग्र कचन
घन दनुमन्त तुम्हारी वानी । तुम मोरी गति नीके जानी ॥
समरथ मित है दोय प्रकारा । भक्ति ज्ञानसे होइ उवार् ॥
तीसरि योग युक्ति है भाई । भुक्ति होय संदेह मिटाई॥
तीन प्रकार दै समरथ केरो । सो गर्मवास नरि रेड बरसेरो ॥
जासों भक्ति जो दोय सबेरा । पावे अगम ज्ञान सोरटेरया ॥
सतशुर केवर है निज ज्ञाना । सो बिररे कोई साश्ुन जाना ॥
तीन गुप्त तीनों तोहि भाखा । षरदा अन्तर कष न राखा ॥
सो अपने मन करो विचाग । समरथ नाम सो वहयो सार ॥
प्रथम भक्ति करो समरथकी । योग युक्ति ज्ञान सुनु नीकी ॥
निष्कपटी होयके साधुमनाओ । साधुनके चरणों चित लआ ॥
जो साधू अपने धमे रहाओ । सेवो ताहि षरदा नरि खछाञओ॥
एसी भक्ति जेही मन भावे । भवसागर को मभ मिट ॥
साधु केसो राह गहि रीजे । साधु कटै सोई॑पुनि कीजै ॥
सुव॒ हनुमत कदां जो बानी । कूम वायु सो अभव ज्ञानी ॥
नाग वायु धरि वास समानी । तामे अभी अंक जल वानी ॥
अमीमाहि यकं बेछि उपजायी । तासों नागवेछि चङि आयी॥
पान सोई सन्धि राखे भाई । समरथ सुख एेसी फरमायी ॥
पुनि समरथ एसी अथायी । पान जाहि तुम देहौ जायी ॥
सो इसा इमारे घर अहह । अभय अशंक सदा सुख परदे॥
१ जल्वी शोघ्र ।
बछसाबर्
तिका तोरि करो जिव कोरा । टे कार मिटे अकञ्चोरा ॥
चौका आरति करि विस्तारा । इतूमान दुम ह निरधारा ॥
समरथ हुकुम भक्ति यह ठानी । जाते यम नहिं बधि तानी ॥
बनि अवे तो करिये भाई । नातो लखीजो षान बनाईं॥
साखी-यदहि समरथ की भक्ति है, खनो ज्ञानक रीति)
योग युक्ति निज भाषे करौ सो निजके प्रीति ॥
चौपाई
अब तुम ज्ञान शुनो इवुमाना । समरथ को है निर्मर ज्ञाना ॥
निराधार आधार न कोहं । पहुचे साश्च ञ्जरां सोह ॥
नियंण सगुन ध्यान करिपवे । तहां सथन निरंजन नरि आवे॥
अनुभव वाणी करे परकाशा सो साधू मोर स्वासं उरस्वोखा॥
महाकठिन खँडे की धारा। देसा निशंण ज्ञान इमारा ॥
निगंण सयण दोनों नाहीं हैसो हंस नामकी अहीं॥
तीनों यणते सण सो होई । चौथा शुण नि्ग॑ण ह सोई ॥
नियंण सगुण दोड के पारा । शब्द् अश् स्वास नदीं ओंकारा॥
अदुुत ज्ञान विकट है भाईं। विकट राह कोड बिररे पाईं ॥
ज्ञान गृहे बिव शुक्ति न होई । कोटिक छिखि षदे जो कोई ॥
१ इस चौपार्दके तोन पाठ सब ग्रन्थोमे अलग २ मिलते हं । एक तो यहो है । इसरा पाठ य्ह है-
“निगुण ज्ञान ध्यान धरि जवे । तहं कोड सगण नजर नहि आवे ॥1"
तीसरा पाठ यह है-
“निगुण ध्यान धरे जो पावे । निर्गुण सगुण नजर ना आवे ४"
हसौ प्रकारसे अनेक भ्रतिर्योमं अनक भतभेद हं कहां तक कहा जाय । पश्चातके लेखक भहाश्योको
छृपासे न भालूम कबोरपन्यो साहित्यमे क्या २ फेर हना है जोर होता जाताहै। `
नं. ५ कबीर सागर - ६
( १३० ) हन॒मानबोष
खाखी-भक्ति ज्ञान तमसो कद्यो, खनि खो योग अषार ।
रोम रोम को शण कटू, काया का विस्तार ॥
चौपाई
काया है यह खमरथ केरी । काया की गति काह न हेरी ॥
शिव गोरख जो योग कमाया । काया को ओर छोर नरि षाया॥
कौन शुननसे ठदी काया । कोन सुरति कौन है माया ॥
कुज गली सुनो इनुमाना । यह निज मेद् काहू नि जाना॥
सोई भेद कों तुम पादीं । सुनिके तुम समञ्जो मन मारीं ॥
बडे बड़ाई सब पचि हारे । यह निज भेद है अगम अपारे॥
समरथ सागर समरथ वासा । तासों उषजी समरथ स्वासा ॥
स्वासा अन्तर बोरे जो बानी । अमी बुन्द ठरके यक जानी ॥
तासों बीज भये अक्रा । काया कारण सब भरप्ररा ॥
सोई बीज धमेराय जो पाया । शक्ति एकं धरि जामन लाया॥
सो वद शक्ति रक्त की मूला । तासों भयो बीज अस्था ॥
कायाकी गति अगम अपारा । इजुमत ताको तुमकरो विचारा॥
तीन लोक जाहिर है भाई सो सब काया भीतर आई ॥
सो कायाका करो विचारा । हनुमत सो तुम करो निरधारा ॥
अच चक्र कमल रहै आढ । लगे बन्धन तीनसै साढा ॥
नौ नाडी दहै बहत्तर कोठा । अन्तर षट संपुट सो घोडा ॥
परम सुमेरु है दस दरवाजा । पांच तत्त्व तीन गण छाजा ॥
चन्द्र॒ सुर वहां दोड विराज । ईगला पिंगला सुख मनि साजें॥ `
सुन्दर सात काया के मादी । नौ सौ नदी बहे तिहि गीं ॥
दृशो दिशा कायाके भीतर । यहि देवर सब देव अर् पीतर॥
यहि काया वैराट स्वरूपा । ज्योति स्वरूप वसत है भूषा ॥
निरंजन रै कायाके मादी । ओम ओंकार माया की छदं ॥
बोधसागर ( १३१)
ररकार गरज ब्ह्मण्डा । सप्त द्वीषं प्रगटे नौखण्डा ॥
समरथ अश बसे अस्थीरा । अस्थिर बस्तु वसै घर धीरा ॥
ताको कोई चीन्हे नादीं। ताते स्षव जग मरि मरि जाहीं॥
साखी-कायाके गुण अगम है, सुच तुम इनुयत वीर ।
नरं काहको छख परे, अटपट रचा शरीर ॥
हनुमान व॑च॑न-चोौपाईं
अदो स्वामी मँ सब विधिजानी । तुमदी समरथ तमही ज्ञानी ॥
कहा अस्तुति तम्हारी कीजे । असत बचन खनी इम भजे ॥
सब संदेह मिरायो ` मोरा । जनमजनयकाभमिव्योञ्चकञ्चोरा॥
सुसागर अमर घर चीन्हा । भरे सतशुङ् मोहि दर्शन दीन्हा॥
साखी-दशंन देइ मुनीन्द्र त॒म, मोको किया खनाथ ॥
भौ सागरसे छे चरे, केश पकड गहि हाथ ॥
हनूमान आधीन ह, टीन्हो सहज को पान ॥
जब भुनीन्द्र शिष्य किये, दे समरथको ज्ञान ॥ ॐ
खण्ड ब्रह्माण्ड पारके पारा । तहं समरथको घर तत सारा ॥
निभय घर है तहां सो भाई । रोग न व्यापे काल न खाई ॥
ताका तुम जो शुनो विचारा । समरथ का घर है सबके पारा ॥
सबके पार रहे निरधारा । पिंड अह्नाण्ड ताके आधारा ॥
सो समरथ है सवसो न्यारी । सुच हनुमत तुम रह विचारी ॥
° पुरानो प्रतिर्योमं यह पृस्तक इसो साखी तक समाप्त हो गई है किन्तु १९१३ सम्बत्वाली प्रतिभं
ओर भौ अधिकहैसोइस साखी के जागे से आरम्भ होकर अन्ततक है ।
इतना हौ नहीं बहत पुरानो प्रतिर्योमे आदिमं “सेतुबन्ध मं जायके; देखा हनुभतवीर" से ही पुस्तक
आरम्भ भो होती है किन्तु उस साखोके ऊपर कौ चौपाई नवीन प्रतियोमि पाई जातो है, मौर उससे कोई किसी
प्रकारका निगाड नहीं होता इस फारण उसे लिख दिया है।
( ९३२ ) हनमानबोध
अक्षर सो निःअक्षर है न्यारा । ओम ओंकार तादि आधारा ॥
तीनो शुणका जो विस्तारा । रकार दै सबके पारा ॥
ताके द्रे निःअक्षर धारा सोई मेद निज आहि हमारा ॥
ये सब दै समरथ आधारा । समरथ शक्तिको वार न पारा ॥
ताकी आश करे जो कोई । उतरे पार भौसागर सोहं ॥
दनुमत कंडे सादिब सुनो, तुम दौ दीन दयार ॥
तुम समान रघुपति नदीं, कारयो यमको जार ॥
कबीर वचन-चोपाई
करै कवीर सुनो घ्मदासा । वदी ज्ञाने तुम्दं प्रकाशा ॥
इनुमत अश पुरूष का रोई । तब हम उनको भिखिया सोई ॥
दलुमत बोधि चरे हम जबहीं । चतुभुंजके दिग पहुचे तबदीं ॥
उनसे कीना ज्ञान विचारा । वह ॒दंसनका है सरदार ॥
चतुभुजको हम दियो शुर आईं । ताहि बनायो दर्भगा राई ॥
जो कोड तुम्हारा वीरा पवे। सो दसा सखतलोकं सिधावे ॥
इतनी कदिके दम काशी आये । चर्त चरत कद्कवार नहीं छाये॥
काशी विद्या गुर् बहुतोई। पण्डित ज्ञानी बहते होई ॥
धमंदास त॒म वेश दमारा । तुम्दरे काज हम यहां षु धारा॥
तुम्हरे हाथ पान. जो पावे। बहुरिन योनी संकट अवे॥ `
साखी-के कवीर धमदास सो, दन॒मत बोध्यो जाय ।
| पान परावना देइके, तुमको मिलिया आय ॥
धमदास वन्दन करे, घनधन दो सत्यकवीर ।
इनुमतको दशन दियो, धन दै हनुमत बीर ॥
छन्द्-घन्य सादिब धन्य हौ तुम दशन दीनो ।
कीजे दया अब दासपे जाऊं चरण रायु धाइ के ॥
बोधसागर { १३३
वीर हनुमान बोध के ठे दिया पान प्रसादो ॥
शेष शारद विष्णु नारद् नाहिन षवे आदिद ॥
सोरठ-नार्हि न पवे आदिः शिव ब्रह्मा अङ् नारद् ॥
तुम्हरो वदन निहारि, धर्मदास बन्दन करे ॥
इति श्रीबोधसागरातगंतकनीरधमदादसंवादे
हनुमानबोधवणनो नाम सग्तमस्तरगः
सार विचारयचीसी
श
साखी-ब्रह्मादि सनकादि, शुनिवर आदि बयन्त ¦
विन गुर् मोह निशा शयन,सुख अपने ने छहन्त ॥ १ ॥
गुरूके गुण गावे सभी, सत्य सदी विद्व लक्ष ॥
मायाके उपदेश अज, हरिहर कालके भक्ष ॥ २॥
कमं धमे मति तीन के, अज हरिहर सश्रुदाय ॥
गावर्हिध्याव्हि तादिकह,जेहि सब जीव नशाय॥ ३ ॥
कहने को चरके नहीं, जेती जिसकी दौर ॥
सबे शब्द् सहिदान रहै, परख शब्द सो ठौर ॥ 9 ॥
वही प्रमाण सबन मिलि कीन्हाःज्यों अधेरेकी हाथी॥
आदि बाप को मरन जाने, पूत होत नि साखी ॥ ९ ॥
अधरे को हाथी सांच रहै साचे है सगरे ॥
हाथन की रोई करैः आंखिन के अंधरे॥&॥
शब्दातीत शब्दते पाहन, बूञ्े विरखा कोह ॥
कहै कवीर सतय॒रू की सेना,आप मिटे तब ओई ॥ ७॥
जीव दुखी चाहे छटन, चीन्दे नाहीं कार ॥
आसा देवे निवृत्ति का, भोरे भवके जार ॥ ८ ॥
( ९३४ ) हनमानबोध
तामस केरे तीन शण, भोर रेह तहं वासं ॥
एके डारी तीन फर, भांटा उख कणासं ॥ ९॥
जीव पैसे वेदि जार भ, सूश्च वार न पार ॥
जाहि आहि निशि दिन करे, साहब रह उवार ॥१०॥
साहब को जाने नहीं, हाकिम चोर प्रचण्ड ॥
यह् ठाङ्कर यम देशम, खण्डपिण्ड ब्रह्मण्ड ॥११॥
नित उपजे नित खपे, निश्चय नष्ट सो मूल ॥
प्रखंड कार कला संब, देखि जगत मत भूर ॥१२॥
क्िखमिर ञ्जगरा इते, बाकी छंटी न॒ काड् ॥
गोरख अके काक पुर, कोन काव साहु ॥१३॥
विनु पारख वाणी सने, धवे ताके साथ ॥
चाय अनेकन भावसो, तजि न पीटर्हिं माथ ॥१४॥
बह कमेदि अश्ञ्ाइ जिव, डोरी अपने हाथ ॥
नाच नचावे यम सद्।, कारण कारज साथ ॥१५॥
चाहं जो निस्तारन को! इन कमन _छटकाय ॥
तेहि तिह फंस ले धावी, बदी देहि दटाय ॥१६॥
करम कमाई सबन पर, राज दाम परमान ॥
जन्मत मरत न छोडईं, विविधि कम की खान ॥१७॥
बन्दी खाना जो पड, जेहि राजा खुशियार ॥
लोभ गरासे जीवको, सूञ्चे नदीं भव जार ॥१८॥
जहर जमी दे रोपिया, अमी सींचे सौबार ॥
कृवीर खुटेकं ना तजे, जामे जौन विचार ॥१९॥
~ इन्द आखिन पथरा दिये, समञ्च दिये जम जार ॥
. क्षण क्षण जीवन जीवके, भोगे कारु करा ॥२०॥
१ स्वभाव, प्रकृति ।
बोधसागर ( १३५ )
मूस बिलाई एक तग, कट केसे रदहिजाय ॥
अचरज यक देखो संतो, हस्ती सिंहहि खाय ॥ २१॥
पूरण पिण्ड ब्रह्माण्डसो, जिग्ुण फास छगाय ॥ `
नाशक नाशे जीवको, आपे आष कहाय ॥ २२ ॥
बन्दी छोड छुडावहईं, मेटि मेरि यम फस ॥
धन्य धन्य सो जीव है, तजटि महा गोगा ॥ २३ ॥
प्रथु शरणागति परख दढ, सत्य लोक परमान॥
संसत जीव विरस दहै, हटा कार शमान ॥ २४ ॥
पारख सीढी आंकिंके, उखटि वहै अवधार ॥
थाह न पावहि बडी, हौ ताके निस्तार ॥ २९ ॥
इति
वाक्त ४७११
भारतपथिक कनीरयंथी- च
स्वामी श्रीयुगरानन्दद्वारा संशोधित ह
, + छ र < छ ननि ॐ
खेमराज भाक्कृष्णः
॥
> = 9
सत्यनाम
श्नीमुनीन्राय ननः
अष्टमस्तरगः
ग्रन्थ छक्ष्मणबोध
नव्य < ््
मगलाचरण- दोहा
जय सुकृत ज॑य मृनीन््र प्रमु, जय करठणामय ईश ॥
जय कबीर कलि बुख हरण, सदा नवाङऊं शीश ॥
उत्थानिका ( धमदास कचन )
दोदा-विनय करत ध्मेदास है, दो कर को जोर ॥
लक्ष्मण बोध्यो काहि विधि,कद सो बन्दी छर॥
सत्य कबीर वचन
प्रथम सो सत्यनाम गुण गाऊ । भक्त देतु संसारदहि आऊ ॥
अनन्त बार आयो संसारा । देख्यो जभीं खलकं मंज्ञारा ॥
साधु संत देखो सब ठर । कतं न देखों शुक्त का नाॐ ॥
ण्ड हण्ड बडु देखो विरागी । कथि ज्ञान अल्पे बुधि लागी॥
तत्तव॒ शब्द् सुने नरि का । कतं न सुनी परे वहि गा ॥
एक दिन चरे द्वारका भाई । देह तजी जहां भिथुवनराईं ॥
गड रोके बर मद्र ॒रदाये । बहत चिता तिन मन उपजाये॥
कृष्ण देह नहिं दाग गायी । तब सपने कृष्ण बात जनाय ॥
१ पथ्वी। २ संसार।
( ९१४२) लक्ष्मणबोध
बलभद्र सो कडा समज्ञायी । अगली बात सब दई बुञ्चायी॥
बरूभद्र॒॒तुम॒ भक्त दमारा । तुमसे कदं मेँ सत व्यवहारा ॥
इमरो सीख मानिकर लीजे। जो इम कै सोई अब कीजे ॥
बल्नच्द्र दवचन
कंडे बरभद्र॒तुम साहब मेरा । हम तो जनम जनम का चेरा॥
जो तुम कदो सोई रे करिहों । मानि सिखापनशिरष्र धरिदह॥
श्रीकृष्ण वचन
जेसे कांची सप तजाई । कांचखि रहे सर्पं नदि भाई॥
याते तनको देह जरायी । याहिराखी क्क फर नदि आयी॥
ठार दहन तब त॒इवां भयऊ । जरत उठ केफरा रेड ॥
तब बोरे अस गोविन्द राई । पेदे एक तुम बेगि बनाई ॥
महौ _ धरो पेइके माई । सो पेद तुम देह बहाईं॥
पे सोइ उडीसा जायी । बौद्धावतार की मांड मडायी ॥
ठाकुर कडा सो बलभद्र कीना । एक पेद बनाय कर लीना ॥
ता पेद पर दीरा जड़या। सो मादी पे मे धरिया ॥
समुद्र॒ मादिं दई पेड बदाई । सो पेईं बहत उडीसा जाई ॥
तब राजा को सपना भय । सपना मे तेहि बात यक कहेड॥
कृष्ण वचन
राजा सीख हमारी रजे । इुद्धावतार कि थाषन कीजे ॥
राजा वचन
राजा कहै कोन दौ भाई। सो मोहि बात कहो समुञ्ाई ॥
श्रीकृष्ण वचन
तब बोरे सो गोविन्द राई। इम् तो कृष्ण अहै रे माई ॥
द्वापर बाचा सम्पूरण भयः । ताते ठट हमहूँ तजि दयऊ ॥
१ पेटी, बाक्स, सन्दूक ।
बोधसागर ( १४३ ) -
अब कलिथुग बेठेगा सोई । बौद थापना इमरो होई ॥
जगन्नाथ मम नाम है सोह । हमरी थापना यहि विधि होई॥
सखत्यकबी र चन
राजा जब स्नानको गय । वेद॑ गडी रेत म पय ॥
तब राजा परिकरम्रा दीना । पेह उटाय कै शिर षर दीना ॥
तुरति राजा महर ङे आवा । तबहि रानि कँ तुरत बतावा ॥
करे निछावर मगर गवै । घर घर नगर बर बाज्ञ बधतै॥
राजा ब्राह्मण रीन लायी । सपने की सब बात नायी ॥
ब्राह्मण वचन
बराह्मण कहै उनो मदराजा 1 सुकर जनम सरि खव काजा॥
शुभ नक्ष वार धरि रीजे। तब देवर की थापना कीजै ॥
रोहिणी नक्ष वार बुध लीना । तब देव की नीव जो दीना ॥
जब देवल सम्प्रण भयऊ । तबही राजा जग संडयङ ॥
पुरातन वार्ता
मंथन उदधि विष्णु जव कुन्हा । निकसी वस्तु बांटि सो रीना ॥
ओर अता मे बाधि रैधाये। ताको बैर उदधि मन लाये ॥
उदधि विचार
तवका बेर अबहीं भै खेऊ । देवरु गाडि रेतमें दे ॥
| सत्य कबीर वचन
कगन खुहूरत पहुंचे आयी । तबही देवर गाडि के जायी ॥
छे बार देवर गाडयो भायी । तब इम इतो जगत के मादी॥
ूर्विर कोल सुरति धरि रीना । जाय आशन ससद पर कीना ॥
उदधि साजि दर् जबही आवा । तब दम डार समुद्र बतावा ॥
तब॒ हकार सथुद्र बतावा। महा कोष करि हम पे आवा॥
|
( ९४४) लसगदोध
तब करि कोष ससुद लरुकारा । महाफरकार समुद्र कटकारा ॥
तबही पृथ्वी फारि सो गय । धसी सखद पता गय ॥
तब्दी खबर _ लक्ष्मी पाई । बैठा साधु सुद के ई ॥
तब रक्ष्मो आपे चङि आयी । तब इम शोभा कम बनायी ॥
लक्ष्मी कीन दण्डवत आयी । पैसाई समुद पताख पटी ॥
लक्ष्मी कवचन
तब लक्ष्मी संतन सो के । महाप्रसाद त॒म जगको रेड ॥
संत च्चन
संत कंडे सुनु लक्ष्मी आई । नेवता देह कबीरहि जाई ॥
सत्यक बीर वचन
तबहीं रक्ष्मी इम पे आयी । आईइके कटै इमहि गोहरायी ॥
तबहीं संत कर सुनु माई । वटे कवीरा प्ररे उई ॥
तब लक्ष्मी ध्यान पुरूषका कीना। करमी सभा मेरि सब दीना ॥
लक्ष्मी वचन
तब दमसों बात जनायी । तुम फरो प्रवाद जगतके मायी॥
सत्यकबीर वचन
तब् इम कहा बात समुञञायी । इम तो प्रसाद पुरूषको पायी ॥
लक्ष्मी कै तुम कौन हौ भाई । तुम कैसे गम पुरूष को पाई ॥
. सत्यकबोर वचन
कंदे कबीर सुनु रक्ष्मी आई । हम तो सेवं पुङ्ष को पाई ॥
जिन सादिव तुमको कीन्हा । सादिव पति तुम तनको दीन्हा॥
तुम तो गरबथुलानी सोई । ताते. काज सिद्ध नदि होई ॥
श्याम देद् कीना तुम सोई ॥ तब ते तुमरी शुक्ति न होई ॥
तब लक्ष्मी कहे समज्ञायी । तुम कहो सो हम मानें भाई॥
बोधसागर (१४५)
सत्यकनीर वचन
बावन अटकाजगत्राथ चटाओ चार अका समरथ अपा ॥
तब दम न्योते तुमरे अवे । जब तुम सेवो पुरषके पावें ॥
खनत लक्ष्मी ठङ्ुरपहं आयी । जो छ खनी कहि समञ्चायी ॥
लक्ष्मी कचन
भक्त करवीर नाम जो आदीं सोतो बैठे सञुद्र की ठहीं॥
जब उन डांर सुद्र बताया । तवहीं सशर पाता समाया ॥
तब हम न्योत कवीरहि दीना । तब कबीर इमसों छट कीना ॥
करमी सभा बनाय सो टीन्हा । तब इम ध्यान पुर्षका कीन्हा
मिरिगयी सभा कबीर यकरहेऊ। तब कबीर देसे पनि कडेड ॥
जिन साहबने तुमको कीन्हा । काहे विक्षार त॒म उनको दीन्हा
तुम तो गवं थलने सोह । ताते काय्यं साधन नहि डोई ॥
छप्पन अटका जगत्राथ लगाये । सत समरथ को धरे विक्षराय ॥
कदा कड् प्रसाद तुम्हारा । हमको समर्थं देवन हारा ॥
हम बिन्ती सतश् सों कीन्हा । तब सतशुङ् सिखावन दीन्हा ॥
बावन अरका जगत्राथ चाओ । चार अटका समरथकोअरषाओ॥
तब हम न्योते तुम्हरे आवें । हम तो अंश पर्ष के भवं ॥
उनकी गति मति लखी न जाई । तुम बिश्ण होय सषि बनायी ॥
हम सतु होय जिव सुक्तावें । दम ती सवे पुरूष के पवें ॥
त॒म शण का राज कराई । तब बोरे गाविन्दे राई ॥
श्रीकृष्ण वचन
ज्योति अंश से हम उत्पानी । ब्रह्मा विष्णु महेश्वर जानी ॥
ल् बचन
तब लक्ष्मी करै ससुञ्ञायी । वह तो ज्योति इमारी आई ॥
तुमको तो हम उत्पन कीन्हा । चारिस्वरूप मर्ह रचि दीन्हा ॥
भरिशुण स्वरूप जो सृष्टि बनायी । चौथे अंश ज्योति थपायी ॥
(१४६) लक्मणलोध
सत्यरूबोर-वचन
तब उाङ्र मन चक्रित भय । सनत तब गरव गछि गयङ ॥
तब गोविन्द आपु चि आये । तब कबीर उरि मिरे जो धाये ॥
रक्ष्मी गोविन्द् कलीर ५ । तब् गोविन्द् एक बात सुनाये ॥
हम तो गतिमति तुमरी न पाईं । हमको लक्ष्मी अब समञ्ञाई ॥
साखी-जो त॒म अंशपुर्ष के, सतगुङ् हौ तुम सोउ।
देवल गाडे रेत मे, ताहि वन्दन करि खेड ॥
चोपाई
जबर्दि उदधिपल सजिके आया । तबदिं कबीर वुकार जनाया ॥
धसि समुद्र॒ पतारे भयऊ । देखत गोविन्द चकित भय ॥
तब विन्ती सतशुर् सो कीन्हा । दोयकर जोरि लक्ष्मी आधीना॥
चलो कबीर यज्ञम षगधारो । तुमते शोभा रदी हमायो ॥
सरयकबोर-दचन
छप्पन भोग चटाओ जाई । सत्य समरथको भोग कगाहईं ॥
तब तुम हमको देखो जाओ । अरघ प्रसाद् रखा जब पाओ ॥
तब गोविन्द् स्थान उटि आये । जाई उपदेश राजहि सुनाये ॥
` छप्पन भोग चठाओ जायी । सत्य समरथ को भोग क्गायी॥
राजा पडा कहै बुञ्ञाई। छषन भोग चढावहु जाह ॥
सो समरथ को भोग टगायी । तब तुम पावो प्रसाद अघायी॥
~ आध प्रसाद् ऋषी जब पाई । तब तुम हमको दिखाओ भाई॥
दारि सखुद्र तब ब्राह्मण भयऊ । दाथ जोरिके ठाढे रहङ ॥
समुद्र॒ वचन
कौन हौ भाइ कदति आये । वस्ती छोडि यहां कस बैठये ॥
यहां तो हर ससुद्रकि आई । आओ यज्ञम भोजन पाई ॥
बोधलागर ( १४७ }
छत्यकवीर श्चन
तबहि कबीर कहै सथुञ्ायी । तुम सुद क वरण छिपायी॥
खमुत्र कच्चन
तब समुद्र॒ अस वचन शनाईं । का है नाम तुम्हारो भाई ॥
संत्थकविर वचन
हम तो अंश पुरूष सरदारा । भक्त कतीर है नाम इमारा ॥
सनुव्र॒ क्वन्
तब समुद्र बोरे एेसी बानी । इयतो हार तुमहिं से मानी ॥
हमरो मंथन जब् इन काया । बड़ढख तब इन हमको दीया ॥
ओर तामे पेज बधाई । तवका वैर इसको साङे भाई ॥
त॒म तो हो सतगुरु होड सहाई । तवमते हमार कंच न॒ वसाई ॥
सत्यकबोर कच्चन
तब समुद्र को हम समञ्चायी । निधंनको चोर कडा ठे जायी ॥
सब जग साख तुम्हारी देहं । तुम दाता हम भिक्षुकं होई ॥
इतनी दया तुम हमपर कीजो । बोटी करी कथा नि रीजो ॥
इनको टहल शीश जो दीना । तापर दष दगा जो कीना ॥
जिया हरण इनकी जो भयऊ । जब इनं बनहि बसेरा छियंङ ॥
राम लक्ष्मण हनुमान मिलायी । तब तिन मति असकीन बनायी॥
सागर बाधनका मता जो कीना । मच्छङ्प तुमही धरि टीना ॥
तब तुम ला उनके ठगिरहेऊ । करि विश्वास बहते दख सदेउ॥
यह अपने मन गरब अुखाना । हमरे नाम सो शिखा तराना ॥
राम नाम जब अक चटावा। धरे पैर जब रीन वावा ॥
खत राम तब चक्रित भयऊ । तबही शीश धूनि कर रहे ऊ ॥
अतिदी शोच करे बर वीरा । शीश रावे सागर तीरा ॥
जले जंतु देख्यो बड भारी । यह तो -ज्ुटी पेज इमारी ॥
( ९४८ ) लक्ष्मणबोध
तेहि अति इःखित जब दम देखा। तब हम पृथ्वी ओर अबवरेखा ॥
चहु फेर बना केचन का कोरा । ता बिच बेडा रावन खोटा ॥
रल्पण इन्द्रजीत कदावें । हम चेतावन ताको जावे ॥
प्रथमे इम रावण गट गय । तब हम तपसी वेष धरय ॥
जब इम रावन सों बात जनाई । वह काटे खडग हम प्र भाई॥
तब इम आडा तण जो दीना । चाव अटारह तरण पर कोना ॥
कृटे न तरण खिसियाना मय जाय घाव खम्भप्र किय ॥
कटि गया खम्भ भयादो भागा। सो मदोदरि दषिहि लागा ॥
त॒णके ओर सो सृषटिका करता। जग देखत ही भूरे समता ॥
कहै मदोदरि गदि ता पाई। गरब न छडे रावन राई ॥
तब इम चङे ताहि वन गय । खक्ष्मण राम दोऊ जह रहेऊ ॥
देख लक्ष्मण धायके आया । आवतदी अस वचन सुनाया ॥
लक्ष्पण बचन
कदे लक्ष्मण सुनो ऋषिराईं । पिता इङ्म मेये नहि जाई ॥
भरत दे राज राम बन अय । तापर इष दगा जो किय ॥
सीता हरी रावन तेहि गॐ । यै तो शरण तुम्हारे आऊँ ॥
सत्यकबीर वचन
लक्ष्मण देखि भयी मोहि दाया । अर्चित नाम हम ताहि सनाया॥
अचित नाम का किया विवेका । गिरिर लिखी सत्यकी रेखा ॥
काष्ठ समान सो गिरिवर तारी । उतरी सेना सकर भयि पारी ॥
तवबदही राम लक्ष्मण फरमावा । दमको अुन्दरी आनि चटावा॥
मूर्नोद वचन
तब कं युनीन्द्र सुनो रघुराई । सुन्दरी धरो कमण्डलमाई ॥
तबहि रामजी आप सिघाये । अन्दर डारि ऋषी पे आये ॥
तब सनीन्द्र यद बात सुनाई । खाओ द्रिका दिखाओ भाई॥
देखि कमण्डक चकत भये भाई । सोचे राम अपने मनमाई ॥
बोधसागर ( १४९ )
रामचन्द्र वचन
अकथं कथा कदी नहिं जायी । को छषिराय वात समञ्चायी॥
तम तो धोखा बहुत उपजाये । देसी दरी कहां तम पाये ॥
सोह बात कटो समञ्चायी । जाते संशय जीका जायी ॥
मुनीन्द्र वचन
भुनीन्द्र बोरे राम चित धरिया । एति बार तमश्चष्ि ओतरिया॥
जिते आकाश में तारा व्य उते कंका मे रावण भय ॥
साखी-नगर अयोध्या राम तुम, भये अनेक वार ।
अपनी आदि भुलाइया, त॒म कैसे करतार ॥
रामचन्द्र वचन-चौपाई
रामचन्द्र कहे सुनो ऋषिराई । तुमरी गति मति कंडी न जा
अजह शिखापन हमको दीजे । जाते काज सिद्धि करि खीजै ॥
काष्ठ समान मिरपवत भारी । सेना उतरि सकल भह पारी ॥
सत्यक्बीर बचन
पुरूषोत्तम परतीति बेठयी । ताते काज सिद्धि तब पायी ॥
जाउ सुद्र त॒म अपने गई । यहि गुनाह मोहि बखशो भाई।॥
तुम दाता हम भिश्चुकं तुम्हारे । तुमरी साख बडी संसारे ॥
तुम छीलर न होड बक्शो भाई । हम तो जाते यज्ञके माही ॥
अब तुम जाह अपने गाई । कञ्चन द्वारिका लेह बुंडाई ॥
जगत्राथ कीं महिमा होने दीजे । कथन द्वारिका जल्मे की ॥
मानि वचन गयो अपने ठाई । या विधि दीन समुद दलाई ॥
इतना कहि हम गङ्कर पर गयञ। लक्ष्मी र राम भिथुवन रहेड॥
छप्पन भोग॒चटे है द्वारा। खगा भोग गरही टरा ॥
परोसे पण्डा बडी पकौरी। दाङ भात ओर खीर सुगौरी॥
बहु अचार गिनो नरि जायी । छप्पन भोग ॒प्रोसे आयी ॥
( ९५० ) लक्ष्मणनोध
रषी सुनी सब गरब अुलाये 1 तब हम एक करा दिखलखाये ॥
इषि सुनी प्रसाद जब करहीं । जित तित पण्डा षरसत फिरदीं॥
जरौ तहौँ दम ठट रहाये । आदर भाव कष नरि पाये ॥
जब पण्डा कोइ देखे मोही । तबदीं वचन कहै अस सोई ॥
ऋषि सुनि जब प्रसाद करिखेई । ता पीछे तुमदी धरि देई ॥
तब दमरी अस चरित दिखावा कबीर दौ गयो डवि डवा ॥
पुरूष प्रताप अजर शरीरा । दोय अन्तर बिच बेड कबीरा॥
जित देखें तित दास कवी । मागे ऋषिं सथर के तीरा ॥
भागे षण्डा दूर से भाई) किय अस्नान समुद्रे जाई ॥
जाय अस्नान समुद्रम कीना । काय देखि तब भये मलीना ॥
गलित कोढ सबहिन को भयऊ ।जायफिरियाद रायसो कियञ॥
वहां तो देखा एकं शरीरा । यदौ तो देखा सकल कृबीरा।
एेसा जाद् चेटक कीना । सबका ध्म अष्ठ करि दीना ॥
तब राजा छडीदार पठायो । दास कबीर को बेगि बुायो॥
करि सलाम छडीदार सिधाये । कबीर मिले द्वार के माये ॥
आये कबीर राजाके ताईं । तब राजा उठि टेके पाई ॥
राजा बचन
तबही राजा विन्ती कीना । हम तो सेवकं सदा अधीना ॥
करहु दया दरद् दै देही! ब्राह्मण दुःख पावत दै तेदी॥
म॒नीन्द्र वचन
बडा अपराध उन ब्राह्मण कीन्दा। अन्नदेवको दूषण दीन्हा ॥
अन्नदेव को रोष उपजी भाई । अत्रदेव मनावहु जाई ॥
ऊच नीच गनो मति कोईं। तब काया कंचन सी होई ॥
जगत्राथ अयोनि अवतारा । उनका है सब सत्य ग्यवहारा॥
अत्रका छत करे जनि कोई । करे तो निश्चय कोढी होई ॥
बोधलागर (१५१)
किनका किनका चुनि चुनि खायी। तवहं कोड इर होय जायी ॥
तवं सब ब्राह्मण सो नाक वसायी) सवका कोट तवै मिरि जायी ॥
जगघ्राथ का भाव तब भयऊ । राजा रानी मिहि सब गय ॥
जब राजा को दर्शन मय । जगत्राथ यकं बात जनय ॥
जगन्नाच् वर्चन
मल्यागिरि को काठ गाओ) ताकी मूरति वेमि बनाओ ॥
तब राजा जास पई । मख्या गिरिको खोज कराई ॥
देख जाश्रुस फिरि नगर ञ्चारया । आह शजाको कीन जहार ॥
जात्स वचन
अहो राजा चन्दन है यक ठाई । लगे चुजंग देखे बताई ॥
तब राजा यह बुधि उपजाई । सेना साथे छ्यी सिधाई ॥
जह चन्दनत काष्ठ जगकीना । ताके समक्ष अभि सो दीना ॥
भयी प्रचण्ड अग्मि तेहि उही । जरे सपं तब अगिन के साहीं॥
काष्ठ चन्दन जबहीं के आये । तब कारीगर तुरत खाये ॥
राजा वचन
बोद्ध ओतारकी सूति गदि देहू । हमसे गाम परगना र्हू ॥
कारीगर वचन |
तब कारीगर बात जनावे। राजा खनो बने नहिं आवे ॥
देखी मूरति सब कोई गढई । अनदेखा काम कैसे बनई ॥
देवर काज हम चूक पराई । तो हम जरामूर से जाई ॥
१ पुरानी प्रतिमे इस चौपार्हके आगे नोचे लिखे वचन नहीं हे, किन्तु नवोन भरतियो मे है । किन्तु ण्ह
नवीन प्रतिका वचन कबीर पंथके दोहा ग्रन्थों भो नहीं मिलता 1
“ज॑गल्नाय योनि विन अवतारा । उनका है यह् सत्य व्यवहारा ॥।
उनको भक्ति करं जो कोई! ताको काया काढ न होई ॥
साखो-जगस्नाथ भात ते हैतकरी जो पाय । जो उनकी निदा करं, निश्चय नरक को जाय ।।"
( ९५२ ) लक्मणबोध
सत्यकखीर वचन
एेसी कटि अपने घर वह गय । तब राजा मनम सोचत भयञ॥
जगन्नाथ की जो सूति बनाई । गाम परगना तेहि देडँ लिखाई॥
तब ल्मी हमसे विन्ती कीना । यहि शोभा तुमदही भल दीना ॥
देखी मूरति तब कोड गडि देई । अनदेखे सो कैसे करई ॥
जो तुम हमसे टहरु करा । यही काम करो त॒म जाओ ॥
हम प्र भार जो सृष्टिका दीना ¦ करो यह काम हो ना भीना ॥
हमको टदरु सृष्टिका देह । इतना कारज अषने शिर ठेह्॥
लक््मी विन्ती रएेसी खायी । नातो विरद तुम्हारी जायी ॥
तब हम भेष सतारका लीन्हा । बरस सौकी आयुर्द कीन्हा ॥
आये परि मै ठाद रहाये । षवरिया राजक वचन सुनाये॥
राजा मे तोहि देडं बधाई । कारीगर आया पौरके माई ॥
काँधे बसुला बोले लो लीना । हारे गर्दन बोरे शचीनां ॥
राजा मनमे भये अनन्दा । जैसे चकोर पायो निशि चंदा॥
राज प्रधान परीमे आयी । कारीगरसे अख कहे अर्थायी ॥
जगत्राथको मूरति बनाओ। तौ तुम भाम परगना पाञ॥
देवरूमाहिं मूतं धरि दीजे। जो चाहो सो हमसे लीजे ॥
| क!रीगर वचन
हम तो यर् सुखा आँ भाई । लोभ रखालच निं हमरे आई॥
देवर्काज सिद्ध करि देहो । खाल्च चित म नदीं करदं ॥
सत्यकबीर वचन |
इतना सुनि राजापहं गय । राजा सुनि मन ह्षित भयऊ ॥
तबदी राजा महलमों जायी । रानीसों सब बात जनायी ॥
तब सुक्ताहरुसो थार भरायी । कारीगरको लीन बुरायी ॥
1111114
कारीगर
राजा कहा हमारा कीजे । सोह दिनिकीं अवधी दीजे ॥
हमको साज मूरति का देओ । देवको द्वार भंदि कर रेओ ॥
जबही साज देवल ङे जाऊ । तबहीं द्वार भूदि डो भा ॥
तबदी क्यो भ्रंदि पोरिहि दीजे । सब कोड गमन यहसि कीजे ॥
सोलह दिनम द्वार खुले हो तौ क्च विन्न नहीं तुम वै ॥
दद कपाट तब तारा दीना । चहं दिशि पण्ड चौकी कीना॥
दिनि दंश सो बीति जब गयञ । । चत फिरत गोरख तब अयॐ॥
गृारद्ल वचन
गोरख कटे दर्शन मोहि दीजे । नहि तो शाप इमारो छीजे ॥
सत्यक बीर वचन
तब पण्डा राजा पहं जायी । राजा से सबं बात नायी ॥
राजा षण्डा सों कहे बुञ्जाईं। कौन शाप गोरखकेर उठाई ॥
तब पंडा गोरख पे आये । हाथ जोरिकै विन्ती छाये ॥
दिनछः हम तुमसों मोग भाई । ता पाछे इम दरश कराई ॥
गोरख वचन
साखी-मै गोरख प्रसिद्ध दह हमरे आड जनि होहु ।
मोको द्रश करावहू, के शाप इमरो छे ॥
चोपाडं
तब राजा गोरख परशु पडिया । बह विन्ती भावसों उच्रिया ॥
जब गोरख नरं मने राई । तब राजा अस कल्यो बुञ्चायी ॥
` १ इस चौपाई दशदिनके पश्चात् गोरखका आना बतलाया है किन्तु नवोन प्रतियों मे सात हौ दिन
लिखा है)
“दिना सात बीते पुनि जाई ! फएिरत फिर गोरख पुनि आई 11”
नवीन प्रतियोमे सब एसे हौ बेतुको वाणोका एसा गडबड हुआ है कि सब यहां पर लिखना अस-
म्मव टै ।
( १५४ ) लक्ष्मणनोध
तब राजा कदे सुन गोरख आयी । एेसा तुम करिहो तैसा षायी ॥
नरि साना गोरख द्वार उचारा । तब सतश॒ङ् एकं कला प्र चारा॥
भागा गोरख दूर ते भाई । सतश् शरण सो बेडा जाई ॥
जगन्नाथ कंडे सुच गोरख आई । योगी हमरो दरश न पाई ॥
यदि ओशुन गोरख से भयऊ ताते योगी दरश न षय ॥
जगत्राथ राजा सो केदेऊ । अवधिषूर नहीं सो भयऊ ॥
ताते हाथ टूठ रहि जायी । दिन सोलह वीते नदिं पायी ॥
देह सम्पूरण होन न पायी । ञ्जगङ्ः पण्ड को समज्ञायी ॥
ञ्जगरू पण्डा शिष्य भयो आयी । केतिक दिन से बिति जायी ॥
तब जगत्राथ सो भेंट करायी । जगन्नाथ कह खनो जी आयी ॥
तुम्हरी दमरी भली बनि आयी । तब इम तेहि कहा सबुञ्ायी ॥
कहै कवीर सुनो अिभुवन राई । सिल द्वीप इम देखन जाई ॥
साखी-सिघल द्विष दम जावदीं, जगत्राथ चित लाड ।
समुन्द्रका भय मेटिके, अटक राज कराड ॥
इति श्रीबोधसागरे कबौरध्मदाससम्बादे जगन्नाय-
स्थापनवणनो नाम सप्तमस्तरगः
इवि ग्रन्थ लक्ष्मणबोध
सक्ष र
ग्रन्थपर साधारण वृष्टि .
यद्यपि इस मन्थमें रक्ष्मणजीको भी बोध करनेकी प्रसंगसे
थोडी चच आगयी है किन्तु प्रधानतः इस अन्थमे वर्णन
जगत्राथजी की स्थापनाका है । इष जगत्राथकी स्थापनाके
विषयमे भी अनेक म्रन्थोमिं बहत मत भेद है इस कारण ओर-
ओर अन्थोका भी इस विषयमे वणेन थोडासा छ्खि देता हं ।
बोधसागर ( १५५ )
जब श्रीकृष्णजीका स्वधाम गमन इआ तब ॒वौद्धावतार
आ । ओर जब जगत्राथजीका अवतार इआ उस समय उडीसा
देशका राजा इन्द्रदमन था । उस राजा इन्द्रदमनको कृष्णजीने
स्वप्न दिलाया कित मेरा मन्दिर उठा । जगत्राथजीकी
आज्ञानुसार राजा मन्द्र बनाने खगा, जब मन्द्र तैयार
होगया तब सुद्र आया ओर मन्दिरिको उहाकर केगया ओर
भूमि बराबर कर गया । इसके उपरान्त फिर राजाने मनर्द्रि
बनवाना आरभ किया फिर उसकी वदी दशा इह । फिर बन-
वाया फिर वही दशा होगयी । इस प्रकार कईं बेर राजाने मन्दिर
बनवानेकी इच्छा की पर समुद्रने उसको तैयार होने नहीं दिया
तब राजाने दःखी होकर उस इमारत का बनवाना दी जोड
दिया इस समय कबीर साइबने अपने वचनकां स्यरण किया
जेसा कि निरंजनगोष्ठि आदि अन्थोमें लिखि है कि, निरंजननै
कृवीर साहबसे निवेदन क्ियाथा किं जब मेरा जगन्नराथका
अवतार होगा तब सथुदर मेरे मदिरको तोडगा, उस समय आष
कृषा करके समुद्रको ददा देवें ओर मेरे मदिरको स्थापित करा देवे
तब आप वचनवबद्ध हए थे कि, मै तुम्हारा मदिर स्थापित कर
दगा ओर सभुद्रको इटा दगा । उसी वचनके अनुसार कबीर साहब
उडीसा देशमें आन उतरे ओर राजा इन्द्रदमनके पासं जाकर
बोरे, कि हे राजा! तुम जगत्राथके मदिरको बनाओ तब राजाने
निवेदन किया कि, महाराज समुद्र मंदिरको बनाने नहीं देता मेया
कुछ वश नदीं चलता, जब य बनाता हं तब वह आकर दहा
जाता रैम क्या कैः! कबीर साहवने कहा कि राजा ! भँ
इसी प्रयोजनसे आया हं अब प्रसत्नतापूर्वंकं टाङ्करद्वारा बनवाओ
( ९५६ ) लक्ष्मणबोध
मे ससुद्रको इटा दगा अब उसका कुक वश नदीं चलेगा. तब
राजाने पुनः सदिरको बनवाना आरम्भ किया ओर मदिर बनने
रगा, कबौर साहब समुद्र तरपर गये ओर एक़ चब्रूतरा बनाकर
उखप्र ससुद्रकी ओर मुह करके बेठ गये । उधर ठाकुरका मदिर
बनकर तेयार रोनेके समीप आगया ओर सुद्र ने देखा कि
अब तो टाङ्करका मंदिर बन गया तब बडे वेगसे दौड़ा ओर
कहर आकाशको उटीं । जब लद्रे सारता कबीरके चौराके
समीप पहुंचा तब सामने कबीर सादबको बे देखा देखते
ही समुद्र ठहर गया ओर आगेको चरण बढा नदीं सका ओर
ब्राह्मणका स्वहूप धरकर कबीर साहिवबके षास आया ओर
दण्डवत प्रणाम करके निवेदन किया कि, हे महाराज ! मतो
जगत्राथके धोखेसे आया ओर मंदिर ठहाना चादा अबतो
सामने आप बैठे है अव मुञ्चे यह सामर्थ्यं नहींडै कि आगेको
चरण बटा सक, आप न्यायकतां हँ मेरा बदला दिखाओ । तब
कबीर सादिवने कहा कि हे समुद्र ! यें तुम्हारा बदा जानता हँ
पर अब् इस कलिकाल्मे जगत्राथजीका माहात्म्य होगा तथा
उनकी पूजा होवेगी इस कारण अब तुम ठकुरका मंदिर उठने दो
ओर किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित मत करो, मे तुमको इस ॥
मंदिशके बदले द्वारकापुर देता हूं तुम जाकर उसको इबा लो ।
तब समुद्र प्रसन्नतापूवक वदांसे पीछे पट्टा ओौर द्वारकापुरीको
इवा छिया ओर उधर जगन्नाथजीका मंदिर बनकर पुरा दोचुका.
समुद्रके दरिमंदिर तोडनेका कारण यह था कि जब रामचन्द्रका
` अवतार इआ था उस समय श्रीरामचन्द्रजीने सभुदरपर बराः
त्कार किया था ओर सेतुबन्धपुल बांधकर पार उतरे थे किन्तु ससद
बोधसागर ( १५७ )
राम अवतारमरे ओर कष्णावतारमं भी बदला छे नदीं सका
प्र जगत्राथके ओतारम अपना बदला लेने के निमित्त ऊउदत
हआ ओर उसके बदरे द्रारकापुरीको इवा द्या । इससे यह
सिद्ध होता रै कि कियेका बदला अवश्य भोगना षृडता है। इस
प्रकार जब गङ्करका मन्दिर बनकर भरी भांति प्रस्त॒त होगया
तब कृष्णजीने अपने पण्डाको स्वप्न दिखलखाया कि हे षण्डे |
कबीर सादिबने मेरा मन्दिर स्थापित कर दिया अब तुम छग
आकर मेरी पूजा करो । जब जगन्नाथजीने देता स्वप्न दिलाया
तब पण्डा घरसे चलकर परे सुद्र तटपर आया ओौर कबीर चौरे
पर गय। वहां कबीर सादहबको बेटे देखा } उस समय सत्य शङ्का
वेष् जिन्दा साध्रुका था ओर वैष्णववेष नहीं था। इस कारण वहवैषं
देखकर उस ब्राह्मणने अपने मनमें अनुमान किया कि ब्रथम वैन
अद्युभ दशन किया गङ्करका दर्शन नदीं किया, देसा अनमान
करके वह पण्डा ठङ्करके मन्द्रमं पचा, तब कबीर साहिने
उसके मनकी समस्त बातें जान रीं ओर एेसा कौतक दिखराया
की जब वह पण्डा गाङ्करके मंडपमें आया तब उसको विचित्र
कौतुक दिखलाई दिया कि गङ्करका समस्त म।न्दर कवीर साहिष्-
की सूतियोंसे भरा इआ है। जिस ओरको वह बराह्मणदेखता है उधर
वह् कवीर साहबकी भूतिको उपस्थित पाता ह ओर गङकरकी
भूति कदी दिखाई नदीं देती, तब वह बाह्मण अक्षत ओर पुष्प
लिये चकित होकर खडा रह गया कि भँ किसकी पूजा कर ।
गङ्कर तो कदी दिखलाई नदीं देते। समस्त मन्दिर कबीर सादिब-
की मूतिसे भरा इआ है । तब वह अपने मनम सोचने खगा
( ९५८ ) लक्ष्मण बोध
कि इसका क्या कारण रै ओर फिरसे भोजनके समयमे भी
कसीर साहबने सवे दशन दिया जेसा इस न्थ क्ष्मणबोध्ें
वणेन है \ अन्तम उसने अपने दोषको जान ख्या कि्नेजो
कलीर साहब को स्रेछ समञ्ञा था इस कारण दी घुञ्चको यहं
देड पिला है, ओर शुञ्चको यह कौतुकं दिखराया । यह शोच
समञ्चकर वहं बाह्मण कबीर साहबकी स्तुति ओर दोषके निमित्त
क्षमा प्राथना करने रगा । जब इस पण्डाने सत्यगुक्की बहुत
प्राना ओर स्तुति की ओर अत्यन्त नश्रतापूषैकं अपने दोषोके
निमित्त क्षमा भराथना की तब आप दयालु इए ओौर अपनी
सब मूतियोको समेट छिया केवर एक सूति रह गई ओर ठाङ्कर-
की सूति दिखाई देने र्गी । तब कबीर साहबने उस ब्राह्मणसे
कडा कौ हे पण्डा! अब तुम उङ्करको पूजो पर इस बातका ध्यान
रखना कि आजके दिनसे इष जगन्राथपुरीमे छत न रहेगी ओर
जाति पोतिका ध्यान तनिक भीन रहेगा । प्रत्येकं जाति एकं
दूसरे जातिके साथ निधडक भोजन करेगी । अबलो पुरूषोत्तय-
पुरीमे वही नियम प्रचलित है। सब जातिके रोग एकदी स्थानषर
भोजन करते है कोई किसीके जूटेका ङक भी ध्यान नदीं करता ।
इस अन्थकी भी कड प्रतियां मेरे पास उपस्थित है, को
भ्रति भी किसीके साथ मिरृती नदीं है । सब प्रतियोमे प्रसंगका
तो एेसा उलट पुट है कि, कदं किसीका पता नदीं मिर्ता
ओर कविताकी तो यह दशा दै कि चौपाईके किसी चरणे
२२ मात्रा है ओर किसीमे १४ । ओर छलिखायी की जो बात
है उसको कदनेकी आवश्यकता दी नदीं दै, इस कारणसे यह
ब।धघसागर ६ ६५९
पुस्तक सबसे पुरानी प्रति जो १८९३० संवत् की लिली इं
है उसके अनुसार रखा दै । हौ, नवीन प्रतियोमे से भी प्रसं
गानुसार जो उपयुक्त जान पडा है वह भी इसमे रक्खा ह
किन्तु सो बहुत कम |
इतिलक्मणबोधः सम्युणंः
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भारतपथिक कबीरपथी-
स्वामी श्रीुगंखनन्दजीद्वारा संशोधित
ग्री-मुहम्मदबोध
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काफिरबोध
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मुद्रक एकं प्रक्ाशक्कः
ष्नोमहाज श्रीकृष्णदास,
अध्यक्ष : भ्रीवेकटेश्वर प्रेस,
रवेमराजः ध मार्ग, सुब - ४००. ००४.
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अथ श्रीबोधस्रागरे
परहम्मदवोधं
--वचन
साखी-घर्मदास विनती करे, कृपा करहुं शरदेव ॥
नबी महम्मद जस भये, सो सब किये भेव
सत्यकबीर वचन--चोषाई
धर्मदास ` प्रयो भट बानी । सो सब कथा कहूं सहिदानी ॥
जेहि ओसुर मुहम्मद ओतारा । धरम आपनो जगत षसारा ॥
मारि काटि निज धमं चलायो । जाते जीव बहत दुख पायो ॥
परम पुरूष दिर दाया आयी । युक्ता मणि कं क्यो बुञ्चायी॥
स॒क्तामणि संसार सिधाओ । कार कष्टते जीव बचाओ ॥
विगसी कमल उदी असबानी । युक्तामनि सुनिओ तम ज्ञानी ॥
भवमे जाओ जीवके काजा । जीवन कष्ठ देत यमराजा ॥
मुक्तामणि चरे शीस नवायी । तेदी क्षण भव प्रकटे आयी ॥
साखी-दोसौ युग कलि युग गयो, तब आयो संसार ॥ `
बहुतक जीव चिता, कोह कोह हंस हमार ॥
पा
देसे बहुत दिनि गयो सिरायी । सिषल द्वीप प्हृच्यो जायी ॥
तब वह मिले सहम्मद पीरा । जिन सव इकुम कोन तागीरा॥
(६) मुहम्मदबोध
तरौ जाय इम कीन सामा । सात रहे अरमस्त इटामा ॥
नजर दिदार जो कीन हमारी । मत्त गयन्द केरे असवारी ॥
कड भाई तुम कर भरमाये । कदां ते आये करां को जाये ॥
नादकं को नदिं साहब राजी । पदि कुरान पृ्छो तुम काजी ॥
इए हैरान नजर नरि आये । किया नसीदत अल्ला फरमाये॥
मुहम्मद वचन
साखी- कां ते आये पीर तुम, क्यों कर किया पयान ॥
कोन शक्सका हुक्म है, किसका है फरमान ॥
रमेनी
पीर सुदम्मद् सखुन जो खोला । अल्ला हमसे प्रदे बोखा ॥
हम अहदी अर्ला फरमाना । वतन छांहूत मोर अस्थाना ॥
उन भेजे षूद बारह दजारा । उम्मतके हम है सरदारा ॥
तिस कारण जो हम चछि आये सोवत थे सब जीव जगाये ॥
जीव स्वाबमे परो थुलाये । तिस कारन फरमान ठे आये ॥
तुम ब्रूञ्ञो सो कौन हो माई । अपनो ईस्म कटो सखुञ्चाई ॥
साखी-दूरकी बाते जो करौ, करते रोजा नभाज ॥
सो पहुचे लाहूतको, खोवे कुरुकी लाज ॥
कबीर वचन
कंदे कवीर सुनो हो पीरा। तुम राहत करो तागीरा ॥
त॒म भृलेसो मरम न पाया । दे फरमान तुम्दे भरमाया ॥
फिर फिर आव फिर फिर जाई । बद् अमली किसने फरमाई ॥
लाहूत मुकाम बीचको भाई । बिन तहकीकं असरु ठहराई ॥
तुम से उनके बहूतेरे । टै फरमान जाव तुम डरे॥
१ नाम । २ इसका वणन ग्रन्थ सारमं देखो 1 ३ स्थान ४ जांच ।
नोधक्ागर (७)
ज्ञाखी-खोजत खोजत वखोजिर्यो, इवा सो गना भून ॥
खोजत खोजत ना मिखा, तब हार कडा बेचन ॥
वेरचून जग रचिया, साह नूर निनार ॥
आखिर केरे वक्तर्मे, किसकी करो ददार ॥
रमेनी
त॒म लात रचे हो भाई । अगम गम्य तुम कैसे पाईं ॥
यह तो एकं आदि विसरामा । आगे वोच आदि निज धामा॥
तहते हम फर्मो के आये । सब बदफेरुको अमल बिटाये॥
उन फरमान जो हमको दीना । तिनका नाम बेचन तम लीना ॥
साखौी-सादब का घर दुर है, जाञ्च असर करमान ॥
उनको कहो जो पीर तुम, सोह अमर अस्थान ॥
मुहस्मद वचन-रमेनी
कहै भ्ुहम्मद खनो कवीरा । त॒म कैतवे पायो अस्थीरा ॥
लाहूत मेरि जो अगम बतायो । खुद खुदाय हमहू नरि पायो ॥
हम जानें खुद अगे आदी । तुम इद्रत कर थापषो ताही ॥
दम तो अशं हाजिरी आयो । तुम तो इद्रतसे ठहराये ॥ `
तुम्हरे कहे भरम मोहि आयो । खुद खुदाय तुम दूर बतायो ॥
आप सुनाओ खुदकी बानी । आलम दुनियाँ कहो बखानी ॥
लाहूत काम हम निजकर जाना। सो तो तुम कुद्रत कर ठाना ॥
हरकी अख्की बासरी माई । तीन इक्म अदा फरमाई ॥
साखी-साईं सुरशिद पीर है, सोचा जिस फरमान ॥
हलकी युखकी बासरी, तीन इङ्कम कर मान ॥
कबीर वचन-रमनौी |
सनो स॒हम्मद कटं खुदवाणी । खुद खोदायकी कहूं निशानी ॥
कादिरि थे तब कृदरत नां । इदरत थी कादिरके माहीं ॥
( ८ ) मृहस्मदबोध
ख्वार सभीको चीन्रो भाई । असल रूहको देँ बताई ॥
अखर रूदकि दीदार जो पावे । पावे निज मुसरषान कदावे ॥
रो आवाज जहां परदा पोशौ । है वह् मद् कि है वह जोशी ॥
जब कग तर्त नजर नहिं आवे । दिर विश्वास कोन विधि पावे॥
जब खुद की खबर न पावे। तब खग कुद्रत अम ठदहरावे ॥
हारु माञ्चकं नजर जो अवि । एक निगाह दीदार जो पावे ॥
चार वेद अक्षर निरमाई। चार अश ताके सुत भाई ॥
एकञअश चोभाग जो कीना) ताते एक शष्ठ कर लीनां ॥
एकं अशते गुप्त चछिषाई । तीन अंश संसार षपठाई ॥
अशि अश मेद् नरि दीना । यह अचरज अक्षरने कीना ॥
जो तुम कडा दमारा मानो । तो इम तुमते निर्णय ठानो ॥
साखी-यदह प्रपञ बेचूनका, तुमते कडा न मेव ॥
आप सो रत होड बेडा,तुम चार करत हो सेव ॥
मुहम्मद वचन
कै सुदम्मद् सुन खुद अददी । इर्म लद्दुन्नी कड बुनियादी॥
जब नि पिण्ड ब्रह्माण्ड अस्थूखा। तब ना इतो सृषिको मूला ॥
तादनकी किय उपतानी । आदि अन्त ओर मध्य निशानी॥
साखी-ब॒जकूग हकीकत सब करो, किस विधि मया प्रकाश ॥
जब हम जाने आदिको, तो हमहू बोधे आश ॥
कबीर वयन
सुनो सुरम्मद सांचे पीरा । समरथ दुङुम खुद आदि कबीरा॥
अब इम कर सुनो चितलायी \ आदि अन्त सब कों बुञ्चायी ॥
प्रथने समरथ आदि अकेला । उनके संग इता न्ह चेखा ॥
साखी -वादिद थे तब आपे, सकर इतो तेहि मार ॥
ज्यो तङ्वरके बीजे, पुष्प पात फल छह ॥
बोधसागर (@९१)
चौपाई
आटो अंस भिदेव समेता । उतपति जगतकीन प्रभु एता ॥
तीनो दिन ञरोकको राजू । तिनवस्परि जिव भयेअकान् ॥
तिन पुनि एक जक्ति चित दीना! प्रथम ज्ञान चार जो कीना ॥
प्रथम क्षुद्रजो ज्ञान उपजाई । ध्यान अंशको तौन पटाई ॥
दूसर ज्ञान वाचा दै भाईं। राज अंशको तौन पठाई॥
तीसर ज्ञान जो अनुभव कीना धमं रायको ठेखा दीना ॥
चौथे ब्रह्मज्ञान उपजाई | मायं अंश सो ध्यान कमाई ॥
पंचवा ज्ञान सहज की डोरी । सब जीवनकी वदी छोरी ॥
जर्हौसे चारज्ञानजो आवा सोह कला निरंजन पावा ॥
निरंजन भये राज अधिकारी । तिनके चार अंश सेवकारी ॥
चार ज्ञानते चारो वेदा । तिनते चारे भये कतैवा ॥
मूल कुशन वेद् की वानी । सो रान तुम जगमे आनी ॥
हक रान जो तुमको दीना । हदहुक्म तुम आपन कीना ॥
चार कतेब के चारो अशा । तिनके कहो भिन्न सिन बेंशा॥
वेद पटावत बह्मा आये। छगवेद को नाभ क्खाये ॥
दूसर यजरवेदकी वानी । राजनीति सो कीन बखानी ॥
तीसर सामवेदकीो बानी । यज्ञ होम तिन कीन बखानी ॥
चौथ अथबषेन गुप्त छपाये । तौन हक्म तुम जगम आये ॥
एके मूल कुरानमे चारी। चार बीर तुमो सरदारी ॥
जब्बूर किताब दाउदने पाई । नाश्रुत मोकाम रहै ठहराई ॥
तौरेत कीताब सूसाने पाईं । मंलकूत मोकाम रहै ठउहराई ॥
इजी किताब इईसाने पाईं । जबरूत मोकाम रहे ठहराई ॥
फुरकानकिंताब नबी तुम पाईं । व्हूतमोकाम रहे लौलाई ॥
कुरान वेहहको मरम न पावे । बिनदेखे विश्वास क्या अवे ॥
( १०) मुहस्मदबोध
चार मोकाम किताब है चारी । पंचये नाम अधित सवारी ॥
तरहते आई रूह बारह इजारी । तहां अचित गप व्योदहारी ॥
खाखी-पीर ओखिया था किया, यह् सब उररे तीर ॥
समरथ का च॑र दूर है, तिनको खोजो पीर ॥
# सारफत
चौपाई
ओवलमोकाम नास्त ठेकाना । दुजा मोकाम मलकरूतजो जाना॥
सेडम मोकाम जबहत ठेकाना । चदहाकूममोकामखाहूतजोजाना॥
पचये मोकाम हाहूत अस्थाना । छे मोकाम सोह जो माना ॥
हफतुम मोकाम बानी अस्थाना। अर्घ्य मोकाम अक्र ठेकाना ॥
नवय सकाम आहूत निशानी । दसय मोकाम पुरूषरजधानी ॥
बतुकं
ओवर शरी अत् १। तरीकत् २। हकीकत् ३ । भारफत् ९ ।
मरोवत् ५ । ध्यान दोरहिअत् & । जरुफकार चन्द्र गेय ७।
इकुमसुरतद् ८ । देयना कासो यरी अत् ९। सचपावेसमरथकाय
१० । अकार ओंकार कर्मा नवी सचुपावे देखा हद् बेदद
मुहम्मद वचन
तुम कब्बीर भेद अधिकाये । खुद समरथकी खबरि जो ल्याये॥
अब् तुमको हम वञ्च अत्र । सो किये खुद अदी संतर ॥
को तुम आह केति आये । क्यों तुम अपनो बर्णं छिपाये॥
खात सुरति समरथ निरमाई । यह अस्थान रहो की जाई ॥
यती मारफत कट दुखेशा । इम मनि त॒मरो उपदेशा ॥
सात सुरति केहि माहि समाई । जिव बोधे सो कह चिजाई॥
समरथ गम तुमु सौँच कबीरा । समरथ मेदं कहो मति धीरा ॥
न
* इस विषय में लिखे हुये मूकामों का वणं न पुस्तकके अन्तमं देखो ।
बोधसागर (११)
साखी-मेरे शंका बादिया, थाके वेद कुरान ॥
वाहिद केसे पाहये, समरथको म्लान ॥
) सत्यकनीर कचन
सुनो भुदम्मद कदां बुञ्ाईं । जो खुद आदि अस्थान ह भाई ॥
जो जो हुकुम समरथ फरमाई । सो सो इङ्खम हम आनि चलाई ॥
सुर नर भुनिको टेरि नाये । तुमको बहुत बार स्चञ्चाये ॥
तुमपर मोह अक्षरने डारा । तेहि कारण आये संसारा ॥
सोलह असंख जग जवे सिराई । सोह असंख उतयति भिरि जाई
सात सुरति तब लोकि जाई । जिव बोधो तेहि माह समाई ॥
सात सन्य तजि ते अस्थाना । ते सब भिरे दोय वमसाना ॥
वेद् कतेवकि छोडो आशा । वेदकतेवं अक्षर परकाशा ॥
तीन बार तुम जगमें आये । फिर फिर अक्षरन भरमाये ॥
अक्षर चीन्हिके छोडो माहं । तीन अंश अक्षर निरमाई ॥
मह्यकि सृष्टि आपको कीना । जीव बृष्टि तीरथ बत दीना ॥
माया वृष्टि ईश्वरी जानो । सबमे आतम एकं समानो ॥
साखी-सखोजो खुद समरत्थको,. जिन किया सब फरमान ॥
पीर मुहम्मद तदं चरो, सोई अमर अस्थान ॥
| मुहम्मद वचन
पीर अहम्मद भुख तब मोरा । कषु नहि चले तुम्हारी जोरा ॥
अक्षर इक्मको मेटनहारा । चार वेद जिन कीन षसारा ॥
कबीर वचन
सुनिये सखुन अदम्मद् पीरा.। इम खुद अदी आदि कबीरा ॥
अक्षरको बिस्तारा । मेटो निरंजन सकर पसारा ॥
मेटो अचित्तकी रजधानी । मेटो बह्मा वेद निशानी ॥
चौदह जमको बांपि नचावों । मृत अधा मगहर रे आवो ॥
(९२) मुहम्मद बोध
चमेरायते अगर पसारा । निरंजन बांपि रसातल डारा ॥
वेद कतेबको अमर मिरवों । चर घर सार शब्द कैखावों ॥
समरथ इक्म चले सब मादी । व्याप सत्य असत्य उरिजिादी ॥
सुहस्पद बचन
पीर सुरम्मद बोरे वानी । अगम भेद काहू नहि जानी ॥
सुनाकान नरि आखिन देखा । बिन देखे को करे विवेखा ॥
जो नहि देखो अपने नैना । केसे मानो गक्को वैना॥
जो तुम खुद अदी ह्व आये । इक्म दजूर् फरमानरे आये ॥
जोन रादसे त॒म चिवो । सोई राह मोक बतलाबो ॥
सनको अस्थान चिन्हावो । समरथको मोदि खोक देखावो ॥
साखी-दसनको अस्थान खुखि, तब सानो परमान् ॥
जो समरथको हुक्म है, सो मेरे परवान् ॥
कबर वचन
सुनो मुहम्मद कों बुञ्ञाईं । साहेव तुमको दे बताई ॥
चले सेरुको दोनो पीरा । एकं मुहम्मद एक कवीरा ॥
मोकाम ९ †
भूमिते छत्तिस सहस ऊचाई । मानसरोवर तहां कहाई ॥
तहं नासूत आदि मोकामा । नबी कबीर पटच तेहि धामा ॥
तद॑ दाउद पयंबर दोईं । जब्बूर किताब पठे तद सोई ॥
तहँ सखामारेक सोई कीना । दस्तावोस उनट उठि रीना ॥
मोकाम
तदर्वौति पुनि कीन पयाना । चौविस सहस वेकुट प्रमाना ॥
तदवो प्च बेटे ऋषि बासा । देव॒ सबे बेटे तेहि पासा ॥
वह वैकुट विष्णु अस्थाना । मलक्ूत मोकाम मूसाको जाना
भसा पैगम्बर पटे किताबा । उसका नाम तौरेत किताब ॥
सलामारेक तौ दम कीना । दस्ताबोसं उन उटि रीना ॥
नोधसागर ( १३ )
मोकामं ३
वैकुण्ठ ते अमे खायो डोरी ¦ ्ुमेरते सन्य अटरह कोरी ॥
येतो अधर सन्य अस्थाना 1 जबडत मोकाम इसाको जाना॥
ईसा येगम्बर पटे कितावा । उसका नाम इजी किताबा ॥
सलामालेकं तहँ इम कीना } दस्ता बोस उनह उठि टीना ॥
तदवा वेटि विस्वेभर राई । वही पीर तो वही खुदाई ॥
उरते अधर सन्य है भाई । ताकीं शोभा कदी न जाई ॥
मोकाय ४
महाशून्यको रखगी डोरी । ग्यारह पारग ताँ ते सोरी ॥
लाहूत मोकाम कदावे सोई । जो देखे बहते सुख शो ॥
्रुस्तफा पेगवर बे तहा । फुरकान किताब पटत थे जहौ॥
सलामालेक तौ हम कीना । दस्ताबोसख उनह उठि रीना ॥
दखत हौ सरहम्मद अस्थाना । तुम बेचन कहो यही उकाना ॥
वारो फिरिश्े सरखामारेक कीना। तब इम आगेका पग दीना ॥
मोकाम ५
तहते चरे अरि त ठेकाना । एकं असख्य न्य प्रमान ॥
हात मोकामको वही ठेकाना । अगे रै सोहं बेधाना॥
मोकाम ६
तीन असंख्य शून्य परमानी । बाहूत मोकाम सो कहो बखानी॥
नवी कबीर चरे तेहि आगे । मूल सुरति बेड अन्खरामे॥
मोकाम ७
पांच असंख सुत्र विचआदी । सात मोकाम कहत है ताही ॥
मोकाम ८
इच्छा सुरतिके पहचे द्वीपा । चार असंख है लोक समीपा ॥
ताको नाम राहूत मोकामा । नबी कबीर पहुचे तेहि गमा ॥
( ९४ ) मुहस्मदबोध
सोकास ९
तरहैते सहजं द्वीप परमाना । दोय असंख तदंति जाना ॥ .
ताहि मोकाम नाम आहृता । सोभा ताकी देख बहूता ॥
सोकाम १०
खाखी- पचे जायके लोक जह, सन्त असंख दस राख ॥
सो मोकाम जाहूतका, दस मोकाम यदह भाख ॥
चौपाई
सलामा रेकं तहां हम कीना । दस्ताबोस उनह उदिलीना ॥
तदेते अमरलोकको छोरा । नबी कवीर पंच तेहि ठौरा ॥
अमरलोकके दंस सब आये । तिनकी सोभा कही न जाये ॥
भरि भरि अंक मिरे तहं आये । देखि खुहम्मद रहे. थये ॥
सब भिखि दस गये पुनि तर्दवा । साहेब तखत पे बेटे जरहैवा ॥
जगर मगर छतर उजियारा । आम धनी का कहो बिहारा ॥
असंख भानु पुरुष उजियारा । अमररोकको कहो विस्तारा ॥
सकल दंस तई क ` द्रशन पाई । तिनकी सोभा बरनि न जाह ॥
तैवा जाय बेदगी कीना । नवी भये जो बहुत अधीना ॥
मुहम्मदवचन
चकं हमार बकस कर दीजे । जो तुम कहो सोई इम कीजे ॥
= पुरष वचन ।
कट सुक्तामनि बेगि तुम आये । दूसर कौन सग ले आये ॥
मुक्तामनि वचन । |
तब हम बचन पुरुषसे कीना । दोड कर जोर बदगी कीना ॥
त॒म जो राज निर्जन दीना । तापर इम अक्षरको कीना ॥
दो अंशं दोः दीन् चलाये । तामे सृष्टि पकडि भुखाये ॥
तामे एक सो हम ठे आये । सो तो तुम्दरे कदम दिखाये ॥
बोधसागर ( १५ )
नवी युहम्मद् बन्द्गी कीना । इशन पाय भये छौटीना ॥
तरते फिर मृत्यु खोक चलि आये। निजमान कहे पानह पाये ॥
तुम आपना कौर भरि देहो । पीडे पान जीवको वेडो ॥
साखी-शब्द भरोषे नामके, दिया नवीक्ो षान ।
तब हम साचे मानि है, जब फिर मिरोगे आन ॥
कली रवचन--चोपाई
तुम अपनो फरमान चलाई । इद् को मेद् तुम धरो छिषाई।॥
जौ यद भेद तुम प्रकट करिहौ । तो तुम कौर के बाहर परि ॥
चारो कलमा प्रकर . भाखो । पचा कलमा शप्र जो राखो ॥
पचवोँ कलमा इत्म फकीरी । जाके पटे ङ्फ़् हो दरी ॥
हम काशीको जात रै भाई। तबलो वम अषनो कौर बजाई!
तुम पर दाया समरथ केरी । पाचों कलमा दिके फेरी ॥
साखी-हम काशी को जात ह तुम अङ्के अस्थान ॥
हम रामानन्द शुर करे, तुम देओ जगत फरमान ॥
फरमान जगतको दीजिये, उदी अदर चराय ॥
तुम कलमाका हुक्म छे, निभय निशान बजाय ॥
इति भोबोधसागरे कबीरधमंदास संवादे मुहम्मद
बोध बणंनोनाम नवमस्तरगः
अथ मन्थस्तागर
१.4
यद्यपि साधारणतः देखनेमें यह मथ भी असलमानी धमं
के प्रवर्तक भुदम्मदको कबीर सादिबके बोध देनेका देख पडता
है तथापि इसका भी अर्थं आध्यात्मिक है क्यों कि) सुहम्मद्
साहब के जीवन चरमे लिखा किं इनके माता पिता
( १६ ) मुहस्मद बोध
दोनोदी ईश्वरबिसुख सूतिपूजक थे उन्दींसे उनकी उत्पत्ति हरं
थो 1 इसका आशय यह है कि, प्रकृतिपुरूष जब संसारमुख होते
है तब री अन्तःकरण विशिष्ठ होकर चैतन्य जीव नाम
चारी होता है । अथात् सुदम्मदसे आशय रै अन्तःकरण
विशि चेतन्य अर्थात् जीवसे ॥
फिर सुरम्मद सादबके उत्पन्न होते दी उनकी माताकी भ्रत्य
होगयी थी ओर पिता तो प्रथमरही मर चुका थाइस कारण उनके
जन्म लेनेके पश्चात् उनकी एषने उनका पोषण पाटन किया था
उसीने अपने गोद् म उन्दे छखिया था इसका आशय यह् है कि,
जब जीव अन्तःकरण विशिष्ट होता है तब पुरूष प्रृतिका तो
अभाव दोजाता है अथांत् स्वषप विस्मरति रोती ३ ओर देहकी
प्राप्ति होती है ओर देहदी द्वारा अन्तःकरण बडा होता है ।
आगे चरु कर मुहम्मदसाहबने चौदह विवाह किये हसो
जीवका चौदह इन्द्रियों के साथ अहेभाव करना ह ।
आगे चल कर चारीस वषेकी अवस्थामं मुहम्मद साहबको
पेगम्बरी मिली दहै सो जब यह जीव पोच ज्ञानेन्द्र, पांच
कमेन्द्री पच्चीस॒ प्रकृति ओर पचप्राणका विचार करके उससे
आपको अलग जानने रुगता रै तब यह मोक्षअधिकारी होता ३
यदी पेगम्बरी मिखना दे ।
पेगम्बरी मिलने पर जुदम्मद सादबने जिदाद करके काफिरों
को मारना आरम्भ किया था। ओर काफिरोके उत्पन्न करने प्र
मद्धा छोडकर मदीनाको गये थे । सो जब यह जीव अधिकारी
होकर विषयञुख इन्द्रियों को सादिव खख हदोनेके लिये उनका
निरोध करता है तब इन्द्रियां बहुत उत्पात मचाती है तब जीव
परवृत्तिरूप मक्षानगरको छोडकर निद्ृत्तिरूप मदीनामे जाता है ।
बोध सागर ( १७)
अर्थात् प्रवृत्तिसे उदासीन होकर निवृत्ति को धारण करता ३ ।
ओर आसुरी सम्पत्ति हप काफिरों को दैवी सम्पत्ति इव फौज
की सहायतासे मारता है )
इससे भी आगे बटकर पुदम्मद साहब मेआराज को जाते
है । इस मेआराजके विषयमे अनेकं मत भेद हँ । जिनका वर्णनं
स्वामी प्रमानन्दजीने कवीरमन््चुरमें बहत उत्तम रीतिसे किया है
पाठटकोंके जाननेके लिये उद कबीर न्ञ्चुरसे अबुबाद करके यां
खिखता हू । स्वामी भरमानन्दजीने प्रमाणके चियेग्रुसख्मानी किता-
बोके अरबी प्रमाण दिये हैँ किन्तु उन प्रमाणक इडिन्दी पाठकों
को कछ उपयोग न होनेसे केवर उनका आशय दिखा दिया है ।
मुहम्मद साहबक हमेआराजक्ता वणन
युहम्मद् साहबके मेआराजके विषयमे सुसलमानोँका भित्र
२ मत है। जो उनके हदीस ओर किताबोसे प्रगट है ¦
तारीख अहम्मदीमे छल्खिाहै कि) जब अुहम्द साहवको
पेगम्बरी करते बारह वषै बीत गये अर्थात् उनकी बावन वषैकी
अवस्था इहं तब एक रातको-जिबराईर ओर मेका जो
फिरिस्तो के सुखियों मे से रै युहम्मद् साहब के षास आये
ओर उनका साना (कलेजा) चीर कर उसमे से सब पापओौ
बुरे संकल्पं को धोकर श्जुद्ध कर दिया ओर जब उनका इदय
(अंतःकरण) शुद्ध होगया तब उन्दँं एक एेसे जानवर षर जिसका
शिर तो मवुष्योका था ओौर नीचेका धड .विच्छी के समान
था सवार कराकर खुदाके षास ठेगये जिबराईल ने तो रिकाब
ओर मेकाहंलने उसका बाग पकडा । इस प्रकारसे वह रवाना
इए । चलते २ वे सबसे पदर बेतअकसा अर्थात् बडे हैक
अर्थात् एकं बडे भारी वृतके निकट पृहे । बहौ बहुतसे फिरिश्ते
( १८) मुहस्मद बोध
सुहम्मद् सादबको प्रणाम करनेको आये जाँ वह बराक धकर
जब भीतर गये तब वौं सब पेगस्बरोकी आत्मा को देखा ।
फिरा एक सीढी _आकाशसे उतरी अरबी भाषामे जिसे
मेखञआराज कहते द फिर सहम्मद् साहब बुराकपर सवार होकर
उस सीठीकेमागेसे उपर को चढे। जब प्रथम आकाश
प्र पडंचे तब वहांका द्वार जिब्राईर ने खुरुवाया ओर सब
भीतर गये । भीतर प्डंचने पर देखा किं, इजरत आदम वै
इए ह ओर उनके बाई ओर नरकका द्वार खुखा हआ है ओर
द्दिनी ओर स्वगेका । नरककी ओर देख कर॒ इजरत आद्य्
रोते है ओर स्वगे की ओर देखकर हसते है । इस प्रकर २
प्रत्येकं आकाश पर दोते इए जिबराइल अुदम्मदं साहब को
जब् सदरह के द्वार पर रे गये तब वहोँसे जिबराईर पीछे हो
स्यि । आगे चरू कर एकं सुनके पदं के निकट पहं कर
जिबराइल ने कहा कि इससे आगे हम नदीं जा सकते आप
स्वयम् जाइये । फिर वहां से सुहम्मद् साहब ने अकर सत्तर
मजि पार किया । सत्तर पदं पार होकर बुर्ाक भी उहर गया
ओर वहां से एक पक्षी जिसे जफ जफ कहते हँ आया ओर उस
प्र चट कर सुदम्मद सादब खुदाके पास गये ओर वहां उन्ों
ने खुदा से बहुत कुछ वातांराप किया ओर अषने धर्मक
सब नियम उनको वहांदीसे मिले जिसको लेकर वह लौर
कर अपने स्थान पर चरे आये । इस स्थान प्र छख्खिा है कि
यह सब बातें इतनी जल्दी इई थीं कि, सुदहम्मद साहेब के
बुक पर सवार होकर जाते समय एक कटोराको घद्षा लगा
थाजोपानीसे भराडइआथा। सो घडा रगतेही वह् टेढा
होगया था । मुहम्मद् सादेब इतनी जट्दी लौटकर आये कि
उस कटोरे का पानी अभीतकं गिरने नदीं पाया था ओर
नोधस्ागर ( १९ )
उसको उन्होने आकर सीधा करके शेष पानीं को गिरने से
बचाया । किन्तु उपरोक्त सत्तर पदं जिनको अुहम्यद साहबने
अकेटेदी पार किया था उनमेसेषए्क रकी दूरी इतनी थी
कि, पौँचसरौ वषे तक वेग पू्वंकं चख्ने सेप्रराहोताथा देवे
सत्तर पर्दा को शहम्मद साहब ने पार किया। ओर इधर लौट कर
आने पर क्षण माता से अधिकं समय नदीं क्गा । असर्मानी
धमते इसी वृत्तान्त को अुहम्मद् साहब मेजाराज शेना कहते
हँ । इसी विषयमे ञुषरमानी धमके बड २ पण्डितोमिं बहत मतभेद
टे। कोई तो कहता है कि) ुहम्मद् साहबने स्वप्न देखा था, कोड
कहता है केवल संकल्प से व्हा पहुचे थे, कोई कहता रै केवल
प्रथम भूमिका (बेतख्अकसा ) तक गये थे, कोड कहता है कि,
अन्तरदष्िसे मुहम्मदसाहेब वहां पहचे, कोई कहता है केवंङ
जिबराईकको देखा खुदाको नदीं देखा, कोह कता रै षांच-
भौतिक शरीर सहितदी महम्मद साहेब आसमानषर गये ओर
इसी प्रत्यक्षकी रष्िसे खुदाको देखा । विस्तार भयसे अधिकं
मतभेदका छिखिना छोडकर यथाथं आशयकी ओर ञ्ुकता इ ।
पेगम्बरी मिलनेके बारदवें वषेके पथात् अदम्मदसाहषको मे-
आराज इअ था उसका आशय है फि, जब सुभुश्चु अवण
मनन निदिध्यासन द्वारा बारह महावाक्यका विचार कर रेता है
तब यह मोक्ष का अधिकारी होता है। ओर ५२ वर्षसे आशय
है ५२ अक्षरसे सो जब यह ५२ अक्षर क बत से बाहर होता
दे अथात् शब्द जालसे निकर्ता है तब इसको सजे सद्गु
की शरणकी प्राप्ति होती है। जहां शुद्ध बुद्धि शूप जिबरा-
इर जो शुध सतोगण से प्राप्त होती है ओर शद्ध संतोष रूष
म कादर जो रजोगण की शुद्धता से मिलता है इसके साथ
( २० ) मुहस्मदबोध
रोता है\ ओर तमोयण कौ ज्ुद्धता से उत्पन्न इए शौर्य्य
( घौरता ) रूप बुराकपर सवार होकर शरूकी शिक्षा द्वारा यद
ज्ञान की भूमिकाओंको परणं करता हआ यथार्थं पद को प्राप्त
होता रै । ओर यथाथं पदको प्राप्त होकर जीवन शुक्त अवस्था
से अन्य जीवों को उपदेश देकर कारु जालसे छुडाता दै ।
इस सअुहम्मद बोघ अन्थ के यथार्थं आशय को पारखी
आत्मविद गुरू अधिकार प्रति अनेकं हपकों मे समञ्जाते है
ओर इसको आध्यात्मिकी अर्थं से अ्रहण करने के लिये दश
खुकामी रेखताका भी प्रमाण ई । सो यहां दंश्कामी रेखता
लिखिदेतादहू।
दश्ञमुकामी रेखता ¦
चरा जबर लोकको शाकं सब त्यागिया हंसको शूष सतगुश्
वनायी । भग ज्यों कीटको पलरि भृङ किया आप् समरङ् दे ले
उड़ायी । छोड नासूत मलकूतको पंहुचिय! विष्णुकी ठाक्ुरी दीख
जायो । इद्र कुबेर जदा र॑भको नृत्य रै देव तेतीसर कोरि रहायी
॥ १ ॥ छोडि वेकुठको हंस आगे चला श्चुन्यमे ज्योति जगमग
गायी । ज्योति परकाशमे निरखि निस्तत्वको आप निर्भय
हआ भय मिरायी । अलख निशं जेहि वेद स्तुति करे तिनहू
देव को ह पिताईं। भगवान तिनके प्रे श्वेत मूरति धरे भागको
आन तिनको रहायी ॥ २॥ चार सुक्काम पर खंड सोरह कहै
अंडको छोर द्यां ते रदायी । अंडके परे स्थान अर्चित को
निरखिया दस जब उदां जायी । सदस ओ द्वादशे रूह रै सङ्गमे
करत कषटोरु अनदद् बजायी तासुके बदनकी कौन महिमा
कहौ भासती देह अति नूर छायी ॥ ३ ॥ मल कंचन बने
मणिक तामे जड बेठ तदं कटश अखंड छाज । अचितके
( २१)
परे स्थान सोदका हंस छत्तीस तर्द्वा बिराजे । बररका महर
ओर तूरकी भूमि है तहां आनन्दं सो दन्द भाजं। करत कल्लोल
बह भांतिसे संग यक ईस सोहगके समाजे ॥ ४ ॥ ईस जब
जात षट चक्रको वेधिके सातश्ुक्काममे नजर फेरा । सोहेगके
प्रे सुरति इच्छा कही सदसवामन जह ईस हेरा । इपकी राशिते
प उनको बना नहीं उपमा इन्दु जौनिवेरा ! सुरतिसे भेरिकै
शब्दको रेकिं चदि देखि श्ुक्काम अद्र केरा ॥ ९ ॥ श्युन्यके
बीचमें बिमल बेङ्कण्ठ जहाँ सदज अस्थान है गेव केरा । नवो
सुक्काम यह हंस जब पहुंचिया पलक विलंब हौ कियो डरा ।
तरहीसे डोरि मकरतार् ज्यों कागिया ताहि चडि ईस गो दै
द्रेरा ॥ भये आनन्दसे फद् सब शडिया पहचिया जहौ घत्य-
लोक मेरा ॥ 8 ॥ हंसिनी दंस सब गाय बजायके साजिके कलश
वहि खेन आये । युगन युग बीरे भिरे त॒म आहकै प्रेम करि
अङ्गसो अग लाये । पु्षने दशं जब दीन्डिया हंसको तपनी बह
जनमकी तब नशाये । पलटिकं ङ्प जब एकसे कीन्डिया मनह
तब भाव षोडश उगाये ॥ ७ ॥ पुहुपके द्वीप पीयूष भोजन कर
शब्दकी देह जब हंस पायी पुहुपके सेहरा हंस ओ हंसिनी
सच्चिदानन्द शिर छवदछायी । दिं बह दामिनी दमक बडु
भांति की जहा घन शब्दको मड खायी । लगे जहौँ वरषने
गरज घन घोरिकै उठत तहँ शब्द धुनि अति सोहायी ॥ ८ ॥
सुन सोह ईंस तहं यूत्थके युत्थ ह्वे एकदी नूर यक रङ्क रागे ।
करत बिहार मन् भामिनी ख॒क्तिमे कर्मं ओ भम सब दूरि भागे ।
रङ्ग ओर भूष कोड परसि आवे नहीं करत कल्लोल बह भति
पागे। काम ओ कोष मद लोभ अभिमान सब छँड़ पाखण्ड
सत शब्द लागे ॥ ९ ॥ पुरुषके बदनकी कौन महिमा कहौ
(करर) मुहम्मदबोध
जगतमे ऊप्मांय कडु नारिं पायी । चन्द्र ओ सूर गण ज्योति
खागे नहीं एकी नक्ख ॒परकाश भाई । पान परवान जिन
बशका पाइया पहुंचिया पुरूषके रोकं जायी । कहै कव्वीर
यहि भांति सो पाइदौ सत्य की राह सो प्रकर गायी ॥ १०॥
देह नासूत स्वरे मख्कूत ओर जीव जवदूतको खद बखाने॥
अरबी म लाहूत कहै जेहि निराकार मानिके मनजिर्ल ठाने ॥
आगे हाहूत लाहूत दहै बाहूत खुद खाविन्द जाहूत जानै ॥
सोहं श्री राम पत्नाइ सवे जग नाहि पन्नाह यह अता गनि ॥
इस् प्रकारसे सत्यके खोजियोको तो एेसे अन्थोका आध्या-
त्मिके अ्थंदी मदण करने योग्य है । ओर स्थ अर्थ तो स्थूल
बुद्धिवारे पक्षपातियोके स्यि ही छोड देना उचित ३ ।
इति
बोधसागर ( २३)
पृष्ठ ( ६८२ ) की टिप्पणीमें सूचित क्त्यं हृए् दक मुकामोका वर्णन
प्रथम नासूत का वर्णन
नासत मुकाम सुमेर पर्वतके उत्तर ओर पृथ्वी छत्तीतत सहल योजन ऊंचा है ओर यहांपर दयाअंश
रहता है ओर यह मायाका स्यान है-महा न्मया इस जगह अपने तेज कहत निवास करती है । ओर जब
कवीर साहब ओर महम्मद साहब उत्त स्थानपर पहुंचे तब वहां हज रत दाऊदको बंठे तथा जबर नामक
पुस्तकको पदृते पाया । वहां पहुंचकर कवीर साहवने अस्तलाम्लंक्त कहा-तव हजरत दाऊद अलंकमस्स-
लाम कहकर उठ ड़ हृए-भोर उनके हार्योको चूमकर बड़ी जावमगत किया-तब कबीर सहनं मुहम्मद
साहबको उस स्थानकौ विशेषता ओर गुर्णोक्ते बतलाकर आगे चले ।
दूसरे मलक्त का वृत्तान्त
दूसरा स्थान मलकत है-ओर यह् स्यान नासत से चौबीस सहल योजन ऊचाई पर है-ओर पुथ्वीते
साठ सहल योजन की ऊंचाईपर है ! ओर इस स्थानको इुसरे शब्दम वंककव्ठ क्ते हं, ओर यहु वेक्कण्ड
विष्णुका स्थान है-ओर इसी स्थानपर पाप पुण्यता लेखा लगता है-ओर इस विष्णुक्तौ खना त्र्या विष्णू
शिव इन्द्रादिक समस्त देवतागण उपस्थित रहते हं-इत विष्ण हीका नाभ धम्मंरायं है-ओर आपकी आज्ञासे
नरक तथा वं कुण्ठ ओर योनिका फिरन1 आदि सब कुछ होता है-जौर इसी स्थानस चिब्णु महा राजक? परि-
श्रमण समस्त पृथ्वी ओर आकाशादिमे हृ करता है । चित्रगृप्तजो विष्णु के सत्र सवके पाय पुष्यका
लेखा तथा हिसाब रखते हं । जब कबीर साहब महम्मद साहबको अपन साय लेकर इस मलक्त पर पहुंचे-
तो वहां म्साको बंठ तौरते पढ़ता पाया-कबीर साहबन वहं पहुंचकर रभो सलाम अलक किया-मूला सलाम
का उत्तर देकर उॐ, ओर उनका हाथ चूमकर बडी आवमगतको तवं कबीर साहवने म॒हम्भद साहबको
इस स्थान के समस्त गुण बतला तथा वहांके व ्तान्तसे विज्ञ कराकर आगे चले ।
तीसरे जबरूतका वृत्तान्त
तीसरा जब्त है-इस जबर्त स्थानको कबीर साहबन साक्षरो द्रोप कहा है-ओौर यह् निर्गुण ब्रह्म
अल निरंजनका स्थान ह जो तनो लोकक कर्ता धर्ता है ओर यह् स्थान वकुण्ठसे अठारह करोड योजन ऊपर
को ऊँचा है-यह् बडा सुन्दर स्थान है-यहांपर चार करोड ज्योतिका प्रकाश है-ओौर इस सभाम चारो फिरिश्ते
उपस्थित रहते हँ-अर्यात् जिबरा ईल-इस-रापिल इजराईल-ौर मेकाईल । इन्हीं चारोको ब्रह्मा विष्ण
शिव णौर यम इत्यादिके नामसे पुक्षारते हें । समस्त आज्ञाएं इसी स्थानसे प्रचलित हु करतौ है-ओर
चारो फिरिश्ते इन्हीके आज्ञाकारी हं । वेद तथा पुस्तक सबके प्रचार कर्ता यहीं हे ओर आपही के आज्ञा-
कारी तथा अधन सब हें । आद्या तथा निरञ्जन इसो राजधानीमं बेठकर तीनों लोकका राज्य करते हं
जब कबीर साहब रस्ुल अल्लाहको साथ तेकर पहुचे तो देखा कि हजरत ईसा वहां बेठ हुए इञ्जोल पढ़ रहे
हें । वहां पहुंचकर कबोर साहबने भ।सलाभअलंक कहा ओर हजरत ईसा सलाभका उत्तर देकर उठ खड़े
हृए ओर उनके हायको चम लिधा-तब कबीर साहब म्हम्भद साहक्को उन स्थानके गणका विववरण बताकर
आगे चले ।
( २४) सुहस्मदबोध
चौथे लाहूतका वृत्ता
चौथा लाहूत है जबरूत ओर लाहूतके बौचमे ग्यारह पालंगका अन्तर है, ओर एक पालंग आठ करोड़
योजनका है 1 यह लाहूत स्थान अक्षरक्ता है यहां अक्षर ओर योगमाया रहते ह बह बडा सुन्दर स्थान है ।
जब कबोर सहन ओर मोहम्मद साहब इस स्थानपर पहुचे तब कबीर साहबने मोहम्मद साहबसे कहा कि हि
म् हम्मद ! देखो यह तुम्हारा स्थान है-ओर यहांहौ वह् अक्षर पुरुष जिसको तुम बेचन बेयेरा खुदा कहते
हो रहता है ओर उस स्थानके गण दिखलाकर आगेको चले 1
पांचवे हाहूतका वृत्तान्त
पाचवां हाहत है-यह हहत स्थान एक असंख्य योजन शून्यके ऊपर है-अर्थात् लाहूत ओर हाहतके
बोचमे एक असंख्य योजन शून्य ओर अंधकार है-यह हाहूत स्थान अंचिन्त पुरुषका है-यंहाँ अचिन्त पुरुष
सपत्नीक रहता है-ओर यह स्थान बडा ही मनोहर है-अचिन्तके सामने तोन सौ अप्सराएं नृत्य करतौ रहती
ह-ओौर यह निःशंक तथ! निर्टदढ रहता है कबोर साहब इस स्थान ओौर अचिन्त पुरुषका सब विवरण मुहम्मद
से कट् करन्ते आगेको चले 1
छठवां बाहूतका वृत्तान्त
यह् बाहूत छठा स्थान है 1 ओर बाहूत ओर हाहतके बीचमं तीन असंख्य योजन शून्य ओर अधेरा
है ओर हाहतसे बाहत तोन असंख्य योजनको उंचाईपर है-यह् अत्यन्त मनोहर स्थान है इस स्थानम सोहं
पुरुष रहता है-ओर सोहं पुरुषको अर्धागिनौका नाम ओहं है-यह सोहं पुरुष अपनो शक्ति ओहं सहित सिहा-
सनपर अधिकृत ह-ओर उस स्थानम सदेव सोहंका शब्द सुनाई दिया करता है। जब फवीर साहन म॒हम्मदको
लेकर इस स्थानपर पहुचे तो वहाके समस्त गुर्णोका विवरण उन्होने उनसे किया ओर फिर आगे चले ।
सातवें साहूतका वृत्तान्त
यह् साहूत बाहतते पांच असंख्य योजन ऊचा है, ओर बाहूत ओर साहूतके बौचमं पांच असंख्य योजन
शून्य ओर अत्यंत अंधकार है । यह् इच्छाका स्थान है । इस स्थान कौ सुन्दरतम तथा यहांको सुखसाभग्रीका
भी विशेष विवरण है कबोर साहब मुहम्मद साहबको दिवलाकर आगे चले !
आठवें राहतका वृत्तान्त
राहत साहूतके ऊपर चार असंख्य योजन ऊच है । साहूत तथा राहूतके बीचमं चार असंख्य योजन
शून्य ओर अत्यंत अंधकार हे जौर इस रात स्थानम अंकुर पुरुष अपनो शक्ति सहित रहता है-यह अत्यंत
सुन्दर तथा मनोहर स्यान है 1 जब कबीर साहन मुहम्मद साहबको लेकर इस स्थानम पटुचे तो उसके
सब गुण दिखलाकर आग चले ।
नोधसागर ( २५ )
नवमे आहतका वृत्तान्त
यह् राहूतके ऊपर दो असंख्य योजन ऊचा है । ओर बीचमें शून्य तथा अंधकार है-इस स्थानें
सहज पुरुष रहता है-ओौर सत्यपुर्वका सवते बड़ा पुत्र यह कहलतः है । यह् नर्वां स्थान सबसे सुन्दर
ओर आनन्द पूणं कहलाता है । कबीर साहुबने जृहम्मव साहुबको बह स्यान दिखलाय ओर इसका विवरण
करके फिर आगेको चते ।
दशवे जाहूतका वृत्तान्त
आहूत ओर जाहूतके बीचभं दरा असंख्य लाख योजनका अन्तर है अर्थात् स्यान जाहूत आहूतके ऊपर
दश अक्षंख्य लाख योजन ऊचा है ओर यही स्यान सत्ययुरुवका है इसको चुन्दरताशा विवरण किया नहं जा
सक्ता है इस स्थानसे कसर साहब सत्यपुरवषको आज्ञा लेकर पुथ्वीयर या करते हं ओर इसी स्थानके
रसूल पाक है ओर इसी सत्य पुरवके सत्यलोकमं जब हंस पटुंचते हं तव कालघुदव उनक्तो ननल्कएर करता है
ओर उन हंसक्ता आवागमन फिर कमी नहीं होता । वं हंस सत्ययुरवकी स्तुति किया करते हं जौर दे सत्य-
पुखवके स्वरूपको प्राप्त हो जाते हं : सत्यलोकके आधीन अठासौ सहल रीय है ओर सक हरी्योनं सत्यगुर्के
हंस आनन्द करते हं उनके भोजन तथा वस्त्रादिका विवरण नहीं हो सकत? ह ।
सत्यकबीराय नमः
अथ श्रीबोघसागरे
दलासस्तरगः
श्री म्रन्थ काफि बोध
मंगलाचरण--सोरलठा
वन्दौ भौ सत्य कबीर, कुफर नशा वन जंगत गुर ।\
पावो सत मति धरि, ट्टे कुफर जंजाल सब ।।
प्रान्थारम्चः
कौन सो काफिर कौन सुर्दार । दोऊ शब्दका करो विचार ॥
ग॒स्सा काफिर मनी सदार । दोऊ शब्दका यही बिचार ॥
हम नहि काफिर हम है फकीर । जाइ बैठे सरवरफे तीर ॥
चोरी नारी दरोग सो डर राहसो ठेखा संबका करें ॥
नगे पायन प्रथ्वी रिरि! हार न टे बाटन पर ॥
हमतो(बाबा)किसीका क्न बिगारे। ददे मन्ददिल दया सर्बोरे ॥
दुनिया लोकं सो उल्टी करे । सत्यनाम सदा उच्चे ॥
सिक्का देखि न किये फकीर । फकीर न कूटे पुरानी रखुकीर ॥
काफिर सो कुफराना केरे। अलह खुदाय सो नाहीं डरे ॥
केरे न बन्दगी पिरे दिवाना । गरभ बांधि रिरे गेबाना ॥
बोर कुबोर सेबे विसरावे । खून खराफातको दूरि बहाव ॥
दिरखुमे चोर कमर म कत्ती। रोगन के घर भाजे रत्ती ॥
अढ्ह के नामे बटि खाना । सो कदिये साचे मुसर्माना ॥
मुसलमान सखुसावे आप । सिदक सब्रूरी कलमा पाक ॥
खडी ना छेडे पडी न खाय । सो युसर्मान बिदिश्तको जाय॥
१ क्रोध! २ अभिमान । ३ व्यभिचार ।४ जारी ॥
नोधसागर (२७)
कलमा पटे न अवै बिरहिस्त। दिरदेर्दे षापकी दृष्टि ॥
हिन्दु थुसलमां खुदाके बन्दे। हमतो योगी (किसीका)नराखे छन्दे।
देवी देहरा मसीद् मिनार । इमरे तो एकं नाम अधार ॥
टाकी रे कोन उपर चटे। पावन द्वै हाथ न गृदे॥
तर्हांन अभि पवन का उर) एेसराअख्खपुङ्ष (जिन्दपीर)का घर
चना पत्थर बनाइया दादा आदम की करनी ॥
हमतो रहै अखेख पुरूष जिन्दा परक शरनी ॥
मक्सी जाय _ बंधनं परी । छनत छानत ताही गिरी ॥
काजी अुलमा करे बिचार । मक्खी किया बडा अहंकार ॥
मक्खी तो गाये भखे। मक्खी तो सूअर भखे ॥ मक्खी तो इल
भेखे । मक्खी तो शरदा भखे मक्खी जाय बिगारे खाना । तहां न
चरे बादशाह परवाना॥ कोरा कर्मा बहुतरा बोडे ॥
खेर मिदर का खीसान खोरे ॥ भिहर न बारे अदर खोरा। खेर
न बांटे अदछदका चोरा ॥ अरस परस बीच समाना । मोम दिख
मोम दिर जाना ॥ सिदके सो परि पहिचाना । दद॑मन्द दरवेश
बखाना ॥ रहमत ह मुरशिर पीरको । जहमत सूम महस्रुदको ॥
नेयपरिषे निवाज गजारे । अवणनेजको ब्र निहार ॥ युस्मद्
मुहम्मद् क्या करे । ङुरान कलमा क्या पडे ॥ किधर किधर
की राह बतावे । बिन गुर् पीर राह ना पावे ॥
साखी-हाजी गजी दौड गुरुचेटा खोज। दश दरवाजा ॥
अलख पुरूष कहं माथ नवाओ, इस विधि करे निमाजा॥
सभे साचे काजी, साचे साचे युलना वेद् कुरान ॥
कहै कबीर आबसो सब आलम उपजाना ॥ दिन्द् किये की सल
माना॥ राम रदीम बसे एक थाना । मनको जाने सोई मोलाना ॥
द्रको जाने सोई दरवेश । हमतो बाबा नेकबदी सो न्यारा ॥
दुनिया मति कोह खावे दोष । इम तो कहि रै अकेरे दस्त ॥
(२८) काफिरबोध
ताका साहेब मक्षा वस्त । मक्रवन्तका साहेब अकर मन्द ॥
अकिंलमन्द अकि सोजाना। मन मुरीद दोस्ती दाना ॥
सहर गदाहं कोन यार। सिर खुरदनी कौन यार ॥
न्दो खाने कौन यार । तस्त बादशाही कौन यार ॥
काया यार सिर खुदनी। दिर यार मार भारीं॥
जीव यार बन्दी खने। मन यार तस्त बादशाही ॥
मनलाल दिरलारलारुपोतदा ।रहमसादही इमस। दसाहपोतदार॥
इत कबर साहब का वचनं उचार चार
अथ खान् मुहम्मद् अली पाद्शाहश्च प्रबोध ।
कलिकं कीमोक छिस रसम की चमे । खदयर संयम
कृरदम् । ओनृद् राह चक्रित करदम ।
ओवल-अदछ्के पीर है । मन शुरीद् है। तन शहीद ह असल
गदाई है । तकबुर दुशमन है ग॒स्सा हराम है । नफ रौतान ३ ।
चोरी लानती है। जवारी पलीदी है। अदब आदि ३।
आदब कम असल है । राइ पीर है । वराह बेपीर है सांह-
विदिश्त दै इट दोजख है। मोमदिरु पाक टै। संगदि
नापाक दै । दिसं रेवान है बेहिसं बली रै ॥
लाइ लइ द्रकत है । अचेत गुलाम है। असलजदिको सलाम
दे । कृतदीन जदं दै । दाना जौहरी है । असरुकी दोस्ती ३ ।
दाना शायरदै। ब्ूञ्च महनब्रूबदै। बन्दगी कबूल रै।
अल्लाह तरर दै। आलम हद है । साहिब बेहद रै । यकीन
खुसलमान है । शील रोजा है । शमं सुत्त है । ईमान असलमान
हे । बेहेमान बेदीन दै । दिर दलील हे बँग बरे है। फकीरी `
सबरूरी है नासब्री मक्षारी ५. द्रोग दन्द हे।
हुः |
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बोधसागर ( २९)
अथ बन्द्
प्रथमबोल्यि भूल बन्ध । दुजे बोलिये कमर बन्ध । तीजे
बोलिये लंगोर बन्ध । ्पौचवें बोखिये दानिश बन्ध । छठे बोलिये
शच्च बन्ध । सातवौँ बोले सदस बन्ध । आवौ बोखिये
अहूठ दाथकीं काया । जाका ममं काहू विररे पाया ॥ मक्केहिरस
मदीने छाया। ओवल पीर हिन्द कोबल वीर अुसलमान कहाया॥
भुसर्मानकी कारी चोंचनी हिन्दू के छदे कान ! बोरतां बह्म
नहीं हिन्द् नदीं सलमान । दादा आदम ने गाया । बडे बडे
पीरन को फरमाया । खुदाने अटी पादशाह को चिताया |
दिम्मते बन्दा मददे खुदाया । दुआ फकीरा रइम अङ्ाइ ।
कदम दर्वेशों रह बखाय । दादा आदम मामा हौओं । मक्के
सदीने म चटा तावा । पदिी रोटी फकीर को रवा । ना देवे
रोदी तो टूटे केठवता एूटे तवा । बेरी रहो मामा हौवा । ककं
वले अपनी रावा । इतनी सवाल रतनहाजी ने क्यो । कहै कृवीर
पीर को जानी । काफिर बोध सम्पूरण वानी ।
इति भी काफिरबोध षरथम मंजिल सम।प्त
फिरिश्तोका व्यान
१ ओवल फिरिश्ता बसर है। जसे खुदाकी सूरत मूरत नहीं है
आदि अन्त नहीं है वेसे बरसकाभी. कोहं रूप रेख नदीं है ।
खुदाने स॒ह फरिश्ता सब । जीवधारीके संग खगा दिया है जो
हरएकको बतलाता है कि देख कर चलो ठोकर मत ख।ओ ॥
२ दूसरा फरिश्ता समअ (कान ) है उसके द्वारा खुदा
उपदेश करता है किं, मकरूढ ( बुरा › मरगरूब ( भला ) आवाज
ओर दोस्त दुशमन की बातको सुनो ओर समञ्चो ।
( ३० ) काफिरबोध
ड तीसरा फिरिश्ता शामा ( चराणेन्द्रिय ) दै । यह फरिश्ता
सुगन्धि दुगेन्धि को बतलाता हे ।
चौथा पिरिश्ता कमस ( स्परन्द्रिय ) है जो बतलाता ई
कठिन ओर कोमल को ।
« पौचवा रिश्ता जायका ( रसेन्द्री ) दै जो छः प्रकार
के रसोका ज्ञान बतलाता है ।
& छटा फरिश्ता दाथदैजो हाथ से करने योग्य कामां
को सिखाता द ।
७ सातं फिरिश्ता पौव द जो चलने फिरने को बतलाता है।
८ आवौ फिरिश्ता जबान ( जिह्वा ) दै जो भला ओर बुरा
वचन बोल्ने को सिखाता दहै
९ नवौ फिरिश्ता आरातनासु ( जननेन्द्रिय ) दै जो सूञ
त्याग करने ओर संसारकी बृद्धि करने का मागं बतराता ई ।
१० दशौ फिरिश्ता मेक अद ( गदेन्द्िय ) दै जो शरीर के
मलों को बाहर निकालता दै ।
११ ग्यारह पफिरिश्ता दिल ( मन ) दै जो इच्छा उत्पन्
करता ह ओर राग द्वेष करता है। दिर वह नदीं है जिसको
राक्षस मांसाहारी छोग कबा् बनाकर खाते ई ।
१२ बारवौँ फरिश्ता इदराक ( चित ) रै जो सव पदार्थोका
चितन करता हे \
१३ तरद पिररिश्ता अरैकार रै जो जीवन की रक्षा
करता रै ।
३४ चौदहवौ फरिश्ता अङ्क ( ज्ञान ) रै जिसे जिबरदई॑र
कहते है ओर जो सबके मेद को जानता है ओर सबको उप्
यक्त मागं बतलाता दै ।
बोधसागर (३१)
१५ पन्द्रह फिरिश्ता शहवत ( श्जो्ण ) है जिसको
ब्रह्मा कहते है ।
१६ सोढ्वा तभीज (सतोशण) है जो सत्य असत्य का
विचार बतलाता है इसीको विष्णु कहते ह ।
१७ सतरहवौ फिरिश्ता गजब (तमोय्ण) है जो इःखदाई
पदार्थसि रक्षा करता है इसीको शिव कहते है ¦
इसी प्रकार पांच तत्व ओर सवे प्रकृति्यौँ आदि संसारके
स्वै वस्तु फिरिश्तो है ओर जिस प्रकार शरीर का राजा जीवं है
उसी प्रकार सब जड चेतन्य का स्वामी साहिब है जिसके
शरणमे जानेसे अरर सुख प्राप होता ३।
इति काण्ठिरबोध
इति श्रीबोधसागरान्तगतं काफिरबोध नासकददामस्तरंगः
लातव्य
काफिर बोध पुस्तक के प्रथम मंजिखकी एकही प्रति मेरे
पास् है । बहुत प्रयत्न करने पर भी उसकी दूसरी प्रति न मिल
सकी इस कारण जेसी प्रति. थी उसीके अनुसार ही रक्खाहै । इस
ग्रन्थ मे फारसी ओर अरबी शब्दों का बहत प्रयोग किया है
किन्तु यह अन्थ छिखा हआ अद्यु हिन्दी अक्षरोमे मिला है
ओर दूसरी प्रति न रहने तथा छषने की शीघ्रता के कारण से
कितने शब्द शुद्धरन जान पडनेके कारण जो चटिया रह गयी है
उनको दूर करने के लिये प्रयत्न कर रहा हं प्रयत्न सफर होने
पर दूसरी आवृत्तिम ठीक कर दिया जायगा ।
। द
इतिं
श्रीबोधसागरान्तगेत
ग्रन्थ युहम्मदबोधः
ओर
काफिरिबोधः
समत
भारतयथिक्त कबीरपथौ-
स्वामी श्रीयुगखानन्दद्वारा संशोधित
श्री-सुरतानबीध
मुद्रक एवं प्रक्ाशक्कः
छोमाहाज श्रकूष्णत्यास्ना,
अध्यक्ष : श्रीवेकटेश्वर प्रेस,
रेमराज श्रीकृष्णदास मार्ग, मुंबडं - ४०० ००४.
नं.६ कबीर सागर - २
सल्यनाम
>
५८९. ५ स
५ (
न
नः
9
1 |
. 1
111)
सत्यदयुरुबाय नमः
अथ ओ्रीबोधसागरे
एकादङस्तरगः
श्रीगरन्थ चुलतानबोध
श
भगलाचरग दोह
अजर अमर सत नाम है, भलि शोक तम कंज |!
तासु चरण मन रमि रहहु, कमल मौर जिनि गंज ॥!
धमदास कव्चन-चोौपा्ई
धर्मदास उठि विन्ती खाये । सतगङू मोहि कटो स्चञ्चाये ॥
केसे करिये तजिय संसारा । ताको समरथ कहो विचारा ॥
आगे मये बरख के मीरा । माया सुख तजि भये फकीरा ॥
कही विधि तिन तजि पादशाईं । सब वृत्तांत कहो समञ्जाई ॥
सतगुरु वचन
कहँ कबीर सनो धर्मेदासा । बल्ख भेद कटू तुम पासा ॥
बल्ख शदर एकं नगर अनरूपा । तहं सुल्तान यकं ज्ञान सश्पा ॥
बादशाह शाइन सरदारू । प्रेम प्रीति मन मारि विचा ॥
इब्रादीम अद्धम जेहि माना । राज मारं भक्ती जिन ठाना ॥
विरह उठी शाह मन मादी । कारज अपना कीना चाही ॥
मुषा जनम अमोरक पायी ।एेसे तन पाई खुदा मिलि जायी ॥
जो यहि अवसर अचह न पाया। क्षण महं विनशि जायगी काया `
एसी फिकर उटी मन माई । तब षट दरशन लिय बुलाई ॥
( ३८ ) सुलतानबोध
पण्डित साधु संन्यासी आये । जोगी जंगम यती बुलाये ॥
ज्ञानी ध्यानी सबके पीरा! काजी सुदा सेख फकीरा ॥
खब भिङ्ि मेष जड तहं आयी । तिनसों वचन ब्रञ्चा अथांयी ॥
तबहि शाह सब टेर सुनायी । अल्खह शूष रुहि देहु दिखाई ॥
खुदा भिरे कह कौन उपाह । कौन राम अङ् कोन खुदाई ॥
एक खुदा यक ओर को होई । काहे भयो एक अस दोई ॥
दोऊ दीन मिखि कदो सुञ्ञायी। दोम साच कौन ठहराईं ॥
दोउ कर जोडि सबन सो कहेऊ। बहत अधीन आष तहँ मय ॥
दोय अधीन तब शीस नवायी । सबसे बचे मन चित खायी ॥
सब भिक कों खुदाई सन्देशा। मेरे मनका मेटो अदेशा ॥
साहब बसे कोन से देशा। सो शि बात कहौ दुरवेशा ॥
दो राह यह किंनहि चलायी । किन वैकुण्ठ विस्त बनायी ॥
एती सब मिलि करो दिवाना । नातो दूर करो ङुफराना ॥
बिन देखे सबदी दिर धरदीं । कान छिदाय अङ् खतना करदी॥
हमरे दिका मेटो अदेशा । हम माने तमरो उपदेशा ॥
हिन्द सबे बेकुण्ठहि धावं । भुसरमान विहस्त ठहरा ॥
इनमे कहां खुदा का बासा। विन देखे कीनो विश्वासा ॥
किनहू खुदाका चर नहि पाया । ञ्ूढ श्ूुढठ सब दद मचाया ॥
खुदाकी खबर न कोई बता । सबको जडो कोटरी माहीं ॥
दोउ दीन यह किन भरमाया । खुदाकी खबर किनड निं पाया॥
साखी-दो दीन समञ्चावदहू, मो मन बहुत अन्देश ॥
कौन खुदादो दीन रचे, बसे कौनसो देश ॥
कोपे इ्रारीम तब, ये सब भरम अुरखार्दि॥
खुदा भेद कोड ना कंदे, डारो कोटरि मार्ह ॥
बोध्सागर (३९)
चवा
चटी जो बात दशो दिशि जायी । षट दशंनको साधं रोकायी ॥
इतनी बात काशी खनि पाईं । तब उटि धाये आप गुसाई ॥
जिन्दा हप गुसाई कीना ) जाई शाह को दर्शन दीना ॥
बेठे तरत आप सखरूताना जिन्दा इआसलामा कीना ॥
दोआ सलाम हमरी नहिं माना । माया के मद् गर्वे अुलाना ॥
चछुलतान चचन
कहे सुल्तान सुनो इरवेशा । जिन्दा इय कौन को मेशा ॥
कहां से आये करटौ वुम जाओ । कौन काज हमरे घर आ ॥
हम पे जो खुदाकी बानी । इल्म अछ्लाहकी कहो निशानी ॥
कुदरत की कोई आदि बतावे । सोई अुशिद पीर कंडावै ॥
हमरे दिरमे विरह बह आया । खुदा मिलन कोडनाडिबताया॥
जिन्दा वचन
जिन्दा कदे सुनो रे भाहं। षट दशंन तुम देह इडा ॥
तब हम तुम सों ज्ञान करावें । संशय तुम्हारे सकल मिट ॥
षट दशन को छोडि तुम देओ । जो चाहो सो इमसो ठेओ ॥
अब् जनि शंका भानो भाई । जो पछो सो दे बताई ॥
सुलतान कंचन
कंदे सुरुतान सनो दुरवेशा । केसे मिटे इमार दिशा ॥
एेसी बात कहो अधिकाई । क्या तुम दुसरे आय खुदाई ॥
जिन्दा वचन
तब इम एकं करा दिखलायी । भसा पास यक साख भरायी ॥
जब दुरवेश भसा ख्गि जायी । भसा से यक वचन सुनायी ॥
भसा कहै सांचे दुंशा । मानो शाह इनको उपदेशा ॥
यहि दुवेश खुदा समजानो । इनसे कर्तां ओर न मानो ॥
(०) सुलतान बोध
सुनिके शाह अचम्मो मय । भसा साख सो कैसे भरेड ॥
यह तो पीर ओलिया आये । मसे पास इन साख दिवाये ॥
शाइके दिर प्रतीति अस आयी । यहं दुरवेश खुद आय रहायी ॥
षट दशन को बन्ध दछुडाये । बन्दी छोर कहि कटि सब जाये॥
सासी-बन्दीरखोर कदाइया, शहर बरखुख संश्चार ॥
छूटे बन्ध सब भषको, धन धन कहे संसार ॥
चोपादु
तब सुरुतान अपने मन जाना 1. यह दवैश अविगत ठाना ॥
भेखा पास इन साख भराहीं । यह तो गति आदम की नाहीं ॥
एती कटा जान जब पाये । फिरि जिन्दा से पुन लाये ॥
सुल्त्ताच वचन
कहै सुरुतान सुनो दुवेशा । जिन्दा हष कौनको मेशा ॥
कारे आये काँ तुम जाओ । इतनी सुनद कदी स॒ञ्ञाओ ॥
तुम साशद् पौर हमारा । हम अषने दिर कीन विचारा
साखी-कदां से आये जिन्द जी, फेर कौं तुम जाव ॥
हिन्दु तुरक भर कन हो, मोदि कदी समज्ञाव ॥
र वर्चन् [ड्
कहे दुर्वेश . सुनो रे भाई । जिन्दा शूप खुदाको आई ॥
अद्छाद आप सकर घटमारीं । दोऊ दीन दोड राह चखाहीं ॥
हम दौजख तजि विदधश्तिको जाये। सपन एकं चीज तोहि आये ॥
तुम हौ दीन दुनी सुल्ताना । राखो भिर्यौ सुहं सहिदाना ॥
जब तुम आओगे बिदिश्तके मां। तब दम सुई लेब तुम पादीं ॥
यरी काज तुम्हरे धर आये । मिर्यौ सुई धरों तुव ठाये ॥
दीन दनी के बादशाह कदाओ । इतनी सनद् हमारी लाओ ॥
सुई देव जब विदिश्त मेँश्ञारा । तब दम माने साच तुम्हारा ॥
हैसकर ` शाह सुई कर रीना । सदस सुरईका कौर तब दीना॥
बोधसागर ( ४१)
सुलतान दवचन
जाओ विदिश्त मानो विश्वासा ! सहन सई खेना इम षासा॥
सतग्ङ वचन
इतनी गोष्ठि शाह सो कीना । तब तौ से पथाना दीना ॥
एक सुहं उन इम सो लीना । सहस्र सुका कौर तब दीना ॥
साखी-इतना कदि हम उटि चरे, चानक शाह खगाय ।
नीमशाम के वक्तं अ, जडी अदालत आय ॥
चोपाई
सब मिलि आय जड दरिखाना । बैड आय तहां खल्ताना ॥
शाह के हाथ सुहं जब देखा । तब वजीर मन कीन विवेखा ॥
हाथ जोडिके विनती खवा । केसे सहं हाथ चे आवा ॥
वजीर क्चन
कैसे सुई हाथमे लीनां । कारन कौन कहो हम चीनां ॥
सुलतान वचन
कहे सुकुतान सनो दीवानां । बन्दा अल्खाह दिया सदिदाना॥
दुरवेश एक यहां चङि आया । जिन या सुई दीन इम पाया ॥
का दुरेश विहिश्त त॒म आव । तब या सइ खेव तेहि रव ॥
एेसे वचन कल्यो दुरवशा। सुई दम देन कही तेहि देशा ॥
एक सुरं हम उनसे रीना । सदस संका कौल इम दीना ॥
इतना वचन कहे सुलताने । सनत वचन विन्ती तिन गने॥
दीव(न वचन
दीवान कदे सुनो हदो साई । सुहं विदिस्त कोन विधिजाई॥
गाम परगना ओर ठङुराईं । सबही धरा रहै यहि गई ॥
तात मातु सत सुन्द्र दारा । तन धन धाम सकल परिवारा॥
१ दीवान
( ४२) सुलताननोध
अत समय ये काम न अवै । आपु चिन्हे तब जिव सुख पार्वे॥
जह रुगि जगम ष्टि दिखादीं । सो सब विनशि जाय क्षणमादीं
जतन करे बहुत सुख पावे । सो तन जरे गड मिरि जाव ॥
हेसे कहि वजीर शिर नायो । केसे सुई संग छे जायो ॥
समञ्चि देखु अपने दिलमाहीं । सुहं संग कौन विधि जादीं ॥
सुल्तान दचन
तब सुरूतान वचन अस कई । सुनो वजीर मता यक आहई॥
इतना लशकर संगरे जायब । हस्ती चार सो सहं भरायब् ॥
वजीर वचन
हस्ती संग चरे न्दं शादहा । खोजा करो तुम दिके माहा॥
हस्ती घोडा माल खजाना । यह् सबं संग चरे न निदाना ॥
सुल्तान वचन
शाह तव अस वचन सुनावे । वेटि सुखपारुविहिश्तको जावे॥
ल्व बोस म सुहं भरायी । यहि विधि सुई संग ममजायी॥
वजीर वचन
तब दिवान कर जोरि सुनावे । यह सुखपार कब्र लगि जावे॥
आगे कस तुम करद सोई । सो मोहि वचन कहो समञ्चाई॥
सुलतान वचन
आगे इम घोड चदि जायब । लेह जीन मे सुई॑ भरायब ॥
अहो दिवान एसे करि । छे दरवेश के आगे धरिहौं ॥
कबीर वचन
सुना दिवान तबे हसि दीना । दोह कर जोरिके विन्ती कौना॥
दादा बाबा तुम्हरे रदैया। घोडे चडि कोऊ ना गेया ॥
साखी-इतने मे संग नदि चले, सुनहु शाद चित लाय ॥
_ यद बज्द् दिनचारदहै,सोभी संगन जाय ॥
बोधसानर (४३)
चोपाहु
मनम चकित शाह तब भय । ञ्टठी माया इम चित दयं ॥
सुई संग चरे नदिं जादी । इ्दी रज पाट सब शाही ॥
सदस सुका का परस्गा। एके सुहं चङे नहिं संगा ॥
अबतो खाना हम तब खवँ । जब जिन्दाका दर्शन पावें ॥
इतना ज्ञान शाह चट आवा ) जिन्दा दर्शको सुरति र्गावा।
इबराहीम ठेसि मति डाना । गज महि यन्ती जिन जाना ॥
साखी-जिन्दा जिन्दा रट र्गी; दिरदय रहा समाय ॥
जो जिन्दा अबकीं मिः , पू सब घर पाय ॥
पा
ेसी रटना शाह तब लवा । जिन्दा मिलन भयो उर भावो
बहुत दिवस रट खागी देसी । आगे कूं भयी गति जेसी ॥
शाह कीन माहं विचारा 1 जिन्दा मिरेसो कौन भकारा ॥
सब सिद्धन को लाउ बुलायी । उनसे पच्छो मति अस भाई ॥
जोई सिद्ध अजमत बतखवें । उनसे खबर जिन्दाकी षे ॥
जबे शाह एेसी मति ठानी । लिय बुला सिद्ध सब ध्यानी ॥
पाखी-सब सिद्धनको टेरिके, शाह किये सन्मानं ॥
देउ करामत सिद्ध मोर, तव मेरो मन मान ॥
सन्मुख शाह सिदध सब आनी । तबदी शाह कहे अस बानी ॥
सुलतान वचन
अधिक प्यारे तुमहौ अद्धः को । करामात दिखलाओं अब हमको॥
ना मं तुम्दको बांधि 2 । ना तो तुम्हको छरी मरां ॥
सद्धं कदचन
तब॒ बोरे सिद्ध चौरासी । हम हरि के आहि उपासी ॥
निशि दिन रामानाम गण गावे । करामात् दिग हम नहिं जावे ॥
यह सुनि शाह बहुत रिसियाना । हकम कोन सब बन्दी खाना ॥
(४४) स॒लतानबोध
सुलतान वचन
तुम् काफि अछ्छाह ते दूजा । भूत प्रेत चित लाये पूजा ॥
च्छ दिग इनको बेटाओ । निशि दिन इनसे नाज दराओ ॥
जो नहीं करामात तोहि होई । क्यों कर सिद्ध कहाओ सोई ॥
सतम द दचन
बेटे सिद्ध सब ॒चाकं चर्व । चित विस्मय सब हरिशणगावे ॥
जास देखि सुनि आयी दाया । ततक्िन शाहद्वार चङि आया॥
सोटा मारा चक्की माहीं । धूह सतगुरू दाया कराहीं ॥
बिदा सिद्ध भये हम भयगुत्ती । देख्यो आय शाहके जपती ॥
कहा साह सो तिन्ह कर जोरी । चद्धी सब आपिं चलि दौरी ॥
सुलतान वचन
सुनि के शाह केकदिर आयी । कौन शख्श यह चकि चलायी ॥
वेगि डि खाओ यहि वारा । चक्की चलायो सो अह प्यारा॥
सतगुरु वचन
दृढत नगर थके दिर जबहीं । नर पाये व्याङ्क चित तब ॥
जबदहि शाह घर लगन विचारा । तब इम जीवदया उर धारा ॥
तुरति जाय तहां पशु धारा । शाहके मह्न चटे गोहारा ॥
महर पर देखत फरो व्ह खूडा । करो पुकार देरानो ऊटा ॥
सुनि के शाह कोधकरि धाये । कौन हमारे महलन प्र आये
कहो तुम कौन कहां से आवा । कौन काज महर प्र धावा ॥
तब हम कहा उट यकं छटा 1 दृूटत रिष य अपनो उट ॥
बहत अधीन उट हम भायो । खोजत उर महल पर आयो ॥
सुनिके शाद तबे रंसि दीन्दा । कैसे ऊंट महर प्र॒ चीन्हा ॥
जंगल मार्ह तेहि खोजो जाओ । कैसे उट महर् पर आ ॥
तब इम कहा सुनो तुम ज्ञाना । चटे तरूत अद्छह किन जाना॥
रेसी ब्रूह् करो मन माहीं । सत्य वचन धरो मन गीं ॥
बोधसार।र (४५)
साखी-तख्त चटे किन वाह्या, सुनो शाह युक्तान् ॥
हरदम साहब याद् कड, रचा जिन सकट जहान ॥
महर न आवे ऊट हमारा । तख्त ॐवर अद्छाह निहारा ॥
अद्ाह तख्त पर कैसे वावे | जहं कमि चट महँ गर्वं रहे ॥
जब तुम छोडो राज शरीरा । अछ्छाह ख्खो तुम अपनो पीरा॥
छोडो मान गुमान रे माई । अछ्छाह इप तब दही भिङि जाई।
घुनत शाह सन्थुख जब आवा । तब जिन्दा से पन खावा ॥
सुलतान वचन
कौन रूप कौन नाम तुम्हारा । को अछ्छाह मिरे कोन बिचारा॥
जिन्दा कंचन
साचे दिलसे सुरति लगाओ । मेम प्रीति लौलीन रहाओ ॥
सुख संपति की करो न आशा । निशि दिन दीया वेम षपकाशा॥
मन अस्थिर करि सुरति ख्गाओ। तबहि दरश अछछाह के वा
कहे कबीर खोजे सो पे । खोजत खोजत अलख कखे
साखी-प्रम प्रीति करि खोजिये, हियमें अव ज्ञान ॥
अलख अछछछाहकी खोजमे, जागत भये सुतान ॥
जिन दढा तिन षाहया, गहरे पानी पेंडि ॥
जो बौरा इबन डरा, रहा किनारे बैठि ॥
चोपाई
जब कीन मन शाह अन्देशा । नहिं तहं ऊट नदीं ्वेशा ॥
देसे बहुत दिन बीता भाई । काल कला घट आन समाई॥
बहुरि एकं दिन बरख मंञ्ञारा । शाहके महर्नमें पय॒ धारा ॥
नौरोजा खेरे खर्ताना । गिरुम विछायबहूषिधि जाना॥
महन मादीं पचे जायी । देखत् पिरे मह _चौपायी ॥
इब्रारीम अधम सुरखुताना । हमको देखत बह रिसियाना ॥
(४६) सुलत।न बोध
सुलतान वचनं
कहे शाह तुम कोन है भाये । केहि कारण तुम महखन आये॥
जिन्दा कचन
हस परदेशी दूर दिशारा । देखत फिर सराय वसोर ॥
सुलतान वचन
शाह कहे यदह महल हमारा । काँ सराय जो कर् बसारा ॥
जेहि मदर दीरा जडा अपारा । तापर धुनी तुम केसे बारा ॥
अब तुम जाओ शहर बजारा । तौ जाइ करो सराय बसारा ॥
जिन्दा वखन
कहे दुवेश सुनो तुम शाहा । करि विचार परखो दिर माहा॥
महरु तुमारा तुम कहं पावा । करो खोज यह् किन निर्मावा ॥
महर् तुम्हारो रोय न भाई । तुम भी खसाफिर बसो सराई॥
सुनो शाह तुम चतुर सयाना । सुरति निरति बुञ्चो तुम ज्ञाना॥
बहुत बादशाह तुम आगे भयॐ। महल न संग काटुके गयं ॥
दादा बाबा तुम्हरा रदिया । महर काहूके संग न गैया ॥
जा तुम थापा महर हमारा । अन्त कारु सब छ्टे घर बारा ॥
यह जग सकल सराय बसेरा । इनमे नाहि कोड केदि केरा ॥
जहां के ताहां छूट धामा । यह सबही दिनचार कामा ॥
हरदम सादिवको पदिचानो । महर सराय एकं करि जानो॥
ज्ञान र्ट दिलमे जब आवे । राज छोड साहिवं शण गाव ॥
साखी-ज्ञानं दृष्टि दिर आवरं, सब तजि होय फकीर ॥
कहे कवीर सुरुतानसे, ज्ञानके लागे तीर ॥
२ इस साखोके आगे एक प्रतिमे नीचे लिखे पद हं । किन्तु यहाँ इनका मेल न भिलनेसे नोटमें
लिखा है ।
बोधसागर ( ४७ )
चौचाई
यकं दिन शाह ज॒ चरे शिकारा। चुनि चुनि साथ लीन्ह असखवारा
छोड वाज पक्षी गहि आने । देखत शाह बूत सुख माने ॥
बहुविधि मारग करत कलोखा । जह तहँ फिरे शिकारिन योखखा॥
बहत समय बीति जब गय } एक् शिकार हाथ नहिं अयॐ॥
चौपाई
ज्ञान दव्टि जब दिलमे आही ! छोडो रज पाट बादशाह ।\
होय ककर जंगलमे बासा। छोड़ो राज तञ्तकी आसा ।)
शाह जो बडे जंगलमं जाई । नगरकी सव परजा चलि अई ॥।
काजी पण्डित शेख मुलाना । महंत महावत गृलासनरराना ।।
सेठ सेनापति परजा आई } सबही धरे शाह की वाड ,।
प्रजा वचन
एेसी बात न करहु गुसाई । सबही राज शष्ट हौय जोई),
ओ तुम तजो तख्त ओ राज् 1 सब परजा का होय अकाञ् 1
सुलतान वचन
नाहीं त्त भिक्ट हम जव 1 नाहि अपने शिर भार चढाषे ।।
यह बादशाही हमसे नहि होवे । कौन तख्त चटि दोजख जोवे ॥।
हम छोडा तस्त बादशाह । फिरि संशय महं हम नाहि जाहीं ॥
विना भक्ति मुदित किन पायी । राज करं सो दोजख जायी ॥।
हमको जाय भिले यक साई । वहि साह म॒द्को फरमाई ॥
मे अपराधौ उनहि न चीन्हा । दिख छांडि उन हमको दीन्हा ॥।
अबतो करो मं कौन उपाई । सांइ म॒सको कस मिलि टै आई ॥
परजा क्चन
अब तुम चलो महलके माहीं । हम सब संग तुम होहु गसाहीं ॥।
तुमक्तो छंडि एको नहीं जेहे । सब मिलि संग॒पयाना दहे ॥
सबि भिलि लाये महल मं्षारा । शाहके मनम शोच अपारा ॥
कंसे के जिन्वा म पाऊं। कसेके मं जिव मक्ताऊं॥।
सुठे अठ भिल सब संसारा । दोजख कुंडमे नाखन हारा
साखी-बेर बेर हमको भले, नाम जिन्दा सो आहि
अभरापन यक सुलतान है, किसविधि भिलेगे आहि ॥
( ४८ ) सुलतानबोध
तबे शाह बहत रिसियाना । खोज शिकार हुक्म फरमाना ॥
तवै शिकारी दुह दिशि धावै । पवि न शिकार मनदि पछतार्वे॥
यहि विचलीखा अस मह भाई । सुलु धमनि तुम चित गाई ॥
हरिन एक जो कनकं रंग देखा । रीरा रतन मणि जडे विशेखा॥
देखि सरूप शाह ररचाई । यहि भिरगा केँ घेरो भाई ॥
आज्ञा पाइ चरे असवारा । घरयो हिरण सेन मञ्ञारा ॥
कृहे शाह जो भिरगा जाई । तुमसे भिरा ठेहौं साई ॥
खेना सब से तब कहे पुकारी । भिरगा भागि शाह तर गयञ॥
शांह सब से तब कहे पुकारी । भिरगा मारि खार यहि बारी॥
भिरगा सग सरतान अकेखा । नहिं कोड सेना नहिं कोई चेला॥
छिन में मिरगा देखि डुषाना । तेहि पीछे धावदहि सुखुताना ॥
कागी प्यास शाद को भारी । महा भयानक बनदी मञ्ञारी॥
वट का वृक्ष तहां यकं देखा । शीतर छाया बहुत विशेखा ॥
मिला फकीर एक तहं वासा । कुत्ता दोय रहै उन पासा ॥
शीतर करशा पानिहि भरिया। जापर ठिलिया मटका धरिया॥
खोजत नीर शाद चलि आये । दआ सलाम करि वचन सुनाये॥
सुलतान कचन
कंदे सुरुतान प्यास हि भारी। जात जान तुम छे उबारी ॥
र्वेश वचन
हम फकीर दुर्वेश करावें । सुरति दोय तो भरो पियावें ॥
फयो शाह जर छियो निवासा । जिन्दे कीना अजब तमाशा ॥
१ दूर से आहू उते आया नजर । पष्टुचा उसपर शाह् घोडा मारकर ॥।
होके वह् अपने सवारों से जदा 1 पोछे दो फरसंग तकं उसके गया ।।
जाते जाते हो गया आह खडा ! वाक्टिसत आबिन अधम से कहा।)
तुक्लको इस खातिर नही पदा किया । बहशियों पर ता करे जौरोजका ।।
है गरज ईंजादसे तेरे कुछ ओर । कर जरा तु दिलमें अपने आप गौर ।।
बात यह कहकर वह् गायब होगया । नक्श उसका शाह के दिलपर हुम ५
बोधसागर { ४९
साखी-गाकर कटी अगिनसे, भिश्री घतहि मिलाय ॥
न्यामत धरी रिकाब्मे, ङत्तासे कह खाय ॥
चोषा
कुत्ता न्यामत खाय न भाई । मार इुरेश इत्ता के ताईं ॥
एेसो चरित कीन दु्वैशा ) तब शाहके मनम मयो अदेशा॥
दुलतन कचन
कहै शाह तुम सुनो दिवाना । यह पञ्च जीव न्यामत कहजाना।॥
जिदा वचन
कृहै फकीर सुनौ बेनादाना ¦ जेसा दिया तेसादी खाना ॥
जौसि करे करतूत कमाई । तैसि देह धरि अगते भाई ॥
याम फेर फार नहि होई। जो बोवे छुनिहे वह सों ॥
सुल्तान वचन
दौयकर जोरिके विन्ती कीन्हा । साहब तुमरी गति इम ची ्डा॥
वानी अगम कहो समञ्चाईं। आगे कौन इते यह साई ॥
। दव्य कचन
तब दुवेश कहे समज्ञायी । खनो 4: तुम मन चितलायी॥
बलख शहर यक नगर रहाई । तरहके है यहं दोनों राई ॥
इब्राहीम अहै यक राजा । एकं बाप अङ् दूजो आजा ॥
राज पाय कङ्क भक्ति न कीना । ताते जन्म श्वान को लीना ॥
१ यहां जो शाह इब्राहीम अम स1हबके चाप दादेको बललका वादशा लिखा है यह बात इतिहास
ओर विचार द्वारा एकदम निम ल ठहरता है, क्यो, कि बलखके वाद शाह इत्राहीमके वाप दादे नहीं ये बरन
इसके उल्टा उनके पिता एक महान संत थे जो परम विरागमान ओर एकांतवास करने बाते थ । शाह इव्रा-
हौमण्ती उत्पत्तिकी कथा बहुतही रोचक ओर आश्चयं दायक है । यहां स्थानाभावसे नहीं दे. सकता गुरुको
कृषा होगी तो कवीर साहबके जोन चरित्रके सहित सुलतान चरित्र भी बहत स्वरूपम लिखंगे । यहां दोनों
क्तो को बसल के बादशाह ओर शाह इब्राहीम अंढमको बाप दादा बतलाना बहुत हौ भूल हे दस हैतुसे जाना
जाता है कि, इस पुस्तकमे भौ उत्तरोत्तर भिलाबर होती शयो टै ओर भिलावट करनेवाले भी साधारण
(५० )} सुलतानबोध
सुलतान वचन
तब सुल्तान कहे सुनु साई । एक बात ओर कटो समञ्जा॥
दोय खट दोय श्वान बेधाये । तीजा खुंटा क्यों खाल रहाये॥
दुबे वचन
कहे दुवेश सुनो रे भाई । याकी गतिहि कटं समञ्ञाई ॥
इतब्रारीम नाम जेहि होई । बरुख शहर का राजा सोई ॥
राज माहि बहुत सुख करि । भाव भक्ति नाहीं मन धरि ॥
विना बन्दगी जिन टे देहीं । वे पुनि जनम श्वान को ठेी॥
इसमे जड आनि के ताहीं। तब ये तीनों रहे एक टाहीं ॥
इतनी सुन दुवेशहि बाता । शाह के मन मे छागी चाता॥
सुलतान वचन
सुनि सुतान अचम्भा मय । तब दुव॑श हि पुन छ्य ॥
श्वान योनि कस टे साई । ताका भेद कटो समञ्ञाई ॥
दुवेश वचन
केहे दुवेश भक्ति जो करई । सो नर श्वान देह ना धरई ॥
केरे बन्द्गी साहिब केरी । दया मिहिरकी दशा जा होरी॥
तरेम प्रीति परमारथ नीका । माया मोह जाने सब एीका ॥
सब सुख नामहि से खौलावे । सो जिव श्वान जनम नहि वावे॥
सुलतान वचन .
शाह कंडे जो रेह बचाई। सो दुवश सच रै भाई॥
सो दुवैश खुदा का बन्दा । श्वान योनि का काटे फन्दा ॥
जि
वि्ारके जान पडते हं । एसी एसी मिलाव ओर भूलके कारण कबोरपंयो साहित्यको निन्दा होती है ।
किन्तु बुद्धिमानों को विचार पु्वकूही उते ग्रहण त्याग करना चाहिये ।
बोधसागर ( ५१)
मन मे शाह तब देसा जाना । यह वैश ह खदा समाना ॥
बार बार मोहि आनि चिताई । सोह दुवैश आप है सोह ॥
तब अषने दिल कीन्ह विचारा । इनसे कारज होय हमारा ॥
जो यह कहे सोई चित दीजे । इनका वचन मान शिर टीजे ॥
इतना शाह मन करत अन्देशा } नरि वहं इ्त्ता नहिं दुवंशा ॥
तबहि शाह मन कीन विचारा । निश्चय है यह सिजन हाया ॥
साखी-कंहै शाह अबकी मिरे, पुरवे मनकी आस ॥
कदम शिरे इुआवहूु, पर्कं न छाडं पास ॥
चोपाई
बन ते शाह नगरम जाई । मन जिन्दा रहा समाई ॥
जिन्दा वचनं
प्त रूप तब शब्द् उचारा । इब्राहिम सुलु वचन हमार ॥
नाहक जिव तुम मारि उडाह । तेसा हार वम्ारा भई ॥
जाहि समय इजराइरु देह । महा भयंकर ङ्प दिह ॥
हनि अुगद्र धरि चोटी । उडे अगिन तब बोटी बोटी ॥
ताहि समय पनि करि रोरा । काम न अबे सेन करोरा ॥
भारत पछी दरद न आई । एक दिन ठेसा त॒म पर भाई ॥
बेन सुनत अरछित मन माहीं । यत्त भये पकछताने तादी ॥
कहे शाह खोजो तेहि जायी । जिन एसी अहि बात सुनायी ॥
खोजि थके पुनि सहि न्ह पाये। सुरित शाह भवन चङि आये॥
तबहि शाह मन ज्ञान समाना । जिन्दा बचन सांच कर माना॥
राज पाट सुख सम्पति देहा । यह सब दीखत स्वप्न सनेहा ॥
ज्ञान दि दिरमे जब आदी । छोडेड तख्त तबे बादशाही ॥
१ मुसलमानो धमक विश्वासके अनुसार इनराहल एक फरिश्ता है जो सब भराणियोके आत्माको
शरीरसे अलग करता है तब मृत्यु होती है ।
( ५२) सुलंतानबोध
दोय फकीर जंगल कियो बासा । राज काज की छाडी आसा ॥
सबही लोग नगर के आये । आई शाह के लागे पाये ॥
काजी वजीर ओ शेखश्चुखाना । महन्त महावत नफर गुलामा ॥
रागे सबरी शाह के पाई । सबदि मिखि के विन्ती खाई ॥
षेसी बात न कीजे साई । तुम षिन यह परजा दुःख पाई॥
जो त॒म तख्त न वेगे राजा । सब परजा को होत अकाजा ॥
राजा से परजा सुख पवे। जहां तहां आनन्द रवि ॥
सुलतान वचन
के सुरूतान सुनो रे भाई । हमतो तख्त के निकट न जाई ॥
ना इम पावे तख्त पर रवे । ना अपने शिर भार चटा ॥
अब॒ हम तख्त न बेटे आई । बेटे तख्त सो नरकरटि जाई ॥
अब हम राज तजी बादशाह । यम की मार सही नहिं जादी ॥
भक्ति विना जिव भुक्तिन पावे । राज करे सो नरकरि जावे॥
हमको आज मिले यकं साईं । सो साहिब एेसी फरमाई ॥
मै अपराधी उन्हे न च।न्दा । अधविचछोडिसो मोको दीन्हा॥
अब इम करिहै कोन उपाईं । वह अवसर भुञ्चको कब आई ॥
भजा बचन
प्रजा कहे सुनो दो साई। अब तुम चलो महर के भाई॥
जो तुम राज छाडि बन जदो तो ` सब संगं तुम्हारे रों ॥
साखी-यदां रहन को छोडि के, तुम सग करि प्यान ॥
एसे वचन प्रजा कहि, खाये गृह ॒सुरुतान ॥
चोपाई -
जब आये शाह महल म्रा । उठी बिरह मन मादि अपारा ॥
अबे किसर विधि जिन्दा पाऊं । उन बिनु होय न मोर बचा ॥
यद् सब रोक अहै संसारा । नरक कुंड में डारनदारा ॥
बोधसागर ( ५६३ )
देसी कर्णा भयि दिर माहीं । जिन्दा महर मिले केहि उही॥
भयी शाह मन विरह अपारा । जिन्दा जिन्दा करड बुकारा ॥
साखी-उन मभनम थुञ्चको भिदे, नाम न दिया बताय ॥
ईत्रादीम सरूतानको, भयौ मिलनको भाय ॥
चोपाई
रुरठित शाह मन चलि आवा । मनये जिन्दा आनि बसावा ॥
थोडे दिन विरहा अधिकाई । फिरतो धरम जार फेलाई ॥
माहि पुनि राज तहँ सुख पाये माथा मोह देखि छख्चाये ॥
गया ज्ञान सुखे में लपटाना । काक जाह चट आनि खमाना॥
उरञ्चे शाह स्वाद सुख रंगा । देखि रंग मन बहत उद्गा ॥
पुनि क्क दिवस जो एेसे बीता विस्तरे शाह अद्छाहकी चिन्ता ॥
एसी चाल देखि हम राही । राजन कछोडे रोम सनमारी ॥
तब हम शूप जो कीन खवासा । जेहि ते तख्त की जडे आशा॥
जैसा जिव तैसा तन धारा। कोह विधि जिय उताङ् वारा ॥
चतुर सहेखी शप अपारा । शोभा अग अग अधिकारा
होय खवास बाग्मे जायी । एल लाय रचि सेज विश्ायी ॥
बहु विधि एूलन सेज विवे । जहां शाह पौटन निज जव ॥
देसहि करत बहुत दिन गय । तब हम एक अचम्भा कियञ॥
एकं दिवस चित एसी आयी । ताहि सेज हम पौटे जायी ॥
हप खवासिन तहं हम कीन्हा । घडी एक पोदी सुख न्ड ॥
आये महर सेज दिग शाहा । पौटि सदेली करे सुखलाहा ॥
इव्राहीम देखत रिसियाना । मनमाहीं बहते खिसिआना ॥
हमरी सेज आह पौटाना । हमरी चाम तनिक निं माना॥
हांक मारि तिहि टेरि जगायी । देखत शाह मन कोष समाई ॥
शाह कहे क्यों पौदी नारी । बटो कोध तब ताजन मारी॥
( ५५४ ) सुखतानणोध
धै&छन्द्-इकुम कोन शाह तन छीन रावं ताजन मारिये ॥
ताहि पीके शीश उतारो पकडि युजा फरकारिये ॥
मारन रागेड शाह तेदी खन हम कौतुक कीन्हे ॥
हसो सहली रोवे नहीं आस अतिशय तेहि दीन्हे ॥
सोरठा-बूञ्चे तेहि सुल्तान, भै मारी तै क्यों रईंसी॥
कहो साची सहि दान, कहो सत ना इ्म्दखाय मुख ॥
योपा
बहत कोध करि मारा जरी । बहुत हसी सहरी तवबही ॥
हंसत सुरुतान अचम्भा कीना । निकट बुखाय पूजि तब ीना॥
निकट बुखाय आप सुल्ताना । वखश्यो चक करयो जिवदाना॥
सुलतान वचन
यह तुम मोहि कटो खमञ्ञायी । भारत तोहि हसी क्यों आयी ॥
सच सच बात कहो निःशंका । तमतो जनि मानो हमारी शंका॥
सहेलोवचन--चौपाई
तबहि सहरी करे बखाना । सुनो शाह तुम चतुर सुजाना॥
एक घड} सुख हम जो टीना । ता कारण इतना दुःख दीना ॥
* इस छन्द ओर उमके नीचेके सोरठाक पुरानी प्रतियोमं गन्ध भी नहीं हे ! वरन् आगेसे जो चौपाई
चजी हं उसका ऊपरकी चौपाईके साय सम्बन्ध है 1 यह छन्द ओर सोरढा किसी महात्मान वे रागके जोशमें
आकर लिवमारा है किन्तु कविताको कसी मिद्रौ खराबको है उसको बात पाठक छन्द ओर सोरठासे समज्ञ
जार्थेग 1 देखिये सोरठाके प्रथम दोनों चरण तेरह २ माघ्रासे पूणं हे ओर तीसरे चरणमें भौ १३ मात्रा हं
जौर चौयेभं प्रह । कहा तक कहे इसी प्रकारते उत्तरोत्तर भटराचार्य्योने प्रन्थोके विगानं एसा भाग
लिथा है कि; जजिस्ते कबोरपन्थको साहित्य मृतप्राय होरही हे 1 मसे सब ग्रन्थोके शोधनेमे कंसी २ कटि-
नाइयां उठानो पडतो है म हौ जानता हं तिसपर भौ मुज्ञ कहां तक सफलत! हुई है पाठक स्वयम् समन सकते
हं \ बततमानमं यदपि कख कुछ विद्याको ओर सुकाव कबीर पंथिर्योको हो रही है तथापि अभीतक दो चारी
को छोडकर कोई भो एता कबोरपन्यो नहीं है जो अपना कलंक ओर अपना विचार कबीर साहब कबोर
पन्थी साहित्यके वे मत्थ न भोपता हो । | |
नोधसागर ( ५५ )
सदा सर्वदा जो सुख करदं । तापर भार किती सो प्रह ॥
कहा क मोहि रही न जायी । ता कारण मोहि शंसी आयी॥
उभर भरे खख कीना ठेसा ) ताका हार होयगा केसा ॥
याकारण हंसी हम शाहा | कीजे जो म्हारे दिक चाहा॥
राज करइ बहते सुख पयवे । तन छ्ृटे चौगसी जवे ॥
चौराशीमिं ह कष्ठ अवरा । विना नाम नरि होय उबारा ॥
आखिर खाक होय तन तेरा ) वचन मानि छे यह अब मेरा ॥
कदा तख्त शन्या सुख पाओ । राह खदा यें चित्त लगाओ ॥
देह मिर्गी खाक तुम्हारी । चतुर सटी कहै विचारी ॥
साची राह गहो त॒म शाहा । जन्म पाय कठ छागो लाहा ॥
सतश् मिरे तो मेद बतवे। जाते जीव क्ते घर पावै ॥
तहां जाय जिव करे अनन्दा । जनम जनम का मिटे घब फन्दा
साखी श सद्ररू भेद जो पावह, होय अक्ति घर बाख ॥
जन्म मरन फन्दा मिटे, तब सुख पावें दास ॥
चौपाई
वचन सुन्यो जब शाह सुजाना । तब कडु दिल मे उपज्यो ज्ञाना
तेरा वचन सही सुनु नारी । सब सुख छोड़ अ्छाह चितधारी॥
शाह विचार कीन मन तबदीं । निकसि जाडं जंगर बिच अबहीं॥
कहे सहेटी सनु सुल्ताना । दिले धरो अद्छाह को ध्याना॥ `
जंगल बडा जेरी जिन देदी । हवा हिसं तज निज मति एदी॥
नेकी करो बदी तुम शंडो । दया मिदर दिल अपने माडो ॥
परमारथ पर सब कडु वारो । पाक जात अद्छाह चित धारो॥
सुनत वचन खागा चित घा । शाह कचन सुनि लागे पाड ॥
केहे सदेली ज्ञान अपारा । जो दिर धरो तो उतरो पारा ॥
* यह् साखी भी पुरानो पतियोमे नहीं है ।
( ५६ ) सुलतानबोध
$& सेनि कर शाह अचम्भा मयऊ। एेसो वचन कबरी नहिं कटेॐ ॥
भयो ज्ञान शाह सुनि वानी 1 कारु करा फिर आनि समानी॥
अक्ञ्चे शाह स्वाद् सुख पायी । भयोमगन मन अति लख्चायी॥
सखाखी-ससी सहरी संग लिये, करत रंग अङ् राग ॥
विखरे ज्ञान विचार सब, मोह बान उर रखाग ॥
चौपाई
यक दिन शाह सेजरदीं सोया । तोशक ज्र विोना जोया ॥
दद उष्ण छेड़ अवसर तादी । नीद न आवे बहुत सिसाही ॥
कोई सखि पेखा पवन दुरावे । कोई चन्दन घसि अङक लगावे॥
तवबहू नोद् न॒ आवे शाहा । बह व्याङ्करु अति तन भई दादा॥
एक चरि तहां हम कीना । साखी हप धरि दशंन दीना ॥
सुबुधि सखी जोरे दोह पाना । सुनिये एक अरज सुखुताना ॥
कहूं वचन परमारथ जानो । सुनत कोध दिक जो नहि आनो ॥
यह तन पाय बहुत सुख कीना । कबहू धनी नहीं दिर दीना ॥
जिन साहिब यह देह बनावा । तख्त सेज सुख राज करावा ॥
कोडा कोर अमीरी भारी । गज ओ तुरंग हरष संग नारी॥
एसा साहिब क्यों विसराये । राग रंग चित अति हरषाये ॥
जब वह साहिब कोप कराई । तेहि समय को होय सहाई ॥
साखी-सादिब रीञ्चे जेहि समय, देइ विदिश्त को वास ॥
मालिक मेरे पर्कं मे, करइ राज सुख नाश ॥ `
चोपाई
आखिर देह मिलेगी खाका । साहिब नेह करि दोऊ पाका ॥
बचन सुनत चित गहबर भयऊ । आंसू बहुत चक्षु ते गय ॥
१ इस चौपाईते लेकर आगे जिस चोपार्ईदके अन्तमं इसी प्रकारका फूल दिया है वहाँ तकत पुरानी
प्रति्योमि नहीं हि!
बोधसागर ( ५७).
तबहि शाह दिक अपने जाना । नारी च अस हौयन ज्ञाना ॥
यह तो शुशिद मालिक मेरा । धरयो हप इन नारी केरा ॥
तबहि शाह दिलमाहि बिचाय । हम कारण इन यह तन धारा॥
जो यह् कहे मानि शिर लीजे ! जाते कारज अपना कीजे॥.
अब यैं वचन मानि शिर छे । चरण कथल मँ मस्तक देऊ ॥
हम पुनि गुप्त भये तेहि थाना । देखत शाह बहत अङ्खाना ॥
कहे शाह कही अस बाता । घाव अचानकं किये रुहि जाता॥
क्कु दिन शाह विरमे रहे । बहुरि शाह दिर मोह सो गहैड॥
तब दिन एक शवान यक आवा । जाके शीस माहि बड चावा ॥
कीन माथ देह भरि जादी । कल बल करिव्याङ्खल तनताही॥
श्वान विकल डोरे चहँ ओरा । आयो शाइ डिग तबही दोरा
सखी सहेटी मारन धायी । शाह श्वान कहं छीन इलायी॥
कटे श्वान सुव॒ शाह सुजाना । हमहूँ रहे बडे सकताना ॥
खख सम्पति पुनि तिरियारंगा । जीव सतावे बहुत अस अंगा॥
सोना हष कटकं गज बाजा । अत धमय कोड अवि न काजा॥
साखी-मातु पिता सत बौधव, ओरौ दुलहन नारि)
अत समय सब बिद्धरईयह शोभा दिनि चारि ॥
चौपाई
प्यासे जल नागे पट दीजै । भरकै नाज मिहर दिल कीजे ॥
जेसी परी आप कँ जानो । तैसी सकर जीव पहिचानो ॥
हवा दिसं तन साधो भाई। साधो पीर मिटे दुचिताई ॥
इतना कदी श्वान ऽहि धाया । सखी सदेखी मोह गाया ॥
पुनि दम कहा गेब की बानी १ । सुनदि शाह सह सखी सयानी॥
आकाश ब
यह नर नरक फेर बनाया । तुम तो बहुत नरकं मन खाय्॥
सखी सहेटी काम न आवे । जही धरि यम आनि सतवे॥
( ५८ ) सुलतान लोध
तात मात खत नारि खजाना । काम न अवे सब बिरगाना ॥
ढे करं खुशामद तेरा । बांधे यम तब देख चमेरा ॥
उदि अङक्लाय शाह चित लागा । देखे नहीं उपने अनुरागा ॥
दया सिहर घर आन समाना । छोडे जीव घात अभिमाना ॥
पीर शाह के घटहि समायी । भूखे नगे सब दीन बुलायी ॥
मनमां कहे करो सो पीरा। जिन दिन्ह मोही चेत शरीरा॥
परेमविरह निशिदिन चितरागा । अहक नाम सुमिरन अनुरागा ॥
जेहि दिवस छटे मम जामा । ज्जा सुख नहि अवे कामा ॥
यकं दिन शाह किये अशवारी । बरुख शहर देखा निश्वारी ॥
कहवा देखो पीर सुजाना । जिन सहि कहा मेद निर्वाना ।
डेरा सहित सखी रंग सेना । चछ वेगि चित नान चैना॥
बेडा एक उट तजि प्राना । पचे आप तौ सुताना ॥
देखि ऊट दिर भये उदासा । रोषे बहत विकल धरि स्वासा॥
ेसी गति यक दिवस हमारी । अपने मन मँ यही विचारी ॥
माया मोद अहै जंजाला । दिना चार का डा ख्याला॥
इ्राहीम क्यो गोहराईं । जाह से अपने घर भाई ॥
ॐ छद्-गजसे उतरी ठाठे भये सब दिये भषण डारिहो ॥
चोला पदिर शिर ताज दे तब चर निर्धार हो ॥
सेना सकर विरखित वदन सब कग्दीं शोर सहैछियौ॥
मम खर ख्य को सखी शिर कूटि मरह सदैलिर्यौ॥
सोरठा-घेरि राह सब रोग, कोड न छोड शाहको ॥
एेसे सबको सोग, पुत्र मरे जिमि विकल जग ॥
# पुरानी भ्रतिर्योभं समस्त ग्रन्थभरमं छन्दक] शन्ध भो नहीं है किन्तु नयो प्रतिर्योमं ये वेतु न्व
कई मिलते हे । इसी प्रकारसे करई सोरठ मोर दोहे (साखी) को भो पाया है 1 पुरानी प्रतिर्योमिं तो बह
है ही नही हे किन्तु सर प्रतिर्योभिं एकदम बेतुक हे ।
बोधश्लागर (५९ )
छन्द्-केहे शाहको समञ्च दिल इमरी खबर को ठेहमा ॥
सब माहि दाता सबनको सो सबन भक्षण देहमा ॥
भां केरहेशिकममें तँ को खर जग लेत है॥
जल थल दहै घट सकल पूरण जो जहौ तहं देत है ॥
सोरग-साञ्ज कदे भोरे ठक हन; सनत दिन बीति गये ॥
शाह दिये नहिं चैन, पिले वपहूर उढि चङे ॥
चोपाई
निकलत शाह कोड नहिं जाना । उटि चस्यो जंगल कहं सुलताना॥
नगे पाव पनही नहि लीना । देसे शाह धनी दिर दीना ॥
स्वाद सखाह तजी सुख गेहा । राजवाट जान्यो सब चेहा ॥
साखी-सोलहसे सहैलि्या, तुरी अटरह ख्ख ॥
साई तेरे कारणे, कोडा शहरबलख ॥
चोपाई
सकर छोडि के भये फकीरा । छागे विरह बानं गंभीरा ॥
पिव कारण तम्यो सब आशा । जगत नेह तजि भये उदा्ता ॥
शाह निपट बहुतहि सुकुमारा । तिन सुख तजि गद्यो इःखपारा॥
धा लगे कोह जांचे नाहीं । गहि संतोष रहे मन माहीं ॥
छन्द्-र्पोव छे पडि गये चरि पथ पग थदहरावई ॥
कोह संग आगे पाछे नादीं धूप खगे कुम्हलावई ॥
अन्न बिना दिन तीन बीते हरष शोक नरि वित गहे ॥
शाह निशि दिन अति विरागी नाम अविचल पद् चहे ॥
१ पेट । २ वतंमानके अथवा इसके थोड दिन प्रथमके परम मस्त महात्माओंके विदताके नभूनेके
लिये पह सोरठा जंसाका तंसा रद्खा हो ।
२ पुरानी प्रतिर्योभे हसी साखीते पुस्तककी समाप्ति होती है किन्तु इसके प्रथम बहुत कु विषय है
सो इस पुस्तकमे आगे आवेगा इस नोटमे हस विषयमे विशेष नहीं लिखा जा सकाता ग्रन्थके अन्तम “श्रग्थ
विषेजन'' नाभक हेडिगके गोले लिखा जायगा ।
= दः
( ६० ) सुज्ताननबोध
सोरा-तब साहब कं दीन, खा सुखा ट्कडा ॥
शीस नायके लीन, खरी कसौटी नामकी ॥
चोपा
कु भायो कडु ओरहि दीना । मनम नारि ग॒नावन कीना ॥
जो सुख पांचो असरत पावत । सो श्ुख सुखा टकडा खावत॥
आसन वासन अभरूषण नाना । सो खब तजे भूरि मनमाना ॥
जेहि लागी तिन देसी कीन्हा । कहे कवीर प्रेम मन चीन्हा ॥
प्रेम गली अति सांकरि भाई । राई दशवां माग रहार ॥
मन अहि रावत किंस विधि जवे । विररे सत कोह मारग पावे ॥
साखी-प्रेम बन्ध अति दुलभ, सब कोड सकेन जाय ॥
चटना मोम तुरंग पर, चटख्ना पावकं भाय ॥
छन्द्-मिही सुई को नाको जिमि तिमि इश्क मारग उानिया ॥
ताही ते कोड ञ्जीनि होह के प्रेम अगम गम जानिया ॥
जिन करि फना मरो आपको सो रहं खखको धामहो ॥
कँ कबीर आप जहां तहां नरि मिरुत अराम हो ॥
सोरढ-मन महं शाह उदास, कबहुकं दरश भ पाइहौ ॥
पुरवरं मोरी आस, प्रगट शूप जब देखिहौं ॥
जबहि शाह घट विरह समायी । दोय कर जोरिके बिन्ती खायी॥
दीन दयार दया अब कीजे । अपना दर्शन मोको दीजे॥
शंब्द स्वरूप रदिषूप छिपाओ । प्रकटरूप सुदिद्रश दिखाओ ॥
जब हम लगन शाह घट चीन्हा।तब हम प प्रकट तहे कीन्हा ॥
१ पुरानो प्रतिर्योमं यह् चौपाई इस प्रकार है:
नारि रूप तुम लेड छपाई । पुरुष रूप धरि दरश दिखाई ॥
ओर हसक सम्बन्ध उस कथासे हे जहो सेली गादशाष्टके सेजयर सो गथ है मौर उसे मार पडाहै।
धर जब सखीन नादशाहको समक्षाया है तब बादशाह पने मनम विचारने लगा हे कि।
वोधसागर ( ६१)
धव्यो स्वरूपं अंग उजियारा । जगमग ज्योति तेज चमकारा॥
उठत सुगन्ध अग बहूताई । परिमल बास महेके सब ई ॥
। बहुत कान्ति दीसे उजियारा । देखि शाह भये हर्ष अवारा ॥
तबही शाह चरण ल्पटाये । दौड कर जोरिके विन्ती खये ॥
धन्यं भाग भ्रुहि दर्शन दीना । पतित जीव पावन कृरि लीना॥
लगे शाह सतश् के चरना । अब् अहि राखो साहब शरना ॥
धन्य धन्यं तुम आपु गुसाई । आपन मेद कहो समञ्चाई ॥
कँ तुम रहौ कहांते आये । वह सब गम्य कहौ समजञ्ञाये ॥
साहिब अपना नाम बताओ। अपना जानि जीव अकता ॥
अबतो यह कला जानि हम पायी ! साहि इमको दरश दिखाई ॥
तुम विनु दया करे को रेसा। जनम मरनका मेरे संसा ॥
अब अुदिष्ुशिद भेद बताओ । तुम साहिब इम बन्दा आओ
कबीर वचन
कहे कवीर सुनो चित लाये । अमर खोकते हम चङि आये ॥
नाम कवीर हमारा होई । हस उवबारन आये सोई ॥
चौपाई
कहे सहेलो ज्ञान अपारा! जो दिल धारो तो उतरो पारा ॥
तबे शाह दिल अपने जाना । नारीमं अस होय न जाना ॥
यहतो है खुद साहिब मेरा 1 धरा स्प इन ख्वासिन केरा ॥
तबे शाह दिल माहि विचारा ! हम कारन इतना तन धारा ॥
जो यह कहे मानि सोलोजं । जाते काज आपनो कौजे ॥
जो मे वचन मानि शिर लें 1 चरण कमलम मस्तक देऊ ॥
जबे शाह घट प्रेम समायो । दोय कर जोरि उन विन्तो लायो ५
धन्य भाग महि दशंनदीना 1 पतित जीव पावन करि लीला ॥।
शाह लगे सतगुरुके चंरना । अब महि साहिब राखो शरणा ॥।
दीन दयालदया अनब कीजे । अपना दशन भोकषहं वीजे )।
नारि रूप तुम लेहु छिषपायो । पुरुष शूप धरि बरश दिखायो ॥
इसके ओगे जो पुरानो प्रतियो मं आयीहैसो यहाँमौ व्ही षात आयौ हे ।
( ६२) सुलतानणोध
ज्ञो जिव साने शब्द हमारा । सो जिव उतरे भोजर पारा ॥
तबरी शाद मये आधीना । शिर रेड चरण कमल में दीना॥
चरण पारि चरणामृत लीन्हा । प्रेम भाव सतशुङू करं चीन्द। ॥
सुलतान वचन
अब् कीजे मम साहिब काजा । जाते नहि कछेडे यम राजा ॥
सोर नाम अहि देह बतायी । जाते जीव अमर घर पायी ॥
कबीर वचन
कर कवीर सक्ति तब पावे । सुरति निरति रे शब्द् सभावे ॥
उन्सुनि ध्यान रहो रौ खाई । अजपा जषो सदा दिर माई ॥
निशि दिन मनुवा अस्थिर राखो । नाम अमीरस रसना चालो ॥
नाम प्रताप युक्ति जिव पावे । जनम मरणको दुःख भिटवि ॥
गहौ नाम सत्य खोक सिधावो । तहां जाय बहते सुख षावो ॥
वहि घर दसा करहं आनन्दा । काटे कमं कालको फन्दा ॥
बहुविधि शोभा शूप अनूपा । षोडश रवि सो सको ङ्पा ॥
किया चहो तुम अपनो काजो %।यम तृण तोरि आरती साजो ॥
सहज चोका करि दीनो पाना । यमका बन्धन इद्य उठाना ॥
अमर अंक जो परवाना पावे । कारु कटा तजि लोक सिधाबे॥
प्रथम पान प्रवाना लेह । पीछे स्षार शब्द तेहि देई ॥
तब -सतश॒र्ने अरुख रुखाया । करि प्रतीत परम षद पाया ॥
ेसी रहनी गहे जो कोई । सत शुक् पद पावे नर सोई ॥
तन मन धनका मोह विक्रार । सो हंसा सत्य रोकं सिधारे ॥
सोरठा-शाह किये तन खाक, अपने पवि के कारने॥
खाक मिली भये पाक, आदमते भये ओखिया ॥
„ इस आधौ चौपाई तक् तो पुरानो प्रसिके अनसार है । इसके प्रथम जो गडबड है बह वहाँ टिष्पणियों
वारा दिखलाथो चुका हँ 1 अब यहासि जो गडबड है सो नवोन प्रति कौ पंक्ति पूरी हौ जानेपर एसी टके
चिष्हरे साथ उसे भो देदृणा । |
बोघधचागर (६३)
सुनो धर्मदास सुजान; शाह भये जीवन शक्त ॥
पद् पाये निवन, शब्दं परखि करनी किये ॥
चौपाई
धरमदास चित अति हबाये । प्रथुरीहछा तुवं वरणि न जाये ॥
शाह काज धारे प्रथु कूपा) सखी नाम धर कला अनूषा ॥
अमितकला जीवन सुख दाता । भव ब्रूडत राखे शठ अता ॥
अधम उधारण नाम तुम्हारा । बहत जीव कीने भव पारा ॥
महा नेह तुव चरण ल्गावा । यश शद्लो ओर परम वद पावा
साखी-सत्य कबीर समरथ धनी, दो दीन कै ईश् ॥
सुयश सुन्यो सुल्तान को, धमनि नायौ शीश ॥
नवीन प्रतियोमें पुस्तक यहां आकर समात्र होती ३ किन्तु
पुरानी प्रतिर्योमं ७३२२८ पृष्ठके पक्ति की आधी चौपाई
“ किया चहो तुम आपनो काजो” के आगे की बाणी उप्यक्त
नवीन प्रतिसे एकदम विशद नीचे छिखि अनुसार है ।
ओर नवीन प्रतिसे पुरानी प्रतिके अंतके ठक समान न
मिलनेका कारण उसे पृष्ठकी रिष्पणीमें दे दिया है। ओर
विशेष वृत्तान्त पुस्तककी समातिम ठैगे ।
षा
किया चाहो तुम आपना काज्। तुम्हारौ राज छडिदो आज् ॥
सतय नाम गहो विश्वासा । जाते मिरत कालको जासा ॥
यहि सुनि शाह तख्त तब छडा। प्रकरे ज्ञान हिया यण बाडा ॥
तब सतय॒ूने अख कुखाया । करी प्रतीति परम षद् पाया ॥
सांखी-सोलह से सहैलियां, तुरी अगरह लख ।
साईं केरे कारणे, छोडा शहरबलख ॥
इति
यह साखी एक स्थान में भौर भो आगयी है ।
( ६४ ) सुल्तानबोध
ग्रन्थ विवेचन
इस अथकी कई प्रतियों मेरे षास उपस्थित है जिन्मसे कोई
पुरानी सौ बषैसे अधिक की लिखी इई भी ह किन्तु पुरानी प्रति
की अपेक्षा उत्तरोत्तर २ जैसे ३ नवीन पुस्तक छिखी गयी है सबसे
कुछ बृद्धि ओर प्रसगका उलट फेर ओर छन्दोभग का समा-
वेश टदोता गया है नवीन प्रतिर्योके अन्तम कईं पुस्तके
किसी किसी महात्माओने अपना नाम लिखकर अपने को
पुरुतकका कतो सिद्ध करना चाहा है । चाहा तो सब कुछ रै
किन्तु छिखते छिखते दोहदा ओर सोरठ भी श्रु्ध नहीं ख्ख
सके ह । सबसे जो पुरानी प्रति मेरे षास मौजूद है वह नवीन
सब प्रतियोंसे अधिकं शुद्ध ओर छोरी रै ओर उसका आरम्भमी
“बरुख शदर एक अनरूपा से होता है दीक उसके उल्टा नवीन
प्रतियोका आरम्भ ““धमदास उटि विन्ती खाई" से होता ह।
इसी प्रकारसे पुरानी प्रतिर्योकी अपेक्षा नवीन प्रतियों के मध्य
मध्यमे अधिकं कथाएं इतनी मिलाई गयी हँ कि, पुस्तक
डवटी हदो गयी हे । इतनीदी नहीं है कि विषय बढाया गया ईै
किन्तु साथ दी साथ थोडे २ वचन किसी एक दोहा किसीमे एक
छन्द् (जो सब अञ्जुद्ध है) बढाकर बढाने वारे अहाशय
न्थके कृतां बन गये है यद्यपि मैने इस पुस्तकं को सब
प्रतियोके अनुसार टीक कर दिया है तथापि जहां २ विषयो
को उलट फेर अथवा घटाव बढाव हुआ है वहां टिप्पणी
देदी है । इस ग्रन्थकी पुरानी प्रतिमं कबीर पथकी अन्य ग्रंथों
के समान किसी कताका नाम तो दै नदीं किन्तु नवीन
प्रतियोमिं कई कतांओंका नाम. इससे किसी एक कर्तका
नाम निश्चय करनेमे अशक्ति दोकर भने किसीका नाम
बोधसागर ( ६५ )
नहीं दिया है ओर यथार्थं म हैदी यही बात किं कवीरपंथ की
जेसी ओर पुस्तकों कतीका नाम नहीं हे किन्तु वह कृीरपेथी
पुस्तक कदलाती है ओर कबीर साहब तथा धर्मदास साइवके
सम्बादरमे लिखी गयी ह ॥
इस पुस्तकके अतिरिक्तं ओर भी निर्भयज्ञान आदि अनेकं
पुस्तकोमें सुलतान इवाहीम अद्धमके विषयमे बहत इछ बात
आयी ह जिन परस्पर बहतदी भेद हैँ ओर कितने विषय देसे
जो एकमे ह ओर दूसरे नदीं ह । इस कारण शाह इबाहीम
अद्यम् सदेषका वृत्तान्त गमे संक्षेप छिख देता ह क्योकि वि-
स्तारसे लिखनेके लिये एक स्वतंञ पुस्तक जिखनेका विचार ३ ।
घरुतान शाहं इत्ाहीम अद्धम साहिवका
संक्षेप चखिं
उत्पत्ति
इस सुखुतान इब्ाहीम शाहके पिताका नाम अद्म शाह था ।
आप संसार त्यागी फकीर थे। अपनी फकीरी ओर तपस्यामे पूरे
थे । वस्तीसे सदा अलग रहते े। प्रार्धसे जो कन्द, भूल,
फल अथवा नाज मिक जाता था उसी पर अपना समय विताते
थे किन्तु कभी एकं स्थानमें जमकर नदीं रहते थे । कमी उनने ,
घर नहीं बांधा । कहा भी है कि
साखी-बहता पानी निम॑ला, बन्धा गन्दा होय ।
साधू जन रमते भरे, दाग न लागे कोय ॥
कुछ समय तक तो एेसेही निःसंग फिरते रहे। फिरते फिरते
एक बार ॒बल्ख शरम पचे । ठहरनेके य्यि तो शदहरसे दूर
उन्होने जंगलमे निश्चय किया किन्तु नित्य शदहरमें फिरनेफे
न.६ कबीरसागर- 3
( ६६ ) सुलतानबोध
स्यि जाया करते । एकं दिन संयोगसे बलखके बादशाहकी छखड-
की को देख छखिया ) अब तो ज्ञानध्यान सब वैरागभूर गया । उस
शादजादी पर उनका मन एेसा आसक्त इआ कि, उसीके विर हमं
दिन रात फिरने खगे । अन्तमं उसके मिलनेका कोई उपाय नं
देखकर स्वयम् उन्होने बादशाहके पास जाकर अपने विवाहके
ल््यि प्राथना कौ । उनकी प्राथना को सुनकर बादशाह तो सन्न
रोगया । वह शोचने लगा कि, एेसे फकीर भीख मांगतेको कन्या
देकर उसे दुखसागरमे इबाना रै । बादशाहने एसा मनही मन
विचार तो किया किन्तु आस्तिके होनेके कारणसे दुबेशकी बद्-
दुआ ( शाप ) से डरकर कुछ बोल नहीं सका ओर उसने दूसरे
दिन पिर उन्दं आनेको कहा । उनके चरे जानेषर बादशाह ओर
वजीरने परस्पर विचार करके अद्धमशाहको गरू देनेका उपाय
निश्चय किया ओर जब् नियत समय पर अद्धमशाह बादशाहके
पास पडुचे तब वजीरने उनसे कहा कि, शाहजादीने अपने वि-
वाहके यिय यह प्रतिज्ञा की रै किं, नमूनेके अबुसार जो कोई
दूसरा मोती खे आवेगा उसीके साथ वह व्याह करेगी । अद्धम-
शाने वजौरको बहत कुछ समञ्जाया बुञ्चाया गिडगिडाये रोये
कल्पे किन्तु वजीरने एक भी न मानी । अन्तमं वंजीरसे शपथ
पूवैकं वचन लेकर वह मोतीकी खोज करनेको निकरे ओर दो
वषेतकं देश २ नगर २ ग्राम २भटकते रिरे अन्तम यह् सुनकर
किं मोती खारे सखदरमे उत्पत्र दोता है खारे समुद्रके किनारे पह
वहां पहु चकर उन्होने अपने खष्परसे पानी भरकर रेतमें फेंकना
आरम्भ किया, इस प्रकारसे पानी फकते फँकते जब उन्हे चारीस
दिन बीतगये तब परम दयाद्ु सत्यपुरूषकी आज्ञासे सदृगुर् उनके
निकट समुद्रतट परपु चे।वदांपहचकरसद्ररुनेअद्धमशाहसेपकाकि,
बोधसागर ( ६७ }
हे भाई । तू यह क्या कर रहा है ! सञुदके पानीको उचल्नेते
तञ्च क्या राम है 1 अद्धमशाइ तो अषने कामम ठेसे मन्न थे
कि उन्हे इछभी खधि नदीं इई किः कौन शुश्चसे क्या पृक्ता
है । जब सदशरने कई बार प्रा ओर निकट जाकर उन्हें सचेत
करके कडा कि, तुञ्चे जो चाये स॒ञ्चसे कह तेरेदी च्य सत्य-
पुरुषने सञ्च तरे पास भेजा है 1 सद्रथङूकी इतनी बातको सुनकर
अद्धमशादको कु चेत हआ ओर उन्होने अपना सव वृतान्त
आदिसे अन्त् तक सुनाकर सद्ुरसे कहा कि, यदि सत्यपु्षने
कृषा की है ओर आप मेरे दुःखको दूर करने के छ्य आये ह तब
धुह्यको वेसादी मोती जेसा शाइजादीने मांगा है दीजिये। अदधभ-
शाकी एेसी इच्छक सुनकर सद्य॒ने उन्हें सम्चाया कि, त
सच्चे साहिबका भजन कर जिसने त्ने ओर शाहजादी लोनोको
उत्पन्न किया है । सदय॒रुने बहुत कछ ज्ञान ओौर विवेक वैरागका
अद्धमशाहको उपदेश किया किन्तु उन्होने एक भी नहीं माना
ब्रन उलटकर उन ने उत्तर दिया कि, मैं तो मोतीका मिलना
ओर शादजादीसे विवाह करनादी परम भजन समञ्चता हं अञ
दृसरेसे छ सम्बध नदीं है" 1
फिर सद्य॒रूने कहा समुद्रका पानी तु क्यों उचलता ३!
तब अद्धमशाहने उत्तर दिया कि, इसी प्रकार से उचलते उच-
लते सञुद्रको सुखा दूगा ओर समुद्रके सूखनेपर मोती लेकर
जाञगा तब शाहजादीसे विवाह करगा । सदगुर्ने ईंसकरकहा
किं भला यह कव सम्भव है किं, तेरे उचलनेसे समुद्र सूख
जाय ओर त्र मोती पावे अद्धमशाहने उत्तर दिया कि, सुद्र
सूखे या न सूखे जबतक दमम दम है तबतक मँ अपने कामसे
( ६८ ) सुल्तान बोध
पोखा न फिरूगा \ इतना कहकर उसने कहा यदि सत्य-
पुरूषने आपको मेरा दुख दूर करनेकों भेजा है तो आप श्च
उसीजोडके मोती दीजिये । जब सदशुश्ने देखा कि, अद्धम-
शाह अपने निश्चयसे नहीं टरल्ता है ओर उसको मोवीके
सिवाय दूसरा कुक नदीं सु्चता रै तब सदग्॒ने कहा कि,
हे अद्धमशादह ! आंख बन्द कर । सदृगुङ् की आज्ञाको पाकर
अद्धमशाह आंख बन्द करके अन्तरम सदशर्का ध्यान करने
लगे । उधर तो वह ध्यानम मस्त थे इधर सदणुकूकी आज्ञा पाकर
सथुद्र लदर मारा ओर हजारों सीष रेते डा गया } खरक
हट जानेपर जब अद्धमशाहने आंख खोली तब क्या देखा कि,
सहस्रो मोतीके सीपोका टेर लगा है मोतियों का ठेर तो षड़ा है
किन्तु सद्गुरूका पता नहीं है फिर तो अद्धमशाहने मोती
देखना आरम्भ किया । देखते २ वह ठेसे आशर्थयें फंसे कि,
उन्हं यह निश्चय करना कठिन दोगया कि, किसको ख्व ओौर
किसको न ख्व । अन्तमे चारी बडे २ मोती चुनकर अपने
कमरमें रक्षापूवेकं बांधकर रवाना हृए। चलते २ कुछ दिनोमे जब
बलखपे पचे तब सीघे घडघडाते इए बादशाहकी कचहरीमें
पटुचे। उस समय बादशाइकी कचरी कगी इई थी इनके पटच-
तेही बादशाह ओर वजीर दोनोकी रष्टि उनपर षड़ी । देखतेही
वजीर आग बगोा बन गया । वजीरके कोध करनेका कारण
यह था कि, जिस समय अद्धमशाह ओर वजीरसे इस बात की
प्रतिज्ञा इई थी कि -मोती केकर आनेषर शादजादीसे उनका बि-
वाह करा दिया जायगा उसी समय वजीरने अद्धमशादसे एसी
प्रतिज्ञा री थी कि, यदि मोती तुम न खा सको तो बरख शदहरमे फिर
बोधलागर ( ६९ )
दुबारा नहीं आना । ओर यदि आओ तो वम्हारी गर्दन मारी
जाय । तजीरको अद्मशादहसे ठेसीं प्रतिज्ञा केनेका यह आशय
था किं; अद्धमशाहको जैसे फकीरको न मोती मिलेगा न वह फिर
आयगा ओर न उसका विवाह शाहजादीसे होगा । यदमी कारण
था किं, अद्धमशाहको देखतेदी वजीरने कोध करके कहा कि.
ओ अद्म ! तु अपनी प्रतिज्ञाको भ्र कर फिर यहां आया ३ 1
इस कारण प्रतिज्ञाके अबुसार तेरा शिर धड्ते अलग किया
जायगा । वजीरके अहैकार भरे वचनको सुनकर अद्धयशाहने
कहा ओ बेखबर तुञ्चे क्या खबर है कि, प्रथने तेरे नसुनेके
मोतीसे मी बटकर बहुमूल्य इतने मोती अको दिये ई कि,
जितना तेरे संकट्प मं भी नदीं आ सकता है । पुने तो बत
दिये थे किन्तु मैने चालीस चुनकर रे चखियि है । अदगशाहने
इतना कहकर अपनी श्चोखीसे चाङीक्षौ मोती निकालकर
बादशाहके मसनद्पर गिनके पक्ति लगाकर रख दिये । मोति-
योके निककतेदी चारों ओर उसका भरकाश कैर गया । जौह-
रियो ओर परखियोसे आशर्यमें आकर अवाक रहने के अति-
रिक्त कुछ न बन पडा। बादंशाहकी तो बुद्धिदी ठिकाने न रही वह
शोचने लगा किं, अब तो अवश्य शादजादीका विवाह इसके
साथ करदेना पडगा। अन्तमं बादशाहने तो यह निश्चय किया कि,
अब शादजादी का विवाह उसी फकीरसे कर देना अच्छा है
किन्तु राजदबांर का काम है । राजनीतिके नियमासार बाद-
शाह एकान्तम जाकर अपने वजीर ओर-परिवारोसे इस विषयमें
विचार करने र्गा कि, शाहजादीको अदमशाहसे विवाहना
चाहिये कि नहीं, उस समय उसी वजीरने जिसने प्रथम बार
प्रतिज्ञा कराकर अद्धमशाहको मोती लानेके स्यि भेजा था उस
( ७० ) सुलतानबोध
खमय भौ विघ्न डाख्ने के लिये कहना आरम्भ किया ।
पछी फिर शाने वजीरोसे सराह ।
सबं सखागीरों कबीरोसे सलाह ॥
जो किं ओवल्मे इआ था नेशजन ।
फिर इआ इस प्रकार वह बेखङ्कन ॥
उक्दसे माना इआ फिर वह वजीर ।
क्योकि था इर अमरमें शाहका मशीर ॥
दीखा व॒ इनत व्यँ करने लगा ।
जुक्ता ओ एव उनके अयो करने लगा॥
` कुबह कुछ उसने धियि रेषे बर्यौँ ।
होगया खामोश वह शाहे जहौ ॥
उस वज्ीरने फित्ने जो गेफिर कहा । आपघरमें दू जियेरोनकाफिजा॥
अहद ओपेमोसुञ्चसेदेदुवेशका । आपअन्देशानकीजेककछजरा ॥
सोपिये यह ` काम मेरीरायपर । खादय दिलमंनङ्छखोफोखतर॥
याद्राखियेआपयदमेरीहदीस । इसकेहैताबाकोईजित्रेखबीज ॥
कंअरसेद्रियाके गोता मारकर । खादियेै उसने यह नादिरगोहर॥
यहकरामतपरनहींडसकी दरीर । हैवनावटइईसकी ेशेजटीट॥
देसे मरवादीदवरनःयह फकीर । लाताक्योकरर्शदेआफाका गीर
दैनजरबन्दोमें भी यह दस्तगाह । गुदैःनानको बना देते ई माह ॥
योकियाहै इसने यह मकरोदगल । पासईइसके हैकोईसिफलीअमल॥
संगरे जाजिषसेआतेदों नजर ।खल्ककीओं खोमिंताविन्दःगोहर॥
यह जोयोरोशनतर अज् खुद । यह बनावरदीके मरवारीद् है ॥
मोतियोमियदद्रखशानीकहं । यई चमक यह तूरञअफशानीका॥
अबङुछक्सकोनसमञ्चेजन्नबद । नूरताविन्दःहैमदुमकीखेरद् ॥
षुञ्चको आता है नजरउसनूरसे । मकरवदीलाइ्सगदाकादूरसे ॥
बोधसागर (७१)
सादिकोबरहकरैयहकौटेखबीब । हैव्याने आदमी सिहर अजीब्॥
बादशादसुनकरयहतकरीरेवजीर। होगयादामेतवह्वमनरे अक्षीर ॥
करकेआखिरकारतफवीजेवजीर । बादशाहघरनेंहआरौनकपजीर॥
कह गया उससेकितूञ्चुखतारदै । नेकवबदकाइसकेतुञ्चपरबारहै ॥
लेकबदअदहदी हे इन्दुटाहबद् । है नतीजा रे खेरदआगाहबद् ॥
किजियोकुकतदवीररेसीवजीर । तंगजिस्सेहोनयहमदैफकीर ॥
घरमे अपनेवादशाददाखिट्इअरहगयाउसकावजीरओौरवदगदा))
इस प्रकारसे बादशाहको समञ्चा उु्ञाकर वजीरने मह्मं
भेज दिया । अब अद्धमशाह ओर वजीर रह गये तब वजीरने
अद्धमशाहसे कदा-
उसको धमकाकर र्गा कहने वजीर ¦
क्या इआ है तुञ्चको एे मरद् कफकीर ॥
तूजो यों गुस्ताखेकरतोहकराम। बरमलालेताहैशदहजादीकानाम))
तुञ्चकोदकुछूअङ्कभी एे बेहया । शहजादीवहहै तुश्चफङिस गदा।॥
नाम शहजादीका गरतूने लिया । होगाहरहरबन्दतेराजदा ॥ `.
काटकर तेगोसे म तेरी खर्बोँ । दारपर खी्गा वञ्चको बेगर्मा ॥
जिस्तगर चाहे तो इश्तगफार कर । इसख्याेखामसेअपने गजर॥
वजीरकी धमकी ओर विशासघातकी बातको सुनकर
अद्धमशाह बहुतदी दुःखी इए ओर फिर अपनेको सभाक्कर `
वजीरसे कहने खगे- :
जबसनीअद्धमनेउसकीयफ्तगर । बोखेबदअहदनासंजीद्ःख ॥
शूरताहे उसखुदायपाकक । जिसने यह रुत्बःदिया है खाकको॥
तूनेवहजामिनदियाथा द्रभ्यां । जिससेकायमेहजमीनोआसर्मो॥
आलिमो दामा व दाराय जरह । कादिरे मुतरक शे शाहनशां॥
जार इब्राहोमसे
` (७२) सुरुतानलोध
क्या इए वदअहदोपेमा एे वजीर । कोलो एकरारेईमौं रेवजीर ॥
हद् करतेहैवफाअपनाकरीम । किञ्ववबदअहदीरैकिरदारेईम॥
उक्दउसकागरसुङ्चसेकरनानथा । अहदक्योतूनेकियारेबेवप्ा ॥
अद्धमशादने वजीरसे कहा यदि तुञ्चको अपनी प्रतिज्ञा परी
करनीरी नदीं थी तो तूने शञ्जसे परतिज्ञा करफे ओर अु्चसे प्रतिन्ञा
कराके दो वषे तकं सुञ्चे क्यो भटकाया । देख तूने ईश्बरको साक्षी
रखकर प्रतिज्ञा का ओर करायी थी अब विश्वासघात मत कर
इख विश्वाखचातकाफर अच्छा न होगा । देख ! आजं उच्च पदवी
को पहुंचा रैतो फकीये ओर दीन इखि्योको इस प्रकार इःख
देता है, विचार कर ! किसीका अभिमान आजतक नदीं रहा ३ ।
इस संसारम आकर मायाके चमक दयक पृडकर जिस
जिसने गवे किया है सबका गवे टूटा है किसीका गब मीरहा
नहीं है । अब तू विश्वासघात मत कर ओर जिस भकार यने
अपनी प्रतिज्ञा पूरी को है उसी प्रकार तु भी अपना वचनं रख ।
इसी प्रकारमे परस्पर अनेक प्रकारकी नोक ज्चोककी बतिं होनेके
पात् वजीर बहुत कोपित हआ ओर उसने अपने नौकृरोको
आज्ञा दी कि, अद्धमशाहको इतना मारो कि, यह जीता
न बचे! फिर क्या था वजीरकी आज्ञाको पाकर निर्दयी नौकर
चारों ओरसे टूट पडे । किसी ने कुकडी उटायी तो किसीने
कोडा छिया । संक्षेपतः यह कि) जिसको जो भिलखा उखने
वही ठे छखिया ओर चारो ओरसे अद्धमशाहके ऊपर मार पडने
कग । अन्तम जब वह एकदम अचेत होगये श्वासोच्छवास
की क्रिया ङ्क गयी जब मारनेवारोने समञ्च खया कि वहं
मर गया है तब वजीरकी आज्ञासे वस्तीसे दूर जग्मे डर आये,
इधर अद्धमशाहकी यह गति हुईं उधर बादशाहकी बेटीके
बोधलागर ( ७३ )
इदयगरे शुक उठा ओर उस दर्दने थोडीरी देश्ये दे्चा ब पकडा
कि, दजारों वैद्य ओर उपाय करनेवाखौके रहते इए भी शाह-
जादीको कुक आराम बही इं ।! तीन चार घडी वह मर
गयी । अवं क्या था बृङ्ख शहर में हाहाकार मच गया ।
शोकने आकर समस्त नगर म निवास किया । यहि उख सम-
यके शोकने शोका वणेन चज्खिने छग जाऊं तो दकं दूसरी
ओर बडी पुस्तक बन जाये इस्च कारण संक्ेषन लिखना यह् है
कि, बादशाहको सिवाय इस शाहजादीके इसरी संतनि न
होने के कारण सवच शोकदी शोक फे गया । संक्षेपतः यह
किं शादजादी की सृतकको लेकर कवरकी अन्तिम क्रियां करके
सब रोग रौटकर चङे आये ।
इधर अद्धमशादहको आयु शेष रहनेके कारण सदगङ्की क्षासे
दिनभर अचेत पडे रहनेके पात् दो घडी दिन रईते बह सचेत
हुए सचेत होते दी शिर उठाकर देखा तो जंगलके सिवाय ङक
नदीं दीख षडान तो शाही महल है, न वजीर काद्र, न
उनके मोती । इस ॒परकारसे चारों ओर शुन्यदी शून्य देख कर
अद्धमशाह प्रथम तो आथयंमं आये किन्तु उनका आशर्यं जाता
रहा ओर इश्कका जोश फिर अन्तःकरणमें उडा फिर तो अदम-
शाह सीधा शदहरको पहुचे । शरम पटंचकर उनने चारों ओर
शोक फेखाहआ देखकर जिससे प्रते वही कता कि, शाहजादी
मर गयी प्रथम तो उन्दे लोगोके कहने का विश्वास नहीं इआ
किन्तु जब शादी महलके द्वारपर पहुंचे ओर वहां भी लोगोको
शोकम विकल देखा ओर चारों ओरसे हाय ! हाय ! की ध्वनि
सुनी तब उन्हें विश्वास इआ कि, सचमुच शाहजादीका परलो-
कृवास हो गया । इस बातके - निश्चय होतेदी उनके डद्यपर
( ७४ ) सुलतानबोध
रेखा आघात खगा किं, जहां खडे थे वहं ही वह् अचेत होकर
गिर गये ओर उसी अवस्थामें उस समय तकं पडे रहे जब तकं
बादशाद् शाहजादी को अंतिम क्रिया करके कब्रस्थानसे फिर कर
आये ) बादशादहके कबरसे रोटकर एकवार फिर भी रोने पीने
ओर हाय बोय करनेकी वह धूम मची किं जिसका वर्णन करना
कठिन है । उसी हाय बोय शोककी बिर्लादर्मे अद्धमशाहको
चेत आया चेत आतेही उस समयकी सथा देखकर पागल विक्षित्त
चित्तके समान होकर वर्हसे वह चरु पडे । एक तो अघेरी रात
दूसरे शोकसे कातर अद्धमशाह शधीरात तकं तो जगल इधर
उधर भटकते ओ टोकर खाते रहे किन्तु आधीरातके पश्चात् प्रथु
कृपासे भरकंते २ शादी कस्थानके निकट पच गये । वहाँ
जानेषर उनके खदयको कुछ धेर्य॑सा हुआ ओर इछ चेतना भी
आयी फिर तो एकं बृक्षकी आडमं खड होकर उन्होने करके
रक्षकोंको ध्यान पूवक देखना आरंभ श्िया। संयोगवश दिनिभरके
थके हुए प्रे वारे एेसी निद्राम अचेत इए कि, उन्ँ किसी
बातकी सुधि न रदी । पदरेवालोंको बेसुध देखकर इश्ककी तरंगमं
एक ओरसे कनात फाड दिया ओर अन्दर पह चकर वह चोरोके
समान धीरे धीरे कबरतक पहुचे । क्के निकट पहुच कर वह
प्रथम तो कसं रुपटकर थोडी देरके खये अचेत होगये फिर चेत
आनेपर उन्दँ यह. विचार आया किं, एकबार माशकका दीदार
कर छेना चाहिये । दीपक तो चारो ओर जख्दी रहे थे उसी प्रका-
शमे उन्होने कबरकी भिदट्री अलग करके ताब्रूतसे शाहजादीकी
मृतक को बाहर निकाला ओर दीपकके सामने उसे छिटाकर
उसके मुखको एकटकं देखने लगे । देखते देखते उनके
इदयमे रेखा तरंग उठा कि इसे अपने षण॑कुटीतक
बोधसागर ( ७५ )
रेजाना चाहिये । बस । पिर क्या था कवरकी मिद्धीको ज्योका
त्यों करके वह शाहजादीकी लाश उठाकर अपनी कटीपर पृहे
सदूगुरूका एसी कृषा इई कि, जबतक यह अपनी कुटीतक नहीं
पटच गये तबतक किसी पहरेदारने करवट भी नहीं टी ।
अदमशादहने अपनी कुर्दी शाहजादी की लाशको दीवारके
सहारे बेडा दिया ओर जगी लकडियोको जलाकर उसीके
प्रकाशमें उस ब्रतकको सम्बोधन करके कहने खगा |
होगयी आतश जब वहां शोके जन |
बेडा उसके ` शव यह खिस्तःतन ॥
रोशनीमे आगके वह नीमजौँ।
देखता था इस्न ङण दिलस्तौं ॥
बादिरे पुरददं चश्मे अश्कवबार ¦
देखता था उस्र परीष्ट की बहार ॥
गोरे तनपर वह उसके यैठा कफ़न ¦
जामये शबनभमे गोया यासमन ॥
चिहरेका आलम कफनमे जो किं था ।
बिद कबदे चांदनीमे वह मजा ॥
करके उसकी खाशको अद्म खिताब ।
यों लगा कहने जेराहे इजतराब् ॥
एवते संगं दरे ना आशना!
क्यों क्या सुञ्चको बरामे सुषतिला ! ॥
क्योकि दिखाकर दफतन अपनी फबन ।
रजमे डाला था एे नाक बदन ॥
द्दं व गममे अपन करक अबतल ।
एक सुहत तकं सुञ्चे रसवा किं किया ॥
( ७६ )
सुलतानबोध
खञ्चमें क्यो चाहेथी वह नादिर गोहर ।
दो बरसतकं क्यों रखाथा बहू पर ॥
अदहद् गर तुञ्चको वफा करनानथा।
खुञ्चको जिन्दःछोडकर मरना न था॥
तुञ्चम कुछ ब्रृएट वफादारी नहीं।
यार होकर शवये यारी नहीं ॥
तुञ्चको गर दुनिरयांसे करना था सफर ।
साथ खना था सुञ्जको एे सीम्बर ॥
रूह तेरी बाद जन्नतको गयी ।
देगयी इस रख्त जको बेकली ॥
दाखकी मेरी खबर भी दहै तञ्चे।
कंल नहीं पडती किसी करवट शुञ्े ॥
बाग जत्रतमे किया त्ने वतन ।
मे रहा बहरे अलम मे गोते जन ॥
देफ है सद् रैफ दीदारे हवीष।
बाद मरनेके हआ सुञ्चको नसीब ॥
वाह णे चखं सितमगर वाहवाः।
तूने जाछिम क्या सितम ञुञ्चप्रः किया ॥
जीस्त मे साना रहा दीदार से।
बाद मरनेके भिरखाया यारसे ॥
देखरेती यह भी मेरी बकी ।
जोबर आती सब॒तमत्नाये दिली ॥
इसको भी शायद था छ मेरा करक ।
हो गयी जो दमके दम म जांबहक ॥
खागयी इसको गमे पिनदानः इश्क ।
बोधसागर ( ७७ )
आतशे उलकत तुफे सोजान इश्क ॥
कत्ल जालिम त्ने दोनों को किया |
इस परी हसे जदा सुञ्ञको किया ॥
जान इसकी तो इई तनसे बदर ।
जिन्दगी मं भंड शुं से बतर ॥
यह तो मर कर हिज्रके गमे छदी ।
तरूमलाहट अुद्धको है अबतक वदी
वहशिया कौ तरह अपना माजरा ।
कद रहा था उस परह् स गदा ॥
वा जलाने हाल तो देती जवाब ¦
इश्कटै आ सौ तरहके पेच ओ ताब।॥
मुञ्चसे अपने ददं गम कहता है क्या,
मरगहईं मैं तूतो जिन्दा भीरहा॥
इससे बरतर क्या है ददं ओ रंज इश्क।
जीती भने बाजिये शतरंज इश्क ॥
जीको अपने करदिया उस्म फना ।
भुञ्चसे तू कहता है क्या यह माजरा॥
देख कर अद्धम के यह रंजो महन ।
हो गया बरे तरहम मौजजन ॥
देख कर उस मदके दिलका कलक ।
जोश में आयी इनाय तहायहक ॥ .
कुद्रते दद्छ ने किया असबाब जमा।
जिससे यह दोनों इए अदवाब ॥
इस प्रकार अद्मशाह श्ाहजादी के मृतकसे अपने विरह
की बातें करता ओर रोता जाता था उसकी एेसी दशाको देखकर
( ७८ ) सुरुतानबोध
सादिबका कृपासागर रुदराया । फिर क्या देर थी सब सामभ्री
इकंट्ठी हो गयी । अर्थात् ।
शूरुकर रमत से रहको कारवो । रते कंसे वहाँ वादिद हआ॥
अधेरी रात के कारण कोहं व्यापारी काफला राह भूल कर
उसी बन म आकर उतरा । जाडेकी तुके कारण जब कफ
रेके आदमी आगकी खोज करने लगे तब दूरसे आगके प्रकाश
को देखकर एकं आदमी अद्धमशाष्ठकी ङटीषर भी पचा । `
कारवांमेसे कोई मरदे खुदा । देखकर बनमें उजाला आगका ॥
दिल्मं अपने पुख्तः करके शमो । खानए दुवश है शायद यहौँ |
आग लेने को वहो आया चला । ताकरे वह अपनी कुछ दाजतरवा॥
सुतसिर्डजरेकेजबपहचावहमदं रंग अद्धमका हआ दहशतसेजद॥
उसकी आहर पाकर अद्धम तो मारे डरके घबरा गये ओर
छटीके कोनेमे बने इए ग॒फामे छिप गये । इधर तो यह हआ,
उधर वह आदमी जब कटीमे आया तो भीतरके दश्यको देख-
कृर एकदम घबरा गया । अद्धमशाहने समञ्ञा था क्ि,कब्रके
रक्षकोको सब हार माटूम दोगया है इससे उन्दीमेसे कोई शङ
पकड़ने आया हे ओर उस आदमीको माटूम इआ कि, न जाने
यद क्या चला दै कि, शून्यसान घरमे कफनसे टकी इई मृतक
देह बेदी हुईं हे ओर सामने आग जल रही है किसी जीवित पुरूष
का पता नदीं है । वह अपने मनदी मन बहुत डर गया ओर
पिरे पौव पफिरकर अपनी मंडली गया । वहां जाकर उसने
अपने सरदारको सब देखी इई ` बतिं एक एक करके सुनायीं
जिसको सुनकर लोग बडे आश्चर्यम आये । कुछ देरतक शोच
विचार करके मण्डटीके सरदारने काफलेके साथके वैय ओौर
न्य कड मनुष्योको साथ रेकर अद्धमशादकी कुटीपर जाने-
बोधसागर ` ( ७९ )
का विचार किया । ओर प्रथम मवुष्यको जो वह सब दृश्य
देखकर आया था आगे करके कटीपर जा वहुंचा ॥
थाकजाय कार उनमें एक तबीब । हाजिरकोदानावहुशियारोख्बीब्॥
लेके साथ उसको अमीरे कारवां । खनतेदी इस बातके पहुंचा वहा॥
थी ज्षं रौनक फिजा वह इरजाद् ॥
पहुचे यह दोनों वहां मानिन्द बाद ॥
बे तअश्रुलबेतव कफ केदर्वा। यह गयेवहरोशनथीआतशज्हा॥
जाके देख फिर हकीकत है वदी । जिसतरदकदताथावहमरदेरदी ॥
देखकर उस हालको श्चुसद्र रहे । र्बश्ुजौँ रैरत जदा जतररदे॥
आइनेसौं शङ जब आयी नजर । होगये हैरान दोनों देख कर ॥
बोला आखिर वह हकीमे जुकतेदा। रगमें युदके यह रौनक कलँ ॥
वहां जाकर उन्होने सब दृश्य वैसेदी ठीक ठीकं देखा जैसा उप-
युक्त मनुष्य ने कहा था । प्रथम तो वैय सहितं वंह व्याषारी
आश्र्थमे आया किन्तु थोडी देर तकं शाहजादीकी ओर ध्यान
पूवकं देखनेपर वेदयने जब कहा किं, यह ओरत मरी नहीं कितु
सकते के रोग से अ्रसित हो अचेत होगयी है तब तो उपरोक्त
( काफरेके ) सदार ओर भी अधिक आशर्यं मे आया उसने
वेय से कहा कथा यह ( शाहजादी ) अच्छी भी हो सकती है
वैय ने उत्तर दिया अभी अच्छा करता हं ! पञ्चात् वैयने अपने
पाससे नशतर निकार कर शादजादीके हाथ कीरगको
नशतर से छेदा जि्तसे रक्त बहने लगा । थोडी देर तकं लोह
निकलता रहा ओर जब ॒दृषित रक्त शरीरसे निकर गया तब
शाहजादी सचेत हो गयी ।
सचेत दोतेही शाहजादीने जेसेद्ी ओंख खोटी अपने सामने
दो अपरिचित मवुष्योको खड देखकर कना ओर आशअर्यमे
( ८० )} खुलतानबोध
आकर वट तानने लगी । तब तो अपने शरीर षर कफ़न देख
कर भय ओर आश्चयं मे आईं । फिर जब इधर उधर दि
डारुकर घरकी दशाको देखने लगी तब तो आश्चर्यं, भय,
रुजा ओर व्याङ्कलता तथा शादी रोबह सबही उसके सन्धुख
आकर खड होगये । एक दो क्षण तक तो षत्थरकी भूतिंके
समान चुप बेदी र्दी फिर चकित दि सन्धुखके खड आदः
भियोसे शील ओर रजा पणं वाणीसे इस प्रकार बात चीत
करने र्गी ॥
शमसे सरको किया फरो)
पूछा उसने तुम बताओ कौनहौ 1 ॥
म कदां ह ओर है यह किसका मकौ
घरसे सुञ्जको कौन लाया है यँ ॥
है कदां वह ताज व तखते जर निगार ।
जामे रखालो कूजेहाए आबदार ॥
रवानणए जरवपफ्तपोश अपना कहँ ।
मखमलो दीबारका फशं अपना कौं ॥
शादजादीने कहा,कि मेरे राजमहलसे उठाकर कयो ओर किख
प्रकारसे ञ्चे यह जगलमे कफन पहिना कर किसने वैठाया है 1
इसका वृत्तान्त सुञ्चसे कहो। शादजादीकी बातोको सुनकर हकीम
ओर व्यापारीने उत्तर दिया कि, हम रोरगोने इन बातोको को
भी खबर नदींरैकि, तुम कौन दो ! तुम्हारा घर कीं है!
ओर यह घर किंसका हे ! तुम्हे कफ़न किसने पहिनाया है 1
ओर यहां खाकर किसने बेठाया रै! दमारा कारां अंधेरेके
कारण मागं भूलकर इस ओर आ निकला था । हमारे साथ
का एकं आदमी आगको दृता ददता यष आया ओर तुरू
बोधसागर ( ८१ )
मरतकके समान किन्तु बेदी इयी देखकर उसने डर कर पीछे
पौव जाकर हमको समाचार दिया । जिससे आर्थे आकर
कोौतुहल वश हम यहं वुम्दं देखनेको आये } यहो आकर इमारे
हकीम सादिषने तुम्हें देखकर कहा कि तुम मरी नदीं हो किन्तु
सकतेकी बीमारीमे अचेत होगयी शै ! फिर उन्होनि तुम्हारी
दवा करके अच्छा किया है जिससे अब म बात चीत करने
को समर्थं हयी हो । इतना कह कर व्यापारीने कडा इसके अति-
रिक्त भौर हम कुछ नदीं जानते अब तुम अपना वृतान्त सजा
सचा हमसे वर्णन करो कि; तुम कोन हो! वुम्हारे माता पिताक
नाम राम क्या! ओ तुम्हारे उपर क्या २ वीती है1॥
कर व्यो किंस गुल्सितां का गख हैत्र
पायी दै किंस बोस्तामें रग व चू ॥
इधर तो यह बातें होरदी थीं उधर तदखानेमें बैठे इए अद्म-
शाह कबरके पदरेदारोके भ्रमसे भयके मारे उरते इए बडी सा-
वधानी से कान लगाकर बाहरकी बतं सुन रहे थे। जब उन्होने
शाहजादीको बात करते सन लिया तब उनकी ओौर ही दशा
होगई । अब बाहर निकटकर शादहजादीके पास जानेको बार
बार वह साहस करने रगे । फिर तो गारके द्वार से उन्होने शुं
निकाठ कर दोनों आदमि्योको बड ध्यानसे देखकर जब निय
करिया कि) वे कब्रके पहरेदार नहीं है तब एकदम बाहर निकट
आये । बाहर निकलकर उन्दने इटीके बाहर अन्धेरेमे खडा
होकर शाश्जादी ओर व्यापारीकी बात चीत सुनने कगे । ओर
जब उन आद्मियोके शूप रंग ओर शारीरिक लक्षणों से यह
बात निश्वप दोगहं कि, वे न तो जासुस है न कोई बुरे आदमी है
तब आनन्द्के समुद्रम गोते खाते इए एकदम कुटीके भीतर
( ८२) सुलतानबोध
जाकर खड होगये ओर उपरोक्त दोनों नवागत पुर््षोको देश
कारके आचारके अनुसार नमस्कार आदि करके शाहजादीकी
ओर देखते इए खड दोगये ।
इनको वहां आता देखकर उनके वेष ओौर स्वष्ष् प्रते उन
लोगोने निश्चय किया कि, क पणकटी का स्वामी यदी है ।
एेखा निश्चय करतेदी वहां ओर शाहजादीके पणं बत्तान्त जानने
को पूरी इच्छा व आशा उनके दये निश्चय होगयी । उन
लोगोने अजमानसे यह भी निश्वय कर लिया किहो नहो यह
इस श््रीके उपर आशिक दै जिससे प्रेममे पागल होकर इसके
मृतक कदींसे यहां उठा लाया है अब क्षण २ मे उनकी उत्कण्ठा
बटने र्गी जिससे अधिक समय तक न ठहर कृर भ्याषारी
ओर दकीमने अद्मशाहसे पूछा कि, ए बन्दः खुदा सच कहना
तु कौन है ! ओर यह अनूप शोभामयी सुन्दरी कौन है! तरू इसे
यहां कहांसे ओर किस प्रकारसे खाया है ! सब बत्तान्त सत्य
२ कृद् । उनकं बातको सुनकर अद्धमशाहने आदिसे अन्त
तकं शादजादीपर आशिक होना, वजीरका सोती मांगना, दो-
वषतकं संसारम भटककर मोती खाना, फिर वजीरकी परतिज्ञा
भग करके उन्हें मारकर फेकवा देना, चेत आनेपर शाहजादीकी
मृत्युका समाचार पाकर कब्र स्थानम जाकर पहरे वाकी
आख बचाकर कत्र॒खोदकर लाश बाहर निकालकर लाना
आदि सब वृत्तान्त कह सुनाया । अद्धमशादहके आश्चर्यमय
वृत्तान्तको सुनकर उन दोनोके सदित शादजादी भी चकित
होगयी । अपने लिये अद्मशादके महान कष्ठ उटानेकी बात
ओर उसके सच्चे प्रेमके वृत्तान्तो सुनकर शादजादी भी मनदी
मन उनपर आशिक दोगयाी ।
नोधसागर
इश्कने अद्मके वह तासीरकी ।
वह परी उस पँ आशिक दहो गयी ॥
देखकर षहवार अद्धमका तबाह ।
चश्म.नम गमसे इहं वह रश्केमाह ॥
गुजरी जो जो उसपे थी तकलीफ ओ ददं ।
सुनके दुखतर होगयी दहशतसे जदं ॥
देखकर अद्धमको यों पज दै इहा ¦
आया दिले उस परीङ्के ख्याङ ॥
मोरी खातिर इसने यह् रंजो बला ¦
लेके सरपर कर दिया जीको फिदा ॥
खीचकर क्या २ अजीत ओं बला |
मिहनतो तकलीफो रंजे लदवा ॥
बाद मरनेके भी यह आज्जुफतः हार ।
लाश मेरी कबरसे लाया निकार ॥
इसके वायस फिर खुदाने दी इयात ।
जीस्तका मेरी सबब है इसकी जात ॥
गर न होता भुञ्चपे आशिक यह जवां ।
कृतर्ेसे क्यों यह फिर खाता यँ ॥
ङ्कके दम यकदममे में होती फना ।
जिस्म होता तमणए सूरो मारका ॥
थी यह इसद्वशकी तासीर इश्क ।
मुदां जिन्दाहो है यह तदबीरइश्क ॥
जीस्त दुनियाकीौ है बसख्वाबोख्याल ।
इस जहंकी इश्क पर तु खाकं डार् ॥
ताखिबि दुनिया न हो अब जीनहार ।
( ८३ )
(< ) सुलताननोध
दिसे करतूभी फकीरी अखतियार ॥
है यह जबतक यह् जिन्दगी सरस्तआर ।
कर इसे मसङूफ यादे किरदेगार ॥
रञ्जते दुनिया यदू से द्र्॒जर ।
याद्हकमें बांध चुस्त अपनी कमर ॥
दमजो बाकी हैन इनको यों वा!
सीख इस दुवेश से राेखुदा ॥
जीतेजी तू आपको श्दाबना।
खाकम इस जिस्म खाकीको मिला ॥
केर इसी दुवेशसे अपना निकाह ।
दोनों आलम दाता तुञ्चको फलाह ॥
शाहजादी मनदीमन अद्धमशादके साथ रहकर अपना जीवनं
व्यतीत करने का प्रण कर रदी थी इनमे व्यापारीने अद्धमशाह
ओर शादजादी दोनोको सम्बोधन करके कहा कि, तुम दोनों क
वृतान्त ज्ञात इए । तुम दोनोकी दशा एसी है कि, प्रमात्माने
दोनोको परस्पर एक दूसरेके प्राण रक्षा का कारण बना दिया,
अब् तुम रोग यह कहो कि,तुम्हारी इच्छा क्या ै!अब त॒मलोग
क्या करना चाहते हो ! यदि तुम्हे दमारे साथ चलनादहोतो
संध्याको अपना कारवां यहां से जनेवाखा है हमारे साथ चले
चरो तुम्हे किसी प्रकारसे दुखं न होगा । हम अपनी शक्ति
अनुसार तुम्हारी सेवामे कदापि नीं चकेगे । यदि हमारे साथ
चटना स्वीकार नदो तो जो तुम्हारी इच्छादहो सो प्रकट करो ।
सौदागरकी बातको सुनकर परम कृतज्ञता प्रकर करते हष
अद्मशाहने कडा कि, यदि मेरा रोम २ निहा बनजावे तब भी
तुम्दारी भखाईका पुरस्कार सुक्षसे नदीं दिया जा सकता । तुम्हारी
बोधसागर ( ८५ )
ही कृपासे शाहजादी फिर जीवित होकर मेरे जीवनका कारण
बनी है तुम्दारे इस पुण्यका फट परमात्मा वुम्दं देगा किन्त
जबतक मेरे शरीरम प्राण है तब तक मँ तुम्हारा कृतज्ञ रहगा ।
अब खञ्च सिवाय शाहजादीसे विवाह करनेके किसी प्रकारकी
ओर इच्छा नदीं है । यदि यह स्वीकार कररेतो धर्मादसार त॒म
दोनों अपने सन्मुख साक्षी बनकर इम दोनोका सम्बन्ध जोड़ दो!
अद्मशादका बातको सुनकर भ्यापारीने शादजादीको कडा
कि, है शादजादी ! यदि अद्मशाह न होता तो तु कबकी
कत्रमे मरकर संसारसे चटख्बसी होती । इसके अतिरिक्त उसने
तेरे लिये कैसे २ कष्ट उटाये है अब उचित है कि, व्र भी उसे
स्वीकार करर इस प्रकारसे अनेक बातोके समज्ञानेषर शाह-
जादीने उत्तर दिया करि, आप लोगोकी मै बहुत कृतज्ञ ड आष
लोगोकी आज्ञा कदापि उवन नहीं कर सकती किन्त अद्धम-
शाह इस बातका प्रण करे कि, वह कमी अुञ्से अलम न होगा
ओर न कभी मेरी आज्ञासे बादर जायगा तब मँ इसको स्वीकार
करूगी ओर मेरे विवाह का यी अहर होगा ।
शाहजादीकौ बातको सुनकर अद्धमशाह आनन्दके मारे उल
पड़े ओर शपथ पूर्वकं शाहजादीके कहे अनुसार प्रतिज्ञा करके
शादहजादीके उत्तरकी प्रतीक्षा करने लगे । फिर शाहजादीने
व्यापारी ओर हकीमसे कहा कि शरअ (सुसलमानी धर्मशाघ्च )
१ मुसलभानी धर्मानुसार विवाह करनेके समय वरकी ओरसे कन्याके लिये महर को रोतिपूरीकी
जातौ है । जिसमे वर अपनी प्रतिज्ञाके साय २ नियत रुपया या अशरफी का दस्तोबेज अपनो स्तोके नामसे
लिख देता है कि, वहं आज॑से उसके इतने रुपयका ऋणी हुआ प्रथम तो कभी वहु उस स्तोको छोडेगा ही
नहीं यदि किसी कारणवश उसे छोडना चाहं अमुक रकम देकर केही छुटकारा पा सकेगा जब तक वह् ऋण
उसका न चुकादे तब तक वह उसको कदापि महीं छोड सकता इसीका नाम मुहर है शाहजादोने अपना मुहर
यही सांगा कि, यावज्जोवन अद्धमशाह छोडकर कहीं न जावे।
( ८६ ) सुलतानबोध
के अनुसार विवाहके स्यि दो साक्षीकी आवश्यकता है सो तुम
दोनों हमारे विवाहके साक्षी रो जाओ जिसमे रोक पररोकमं
दम पापके भागी न होवें तब भै विवाहको स्वीकार कृङूगी ।
उन दोनोने शादजादीके बचनको सानकर साक्षी बनना स्वीकार
किया ओर दोनोकी गांठ जोड़ ( पाणिग्रहण ) करा दिया ।
पञ्चात् वे दोनों तो अपने कारवानमें चरे गये ओर अद्धमशाह
शादजादीको पाकर परम आनन्दित हो अपनी पर्णकुटीमे बास
करने लगे ॥
दोनोमें परस्पर एेसा प्रेम हआ कि, कोई किंसीके वियोग
को क्षणमातर के ख्ये भी सह नदीं सकता था । जङ्खलके फर
पूरु पत्ते ओर कंन्द् मूलपर वे अपना दिन बिताते ओर
स्वगंसे भी बदृके आनन्दको मनाते थे ॥
कुछ दिनके पश्चात् शाहजादी गर्भवती इयी ओौर समय परा
होनेपर परम सुन्दर पुत्रको प्रसव किया। उसी पु्रका नाम अद्धम
शाहने इव्राहीम रक्खा। किताबोमें लिखा रै कि, अद्मशाहके संग
कै प्रतापसे शादजादी भी सवश्चुभ शणोसे सम्पन्न महान् तपस्विनी
ओर भजनानन्दी दोगयी थी । जिस समय उसे ग स्थित हआ
था उस समय समस्त बन नाना प्रकारके फर पूरु ओर मेवोँसे
सम्पन्न होगया था । सदा वसन्त ऋतुकादी आनन्द वौं दीखने
लग गया था । नाना प्रकारके पञ्च पक्षियों ने आकर वहं बास
किया था । जिससे वह वन कानन बनकर स्वर्गके समान स॒ख-
दाहं हो रहा था। इत्रारी मके जन्म लेनेषर उनकी आक्रति
सम्पूण रूपसे हजरत इन्रादीम खली लदास मिर्ती थी इसी
कारणसे उनका भी नाम इत्रादहीम रक्वा । जिस समय शादह-
इव्रादीम का जन्म हआ वद एक सो एकसः (१६१) हिजरी थी।
बोधसागर ( ८७ )
भाता पिताने बड़ प्रेमसे इबादीमको षार्ना आरम्भ किया । दो
वषेके पात् उनको अन्न पाशन कराया ॥
दो बरस पूरका जब वह होगया। ओर गिजाफिलज्मलेवहखानेखगा॥
गेवसेआनेलगेनादिरत आम } क्ृदरते एजिदसे उसको विरदवाम॥
उसकीबकतसेल्गेअशजारपर । अच्छी अच्छीवजअकेशीरींसमर॥
कुदरते हकसे हआ वह दश्तोबर। युक्शनों शख्जार पर भी फौकतर॥
आखिरकार देखते देखते बालक इबादहीम सात बरसके
होगये। अब अद्धमशाहको इस बातकी चिन्ता इहं कि बार्कको
विद्या अभ्यास कराना चाहिये सबसे पदे जेसा अुसल्मानोमिं
रीति रै बाककको कुरान पदाना आरम्भ किया । जब कुछ दिनों
तक षेर्मेही पद़ाकर देख लिया तब एकं दिनं बार्कको गोदे
रेकर अद्मशाह शरमं गये वहां दते हदते एक सनन योखूवी
साहेव मिरे जिनके यहां इबादीमके षद्नेको टक करके उनसे
कह दिया कि, सबेरे मै इत्राहीमको यहां रख जाया करगा
ओर शामको आकर ठेजाया करगा ¦
अलगरजं हर सुबह वह मदेनेको ।
लाता उस भ्ुकतबमे इत्राहीमको ॥
उलफते कटवीसे अपने विरूदवाम ।
फिर उन्हें खेनेको आता वक्त शाम्॥
था यदी हररोज अद्धमका शआर ।
आते जाते शरमं बिल्इजतरार ॥
थी जेवस शफकत उन्दं बेहन्तहा ।
तनहा आना जाना दिटपर शाकथा॥
( इब्राहौीम अद्धमका बाद शाह बनना )
जबसे बरुखके बादशाहकी इकलोती बेरीका उससे वियोग
हुआ तबसे बादशाह बहुत उदास ओर दखी रहने रगा ।
( ८८ ) सुलतानबोध
उसका चित्त संसारसे उदास हआ वह सदा द्वेश फकीर ओर
ईश्वरके भक्तोके संगमे रहने लगा । जहां किसी महात्माका समा-
चार पाता वरीं उनके दर्शनको चला जाता ओर अपनी
शान्ति के लिये उनसे प्रार्थना करता । दूसरी आदत उसकी
सखदासे यह थी कि, जब कभी वह शहरमें निकलता तब सदरसे
ओर सुकतबोमे जाकर रड़कोंका पढना सुनता ओर उन्हें
मिठाई वगेरह देकर खुश करता ओर शिक्षकों को इनाम देकर
लङ्कोको छुही दिखात् । इसके अतिरिक्त एक संतने भी उसे
कंहा था कि, सुकतबके ठकड़कांको खुश रखनेसे तेरी श्ुराद
कभी न कभी परी दोजायगी । सो एक दिन बादशाहकी सवारी
संयोगसे उसी सुकतबके पाससे निकली जिसमे इब्रारीम अद्म
पद्ते थे । जिस समय बादशाहकी सवारी शुकतबके पास
पर्ची उस समय बादशादहके कानमे बहुत मीठा ओर रीतिके
अनुसार रान पद्ते हुए किसी बच्चेका शब्द सुनपडा । बाद-
शाहने एकदम सवारी रोकली ओर ङु देरतक वहौँ दी खडा
खडा सुनता रहा । फिर तो उस शब्द्पर इतना मोहित इआ
किं सवारीसे उत्रकर् श्ुकतब मे पचा ।
गुजराउसमुकतवबकेआगे नागौ । मसदफईबादीमपटताथाजरँ ॥
बादृशाहने जब सुनी उसकीसदा।दिख्पेउसकेकदुअसरपेदाहआ॥
करकेउजाअपनेउसघोडकोखडा। पटना इव्रादीमका सुनतारहा ॥
सुखरिजे इरफाज उसके महवशद ।
सुनके अश अश कर गया हर जीखरद्॥
था दरमेशासे तरीका शादका।
जिस जगह मुकतब सरेरह देखता ॥
सुनता पटना जाके हरेक तिप्टका ।
करता फिर इन आम हरयकको अता ॥
वोधसागर ( ८९ )
आता पटना जिसका खातिरमे पसन्द ¦
उसको देता नकद ओरोंसेदो चन्द् ॥
देके जर उस्ताद को शाहैे निकों।
छुद्री दिल्वातां थां फिर इर तिषफ्लको ॥
अपने सदा की आदतके अन्रुसार बादशादने अकदबके हर
एक ठकडके का पटना सुना ओर सबको इनाम भी दिया ।
परन्तु जब इव्राहीम कौं बारी आयी तब उ छोरेसे बच्चे का
शुद्ध शुद्ध पटना, उसकी अदब के साथ बात चीत ओर उक्तके
रग हप को देखकर बादशाह एकदम आशयं सागर अ गोता
खने लगा । उसके दयम उस बच्चे का इतना वेम प्रवाह
उमड चलां कि वह हैरतमें षड गया ¦ आखिर अपने तरेम
प्रवाह को रोकं नदीं सका एक दम इव्रारीम को गौदयै उञाकर
प्यार करने ठगा । यद्यपि बादशादी रोव दाब से यड बात
कृदापि ञ्ुमकिन नदीं थी तथापि अन्तगेत इदयं किसी अन-
जानी शक्तिने एेसा काम किया कि बादशाह अवन पदं एकं
द्म भूल गया ओर इब्राहीम को उगकर गरे क्गा लिया ¦
इत्राहीम के इदय में मी खून ने जोश मारा वह भी बादशाह
के इदय से चिषट गया । अब् बादशादहके दय पर ओर भी
बडा भारी प्रभाव पडा ।
जज्वको है जनज्वसे ` पेवस्तगी ।
खून को है खून से दिल्वस्तगी ॥
दाब शादी से यहं विलकुर दूर था
लेकवह इस अममे मजबूर था ॥
दिलको अपने जब्रगो उसने किया ।
जोश उलफतपर न उससे शकसका ॥
(९०) सुलताननोध
जुज्वको है गच जायद् इजतरार ।
कल्को भी वेज्ज्वके कबहो करार ॥
गो नहीं जारिरका पेगामों सलाप्र।
जुञ्व करम है मगर पिनहौं कलाम् ॥
दिरुको दरेकके खख्शि है जो यहा ।
है अनासिरकी कशिशयह एे ज्वं ॥
जज्व॒ अपने जनज्वको करते ह कल ।
उस कशिशका है बदनमें शोरोगुर ॥
हरबशरको दहै जो दिखे इजतराब ।
खींचती दै उसको पिनहानीतनाब् ॥
रिश्तए उलफसे रहता रै बंधा ।
जञ्व॒ अपने कल्के साथेबाखुदा ॥
जुज्व तनको है जो इरुके साथरम्त ¦
हे कशिशसे उसकी तेरी अक्लखन्त ॥
अपनी गुकुफतसे तुञ्चे है यह मँ ।
सुञ्चको जोफे करब भौर मादा है अयँ ॥
बादशाह दिर भरके इत्रादीमको प्यार कर लेने ष्र जैसे
गोर से उसकी ओर देखने लगा वेस ही उसे अपनी कडकी
की याद् आयी । ्डकी की याद् आतेदी उसकी सूरत बाद-
शाह के सामने आ खडी हहं । अब बादशाह देखता है तो ा-
दीमकी ओर उसकी ख्डकी की शकम बार बराबर भी भेद
नहीं है । कहते ह कि, उस समय बादशाह इतना रोया कि,
उसका चेहरा लार हो गया ओर आगे के कपडे आंसु से भीग `
गये । फिर जब मन कुछ ठहरा तब बादशादने अुल्लाजीसे पछा
कि,-यह लडका कहां रहता रै ! इसका बाप कौन है 1 यह
बोधसागर ( ९१)
यहां कितने दिनोँसे पठने आया है ! अुछाजीने बादशाहके
प्ररोका यथायोग्यं उत्तर दे दिया ।
दस्त बस्तः यों मअछिमने कहा । बाप इसका ह फएकीरे बेनवा ॥
रहता है सहरामें आबादीसे दूर। अदर दुनियासे निहायत है नफूर ॥
अद्धम उसका है ककबपेनेकेपे । इस पेसरका नाम इबाहीम ३े॥
एक बरस जरा किं षटनेको य्ह आताहै यहतिप्लरेशाहजर्हौ॥
सुबहको लाता है बाप इसका यर्हा। शामको रेजाताहै आकर वर्हौ॥
है जवस दुवंश वह साफी निहादं । हैञुञ्ञे इसे ज्यादार्तकाद् ॥
जसतनअह्टाह इसेवहरेसबाब । याद करवाता रब्बानी किताब ॥
मुदाजीको जवानी अद्धमशाहका नाम ॒ञनतेही बादशाह
चौक उठा । उसे पहखेकी सब बतिं-अदमशाइका शाइजादी
पर आशिकं होना, उसका मोती खाना, वजीरका उसे धक्का
देकर निकार देना उसके छातीपर अक्का मारना ओर शा
जादीका मर जानाइत्यादि-याद् आगयीं । तब बादशाहने अपने
मनम अबुमान किया किं, हो नहो इसमे ज्र कोई छवा
इआ भेद हे । नहीं तो इस बाककके उपर मेरा इतना परेम क्यो
होता ! दूसरे इसका शूप मेरी बेदीसे पररा परा मिरु रहाहै। सो
इसमे अवश्य ङक भेद छिपा इआ है । इससे इस बाक्कको
अपने महलमें लेचरकर बादशाह बेगमको दिखलवें जिसमें
उसके ददयमें कछ संतोष हो । इतना सोचकर बादशाह इ्रा-
हीमको गोद्में चयि इए उठ खडा हआ ओर भुल्लाजीसे कहा
कि, जब इस र्डके का बाप आवे तब उसे मेरे पास मेज देना
वदं से वह अपना लडका रे जायगा । फिर सुल्लाजीको बहुत
कुछ इनाम देकर रवाना होगया ।
महल पटचकर बादशाहने बेगमको बुखाकर इाहीमको
( ९२ ) सुलतानबोध
उसकी गोदमे रख दिया । बेगमने जेसेदी इबादीमको गौर करके
देखा वैसेदी रुडकीकी शकल देखकर एकदम बेहोश होकर
गिर पडी । पिर तो महरम घूम मच गयी । बेगमको होशमें
खानेके सेकडो उपाय किये गये । जब वह होशमे आयी तव
इादीमको गोदसे रेकर बार बार बलां लेने ओर नाना प्रकार
के संकर्प विकल्प मनम करने र्गी ¦
गोदमे फिर उसको केकर नागौ । सांस ठंडीयरके करती थी व्यों॥
ए मेरे रखते जिगरके हम शवीह । एे मेरे रुर बरसके ईम शबीई॥
ए मेरे रशके कमरके हमसिफत । ए मेरे गुल २ग तरकेहम सिफत॥
णे भरे उस गुरबदनके हम अनां।रे येरे शीरी ददनके हमनिशौँ ॥
ए मेरे उस लाते चीके करीं । ए मेरे आहये भिराकीके करी॥
ए मरे ताबिन्दः अखतरकी शबीहाएे भेर मेहर मनोवर की शबीह्॥
ए मेरे नादीदः दुनियाके भिसाल।हे मेरे फरजन्द जेवाके भिसार॥
ए मेरे युसुकके हमतर्जोतराश । ए मेरे ेलकेहमवज अवकमाश।
ए मरे जाने जाके दम अनौ । ए मेरे शंचः देर्हौके हम अनौ ॥
ए मरे उस मूकभरके हम कंमर। ए मेरे याकरूत लबके हम गोहर ॥
देताहै हर जञ्व तेरा बे शुमा,
युसुफे गुमगश्तः मेरे का निशं ॥
है जो हर हर जज्व तेरा बिरुएकीं ।
यादगार ठेलीय महम नशी ॥
इस प्रकार अनेक तरहसे बेटीका स्मरण कर लेनेके पश्ात्
बेगम ने इबादीम से पृछा कि) तेरी मां ओर बापका नाम क्या
हे ! इव्रादीमने बापका नाम अद्धमशाह ओर माका नाम वही
बतलाया जो बादशाह कौ लडकीका नाम था ।
शाहकी दखतरका जो कुछ नाम थावदी इत्रादीमने मांका छिया॥
बोधसागर ( ९३ )
ओर बतायानामअद्धम बापका । दश्तमें अपनी कदीरहनेको जा ॥
अद्धम शाहके नाम को बरख निवासी शची पुरूष बच्चे से
बूढे तक सभी जानते थे । क्यों किं वह शाहजादी प्र आशिक
था । ओर शाहजादीका भरजाना भी अद्धमशाहके ही शापका
फर रुगाना मान रखा था । यदीं कारण है कि,अद्धयशाहको सब
लोग महात्मा सिद्ध समञ्चते थे । इवादीमके खसे बादशाह-
जादी ओर अद्म दोनोका नाम सुनकर रोगोको बड़ा आश्चर्य
हुआ । बादशाह ओर बेगमके अन्तःकरणे न जाने कितनी
कृट्पनां आती थीं ओर कितनी आशा ओौर निराशा उनके चारे
ओर फिर रदी थीं। आखिर बादशाह बेगमने अपने हाथसे इवारी-
मको स्नान कराकर अच्छे २ कपडे पहनाया ओौर उत्तम उत्तम
पदार्थं उसे खानेको दिया । पिर बादशाह इव्राहीयक्ो बेगमक
पास छोडकर अपने खानगीं स्थानम जा बैग ओौर इस भेद षर
विचार करने लगा । अन्तम बादशाहने निश्चय किया कि,
अद्धमशादसे इनका वृत्तान्त पृछना चाहिये वह संसार त्यागी
फकीर है वह कदापि ञ्ठ नदीं बोरेगा ।
बादशाहके दिल्मे आया यों ख्याल ॥
पूञिये अद्धमसे उस इखतर का हार ॥
फकेडसकीरास्त गोयीमे नदीं । जो कदेगा वह सच्चहै बिल यकीं॥
मदं हकदै पाय बन्दे रास्ती । ठ ह्मिज न बोरेगा कभी ॥
इतना विचार कर बादशाहने द्रवान को बुखाकर हक्म दिया
कि अगर् कोई लङ्का लेने आवे तो उसे द्वारपर मत रोकना
बलिक उसे सीधा मेरे पास पहं चाना । उसको परतिष्ठापूर्वक ठे
आना, खबरदार उसके मनम किसी प्रकारसे बुरा न ख्गने पावे
इतना हुक्म देकर बादशाह अदमशादकी इन्तजारी करने लगा ।
( ९४ ) सुलता नबोध
उधर अपने नियत समय प्र जब अद्धमशाह इव्रादीमको खेनेके
स्यि खकतबमे आया तब उसे माटूम इआ कि, इब्राहीमको
बादशाह अपने महर म रे गया है ओर कह गया है किं अद्ध-
मशाह वहाँदी से उसको रेजावे । उसे किसी प्रकार डरना नहीं
चाहिये जिख समय वंह आयेगा उसी समय अपना लडका छे
जायगा । यह सुनते दी अद्धमशाहने बेकरार होकर सीघे बाद्-
शाहकी डयोदौ पर जा खडा इ आ ओर दरवानसे कहाकिबाद-
शासे जाकर कंदे कि, इब्राहीमका बाप उसे घर ठेजाने
आया है । जल्दी उसे बादर भेज दो ।
जेसेदी अद्धमशादके आनेकी खबर बादशाहको पहुंची वेसेदी
बादशाहने उसे अन्द्र अपने षास बुला लिया ओर बडी प्रतिष्ठा
के साथ उच्ासन पर बैठाकर ईश्वरका शषथ देकर उनसे पका
किं सच बता तुञ्चकोसोगन्देखुदा। नामहैदसतिष्लकीमादरकाक्या
हेवदकिसकीदुखतरेआलीगोदर । रास्तकददेकौनहैउस कापद्र ॥
बादशाहकी बातको सुनकर अद्मशाहने कहा = “ठे बादशाह
वह वही तुम्हरी लडकी हे जिसपर मे आशिक इआ था? ।
सुनकरअद्धमनेकदाएेवादशाह । हैवहदुखतर आपकीवेडश्तवाह्॥
माद्रइसकीदहैवदीरशकेकमर । जिसपेमेआशिकहुआथादेखकर॥
नामभीडउसकादियाउसकोबता।दुखतरेसुलतानकाजोदछनामथा॥
अद्धमको बातको सुनकर बादशादके आर्यका पारावार नहीं
रहा उसने आर्यं मुद्रासे अद्धपशादसे कहा किं मेरी बेटी को
मरे इए तो युदत दोगयी । उसको हम लोगोने क्म गाड दिया
उसको तो दड़ी तकं गल्गयी होगी । वह अब तुम्हारे घरमे कासे
आगयी ! क्या कोई आज तक मर करके भी जिया रै ।
बादशाहकी बातको सुनकर अद्धमशाहने शादजादी के जीने
ओर विवाह दने आदिका सब इत्तान्त कह सुनाया ।
बोधसागर ( ९५ )
जबकदहा अद्मने देआरमपनाद । यवतखासकतेमथीवहरश्कमाह्॥
ल्क उसदखतरकोभ्चुदाजानकर । कव्र्ेुपरखकेआयी अपने चर॥
कमे उसको किया था दफनजब। एकपदहरयरसेसिवाग्ुजरीथीतब॥
भिदही जो डाली थीं उससन्दूकयर ।जिरकेअन्द्रथीवहमाहैसीमवर॥
कुदते हकसे इवाका रास्ता । रद गया था क्के अन्दर खुला॥
था जिलाना बसकिमञ्नुरे खदा । इस सववसे कत्रमें रखना रहा ॥
्ुञ्चको जञ्वे इश्कमे आयी तरंग । कपर उद्षके गया यैवे दरंग ॥
पासवान कव सोते देखकर । लाशदखतरकोकियाैनेबदर ॥
लाशको चैने निकाला कव्रसे । फिर कियाहमवारमिद्वीडाङकर॥
मरे वरे शुदाहो उसको जानकर । रखकेउसकीखाशकोबलखायसर॥
जल्दतर उस दश्तोबरमें खेगया। थी जहां ठे शह मेरी रइनेकीजा)॥
कृरके रोशन आगमं बेढ। वहां । बा हजा्य ददं वअन्दोहौ फिगा॥
देखता था हृस्नकी उस्तके बहार । ओौररोताथा निहायत जारजार॥
कुदरते इकसे इ आ बारिद वहां एेन। उस हारुतके अन्दर कारवो ॥
देखकर आतशको रीशनएकजवां। आगलेनेके स्यि आया वह ॥
पास वाने कर॒ उसको जानकर ।
फतं दहशतसे हआ दिल्मे अुनतशिर ॥
द्श्तमे शुदं को तनहा देखकर । होगया दहतसे ख्रजौं बह बशर
कारर्वमिं जाके दी उसने खबर । उसमे था मदं तबीबे पुर इनर॥
साथ लेकर उसको मीरे कारवां
सुनतेरी उस बातके आया वहां ॥
देखकर दुखतरको उसने यों कहा। है यह सकते के मजंमें युबतला॥
कहके विसमिल्हाह नशतर को लिया ।
उससे की अट पट रगे कफ़न वा ॥
जवबकिनिकलाउसकेतनमेसेलदू । होगयीहुशियारवहफर्ुन्दःखू॥
( ९६ ) सुलताननोध
क्रदियाआंखोकोउसनेअपनेबा । पा उन दोनोंसेक्यारैमाजरा ॥
कोन दो तुम ओर यह किसका रै मकां ।
घ्र से अङ्को कोन खाया है यौ ॥
मै मी आखिर सुनके उनका मकाल ।
अन्दर आयां कृरनको द्रियाप्त हाल ॥
देखकर जिन्दा चै उसको एे शहा ।
खाया सिजदए शुक यजदांका बजा ॥
पुछा सञ्से फिर उन्होने माजरा ।
मिन व अन एड वाल मेने कह दिया ॥
मेरा ओर दुखतरका एजाबोकबूक। होगया पेशे गवा हानं अदर ॥
फिर इआ जो दुफवडन आमेखुदा।पेदा इबादीम यह उससे हआ॥
माजरा है यह बेखा कम ओर कास्त ¦
जो कहा मैने यह है सब रास्त रस्त ॥
अद्धमशादके द्वा अपनी बेटीका सब वृत्तान्त सुनकर
सादशाह मारे खुशीके उल पड़ा । वह उसी समय उठकर अई-
ल्मे गया ओर बादशाह बेगमसे सब वृत्तान्त कह सनाया ।
बेगमने बेटीक न की सखुशीमें दान पुण्य खैरात करना
आरम्भ कर दिया उधर बादशाह ने शाहजादीके बचषनकीं
सखी सदेलियों ओर उसको दूष पिखनेवारी बुटिथों को
पालकी पर सवार करा करा कर शादजादीकी जांच करनेको मेज
दिया । तब तकं आप अद्धमशाह को बातोमे फसा रखा ।
थोडीदेरमे जांच करने वालियों ने आकर बादशाहसे कहाकिं
सच्च वदी शादजादी है । फिर तो बादशाहने बेगमको साथ
लेकर उक्ी समय बेदी से मिलने के लियि जगखमे जाने कीं
तैयारी की । आगे आगे बेगमोके सुदाफ ओर पीछे सव
बोधसागर (९७)
द्रवारियां सहित बादशाइकी सवारी रवाना इई । जब अद्धम-
शाहकी कटीके निकट सवारी पंची तब बादशाह नीचे उतर
पडा ओर बेगम को साथ रेकर पाय प्यादे श्चोपडी की ओर
चला । बादशाहने देखा किं, एक टूटी कूटी ्ओोपडीमं सेकडों
जगह से फटे इए कपडे पहनी इई घास की ट्टी चटाईपर वैरी
हई शादजादी निमाज पठ रदी है । जब उह निमाज पड की
तब रडियों ने हाय जोडकर कहा किं, आपके पिता ओर
माता आपसे मिलने को आये है । दासीकी बात खनतेदी
शाहजादी दौडकर माता पिताके त पग पर गिर पडी । फिर
दोनों ने उसे उगकर गरे ख्गाया ओर श्न के आस्र बहा-
कर उसे शादी महक मँ अपने. साथ ठे जाने ङी इच्छा भक
को । शाइजादीने कहा आपकी _ आज्ञा मेरे शिर षर ह किन्त
पतिक आज्ञा विना म यां से एकं पग भी आगे नदीं ब
सकती । बादशाहने अद्धमशाइ से आज्ञा दिखा दी । फिर तो
उसके वह. फकीरी वेष को उतार कर॒ शाहाना कषडोंसे उत
सजाया ओर बेगम ने अपनी पालकीमे साथ ही वैटाया ।
वेस. ही अद्धमशाह ओर बादशाइ एक ही सवारीमे ग्रै कर
शाहीमदर को राना इए । बादशाहने महलमें प्च कर
उत्सव करने की आज्ञा दी ।
राइ दकम माख ब जर विलङकरू दिया ।
इस कद्र खैरात की न्तद ॥
इस प्रकार खूब धूम धामके साथ आनन्द मनाया गया ।
थ दिनि अद्धमशाइने बादशादसे कहा कि, फकीसे का
एकान्तम रइना ही अच्छा है इसलिये सज्ञे तो जंगलमे ही जाने
दीजिये । अगर आप चाहं तो मेरी श्वी ओर मेरा ङ्डका
आपकी सेवम रेया । बादशाह ने बहत भकारसे समञ्चा-
न. ९ कबीर सागर -
( ९८ ) सुलतानबोध
क्र अद्धमशाई को अपने पास रखना चाहा किन्तु उन्होने
एक भी नरी माना आखिर मजब्रूरीसे बादशाहने उन्हें बिदा
किया ) अद्धमशाह अपनी उसी इरी जाकर रहने लगे
जब उनका जी चाहता तब आकर अपने रूडके ओर शरीक
देख जाते 1 कहते है कि, जबतक जीते रहे तबतकं उनकी यदी
रीति रदी ।
बादशाहने अपने घर खाकर इब्रारीमको पटाने के छखिये
अच्छे अच्छे शिक्षक सब प्रकार की विद्या ओर गुणसे पर्णं देश
देशसे बुलाकर रखा “होनहार विरवानके होत चीकने पात!
के अनुसार इबादीमकी बुद्धि एेसी तीव थी कि शिक्षक रोग
यदि एक बात बतराते तो इत्रादीम उससे दश अधिक निकालते
इष प्रकार सदणगुरू कौ कृपा द्रारा इबादहीमने थोडे ही वर्षमे
अनेकं विद्या ओर करा कौशल तथा राजनीति योग्यता पराप् कर
ली । समय पाकर बादशाहने इबादीमको राज्य सिंहासन प्र
बेठाकर बरख का बादशाह बना दिया ।
नाना की गदी पर बेटकर इत्रादीम अब इव्रारीमशाह हये ।
राज्यके कामको इस योग्यता से किया कि, शत्रु ओर राज्य
के लाची दृसरे बादशाह लोगोने स्वयं प्रशंसा करके उनसे
दोस्ती करली ।
इस प्रकारसे रामराञ्य सा राज्य करने पर भी इाहीमशाह
को फकीरों दुवशों की संगति कारेसा चसकाल्गाथा कि,
दिन रातमे राजकाजसे जभी अवकाश मिरुता तभी साधु सन्तों
के पास पचते । चाहे कितने दी दूर पर किसी अच्छे महात्मा
के रहने का समाचार पाते जशूर वहां जाकर उनसे सतसंग
करके काभ उटठाते । इसी प्रकार राज्य करते इये कं वषै
बोधस्रागर (९९ )
बीतने पर उनके नानाका जिन््ौने अवना राज्यं इन्दं देकर
आप भजनके ल्य एकान्त वास किया था देहान्त हो गया ।
नानाके भर जाने प्र इव्राहीम शाह मन पर बडा धङ्का
लगा उनका चित्तं संसारसे एकदम वेराग्यको प्रात्त इआ अब
उन्दं दिनि रात पररोकं की चिन्ता श्हने छगी )
याने इ्रारीमशाहे दो जहौ ॥
करता था जाहिर गो कारे शां ॥
लेक था दुनियासे दिखूबरदाशता ॥
बेवफा व॒ बेबका पिन्दाशता॥
कारदुनिर्योस नथी चसपीदगी ॥
कछ तहेदिरसे नथी _ गरवीदगी ॥
जानता था कार दुनियां अस्तओआर ॥
केरता था बहरे जङ्रत कारो बार ॥
घुल्करानी उसनेकी वबा आब ताब ॥
दसबरस वल्लाह आलम बिरखुसवाब ॥
अदल अपने अभिरम एसा किया ॥
महो तलक होगया जौरो जफा ॥
शम आपरवानेको देत कटीफ अगर ॥
किताजल्द उसका करे गुखुगीर सर ॥
चल्मसे तोडे जो बज ठत्नी हरी ॥
फेर दे कस्साब गरदन पर छरी ॥
इसके आगे नानाकी मृत्यु देखकर इत्राहीमशाहके दयम
विरागका अंकुर विशेष वृद्धिको प्राप्त इआ ओर सदगुश्ने जिस
प्रकार उन्द उपदेश देकर सत्य पदको प्राप्त कराया उसका
( ९०० ) सुलतानबोध
विशेष वृत्तान्त सखुलतानबोघमे छिखा ह । यद्यपि ओर ओर
च्िखने वाके विचार ओर छ्खिनेसे सुरुतानबोधमें बहत
कुछ भद् पडता है तथापि सबका लक्ष एकी है ओर सबने अन्त
म फर भी एकरौ दशाया है । इस कारण ओर यँ पुस्तक बढ
जानेके भयसे अधिक न छ्खि कर शाह इबाहीम अद्धमके
फकोर हो जाने पश्चात् की करामात ओ प्रचार की बातोंमसे
थोडी सी बातें यहां लिखकर यह अथ समाप्त किया जायगा ।
राहद्बादीम अद्म खा स्फुट ठत्तान्त
वार्ता १
कहते द अद्धम हए जिस दम फकीर ।
छोड सुरतांनीका सब तांजो शरीर ॥
मालोजर जितना खजाने बीच था ।
लेके द्रियामें दिया सारा इवा ॥
पूछा एकने क्या किया यह टे माछिकं ।
क्यो न हर एकको दिया यह एेमारिक।॥
द्रजबाब उसको कहा यह मारोजर ।
यांदये बोग्जंब हसद् नखर्वेत का घर ॥
यों सुना है म बुर्गोसे कलाम ।
जानते दै इस मिस्लको खास व आम ॥
आप पर जो चीज दोवे ना पसन्द् ।
=> १द
गेरपर उसको मत रखना पसंद ॥
१ बादशाह, राज्य। २ राजमृकुट 1२३ रा्जसिहासन। ४ धनदौलत 1 ५ बादशाह । ६ उत्तर
नं । ७ पंजी । ८ कीना गृस्सा, कोध, आंटी । ९ ईर्षा 1 १० अभिमान । ११ वर्गोल । १२ दूसरा ।
बोधसागर ( १०१ )
%& वतां २ ।
बादशाहत ॐडकर अद्धम चले ।
कोहं व॒ सिरकी तरफको शरस ॥
बेरेको अपने किया कायमश्रुकाम ।
वादशाहत वह लगा करने तमाम ॥
आपली पिर राह सिरा कौ मरज ।
कुछ न रखी मार इुनियाकौ गरज ॥
साथ एक प्याला छ्य ओर बोरिया ¦
एकमिसवाक ओर एक सकिया छ्िया ॥
एक सोजनं खलर्का सीनेके लिये)
साथ यह असबाब जरी छे खिये ॥
शहरसे बाहर निकल जो कौ नजर ।
सोते देखा एकको वा खाकष्र ॥
बोरिया फेका वहाँ ओ यह कहा)
खाकसारोश्े जमीन दै बोरिया ॥
आगेजा देखा तो एक वेचारः अं )
ओकस पीता दै बेग वे दिजाब ॥
हाथसे प्यालेको भी फोडा वहीं
यानी पी खेवेगे इम पानी योदहीं॥
आगे देखा एक सोता है गरीब ।
हाथको रखे सिस्दाने बेनसीब ॥
तकिया भी शोडा फनूरी जानकर ।
यानी एक यह भी हे सञ्ञपर बारसर ॥
* एस वातमि जिन २ शर््वोषर अंक दिये शये हे उनक।! अथं वातकि अन्तकी टिप्पणी मं देखो ।
( ९०२ )
खुलताननोध
आगे जाकर देखा तो एक नेकं खो ।
उगल्ियोसे मांजता रै दांतको ॥
हाथसे भिर्वाकं भी तब फकदी।
पिस्ल ईसा एक सोजनदही रखी ॥
सैर करते करते आखिंरं एक जां ।
एकं पाड पर॒ गुजर , उनका, इआ ॥
आदमी वौँथा न वाँ हैवोन था।
यातो था वह कदं या मेदान था ॥
दूरसे एक ्ोपडी आयी नजर ।
देखा एक दुवैशं को उस कोड प्र ॥
करके इश्क अल्खाह पर बडे वहां ।
बैठना इनका _ आ उस प्र॒ गिरा ॥
बोखा वह दुवेशं े दुवेश ! तू।
रातको रहना न यां दिररेशं तू ॥
यौ न दाना रैन पानी दहै कदीं।
मसल्ेहत तेरा यहां रहना नरीं॥
तब यह बोरे उससे एे दौला ।
रिज्कैका हैरगिजिनकरियोत्र गि ॥
तेरा भै महिमौं नदीं रे तकियेदार ।
जिसका महिमा द वरी दैगमगसोंर ॥
जिसने दी रै जान वह देवेगा नानं।
गर नदीं वार्वरं तो कंररे इमतदान ॥
जो किसीके पास आता है अजीज।
किमत अपनी साथ राता है जंजीज ॥
है खुदा सबका नदीं करता शरीकं ।
बोधसागर
रिज्कमे बाम किसीको कछाशरीक्ं ॥
देख आते मत किसीको स्म जा)
उसकी किसमतका है साथ उसके धरा ॥
कहके यह ओर ईट वहसे जा रहे ।
सामने तकिर्याके जा सस्ता रहे॥
शामको एक खोट ओर दो रोदियौँ |
तकिर्योवाख्ेको वहां पर उतरि्यौ ॥
ओर उनके वास्ते खवाने तम ¦
यकं पुरखाओंकौ रिकाषी एकं जाम ॥
जफ चीनी ओर उनवर खवा पोश |
यक तकलदटुफसे उनमें नाय नोश ॥
खाके इ्राहीमने पनी पिया।
शकने आमतकाफिरकसिजदा किया ॥
यह तो ने अमत लेकबसं चखते रहे ।
वह जो तकियादारं थे जलते रहे ॥
शाम जब आयी वही फिर उतरियाँ ।
साथ यक खोटकेवा दो रोरिया ^
मारे गस्साके उन्होने यों कहा ।
मे नहीं खानेका खाना आपका ॥
एकको तुम भजो कल्या ओर पुखभं ।
सुञ्चको जौकी रियो रखी खिलाओ॥
जेसा वह दुवेश मं दुवेश ह!
जेसा वह दिररेश म दिररेश हं ॥,
क्यों बद़ायी एकक यह इञ्व्शौ ।
है फकीर आपसमे सब एकसा ॥
( १०३)
( ९०४)
सुलताननोध
जब किया यह् शिकवः उसने आशकार ।
तब इआ उसपर खतोबे किंग ॥
कि े फकीर ! इतना न भूल अपने तई।
तुञ्चको शरम इस बात पर आती नरीं॥
उसकी गर परे तो वहं तो बादशाह ।
मेरी खातिर तज दिया ताजो कुलाह ॥
छोड कर रुनात दुनियाकी तमाम ।
वह् शर बओवहकबाब ओवहत आंम ॥
वह् इक्ूमत साहिवी सब अपनी छोड ।
बन्दगीे मेरी आया हाथ जोड़ ॥
साहिबी जो छोड़ कर दोव शाम ।
क्यो न दं म उसको यकस्वाने तम ॥
तेरी इस रोरीसे यह खाना है कम् ।
याद् कर उसके वह नांजो नअम ॥
ओर अपना वक्त भीतर याद् कर ।
किस तरह ओकात होती थी बसर ॥
एक चसियारा था तु मदं गरीब ।
खोदता था घास तू एे बेनसीब ॥
जङ्रमे खोदता फिरता था घास ।
एक टका आता था उसका तेरे पास ॥
तु हुआ था छोड़कर उसको फकीर ।
मांनवेगमथीन बाबा था अमीर ॥
उस युशक्छत से बसर करता थात् ।
सर पर गहे लेके नित मरताथात्॥
तुञ्चको यं पक्की पकायी रोरियौं ।
बोधवागर
भेजता हं साथ पानके यंहां॥
गर राजा पर मेरी त राजी नहीं)
तो घ्ना अपना कर यासि कीं ॥
दिर कफकीरीसे अग्र तेरा फिरा।
जाली ओर शखुरपा यह है तेरा धरा ॥
आशकीसे त्र इमरे बाज आ)
लेके खुरा घाप अपनी खोद खा॥
जो खुदा किस्मतमें देवे वेश ओ कम |
मत रजौंसे उसकी रख बाहर कदम ॥
तरफ से अपने कर बाहर तलब ।
खींच मतरे फायदा रंजो ` तअब ॥
उसने जो समञ्ञा टै सोई खूब है।
ताल्ोको नित रजा मतरदब ३॥
अपने तई सबके बरावर त् न जान)
फर्म कर यह मोलबीकी बात मान ॥
हम भौ एसे है यह कदना है इरा ।
इनमे वह आदमी गर है भटा ॥
यां खुदीमे ओर खुदम वैर है।
किंस तरफ मटका रिरे है खैर है॥
वन्द्ंगान इक है मिसकीनों गरीब ।
कुब्रसे दूर ओर जित से करीरं ॥
इनत ब शरवत दही वहां मनुर है।
कुमे है जिसम सो दकेस दूर ह॥
( १०५ )
( १०६ ) सुलतानबोध
पकंके गिर पडता रै मेवा खाकं पर ।
खौप है जब तक रहे इफटाकं पर ॥
साखी
दास गरीबी बन्दगी, सतशुकूका उपकार ।
मान बड़ाई गबेका, पचि पचि मरे ग्वर् ॥
मान बड़ाई कूकरी, धरमराय दरबार ।
दीन ठकङ्कुटिया बारे, सब जग खाया फार ॥
मान बड़ाई कूकरी, संतन पाहं जान् ।
पाण्डव जग पान न महं, सुपच विराजे आन ॥
१ राज्य । २ पहाड 1 ३ जंगल । ४ स्थानापन्न । ५ टाट ) ६ सुदं! ८ गुद्डी। ९ जमीन भिर ।
१० पानो ! ११ अहली । १२ लज्जा, शरम । १३ बोक् \ १४ नेक = अच्छा! खो = स्वभाव । अर्थात
अच्छे स्वमावको भलेमानस आ7दमो । १५ ईसा पगम्बर इसाई धर्मक प्रवत्तक म्ल पुरुष । १६ अन्तम ,
१७ जगह । १८ वहां, उस जगह । १९ फकीर दो प्रकार के होते हं । एक तो गद्या (भौख मांगनेवाले)
जिनको संसारो वभवको बहुत लालस। है मगर उनको भिलता नहीं । इसरे वुर्वेश जिन्होंने संसारको अपने
विचार हारा त्याग दिया है! २० इस जगह । २१ दिल = हदय; रेश == सखम घाव । जाशय हृदय पर
चोट खाय हु अर्थात् संसारसे उदास हओ पुरुष । २२ बिहतरी, भलाई, नसीहत, उपदेश, उत्तम उपायं ।
२३ रसला = हिम्मत, उर्साह, कंम हौसला == कमहिस्मत, अनउदार 11 २४ रोजी, भोजन 1! २५ कदापि
नहीं; कभी नहीं । २६ शिकायत, उलाहना । २७ अतिथि । २८ दुःख मिटाने वाला । २९ सहान्भूति दिखाने
वाला ३० रोटी! ३१ विश्वास, यकोन 1 ३२ परोक्षा ३२ निकट । ३४ प्यास । ३५ भाग्य ।
३६ एकसाथ 1 ३७ साथ । ३८ । डरता 1 ३९ हटकर । ४० मठ । ४१ थाल । ४२ गिलास । ४३ वतन |
४४ यालोका ठकन । ४५ तेयारो, बनावट । ४६ खानेपीने के सामान 1 ४७ धन्यवाद 1 ४८ मुसलमान
एक खाना ) ४९ प्रतिष्ठा 1 ५० बराबर, समान ५१ निन्दा, शिकायत । ५२ जाहिर प्रकट । ५३ क्रोध,
कोप ! खतावे किर्दगार == ईश्वर कग कोप! ५४ कर्ता ५५ लेना । ५७ ख॒शीके लिये । ५८ लज्जात =
स्वाद 1 लज्जात बहुवचन है लज्जातको अर्थात् बहुतसे स्वाद । लजञ्जात दुनिया ।! संसारी विषय वासनाका
सुख । ५९ पोनेको चोज । ६० भोजन, खाना । ६१ लाड 1 ६२ प्यार । ६३ समय । ६४ करना; गुजरना ।
६५ परिश्रम । ६६ अधिक । ६७ मर्जी, इच्छा, आज्ञा \! ६८ दुख । ६९ चाहने वाला 1 ७० चाह । ७१
समक्ष । ७२ यहां मौलबोते मतलब है मौलाना रूम । ७३ अधीनता । ७४ अभिमान । ७५ ईश्वरके भक्त ।
७६ गरीब । ७७ । अभिमान ७८ अवमान 1 ७९ निकट । ८० गरीबी, दीनता । ८१ सत्य । ८२ कञ्च ।
८३ आसमान ।
बोघसागर ( १०७}
भाया तजे तो क्या मया, मानि तजा न जाय ।
मानर्हिं बड अुनिवर गरे, मान सवन को खाय ॥
कविरा अपने जीवते, ये दो बातां धोय।
मान बडाई कारने, अछ्ता भू न खोय ॥
वात्तां ३
शाह इव्रादीम अद्म संसार त्याग देनेके पश्चात् मस्त फकीरों
के वेषे इधर उधर फिरा करते थे। न कोई उनका विशेष वेष्
था न चिह्न । इसखिये लोग उनको पहचान नहीं सकते थे ।
एकवार रेसेदी फिरते इए किसी अभीर आदभीने उन्हें पकड-
कर अपने बाग में माटी के काम पर खगा दिया । सदञङ् की
इच्छा जानकर वे अच्छी तरह बाग का काम करने छे | ठकं
वषं जब बागवानी करते उनको होगया तब एकदिन बाग का
माछिक अपने कईं मि्रोको साथ लिये इए बागमं आया । शाह
इत्राहीम सादबने उस समय बागमें जितने फल फूरु थे सवम
से थोडा थोडा छेकर एक डाली बनायी ओर माखिकं वेगके
पास रे गये। जब उस अमीरने डाली मं से अनारोँ को लेकर
खाया तर सब अनार खट निकरे। उसने शादहसाहब को बुलाकर
पा कि, मेरे लिये ये खटे अनार क्यों खाया ! उन्होने जवाब
दिया कि, स॒ञ्चे खट मीठे की ङछ खबर नहीं है। उस अमीरने
कंहा किं, तुम कितने दिनसे इस बाग में रइते हो ! उन्होने
कहा एकं वषेसे । अमीरने कहा एक वर्षसे बागवानी करके
भी तुमने आजतक बागके खे मीठे अनासो को नहीं पह-
चाना † शाह इत्रादीमने उत्तर दिया तुमने सञ्च बागकी रक्षा
करने केैख्यिरखाथा कि, फलों को खाने के स्यि ! अमीरने
( १०८ ) सुलताननोध
कहा रक्षाके लिये ! उन्होने कहा तब म फर केसे खा सकता
था १ अगर रक्षक मक्षक बन जाय तवतो रक्षाका नामी
संसारसे उठ जाय । आपकी बातको सुनकर वह अमीर बडे
आश्चयं मे आया । फिर जौँच करने प्र उस अमीरको
साटूम इआ कि, वह तो शाह इब्रादीम अद्धम है तब तो वह
हाथ जोडकर उनके पेर पर गिर पडा ओर अपना अपराध
क्षमा कराने रगा । तब वे हैसकर उस अमीरको उपदेश देकर
चल दिये ।
वात्ता 9
कहते ह किं, बादशाहत त्याग देने के पश्चात् सुरुतान इबा-
दीम अद्धम शाह दस वषे तक नेशाषुर जंगरू की एक शफा
म रहकर भजन करते रहे । आव्वं दिन फा से निकट कर
जंगरकी लकडियां इकटी करके वस्तीमे छे जाकर केच आति
ओर उससे जो कुछ मिलता उतनेही मे आठ दिनके भोजन
का व खरीद कर छे आते ओर आठ दिनतक बैठे भजन
करते.
छिखादै कि,इस दस वषेकी तपस्या ओर एकान्त बाससे उन्होने
अपने मन तथा इद्वियोको पूर्ण रीतिसे जीत लिया था! इसके
प्रमाणम छिखिा है कि, जब नेशापुरसे शाह इबादहीम अद्धम रवाना
इए तब एकं जदाज पर चठ कर अरब को चले । संयोगसे उस
जहाज पर एकं अमीर भी जा रहा था । उस अमीरके साथ सब
अमीराना सामान नाचराग वगैरह थे। ठदरठा मस्खरीसे अमीरों
को खुश करने वारे भांड भी उसके साथ थे। एकं रातको
भांडोने कहा अगर कोई आदमी मिरूता तो उसपर से हमलोग
अपनी मसखरी उतारते । उस अमीरने हुक्म दिया कि, देखो
नोधसाशर ( १०९)
जहाज म कोई गरीब भूखा मिरु जाय तोउत्े पया दो रव्या
देकर अपना काम निकार छो । आखिर कार दंढते दंढते उस
अमीर के आदमिर्योनि शाह इवादीम अद्धमको किसी कोने मं
बेड इआ पाया । इनका विचि वेष ओर बदी इई दादी कगै-
रह देखकर सवने पागल समञ्च कर उन्दँ पकड जिया ओर
अमीरके मजलिसि मे लाकर वैव दिया । फिरितो भंडँने
मनमानी की । जितने खेर खेते अन्ते सब उन्हीं प्र उता-
रते अतमे जब उन्हें बृहत तकलीफ इई तव आकाश बानी इई
कि, अग्र तुम कहो तो इस जहाजको इवाकर इन सब ससं
बदमाशोको इनके किये का दण्ड देह शाह इवाहीयने बडे
धीरज के साथ कहा कि,
खींच कर सीनेमें अषने एक आह ।
बोखा इ्राहीम े मेरे अल्लाह ॥
कुछ नहीं हस अमरमें इनकी खता ¦
करता अगरबसीरत इनको त्रु अता॥
कजरवी क्यों करते ठे दानायराज ।
फेर बदसे आप करते रएहतराज ॥
राइ मे गर बेवसर के चाहो ।
जो न रोके उसको वह श॒मराह हो ॥
मदे बीना को है लाजिम दे बता।
वरन गोया उसका खून उसने छलिया ॥
वह है या रष्व ज्म असि्यांसे बरी ।
कुछ नहीं उसमें खता उनकी जरी ॥
क्योकि गफर्तसे है मसूर हवास ।
जेहर नादानी से मकलूबुल इवास ॥
( १९० ) सुलतालनोध
फिर उनने कडा कि, हे प्रथु ! क्या भै तेरा बन्दा इसका बिरह ओर
णेखा नापाक ई कि, मेरे स्पशं के पाप से इतने बडे जहाज को
डबाकर इतने निष्पापोंका अन्त करेगा । प्रभु! तूतो दयाद्धु है
अघम धारन दै एेसा क्यो नहीं करता कि यदि केवर मेरेदीं
चयि तुञ्चे इतनी इत्या करनी पडती दो तो सुञ्जको दी इवादे
अग्र नरी तो इन सबको वह ज्ञान दे कि ये तेरीबडा-
इको समञ्च ओर इनका इडदय दया ओौर ज्ञानसे पूर्णो
जावे । उनके इस प्रकार आशिबाद करने के पात् त्कार
दी अमीर सहित समाज के सब आदमियों का इदय शुद्ध
ओर ज्ञान से पूणं दो गया। उस समय सबने उनको पहचाना ।
फिर तो सब उनके पगपर गिरकर क्षमा कराने लगे । उन्होने
सबको उपदेश देकर संतोष दिराया ॥
वार्ता ५।
एक बार एक स्मशान में वेठे इए शाह ईबारीम अद्धमसे
करिसीने पृछा किं, बादशादी शोडकर मरघटों म क्यों वेठते
फिरते हो ! उन्होने उत्तर दिया कि) संसार के मनुष्यो को पै
चार प्रकार का देखता ह ॥ १ ॥ कोई तो जीता है भौर संसार
म मोजूद है ॥ २॥ कोई माके पेयम है ॥ ३ ॥ कोई अपना
कमे पूरा करके आनेदी चाहता है ॥ 9 ॥ कोई मर गये है
इनमें से मरे हए लोग पुकार रहे दै फि ओ संसार के आद्
मियो ! जस्दी जल्दी मरो कि, क्यामत जल्दी दो ओर
हमलरोग कवरकी कष्ट से षटं । जो माताके पेट मं
आचके ई ओर जो आने वारेदहवे पुकाररहेरैकि, ओ
ससार के मनुष्यो ! ज्दी संसारको छोड़ो कि, इभारे आनेको
स्थान मिरे । आशय यह दै कि एकं ओरसे भागते दै ओर
बोधसागर ( १११)
दसरी ओरसे बुराते है । इस दशा भै संसारम रहने की इच्छा
किस प्रकार हौ सकती है। इसयिये मैने मौतको ओर मरघदट
को अन्तिम स्थान जानकर सेवन करना आरम्भ किया ३ ।
वौर्ता ७
एक वार फकीर् हो जाने के बृहत दिन पीछे शाह इव्राहीम
अद्धम बल्खमें गये ओर शदरसे बाहर एक जलाशय कै
किनारे बेठे । आने जाने वाँ ने उन्हें देख कर पहचाना ओर
उनके बेरे को जो उस समय वहां के बादशाह थे उनके आने
कीं खबर दी ।
बादशाह बापके अने की खबरको नकर चट सवारी
मगाकर बहुतसे सुसाहेव ओर नौकर चाकरों को साथ चयि इये
वृ पहुंचा । शाई इाहीम के आनेका समाचार जैसे री बरख
के लोगों को पर्चा वैसे दी जो जिस दशाम था अपना अपना
काम छोडकर दौड पडा । थोडी ही देरमे शाह इबाहीम के
निकट बडा भारी मेखा खग गया ।
सुरुतान इनराहीम के पास में सिवाय एक शुदडी के इसरा
वञ्च या पाच आदि इछ नदीं था । कठिन तपस्या के कारणसे
उनका शरीर भी बहुत दुबला पतला ओर कमजोर देख पडता
था । बापकी वह दशा देखकर बादशाह बने हए आत्म रष्िसे
न्य बेटेने का पिताजी ! आपने बादशाइत छोडकर संसार
भरका कष्ट अपने शिर उठके क्या खाभ उडाया 1।
जो आपका शरीर मखमरु ओर एू्टोकी शय्या पर सोने-
वाला था अब उसके ल्य टाट भी आपके पास नदीं है जिसके
सम्थुख_ इजारों दास दासि्याँ सेवा करनेके लिय दाथ जोडे
खड रहते थ आज वही इस प्रकार बेकस ओर लोचारक समान
(१९२) सुलतोनबोध
भूखे प्यासे जमीन पर सोता ओर दुःख उटाता फिर रहा ३ ।
पूज्य पिताजी ! एक चीज को छोडकर मनुष्य दृसरी वस्तुको
उन्नति की आशासे स्वीकार करता है । आपने तो उरग प्राप्त
सुख को भौ खोकर अपनी एेसी दशा बना खी है जिसे देखकर
सञ्ञे शरम आती दै ओर आपकी यद प्यारी प्रजा आठ आउ
आसं रो रदी दै । इसी य्य मैं आपसे पता हं कि, आपको
इस त्यागमे क्या पराप्त हुआ दहै!)
बेटेकी बातको सुनकर उसे कुछ उपदेश देने के विचारसे
सुरुतान ने कहा, बेटा ! मैने जो कुछ कमाया है वह तो पीछे
बतलाञगा पदठे त् बतला किं, बादशादी पाकर तूने अपनी
उन्नति करां तक की है! बापकी बात को सुनकर वेट ईैसकर
बोला किं, देखिये आपके राज्य छोडकर चरे जानेके प्शात्
भने अमुक अमुके देश अपने बाह बरसे जीतकर स्वाधीन कर
लिया हे ओर असुक् अमुक सुधार राज्य मे कलाया ई । मेर
अधिकारम क्या नदीं दै ! जिसको वाहं आज गरीब बना हँ
जिसको चाह आज कुबेर कदल द । जिसको चाहं उसका जान
बखशां कर दू जिसको चाहू मार डर । मेरे नाभ को सुनकर
शत॒ डरते है । मेरी आज्ञा को कोई तोड नदीं सकता ।
५ 6 ५ व ५ भ सच सुच
तुममें सत्ता आगयी है तो ठे मेरी यह सुहं इस तलाब
मसे निकर्वा दे । इतना कहकर गुदडी सीनेकी सको
तालाब्मे फक दिया । ¢
यद + बेया 4 १ ५ ने व कडा कोन-
बडी बात दै। एक नहीं लाखों सुई आपको भगवा देता ह ।
सुल्तान ने कहा सञ्च दूसरी सुई नहीं चादिये खञ्च तो मेरी ही
सुई चादिये। `
बोधसागर ( ११३ )
बादशाह ने उसी समय वजीर को आज्ञादी ओर आनन फानन
भ देखते दी देखते हजारो पानी मँ इवकी मारनेवाङे ओर जाक
डालने वाले हाजिर हो गये । यद्यपि सका निकाल लेना बाद्-
शाह सहल काम समञ्चता था तथापि सब उवाय करने क्र भी
सहका षता नीं लगा । ताखाब के तह मँ जने इए सब कादं
कीच साफ हो गये) मगर शुहका पता नहीं छ्गा। तब तो
बादशाह अपने मनम शरमाकर पिताके षास जाकर कहने कमा
कि वह सहं तो नहीं मिरी उसका मिलना असम्भव ह इखरी
सुडयां हाजिर ह जितनी चाहिये लीजिये । उल्तान इबाहीमने
कहा कि, बेटा तूने यह क्या उन्नति की कि, एकं खड भी वाडा
बसे नहीं निकल्वा सकता ! खेर अव मेरी कमाई को भी देख
ओर अपनी कमाई से मिला । इतना कहकर सुरुतान ने आंख
बन्द करली एक क्षण के बाद आंख खोल कर ताखावकी ओर
देखा तब अगनित जलचर छली आदि जीवधारियों को
किनारे जख्मे खडा देखा । बादशाहने उनसे कहा प्यारी ईश्वरी
सृशिकी मछखियो ! क्या तुम मेरा एक काम कर सकोगी १ सष
जलचरोने एकं जवान होकर कहा जो आपकी आज्ञा हो करने
को तयार है । जलचरो को बोखते सुनकर बादशाहसे परजा तकं
सब आश्चयं म आगये । सुरुतानने मखलखियोंसे कहा कि नेरी
एक सुई पानीमं ६ उसे टकर खा दो । इतना सुनते ही मछखियां
गोता र्गा गयीं । थोडी देरमे एक मछली सई यहम लिय इई
किनारे आयी । बादशाहने अपने दाथ से सुहं खेकर देखी तो
वही सूह॑थी । फिर तो वह बापके पगपर गिरकर रोते ओर
अपनी अज्ञानता के अपराध को क्षमा कराने लगा । परजा
( ११४ ) सुलतानबोध
चारों ओर से जय जयकार वाणी उच्चारे लगी । इतने म
खुरुतान इबादीम अद्धमसाहब वहां से अन्तरध्यान हो गये ।
वौर्ता ८
कहते दे किं, जब सुतान इव्राहीम अद्धम मक्षा के निकर
पचे तब सुना किं मङ्छाके पजारी ओर यानी रोग उनकी
अशवानी को आ रहे है । तब वो जमात से निकर कर अलग
होकर आगे चरे गये जि्षमे उनको कोई पहचान न सके मषा ॐ
महात्माओंके सेवक रोग जो अपने अपने माखिकों से आने
आरहे थे पहरे सुल्तान इव्रादीम अद्धमसे भिरे । उन रोगोने
आपसे पृछा क्या सुरुतान इत्रारीम अद्धम यहांसे नजदीक हे !
सब महात्मा लोग उनसे मिलनेको आरहे ह । आपने उत्तर
दिया कि, वे उस अघर्मीसे क्या चाहते हे ! सेवकोने गाली देते
सुनकर आपको खूब मारा ओर गरदनियां दीं ओर कहने खगे
कि, तु एसे महात्मा को अधर्मी कहता है ! असलम तृही
अधमं दै । आपने कदा हां भाई सोई तो मेँ भी कहरहाहं वे
सब तो आपको मारक्ूटके आगे बटे ओर आप अपने मनसे कहने
लगे कि, क्यों ओ दुष्ट तूने अपने किये का फल पाया या नहीं !
अभी केसा खुशदहो रदाथा कि, मक्का के महात्मा लोग
हमारी अशवानी को आ रहे है । इसी प्रकार से आप दी आप्
अपने मनको समञ्चा रदे थे इतने म रोग आगये ओर आपको
पहचान कर आपसे क्षमा मांगने रगे । फिर आप मक्का में
जाकर बहत दिनों तक रहे । आपके बहुत से चेरे भी हो गये।
हा सरत ओर सरी टोपी शग
बोधसागर (११५)
बाता ९
जब आप बल्ख छोड़ कर ककीर हए थे उपस समय आपका
एकं छोटा पुत्र था जब वह र्डका बड़ा इआ तब उसने अपनी
मांसे पृछा कि मेरा बाप कहां दै ! मनि सब हार कह सुनाया
ओर यह भी का #फि सुननेमे आता है कि, आजकल मक्का
रहते है । लड़केने मसि कहा “ अग्र आपकी आज्ञा हो तो
मे भी मक्का जाओ तीर्थं भी करूगा ओर पिताको दंटकर उनका
दशन भी करू गा मानि कहा अकेरे तू क्यों जायगा चै मी म्ला
की जेयारत को जागी । फिर तो कडकेने वजीरो को इक्म
दिया कि, शहर भर मे डंडीं पिटवा दा कि, जिसको मक्का
चलना हो वह चले उसका सब खच मेरी ओरसे दिया
जायगा । फिर चार इजार आदमी मक्का जानेको तैयार
हुये । सबको साथ रेकर् लडका मक्का पहुंचा । वहन जाकर
गुदडी वारे फकीरों की एक जमात देख कर उनसे पुचा कि.
तुम रोगं इत्रादीम अद्म साहब को जानते हो ! उन्होने कहा
वेतो हमारे यर द । फिर पा वो कहां हे ! उत्तर मि कि वो
लकडियों के गरे लाने जंगलमे गये ह । क्योकि जब वो जंगल
से लकडी केकर आर्येगे ओर बेचकर रोदी रखायेगे तब इम रोग
खायंगे। इतना सुनकर कृडका जंगल की ओर रवाना इआ। आगे
जाकर एक उड को लकडियोंका गवर शिर पर रखे इए आते
देखा । लडका सरतानकी वह दशा देखकर रोने खगा । फिर
उनके पीछे पीछे बाजार तकं गया । जहां जाकर उन्होने लकड़ी
रखकर पुकारा कि कोई है जो माल दलारु ( सुकृति की कमाई )
को माल इरारके बदरे छ्वे। एक आदमी आया उसने
( ११६ ) सुलतानबोध
आपसे खुकञड्िया खेलीं ओर उसके बदर में रोरियौँ दे दीं ।
आप रोटी रेकर जमातमे आये ओर साथियों के आगे रख
दौ) लोग रोरी खाने लगे ओर आप भजन में लने ।
खुरुतान इत्राहीम अद्धम साहेब सदा अपने चेलसे का
करते थे कि, देखो बेदादी मूके क्डके ओौर च्ियोँ से सद।
सचेत रहना उनकी ओर कभी ध्यान देकर मत देखना” । उनके
शिष्यवगं सदा उनकी आज्ञाका पालन करते थे ।
काबाकी परिक्रमाके समय संयोगसे सुरुतान इमादीम अद्म
का ख्ड़का उनके सन्धुख आगया । आपने दृष्टि भरकर उसकी
ओर देखा । शिष्य लोग उनके उस कामसे आश्म आये ।
जब परिक्रमा कर चुके तब आपके शिष्योने आपसे हाथ जोड़-
कर विनय किया किं दीनबन्धु हमको तो आपने आज्ञा दी है कि
बिना भ डादी वारे बालकों ओर श्ियोकी ओर रश्चि मत
करना किन्तु परिकमाके समय आपने स्वयम् एक बालककी
ओर टकटकी लगाकर देखा था इसका क्या कारण हे 1
शिष्योकी बातको सुनकर आपने उत्तर दिया कि जिस समय
प बरख छोडकर चखा था उस समय मेरा एक छोटा लडका
था सञ्च इस र्डकेको देखते ही एेसा जान पडा कि यह वही
लडका हे । आपकी बात सुनकर आपके शिष्योमें से एक शिष्य
यात्रिर्योक स्थानम गया ओर बर्खके यात्िर्योको ठते डते
आपके पुत्रके पास पहुंचा । उस समय वह लडका अपने खीमेमे
बेठा हुआ पुस्तक पट रहा था ओर रो रहा था उस शिष्यने
जाकर उस ल्डकेसे पूछा कि आप कँसे आये दहै
लड़केने कहा-बरुखसे आया हूं । फिर उसने पडा आप
बोधसागर ( ११७)
किसके कड़के है ! उत्तर मिखा कि, इबादीम अद्धमके उसने
पुछा किं, आपने उनको देखा है ! छड़केने कहा कल्के सिवाय
मेने उनको कभी नदी देखा किन्तु अज्ञे यह भी निश्चय नही
दै कि, जिनको मैने देखा है वह मेरे पिता है कि, नही । उनसे
इस उरके मारेकिवोतोइम ही छोगोसे भाग कर यहं आये
है कहीं हमको जानकर यहांसे भी कीं भाग न जवं छ
न पृछा । आपके उस शिष्यने कहा कि, आप मेरे साथ
आहये मै आपको आपके पितासे मिला । फिर तो दोनों भां
बेटे ओर बहुतसे आदमी उस शिष्यके साथ चे जब सब
आपके सामने आये तब आपकी श्वीन आयक देशं ख्या
देखते ही वह विकल होगयी ओर रोने खगौ । फिर क्के
बतलाया कि, देखो तुम्हारे बाप यही हँ ! डका भी रेने
खगा । उस समयक दशा एसी कर्णाप्रणं थी करि आपके
सब शिष्य भी उनके साथ रोने लगे । मोहने कर्णाके स्वप
सबके उपर अपना जार फैखया ।
ख्डका रोते रोते बेहोश होकर गिर षडा जब चतम आया
तब बापके पग पर गिरकर प्रणाम किया। आपने उसे गले
खगाया फिर उससे उसके पटने छिखने ओौर धर्मी बातोको
पकर आपने चाहा कि, वहासि उठकर चरे जं किन्तु
आपके ज्ञी ओर पुत्ने न छोडा तब थोडी देरतक जुष रहनेके
बाद आपने आसमानकी ओर ख॒ करके का ह प्रथु । त॒ मेरी
सहायता कर॒ आपका इतना कहना था कि, पुत्र आपहीके
गोदमे मृत्युको प्राप्त हआ ।
शि्योनि छडकेको मरते देखकर पृछा या सतय ! यह क्या
इआ †! आपने कहा जिस समय भने इस लडके को गले
( १९८ ) सुलतानबोध
खुगाया था उस समय मेरे हदये मोदका संचार हो आयाथा
तब परमात्माकी ओरसे आज्ञा इहं थी कि, ए इ्रादीम तु मेरे प्रेम
ओर भक्तिका दम भरता है ओर स्नेह दृसरोसे करता है । जिस
बातके ल्य शिष्योको सबसे अरग रहनेको कहता है उसीको
तु आप पकंडता है । जब मैने यह सुना तब अने आशीर्वाद
कियाकि,हेप्रभुमेरीरक्षातेरे दी हाथमे है, यदि मेरे पुत्रका
मोह सुञ्चे तुञ्जसे अलग करनेवाखा है तो स॒ञ्चेभत्युदेदेया
उसौको । बस जो कुछ साहबने किया सब ठीकं किया । इतना
कहकर आप वहांसे शिष्यो सहित उठकर चरे गये बरखवाले
लोग रोते पीरते खाशको दफन करनेके लिये ठे गये ॐ
वार्ता १०
एकबार दजरत इत्रादीम अद्धमके पास कोहं आदमी एक
हजार दिरम लाया ओर विनय पूर्वक प्रार्थना की कि आप् इसे
स्वीकार कर लीजिये आपने उससे कदा कि मँ मैँगतोसे कुछ
नहीं रेता । उस आदमीने कहा भँ मेँगता नदीं हं बल्कि बडा
धनवान दू । तप आपने उससे पृछा कि, जितना तेरे पास
है उससे अधिक भिलनेकी इच्छा तेरे दयम है
किं नदीं ! उसने कदा हां अधिक तो जङूर चाहता ह । तब
आपने कडा किं, तब तो तू बडा भिखर्मेगा है इसलिये तँ तुञ्जसे
कु नहीं क सकता । में उसीसे रेता हं जो इतना परा है कि,
कुछ नहीं चाहता ।
#* वतंमानके त्यागके अभिमानी साधु ओर महरतोको विचार करना चाहिये क्यों कि, ये भी तो अपनेको
सुलतान इब्राहीम अवरमसे बढ़कर त्याग) बतलाते हे । |
नोधसागर ( ११९ )
वौर्ता ११
एकवार एक आदमी दसहजार अशरफियौ केकर आपके
पास आया ओर उनको स्वीकार करानेके लिये इठ करने खगा ।
आपने उससे कहा कि, तु इस थोड़से सोनेके बदले मेरी
साधुता मोर लेके ञ्चे त्याभियोकी जमाअतसे निकल्वाना
चाहता है ! इतना कहकर आप वहसे उठकर चङे गये ।
धन्य है इस त्यागको । आजकरके वैरागी भी अषनेको
महान त्यागी मानते इए भी एक एक वेसाके च्य संसारी
तुच्छ जीवोके पास दीनता करते ओर जटी खशामद किया
करते हँ क्या कोई सच्चा विचारवान उन्दं वैरागी कद कता
है कदापि नदीं ।
वार्ता १२
एक आदमी ने आपसे विनय क्रिया कि, आष ञ्चे ठेता
उपदेश दीजिये जिसपर अमरु करके गै सन्त पदवी को षा
सई । आपने उससे कहा-सन्त बनने के लिये सबसे पहली
बात यह है कि, लोक ओर परलोक दोनोसे चित्त उड करके
वरु साहबमे खगादे । साहब के सिवाय अपने इदयसे दसरा
सब कुछ निकार दे । दूसरे-हरामकी कमाई छोडकर सुकृति
कमाईसे उद्र निवह कर। क्योकि जिसका आहार शद्ध है उसका
हदय शुद्ध होता,ओौर जिसका हदय ञ्ुद्ध होता है,उसीकेअन्तः
करणम सादबका सचा प्रकाश प्रकट होता है जिसने अपना आहार
श किया है वह अवश्य अपने पदको पहचा है । तीर्थं ब्रत
ओर नाना प्रकारके उपरी तपस्यासे चित्त शुद्ध नदीं होता
बरन आहार ञ्ुद्ध होनेसे दी अन्तःकरण शुद्ध होता है ।
( १२० ) सुलताननोध
वार्ता १३
एकं बार रोगोने इजरत इबादहीम अद्धमसे कदा कि अश्क
खन्त बड़ा सिद्ध ओर ईश्वरतकं पहुंचा हआ है । वह सदा ध्यान
भेदी रइता है ओर दूर दूर देशकी बातोको कह देता है । ओर
खदा तपस्या मे दी रहता है । आपने उन लोगोसे कहा कि,
सुञ्ञे उसके पास लेचलो म उसका दशन कषूगा । रोग आपको
उसके पास रे गये) आपने हां जाकर देखा कि; वह उससे भी
बटकर सिद्धिवाखा है । उस सिद्धिने आपसे प्रार्थना की कि,
आप् तीन दिन तकं यहाँ रहिये आप रह गये । उसके व्यवहार-
को देखकर आपने विचार किया तो माटूम इञ कि, उसका
भोजन आदि निवोह दम्भकी कमाईसे चरता है । तव आपको
उसकी दशा पर दया आयी । तीन दिनके बाद आपने उस
सिद्ध को नेवता देकर अपने कुटी पर बुखाया जब वह आप्
के पास आया तब दूसरे ही दिन उसकी सिद्धि कृत्त होने र्गी
तीसरे दिन तो वह कोरा सन्त रह गया । तब उसको बडा
आशयं हआ उसने आपसे कडा कि आपने मेरे ऊपर क्या
कर दिया मेरा सब चमत्कार जाता रहा ! आपने उसको उत्तर
दिया किं परे तुम दरामकी कमाईसे अपना वेट भरते ये
इस कारण कालने तुम्हारे डदयमे प्रवेश करके तुमह अनेक
परकारकी सिद्धिका रार्च दिखाकर साहब के देशसे काल
देशम रेगया था । अब तुम तीन दिनसे सुकृति की कमाई
का भोजन करते हो इस कारण कालका राज्य तुम्ारे दयसे
उठ गया दे । अब तुम चाहो तो साहिवका भजन कर सत्य
लोकं का साधन कर सकते दो ।
सुरुतान इव्रादीम की बात उस समय तो उसको अच्छी नहीं
बोधसागर ( १२१)
लगी परन्तु जब वह रौटकर अपने स्थानषर आया ओर सुल-
तान इबाहीम अद्म सादे के आचार विवार को अषने कर््तभ्यों
से मिखाने खगा तब उषे प्रत्यक्ष ज्ञात होगया कि, वह तो अपने
उचित वरिश्रम द्वारा अपनी संसार माया चरते ह ओर वह
अपनी संसार याज्राके लिये नाना प्रकार के वेश ओर दम्भक्ी
बातोसे संसार को बहकाकर अपना नाम बढाता ह । जिन बातोके
भेदको वह स्वयम् नदीं जानता उसको जानने का डोल बनाकर
लोगोको ठगता ओर अममे डालता है! इस प्रकार से बोध होते
ही उसने पश्ात्ताप करके अषने सब स्वांगोँ को तिललँजली
देकर काल देशे निकलने ओर खलत्यराज्यं मं प्रवेशं करनेके
लिये सच्चे संतोका संग करना आरम्भ किया |
वार्ता १४
एकं दिनि परिश्रम करने पर भी आपको भोजन नहीं मि )
आपने साहिब को धन्यवाद दिया । इसी प्रकार खात दिन तक
आपको भोजन नदीं मिला ओर बराबर आप साहिब को
धन्यवाद करते रहे । आञ्वं दिन निबखता बहत बड गयी तब
आपके मनमें कुछ. भोजन भिखने की इच्छा इहं । साहिब की
कृपासे एक मनुष्य आकर खड़ा हआ ओर विनय करने खगा _
कि, आप मेरे यहां भोजन करने चलिये उसके प्रेम ओर
भक्ति भावको देखकर आप उसके साथ गये जब आप उस
आदमी के घर पर पहुचे तब उसके अमीराना ठट ओर
मकानात के देखनेसे माटूम हआ कि, कोई बडा धनी आदमी
ह । उसने आपको एक सजी इहं कोटरीमें ङे जाकर बेठाया
फिर वह आपके पेरों पर गिरकर विनय पूर्वक कहने लगा कि, मै
( १२२) सुलतानबोध
आपका मोरु ख्या हआ दास हूँ सो यह सब वैभव आपकी
सेवा मँ अपण करता हू, इसे स्वीकार कीजिये । आपने उसी
समय उससे कदा कि, आजसे भैं तञ्च दासत्व से स्वत करता
ह ओर यह सब मारु असबाब भी तेरे दीकोदेता हं । इतना
कहकर आप वहांसे उठकर जगल मँ चरे आये ओर साहिबसे
पाथना करने खगे '"हे प्रयु । आजसे तेरे सिवाय दूसरा ङुछ
न चाहूगा । तू तो टुकंड रोरीके बदले संसार भरकी माया
मेरे गरे बां धना चाहता है" । कहते है कि, आपने मनका दण्ड
देनेके खयि कईं दिनों तक ओर भी भोजन नहीं किया ।
सद्भरू ने सबसे अधिक मनके उपर दी ध्यान रखने को
बारबार कडा है । यथा-
साखी-मनके मते न चाल्य, छडि जीवकी बानि।
कंतवारीके सूत भ्यो, अलरि अपूठा आन ॥
मनके मते न चाल्य, मनका मता अनेक ।
जो मनपर असवार दहै, सो साधू कोड एक ॥
चिता चित विसारि के, फिरी न ब्ञ्चिये आन ।
इन्द्री पसारा मेरिये, सहज मिरे भगवान् ॥
मनको मारो पटकिके टूक टूक है जाय ।
टूटे पीछे फिर जरे, बीच गांठ रहि जाय ॥
मनका विशेष वणेन मन बोध अन्थमें देखनेसे माटूम होगा
वार्ता १५
सुल्तान इ्रादीम अद्धमसादबको निद्रा नदीं आती थी । एकं
बार बहूतसे आदमियोने मिलकर इस बातकी परीक्षा छी ।
आपने पृछा कि, आपको निद्रा क्यों नदीं आती ! आपने
उत्तर दिया जिस काटने बडे बडे षि, मुनि, पीर, पेगम्बर
बोधसागर ( १२३)
ओर ओखियाओंको सादिषसे विश्चुख कर दिया । वह खदा
जाग कर॒ सत्यपथके जीवको भटकानेकी युक्ति रचता रहता
है, तब हमको सोनैकी फकुरसत कैसे भिर सकती है !
सच दै । साहबने का है ।
काल खडा शिर ऊषरे, जाश बिरान मीत
जाको घर है गेल र्मे, सो कस सो निचित॥
वार्ता १६
एक वार सुरुतान इव्राहीम अद्धम साहब एक इट इये मका-
नमे ठरे हए थे। उसमे ओर भी बहुतसे श्ुसाफिर उतरे थे। रातको
ट्टी ठी हवा ओर साथ ही साथ पानीके छीर भी पड़ने छनीं ।
उस मकानका दवार दरटा इआ था । इससे मकानके अन्द्र
ठेदी इवा ओर पानी आकर अुसाफिरोको कष्ठ पह वा रहे थे ।
आपसे उनका कष्ट देखा न गया । आप चुपचाप् उठकर दार षर
जाखड़ हए । जिससे अन्दरके अुसाफिरोको तो आराम इआ
किन्तु आप ठंटसे ठिदर गये । सबेरा होनेषर लोगोने देखकर
पदचाना ओर आगसे सेकनेपर जब आपको होश आया, तब
कोगोने प्रा कि, आपने एेसा क्यों करिया ! तब आपने कडा
कि) बहत सी जानोंको बचानेके स्यि एक का जान कामे
आवे ओर बहुतोकी तकलीफ दूर करनेके खयि एकको थोड़ी
तकलीफ उनी पृडे तो इससे बटकर अच्छा काम कया होस-
कता ह । इसलिये भँ द्वार पर खडा हो गया जिससे एक मेरी तक-
रीफं के बदले इतने सुसाफिरों को आराम होवे । सच है ।
द्या भाव जाने नदीं ज्ञान कथे वबेहह ।
तेनर नरक जार्यगे, खनि सुनि साखी शब्द ॥
( ९२४ ) सुलतानवोध
वार्ता १७
संदरुविन इबाहीम नामक ॒संतने कहा है कि एकवार वो
सखुरुतान इबादीमके साथ सफप्मे थे, संयोगसे वो बीमार षड-
गये । सुरुतानके पास जो कुछ बच्लादि था बेंचकर उनकी रक्षामिं
र्गा दिया अन्तम जब कोई सवारी भी नदीं रही तब सदलविन
इत्रारीमने कदा ““ मैं बहुत कमजोर हो गया हई अब आगे कैसे
जासक्ूगा ! '` आप उन्दँ अपनी गदेनप्र बैठाकर तीन मजिल-
तकं रेगये, जबतकं वो अच्छे भी दहो गये $
वार्ता १८
सुल्तान इबादीम अद्धमके साथ जो कोई रहनेकी इच्छा
भकंट करता था। आप उससे तीन बचनरेकेते थे तब
उसको अपने साथ रखते थे ।
१ पहला नियम उनका यह था कि, आप् किससे सेवा
नहीं कराकर सबकी सेवा आप ही करते थे ¦
२ दूसरा नियम यह था कि, भजन करनेके समय का
सबको सुचना देना अपने उपर रक्खा था ।
२ तीसरा नियम यह कि, मण्डली का कोई आदमी भी
सुकृति को कमाई से जो इछ कमा के राता था उसको मण्डली
म समान उपयोगमे लगाते थे।
इन नियमोमिं से एक भी नियम जिसको अस्वीकृत होता
था उसको अपनी मण्डली से बाहर करदेते ये ।
# नोट-धन्य ह इस पर उपकारको 1 आजकलके साधुजको ध्णन देकर इस बातको विचारना चाये
क्यो कि, वतमान मं साधुरजको यह नोति हो गई है कि, सफर तो सफर किसो विशेष स्थान पर भौ कोई
बोमार पड़जाय तो उपति एक गिलास पानो तक देना व॒रा समस्ते हं । मने बहुतसे एसे दृष्टान्त देखे हे ओर
स्वयं भो उनके संग रहकर भोग लिया है।
बोधसागर
आज कल्के महतोको इस्त बात पर ध्यान देना चाहिये कयं
कि, वतत॑मानके महत या म घखिया साथके साध्रुओकी
पूजा ओर भेँटको भी इड्प जाते ह ।
चार्ता १९
एकवार किसीने सुल्तान इवादहीम अद्म साहबसे पा किः
आपका वेशा ( धन्धा ) क्या है ! आपने उत्तर दिया "मैने
संसारको तो उसके चाहने वालों पर छोड दिया है ओर पर
लोकको पररोकके चाहने वाके ये ! किन्तु अपने छिये
मेने केवर साहबका भजन रक्खा है । सच ₹ै साहबने कहा है ।
साखी-माला जपं न कर जप, खसे कह न राम ¦
र.
मेरा हरी मोको जपे, मे षा विश्राम ॥
वार्ता २०
एक वार किसीने सुतान इत्राहीम अदमसे प्रजा किं आपने
देसी अधीनता ओर दासापन कसि सीखी । आपने उसे
उत्तर दिया फि “एक बार मने एक दासको मोर छया । जब
उसे साथ लेकर अपने स्थान पर आया तो उससे पृछा किं, तेरा
नाम क्या है ! उसने उत्तर दिया कि, जिस नामसे आप पुकार
वही मेरा नाम है । किर मेने परात्र खाता क्या है! उसने
कृहा जो आप खिले । फिर मेने पूछा कि, तू प्हनता क्या
है ! उसने जवाब दिया जो आप पहनावें । फिर मेने कंडा तू
करता क्या है! उसने कहा जो आप इक्म देवें । फिर
मैने कहा त् चाहता क्या है! उसने कहा जो दास इ
उसको अपनी इच्छा कहां है ! जिसको अपनी इच्छा दै
वह दास दही नहीं है। आप फरमाते है किं, उस दासकीं
बातोको सुनकर उसी दम उसको दासत्व से मोक्ष दे दिया
( १२६ ) सुलतानबोध
ओर उसीदस से अपना सब छ सादबको सप दिया । फिर
जेसा वह् चाहता है करता है । मे न तो आधीनता करता हन
दासापन जो कुछ है सादबका ह मेरा कछ नदीं ।
नोर-वतेमान कालके दास पदवी के अभिमानी कवीर पंथी
साचुओंको उपयक्त सुलतान के दासके वचनो षर ध्यान देना
चादिये. क्योकि, यद्यपि आजकलके कवीरपंथी साधुओकि
नामम दास शब्द् अवश्य जटा होता है ओर उनके मनम भी
दास शब्दका बडा भारी अभिमान रहता है यहां तक कि, यदि
किंसो कबीर पथीके नाममें दास शब्द् न जुट हो अथवा किसी
का नामही एेसा दो कि, उसके नामके साथ दास शब्दका जोड न
मिरता दो तो उस दास शब्दसे दीन सच्चे दासको भी वचनं
ओर ब्यंगोके मारे तंग करते रहते है ओर बट पूरकं उसके सुन्दर
प्रसिद्ध नामको बिगाडने का प्रयत्न करते है ओर आप दासं
कंहलखाकर भी स्वामीपर्नेके एेसे दम्भ ओर अहंकार में पडे रहते
हे कि, अपने गुर (जेसे माता पिता, दीक्षा युङ् आदि) सेभी
मान चाइते ओर उनसे अपना पग पुजवाते है । ओर सतश्के
बचनका ध्यान भी नदीं रखते क्यों कि, सतशुक्का वचन है ।
श॒रूको नीचा करि जानई, युङ् से चाहे मान ।
सो नर नरके जायगा, जन्म जन्म होय स्वान ॥
दासापन तो दय नदि, नाम धरि दाक्ष ।
पानीके पीये बिना, केसे मिटे पियास ॥
नाम धरावे दास जो, दासापन हो लीन ।
कहै कवीर लौलीन बिल, स्वान बुद्धि कहि दीन ॥
दासापन इदय बसे, साधन सों आधीन ।
बोधसागर ( १२७ )
कटै कबीरा दास सो, दास लक्ष रछोटीन ॥
स्वामी दोना सोदराः; दोहरा होनादाक्ष ।
गाड़र आनी उनको, बंधी चरे कपास ॥
निर्वन्धन बन्धा रहै, बन्धा निर्बध होय ।
कमे केरे कतां नदी, दास कहिं सोय ॥
वार्ता २९१
एकं ने आपसे एकदिन प्राथ॑ना की किं, आप अ्ुञ्चे उपदेश
दीजिये । आपने उसको कदा कि, एक साहिब को याद् रख
ओर संसार को भूल जा । एक दूसरेने भी आपसे उपदेश यामा
आपने उसे कदा कि, बन्धे को खोर ओर खुरेको बांध । उष
आदमीने कहा मैने इसका अथं नहीं समञ्चा । तब आपने उको
समञ्ञाया कि, थेटी का अह खोर अर्थात् जो छ तैरे पास
है उससे प्रमाथं कर ओर-जबान को बंध अर्थात् बहत
बोलना ओडारे । सत्य है सत्य शुर्ने कहा है ।
| जिहको दे बन्धने, बहु बोलना निवार )
सो परखीसे संग कर्, ुर्शुख शब्द् बिचार ॥
इसी प्रकार से खरुतान इरादीम अद्धम साहब के विषयमे
हजारों वाता प्रसिद्ध॒ । यहां मन्थ बट जानेके भयसे मेरे
पास जितनी वाताओंका संग्रह रै उन सर्बोको नहींछिखि
सकते । आपकी जीवनीके साथ अधिक लिखने का प्रयत्न
किया जायगा । |
इति सुलतान इत्राहीम अद्म साहबक। संक्षिप्त
जीवन चरित्र समाप्तः
इति बोधसागर पुर्बादधं समाप्तमिदं
न
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हि क्य
५ कष्णे ~
क च
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मुद्रक एवं प्रकाशवक्कः
ए्नेमटाज श्रीकृष्णा,
अध्यक्ष: श्रीवेकटेश्वर प्रेस,
रेमराज श्रीकृष्णदास मार्ग, मुंबई - ४०० ००४.
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श्री कबीर साहिब
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त्यय॒ङृत, आटि अदी, अजर, अचिन्त, पुस्ष,
एनीन्द्र, करुणामय, कवीर, सरति योग्, संतायन,
धनी धर्मदास, चशमणिनाम, दशन नाम
कुटपति नाम, प्रबोध शस्वाखापीर, केवक नाम
अमोल नाम, यरतिस्नेदी नाम, हकत नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम,
उग्रनाम, दया नाम को ड
व्यालीसको दया.
अथ श्रीबोधसागरे
द्रादशस्तरगः
` श्रीमन्थ निरञ्जनबोध
४
ज्ञानी वचन चौपाई
काल निरंजन निथैणराईं । (तीन खोक जिं पिरे दुहाई ॥
सात द्वीप पृथ्वी नौ खण्डा । सप्त पताल इक्कीस अ्माडा ॥
सहज सुत्नमे कीन्द ठिकाना । काल निरंजन सबहीने माना ॥
बह्मा विष्णु ओर शिव देवा । सब मिरु करं काल्की सेवा ॥
॥
(&) निरजनबोष
ब्विचगप्त धमे वरियारा । छिखनी छिखि सकल संसारा ॥
चौरासी राखञअर्चारों खानी । लिखनी छिखि सकर सब जानी॥
पर्चा पक्षी जरु थरु विस्तारा । बन पवेत जरु जीव विचारा ॥
कारु निरंजन सब प्र छया । पुषं नामको चिह्न मिटाया ॥
सत्तर युग एेसेहि चङि गयेऊ । पुषे शब्द एक चित्तम टये ॥
पुषं वचन
तबरीं पुषे ज्ञानी सों कह । धर्मराय अति प्रबल जो भय ॥
यह् तो अश भया बरियार । तीन रोकं जीव कीन्ह अहारा ॥
नादि मारके देव उडाईं । जग जीवनको रेह छुडाई ॥
ज्ञानी वचन-साखी
दोदा-करि प्रणाम ज्ञानी चरे, करन देके काज ।
जपे कार न मानि है, तुम्हीं पुषको खाज ॥
चोपाई
मान सरोवर ज्ञानी आई । काल कठिन तब छेकी धाई॥
कार् कठिन गज बहु वारा । मस्तिक साठ सूठ बारेयारा ॥
सत्तर योजन गज दता । प्रलय जो कीन्हो काट अनता ॥
कान एक ओखे चोरासी । ओ शख आढ हाथ लिये फांसी ॥
छत्तिस नाम ताहि पुन जानी । बोले बचन बहुत इतरानी ॥
तीन दत पाको फेरी । यहि विधि तीन खोक किये जेरी॥
एकं देत पाता चलावा । तां जाय वासकको खावा ॥
दूजो दन्त पृथ्वी चलि आई । देव ऋषि जग दैत्यन खाई ॥
तीजो दत गयो आकाशा । चन्द्र सूय खाये केखासा ॥
ब्रह्मा वैद षटृत तदां आये । शंकर ध्यान करत तब खाये ॥
लीन्हे खाय विष्णु को धाई । सकल खाय पुनि धूरि उडाईं ॥
गज दन्त अग्नि सम भाई । तीन लोकं खाई दुनियाईः ॥
बोधसागर (७)
ज्ञानी वचनं
ज्ञानी देखे दृष्ठि पसारा। याते नादिं बचे संसारा ॥
ज्ञानी बोरे शब्द बरियाई । त्रूहा कार खाइ दुनियां ॥
निरञ्जन वचन-साखी
दोहा
जाह ज्ञानी घर आपने, मानों वचन इमार ।
तीन खोक पुषहि दिये; स्वगं पताङ संसार ।
ज्ञानी वचन-साखी
चौपाई
बोरे ज्ञानी शब्दं अपारा । मोक दीन्हा पुष टकसारां #
साखी
नै जो पठयो पुषको, करन इसके काज ।.
कालि मार सिगार दो, दीन्ह सकर मोहे साज ॥ ``
चोपाई
मारा काल शब्दका चारा । ट्टे दन्त न करे पसारा॥
निरञ्जन वचन
तवै निरञ्जन बोरे बानी । केसे रईस डाईं ज्ञानी ॥
जगके माह कीन्ह हम बासा । पञ्च पक्षी जर थल्मे आसा ॥
तीन सौ साठ पेठ हम खाई । तामे सकं जीव उरञ्चाई ॥
जे दिनते हमने पेठ लगाई । दिन दिन उरघ्चे सुञ्चत नाहीं ॥
तापर काम कोध हम डारी । तरष्णा सकल जीवकं मारी ॥
इनमे जीव बन्धे सब आरी । केसे इदंसदि खेव उबारी ॥
तापर कीन्हो एक हम काजा । पाप पुण्य थापे हम राजा ॥
शुभ अङ अञ्चभ दोडदरु साजा । एेसे अर्ख निरजन राजा ॥
(< ) निरजनबोध
ज्ञानी वचन
सत्त॒ शब्द हम बोरे बानी । वचनं हमारे टे प्रानी ॥
गहै शब्द् जब मन चित खाई । माजे कार जीव रेव छुडाई ॥
काठ वचन
तबे कारु अस बोरे बानी । सकल जीव वस इदमरे ज्ञानी ॥
तीन सौ साठ पेठ उघ्यरा। कैसे रसन रेव उवेरा॥
गङ्ञा जघुना सरस्वती जानी । पुष्कर गोदावरी कुछका मानी ॥
बद्री केदार दम का ठाॐं। जहां तहां हम तीर्थं ख्गाॐ ॥
मथुरा नगर उत्तम जो जानी । जगन्नाथ जस बेटे ध्यानी ॥
सेतुबन्ध पुन कीन्ह ठिकाना । पुष्कर क्षे आय जम थाना ॥
टदिगलाज जिव जहे सोई। कालका नगरकोट मह होई ॥
गट गिरना दत्तको थाना । ताहि घेर जम बैठ निदाना ॥
कमङू माह कमिक्षा देवो । नीमखार भिस्रख जम खेवी ॥
नगर अजध्या राम राजा । खेर दइत बांध सब साजा ॥
याही पेठ जग जीव अुखाईं । किटि विधि देस देव सक्ताईं ॥
ज्ञानी वचन ्
तब ॒ज्ञानी.अस बोरे वानी । जमते जीव डाव आनी ॥
पुषे नामको कहं समभाई । जमराजा तव छोड पराई ॥
चाट बाट बेटे उरक्चेरा। हम शब्द्तं दोय निवेरा॥
सुना रे कारु दुष्ट अनयाई । शब्द् संग हंसा घर जाई ॥
निरञ्जन वचन
का ज्ञानी ददो अधिकारा । दमरी नर्दि दृढे जम जारा ॥
पाच पचीस तीन गुण आदी । यद रे सकल शरीर बनाई ॥
तामे पाप पुण्यका वासा। मन बैठे छे हमरी फांसा॥
बोधसागर ( ९)
जहां तहां सब जग भमव । ज्ञान संच कड्ठु रहन न पव ॥
एक शब्दकी केतक आसा । हमरे दै चौरासी फ़ांसा॥
ज्ञानी वचन
बोरे ज्ञानी शब्द् विचारी । छट चौरासी की धारी ॥
छट पांच पच्चीस शुन तीनो । एेसो शब्द् पुषं शरहि दीन्हो ॥
निरञ्जन वचन
हे ज्ञानी का करों बड़ाई । हमते नाह ट जिव जाई ॥
इतने चग भये का तुम देखा । ज्ञानी ईस न एके पेखा ॥
का त॒म करो का शब्द तुम्हारा । तीन लोक प्रख्य तर डारा ॥
साधु सन्त इम देखी रीती । प्रख्य प्रे सकर सब जीता ॥
कृमं रेख बांधे सब साधा । सुर नर शुनि खकलो जग बांधा ॥
ज्ञानी वचनं
ज्ञानी कदे कार अन्यायी । शब्द बिना त्रु खाय चबायी ॥
अब तुम कस खेहौ बटपारा । पुषं शब्द् दीन्हीं टकसारा ॥
जनके जीवत च उबारा । कमं रेख तोरो घर न्यारा ॥
पांच पचीस ओर गुन तीनों । इतने मोर इम खड छीनो ॥
पांच जनेकी मेटौ आसा । पुषं शब्द भाषौ विश्वासा ॥
श्रुभ अर अश्युम काकरे निबेरा । मेदी कार सकल उरञ्ारा ॥
निरञ्जन वचन
तिन कार तब बोरे बानी । उरञ्ज जीव सकल जमखानी ॥
कै केसे तुम शब्द पारो । कौनसी विधि तुम जीव उबारो ॥
एसे जीव सकल ह करनी । केसे पहुचे पुषके सरनी ॥.
जगम जीव कोष विकरारा । केसे पहुचे पुषके द्वारा ॥
क्रोधी जीव पेत अभिमानी । धरी है जन्म नकेको खानी ॥
(१०) निरंजननोघ
रोभी रोय सप विकरारा । केसे पवे मोक्ष को द्वारा ॥
रोभ जन्म सुकर अवतारा । केसे पावे भोक्ष कोद्राय ॥
विषईं विषे सब विषकी खानी । ए संब किये जम सदहदानी ॥
ज्ञानी करे करदह वरियारा । दमते कीन सकल निवारा ॥
जोई ज्ञान रोय हमारा । काम करोघतें होय नियारा ॥
तृष्णा खोभर्िं देय बहाई । विषै जन्म सब दूर पराई ॥
उनको ध्यान शब्द् अधिकारी । काम कोध सब होय नियारी ॥
नाम ध्यान हसा घर जाई । कहा दूत जस करो बड़ाई ॥
उनपे जम की परेन खादी । तासे दसा रोकरि जाई ॥
निरंजन वचनं
कं निरंजन सन दो ज्ञानी । कथि दों ज्ञान तुम्हारी बानी ॥
ज॒ग्त महातम सबै बताऊ । नाम तुम्हारे पन्थ चटा ॥
तुम तो एक पन्थ प्रकासा । हम दशपन्थं कारु जुगफांसा ॥
जगके जीव सवे भरमा ज्ञानवेत को कर्मं रटाञॐ ॥
मार जीवको करे अहारा। कामक्रोधतें दोय नियारा ॥
करे कमं विषे बस भाई । चर वर्णंले एक् मिराई ॥
कुल्को त्यागदोय सों न्यारा । चार वर्णको एक विचारा ॥
ज्ञान हमारा न्दे तन ईं । ते सब जीवं काल ठे खाई ॥
बेखबगन की करिह हांसी-।ते- जीवन परं हमारी फरसी॥ `
- फिर फिर अपि जमकी खानी । वे सब सरन हमारी ज्ञानी ॥
केसे पर्हुचे पुषके सरनी । ज्ञान संधि दमहू दे बरनी ॥
ज्ञानी वचन
कहे ज्ञानी सुन कैर् विचारा । ₹ंस हमार होय नह न्यारा ॥.
निसवासर रहै रौ लीना । शब्द् विचार होय नह भना ॥
देस हमार शड्ड अधिकारा । पुषे प्रताप को करे सम्हारा ॥
बौधसागरं ( ११
नाम जपे अर् सुतं लगाई । मिरे कमं लागे नहिं घाई ॥
शब्द मान है शब्द सषूपा । निश्च हसा दोय अनूपा ॥
उनको नाम भक्तिकी आसा 1 ताते निर्व चछ विश्वासा ॥
निर्न वचन
ज्ञानी मोर अपरबल ज्ञाना । वेद किताब भरम हम साना ॥
इनको मने सब संसारा) कछिमे गंगा सक्ती द्वारा ॥
देहीं दान जो उतरे पारा एेसे मृत क विचारा ॥
यहीं विधि जग जीव भुलाई । जग मरन सब बंध रवैधाई ॥
सतक पातक वेद विचारा । परछ वेदमे करहि सम्भारा ॥
एकादशी सक्ति की भाई। जोग जग्य करवे अधिकां ॥
ज्ञानी वचन
सुनहु काल ज्ञानका सन्धी । छोरों जीव सकल फंदी ॥
जबर निज बीरा ईसा पावै जोग बतं तप सबै नस ॥
वेद किताबकी छोडे आसा । हंसा करे शब्द विश्वासा ॥
ताके निकट काट नहि आवे । निज बीराजा सुतं छ्गावे ॥
बीरा पाय भये वटपारा । शब्द सन्ध प्रखे बकसारा ॥
जोग बरत तपँ है छारा। अद्भत नाम सदा रखवारा ॥
जेते हस सरन हम आई । भक्ति करे तो मिटे धुआ ॥
निरञ्जन वचन
अब तुम ज्ञानी भली सुनाई । मेरो उरञ्जौ सुरञ्चो नहिं जाई ॥
जो जीवनको भक्ति हदे हो । शब्द मेद तुम ताहि र्खे हौ॥
पातै शब्द दोय अभिमानी । केसे लोके जेरै सो प्रानी ॥
शब्द पाय नहि करे विचारा । केसे पहुचे लोकं तुम्हारा ॥
शब्द् पाय कर कृमं जगा । केसे ज्ञाना निज घर पावे॥
शब्द पाय कर चले न राहा । ज्ञानी काँ सुक्ति की थाहा ॥
( १२) निरञ्जनबोध
ज्ञानी वचन
तब ज्ञानी बोरे सुख बानी 1 सुनिये कार निरञ्जन आनी ॥
देखा भक्ति जो करे हइमारो । राखो सदा शब्द निज धारो ॥
काम कोष अदड्गर बिकारा । इनको तजे है हंस हमारा ॥
शब्द हमार छडि फन्दा । पहुचे रोकं मिटे जमदन्दा ॥
बीरा नाम पुषं को सारा । निम हंस होय उजियारा ॥
आवागवन बहुरि नि होई । कार फांस तज न्यारा होई ॥
पटच देख पुषं द्वारा अरे कार तोको तज डरा ॥
निरञ्जन वचन
निरंजन बोरे ग्भसों भाई । मोर फेद टारे को जाई ॥
कर्म जंजीर बधा संसारा । जो पुन हम जगजाल पसारा ॥
तीन लोग जो इन ओौतारा । आवागमन फिर फिर पारा ॥
उपजे विनसे गहे भुलाई । देव ऋषी शुनि सकट जो खाई ॥
सिद्ध साधु अर बडेजोज्ञानी । बांधर्बाध कर तोपि समानी ॥
कमं रेख ते कोह न न्यारा । तीन देव सुर असुर षसारा ॥
ज्ञानी वचन
केदे ज्ञानी सुन कारु रखुबारा । करिदौं टूक जसीर तुम्हारा ॥
इसन दौ तुतं उवारी । पुष शब्द दीन्दों मोहे भारी ॥
ताहि इक्मसों मारों तोदी। सब संसार त् खाया दरोदी ॥
खण्ड खण्ड कर ॒तोरों बाना । मारो कार करो पिसमाना ॥
दसन की म करो मुक्ताई। बहुरन जन्महि भौजल आई ॥
पुष रस नोतमदै अशा। ते जग प्रकट काव वशा ॥
तिनके सरन दस जो आईं । कोट कमं सब देँ बहाई ॥
हस संधि रुखि दवे न्यारा । चलते पावे नि बटपारा ॥
बोधसागर ( १३ )
निरञन वचन
मानौ ज्ञानी वचन तुम्हारा । हस के जावं पुषं दरबार ॥
चौदह काल जगतत भ्हारे। घाट बाट वैदे रखवारे ॥
सुर नर शुनि अवँ बहि घाटा । दशहि ओर जौ जवे बाटा ॥
दुगं जगाती बड़ा सिरदारा । विना जगात को$ उतरन पारा
भोजन नदी घाट नदिं थाहू । उतरन काज कहै सब काहू ॥
ज्ञानी वचन
कै ज्ञानी सुन काल सुभा । इमरे ईस की बात सुना ॥
बखतर ज्ञान शब्द हथियार । भार इत को चरे अगारा ॥
कोट सिद्ध तेज हि ईसा । जब परवाना अवै बसा ॥
बेस छाप जब पावहि पराणी । ताहिन रोकै इ्गां रानी ॥
का कार तुम करो विचारा । ईस हमार उतरि है वारा ॥
खार शब्द है दंस बहोरी। ता चदि लापा सुखतोरी ॥
संधि न पावे ते बटपारा। ईसा पहुचे छोकं इवारा ॥
निरंजन वचन
तुमको काल निरंजन राई । हे ज्ञानी का करो बड़ाई ॥
वाव पताल शीश अकाशा । सोरह योजन अभ्चिप्रकाशा ॥
गजँ काल. महा विकरारा । सरह खाख लो परव पसारा ॥
लपक जीम जिमि ट्टे तारा । जस बिजली चमके अंधियारा॥
दृ बद़ाय दंत अति बाढ़ । मध्य धेर ज्ञानी कह गढ़ा ॥
हमरे पौष हम बरियारा । तुम ज्ञानी का करो हमारा ॥
| ज्ञानी वचन
ज्ञानी पुषे शब्द छियो जोरा । पकड़ सूँ दांत गडि मोरा ॥
भारेड शब्द पांव कर पेटी । तोर सट सखुद्र॒ गहि मेटी ॥
पुर्षहूप तबही एन धारा । जोन सरूष कारु ओतारा ॥
( १९ `) निरञनबोध
निरञ्जन वचनं
भया अघीन दोडकर जोरी । तुम सतपुर्ूष सरन दम तोरी॥ `
तुमसो बार बुद्धि हम धाय । अब तुम करहु मोहि उद्धारा ॥
बारुक कोटि भांति गरियावत । मात पिता मन एक नहि आवत ॥
तुमरीं पुषं दीन मोहे राजू । ओ पुनदीन्दसकरुमो्िसाज् ॥
तिहि पर हमने गाड बसावा । लीन्हे सन्न टठिकान बनावा ॥
तहां इम साहब जाय रहाई । बिन आज्ञा कछु नारि कराई ॥
अबलग साहब यै नदि चीन्हा । सत्त पुषं तुम दर्शन दीन्हा ॥
दोई कर जोरि चरणवितखावा । घन्य भाग इम दशन पावा ॥
अब मोदि साह भेद बताई । पाड चिह्न ॒ ईस दह चाई ॥
ज्ञानी वचन
सुन रे काल निरंजन राई । पुषं नामः है वीरा भाई ॥
जो देखा चित भक्ति समो । ताको खूट गहे मत कोई ॥
साखी
जो निज बीरा पाय है, आवे रोगं हमार ।
ताको खुण्ट गहो मत, सुनो काल बटषार ॥
निरञ्जन वचन
चौपाई
सुनो गुसाई विनती मोरी । बीरा पाय करे कषु ओरी ॥
ज्ञान कथे अन्त चित वासा । आवागमनकी राखों आसा ॥
ज्ञानो वचन ।
सुनी निरंजन वचन हमारा १ सत्त वह जीव तुम्हारा ॥
सा
जा घरते जिव आहया, ताह सुध गह खोय ।
गोदराय को मे जीवसो, जो शब्द् पारखी दोय ॥
बोधसागर (१५ )
निरंजन वचनं
चोपाई
कहै बाल तुम भटी विचारी । संप देख इम कध उतारी ॥
उनके निकट दूत नहिं आई । र ईस देहं पहंचाई ॥
सार
साहिब सबको एक है, साहिबका कोड एक ॥
लाखन मध्ये को गिनः कोटिन सध्ये देख ॥
ज्ञानी वचन साखी
जाइ कार घर आपने, शब्द् कहौं चितलाइ ॥
जो फिर सीस उगय ही, बधि रसातरू जाड ॥
चौपाई
जो पुनं गद्यो देसकी बांदी । बांध रसातरू षठा तोही ॥
निरंजन वचनं
जब् त॒म डप दिखावा मोहा । तब इम पुरूष चीन्हा तोडी ॥
प्रथय ज्ञानी इम निं जाना । बन्धु जान कान्हा अभिमाना ॥
ज्ञानी वचन
धर्मदास तब सों हम आये । गद् रेदास्र मो धारा वाये ॥
प्रथमरि सतयुग रागा भाई । वरप इर चन्द्र भये तहां राई ॥
तहां जाय शब्द गुदराई । जो चीन्हा सो लोक पाई ॥
सतयुग सत्त नाम मोरो नाऊॐ । देदी धर हम मनुष्य कहां ॥
धमदाससों वचन
धर्मदास सुनि रेके पाईं । तुव परताप सकर सुधि आई ॥
काल चरि सकल हम जाना । पुषं लीला सबही पहंचाना ॥
जब आपुन आये भोमादीं । ईस काज जो भयो अब भाई॥
इति भी कबीर साहिब ओर निरंजनकी गोष्ठी समाप्त
शत्यपुरुधाय नमः
अथ श्रीबोधस्ागरे
अयोदशस्तरंगः
ग्रन्थ ज्ञानबोध्
र
कृबीर वचन
साखी-सखत शङ् जीव प्रसोधके, नाम छखावे सार ।
सार शब्द् जो कोई गहे, सोह उतरि है षार ॥
चोपाई
भौसागर रै अगम अपारा । तामे बरूड गया संसारा ॥
पार रुगन को सब कोह धावे । बिना नाम कोह षार न षावे ॥
यह जग जीव थाह नहि पावै । बिना सतथुङ् सब गोता खावै ॥
जग जीवों से कटो गुदराई । सतशुङ् केवट षार लगाई ॥
यह् जग बड गयो मँञ्चधारा । सतगुङ् भक्त भये भवषारा ॥
सत्तनाम जो करे पुकारा । जब भव जल उतरेगे पारा ॥
सत्तपुरूष है अगम अपारा । ताको सब मँ कों विचारा ॥
आदि अनाम ब्रह्म है न्यारा । निराधार महं कियो पसारा ॥
ताहि पुरूष ॒सुमरो रे भाई । तन छोड जिवलोक सिधाईं ॥
कदे कबीर नापर गह सोई । भरम छोड़ भव पारं होई ॥
साखी
आदिब्रह्म दिय परिय, छोड़ो मरन अजान ।
कहं कबीर जग जीवसे, गदिले षद निरवान ॥ `
बोधसागर ( १७)
सोरग
भवसागरको षार, विना नाम उतरे नहीं,
गदिरेव नाम अवार, कहँ कबीर सब जीवसे ॥
चौपाई
कृहे कबीर सुनो ध्मदासा । आदि नामभं कों खब पासा ॥
यहि जगे मरे कहा चिताई । अज्ञानी नहिं भाने भाई॥
जोन जीवको ज्ञान न होई । कहे वचन माने नहिं सोई ॥
ओर कहे चला मति दीना । बह्मा विष्णु शिवराम न चीन्हा॥
भक्त न देखे माई । ब्रह्मा विष्णु शिवहि विसराई ॥
जिन्दा दर का मरम न षाह चख्हा क्ति न जाने भाई ॥
ब्रह्मा विष्णु शिव जग उपजाई । इन तीनोकी यहं इनियाई ॥
रावन छली रामकी नारी । रामचन्द्र कीन्हा रण भारी ॥
इर सीताको रावण खाये । राम लंकपति चिह्न भिटाये ॥
कृहांखं वरणो वार न पारा ' तीन देवका सकर वक्षारां ॥
साखी-रामचन्द्र वणेन करं, अयलोकी हैँ नाथ ।
जग जिव कं समञ्चायके. सुनिये जलह बात ॥
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देसे सब जग कहं गहराई । धम॑दास मे तुम्हें सुनाई ॥
आदि नाम मे भाख सनां । यह जग जीव न चेता भाई ॥
आदि नाम सबको द्रसाया । जग जीवों को ज्ञान सनाया ॥
यह जलहाको मेद् न पाये । अज्ञानी क्यों रार मचाये ॥
आदि नामकी सुपि बिसराये। मायामे सब जग लपटाये ॥
सच्चा साहिबको नहि पाये । रामकृष्ण जग ध्यान लगाये ॥
भल गये संसरा। केसे उतरे भव॒ जट पारा ॥
कहं कबीर गहो निज नामा । जब पहुंचे अमरपुर गामा ॥
. नं.७ कबीर सागर - २
( १८ ) ज्ञानबोध
साहब पे जग धरे न ध्याना । तिह पुर कार ठगो म जाना ॥
सबं कोह नाम गहो रे भाई । छोड़ो दुरंगति ओर चतुराई ॥
मरम जारु मनरी ना लाओ । सत्तपुरूषमे ध्यान लगावो ॥
दुनियामे भरमो समति दीना । जम घरजार्यैगे नाम विरीना ॥
य्री सता इम जगहि ्खाये । धर्मदास बिररे जिव पाये ॥
साखी-कं कबीर जनगायके, सुनो जगत यह ज्ञान ॥
नीचे जयरोकी रहत, ऊपर सतशुङ् नाम ॥
कहै कबीर सुनो धमंदासा । जग जीवोंकी कथा प्रकाशा ॥
आदि नाम हम भाख सुनाया । ूरख जीव मरम नहिं षाया ॥
राम वरन जग कीन्हा भाई । तुम सुनियो भ देः बताई ॥
जगत कदे जहा अज्ञानी । इरिदरका क्क भेद न जानी ॥
नीच जात ओर भक्त कहाई । हरि के द्रस कबहु ना पाई ॥
वेद पुराण गीता हम जाना । हमसे नाहक करे बखाना ।
¦ इमरो वेद के निज बाता । रामच॑द्र समरथ ३ दाता ॥
चार वेद ब्रह्मान ठाना । चखा भू गया अभिमाना ॥
ब्रह्मा विष्णु शिवसे ओर नदेवा । ऋषि पुनि करं सबे भिर सेवा ॥
के अवतार जीवं जग आये । शालग्रामे सुतं कगाये ॥
ब्रह्मा विष्णु शिवहि जग धाये । जरा उलटा ज्ञान चलाये ॥
वेद शाञ्च में दमने जाना । बह्मा विष्णु अहेश्वर ना ॥
सार वेदम देखा भाई । रजगुण तमशुण सतगुण साई ॥
गीता भागवत पुस्तक नाना । निशिदिन जाप करे भगवाना ॥
आदि भवानी तीनों देवा । इनकी सब मिरु साधे सेवा ॥
रसा ज्ञान दमारा दोई। जलदा कहा न मानो कोई ॥
साखी-तीन देव॒ निजके गहे राखे देवी आस ।
सोह जीव सुख भोग ह, हसा करे विलाप ॥
बोधसागरं ( १९)
चौपाई
एसे जग जिव ज्ञान चलाई ! धर्मदास तोहि कथा सुनाई ॥
यदी जगत की उल्टी रीती । नाम न जाने कालसं रीती ॥
वेद रीति सनियो धर्मदासा } मँ सब भाख कों तुभ पासा ॥
वेद पुरान में नामहि भाषा । वेद् छ्लिा जानों तुम साखा ॥
छ शान मिलि ञ्चञगरा कान्हा । बह्मह्प काहू नहिं चीन्हा ॥
चीन्दो है जो दसर होहं। भमं विवाद करे सब कोई ॥
भूल नाम ना काहू पाये साखा पत्र गृह जग छ्पटाये ॥
डार पत्रको जो कोह धरदी । निश्चय जायं नरकन परह ॥
भूरे लोग कहं हम पावा । मूर वस्तु विन जन्म गमावा॥
जीव अभागि मूल नहिं जने । डार पच में चुर्ष खाने ॥
पदे पुराण ओ वेदं बखाने । सत्त वुक्ूष जगयेद न जाने ॥
वेद् षदे ओ भेद न जने नाहक यह जग श्चगड़ा उने ॥
वेद् पुराण यह करे पुकारा । सबहीसे इक पुरूष नियारा ॥
ताहि न यह जग जाने भाई । तीन देवम ध्यान लगाई ॥
तीन देव की करहीं भक्तौ । जिनकी कभी न होवे शक्ती ॥
तीन देवका अजब खयाल । देवी देव प्रपची काला ॥
इनमें मत॒ भटको अज्ञानी । काल ज्चपट षकड़गा प्राणी ॥ `
तीन देव पुरूष गम्य ना पाईं । जगके जीव सब पिरे थुखाई ॥
जो कोइ सत्त पुरूष गये भाई । जा कं देख डरे जमराई ॥
एसा सबसे कियो भाई । जग जीवोका भरम नशाई ॥
साखी-ङूप देख भरमो नही, कँ कबीर विचार ।
अलख पुर्ष दये कखे, सोई उतरि है पार ॥
चौपाई-जो जो वस्तु दष्टिमें आई । सोई सबहि काल धर खाई ॥
भरति पूज युक्त न होई । नादकं जन्म अकारथ खोई ॥
(२० ) ज्ञानबोष
यड् जग करे मूतिकी पूजा! करे ग्वं हमसे नर्द दूजा ॥
पण्डित यक्त भये जग माहीं । पाथर पूजत जन्म गमादी ॥
शेषे भक्त भये अधिकाई । पीतरकी निज सूति बनाहं ॥
इनसे भक्त ओर नं कोई । जिन अषनी दुरमति नट खोई॥
आदि ब्ह्यको भेद न पाये । पड़ पढ़ पंडित जग भरमाये ॥
अन्तकार जम घेरे आई । तब विद्या कक्ककाम न आईं ॥
पाथर पजं पदे पुराना, पद् गुण अथं विवेकहि ज्ञाना ॥
ज्ञान कथे है वार न पारा । सतशुङ्् भक्तं न जान रूबारा ॥
शेसा मत ब्राह्मणने धारा । जले जात रै यमके दारा ॥
आदि नाम भूखो मत माई । असुर अंश दुरमतहि ख्खाई ॥
धर्मदास देखो जग रीती । सांचा छोड़ ्जूटसों प्रीती \
खाखी
सार शब्द ना जान दै, कह कबीर बखान ।
यह जग भले बावरे, गहे न सतशुर सान ॥
ब्राह्मण भटे बावरे, सरशुण मतके जोर ।
लख चौरासी भोगिहै, पारब्रह्मके चोर ॥ `
सरशण माह सार नि कोई । निरयण नाम नियारा होई ॥
निर्ग॑णसे सरण रै भाई । सरथ॒णमे यह जग रूपटाई ॥ `
रजगुण सतगुणतमगुण किये । सब मिरजाय ज्ञान जो रहिये ॥
तीनों शण से सरण दोहं । चौथा पदं निरगुण है सोई ॥
नि्ंण नाथ निरंजन राई । निज उत्पत्ति बनाके खाई ॥
ताके परे इकं नाम नियारा। सो सादब दहै मूरु अपारा ॥
नोधसागर (२१ )
उन्हं जगत नहि जाने भाई । कार अंश राखे भग्भाई॥
ब्रह्मा षिष्णु शिवहि जग ञ्जके । सत्य कबीर नाम रस ओके ॥
नाम अमल रस चावे कोई! ताको जरा मरन ना होई ॥
सतु भक्ति करे जो कोई) जाति वर्णं इरमति सब खोई ॥
आदि नामको नित ुणगवे । भवसागर मे बहुरि न अवि ॥
, आदि नामको गहे जो आसा । सतश् काटे कार किं फांसा ॥
आदिनाम रै गुप्त अमोखा। धर्मदास भै तमसे खोखा ॥
गुप्त मता पवे जो कोई) गेरी तज वैगगी होई ॥
आदि नाम ग संसारया। जो प्व जग सेदो न्यारा ॥
धमंदास यह जग बौराना। कोड न जाने पद निरवाना ॥
यहि कारन यै कथा षसारा । जगसे कियो नाम चियास ॥
यदी ज्ञान जग जीव सुनाओ । सब जीवोका भरम नशाओ ॥
अब भै तुमसे कों चिताई । अयदेवनकी उतपति भई ॥
साहब कीन्ह इक अजब तमाशा । सो सब कहं चै तुम्हरे पासा ॥
क संक्षेप कों शुदराई । सब संशय तुम्हरे मिट जाई ॥
भरम गये जग वेद पुराना । आदि नामका भेद न जाना ॥
राम राम सब जगत बखाने । आदि नाम कोई बिरला जाने ॥
राजाराम सबको यहं जग जने । तुम से ताको भेद बखाने ॥
ज्ञानी सुन सो दिरदे लगाई । मूरख सने सो गभ्य न पाह ॥
भा अष्टगी पिता निरंजन । वे जम दारण वंशन अंजन ॥ , `
पिरे कन्द निरंजन राई । पीके माया उपजाई ॥ .
मायाहृप देख अति शोभा । देव निरंजन तन मन लोभा ॥ ।
कामदेव धमंराय सताये । देवी. को तुरतइ धर खाये ॥
पट से देवी करी पुकारी । साहब मोहे करो उबारी ॥
टेर सनो सतर तदं आये । अष्टगी को बद इछड़ाये ॥
(~ ज्ञानबोध
घर्पराय को दिकमत दीन्हा 1 नख गेखासे मगकर न्दा ॥
घर्मराय करे भोग विलासा । मायाको सु रही तब आसा ॥
वराय अर् माया साजे । तीन लोकं तासे उपराजे ॥
तीन पुज अष्गी जाये! बह्मा विष्णु शिवनाम धराये ॥
तीन देव विस्तार चलाये । इनमे यह जग धोखा खाये ॥
पुरूष गम्य कैसे के पवे। कारु निरजन जगं भरम वि॥
तीन रोक अपने सुत दीन्हा । सुत्र निरंजन बासा लीन्हा ॥
अलख निरंजन सत्र ठिकाना । ब्रह्मा विष्णु शिव भेद न जाना ॥
तीन दव सो उनको धवि । निरञ्जनको वे पार न पावे ॥
अलख निरञ्जन बड़ वरपारा । तीन लोक जिव कीन्ह अहारा ॥
ब्रह्मा विष्ण शिब नरी बचाये । सकर खाय पुन धूर उड़ाये ॥
तिनके सुत है तीन देवा । आधर जीवं करत है सेवा ॥
रामह शूप धरी है माया जिन लकाको राय सताया ॥
दश ओतार माया ने धरिया । काल अपबेरु सबको छलिया ॥
काल पुरुष काद नटि चीन्दां । कारु पाय सबरी गह रीन्दां ॥
एसा राम सकल जग जाने । आदि ब्रह्मको नां पदिचाने ॥
तीनों देव असुर ओतारा । ताको भजे सकर संसारा ॥
तीनों गणका यह विस्ताया । धर्मदास भै कहीं पुकारा॥
् साखी
गुण तीनो की भक्तिम भूक परो सं्षार ।
कृ कवीर निज नाम विन, कैसे उतरे षार ॥
सोरढा
जगजिव है अज्ञान, आदि नाम नदिं जानी ।
मायामे रूषटान, जीव॒ जमपुरी जावहीं ॥
वोधसागर ( २३)
चौपाई
एसा राम क्वीर न जाना। धर्मदास शुनियो ३ काना ॥
सन्न के परे पुङ्ूषं को धामा । तहँ साहब है आदि अनामा ॥
ताहि धाम सब जीवका दाता । यैं सबसों कइता निज बाता ॥
कहत अगोचर सव के पारा । आदि अनादि पुक्ष है न्यारा ॥
आदि ब्रह्म इक पुरूष अकेला । ताके संग नहीं को चेला ॥
ताहि न जाने यह संसारा । बिना नाम है जमके चारा ॥
नाम बिना यह जग अश्ञ्ाना । नाम गहे सौ संतद्जाना ॥
सञ्चा साइबर भज रे भाई । यहि जगसे तुम कडो चिताई ॥
धोखा मेँ जिव जन्म गवाह । जुटी ङ्गनं लगाये आई ॥
सा जग से कहु समञ्चाहं । धमदाम जिव बोधो जाई ॥
सनन जिव आवे त॒म पासा । जिन्हें देवं सतलोकडहि वासा ॥
ज्ञानहीने सुन षट करमा । धम॑ंदास उनके ये धरा ॥
भरग गये वे भवं जकमाहीं । आदि नाम को जानत नाहीं ॥
पीतर पाथर पूजन छगे। आदि नाम घटही ते त्यागे ॥
तीरथ बत करे संसारे। नेम धरम असनान सक्छारे ॥
भेष वनाय विभ्रूति रमाये। धर घर भिक्षा मागन आयि ॥
जग जीवनको दीक्षा देही । सत्तनाम विन पुरषहि दोही ॥
ज्ञान हीन जौ गहू काते । आपन भ्ूला जगत अुखवै ॥
काम कोध मद् छाम विकाग । इन्द न त्यागे साध बिचार ॥
एषा ज्ञान चलाया भाई । सत साहबकी सुध बिसरा ॥
यह दुनियां दो रंगी भाई । जिव गह शरण असुरी जाई ॥
तीरथ त्रत तष॒यपुन्य कमा । यह जम जाल तहँ ठहराई ॥
यरै जगत एेसा अश्ञ्ञाई । नाम विना बडी दुनिया ॥
जो कोई भक्त इमारा होई । जात वरण को त्यागे सोहं ॥
( २९ ) ज्ञानबोघ
तीरथ बत सब देय बहाई । सतश् चरणसे ध्यान लगाई ॥
काम कोष सद् लोभनतेदी ' सोई पवे परम सनेदी॥
मनरीं बांघ स्थिर जो करी । सो इसा: भवसागर तरदी ॥
भक्त रोय सतशुक्कां पूरा । रहै पुरूष के नित्त दजरा ॥
यरी जो रीति साधकी भाई ' सार युक्ति मे कह गहराई ॥
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(
साखी-सत्तनाम निज सूक है, यह कबीर समञ्ाय ॥
दोहं दीन खोजत पिरि, परम पुरूष नहिं पाय ॥
सोर
सत्तनाम शण गावं, गहै नाम सेवा करे ।
सहज परम पद् पाव, सतशुङ् पद् विश्वास दृट ॥
चौपाई
पाथर पूज दिद खाना । सुरदा पूज भले तुरकाना ॥
कँ कीर ये दोह थुलाना । आदि पुङ्ष कोई नहि जाना ॥
दिन्द् तुक दोहं उपदेशा । नाम गहे भिरि कार कंटेशा ॥
भवसागर कोह पार न पावे! या जगम सब मोता खावे॥
भव द्रयावं है अगम अपारा । पुरूष भक्त उतरेगे पारा ॥
धर्मदास जग कहो समञ्चाई । आदि नाम बिन शुक्ति न पाईं ॥
जो जन भनि है निर्भयनामा । सो हंसा षहचे निज धामा ॥
अजर नाम छे लोकि जाई । दु कार तब रहे अुरञ्चाई ॥
कर्म॑त्याग सब भजो यकनामा । कभी न हो भवसागर धामा ॥
ब्रह्माने जो राह चलाई । सो सब कदो मै तुमसे गाई ॥
चारं वरण अर् वेद् बखाना । जगके जीव सबही उरञ्ञाना ॥
जात पांत ब्रह्मा कर दीन्हा । सवम ऊच ब्राह्मणको दीन्हा ॥
ब्ह्रा अपने मते चलाये । तीनों यण जग नाम र्खाये ॥
आदि नामकी घुध नि पाये । चारों जग धोखाहि माये ॥
ोधसागर ( २९ )
यह ब्रह्मा की है कर्तूती। जगहि खाये ब्खुटी रीती ॥
ब्रह्माने यह जग भरमाया । पत्त पुहषका भेद न पाया ॥
तिहर कालके जार पप्तारा । तामे अट्के सब संसारा ॥
जात पात कोड भेद न चीन्ा । मिथ्या राइ जगदहि गह लीन्हा ॥
बराह्मण प्रभुकी भक्ति न जने । ब्रह्म हप नाहीं पंडचाने ॥
सार शब्द् ब्राह्मण नदीं जाने । आदि नाम ज्ुद्ही बखाने ॥
ब्राह्मण धरे शुद्र ओतारा । करे शक्ति तिह पुरते न्यारा ॥
धन्य शुद्र जो सेवा करह। आदि नामको हियमे धरई ॥
जाति वनम भेद बताडं। जो कोई समञ्च ताह लखा ॥
जाति बरण सब एकि होई । इमर जाति नदीं ३ कोई ॥
दूसर कमं जाति दहै भाहईं। कमं करे सो नाम धरा ॥
जेसो कमं करे जो भाईं। तैसी ताकी जात बनाई ॥
चार बरण सष एकि जानो । दूसरे कमं जो जात बखानो )
जाति बरणका चिह न कोई । कैसे जाति दूखरी होई ॥
दूसरि जाति कोई विधि माने । जग अज्ञात भेद न जने ॥
जाति पांति होके नहिं आये । यह जगमे ञ्जगड़ा केराये ॥
जाति पाति नाहीं कोहं न्यारी । एक जाति है सब संसारी ॥
भगके द्वार जीव सब आये । जन्म मरनमें बहुरि समाये ॥
राह एकं आये संसारा । कौन ज्ञानसे भये नियाग् ॥
एकह धरसे सब जिव आये । एक बाप एक माता जाये ॥
ऊच नीच सब सम कर जाना । ऊंच नीच सब ज्खुठ बखाना ॥
डार जनेऊ ब्राह्मण कदखायें । बाह्मणिको कहो का पहिराये ॥
सुनत करा मुसरमानहि कन्दा । तुकानीको का कर दीन्हा ॥
ना दिन्द्र ना तुके काये । ज्ञान हीन जिव धोखा खाये ॥
जात बरन मिथ्या कर जानो । सत्त कटे निथय कर मानो ॥
( २६ ) ज्ञानकोष
यर जग आंघर जानो भाई । नाम न जाने ऊच कहाई ॥
ङु वरी जो नामहि जानें । विना नाम सब नीच कहानें ॥
ना कोड वर्णं नहीं कोउ मेषा । शब्द सषूपी जरै देशा ॥
खब मिक भक्ति करो रे भाई । सतगुङ् मुखसे यदह फरमाई ॥
यह सतगुरूका ज्ञान हे भाई । जो कोइर्खे सो लोक सिधाई ॥
जात षणं इम भाख सनाई । धर्मदास जगसे कटो जाई ॥
ेखा तम जग जान रख वो । सत्तरोकमे जिव पहुचावो ॥
साखी-यह जग अयशुण भक्ते, भरु परे धमंदास ॥
नाम गहे विश्वास करि, जाय पुर्षके पासं ॥
माना कहा कबारकी, सबको यदै पुकार ।
भरम जार सब त्यागे, गहरे नाम अपार ॥
सारा
जिन सब न म अधार विनानाम भवना तरे ।
जाय काल दबीर, सत्तपुर्ष जो नां गहे ॥
चौपाई
करै कबीर सनो धर्मदासा । अव निज भेद कटो तुम पासा ॥
अकह इतो पुनि कहा बखानी । उत्पति प्रख्य इती मम वाणा ॥
आदि न अंत इती नरि माया । उत्पति प्रलय हती न काया ॥
सोदै ब्रह्म न नरि ओङ्कारा । काल निरंजन नर्द ओतारा ॥
दश आतारन चोवीस षा । तब निहोता ज्योति स्वहपा ॥
जब नहि चट्रलोक दीपविस्तारा। तब नहि सुकृत करयो ससारा ॥
जब नटि लाकचद्र सूयं अरूतारा। तब नदि तीनों गुण ओतारा ॥
वहां नरीं है दिनि अरु राती । उच न नीच जात ना षांती ॥
नाहीं सुख पवन न्ह पानी । समरथ गति कादू नर्द जानी ॥
आदि बरह्म नदिं करे पारा । आप अकह तब हता नियारा ॥
बोधसागर ( 2७ )
है अनाम अक्षर के माहीं । निहअक्षर कोह जानत नाहीं ॥
अमर लोकं जह अम्मर काया । अकार पुङ्षजह आपरहाया ॥.
धर्मदास जहं वाम हमारा कारु अकाल न पावे पारा ॥
निरभय घर बोही है भाई रोगन ग्यापे कालन खाई ॥
समरथ धर रहै येरे पारा) सबके ऊपर है निरधारा ॥
जिनकी गम्य काल नहि बाई । तीन देवकी कौन चलाई ॥
मन माया काल गति नाहीं जीवं सहाय बसे तेहि उदी ॥
ठेसा है वह देश हमारा 1 जहांसे इम आये संघारा ॥
ताकी भक्ति करे जो कोई भवते छ्टे जन्म न होई ॥
वहां जाय जीव करे विलासा । अमरलोकं जिवका नहि नासा ॥
कहै कबीर सुनो धर्मदासा । आदिनामगैं कहा तम पाक्ष ॥
जो कोड मनेकहातु हारा निरभय जाय पुर्षके दारा ॥
मुरख सतथुक्् मरम न पावे) मवसागरमे भटका खे ॥
सार युक्ति भै तुम्दं ल्ख'या 1 गन ञुनि काहू येद न पाया ॥
भाषा मथ ज्ञान उपदेशा) तुम अपने चट करो प्रवेशा ॥
साखी-अस सुख हे हमरे धरे, कहँ कबीर समञ्चाय ¦
सत्त शब्दं तो कोई गहे, अस्थिर बैठे जाय ॥
सोर
चोथे पद निरवान, परे गुरूषे पाडइये ।
कटै कबीर बखान, सत्त मान सतगुङ् सही ॥
चोपाई |
ओर सुनो ग॒श्मु का लेखा । भक्त दोय सो करे विवेका ॥
जो कोहं पान पम्वाना षवे । ताके निकट काल नरि जापै॥
पान परवाना पावै भाई। नाम गहे अर् भरम नशाई ॥
तन मनसे गुरु सेवा खाई । शु्से देवं ओर नरि भाई ॥
गु से कपट शिष्य जो राखे । जमराजके ुदगर चाखे॥
( २८ ) ज्ञाननोघ
सो रेख काल घर जावे सत्त लोकम वास न पावे ॥
निरभय चर कबह् ना पावे । कोट जन्मतिदिकालसतावे ॥
भक्ति कर पूजत है जो देवा । निश्चय जाय कालकी सेवा ॥
मलष्य तन वे कमभीन पावैं! लख चौरासी भरका खावें ॥
ज्ञेखे कमं करे संसारा । तस्र थुगते चौरासी धारा ॥
ना गरू ना निशया पंथी। कहा क्यो बांचेसे अंथी ॥
साखी-भक्ति करं भरमत फिर, जग छोड नहिं सोय ।
कहं कबीर धमंदाख से, जिनका तरन न दोय ॥
सोर
करनी देय॒ वदाय, आदि नाम कद जानके।
ता महं रहै समाय, भरम जार सब ड दे ॥
धमदास वचन
चोपाई
चर्मदास तब करै करजोरी । स्वाभी सुनिये विनती मोरी ॥
हो स्वामी मै ब्रञ्चो तों करके कृषा बताइये मोदी ॥
हो अविनाशी ब्रह्म कदाये। यह जग्मे तुम केसे आये ॥
यह सब मेद बताइय स्वामी । तम॒ सब चटके अंतर्यामी ॥
सकल चरित तुम मोहि बतावो । म जाते जगजीव चितावो ॥
यह् जग तब पतियावे साह । चारों चग तुम कदां राई ॥
साखी-सो अब मोहिं बतावहू, तुम गङ् अगम अपार ।
धर्प्रदास विनती करे, सुनियो दो करतार ॥
कबीर वचन चौपाई
करै कबीर सुनो धर्मदासा । अब यह भेद कदो तुम पासा ॥
वेद् पुराण शाख जग ठाना । भरले जीव न पाय ठिकाना ॥
बोधसागर (२९)
तीन रोक जिव काल सतावै । बह्मा विष्य पार न पतै॥
पत्त पुरूष तब मोहिं पठावा । जीव उवारन यै जग आवा ॥
यहि कारण आयो संसारा । जगके जीव यै करो उबारा ॥
जग जीवनको नाम टखवें । पकड़ ईस सतोकं वटर ॥
हम है सत्तरखोकके वासी । दाप्तं कहाय प्रगट भये कासी ॥
ना कोई वणं नहीं कोड भेशा । सत्त यु्षके थे इम देशा ॥
तहकी रचना अद्भत भाई । सो मैने तोहि पिरे नाई ॥
ओर तोहि में कटं समञ्चाईं । धमंदास सन चित्त रुगाई ॥
धरी देह भवसागर आये । धर्मदास तोहि नाम सनाये ॥
कटियुगमे काशी चर आये । जब इमरे त॒म दरशन पाये ॥
तब इम नाम कबीर धराये । कार देख तब २इ अरञ्जाये ॥
जो कोड हमको चीन्डा भाई । जिनका कार धोक भिर जाई ॥
देह नदीं अशू दरस देदी। जग ना चीन्हे पुरूष विदेही ॥
नहीं बाप ना माता जाये। अब गतिहीसे हम चरू आये ॥
इते विदेह देह धर आये । जग जीवोके बन्द छंड़ाये ॥
नाम गहे तेहि खोक पाये । बिना नाम जिव कारडि खाये ॥
गुप्त रदे नादीं ल्ख पावा। सोय जगम आन वितावा ॥
चारों जग भवसागर आये । आदि नाम जग टेर सुनाये ॥
नाम सने शरणागत अवे । तिनदीकी इम बंद इुडवें ॥
जीव प्रबोध रोकं पहुचावें । काल निरंजन देख डरा ॥
चारों जगके चारों नामा । माया रदित रहे तिहि गमा ॥
सतजग सत्त सुकृत कलये । अता नाम सनीड धराये ॥
दवापरमें कर्नामय कहाये । कलियुग नाम कबीर रखाये ॥
आदि नाम चारों चग टेरा। सनन जीव सुनतदी दौरा ॥
जो जो जीव शरणमं आयं । तिनको हमने नाम सुनाये ॥
( ३० ) ज्ञानबोध
आदि नाम जो नित शुन गवे 1 कर विश्वास अमर षद् पावें ॥
जो कोड सतगुर् नासको धावे । तिनको साहब पार र्गा ॥
चार दाय जो माया त्यागे जन्म मरनको संशय भागे ॥
माया त्याग वैयागी होई । अजर अमरको पावै सोई ॥
धमेदास वचन
कड धर्मदास सुनो प्रथु राई । भक्त भाव मोहि देव बताई ॥
कृलीर वचन
भक्तोकी यह कथा पसारा ! धर्मदास सुनियो चित्त धाया ॥
जगम भक्त भये अधिकारी । जोगी सन्यासी खट धारी ॥
शीव गोरख अङ् बडु बरह्मचारी । मायाने सबको ठगडारी ॥
इनको ठग॒ जब हमपर धाई । यत्त नाम हम टेर सुनाई ॥
खोर गड माया बहुवारी । रहै जीत माया गइ हारी ॥
माया. जर है करिण अपारा । तासे गन सुनि वेठे हारा ॥
माया जार परो मत भाई । धर्मदास जग कटो शुहराईं ॥
भवसागर दै भक्त बहुतरा । जिनको तुमसे कहौ निबेया ॥
मोनी भये शख नहिं बो । भेष बनाये घर धर डोखे ॥
अगहि भस्म गरे बिच माला । मटिया बेठ सुने मतवाला ॥
धूनि रमाय शरिया खरकावे । गगन चटाय के जग भ्रमाव ॥
कान फाड़ शिर जटा बदाये । माथे चन्दन तिलक रुगाये ॥
वचर रंगा जोगी बन आये । सतगुङ् मिलेन मेषं बनाये ॥
बहत कर जप तप रे भाई) आदि नाम कोई नहि पाई।
पाहन सेवं भक्त कदावे। चन्दन तेरु सिंदूर चद्व ॥
मायुष जन्म बडे तप दोहं । नाम विना च्ूे तन खोई ॥
साधु युक्ति अस चार बताऊ । धमेदास मेँ तुम्दै लखा ॥
काम को लोभ अरहैकारा। सोई साधु जिन इतने मारा ॥
सूखा फीका करे अहारा । निशिदिन सुमरे नाम हमारा ॥
बोधसागर ( ३१ )
तत्व प्रकृति ओर बल माया । इनहि जीत तव साधु कहाया ॥
अन्त कपट सब देय बहा । क्षमा गङ्ख वैठ नहाई ॥
हार जीत ओर अभिमाना । इनसों रदित साश्चको ज्ञाना ॥
बिरैसत बदन भजनको आगर } शीतर दयां प्रेम सुखसाम्र ॥
सब षट कर्मं छोड़ अज्ञाना । धर ठे केवर निर्थुन ध्याना ॥
धन्य धन्य जग साधु है सोई । जिन अपनी द्रमति सब खोई ॥
हेसी रहन साधुकी भाई । जब ईसा निरभय पद पाई ॥
यह ॒भक्तोकी कथा सुनाई । निरभय पद् कोड बिररे पाई ॥
साधू लक्षण तुष्टं सुनाया । गन शुनि काह भेद न पाया ॥
आदि नामको नित शनगावो । सोवत जागत ना विसरावौ ॥
सत साहिब है सबसे न्यारा । ताहि जवे होवे भव वारा ॥
भक्त अनेकं भये जग माहीं । जोग करैयै यक्ति न वाहीं॥
जोगहि युक्तिनाम बिन नाहीं । ब्यूटी माया आन ल्गाहीं ॥
नामहि गहै तेहि निहसंसा । नाम बिना बड़े सब्र ईसा ॥
नाम निरक्षर सुधि जब पावा । कार अपर्बख निकट न आवा ॥
भाया त्याग भजो निज नामा । तब जिव जाय पुङ्षके धामा ॥
सबसे कहो एकार पुकारी । कोड न माने नर अङ् नारी ॥
सत्य ॒पुरूषकी युक्ति न पाईं । उदय धरे नहिं सत्य को भाई ॥
शिव गोरख सोइ पार न पावे । ओर जीवकी कौन चलाते ॥
कहं कबीर सुनो मम बानी । जोग युक्ति मैं कटों बखानी ॥
अब गेहीका सुनो बिचारा । धर्मदास मे कों एकारा ॥
गेदी भक्त करे जो कोहं। अब मे तुमसे भाखों सोई ॥
गेही भक्ति सत्त गुरुकी करई । आदि नाम निज द्से धरई ॥
शङ् चरननसे ध्यान लगे । अन्त कपट शुरूसे ना लाने ॥
( ३२ ) ज्ञानबोधं
शुरू सेवा फर सब आवे । गुरू विश्ुख नर पार न पावे ॥
शङ वचन निश्चय कर समाने । पूरे गुरूकी सेवा. ठाने ॥
विन विश्वास भक्ति परकाशा प्रीति विनानर्हि दुबिधा नाशा॥ `
सीन मांख मद निकट न जाई । अङ्कर भक्ष सो सदा कराइ ॥
गर्से शिष्य करे चतुराई । सेवा दीन नकेमे जाई ॥
प्रधन पादन समञ्च भाई । ञ्ढ वचन दये न्ह राई ॥
प्र तिरिया माता सम माने । ञ्जू छोड़ सत्यरिको जाने ॥
जीवपे दया करै २े भाई । बुरे कमं सब देय बिहाई॥
हदये दया प्रीति ना होई । सतशुर् सपने पिरे न सोई ॥
नाम नेद गुरु सुते लगावे। आदि नामको परु पर ध्यावे॥
लेव पान भुक्ति सहदानी। जाते कार न रोके आनी॥
साखी-पुरूष नाम निशिदिन गदो, शब्दं करो परतीत ।
अक नाम निज पाहया, जादो मवजर जीत ॥
सोर
भमं तजे यम जाक, सत्तनाम रौ रावं ।
चरे संतकी चाल) परमार्थं चित दे गहे॥
चोपाई
गेरी भक्त आरती आने प्रति पूनोकी आरति ठाने ॥
अमावस आरती नहि दोईं । ताहि भवन रह कारु समोईं ॥
पाख दिवस नटि दोवे सान् । प्रति पूनो कर आरति कान् ॥
पूनो पान लीन्ह धम॑दासा । पावे शिष्य होट सुखबासा ॥
छटे मास नदि आरति मेवा । सार माह गुर् चौका सेवा ॥
नाम कबीर जपे रोखाई । तुम्दरा नाम कहे गहराई ॥
रेसी रहनि गेदि जो धरि दै । गर प्रताप दोईं निस्तरि है ॥
बोधसागर ( ३३ )
साखी-सो भव पार उतारि है, केवरसे कर प्रीत ।
जब सतगुङ्् केवट भिरे, जेहै भवं जक जीत ॥
सोरग-कार जीव धर खाय; सत्तनाम जाने विना ।
वचि है एक उपाय, सत्त कबीर कहं भवं तरे ॥
चौपाई
सत्त कबीर शुरू ध्म॑दासा । जीव षडे है पुक्ष के पासा ॥
सत गुर् सत्त कवीरहि आदीं । शप्त रहै जग चीन्त नाहीं ॥
सतश् आप जगत पग धारे । दासा तन धर शब्द् पुकारे ॥
काल निरंजन सब पर छया । आदि नामका चिद्ध मिराया ॥
धर अवतार अघुर संहारा । जिव जाने यह धनी इमारा ॥
एही धोख नकं सब जादी । जिव अचेत छल चीन्हँ नाहीं ॥
नकै बास नदिं टै भाई । जो सतगुङ् को चीन्डे नाहीं ॥
बहना विष्णु शिवसे नर्द देवा । जिन्ड बेङण्डवास नहिं देवा ॥
देसा काल अपरबर भाई । जिदहिके छर जग चीने नाई ॥
ज्ञगमे जीव चात बहृतेरे। करे घात अक् पराप घनेरे ॥"
दश्च अन्याई करजिवकी घाता । खेख शिकार माने मन माता ॥
जीवं मार तन करत अहारा । जीव दया नहिं करत गवारा ॥
जीवचाती खो बहुत इख पावे । जन्मजन्म तिथि कारु सतावे ॥
काग देह धर विष्ठा खादी । जन्म अनेकं चरमे जगमाहीं ॥ `
जीवं दया विन सक्ति न पावें । मीन मांस मद राक्षस खें ॥
धर्मदास यह जग बोराईं । दुष्ट जीवकी कथा सुनाई ॥
ज्ञीव कष्ट मोहिं सहा न जाई । ज्ञान दीन नर जीव सताई ॥
यदि कारन इम जगम आये । तीन रोकं जम दूटत पाये ॥
पदरे ट्टे विष्णु शरारी । फिर ट्टे शंकर लटधारी ॥
( 2९ ) ज्ञानबोघ
गनसुनि लूटे तपसी आरी । अर् लूटे सगरे संसारी ॥
चन्द्र सूय तारागण सोई । कटै कबीर बचा नरि कोई ॥
देखो यरी कारु की रीती । धर्मन परखो रीति अनीती ॥
रेखा कारु कटिन बरियारा । बचे सोह जो नाम पुकारा ॥
कारु रीति भे. तोहि सुनाई । धम॑दास जिव बोधा जाई ॥
साखी-करं कबीर धमदास सों, त॒म सुनियो वितखाय ।
काल भेद ना जानहीं भूरख रहै थुलाय ॥
सोरा-तजो कारु ब्रयार, जीवं दया चितम करो ।
उतरो भव जरू वार, आदि नाम इदय गो ॥
सुनो संत मति धीर, कदो ज्ञान परखो दिये ।
कारु अपरबरु बीर, इदये विवेकं इट ॥
चौपाई
आदि नाम है अजर शरीरा । तनमनसे गह सत्त कबीरा ॥
जोई गहे धममंदास कवीरा । सो पावे सुख सागर तीरा ॥
काया बीर नाम है धी । सब घट रहे खमायक बीड ॥
निजदी शब्द कबीर है सारा । जाका दै निज सकर पसारा ॥
एके रूपः शब्द॒पुर एका । एकं भाव दुतिया नदि देखा ॥
कैसे दुतिया किये सोहं । दुतिया भर्मं मिटै सब कोई ॥
एकि इम तुम एक शरीरा । एक शब्द् है मतिके धीरा ॥
दूसर भाव नदीं है आसा । सोहं कबीर सोई धर्मदासा ॥
एक रूप एके अनुदहारी । एकि पुरूष सकर रिस्तारी ॥
आदि नाम भै भाख सुनाओ । नाम गहै जब शक्ती पाओ॥
जो कोद आदि नामको चीन्हा । तासो कार भयो बरृहीना ॥
सासखी-आदि नाम दै सुक्तिका, जप जाने जो कोय ।
कोटि जाप संसारम, तासे शुक्ति न होय ॥
लोधसागर ( ३९ )
सोर-बञ्ज खेदो ईस, आदि नाम निज सार ह!
अमर होय ते वंश, जिन जानो निज नामको ॥
ओर भन्ब सव छार, आदि नाम निज मंजर ह)
बूड़ मरा संसार, कड कलीर निजनाम विन ॥
सोषा
कहे कबीर सुनो धम॑दाद् । चार _ शङ्की कथा भ्रकाश्च ॥
चार गुड संसारदि कीन्हा । जिनके हा जिवशक्ती दीन्हा ॥
वे हंसन को खोक पठाये भवसागर जिव बहुरि न आये॥
सार शब्द साहब का न्यारा । सोहं शब्द कँ शुरू उचारा ॥
खार शब्द् काट नहि पाई । तीन देवकी कौन चलाई ॥
शब्द् सङ्ग हंसा धर _जाई । कार अप्रबरू देख डराई ॥
सार शब्द चै तमको दीन्हा । कार तुष्हारे रहे अधीना ॥
धर्मदास त॒म मतिके धीरा । वुमको दीन्हा सक्तिका बीरा ॥
तुमते जीवं उतरि रै षारा। सोप दीन्ह तोहि जगको भारा॥
सतजग शिष्यसहतेजी काये । द्वापर चतुथज नाम नाये ॥
ब्ेता शिष्य ॒बेकेजी भाई । कलियुगमे. धमंदास गसाई ॥
चार शुक भवसागर माहीं धमदासर वे जिव शुक्तादीं ॥
यह ओ तुमसे कों सम्चाई । सब संशय तुम्हरे मिट जाई ॥
वंस व्यालिस तुमरे सारा । ओर सकल सब ज्जुठ पसारा ॥
इनहीं सौप देव जिव भारा । सब जीवनको करे उबारा ॥
धर्मदास तुम पुरूषके अंशा । अब हमको कड नाहीं संशा ॥
होय पथ भव सागर सारा । तुम्हरे वेश सब जीव उबारा ॥
व्याटिस वंशराज लिख दीन्हा । अटल राज भवसागर कीन्हां ॥
धम॑दास भम कों विचारी । यहि विधि निबरै सब संसारी॥
साखी-नाम भेद॒जो जानहीं, सोई वंश हमार ।
नातर दुनिया बहत रहै, बड मरा संसार ॥
( ३६ ) ज्ञानबोध
सोरठा-जेखे भव॒ जर जीत, सार शब्द जो जानदीं ।
कसिन कारु विपरीत, नातो जम ङे जायगा ॥
धर्मदास वचन
चोपाई
धर्मदास तब विन्ती लाई । अब मे पंथ करो गुन गाई ॥
अमरलोकके दो गङ् वासी । कारन कौन आये अविनाशी ॥
मृरत्युरोकं आये केरि काजा । धमराय पापी बड़ राजा ॥
साहब कबौरका वचन
घर्मदा तुम सुनियो भाई । जीवन काज पुरूष पठवाईं ॥
सक्त पुरुष सतरोकके बासी । सकर दंसके खयि अविनाशी॥
पुक्षद्रश कोह बहुरि न पव । तीन लोकम आन रावे ॥
तीन रोकं सब प्ररे होई । अमरलोकं सुखदायक सोई ॥
जीवकाज जगम हम आये । धमरायसे जीव छुड़ाये ॥
आदि अनाम अमोर अपारा । अकडह अगोचर सबसे न्यारा ॥
तहांसे दम आये संसारा । पहुचे काशी नगर ंञ्चारा ॥
सत्तं सत्त हम करं पुकारा । भवसागरके जीव उबारा ॥
नामसनेजोमो खग धाये। जिनको हमने पार गाये ॥
सप्रञ्चेसने जो वाचा मेरी। काट ताकी कर्म॑की बेरी ॥
भगकी राह नदीं हम आये । जन्म मरन ना बहुरि समाये ॥
चिश्ण पांच ताव हम नादी । इच्छारूप देह हम आदीं ॥
साखी-र्पाच तत्व गुन तीन नरि, तामे सकल शरीर ।
सब कोह इदये चीन्हियो › सतगुर् पुरूष कबीर ॥
. चौपाई
इम जमके शिर मर्दन हारा । जो कोई गहे सो उतरे पारा ॥
ॐ
जद इम रं कार तर नादं । दसन हम सुखदायक आदीं ॥
बोधसागर ( ३७ )
ज्ञो , साहब सतलोक रहाई । तिनको सब कोई चीन्हौ भाई॥
नाम बिना दुखि तीनों देवा । जिनकी गन गंधं करे सेवा ॥
जगके देव सब काठ अधीना । बचे सोई जो नामको चीन्हा ॥
हम बल एक शब्दका भाई । ताही बर इसा भुक्ताई ॥
जहौ नाम काल गति नाहीं। बिना नाम है कालकीं ऊंई ॥
ज्ञान दीन जाने नहि भाई । जीव कै संग मन काल रहाई ॥
जीव के संग कारुको वासा । अज्ञानी जन गहे विश्वासा ॥
मनको कटो न कीजे कोई । मन जिवको भरभावे सोई ॥
कहे कबीर मन जात गँवारी । मनको कटो न करो नर नारी ॥
मनको कहो जो कर है भाई । भवसागरपं देय बहा ॥
मन चंचल सो काट है भाई । मनको त्यागे निरमछर हो जाई॥
अनके रूप समानी माया । सब संसार व्याघ्र यह अया ॥
मन यिरकर षरमातम जाना । यहि विधितच्व खेय षहिचाना ॥
काल जार ते तेही टे । काल विचारा ताहि न ल्टे॥
यही मेद धमं सुन ठछीजे। शब्द मारि त॒म बासा कीजे ॥
काठ ज्ञान संसार बखाना। काल स्वरूप नहीं पहिचाना ॥
काल चरि तुमसे को भाई । यही मेद कोई नहि पाईं ॥
काया माया अटी जानो । ठा सकर पषसारा मानो ॥
बटो नाम सादबको नाहीं । ब्रूञ् रेव अपने हिय मारीं ॥
साखी-कार पाय जग ऊउपजो, कार पाय सब धाय ।
कालपाय सब विनसदी, कार काल कह खाय ॥
सोरटा-धमदास रेव जान, सन्य सङूपी मनहि दै ।
वचन कबीर पमान, सप, रेख मनको नदीं ॥
परम पुरूष नाम गहो भाईं । ताते ईसा रोकं सिधाई ॥
आदि नाम है जिव रखवारा । उनको सब कोई करो पुकारा ॥
(३८ ) ज्ञानबोध
अमर रोकं साहबका न्यारा । जह पुरूष का है दरबारा ॥
आदि पुरूष जद आप अकेला । धमंराय नर्द मन के मेरा ॥
अघकार ज कब न होई । खदा जोति अमरापुर सोई ॥
आदि पुरब जह काल न जाई । तीन देव की कौन चटाई ॥
आदि नाम जो ध्यान लगाई । तब हसा सत लोकि पाईं ॥
सा रोक साहर्का भाई । जह ईसा सुख संदा राद ॥
तादि लोके जो कोह जवै । भवसागरे बहुरि न अवै ॥
घमं राय से तिनका टूट, जन्प अरण कों संशय छट ॥
बिररे जीव निःसंशय होई । दृढ परतीत नाम गहं सोई ॥
अगम मेद् य तुम्हं बताया । काठ निर्न गम्य न वाया ॥
जगके जीव प्रबोधो भई । पुक्बं शरण जब हवा जाई ॥
जीवदहि बोधो सब संसारा 1 पकड़ ईस कको वेरे पारा ॥
भवसागरसे जीव उबारो । जन्म रण जिव संशय खायो ॥
जीव युक्त यै तमको दीन्हा । पुङ्ष भक्ति दै नामको चीन्हा ॥
सार युक्ति भैं व॒मसे कहिया । कहन अुननको अब् नर्िरदहिया॥
धर्मदास वचन-चौपाई
धमंदास विनवे कर जोरी । सतशुङ् सुनिये विनती मोरी ॥
निरयन नाम रखे नरि कोई । सरग॒नम जग भरम सोई ॥ `
अज्ञानी जिव कहा न माने । आदि नाभको सेद न जाने ॥
यदह सब भेद कहो प्रथुराईं । केसे जीव प्रबोधो जाई ॥
साहिब कबीर वचन-चौषाहं
कृ कबीर सुनो धम॑दासा । अब भैं भेद् कों त॒म वाघा ॥
सनन जन जो रोवे भाईं। तुम्हरे शरन दौरके आई ॥
तन मन तुमसे ध्यान रूगाईं । ताको नाम सुनहयो भाई ॥
जब देखह तुम दढता ज्ञाना । तबही देव॒ पान परवाना ॥
लोधसागर ( ३९)
निरभय ज्ञान को जिवषाघा । जो कोड होय वुब्डारा दारा ॥
शरूरखके तुम पास न॒ जडइयो । बचन इमारो हिय गहियो ॥
शूर ज्ञान कहो अत भाई । नाहक ज्ञान गांठको जाह ॥
दुरमति मन जाही कर भाई । तासे शलो भेद छिपा ॥
ज्ञानी जनको नाम सनावौ । वरव युङ्बसों डदय चिन्दाओ॥
साखी-मूरखसे ना खोलिहौ कै कबीर विचार ।
ज्ञानीसे न अ: सुनो सत्त मतसार ॥
चा]
ड्
अलख नाम घट भीतर देखो । इदये बाहं करो विवेको ॥
चट चट राम बसे ह भाई । विना ज्ञानं नहिं दैतं दिखाई ॥
अनुभव ज्ञान प्रगट जब होई । आतमराम चीन्ड है सोई ॥
आतमराम चीन्ह जब पावा । सकर षसारा मेर बहावा ॥
हिये नयनसे देखो भाई । जब तुमको वड राम दिखाई ॥
सब घट ग्यापकं सबसे न्यारा ¦ सो$ राम है जीवं ंश्चार् ॥
अकह नाम कहा नहि जाई । घट चट व्याप्त निरंतर आई ॥
आतमराम देख जिव पाई । आष आष सब ठव समाई ॥
जह देखा तहँ आपं समाना । ब्रह्म छोड़ दसर नहिं आना ॥
यदी मता हम त॒मकह दीन्हा । दूसर कोड न पवि चीन्हा ॥
सा ज्ञान ठकखाओ भाई । जो नि मान कारु तिह खाई ॥
साखी-अजर पुरूष एकै रहै, अजर लोक अस्थान ।
कहे कबीर सवाग जो, ताहि पुरूषको जान ॥
सोरठा-सुनह ज्ञानी धमंदासः सोह ज्ञान जप ऊपे ।
एकं नाम + प्रगट ब्रह्म स्वरूप है ॥
पाई
आदि नाम जो राखे आसा । तापे प्रे न कार्की फसा ॥
आदि नाम निरअक्षर भाई । ताहि नाम ठे लोकि जाई ॥
~ चक ~ क
( ७० ) ` ज्ञानबोध
खोरे शब्द् निरक्षर वासा 1 ताहि शब्द जपै निज दासा ॥
आदि नाम निज सार है भाई । जमराजा तेहि निकर न आई ॥
तुम करं शब्द् दीन्ह टकसारा । सो दसन सो कहौ पुकारा ॥
खार शब्दका सुमरण करे है । सहज भमर रोक निस्तरि है ॥
सुमरन का बरु रेखा होई । कमे काट सब पलछमे खोई ॥
जाके कमं काट सब डारा । दिष्य ज्ञान सहजे उजियारा ॥
जाक दिव्य ज्ञान प्रकाशा । आपहिमें खब रोग निवासा ॥
रोक अलोक शब्द् है भाई । जिन जाना तिन संशय जाई ॥
तत्व सार सुमरन रै भाई । जाते कालकी तपन बुञ्ाईं ॥
खुमरनते सब कमं विनाशा । सुमरनसों दिष्य ज्ञान परकाशा॥
धमेन सुमरन दयो लखाई । जासों हंस समे सुक्ताईं ॥
साखी-कहैे कबीर विचारके, सुमरन सार बखान ।
कहै भेद जो पाव, पचे रोक डिकान ॥
धमदास-वचन चौपाह
कहं धमेदास सुनो प्रथुराई । अब जिवको सन्देह मिराई ॥
अलख अगोचर हो प्रथु मेरा । अब जीवन को करं उबेरा ॥
आदि ब्रह्म तुम अगम अपारा । जीव काज आये करतारा ॥
आदि नाम गुर् मोदि खाये । जीवनके तुम ॒बद छडाये ॥
अजर रोकमे जिव प्हचाये । धन्य भाग हम दर्शन षाये ॥
अमर वस्तु सतयुर् मोटि दीन्दा । जीवनके सब इखदहर लीन्हा ॥
सतशुङ् चरण गहं दिय मादी । भा उदय पंकज बिगसाहीं ॥
सतगुरूने मोदि टीन्द जगाई । आवागमन रदित धर पाह ॥
अब सन्देह रदा कदु नादीं । शब्द तुम्हार बसो हियमारीं ॥
सोरग-दीन्दां मोदि र्खाय, परमातम आतम सकेल ।
अलख नाम सखुञ्ञाय, अमर वस्तु श् दीन्हञ॥
बोधसागर ( 9१ )
साहब कबीर बचन-चौवाईं
ज्ञान उपदेश कहा भै भाई । ताते जीव हिय ज्ञान समाई ॥
यही भ्॑थ य नाम नियारा। युष्म रीति सेको पुकारा ॥
आदि नाम जाने संसारा । करे भक्ति पहुचे दरबारा ॥
पदे सन्त होवे मति धीरा आदिं नाम गहै अन्न हारीरा ॥
आदि नाम है सत्त कबीरा । जो जन गृहे कटे भव पीरा ॥
आदि नाम पहिचान भाई । तब इसा निज धघरही जाई ॥
ज्ञान उपदेश कहा शुर पूरा । नाम गहे वेला कोई स्रा ॥
साधु सन्तसों बिनती मोरी । नाम भरे अक्चर लीजो जोर ॥
इति भ्रीयन्थ्नानवोध समाप
सत्यचुरूषाय नमः
अथ श्रीबोधस्रागर
वतुदेशस्तरंगः
ग्रन्थ सवतारणबोध
ग्द
धमंदासं वचन-चौपाईं
धर्मदास विनवे कर जोरी । सदृशुङ् खनिये विनती मोरी ॥
भवक्षागर कवनि्हि विधि छूटे । यमबेधन कवृनिर्ं विधि हटे॥
भव दरियांका वार न पारा । ता महे अंटके सब संसारा ॥
सो द्रियाव कोन विधि थाहूं । परम पुरूषको कैसे पाहूं ॥
कृरों भक्त्किं योग कमावों देओं दानके तीथं नहावाों ॥
करें यज्ञ कै न्द्री साधौ बाहर फरो के मतको बाधो ॥
जो त॒म को भ करिहौ । वचन तुम्हारे हदये धरिदौं ॥
भवसागर दुख मेटो मोरा । टूटे जन्म सरनको ठौरा ॥
संशयरदित करहु मोहि स्वामी । तुम सब चटके अन्तरयामी ॥
स॒द्शुङ वचन
सुन धर्मदास भँ सत्य बता । भवसागरका भरम मिटा ॥
संशय रदित सदा तुम होड । तुम्हरी राह न रोके कोऊ ॥
करो भक्ति ओ बधन काटो । जन्म मरणका संशय पाटो ॥
भाव भक्ति करिये चित लाई । सेव साश्रु तजि मान बड़ाई ॥
सुन धमंदास भक्तिपद् उचा । इन सीढ़ी कोई नरि पहुंचा ॥
योगी योगसाधना करई भवसागरते नादं तरदं ॥
दान देय सोई फर पावे भवसागर युक्तनको आवे ॥
तीर्थं नहाये जो कङ्क होहीं । सो सब भाषा सुनाऊं तोरीं ॥
बोधस्षागर ( 9३ )
जन्म लेय उज्ज्वल तन पावे । सम्पति ह्वै जगम पुनि अवे ॥
ऊंचे धरसे ठे अवतारा । ब्राह्मण क्षीको व्यवहारा ॥
इन्द्री साधन रै यह नीका । विना भक्ति जानो संब फीका ॥
इन्द्री साधन है तष भारी । तामस तेज कोध इकारी ॥
क्रोध किये गति शुक्ति न षवे भक्ति महात्म हाथ नहिं अवि ॥
बरत एक भक्तिका पररा) ओर वरत कीजे. सब दूरा ॥
ओर वरत सब यम की फसी । भक्ति वरत मिलदही अविनासी)
हर अवराधन की सुबु बाता । कहा भेद सुनिये तम ज्ञाता ॥
हरि हर नाम सदा शिव केरा । तासों इर हेत भब फेरा ॥
बहत प्रीतिसों शिवको ध्यावे । रिषि सिद्धि दञ्य बहत खख षावे॥
मन जिसके निश्चय कर धरदीं । गिरि कैलासे वासा करीं ॥
फिरके काल अपेटे बांहीं। डार देयं भवसागर महीं ॥
ताते संशय टे नाहीं भवसागरमें जीवं जो जारीं ॥
शिवकी साधन है यह गती । निर्भय षद वावे नहिं रती ॥
जाके सुमिरे योगी यती । चौरासी भरम उत्वती॥
हरि हरकी यह कथा सनाई । आगे ओर सुना भई ॥
साखी-शिवसाधनकी यह गती, शिव ह भवके हव ।
विन समञ्षे ये जगत सब, परे महा अम कूप ॥
नरकं वासम मन॒ परे, एेसी शिवकी मौज ।
कह कबीर विचारिके, मिटे न यमकी फौज ॥
चौपारं `
हरि इरि नाम विष्णुका होहं । विष्णु विष्णु भाषे सब कोड ॥
विष्णुर को कतां बतलाषे । कहो जीव कैसे फट पाठे ॥
सब घट माहीं विष्णु विराजे । खान पानम विष्णुहि गाजे ॥
सकल भोग विष्णु जो लेही। भोग करे जग भरम देहीं॥
( 88 ) भवतारणबोध
इरि इरि नाम विष्णुका भाषा । श्चुभ ओर अश्चुम कमं दोहराषा॥
इनमे करे कोरु सदाईं । करे भोग जीवन भरमा ॥
बहुत प्रीतिसो विष्णु ध्यावे । सो जिव विष्णुपुरीको जावे ॥
विष्णु पुरीम निर्भय नाहीं । फिरके डार देय भ्रूमादीं ॥
इरि दरि नाम विष्णुका भाषा । दरिकी ओर सुनो अब साखा ॥
सखाखी-इरि न।म है विष्णुका, जिन कीन्हा सब जेर ।
चौरासी भरमे सदा, मिटेन भवका फेर ॥
चौपाई
सुन धममेदास तुम दो साधू । इनको कबं मत् अवराधू ॥
हरि इर ब्रह्मा को है नाड । रज शण यापक है सबं गँ ॥
जगत् कटै ब्रह्मा है करता । मभ माहि सब बह बह मरता॥
ब्राह्मण को पज्जे संसारा जीव होय नहि भवते न्यारा ॥
पट् पठ् विद्या जग भमाषे। भक्ति पदारथ कैसे पावे ॥
पोथी पाठ पढे दिनराती। ये केवर अके उत्पाती ॥
आपं भरम ते निर्भय नाहीं । बहे जात है अ्रमके माहीं ॥
ओरनको शिक्षा सब देही । ताते भिरे न प्रम सनेरी ॥
पाप पुण्य का रेखा करदी। विना भक्ति चौरासी परी ॥
यह ब्राह्मणकी यह करतूती । ब्राह्मण पूजे दोय न शक्ती ॥
साखी-्रिग्गण भक्ति है जगकी, निगैण र्खे न कोय ।
सयंण निगंण दोह मिटे, क्ते रहित घर होय ॥
इह तरिुणदि कि भक्तिमे, जिन भूलो धम॑दास ।
उप्र निगुण जानिये, त योगीका बास ॥
पा
धर्मदास ॒सुनसन्त सुजाना । नराण सों अब करो बखाना ॥
निगुण नाम निरंजन भाई । जिन सारी उत्पत्ति बनाई ॥
बोधस्तागर ( & )
निशंण सों ज भया ओंकारा । तासों तीनों शण विस्तारा ॥
निर्ण सो मन भये प्रचण्डा । ताको बास सकट अह्मण्डा ॥
ओङ्कार आप निरञ्जन । नाना विधिके कये भ्यज्जन ॥
भति भौतिके वाटर स्वारा । करैखग निनो वार नर्द वारा ॥
ताके अंश सकल अवतारा । राम् कष्ण तामे सरदारा ॥
प्रण आप निरञ्जन होई । इनके फेर फार नरि कोड ॥
सगेण निर्युणहुकी करे सेवा । भक्ति करे अङ् पूजे देवा ॥
कृर आचार विचार न जाने। सो मेरे मन कभी न मनै॥
अन बोधे मन माई समाव । निज षद्को को नरि पते ॥
घन को बोध करे जो कोडं। मन पहुचवे पहवे सोई ॥
जाप निस्ल्न मादि समाई । अगे गम्य न कहू षाड ॥
देसे तीन लोकं सब अटके । खरे सयाने ते सब भटक ॥
हवि खनि गण गन्धव ङ देवा । सब् मिरु करें निर्न सेवा ॥
साधक सिद्ध साश्च जो भये । इनके आगे कोह न गयेड ॥
बहत प्रीति सो भक्ति विचारी । मिलन २ छीखा अधिकारी ॥
जाय निरञ्नन सो हो भेटा। कार ङ्प धर कर समेटा ॥
वही निर्जन का विस्तारा । तामे उरन्े सब संसारा ॥
जिधर तिधर राखे बिलमाई । रचना अनन्त अपार बनाई ॥
धर्मदास तुम. भक्ति, सनेदी । इन मै मत अटकावे देदी ॥
जन्म धरे छट नहिं भाई । ताते आप् कहो गहराई ॥
भक्ति गुप्त जान नहिं कोई । ततं सनेदी पावै सो ॥
साखी-इनते भक्ती गतत रै, सुन धमदास खजान ।
भक्ति करो भरमो नदी, सोई भक्ति परमाण ॥
धर्मदास-वचन चोपाई
हे स्वामी मं दं अज्ञानी । त भक्ति मोहिं कहो बखानी॥
तुम यह भक्ति कहां सों आनी । सोई बात मोर कहो बखानी ॥
( ७& ) भृवरतारणबोध
तुर्दरी भक्ति कौन विधि पावे । कौन भांति की भक्ति कदावे ॥
भक्ति करीजे कोन प्रकारा । ताको स्वामी कदो विचारा ॥
भक्ति २ सब जगत बखाने । भक्ति भेद कैसी विधि जाने ॥
सो निश्चय मोहिं कटो बखानी । केहि विधि छट भवकी बानी ॥
जाते सब संशय भिट जाई । ताते आप देहु समञ्ञाई ।
साखी-भव वाणीभ्रम दुख बद सुख कर सत गर् देव ।
भक्ति करो निष्कपट होय, सदा तुम्हारी सेव ॥
कृनीर-वष्वन चोपाई
कह कबीर सुनो मम बानी । मिति सार भैं कौं बखानी ॥
आगे भक्त भये बह भाई । करी भक्ति पे युक्ति न पाई॥
आदि भक्ति शिव योगी केरी । राखी श्न जग्म केरी ॥
योग करे ओ भक्ति कमावै । अधर एक नामे ध्वनि खावै ॥
सौ अक्षर है रकारा। तासों उपजे सकर पारा ॥
रंहे अधर ब्रह्मांड के माहीं । शिव जानतको जानत नाहीं ॥
तासन मेरी भक्ति नियारी । जको कष्या जाने संसारी ॥
ताको योगेश्वर नदि पावे। ओर जीवकी कौन चलाते ॥
शिवसों अधिक न कोऊ जाने । एसी माति छन बिल्कछाने ॥
सोड जीव आगे नि आवे । तीन लोक प्रयुता उठ जवे ॥
ठौर इमारो कैसे पावे। वहां गये बहुरि निं आवे ॥
धर्मदास कड वणन अपना । ब्रह्म पुत्र सेवे तिरि चरना ॥
सनक सनन्दन सनत्कुमारा । सनकादिकसे चारो अवतारा ॥
पांच वर्षं काया नित रई । ह्म लीन कोह पार न लरई ॥
ते बह्म दोय दोय गय । सनकादिकसे निश्चय भयऊ ॥
ध्यान ज करे निरजन मादी । निरज्नसों न्यारा कोड नाहीं ॥
निरज्न अंश दंस अवतारा । सकर सृष्टि है ताहि भैश्चारा ॥
बाोधसागर ५ 9४७
यहां ताहि कोई बिरखा जाने । आगे को कौन विधि माने ॥
इनकी भक्ति करे नर सोई । हमरी भक्ति न जानत कोई ॥
भक्त अनेक भये जग माहीं । निभय चर को पावत नाहीं ॥
भक्ति करै तब मक्त कहावे । भगते रहित न कोहं पावे ॥
भग थुगते फिर फिर भग आवे । भगते बचपन कोई पावे ॥
चौदह रोक बंस भगमाहीं । भगते न्यारा कोहं नाहीं ॥
न्यारी युक्ति परै तुमहिं दिखाई । तहां खतं रहै साध कहाई ॥
शुगते भग ओ भक्त कावे । फिर फिर योनी संकट अवे ॥
मेरी भक्ति युक्ती जाना) ताका आवागमन नशाना॥
भक्ति करे तब शुक्तिको रोई । न्ह तो बाना जाय बिगोडं ॥
भक्ति भेद बहुतक है भाई । नमर भक्तिं न काह पाई ॥
तुम जो ब्रञ्ञो भक्ति षकारा । ताका भेद सनो अब न्यारा ॥
भक्ति होय नरि नाचे गाये । भक्ति होय नहिं घंट बजाये ॥
भक्ति होय नर्हिं भूरत पूजा । षाहन सेवे क्या तोहि सज्ञा ॥
विमं विभल गावें अङ् रोवे । क्षण एकं परम जन्म को खोवे॥
षा साहिब मानत नाहीं । ये सब कार इव के छं ॥
मन ही गावे मन ही रोवे। मन दही जागे सन ही सोवे॥
जब रग भीतर लग्र न छागे । तब कग स॒ते न कबहूं जागे ॥
सत्य नाम की खबर न पाइ । का कर भक्ति करौं रे भाईं॥
ठैर ठिकाना जानत नाहीं । ठे मय रहै मन माहीं ॥
कृहन सुनन कों भक्त काव । भक्ति भेद कितु नहि पावें ॥
लग्र मेम बिन भक्ति न दोहं । सङ्गति को पावे नर्हिं कोहं॥
अपने सादहिबको न्द जाना । बिन देखे किहि कियो बखाना॥
एसे भख परे संसारा । केसे उतरे भव जट पारा ॥
सत्य भक्तिको नादी लागा । एेसे है सब जीव अभागा ॥
( €< ) भवतारणनोध
घमेदास तुम हो द्धिवन्ता । भक्ति करो पावो सतसन्ता ॥
एक पुर्ष है अगस अपारा । सब घट व्यापक सबसों न्यारा ॥
ताको नहि जने संखारा। ताको भक्ति मदानिजसारा ॥
सक्ति करे जबं उतरे पारा । खतं न्त्य कर सेवे सारा ॥
यड विधि मक्तिषदारथ पावे । शुक्ति दोय भव बहुरि न आब्॥
सवसागर ते उतरे षारा। फिरके जग नहि ठे अवतारा ॥
देखी भक्ति खुक्ति की दाता । जाकी गति नहि र्खे विधाता॥
भक्तिदी भक्ति भेद बह भारी । यदी भक्ति जगत ते न्यारी ॥
साखी-भक्तिषदारथ अगम एर, शुक्ति चार यंहि बार ।
पावे पूरण पुरूष को, जग नहि ठे अवतार ॥
धर्मदास वचन-चौपाई
धमेदास कटै सुनो शरसा ईं । पूरण पुर्वं बसे किहि गई ॥
केहि विधि सों सेवा कीजे। केसे चरणकमलू चितदीजे ॥
कोन भांति साधो सो भक्ती । सदशुङ् मोटि बताओ युक्ती ॥
सदगुङ् वचन
पिरे मेम अङ्क भँ आवे । साश्रु देख सन्धुख होय धावे ॥
चरण धोय चरणामृत खेवे । प्रीति सहित साधूको सेवे ॥
अन्तर छांड़ि करो सेवका । यहि विधि भवकेदुःख भिटाई ॥
जोह साधु प्रेम गति जाने। ता साधूकी सेवा उनि॥
परम पुरुषकी भक्ति दटावे । सते नृप कर तहं पचाव ॥ `
तासों प्रीति करो चितलाई । छंड़ो दुर्मति ओ चतुराई ॥
तबदी परम पुरूषको पाये । भव तरके जग बहुरि न आवे ॥
भवतारन संशय नहिं तोदं । दो क्षण होय तो रागे मोदी ॥
कीतहु बातकी फिकर न करना । कटी भक्तं निश्चय कर तरना ॥
बोधसागर ( ४९)
धर्मदास वचन-चौपाई ।
धर्मदास बे चित लाई । सकर वेद मोहिं देहु बताई ॥
निं रहित तुम्हारा नाड । कैसे भक्ति करो तेहि गँ ॥
हो स्वामी यह अचरज बाता । भक्ति करनको दाव न घाता ॥
सशेण भक्ति करे संसारा निश्ण योगेश्वर आधारा ॥
इन दोनोके . पार बतावा । तुम कैसी विधि तई मन खावा ॥
सत्य बात मोहि कदो युरसाई । कैदि विधि खतं खगाः धाई ॥
सगण पार न पावत कोई) मेरे भन बर संशय होई ॥
सतगुङ संशय देह निवारी । मँ जाऊ दुम्हरी बडिदारी ॥
सर्य॑ण निगैण मेद बताऊ । तीसर न्यारा मोदिं रखा ॥
मोरे मन पतयावत नादी । बहुत फिकर कीन्हा मनमाहीं ॥
हो समर्थं तुम सतयुङ् साई । दढ़तासे पको मम वाही ॥
सवै युक्ति बतरावो मोई । अंतर कृष्न शंखो गोड ॥
तुम सत् सत्य तुम्हारी बाता । मै याचक तुम समरथ दाता ॥
देह मों मै मांगो सो । सोह कलाव मिटे दिरू होड ॥
साखी-सत्य सत्य समरथ धनी, सत्य कर प्रक्राश ।
सत्य रोक पहुचायहो, इटं यम भव जास ॥
सद्वङ-वचन चौपाई
सुन धमन सब कहो संदेशा । तमको होय न भवका ठेशा ॥
भव तारण समर्थं है न्यारा । ताको नहिं जानै संसारा ॥
योगेश्वर वह गति नदिं पाई । सिद्ध साधककी कौन चलाई ॥
भक्ति दोय जगतमें भारी । भुव प्रहलाद सदा अधिकारी ॥
भक्तिमािं इन सम नहि कोई । रामकृष्ण प्रकटे नहि गोई ॥
दोनों जने दो बरत साधू । यही एक इष्ट अवराधू ॥
सतयुग भक्ति करी धुवराजा । पांच वषं आयू तत आजा ॥
न.७ कबीर सागर -३
( ५० ) भवतारणबोध
निकसे शह ते बाहर गये । नारदके उपदेशी भये ॥
छट मास प्रकटे इरि आई । राज दिये वैङकण्ड पठाईं ॥
खाठ इजार वषे दियो राज् । कटुम सहित वैकुण्ड विराज् ॥
एक दिवस जब प्रलय हय आहं । तहां तो पुनि ये देह गिराहई ॥
पुनि सासीप्य मोक्ष कर दीन्हा । परम पुरूषगति तब्ह न चीन्हा॥
काल पुङ्ष राखे सब चेरी । सत्य षुर्ष जग जाय न हेरी ॥
ेसे मक्त भये जग माहीं । परम पुषं गति पावत नाहीं ॥
भक्ति सथण करे यहि षावे । निर्गण मीं नाहि समावे ॥
जो सायुज्य दोय गति परी । देव निरंजन जाय हलूरी ॥
ज्योति स्वकूपी ताका ना । चारों शक्त बसे तेहि गड ॥
सारोक्यहि सामीप्य कहाई । सालूपी सायोज्य हाई ॥
चार शुक्ति जाके घर होई । ताको पार न पावे कोई ॥
ताके परे मोर अस्थाना । कैसी सक्ति कहा कों ज्ञाना ।
साखी -धुवकी गति तुमसों कदी, सुन धर्मदास सुजान । .
अपरम्पार न पावदही, पूरण पदं निर्वान ॥
चौपाई
सुन धमन एकं कृथा नियारी । बड़ी भक्ति प्रहलाद विचारी ॥
दिरनाढुञ्च दोनों बरकारा । ताके चर लीन्हा अवतारा ॥
तपके हेतु गये बन मादी । कोह बातको संशय नाहीं ॥
गभेवन्त होती तिहि नारी । इन्द्र आवाज सुनि अधिकारी ॥
नभवानीते महं अबाजा । इन्द्रास्नको छेदी राजा ॥
दिरनाङश चर जन्म धराई। सो द्वारास्न रेी माई ॥
इन्द्रहि संशय उपजो भारी । गभं वातसों देहं ठायी ॥
ये छल इन्द्र कियो अधिकारी । अपने देशि रे गयो नारी ॥
तेर क्षण नारद आये तदैवं । इन्द्रहिको समञ्ञायो जवां ॥
बोधसागर ( ५१ )
इनको गर्भं न चीरि भाई । भक्त होय स्वको सुखदाई ॥
गर्भहि माञ्च ज्ञान तेहि दीन्हां । नारद् एक काय बड़ कीन्हा ॥
हद् कीन्हों तेहि ग्भके माहीं । ववं हजार रही तिहि गही ॥
फिर नारी अषने पुर आईं । इन्द्रजीत दिरनाङ्कश वाह ॥
तहां जन्म लीन्हा ग्रहखादा । राम रटन रसना ठे स्वादा ॥
एसो रटन लगाये भारी) तामक्चभक्तन कोड अधिकारी ॥
केतो कष्ठ सहै सिर अपना । तबदही इख न व्यापे सपना ॥
हिरनाङुशके मनम आहं । राम तेरो मोहिं देह बताई ॥
खम्भ फार रीन्हों अवतारा । इरि नरर्सिह इय तब धारा ॥
हिरनाङश नख उद्र विदारा 1 अपनो जन प्रहखाद उबारा ॥
फिरके इन्द्रासन पहंचाया । सण यक्तिजान सब माया ॥
देसे इद्ब्रत रामहि गदिया । तेड इन्द्रास्नन अख छदिया ॥
एसे भक्त न दवे भाईं। ताकी गति तुमको स्चञ्चाई ॥
इन्द्रास्नको राज सुनाऊं । महा मोग बडे सुख पाड ॥
सत्तर॒दोय चौकंड़ी थुगता । बन्धनं भवके होय न सक्ता ॥
बड़ भक्त की कथा सुनाई । पृच्छो ओर कहो तोहि भाई ॥
साखी-इन्द्र राजसुख भोगकर, फिर भवसागरमाहि ।
यह सगुणकी भक्ति है, कबहु निर्भय नाहि ॥
धर्मदास वचन चौपाई
धर्मदास बलये चित. लाई । सतगुरु संशय देड मिटा ॥
सगुण भक्त घुक्त नहिं होइ । है वह एकहि या है दो ॥
यह संदेह मिटाओ मेरा। तुम सतगङ् मम बन्दी छोरा ॥
की सण को निग किये । भिन्न भित्र भेद मोहिं किये ॥
सकल सषि करवाते भयऊ । यही युक्ति काहू नरं कहऊ ॥
जो मोहिं उषर दया तुम्हारी । सब विधि किये शुक्ति विचारी ॥
( «२ ) भवतारणबोध
यह् संसार करसे आया) को है ब्रह्मा अक्को रै माया॥
अन्तर छाँडि निरन्तर भाखो । मोसन अन्तर कंद न राखो ॥
भक्ति सेद कटो मोहे स्वामी । तुम सब चटके अन्तर्यामी ॥
जीव काज आये जगमारीं । अब मोको कं संशय नाहीं ॥
सत गुरू भै आधीन तुम्हारा । तुम भवसागर तारन हारा ॥
साखी-निस्संशय पदं कहा है, सो मोहि कड ससुञ्चाय ।
भूमे भरमो नहि; तहां रदो खवलाय ॥
कहै सुने सुख ऊपे, जगमें आवे नादि ।
काल रहै शिर नायके, सो दीजे समञ्ञादि ॥
सदगुकूवचन-चौपाईं
कहै कतीर सुनो धमदासा । अब निज भेद कहो षरकाशा ॥
सुरत रुगाय सुनहु मम वानी । छान ख्व जो जिह्वा छानी ॥
सुक्ष्म गति अतिभारी अनी । ताहि जगतमें बिरखा चीन्ही ॥
आदि न अन्तहती नहि माया । उत्पति प्रख्यं हती न काया ॥
न्य शिखर नहिं तच्वन मूला । कारण सूक्ष्म नदीं अस्थूला ॥
आदि बहम नदीं ओंकारा । नहीं निरसन नहि अवतारा ॥
दश अवतार न चोविस शूपा । तब नहि होता ज्योतिस्वषा॥
पुण्य पाप काहू नहिं थापा । सोय ब्रह्म नहि सोह जाषा ॥
नरि तब श्युन्य सुमेर न भारा । कूर्मं न शेष धरे अवतारा ॥
अक्षर एकं न ररकारा । चिगुण शूष है नहि विस्तारा ॥
शक्ति युक्ति नरि आदि भवानी । एकं दोय नरह ज्ञान अज्ञानी ॥
शब्दं न स्वाति क् नरि होई । कटो विचार सुनो तुम सोई ॥
नर्द टदै बीज न्ह अक्रा आदि अमी निं चन्द् न सूरा॥
धर्मदास समञ्च के रदना । कों कडा क नरि कहना ॥
बोधल्ागर @ १,
धमंदास वचनं
धमदासत कह सुनहु साई । इन बातन बने की नाई ॥
कियेड संशय बे इक ठोरी । तुमहू इते के है कोई ओरी ॥
सत्य सत्य अब मो पँ कडिये । संशय रहितं सोई पद रदहिये॥
जयी वाचा ठे पी साई साध संत वम आप गर्घांईं ॥
सदर गुङ् वचन
कहै कबीर सुनहु धमदासा । सकल भेद यँ करिया भरकाशा।
जो प्रतीति हो मन महं तोरा । भवको मेदि शरण रहो मोरा ॥
धर्मदास डो सब माया ! अस्थिर अमर अखंडित काया॥
भक्ति युक्ते उपजी दै जासों। प्रेमहि छ्य ल्गाबो तासों॥
अब मै तोरि क्खाॐ जागा । ङटे जन्यं मरणको धागा ॥
जन्ममरण है अति दुख भारी । तासो तम को र्हं उवारी ॥
अब आपा को थापों नाहीं । देख खे तुम बाहर माहीं॥
साखी अब्र तोहि मेद बताऊ यै, निमंङु ठर नियार ॥
स्वे परे सब उपरि, देखो वहां अकार ॥
चोपाई
पुरूष कहो तो पुर्ूषदहि नाहीं । पुरूष इवा आपा भ माहीं ॥
शब्द कहो तो शब्दहि नादी । शब्द दोय माया के छादी ॥
दो विन हो नरि अधर अवाजा । कहो कडा यह काज अकाजा ॥
अभरत सागर वार न पारा । नहि जानो केतिक विस्तारा ॥
तामे अधर भवन इक जागा । अक्षय नाम अक्षर इक रागा ॥
नाम कहो तो नाम न जाका । नामधरा जो कारु तिहि ताका।॥
है अनाम अक्षर के माहीं । निह अक्षर कोड जानत नाहीं॥
धर्मदास तरै बास हमारा । कारु अकार न पावे पारा ॥
ताकी भक्ति केरे जो कोईं। भव ते टे जन्म न होई ॥
( ५९ ) भवतारणबोध
साखी-भवसागर भरमों नदीं, यही प्रताप हमार ।
निश्चय करिके मानियो, तुरत उतरिहो पार ॥
धर्मदास वचन- चौपाई
हे स्वामी यह अकथ कानी । आगे सुनी न काहू जानी ॥
योगेश्वर नहि पावें पारा यै क्या जानो जीव विचारा ॥
अचरज गुप्त तुम आय सुनाई । ताकी गम्य न काहू पाई ॥
ताकी भक्ति कर किडि भाती । शूप अशूप न पजा पाती ॥
कोन युक्ति सो भक्ति करीजे। अगम टेर कैसे कर लीजे॥
जस जानड तस मोर्दिरे चाल । तन मन छोड़ देह सुख पालू॥
अब् कषु मोस होवत नादी । सुरत समाय गईं तुम मारीं ॥
यदा वहा तुम समरथ दाता । मोक जान परी यह बाता ॥.
~ साखी-नाम कबीरा धरा क्यो, कारन कौन प्रमाण।
देह धरी तुम आयके, किये मोहि बखान ॥
चौपाई
सत्य कबीर नाम मे जाना । सो भवको क्यों कियो पयाना॥
एेसे सन्त जन्म क्यों धारा । किरि कारण लीन्हा अवतारा॥
सत्य कहो बन्धनम नादीं । निरबन्धन केसे जग मारीं ॥
देही धरी सबहि दख पाया । तुमही काहि न व्यापी माया ॥
पूछत हों गुरु बाता । रिस न करहू तुम समरथ दाता॥
साखी-पे पृछत दहित आपने, जीव सुक्तिके काज ।
साधु सन्त तुम सुजन हो, अब नि मोकों लाज ॥
सदृग् वचन-चौपाहं `
धरमदास कदो तुम साची । मिथ्या नरीं सत्य सुख बची ॥
तुम हो अंश दंस पति राजा । तुम्हरो मोह करन को काजा ॥
आदि अनादि समीपी मोरा । अब मे काज करूगा तोरा ॥
बोधसागर ( ५९4 )
व्हांसे वम्दीं दीन. पठ्वाई । यहां आय कर छागी काई ॥
काल पुरूष दीन्हा भरमाई । जिन सब ष्ठि बनाके खाई ॥
जग जीवनसों वुमदो नियारा । तुम्हरे काज लीन्ह अवतारा ॥
अवर काज मोर कडु नाहीं । हीं निरंतर जगके माहीं ॥
मोहि न व्यापे जगकी माया । कहन शुननकी ह यह काया ॥
देह नहीं अङ् द्रशै देही । रहो खदा जहां पुङ्ष विदेही ॥
यह गत मोर न जाने कोई । धर्मदास त्म राखो मोई ॥
आदि पुरूष निहअक्षर जाना । देही धर मँ वकटे आना ॥
गुप्त रहे नादीं ट्ख पावा। सो रै जगम आन वितावा ॥
जुगन २ लीन्हा अवतारा । रहं निरन्तर पकट षसास ॥
सतयुग सतसुकृत कह टेरा । उता नाम अनीन्द्रहि मेरा ॥
दवाप्रमे करना मय काये । कलियुग नाम कबीर र्खाये ॥
चारों युगके चारों ना । माया रहित रहे तिहि गँ ॥
सो जागह पहुचे नरि कोई । सुर नर नाग रहै शख गोड ॥
सबसे कहां पुकार पुकारी । कोह न माने नर अङ् नारी ॥
उनका दोष कद नि भाई । धमम॑राय राखे अटकाई ॥
गुप्त परसारा रै अति भारी । ताहि न जाने नर अङ् नारी ॥
शिव गोरख सोह पार न षावें । ओर जीवकी कौन चलते ॥
नवह नाम चौरासी सिद्धा । समञ्च बिना जगमें रहे अन्धा॥
ऋषि युनि ओर असंखन भेषा । सत्य टौर सपने नरि देखा ॥
जोर कहीं पतयावत नादं । बहुत कौ समज्ञा मनमाहीं ॥
कोह योग कोह मदके माता । कोह करै हम रखे विधाता ॥
कोड मान दिशा मन लवे। मौन दोयकर भूल `गवावे ॥
सत्य पुरूष की युक्ति न पाई । इदय धरे नि सत्यको भाई॥
कोहं कहै इम है भज नीका । काज अकाज र्खे निं जीका॥ `
( «& ) भवतारणबोध
कोरे करै इम पडे पुराना । तत्व अतत्त्व सबै कदु जाना ॥
कोरे करै विखा आधीना । सब विचार काया चीन्हा ॥
कोह कहै तप वश करि राखा । तप है शूर ओर संब शाखा ॥
कोह करै कमं अधिकाय । कमंहि सो उतरे भवपारा ॥
कोई कहे भाग्य छ्खिा सो दोई । भाग्य लिखा मेरे नरि कोई ॥
कहं रुग करौं यही सब कड । मेद॒ हमार न कोई लइ ॥
सब सों हार मान यै बेडा । ये सब जीव कार घ्र पेठा॥
साखी-सोड काल करतार सोह, भक्ति सुक्ति तेहि दाथ ।
मेरो कल्यो नहिं आद्रे, परपची बड़ साथ ॥
मनि प्रपची मनहिं निरजन, मन री है ओंकार ।
फन्दा दै अयि लोकं का, कोइ न भेवतें न्यार ॥
निरंजनहि निवन पद, कही तुम्हीं दितवन्त ।
योग यती संन्यासं गत, कोइ न पावत अन्त ॥
सत्त सुते म रमि रहा, सुतं शब्द् तेहि हाथ ।
रेसी अगम अपार गति, वीन लोकके नाथ् ॥
सौपा
सात ञ्युन्यका सकल षसारा । सात शन्यते कोइ न न्यारा ॥
सात सुतंका भेद बता ताभ ज्ञान सकर सभरुञ्जाॐं ॥
उत्पत्ति प्रलय दै वाके मारीं । इन गति सों कोह न्यारा नादीं॥
प्रथमहि अमी सुते निज टरा । तहां निरेजन कन्दा दौरा ॥
वहां जाय अमी के आवे तादों अजर बीज उपजा ॥
सोह बीज रक्तं भ धरदीं। यदह विधिषों वह उत्पति करहीं॥
बीजहि जरका रंग काया । तासों रची सकठकी काया ॥
दरजी मूर सुतं तेदि संगा। घट २ माहि बनावे रगा ॥
तीजी चमक सुतं अंबारा। नौ नारीमें क्या पसारा॥.
नोधसागर ( ५७ )
कोड तहां बहत्तर॒ करई । रोम रोम अक्ति सब धरई ॥
चौथी शछ्ुन्य युतं है भाई) धमंदास भै तम्हं कुखाई॥
पचम सुते श्रवण सग होड) ज्रुभ ओर अश्चुभ सुनावे दो॥
छट्वे सुतं ठिकाना भाषो ठव वि स्वाद तिहि चाखों॥
सो तो रहे कण्टके द्वारा । बाणी याषा कहै विचारा ॥
सप्तम सुतं रहै तन माहीं । दय से कट न्यारे नादं ॥
ब्रह्म डप धर तहां वह वैटी ! शप्त पसार करू धट पेंटी ॥
कोड न जाने ताको अरमा । ज्ञानी ध्यानी सबही भरमा ॥
खात सुर्तका कहो विचारा 1 धर्मदास क्क वार न पारा ॥
सात कमर का भेद बता । कमर २ की युक्तिं लखा ॥
मूल कमल है मूली द्वारा । चार पखुरियां है विस्तारा ॥
तहां विनायक देव विराजा 1 मर द्वार कमर सति जजा॥
ता उपर एल दै दृजा । षटदक में ह्या कौ पूजा ॥
तीजे कमल वपांखरी आया । नाभी माहि सार सो गल ॥
तहां वाखदेवं द्य ठाना । कष््मी सहित बं भगवाना ॥
चौथा पद्म इदय में होई) देव यहेश बसें तहं सोह ॥
षोडशकमल आत्म परहिचाना । शक्ते अविद्या कटं बखाना ॥
घृघ्च॒ कमर पखुरी है तीनी । सरस्वति वासतदहां वुनि कीन्हीं ॥
सप्तम कमल जिङ्टिके तीरा । दय दर भार्दि बसे दय वीरा ॥
शशी ओरसयं प्रकाशकं घटका । यह सब् खेल निरंजन नटका ॥
अष्टम कमर बह्मांडके मारीं । तदी निरंजन दसर नाहीं ॥
आठ कमल्का बनो ठिकाना । धमंदास बड़ भागी जाना ॥
साखी-सप्त कमं अश् श्ुन्य सत, सात सतं अस्थान ।
इक्कीसों बह्मांडमे, आप निरञ्जन ज्ञान ॥
राज निरंजन देखता, ठाव गंवं भरपूर ।
रसातल ङ ब्रह्मांड रमि, कहू निकट कटं दूर ॥
( «८ ) भवतारणबोध
चौपाई
खुन धमनि सब जगत बखानी । तुम अपने मनमंहं कक जानी ॥
आदि अन्त सब तुम्दं रुखाईं । उत्पत्ति प्रख्यकी गति षाई ॥
उतपति परलय सिरजन हारा । मेग॒मेद निरंजन पारां ॥
तासे जगत न काहू माना। ताते तोहि कों भं ज्ञाना ॥
जो कोई माने कहा हमार । सो ईसा निज दोय हमारा ॥
असर करो फिर मरन न होई । ताका खट न पकड कोई ॥
फिरके निं जन्मे जगमादीं । कार अकार ताहि दुख नादीं ॥
सुखसागर खख मूर बतावा । बड़ भागी दसा काहू पावा ॥
अंङ्करी जीव जु होय हमारा । भवसागर ते होय नियारा ॥
प्रणहि प्रतीत करो मन लाई । ताको यह पद देय लखा ॥
सुतंव॑त साचा जी दोहं। शरण तुम्हारी गहिहै सोई ॥
सासी- प्रथमहि दद् प्रतीत है, दोय भक्ति अक्र ।
भाव प्रीति सेवा करे, देउ ज्ञान भरपूर ॥
| ` घमंदास वचन-चोपाई
हे स्वामी मै तुमको चीन्दा। आदि अन्त मेद सब लीन्हा ॥
तुमहीं वार त॒मर्हि हो पारा तुमहीं सों उपजो संसारा ॥
तुमहीं दहो निज पदिरे पारा । तुमहीं सकल जगत सो न्यारा॥
गप प्रकट म सब विधि जाना । तुम दीं हो तहँ षद् निरवाना ॥
णेसी अगम गम्य तद नारीं । मै बल्लो अपने मन माहीं ॥
पूरण कृपा करी तुम साहं । मेरे मन क संशय नाहीं ॥
भव तारण तुम संशय वारण । धर ओ अधर दोनोके धारण ॥
समथं सब गति पायड तोरी । अब सब संशय भागी मोरी ॥
भयो सनाथ तव दशन पाये । माया छट परम पद पाये ॥
छटा काल निरंजन मोरा । जन्म मरणके टरटे डोरा ॥
बोधसागर ( ५९ )
अब भवम मे बहुरि न आऊँ । तुमरे चरणकमङ चित्त ला॥
येती युक्ति न काहू पाह सो साहिब वुम मोहि ल्खाई॥
जान परी मोहि वम्हरी बाता । वम सम ओौर न कोई ताता ॥
चौरासी सों कीन्ह उवारा 1 बह्करि जन्म नहिं होय हमारा ॥
समञ्च ब्रह्म करिहौ सिवकाई । छंडो ङलकी खाज बड़ाई ॥
परदा तो रिया क्षण मादीं। जगम कोहं काह को नाहीं ॥
अपने -अपने स्वारथ आई । परमारथ काहू नहिं पाईं ॥
ये सब जगत निरंजन माहीं । पांच तीन सो सब उपजाई ॥
पांच तत्व तीन गुण भारी) इन ते युक्त दिखाई नारी ॥
पानी पवन पृथ्वी आकाशा । सब पर तेज किया प्रकाशा ॥
रज तम सत तीनों यणजाना । बरह्ला विष्णु सहश बाना ॥
साखी- पांच तीन पर अहि निरंजन, यह मायाको डाट ¦
तासों सब रचना करी, भांति भंतिकी घाट ॥
सद्गुङ् वचनं
चौपाई
कं कबीर सुनो धर्मदासा । सकल मेद म किया प्रकासा॥
त॒म सन अन्तर कद्र न राखा । जो कड्ुहता सोकड् सब भाखा॥
अब तुम भक्ति करो ददृताई । छांड़ि देव इरुलाज बड़ाई ॥
पिरे कुर मर्यादा खोवे। भव सो रहित भक्ति तब होवे॥
कुर की भय सबही को भारी । कां को पुरूष कहां की नारी ॥
ताते यम को बन्धन कीन्हा । काज अकाज न काहू चीन्हा ॥
ताते प्रदा दूर निवारो। सेवा करो सत्य मन धारो ॥
परदा साथ कारु की गासी । यह बन्धन दुनियां सब फांसी॥
राजा परजा बडे लीना । परदे काठ मर्म नहिं चीन्हा ॥
सेवा करो छांड़ि मन दूजा । गिरही सेवा भिरही परजा ॥
( &° ) भवतारणबोध
शरूसों कपटे करे चतुराई । सो हसा जग भरम आई ॥
ताते शुरू सों परदा नारीं षरदा करे रहै भव मारहीं॥
गुरू दे मात पिता शङ् सेवा । गु सम ओौर नीं कोई देवा॥
गुरू दे खसम ओर नरि दूजा । जाने अश हंस गुर् पजा ॥
श्सो परदा कबहु न करिये । स्बेस ठे गङ् आगे धरये ॥
साखो-ग॒रूकी महिमा को के, शिवं विरंचि नहि जाम।
गुरू सतशुर् को चीन्दिरयां, ते पचे निज धाम ॥
चोपाई
घमंदास सुन जगत बताॐ । चौक आरती तोहि ख्खाड ॥
अगर चन्दनका चोका दीजे । ज्योति बराय आरती कीजे ॥
पांच तत्व पाचों है बाती । बाहर भीतर ज्योति समाती ॥
मानिक दीपकका उजियारा । यहि बात जाती बिस्ताय ॥
शतपात रे हो सुख भारी । श्रेत खटाई श्वेत सुपारी ॥
यदी विधि चौका विस्तारी। मेवा अष आन तहं धारी ॥
मेवा कदलि कपूर मंगावो । कदली फर सोई ठे आवो ॥
पुदप पूरु सुगन्ध सवारो । भांति भांति व्यंजन अबुसारो॥
तनमन धन तब्र अपण कीजे । प्रेम सहित रेषो सुख लीजे ॥
पांच तत्त्व को भोजन कीज । ब्रह्म आत्महि त्रप्त करीजे ॥
काया माया को सुख येही । यह सुख करके मिलो विदेही ॥
मिलो विदेह देह धर नारीं । बरूञ्च ठेहु तुम यह मन मारीं ॥
अब् क्र कहनेको नहि रदिया । युक्ति इती सो सब हम कदहिया॥
भव छूटन को यही उजागर । याही विपि उतरे भवसागर ॥
सत्य सत्य यह बात हमारी । जो कोई समञ्च करे नर नारी॥
भक्ति करे शुक्ति फल पावे। हमरे सत्य लोकम आवे ॥
करै कबीर सुनहु धमंदासा । टे कमं भमं सब फांसा ॥
बोधसागर ( &१ )
धर्मदास वचन
साखी-कर्म भर्मं मवं भा सब, दिये भारम ओंक।
सतयश्के परताप सों मिट गये सबही धोक ॥
सदर वचन
साखी-यह भव तारण अन्थ ई, सतथुङ् का उपदेश ।
जो मन माने प्रीति केर, पहुचे हमरे देश ॥
चौवाईं
गुप्त भेद सुनहु धर्मदासा। आवि आप भये प्रकासा ॥
भूक ॒वस्तु बीज रै भाई । उपजे विनशे अवि जाई ॥
निह अक्षर ते अक्षर भाया । अक्षर आदि अमी उपजाया ॥
आदि अमी किये सकर षसारा । फर रहा कड नारिं न न्यारा
सोह कला अमीके मारीं । श्वेत बीज ज्ञकके तेहि उदी ॥
श्वेत बीजका भूल है माया । तासों बची सकल्की काया ॥
श्वेत दीजका सकर पसारा । तामे जीव खिया अवतारा ॥
तब अक्र अमी ते भयऊ । पारस अंस फेर सब गय ॥
साखी-उत्पति परलय बीज गति, बीजहि अवे जाय ।
गुप्त प्रगट जो ङछहती, सो सब दिया रुखाय ॥
निह अक्षर अक्षर भया, अक्षर किया प्रकाश)
मनते पमाया उपजे, मायाञ्ियुणहि षप ॥
वांच ततत्वके मेरे, बांधे सकल स्वप् ।
माया ब्रह्म जी तत्व अङ, रज सत तम भिय देव॥
इन सब दही को छोड़कर, करनिह अक्षर सेव ॥
५६२)
भवतारणबोध
जो चाहो सोहे भिरे, मानो मोर विचार ।
यरी भेद जाने बिना, कोड न उतरे पार॥ `
भव भारी मर्मइ भिरे, संशय शरु न होय ।
हसनमे जो रम रहा, शरण गहै नर्हि कोय ।
कहै कबीर ध्भंदास सों, छोड़ो तुम संसार ॥
यह मेरी प्रतीत कर, तारो इर परिवार ॥
अश वंश परिवार निज, नाद् बिन्डु गङ् शिष्य ।
जो चाहे निह अक्षरि, शुक्ति अकं सोह लिक्ख॥
इति श्रीभवतारणबोध् समात्र
सत्यपुङ्षाय नमः
अथ श्रीषोधसागरे
वुञ्चद्शस्तरगः
भ्रीग्रन्थ भुक्तिबोध
सदृगुङ् वचन-चौपाई
ये शङ् गम संशय करख्ेखो । प्रगट ज्ञान तब वस्तु परेखो ॥
अनुभव आदि कुछ कों बखानी । सुनिये सन्त गह गवानी ॥
अनंत कोट जग आगे चरुगयेऊ । अचरू अमानताहि पुनि रडेड॥
साढ कोट जग ओरो बीता । सषि रचनाकी इच्छा कीतां ॥
वह् तो अचल पुरूष है अन्ता । बिन गरूदया न भेट भगवता)
कोट कथे कथनी नहिं पावा । जबरग शुङगम नहीं बतावा ॥
साखी पद दै कोटन वाणी । पुङ्षं एककं सुमरो पानी ॥
ज्ञान सुरत ओ शद उचारा । यइ सब दीन्ड कीन्ह संसारा ॥
अचल पुरषं को सुभिरे कोई । जीवत शुक्ति सन्तकी होई ॥
साखी पद् बोरे बहु बानी । आदि नामको बरला जानी ॥
आदि नामका भेद निनारा । तिना सतय इडे संसारा ॥
सोह जाने जाको बड़ ज्ञाना । शप्त मता तिनहीं परिचाना ॥
साखी-आदि नाम निज सार है, ब्रूहि रेह हो हस ।
जिन जानो निज नाम को, अमर भये ते वंश ॥
आदिनाम निजमन् है, ओर मन्त सब छार ।
कृहे कबीर निज नाम बिन, बूड़ मरा संसार ॥
(६8 ) सुक्तिबोष
आदिनाम करं खोजड प्राणी । जाते होय शुक्ति सदिहानी ॥
सूलमन्ञ सन्न सरं साचा । जोगहि जरेसोनगरहि पड चा ॥
आदि नाम जेहि खाजत भेटा । जरा मरन को संशय सटा ॥
आदि नाम निःअक्षर साचा । जाते जीव कार सों बाचा ॥
निःअक्षर धुन जदहवां रोई । ताहि जपे नर॒ बिरला कोई ॥
जाके बरक अवे संसारा । ताहि जपे नर हो भव षारा ॥
ग॒तप्त नाम गुरू बिन निं पावे ' पश गङ् हो सो$ छखखावे ॥
सार मन्ब ल्खे जो कोई । पिषधर संडवा नि्म॑ङू रोई ॥
आदि नाम सुक्तामणि साचा जो समरे जिव सषसां बाचां ॥
आदि नाम निज सार है भाई । जमराजा तेहि निकट न आई ॥
जब रग गुप्त जाप नहि जाने । तबरग कार इटा नहिं माने ॥
गुतत जाप ध्वनि जईवां होई । जो जन जाने बिरिला कों ॥
शप्त मता ङे पुरूषदिं चीन्हा । जबते गुर् मोहि दिक्षा दीन्हा ॥
तात वरण प्रथु वरण विहीना । सकल मनुष्य नग्र नहि चीना॥
सूर् मन्ञ जेहि पुरूषके पासा । सोहं जनको खोज ठे दासा ॥
मूल मन् रै ओ सब साखा । कँ कबीर भैं निजके माखा ॥
लिखो न जाय कहै को पारा । द अक्षरम जो पातै निरबारा ॥
ख्ख न जाय छिखामे नाहीं । गुरू बिन भेट न होवे ताहीं ॥
साखी-प्रीति पिना नदिं पाये, जो नहि सुतं समान ।
पुरूष दीष तब ॒पावई, जबहीं तजे अभिमान ॥
चौपाई
परम पुरुषस भेट न भयऊ । विन गङ् दयाभ्रगटना करेडः ॥
धर्मदास यै कहों समुश्चाईं । निशैण भेद कोड बिररे पाई ॥
तुम तो जीव प्र बोधो जाई । जमराजा परपंच रूगाई ॥
सोधसागर ( &4 )
जीवहि राखे फन्द रपँदाईं । शब्दबान महं मारो जाई ॥
शब्द् बान भँ तम क दीन्दा । जीवको देह ख॒क्तिको चीन्डा ॥
नाम पान सों इख बचादही । शब्द सुतं छे ग बन्धाही ॥
ज्रग॒बांधे मारे नहि कोई । खख जतन चतुरा जो होई ॥
सबको ब्रू ताहि गहि खीजे । छत सम्हार ताहि चित दीजे॥
डार पको जो कोई धरई । बिना शुक सो जीवन तरई ॥
गप्त मता जो ष्करे भारा) आष तरे ओरन को तारा ॥
कृरे विवेक ताहि ठदहराई । सोह पुरूष को षषे भाई ॥
ताहि सन्त थापों परणाली । सदा भरो राखो नहिं खारी ॥
जो प्राणी लीजे उदहराईं। हंसराज ते करी है भाई ॥
साखी पद बोरे सब कोईं। बिन परिचये खुक्ति नदिं होई ॥
अगम अगोचर गत व्यौहारा । गहौ ताहि उतरौ भव पारा ॥
यहि धन राख जीवनको जाई । कर बनी जी कङ्कं इट न आई॥
यह पूजा है. अगम अपारा । खचहु खा बह बडे विस्तारा)
यह धन मिरे भाग बड़ केरा (ध धन सोच गाहकं बडुतेरा ॥
सा
पुञ्ी सेरे नाम है जाते सदा निहार)
कृ कबीर मै पुरूष बक, चोरी करे न कार ॥
चौपाहे `
जो जिव रै निज नाम समाना । भये शुक्त जो खोक सिधाना ॥
सोई हस का तुम सत टखेखो । अक्षर माहि निरक्षर विवेको ॥
धर्मदास वचन
के धर्मदास सन्त के दासा । यङ् मेटो मेरो जमको जसा ॥
नाम निःअक्षर कहो उतपानी । आपै तँ कैसे के जानी ॥
( &६& ) सुक्तिबोघ
सद्यर्त् चन
क्रं कबीर धमंदास सुजानी । अकह हतो तादी कटो बखानी॥
जब नदिं रोक दीप विस्तारा । तब नाहं सुकृति करी संसारा॥
तब नहि धरती अमर सुमे । तब नहिं इतो अमल ओ कु३े₹॥
तब नहि सशि षकं पसारा । आपं अकह तब इता निनारा ॥
सकर सशि उतपन कड नादीं । तब सब उतपन कहा सब नादीं॥
दते आप तब शब्द्हि स्वालखा । इच्छा भये कीन्हे उजियाला ॥
इच्छा ते अनदद् ध्वनि बानी । सुरत संभार शष्ि उतपानी ॥
सुरत भीर तेहि माहि समानी । इच्छा तं अतुभव उतपानी ॥
तब ते अक्षर भेद निनारा । साखी षद् कीन्हा निरवारा ॥
अकह अचल पुरषं तहां आपू । नहिं दख सुख नहीं सन्तापु ॥
सबका भूल ताहि सों छागी । उलट समाय सोई बड भागी ॥
साखी-कटं कबीर जो. शब्द् रखि, रहं सुतं लोटीन ।
कबीरा सुतंके समय, निश्चय रखोकको चीन ॥
जाके चित अनुराग रै, ज्ञान भिरे नर सोय ।
बिन अबुराग न पावै, कोट करे जो कोयं ॥
चौपाई
सत्य शब्द जो अवे हाथा । सकलो काल नवाते भाथा ॥
साखी-कारु खड़ा सिर उपरे, कारु नजर नहिं आय ।
कं कबीर बलं शा › जम से जीव छड़ाय ॥
पा
नाम अमर मल्यागिर भाई । पीवत विष अषरत हो जा३॥
निशि दिन रहे मल्यागिर संगा । विशन लगे सो तिनके अंगा ॥
साखी-काल रिरे शिर उपरे, हाथों धरे कमान ।
कृहे कबीर गह नामको, छोड़ सकर अमान ॥
बोधस्षागर ( &७ )
चौवाई
नर॒ नारी जो गर्भहि धरहीं। नाम तिना पुन नकि परीं ॥
सुनो संत हौ शब्द रसाला । गृहो ताहि जो हो उजियाखा ॥
जाके जिव निज नाम समाना । ता कहं कारु अमर कर जाना॥
विनती कर पे धमदाघ्रु) दोह कर जोर रहँ यङ् पास ॥
सतर कै सुनो धम॑दास्ा । शब्द बान छेव हमरे पासा ॥
मँ गर् भयो शब्द मोर हाथा । सब घटवाह नवे माथा ॥
साखी-भाग बड तेहि जीवके, आय मिरे मोरंग)
पुरूष मिरे वहि बह ध्र, सुख विरासे एक ॥
चोपाई
जब हम रहे पर्ष के माहीं । काहि कों कोड इखरे नाहीं ॥
कृहे कृबीर सनो धमंदासा । होय निःशंक मेटा जमतासा ॥
मेटो मर्म दोय निःशंका । काय गद् जीत बजावे डंका ॥
भयो प्रकाश गर् भेद बतावा । जीव बोध सतलोक पडावा ॥
साखी-जमराजा बड़ दारण, महा विकट बह्यंड ।
ताके डंका खनत री, भय माने नवं खंड ॥
नाम॒ खङ्ग दद् राखहू, गदो, खतं सम्हार ।
कारु सो जीव उबारिके, पटवहु भव जलपार ॥
चौपाई
जवते अजर पुरूषको चीन्हा । तबसों काल भये बरु हीना ॥
साखी-यदौ वहं कदि जीव छुड़ाये, काल रहे सिर सांध ।
सुतसमावे चेतन चौकी, रहै न जमके बांध ॥
आदि नाम तेदि पुरूषके. सुनत तजि अभिमान ।
कृहै कबीर सुनो दो संतो, तजो नरककी खान ॥
८ &८ ) सुक्तिबोध
चोपाई
कासो कों कदा नदिं जाई । मेरी गत मत ब्ूञ्च न पाई॥
ह्मि दास दासन के दासा । अगम अगोचर हमरे पासा ॥
यरा वरां यदि दोनों ठँ । सत्य कबीर किमि मोर नाउ॥
जो न इते हमहीं पुन सोई । नाम विना भूरे नर रोई ॥
सखाखी-कोरि जाय संसारम, ताको शुक्त न होय ।
आदि नाम है सुक्तका, जाने बरला कोय ॥
चौपाई
शत जाप है अगम अपारा । ताहि जपै नर उतरे पारा ॥
सुक्ति न होवे नावे गाये । सुक्ति न होई सृदेग बजाये ॥
मुक्ति न हो साखी पद् बोले । सुक्तिन दहो तीरथके डोरे ॥
ग॒प्त जाप जाने जब कोह । कहे कबीर घुषिंत मर होई ॥
सेत सुभाग रर् दाया कीन्हा । आदि नाम ईंसनको दीन्हा ॥
साखी-सोई नाम संसार मेँ, उदित अमोरु अपार ।
ताहि नाम विन युक्ति नि, बूडि सुआ संसार ॥
चौपाई
कृथा कीति कहँ गदगद बानी । मुक्ति न होय बिना सहिदानी॥
केता कहो कदा निं जाई । नाम गहेसो पुरूष भि जाई॥
सार शब्द परवाना देहै। जीव जडाय कार सो रहै ॥
साखी-फनपति बीरन देखके, राखे बन्दिं सकोर ।
बीरा देखे नामके, काल रहे मुख मोर ॥
चौपाई
सोहं शब्द निरक्षर वासा । तादि भिन्न कुर जपिये दासा॥
साखी-जो जन हद जोदरी, सो धन छेदे गाय ।
सोद जाप सब जगतएः मिथ्या जन्म गमाय ॥
बोधसागर ( ६९ )
साखी वद संसार में, कहन सुननको कीन ।
चीटी आहं पुरूष की, सो घन खेहो चीन ॥
जो जन हरै जोँहरी; तो कहनेका जोग ।
बिन सतशुर् ना यावई, भटक श्रुये सब लोग ॥
चोपाई
जब बानी मुख बाहर आवा } भाग षडे तिनही पुनि पावा॥
कोट जतनके जीव सशरञ्चावा } बिना भागते नाम न पावा ॥
शुक् गम रहं सन्तके पासा । सो नहि परे कालके काँषा ॥
जो कह पुङ्ष अपन कर जाना । सोई भक्त अन्तर्भ॑त उना ॥
धमंदास् वचन
धरमदास कँ कर॒ जोरी । बंदी छोड़ बिनती छन मोरी ॥
तब साहब अस बोरे बाती । ठठं छडायं राखो निजसाती ॥
तुमको दीन्दीं भक्ति अपारा । नाम जपो त॒म अजर इमारा॥
जो ना ब्य कहा न करई। मुक्ति न होय नरकमें प्रई ॥
श्रवण माह करं दीन्दं भाह। तौ न विवेके आ तैटाई॥
नाम सने मोर मो कहं पावें । जाम जालिम तेहि देख डरें॥
साखी-सब कर नाम सुनावहू, जो आवे तुव पास ।
शब्द हमारा सत कहत हों, दद् मानो विश्वास ॥
चोपाई
जो जन गृह तनि ठे वैरागी । जहां जाय तहां संगे लामी ॥
साखी-मूल केकान जो लागे, रहे रहन ठहरय ।
वह साधू भमे नहीं, सो नहिं नरके जाय ॥
कहै कबीर तज भमं पिटारी, नान्ह होयके पीव ।
तज अभिमान गदो गुरुचरण, जमसों वाचे जीव ॥
( ७० ) घुक्तिबोध
चोपाई
आदि नाम निःअक्षर नीरा । तौन नाम छ जीवहि तीरा ॥
आदि नाम ॐ पच चलाई । सोई सन्त प्रमान काई ॥
थापो ताहि दं उङकुराई । जबरुग रददी मोर ॒दोहाई ॥
गहि मोर नाम मोदहिमाहिं समवे। ओर नामते मोहि न पवे॥
सोई नाम सन्तन सदिदानी । आपं मिरे ख्ेवे पदिंचानी ॥
उदितनाम निरभय उजियारा । ताहि नाम सो जीव उबारा ॥
कं घर्मदास सत गुर् सुनरीजे । अगम पंथ को कैसे दीजे ॥
सद्गु वचन
कहै कवीर पे भरु आई । अगम पन्थगम करौं बुञ्ाई ॥
अगम पन्थ है विकट विकारा । तासों कब न होवे पारा ॥
शीतर शब्द् लेह सहिदानी । उतर जाहि कड शंक न मानी॥
जाय मिरे पुरुषि के पादीं । जेतिक जीव तुम्हारे बाहीं ॥
| घमदास वचनं
अनददं शब्द बहुत विस्तारा । कैसे येह मेद तुम्हारा ॥
स॒षुङ् वचन
आदिः नाम पुन तद्वा होई । नो धत बञ्चे बिरिखा कोई ॥
सुरत परम होवे गरूताना । ताको भिरे निजपद् निर्वाना ॥
सुरत बांध जब गरूर समवे । वस्तु अगोचर तबहिं पावे ॥
तज अभिमान मिरे जब आई । ताको दीजे एेन दिग ॥
सब तज रहै रहन ठदराई । ओ छंड़े सब रोक बड़ाई ॥
ताको दीजे वस्तु अपारा । कदं कबीर सुन शब्द हमारा ॥
गत॒ गरीब रदनसे भारे । तन मन धन सन्तनप्र वारे ॥
लोकं खाज कुल तजे बड़ाई । तब पग परस भम॑ भिरजाईं ॥
विन विश्वास भरति परकाशा । प्रीति बिना नहि दुविधा नाशा ॥
बोधसागर ( ७१ )
गङ् से शिष्य करे चतुराई । सेवा शीन नरकम जाई ॥
संतन वारं तन मन धामा । सोहं संत मरे ममनामा॥
साखी-होय विवेक शब्दके, जाल मिरे प्रवार ।
नाम गहे सो पहुंच है, भानो कडा इमार ॥
चौपाई
नाम उदित सो संत पियारा । मारो कार हय जर छारा ॥
जिन जिन नाम सने ह काना । नकं न प्रे होय अक्ति निदाना॥
आदिनाम जेहि श्रवणन नाहीं । निश्चयसो जिव जम चर खादीं॥
सुमरौ पुरूष काठ डर कषा । भौमाने नाहीं सिर चंपा॥
नाम निरक्षर सुपि जब पावा । कार अपबरु निकट न आवा ॥
साखी-आदि नाम ह पारस, मन दै भेला लोह ।
पारस परख उजियार भये, टे बधन मोह ॥
- चौपाई
कृ कग कहौं कहन नरं षारा । नाम गहे सो संत इमारा ॥
आदि नाम जस सार के गौसी । रागे बान गवं रहै वसी ॥
साखी-सतग॒ङ् मारे बान भर, डोरे नदीं शरीर ।
का चाबुकं वह कर सके, सुख लागे वह तीर ॥
गौसी खगे सुख भये, मरे न जीवे कोय ।
कृं कबीर अमर श» प्राणी, जो नहिं भृतकं दोय ॥
चौपा
छागे जहां वस्तु सो पावा। बिन लागे को भेद बतावा ॥
नाम अमर रस चां कोई । ताको जरा मरन निं होई ॥
अक्षर यपत सोई मँ भाषा। ओर शब्द स्वार अभिलाषा ॥
साठ सुत्रके सुने जो भे । यह गति जाने भिरा केड ॥
पाताल सुत्र रै बारह खंडा । बारह सत्न कों ह्मंडा ॥
( ७२ ) खुक्तिबोध
बरद सन्न आकाश बताई । बारह सुन्न पुरूष के ठाई ॥
बारड खन्न करो अनुमान । कहं कबीर गु्से हम जाना ॥
साखी-अकडह सरू सब सुन्नके, सन्न सकल ब्रह्मंड ।
तहवां से बस्ती मई, सात द्वीपं नव खंड ॥
सोपा
चार पदारथ एक पथ सादीं । बिन श॒क्् नर करं बश्च नाहीं ॥
अदेख देखे कथा जो कथडई । आपे परस दोऊ ता मथ ॥
कथनी कथे प्रतीत दढा३ । मथनी शब्द् अभय पद् पारं ॥
जब देखे ओरे नहि माने । तज पाखंड सत्यको जाने ॥
तहां संत को ठे जमरावे। जाके जीवसदहिदानी पावे ॥
सो जाने पुन दमार ठिकाना । ता कँ दीजे निज सदहिदाना ॥
नाम अमर रस मनुवा पगे । होय रौलीन तहां सो रमे ॥
गहि पकरे नर सुतंकी डोरी । तासों काल करे नहि चोरी ॥
इट के मनवां आदि जो थीरा । कें कबीर सो सांच फकीरां ॥
सत्य समोय ठ परदरई । दाग न लागे सत्य सो तरह ॥
जाक शङ आपन कर लीन्हा । नाम नेति इंसन्को दीन्हा ॥
जे तन क्के नाम समाना । भक हेत सोई सब जाना ॥
जबलग भक्ति अंग नदि आवा। सार शब्द कैसे के पावा ॥
स॒त्य नाम श्रवणन में वोषे। ज्यों माता बारुकं कं पोषे ॥
जहां गर् भक्त तदां छो ठे । सुने ज बाह शरुकितिगत पावे ॥
साखी-सुर्तसमानी नाम रै, जगमें रहे उदास ।
कहै कबीर निज नामदही, चट राखे विश्वास ॥
चौपाई
जाके उर विश्वास न आवे । भति अग सो कैसे पावे ॥
सुरत दृढाय निसदिन तं जागे । सक्त दोय कदु बार न रागे ॥
बोधक्षागर ( ७३ )
चटी निशंक मन मगनरहाथा। सो नहि केरे काठके हाथा ॥
जो जिव मायासोंखो लावा गहे कार द्घुखं बात न अवा ॥
सोई सन्त समाधी. मारी । जाके जीव सदहिदानी डारी ॥
साखी-गरर्के शब्द साध्रुकी पंजी, बणिज जाने जो कोयं |
कहं कबीर तो बद सवाई, हानि न कबहूं होय ॥
चौवाई
जबर्ग सार नाम नहिं आवे । तवर्ग प्राणि श्चुक्ति ना षवे ॥
सार नाम विन सीपके मोती । उपजे बहत बिना इर खेती ॥
साखी-येहि विधि करे किसानी, पोता तरू बर हयं ¦
भक्त मिरे कोह वीरला, दाम देय सब कोयं ॥
मूल्हा मोर नाम दहै, द्रगाहे युङू मान)
सव सन्तोसों ल्यिफकीरी, डार सकर अभिषान ॥
चौपाई
आदि नाम जे संतनमाहीं। जमका करे निशंक डरनाहीं ॥
आदि नाम है अक्षर माहीं । गर् विन नकं पुन छ्टे नाहीं ॥
सोहं मेँ निः अक्षर रहाही। विन शर्क कौन देह ल्खाई ॥
चीन्दै परे आवे विश्वासा । खोक वेदकी टे आसा ॥
चीन्दे आदि निःअक्षर वानी । छृटे भर्मं होय बह्म ज्ञानी ॥
कहं कबीर सन्त सोह भागी । जाके सुतं निरंतर रागी ॥
नाम चिन्ह पे कों पुकारी । नातर बडे गे मञ्यधारी ॥
कों शब्द मानो नर लोई। आदि नाम बिनसुकरिति न होई ॥
गुरुके कहे मँ कों सदेशा । नाम क्षै सो पचे देशा ॥
गुर्के शब्द जो माने नाहीं । सुषि न हो बूड़ भवमादीं ॥
साखी-जम भासे बल बांधे, कों पुकार पुकार। `
गर्की जास न होति तो, खाते उनको फार ॥
( ७8 ) खुक्तिबोघ
चोपाई
जाको दोय शङ्को विश्वासा । निश्चय जाय पुश्षके पासा ॥
नर प्राणी कीजे इतबारा। गरूके कैम करों पुकारा ॥
के कबीर मिखन विन आशा । भिखन मये मेँटे विश्वासा ॥
निशिदिन रहे निजनाम समाना । तब जाने भजनी परवाना ॥
यर सब कों प्रमारथ काजा । यदी पाखंड नर अश्स्चेवाजा ॥
अक्षर आदि निज नाम सुना । जरा मरनके भर्मं मिटा ॥
सोरे के संग आये संसारा । सो गङ् दीजे मों उपचारा ॥
ताको ममं जान जो पावा। सो साधू जगम नहिं आवा ॥
साखी-यह अवसर नदिं पावर, परमे ले उबार ।
भवसागर तर जायंगे, षणे ठेहि ऊबार ॥
पाईं
प्त मता पावे जो कोई । गेही तज वैरागी होई ॥
अक वस्तु तब निज के पाई । तब पाखण्ड कंद नहि आई ॥
अजर पुरुषको खोजहू प्रानी । के कवीर कोई सन्तसमानी ॥
आदि नाम सो सुरत समावे । निरभय अक्ति अमरपद पावे ॥
गुरुके शब्द् जीव दृट् करहं । सोई सन्त भवसागर तरईं ॥
मनके सुख बृञ्च भमं फांसा । ब्रूञ् जायन दहो सुख बासा ॥
सुरत सम्हार कदत हम तोदीं । पीछे दोष न अवे मोही ॥
आदि नाम जो अमीरस चाखे । पांच पचीस बांधके राखे ॥
साखी-प्रेम पन्थ जे पशु धरे, देत न शीश डराय ।
सपने मोह न व्यापे, ताको जन्म नसाय ॥
` चौपाई
तन मन धन सन्तन परवारा । सोई सन्त निज् हित् हमारा ॥
का करं अमर भरी मँ देऊ । तेहि सन्तनको निकट बोला ॥
बोधसागर ` (७4 )
सोइ संत सतगुङ् युखदासा । अजर पुरषं जहां अजर परकाशा॥
अनन्त कोटजाको पार न पवे। को अस दृषरे यङ कहवे ॥ `
दम तुम नारि पुषं सब माहीं । जहां है सोह तहां इम नाहीं ॥
ताहि खस्म चीन्दे नर खोई । तन धर प्रगट पुङ्ष न होई ॥
अकह अमान पुर्ष जब रदे । नाम निःअक्षर तासों भये ॥
ताहि नाम को सुमरे कोई । सुर नर नि इन्द्री वस होई ॥
अधर पियाला पियरस साचा । एेसी रहन रहै सो साचा ॥
पियत अमीरस अधिक सुहाये । अधिकं पिये पुनिवास नस्षाये ॥
साखी-षांच पचीसों तीन यणः; एक् मिद्य राख ।
आदिनाम अनभय उच्चरो, तन मन धन सो चाख ॥
धन परखे धनवन्त जौ, ज्ञान इष्टि जो होय ।
आधे गरू पिन ना सुञ्चे कोटकरे जो कोय ॥
चोपाई
कदे कबीर भम जब छट । मुक्ति भली साची कर ट्टे ॥
कहे उपचार कं परदा नादीं । विन गुरू नरको स॒ञ्चे नाहीं ॥
कथनी कथे कथे का होई । गङ् विन अक्ति न कबहू सोई ॥
शब्द् रूप दमहीं होय आये । हमहीं होय कंडिहार काये ॥
महीं नाम प्राण यह माहीं । हमदीं सन्त मदं तेहि पाहीं ॥
साखी-ज्ञानदीपक सुरतकी वाती, दीनो संतन हाथ ।
दीपकरेके खोलिये, निस दिन सतगुरू साथ ॥
ज्ञान दीपक प्रकाशकै, भीतर भवन उजाछ ।
तहां बेठ पुरूषको समरो, सदजे होय निहार ।
् चौपाई
सो भजनी सबसी से ऊँचा । जोई अमर ओ मतका डवा ॥
यदि विधि भजन करे जो कोहं । तीन लोकम वास न होई ॥
( ७& ) खुक्तिबोध
रोकं वेद् कंसे भरम नसे । होय सुदृष्ठि प्यास्को पावे ॥
यड् संसार असख कर जाने । सत्य पुरूषको जो पहचाने ॥
कै कीर या तनको सोघो । पांच पचीस तीनको बोधो ॥
एक् नाम बिनजग जस श्वाना । कोर करे नहिं खुक्ति निदाना ॥
साखी- कदं कबीर ये सब सए, रहि विषधरकी धार ।
जो जीव सतु पावि, ते जीव जगसे उबार ॥
चौपाई
बिरिखा जन कोई भक्तिरि खरं । जो धिर होय तो भक्तिरी कई ॥
आपी पुरूष ओर सब नारी । सेवक भये सकल देदधारी ॥
अचर अमान जो अकह कहावा। ताकी गत बिरला जन पावा॥
आदि पुरूष को बिरला पावा । ब्रह्मा विष्णु शिव पार न पावा॥
साखी-असरत वरण ये सूरत, ताहि कों गण पेख ।
गुरूकी दाया सो लखे, सुरत निरतकर देख ॥
| चोपाई ¦
निः श अक्षर निगुण सो जाने । ओर सकर जग शण नहि आने॥
तीनों गुण छे सगेण बोके । निर्ण तनके माहीं डोरे ॥
आदि नामसों सब जग वाधा । आदि नाम जाने सो साधा ॥
आदि नाम तदं अक्षर धारा । ताहि नाम छे सब विस्तारा ॥
आदि नाम देव शंकर भय । ओर नाम है नरके सुभाञ ॥
पद् साखी निश्च कर जाने । आदि नाम कै मूल बखाने ॥
मूल मंच जने सो कोई। ताको आवागमन न रोई ॥
भूरे लोग कर इम पावा । म वस्तु विन जन्म गमावा ॥
प्रम अभागी मूल निं जाने । डार पत्रमे पुरूष बखाने ॥
साखी-अचर पुरुष एके रहे, अजर दीप द स्थान । `
कै कबीर सवाग विराजे, तादि पुरुषो जान ॥
बोधस्ागर् ( ७७ )
चौपाई
नि,अक्षर षवे नहिं सोह । केसे के स्थिर वाणी होई ॥
जव लग गुक्सों करे न नेहा । तबल्ग भाणी प्रेतकी देहा ॥
आदि नाम अभत तन पावा । जाति षांति इरुधर्मं नसावा ॥
आदि नाम है गुप्त खंषारा।जो षवे सो होय हमारा ॥
संत कुल तोर भम इल तोरे । संत साध् सों नाता जोरे ॥
तज पाखण्ड वैरागी होई अपने पिया को पते कोई ॥
साखी-कहो कार का कर सके, पुङ्ष नाम जेहि षाद ॥
निशण निंदक पच ॐ युरूका नहीं विश्वास ॥
पा
युश्ष नाम जेहि परिचय होई । सब भेषन मे गङ् है सोई ॥
ताकी महिमा अगम अपारा । खोक वेद तजं भये नियारा ॥
अचर पुरषं जो अचलहै देशा । आदि नाम केकर परवशा ॥
जाहि वस्तु में मिटे दुख ददा । सख सागर तहां परेम अनंदा ॥
अशुण सरण होड अगरा बाजे । दोउ दर्तजिके पुरूष विराजे ॥
कहं कबीर या भक्तिके मूला । अकड अमान अचर अस्थुला ॥
अव्रण वरण सो मेद निनारा । घट घट वसे छिन्त तनधारा ॥
ताहि पुरूष को चीन्दं प्राणी । घटम रहे निकस ना जानी ॥
तदी किये खसम खुदाई । कोन कपट से आवे जाई ॥
कौन पुरूष म रहे समाई । सो प्रथु है संतन सखदाई ॥
यह सब धन अनुभवकी वानी । खोजी होक सो प्रवे प्रानी ॥
देख परख आवे विश्वासा । अगुन सगुन के सवे तमाशा ॥
सत्य शब्द् कटि दीन्ह सदेशा । जरा मरन का मिरे अदिशा ॥
संत संदेश यर मोदी दीन्हा । जे जन होय ताहिको चीन्हा॥
करै कबीर है वस्तु अपारा । ताहि वस्तु गहि उतरे पारा ॥
( ७ `) खुक्तिबोध
सुल मंज सब सथिके बञ्चे। अगम अगोचर तब कडु सुञचे॥
जो वस्तु इषि मे आवे । सोइ वस्तु कारु धरि खावें ॥
यड् घन भिरे देखे प्रणधारी । ताको दीजे भेद विचारी ॥
खाखी-बिन देखे बोरे जख, अंधरा हायि परेख ।
बखिदारी वहि सन्तकी, निरख परखके देत ॥
चोपाई
तन अभिमान सब स्वैरी धरदीं । भूल मन् कैसे रुख परदीं ॥
होय नरि दास धरे अभिमाना । ताहि न दीजे अनुभव ज्ञाना ॥
खुक्ति भये संतन हित कीन्हा । शुक्ति भली प्रकट कहि दीन्हा॥
कं कबीर तेहि को बखिहारी । पुन अनुभव में कदं पुकारी ॥
साखी-समजञ्ञाये समञ्च नरी, धरे बहुत अभिमान |
गुर्के शृग्द उच्छेद्के, कटत सकर हम जान ॥
चौपाई
बोरे बचन बहत विस्तारा । आदि नामविनधटे अँधियारा॥
पुरुष न चीन्दं फिरे थुलाना । निश्चय परे सोह नकं निदाना ॥
एक नाम बिन पारन पावे मिथ्या प्राणी जन्म गमावे ॥
देख प्रे सोहं सब भाषा । ओर कहनकी है अभिलखा ॥
जाकर सज् घट करे समाई । ताते साधू देहि रखा ॥
अधिक भरे ञचे से सीजे। सो माया जो ङ्च ङ्च पीञे॥
ओर सींचे अनुभव धन देखे । ओर सकर मिथ्याधनरेखे -॥
इरष शोकं .दोऊ परिहारे । दोय मगन गुरू चरणे धारे ॥
अजर अमर सो अक कदावे । जो धन भिरे सो संत कदावे॥
साखी-यह धन पूजी यरूकी, भाग कड़े जिन पाय ।
कृहं कबीर आय नहिं रोग, नित खरचे अङ् खाय ॥
बोधसागर ( ७९ )
चौपाई
यइ ना अवे अमर प्रकाशा । जो धन खोज धनके पासा ॥
यइ धन मिले दोय बड़ भागीं । सोह सन्त पगा वैरागी ॥
केरे विवेकं वस्तु है न्यारी । यह सब है सपनेकी ब्यारी ॥
ताहि गहे नर सुरत सम्हारी । सोहं सन्त पूरा हितकारी ॥
बारा राशी मन्ब चौवीसा । यह सब है सपनेको ईसा ॥
विन परे नर आह जो करई । निश्चय जाय नरक सो व्रई ॥
जो नहि मोक्षके शब्द् विचारा । तिनहिं काल ङे करै अहरा ॥
सारा नाम विन सक्ति न पतै । बूड़ मरे पुन थाह न अवे ॥
निदकं नरक परे नहिं तरहइं । चार खट म भर्मत कफिरड॥
देह धरे नहिं सतं ददाह । उपजत बिनास चौरासी जाई ॥
साखी-भमं जाल संसार है, सब अङ्ञ्चे भवं भीत )
कोहं कँ जन एक है, मनम राखो मीत ॥
चरणामृत जो पायके, दृढ़ राखे विश्वास ।
निर्भय सक्ति पाइये, पप दीपकी वास् ॥
चौपाई
सुतं दीपकी अकथ कहानी । अगम अगोचर अन॒भव वानी ॥
अक सुतं जह अगम अपारा । ताहि गहे उतरे भव पारा ॥
लखे अंक जो अकह कहानी । अगम अगोचर अनुभव वानी॥
तजे पाखण्ड सोई निर्वानी । सोई सन्त कहवे ज्ञानी ॥
साखी-पुकूष सार सों न्यार है, दीखे सबहिन मीत ।
ज्ञानहषि में जगसों टे, जो जन प्रेम पुनीत ॥
करं कबीर द्रसाये, जाके उर निश दिन रहै ।
सोहं करे य॒रूवाय, क मारे संसार है॥
( <° ) सुक्तिबोध
चीरी उतरे दूरसौ, ताके सिर वेराग।
नाम गंदे पुरषं पावरीं, तब गुरु प्रगटे भाग ॥
चोपाई
पावे वस्त॒ मगन होय रदईं । चदे ना उतरे राख जौँ कईं ॥
होय निशक नटि चित्त डलावे । जो जेहि सुते धरे सो पावे ॥
अकह अमान पुरूष है सोई । तन धरि प्रगटे पुरूष न दोई ॥
मूल वस्तु पावे बड़ भागी । देखिये साखो षदे नागी ॥
कटि न जाय अकह को देखा । गरक दया सुतं सो पेखा ॥ -
साखीपद के तहां न काजा । आप पिरे सोह सेश विराजा॥
अनुभव शब्द जरां ठदहराना । को कह सके न जाय बखाना ॥
देख परख आवे परतीती । तब॒जेहै चौरासी जीती ॥
तदं नरीं तम दतिया भाऊ । आप मेटु तवी सब गाऊ ॥
वहां बेट अमृत फर पाड । जब निःशेक बहर निं आञ॥
गर के शब्द दय मो आना । ता नरकी भइ ुकिति निज जाना ॥
कोटि असुर की राई अवे । दद् विश्वास सन्त जेहि पावे ॥
कृं कबीर है शब्द सुदेला । रु पूरा सूरा दोय चेला ॥
साखी गुर परश शिष्य सूरा, बाग मोरि रन पेठ ।
सन्तसुकृत कं चीन्हके, तव तखत पर बैठ ॥
इति मुक्तिबोध समाप्त
घत्यघ्ुकत, आदि अदली, अजर, अचिन्त, पर्ष,
एनीन्द्र, करूणामय, कवीर्, रति योग्, संतायन,
धनी धमदास, च्रामणिनाम, सदशन नाम,
कुरूपति नाम प्रबोध यस्बाछापीर, केवछनाम,
अमोढ नाम, शुरतिसनेदी नाम, इक्नाम,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम
उग्र नाम, दया नामको वज्ञ
व्याटीस्रकी दया
अथ श्रीषोधसाशरे
4
षोडशस्तरंगः
श्रीग्रन्थ चोकास्वरोदय.
प्रथम प्राण योग जो भाखा । कारज सिद्ध जो बाहर राखा ॥
प्राणायाम भेद सबहीको सारा । कारज सिद्ध वेद् व्यवहारा ॥
वोर सूप इम आनि निमाये । आधेकोनर आधकी नारिबनाये॥ `
` नँ.७ कबीर सागर -४। ~
( ८२ ) चौकास्वरोदय
सखो स्वरूप ह आदि निशानी । सत्यस्वरूप सो जीव समानी॥
रथस शब्द्सुरतिस्खृति निमाया । जितने वेद् ओर रोक बनाय्॥
तिये इच्छा अंङरकू कीन्हो । उत्पति प्रलयः सौपि सब दीन्द॥
त॒तिये साया मन विस्तारा । तिनके बीज जीव संचारा ॥
चौय सुर चददि परकाशा । शु भेद तिहिमोँहिनिवासा॥
पौचयदिविशरातओरतिथीपसारा। तापर सूयं चन्द्रकी धारा ॥
एक नारि एकं पुरूष कावा । चन्द्र सुयेनाम तिन षावा ॥
राखी- तिनको भेदं शरीरम ब्रते, वांच तत्वं निजसार ।
कं कबीर सोई रुख, पूर मिरे कडिहार ॥
चौपाई
काया भम॑ मेद अधिकारा । नीर पवन दोह अस वैरा ॥
नीर नामते उत्पति होई । नीरदहि स्यि मरे न कोर ॥
दुसरा पवन अगकी धारा । तापर सोहे ञुरति वेरा ॥
पवन भेद दै अगम अपारा । आदि अन्त सब कीन्ह वसारा॥
पवन डारि स्वासा अवगादा । विन सद्गुर पावे नहिं खाहा ॥
तापुर सूयं॑चन्द्रकी धारा । सुखग चन्द्र ओ सूर्यविचारा ॥
तिनकर भेद जो न्यारे करऊ । स्यं चंदर भेद दोर धर ॥
दिनि तिथि पक्षसकरांति विचारा । तापर पांच तत्व विस्तारा ॥
सूयं उदय संपूरण केदेड । भेद अभेद मं सब ख्ये ॥
मंज उदौछे हि मासको भाजे । सूर्यं सनेह सो तहां विराजे ॥
पुथ्वी तत््वपर सूयं जो आवे । क मासको शुभ दिखते ॥
चरको छांड़ि तततव जो बोे । प्रख्य कारके छ जो डोरे ॥
जञलदि तच्वपर अस्थिर होई । ताको कष्ट होय नदिं कोई ॥
वायु तत्व कीयो विस्तारा । किंचित कारज होय संसारा ॥
वौोधवागर ( ८३ /
तेज तत्त्वपर सूयं सवारा । भीतर बाहर सोग अपारा ॥
जब आकाशतत्व जो आवे । हो भंग सब काज नशते ॥
शुभदि अद्म दोदी निरता । मकर भेद छह भास वतिं ॥
पक्ष मेद कदं अब सोहं । अधियारा पक्ष सूर्यको दोहं ॥
मकर संकांति
तेहि मँ सूर्य चन्द्रकी धारा । तीन तीन तिथि कीन्इ विचारा॥
कहि अंधियारा कदि उजियारा । रवि शशि मंगलस्य सम्हारा ॥
चारि अंक गहि भेद विचारो । धरिकैे ङष्णयक्ष निधाररो ॥
फिर काया में वेढे जाह काया सूं ख्हो निरताहं ॥
साखी-काया सूरज जब उगे, होय पृथ्वितच्वं असवार ।
तबि शु शभ जानिये, कारज श्जुभ सौवार ५
अब चै कों चन्द्रकी धारा । कके संक्रांति मास विचारा ॥
तहां जब उदय चन्द्रको दोहं । अथवत सुं उगे नि सोई ॥
चलहि तच्च सूर्यं॑स्षवारा । छेह मास आनन्द विचारा ॥
घरदि छाँडि जो बोरे आह । तो कारजसिदध होय नहिं भाई ॥
चरम रहै तत्व नदिं रोदे । देश उपद्रव देखो सोहं ॥
पुथ्वी तत्त्वपर चन्द्र सवारा । परमानन्द ओर ज्ञान विचारा ॥
वायुतत्वपर चन्द्रकी धारा । किंचित कारज होय संचारा ॥ `
तेज त्वपर चन्द्र जो अवे । पथम दिशा ककह उपजावे ॥
आकाशतत्वपर चन्द्र सवारा । भीतर बाहर कष्ठ अपारा ॥
पुथ्वीमे उदय चन्द्रको के । शङ्कि पक्ष भेद अब रदेड ॥
दोर तिथी पक्ष उजियारा । ताते केवर चन्द्रकी धारा ॥
तामे मेदामेद बिचारा। तीन तिथी चन्द्रसूयं निधा ॥
सोम शुक्र गुर् बुध जो दोहं । चन्द्र सनेह चारि दिन सोहं ॥
रवि शनि मंगलवार विचारा । तीनि दिनिको सूयं सिरदारा॥
( ८ ) चौकास्वरोदय
खाखी-दिन तिथी पक्ष संकांति रै, बाहेर चार विचार ।
सबको सूर है यादिभे, सो पूणं चन्द्र उजियार ॥
दरव चन्द्र कायाम सोई ।जोञ्गे तौ सब सुख होई ॥
जलके तत्त्व चन्द्र असवारा । भीतर बाहर अनन्द् विचारा ॥
पंचतत्व अब सिन्न जो केड । तततव भेद सब न्यारे रहेड ॥
जल्के तत्व सुफल घर चन्दा । परेम विखास अती आनन्दा ॥
पुथ्वीतत्व चन्द्र जब आवे । सूरज मिरे आन उपजावे ॥
वायु तत्तवपर चन्द्र समाई । चित उदास छे गवन कराह ॥
तेज तत्वपर चन्द्र जो होई । उत्तम मध्मम कारज होर ॥
अकास तत्त्वपर चन्द्र सर्वगा । श्ुल्ककारज जो होय अभंगा॥
अकास तेजजल तत््वन आवे । करि अकाज तहँ करह समातै॥
साखी-एते भेदं सवं है, चन्द् सनेह विचार ।
काया चप ज्चुभदेखि हो, तो ञ्जुमडु विचार ॥
बानी भेद
अब मे कदो बानिका रेखा । ज्ञानी होय सो करे विवेका ॥
प्रथम बानि की गिनीजो होई । अण्डज बानी समानी सोई ॥
दुसरी बानीं रविगन करी । पिडज बानिमें बो सही ॥
तिसरी बानी इईंगन जानी । सो उषमजमे जाय समानी ॥
चौथी बानी रिगन अवै। अजल खानिमे जाय समवि ॥
पांचवी बानी सिगन रोई । नरदेदी मे व्यापक सोई ॥
बानी पांव भेद ओ माहा । बिन सतय नदिं पावै थाहा ॥
प्रचै बानी त्वहं होई । पाचों ध्यान जब आप सोई ॥
ध्यान भेद
प्रथम प्रान ध्यान है भाहं। सो कौगनमें ठे नितराई॥
दूसर आपनो ध्यानको रेखा । गख बानी करे विवेका ॥
बोधसागर ( ८4 )
तिसरे समान ध्यान व्यवहारा । रिंगन वानीको करै विचारा ॥
चौथे उद्याना ध्यानको ठेखा । रिगन वानिको करै विवेका ॥
पांचईं॑ बानी सिगन रेखा । वियानध्यानसो किन्ह विवेका ॥
सासी-पोच ध्यान पच बानी, पचे तत्व विचार ।
पोच भद्रा पोच तत्व, पोँचे ल्य घरसार ॥
लग्र भेद
अवमे कहं लग्र व्यवहारा ! बार लगन कीन्हे निरधारा ॥
तिनके लक्षण नाम सनां । चन्द सूर्यको येम बताऊ ॥
कमं करोर सूर्यके सोई । ्ञाभे के क्मं॑चन्द्रते होई ॥
पचो उदय सूर्यं जब अवि । पृथ्वीतत्त्वपर जो धर पावै ॥
करूरकमं सब सिद्ध निवासा । तहँ चलि चौका भेद पकाशा॥
भकरहि उदय पक्ष अधियारा । तिथि सनेह बीती नहिं वारा ॥
काया उदय सूयं है सारा । पृथ्वीतत्वं हयं अक्षवारा ॥
ईं लग्र जमुनी है नामा । विगड़ हस पटहे निज धामा
चन्दको वार सूयं तिथि होई । तांसो जगपति किये सोई ॥
तन छूटे तदां जन्मनि चहिये । ओर स्नेह जगपतिके किये ॥
एसे कमं करके किये । जेतिक इसके कारज किये ॥
बावड़ी विहार कूप तलाई । भोजन मिथुनहि युद कराई ॥
इतने कमं मे तुम्हे सुनाई । ओर कर्मं बहतेरे भाई ॥
संत॒साधुको एते किये । ओर कमं अकम सब दिये ॥
करर कमं है चौका सारा। मृतक कर्मको कीन्ह विचारा ॥
चारहं वेद् भेद हम कहै । सूयं सनेह भेद ॒निर्वहेऊ ॥
जो कोई पिंड मायाम करदी । सूयं सनेह जीवं उर धरही ॥
छुटे कमं जन्म तहं धरदहीं । दीन मान भोग तहां करदीं ॥
चन्द्र॒ सनेह पिंड नहि पावे । अमत रिरे अर् कार सतावे॥
( <& `) चौकास्वरोदय
करौ गया कहौं नहि गगा बिना सूयं सब कारज भंगा ॥
जो कोई रोय बहत कंडियारा । तुम सुनियो यह भेद विचारा ॥
इतने सूयं ल्के लच्छन । तत्वे विचार सूयं यह दीच्छन्॥
खाखी-तत्वमेद सब सूर्यको, सो मे कट्यो बखान।
कहै कबीर घमदास सुन, यहं टरकसार असमान ॥
, चन्द्रलश्च मेद्
सुयैमेद दम क्यो विधाना । चन्द्रमेद अब कों परमाना ॥
चन्द्रसनेद श्चभकमम॑बिचारा । ककैसंकांतिते चन्द्र नि्धारा ॥
योगसिद्ध में भेद विचारा । उदयतत्तव जल चे मंञ्ञारा ॥
छै मासको शभ ह सोई । इतनो भेद ककैते होई ॥
पक्ष ॒चन्द्रको दै उजियारा । तापर केवल चंद्रकी धारा ॥
दोर तिथि चंद्र सूयं समाई । तीन चन्द्र तिथि सूर्यं बताई ॥
चन्द्र सनेह जो वार है चारी । सोम ज्ञुक गङ् बुद्धि विचारी ॥
कायाचन्द जब उगे आई । तब सबं उदय चंद घर पाई ॥
नाघर उदो तो सर्वं अभगा । करत कायं सब होई दै भंगा ॥
जर तच्वपर चन्द्रं असवारा । कायं॑सिद्ध दो इसवारा ॥
पौचों स्नेह चन्द् घर आवे । तब ॒पृनौ संपूरण पवे॥
` ताहि लग्नको प्रतिमा नाउ । अखंडित चंदर बरते सब गऊ ॥
ताहि लग्र सिख बोधौ जानी । चौकाविधि कीजे विक्खानी ॥
-सोईं अकरि जो हस हमारा । जिन यह स्नेह चौका विस्तारा॥
सोई लग्र गदि नरियर मोरौ । जिमि कालसो तिनका तोरो ॥
जुभक्मके कदेड परमाना । ओर कमंके कंदी विधाना ॥
प्रथमम चौका जग विस्तारा । दान पुण्य होम जग सारा ॥
वाग वृक्ष पएूलदि फुलवारी । यहि मठ जारा सेन्य अचारी ॥
राजदर्शन बनिज म्यवदहारा । स्नान ध्यान गुरूनेम अचार ॥
बोधसागर ( ८७ )
ओषध सूरी विवाह सगाई । सर्वं पहेर अङ् छत्र वेडाई ॥
श्ुभरी कर्म॑ चन्द्रके देसे । छक्षण देखि चलौ तुम तैसे ॥
साखी-चन्द्रकमं ञ्चुभ सब कहे, धुण निं निर्धार ।
आर भाव तो बहुत है, के कीर विचार ॥
चौवाई |
अब सुनियो कक आदि निखानी । चांसे ल्य कशो षिरक्ानी ॥
प्रतिमा चन्द्र लग्र है सोई । जश्रुना उदयस्थं निज होई ॥
जो तिथि चन्द्रसूर्यं दिन अवे निधय छग जेयति तँ पबे ॥
जो तिथि चन्द्र सूयं हवे बारा । जगयपति ख्य धर्यं संसारा ॥
वार ल्मे कारको फंदा । धरे नाम जिव करे निकन्दा ॥
सोरहे पारस रुगन विचारा । चौदहकी राति छखि बटयारा ॥
जगपति मेद ल्ग्रसों नेहा । ल्य्रसुर्यके अयइन सनेहा ॥
जगपति खथ र्यके दोर । नेहर चन्द्रको से सोई ॥
दोई ख्ग्रको भद न पावे । जञ्चुनी प्रतिमा ईस शक्ताव ॥
चारि चोकाको प्रमान
चौका चारको सुनहर विचारा । भिन्न भिन्नके कों निरधारां ॥
प्रथम चौका जन्मको कीन्हा । अंश सोरह नारियर लीना ॥
सोरह धोती ओर असी सुपारी । ठग इलायची ठे समधारी ॥
दो इजार पानबीससेर मिष्टाना । सोरह हाथ चन्दवा ताना ॥
दसै रती सोननके खरीपा । सोरह मासा धरेजो ङूपा ॥
दलकीअभ्रतिटकासोर भारसेदी। भरि भांडे एक थारी छदी ॥
इक लोटा इकं बेला रहं । इक आरी आब रखि देई ॥
बच्छा सहित दी गाय शपेता । इहिविधि चौकाकर बडदेता ॥
पिरे क्म सब जाई जराई । इदिविधि चोका करे बनाई ॥
तन मन धनसों पीत गावे । सोवा सत्यरोकेम जावे ॥
( << ) सोकास्वरोदय
प्रथम चोका विधि
अब से करो एकतरी बिधाना । एकोतरिनारियलख्चौका प्रमाना
लग इलायची धोति सुपारी । इकतोरी सब वस्तु विस्तारी॥
पान भिगई अवर पकवाना । इकोतर सह सबको बंधाना ॥
दश अर् कमर आरतीसाजा । खसो जपे इको समाजा ॥
इकोतर जन्मके पाप नसाई । कमं अकम सबे मिटजाई ॥
निमंरु रेस दिरम्मत देही । पहुचे जर्हैरी पुर्द विदेदी ॥
द्वितीय चौका विधि
अब सहेज चोका कदो प्रमाना । जीवसंग एकनरिथल बंघाना ॥
अस नारियक सम धरदी। विना मंज नरि चौका करदी ॥
छठे मास चोकाकी पूजा छडि चौका पज नहि दजा ॥
टे मास नि पहुचे भाई । बरस दिनामे विसरिन जाई ॥
जो जीव शिष्य हमारा होई । दमरी पूजी पूजे निं दोर ॥
पूजी बहुत दुख पावें । तन दछ्ृटे जमकाल सतावे ॥
ममता पिरे कू ठोरे न पावे । फिरि फिरि जक्तदि देह धरावे ॥
दुख अर् सुख दोन थुगतावे । एकदिनाम पुर्ूषको गवे ॥
छोकजात बार नदीं लवे । चोका सहजिहि भति करावे ॥
् चाल्वा चौकाविपि
चाल्वा चौका कों विचारा । बाहर नरियलङे विस्तारा ॥
आढ सुपारी पन्द्रदसो पाना । लग इरायची के बंधाना ॥
पृन्द्रद सेर मिग रे आवें । बारह धोती आनि जदं ॥
पाँच मंडे घातुके दोहं । सोरद दाथ चन्दोवा सोई ॥
पांच खंभको मण्डप गदृवे । नये पुराने वश्च मगवावें ॥
सो प्रदा गदिरेके. देहं । गीत मंगर कर माटी लेह ॥
` तिहि माटीकी वेदि बनावे । वाँछा सहित गाय चढवि ॥
बोधसागर ` (८९)
साश्रु सन्तको भोजन करावै । पन्द्रह सेर पकवान चाव ॥
चार पहर सब साज जो करदी । सोरह सुतकी पोसी धरही ॥
चार पहर निस बेठक करही । शर्यस्नेह चौका विक्षतरही ॥
सुरती सुरत सु्यंयर जोरे । पृथ्वी तत्त्वे नारियर मोरे ॥
ओरह भाव बहुत दँ माई । जो सघुञ्चे सो बिचि न जाई॥
अमी अकको बीरा पव बिगड़ ईस रोक को अवे ॥
पान प्रसादे वश हेतु ठे) पियेषर नाम इभारा ठेह॥
टे दंस कमके पारा । चोर उदय घट घुं विचारा ॥
चन्द्र हेतु तिन चौका करदीं । चन्द्र ङ्यको कार जिद उरदी॥
चौथा चोका चल्वेका एहै । सूर्यं छ्य निजही मनमे है ॥
देह धरे नहि कर्मं सतावे । सहजे जाथ प्रम षदं पावे ॥
चारों चोका एहि विधिकरे। सो ईसा तरदै ओ तर ॥
सहजको चौका वासनमं निरतावे। इतने मेद॒ टकसार ख्ख ॥
भेद ॒चुरामणिखण्ड अपारा । चुरामनिबस एहि भेद विचारा॥
उन्दको नाम प्रताप है सोहं । इहतो भेद कडिहारको डोह ॥
जोन अंङ्करी वोहित कडिहारा । सो यह पावे वंस टकसारा ॥
अंस वंसकी प्रख न पावै । पदि टकसार कार घर जवे ॥
बिन गु भेद गहे टकसारा । बिना पुर्षकी नारि विचारा ॥
बिन दृलहकी कौन व्राता । बिना ग॒रञ्जूठ जान जिदं राता॥
बिना छ ज्यों लश्कर फिरदीं । विन गुर ज्ञान घीरको धरी ॥
हमरे पन्थके गुरू धर्मदासा । तिनके वंशयुङ् जक्त प्रकाशा ॥
हमरा ज्ञान वंस अस करई । खोवे आपु नरकमे प्रई ॥
तजे मने. कोधे अर्हकारा । सो ये गहै वेश टकसारा ॥
इतने भेद इहै टकसारा । ओरे ज्ञान बहत असरारा ॥
वंश टकसार कडिडारा जो पावे । सो सौ भवसागर जीवसुक्तावे ॥
(९० ) चोकास्वरोदयं
वेश असख न टकसार रोई सीखसदित शुरूजाय विगोई ॥
इतनों मेद् रै अगम अपारा । नीर पवन चन्द्र सुयंकी धारा ॥
कार्यसिद्ध नीर युक्ति भरवाना । सद्युरू बचन शीश परमाना॥
उत्तर परव चन्द्र सनेहा । दक्षिण पश्चिम सूर्यहि देहा ॥
साखी-इतना भेद चन्द्र सूुयंका, पांच तत्व निजसार ।
दिनतिथिं पच्छ उदयो, सो सँचो कडिहार ॥
कै कबीर सोहं र्खे, ए सब मिरे रकार ।
चन्द्र सूयेको भेद जाने, सो ञ्चगे कडार ॥
इतिभ्न्थ चोकास्वरोदय संपुणं सत्य सही
अथ अलिकनामा
ग्ट
अरिफ अव्वल एक नाम सदी है आपं अकेला सह ॥ आदि `
अनादि अनादह अनाहद नदीं वा सोहि ॥१॥ (बे) बेदेको चेदा
किया देमका हियां दूदा ॥ अव्वल कलमा पाकं सही है इक्म
रढ्वमह ब्रूबा ॥२॥ (ते) तनमे दीदार मिलेगा पाक होय वजुदा॥
नूर अलकके सत्य साहबका, सब घट ह मोजृदा॥ ३॥ (से) साबित
सत्यनाम गोसाई, सदा जो कायम वाशिद् ॥ पूरा होय सत नाम
कहावे मिले जो परा भुशिद ॥9।(जीम)जाहि ब गजार जहां
सग यह् तो नेक नजर ₹।५॥फेङ्न सेयन अदीत नजलीरअलहकं
खबर है हे दक्राका इङकुम हाकिमका सदा जो करिये ब्र ॥
अजङ्कन फेड्कन पेदा गहती सोहं ओह अुनहक ॥&॥ (खे) खाछि
कंको सुमिरत रहिये, छिखत खुब यही है ॥ खुदाखवीसीश्णँडसवी
शद साधु खेरतभी ₹।७॥(दार)दया दरवेश दोस्तकर दूर कर सबं
ददा ॥ जिसके दिल्में ददं नदीं सो मृन्जी नामदा ॥८॥ जाल
जेहनको पाक साफकर, जिकर कि कज्जत पावोजोक शोकसे जिकर
लगावो दूर बहावो ॥९॥(रे) रहीम रदमत कर तुञ्जपर रहम कं
जो कोई ॥ रामरदीमसे एककर जाने तब जहेमत नरि हो १०॥
(जे) जोरावर कोई न वाचे, रावण था दशकंधा ॥ जोर ज॒ल्म है
जदेरका प्याला मत कोई पीवे बन्दा ॥११॥ (सीन) सरासरी सिर
साईका सब सीनोके अन्द्र॥ सौँचा वचन सुनो साधोजन, स्वाती
ब्रस ससुन्द्र ॥१२॥ (शीन) शेहरमे शोर बहा रै शक खुदाका
कटिये। सत्य सुकृत ये कर बासन बिसरे दरदम सुमिरत रदिये॥ १३॥
(स्वाद्) सदा सिफत साहबकी किये, सदा समीपे भाषो॥ दि
` द्रदिर सीना द्रसीना देखो दिख्की आखो॥१४॥ (ज्वाद)जमीर
( ९२ ) अश्िफनामा
नीर खुवाजे व्यापकं सब घर सांईं ॥ रै इजूर रदिमाना जिद
नाकीजे साई ॥१५॥ (तोय) तालिब मतदूबको पहुचे तोफ
करे दिर अन्द् ॥ बहते तौफ जाय तब वायफना देव जाय पहाड़
खुन्दर ॥१६॥ (जोय) जाखिम मिरे इजरयारु कबज करे जो
जाना ॥ गये जर्मात कोई न बाँचे सिकद्र सुरुताना ॥ १७ ॥
(चेन) इल्म चौदाको पड़ते अमल नहीं जो रावे ॥ अमर नदीं वो
इम एेब है दानीश मन्द काव ॥ १८ ॥ गेत) गलत ते वहि
नहीं किये गुस्से गजबको त्यागे ॥ नादक सुनके न्यारा रहिये
कड् सुनके मत भागे ॥ १९ ॥ (फे ) फरमान आखिर है फानी
फाजिरु फेम काया ॥ मिन ङक अरेहफाना इरानो खबर
काया ॥ २० ॥ ( काफ ) ककष है अरस जमीका सुनकर ओरं
नकीरा ॥ नेकी करो बद. बिसरावो ङुलसे कहत कलीरा ॥२१॥
(खाम) खादोर उसीपर जो न सुने जगज्ञाना॥ खाहेब से जो कोल
किया था तो काहे बिसराना॥२२॥ (मीम) शुसषछममदे सुसरमान
कहत, मुरीद ना करना ॥ रहिये सदाई मनसखामत जेहि विधिसे
निस्तरना ॥२३॥ (नून) नोज विखाद अलेक्कुम नेकं सरबुनका
कृरना ॥ नैनो अकबर दबदक बरिद रँ इकका फरमाना ॥२४॥
` (वाव) वजुवजेमे गो यमनेकी खरत सुनुफ॥ख्याल बदी बुस्वास
दिक अन्दर सो है मरदयुखौबफ ॥ २५॥ ह) रै दोनों यक
सूरत दोनी ये सौर एक म्यानमें हो दो यम घर कबहु नहीं
समाई ॥२६॥ (ये ) येक साहब है सांचा सुनो तुम मन चित्त
देको ॥ काया कबीर कहत रै अव्वर आखिर येको ॥ २७ ॥
दति अटिफनामा । सप्तदशस्तरंगः
=.
कृनीरबानीं
-~------ॐ<०<ॐॐ
भारतपथिकं कबीर्थेथी
स्वामी श्रीथुगलानन्द् द्वारा संशोधित
॥.4
मुद्रक व प्रकाच्चक-
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,
अष्यक्ष-““ लष््मीवेङ्टेश्वर ” स्टीमू-गरेत,
कल्याण-बम्बट्.
(नवा -
ुनशद्रगादि सर्वाधिकार “छक्ष्मी वेङ्कटेश्वर” सुद्रणयन््रालयाध्यक्षके अषीन है।
सत्यनाम
श्री कबीर साहिब
रन्द्र
~~
पत्यसुक्रत, आदि अदी, अजर, अचिन्त, पुरुष
मुनीन्द्र, करुणामय, कवीर्, घरति योग्, संतायन.
धनी धर्मदास, चरामणिनाम, .घुदशन नाम,
कृटपति नाम, प्रबोध यस्ाकापीर, केवल्नाम
अमो नाम, स॒रतिसनेदी नाम, इक्नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम,
यग्र नाम, दया नामक बश्च
भ्याटीसुकी ठ्या
अथ अीबोधसागरे
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अष्ठादशस्तरगः
कीरवानी
प्रथम बानि सुनियो चितलाई । आदि अन्तकी सुषिदेड १ताई॥
` प्रथम आदि समरथ दते सोई । दुसरा अंस इता नहिं कोई ॥
आदि अकर सुरती जब कन्दा । सात करीको गभ तेहि दीन्हा ॥
इच्छा सूतिं दूसरे उपजाई । सातो करी मेँ चित्त बनिया ॥
छीप रूपि करी परकासा । स्वाति रूप इच्छा नीवासा ॥
सात इच्छा तेहिते उपजाई । भिन्न भिन्न पर करी बनाई ।
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( ९६ ) कृलीरबानी
विमर शब्द् विरखिततबदयेऊ) तबहुखासबेदर्पौ चकरिमेदयेऊ ॥
तब पच ईड भरो उतपानी । तत् एक भिन्न पर श्यानी ॥
नहि तबघरनी नहि आकासा । नहिं तब इसरो इतो अवाक्षा ॥
ध्यावे ईड करे चौचन्दा । आपु देखि ओर सहज अनन्दा॥
तबकी बात नदीं कोई जाने । कों सुञ्चाय तो ्गरा उने॥
धर्मदास सुनियो चिता । एूटो ईड सूर्तिसे भाई ॥
सदज अङ्कुर बौज सब भाई । तिदिकी इच्छा इंड उपजाई ॥
तब् सरबनसो साजी बानी । तेहिते भूर सुरति उतपानी ॥
अबोरबुन्द तेदि सुरतेिदीन्हा । पच अंश तब उतपन कीन्डा ॥
पांचो अंश तब क्या बुञ्चाई । पचो अंडमे तुमजाओ समाई॥
एकटि एक ईड तब गये । आपह आप कलमे उ्येड ॥
तब अवगत एकं खे बनावा । षांच स्वय पाचों ईडहि आवा॥
फूटो इंड तेज भह धारा । सवम देखे पाँच ततसारा ॥
पांचडृण्ड भिन्न भिन्न विस्तारा) सातअधरदीपतेहिमदहिसंचारा ॥
देखि सरूप अंडनकर भाई । सो हंग सुरति तबहिं उपजाईं ॥ `
पुरूष शक्ति भई दाय प्रकारा । तिन्दको सोप्यो उत्पन सारा ॥
तासौ अङ्कुर भद् बतावा । बचन सुरत एक संग समावा ॥
जाते ओं पुरूषको अगा । ओर भये वेस दो संगा॥
तिन्दं उत्पनकीौ आज्ञा कीन्ही । शब्द् शनद् उनहूको दीन्दी ॥
मूलसुरति ओ पुरूष पुराना । रचना बाहर कीन्ह अस्थाना ॥
सोहं सोदे इईंडनमे रदेऊ । सकल सृष्टिके कर्ता कृटेड ॥
प्रथम अङ्कुर दसर इच्छा उतपानी। तिसरे मूल चौथे सोहं गनी ॥
सोह सोदे की बधानी। आठ अंस तिनते उतपानी ॥
आढ अस भये एदी धामा । करता सष्ठ धरे यहि नामा ॥
करता सशूपी आठ भराअंसा । तिन्दके भये सृष्टि सब वेसा ॥
बोधसागर ( ९७ )
तेज अंड अंचितकं दीन्हा । प्रथम सुर जब उतवन कीन्हा
सोई अंस दूसरे भय भाई । धीरज अड तिन्ह बैठक पाई ॥
तिसरे अस्र अण्ड निर्माईं । क्षमा अण्ड तिन्ह बैठक पाई ॥
चौथे अंस रै उक्त सारा सत्य अड है ताहि पसारा ॥
पाचों अस दिरम्मर भाई । समत अड तिन्ह बैठक पाई ॥
दोई अस दोह करी समाने । तिनका भेद यङ्गम जाने ॥
एकं अस नि्थंण अवतारा । तै तब शुष्के भये कडारा ॥
साखी-एती उत्पन्न चार सुरतकी, भिन्न भिन्न प्रकार ।
कहै कवीर धमंदाससों, आगे बन्स वसार ॥
धमंदास वचन
सचे सदगुङ् की बलिहारी । धमंदास विनती अलसारी ॥
धन्य भाग्य मोहिमिले यसांई । अपनो के मोहि रीन्द शक्ताई॥
चारि वेद अर शाश्च पुराना । सबहीकै मे खनो भमाना ॥
अविगति गती काट नहिं जानी। जो तम कदी आदि की बानी॥
सुरत सोहगके आठ भय अंशा । तिनके सृष्टि सबही भए वंशा
अप्रंपार रै तिनका सेषा। अर्चित्य स॒ष्ठिको कों विवेका
साखी-तुम निज सतगुरू सत्य हो, हम निज् चीन्हा सोय ।
अर्चित सृष्टिक मेद कहो; अविगति प्छ तोय ॥
धर्मदास त॒म बड़ विवेकी । तुम्हरे घटमं बुधि बड़ देखी ॥
अवचित्य सृटिको कहो पसारा । तेज अंड तिन्ह पायो सारा ॥
बरहि पालंग अड विस्तारा । तिदिमें पांच तत्व है सारा ॥
इनको पऽक आसन दीन्हा । अड सींखपर रोक तिन्दे कीन्दा॥
व्रेम सुरति तिन कीन उपचारा । तिन्हते भयो अक्षर विस्तारा ॥
अक्षर सुरत तब मोहम आई । ताते अस चार निरमाई ॥
( ९८ ) कृबीरबानी
चारि अख भये चारि प्रकारा । चौविध दीप चोविधहि षसारा ॥
प्रथम अश प्र साया भयऊ । सोपुथ्वितत्वको वीज निमंयञ॥
दुखरे कमं भये अवतारा । षारंग असनत कीन्ह विस्तारा॥
तिरे अदली अंश निरमावा । शेष नाग सो नाम धरावा ॥
तोये अंश मये धमं राई । जिन्ह पाप पुण्यको रेखा षाई॥ `
चारी अश अक्षर ते भयऊ । चार अश चार मत ठय ॥
तब समथ अविगति एक कीन्हा । पूरी नींद् अक्षरकं दीन्हा ॥
चौसठ युगलौ सोए सिराई । तोल कैर सुरती उहराई ॥
समर्थ सुरति जर तत्व समानी । कैक अंड की कीन्ह उषानी ॥
तेहि पीछे अक्षर पुनि जागा । मोह तत्तव भये अल्ुरागा ॥
क्रित दोय अक्षर बिक्खाना । सोई मोह सब सृष्टि खमाना ॥
अड दष्टिमे देखो माई । व्याकर भए यह किन निरमाई॥
समथ छाप अडसिर दीन्हा । अक्षर छाप देखि सो रीन्हा ॥
सोह अड जरम बिराना । जिनको वेद नारायण माना ॥
तद्वां ज्योति निर्न भयं । तिनको सब जग कतां कहेड॥
अक्षर सुरति समर्थकी बानी । तेहि शण खेर भए उतवानी ॥
निरेजन नाम अक्षर ठदराई । अधित भेद नि पावे भाई ॥
कैल देखा सकर पसारा । तब अक्षर सो वचनं उचारा ॥
देउ पिता मोहि आज्ञा सोई । जो कछ इच्छा उपज्यो मोई ॥
सेवा करत सत्तर ग वीता । तब श्रुख बो पुरूष अतीता ॥
जीव पुर जहां पृथ्वीको भूखा । तहां कमं बेठे अस्थूल ॥
सृष्टि भंडार कू्मको भाई । सोह माथ हाथ चौसठ पाह ॥
चरे निर्न कू्मलमि आये । पुरुष ध्यानते कृं जगाये ॥
उत्पति दमक ममि देहू।नादेदोतौतौ मारके रेह ॥
तबहि कूम अपने मन मानी । एतो कैक भए अभिमानी ॥
नोधसागर (९९)
हम ममि क्व देव न भाई । जाऊ पुरूष रमि वेमि सिधाई॥
कर कूर्मे युद्ध ॒निर्मयऊ । छीन माथा तीन पुनि रय ॥
लेकर माथे सन्ये आवा । कैर सुरति चट मोह समावा ॥
तीनों माथे भक्ति तब लीन्हा । तवसे अक्षर वुङ्ष डर कीन्हा ॥
नमे तब अभिमान समाई । तब कर जोरिके सेवा छाई ॥
सोला चौकड़ा तब चछिओई । तब खमि निरंजन सेवा छह ॥
अक्षरपुरूष जो कीन्ह विचारा । तिन्दको समरथ वचन उवचारा॥
विदेह बानि तब अक्षर पाईं । सो बानीते कन्या भह आड ॥
ताको बहत सिखावन दीन्हा । अंगी तिन कन्या कीन्हा ॥
पुत्रि निरंजन लागि सिधाई । तमको समरथ संदा सहाहं ॥
तब कन्या निरंजन रुगि आह । ठक पौव प्र सेवा लड ॥
साखी-कहै कबीर
देखे पलक उघारिके कन्या अगे बहि ¦
उपज्यो मोहऽश्प्रमः, तब ॒विप्रीत मनम बादि ॥
चौपाई
परक उघारि कैल तब देखा । अपने मनम कीन्ह विवेका ॥
कहै कृवीर सुनो त॒म बानी । मोहिकारनपुरूषतोहिउतपानी ॥
हम तुम ११ सृष्टि पसारा । तीनहि लोक सकर महि भारा॥
तब. अष्टागी कैलसों कशई । मोहि तोहि नाहीं होय सगाई॥
भे तोरि बहिनी तृ मोरा भाई । सो अनरीती सब दीन चखाई॥
कहै केर सुनो आदि भवानी । इमरे वचन तुम काहे न मानी ॥
जो तुम कदा हमारा मानौ । तौ तुम उत्पति निणय गनौ ॥
तब॒ अंगी कहै ब्ञाईं । बिन आज्ञा तोदि पुरूष रिसाई॥
बिन आज्ञा कूरम सिर छीना । ताते पुरूष अन्त करि दीना ॥
( १००) कबीरबानी
साखी-कहै कबीर
देखि स्वरूप कन्यरिको, मनम रोष समाय ।
मनसे रोष भयो अति. कन्या रीन्दीं खाय ॥
लीरुत कन्या कीन्ह पुकारा । पुरूष वचन ले इदय सम्हारा ॥
तब सुरति बानते केहि मारा कन्या तब उगरे बहि पारा ॥
टि भरपच अक्षर तब कीन्हा । ताते कैल मती इरि रीन्ा ॥
कन्या सुरति तब गईं भुलाई । जबते पेट कैरके आई ॥
पिता पिता कैलसो कदेडः । मदन प्रचंड क छन भयेऊ ॥
अष्ठांगी केक एकमत कीन्हा । ताते सृश्ठि रचवे मन दीन्हा ॥
किया संयोग भयो जीवारा । जेढे ब्रह्ना घु विष्णु कुमारा ॥
तीजे शंथु विष्णुते छोटा । येकदी निरंजनहि के टोटा ॥
साखी-कदै कबीर
जंसे रूप निरजनरदि" तैसे तीनों माय ।
जे उत्पत्ति केखकी,) आगे सष्टि उपाय ॥
चोपाई
करि प्रपंच न्य डमं गय । मनमें बहुत आनंदित भय ॥
एहि आनन्दे गए भुकाई । ताते श्वासा सुरति उठाई ॥
तेदि श्वासाते वेद कटि आई । रूपनिधान चारों बने भाई ॥
हाथन पोथी सुसरस बानी । ताते केर भयो अभिमानी ॥
चारि वेद सब मरम बतावा । तब चलि अक्षर शन्यमे आवा॥
कैल अचण्ड भयो बरियारा । तव अक्षरते इद्धि विचारा ॥
येतो कैर ओ जीव विचारा । समरथ छाप छियो टकसारा ॥
अक्षर चरे अधित रगि गय । महाञ्चन्य छोड़ी तब द्य ॥
तब अचित्य अक्षर सञुङ्षावा । यह अविगति गति कान पावा ॥
बोधसागर ( १०३ )
तुम तो सुरति हमारी दो भाई । केक सुरति समरथ निर्मायी ॥
लक्ष जीव नित केरे अहारा । सवा लक्ष नितप्रति निस्तार ॥
अंशवेश मिलि एक मत कीन्हा । चारों ज्ञान विचारि तब ढीन्हा॥
तुम गति हस्प हौ भाई । वह तो के जीव दखदाई ॥
तुम समर्थको ध्यान लगावो । अन्त्गति समर्थं सुख पावो ॥
चारी ज्ञानम निर्णय कीन्हा । सो निरणय अंशको दीन्हा ॥
साखी-कै कबीर
कटे कबीर धमदाससों, एता सकल पसार ।
तीन शक्तिको खेल भयो, चौथे ईस उवार ॥
धर्मदास बहते सुख पावा । उठि सतश॒सों विनती रावा ॥
साचे वचन तुम्हारी बानी । आदि अन्तकी निरणय उानी॥
कोन है अण्ड कोन है अशा। काहे अंश कौन है वशा ॥
कौन कैल कौन शण धारी। कौन सरष्ठि कौन संसारी ॥
एती बात मोहि सों भाखो । ओर गुप्त गोये जिनि राखो ॥
साखी-कहै धमदास
विन देखे सबही कहै, सनि पाइदहै कान ।
सोह अदेख तुम दिखावहु, आदि अत परमान ॥
चौपाई-सतगर् कबीर उवाच
तब सतगुरु मन में बिहसाने । तमसो धर्मनि निर्णय उनि ॥
तेज अण्ड अशर दहै वंशा । अर्चित्य अण्ड सोह गहै हसा॥
निरंजन केखचारि यणधारी । तीन सृष्टि अविगति संसारी ॥
तेज अड अचिन्त्य है अशा । नववेश अक्षर रै वंशा ॥
सत्य अण्ड जोह गहै अशा । सो रहै तिनके उषज्यो वेशा ॥
पा पचीस तासु विस्तारा । पाताल्पोजि ते तिनको बेटारा॥
तिसरों अंडदि क्षमा बखानी । अकह अंश तिन्दकी रजधानी॥
( १०२ ) कबीरबानी
अकदनामते सताविसख बशा 1 तिन्दके सकर ओर दँ अशा ॥
चीरज अश है भाई । ताते सुक्रत अंश निरमाई ॥
वंश बयालिसख रै कडारा । तिनकी सदन चरे संसारा ॥
पौचो अण्ड सुमत निमाई । अंश दिरम्मर बैठक पाईं ॥
तिन्दके वंश सात परवानी । इद सब्र भेद लेदो पदिचानी ॥
अडहि अड आढ भए अशा ! सात सुरति इक्कोत्तर वेशा ॥
चारि अडको एक विचारा । दए करीको मेद् अपारा ॥
एक वैश कोई पार न पावे । सतग॒ङ् निजी भेद बतावै ॥
खुद् होय कै
सुरति सरूप दमी सब कीन्हा । मान बड़ाई अशोको दीना ॥
जबे अचिन्त्य सुरत ठहरानी । सुरति समर्थं चट आनि समानी॥
दोह मध्य॒ एकं आए समाई । तिन्हको नाम अक्षर ठहराई ॥
अक्षर इच्छा उपजो भाई । दुसरा अंश केर दोय आईं ॥
आं अस कार्की बानी । अक्षर घट जो आये समानी ॥
सो वासा दोय बाहि दिआईं । तिन्दकी गति कोई बिररे षाई॥
पांच प्रगट तीन शप्त सारा । इनके रस अग्यारा सारा ॥
चारि अंशभवभार इम दीन्हा । चारि वेद्यम निर्णय कीन्हा ॥
तीन देव सृष्टि अधिकारी । उपजनिबिनसुन दखसुख भारी॥
तिन्ह चौरासी लक्ष बनावा । जीव अनेकं बहत उपजावा ॥
यह अविगति काह नदि पावा । सारथ एेसा खेर बनावा ॥
साखी-वेद् किंतेब जाने नहीं, पवे ग्यानी थाह ।
तीन अंशखौ सबही खेरे, आगे अगम अथाह ॥
घमदास उवाच |
धर्मदास विनती चितलाई । तुम्दरे शरण सक्ति गति पां ॥
उतपति कारण हम सब पावा । वेश अश दूनां निरतावा ॥
बोधसागर (१०३)
लोकं दीपको ठौर बतायो । बेठकं अस्नेह दस चिन्हायो ॥
साखी-केसे सूप समर्थं है, कैसे हँ सब ईस ।
केहि करनीते वाहये; कैसे कटे कार्की फंस ॥
चौपाइ-सतश॒ङ् कबीर उवाच
कहं कृबीर सनो धर्मदासा । अल्पद्चुद्धि वटमइ निवासा ॥
सत्य लोकं हे अधर अन्रूषा । तामं दै सत्ताविस दीपा ॥
सत्त ॒ शब्द का टेका दीना। अगम वोहमीरचीतिन टीन्डा॥
सागर सात ताहि विस्तारा। ईस चे तहां करे विस्तारा ॥
अग्रवास वह सुवन कांती । तहं बैठे ईसनकी वाती ॥
हुपद्रीप हे मध्य सिंहासन । कट्पदीप ईसनको आसन ॥
अविगत भूषण अविगत सिंहारा। अविगत वञ्च अविगत अहारा॥
कमटस्वहूप भौम्य दे भाई । कहांकी उपमा देड बताह ॥
आभा चन्द्र सूयं नरि पावि । भ्रु चकके शीसं नवाब ॥
कला अनेकं सुख सदा होई । वह सुखभेद यहां है न कोहं ॥
निरते दंस पुरुषके सङ्गा । नखशिख रूप बन्यो बह अंगा॥
पुरूष रूपको बरने भाईं। कोटि भावु शशि पार न जाई॥
छत सूप को वरणे भाई । अविगत ङ्प सदा अधिका ॥
सत्ताहस् द्वीपे करे अनन्दा । जो पव सो कारें फन्दा ॥
हस ॒हिरम्मर ओर सोहंगा । श्वेत अरूण शूप दोड अंगा ॥
विमर जोतको है उजियारा । लकं कला पुरुषमें भरा ॥
चारि शब्दका लोकं बनावा । पांच सरूप ठे हंस समावा ॥
सत्य शब्दकी भूमि बनाहं । क्षमा शब्द् आसन निरमा ॥
पिजं शब्दसों छ उजियारा । सुमत शब्दसों वस्र पसारा ॥
प्रम शब्दसों हस निरमाई। आप शब्दते लोकं समाई ॥
दीपन करे दीप हंस बिहारा। तहां पुरुष निरम॑र उजियारा ॥
जब विहसे भुखमोड सुहाई । निरत हेरि विसे चितखाई ॥
(३०९) कलीरबानी
चिङ्रञ्जरुक ब्रनी निं जाई । कोटिनवार शशि वारन जाई ॥
एति सिद्ध सतशर् फरमाईं । माष शूपन्हि लोके जाई ॥
अविगति खूप है लोक हमारा । करनी भेद कटो निधारा ॥
कृरनी मेद्
काया करनी चार ३ भई । मनकरनी दोईं॑रेदों उटई ॥
प्रथम करनी चौका रै सारा । तिनकोसन्धतिनहुका विचारा॥
दुसरे पुनि चरणाभृत कीन्हा । तिसरे शीत परसादं जो लीन्हा॥
चौथे साधुकी सेवा करहू । यम ओ कारुसों कबहू न उरहू॥
काया करनी करी विचारी । मन करनी सो दस उबारी ॥
पारस परशे कञ्चन दई । लोहा वासो कहै न कोई ॥
स्वाति सनेहकी करनी है भाई । सो करनी काह बिररे पाइ ॥
स्वाति बन्द सीप जो छेदी । बुन्द स्वकूपहि परूटे देही ॥
इकं करनी है इस सर्नदा । पचे रोकं कापि यमफंदा ॥
लोकं वेद् कुर जगत विसारे । बोलत वचन जीवं निरे ॥
माया चारि कालकी भाई । इनदि जीव रखे उरञ्ाई ॥
इद छोडे ` सदशुरुके ओट । मेटे कमं ममं सब खोटा ॥
दोई माया सद्युरुके उदहराई । दोय करनीसे सत्य मिराई ॥
दस करनि तीनखोकसो न्यारी । सद् मिरे तो कटै विचारी॥
धमदास कर चोका प्रमाना । मेटो कु पाखंड अभिमाना ॥
सोराअसंख्य युग गयो सरसाई । काह न खबरिसमथंकी पाई ॥
जीव निकार यमधरधर खाई । चारि वेद॒ सब जक्तं माई ॥
धरमंदास तुम अंश हमारा । तुमसो बचन कहौं टकसारा ॥
साखी-करै कबीर
म कबीर बिचरो नदीं, नाम मेरो समरत्थ ।
तादी लोक पडो, जो चद् शब्दके रत्थ॥
बोधसागर ( १०९ )
धर्मदास उवाच
धर्मदास तब सौज गाई । सोरह अश तव दीन्ह चिन्हाई॥
चौका पुरस तब युक्ति बनाहं । तनुका तोड़े जर अचनाई ॥
लिख्यो पान समरथ सदिदानी । दीन्हो सन्देश सत्यकी बानी ॥
तीनि अशकी कगन विचारी । नारीअर अंशको हस उवारी ॥
नारी पुरूष होय एकं संगा । सद्रयुङ बचन दीन्ड सोगा ॥
सोर्हेग शब्द है अगम अषारा । तुभसों धर्मनि कहौ विचारा ॥
पेड सोहग ओर सब डारा । साखा सोहे कीन्ह प्रकारा ॥
प्रथम सहज सोदहंगक बानी । इसरि इच्छ सोह उपतानी ॥
तिसरे भूल सोहं है भाई । चौथे सोहं सोहं नि्माई॥
सोहंगते भये सोह अतीता । जाको नाम जो क्यो अचिता॥
अधचितहिते अक्षर सोहगा । अक्षर सोहगते कैर सोहना ॥
कैर सोहगते अगुण सोहगा । सोहगते सकल खष्टिको रंगा ॥
असृत् . वस्तुते नौ षकारा । सोहग शब्दके सुमिरन सारा ॥
सो सोहं अचीन्हि जो वावे । सोहं डोर गहि रोकं सिधा ॥
जा घट होई सोहं मतसारा । सोई आवह रोक इमारा ॥
सुरति सोहं डदये मह राखो । परचे ज्ञान तुम जगम भाषो ॥
एती सिद्धि सोहकी भाई । धर्मदास तुम गहौ बनाई ॥
चौका करि दीन्य. परमाना । तब जीवहि टे अभिमाना ॥
अजावन बीरा आवे हाथा । तब हसा चले हमरे साथा ॥
ताक पुनि चहि अवे डोरी । ट्टे धार अगसी करोरी ॥
कुल करनी जिन्ह खोय निसाइ । कारि फन्द् निज घरक जाई ॥
तन मन धनको मोह न आति । सो जिव दसं हमारा पावे ॥
गुरूसों अन्तर कबहुँ न कीजं । साधु सन्त सेवा मन दीजे ॥
एती सनद जीव उजियारा । ताको सुकरत आवे सटिहारा ॥
सोहं करनी. सोहं विचारा । सोहं शब्द् है जिव उजियारा ॥
( १०६ ) कबीरबानी
सासी-कहै कबीर
घमेदास उन मन बसौ, करौ शब्दकी आस ।
सोदे सार सुमरन करो, सुनिवर मरं पियास ॥
चोपाई-घममंदास उवाच
सत्य नाम संतन सुखदाई । कथा अनूप कहां चितटखाईं ॥
बन्दौं गरू दो कर जोरी । जिमि कलहिते तुम दे छोरी॥
को भ्रवीन हे रोक तुम्हारा । सो मोसों सब कहौ विचारा ॥
बस्ती सन्य बिचकीौ सब भाखो । जो देखो सो गोय जिन राखो ॥
धममंदास बचन
साखी-जेसे दै तेसी कौम बिहारी जाडं।
अस वस निवारके, जीव सकल शुक्तां ॥
चौपाई
तुमरे कारन भेद हम दावा । सर्वमूल शङ् समरथ आवा ॥
लोकं परेखोकं दोउ हम पाए । जब सदगुरु भोर दर्शं दिखाए॥
पांजी भेद कौं ससुज्ञाई । कोन अंस कौन रोकं बेह ॥
कैते पवन इते होई । जहां समर्थं वबेटकं सोई ॥
कितेकी सज्ञा दीजे । इतनी दया शर दमपर कीजे ॥
साखी-रोक भेद केते वहै, पांजी भद् कदो ससुञ्चाय ।
अस वंस अस्थान बतावो, सब संशय मिट जाय ॥
सदृङ् पेडी भेदः पठ्यते
धर्मदास मे कदा ससुञ्ञाह । पांजी अस को भेद बताई ॥
तज अडवारपरूगवबिस्तारा । मध्यरमेयुन्यदोयपारंगधियारा॥
चृतुलोकमे सारोकं युक्तिप्रमाना। ताकी नाम मानसरोवर स्थाना॥
बाधसागर ५१०७
चारिय॒क्तिकी कमाई अस्थान
धीरज अंश. तहां वैरा । चौसठ कामिनी सग विहारा ॥
मभ्य सरोवर पिडसिला रे धारी। चौसठकामिनी निरते घ्रियारी॥
जो कोई वाम मागं को ध्यात । सो सारोकृय शक्ति को पावे ॥
पेडी ॥१॥ ताते वेकुण्ठ चौवीस कोटी राई । तहां खमेर रहयो
उहराईं॥ तहौँ धर्मराय अविनासी रहदी । जो पाप पुण्यका
रेखा दी ॥ तहां रंभा सामीप्य शक्त है सोई । नवसौ सखी
ताके संग हों ॥
२ वैङुण्ठको विस्तारा ›
पांच सीसर सुमेरके रदी । पांचा अंसकारा तहां धरी ॥
इशानकोन धुव आशन कीन्हा । वायु कोन कबेरको
दीना ॥ नैऋत कोन जमको अस्थाना । अभि कोन इन्द्रासनं
ठाना ॥ जनकं धर्मराय मै कदी । मध्यर्सिहासन विष्णुको
सही ॥ सहस्र साठजोजन बेकुण्ठ प्रमाना ॥ &०००० ते
आगे सुन्य डोर बन्धाना ॥ निवानमारगको जो कोहं ध्यावे ॥
सो सामीप्ययुक्ति वैङ्ण्ठको पावे ॥ पडी ॥९॥ वैङकण्ठते ध
अगरह १८ करोरी ॥ तशं खागी सून्यकी डोरी। श्न्यमध्य है
अनूपा । आदि निरंजन तहां. जोतिसरूपा ॥ तहां अंधियारी है
सुन्य श्रा । दोय पलंग है सुन्य विस्तारा ॥ तहां कोरि
चारि है जोति उजियारी ॥ तहां अष्टगी है शक्ति नारी ॥
सारूप्य भुक्ति सो तब पावै ॥ अघोर मागंको जो कोहं ध्यावे ॥
चौथी सक्ति आगे अस्थान
ते अक्षर आगे अस्थाना । एक परग तहांते परवाना ॥ तहां
अक्षर योग माया विस्तारा । चारि अंश् जिनके अधिकारा ॥
तति चार वेद प्रवाना । चौथी सुक्तिको येयि टिकाना ॥ तदंति
आगे कोह ना गणएऊ । एहि मता चारों वेद मिर्ठियेड ॥ चारों
(१०८ ) कबीरबानी
खुक्ति खस्पूरन ॥ पेड) ताते चारी खुक्तिको जाना । तदति एक
इण्ड परवाना ॥ ताते हे इण्डको छोरा ॥
इण्डके आगे अनहद् अजोरा । आगे असंख्य श्चुन्य विस्तारा ॥
तहां अचितनाम अंस करे व्यौहारा । अधर दीप है ताकर नामा
भेम ध्यान ताकर विसरामा परेमसुरति नचि बारंबारा ॥ ताके
संग रखुखिबारदजारा ॥ १२००० ॥ तहां आगे सोहे अस्थाना ।
तहां तीन असंख बीच सून्य प्रमाना । तहति आठ्अंस उष
जाई उन्हे वेस अंसके स्थान बनाई ॥ तहां ओहं सोहं उजियारा।
तिन सग देस छतीस इजारा ॥ ३६००० ॥११॥ चेडी ॥ तेहि
आगे सूगति अस्थाना । तहां ब्रीच सन्य आग असख्य
परमाना इम तिन संग बावना इजारा ॥ ५२००० ॥ तिन्हते
पांच ब्रह्म उपजारा ॥ पेडी ॥ १२॥ आगे सुरति बूर इच्छाको
मूला । स्वाति सनेह जाको है स्थूला ॥ वीस सन्य चार असंख
निरधारा । तिन सग दंस पचीस हजारा ॥ २५००० पेडी १३॥
तिनके आगे सुरति निशानी । सर्वौत्पत्तीकी रजधानी॥ बीचञ्चुन्य
दो असंख्य प्रमाना। तिनते भये अक्र ठिकाना ॥ सोरा असंख्य
तिन्ढते विस्तारा । हंस तिनि संग पांच हजारा ॥५०००॥ ध
दास बचन सुन साचे! ताके संग देस सब बांचे ॥ पेडी ॥१४॥
तहां आगे अंकूरको प्रमाना । तिर प्रमान द्वार अनुमाना ॥
विग शब्दकौ लागी डोरी। तेहि संग दंस गये पुरूषरुगि सोरी ॥
पेडी ॥ १५॥ बीच अंधियारी वोर अपारा । एकअसंख्य दस
लाख विस्तारा॥ १ ०००००००७०७००७ १ ०७०००००० | आगे हमर
निजलोक विकाना ॥ ताको ममं कार नि जाना ॥ पडी ॥१६॥
साखी- कटं कबीर
इतना पांजी भेद दै, धर्मनि सुनि चितर!इ ।
समरके प्रतापते सब, इस रोके जाई ॥
बोधसागर ( १०९ )
चौपाई
सोरा असंख्य उत्पति पारा । चार असंख्य शून्य विस्तारा ॥
सात श्ुन्य दो बेश्ुन्य कहावं । एकं शन्य कोई विरा पावै ॥
ताति तीन शून्य भए प्रवाना । आदिं अंशश्चन्य सुरत दिकाना।
तिहिते तीन भए प्रकारा । चार ्ुरतको सकर पृसारा ॥
पथम शन्य रोकते लागी । तीनिसुरत् भषएञ्चुन्य अवुरागी॥
आड अंश अङ् वंश पसारा । तहं लगि देखो श्चुन्य विस्तारा॥
इतना जीके हेय निन्यारा । ताके आगे रोकं हमारा ॥
हम चीन्हे ओर शूको सेवे । कमं तोडि के चग चग जीवै॥
लोक वेद कुर माया धारी । कार् फंद यम फंद विचारी ॥
निसदिन सुरत सतयुूसों लवे । साश्च घंतके चितहि समवै ॥
जनपर दाया सतय केरी । तिनकी कटे कर्मकी बेरी ॥
कृरनीं कर अभिमान भुकाई । तब टे यम धरि ठे आह ॥
कृरनी करिये यङ्के साथा । ताङ़ कार उडि नवे माथा ॥
कृरनी कृरी जो दोय अधीना । ताको वासा लोकमें दीन्हा ॥
कृरनी करे निज सुते ल्गावे । ताको सुकृत रोकं पंचव ॥
करनी करत करि होय आईं । तबहिं काल घर बाज बधाई ॥
सेवा करि राखे मन आसा । तन शः जीव प्रिह सासा ॥
सदग॒रसों अभिमान जो करिदै । तन छट जीव यमफंद परिह ॥
बेस टेक ओ नाम हमारा । पथ परजा. सद्रयर् कनहारा
चारों अश चिन्हे जो पावे । तनमन धनसां प्रीति रगा ॥
माता पिता बश सब माई। ए्ी फन हेत रोलाई ॥
धरकी धरणी पुरुष है सोई । इनकी प्रिति न_कारज होई ॥
तासों का रहै सल गोई । नारी पुरूष सरति कारज होह॥
( ११० ) कृबीरबानी
ङूसो अतर कबड न राखे । प्रेमप्रीतिसो दीनता भावै ॥
गर्ूको निदे अक्षरङ्् ध्यावे । बिन गुर् अक्षर केसे पावे ॥
गुरू संगाती शब्द् लखावे । जाके बरु हंसा घर आवे ॥
शुर्स्वाती, श्रूप स्वहूपा 1 गुरू पासं है आदि अनूपा ॥
गर्भृङ्खी शङ सो बहुरंगी । कीटते करदी आप हितसंगी ॥
शुरू रै साचे सिद समाना । शङ् मलयागिर वास प्रमाना ॥
गुरू सदगरू दीपकं अस होई । ताको सनेह कों मै सोई ॥
शुङ्सीखको सनेदवर्णन
जैसे स्नेह कमरु ओर भौरा । जेहे स्नेह चन्द्र अङ् कोरा ॥
जसे स्नेहं बीन जरु अंगा । जैसे स्नेह है दीष पतंगा ॥
जसे स्नेह श्रगा ओर जन्वी । जेसे स्नेह चकमक् ओर पथरी॥
जैसे स्नेह स्वाति ओर पपीहा । जैसे स्नेह अम्बक कोहा ॥
जसे स्नेह मीन अङ् नीरा । जर बिद्ुरे वह तजे शरीरा ॥
एेसे गरू शिष्यको सन्देशा । सुक्तिदोय शरू मिस्यो अदेशा॥
एते स्नेह सीख सदिदानी । इतने ग्के तत्व बखानी ॥
रुसनेह सीख जो पावे । गुरू रूष होय शिष्य सथ॒ज्चावै॥
गुरूकी दया चरो रे माई । बिन शुङ्् पार न पावै कोई ॥
गर् सोई सत्य शब्द बतावे । ओर गर कोई काम न आव॥
साखी- उपमा कडा दीजिये, पटतर कोद नाहि ।
पलपल करो जु बन्दगी, छिन छिन देखो ताहि ॥
धमंदास उवाच
ध्मंदास विनती चितखाहं । कनी योग शुर देह बताई ॥
योग ध्यान भाखो रकसारा । जीव उतारौो भवजल पारा ॥
कायास्थान आदिते भाखो । कमलभेद गोयं निजराखो ॥
नोधसागर ( १११)
साखी-कहै घमंदास
तुमही करता आदि हौ, जिन सब रचना कीन्ह ।
सत्य शब्द् सार निमौलिके; ्षतशुङ्् संवि दीन्ड ॥
कटै कबीर योग विधि बानी । जाते पुरूष सो ह पहिवानी ॥
प्रथम कमल कहूं रे भह। वारि पंह्री तोहि बनाई ॥
सिद्ध पवन गनैस है सोई । छसे जाप अखंडित होड ॥
दुतिय कमर नाभी तर होई । षष्ठ प॑ञुरी ताकर सो$ ॥
ब्रह्मवास तेहि कमले होई । @ हजार जाप तहां सोई ॥
&०००।२ तिसरे कमल्की आठ प॑खरी । खक्ष्मीनारायण
बुति तहां धयी ॥ ® हजार जप तहां प्रमाना । जो कोहं साध साधे
प्राना ॥ &००° चौथे कमल शक्ति शिव रहि ॥ बट सहल
जप तहां कि ६००० ॥ बारार्वरी ताकर भाई । सो तत्तम
ध्यान गाई ॥ पचे कमल अकाशको बासा । सोय व्री
तहां निवासा ॥ अमी चन्द्र है ताकर नामा । सहस्र जाप ताको
विश्रामा ॥१०० ०॥ तहतिकलाअवतारकौ अवे । चारि बैद ताके
शुण गावे ॥ अब छटो कमर् कहिं भाखों । तीन प॑खुरी ताकी
पुनि राखो ॥ परमात्मा ताहि कमलम रहई । एक संहस्र जाप
तह करई ॥१०००॥& सहस्रजाप दोण पैखुरी १००० षह ध्यान-
तिहिभीतर धरी ॥ गम्य अगम्य अंश दो रहं । तीन देव तर
लगि कई ॥ आक मर दश पखुरी किये । अगिन वान ताके
बल कदिये॥कामदहन ताको है नामा । जो रुखेसो पावे विभाभा
प्रकाश
नामो कमरुकी अविगत बानी । अन्त पांखुरी ताकर प्रानी ॥
ताभ पूरण अन्न अखण्डा । निसवासर धरणी नदिं चन्दा ॥
एक नाम सत्य है बानी । ताहि नाम सृष्टी उतपानी ॥
( ११२ ) कृबीरबानी
उनकी छाया सबको माई । तौन छांह घरहि सब समाई ॥
दो सरूप आदि सदहेदानी । दो सरूप काया बन्धानी ॥
तिसा शूप रदित है आपे । भेद ल्खो तिदिगङ् प्रतापे ॥
तेहि प्रतिमा दोय ई भाई । एक नारि एक पुरूष कहाई ॥
जिसका सेद कदो ससुञ्ञाई । एकं नाद एक विदु कहाई ॥
नाद् सनेदी सुरति हमारी । बिंदु सनेदी शब्द बिचारी ॥
माया नारि सुरति है नादा । चार नाम है एक समादा॥
नरमन शब्द् ओर कहि बिदा । चार नाम भये कहि विदा ॥
नरदी नाम मबुष्य विचारा मन नाम कार अवतारां ॥
शब्द नाम सुर्यको दीन्हा । विदू नाम नीरको लीन्हा ॥
मेदी नाम इश्चीको चीन्हां। भाया नाम तकं जो कीन्हा ॥
सुरति नाम चन्द् गहि दीन्हा । याहि सुरती मम करि ङीन्हा ॥
रञ्ज नाम आसाघट राच्यो । पुरब एक सुरतिको साच्यो॥
शब्दको धातू जादी थापा । बनावन हारो आपे आषा ॥
खुद होई कं कृलीर
जहां तहां हमदी ३ भाई । दुबिधा छोड़ कारू सगाई ॥
दुबिधा कार बड़ो अन्याइ । तन छटेते रेह धरि खाई ॥
पिडका रेखा दीह चिन्हाई । पिंड ब्रह्माण्ड लेह अथाहं ॥
अनत पखुरीका कमर है भाई । शुक्र देख तेहि माहि समाई॥
आए कमर उत्पत्ति पसारा । तेदिमें जीवकीन्ह विस्तारा ॥
दुसरो कमल सहज हे स्थाना । तिन्हते सृष्टि भई बन्धाना ॥
तूतिय कमल इच्छा उतपानी । चौथा मूर रे बोरे बानी ॥
पांचये सुरति सोहग बैधाना । आढ अश तिनके परवाना ॥
छटो कमल आचित्यको बासा । निसवासर जहे प्रेम विलासा ॥
ताते कमल अक्षर ठदहराईं । तिनकी तो अस्तुति वेदन गाई ॥
बोधसागर (११३ )
अवे कमर कैर को वासा । नाम निरजन._ तहँ निवासा ॥
नमे कमर तीन लोक बनाई । तीनि देव तहं रहे अखाई ॥
पिंड ब्रह्मांडको खेखा सारा । ज्ञानी पंडित करौ विचारा ॥
9 साखी-कदे कबीर
पिंड ब्रह्माण्डको रेखा, इम दियो प्रकट बताय ।
कटै कबीर धमंदास्सों, म निभय खोक जाय॥
धर्मदास वचन-चौपाई
धर्मदास पठे चित्त. लाह । सुद्थसे उटि विनती खाई ॥
साचे _ सादबकी _ बलिहारी । कै पुरूषकी जगति विहारी ॥
पन्थ विकट कोह भेद न पावे । जो नहिं सदर आप छख ॥
पपची. है केर. अपारा । मोसो चर न पन्थ तुम्हारा ॥
कैसे के शरूवाई करहुं । केल पुङ्षसो भँ बह उरह ॥
जम्बुद्रीप दै यम को देशा । केसे चछखिहै शुक्तिं उपदेशा ॥
चार वेदम सब जीव राचं। के फांसते कोड न बच ॥
हमं सेवकं है आज्ञाकारी । सो कंरों मोदिं रह उबारी॥
साखी- क धमंदास |
हमसो पन्थ चरे नहीं, कार अपरबर् बीर ।
घाट बाट सब रोकं है, जिय कस रगे तीर ॥
चौपाई-सद्यरू कबीर उवाच
धर्मदास तु्दं सांच न आवा । अन्तर खो मेँ तुम्हे बुञ्यावा॥
का पुनि करिहै कार तुम्हारा । सिरपर समरथ है रखवारा ॥
मारइ फेर रसातल जाई । केती के दमही निर्मा ॥
केतिक केल भये मम आगे । केति सृष्टि उत्पत्ति प्रले भागे॥
सत्य वचन सुनिये वचितलाई । केर जगति भँ देहं कखाई ॥
सत्त चखा है सबते न्यारी । तीनि खोक प्रपंच प्रसारी ।
नं.७ कबीर सागर - ५
(११४ ) कृबीरबानी-
कैल संकर युग डारो खाई । एको जीव रोक नहिं जाई ॥
ताते समरथ मों फरमाईं । साचि जीव आलु सुक्ताईं ॥
कमे कार है बहुत अपारा । त॒मसों धर्मनि कटौ विचारा ॥
तीन सुरतिका खेर नियारा । भिन्न भित्र तिनको विस्तारा ॥
चार प्रकारके ज्ञान
अचित अंश समरथको माई । बारा पलंग राज तिन पाई ॥
ताते बह्म सृष्टि महं माई । ब्रह्म ज्ञाति नहीं उपजाई ॥
ब्रह्महि लरनि बह्मकी वानी । एके मारन एक रानी ॥
तिनको चिह्न॒ चरे संसारा । अक्षर अतीत नाम ह सारा॥
जो कोह येदि मारगको ध्यावे । अचित रोकमे जाय समापे ॥
भरेम सुरति उदां मंगख्चारा । तिनके सग सखि बार हजारा ॥
अब अक्षरको कूं बिचारा । अक्षर कीन्हा अविगतिविस्तारय॥
जीव् सष्टिको कीन्ड पसारा । अन ज्ञान कीन्ह विस्तारा ॥
अनभे करनी अनमं ॥ बानी । अनभे चारु है अनभे रानी ॥
तिनके चार अंश दै भाई । आठहि सुरति नहीं उहराई ॥
नी पवन दोउ गदो निसानी । सुरतियोग अनद् सहिदानी ॥
यह प्रकार जो ध्यान रुगावे । अक्षर लोकम जाय समाव ॥
सुरति योग दै महा हितकारी । बीस इजारतिन जीव उवबारी ॥
तिसरे के निरञ्जन गहं । तिन पुनि मया्ष्टि उपजाई॥
माया इष्टि दै तीस हनारा । त्वचा ज्ञानको कीन्ह विचारा ॥
तीरथ त्रत जप तप है करनी । क्रिया कर्मं आचार है रहनी॥
इच्छा वांछित जो करनी कः ही । सो फलरेहि जन्म जब धरदी ॥
जोगदि दान यज्ञ मन रवै । चारिहु वेद साखी सयुञ्चावे ॥
कोड राजा कोड पंडित भाई । कोड सिद्ध कोड साध कहाई ॥
चार अंश चारों फर पाह । माया सृष्टिको धरधर खाई ॥
बोधसागर ( ११५ )
तके संग सखी बारा इजारा । तहां महमद गये सुखस्ारा ॥
तेहि सुखको उन्ह लहे भाना । आगे ओई सोके स्थाना ॥
चौथी सृष्टि चिश्ण परकाक्चा । जो उयल्यो अक्षरकी श्वासा ॥
तिनके ज्ञान श्षुद है भई । जन्त मन्ञ ओं बैद भनाईं ॥
राग रंग पूजा चतुराई । अकार मद गभं भुलाई ॥
जीवं भोजते करे अहारा । नौखाख जीव सग तिनके धारा॥
तके ज्ञान जग रहे समाई । घ्र घर आये ङक बरन ददाई ॥
कोई उग्र कोइ शुद्र काते । कोई जीव कोड नारियर खात ॥
कोई रोगी ओषध भवे। कोई देवी कोई देवं काव ॥
कोई प्रेत दोय बोरे आई । इह विधि सकक् जीव भरमाई॥
ओ देवा गुण हप निवासा । इन सब भेदं कन्ह प्रकासा ॥
पाहन पूजा तिन ठदराई । कं विष्णु तहं शम्य कहाई ॥
ब्रह्मा तहां वेद धुन करदीं । विष्णु रूप तहं पूजां धरहीं ॥
शम्भु भये फरुके अधिकारी । तीन देव यह युक्तिः विचारी ॥
इदि प्रपच पांच सुख बानी । तेहि प्रपंचमें जीव अरनी ॥
शुरदि पांच का सहेदानी । जाये क देह नकंकी खानी ॥
धर्मदास त॒म षिन राचौ । सत्य चार उहिकेरसों बांचौं॥
चारि सुरतिका रेखा
चार सुरतिका मेद निन्यारा । सो सब खोलि कं भण्डारा ॥
तिनकी सनद एक टै भाई । तेहि सनद के जाय खेवाई ॥
यह ज्ञान ताकी चारों बानी । पचे समथेक पांच भपरमानी ॥
चायो गङ् चारी दै बानी । पांचे शब्द सुरति सहिदानी ॥
पाचों भेद है अगम अपारा । इह पाचों सर्वा विचारा ॥
चचार अंश चार अण्ड प्रमाना । एके सनद एकं बन्धाना ॥
चायो शर् हवै जगम आवा । तिन भवसागर पंथ चलावा ॥
( ३१६ ) कबीरबानी
चारों गुरूको पेडी
म्रथस धसंदास तुर्है भाई वेश बयारिस है अधिकाईं ॥
दुसरे सत्व॒बकेजी ए । स॒त्ताइस अंश तेदसंगबिराजा ॥
तिररे शर् चतुथैज दै भाई । सो अंश तेहि संग समाई ॥
चौथे शर सहतेजी भाई । सात अंस मृत तत्तव बनाई ॥
चारि ङ मता अथावा । जीव श्प ह जगम आवा ॥
चार बानी
चार बानि छे तुम्हं सशुञ्ञावा । प्रथमहि कोरिज्ञान कडि आवा॥
ध्मेदास तुम करो विचारा । कोटिबान है ज्ञान पसारा ॥
दुसरे दै टकसारकी बानी । रायबेके जैसे निरणय ठानी ॥
टकंसार भेद चदि हारी रेखा । जो पेखे सो सत्यखोकहि देखा॥
नीर पवनको कीन्ह विवेका । तिस्र भूर ज्ञानका एका ॥
राय चतुभज कीन्ह प्रमानी । चारों शङ शुक्ति फर्दानी ॥
चारि गुरू युक्ति कडारा । बहु जीवनको करिहै उबारा ॥
साखी-कदे कबीर चारि बानि, खानी चार ज्ञान निधान ।
चारि पदारथ चारि वेद; चारि शङ् प्रमान ॥
धर्मदास उवाच
हम चारोंको शुर्कर थापे । षांचे अधित राजा है आपे ॥
तीन अंश वे कहां रहे छ्ई । तोन मेद शुरू को सघ॒ञ्ञाईं ॥
तिन्हकी कला कहौ गुर् साच । ओ पुनि कोन खेलें रांचे ॥
साखी-सत्य सत्य मोसो कदो, कड ना राखे गोय ।
सुर नर सुनि ऋषि सबही ठगे, रीते चङे सब रोय ॥
चौपाई -सद यरु कबीर |
धर्मदास घटभय उजियारा । ताते आगम्य सुतिं विचारा ॥
आढ अंश सब जमा है भाई । चारि अंश सब ब बनाई ॥
अविगति मोसन कदा न जाई । भे जो कों तुम धरौ समां ॥
मोधसागर ( ३१७)
पौचों सुत पाचों अण्ड पाईं दोहं अंश ठे युप्त वैई॥
अर्चित बरद तब तिनदी दिय । तिनको नाय अक्ष तिन ठ्य
पांच अश नहिं पावत रेखा । ओर अंशको कूं विवेखा ॥
चार अश्च अक्षर सेहेदानी । जिनते उवजी चारों खानी ॥
देखि अश मोह तब आवा । दृसर अश घट आय समावा ॥
भिण शक्ति घट गहं समाई । तब अक्षरको निदा आह ॥
सोरा चोकड़ी सोये सिराई । आव्वो अंश्ञ जलर्माहि समाई॥
अडजहूप जो जलम दीन्हा । यहि अविगतिसब समरथ कीन्हा
अक्षर जग्यौ निद्रा गह भाई । देखि अंड व्याङ्गरूता आईं ॥
तेहि अंडमे एक निशानी । सो अक्षर वाह शदिदानी ॥
अक्षर दष्ठिसों अड बिहराना । तिहते कै भयो अभियान ॥
तिन्हके चार वेद भये बंशा । चौथे अंश कलानिधि तंखा ॥
मनम अक्षर सख्या आई । यह तो कार समर्थनिरमाई ॥
तेहिते शक्ति कीन्ह तिवाना । श्वाससुरति अन्तर बिङूखाना॥
आं अंश घट रहे समाई ¦ स्वास संग घट बाहर आड ॥
सोर कला अष्ठांगी अगा । हपकला वाही सब सुख संगा॥
अक्षर कन्या दीन्ह पडाई । तिनते तीन यपु मये भाई
अविगति गति काहू नहि पावा । समरथ सत्य प्रपच बनावा ॥
साखी -कदं कबीर
इहविधि सब रचना करी, काह न जाने मेद् ।
नेसे है तेसे तब हती, अब कोकेरे निखेद् ॥
साखी-अविगति निषेदकी-धमदास उवाच ।
धर्मदास बिनती अबुसारी । साहब विनती सनौ हमारी ॥
आठ अंशको भेद हम पावा । गति अवगति दूनौ दम गावा॥
चारि अश एके मत ठाना । चारिअंशभिन्नमिन्नमत ठना॥
( ११८ ) कबौीरबानी
तेहि कारण सबमोरि बतावह । केदि कारण प्रपञ्च उर रावहु ॥
साखी-चार सुरति सब मूर दै, तुम समरथ प्रवान ।
तुमरे अगते उपजि कहु, चारहुको अनुमान ॥
साखी-बीजके करुसाकी-कीसा सतश् उवाच ।
चसदास स कल्क न छिपा । तमको सकटरहि मेद बताऊ ॥
प्रथमदहि समरथ आप हते, दूसरो कोई न इए । तब समरथके
खुखते, सहजहि सुरति भये ॥ सोह सुरति स्वरूप धरि सहज
बुन्द्दयो । तेहिते सहजहि सुरतिका सहज अंदर भयो ॥ तेहि
अकूरते सप्त करि भए ॥ दूसरे समर्थके अशते क्षमास्वरूष सुरति
भये ॥ तब स्वाती सरूप बरद दियो जौन कारन सुनो ॥ जैसो
सांचो तसो स्वरूप जैसो घात तैसो अनूप ॥ एतो उका वैधे
जब भयऊ इच्छासात । ७ ) अड पांच (२) चारी अड एक
सिद्धके ॥ 8 ॥ १ ॥ चारों स्वरूष भिन्न भिन्न हँ ॥ पांचो अण्ड
प्रचण्ड भयो । दोउ करीम अण्ड ना भयो ॥
तारिकरीमे दो अंशदते।एक करीम अक्षर हतो एक करीत माया
इती । एहि मता अवगति हतो । आगे तिसरी सुरतिको रेखासु-
नो अविगति सुरत अञ्युन्य । तीसरीसुरतिका रेखा सोञ्रति सखन
उपजाई । तेदिको नाम मूक सुरति है ताह सुरतिको अग्र बद
दीन्हा तेहि. पांच ब्रह्म भये तिनको आज्ञा दई एक एक ब्रह्म
एकं एक अडन में आए, एते ब्रह्मते पांच अश भये । तेदी तत्वके
घर भये । अण्ड पूटो पांच तत्व प्रगट भये । ५। चौथी सुरती
श्वासाते भये। 9 । तेहिको नामसोर दियो । तेरिसोहगके ओह बद
कन्हां तेदिमें आठ अंस भये! सो एती रचना चारिकीरति कियो
बोधसागर ( ११९ )
प्रथम अगते भए अगे सब निकास कटं । सात इच्छा सातदहीं
अश । अनहच्छाते आगे अंश भए । आवौ अंश भण । तै
लोक भयो सवं शषठिका संहार करे ¦
बीजक सारकी साखी-कं कबीर ।
सात उच्छाके सात अंश भण, अवने अवने भावं |
आष्वा अश्च षिन इच्छा उपजै, ताको धर्मं ्खाव ॥
धर्मदास उवाच-णह धर्मदास ने पी !
आहो साहेब काहेतेसम्थ कहत ! काते अचिन्तं कहत ह ॥
कादेते अक्षर कहत ई? काते जोगमाया कहत ३ ॥
काहेते कल कहत ई ! इतना भेद कहो सथञ्ञाई ॥
भित्र शरू देह बताई । एदिकी शान्ज शङ कहं ॥
सुनो धर्मदास तखतके धनी । तासो समर्थं कहत ३ ॥ .
तिनते आठ अंश भए आमे जेठ अचिन्तं भये ॥
तिनके चिन्ता नाहीं । ताहिते अचिन्त काये ॥
तिनके भेम सुरति महं । तेद्धिममे अक्षर आनिसमानो)
तब॒ मोह तत्व उपज्यो । तेहि मोहते चार अंश भए ॥
तेदिते चौरासी रक्ष्य जोनी भई । ८४००००० तेदहिते अक्षर ॥
कहाये।अबकेखकीदकीकतस्ुनो । तब अक्षरके मोहतत्व ॥
उपज्यो तेदिकारणतेकै भयो । मनसाते इन्द पैदा क्रियो ॥
सो जहां अक्षर बेटो इतो । तहँ - जल तत्तव॒ इतो ॥
तेहि जलम एकञंद आनिषडो । तेहि बुन्दते एते एकअंड भयो॥
तब॒ अक्षरे देखा उविकि । तब अण्ड खमि आयो ॥
एकं हकीकत लिखी इती । अंडके अुख ऊपर छाप हतो ॥
कहै सष्टिकी रचना करो । ओर एक अंश हम पठायो ह ॥
सो तुमते दूसरी करी है । सोतुम जिनपतियावो।जहांर्गि
( १२० ) कबीरबानी
आवे तहां रुगि जिन रोको । आवने दीजो जिन काह भेद ॥
बतावो । आगे सत्रासो तीस दजारा युग केर युगका प्रमाण ह॥
युग सो थुगति खेडे तेहि पीछे । हमारी अरे सुरती आई है ॥
तब इमारो महातम होई रै । तब काटसों जीव छुड़ाई है ॥
तब केरको सहातम घरि जेहै । एती सनद अक्षर मेदकी ॥
साखी-कँ कबीर
सात इच्छाके सात अश भए, सातहि सुरति प्रकार ।
अन इच्छते केर भए, जीवको केरे अहार ॥
चोपाह-ध्मेदास उवाच
धमेदास्त जिव शंका आई । उखि सदगुक्सों विनती खाई ॥
धन्य भाग्य मोहि मिरे सांईं । अपना करि मोहि छीन्ह अुक्ताई॥
इच्छा सातके समरथ कर्तां । अत इच्छा वहां कषति बरता॥
सो निज मेद बतावों मोदी । इह सनद युङ् प्ण तोही ॥
सात करो अङ्कुर बन्धाना । सातइच्छातेहि मांहि समाना ॥
सात सुरतिमें थांका राखा । सात अंश तहां बोली भाखा ॥
आव्वा अंश वह काते आवा । कौन भति वो अंश निवा ॥
साखी-अविगति भेदकी धमंदास पे ॥
अषिगतिकी गति सबं कहो, मे बिहारी जाञं ।
मेरि अदेशा जीवका, परु षर परसो पार ॥
चौपाई- सद॒ कबीर उवाच
कदे कबीर सुनो घ्मदासा । वहि समर्थं गति अजब तमासा ॥
इतना तच्व जिन पृछ्छो भाई । ओर सकर शब्द् देहो बताई ॥
इच्छा सात शक्ति उतपानी । स्वाति स्नेह भए परमानी ॥
एक अंकुरते सब कु कीना । सब भण्डार तिहि मादे दीन्हा॥
तिहि अंङ्करकी सात भे करी । सात इच्छा तेदि मोहि रे धरी॥
सोधसागर ( १२१ )
सेहजंकुर तिह नाम - कहाई । सात सुरति तिहि मांहि रहाई॥
टेकाज्ञान कदतहों भाई । जेहि सनि इमा लोके जाई ॥
धर्मदास सुनिये चितलाई । यहि कलसा सव ज्ञानके भाई ॥
बीजक ज्ञान सब कटं निशानी । तेहिषर बीजक निश्चयं उनी ॥
सात करीके निणय निह । बिना मेद् तुम कष्ट न युनिहौ ॥
मेदमे मेद हम राखो गोह । सौ प्र सन्य छ्खोना को$ ॥
इच्छा सीपं स्वप उतपानी । सोवाती स्नेह भये परसानी ॥
बंद एक आनंद स्वखूपी । इच्छा सात भये भिन्न स्व्पी॥
इच्छा सात श्चि अपने भाई । तेहि भमान इदं ॒तिन्ड पाईं ॥
तेहिते पाँच अड नि्माइं। दोए करी तौ यपत छिपा ॥
तमं य॒प्त अंश रहे वासा । प्रथम करीन इद निवासा ॥
तेज अण्ड तहां भयो प्रकाशा । तेहि सब है जीवं निवासा ॥
इच्छाके नाम
मुख्य इच्छा तेदिश्च्छाको नामा । आदि ञंद तिहि बुन्दको धामा
दूसरी इच्छा ने भरी हरे । सुकृत अण्ड भए तेहि केरे॥
नेज इच्छाते नेच बुन्द पावा । तहमं सुक्त अंश निरमावा ॥
तिसरी इच्छा अविगत बानी । रवण इच्छामें आनि समानी ॥
श्रवन बुन्द अंश तिन्ह टीन्हा । अबोरनाम तेहिङ्ुन्दको दीन्ा॥
चौथे अण्डमे सत्य पसारा । चौथी उच्छा सो वास उच्चारा॥
स्वाती इच्छा तेहिकरिको नामा । स्वाती इन्द स्वाति सब धामा॥
स्वतिते क्षमा अण्ड निरमाई । अण्ड पांचमों कहूं समुञ्ञाई ॥
पांचही इच्छा निमिष ठेेराई । करा एकमे जीवन पराई ॥
स्वाति प्रसन इच्छा उपजाईं । जलहि अंड तहां उपलज्यो भाई॥
पांच इच्छाके पांचअण्डनिरमाई। दोये इच्छा वेही शप्त रहाई ॥
छठि इच्छा है करता भाई । करति उन्द् तेहि मांहि समाई॥
( १२२ ) कबीरबानी
साते इच्छा सवे रहाईं । सात बुन्द सब कला है भाई ॥
सातो इच्छा के करता अक्ूला । सात करी सब दष्टिको मूला ॥
तिनके सोरा अश प्रमाना। एकं वचनके सबही बंधाना ॥
आनद बुन्द है सदा समीपा । तेहि अंकुरको भिन्न है दीपा ॥
एकं सुरति एक अङ्कुर कदाहं । तिहिको नाम सहजश्चुति भाई॥
सात करी मो थाका बनाई । ताकी गतिमति का न पाईं ॥
दो सुरति इच्छांङ्कर निर्माईं । आठ इच्छा तेहि माँहि उपजाई॥
सात इच्छा करि सात समानी । आठभी इच्छा काल उतपानी॥
तिसरी सुरति मूर प्रकारा । भूकीतिं मूलअंङ्र निवासा ॥
सुरतिमूरु तिहि माहि समानी । पांच ब्रह्म तां भये उतपानी ॥
सहज ब्रह्मके पांचतत्त्व भये भाई । तचव सनेही सर्वं उत पन आई ॥
दुसरी इच्छा ब्रह्मको चीन्हा । सुकृत चिन्ह उत्पन्न कीन्दा ॥
तिस्रो ब्रह्म मूर परवानी । मूल सुरति सब सुषशटिउतषानी॥
चौथे सोहं ब्रह्म कावा । तेहि अण्डमों सर्वं समावा ॥
पाचों ब्रह्म जाद भय । चौदह अश्च शप्त नर्मय ॥
तीनि सुरतिकी एती रचना । चौथे सोहं कटे अभृत बचना ॥
सुरति अभयबुन्द् तिन्द पावा । तेहमे आठ अंस निरमावा ॥
चार गप्त चार प्रगट पसारा । आपसरूपमिक्आगेअमीअपारा॥
तिनके भिन्न भित्र परसाना। चार अंश भये सृष्टि बधाना॥
चार अंश मये सुक्त प्रमाना । तिन्दको भेद न काहू जाना ॥
अंशहि अंश कां नदिं देखा । शग्द स्वरूपी सबको पेखा ॥
तेदिके सनद् अबकदों समुञ्चाईं । जेष्ठो अश अचित दै भाई ॥
तिनके प्रेम सुरति घट आई । तेहि प्रेममे मोह समाई ॥
तेहि मोहम अक्षर उतपानी । अक्षर जारि वेद सहेदानी ॥
अक्षर तेहिते चारे भये दीपा । चार अंशने रहे समीपा ॥
बोधसागर ( १२३ )
चार अंश अशक्चरते भय । सर्वं यशि भंडार ते ठय ॥
प्रथम अशते माया भय । ञ्जु वीज व्थ्वी महं उयॐ ॥
दूसरे अदल अंश निर्माण । रसनां सहश्च तिनते निरमाए ॥
तिसरे कुम भये अवतारा जिन सवै पृथ्वीको खीनो भारा॥
चौथे अश भये घर्मराई । जिन्हें पाप पुण्यको रेखा पाई
चार अंशको देखि थुलाना । तब अक्षर घटमाहि समाना ॥
तब समर्थं एक युक्ति बनाई । सातवां अश तब आनि समाई॥
तेदिते निद्रा उपजी भाई । सत्तर निमिष युग गयो सिराई॥
जब गि निद्रा अक्षरक्ू आई । तब कंठ दश्य रहै ना भई ॥
सब समर्थं मन शब्द उचारा । तेहिमो कै अण्ड भयो भारा)
तेहि अण्डमें उत्पति भूषा । नाम निरञन ज्योति खडा ॥
तिनते पतीन देव भए भाई । यहां सब रेह रुखि भाई ॥
सवं सरटि काल धरि खाई कारु देवको को न पाह ॥
साखी-टीकाका
सात सुरति तब मू है, उत्पत्ति सकर प्रसार ।
अक्षरते सब सृष्टि भई, काते भये तिछार ॥
चौपाई-धमंदास उवाच
साचे सदयरूकी बिहारी । धर्मदास विनती अद॒सार ॥
ओर भेद सर्वं हम पावा। आढ्मी इच्छा कीन्ह निर्मावा॥
केहि कारणते इच्छा कहाई । अनइच्छा किमि कारण आई ॥
किभिकारणस्वरूपजोकाट्बनाई।यहां अबिगति गति कहो सस्ञाई
साखी-सत्य पुरूष तुम आदि हो, बोखो शब्द रसाल ।
अन इछको ममं कों, जेहिते उपज्यो काल ॥
( ३२९ ) कृबीरबानी
सोपाई-सदशङू उवाच
के कसीर सुनो धर्मदासा । सत्य शब्द है हमरे पासा॥जेहिते रद्ध
होय सो इच्छा काव । जेहिते नास्ति होय एेसी अनईच्छा कहावे॥
इच्छा अङ्रको तन इच्छा हसारी । ते गुणकार अंश अवतारी॥
बिना कालजीव नहीं डराई। तेहि वर कार रचा हम भाई।॥इच्छामें
दया अंश दै भाईं । अनइच्छ निर्दया कहाई ॥ जीवन सक्ति कदो
सञुञ्चाई । वचन न माने तारि काल धरिखाई ॥
साखी-कारुअंश श्या जन करौ, ताते जीव कालको खेर ।
एेसेकां खेर समान है ज्यों तिष्धीमे तेर ॥
चोपाई-धर्मदास वचन
घमेदास बहते सुख पावा । उखि सतद्॒सों विनती रवा
उत्पति कारण इम सब देखा । पंजी भेदका कौ विवेका ॥
पांजी सुरति गू देहो खखाईं । जेहि मारग ईसा चरि आई ॥
नामप्रताप कहौ ससुञ्ञाई । जेरिके बरु ईसा घर जाई ॥
साखी-धमंदास विनती करेःजिवरा भयो अनद् ।
आप अपुनको रखुखि परयो, जब कटे कारको फन्द्॥
चौपाहं-सतगुङ् कटै पांजी भेद
सुनो धमंदास पांजी भेद प्रकासा।जिनसे सुने हे हस निशवासा॥
पांजी तीन आश रै ओगादहा । जो कोर जीवं पचे वाहा ॥
प्रथम पांजी आश दै भाई । तहा अथशब्द चदि खोक जाई ॥
सात शन्य दश रोक प्रमाना । अश जो रोकं रोकको शाना॥
नौ स्थान दशमो घर सचा । तेहि चदि गणए जीव सब बोँचा॥
सोरा असंख्यपर छागी तारा । तेहि चदिहंस गए लोक द्रबारा॥
दूसरी पंजी लोक करै भाई । तेदि पांजी अ देव रहाईं ॥
अष्टम दीप बावीसमे अकाशा । तदं विष्णु चिगए तेदि पासा॥
बोधसागर ( १२५ )
तिसरी पांजीका भेद अयाय । तुमसो धमनि कों विचा ॥
पातार षांजी है जीव उवारा । यजन परतापसों उधरे दवारा ॥
वाचा बंधको द्वार बनावा ! तेहि पांजी ङ् भेद बतावा ॥
पांच भेद पातारं विनाशी । ताते कार केरे नहि डाशी ॥
तेहि पांजी जटखरंग सांईं । चौदह ्रुनि है तिनके ॐई ॥
जलरंग पाको मेजदो पव । खोके जात बार नहिं छे ॥
सारा ठोक सोया दरवाजा 1 सोरा अश तेहि मांहिबिराजा॥
सोरा अश चह जो पवं। जाके सद्श्ुश्निज भेद ख्खावे॥
साखी-तीनि पांजीके निणय; तुमसों कहौ सद्ञ्चायं ¦
सार शब्द जो पाए तो, छिन हस धर जाय ॥
धर्मदास परे मंज गा |
सत्य सन्य युख दयाजो कीजे । अपनोके मोहि निज कर लीजे॥
त॒म समर्थं गुर् जक्त के कतां । सकर भेद जो निर्णय वार्ता ॥
हम चीन्हा तुम बरन छिपाए । बरन छिषाये तुम जगां आष॥
आए त॒म समर्थं हो अत्जानी । सत्य कहौ हम निश्चय सानी॥
जो अपना कर जानो मोहं । तो अपना तत्व बताओ सोरही॥
अब तुम कहो केसे जग आये । केसे तुम जोलहा काये ॥
साखी-एहि सब कारन भाखिहो, सब संशय भिरिजाय ।
अपनो के प्रतिपारु दहो, इस लियो मुकताय ॥
चौपाई -सतग्रुर खुदा होय प्रकटे साखी-खुदबानीकी
सतश् बचन विरहैसिके बोले । सत्य सत्य तुम अन्तर खोले ॥
तुमसो अतर कष न राखों । सकर मेदेकी निर्णय भांखों ॥
कहत बचन प्रतीत न आवे । तजत देह जीव टर न पावे ॥
तुम युग बध दोए कोई सेवकाई । तेरि पीछे हम भेद ल्खाई ॥
ध्मंदास करनी निज करिहौ । सीस उतार निज आगे धरिहो॥
( १२६३ ) कबीरबानी
बातो साटे वस्तु जो आईं । तौ एको जीवं विनशि ना जाई॥
चौका करिहो रदो भरवाना । तब पुनि कूं आप बंधाना ॥
तब नरी इते खंड ब्रह्मंडा । तब नदीं नदी अगरह गण्डा ॥
तब नदीं सात सुरत उतणानी । तब नदीं कीन्ह सकल सदिदानी॥
तब नहीं कहते अश ओर बषंखा । तब नरि कारचियणको संशा ॥
तब नहि पांच अण्ड निमांए । तब नदिं रोकर्टिं दीष बनाए ॥
अविगतिकी गति काहु न पाई । आपं बरन हम रहे छिपाई ॥
तब हम इते हेता नहिं कोई । हमरे मांहे रहे सब सोई ॥
इस पारस सब सुतं वट दीन्हा । एक बुन्दते सब कछ कीन्हा ॥
नाम बड़ाई अशको दीन्हा । शुक्र प्रकार रची इम ङीन्हा॥
चारि सुरति हम प्रगट पसारा । षां चवीं सुरतिहम शप्त विचारा॥
तुम जिन शंका मानो भाई । हमते करता दूसरे न आई ॥
बरन छिपाय हम जगमों आये । यगन युगन हम जीव शक्तये ॥
चारों युग दम पंथ चखावा । सात सुरति काहू मेद न पावा॥
अब इम कीन्हा प्रगट परसारा । सातो सुरती पाय टकसारा ॥
आढे सुरति सुकृत अवसारा । ताते तुमते ज्ञान कसारा ॥
नौतम तरति घरमे राखी । तिनके मेद् हम कब न भाखी॥
तुम बोधन हम जगम आये जाते कार तुष्े भरभाये ॥
तब हम रोकते दीन्ह पियाना । तुमकारनहमअक्षय अचछ्िषाना॥
मारग भेद सदृशुङ् क
प्रथम सदज सुरति रमि धा । नौतम सुरति इम नाम धराये॥
उन्हसों कदयो हमसत्य संदेशा । सदज अंकुर मानो उपदेशा ॥
| सहज पृछ
तब उन पूछा तुमको आऊ । सत्य वचन तुम कों काऊ ॥
बोधसागर ( १२७ )
सद्गु कै
तब भँ क्यो मोर नाम कबीर । मैं समथ अति नौतम शरीर ॥
पौन प्रवाना तुम ठेहो माई । घमरथ इकम रहो शिर नाई॥
प्रथम चौका सहज दीपने कीन्हा) सहज सुरतिका अकषर रीन्हा॥
तब हम चरेइच्छा सुरति लगाए । सत्य शब्द उन्हीं सथञ्चाए ॥
तौन अकपर जीव् चद़ावा । सूर सुरतिके दीप चङि आवा
सत्य ब्द तहँ बोरे बानी । भूल स्ुरतिसों निर्णय उनी ॥
मूलसुरति पज
कहो तुम अस करौति आए । के तुम समरथ बरणं छिषाए॥
सद्शुङ् क
नाहम समरथसमरत्थनिश्चानी । नौतम छरति युरूषको बानी ॥
जीवकाज संसार पठावा । तुमकोसिखाबनयपुहषकोआवा॥
लेह पान तुम तजो बड़ाई । पान ठेख शु हवे सहाई ॥
मूक सुरति का चौका कीन्ा । चरे सोहेग दीप पग दीन्हा ॥
तहां शब्द बोरे निर्वाना । सत्य सन्देशे पुरूष परमाना ॥
चौथे चौका सोहको कीन्हा । सोहे सुरत अकेपर लीन्हा ॥
चौका चारि अधरपर कीन्हा । चरे अर्चित दीष पग दीन्हा ॥
अवित अश है शूष उजागर । मानि दीपमणिनके आगर ॥
कचन चरण भूमि उजियारी । मणि आगर मणीन विस्तारी ॥
वहां सत्य इम सोरे बानी । अंश अर्चित करो परिचानी ॥
अचित पो
पूछे अचित कां आये । कौन चितावर इहां सिधाये ॥
सद्रगुर कर
तब हम कल्यो समर्थं पटावा । जीवकाजवरहहांहम चछि आवा॥
तुमते समरथ कट्यो सन्देशा । ज्ञान गम्य अर्वच उपदेशा ॥
( १२८ ) कृबीरबानी
कौर पान दीन होए खेदौ । तन मन चित समर्थ् देदौ ॥
तब अधित लीन्हा परवाना । सत्य शब्द् हिरदे हित माना ॥
तब आए अक्षर अस्थाना । महा श्ुन्य माहे होत ठिकाना॥
अक्षर पे
तब अक्षर पूजक विहसाई। कौन अंश तुम कँ सिधाई ॥
सदश् कै
तबहम कद्योमोदेसमरथपटवा । जीवकाज इदां हमवि आवा॥
मते समरथ क्यो संदेशा । ग्यानगभ्य गुरू वचन उपदेशा॥
कोल पान दीन होए लेदौ । तन मन चित्त समर्थक देहौ ॥
तब अक्षर लीन्हा भ्रमाना । सत्य शब्द् हिरदै दहित माना ॥
अक्षर पूते
तब आए अक्षर अस्थाना । महाञ्चुन्यमाहे ताहि ठिकाना ॥
तब अक्षर पूछे विहसाईं । कौन अंश तुम कहौ सिधाई ॥
सदूग॒ङ् कै
तब इम कदी काते आए । जिन एदि सब उतपानि श्चाये।।
निन इच्छापर सष्िरचि दीन्हा । छाप वचन कौल जिन्ह कीन्हा ॥
अक्षर उवाच
तब अक्षर चट कीन्ह विचारा । तुमतौ आपे सिरजन हारा ॥
इतना मेद॒ हमीं पुनि जान्हा । सोइ निज मेद् तुमकरेड बखाना॥
सोई पकी कहं निशानी । तब हम जाने सत्तकी बानी ॥
सदृशुङ् उवाच
सुनो अक्षर भै कहं सयुज्ञाई । वस्तु सिखापन तुमको आह ॥
प्रथमसमे सृष्टि रचो फुरमाई । दुसरे कारको रीन्द बचाई ॥
तिरे बचन दर्शनको कीन्हा । इतना वचन समथ तुम्दं दीन्हा ॥
बोधसागर ( १२९ )
अक्षर उवाच
तब अक्षर दोनों कर जोर । त॒म निश्चय जीवन वेध छोरी ॥
एक वचन में पशो अथाह । तुम समर्थको अश डो भाई ॥
सदृग् उवाच
तब अक्षरते क्यो सथ्ुञ्चाई । कौल दुष्डारे देन इम आई ॥
तब दिलदया जीवनक आई । वरणबोधकर छिपि जग आई ॥
समर्थं स्वहूपसबजग शिर जाए । शुङ्सशूप शक्ता बनि आए ॥
बचन गहे सो उतरे पारा। बिना वचन ङइवै संसारा ॥
अक्षर विनती करै
तवर अक्षर निज विनती नी ) समरथ देहौ पान प्रवानी ॥
हम चीन्हा तुम पुरूष पुराना । जब आए तुम रहि विकिाना ॥
सदृङ् कं
तब अक्षरका चौका कीन्हा । अक्षर सुरत अकषर ङीन्डा ॥
तब चलि दीप इंञ्चरी आए । सत्य शब्द तहां बोर सुनाये ॥
गरजे ंञ्जरी षग धरत न जाई । केक पुरूष बे तिहि उ1इ ॥
दो पार्ठटैग सुन्य है अधारा । चारि कोटि ज्योति उजियारा ॥
ड्मरी दीप इम गए म्जारी । गमित केर नहीं बिदै बिचारी ॥
निजंर कें
को तुम अज धरहो वरियारा । क्यो इम ज्ञ्चरीमहं पगधारा ॥
कौन हो अश काते आए । अपनो नाम कहो ससुञ्चाये ॥
सद्शङू कहें
तब हम कदी सुनो तुम बानी । योग जीत नाम मोर ज्ञानी ॥
समरथ मांग जीव कतां । तेहि कारण आए तुम्हरे ई ॥
इतना कहत केल दुख पावा । कोधवत दोह सन्भुख धावा ॥
( १३० ) कृबीरबानी
कैट अनन्त भेष धरि रीन्दा । हम सन्पुख बहूयुद्धते कीन्हा ॥
गजसङूप रोह सनष्ुख धावा । गदी दंत चहं बाज फिरावा ॥
तट फटकार रु पड़ संड डारा। भागे केर तब पेठ परताल ॥
गयो पताल जहां कमं अवतारा । तब इम चारु तहं षग धारा ॥
कैट कहे
विनती करे कमं सों जाई । राखो इमे भ तुम शरणाई ॥
कूम
तवे कमे उटि विनती राई । को तुम्द आह क्ति आई ॥
् सदृशर् कं
तब हम कयो नाम मोरा ज्ञानी । योग जीत हम अंश प्रमानी ॥
समरथ इक्म जीव उबरण आये। कारु फांसते जीव शुक्ताये ॥
इ्ञ्जरीमादं बहुयुद्ध दमसो कोन्दा। भागिके शरण तम्हारी लीन्हा ॥
जो सिखन समरथका ठ्हो । तो कैर हमार आगेकरि देहो॥
। कैल कहे
तवी केल पुनि सनसुख आये । आई ज्ञानी सों वचन सुनाये ॥
सुनो ज्ञानी मोर वचन कोलेखा । अपने दय तुम करो विवेका ॥
समरथ वचन दीन्ह मोहे हारी । म पायो लोकं संसारी ॥
तबकी बात रदित भई भाई । अष कसउटी अदर चलाई ॥
सबै अंश भरुगते मध्यानी। हम पर कोप भये तुम ज्ञानी ॥
सत्तर युग हम सेवा कीन्दां 1 चौदह भवन षकस मोहि दीन्दा॥
जेसी निणय दम सुनावो । तैसी सिखावन जानि चरखावो॥
| कूम उवाच
कूमं अंश त्र बोटे बानी । अपनी अपनी करो रजधानी ॥
इतना वचन सुनि लेह हमारा । मादिं मार्ह मतिकरो विगारा॥
बोधसागर ( १३१ )
चौका पानको जीवं तुम्हारा । छोकं वेदकं वसारा ॥
जो कोई केरे जोर बरियाई । ताको संग इम नहिं है भाई ॥
तब ज्ञानी बहते सुख पावा कैर उलटि श्॑ञ्रिसे आवा ॥
सद्र्ुङ् उवाच
तब मै घर्मनि संसारदहि आवा । तीन देवसों टेर नावा ॥
एहि भले माया अभिमाना । सत्य शब्द् उनहू नटि जाना ॥
सुर नर शुनि कोई नहि भने । बेदहि किया स्वै छषटने ॥
युगन युगनमे शब्द् पुकारा । जिन चिन्ह मए इस हमारा ५
बहुतेक ईस लोककौो गय । सत्य यती जाके घन भय ॥
खोजत खोजत तमपे आये । सवं भंडार म्द खोक बताए ॥
अब तुम कहा इमारो करहू । सोरा सतको चौका विस्तर ॥
साखी-सोरा सुतका चौका, एकं अग शङ् सिख होय |
सदा हनूरी वे रहै, भिरे बिद्धुरे कोय ॥
सोरग-जाने संत सुजान, बरंगीके रंगको॥
सथ्ुन्दर बुन्द समान, ममं कोइ जाने नहीं ॥
छन्द्-ज्ञान प्रकासे दीपका, जगति नाम जिन पाहया ।
सोह दीप आदि साजिके, सोह सङ शीस चद्ाई॥
साखी-ब्रह्ज्ञानकीं
अगम कोड चीन्दं नहीं, रोम ज्योति प्रकाश ।
रसबस जिव बांधे कारसो, फिरि फिरि बधे आश॥
चौकाविधि धर्मदास उवाच
धर्मदास तब सोंज मंगाये । कर जोरे उठि विनती खाये ॥
चौका जगति बतावो सोही । पौन प्रवाना देहो शरु मोही ॥
सदग॒रू सम्मुख आसन कीन्हा । चौका परि प्रदक्षिण दीन्हा ॥
पान मिग नारियर सोपारी। खोंगएलची कपूर विचारी ॥
( १३२ ) कृबीरबानी
नारियर सोरिके माम कीन्हा। समरथ मोग सुर्तसों लीन्हा ॥
ख्खिनी पान हाथके रेड । सत्यके अकं पानपर देख ॥
तब यमपुरस परयो खंबारा । सुक्तिके पथ चल्यो संसारा ॥
अजरपान धमैदासको दीन्हा । हस्प करि अपना टीन्दा ॥
अब त॒म हमको चिन्डों भाई । गहं तिमिर पिछली सुधि आई॥
पान प्रसाद सिखावन पावा ' शीश उतारि ठे चरण वावा॥
घ्मेदास तुम्दं सब विधि कीन्हा । मांगो बचन मैं सवस दीन्हा ॥
धमेदास उवाच |
मेदास विनती अलुसारी । पायो बोल वचन भं हारी ॥
म तरो ओर हमारी शाखा । ओर पीडरे सबही पुरखा ॥
सदूशुङ् उवाच
तब॒ सतगुङ् मनमें विहसाने । ते कहा मौग्यो कठ मो गेनजाने॥
सवे सृष्टिक तारो भाई । तुम तो आपन वंश उहराई ॥
एदि प्रपच काल सब कीन्हा । मति्वधि खचि तुम्हारी रीन्हा॥
तब धर्मदास जो भये मलीना । जैसे कैवलको संपुट दीन्हा ॥
तब सतशगुङ् फिर बोध विचारा ' धर्मदास तुम अश हमारा ॥
एक वस्तु गोय हम राखी । सो निण॑य नहि तमसो भाखी॥
नौतन सुरति हमारी शाखा । सातसुरति जो उत्पति भाखा॥
आवो सुरत तुमहि चरि आए । नौतम सुरति हम गुप्त छिपाए॥
नोतम सुरति वचन निज मोरा । जेहिते पला न पकरे चोरा ॥
1५ 0
घममंदास कर॒ जोरा । कदो वचन सोई सद्गुङ मोरा॥
सोई वचन कटौ सपु्चाईं । जेहिते जीवन सुटि नर आई॥
सदृश उवाच
आठ बन्दकी जगति बनाई । नोतमते आं बुन्द अुक्ताई ॥
बिना गुर कोड भेद नदिं पावे । युग बधं सो रस कटावे ॥
नोधसागर ( १३३ )
तब युग वध भये धर्थदासा 1 नौतम सुरतद्खन्द परकासा ॥
नौतम अंश दिरम्म कीन्हा आशिकङ्चन्दसावतिह दीन्हा ॥
धमदासकी विनती
धर्मदास विनती अवुसारी । साहब विनती सनो इमारी ॥
नारायण दास हमारे सोई । उनकीं सिखावन कैसी होई ॥
कैसी पेगति उनको करहू । अब तुम अपना वैश विस्तर ॥
दोह केसे चलि रजधानी । सो सतश् मोटि कहो बखानी॥
सदगुक् उवाचं
तब सतगरुर् एकं वचन पुकारा) चडामणि वश छ उजियारा ॥
ओर सब बीज कीर है भाई । तातेनारायणनामजीवं कहाई ॥
चूरामणि नाम से कार उराई । नरनामको धरि धरि खाई ॥
अदली वेश चुरामणि सो । बीज वंश निज इते होई ॥
ओर सकर जगनादं सनेदी । विन्द् वंश पारसकी देही ॥
तिन्दके सनद् चरू संसारा । उनके हाथ शक्ति कसारा ॥
धर्मदास तुम नाद् सनेदी । वम्दरे वशहि व्याछिसि देही ॥
मँ दीन्हों तुम खेन नईं जाना । शक्तिके वचन इम दीन निदाना ॥
वंश बयाछिस इन्द तुमारा। सो मे एकं वचनते तारा ॥
ओर वश ल्घु जेते होहं। विनाछछाप नहि टे कोई॥
बिद मिकेतो वेश कंहावे। बिना वचन नदीं घर पाषे॥
नाद् बिन्दु युग बन्ध जब होई । तबरही काल रहै सुख गोड ॥
गमित नाद् बचन नहिं माने । ताते बिद इम निर्णय ठाने ॥
बिद एक नाद् बहुताईं। बिद मिरे सो बिद कहाई ॥
मम सरूप है बिदके वशा । तिन्दके सनद टे सब हंसा ॥
( १३९ ) कृलीरबानी
साखी-बश थापि सो सार है, जो गुर् दिटकै देहि ।
साचे दावं बतावहदी, जीव अपन करि छेहि ॥
मदास उवाच
चमदास विनती अबुसारी । साहब विनती सनो हमारी ॥
पथ पगती कैसे नीर ॒बहाई । सो शङ् सचे दया कराई ॥
सदृगुङू उवाच
घमदास मे कदो ससुञ्चाई । दमदी तुमहि कैसे बनि आई ॥
एेसे नाद मिरे बिदको जाई । तबदी ईस पहुचे वह॒ ठाई ॥
अश होइ उनके कडिहारा । तिनकी छप चङे संसारा ॥
कोटिन योग युक्ति धरि धावे । विना बिद नदिं धरको पावै ॥
हम बद् तुम नाम प्रमाना । नारायण नाम नहि सिकाना ॥
वेश विरोध चिहै पुनि आगे। कारु दगा सब पथहि रमे ॥
वेशप्रकार
प्रथम वंश उत्तम ।१। दसरा वश अकारी ।२। तीस वैश प्रचंड
। ३। चौथे व॑र बीरहे । 9 पोचव्वरानिद्रा ।५। छटे वंश उदासं
।&। सातवें वेश ज्ञानचतुरारं । ७। आरे द्वादश पन्थ
विरोध । ८ । नौवें वश पथ पूना । ९। दसवें वज्ञ प्रकाश
१०। ग्यारहवे वश प्रकर पसारा।११। बारह वंश प्रगट होय
उजियारा । १२ । तेरहवे वश मिटे सकल अधियारा । १३ ।
एती दगा कार्की समाई है । तत््वबिन्दुकी टेक रह जाई है ॥
अगम बानी
अब् तुमसुनो अगम्य की बानी । तुम पर कोपे कार अभिमानी ॥
चार सुरति कार की भाई । ताको कारु पुनिनिकट बुलाई ॥
तुमसों मेँ चार बानी भाषा। चारि निर्णयकी बोली भाषा ॥
तेहि पर कारु करै चतुराई । चारों सुरति कहं सधि बताई ॥
वोधसागर ( १३९ )
कार्की चारसनंध
चित्तभग जग कीन्ह प्रकाशा । बीजकसंघ तिन्ह कीन्ह निवासा ॥
मन भंग ठे मूक समाई) फर जान बहुत चतुराई ॥
ज्ञान भग है बडा अन्याई। सो टकार भद् छे आई॥
चौथे अकि भंगको ख्ेखा ! बो तारतम ॐ करे विवेका ॥
छे दशंन
आगे चारि संपरदा भक्ति दद़ाईं । सत्य पुरूषकी खबरि न पाई ॥
चारि पथ आगम हम भाषा । ताके यै न्डेचे तुम्दरी साखा ॥
ताते पथ निनार हम राखा । सो सब तोसों दीनो भाषा ॥
द् हमार श्ररामणिदासा । उन्हके हाथे शुक्तं निवासा ॥
उनके निकट काठ नहिं अवे । बचन वंश कों शीश नवाते ॥
साखी-चारि वानी चारि खानी, चारि ज्ञान निधान ॥
लाख चौरासी जिया जोनिन्मे,तहां तीन जीव पमान
धर्मदास पे तीन जीव की सनद्
धर्मदास पूरछै चितरखाई । तीन जीवन शुङ् देहो बताई ॥
गुर् कहं तीन जीवन की परीक्षा
तब सदूय॒र् बोले अस बानी । तीन जीवकी रुखो संहेदानी ॥
तीन प्रकारके जीवबोधमे आई । चाल चले सो घरको जाई ॥
प्रथम जीव ब्रह्मसृष्टि है भाई । जिन्ह आवागमन रहितघरपाई॥
दूस॒र जीव सृष्टि व्यवहारा । करनी करि खीन्हे अवतारा ॥
तिसरी भाया सष्ठि बन्धाना । बोध बचन कीनो परमाना ॥
अब तुम पथ चरावो जाई । पटच जीव. तुम्हारी बाहं ॥
प्रथम वानिसुनि सुरति ख्गावे । निश्चय दशं दमारा पे ॥
प्रथम बानि है ज्ञान हमारा । खनि दैस अवे सत्य दरबारा ॥
समत पद्रासे बीस प्रमाना। मास जेठ बरसायत जाना ॥
तेदिदिनकालिमोउतरेफरमाना । बश्च बयाल्सि रोपे थाना ॥
( १३६) कृबीरबानी
चारि गुरू निज सीख इमारा । तिन्दकीो छप चरे संसारा ॥
सख बयाछिस बचन हमारा । तिन्डते अक्त रोय संसारा ॥
सहखर भांति होम जो कोइ धावे । कोरिनयोग समाधि लगाव ॥
कोटिन ज्ञान. छान बिरु छने । अथ परीक्षा बहुविधि आने ॥
वचन वश को बोरा नहिं पावे । फिर मरे फिरहि गभम अवे ॥
घमदास सुनो सत्य की बानी । कारु प्रपच बहुतविधि ठानी ॥
द्रादश पथ चलोसो मेद
द्वादश पथ कार फुरमाना । भरे जीवं न जाय ठिकाना ॥
ताते आगम कहि इम राखा । वेश हमार चरामणि शाखा ॥
प्रथम जगम जागू भमव । विना मेद ओ अन्थ चुरावे ॥
दुसरि सुरति गोपाहि होई । अक्षर जो जोग दृद्व सोई ॥
तिसरा मूल निरञ्जन बानी । लोकेवेदकी निणेय टानी ॥
चौथे पथ रकसार भेद रे आवे । नीर पवन को सन्धि बतावै ॥
सो ब्रह्म अभिमानी जानी । सो बहुत जीवनकीकरीहै हानी ॥
पांचो पथ बीज को रेखा । रोक प्रोकं कँ हममे देखा ॥
पांच तत्व का ममे दृदृवि। सो बीजक शुरं रे आवें ॥
ट्वा पथ सत्यनामि प्रकाशा । घटके माहीं मागे निवासा ॥
सातवां जीव पथले बोले बानी । भयो प्रतीत मम नहिं जानी ॥
आटे राम कबीर कहावे । सतगुङ् अमरे जीव दृटिं ॥
नौमे ज्ञानकी कारु दिखावे । भई प्रतीत जीव सुख पावे ॥
दसवें मेद् परमधाम की बानी । साख हमारी निर्णय ठानी ॥
साखी भाव प्रेम उपनावे। ब्रह्ज्ञानकी राह चावे ॥
तिनमे वश अंश अधिकारा । तिनमसो शब्द् होय निरधारा ॥
संवत सासे पचदत्तर होई । तादिन प्रम प्रकटे जग सोहं ॥
बोधसागर ( १३७ )
आज्ञा रहै ब्रह्म बोध खव । कोली चमार सबके घर खव ॥
साखि हमार ठे जिव सञ्च) असंख्य जन्मने ठर ना पावे ॥
बारवे पन्थं प्रगट दे बानी । शब्द हमारेकी निणंय ठानी ॥
अस्थिर चरका मरथ न पव) ये बार पथ इमहीको ध्यव ॥
बारहे पन्थ हमही चलि अविं । सब पथ मिट एकहीपेथ चवै
तब खुगि बोधो इरी चमारा । फेरी वम बोधो राज दर्बाय ॥
प्रथम चरन कट्ग निय ना । तब मगहर माडौ मेदाना ॥
धर्मरायसे मांडौ बाजी । तब धरि बोधो पंडित काजी ॥
बावन वीर करवीरं कदा । भवस्ागरसों जीव अकता ॥
कलियुगको अंत व्यते
ग्रहण परे चौतीससो वारा। कलियुग छेखा भयो निर्धारा॥
३७० ०ग्रहणपरेसो रेखा कीन्हा । कलियुग अतह पियाना दीन्हा)
पांच हजार रपौचसौ पांचा । तबयेशब्द होगयारसचा< ०९
सहस वषे अहण निर्धारा। आगम सत्य कीर पोकारा ॥
तेरा वश चले रजधानी । वेश चरासणि प्रगटे ज्ञानी ॥
तिनकी देदह छायो नहिं दोह । सवं प्रथ्वी प्रमानिकं सों ॥
क्रिया सोगंद
धमदास मोरी खख दोहाई । भूल शब्द बर जिन जाई ॥
पवित्र ज्ञान तुम जगमों भाखौ । मलज्ञान गोड त॒म शखौ ॥
भूलज्ञान जो बाहर परी । बिचरेपीदीवश्हस नहि तरदी॥
तेतिस अवे ज्ञान हम भाषा मूलक्ञान गोए इम रखा॥
भूलज्ञान तुम तब लगि छषाईं । जब गि द्वादश पथ मिटा ॥
द्रादशपथकः जाव अस्थान
द्वादश पथ अंशनके भाई । जीवबांपि अपने लोक ठेजाई॥
द्वादश पथमे पुरूष न पावे। जीव अंशमें जाइ समावे॥
( १३८ ) कतीरबानी
तुमजिन भूलो ज्ञानमो भाई । बिगड़ दंस सब जीव थुराई ॥
सोरटा-इमरो करे सब ज्ञान, वेस बयारिसि तिख्कं दै ।
द्वादस पथमे मान, पुरूष शब्द तोसे कहू ॥
धमेदास वचन
घमेदास प्रे वितलाईं । बेस बखान गरू कटौ सथ्ाई ॥
कोन वैस कौन अंस हमारा । कौन वंश अंश मजौद सुधारा ॥
पथ पेगति तेहि भाव बतावौ । जेसे जगमो पथ चरावौ ॥
तुम्दरो डर माने सब कोई । वचन डोर बाध्यो जग सोई ॥
दास नरायण सरण न पावा । दुसरा वश अश धरि आवा ॥
तेदिको पगति कदो समुञ्ञाई । सोहं पगति आगे चकि जाई ॥
साखी-इतनी निरभये भाखिहो, यर मोहि को सशुश्चाय ॥
वेश अशक पगति, सब विधि देह सखाय ।
साखी-वंशनिखेदकी । सद्रगुङ् उवाच
धमेदास सुन भेद अपारा । तुमसों कट वश अश निरधारा॥
समथ इमसों ठेसी फरमाहं । धमेदासको हो जगाई ॥
धमेदास दे अस हमारा । उन्हसों भद कों निर्धारा ॥
उनको जागा एक पथ टटावौ । पीछे हम अपनी अंश षपठावौ॥
ते जन्म लीहे धमेदाससे आहं । वोद दसनके बन्ध सुकताई ॥
तिन्हके बश चङे कंडिदहारा । बहत जीवनि के करे उवारा ॥
तब म पुरुषस विनती कीन्दा। धन्य बेस धर्मदास जो रीन्दा॥
वो केसे के लोकं आवा । सोई बात गुरु मोहि सुनावा॥
खुदबानी
तब समथं अख बोले बानी । ध्मदासको बेस अभिमानी ॥
ताते हम अपना अश पठावा । जबुद्धीपमें थाना बेठावा॥
बोधसागर ( १३९ )
अच्छर अच्छर अतीतकी बानी। नि.अच्छर कोई बिरट जानी ॥
निःअक्षर की अक्षर श्वासा । नहीं धरनी नहीं गगन प्रकासा॥
अक्षर तीनि लोक विस्तारा । ताम अक्ल्लो सब संसारा ॥
तीन सुत तेज अंडमों आई । आप आप इन्दं आप टाई ॥
चार वेद करै तिनकी साखी । अक्षर अतीतथापिञन्ह राखी ॥
अब भित्र भित्र कटं अर्थाहईं । सात सुरतिके स्थान बताई ॥
अक्षर अतीत माया सो किये । सों सुरति निरंजन रहिये ॥
अक्षर सुरति दुतिय रै स्थाना । जिनके चार वेद परवाना ॥
शब्दातीत अनहद रहता । प्रेम धाम अशक्षरकी चहता ॥
चार सुरतिका भेद नियारा । तीनि अरतिका देड विचारा ॥
पांच सुरति अकरकी बानी । पाँचे स्थानं तेहि उहरानी ॥
छटे स्थाना अकुरकी दै आपा । जेहिते सात करी उतताषा ॥
सातवी सुरति सहजकी रही । उहि समरथको देखा सही ॥
सात सुरति सात है स्थाना । मू सुरति है समथं प्रमाना ॥
सहज सुरति सब सुतं उपजाई । मूर सुरति ठे इस समाई ॥
मूक सुरति है सबको मूला । सात सुरतिको एकं स्थूला ॥
सात सुरति मूल सिध सब मादीं । धर्मदास रखुखि राखो तादीं ॥
शढ्द पंजी इतना परमाना । अब कहूं कायाकी बन्धाना ॥
सातों सरति कायाम रहै। ओ काया धरि बातें करै ॥
सुरति स्थान
प्रथमहि दीप अमर मनियारा । तहं वा मरु सुरति वैठारा ॥
दुसरा अजर दीप तहां 9 सुरतिको बेटकं दीन्हा ॥
हं
तीसर दीप दिरण्मय सोहे । सुरति अंकुरकी बैठक होई ॥
चौथे दीप सुरंग निमावा। ओह सोहं तँ बेढावा ॥
( १९० ) कबीरबानी
पोच अघर दीप रहे वासा । तरौ है अर्चित सुरतिको वासा॥
छटये पच्छ दीप जो कीन्हा । तर्ही अक्षरसुरतिको बेठकदीन्दा॥
खातों सुरत कलदीप बिरूमाना। काम कोध मोह तदं समाना ॥
सातवीं सुरति सातहूं स्थाना । तीनसुरतिनिरजन कार्प्रमाना॥
पुद्प दोप है सबते न्यारा । तहां समथ॑से जीव विस्तारा ॥
साखी-घट्घरकी जो प्रच कृदो , सब स्थान बताय ।
कृ कबीर बिनु काया प्रचे, फिरि फिरि रह भटकाय॥
साखी-सुरति पांजीकी धमेदास उवाचं
मे सद्गरू तुम्हरी बकिहारी । कं फास कैसे निर्ूवारी ॥
मोहि कहो जेहि दख ना होई । कार चरि कौ सब सोर ॥
जो तुम्हरे दिल आवे गुसाई । संशय जारूते लेह छुड़ाई ॥
साखी -तुम्दरो भेद अगम्य है, काह लख्यो नहीं सेद् ।
सुर नर शुनि सबही ठगे, सनक।दिक शुकदेव ॥
सतगुङ उवाच
धमेदास सुनियो चितलाई । तुम जनि शंका मानों माई ॥
पथ इमारो चरावो जाई । वेश व्यालिस्र अर अधिकार
वंश बयाछिस अंस हमारा । सोई समरथ वचन पुकारा ॥
वंश बयालिस गरवाई दीन्हा । इतना चर हम तुमको दीन्हा ॥
वेश अश समरथ कडिदारा । सोइ जीवनको करे उबारा ॥
तुम॒जिन शंका मानो भाई समरथ वचन राखो चितलाई॥
अरकं काडुको तुम जिन मानों । पन नाम तुम निय जानो ॥
साखी-तम सम्थके अंश दो, जाग्रत वंश तुम्हार ।
समथं बचन जनि छोड, मानो बचन हमार ॥
बाधसागर ( ११ )
साखी-व्याछिस्रके निकासी-धर्मदास् उवाच
ध्मंदाम जब विनती रइं । इमसों पन्थ ना चङे गोसांई॥
नरदेहीसों पन्थ चङे ना भाई । जाते अपना अंश पडा ॥
अंश बयाछिसि देह षठाईं । ते जग ईस ठेहि अकतार ॥
तम्दं सिखावन दमसों रीना । तम्ह ठे ध्मदासको दीन्डा ॥
बचन वेश एक है भाई नाम वैश जग मँ बताई ॥
वचन वंश है आदि निशानी । तिन्हकी पावै जग सहेदानी ॥
नाम नरायण दै अभिमानी । तुम संसार फिर जावो अब ज्ञानी॥
कबीर उवाच
तब समथं मोसे अस कदी । बशहि अस इरामणि सदी ॥
तुम्ह जो सिखावनहमसाों छीन्हा । एेसा जग अरामणि कीन्हा ॥
संधिक नाम हे उन्डकी देही । पावै हंसा जो हमरे खनेही ॥
साखी-यह निज् बचन › हमसो मेटि न जाय ।
अभीनिको में पो है ठ॒मको सोपि न जाय ॥
साखी-मदास उवाच
धमंदास तब भए मलीना । उठि सद्यो बिनती कीन्हा ॥
हो सादे मे तुम बलहारी । बेसनारायन शरण तम्हारी ॥
नाम प्रतीत तुम करो संभारी । नामनरायन तुम बोर विचारी॥
अषपनौ बोध राखौ संसारा । विन्द बेस प्रण आए इमारा ॥
साखी इतनी विनती मं करः त॒म दाता शू मोर ।
संशय मेटो जीवको, लेहो फंदको छोर ॥
सासी-वंश विषेदकी-सतश॒रु उवाच `
धर्मदास तुम बड़ _षिवेकी । तुम्डरे घरमे ञुद्धि बढ़ देखी ॥
धर धर शुरु जगतमे होई । हमरे यङ बचन बस है सोई ॥
बह सव करं सख चतुराई । ताते जीव राखे भरमाईं ॥
( १७२ ) कृवीरबानी
सान तजी छेहि परमाना । खोवे जगतपान अभिमाना ॥
बचन वशकी पारख पावे सोइ हमारे बश काव ॥
बचन बश पारख नरि होई । बश दंस सब जाय विगोहं ॥
बचन बन्धीए वश अधिकारा । पारस सशू्पी दै संखा7॥.
पासे वे रोहा कंचन होई । पोहोप बास तिर भेदे सोई ॥
बचन वेश दै पुरषं सनेदी । कागरूपते हंसं करि छेदी ॥
सो सब उत्पत्ति कहो सुञ्ञाई । जो चीन्है तो लोके जाई ॥
धमंदास तुम पन्थके राजा । नाद् विद इम दोनों साजा ॥
तुम्दरे वश पेथके कडिहारा । बचन वंश रोकं सटिहारा ॥
सतगुङ् बचन रहि सिर नाई । तब तुमरे वंश करे शुङ्वाई ॥
| साखी-कै कबीर
नाम नरायण जगदगुङ्, करे बोध संसार ।
वचन प्रतापसे छूटहि, वो समर्थके कडार ॥
साखी-वश असनके-धमंदास उवाच ॥
धर्मदास विनती अनुसारी । साहब बिनती सनो इमारी ॥
काया पांजीको मेद ल्खाओ । वेशञश दोऊ तत समञ्ञावो ॥
वा सन्धि कदो जाते होयउबारा। सोहं मेद् तुम कहो पुकारा ॥
धाम चारिका भम बताओ । केवे कैकसो आनि संथावो ॥
धमेराय जो अपरबरु बीरा । तीन लोकम ताकी पीरा ॥
पथ चरे जगमादीं । तीन लोकम ताकी कहीं ॥
साखी-पांजी मेद ख्खा न हौ, वश अंशनिरधार ॥
इतनी संङयय मिगावहू, सतशुङ हंस उबार ॥
साखी-काया्पांजी-सतगुङ उवाच
घमंदास कटौ सथञ्ाईं । काया पंजी आदि है भाई ॥
सुर नर शुनि कोई गम्य न पावा। टी आस बांध सब धावा ॥
बोधख्ागरं ( १४ )
पंजी चार भेद है भाईं। चार अश सबं जगहि माई ॥
अक्षर तीनि लोक उरञ्चावा । तीनि लोक अक्षर ठेदैरावा ॥
जग्बु दीप दै यमको बासा। कैसे अक्ति होय परकासा ॥
तुम तो जगन जगन चङि आए) काष्टे न शु जीव अुक्ताये ॥
चारि वेद तुम्दं नाहीं मानै) वेद क्रिया सब जीव समने ॥
साखी-हमसों पथ ना चद, भवसागर दाङ्ण है इन्द्र ॥
वंश बयालिस तारहु, काटो कमंके फंद् ॥
सद्गुङ् उवाच
चुनो धमदास कं भै तोही । तुम नहिं निजके चीन्डे मोर्ही॥
इमरो कट्यो निं मान्यो भाई । अपना वश मान्यो अुकताई ॥
सकल सष्ठ गु तुमक् कीन्हा । तुभसों बसर बया रीन्डा ॥
तुमको जानि बड़ाई दीन्हा । जक्तगुङ्् इम चरामणि कीन्दा ॥
हमसों समरथ एेसी कदी । चूरामणि बश जीवनं निरवदही ॥
वचन बवैशको जो नहिं मानी । ताको कार करे जिवहानी ॥
तुम्रं सेवै शङ् व्यवहारा । सो देखे समरथ दरबारा ॥
जो नहि मानें कहा तुम्हारा । ताका सास्तीकेरे वहिपारा ॥
चौपाई-तम गर बयाछिस वैशके, हम कष्मो वचन टकसार॥
तम्दरे हाथ जीव सब पहु चि, तुम समर्थं कडिहदार॥
साखी-गुश्ब्याख्यानकी-ध्मंदासर उवाच ।
हो सतश् मे तुम बिदारी । दिम मान्यो निज क्यो तुम्हारी॥
तुम सतगुरू हम शिष्य अजाना। तुम सम इम पुरुष पुराना ॥
गुरूवाईका रेखा सुनाओ । बिन रेखा जीव केसे अुक्तावो ॥
साखी-रेखा कहो तम सद्र, सब संशय निरधार ।
हम ग॒रुवाई करी है, मान्यो वचन तुम्हार ॥
( १७६ ) कृबीरबानी
चोपाई गरूवाईको जगति-सदगुङ कै ।
सुनो घमेदास कदो मे बानी । बात हमारी तुम निश्वय मानी॥
वचन वंश नरि कगे भारा । रेखा देखि चरे कडिहारा ॥
बिन रेखा गुरूवाईं करदीं । आसाबन्ध काटघ्चुख प्रीं ॥
चोथा बिसथारकी जगति
प्रथम लेखा जब चोका पोतावै । तब निङकत सञ ङे नीर गावै ॥
दुसरे चौका पूरौ भाई । काया मूलको मन्ञ जगाई ॥
तिसरे आसन करौ विस्तारा । पुङ्ष शब्द् निज करौ पकारा॥
कलश ठे आगे राखो । पचतत्वको मन्ञ शख माखौं ॥
पाचमो नारियर स्नान करावौ । सोहं शब्द ठे भद करावौ ॥
छठवें स्वेत मिठाई आनो । मानसरोवर सन्ब बवानौ ॥
सातवे उत्तम पान गावो । पक्ष वालना मन्व गोहरावो ॥
आठवें दलको जगति सुधारी । दयाशब्द घोखौ अधिकारी ॥
साखी-अर् कपूर लोग इलायची, दरु निरनैकी जगति ।
विधि विरु छांनि केन्द्र, दीन्हा शुरू जिव अुक्ति॥
चौपाई
नोमे नया वल्ल के आवो । अमर चीरको अन्त जपावौ ॥
दसवें सोरा सुपारी धरह । पाताल अशको अन्त्र उचारह ॥
ग्यारें पांच बरतन आनो । आदि नामको मन्ब-वखानौ ॥
वारहं आनि धरो परवाना । संधिकमन्ञ कहो ष्रवाना ॥
तेरह चद्वा छ बनाया । समरथ मन्त छवपति आया ॥
चौदह आरति आनि बनाई । सोहैग मन्ब निर्णय गोहराई ॥
पद्रहं तिनका अपण कीन्हा । चौदा यमका मन्व तब चीन्हा ॥
सोर षोडश मन्र॒प्रवाना । कदली दल तहां उत्तम आना ॥
सह सतग॒ङ् करे निशानी । सो नरियर मों डारो पानी ॥
मोधसागर ( १४९ )
अटारें अमि शब्द ठे नरियर मोरे। नहि तौ काश सीस ठे तोरे ॥
विना एको्री जो कडिहारा । ते सब बाधे यमके द्वारा ॥
बिना कखे जो युङ् कहि । शुर डवे शिष्य पारन पावे॥
साखी-इतना ठेखा पे, सो संचो कडिहार ।
कहँ कबीर बिन खेखा जाने, छखडइ काट बरपार् ॥
साखी-कडिहारी भेदकौ धम॑दास् उवाच
सहेव इतना भेद न अवे। सो नारीं कडिडार कहत ॥
मूल भेद तुम कहो प्रमाना । तेहिते इस रोय निर्वाना ॥
मूल भेद दै आदि निशानी । सो समर्थक दोय अमानी ॥
इतनी परचे हमक दीजे। मूर भेदकी दया अर् कीन ॥
गुरू सोह जो ज्ञान बतवे। ओर गुह को काम न आति)
साखी-धमंदास कीया करे छओ सतशुक्के वव ।
साहब जो मैं तुमते बिद्करो,तो मूलशब्द बारह दौड जाव॥
साखी- मूर भेदकी सदयुरू उवाच
धमदास . कटो म सोहं । मूल भेद घट राखो गोई॥
गुरू मर्याद काहू ना पाई। ताते शब्द तुम राखो छपाई)
मूख भेद है अगम अपारा । विरला दंस पावही पारा ॥
सुर नर मुनि गण गन्धर्वं देवा । तिन् मूख नहि पायो मेवा ॥
काया मूल है आदि निशानी । सौ धमनि तुम सनो भमानी॥
जो निज योग समाधि लगवे । सो तो छाम तिनह नहि पाते॥
चार वेद जिस आगम बखाना । मू भेद वेदो नहिं जाना ॥
अक्षर मूलक उत्पति भाखी । अजर मूर ठे बारह राखी ॥
अजर मूल है सबको मूला । तेहिते प्रथम काया है स्थुला॥
काखो सेनमे देउ खाई । अजर मूर ठे लोक समाई ॥
भिन्न भिन्न सब मूल बताञ । अजर मूल माया दिखलाॐं॥
नं. ७ कबीर सागर -£
( १९६ ) कवीरबानी
मूल भेद
प्रथम सूल आदि रै भाई । जिन सब उत्पति अंकुर बनाई ॥
दूसर मरु वानी रै व्यवहारा । तेहिते सहज सुरति निरघारा ॥
तीसखर मूर म्मको पावे) मू सुरति सब भेद बतावे॥
चोथ् मूर सोहग बंधाना । तामे सुरति ओग समाना ॥
पोचए रै अवित पर बानी । प्रेम सुरति तिहि मारि समानी ॥
छठे मूर अक्षरकी बानी । योगमाया अक्षर उतपानी॥
सातवे मूर अक्षरदीकी बानी । तेहिते केल निरंजन जानी ॥
अक्षर मूर रे सातवें कारा । भिगुण काल उत्पति प्रतिषाला॥
चार काल अपरबल बीरा । जाते जीवको व्यापे पीरा ॥
इतनो मूर चारि काल बखानी । अजर मूक चारि मारि समानी॥
खद्गुर मिरे तो भेद रखुखावे । बिना सतगुरू कोई पार न पावे॥
साखी-बिन॒ सदगुरु बचि नरी, कोटिन करे उपाय ।
अजर मूलका खोज न पावे, बांधे यमपुर जाय ॥
साखी-मूर व्याख्यानकी घमंदास उवाच
तुम सदगुरु हौ समरथ दाता । कैसे मिटे कार्की घाता ॥
तौन भेद गुरु देह बताई । जेहते देस लोकको जाइ ॥
शब्द् परीक्षा हमको दीजें । सब जीवनकी परचे कीजे ॥
केसे सीख हम करे संसारा । तौन भेद मोहे कटो विचारा ॥
कैसे तरिहै जगके रसा । केसे निर्भय तुम्हारे वेसा ॥
, साखी-वंश अंशकी निर्णय, दमसों कदो ससुञ्ञाय ।
| केहि विधि इम जो निस्तरे, केसे लोकि जाय ॥
सद्गुरु उवाच
सुनो धर्मदास कटू मे तोही । वचन वेश प्रताप दै सोदी ॥
वेश बयालिक्ष वचन हमारा । जिनको समरथ है रखवारा ॥
बोधसागर ( १४७)
ताको खोजि परमपदं पावे भवसागर मे बहुरि न अव ॥
जिनके व्यालिस वश तुम्हारा । जिनके वचन अंश हकडिहारा॥
वचन वेशको अश न दावे । तुम्हरो वश नहिं बोध चलँ ॥
एहि विधि वंश अश जो होई। दूत भरत॒ यम कंषन सोई ॥
जाति न जे ओर मोह न अवे । सोहं वेश अंश जो कहलाते ॥
कल्की दृशा जानिके खव । निश्चय राज वश युङ् डोव ॥
जिनके पारस चरे ससारा । देखत काल होय जरि छारा ॥
कडिहारी लेखा
अब सुनो कडिहारी ठेखा । वंश अशको जानि विवेका ॥
वश अंशको करे बिचारा । सो कष्टिये वहितं कडिहारा ॥
वेश अश नहि अक्षर पवे। सो कडिहार बोधकं ध्या ॥
वेश वचन कडहारी करीं । सो कडिहार फस नहीं परदीं ॥
कडिहारका किनहोयकडिहारा । लक्ष चौरासी अर्कै सो बारा ॥
जाति पांतिकी दासी न राखे । सदगुङ परिचय निशिदिन भाखे॥
वेश अंशको पान चटखावै। सो संचि कंडिहार कहावै ॥
सकी चाल
अब सुनियो जग हस विचारा । प्रथमहि चौका करे हमारा ॥
चौका अश समथके भाई । तिन्हअपनी युग अदल चलाई॥
चौका अंश कालकी हानी । तेदहिते पुरूषकी सुरति समानी ॥
तिनुका तोए रेहि प्रमाना । यम भाजे छोडे अभिमाना ॥
चरणाम्रत हि तत्त्वसों रेदी । यमके हाथ चुनौती देही ॥
भरेम पतीतं सो सेवा लव । नाम पान गुरु अक्षर पावै ॥
हस वरन हो तवा जाई । जब सतयुरु सतशब्द रखाई॥
एहि विधि वंस हंसकी करनी । ताते तुमसों कटं वचन प्रमानी॥
साखी-एहि वचन सत्य है, तुम वंश अंशको पान । `
। कडिहारी रेखा सार है, सहि भाव मक्ति परवान ॥
( १७८ ) कृबोरबानी
खाखी-वशञअशकी-घमेदास उवाच
सचि सतगुङ् इम भर पावा । जमको धोखा सबदि भिरावा॥
गुरूशिष्यको मेद इम पावा वेश अश छे सबै परखावा ॥
अब बश अंशका कटो प्रमाना । केते बश केते अंश रसिकाना ॥
वेश अंश केते कंडिहारा । तेदिकी परिव देहो विचारा ॥
केतिक वेश कडिहारा सथु्जाईं । केतिक संग दस ठे जाई ॥
केतिक प्रमानवंश हंसचरखिजाई । सो समथ मोहे देहो चिन्हाई ॥
सखाखी-वश अंशके परमान कहो, रेखा देहो बताय ।
एती सन्धि मोसों कदो, सब संशय भिरजाय ॥
साखी-सब वेश प्रमानकी-सदशुङ् कबीर उवाचं
धमदास तुम बड विवेकी । तुम्हरे घट बुद्धी बधि देख ॥
बचन वेश बयालिस टीका । तिन्दको सत्रथ दीनो टीका ॥
वेश अंश वचन एक सोई । दीचं वेश अश लघु होई॥
जेठो अश वचन मोरो जागे । ओर वैश जगके पीछे छागे ॥
तिन्हकी छप चङे संसारा । ओर वंश जगके कृडिहारा ॥
बीस दिनि ओर वण पचीसा । इतना खभ चरे सदीसा ॥
साठि वरण अंशा प्रमाना । चारवंश तेहि ओहि समाना ॥
नामवेशकी पारख देऊ 1 तिनसे व्यालश्च वश कृदिदेउ॥
तिनसे व्याछिक्ष वश कडिहारा। वचन वश ब्यास षसारा ॥
चार चङे ओर पन्थ दटावे । भुरे जिवन चर घर सुश्च ॥
वेश छपतिसिद्ध॒सुधारी । नाम अश करे कडिहारी ॥
घर्मदास एकं वैशकी हानी । पावे वचन वश सो समानी ॥
हमरो वचन चुरामनि सारा । वशश व्याटिक्ष रै अधिकारा॥
सोह वैश जे वचन विचारे । विना वचन नरि वश हमारे ॥
बोधस्रागर ( १४९ )
कृडिहार ओ हंस
वंश अंश मोहित कडिहारा । सदा हजूरी पलक न न्यारा ॥
वसी चाल दंसकी होई) सदा इनजूरी पलक दूरि न होई॥
वेश अंश ईस प्रमाना
पीटी 9
प्रथम वश अंशकी बानी । बचन कृडिह्ार एके प्रमानी ॥
दो सित्तर दस तिन्ह तारे। अयने केर सब जीव उवार ॥
् पीटी २
दुसरे वेश अंश चि अवे) पांच कंडिहार निशानी ऊतै॥
दूसरे वंश अंश अधिकारा । सातसौ तेरे जीव उवार ॥
पौटी ३
तीसर वंश अंश जब दोई। नख कटिहार ताङ्के डोई ॥
हस सोरासे खोक प्रमाना। १६०० । तिनके हाथ अचन बन्धाना।॥।
पीटी ®
चौथे वेश अश जग अवे। भवसागरमो पीर कहातै॥
तेरह सोदस तीन कंडिहारा। १३० ३। तिनके सङ्ग उतरि गयो पारा॥
पीटी ९
तेहि पीछे कारु अचरज होई । अशि वंश विरोधे सोइ ॥
पांचवे वंश अंश परवाना।सातकडिदारा तिनके बन्धाना॥
तीन इजार चारे सोई । ३४०० । इतना हंस रोकको होई॥
पीठी &
छठे वेश अंश अधिकारा । ताते काल आनि पेठारा ॥
पुनि आवे पुरूषहि सददानी । तरे कडिहार तिन्के परवानी ॥
छःसे सत्तर सात हजाराऽ६७० । वंश अंश सङ्ग उतरे पारा ॥
( १५९० ) कवोरबानी
पीठो ७
सातवें वेश अंश परवानी । द्वादश ताके कडार बखानी॥
तीन दजार पांचसे बावन । ३५५२ । इतने हंस पर्हूचे मन भावन॥।
पीदी <
अस्वे वेश बचन परकासा । सरा कडार तिनकेरहे बासा॥
पांच हजार चारिसे बारह । ५४१२ । पचे लोकं पुरुष द्रबारा॥
पीदी ९
नौमें वेश अश _ जब आवे । पचीस कडिदार सद्ग तब पावे॥
सात हजार आरसे छत्तीसा।७८२६।प्रगटेबश अशजगदीसा॥
पीट) १० |
दशे. वंश अंश अधिकारी । बत्तिसकडिहार भेद जग भारी॥
तीनसे पांच ओर आट इजारा।८३०५।तबरी पथ चदे असरारा॥
टी ११
ग्यारह वश तेतीस कडिहा प । नवसे पांच ओर नव हजारा ॥
१२
द्वादशे वश छतीस कडारा । ३६ दोसे सत्तर सात दजारा॥
पदी १३ |
तेरहा वंश अंशकी बानी । चाङिस कडिहयार तिनके परमानी॥
सोरासदस्र चारिसे पन्द्रा।१ 8 १९. पटच खोक मिटे यम निद्रा॥
` चौदह वंश अंश निर्बाना । बावन५२ कडार बोहित परवाना॥
तीससदस्र ओर नवसे तेरा।३०९१३ सब पथका नोय निबेरा॥
पीटी १५ |
-पन्द्र वश अंश चलि अवे । पथ मेरि आप पंथ चलावि ॥
साठिकडिहार मिलि बोध चरवे। साठि हजार हस सुक्तावे ॥
चालिस मण्डल भयो पसारा । तबहि पंथ चरे असरारा ॥
बोधसागर ( १९१ )
पीटी 98
सोरह वश कला अधिकारी।सत्तर ७० कडार शब्द् उजियारी॥
चौसठ हजार पांचते बारा1 ३७५१२।इतने हंस सब उतरे पारा॥
पीटी 39७
सतह वंश अंशकी बानी । असी कंडिहार तिन्हकी परमानी ॥
छिदत्तर सदख पांचसे तीसा।७६५३ ०।घमंदास ङक आदिसदीसा
पीटी १८
वंश अटरहे नवे कडिहारा । असी इजार ईस ठे उतरे पारा ॥
८००० ०तब कलियुगकी दसी भिटाहवेश अंश प्रगटे अधिका ॥
पीटी १९
उत्रिस वंश अंश अधिकारा । एकसे सात तिन्हके कंडिहारा ॥
छानवे हजार सातसे दोई । ९६७०२ । इतने हंस लोकको होई ॥
पीठी २०
बीसो वंश अंशकी बानी । एकसौ तेरह कडिहार बखानी ॥
लाख एक ओ बीस दजारा । पांचसे दंस ज्योति निधांरा.॥
॥ ३१२०५०० ॥
पीर्टी २१
वंश एकसो जग चङि आई । एकसो तीस कडिहार अधिका ॥
१२३०खाख दोय ओर तीस दजारा।छःसे अंश जो पांच अधिकारा॥
॥ २२०६०५९ ॥
(क पीठी २२ |
बश बावीसे दोय सौ कडिहारा २०० । तीन खख ओर चाछ्िसि
हजारा । सातसौ अंस जो बीस अधिकारा ॥ २५४०७२० ॥
जाग्रत बेस करे कडिहारा ॥
( १५९२ ) कसीरबानीं
पीटी २३
तेइस वेश अंशका बानी । दोईसे तेरा कडिहारा जो जानी२१३॥
तीन लाख ओर तीस हजार । इतने हस जो षांच अधिकारा
॥ ३३०००९९ ॥
| पटी २७
चोवीसे वेश अंश जग अवे । तीनसे कडिहार बीसते पावे ॥
पीटी २५
लाख चारि जो तीस हजारा । चालिस हस पर्हैचे दरबारा ॥
वेश पचीसे तीनसे छप्पन कडारा । राख षांच हस भयो पारा॥
पीटी २६
छबीसों वेश चारसो कडारा । राख पांच ओौर तीन इजारा॥
नबसे सत्तर ₹हंख उबारा ॥ «०३९७० ॥
इतना ममे दसको जानी । सब मंडल अररे रजधानी ॥
पीटी २७
सत्ताविस वेश अश अधिकारी।छःसो हंस करे कृडिहारी॥& ० ०॥
सात खाख छानवे हजारा। सातसे पेसढ हंसनिरधारा॥७९६&३७६&५
पीटी २८
वश अटाविकष जाग्रत दोडषां चसौकडिहारजो पदरा सोई॥५५१५॥
लाख चारि जो बीस करोरी । पेतिस हजार तीन सौ कोरी ॥
॥ २००४३५३० ० ॥
पीटी २९
उनतिस वेश मंडल उनचासा ॥ सातसे तीस कडार प्रकाशा ॥
७३०॥ तीस करोर लाख रै सोरा । साठ दजार सात सौ तेरा ॥
॥ २०१६६ ०७१३२ ॥
वोधस्षागर ( १५३ )
पीढी ३०
वंश तीस नौसों कडारा ९०० बयालीस करोड लख है
सचा ॥ बारा हजार आसो सा ॥ २१७१२८१७ ॥ इतना
हंस कीन्ह पवित्रा ॥
पीट ३१
एकतिस वंश अपन इजारा । चारिसौ बावन भये कडिडारा ५२
सत्तर करोड़ ओर पसट काखा । सेंतालिसर हजार ओर नौषे
बावन हंस उबारा ॥ ७०६५७७९५२ ॥
पीठी ३२
बतीसे वश सतावन हजारा । नौसौ सेताल्िसि तिनके कंडिहारा
«७९४७ ॥ एक पदम दोय नीर बखानी । छद करोड छख
बाविस जानी । नौ हजार सातसे तेरे । इतने हंस पहुचे निजमेरे
१०२००००७६२२०९७१३ ॥
पीटी ३३
तेतिस वश ओनसटि दजारा । छेत्तीस इस अधिकारी कंडि-
हारा । ५९०३६ । चारी शंख पदम दस सोई । तीस खव
नील ब्यालिस होई ॥ सित्तर खाख ओौर पचीस इजारा । सातसे
हंस चार अधिकारा ॥ १०७२३००० ००७०२७०9
पीठी ३४ ्
चौतीसौ वश ओर बासरि दजारा । सातसों चौपन तिन्हके
कंडिहारा ॥ ६२७५४ ॥ छतिस शंख ख उनहत्तर ॥ चारि
पदम अवे छेत्तर् ॥ बत्तीस करोड़ लाख नव आवे । व्यालिस
हजार तीनसे आवे २६०४००६ ९७६ ३२०९४२३०० ॥
टी ३५
वंश पैतिससत्तर दजारा । पांचंसे उनचास तिनके किरा ॥
७०५४९ ॥ पद्म असी सात खै अवं है बारे । श्तीस
( १५७ ) कवीरवबानी
करोड़ लाख ई तेरे । बारे जार नवसे साता । पहुचे हस निज
इतने साथा <००००७१२३६१२३१२९०७ ॥
पीठी ३६
छत्तीस बस ओर साठ इजारा । तीनसे चौसठ तिन्दके कडि-
हारा ॥ ६०३६४ ॥ पचटत्तर पदम खरब उनचासा । अबद
सात करोड़ पचासा ॥ लाख चार तेरा हजारा सातसं बावन ।
इतने रस पहुचे मनभावन ॥ ७५५० ०४९०.७०९० ० १ २३७५२ ॥
पीटी ३७
सतीससे वश ओर चौसठ हजारा । सातसे पेतालीस दै कडि-
हारा ॥ &9७७५ ।। सत्तर शख पदम नव होई । छयासी
खवे नील बावन सोई ॥ नव अबद दै चौदह करोडी । ग्यारे
खाखा बारे इजारा नोसे तेरे जोड़ी । मंडल अटनं पि
दोदाई । सत्य थापि असत्य उठाई ॥ ७००९५२८६ ०९१४१
१३१२९१३ ॥
पीटी ३८
अडतीसो वश बहत्तर दजारा । छहसे तेरा दंस कडारा ॥
७२६१३ ॥ शख तीस ओर खरब दै सोरा । नव अद्वुद करोर
है तेरा ॥ छप्पन लाख हजार चोबीसा । नवसे बहत्तर परह चे
हसा ॥ ३०००००१६०९१३५६२४९७२ ॥
पीटी २३९
उनतालीस वेश ओर असी हजारा । सातसो तिहत्तर॒ तिनके
कंडिहारा ॥ ८०७७३ ॥ पांच अर्शंख शंख पचवीसा ।
चाछिख पदम नील एकं बीसा । सात खरब अरबदै बारे।
नवःकरोड लखाख है छयानु । पचवीस दजार सातसौ बानी ।
बानौ उत्तम जानि बखानी । इतने हंस रोकं भल जानी ।
बोधसागर ( १५९ )
पीटी °
चाछिस बश छयासी दजार । नवसे बहत्तर तिनके कडि्ार॥
४६९७२ ॥ नव शंख नीछे हैँ । बाबन । पचहृत्तरि खरब ॥
अबं दोय भावन ॥ सात करोड़ ओर बत्तिसि लखा ॥
सड हजार पांचसे तेरा साथा । इतने हंस लोकं ठे राखा ॥
९००९९२७५ ०२ ०७३२६ ३५१३ ॥
पीटी १
व्यालीस्वे वश विस्तारा। कख एकं चौसठ इजीरं
कडिहारा. ॥ गणित हंस लहै को पारा । १६३४००० ॥
तीस अंश शंख परदा सोई। आठ नील नौ खं तहां हो३॥
अबे बयाछिसि तेरा करोड़ी । ग्यारा खख सहस्र दश जोरी॥
इतनो वश अश दैसको लेखा । जो परहैचे सो करे विवेका ॥
३०१५०००८०९४२१३१११००० ॥
एते बचन वेश परमाना। सो पवे निज बंशको पाना ॥
चारि गरुके बाहर राखो । उन्टके प्रमान उनहीसोभाखो॥
साखी-कँ कबीर
वंश अश हसकी निणेय, ओर कडिहारी रेख ।
कह कबीर धर्मदास सों तुम दहिरदे करो विवेकं ॥
लिखेत कबीर ब प । धमंदास पछेव ।
प
धर्मदास विनती अनुसारी । धनि सतगुरु तुम्हरी बङिहारी॥
संशय एक मोरे दिर आई । सो समर्थं मोहे कहा सयुञ्चाई ॥
इतना आगम ठनी तुम राखा । सो समथ तुम आगमभाखा ॥
वेश संग चले कंडिहारा। सो तुम खोलि कहो बिस्तारा॥
कृडिहार संग जो हंस पियाना । ताका तो तुह्य कीन्हा बन्धाना॥ `
( १५९६ ) कबीरबानी
तिनसे फेरफार कछ नौँई। सो समर्थं कहि दिखलाईं ॥
सबही इसरोकको जाई । तो कारेको पुनि करे कमाई ॥
सब कडिहार जह एक ठिकाना । सब रंसनको एके स्थाना ॥
सबही रंसा एक सरीखा । अबगररूमदहिमाकोकोनबिशेखा॥
एक भोस्य एकं है स्थाना । सब कडार एकं करि जाना॥
वचन वंश थापे कडिदारके बोधे। योग युक्ति काहेको . सोधे ॥
काेको एहि तन मन वारे । काहेको धन जोबन गारे ॥
काहेको चरणाप्रत छेदी सीथ लियेकी महिमा केदी॥
सबही हंस है एक समाना । काहेको चौका आरतिटना ॥
साखी-घमंदास
भलो नांव बाही केलको, जिव सब एक न समान ।
जेसी कमाई जीवक, ताको देवे सोउ स्थान ॥
चोपाई सदगुङू कबीर उवाच
सुनो धमंदास यह भेद नियारा । तुमको खोकिकदों सोनिस्तारा॥
सब रजघानी पुरुषहि कीन्हा । केलकं सिखावनपुर्षदिदीन्हा॥
ठेसी शंकं ॒जिन पछो भाई । कचा जीव बिचलिके जाई ॥
सथुञ्चे देस बहत सुख पाई । सर्वज्ञान कालमूट बताई ॥
द्वादश पथ भेद ना पावो। सातां सुरति पुरूष निमावो ॥
सष सरीखे नरह दोय कडटिहारा। केसे रहे एक द्रबारा ॥
केतिक सातो सुरति घर जेदै। उन्दके दीपमो बासा रे ॥
सोर्है अश समर्थ बड़ कीन्हा । उन्दको दीप बड़ बड़ दीन्हा ॥
कितने रर उन्हे दीप मेँञ्चारा ¦ आपन बोध लिये कडिहारा ॥
अवरदीप परुषके रदई । उन्हीं दीपमें वासा खदहं ॥
बोधसागरं ( १ 4७ )
सदश्च असी दीष सथेरा ८८००० 1 तहँ सब इईंसा करे बसेरा॥
सब दीपन्मो शोभा पवें । वहांके गए बहुरि नहिं अविं ॥
शुद्यमद्
एक बात हे अन्य नियारी । सोह यै धमनि कीं एकारी ॥
सकर दीपं थे दीप निन्यारा ) तद्वो अमरथको द्रवारा ॥
कितने कडिहार वा घरं जाई । पत मेद तुम अचय छिषाई ॥
छन्द्-तहौ समथ आपवबिराज है ताकां महिमा को छह ।
दीपडजियारी कहा बरनौ बास स्वाक्रा सो रहै॥
आन दीपके रसद सो वाको जाने नहीं ॥
उहांके वासी ईस सोषहेला सो ओर दीप मनँ नदीं ॥
सदा हजूरी हंस विगम जिन देही उन बिखराई्या ॥
गुरू शिष्य दोई एक होडके सो वा दीपसिधाइया ॥
सोरढा-कदली केरे पात, पात पातम पषात ई
से बात बातमे बात, जानगा जन जोहरी ॥
चौपाई-धर्मदास उवाच
धर्मदास फिरि शीस नवावा । दोड कर जोरिके विनतीलावा ॥
सोइ दंस ररै पुरूष दजूरी । उनकी रदहनि कहौ यर् थोरी ॥
केसे रहै केसे बै । केसे वेढे वे केसे डोठे॥
कौन ज्ञान कौन दै करनी । सो सद्गुरु कटो मोहि बरनी॥
जगम रहै कौन सत्य भा । कैसे काया केर सुभा ॥
आन दीप रहै सत्य सुभा । केहो उन्हकी कायाकेर प्रभाञः॥
दोउकी पररचे मोहि सुनावो । ज्ञान रि कारि मोहि दिखावो॥
साखी-यह कदु अचरज बात दै, कहि दिखावो मोहि ।
देखो ज्ञान बिचारिके, तबहि हदय सुख होदि ॥
( १९९८ ) कबीरबानी
सद्गु कबीर उवाच
सुनो धमदास मै करट ससुञ्ञाईं । गद्य भेद जिन बाहेर जाई ॥
द्वादश पथ यह् भेद न पावे । वेहे दोजकक्ा पथ चरूवि ॥
बहत दोइदै अपनो कंडिहारा । सो नहि जाने भेद हमारा ॥
पूरण -दया. सद्शुरूकी रोह । वश आपु ेहि समोई ॥
जिनक् देहि निर अक्षर पहिचानी। सो कडिहार ठेअगमकीबानी ॥
सो निज पावे भेद टकसारा । सदा हुजूरी पलकन्हि न्यारा ॥
देखा देसी करे कडहारा । भेद न पे बूट गँवारा ॥
देखा देखी बोध चखावे । एकि कूलि साखी पद गावे ॥
चौके वेडि ना करे निरूवारा । चौका जगति ना जाने रवारा ॥
पूरुष अश पुरूष सम रोई । अपने दीप रे जावे सोई ॥
बिहगमतिके दैसवणैन
अब तुम सुनो विहेगम बानी । विहेगमति हंस पर्हचानी ॥
निरअक्षर निस्तत्व निवासा । निहतत्व अगम्य है वासा ॥
चौका करे जाने वदिवारा । अंश बनीसे सबसो प्यारा ॥
सब अंशनको प्रमाण करिजाने । अपने अपने स्थान वे जाने ॥
सब अंशनकी लाग्य चुकावे । सुरति निरति सदगुशूसो षावे ॥
नोतम सुरति संग सनेही। एको षटरकं दूर नहिं होई ॥
ओ किये बोहत कडिहारा । सदा हुजूरी पलक नहि न्यारा ॥
अस कडिहार ते साररसदहोही । एक प्राण दोई रै देदी॥
साखी-जेसी मति कडिहारकी, तैसी मति दस होय ।
सदादजूरी पुरूषके, छिन. छिन दशन जोय ॥
चौपाई धर्मदास उवाच
सुने सदग॒ङू कडिष्टार रदानी । सबहि स्थान परे मोहि जानी ॥
अब किये बरूर हसका भाज । सो समर्थं मोहि बानी सुनाञ॥
षोधसागर् ( १५९ )
आन दीपमों करे रजधानी । प्रथम भाषौ उनकी सहिदानी ॥
सदा रहै वह पुरूष हजूरी । उन हंसनकी कहो मत पूरी ॥
साखी-जहि तुम बानी कहत हौ, मोहि खनि होत अनन्द ।
पूरा सद्गुर् पाया, मिटे कालके फन्द् ॥
चौपाई-सदशुरू कबीर उवाच
आनद्वीपके हंसनके वणनकी
अब सुनियो उन हैसनकी बानी । कुरु करनीमे रहै लकपटानी ॥
सहजभाव वोह भक्ति करेहीं । ञ्ूठ संसार सों रहै सनेहीं ॥
चौका आरति ज्ञानं समाना । दो दिशा बह रहै ख्षटाना ॥
इतनी वश छाप अपिकाईं । धोखे हंस नष्ट न्ह जाई ॥
जिन्द जेसी चार प्रमाना। जो जस पहुचे जाहि स्थाना ॥
जिन हसन जसो सुतन सवारा । जाहि दीपमे बास बसारा ॥
सव॒ दीपनमे करे आनंदा । देहि कांत उगे रवि चन्दा ॥
बिहगमस्ती हंसके वणन
अब तुम सुनो उन हंसकी बानी। विहग मताके हस परहिचानी ॥
जगम ररे कमल जस भाज । तन मन यौवन सब विसरा ॥
देहि इहां सुरती ग॒रूरचना । सञ्च नरं सुखजीव न मरना ॥
जेसे सपे कांचरी जाने । कायाको रएेसे करि मानै ॥
युक्ती युक्ती देह बनवे। जगका सुखनरि उनको भावे॥
गुरू शिष्य एके मत होही। एकै प्राण दाई है देही॥
सो कंडिहार शुद्य नहिं भाई । सोदरी जने ताके ताई॥
ई॑हस जानौ सब दूरी । जिन्हको किये पुरूषहजूरी ॥
नूतन सुरति है उनके पासा । सो कडिहार रहत उरदासा ॥
ज्ञान ध्यान सद्गुरु मन प्यारा । सदा हजूर् परुकनहि न्यारा॥
युक्ति सांक्चि चरणामृत छेदी । युक्तिहि युक्ति बनावे देही ॥
सदा रहे वह पुरूष हजूरा । छिन छिनद्र्शंपरक नरि दूरा॥
( १६६० ) कृबीरबानी
चार लाख ऊने हजार । नवेसे बावन निज कडिदहारा ॥
इतने कडिहारनिजधरे सिधावे । छिन छिन दर्शं पुर्षका पावे ॥
इतनेके शिर छ धरा । अर्थं सिंहासन बैठक पाई ॥
देख सुदरु जाइ दजूरी ।छ्यानो लाख ओरतेराकरोरी ॥
बावन दजार पांचसे आवि । इतने रैसख शिर चवर करावे ॥
एक देही एकै है मूला । पृरूष ईस एकसम तूला ॥
पुरुष रस एकं सम भाई । सबके शीसपर छव तनाईं ॥
इतना खुख दै पुरूष दजूरा । पहुचे हंस सदशुर् मत पूरा ॥
साखी-निःतत्तव मेद् यह गुप्त रै, पांच तीनसे न्यार् ।
नितत्वी जो दंस दहै, जह पुरूष दरबार ॥
ध्मदास वचन चौपाई
साचे सतगुरूकी बिहारी । अपनाकरिजिन लीन्ह उबारी ॥
कठिन कार दारुन बड़ होई । यरि संसार कखे ना कोई ॥
विन सतगुरू कोई भेद् ना पवे। सतगुङ भिरे तो संपि ल्खवि ॥
साखी-मनका संसय सब मिटा, हम पाया गुरू पर ।
विना परिचय जो गुरू करे, सो नर भररख कूर ॥
मौ
सुनो धमेदास हम तुम्हे बखानी । आदि अन्तकी सुधि तुम जानी॥
सम्बत पद्रसं उनहत्तर आवे । सतशुर् चरे उड़ीसा जावे ॥
जबलगि वेश करे गुर् आई । तब रमि धरनी घरों न पाई॥
जबलमि वशब्याछिस संसारा । तबलगि नदिं आऊ पिछारा ॥
वचनवश हम व्याछिसि भाखा ।जगकी भुक्ति बचनकी शाखा ॥
साखी-तीन खोक के बारिरे, सात सुरतिके पार।
तद्वो इस पह चावदहू, समरथके दरबार ॥
इति भ्रन्थ कवीरबानी समाप्त
बोधसागर ( १६१ )
विवेचन
इस अन्थकी एक दी प्रति सम्वत् १८४७ की छिखी इई है इसकी
दूसरी प्रति न होनेसे बहत स्थानोमें ज्यका त्यों छोड़ना पड़ा
है ओर अश्चुद्धिया रह गयी है । जब इतने वषं पीकेकी छ्खिी
कवीरपंथी मन्थोकी यह दशा है तब नवीन कबीर पंथियोकी
लिखे अन्थोकी क्या गति होगी षाठकं स्वयम् विचार कर ट ॥
इति
सत्यसुक्त, आदि अदी, अजर, अचिन्त, पुरुषः
मुनीन्द्र, करूणामय, कसीर, सुरति योग, संतायन,
घनी धर्मदास, चरामणिनाम, स॒दर्शन नाम,
कुर्पति नाम, प्रबोध ॒सू्बाखापीर, केवट्नाम,
अमो - नाम, स॒रतिसनेदरी नाम, हक्नाम,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम,
उग्र नाम, दया नामको बरा
व्याटीस्की दया
अथ श्रीबोधसागरे
2
एकोनविशस्तरगः
कमंबोध
ध
कमं कथा अब कटू बखानी । जौन फास अटके नरपरानी ॥
चारों खानि कमं अधिकाईं । चू खानी मिकि कमं रद्ाई ॥
कर्मदि धरती पवन अकाशा । कमहि चन्द्र शूर प्रकाशा ॥
कर्महि ब्रह्मा विष्णु महेशा 1 कर्महिते भयो गौरि गणेशा ॥
बोधसागर ( १६२)
सात बार पन्द्रह तिथि साजा। नौ अह ऊपर कमं विराजा ॥
कर्महि राम कृष्ण अवतारा । कमंहि रावण कंस संहारा ॥
. कर्महिते छे वसुदेव धर आवा । कमं यशोदा गोद् खिखावा ॥
कमेहिते वन गड चराई । करमते गोपी केकि कराई ॥
कौशल्या तप कमं जो करिया । कारण कमं राम ओतरिया ॥
कर्महि दशरथ कीन्ह उदासा । कमंहि राम दीन्ह बनवासा ॥
कर्म जाय जव धनुषं चदावा । कर्महि जनक सुता सिर नावा॥
क्म॑हरयो सीता कहं आई । इख सुख कर्मताहि थुगताइ ॥
कमं रेखते कोई न युक्ता ।कलिमनराम करम फर थुगता॥
कर्मसागर बांघेर बन्ध कटिया । कमहिजलरू जीवन दुख सहिया ॥
श्द्र राम कर्म कीन्ह लड़ाई । भला मिलाप इन्र भट चदा३ ॥
कर्मरेख नरि मिरे भिटाई । जीव पपीर ङंका दोय आइ ॥
केमेरेख लंकापति गयो । ठंकापति बिभीषण भयो ॥
कमं रेख सबरीं पर छजा । कहा राम कह रावण राजा ॥
क्मेरेख सबहीं प्र दोई । देखो शब्द् बिरखोय बरोई ॥
कमैरेख सागर बंध रीना । बिरटा कोड चीन्दे चीन्हा ॥
साखी-कमं रेख सागर बध्यो, सोयोजन मयाद् ।
विन अक्षर कोह ना टे, अक्षर अगम अगाध ॥
रमेनी
सागर भव सागर धारा । नहि कुछ सृञ्ञे वार न पारा ॥
तहवौँ बावन अक्षर लेखा । कमं रेख सबहिन पर दैखा ॥
कर्म रेख बधा सब कोई । खानी बानी देखि विलोई ॥
वेद किंतेब कम॑हीं गाया । कर्महिको निःक्मं बताया ॥
सद्गुर मिरे तो भेद बतावें । कमं अकम मध्य दिखरवें ॥
करम अकममं॑मध्य हे सोई । सो निःकम अकर्म नहोई॥
( १६९७ ) कृर्मबोध
अक्षर सागर निभेर बानी । अक्षर कमं सबन पर जानी ॥
गोरख भरथरि गोपीचन्दा । कमं फास सबही पुनि फन्दा ॥
सो ओ सात चौदह इक्कीसा । बऋह्याके चौरासी मेसा ॥
कमं फांस तदवा ल्ग राखा । जहौ खुगवेद् व्यास कदु भाषा॥
दश ओ द्वादश कमं बखाना । जिन जाना तिनरी पटिचाना॥
कमे अकम भूल जो करई । गहे मूर सो कंमं न प्रई ॥
अक्षर सागर सूल मडारा । अक्षर मूल मेद् उजियारा ॥
अक्षर मूल भेद जो जाने । कर्मी होय निःकंमं बखाने ॥
साखी-कवबीर-कमं डोर चारों शुग, सुनो सन्त सब दास ।
तच्वभेद् निस्तत्व रहि, जगते रहो उदास ॥
रभेनी
सतयुग तप कन्हे रघुराजा । कारन कमं नन्द घर गाजा ॥
एकं नारि रघुवर दख पावा । सौरखह सहस गोपी निरमावा ॥
कारन कमं केलि भवकीन्डा । कु कुञ गोपिन सुख दीन्हा ॥
जह् तहं गोरस जाय चुरावा । जह तहं कमं तर्द रे खावा ॥
कम केस टीका आयो जबहीं । मारन कृष्ण विचास्यो तबरीं॥
कम॑ प्रूतना भेष बनायो । कम पयोधर कृष्ण र्गायो ॥
कमं कारण जो तदं सिधारा । कारण कम॑ पीव विषधारा ॥
मारि तासु कोन्दीं गति चारा । कम॑ फास बो्यो संसारा ॥
कमं इन्द्र बरस्यो दिनि साता । कमं कृष्ण गिरि लीन्यो दाथा॥
कमेहि मारि विष्वस जो कीन्हा। कर्म फांस सबही आधीना ॥
कुब्जा कद कम जो कीन्हा । कारन कमं कृष्णगति दीन्दा ॥
कमपताल काटेश्वर नाथा । सावर अङ्ग भयो तेहि साथा॥
यज्ञ अश्वमेध करत बछिराजा । कमते जाय पता विराजा ॥
कर्मही वामन शूप बनाया । बलिराजपे दान दिवाया ॥
बोधसागर ( ३६०५ )
केम अहूढ नापी षग लीन्हा । तीने पृग तीनों पुर कीन्हा ॥
आधा षाव कमं अधिकारं । ब व्रषति पातारूहि डारी॥
जं खुगि जीव जन्तु उत्पानी । तहं खगि कमं राय परवानी ॥
कमं फौसि ते कोई न ष्टे! कमं फँसि सबहिन धर टट ॥
साखी-कमं फास छट नहीं, केतौ करो उपाय ।
सदगुरू मिठे तौ उबर, नहीं तो प्रख्य जाय ॥
रमेनी
जो कुछ कर्म जगते करई । करि करि कर्मबहुरि भवपरड ॥
एक नोय यज्ञ त्रत ठाना । एकं न पाप पुण्यं पृहचाना ॥
एक कमं कुल लीन्ह उटाई । कमं अकमं न जाने भई ॥
एकं छापा ओर तिलक बनावे । पिरि मेखखा साधर कहे ॥
वेष्णव होय करे षट कमां । वेद् विचार सद्ा ज्ुचि धमां ॥
कंथा पुराण सुने चितलाई । कमि सुमिरे बहुविधि भाई ॥
विष्णुसुमरितपबह विधि कियो। सो निष्कमंबिष्णु नहिं भयो ॥
कर्मकी उरि वैषा संसारा | क्यों छे उतरे भवपारा ॥
एक अभंग एकादशि करई । तन दरटे वैङण्ठहि तरई ॥
यह वैकुण्ठ न स्थिर होई । अन्त कर्मगति पर्य सोई ॥
केरे कर्म॑ वेकुण्ठहि जाई । कमं घटे भवजरफिरि आई ॥
योगी योग कम्मको साधे । किरिया कमं यवन आराधे ॥
योगी कम॑ पवनकी किरिया । भुगते कम्मं देहपुनि धरिया ॥
सन्यासी जो बन बनं फिरहीं । होय निष्क्मकमं फिर परीं ॥
जीयत दग्ध देहको करई । जटा बदढाय व्यसन परिहरई ॥
कोई नय कोई व्र कोरा । भरमत पिरे सहै पग टोटा ॥
राजद्वार पे अवतारा । भुगते कमं अकम व्यवहारा ॥
पण्डित जन सब कमं बखानी । नख शिखकम फास अर्ज्ञानी॥
( ३६६ ) कमबोध
कमे धघमंकी युक्ति बतवे। दान पुण्य बहुविधि अरथा ॥
वज्र॒ दान छे जन्म वविं । होय ऊंट बह भार लदा
एक जो करे बरत अवतारा । होई है सूकर श्वान सियारा ॥
सुकर श्वान होकम्मंजो थुगता । विन निष्कमं न होइरै शकता ॥
साखी
कंबीर-बह बन्धनसे बोधिया, एक विचारा जीव ।
जीव बेचारा ५ ) जो न छ्ुड़ावे पीव ॥
रमे
शब्द् भेद निःशब्द बताओं । करि निःकर्मं इस चुकताओं ॥
निरालम्ब अवरम्ब न जानें । शब्द् निरन्तर आष बखनिं ॥
` पाप पुण्यकं छोड आशा कमं ध्मते रहे उदासा ॥
रहे उदास नाम लो लाई । तत्व मेद निस्तत्व समाई ॥
तीरथ ्रतके निकट न जाई । भरम भूतको दईं बताई ॥
सुखसम्पतिनर्िषिपति वि्तारे । काम क्रोध त्रष्णा परचारे ॥
क्रिया कमं आचार विचारे । होय निःकर्म क्म निर बारे ॥
सो अहै जो निग्रह काया । अभिअन्तरकी मेरे माया ॥
शीर स्वभाव शरीर बसवे। अन्तर स्थिर ध्यान लगाव ॥
ब्रह्म अभि मनम परजाले। ताको विष्णु चरण परछाले ॥
गहे तत्तव॒ निस्तत्व विचारा । काम कोका करे अहारा ॥
सहज योग सो योगी करई । कमं योग कबहूं नहिं परई ॥
घन योवनकी करे न आशा । कामिनि कनकसे रहे उदासा॥
चहुं दिशि मसा पवन ककोले । ज्ञान लहर अभ्यन्तर डोले ॥
उनमुनि रहे भेद नदि कईं । तत्व भेद निस्तच्वहि हई ॥
ना कोह आय अग्नि होय ददई । आप नीर दोय नीचा बदरं ॥
मन गयन्द् गुरूमतसे मारा । गुरू मन ट्रे ज्ञान अडारा॥
बौधसागर ( १६७)
श्रा दोय सो सम्धुख नञ्च । भोंदू शब्द भेद नहि बन्धै ॥
दुखिया होय रेन दिन रोई । भोगी भोग करे स्ख सोई ॥
दुख सुख भोग सोगसम जाने । भटी बुरी कड मन नहिं आने॥
भली बुरीका करे सो त्यागा निश्चय पावे वह वैरागमा ॥
सीगी अखछय रेन दिन बाजे । सिद साध तहं आसन जजे॥
साखी-आसन साधे अपम, आपा डरे खोय ।
कहै कवीर सो योगी, सहजे निम होय ॥
काटल पुरूषने जब स॒ष्ठिकी उत्वत्ति की तब कम॑का जाल बनाया ।
वे कर्मं दो प्रकारके हैँ । एक शुभ दूसरा अञ्जुभ । ये दोनों कम॑
बड़ी बेडी दै । इन दोनों कर्मोकी बेड़ीने समस्तं शछषिको बोघ
ल्या । जो कोई शुभ कमं करता है सो सांसारिकं धन स्वर
वैकुण्ठ इत्यादि सब सुखकी सामग्री पाता है ओर इस पण्यका
अंतिम फल चार प्रकारकी शक्ति दै, इससे अधिक नहीं । सो
सब वनावटी है ऋषीशवरोने कठिन तपस्या की ओर योग समाधी
तथा प्रूजादिको उच्च त्रेणीपर पहुंचाया । दाससे स्वामी बन
गये तो मी उनका बन्धन न द्टा ओर आवागमन फेसे
रहे । काल पुरूषने समस्त वेद ओर किताबवालो को इन्हीं दोनों
कमेमिं बोध लिया । इस कर्मके तीन भेद इए । क्म-अकर्मं
विकमं। कमं तो मनुष्यको करना उचित दै। अकमंसे दूर भागना
ओर विकमसे मनुष्य अपनेको सक्त ओर भाग्यवान बनाता
दे जो शाघ्लानसार कमं ईश्वर निमित्त किया जाता है वह विधि
है । दूसरा अकमं जिससे लोक परलोकमें कहीं सुखकी प्रापि नहीं
होती है,उसे शासे निषेध कते है यह अकम ३श्वरके विरुद्ध दै
विकमं उसको कहते हैँ जिसके करनेसे कर्मसे दे ओर बन्धनकी
पाश टूरे ओर ज्ञान काम हो । पहिले स्वर्गं आदिककी लालच
( १६८ ) कसंबोघ
दिखाकर कमं करवाते ह इसके उपरान्त स्वगं इत्यादि सुख
सबका त्याग रै। जिस प्रकार पिता रोगी कडकेको लडड्
दिखाकर ओषध देता है, उसी प्रकार स्वं तथा वेकुण्डादिकी
लार्च मनुष्योको दिखाई गई दै । फिर भी एक कमं तीन
नामोसे प्रख्यात इआ सचित-प्रारन्ध- क्रियमाण । सञ्चित उष
कमंको करते हँ जो रक्षापूवेक रखा हआ हो-अ्थात् सदसो
जन्मसे बराबर उसके साथ र्गा चला आता हण अदा कृरनेका
समय नहीं मिला ओर वह ऋण माथे चढ़ा रहा । दसरा प्रारब्ध
कमं वह ह जिसे भाग्य कहते दै । इसी प्रारब्ध कर्म अनुसार
मालुषिकं शरीर प्रस्तुत इआ है । अथात् अपने पर्वकमांवसार
शरीर बना है । जब यह जीव अपने एवं शरीरको छोडता है तब
अहम् बोरता दै । अहम् का अर्थं मँ दू । अहं बोरुकर दृसरे
शरीरम् प्रवेश करता दै । चारों खानिके जीवोंकी यही रीति
ह । जेसे एक प्रकारका कीड़ा होता है । जो वक्षोके पत्तोपर रहता
है जब वह एकं पत्तको छोड़कर दूसरेषर जाया चाहता है तब पहले
वह अपने अगले पेरोंको पत्तेपर जमा ठेता है। जब उसके अगे
पैर दूसरे पत्तपर भटी प्रकार जम जाते ह। तब वह अपने
पिछले पेरोको भी सींचकर दूसरे पत्तेपर जमा रेता दै ओर
अगले पत्तपर भली प्रकार जम कर वैठ जाता है। ओर पिछले
पत्तेसे संबन्ध छोड़ देता हे इसी प्रकार सदेव दी इस ( जीव )
का आवागमन हुआ करता दै। ब्रह्मासे केकर सवेजीवोमे अहङ्कार
भरा इआ रै जिसमे अहङ्कार नदीं उसका आवागमन नही
अहम् बोटनेसे उसके आवागमन सम्बन्ध बराबर जारी रहता
हे। वह ब्रह्मा जो पदे अहम् बोला वदी ब्रह्मा अनन्त स्वरूप ओर
स्वभावोमे चारों खानमे समा रहा है। अहम् कर्मोका आकषेण है ।
बोधस्ागर ( १६९ )
जो एक योनिसे खींचकर दसरीमरे डर देता है । जेषे चम्बक
लोहेको खींच केता है ।
तीसरा कियमाण कमं वह है जो अब् कर रहै है) यदि यह्
क्रियमाण कमं बलवान् होकर ञ्युभ वा अज्चुभकी ओर इका तो
वह॒ अपना रङ्क टङ्क दिखला देता है! यदि वंह स्ुकर्यकी ओर
ञ्ुक जावे ओर सुकमकी प्रणता करे तो वह अपने स्वहूपको
प्राप्त करा देता है । यदि अश्चुभकी ओर ञ्चका तो जड़ योनिं
जा समाता है ओर नरकके समस्त दःखों तथा अत्यन्त कष्ठ
अपनेको डाककर कंकड़ पत्थरकी तरह बेकाम कर देता रै, फिर
उसको सुषथ नहीं मिता ।
महाकता-महाभोगी-महात्यागी । महाकतौ उसको कहते ड
कि, जो कमं करता ३ ओर अपनेको कतां नीं मानता ¦
महाभोगी उसको कहते हैँ कि, जो सवे भोग भोगता ३ ओर
अपनेको भोगता नहीं मानता ।
महात्यागी उसको कहते हँ जो अहंकारको त्याग दे ! इस
त्यागका गुण तब जाना जाता है जब उसको अन्तरहषि
होती है जबलों इन तीनों बातोका गुण भलीपरकार जाना न
जावे तबलो वेद ओर पुस्तक पाठसे कोई लाभ नहीं होगा ।
नतरदष्ठिसे जाना जाता रै कि, यह तीनों क्या बात ह!
महाकतां तो यह तब दोता रै कि जब यह अन्तरदष्ठिसे भली
भांति देखता रै, कि मेँ कुछ करदी नदीं सकता ओर मै किसी
काका कर्तां नदीं हू केवल मेँ अपनी मूर्ख॑तावश आपको अपने
कायका कर्तां समञ्च रहा हू । भ ओर यह समस्त संसार कलक
सदश चल रदा है । मेरा ओर किसीका कोई वश दी नहीं कि कोई
काम करे। न मादूम वह कौन दै जो शङ्को तथा समस्तसंसारको
( १७० ) कमंबोध
चला रहा है । जब भैं कुक करता दी नहीं ओर न मेरा किया कुछ
दो सकता है, एेसी अवस्थामें यइ अपनेको कर्मोका कर्ता नहीं
मानता । जब यह अपनी अन्तरदष्टिसि भली प्रकार देख लेता है
तब फिर यह अन्यान्य ओर ध्यान नहीं देता ओौर जानता है कि
जब भे किसी कार्यका कर्ता ही नहीं तो मँ ग्यर्थही अपनेको कर्ता
क्यों ठहराऊ ? तब वह अज्ञानतासे पथक् होता है । संसारी
इसी अज्ञानतामे फसा रहता है ओर आपको अपने कमंका कर्ता
समञ्चकर दुःख सुखम क्के खाता ३ै। मै क्यों अहम् बोख्ता ह
नहीं जाने सञ्च कोन अहम् बोक्ता रै ओर कौन बोलता है। अतः
इससे जाना गया ओर प्रमाणित हआ कि स॒ञ्चको मेरे काकि
बन्धन अहम् बोकाते है ओर दूसरा कोई नहीं । जव चै अपने
कर्मके बन्धनसे छट जाऊँगा तब मेरा अहम् बोलना भी छट
जावेगा । जबलों यह आपको करनेवाला मानता ह तब-
तके य॒द् करियाम आपको स्वतन्ब समञ्जता दै । तब यह अन्तर
ष्टरिसे भली भांति निगाह कर लेता है कि. मे अपने कर्मोकिा कर्ता
नहो, तब अपने ज्ुभ अञ्जुभ कर्मोको परमेश्वरको सौपके ओर
उसके शरणमे होकर उससे सहायता मांगता है ओर जान छता
दे कि, मेरे कायं स॒ज्चको बचाने योग्य नदीं । मेँ सत्यगररुकी
शरण ह, इसके अतिरिक्त ओर छुटकारेका कोई उपाय नहीं ह ।
अपनी अज्ञानताके कारण मे अपने कार्योका कर्ता आपको
जानता था; परतु आगे अब रएेसा कदापि न क्गा ।
यदि यह ॒स्वतेन््र दोता तो सब कुछ करलेता । फिर
अपनेको दीनता तथा दुद॑शामे कदापि नहीं फँंसाता ।
एक् दिनका वृ्तांत दै कि, एक पादरी सादब आकर मेर
पास बेटे ओर वाद विवाद पर प्रस्तुत हए । उसने कदा कि
बोधसागर ( १७१ )
बनुष्य अपने कारयेयं स्वत रै इसपर मैने उत्तर दहिया कि
यह् बात कदापि नही, क्म स्वतंजता किसीको पान्त नदीं । सब
कलके समान गतिमान् ह । खतरा तौरीतनें उत्यत्तिकी पुस्तक
देखो जब आदम उत्पन्न हआ । खुदाने उक्षको मना किया कि
तू यदह कार्यं कदापि न करना ओर इस ब्रक्षके फरको न खाना ।
आदमने न माना ओर खाया जिक्षसे वह ददंशाच्रस्त इआ ।
यदि आदम कमं करने स्वत रोता तोेसा कदापि न दोता।
फिर आदमके पु काबील ओर हाबील इए वे भीरेसेदीये)
कारण यह् है कि, दोनोने एक दिवस परमेश्वरे समक्ष भट चढ़ा
छोटे भाईकी भट तो स्वीकृत इह ओर काबीलकी अस्वीक्त इड,
इस कारण काबील अत्यन्त ऊढ हआ, तब परमेश्वरने कडा किं
हे काबील ! तू काहेको कोध करता है यदि त्रु अच्छे पनसे देता
तो क्या तेरी भर स्वीकार न की जाती! परंतु त् अपने भाहषर
जय पावेगा। काबीलने अपने भाईपर जय पाई ओर उसको मार
डाला । जब परमेश्वरने उसको परछा कि तेरा भाई हावी कहां
है । तब उसने उत्तर दिया कि मै नदीं जानता क्या मै अपने
भाईका रखवाला ह । इस पर खुदाने उत्तर दिया कि तेरे भाईका
खून भुञ्चे पुकारता है । अब तू हत्यारा तथा दोषी हआ यह
कहकर खुदाने उसको शाप दिया । भलाजी ! यह न्यायकीं
बात थी किं खुदाने तो स्वयम् कहा कि त्र अपने भाई पर जय
पावेगा उससे जय पाई ओर उसको मार डउाखा। फिर वह
दोषी केसे ठहरा ? यदि अपने भाईको न मारता तो खुदा ञ्जूडा
होता ओर मारा तो दोषी इआ ओर वह हज्रसे दर किया गया
तथा उसकी सन्तान पापिष्ठ ठहरी ।
( १७२ ) कमबोध
णेखा ही चूदके विषयमे जानना चाहिये कि नूह सिखाते-सिखति
विवश हौ गया, किसीने उसका कनां न माना अन्तको बाद
आई ओर समस्त मनुष्य ङब् भरे । कोई जीव सिवा उनके कि
जो ब्रहकी नावपर था नदीं बचा । फिर चूहकी शिक्षा तथा खुदा
कौ चोकसी किसी कामकी आयी । वह भी कर्ममे स्वतंज ठहरा
जब बाद्से सबको सत्यानाश कर चुका ओर नूहकी ओर खुदाने
ध्यान दिया तब खेद करने ओर पकताने खगा कि मने सबको बाठसे
क्यो नट किया।कारणयह कि मनुष्यों केध्यान तो बचपनसेदी बुरे
ह अब भविष्यमें में बादृसे रोगोको न मिटाङगा । इससे प्रमाणित
आ कि इस खुदाको भी स्वत्रकार्याधिकार प्राप्त नहीं यदिरेसा
होता तो जब वह आदमका पतला बनाने लगा फिरिश्तोने
मना किया कि आदमका पुता न बनाओ वे पाप करेगे फिर
पृथ्वी रोई ओर कहा कि सुञ्चसे मिद मत खो ओर मनष्यका
पुतला न बनाओ, मनुष्य बड़ा पाप करेगे पर खुदा साहबने
किसीका कडना न माना । अपनी इच्छासे मनुष्यका पुतला
बनाया।आगे मयुष्योके पापोसे श्र होकर बाढ़ खाकर पछ्ताया
आगे फिर मे केसे कहूं कि खुदा साहबको काथस्वतता प्रात थी।
दजरत चृहकगे उपरांत हजरत इबरादीम अच्छे ओर पवि
खुदा के पेगम्बर इए । वे भी स्वतंज् नदीं थे कारण यह कि
उनकी शिक्षासे नमरूद बादशाद इत्यादि सभी विरश्द्ध होगये ।
इबराहीमकेडपरांत इसहाकको पेगम्बरी मिली ओर इसदहाककी
छी रबका जब गभवती इई उसके पेम दो बालक ये ओर वें
दोनों पेटके भीतर परस्पर डते थ-तञ रबकाने खुदाके निकर
जाकर निवेदन किया कि मेरे पेटके दोनों लड़के आपसमे क्यों
| ______
बोधस्ागर ( १७३ )
फिसाद् करते हैँ तब खुदाने कदा कि, बड़ा छोटेकी सेवा करके
बड़ाई पावेगा । फिर इसहाकने ज्येष्ठपुतर इको बरकत देनी
चाही पर उस बरकतको छोटा युर याब छे गया । इसहाक-
कीयुक्तिने काम नहीं दिया ।
देखो मूसाकी पटी पुस्तकं २ बाबक्छ २१-२२-२३ आयत।
इनके उपरान्त हजरत यसा थे वह भी अपने कार्य्यं स्वत
नहीं थे । कारण यह कि परमेश्वरने भरस्ाको भिस फिड्नके
सिख लानेके लिये मेज ओर यह भी कह दिया था किं फिड्नके
मनको म कड़ा करूगा । वह तेरा कना न मानेगा । ससाकी
शिक्षा किसी काम न आई ।
मूसाके उपरान्त हजरत इसाने खुदासे बहत भार्थनाकी कि
सलीबसे बच जा पर नहीं बचे ।
इसके उपरान्त मुहम्मद् शुस्तफाने बहुत कछ बललगाया
ओर रक्तपात किया तो भी सको मुसलमान कर नहीं सके यह
सात सब कहकर ओर नहीं दिखाकर फिर मैने पादरी साहबसे
कहा कि इन महाशययोमे तो कोई स्वतन्व नहीं ठहरा । कदाचित्
आपके नाम अब खुदाई परमाना कार्यं स्वतन्वताका उतर पड़ा
हो तो क्या आशयं रै! मेरी बातें सुनकर पादरी महाशय चुप
हो रहे ओर फेर भुखतारीका दावा ॐोड दिया ।
केवल कबीर साहबको ही स्वतन्धता है द सरेको नदीं । कारण
यह है कि, जब वे मनसे छुटकारा दिलाया चाहते है उसको
अवश्य टादी रेते रै ओर जो कछ करना चाहते है करी
ठेते है उनका रोकनेवाखा दूसरा नहीं ।
( १७७ ) कमबोध
जेखा र कायं यह मनुष्य जायत अवस्थामे करता है
वैसारी काथं स्वप्रावस्थामे किया करता रै। परन्तु स्वप्रावस्थाके
कर्मोको कोई नरीं कहता किं मैने किया । यद्यपि जायत अव-
स्थाके कर्मोका कर्तां यह स्वयम् बनता है किं यह कर्म मेरे
है, यद्यपि जाग्रत तथा स्वपघ्रावस्था दोनों समान है । केवल उतनी
ही विभिन्नता ई किं, जाग्रत देररों उसके साथ रहती है ओर
` स्वप्र थोड़ी देरमे बीत जाता रै । यदि स्वप्रके कर्मं उसके नहीं
तो जा्रतके कमं भी उसके नीं, इस कारण आपको स्वकमंमे
स्वतन्ञ समञ्चना अज्ञानता रै । यह स्वतन्व कदापि नहीं ज्ञान
की दष्िसे यह अहंकार जाता रहता है । इस जीवकी चारों
दशा स्वप्रके समान है ।
दूसरे महाभोगी वह रै किजो समस्त भोगोको भोगता है ओर
आपको भोगनेवाला नीं मानता । यह भी बिना अन्तरप्रकाशके
जाना नहीं जा सकता कि, भोगनेवाखा कोन है ओर यै कौन ह ।
यदि मे भोगनेवाला होता तो पँ जो चाहता सो भोग भोग ठेते
ओर भोगोसे कभी न भागता । कोई भोग एेसा नहीं ह कि जो
भोगोसे अलग जानता है उसके सामने अच्छा ओर ब॒रासमस्त
भोग समान है कारण यह रै कि, जब रानी द्रौपदीने श्वपच
सखदशनके सामने भांति भांतिके स्वादिष्ठ मोजनोके थाल धरे तब
उन्होने सब खहा मीठा ओर नमकीन एकमे मिलाकर खाना
आरम्भ किया । कारण यह् कि उनको स्वादोकी कामना नहीं थी
एक साधुको एक मयुष्यने कड तुम्बकी तरकारी बनाकर खिला
दिया । वह साधू कडईं तरकारी बिना कुछ कहे सुने खा गया
जब पीछे गरदस्वामी खाने खगा तब उसको वह तरकारी विषसम
माटूम इई। वह अपनी स्रीको डाटने लगा कितने यह विषसमान
तरकारी साधूको खिला दी साधूको कितना दुःख हआ रोगा ।
बोधसागर ( १७९ )
उनके मनम बड़ा भय समाया ओर वह साधके पास जाकर
उससे क्षमा प्रार्थना करने खगा ।
एकं साधको एक गृहस्थ ने खीर खिखाई ओर चीनीके बदले
भ्रलसेनमक डार दिया । कारण यह कि, वह् नमक चीनीके सदश
था। वह साधु बिना कुछ कटे खा गयाउ्षके भीतर जब नमककी
आग खगी तब उस शरहस्थके चरमे आगरगी जब घरमे देखने खगे
तब जान पड़ा कि साधको चीनीके अमसे नमक दे दिया गया ।
लोगोने कहा कि, उस साधरुके खदयमेदण्डक आवे तबधर की आग
भी बुञ्े।धलीम कोड सरदार था उसके पास एकवैष्णवसाध्च आयां
ओर उसने नहा धोकर ठङ्खरजी की एूजा की । उस समय उस
सरदारने दूध ओर चीनी साधके निमित्त यँगवा दी,उस्र वैरणवने
गङ्रजीको भोग क्गाया । इसके उपरांत जव आप वह दधपीने
लगा तब उस सरदारको याद आया कि, जहां चीनी भी वहां
घोड़ेकी दवाईके ययि संखिया ध पीसाथाएेसानदहौ कि
साध्रुको सखिया दिया गया हो दौडके देखा तो संखिया दिया
गया था । उस सरदारने पुकारके कहा महाराज ! यह इध मत
पीओ इसमे संखिया पड़ गया । तब उस वेष्णवने कहा कि
अब तो यह संखिया ठङुरके भोग लगाया जाञुका है मेरे गङ्कर
संखिया पीव ओर मे चीनी पीड ! वह वेष्णव दूष तथा संखिया
सब कुछ पीगया ओर चंगारहा संखियाने उसको किसी प्रकारकी
क्षति नहीं परह चाई । उसके भीतर भोगता विष्णु था विष्णु
उसको देखता था ओर वह विष्णुको देखता था । आपं उस
भोगसे अलग रहा ।
तिसरे महात्यागी-तब होता दै जब देहके अभिमानको छोड़
जबलों देहका अभिमान न इरे तबो त्यागी नही। अभिमानरी
करके यह देह मिलती रै ओर इसीसे स्थित हो रदीहै।.
सहसरं त्यागी हो गये परन्तु देहका अभिमान न छोड़ने से
( १७६ ) कमबोध
बन्धनम रहे बाहरसे तो उन्होने सब छोड़ दिया, पर॒ भीतरसे
छोड नहीं सके ओर न देह अभिमान छटा । देहका अभिमान
छटा तब जाने कि जब किसी प्रकारकी आपत्ति तथा साहस-
कग वटनासंघटित हो तब स्थिरता न् इरे ओर न किसी प्रकार-
कगे घबङ्ाहट हो । सुतरां ऋषिथुनिगण उजाड तथा वनमें
बसते है । उनको वहां प्रत्येक परकारकी आपत्तियां आ चेरती
हे । शेर, सांप, मेया, री ओौर कानखजूरे इत्या दि नाना-
प्रकारक आपत्तियां दिखाई देती है । इस स्थानपर साधु अपने
मन को बहुतदी ढ् रखते है । कोई हिसकजीव फाड़कर खाज
तो तनिक भी न समञ्जते कि यह मेरी देदह । सब ॒तपस्वियो-
की एेसीरी अवस्था होती टै । जब भीतरी अथवा बाहरी उनको
अपनी शरीरकी ओर ध्यान हुआ तब उनका त्याग कुछ नरी
सुतरां सवे त्यागियोमे बड़े त्यागी ्ुकदेवजी थे कि मायाके
भय से बारह वषे पर्य्यन्त माताके गर्भम थे । जब बाहर निकटे
तब उनको त्याग ओर वैराग्य रहा । उनका हाल बहुतप्रसिद्ध
जब राजा जनकके समीप गये तब उन्होने एककौतुकं
दिखाया किं उनके समस्त नगरमे आग लगी ओर सब कुः
जलने लगा ७ राजा जनक निभेय बेटे रहे ओौर श्चुकदेवजी
अपनी तूबी लगोरी लने को दौड़े । तब राजाने कहा कि बैठ.
किधर् जाता दै ! तूतो आपको बड़ा त्यागी समञ्चता है अब
गोरी ओर तूबी छने दौड़ा । मेरे राज्यका समस्त सामान
जल रहा है ओर मे तनिक भी अधीर नदीं इआ। तू केसा
त्यागी है । तुशे तो क्गोी ओर तुबीकी चिन्ता लगी ह
जिसको तूबी लगोरीकी चिन्ता नहीं छरी उसको देहका
अभिमान केसा छट जावे ! अतः जबलों देहका अभि-
मानन दूरे तबलो महात्यागी केसे इआ, यह सब
सोधसागर ( १७७ )
प्रशंसा तथा गुण कबीर सादबके हँ ओर दृखरेके नहीं बनारस
केसे २ कष्ठ मिटे परंतु उनका तनिक भी ध्यान नहीं किया ओरन
मनम कर कष्ठमाना महात्याग इसीका नाम है । दश्चो साध्सन्तोने
अपनेको ईश्वरम लीन कर दिया तो भी देहका अभिमान आर
वासना उनके मनम रही,ईइसर कारण उनका भगवते टीन दोनाभी
काम न आया । जो लोग सत्यगुरूको पहेचानकर भगवतें लीन
होते दै वे धन्य है । उन्दींका भगवतें रीन होना सफल ३ ।
वेद तीन भागों विभक्त इआ-कम-उपासना-ज्ञान । कमेमिं
दो भाग हुए एक तो यज्ञ इत्यादि जो सांसारिकं अ्थकि निमित्त
करते रै । दूसरा योग जो अपनी शक्तिके निमित्त करते ह ।
इन कर्मा द्वारा सांसारिक तथा पारलौकिक अभिप्राय सिद्धं
होते दै जिनके जसे पाप पुण्य होते हैवेसी दही अवस्थं वे
जाते है ओर वैसा ही उनको भोग मिक्ता है ¦
दूसरी उपासना है- सांसारिक लोग उपासना करते ह ओर
उपासनाके निमित्त विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, चण्डी, सयं
ओर गणेश आदि देवता ठहराये दै ।
तीसरा ज्ञान-इसकी सात भूमिका है ओर यह सब स्वप्नवत् है।
इनमे समस्त युक्तियों द्वारा किसीका कुटकारा नदीं दो सकता ।
इनमे पारखपदकी कुछ सुध नहीं । अतः ये समस्त कर्मकाण्डी
ओर ज्ञानी अपनी अपनी सीमाको प्च जाते है। तो भी
उनको छुटकारेकी राह नदीं मिरती । बिना पारख गुूके
धोकी तरह टटोरते फिरते हैँ । परंतु वे राह नहीं पाते।
क्या युक्ति करं कोई तदबीर नीं सञ्जती, तब विवश होकर
बैठे रहते है । जो जो तद्ब्रीरं वेदने बताई उनसे तो कुछ काम न
नं.७ कबीर सागर - ७
( १७८ ) कृमेबोघ
इआ ओर अब दूसरा उपाय कहां पव, क्या करं । जो छ
ज्ञान भिला उसीपर सन्तोष कर बडे आगे कोई पथ वेदो
तथा पुस्तकों दारा नदीं मिराकिसे प्रे ओर किसके घर जवे ।
मीमांसक ओर जेन कर्महीको सुक्तिमागं समते है । परन्तु
यह नहीं जानते कि, यह कमं कहौँसे उत्पन्न हआ है ओर कों
तक पचा सकता है । यह विधि निषेध दोनों शाखा निर-
जन निमित है । वहां दी तक वहचानेका सामर्थ्य रखते हे ।
इन कर्मो द्वारा स्वगे तथा नरक सब ङछ पराप्त होता रै ।
जहालो कर्माकी पहुच है वदींखों कारषुर्ष हस्तक्षेप करता है ।
कर्मोका सुविशार वन है उसमे यह जीव भूलकर अपने घर-
से बाहर हो गया है वनदिसक जन्तु ओंसे भरा इआ ह ओर
सूयं चन्द्रं सितारे इत्यादि तनिक भी दिखाई नहीं देते । न
कोई सड़क ओर न पगडण्डी है जो षगंडण्डी कदींहै, सो
पञ्चओंकी है मयुष्यकी नहीं । इस कारण इन कर्मोकि वनसे
कोई बादर हो नदीं सकता । कम॑ करता हे ओर फिर फिर
कमं करनेके चये बारम्बार देह धारण करता है । इसको कछ
पता नहीं लगता कि वह कौन कर्मं हे जिससे मेरे कम॑का
बन्धन कंटे । वह कर्म जिससे इसका बन्धन करे केवर
स्वसवेदकी शिक्षा हे, उससे तो यह जीव अज्ञान हे । इन्दं
कर्मोकिरके समस्त योनि ठहराई रै जेनी जिनका समस्त
ध्यान कर्मोपिर हं वे आट प्रकारके क्म कहते है, वे ये हैः-
१-ज्ञानवर्णी कमं । २ दृशनावर्णी कृमं । इ- वेदनी कमं ।
-मोदिनी कमं । ५-नाम कम। & आयु कम । ७- गोता कर्म ।
८-अन्तराय कम ।
बोधसागर ( १७९ )
अब इन आों कर्मोका स॒विस्तरत विवरण सनो । आवरण नाम
ठक्कनका है। १ ज्ञानवर्णीं कमं अर्थात् ज्ञानका ठकनेवाखा क्ब
इसके कारण ज्ञान नहीं होने पाता, यह ज्ञानके ऊषर परदा डा
देता है । इसके कारण ज्ञान जो उत्पन्न होने नहीं पाता सो ज्ञान
पांच प्रकारका है।
१-मतिज्ञान । २ धुतिज्ञान। अवधिज्ञान । 9-मनपरजय-
ज्ञान । «-केवल ज्ञान |
मति ज्ञान-मति नाम बुद्धिका र अर्थात् वह ज्ञान जो इद्धि
तथा सोचसे सम्बन्ध रखता है । इस मति ज्ञानम समस्त संसार
की इनर तथा कारीगरियां सयुक्त ३ ! जिसको मतिज्ञान डता
है वह कारीगरी ओर शित्पकारीमे बड़ा चैतन्यं रहता है ।
जिस किसको मतिज्ञान आवर्णीं क्म उगता रै-उ्षको गणो
पांडित्य प्राप्त नहीं होता ।
दूसरा थुतिज्ञान रै-धतिज्ञान समस्त शाक्लोके कंण्डस्थं
केरनेको कहते है कुछ कागज तथा अन्थ इत्यादि देखनेकी
आवश्यता न हो सब बातें डदयमें रदं । शाच्लद्रारा तीनो कालकी
बातोको जानता दो उसको अति केवली अथवा शुतिज्ञानी कहते
है । इस श्रुतिज्ञान को जो कमं रोके ओरन दहोनेदे उसका
श्रुतिज्ञान आवर्णीं कर्म नाम हे ।
तीसरा अवधिज्ञान दहै अवधिज्ञान उसको कहते है जिसके
द्वारा रोग मवुष्योंके मनकी बातको जान रेते है । समस्त ग्न
बातोको बतलातेहै ओर अन्ता मी कहलातेहैजो कर्म इस अवधि
ज्ञानपर परदाडारे ओर होने न दे उसको अवधिज्ञानवर्णीं कदतेहै।
चौथा मन प्रजय ज्ञान है-मनप्रजय ज्ञान उसको कहते है कि
जो ददयकी गतिको जाने। अथात् जहां डदय दौड़ वह सब कुछ
( ३८० ) कृभसोध
मालूम करर हद्यकी समस्त चारु तथा स्थिरताको बूञ्चरे जो
कोई इस प्रकारकी विद्या रखता हो उसको मन परजयज्ञानी जानते
ह 1 पन प्रजय ज्ञानम यह् गुण है कि, जब जिसको यह ज्ञान
उत्पन्न हो जाता है फिर कभी नहीं जाता। मन प्रजयज्ञानी अवश्य-
री केवर ज्ञानका अधिकारी हो जाता है, पूर्वके तीन ज्ञानेमिंतो
सदेह रहता है क्योकि वे होते ह ओर जाते भी रहते है परंतु मन
प्रजयको स्थिरता तथा स्थिति है, मनप्रजय ज्ञान अवधिज्ञानसे
बहुत बद्के है। जो कमं इस यनप्रजय ज्ञानको छिषा केता
है ओर नदीं होने देता उसको मनबजय आवणीं कं कहते है ।
पांचवां केवलज्ञान रै-यह सबसे बढकर है ! यह समस्त-
ज्ञानोंका राजा दै । जैनी एेसा मानते ह किं इस केवल ज्ञाने
कोई बात छिपी नरीं रहती । सबसे उच्च श्रेणी ज्ञानकी यही है ।
जेनके चोवीस तीरथकर सब केवल ज्ञानी होते ह उनके अतिरिक्त
ओर किंतने दूसरे साधू भी केवल ज्ञान रखते है । इख केव
ज्ञानको जो छिपाये रखे ओर न प्रकाशित होने दे उसका नाम
केवल ज्ञानवणीं कमं हे । दूसरा दशनावर्णीं कमं है-जिसके
कारण प्रत्यक्षमं दशन नहीं होता ओर उसके पर्दे अलख
करतार रहता रहै । उसकी चार शाख है ।
तीसरा वेदनी कमं है-जिसके कारण जीवको इःख शख
होता है । उसकी दो शाखायै दै ।
चोथा मोहिनी कमं है-उसकी दो शाखायें है । ३
पांचवां आयु कमं है-इससे आपदाका अन्दाजा होता है
ओर इसकी चार शाखा दै । |
छठवें नाम कम्मं है-इसकी तिरानवे शाखायें ईँ । यह नाम
कृमं जीव धारियोंकी मृति ओर स्वरूष बनाता है ।
बोधक्षागर (शी)
सातवां गोतकमं है-इस गोत कर्मकी शाखां है । एकस नीची
जगह ओर दूसरी ऊंची जगह जीव देह धरकर उत्पन्न होता है
आय्वां अन्तराय कर्म हे-उसकी दो शाख है । इस अन्त-
राय कर्म का यह कामदहैकिजो ज्ञान होनेवाखा हो उसको होने
दै उसमे विभिन्नता डाल दे आने का्मोका विवरण मै अन्थं
कबीर भावुप्रकाशमें छखिि आया ह जो चाहे सो देखडे। इन्हीं
आठकर्मो से समस्त जीव चार खानि चौशसी छख योनियं
आवागमन किया करते दह । कर्मोपासना ओर ज्ञान भी सवि
स्तर शूषसे वहीं लिखा हे जिससे स्पष्ठ प्रगट होता दकि इस
जीवका आवागमन केसे सुकमं तथा कुक्मसि इं करता हे ।
यह् समस्तकमं तो अमषूप है। इनसे कदापि छटकारा नहीं हेता ।
जिसको वेद् धमेके खोक ओर जनी केवल ज्ञान कहते ह शौ
केवल ज्ञान शुद्ध नदीं दे इसमे अन्धकार ह इस कारण इन केवल
ज्ञानियोंको स्वच्छ प्रकाश नहीं हे, जिससे वे छोग शुक्तिकी सधि
नहीं रखते है, जीवके कमं ही उसका स्वप बनाते ह । कमि
टी इस जीवका आवागमन चारों खानिमें बराबर बना रहता
हे । सत्यशुरू भेद बतर्वे तो आवागमन सम्बन्ध ट्टे |
सइदह्
तूहे करतार किनिया बारी। तेरा है इक्म सब जगह जारी,
तेरी तसबीर सुद्चकं ओर भारी । नकशदहा सब शिगरफोजगारी
आल्मोका हे सारे काम तुम्हं।
ए अमल हाय सद् सलाम तुम्हं ॥
तूदी इनसान हुआ त्रूही देवान । त्रूही रहबर इआ तरी शेतान॥
जिस्म सदहाव एकही हँ जान । होवे क्योकरबयां तह्यारी शान॥
( १८२ ) कमेबोघ
लोकं तीनों दिया इनाम तुम्दे।
णे अमखहाय सद सलाम तुम्हें ॥
मालिक व आदमवलजित्रनो परी । हबशी हिन्दीवखबर ओौरतरी ॥
रंगविरंग टेग चार खान करे । अद्रो इनसाफ साफसाफ करे॥
दिया आखुमका इन्तजाम तुम्हं ।
ठे अमख्दाय सद सलाम तुम्हं ॥
बन्द: साहब करीं किया हे जदा । करीं बन बेठे आप आद् खुदा॥
सारे आलममें तरी सूतोसदा । तुञ्चेसे सारे शरी शादो गदा ॥
सिजदा करते है खासो आम तुरं ।
एे अमल्हाय सद सखाम तुम्दं ॥
तुही बाचून ओर तुरी बचन । सूरत सूज तुद्धीने गूनागून ॥
तुही मकब्ूल ओ तूरी मलन । तूही खुद रमरहा है' सारंजून
दे जमीनों जमा तम तुम्दं।
एे अमट्हाय सद॒ सखाम तुम्हें ॥
तूही जेरीन दरमयां बाला । मनका मनका इआ तुही माला॥
ती पेदा किया तदी पाला । तूही सबजा हआ तदी जाला ॥
- कौन पहचान अक्छ खाम तुम्हं।
एे अमरृहाय सदं सलाम तुम्हे ॥
इन्द्र बह्म व विष्णु भी भूरे। अपने अमलोके ञ्ञोकमे इ्ूरे॥
कहीं पजमुरदा ओर कीं फूरे । रिसं इवां घर बघर डोरे ॥
दे रहीमो करीम नाम तुम्हे ।
णे अमलदहाय सद् सलाम तुम्दं ॥
आशकोको दिखाया राहे सवाब । फासिकोके लिये सरीदं अजाब
बोधसागर ( १८३ )
साराअर्म बना खयालोख्वाब। कोई नदेरीना सारने कशबरआब
सारे जान्दार दे गुलाम वुम्हं।
एे अमल हाय सद् सलाम तुम्हूं ॥
सारे जान्दारको केषा बारा । नहीं इस्त जीवक्ा रहा चारा ॥
करके तदबीर तुमसे सब हारा । जिन्दा करकरके फिर फिर मारा
दे भुकहर बदस्त दाम तुम्हें ।
ठे अमलाय सद॒ खलाम दन्डं ॥
तूदी बखसिन्दा हे अपनो अमूं । मातहत तेरे सब ई जिसमो ज ॥
तुञ्चसे पेदा दै वाणीवदो इरा । अबिदानो जादिदाने जनौं ॥
याद् करते है सुबहौं शाम तु्हं ।
ए अमल हाय सद सखाम तुष्हं ॥
सारे मजहब जहीमं जारी ह । पीर सुरशिदकी राहदारी है ॥
अशेफर्शोकी सब तयारी हे । आजिज इसरारसे सब आरी ह
पेशवा भी किये इनाम तुमह । ठे अमलहाय सदसलाम तुञ्ड॥
कर्मके चिहके विषय
कर्मोके चिह्न जीवधारियोके शरीरम काट्षुरूषने बनाया इ
इस जीवने जैसे कम॑ पूवंजन्ममे किये हैँ वैसेरी चिह्न उसकी देदमें
बने ह । सब जीवोके शरीर पर चिन्ह होते है परन्तु मवष्योके
शरीर पर भटी भांति स्प प्रगट होते है इसी कारण मनुष्यकी
देहरीसे इसके कर्मोका भली प्रकार हिसाब किताब होता है।
मनुष्यके शरीरके चिह्न देखनेसे भलाई बुराई जानी जाती है ।
जिस समय् वीयं स्लीके गरभमे स्थिर होता है, उसी वी्के भीतर
जीव होता ह ओर उस जीवके साथ उसके पहलेके किये इये कमे
( १८९ ) कमंबोघ
है । उसके भाग्यके अनुसार उसका शरीर प्रस्त॒त होता दै
तथा समस्त रग डीरुडौल पूवैकमौनुसार दी होता है । जब वह्
माताके गभेसे निकलता है तब उसके पूवं जन्मके क्मोकि चिन्ह
उसके शरीरके ऊपर रोते है । पांच वरषके भीतर चिन्ह स्पष्ठ
प्रकट नरीं रोते जसे जसे यह बड़ा होता जाता है वैसेदी वैसे
इसके पूवं कमंके चिन्ह दिखाई देते जाते है । तिर ओर मस्सा-
इत्यादिभी पूवेकमांनुसारदी प्रगट होते ह ओर बहतैरे चिन्ह
छिपे रहते है । शिरसे लेकर पेरतक सुकर्म तथा दुष्कर्मके चिन्ह
भरे हये दै । करीं दुभौग्यके तो करीं सौभाग्यके चिन्ह होते दै ।
यदि एकं स्थानपर दुभाग्य ओर दूसरे स्थानपर सौभाग्य एक
दी बात पर चिन्ह होवे तब उसका मध्यम फृल होता दहै। जो
लोग सासुद्रिक जानते है उनको यह बात माटूम होती है ।
साभुद्रिक विद्या अत्यन्त कठिन है। जो साभुद्धिकमे प्रवीण हो
वह मनुष्यका आकार देखकर सब कुछ कह सकता टै ।
कबीर सादबने इस सामुद्रिक विषयमे बहुत कुछ कहा है
कमेकि चिन्द देखकर सामुद्रिकका ज्ञाता सब कुक कह सकता
दै उदाहरण युनान देशका महातच्वज्ञानी सुकरात (5०००५०८)
एक पाठशाखामे अपने शिष्यको पटा रहा था उस पाटशाला-
में एक सामुद्रिक जाननेवाला आगया । जब सुकरातके शिष्योने
जान लिया कि यह पुष इस प्रकारकी विद्या रखता है, तब
उनको वे अपने उस्ताद्के निकट ले गये ओर कदा कि, इस
पुरूषके दोष ओर अवगुण कटो । वह सायुद्रिकं जाननेवाला
इस वबातको नरीं जानता था कि वह हकीम सुकरात दै । उस
१ देखो पुस्तक रवात गजार ।
मोधस्चागर ( १८९ )
समय उस साुद्रिकीने खकरातकी देहके समस्त चिह्न देखे ओर
पटचानकर बोखा किं यह मयुष्य बड़ा पाजी) दुष्ट व्यभिचारी, जुग
ठग, दगाबाज ओर दुष्कर्मी हैःयह बातें सुनकर घ॒करातके शिष्यो
ने उसके टट उडाये ओर हँसते हसते बोरे कि यह मबुष्य ज्चूा
है तब सुकरात जो स्वयं साघ्ुद्विक विद्या जानता था कहने छ्गा
कि तुम रोग इसको श्ुठा मत समश्चो । यह मनुष्य जो कहता ह
वह सत्य कहता है । उसमें कोई सन्देह नहीं कारण कि, उसने
जो कुछ कदा उन सब बुराहयोके चिह्न मेरे शरीरय परिरक्षित ड
मेरे शरीरम वे सब चिह्न ज्योके त्यों बने इए ई ! मेरा स्वभाव
वैसादी था परंतु मेने अपनी विया ओर योग्यतासे अपनी वाना-
ओंको भटीप्रकार दमन किया है, अपने डदयको इष्कर्मोकिी ओर
दिखने नहीं दिया ओर भटीप्रकार चट कर छिया जिससे तनिकभी
हलचल न हो एेसी वासना दमन किया है कि वे रदेकी तरह
होगई है । परंतु ये चिह्न जली इई रस्सीकी ठेठनके समान ड तब
सुकरातके शिष्योको निय इआ किं, हमारा उस्ताद सत्य कता
है इस प्रकार पुरुषाय प्रारब्ध पर जय पाता है । मवष्यके अति-
रिक्तं कितनेही पड्ुओमें भी यह चिह्न देखे जाते दै जेसे कि हाथी,
घोड़ा, बेल इत्यादिमे जो खोग उनको मोल छेते है । उनके भख
बुरे चिन्दोको पहचान कर दुभोग्य तथा सौभाग्य जान लेते है ।
उनके क्मोके चिन्ह साधारणतः जड स्थावर पदार्थं प्र प्रगट
नदीं होते गुप्त रहते है परत कभी कभी किसी विहरसे
उनके पूवेजन्मोका चिह्र प्रगट होता है ओर सर्वं साधारण देखकर
जान ठेते है । सुतरां लगभग पेतालीस वषे होते है जब म एकं
बस्ती चुनारगद्में जो काशीके समीप रै गया । वहां पर्व॑तप्र
जाके भने एक प्रकारका वृक्ष देखा।उस वृक्षके जडसे लेकर डाखियो
पयंन्त नागरी अक्षरोमे राम राम छिखिा था। वहां इस प्रकारके
( १८६ ) कमबोध
अनेकं दृक्ष थे । समस्त वृक्षोकी यही दशा थी कि सबमे राम राम
क्ख इआ था । जब सवे पृक्षोकी यही दशा देखी तब भटी
भांति इष्टि दौड़ाई जड़से ऊपर पर्यत समानही देख पड़ा । तब
अजुमान किया किं इन वृक्षों पर कोई आकर लिख गया होगा
ओर इन बरक्षोमेसे एक वृक्षकी छारु हटाकर देखा तो छाटके
भीतर भी वही राम राम सुन्द्रताके साथ लखा इआ था।
तब निश्चय होगया कि यह किसी मवष्यके हाथों का लिखा
हओ नहीं बरन् प्राकृतिक लिखावर है ओर उसकी उत्पत्तिका-
रसेही वह गुण उसमे आगया है उन दृक्षोकी यह दशा देखकर
मे गमे गया लोगोसे परा किं इस वृक्षका क्या नाम है तब
लोगोने कदा कि इसे रामनामी वृक्ष बोेते है । उस बरक्षकी जडमे
जो अक्षर थे उनकी स्यादी बहुत काली थी ओर जैसे जैतेवे
ऊपर जाते थे वेसेदी वैसे स्याही फीकी पड़ती जाती थी । पतली
डालोकी स्याही बड़ी फीकी थी । परतु पत्तोके नामतो अत्यन्त
फीकी स्याही मे होगे कि वे दिखाई भी न देते ये। उस वृक्षका
वह रंग टेग देखकर मेने जाना कि, पूर्वकालका यह कोई भक्त
ह ओर किसी दोषवश वृक्ष होगया हे ।
उस समय यमलाजन कुबेरके पुज याद आये जो नारद
मुनिके शापसे दोनों वृक्ष दो गये थे कृष्णजीने उनकाउद्ार करिया
उस वृक्षकी अवस्थासे उन्दं छुड़ाकर उनको यथार्थं स्वरूप प्रदान
किया । इसी प्रकार गौतम ऋषिकी शची ( अहल्या › गौतमके
शापसे पत्थर होगयी थी । श्रीरामचन्द्रजीकी कृपासे अपनी पर्वा
वस्थामे प्राप्त इई इसी भकार सवै जीव कर्मके बन्धनसे पड़ है
जड ओर चेतन्यमे सवै पैसे हए रँ ओर किसी योग्ययत्नसे
कदापि नहीं छटते उलटा दिन प्रतिदिन अधिक फैसते जाते है ।
बोधस्ागर ( १८७)
इस प्रकार सवं जीवं बन्धनम वड़े ओर कर्मकी करती कव
जीवोको र्गी । इससे छटना असम्भवं हुआ । सहच क्तियां
करता हे परंतु प्रतिदिन बधा जाता है। यह तीन छोक भवसागर
( उत्पत्तिसागर › कममने बनाया है, कर्म-मन ब्रह्ला-कार पुष
इत्यादि यह सब नाम इसीके हँ । इसी कर्मने यह भवस्चागरं
बनाया हे ओर यही कर्मं इस पर अधिकार कर रहा ३, बह्मांड
ओर पिण्ड दोनोंकी स्थिति कर्म॑से है! अननगिनती ब्रह्माण्ड ड
जिनकी सीमा नहीं । यह ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड दोनों अनभिनती
नाना प्रकारके जीवोँसे परिप्रण हे । जीवोंका अनगिनती स्व्यं
तथा स्वभाव दहं किं जिनका ङक विवरण हो नहीं सकता }
किसीका वय लाखों वषका है ओर कोई देसे है कि एकं बार
स्वांसके आने जानेमें बहुत बार उत्पघ्न होते ओर यर जाते ड ¦
कोई गरम हैँ कोई अत्यन्त ण्डे है ये सर्वं जीव वासनासे भरे
हुये द इस भवसागरमे पड़ गोता खाया करते ह । कभी स्वमी,
कभी नरकं ओर कभी प्रत्युलोकमें रहते ह । इस चौरासी
खाख योनिके जीवोको सुख नहीं मिलता सदैव दुःखी सखी
हआ करते ह । चारों खानिके जीवोमे कोई न सखी ओर न
सन्तुष्ट हे कर्मोके बन्धनसे सदेव इनका आवागमन इआ करता
हे । यह भवसागर पुओंसे बसा इआ है इसमें मलष्य को
नदीं ओर जो मजष्य हँ उनके काम कोध खोभ आदि वासना
नहीं जबलों अपनेको वासनाओंसे प्रथक् न करे तबलो
मनुष्यतके योग्य न होगा । जात स्वभ सुपि
तुरिया यह चारों अवस्था मनम स्थिर करिया हे । जबल
कलुषित कायसि प्रथक् न हो तबलो प्रकाशका माम न
( १८८ ) कृमंबोध
देखेगा । इस कारण वासनाओंके आनन्दसे दूर मागना चाहिये।
देस वही है कि, जो यवसागरके दृसरे जीवको कारके जाल्म
फसा देखकर इुद्धिमानीसे दूर माग जावे । जबलों मनुष्य अपने
को जाच्रत अवस्थामें न अधिकृत करे तबलो मनष्यता प्राप्त
न करेगा । इस जीवको वासनासे नष करके मवसागस्म बध रखा
हे । समस्त बुराई तथा बन्धनकी जड़ यही वासना है । इख
मनके पांच अकार हैँ इन्हीं पांचोमं स्वामी तथा सेवक सभी
फेसे इये हं ।
इति कमंबोधे एकोनर्षिंशस्तरंगः
अ,
न
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~
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च इर
करना
अथ श्रीअमरमूर भ्रारभः
भारतषयथिक कयीरकयी
स्वामी श्रीयुगलानन्द् दारा संशोधित
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मुद्रक व भ्रकाशक-
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,
अध्यक्ष-““ लक््मीवेङ्टेश्वर ” स्टीम्-परेस,
कट्याण-बम्बहू.
पुनमुद्रणादि सर्वाधिकार ““ जक्ष्मोवेङुटेवर ” मुद्रणयन्व्रालयाच्यक्षके अधीन है ।
सत्यनाम
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नन्व्नक्दख =-= ~ ~ - ज ~
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श्री कबीर साहिब
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सत्वनाम्
ॐ 2
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सत्ययुक्ृत, आदि अदी, अजर, अचिन्त, पुरष,
पुनीन्द्र, कस्णामय, कबीर सुरति योग, संतायन
धनी धमदास, चरशमणिनाम, दशन नाम
कुलपति नाम, प्रबोध यस्बाछापीर केवल्नाम
अमोल नाम, सरतिसनेदी नाम, हकनाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीश्ज नाम
उग्र नाम, दया नामको वशः
व्यालीसको दया
अथ श्रीबोधसागरे
| -्ः
विशस्तरंगः
अथ श्रीअमर्मूठ प्रारम्भः
श
धर्मदास वचन साखी
धमदास बिन्ती करं, सुन युङ् कृपानिधान ।
जरा मरन दख मेटके, दीजे पद निवन ॥
मरन काल अयलोकर्मे, अमर न दीखा कोय। `
यह संशय निश दिनि र्गो, जीते ताहि विगोय ॥
( १९२ ) अमरमूख
सोरठा-हे प्रथु दीनदयाल, जक्त जीव अति दुखित दै ।
हरदू वेग उर सार, करहु कृपा निज दास कह ॥
सद्गु वचन-चौपाई
चमदास तुम सक्ति अधीना । सो तब कथा सुनह परवीना ॥
जरा मरन जिवको भिटजाई । पुरूष नाम गहै चितलाईं ॥
अम्मर काया तबहीं पावे। अमर शब्द घट मांहि समावे॥
ताकौ महिमा ओर न जानी । अमर सूखे कही बखानी ॥
अमर मूर दै सबते सारा। अमर मूलका कहौ विचारा ॥
साखी-अमर मूर निज अ्रथ है, कै कबीर बिचार ।
अमर सूल जाने बिना, बड़ा सब ससार ॥
चौपाई
अमर मूल जानौ धर्मदास । ताकर मेद कौं परकास्रू ॥
अमर नाम कव्वीर कदाई। अक्षर बिन बड़ी दुनियांरं ॥
धमेदास वचन-चौषाई
धमेदास विन्ती अनुसारी । सुनह गुरू अपराध वि्तारी ॥
अमर भेद सादिब कद् दीजे। तृषा बुञ्ञाय अमीरस पीजे ॥
छोड़ सयुक्तिके दाता । अमर् मूल किये विख्याता ॥
संधि भेद किये निवारी। यहै अथ दै ` बहुत अपारी ॥
भिन्न भिन्न सब मोहि बताई। जिर्हिते मनकी संशय जाई ॥
प्रेम प्रीती तमही सो लागी । वचन सुधा सुन हो अदुरागी॥
अमृत नाम कबीर रै सारा। पाॐ ताहि दोय निस्तारा ॥
सद्गुरु वचन-चौपाईं
तब सतगरुरू अस कटै विचारी । तुमसों ज्ञान कों अति भारी॥
प्रथमहि सनो पाकर लेखा । तिहि पीछे नरिअरका रेखा ॥
तव प्रसाद् म कदो विचारी । इतनी बातमे जीव उबारी ॥
बोधसागर ( १९३ )
शब्द विदेह भयो उच्ारा । तिरि पीके चैखोकं पसारा ॥
शब्दहि नाम लोक है भाई निःअक्षर म रहै समाई ॥
निःअक्षर की परिचय होई । तब सतलोक पचे है सो$ ॥
जीवत लोकं बैठ पुन जाई । सार शब्द् महं रहे समाई ॥
अमर शब्दकीं होय चिन्हारीं । अम्बर द्वीप ताहीं बेठारी ॥
अम्ब द्वीप लोकं कर नामा । शोभा कहा कीं निजधामा ॥
अवणं श्प वर्णो नहिं जाई । धर्मदास नियो चितलखाई ॥
षोडश भान हस को ङ्पा । पुरूषहि महिमा अभरत अन्रषा॥
अमर शब्द सों प्राणी भय । वही शब्द सों लोकि गयॐ॥
पान परवाना भब्द है सारा । एदीमूरसों ईस उबारा ॥
अकह नाम अक्षर दै भाई तुम निःअक्षर रहौ समाई ॥
निःअक्षर को केरे निबेरा। कै कबीर सोई जन मेरा ॥
धर्मदास वचन- चौपाई
निःअक्षर गुर् मोहि बताई । जते ईसलरोकमे जाई ॥
लोकं प्रतीति करो मे केसे । कहो विचार चित अवि तैसे ॥
तुम प्रथु निगुण भाख सुनावा । अब किये सशंण परभावा ॥
सद्गु वचन- चोपाई
धम॑ंदास तुम मतिके आगर । सार शब्द कहियो ख॒खसागर॥
हसा सनन परम स्नेही । कहियो ताहि परम पद तेदी ॥
धमदास सो शिष्य तुम्हारा । सार शब्दको कहो सम्हारा ॥
तुम्हरे वेश किये उपदेशा । ज्ञानी होय तेहि कहो सदेशा ॥
साखी-मूरख सों जिन खोलिहो, करै कबीर विचार ।
ज्ञानी सों न दुराइ हो, सुनो सत्त मत सार ॥
( १९७ ) अषरश्रुल
चोपा
ज्ञानी होय जे सतिके धीरा 1 वहीं समाय वस्तु गम्भीरा ॥
घमेदास सुनियो वितराई । लोकं प्रचय अब दे बताई ॥
निर्णय नाम निःअक्षर सारा । खण सकर कीन्ह विस्तारा ॥
निगुण सगुण वञ्च कोई। सार शब्दम रहे समोई॥
अमर मूरखुका . करे विचारा । धंदाख सो शिष्य हमारा ॥
ओर ग्रन्थ बहुत मै भाखा । अमर शूलकी हे सब शाखा ॥
शाखा पच॒ सवे लषटाना । अभर सुरु काहू नहिं जाना ॥
अमर मूल धर्मनि सुन रेह । यही सदेश हसन कि देह ॥
यह संतन को मत दहे भाईं। जातं आवागवन नशाई ॥
सोई जीव उतर है पारा। नातर बड शआ संसारा ॥
साखी-ज्ञानी होय सों मानी, बुञ्चे शब्द् हमार ।
कहे कबीर सो बाचि हे, ओर सकर यमधार ॥
धर्मदास वचन-चौषाईं
पावन भेद अब कहो बुञ्ञाईं । तामि जक्त रद्यो अश्ञ्चाईं ॥
नीर भेद मोर कहो “विचारी । बन्दी छोड जाड बिहारी ॥
सदगुरू वचन- चौपाई
नीर पवन का भारस्न-केखी । सुकृत घटम करो विवेका ॥
हम टकसार मर्थं यक भाखा । नीर पवन ताही महं राखा ॥
एही माहि रहे लिषपटाई। नीर पवन मर्ह रहे भुलाई ॥
साखी-नीर पवन की उत्पति, कदे कबीर विचार ।
जो निज शब्द् | , सोह दस हमार ॥
पा
सार शब्द भ कीन्ह नवेरा । नि माने सो जमको चेरा ॥
गभ॑बास जन्म सो धरई। जो यह रेखा बाहर परई ॥
बोधसागर (१९५ )
छत्तिस नीर पचासी पवना । तासों श्ची सकल ही भवना॥
यह हो भेद कालको दीन्हा । नाम जो एक यत्त हम कीन्हा॥
नाम भेद जो पावे सांचा। बोई जीव कारु सौं बचा ॥
साखी-सार शब्द जो जानही, सो जेहै भव गीत ।
नातो जमपुर जार्यगे, कठिन काक विपरीतं ॥
चौपाई
गोरख पवन साध भर॒ गय । नाम वचय अजह नहि भयॐ।॥
व्यास्र देव ज्योतिषहि विचारा । कगन सोधकर धरी सम्डारा ॥
नामहि सार चित्त नहि दीन्हा । लग्र खुहूर्त सब गहि रीन्डा ॥
साखी-खग्र मुहूरत साधिया, कम का भीत बनाय
भर्म टरे सदगुरु मिटे, तवहं रोकहि जाय ॥
चौपा
यै मम॑ तब छूटे भाई । सतश् शब्द् गहे चित लाई।
नाम पान मै कौ बिचारी। जतं छट भम क्रिबारी ॥
मोह नसे सत चौकी होई । तबहि नाम केह पावे सोई ॥
ताते पान प्रवाना_ भाखा। भक्ति ज्ञान ताकर रहे साखा ॥
बिना नाम निं उतरे पारा । केसे साध कंहावे सारा॥
पट् पद् विद्या वेद पुराना। नाम विना नहिं होय भरमाना॥
चारहि गुरु . जक्तमह कीन्हा । तिनके हाथ शक्ति हमदीन्हा ॥
वे हसन कहे रोकं पठाव । भवसागर मर्ह बहुरि न अवे ॥
साखी-चार गरु संसारम, धम॑ंदास बड़ अश ।
क्ति राज में दीन्दॐ अटल ब्याछिसहि वेश॥
चोपा
धर्मदास _ तुम मतके धीरा। ततिं दीन्ह शुक्ति कों वीरा ॥
तुमते जीव उतर दै पारा। दीन्हा सप जक्तं को भारा ॥
राय बकेजी चतुभज राजा । सहतेजी यरु तहां बिराजा ॥
( १९६ ) अमरभूल
साखी-राय बकेजी चतुथज, सहते जी रैरान ।
येहि छुड़ाय हरेक हीं, शब्द् दें परिचान ॥
चौपाई
यही इङाय कारु सों हसा । शब्दहि दै कर है निःशंसा ॥
तुम धमेदास् व्याछिसहि वंशा । ये निज आंहि पुरूषके अशा॥
इन किये सोपि दीन्ह जिवभारा । सब जीवनको करे उबारा ॥
इनी छोड़ अन्त चित लावे । जन्म जन्म सो भटका खव॥
बश ग्याछिस तुम्हरे सारा। ओर सकर सब छठ पारा ॥
सासी-नाममभेद जो जानी, सोई वेश हमार ।
नातर दुनियां बहुत ही, बूड़ शआ संसार ॥
चौपाई
धमंदास भ कों विचारी । यह विधि निबरै यह संसारी॥
कार कठिन है बहुत अपारा । जिन यह सृष्टि कीन्ड संहारा॥
ता कहं कोइ _न जाने भाई। काहि सुमरण करहि बनाई ॥
काल दुःख दे सबहि र्वावे। शब्द् होय तहँ माथ नवाते ॥
नाम एकं गत॒ ह अमोलखा। सो धमनि मै तुमसे खोखा ॥
यह नाम को कर सम्हारा । सो भवसागर उतर क पारा ॥
तुम कं दीन्ह शब्द उपदेशा । सो हसन कँ को दिशा ॥
ज्ञान भरकारा जाहि घट रोह । जीवन् शुक्ति पावे जन सोई ॥
धर्मदास वचन-चौपाई
धमेदास कं सुनिय यखां ईं । जीवन सक्ति कहो सुज्ञाई ॥
जीवन् सक्ति कहौ किमि जाना । रोक व कंसे पदिचाना ॥
सो मोसां यह किये भेदा । जिर्हितें मनकी संशय छेदा ॥
खदगुङ. वचन-चौपाई ्
करै कवीर सुनो धर्मदासु । वद् निज भेद कहँ तुम पास ॥
उग्र ज्ञान जाके षट होई । क्ति भेद कह पावै सो ॥
बोधसागर ` ( १९७ )
अवयं करीं ज्ञान उपदेशा । त॒म अपने घट करौ प्रवेशा ॥
शुक्ति नाम् निःसंशय होई । अमर नाम जब सतं समोई ॥
जहख्ग कहि जिभ्या कर गायां । तहं लग जानौं सो सब माया ॥
अकह नाम कहा नहिं जाई । घट २ व्याप्त निरंतर आई ॥
नाद् शब्द् जबहीं उच्चारा । तासां अक्षर थयो विस्तारा ॥
अक्षर हीते उपजी माया । संशय ईं सबनकी काया ॥
तब दी शब्द सुतं मन लाया । मन थिर भए नहींहे माया ॥
स्थिर घर मन लहर समानी । श्क्तिषप तवही पहिचानी ॥
सो निःकर्मीं जीव हमारा । कमं कार भव उतरे पारा ॥
जो यह गहै शब्द मन लाई । ताकर आवागमन नसाई ॥
सीखे पदे काम नहिं अवे कर्मी जीव अक्ति नरि पतै ॥
ज्ञान प्रकाश जादि घट होई । ताके इदयं सोह नहिं कोई ॥
जैसे सूरज. बादल धा । देसे मोहज्ञान कहै भदा ॥
जब ल्ग मोहन दरे भाई । तबल्ग नाम न दय समाई ॥
जबलग मोह रहै तन बासा । तवबट्ग नहीं ज्ञान प्रकाशा ॥
जन्म जन्म कर भक्त जो होई । तवहि नाम कहै पावै सोई ॥
कोटिन जन्म भक्ति जिन कन्दा । अमर मूल तब्ही षर चीन्हा ॥
अमर मूल कर पावे भेदा । कँ कबीर सो हस अछेदा ॥
धर्मदास वचन-चौपाई
धमंदास बिनती अनुसारी । सदशुरू वचन जाऊ बलिहारी॥
जिहि विधिमममन होय अछेदा। सो समरथ कि दीजे मेदा ॥
जो मोहे कहो पान परवाना । नरियर भेद कहो सहिदाना ॥
कहा ते भयो पान परवाना । क्वौ ते नरियिर उतपाना ॥
सतगुर् वचन
अमर मूल सों पान बनावा। बेटी बीज नहीं निर्मावा ॥
हतो न बेल बीज तिहि ठाई । शब्द माहि बेली निर्माई ॥
( १९८ ) अमरमूल
उपजो तवै पान परवाना। जाते देस होय निवना ५
नरियर आहि धम॑को माथा । सो भैं दीन्द तुम्हारे हाथा ॥
जीवके बदरे नरियर दीन्हा । दस छुड़ाय धमं सो ीन्हा ॥
नारियर षान प्रसादकी जोरी । सार शब्द सो नरियर मोरी ॥
जिन नरिथरको षाय प्रसादा । जन्म मरणका पाण नसादा ॥
जे जीव पायो पान प्रवाना । देद छोड सतोकं पयाना ॥
कार दगा तबरी भिरजाई । सत्यलोक मह जाय समाई ॥
ठेसी भक्ति जीव जो करई । भक्तिं बिना सो नरि निस्तरई॥
धमेदास वचन
धर्मदास बिन्ती अनुसारी । दे सतगुङ् तुम्हरी बखिहारी ॥
नरियर पान प्रसाद बतावा ) ताकर भेद नाहि दम पावा ॥
सोई भेद मोहे देह बताई । जिहिते मन संशय मिटजाई ॥
सतर तवचन
धर्मदास तुम सुनो सुजाना । नरियर भेद पान परवाना ॥
धमेदास जब सेवा खाई तबकी कथा कहौं सञ्चारं ॥
जब तुम सुनो धमकी आदी । तब भिरि है जिवकी बकवादी॥
सेवा बसि पुरूष तब भयउ । तीन लोग भवसागर दयं ॥
मानसरोवर बेटक दीन्हा । कामिनि देख बहत खख कीन्दा॥
धमराज कामिन कंदं सरा । तबही पुङ्ष श्राप प्रकाशा ॥
तीनखोकं जिव करौ अहारा । तबही भरि दै उद्र तुम्हारा ॥
तीनोक महं जीव जो होई । धम॑राय कर्ह अवै सोई ॥
ताते नरियर बदला दीन्हा । जीव डाय कासौ लीन्हा ॥
भक्ति प्रवान कटेउ समुञ्चाई । बिना भक्ति निं कार पराई ॥
नरिथर पान शब्द है नौका । भक्ति प्रवान कहैड तहं चौका ॥
सोधसागर ( १९९ )
भक्ति प्रवान कटौ सघुज्ञाई । कवन भक्ति सों जीव ॒क्ताई ॥
तुम भ्रथु हौ दसनके नायक । पृङष पुरातन जीवहित खायक्॥
भक्ति अंग मोहे देव बताई । तिरि गहि ईसा खोक सिधा ॥
6 द&₹ कवचन
धर्मदास सुन भक्ति विचारा । जासों उतर जाय भव पारा ॥
प्रथमहि पान प्रवाना पावे साधनकी सेवा मन खे ॥
सार शब्द घट रहै समोई । अक्षर भद पावे जन कोड ॥
अमर वस्तु गुप्त हम राखा । ज्ञानी दोय तेहि सों भाखा ॥
शब्द् प निःअक्षर जानो । सो हसा सत लोकं पयानो ॥
इतना ज्ञान जाहि घट होई। अमर ब्लको जाने सोई ॥
छन्द-ज्ञान पूरन होय जा घट पान नरिअर भक्तिदहो)
बिन ज्ञान नहि मेद् पव केते पद् गुण शक्ति दो ॥
अमरमूल यह ग्रन्थ धमनि सुनियो चित्त गायक ¦
जन्मर को पाप नासे अमरलोक सिधायके ॥
सोरठा-सुन धर्मदास सुजान, किहि विधि साधु कहावई ।
कहँ कबीर बखान, अमरमूक जने बिना ॥
इति श्रीअमरमूक यरन्थ प्रथम विश्राम
ज्ञान भक्ति वणन
धरपरदास वचन चौपाई
धर्मदास कहँ सनो गुसाई । जीवन सुक्ति सो मोहे बताई ॥
नाम अमोल तत्त्व अति भारी । इविधा माहि जीव संचारी ॥
यह संशय मोहे निसदिन व्यापे। हरहु बेग गुरु -यह संतापे ॥
( २०० ) अमरमूल
तम॒ सतगुरू् घर बेठे तारा । आवागमन मोरे निवारा ॥
मन अरू जीव भेद बतखाओ । अबजिनमोसन अन्तर खाओ ॥
समञ्चो तवे जीव सक्ता वही डोर गहरोकं पटाॐ॥
सद्र वचन
पावन पचासी सकर पसारा । जीव पवनसों आदि निसारा ॥
ब्रह्म रूप सब मारि समाई । सूक्ष्म रूप जीवः द्रसाई ॥
दसवो भाग राई कर जाना। आतमषशूपी देह समाना ॥
अरू योगिनमे बरते भाज । मानस देहे सक्ति प्रभाञ॥
पांच तत्व दस इन्द्र संगा! प्रकरति पचीस कहे प्रसंगा ॥
यह प्रमान मन करे बखाना । जीव ब्रह्मसों भये उतपाना ॥,
मन करता यह देह समाना । सूक्ष्म ङ्प नारिं परिचाना ॥
अक चीन्ह स्थिर टोये सो । ताकी आवागमन न रोह ॥
ताको बरन भेद जब पावे । युक्ति हेय जग बहुरि न आवे॥
चौरासी कब बन्धन छ्रटे। काल जजार ताहि नहि टूरे ॥
मुक्ति भेद कोई बिके जाना । काल फांस जग सब ठपराना॥
अमर मूल दै मुक्ति पसारा। ताकौ सतो करौ विचारा ॥
आतम व्रह्म एक है भाई । परमातम मिल ब्रह्म कहाई ॥
ज्यों जलमधि सों छहरि उगाईं । तिमि परमातम आतम आई ॥
जिमि किसान चिनगी संचारा । इमि जिव भयउ ब्रह्म विस्तारा ॥
जिमि कंचन आभूषण कीन्हा । एेसे जीव ब्रह्म कटं चीन्डा ॥
उभे अश दीपकं इक षै । जीव ब्रह्म सग न द्रैं ॥
जिभिरविज्योतिकिरणपरकाशा। एसे ब्रह्म कर मोहि जिवबासा ॥
यहि विधि ब्रह्म जीवि गाई । समञ्च तबरी एक दोजाई ॥
शिव शक्ती एकि मतकीन्दा । तारकं भेदको बिरखे चीन्हा ॥
जे जाना ते मुक्ति समाना । प्रेम भाव सद्भरू पदिचाना॥
बोधसागर ( २०१ )
साखी-जिन जाना निज प्रेम कहँ, सोई जन परवान ।
तासों किये सुरमा, कै कबीर बखान ॥
चौपाई
केवल ज्ञान पाय है सोई। जिहि षर कृपा शुरूकी होई ॥
केवल ज्ञान प्रगट समञ्च । भिन्न २ कर तोहि ठखाॐ ॥
प्रथमदहि सनो ज्ञान कर मेदा। निर्मोही होय ईस अछ्दा ॥
सुतवेत अक्षर पहिचाना । ओर सकल जग मिथ्या जाना॥
सुखदाई सबही कहं भावे । बार ङ्प होय अभि बुञ्चावे ॥
समरष्टी एकि कर॒ जाने । भला बुरा कङ्क सन नहि आने॥
हृदय पुनीत शुद्ध मन होई । पाखण्ड भं डार सब खोई॥
ब्रह्म वियोग सदा अनुरागी । दसहू दिशा ञ्ुढ तिन त्यागी।
लठ सकल जग देखौ जानी । जैसे अहै इदद्ुदा पानी ॥
अस मति जाकर होय सुहाई । केवल ज्ञान ताहि सथञ्चाई ॥
माया बिना मोह नहि अवे। नाम पदारथ निश्चय ध्यावे)
यह् विधि केवल ज्ञान काव । जो सुमिरत सतलोक सिधावै॥
केवल काम निःअक्षर आई । निःअक्षर यै रहै समाई ॥
निःअक्षर तो करै नवेरा। करैं कबीर सोई जन मेरा ॥
अमर मूल में बरन सुनाई । जिहते ईंसा खोक सिधा ॥
शब्द भेद जाने जो कोई। सार शब्द मेँ रहै समो ॥
शब्द ज्ञानका कख जिन पाया । समदष्टि सब माहि समाया ॥
जेतक जीव देदह धर आए । शब्दहिं सों ते सकर उपाए ॥
शब्द अखण्डा ओर सब खडा । सार शब्द गरजे ब्ह्यंडा ॥
निःअक्षर की परिचय पवे। सत्त टोकं महं जाय समवे ॥
धर्मदास उवाच-छन्द
विन्ती कर कर जोर धमन, सुनहु सत गुरु सार दो ।
सत्तलोक हे कौन शोभा, तहां कौन ग्योहार हो ॥
( २०२ ) असरमूख
कवन रूप जो पुरूष रही, कवन सुख हंसा करे ।
कामिनी किडि रूष राजे, तहां खख विस्तार रो ॥
सोरठा-सो मोहे प्रगट सुनाव, दया करौ निज दास कं ।
बार बार बक जाव, अब जिन मोहि छिषावहू ॥
सतञुरू् वचन-चौषाई
कह कबीर सुनह॒धमदास । सत्तरोक को कों प्रकाम ॥
दे सतलोकहि अम्मर काया । एक ङ्प सबही जय माया ॥
षोडश भान हस की कती । अमर चीर पिरे बह भांती ॥
शोभा पुरूष कदी नदि जाई । कोटिन रवि इक रोम कुजाई ॥
अमर लोक अमर दे काया । अमर पुरूष जहां आप रहाया ॥
अमर पुरूष का पावे भेदा । कहे कनीर सों देस अकेदा ॥
सत्तलोक सत॒ शब्द पसारा । सत्त नाम हे दंस अधारा ॥
अम्रुत फल के भोजन करीं । युगन २ की क्षुभ्या दरीं ॥
पीवत सुधा भम मिट जाई । जन्म की तृषा उुञ्ञाई ॥
कामिनी रूष वरन उजियारा । चार भान की ज्योति पसारी ॥
शोभा बहुतकं प्राण पियारी । मेम भाव सब दस निहारी ॥
अनित बचन बोर नहिं बानी । प्रेम भाव अभरत रसरानी ॥
शोभा बहुत जदा मन भावन । हस कामिनी रंग बढावन ॥
अमृत नाम दयम लवे | प्रेम भाव पुर्षहि मन भावे ॥
आशा बस मन कोऊ नारीं । भयो प्रकाश शब्दके मारीं ॥
बरूञ्ये सत ज्ञानी जो दोई। सतगुरू शब्द् दय समाई ॥
हे निदशब्द शब्द् सों करे । ज्ञानी सोई जो वह पद् ठदेऊ ॥
धमंदास मे तोहि सुञ्चावा। सार शब्दका मेद बतावा॥
सार शब्द का ` पावे भेदा । कहं कबीर सो हंस अष्दा॥
बोधसागर ( २०३)
सार शब्द् निःअक्षर आदीं । गहै नाम तेहि संशय नहीं ॥
षार शब्द जो प्राणी पवे। सत्तरखोक महि जाय समवे ॥
साखी-कटै कवीर विचार के, सुनहु भाश्च घमंदास ।
अमरमूूरु निज शब्द् है, ताकर अस प्रकास ॥
चोपाई
अमर भूल अन्थ वें सारा । विना अमर नहि ईस उबारा
धर्मदास वचन
धर्मदास कर जोर निहोरा । स्वामी अनिये विनती मोरा #॥
कृवन प्रसाद् दरश हम पाया । कवन प्रसाद अमर भह काया ॥
कृवन प्रसाद साधु कलाय । कवन पर्षाद इख गति यङ ॥
कृवन प्रसाद ज्ञान हम पाया । कवन प्रसाद अमर भह काया ॥
कृवन प्रसाद नाम हम पाया । कवन प्रसाद इम लोक सिधाया॥
कृवन प्र्ाद सजन जन जानी । सो सघुञ्ाय कटो मोहि बानी।॥
सद्णङ् वचन
कद कबीर सनौ धमंदासूु । यह सब भेद कों प्रकास्र ॥
पुरूष दयात दशन पावा । कोरि भक्ति सत नाम समाया ॥
जब कीन्ही सतर ने दाया । नाम जान अमर भई काया ॥
सेवा कीन्ही साधु कहाए । लोकं जायके ईस कहाक ॥
हेत दीष सनन जन जाना । कहं कबीर _ भेद ॒नि्वाना ॥
साखी-एक नामकी शोभा, कहं रग कहां बखान ।
निःअक्षर जो वि हे, सोई सन्त सुजान ॥
|
सत सदिदानि तोहि समञ्ाई । अमर मू मिं देखो आई ॥
कोटि जन्मको पातकं होई । नाम. भरताप जाय सब सोई ॥
नामहि गहै शूरमा जानी । बिना नाम कायर सो मानी॥
( २०४ ) अभरमूख
नास बिना सबही बिधि रीना । नामना रै ज्ञान बिदहीना ॥
नाम बिनासोसूरख किये । नामना सो पापी लदहिये॥
नाम जान सोई गण आगर । नाम जान पच सुख-सागर ॥
द्द्
नाम अमी अमो अविचल अक वीरा पावही।
तज कागक्रि चारु सरालपथ गह अमरलोकं सिधावही ॥
जिमि सदन दीपकं बिना नदि भिरत रहै अंधियार दहौ।
तिमि नाम बिन सुनु दास धमनि नहीं चट उजियार हो।
मोरठा-नाम अमो अपार, अमर मूल भे वणे ।
करहि कमभ जर छार, कहै कबीर विचार कर ॥
इति श्रीअमरमरु नाम रोकमहिमा वणन ।
द्वितीय विश्राम
धर्मदास वचन- चौपाई
बिन्ती इक भे करों गुर्सौरं । जिहि ते मन की संशय जाई ॥
अमरमूर का करौं विचारा । जाते हंस उत्तर है पारा ॥
कौन भक्त सों हस कदावा । कौन विधीसों पंथ चरावा ॥
सो मर्याद देहु बतलाई। तुम प्रथु हौ ईंसन सुखदाई ॥
सद्गुङ वचन
कटै कवीर सुन धमनि नागर । यह विपि हस पच सुख सागर ॥
प्रथम करे सतगुर् की सेवा । जाते भिरे काल कर भेवा ॥
महा प्रसाद प्रम सो पवे। सेवा कर निज शुर्हि मनाव ॥
चर म राखे प्रेम अनदा। चौरासी के द्रे फंदा॥
गुरु सादिब एकि कर जाने । सो दंसा सतलोके पयाने ॥
साधन सों एकहि मति रदं । दुबिधा भाव न कबहूं करईं ॥
गुरु साधु सेवा जिन कीन्दा । ताक सुक्ति निकट हम दीन्हा ॥
बोधसागर ( २०९ )
साखी-गुङ् सतनको जान के; दय करे प्रतीत ।
कदे कबीर सो हंस हवै, है भव जल जीत ॥
चौपाई
सतगरुङ् तद आरती करदं । सब तज जहां जाय पञ धरदीं ॥
चरणाषत साधन को रीजेँ | शु पूजाकर अचवन कीजे ॥
गुरूकी दया निरवरत रहई । निदा शूप न कबहूं करई ॥
निःअक्षर सुमिरो वितलाईं। जासों आवागवन नसाई ॥
निःअक्षर को निस भावा । देह छोड़ सतलोकं सिधावा ॥
गुरूके वचन सोचकर माना । नाम विना मिथ्या जगजाना ॥
ओर न देख ओर नहिं पे । निस दिन पर २ नाम विवेद ॥
साखी-चछट पसारा देख जग, करनी देय बतायं ¦
एकं नाम कहं जानके, ता महं रदे समाय ॥
चौपाई
कमं भय की छडहि आशा । एकं नाम सों कर विश्वासा ॥
ङुलकी लना भमे नसवे। ेसी रहनी साधु काव ॥
यह विधिसों तुम पंथ चाओ । जन्म जन्म को पाप नसावो ॥
वेश तुम्हार रोकं कहं जाई । नाम बिना ब्ूडी दुनियाई ॥
नाम जानसो वश तुम्हारा । बिना नाम ब्रडा संसारा ॥
नाम पार नि वेदन पावा । नेति नेति कर सब गुहरावा ॥
आदि ब्रह्मको पार न पावे। पट पट पण्डित भम र्गावे ॥
क्ति पथ नि सुते समावा । पट युन थकिंत पार नहिं पावा ॥
अतकाल जम चेरे आई । तब विद्या कडु काम न आई ॥
विया षट कीन्हा अभिमाना। अंतकाल दोय नके निदाना ॥
वेद पुराण साख यह भाखा । नाम बिनाको जमसों राखा ॥
व्यास बह्मकी अस्तुति कीन्हा । श्रीभागवत भाखनित लीन्हा ॥
( २०६ ) अमरमूल
काम् शूपकर सबहि सखनावा । पंडित तासु मरम नरि पावा ॥
पूरन ब्रह्म नारिं चित दीन्हा । काम शूप सबरीमहि लीन्हा ॥
बिन खद्गुरू कोई मरम न पावे। अजु राह सबही रखषटवि ॥
खतपुरूषको मरम न जाने । ज्चूठदि धाय सांच कर माने ॥
ठदहि अठ रहा छिपा । सत्तपुरूषको रखा न जाई ॥
अढारा पुराण अ्रन्थ बहु भाखा। तिनमहि सिरे भागवत राखा ॥
बरह्म महातम कहि सयुञ्चवें । श्रीभागवत भक्त टटावें ॥
कृष्ण ॒ चरिजसबकरदिबखाना । कृष्ण मरम काहू नहि जाना ॥
निथुन भक्ति नहीं चित दीन्हा । सशंण भक्ति सबहिगदिलीन्डा॥
निश॒न बह्म मरम नदिं जाना । शिव समाधिखूगाव्हि ध्याना
विष्णु ध्यान कीन्हा मनमारीं । अरूख निरंजन देख छदी ॥
देखत छांहि मग्र मन भय । निरंजन डप विष्णु ह गए ॥
देत्य देव कौन्दे उतपानी । कीन्दे दैत्य देवनकी हानी ॥
दैत्य मारिके देव॒ ुडावा । ताते विष्णु सबन मन भावा ॥
गोपिन मिककर रास पसारा । लीखा एहि भक्त चित धारा ॥
ता ष महि सृष्टि भुलानी । ब्रह्मादिक सबञुनि अश् ज्ञानी ॥
ज्ञान कथं अङ् जोति दटावें । जोति स्वह्प ममे निं षव ॥
जोति स्वरूप निरंजन राई । जिन यह संकल सृष्टि भर्माई ॥
सत्त पुरुष का मम॒ न जाना । ञ्जू ज्ञान सबही लिपटानाः॥
सत्य पुरूष सतगुरु सों पावे । सत्य नाम मह जाय समावे ॥
साखौ-कंहे कवीर धममदाससो, अमर भूलनिज जान ।
अमर शब्द जा घट वसे, पावे पद् निवन ॥
चौपाई ¦
सत्य महं पवद वासा । विना अमरनर्हिकांलबिनांशा ॥
पट पट मूरख ज्ञान बिगारे । ज्ञान गम्य नहि कोह विचारे ॥
बोधवागर ( २०७ )
ज्ञान गम्य जाके घट होई । शब्द् खोज करि है जन सोई ॥
ज्ञान गम्य न्ह शूरल यावै । खतगुङ् भिक तौ भेद बताते ॥
सब संसार दण्ड फिर आवै । ज्ञान बिना खब अरु गवावे ॥
साखी-संत भिरे सशय नसे, नहि तौ पच पच बरना ।
नावं मिली केवटनर्हि, किसी विधि षार उतरना ॥
धर्मदास वचन-चौपाईं
धर्मदास करै सुनहु यरसौई । ज्ञान शब्द मोहे सखुञ्ाईं ॥
ज्ञान् रूप् सतपु्ब् प्रकाशा । सत्य रोक मरह कीन्ही वासा ॥
किदिविपि समञ्च परेयह बानी किये कद्गङ् नाम निशानी ॥
सद्गुङ् वचन
ज्ञान स्वरूप पुर्षकर आही । ज्ञानहि हप कीरं छ्खाही ॥
ज्ञान प्रकाश दीप सम जानौ । बिना ज्ञान बस ज्जठ वखानौ ॥
बिना ज्ञान घटम अंधियारा । ज्ञानबिना नरह लैय उबारा ॥
ज्ञान बिना अक्षर नदि पाईं । ज्ञान इष अक्षर रै भई ॥
ज्ञानं इष पुङ्ष कर॒ जानौ । एही वचन सत्य कर सानौ ॥
ज्ञान शूप निःअक्षर किये । अक्षर मेद ज्ञान सो रहिये ॥
निःअक्षर हो ज्ञनहि जानौ । अक्षर निःअक्षर पहिचानौ ॥
ज्ञान शब्द् धरुष कर अंशा । ज्ञान जान जन सोह मम वशा ॥
बिना ज्ञान नहिं वेश कावे । ज्ञान दोय तव् शब्दहि पव ॥
स्षोईं वश सत शब्द समाना । शब्दहि हेत कंय निज ज्ञाना ॥
साखी-कहे कबीर विचारक, सुनियो हो धर्मदास ।
जो यह शब्दहि पाय रै, करि है खोक निवास ॥
धर्मदास वचन-चौपाई
९५६ क धमनि कर जोरी । हे ध विनती भ ॥
ते वैश शब्द कहपावे । सत्य खोकं कहं सत्य सिधावे ॥
ओ जीवन कहं देह ढाई । जते जीव शुक्ति गति पाई ॥
( २०८ ) अमरख
अब मे वशका कों विचारा । घमंदास तुम अंश इमारा ॥
आदि नाम आमोदिक शाखा । सोई शब्द् वेश कहं राखा ॥
खाड समे बारह चौपाई। एही त्व हस घर जाई ॥
जब माली का भेदि पावै । सत्य नामभं जाय समाव ॥
चेखो मेद सनौ धर्मदाश्रु। जन्म जन्मकी मेटत जघ ॥
खदृशुरू दया कमे होय छीना । अमर होय नामहि रो लीना ॥
संशय का चै कों ठिकाना । संशय कार चरमाहि समाना ॥
जबरी पुरूष धम कँ कीन्हा । तबदी संशय उत्पन लीन्हा ॥
निः अशक्षरकी परिचय पावे । सशय भिटे अमर घर जावे ॥
संशय को खंडित दै ज्ञाना । ज्ञान दीन संशय क्पिटाना ॥
संशय काल सबन क खाई । निःसंशय हो नाम समाई ॥
संशय कारु र्खे नदि कोई । तत गए ॒बिगोय बिगोई ॥
संशय नाम सनौ धमदास् । एक नाम की राख आसू ॥
नाम छोड़ अन्तदि चित अनि । संशय तहि पकर गहि ताने ॥
नामहि गहै तेहि निदहसखा । नाभिना बडे सब हसा ॥
साखी- क कबीर धमेदाससो, संशय को विस्तार ।
एकं नाम कृं जानके, उतरहु भौ जरू पार ॥
धर्मदास वचन- चौपाई
हे स्वामी सशय उतषानी । ज्ञान दीन सब जीवि जानी ॥
बिरला हस होय अकूरी । सो यह ज्ञान गहै निज सूरी ॥
ज्ञान लखे बिन अक्ति न दोई। तौ यह दुनियां जाय बिगोई ॥
नाम महातम भाख सुनावा । बिना नाम कोई पारन पावा ॥
॑ सदृशुङ् वचन
करै कबीर सनौ धमंदासू । यह निज भेद कहौ तुमपासू ॥
ज्ञान हीन प्रानी जो होई । ताकर भेद कौं मे सोई ॥
बोधसागर् ५ ९०५ /
ता कहै दीजै षान प्रवाना । निश्चय ईस होय निर्वाना ॥
ओौर प्रतीत दीय म धरई। सो प्राणी भवसागर तरई॥
वान पाय सत्यहि यु भख । सद्शङ् चरण दियेम रसि ॥
सदश् केर निछावर करई । साधु चरण चितनिश्चय धरई ॥
तन मन धन सतन पर वारे । सतश् चरण दयम धारे ॥
सुत नारी कर मोह न अवै । सबही त्याग चुरण चित छावै ॥
चरण धोय चरणाभ्रत खीजे । सत्यलोक मह अश्रृत पीजे ॥
धर्मदास वचनं
पुर्षरूप कर॒ यह उपदेशा । नारी को अब कहौ सदेश ॥
नारी नाम शुक्ति किमि होई । ताके घट मह ज्ञान बिगोई॥
सदूगुङ् वचन
ताकेर तोरि मेद ससुञ्चाऊ । मनो कामना सकर मिटाञ ॥
नारी तरे सनो धर्मदा । क कबीर नाम विश्वादू ॥
ज्ञान दीन नारी को हूपा। ताको मँ सब कहो स्वह्पा ॥
तन मन धन सतन पर वारे । सतनकी सेवा चित धारे ॥
साधन सौजो अन्तर करई। ध्मेरायके फैदा परई॥
गुङ्के चरण निछावर जाई । तन मन धन सब देय चद्ाई॥
शुक्की सेवा निशिदिन करई । सो तिरिया भवसागर तरई ॥
रेसी धरन धरै धर्मदास । तबही मिटे काल्की फास ॥
धर्मदास वचन
धर्मदास बिन्ती अनुसारी । हे स्वामी तुम्हरी बिहारी ॥
यही वचन प्रु मोहि खना । मोरे मन इक भम समा ॥
नारी शूप सकल हम जाना । पुरूष रूप एकि पहिचाना ॥
नारी कदियेः सब _ संसारा । आदि रह्म हे पुरुष अपारा ॥
आदि पुरूषहमतुमकरं चीन्हा । दूसर पुरूष काँ अब कीन्हा ॥
नं.७ कनीर सागर - ८
६
(२१० ) अमरमूलं
जो तुम कदी सोई हम जानी । नारी शूप खतं पहिचानी ॥
दूखर नारि कहां हे कीन्हा । यरी वचन हम संशय लीन्हा ॥
सै नररूप ओह मति रीना । यरी भेद सुन भयउ मीना ॥
तुम तो दयावते गुर् स्वामी । क्षमिय चक प्रभुअन्तरयामी ॥
नारी नाम मातु जो किये) इनहि भेद केसे निबेहिये ॥
नारी नाम बहिन जो आरी । तासौ केसे अकं पिलादी॥
नारी नाम पी जो दोह । तासौ केसे अंक सजोई॥
साखी-यह सब भेद बतावहू, सुनडइ हदो बदीक्ोर ।
यह सशय प्रु मेटद्रू, चरण गदां मरु तोर ॥
सद्गु वचन-चौपाई
कहै कबीर सुनो धर्मदास । यह सशय उपजी तुम पास्चू ॥
आदि पुरूष तब हते अकेखा । शब्द स्वह्षी पथ दुदेखा ॥
तब साहिब णसा मत कीन्हा । सकल सृषिरचिबेचित दीन्दा॥
मनसा चरते भित्र निकारी । उत्पति मई तरौ इक नारी ॥
सोई नारि सकट जग जाया । भग् भोगे ते पुरूष कंदाया ॥
भग द्वारे दोय बाखकं आया । यही भांति सब जग भर्मांया ॥
मैतो एक मतौ रच जबही । पु, वधु पिता भयो तबरी ॥
भे तो एकं नारीकर जबही । पुति, बहिन माता भई तबदी ॥
भाई बहिन कीन्हा व्योहारा । घर्मराय को यह संसारा ॥
यह सशय मह मार ठे जाई । मार जार सब दुनियां खाई ॥
आपदि पिता आपद पूता। आपरि देव आपी भूता ॥
आ पहि नारि शूष ओतरिया । आपि सकल सृष्टि विस्तरिया॥
आपरि कमं धमं उपजावन । आपहि रचं आप विनसावन ॥
तातं मेदे बताऊ तोदी। ज्ञानी दोय समञ्च कर र्दी ॥
धर्मदा को सशय द्रटा । जन्म जन्मके पातकं टूटा ॥
बोधस्रागर ( २११ )
ज्ञानी सों किये उषदेसा । भूर सों जिन कहौ संदेशा ॥
सशय कीन्ह सकल जग भगा । काह न चीन्हा सशय अगा ॥
षाखी-करैं कबीर सो बाचि है, शुङ् चरण चित दीन्ह ॥
अमर मूल निज शब्द है, ईसा चित गहि खीन्ह ॥
चौपाई
धमदास तुम करो विचारा विना शब्द नहिं उतरौ पारा ॥
सार शब्द सों सब उपजावा । नारि पर्ष दोहं निरमावा ॥
सूरज पुरूष चन्द्र है नारी । यह घस्तरेदै हप सवारी ॥
जेषे धातु कनककी एका साचा माही इप् अनेका ॥
पाप पुण्य कूपहि सों बाधी । कीन्ह धर्मं यह अगस अगाधी ॥
पापङ् पुण्य भमंदहै भाई। धम राय सब अर्मे उपाई॥
भर्मं अमल तबदी मिट जाई । सत्य नाम जब रहै समाई ॥
जब लग भम अमल है भाई । तब लग नाम वञ्च नहि जाई ॥
बूच सीख गावे बह भती । सुमरन भम करे दिनराती ॥
आप न चीन्हे मूद् ग्वोरा। भर्मीं भ्रम भला संसारा ॥
धमदास तुम भमंहि छड़ौ । निर्भय होय नाम चित माड़ौ ॥
जो तुम भम करो जो मादीं। तौ कस हसन रोकं कह जादीं॥
भमे छोड़के भक्ति दटावहु । यह विधि दसनलोक पठाव ॥
तुम कह दीन्ह जक्तको भारा । तुम्हरी भुदर चले संसारा ॥
हाथ तुम्हार जीव सब तरहीं । भवसागर तै हस उबरदीं ॥
धमदास जग पारस देद्र्। जीव छुड़ाय काल सों र ॥
पारस नाम केहेउ उपदेशा । मूरख सो जिन कहो संदेशा ॥
छन्द् ज्ञानी कहं यह भेद् धर्मनि देह तुम समुञ्ञायकै ।
रहन गहन विवेक बानी कह सकल बुञ्ञायकै ॥
(२१२ ) असरखत
नास पारस प्रसं घट मह काग होय मरार हो ।
अभर रोकहिं बाख कर तरह नाहि काट करार रो ॥
सोरठा-करखह आप समान, शुर्षरगी यह जीव को ।
देखकर नाम निशान, प बरख पल्टायके ॥
इति श्री अमरमुरु भथ नाममदहिमा वणेन तृतीय विश्राम ॥ `
धभदास वचन-चौपाई
घमेदासर उठ विनती खाई । तुम पर ताप हस शुक्ताईं ॥
किहिविधिपलटे जिवकी काया । सो ससुञ्ञाय करौ मोहे दाया ॥
हो खतगुङ् तुम अन्तयामी । पारख भेद कहो मोहे स्वामी ॥
सतश् वचन-चौपाई
कहै कबीर सुन सन्त सुजाना । पारस भेद सुना ज्ञाना ॥
ज्ञानी काटि कर शब्द् है सारा। यह षारसतै दख उबारा ॥
पारस पान वालक करं दीजे । ततिं ईस काल नरि छीजे ॥
कामिनी कहं पारस दै सेवा । धमंदास्च खुखियो यह् मेवा ॥
यही रहन तुम पथ चाओ । जीवन बोध लोकं व्हैवाओ ॥
तीनहु विधि यह करै बुञ्ञाई। जो मनै सो लोक् सिधाई ॥
पुरूष होय शब्द नरं जाना । निश्चय हइ नरक निदाना ॥
बालक रो वीरा नर्हि पावे। केसे कै वह लोकं सिधावे ॥
कामिनि हो पारस न्दी । गुरू सोई जो पारख देदी॥
कामिनिजोसो पारस ठेही। केसे भुक्ति रोय पुनि तेदी॥
यासे गुरू जो अन्तर करई । ध्मराय के फन्दा प्रई ॥
गुरू नट शिष कर ज्ञान बतावा । यद गुर फिर धोख समावा॥
शिष्य जो गुरूसों अन्तर राखा। शिषमहे धोखा सत हम भाखा॥
गुरू सोई जो शिष्य सयुञ्चावे । शिष्य सोई जो शुर मन रावे ॥
बोधसागर ( २१३ )
गुह कहँ वेट करे अधिकां । निश्चय नरकं जाय रे भाई ॥
तुम सों मेद॒ कही निहतंता । निय वचन सुनो मतिमता ॥
ध््रदास वचन
धमेदास बिनवै कर जोरी । स्वामी शुनिये बिन्ती मोरी ॥
नारी नाम नरक की खानी) सो शुक्को किथि दीजे आनी ॥
सकल नरक नारी दिग किये । सोई नरक शुक् से चहिये ॥
गुर्तो जह्न रूप दम जाना । नकं भोगे सो कोने ज्ञाना ॥
गुरूकी महिमा अगम बताई । नीच वचन केसे कहँ सहं ॥
नीच सोहं जो नीची कहै । नीच पथसों षार न लहै ॥
डवा होय सो शुरू पदं धारा । नीचा छोड़ ऊच भव षारा ॥
नीचे कमं काट गुर् दीन्हा । गुङूका बचन सान पै लीन्हा ॥
दोहा-सो अब मोहि बतावहू, तुम गङ् अगव अपार ¦
धर्मदास की बीनती, सुनियो हौ करतार ॥
साखी-रहित ज्ञान तुम भाखिया, सत्य शब्दं ठहराय ।
व्यभिचारी मर्ह सत कौ, कौ शरू ससुञ्चाय ॥
सतगुक् वचन चौपाई
कहै कबीर सुनो धमैदासर । अब यह भेद कहँ तुम पास ॥
हम जानी तुम संशय ट । काल कठिन भव तुम कहं टूटा॥
कार केरि गति तुम नर्दि जाना, बटो _ मायामें क्िपटाना ॥
जब जाना निज ब्रह्म स्वषूपा । ता कहं नाहि रक अङ् भूषा ॥
नाम अमल रस छाके अका । ताको कडा नरकंकी शंका ॥
तुम कहँ जीव बुद्धि नटि छटा । ताते जमरा फिर फिर टूटा ॥
धर्मरायकी गति नहिं जानी । हर मदिर उपजाओ आनी ॥
यह बाजी महं जीव भुलाना । शिवदिसमापिलगावदहि ध्याना॥
विष्णु रूप काहू नहिं जाना । सुर सुनि नर बड़े अभिमाना ॥
( २१४ ) अमरमूख
यरी वचन सब जग वेष्या । नाम बिना नहि द्रत फेध्या ॥
ञ्ठी साया सब जग फंदा | फेद् कटे बिन निं निद्धन्दा ॥
अज्ञानी जिव प्र दै फांसा। नक स्वगं दो कर आशा॥
संशय् काटनको इम आए । धर्मराय् सब दुनियां खाए ॥
ज्ञान रवाद् तुम करै ससुञ्चाए । त॒म कहं धर्मराय भर्मांए ॥
वचन हमारे दोष कगाए । ञ्ठी माया तुम लिपराए ॥
शिष्य सोई गुरू बचनहि माना। आप ज्ञान बरूञ्े नरि ज्ञाना ॥
गरु प्रतीति दये नहिं आईं । ताति बड़ी सब दुनियाई ॥
बरडत जाह ्थोह नहिं पावा। ताते जन्म जन्म भमावा ॥
तब सतगुर् भये अन्तरध्याना । धर्मदास मनमहं पछताना ॥
धमंदास वचन
द्या करो गुरू पूरन स्वामी । भैं नहि जाना अतर जामी ॥
हों अज्ञान् तुम ममं न जाना । जान बरञ्च भूरे अभिमाना ॥
क्षमि अपराध् मोर प्रथुराया । मोरे चित जो अन्तर आया ॥
तुम गुरु सतगुर ब्रह्म समाना । मे शिव आहु महा अज्ञाना ॥
कुवचन वचन बोल जो भाखा। माता पिता इदये नदि भाखा॥
करूणामय गुर् अन्तर्यामी । करहु दया अब मोपर स्वामी ॥
जो नदि दशन पाऊं आन् । तजो प्रान मँ तुष्दरे काजू ॥
हे साहिब तुम पथ जो दीन्हा । ततिं तुमहि ब्ूञ्च हम लीन्दा ॥
साखी-धमेदास बिनखत बदन, करूणा बहुविधि कीन्ह ।
दशन बिन अति विकल हू, जर बिन तलफत मीन ॥
| सतगुरू वचन-चौपाई
तवि कबीर दया चित आई । घमदास तब दशन पाई ॥
दर्शन पाय भयो आनेदा । जेसे चकोर मित है चदा ॥
बोधद्लागर ( २१५ )
गहि शुक्चरण बंदगी कीन्हा । चरण धय चरणान्रत रीन्हा ॥
विन्ती कीन्ह चरण वितलखाई । महा प्रसाद दीजिये साई ॥
आमनिको अज्ञा तब दीन्हा । नाना व्यंजन वुर्तंरि कीन्हा ॥
कंचन थार आरती चारी) सेवा बहुत इदयमे धारी ॥
सुत नारी सब चरणन खगे | प्रेम प्रतीत भक्ति मन वामे॥
चरणाभरत सबही मिक टीन्हा । दिभ्य ज्ञान सब कटं कर दीन्हा)
सादिषि चोका बडे जाई । बहुत भोति कर आसन खाई ॥
परस थार जब आमनि नारी । सन्दर बदन प्राणं अतिधारी ॥
भार मार प्रसाद ॐ खावरहि व्रेमभाव साहिब मन भावि ॥
पाय प्रसाद पुनि अचवन ढीन्डा। धम॑दास् तब बिन्ती कीन्हा ॥
द्या करट अब मोपर स्वामी । बन्दी छोड़ वर अनतरं जामी ॥
तब दीन्दॐ प्रसाद् गरसांईं । धर्मदास तब इवं मन महि ॥
जेतक साथ रहे घर नाहीं । वह सब आनंद भये यनमा ॥
आमनि तबहीं षटेग बिदछावा । सतशुङ् तां आन पौदावा ॥
धर्मदास तब पेख इरे । आमनि चरण चापि सुख षावैँ॥
सकल साध हिर बंदगी कीन्हा। तन मन धन साहिब कहं दीन्डा॥
मेदी सकल जगतकी लाजा । ताते दोय जीवको काजा ॥
धमनि तहां निछावर करदीं । बार बार वबिन्ती अवसरं ॥
साखी-यह तन ठेव ग॒सांह, जो होवे हम काज।
तन मन धन कर निछावर, सुख संपति कल खाज ॥
सदगुूवचन- चौपाई
केर धर सिज्या पर बेडाया। अन्तर गति स्थिर उरावा ॥
जोई सुख सौ भीतर देखा । सबहि कसौटी कीन्ह परेखा ॥
साहिब तब दी दाया कीन्हा । मस्तिक हाथओआमनिके दीन्दा॥
जाह न अपने घरके माहीं । सत्य तुम्हार देखे मन माहीं ॥
( २१६ ) अमरसुल
यह सन कमे अकं करावे । देहके स्वारथ नाच नचि ॥
ताति तुस सन थिर इम जाना । कार चरित छटा अभिमाना॥
हमरे देह काम निं होई । तुम अकार स्र हम खोई॥
धमेदास तुम वैश उजागर । हसन परह चाव सुख-सागर ॥
निश्चय इह है शुक्ति परवाना । सत्यलोकं कटि देवं पयाना ॥
वैश तुम्हार जहां रग होई । इनके हाथ शुक्ति सब होई ॥
वेश वब्यालिसख अचर तुम्हारा । तिनके दाथ शुक्ति संसारा ॥
व्याछिसि माहि योदश भाखा । अश हमारहु ह निज शाखा॥
नाम जानेते सबै उबारा । बिना नाम बडा संसारा ॥
धमंदास वचन
धमेदास बिन्ती अनुसारी । हे साहिब भरँ तुम बछिहारी ॥
हमरे वेश कर्द पारस देई । तुम्हरे दरश बहुर कब लेह ॥
यही अजे मेरो सुन ॒लीजे । वेश हमार आपनो कीजे ॥
जिहते युक्ति होय सब केरा । सो मोहे स्वामी कहौ नवेरा ॥
| सद्गुङ् वचन
तुम्हरे वश कौ कहो उपदेशा । जाते होय हंसको मेषा ॥
कोई हस होय जगमादीं । उवरि वेशनकी वाही ॥
` वेश तुम्हार जे बालक होई । तिनसौ पारस रे सब कों ॥
जा कहं नाहीं ब्यापे कामा । निशदिन रहे शब्दम धामा ॥
रहित गहिनसौ स्थिर अंगा । मनसा वाचा सत्य प्रसंग ॥
सत पास को जानं मेदा । आतम परसे सक्षम मेदा ॥
एसा सनत ॒ शब्द सनेहा । प्रकर कबीर तासुकी देहा ॥
तिनसौं पारस भेद न कीजे। वेश मोर जो शब्द पतीजे॥
पारस मादि भेद जो करई । करै कवीर सो किदि विधि तर्ई॥
बालक बोध के पथ चखाओ । बिना पथ सोखा नहि पाओ ॥
बोधसागर ( २१७ )
बाखक तेरे वंशके हाथा । पंथ दीन्ह यै तिनके हाथा ॥
बुक्ति जन कर राखे गोह । तेहि सम दवोदी ओर न कोई ॥
शब्द जान कर पन्थं चख । देशं देश फिर घब समञ्ावे ॥
तौन देश रँवनह कराई । छतेन _बन्त हंसन शक्ताहं ॥
पुरूष आज्ञा जो मोक दीन्डा । शुक्ति भेदसों सब कहि दीन्हा ॥
सार शब्दका मेद जो वावा) यह खब ज्ञान तोहि समञ्चावा॥
बनाना मिट है नहि संशा । नाम जानसो इरे वंशा ॥
नाम जान सो वैश करावै । नाम बिना सो शक्ति न पावै ॥
वंश तुम्हार नाम जब पाईं। मवसागरतैं लोक सिधा ॥
नाम न जान करै अहकारा । सो जिव परि है भवजलधारा॥
नामजान सो वंश हमास। बिना नाम बड़ा सारा ॥
विना नाम सबही अभिमानी । नाम प्रचय कोई कोई जानी ॥
नाम॒ निरहक्षर कहा बुञ्चाईं। अमरमूल महं देखो आई ॥
निह अक्षर को पव मेदा । सोई ईसा दोय अदा ॥
साखी-कहै कबीर विचारक, निःअक्षरको मेद् ।
निःअक्षर जो पावदीं, सोई इस अछेद् ॥
चौपाई
निह अक्षर तम ज्ञान सुनाओ। जम्ब दीप हस शुक्ताओ॥
एसा धरम धरे जो कोई । निय पार पाय रै सो ॥
तुम धर्मदास पन्थके राजा । तुम्हरे हाथ जीव को काजा ॥
यही मता हम त॒म कह दीन्हा । दूसर कोइ न पावे चीन्हा ॥
अक्षर मेद॒ बसे जिहि अंगा । निस बासर हम ताके सगा ॥
सत्य रोकं महं वासा पाईं । अमृत भोजन करे अघाई ॥
छन्द्-यही महिमा जीव धरै, बाम करे सतलोक हो ।
काल फन्दा काटके छे, धरो हसन थोक हो ॥
( २१८ ) अषरभरूल
सुन सिज्या बास लीन्दो, असन अमृत पावहीं ।
वञ्च अम्मर पदिरके तिन, जरा मरन नसावहीं ॥
सोरठा-षोडश भान प्रवान, धर्मनि शोभा रसकं ।
पावो शब्द प्रवान, अज्रखोकं वासा कियो ॥
इति श्रीभ्रथ अमरमूर धर्मदास कसोटी, पारस भद् वणेन-
चतुथं विश्राम
धर्मदास वचन चौपाई
घर्मदासं तब विन्ती कीन्हा । अबलगसादिबहमनर्हिवीन्दा ॥
जवते दाया भई तुम्हारी । भयो प्रकाश इदयं भारी ॥
अमर लोक्के हौ शुक् वासी । कारण वन आये अविनाशी ॥
मृत्तलोक आये किंहि काजा । धमराय बड़ पापी राजा ॥
क. सद् गुर् वचन
धर्मनि सुनौ बचन चितलाई । जीवन काज पुरूष पठवाईं ॥
सत्यलोक तें जगम आवा । धर्मेराय मोहे देखन धावा ॥
धर्मराय तब प्री बाता । कवन काज तुम आयेउ ताता॥
मृतलोक में अब भै जाऊ । हसन काज पुरूष पठटवाऊॐ ॥
धर्मराय तब बोलन लीन्दा । दमरे देश सक्ति त॒म दीन्हा ॥
मतो तीन रोकं कर राजा । तुम कस करो जीव करकाजा ॥
यह तो रोकं पुरूष मोहे दीन्दा । तुम कस मोहे छुडावन लीन्दा॥
अजह भली हे जाह गुसौई । जीव जीव जन्तु मारो सब ठाई॥
अगम अपार निरंजन देवा । तुम नि जानत मोरा भेवा ॥
किि विधि हस उतायो पारा । कौन भेदे करो पसारा॥
तब हम कदा सुनो धर्मराजा । जानत नादिं ममं तुम काजा॥
हम बल एक शब्द का भाई । तेदी के बरु ठस सक्ता ॥
बोधस्ागर ( २१९)
जहां नाम तहां तुम नरि कोई । बिना नाम है वुम्री अड ॥
यह विधि होय इस परवाना । आवा ममन ताञ निं जाना॥
धर्मराय वचन
जेतिक नामे भु सु्रन करिया । श्रो सब नाम इमारे धरिया ॥
जो कोई धर्मं करदी संसारा । सो सब मोर आहि व्यवहारा)
बहत भोति मै फदा कीन्हा । शंकर सहित बाघ मै टीन्डा॥
कवन नाम दसन अुक्ताओ । सो स्वामी मोहे भेद बताओ॥
ज्ञानी वचनं
नाम हमार पुर्षके केरा । वही नाम सों इष उबेरा ॥
धर्मराय तुम ताहि न जाना । अपने अवगुण थये विगाना ॥
यही नाम आपन घट केते। जीवन कष्ठ नाहि तुम देते ॥
धमंराय वचन
वरम पुरूष है मोरा नाड । दूसर पुरूष कहां निमा ॥
मोरे आगे कवन कावा । सब कहं मार जार भवा ॥
तीन खोक महै जीव पसारा। उन कहँ मार करौ सहारा ॥
ब्रह्मा पञ्च हमारो भय । अंतकाल ताही दुख दय ॥
शिवस्षमापि कीन्हा अहकारा । प्रलय काट करौ जर छरा ॥
विष्ण बडे सबही मे अंशा । तिनके मार करौ निरवशा ॥
अपने अश यही गति दही । सृष्टि संहार प्रल्यकर लौं ॥
तुभ तो आए हस उबारन । कवन भांति करिहौ जगतारन॥
ज्ञानी वचन
धर्मराय कँ तब सथुञ्ञाईं । तुम जीवनके दुष्ट कहाई ॥
जब तुमकीन्द चोरको काजा । ताने पुरूष मोहि उपराजा ॥
नाम एक मोहे दीन्ह॒ अमोल । वोदही नाम जिव बन्दी खोखा॥
ठाङ्कर नाम तुम्हारा होई । तीन लोक उकुराह समोई ॥
( २२० ) अमरमूल
पुरूष नाम तुम दीन्ह विसारी । आपरि पुरूष कूप विस्तारी ॥
योग सन्तायन हमरो नाऊ । तोहि कारण मोहे निर्माऊ ॥
त॒म निज घमं करो अकारा । आदि ब्रह्म अहै रखवारा ॥
धमराय वचन
धर्मराय तब उत्तर दीन्हा । इम करई दया पुरूष ने कीन्दा॥
तुमरी दया करह मोहि पादीं । जिदहिते मोर रदै जग शीं ॥
चुम जेठे इम लहुरे भाई । इम उपर तुम कादि पटाई ॥
पुरूष समानि तुम कहं जाना । अषने मन तुम दूसर ठाना ॥
कटो उपदेश सोई उपदेशा । जाते ऊजर होय न देशा ॥
पुरूष वचन दम शिरपर मानी । आज्ञा भग करो न्ह ज्ञानी ॥
| ज्ञानी वचनं
योग सन्तायन बोलन दीन्हा । यह उपदेश पुरूष तोहि दीन्हा॥
जा जिव पान प्रवाना पावे। ताके निकट कार नहिं जाव॥
जो कोड जीव दोह दै ज्ञानी । ताकी तुम कीजौ महिमानी ॥
सार शब्द् जो बालक पावे। तासो प्रेम बहत तुभ लवे ॥
यह उपदेश हमार लीजे । पुर्षके वचन मान शिर रीजे॥
जो इतना नरि करौ कबरूला । तौ तुम सदह दुःख बहु ्ला॥
पान प्रवाना शब्द न होई । जस जानो तस करिहौ सोई ॥
इतना धमराय जब जाना जो तुम कहा सोई परवाना ॥
बिन्ती एकं हमारी लीजे । नाम सन्देश मोहि कहि दीजे॥
साखी-मे उपदेश जो पाव्हूः सो सब करहु तुम्हार ।
तुमहि पुरूषके अगवा, दंस ॒ ड़ावनदार ॥
ज्ञानी वचन-चौपाई
तब साहिब जो कदिबे टीन्दा । तुम नहि पावहु नामको चीन्डा॥
जब तुम सत्यलोक मई रदिये । चौसठ युगल्ग सेवा करिया ॥
बोधसागर ( २२१ )
तवे पुरुष आज्ञा तेहि दीन्हा । सहे खण्ड राज्य तब दीन्हा
तब तुम मान सरोवर जाई । कन्या देख बहत सुख पाई ॥
पुरुष तोहि तब भार निकारा । तब हम भएडः हस रखवारा ॥
शब्दं वार तब पुरुष सम्हारी । वुम्हुरे टारे ररत न टारी ॥
मूर शब्द्का का पवि भेदा । सोहं हंसा होय अकेदा ॥
सोई भेद ठम नान पावा । कितनौ सेवा कर गुदरावा ॥
तुम कुबुद्धि ओगण बड़ कीन्हा। पुरूष आय वेर जो दीन्हा ॥
तबते तुम्हरो भिन्न परसारा । राज परसारेड यह संसारा ॥
हम कहं दया ईस की आई । दीन्ड पयान खोक तँ भाई ॥
बचन हमार मान सिर टीजे । शब्द खोजि अब नारि करीजे॥
जब तुम पाहौ शब्द ठिकाना । लोकं तुम्हार न रहे निदाना ॥
सवे जीव सत लोकि जाई । तुम्हरी नहीं ररै उङ्कराई ॥
येही मन्ञ॒ हमारो धरह् । शब्द् खोज अब नारीं करह् ॥
साखी-महा प्रख्य जव टोय दै, देखि हौ. खोक हमार 1
तब हम तुम च शब्दं दोह टकसार ॥
पा
सह खण्ड तबहि मिरि जाई। रहे पुरूष तब शब्द समाई ॥
धर्मराय तुम पुरूष के अशा । मिरुहै शब्द भिरे संब संसा ॥
इतना वचन धमं सौ कीन्हा । पीर जगही प्याना कीन्हा ॥
ता पाठे संसारहि आये । पेडरमों बह जीव ङडाये ॥
चार सिद्ध पवेत पर पाये। तिनसों ज्ञान भेद ` समुञ्ञाये ॥
चारो सिद्ध काल सों बाचा। दिव्य ज्ञान दय महं साचा ॥
ता पीछे तुम्हरे टठिग आए । धर्मदास तुम दर्शन पाण ॥
धमंदास वचन
धमंदास बिन्ती अनुसारी । है सतगुरु तुम्हरी बरखिहारी ॥
अगम ज्ञान तुममोहि लखावा । इदय कमल तुम मोर जड़ावा॥
( २२२ ) अमरमूल
अन्य याभ्य सतशुङ् पशधारा । अब भयोजीवन खुफर हमारा॥
एक वचन सोहि कदो बञ्ाई । जिर्हितें जीव की संशय जाई॥
कारु कठिन सो काह न जाना । सो मोसौं किये परवाना ॥
जीवत कार् चिन्ह जब पावे । तब तुम्दरे सतोकं सिधावे॥
जीवत कार चीन्ह नटि जाई । तो केसे सत लोक सिधाई ॥
वुमतो ज्ञान बहुत उपदेशा । बिन देखे सब रगे अन्देशा ॥
दया करो अपनो जन जानी । कारु चिहु याऊ पटिचीनी ॥
बिन चीन्दं निं दोय उबारा । भवसागर बांकी रै धारा ॥
काल कठिन हे जगकौ फदा । किरि विधिजीवहोयनिरदन्दा॥
निरदन्दी मोहे करो शुखांई । तौ पै पथ चला जाई ॥
| सद्शुङ् वचनं
साहिब तब किव वचितधारा । धमंदासर सन काल पसारा ॥
काल अमल संशय है भाई । प्रथम कारु तुम चीन्हौ आई॥
जेतक कर्मकरे संसारा । सो सब आहि कार व्योहारा॥
कारु ख्या जानत नि कोई । कर बिषरीत सबन क सोई॥
दस ओतार काटने छखिया । काल अपबल सबक दलिया॥
मीन स्वह्प कारु ओतारा । कूम स्वशप भहा जो चारा ॥
बारह रूप ओतार जो. कीन्दा । नरसिंह रूप ओतारजोटीन्दा ॥
वामन होके बलि करई छलऊ । परञ्चुराम होय क्षी दल ॥
राम प् दोय रावन मारा । कृष्ण रूष होयकंस पकछारा ॥ `
बौध कूप जगन्नाथ ओतारा । लीला बहुत भांति सम्हारा ॥
दस ओतार कारके धरिया । म्लेच्छ मारसतयुगसो करिया॥
इतनी देदह धरी युगमादीं । कालं अमल भ्यापे तिनपाहीं॥
काठ मर्मं॑काहू नहि जाना । सबकहं पकर कीन्हे पिसवाना॥
काल पुरूष काहू नदि चीन्दा । कार पाय सबहिन गहि ीन्हा॥
बोधसागर ( २२३ )
कार पायकर जागहि योगी । कालकष्ठ सुन फिरहिं वियोगी॥
काल पायकर वाप जो करदीं । काठ पाय सब वुण्यहि धरही॥।
काल पायकर सत शङ् भयऊ । कार पाय अता है गय ॥
द्राषर काक वायकर आवा कटिथुग काठ षाय निरमावा॥
कालि पाय चखा सब जाई । कार पाय संसार समाई ॥
काठ पाय कर भक्ति करावे) का पायकर खोकहि आवै
कालभेद य कहा विचारी । धमदास्च तुम ज्ञान सम्हारी ॥
काल कालको ममन जाना । सत्य पुङ्ष तें भय उतवाना॥
अलख निरञ्जन नाम कहावा । बुक्ष प्रसंग ङ्प बनि आवा
पुश्ष प्रगट जब हप बतावा। षत्य खोक जब नाम वरावा॥
तबही पुरूष गुप्त दोय गय) कारु इष यह मनकर भयङ॥
साखी-काल काठ सब कोई करहंकार न कीन्ह विचार
मन पिर होवे शब्द मह, काठ रहै अकयार ॥
चौपाई
ना कटं अवे ना कह जाई। शब्दहि मादीं सहज समाई ॥
जा देख तेसा है सोई। गुप्त प्रगट वे रहै समोई॥
गुप्त ये प्रगट एक कर भये । दतिय भावकर ज्ञान नशयेञ॥
दुतिया दुमत दासी रोईं। ज्ञान विचार कां रहो सोई ॥
तीन कालसों है थीरा। सोई पुरूष कायाको बीरा ॥
सोई वीर शब्द निज मूला । मंत्र ध्यान सोई स्थूला ॥
वही शब्द तै काल डउराई। नातर करि है कोट उपराई ॥
साखी-दुनिया चेरी काल की, भूरख ब्ञ्चे नारि।
की दुनिया मिट गई, ते आतमन्रह्म समार ॥
चौपाई
जेसारैतस कहा न जाई । ज्ञान विना ब्ूञ्च नहि भाई ॥
आय ज्ञान तव परगट भयऊ । दुतिया भाव सबे मिट गयञ॥
( २२९ ) अरम
दीपक जान भयो उजियारा । कारु तिभिरभिरगा अंधियारा॥
भय आनन्द शङ् जब पाये । ऊच नीच सब दूर बहाये ॥
ऊच नीच सब समकर जाना । ऊच नीच सब ञ्ूठ बखाना ॥
ऊच नीच सब ज्ूडहि कवे । जब आतम प्रमातम पावें ॥
जटा रोग न ब्ञ्च कोई। सब संसार ञ्ुठ है सोई॥
समता ज्ञान प्रकाश कराई। ओर ज्ञान सब ढह भाई ॥
कड साच संसार समाना । सत्य शब्द् नाहीं परिचाना ॥
कठ सांच दोई भिट गय । ज्ञानप्रकाश जाहि घट भयञ॥
धर्मदास तुम ब्यहु ज्ञाना । कारु कर्मं सुनहू अब काना ॥
सतगुरू दया जाहि पर होई । अभर कर जाने सोई ॥
साखी-अमर मूरु कहँ जानई, कारु दगा भिर जाय ।
कार परख कर ब्रह है, सब नहिं कारु समाय ॥
् चोपाई
काल तिरहकारूका भेद स॒माऊ । धभैदाष् पै तोहि ठकुखाॐ ॥
निह अक्षरका मेद निज पवे। निह अक्षर माहि जाय समावे॥
जो नरि जान निहअक्षर भेदा । ता महकार करत है छेदा ॥
निह अक्षर विन कालन जीते। यज्ञ दान केता कर बीतै॥
` योग यज्ञ॒ तष काल पारा । यज्ञ दान सब कार व्योहारा॥
काल गती संसार रै भाई। बिरखा जन कोई लख पाई ॥
साखी-सशय कारु शरीर महि, विषय काल दै दूर ।
तारि खखत कोई संतजन, जार करे सब धूर ॥
् चोपाहं
जीव बुद्धिसों नाहिन चीन्हा। काल न चीन्हत मतिके दीना॥
क सुख करब दुख होई । काल जाल जानत न्ह कोई ॥
आनस कद मनमाि बिचारी । निरारंब होय प्रभुहिं पुकारी ॥
बोधखागरं ( २२५ )
कबहु के प्रथुने सब कीन्हा । कबहु कहत सब मोर अधीना
स्वारथ शूप सदा चित लवि । परमार्थ कषर नहिं भवि ॥
साली-कै कबीर धर्मदास सो, तुम खुनियो चितलाय ।
काट मेद नहिं जानी, भूरख रहै युखाय ॥
चौपाई
जो देवा सो काल पस्षारा । जौ षिनसे सो काठ अहार॥
धर्मदास तुमचित थिर करहू । मनकी उगमग तब परिहर ॥
भूत भविष्य वतमान जो कदिये। यहि बिधि तीनकार निवदहिये॥
भृत सवै है काल्की काया । भविष्य होय सोह जीव कहाया॥
वर्तमान परमातम जानो । यहि विधितीनकाट पदिचानो।
भत सोई वर्तमाना । सोह भविष्यत भमकर जाना ॥
भूत भविष्यत ओौर वतमाना । मनथिर भए सब परहिचाना ॥
शब्द मांहि हंसा निरबहईं । मन बिच कमं नामको गह ॥
मनके दप समनी माया । सब ससार व्याप्त यहं छाया)
मन भिर कर परमातम जाना । यह विधि तत्व लेहुपहिचाना॥
काल जारतैँ तेदी ट्टे । काट विचारे ताहि न ट्टे ॥
यही मेद धर्मन खन लीजे। शब्द् मादि बासा तुम कीजे॥
काल ज्ञान संसार बखान।। काल स्वश नहीं परहिचाना।।
खाखी-इतना भेद खन लीजिये, काल को ज्ञान बखान ।
काट पायकर होत है, हम सों फिर फिर ज्ञान ॥
धर्मदास वचन चौपाई
धर्मदास तब पायन परई। सतगुङ सों बिन्ती अनुसरई ॥
जो तुम कदी सोई परवाना । काल पाय कर फिर २ ज्ञाना ॥
तुम प्रसाद मुक्ति फल पावा । यह भवसागर बहर न आवा ॥
हम सों ज्ञान कदा फिर रोरी । सोई बात कदो निज मोरी ॥
( २२६ ) अमरमुख
सखद शुर वचन
तब साहिब अस कदिबे रीन्दा। तुम नदिं पाओ ज्ञानको चीन्दा॥
इम तौ सत्यलोकके वासी । तहं नहिं कारु बसे अविनाशी॥
मनै जो कहा घतलोकव्यवहारा । कार पाय सब होत ओतारा॥
काल पाय बिनसे संसाया । काठके सब बिनास जग डारा ॥
कारु कमं काह नदि जाना । जीव जन्तु सब कार समाना ॥
कालहि पाय सषि निर्माई । कार षाय फिर माहि समाई ॥
साखी-कारु पाय जग ऊपजो, कारु पाय वत्तांय।
कार पाय सब विनसरी, काल काल कहं खाय ॥
धर्मदास वचन-चौपारईं
यद सुन धर्मदास दर्षानि। सदगुर् रूप दिये पहिचाने ॥
तुम सादिब मोहे कीन्ह निहाखा। आपन जान कीन्ह प्रतिषाखा ॥
बिन्ती एक करत . संकाई । हे सतगुरू मोहे भाख सुनाई ॥
काटरिकी गति कहि सथुञ्चावा । अचरज बात मोर सन आवा॥ `
प्रथम पुरुषकी प्रथमहि काला । मोदि बतावह भेद रसाला ॥
¦ सद्गु ङ् वचन
तब सतश् कटिबे अनुसारा । धर्मदास सुन शब्द हमारा ॥
प्रथम इते जब श्ुन्य स्वभा । धर्मदास सुन शब्द् निमी ॥
शब्दते पुरूष शब्द निमोवा । यदी भेद बिररे जन पावा ॥
जाको किये ञ्ुन्य स्वभा । काल ्ुन्य एके समुञ्चाऊ ॥
काल मेद कोई नहि जाना । धमंदास तुम सुनियो ज्ञाना ॥
ञ्ुन्यदि माहि शब्द उच्चारा । ध्मरायको भयो पसारा ॥
प्रथमहि जिन्द खूप इकभयञ । सत्तर युग सोवत चर गय ॥
तब सादि मोहे आज्ञा दीन्हा । जिन्द् जीवक तुम नहिं चीन्दा॥
"ॐ
जिन्द जीव कर आन बुराई । सत्तर युग उन सोय सिराई ॥
बोधसागर ( २२७ )
तब हम जाय शब्द अस बोला । सोवत जिन्द् नाहि चित डोला॥
का सोवत तोहि पुरूष बुलाई । नहिं जागहि तिहि नींद सुहाई
तब हम तेहि जगावन लागे । जिन्द जाग वरम अवुरागे ॥
जगे न नीन्द भम बह आवा । तब हम ठक शब्द् उवजावा ॥
काल शब्द कहं टेर॒युकारा । खनकर जिन्द भयो संचारा ॥
कार शब्द सुनजिन्द उराना । तबरही आया चरण छिपटाना॥
काल नाम सुन एेसा भाह। काठनाम सुन भक्ति कराई ॥
धमदास सुन कालको भेदा । कारु भिना नहि कर निषेदा ॥
काट नयन भर देख न कोई । काल्हि पड पढ़ गये बिगोड ॥
वेद् शाञ्च खन पंडित कहाई । कार पुङ्ब सब जीव भर्माई ॥
साधू मिलकर भक्ति कमाई । जति कार कांस नहिं आई ॥
काल शब्दं ना होतौ भाई। ता काहे को कित कराई ॥
कारके डर तपसी तप साधा । इन्द्री पांच कार डर बांधा ॥
कालहिके डर योग जो करई । कालहि रतै दान जो भरई ॥
कालि उर भासे सत जाना । काहि उर छोडे अभिमाना ॥
सत्यहि वचन काल डरकरदीं । कारि डरसे ञ्जुठ परिदरदीं ॥
एसा उर है काहि केरा । धर्मदास तुम करट न बेरा ॥
साखी-एेसा डर है कालका, सुनइ हो धर्मदास ।
एक नाम कहं जानक . निडर रहो सुखवास ॥
चोपा |
कालि उर दुनियां सब बड़ी । काह न देखी कालकी सड़ी ॥
त॒म धर्मदास निडर हो रदहु । नाहिन का श्जूठ परिदरह ॥
छन्द-यह भांति पथ चलाव जगमें हंस लोकं पठाइवौ ।
ज्ञान गम्य ठखायके फिर शब्दसार लखाइतौ ॥
हदय जेहि पर दोय गुरूकी रहत गहन समावही ।
काल कष्ठ निवारके सोहं पुरूषरोक सिधावही ॥
( २२८ ) असमरसूर
सोरग-आष सरीखा जान, ता कहं शब्द ख्खाइयो ।
धमदास लेव मान, यरी सिखावन पुर्षको ॥
इति ओमन्थ अमरसूक धमंराय बाद कारुको वणन ।
पचम विश्राम
धर्मदास वचन-चौपाई
धर्मदास आनंद समाना । विगसेड कमल उदे जनु भाना॥
बहुत भांतिसों बिन्ती कीन्हा । मन वच कमं चरणचित दीन्हा
पद्रज लीन्दीं तषा मिटाई । छी सीप स्वाती जिमि पाई॥
रंकहि निधी भिकगई जेसे अहिमणि सिल मगन भय देसे॥
चरणामृत वह विधिसों लीन्हा । गुर् चरणनको मै आधीना ॥
अब प्रतीति मोर मन आई । निश्वय वचन मान तुव सई ॥
अवरी जाय लोकं यै देखा । ज्ञान गभ्यसों पायउ ठेखा ॥
भक्ति मुक्ति दोनों हम जाना । दया तुम्हार परी प्िचाना ॥
जेपर दया तुम्हारी होई । एेसे पदको पहुचे सोई॥
हम जानके मान उपदेशा । विन सतशुङ्् नि मिटत अदेशा॥।
त॒म सतगुर् ओर सब शिष्या । यरी ज्ञान परगर हम देख्या ॥
सतगरर् आप ओर सब वशा । सत्य पुर्षको तुम निज अशा ॥
तुम्हरे बचन लोकं पदिचाना । तुम्हरी दया परी अब जाना ॥
यदह मन बरञ्च शब्द है लोका । ज्ञान भयो मिट गये सब शोका॥
लोकं अलोकं एकं कर जाना । तुम्दरे बचन सत्य हम जाना ॥
अब मोरे जिव परचय आई । बिन जाने जाने बडी दुनियाई॥
नहि ब्रडौ नादी उतराना । यहि पाया हम केवर ज्ञाना ॥
एकं बचन भै चञ्चा सई । विन्ती करो चरण चित खाई ॥
बोधसागर ( २२९ )
तम सतगुरु मोहिदिय उपदेशा । मँ ईंसनसौं कौं रदेशा ॥
यह तौ बात कही नरि जाई । जब पवे तब ज्ञान समाई ॥
जब् तुम द्या करी हियमाहीं । तबहीं पा नामकी अहं ॥
किये बचन मोर मन भवे । जातें हवा लोकं सिध ॥
सदगुङ् वचन-चौपाई
तब साहिब अस कदिबे टीन्हा। सब के देह शञ्दकां चीन्डा ॥
जो नहिं पाव शब्द् सहदानी । तो कस करहु लछोकयहचानी ॥
सब कर ज्ञान गम्य कर देहू । शब्द् रुखाय आषनकर ह् ॥
प्रथमदहि देह पान परवाना। ता पीडे फिर ज्ञान ख्खाना ॥
समय जान सब कहौं बिचारी । यदी भांति सब जिव निवौरी ॥
साधुनकी सेवा चित खे । सो जिव भवसागर नहिं अवै॥
गुरूकी दया मान सिररीन्डा । भाव सहित प्रजातिन कीन्हा ॥
इतनो भेद एक नहिं जानी । सो केसे षुन शिष्य बखानी ॥
ज्ञानवन्त कदं यह उपदेशा । मूरखसों जिन करहु स्देशा ॥
सार शब्द जाके घट होई । तिहि ईसा सम ओौर न कोई ॥
धमदास तुम कं नरं भारा । सबके तारन है करतारा ॥
यह उपदेश कहु ` बह भती । माने सोई हस की जाती ॥
जो नहिं माने कहा तुम्हारा । सो चर जेहै यम के द्वारा ॥
यमके दाथ परे सो आई । बहता जाय थाह ` न्ह पाईं ॥
साखी कहै कबीर धमंदाससो, दीजो पान परवान ।
यही देस जो पावहीं, पहुचे पद् निर्वान ॥
धर्मदास वचन-चौपाई
३ स्वामी तुम्हरी बिहारी । अब चौकाको कौ विचारी ॥
कवन शब्दसो आरति साजी । कवन शब्द् सतय॒रूकी पोंजी ॥
( २३० ) अमरमरूल
कवन शब्दसों नरियर मोरा । कवन शब्दसों तिनका तोरा ॥
कवन शंब्दसों चौका करई । कवन शब्दसों दीपकं बरई ॥
कवने शब्द ॒षान छिख दीन्हा । कवन शब्द् प्रसाद् जो टीन्हा॥
कृवन शब्द ॒सिष्ठान्न चदावा । कवन शंब्दसों छत्र तनावा ॥
कृवन शब्द पनवारौ साजा । धोती कवने शब्द॒विराजा ॥
कृवन शब्दसों चदन दीजे । कवन शब्दस पुहुप चदीजे ॥
दल प्रसाद किं शब्द बनाई । यदी भेद शङ् कड सथुञ्ञाई ॥
स्दणुङू वचनं
यै भेद अब तोह बताऊ । चौका साज खकलसमज्लाऊ ॥
प्रथमहि तौ चौका अनुसारा । सोहं शब्द यै कटौ पसारा ॥
सेत॒सिहसन चोका चारी । केचन थार आरती वारी ॥
तदहं धनी जीव बडे आई । छिखनी लिख बहूर्भौति बनाई॥
धमेदास उठ ॒विन्ती कीन्हा । चन्द्रसूर्यं दो साखी दीन्हा ॥
शब्द् माहि बह भोति समावा । कदली पत्र जो आन धरावा ॥
अमर शब्द उच्चार कराया । अमर प्रवान अमरभंह काया ॥
अमर प्रवान अमर कर जाना । अमर शब्द बिरठे पहिचाना ॥
अमर शब्दका पवि भेदा । कै कवीर प्रवान अच्छेदा ॥ `
एकं बीज धरती कहं दीन्हा । पान सुपारी नरियर कीन्हा ॥
सो प्रसाद सतन कहं आई । सत्त सुक्रत के रोकं सिधाई ॥
तीन खोक सों भिन्न पसारा। बाहर भीतर शब्द पसारा॥
दूजी दुर्म॑त चित सो मेटो । एकदि चीन्ह कवीरदहि भटो ॥
यहि शब्द मिष्ठान्न चदावा । कदली पत्र जो आन धरावा ॥
सवा शेर मिष्टान्न मँगावहु । सत्य पुरूष कह आनचटावहु ॥
सत्य सुकृत कंदं आन चढ़ाई । दीन भाव कर वबिन्ती लाई ॥
बोधसागर ( 2३१ )
धर्मदास वचन
अजं एक अब सुनो हमारी । तुम यङ् लीन्हा जीव उबारी॥
शोध देख हम सकर शरीङ् । पीरा मेरौ बाप कवी ॥
केते लाख चकं जो परं) किरि कारण नरिअर अनुसरई॥
सद्र वचन
धर्मदास तुम भुनो ये बाणी तकर भेद कहौं परवानी ॥
सवा लाख चकं जो परईं। तिहि कारण नरिअर अदुसरई॥
बहत भांति सों तत्व क्गव । भृत्यरोक्े बहुरि न अवि ॥
सुमिरन नरिअर तिलकको
मृत्यु रोकं यम को स्थाना खच कंबीरने भारा बाना ॥
बान भार जक्त यश टीन्हा । तिरक काद् घम॑न कं दीन्हा)
साखी-पाक नारिअर मोरके, इस उतारे पार)
कंचन कपूर भिलगणए,सादहिब जीवको करौ उधार॥
खिरचा अचवन लेके, यकटकं समरो ध्यान |
कृ कबीर ध्म॑दाससों, सोह शब्द् प्रधान ॥
सम्पूणं
चौपाई
तवबही दीपक आन . भरकाशा । मनो सत्य रोक कियो बासा॥
अज शब्द का पावें भेदा । कहै कबीर तब जोत अछेदा॥
तबहि पानका लिखनी नीका । अन्र शब्दका पावे टीका ॥
सत्यका अक तदहो लिख दीन्हा । मंज उचार एकं तब कीन्हा ॥
सुख सागर मोरौ स्थाना। तर्हवा सेत चदाये पाना॥
सेत् पानका अम्मर काया । सीपमांहि जिम स्वाति समाया॥
भमत पवन बिहरत संसारा । निमल पवन हंस रखवारा ॥
तबहि तिनका बेग ॒तुरावा। जन्म जन्मके पाप बहावा॥
(र्दे) | अमरमूल
सुम्न तिनका तुरावेका
अखन वसन मन कल्पना, देखो सर्वहि भूत ।
कहे कबीर सतशुर मिरे, मिथ्याके सुख कं ॥
सम्पूणं
चोपाई
तबे प्रवाना दीजौ जानी । भुक्ति होय हंसा पहिचानी ॥
द्दिने छोड़ धमं स्थाना। बांये दुर्गदानी को थाना ॥
आगे चिर युपि कौ भारा। नाम सनायके हस उबारा ॥
ट्टे घाट अरसी कोरी । हसा उतरे नामकी डोरी ॥
साखी-कितरे ब्रृक्ष कितरे पक्षी, कहां विरमे आय ।
कहे कबीर जो यर मिरे, हंस देहि पर्हैचाय ॥
चोपाई
दे परवाना -हस वबचावा। ज्ञान परम पद घटहि समावा॥
चट की परिचय कोई पाया । जाते जीत चले यमरायां ॥
तब स्नान का शब्द सुनावा। विना शब्द पानी नहि पावा॥
बिना शब्द जो पीवे पानी। मानहू मदिरा श्धिर समानी ॥
सुम्न जल पीवनेका
आगम सरोवर विमल जल, हसा पिये अघाय ।
काया कंचन मन मगन) कमं भमं मिरजाय ॥ `
सुभ्रन स्नानका
सत्य् सुकृत के नीर गावा । धनीके बारुकं स्नान करावा ॥
कृर स्नान पुनि शीश नवावा । सादिबके चरणन चित लावा॥
कहै कबीर सनौ धर्मदासा । आदि अत इक ज्योति निवासा॥
साखी-आदि अत इकं ज्योति रै, अमरनाम स्थीर।
चौदह युवन नव 1 एकि सत्य कबीर ॥
सम
५। 44 ॥०।९
सुम्न प्रसाद मालूम करनेका
निर्भय पदका चौका दीन्हा । शीर संतोष ठे मजन कीन्हा॥
प्रम प्रतीत परम उजियारा । सत्य सकृत है जेवनहारा ॥
सत्य सुकृत की फिरी इहाई । जक भयो पाकसंतन सुखदाई॥
सबं सतन मिल कियो प्रसादा । जवे कर्तार जिवावे धमदासा ॥
सब संतन प्रसाद जब कीन्हा । युक्ति अभयपद कहं तब चीन्हा॥
साखी-कहे कबीर धमंदाससो, आरतिको परमान ।
ये विधि सेवकजो करे, पावे पद निर्वान ॥
धर्मराज वचन चौपाई
धर्मदास विनती कर जोरी । स्वामी सुनिये बिनती मोरी ॥
कृवन वस्तु आरति मह धरई । कवन शब्द छे सेवा करई ॥
सो सब मोहिं कटौ समुक्ञाईं । आरति विधि पै करौं बनाई ॥
सदर वचनं
प्रथमहि मंदिर सेत सम्हारा । सुतं नितं भक्त चित धारा ॥
कृञ्न केर थार बनवाओ। तामं मोती आन धराओ ॥
क्ता तो अन बेधे होई । एेसी विधि प्रकार है सोई ॥
आरी एक कंञचचनकी होई । ता महं दार प्रसाद् करसोई ॥
नरियर इकसत एक रवाना । सवा तीन मन ले मिष्टाना ॥
पाटम्बर धोती तहं चदिये । दीपमालिका बहुतकं रदिये ॥
नईं वेद तहं आन धराई। कथचन ओर कपूर मगाई ॥
जरी केर तहां छव तनावा । पान सदस द्वादश बनवावा ॥
लग सुपारी लायची लीजे । मेवा अष्ट भांति धर दीजे ॥
ता पीडे प्रसाद सदहिदानी । सुखपूजा साधन कर जानी ॥
आरति फल तबही जिव पावै । सवा सेर महाकंद मेगा ॥
सोना केर कलस धरवाई । तहां प्रवाना लिखे बनाई ॥
( २३९ ) अमरमूट
प्रमाना बालक कर्द दीजे । रस रूष ता कर्द कर रीजे ॥
देसी आरती धरे धमंदासू । सोई पावे रोक निवास ॥
मनम बह आनन्द बड़ाई । आरत फर सोई पुन पाई ॥
अषने स्वार्थं आरती करई ! भवसागर तै केसे तरईं ॥
धर्मदास वचन |
धंदास बिनती अनुसारा । तुम सतथुरू भोरे करतारा ॥
ेसी विधि आरति नदिं करई । सो जिव किम भवसागर तरई॥
कलि मे जीव दरिद्री होई । द्रव्य विना किमि भक्तिरजोई॥
जिदहि विधि होय हस शक्ता । सो मोहे स्वामी भेद बताञ ॥
सद्शुङ्् वचन
तब साहिब अस किव लीन्हा । यदी मती हम तुम कहं दीन्दा॥
एतिकं विधि जापे नदि होई । सहज भाव आरति करे सोई॥
सवा सेर भिश्ठात्र गवे । नरियर इक तहं आन चद्व ॥
सवा सौ पान कं परवाना । लग खायची एही धाना ॥
धोती एक आन तह धरई । सतशुङ्् केर निछावर करहं ॥
साधन सों वह प्रेम बटावे। सत्य इष होय ज्ञान सुनावे ॥
ज्ञान गम्य कर शब्द ॒बुञ्चावे । सन्तन सों बहु प्रेम बावे ॥
पाचों पद तादी महै लवे । साधन की सेवा मन लवे ॥
ठेसी बिपिसों आरति करे। सो प्राणी भवसागर तरे ॥
धर्मदास वचन
जो इतना नहि करे कडिहारा । ताको मोसो कटौ विचारा ॥
हे सादिब मोहे कटौ पुकारी । बन्दी छोड जारं बिहारी ॥
। सद् शर् वचन
जो इतना नारीं बन आवै । सो कडार पार किमि पावे॥
बारह आरति जो नदिं करे । दो आरति सेवाचित धरे ॥
बोधसागर ( २३५
कागुन ओर भादों षरवाना । दो आरति नदि जोडसुजाना॥
साधन को परवाना देईं। वर्ष रोज के कमं नसाइ॥
साखी-पान प्रवाना पावही,) सतशुङ् महिमा दान।
तबही हंसा सत्य है, ओौर शूठ सब ज्ञान ॥
चौपाई
धर्मदास मै तुमहिं सुना । आरति भद ज्ञान समञ्च ॥
अक्षर सार आरती सोह । बिन अक्षर सब गद बिगोई ॥
अक्षर भेद जान परसंगा । ताके काठ रहै नहिं संगा ॥
आरति बहत भांति सो करई । अक्षर भद् दिये नदिं धरई ॥
ˆ साखी-अक्षर भेद जाने नहीं, बतिं कहै बनाय ।
ताको कहौ न मानिये, आपन जीवं बंशाय ॥
चौपाई
आरति भक्ति ओ अक्षर सारा ।ओर सकल सब ञ्जठ पसारा ॥
जा केह अक्षर परिचय हो । आरति फर पावत ह सोई ॥
मूल शब्द् घट ॒मांहि विराजे । ्ुन्य शिखर अक्षर धुन साजे
ताकी महिमा तटे न कोई । एसा साधू विरखा हो ॥
सो कडिहार जो अक्षर जाना । ओर गुरू सब अठ बखाना ॥
गुरू सोई जो अक्षर जाना । बिन अक्षर मूरखसम जाना ॥
कटिहार वही जीवन कं तारे । अक्षर विन जिव नरकहि डारे॥
जो गुङू दगा शिष्य कं देता । नरकं परे गुर शिष्य समेता ॥
अक्षर बिन शुरू आरति करई । धमराय के फन्दा प्रई ॥
इतना भेद न जानत प्रानी । पेटके कारण ज्ञान बखानी ॥
जैसे ठनिया करे ठगिहारी । जसे जनह सो कडहारी ॥
अक्षर की परिचय नहिं पवे। आपहि आप जो गुरू करावे॥
( २२६ ) अमरख
छन्द्-कडदहार सोई साच है, जिन शब्द् सों परिचय करी ।
सूतं नितं समेट कै सोई, नाम निह अक्षर धरी ॥
रहन श्रे ज्ञान परे, पथ परमारथ हौ ।
दुष्ठ मिञ समान यकचित, दुतिया भाव न चित गह ॥
सोरठा-सदशुङ सिन्धु कबीर, उन पटतर अब को है ।
सुनियो धमनि धीर, सरिता सब कंडिहार है ॥
इति श्रीभरथ अमरमूरु चौका बधन वर्णन
षघ् विश्राम
धर्मदास वचन- चौपाई
यह सुन धमंदास दषाना । जिभिषंकज विकंसे खखि माना॥
डे सद्गु मोपर दया कीन्हा । जन्म स्वार्थं अब मैने चीन्हा॥
धमंदास करै कर जोरी । स्वाभी सुनिये बिन्ती मोरी ॥
यकं संशय मोरे घट मारी । कोनउ विधि सों टत नाहीं ॥
मृतलोकं ॒मे पाखड धमां । केसे जीव होय निह भर्मा॥
त॒म सतगुरू निजज्ञान सुनाया । शिष्य पाखण्ड तजे नहि माया॥
सो मोहे सतशगुर भद् बताओ । तासो जीव होय श्ुक्ताओ ॥
सद्गुङ् वचन्
घमदास तुम सुनो विचारी । पाखण्डी गति सब निर्वारी ॥
सत्य शब्द् घर माहि समावे । ता कग सब पाखड कदावे ॥
तुम जानतदहौ शब्द प्रवाना । विना ज्ञान नहि शब्द् समाना॥
पाखण्ड जिव सुक्ति न दोईं। कितो उपाय करे पुनि सोई ॥
पाखण्ड जाके दये होई ।सोईं दसा कर भुक्ति कर बिगोई॥
जप तप ज्ञान बहत कर जाना । नेम धमं बहुतकं लिषटाना ॥
इतना कष्ट कन्द अधिकाई । तो पाखण्ड भेट नहिं जाई ॥
बोधसागर ( २३७ )
ज्ञान शब्द् घट आंहि समाना । सो पावेगा षद निवना ॥
माये तिलक गरे जयमाल । हिय पाखंड न भिङे शषाला ॥
स।[खी-करं कबीर विचारक, अुनियो द धमंदास्र।
सत्य शब्द जिरि धट बसे, तहं षाखंड विनास ॥
चौपाई
धर्मदास तम सत्त के जानहु । पाखण्ड भमं डदयमत आनड्॥
जाको मन पाखंड सों राता! सोहं नरक कं निश्चय जाता॥
पाखंड दिये भक्ति ना होई । सत्य वचन मानो घट सोहं ॥
दान देय ओ पूजा करई। पाखंड धमं जीव नहिं तरह ॥
योग यज्ञ तीरथ फिर आवे। पाखंडी जिव ठर न पावै ॥
धर्मदास निश्चय सुन लीजे। सत्य शब्द य वासा कीजे ॥
साखी-धर्मदास सुन लीजिये, सत्य शब्द् उपदेश |
विना सत्य पहुचे नदीं, सत्य लोकं निज देश ॥
् चौपाइ
सत्य शब्द सतपुरूषहि जानौ । नाम बिना सब ञ्ूठ बखानो ॥
नाम छोड नहिं ओरहि जानौ । निगुण सथंण एकहि मानौ ॥
निर्ण सर्गंणतं नाम नियारा। जो चीन्दं सो हस हमारा ॥
जह देखे तहँ शब्द स्वषूपा । बोरन दारको अचरण इया ॥
अचरज बात कहन की नाहीं । बिन सतयुर् नहिं पवे थादीं ॥
साखी-निह अक्षर निज पावही, मिरि है सकल अदेश ।
निह अक्षर जनि बिना, घटदी में परदेश ॥
धर्मदास वचन-चौपाई
धर्मदास विनती अवसषारा। अजे एक सुनिये करतारा ॥
सकर भेद् गङ् मोहि बतावा । बिना ज्ञान मेद नि पावा ॥
( २३८ ) असरम्ल
ज्ञान रूप कहे सों किये ज्ञान भेद कैसे के लिये ॥
बिन सतथर् को मेद बतावे । किटिविधि मनकी सशय जावे॥
सद् गुर वचन
ज्ञान शब्द सत गुर्ूसों पावे । विन सतथुङ् को भेद बतावे ॥
ज्ञान नाम है बीज स्वहूपा । विनाज्ञानसो यहको दूषा ॥
ज्ञान वीज प्रथम अबुसखारा । ज्ञान बीजते सकर पसारा ॥
ज्ञान बीज सों द्वीष निमांया । अभी अक्र ज्ञान उपजाया ॥
प्रथमहि तहां पुरूष को मूला । जिह तें भये सकर स्थूखा ॥
सोलह सुत जबभय उतपानी । ज्ञान बीज ते सबकी खानी ॥
तुम सहज धमबरु जोरा । ध्मराय को माथा तोरा॥
सुतनाम ज्ञानी अवुसारा। धर्मटोकं तै दीन्ह निकारा ॥
विषम सरोव्र आन विराजा । अति अरहकार महाबर गाजा॥
भोति भोतिके बाजन बाजा । रंग छत्तीसों होत अवाजा ॥
पांच तत्व गुण तीन बनाया । तातं सकर सष्ठ निभाया ॥
जात पांच यदि ते उतपानी। ब्राह्मण क्षती शूद्र बखानी ॥
ब्रह्मासों जब जाति पसारा। चार वर्णं कीन्ह निरधारा ॥
मुखसों ब्राह्मण कीन्ह उचारा । भुज सों क्षत्री कीन्ह पसारा ॥
जंघसों वेश्य करी उतपानी । पाव सो शुद्र कीन्ह सदहिदानी॥
चार वणं को सकर पसारा । वतेमान वतै ससारा॥
ब्राह्मण धमे ब्रह्मको जाना । ततिं ब्राह्मण वेद बखाना ॥
बराह्मण जानौ शुद्र समाना । बिन जाने बडे अभिमाना ॥
गायत्री जप दै दिनराती । समुञ्चत नरीं ज्ञानकी पौती ॥
गायती जप कर अभिमाना । दमसम ओर कोइ नहि आना॥
संध्या तपण ओ षट कमो । वेद् विचार साध श्चि घमां ॥
सुमति बिचारकै ज्ञान बखाने । धमे विधान कथा बहु आने ॥ `
वस्ागर् ५ <^,
पिण्डा पार तण करि दीन्हा । आपन मन अहंकार बड़ कीन्हा॥
पिज भक्ति कीन्ही ज्योनारा । मन यैं कीन्ह बहुत अकारा ॥
हम तौ पितर भक्ति ल्वलाई । इम सम भक्त ओर नहिं भाईं॥
हम सम नाहि को$ टीना । पित्र भक्ति बहतक ख्वलीना ॥
जेंवहि बराह्मण पुण्य बड़ दोहं । ऊटम समान ओर नहिं कोई ॥
वेद शान्न पद ज्ञान जो जाना। भाषा ज्ञान सुने नहिं काना ॥
साधु सत॒ जो द्वरे आई । तिनकर देख बहत रिसओआई ॥
इन तो नघ कमं बट कीन्हा । भड भुडायके रोपी दीन्हा ॥
जाति षांतिकी छना त्यागी । निस दिनि फिर बह्म अदरागी॥
ततिं इनं न मानत कोई। पेटके कारण जाति बिगोह ॥
जाति समान न ओर बिचारा। जते बाह्मण जाति सखम्ारा ॥
यह सब मत ब्राह्मणने कीन्हा । जतं सषि क्म दीन्हा ॥
जिन प्रथु रचा सकर ससारा । तिनि बिक्षार बड अहकाय ॥
प्रथुहि छोड़ अन्त चित बासी । जन्म अनेक फिरहि चौरासी ॥
ब्राह्मण प्रथुकी भक्ति न जानी । ब्ह्हप नाहिन परहिचानी॥
घुनिवर स्मृति पटक राता। ज्ञान दीन मिथ्या सद् माता॥
ब्राह्मण तो एेसहि चलि गणड । ब्रह्म धर्मं काहू नरि गहे ॥
साखी- ब्रह्म भेद जनिं नहीं, बहुत करे अभिमान ।
ताते ब्राह्मण ब्रूडदीं, कहै कबीर बखान ॥
चौपाई
क्षी धम सुनो व्यवहारा । गौ बाह्मण भियको रखवारा ॥
गाय मार दैत्यन सब खाई । क्षी धमे सवे नस जाई ॥
ब्राह्मण से भरवावत पानी । क्षी धमे कहौ रहु जानी ॥
आनकी त्रिया आन घर जाई । दरग्य आन को आन छुटाई ॥
न्यायह पै गाढा नहिं होई । क्ष्री धमे सहज दी खोई ॥
( २७० ) अमरम्ररु
धमे न चर न गुक्कह मनि । अपने मन म ज्ञान बखनि ॥
जो गुरू भिङे तो ज्ञान रुखवे । बहूरि न योनि संकट अवे ॥
एक नाम को करे नवेरा। चारों वर्णं तासु के चेरा ॥
एक धमे कहं बिन्वे प्रानी । चार ष्णं साधन क जानी ॥
साधून की सेवा नहिं करई । बहु अभिमान हिये मँ धरई ॥
साखी- भक्तं हप चीन्हत नहीं, चारु चके कदु आन ।
कषत्री गए अभिमानमें कहै कबीर निदान ॥
॑ चौपाई
तति परसराम ओतारा । उन क्षचिनको कीन्ह सहारा ॥
बारन बटन के भए काला क्षी मार विप्र परतिषाला ॥
मखं रोग सब करे बखाना । सत्य भक्ति प्रचित नरि आना॥
कोटिन हत्या क्षजी करं । तिनकी रोग बड़ाई धरई ॥
क्षी धमं को दोय निवाहा । तौ नहि छोड कालको चादा॥
ध्मराय तिन करे संहारा जरे वार करे जर छरा ॥
क्ष्री सोह क्षमा जिं अवे । परजा दखी आप दख पावे ॥
वैश्य धमं अब वेद् बखाने । विष्णु जान मन ओर न काने ॥
भूखा देख दया चित धरई । वैश्य धर्म व्यवहारि करई ॥
तीरथ व्रत कंरे विधि नाना । प्रथुकी भक्ति नहीं चित आना ॥
जेनी जीव करे प्रतिपाला । जैननामगत आहि रिशाला ॥
पानी छान पिये दिन राती । नहि ज्योनार करे निशिर्षाती॥
हरिप्रतीत मन मादिन आने। सुखे काठ सों मन चितडनि॥
भक्ति रूप न्यारो धमंदासू । जासौँ मिरे कार्की फास ॥
जीव श्वास ना धमं चलवे। नारकं चटकं ज्ञानं बतावे ॥
लिगि पूजव घर घर जाहं। कामिनि सों बहु प्रेम बदई ॥
कामिनी काम न चितसौँ टे । यहि विधि घर यम निशिदिन टूे॥
(वक्षा ५ < 3 /
जप तप माया कीन्ह खुआरा । एेसे जीव अय्कं यमद्वारा ॥
पारसनाथ पूजा मन लाई । बहत भति सों पएूजहि जाई ॥
पारसनाथ परम गुर् ज्ञानी । ताकी नहि पर्वं सददानी ॥
ताके क्मं॑काट सव जाई । सतश् चरण रहै ल्वलाई ॥
जब सतर की दाया दोह । अक्षर भेद पाय नहि सोई ॥
ब्राह्मण क्षी वैश्य वखाना । अक्षर मेद नहीं पहिचान ॥
साखी-अक्षर मेद जनँ नदीं, करे बहत अभिमान ।
वेश्य स्वे वे न्च रहै, सत्य वचनं परमान ॥
चौपाई
चार वर्णम शुदं अधीना । सेवा कर सबसों छ्वलीना ॥
इतनी भक्ति सतगुरू की पाईं । चार वर्णम सो अधिकाई ॥
ब्राह्मणकी सेवा अनसार । काम कोधओौ ङोभ निवार ॥
क्षी सों बहु करे मिताई। नित नये प्रेमसदहित अधिकार)
वैश्य धर्मही विधि कर पूजे । सत्य धमं दाया चित कीजे ॥
देसे द्युदरहि ब्रह्म बखाना । ब्रह्मलोक मे सेवा माना ॥
कलियुग चुदर घमं अधिकारा । तीन धमं को भयो संहारा ॥
धन्य शुद्र जो सेवा करई । गुरूके चरण हदय महँ धरई ॥
साखी-यह तौ करनी शुद्रको, सुनियो दो धमंदास )
सत गरक चरण जो सेवई, सत्य लोकं महं वास ॥
चौपाई
धर्मदास त॒म शुद्ध ओतारा । जाते सतश् भक्ति चित धारा॥
तुम्हरे पीछे ब्राह्मण तरि दै। तम्हरे पीछे क्षि उबरिरै॥
चारों वणे सुक्ति घर जेहै। जो तुम्दरो चरणोदक छे ॥
कव न जल अवं तेहं। सुकति पदारथ पवें जेई॥
नं, ७ कबीर सागर - ९
(२७२ ) असरमूलं
खाखी-जो प्राणी जन्मत भये, शुदं सकल ससार ।
कड कबीर जब बाचि दै, करिह ब्रह्म विचार ॥ ‹ `
चोपाई ्
यह तुम सुन वणेनका रेखा । मुक्ति भेद करहु विवेका ॥
तुम्हरे शिष्य शब्द् जो पावें । बिना शब्द् निं शिष्य कविं ॥
शब्द सेद जो पव अगा । ताको काल नहीं परस्गा ॥
बिन अक्षर सबक दुख होई । येदी विधि सब जाय बिगोई ॥
ओर सकल यमको द्वारा । तिनको धर्मराय जो मारा ॥
धमदास वचन
घमदास वन्तौ कर जोरी । स्वामी सनियो बिनती मोरी ॥
तुम्दी दयाल दो अन्तर्यामी । करहु कृपा अब मोपर स्वामी ॥
तुम्हरे वचन मुक्ति हम पाईं । हमरे वंश कस अक्ति न आई ॥
सदशुङ् बचन
तब कबीर जो कहिवे लीन्हा । अब यै करौं वंशकर चीन्हा ॥
जिहि विधि शुक्ति होय रे भाई । सब अब तुम्हे करौं सञञ्चाई ॥
प्रथमदहि विपि वश ज्ञान मन खवे। सहज समाधि परम पद पावें ॥
निर्मोदी दो जगसों रई । मोह प्रीति मन हषं न करई ॥
जो माने तौ अति भल जाना । नि माने तौ समता ज्ञाना ॥
जो कोइ नाम कवीरहि ठेही । तिनसो कच न अन्तर देही ॥
आपा छोड नाम ख्व रवे । देह छोड़ सतलोकं सिधावे ॥
जो मनम करि है अहंकारा । निश्चय ब्रूडं सब परिवारा ॥
सत्य भक्ति सत्यदी मन लवे। आप तरे जीवन सुक्तावे ॥
जो कोई माया आन चदाई । साधुन करं सब देय खवाई ॥
सत्य वचन सबही सों भाषे । सत्यनाम मनम अभिलाषे ॥
कृबहँ न क्रोध कर मनममांरी । जो बे सो नामकी छारी ॥
बोधसागर ` ( २७३ )
ज्ञान विचारे शब्द सुनावे । सब जीवन कं छोक पठि ॥
तुम्हरे वंश जो आगे होड । तिनके गवे बहुत मन सो$ ॥
ग्वके किये भक्ति नहिं होई । बिना भक्ति सब जय विगो$ ॥
सात पिदी रुग गवं शुमाना। अढे पिदी भक्ति प्रवाना ॥
पावै खार शब्द परवाना तब पुनि पावै रोक दिकाना ॥
सात बाख जो तष्हरे होई । तब कग रहै अभिमान समोई ॥
शब्द चेल कै करटं धिगाई । पथि मेंट अपंथ चलाई ॥
अहे वंश त्वे ओौतारा। विनस्रौ होय पन्थ उजियारा ॥
वे गुर् आय करै संसारा। तीन छोकमहं बास पक्षारा ॥
स्वगं माहि नामी जिहि आही! धमराय तिनकी सुधि पादीं ॥
तब अपना वह दूत पठाहीं । बहुतक छ करै तिनपादी ॥
सार शब्द सों निकट न जाई । भागे दत रहै पछताई ॥
वेश तुम्हार केर यद रेखा । बिना नाम नहिं होय विवेका ॥
जा कहँ अमर नाम मिल गय । सो प्राणी निहसंशय भयऊ ॥
अमरशब्द जो घट प्रकाशा । तरहवा है हमरो निज वासा ॥
छन्द-जो अमरनाम न पायै, सो अध है षछताय )
जन्म जन्मत कष्ठ बहूतक, जरा मरन समाय हो ॥
दंस वैशन हंस पंगत, कही सब द्रसायके ।
यह रहन रहै सो रोक पहुचेकहं कबीर समञ्ञायके॥
सोरठा-दीन्द जक्त को राजः धमेन तुम्हरे वंश कहं ।
कृरेहि जीव को काज, सत्यनाम समञ्चायके ॥
इति भ्रीयंथ अमरमूल चारवणवणेन वशमहिमावणेन
( २७७ ) अमरमूख
सप्तमविश्राम
धमदास बचन चौपाई
धर्मदास कहे कर जोरी । स्वामी सुनये विन्ती मोरी ॥
जो तुम करी सोह परवाना । गुर्ूके वचन सत्य हम जाना ॥
हम जानी पुरुष ङ गुरू माहीं । तुमर्हि पुरूष कुछ अंतर नादी ॥
हमरे दिरु यद पारख आई । तुम्हरी दया दंस सुक्ताई ॥
हमरे बालकं तुम्हरे पे | तुम्हरी दया नाम मिल आ ॥
सद्गु वचन
तब साहिब अस कडि सखुञ्चाईं । वंश तुम्हार शुक्ति घर जाई ॥
जो कोह बालक होय तुम्हारा । तिनसों भक्ति होय उजियारा ॥
पथ मारि जे बालकं अवं) ते तुम वेशन माथ नवांवै॥
तिनसों भक्ति मयादा होई । सार शब्द् चलि है निज सोई ॥
नौद केरि बालक जो होई। तिनको सुक्तिनाम सो सोई॥
नोदके बालक शब्दटि जाना । भवसागर तज लोकं पयानी ॥
विन्दके बाल रदं अर्चा । मान गुमान ओौर प्रभुताई ॥
सत्य शब्द् जिहि बालक जानी । सोई पावै लोकं सहिदानी ॥
जेरो बार भ्रवाना पावा । तिन कर्द जानह वेश स्वभावा ॥
साखी-दमरे बालकं नामके, ओर सकल सब चूड ।
सत्य शब्द कहं जानदी, कार गहे नरि खूट ॥
चोपाई
धर्मदास सुन शब्द् पसारा । बिना शब्द नि उतरहि पारा ॥
बिना शब्द तुम मुक्तिन पाओ। केतो ज्ञान गम्य फेखाओ ॥
वश हमार शब्द निज जाना । बिना शब्द नहि वंशरि माना ॥
धृ्दास निर्मोह हिय गहू । वेशकी चिन्ता छंड़ तुम देहू ॥
तुम तौ भयऊ शब्द समाना । यही बचन तुम चित न्ह आना॥
बोधसागर ( २४७५ ,
तुमहि कही अस बस्तु गुसाई । वैं बो यह संशय जाई ॥
तुम्हरी दया आज जो पाऊं । तौ सब बालकं लोकं पठाॐ॥ ,
सद्णुङ् वचन
तब साहि अस कटि सथुञ्ञाई । बिना नाम नहि लोकं पटाई॥ `
नद बिन्दके बालक दोहं। बिना नाम कोड सुक्तिन होई ॥
के तौ पठे गुणे ओ गवे। बिना नाम भव भटका खावें
हमरे माया मोह न दोईं। सब संसार सत्य कर सोई ॥
धर्मदास त॒म बडे हौ ज्ञानी । यह संशय कस मन महं आनी॥
गुरू को भार सबन कर होई । तुम मनम पताव न कोइ ॥
तारन तरन सत्य हम सोहं । बिन सत्र ब्रड़ा सब को ॥
सतगुरू तौ सब सृष्टि उबारा । तुम बाख्कं अब कौन है भारा॥
तुम जिन चिन्तामनम्हं करहू । सद्गुरू नाम द्य महं धरहू॥
एकं कार आवे जव भाई । सबे सषि यद लोकं सिधा ॥
जह टग जीव जन्तु सब किये । तह कग सब सदगुरू महं छदहिये॥
सवे भार सदय॒रूके काँधे । पार लगावहिं यम निं बांधे॥
यमका अमल छर जब जाई । सदशुरू शरण जीव जब आई॥
साखी-कदे कबीर बिचारके, सुनियो हो धर्मदास ।
अमरभूल जो जान रे, ताको सब परकाश ॥
धर्मदास वचन-चौपाहई
धर्मदास बिन कर जोरी। स्वामी सुनिये बिनती मोरी ॥
तुम्दरे कहे जगत तर जाई । कौन मतासों लोकं सिधाई ॥
ज्ञान दिम्य जो घट नरि दोई। सोइ कवन बिधि लोकसमोई॥
तब म जानो ज्ञान तुम्हारा । सकल सृष्टिको होय उबारा ॥
( २७६ ) अमरख
कहै कबीर तबे ससुञ्ाई । यह संशय तुम कवन कराई ॥
तुम॒तो आपन ईस उबारो । जीवन शोच कहा निधौरो ॥
सतशुङ् रीन्ह जगतको भारा । तेई करि है सष्ठि उबारा ॥
जापर गुर् चितं चितखाई । ताकर हस बिगोय न जाई ॥
जब यह सशि कीन्ड परकाशा । हस अनेत सतरोक निवास्॥
अबहू अनत रोक कहं जाई । सत्यरोक मह जाय समाई ॥
तुमको संशय कष न माई। आपन दस करौ शुक्ताई ॥
साखी-सतशुङ् तारनहार है, कँ कबीर बिचार ।
तुम क्या शंका करत हौ, आपन करौ उवार ॥
धर्मदास वचन-चौषाई
धर्मदास विनवै कर॒ जोरी । बिनती साहिब सुनिये भरी ॥
तुम शिर आहि जक्तको भारा । सबं जीवन को करौ उबारा ॥
हमको नाहि गुरूवाई दीजे। आपन भार आष शिर रीजे॥
सद्दशुर वचन
तब सतगुर अस बचन उचारा । तुम कर दीन्ह जक्तको भारा ॥
तुम्हरे युहर चरे संसारा। अक्षर अक्षर करे पुकारा ॥
तुम्हरे कदे खोज जो करई । अक्षर षाय रस निस्तरई ॥
जो नहि मानं कडा तुम्हारा । सो चरु जेर यमके द्वारा ॥
-धर्मदास्र विनती अनुसारी । हे सतगुरू तुम्हरी बलिहारी ॥
तुम तो सत्य रोकके वासी । किरि कारन आये अविनासी॥
मृत्यु लोक भ कवने काजा। घर्मराय बड़ पापी राजा॥
तर्हैवां कवन काज पयुधारा । सो मोहि स्वामी कहौ बिचारा॥
तुम साहब सत पुरुष कदाए । मृत्यु लोकं में काहे आए ॥
बोधखागर ( २४७)
खद्शुङ्् वचन
तब साहिब बोके बिसरा । अब यह ज्ञान सनौ मन खाई॥
जब नहिं इते शून्य बे शून्या । तब नहिं हते पाप ओ पुन्या
तब नहि धरती गगन अकाशा मेङ् मन्दर नाहीं केशा ॥
तब नहि चन्द्र सूर्यं ओतारा । तब नहिं शेष सकल विस्तारा)
तब नहिं इन्द्र कुबेर समो$ । वाथ व्ण तर्दवां नहिं कोई ॥
सात वार पन्द्रह तिथि नाहीं आदि अत नरिकारकी छह)
तब नहिं ब्रह्ला विष्णु अहेशा । आदि भवानी गौरि गणेशा॥
आदि पुरूष तब इते अकेला । उनके संग इता नहिं चेला ॥
आष पुङ्षं अस कीन्हौ खाजा । शब्दहि याहि छोकं उपराजा)
प्रथमहि शब्द सुते अवंसारा । तेहि पीके सब द्वीप स्वरा ॥
तेहि पीछे पुन भूक बनावा । तेहि पीछे सोहं उवजावा ॥
ता पीके अचिन्त जो कीन्हा । ते पीछे अक्षर रच लीन्हा)
ता पीछे कूर्महि निमय । ताहि भार पृथ्वीको दय ॥
तब जल रंग सूतं इस भाखा । सत्त षातारके नीचे रखा ॥
जिहितें भयो जलको विस्तारा । सकल सष्ठ कौ मयो पसारा॥
तिहि तँ तेज तत्व अनुसारा । जेहि गुण त कार ओतारा ॥
पांच तत्वत सब नि्मावा ।तीनों गुण तिहि मारि समावा॥
तीनों गुण स्वषूपके धामा । ब्रह्मा विष्णु महेश्वर नामा ॥
रज शुण ते ब्रह्मा उतपानी । सतगुङू भाव विष्णु करजानी॥
मगुण शिव सहार पसारा । इतने भयो सकल संसारा ॥
तेजके गुणि काल उतपानी । तासों भये जीव दखदानी ॥
ततिं पुरूष दया चित आई । दसन कारण मोहिं पठाई ॥
ति भृत्य लोकहि आए । धर्मदास तुम दर्शन पाए ॥
तुम जीवनके बन्द छुड़ाये । समरन सत्य नाम ससञ्चाये ॥
( २९४८ ) अमर
तुम्दरे हाथ सृष्टि तरजाई । सार शब्द हम तुर्रे लखाई ॥
या कारण ससारहि आये। नाम पानसों हस बचाये ॥
जो तुम कहौ कहा अस कीन्हा । आज्ञा मान पुरूषकी टीना ॥
पुरूष शब्दत जीव॒ उबारा । तुम कर कवन बात कर भारा॥
यह चरि कडु कडा न जाई । अचरज खेर पुरूष निर्माई ॥
आपरि पुरूष आपी काटा । आपहि काल कीन्ह बे हाला॥
आपदि सकर सि निमाईं । आपरि न्याव करे सब कोई॥
आपहि कमं ककम बखाने । आपदि आपन आप पहिचाने॥
यही ज्ञान धर्मन सुन रू । इत उन चित जप मत देहु ॥
जिमि बालकं मंदिरहि स्वारा । आपरि भर आषपहि हारा ॥
माता सों तब श्दन कराई । मंदिर अब मम देह बनाई ॥
एरी खेर विधाता कीन्हा । यही मता कोई बिरिले चीन्हा॥
धमंदास तुम सत्यहि मानौ । हमरौँ बचन चूड जिन जानौ॥
यह चरि मे तुम्हे सुनावा। लीला पुरूष केर सभ्चावा ॥
आपहि पुरूष आपरि नारी । आपरि काम विषय अधिकारी॥
आपरि सृष्टि कीन्ह उतपानी । आपहि कर्म धर्मं रपटानी ॥
कमं भम आपहि उपजाई । आपदि स्तुति कीन्ह बडाई ॥
आपदि निदक आपरि ज्ञानी । आपदि धमं अधर्म बखानी ॥
आपदि अपनी स्तुति करई । आपरि मूख चतुरता धरई ॥
आप लीन आपहि अकुलीना । आप धनाय आप्री दीना॥
सतङुक आपरि असत बनाया । आपरि सत्य असत्य समाया॥
यह तौ भेद पायै सोई । सतगुरू मिरे जादि करि होई॥
येदी भेद धमनि रेव जानी । निर्मल जलगगा सम मानी ॥
यहे ज्ञान में तुम्हे सुनावा । बरखा जनवृञ्चे यह भावा॥
यरी बात युत्त तुम राख । हमरी बात अंत जिन भ।खहु॥
बोधस्ागर ( २४९ )
जो कोड शब्दका खोजी होई । ता करद भेद बतावह सोई ॥
इक मन इक चिन जाकर होई । ना कृद ज्ञान न भावहु सो ॥
दुतिया मन जादी कर भाई । तासों राखो मेद छिपा ॥
जो शुरू सों कोड अन्तर राखा । धराय अुगद्र सोह चाखा ॥
साखी-गुक्की महिमा अगम है, अकह कही नहि जाय |
गु पद् रज दहियमे धरै, सत्यलोकं कहं जाय ॥
चौपाई ्
सत्यलोक सतशुरूकौो बासा । अह्न कीन्ह युङ् माहि निवासा ॥
गुश्के चरण रहै ल्वराई । ताकी महिमा वभि न जाई ॥
गङ् ओ शब्द एक कर जाना । ताकी द्ध धयं भय माना ॥
जो कोई यह भेद न जाने। धर्मराय ता कहं उन्मान ॥
आतम ज्ञान जाहि कर्हं होई । ताको कार न चापे कोई ॥
एेसी घरण धरो धर्मदाघ्रु। भवसागर तें दोउ उदास् ॥
सकल पसारा शून्य समाना । शन्यहि माहीं शब्द बखाना ॥
शुन्य शिखरकी डोरी पावें । देह छोड़ सतखोकं सिघवें ॥
धमदास वचन
धर्मदास कह सुनो गुसाई । आतम ज्ञान गम्य नहि पाई॥
आतम ज्ञान मोहि समुञ्चाऊ । जासों सकल हस युक्ता ॥
सदृश वचन
धर्मदास यह मता अपारा । ताकर जो-मै करौं विचारा ॥
तब साहिब दया वितलाई । आतम ज्ञान तुम्ै समुञ्चाई ॥
गम्य अगम्य ज्ञान जब पावे । आतम ज्ञानतब घवटहि समवे॥
सत्य शब्द जब रहै समाई । सबही ठाम लोक है भाई ॥
शत॒ मित्र एकि कर जाना । सांच ञुढ एकि कर माना ॥
सांच ञ्जूठ दोनों मिट गय । दिव्य ज्ञान जाके घट भय ॥
( २५९० ) अमरभूल
आपहि गङ् आपी शिष्या । आपहि पाय आपही दिख्या ॥
आपरि आप लगावे लेखा । आपदि व्यापे अगम अङेखा ॥
आपदि स्वगे नके भमव । आपज्ञानि हिय भुक्ति समावे॥
आपदि दाता आपहि युक्ता । आपरि अकृत आपही कत्ता ॥
आपहि जन्म मरण उपजावे । आप मृत्युहै लोग शक्वावे ॥
आपि जिन्दा जग उपजावा । आपहि आशा तष्णा लावा ॥
आपरि आपधमं है काला । दोहू दीन ज्ञान तब चाल ॥
आपदि कुक अर आपहि जाती । आपरि भूरत। आपरि पाती ॥
आपरि डारु आपही बेला । आपहि गङ् आप्री चखा ॥
साखी-कंह कबीर विचारके, आपरि सकर पसार ।
आप आप मह रम रहै, आपि सत्य अधार ॥
धमेदास वचन-चौपाई
धमेदास कहै सुनो शसांईै । यहै मेद तुम॒ मोहि सुनाई ॥
एेसा शब्द जो मोहि सुनावा । जन्म मरणकी जास मिटावा ॥
एकं वचन मे बञ्चों सारे । सोई शब्द तुम मोहि सुनाई ॥
तुम जो कहेऊ ब्रह्म समाना । जीवदूप किमि होय अज्ञाना ॥
कबं अज्ञानरूप हवै बते । ज्ञानी होय ज्ञान एुनि कतै ॥
कबहु करै यह ब्रह्म समाना । करहु राजा कहूं भिक्षुक जाना ॥
कबहु जीव स्वभाव उपजावे । कबहु बरह्रहो सबि बुञ्चावे ॥ `
ब्रह्म एक काहै अस कीन्हा । साहिब मोहि बतावह चीन्टौं ॥
कहँ कवीर सुनो धमदासू। यह सब भेद करौं तुम पास् ॥
् सद्शुर् वचन ` ्
ब्रह्म शूषे बीज समाना । पारत्रह्य अक्र प्रमाना ॥
तादी मारि पत्र दोय कीन्हा । एकं शक्ति एकै सब चीन्हा ॥
डारं पात तब् प्रकृति समाना । मूलवृक्ष ईश्वर सम जाना ॥
वोधक्चागर ( २५१ )
ता महं पाच डार निमावा आकाशादि तेज उपजावा ॥
प्रथम्हि वाथु शूप जो कीन्हा । वायुके मध्यं तेज धर दीन्हा॥
तेजके मध्य नीर निर्माया । जैसे बीजे बरक्ष जमाया ॥
देते उत्पति सबकी होई । धोका. सब गये बिगोई ॥
सद्गु जा कहं दाया कीन्हा । सकल येद ते पर्व चीन द ॥
तत्व मांहि निहतत्व लखावे । इद् माहि अनहद कहं ववे ॥
अनथ मेंटके अथं बतवे। खघ दीरव परा समञ्लवे॥
प्णज्ञान जादी धट होई। सतश् भेदको पति सोई ॥
ब्रह्मज्ञान बिन युक्ति-न होई केसे संत कहै सोई ॥
जाकी महिमा कदी न जाई । ज्ञान गम्य तै शब्दहि पाई ॥
शब्द् सार निर्मोकं पवं। सो हसा सतरोकं सिधा ॥
साखी-सो पहुवे सतटोक कहँ काल ममं नहिं जान |
ते हसा अवरन भये, सत्यपुर्षके ध्यान };
धर्मदास वचन-चौपाई
धर्मदास कहै सनौ गुसाई । आप अपन पर सब बिस्तराई॥
सतशुरू जपे दाया कीन्हा । तिन पायोनिज बिजको चीन्दा॥।
सक्षम शूप परश जन आवे। लघुता विले दीर्घं वद् पवि ॥
लघुता मति प्रथु आवस कैसे । समञ्च परे घट किये तैसे ॥
नै सदगुरू बचन
कहं कबीर सुन सुकृती बानी । यह घट समञ्च ठेह सहिदानी॥
सक्षम रूप शब्द कर॒ आही । सतशुरू मिलि लखावहितारी॥
सुते नितं जब शब्द समाना । अहंकार मन केर बिलाना ॥
दीन भाव गति तबही आई । सब घट आतम एक समाई ॥
पूरण ज्ञान जाहि घट होईं। तब यह मेद पाय रहै सोई॥
ज्ञानी महिमा एदी जाना । सब घट आतम एकं समाना॥
सो हंसा सतलोक सिधावे। दुबिधा भाव सबै बिसरावे ॥
( २५५२ ) अमरमूल
छन्द-भाव दूसर तजहु धर्मनि, एक ब्रह्म विचारक ।
इमि जीव जगमे देखिये, जलनिन्दु खदर सम्दारके ॥
परमातमासो आत्पा,जिमि भावुकिरण प्रकाश हो।
उलट कर जब आप चीन, भाव दूसरनाशदो॥
सोरडा-जिमि तिक मध्ये तेल, कंचन ओ आभूषणा ॥
जीव ब्रह्म इमि मेक, पुहुप मध्य जिमि बासना ॥
इति श्री अमरभूक आत्मज्ञान वणन
अष्म विश्राम
धर्मदास वचन-चौपाई
अजं एक अब करो शुसंहि । कृपासिन्धु मोक ससुञ्चाई ॥
जीव सीव करमेद न जाना। केसे ज्ञान करौ परवाना ॥
जीव सीव कर भेद बताओ। यै ज्ञान मोक समञ्ाओ ॥
सदृगुरू वचनं
धर्मदास सुनियो वितलाई । जीव सीव भैं कौं बुञ्चाईं ॥
पांच तत्व गुण तीन सो साजा । ताजे सषि कीन्ह उपराजा ॥
शुद्ध सतोगुण सीव कंहाव । रज तम मिश्रित जीव बनावे॥
सत रज तम तीनों सो न्यारा । पारत्रह्म सबही ते पारा॥
पारज्रह्म असर कीन्ह समाजा । अगुण ष करसुष्टि उपराजा॥।
उपजा सृष्टि गणकी खानी । ताते जीव बुद्धि कर जानी ।।
रज तम सत्व एक रै भाई। बिना ज्ञान भली दुनिर्योई॥
तस्व ज्ञान जाके घट रोई जीव सीव कटं जाने सोई॥
बिना तत्तव जाने नंदि कोई । केतौ यत्न करे नर रोई ॥
भ्म भमै भला संसारा।आपन चीनां भूर ससारा॥
सब अभिमान दरट जब जाई । बरह्म मेद॒करदं पवे भाई ॥
मोधस्षागर ( २५३ )
ब्रह्म ज्ञान जाके घट होई । मरम पुरूष कर्द जाने सोह ॥
सत्य शब्दका ममं जिन जाना । ओर सकर जग ञ्ूठ बखाना॥
सवम ब्रह्म रहौ भर पूरी । बाहर भीतर तत्व इजूरी ॥
दूजा काहु न देखे कोहं) सत्य शब्द् जाके घट होई ॥
जाकों सदथरू दाया कीन्दा सो पावेगा शब्दका चीन्डा ॥
अगम मेद ठख पवि जोई । सतु सांच ओर सब छोई ॥
सतयुरू महिमा दी लख पाई । सो सत् छोक पचि है जाई ॥
यै ज्ञान धर्मन करहु सुन ठेदू । सब केह सत्य शब्द् कड देदहू॥
मिथ्या ज्ञान करहु उपदेशा । तो नहिं पाषह खोक सदेशा ॥
जो तुम काज आपना चाह । तौ जीवन कहं सत्य ख्खाई ॥
जो कोई शब्द सुन त॒म पासा । सोई करि दै लोकं निवासा ॥
जाके सत्य ज्ञान घर भयऊ । यारे प्रीति निज घर कहं गयड॥
अनमोलिक दीया निज जाना । ताका मोर वहीं प्रमाना ॥
सोह सम॒ निर्मोलक भयऊ । साहिब सेवकईकं सिर गयॐ॥।
कञ्चन ओर आभूषण जाई । एसे ब्रह्म जीव मिल्जाई ॥
दूजां भाव न एका रहिया । संशय मेट अमर पद रहिया॥
अमर मूल अमर पद भरं काया । अमर शब्द् जिन हसन पाया
अमर शब्द सतगुरु सों पावे। बिन सतगुरु सब मूल रवव)
कहै कवीर सुनो धर्मदास । एेसा भेद करौ परकासू ॥
यहै मेद संसार सुनावहुं । सब जीवन कहं लोक ठेजाव्॥
तुम करदं दीन्द जक्त कडिहारी । तुम्हरी बांड उतर भृवपारी ॥
जा करहुं तुम बकसो सदिदानी । सो कडिहार जक्त मरह जानी॥
जापर दाया तुमने कीना । सोहं जीव भुक्ति कहं चीना ॥
भक्ति भेद जब पावे प्राणी । सतगुरुनेकं सदा उतपानी ॥
रजयुण तमगुण त्याग कराई । सतगुण धरमंहि पररसे भाई ॥
सतशुण धमं कर पवि मेदा । कहं कबीर सोई हंस अछेदा ॥
( २५७ ) अमरभूर
. धमेदास वचन
चमेदास वन्ती अनुसारी । हे सतशुरू मै तुम बलिहारी ॥
सतगुण धमे मोहि सथुज्ञाहं । जिहते मन संशय चलिजाई॥
सदगुङू वचन
चमेदास चित केह विचारी । सतशुङ् धमं कहौं निरवारी ॥
प्रथमदहि भोजन सब परिदरदी । रजगुण भोजन मध्यम करही॥
उत्तम तड आन भरवि। बार नके तहां मगावे ॥
उत्तम चोका दीन्ह बहुभांती । शब्द् बोल मर कीन्हो स्वौँती॥
दुग्ध खांड घृत असन करावा । तासौ किये सतशुण भावा॥
जितनी श्ुधा दोय घट प्रानी । लेव अहार सोई अवमानी ॥
शब्द् बोरे परसाद् चढ़ावे । भाजी बने तो अति मनभावे॥
भाजी नहीं तौ जखभर आना । गुरुकर्द देय अधिक सुखमाना॥
उगुर लेय बहत मन मानी । यह विधि किये साच्तिकं ज्ञानी॥
तीसर भाग अभ्यागत देई। तब प्रसाद् पवित्र करे ॥
अभ्यागत नहि आपी पावे । राजस धमं नकं कह जावे ॥
सतगुरू धमं छट जब जाई । राजस तामस आन समाई ॥
सतशण धमं करौ प्रतिपाला । निश्चय पावे लोकं रसाला ॥
चैतन्य पुरुषम जाय समाई । दुविधा भाव सब मिर जाई॥
रजगुण तमगुण सतशगुण किये । सब मिट जाय ज्ञान जो पहये
सब कहं भम भूत करडारा । ज्ूटी बात भेर ओटारा॥
सबे बह्म ना दूसरे कोह । दूजा भमं मिर गये सोई ॥
वेद शाञ्च सब कटै बखानी । वचन बिलास कै सब ज्ञानी॥ `
छ शास्र मिर ञजगरा कीन्हा । ब्रह्म रूप कारू न्ह चीन्दा ॥
चीन्दै तौ जो दूसर होह। भम॑ विवाद करे सब कोई ॥
एकै ब्रह्म अखंडित कई । खंडित ज्ञान मह निसदिन रहई॥
बोधसागर ( २८९ )
ताकी बात कहत परवाना । ञ्जूठ न छोडे मूख अज्ञाना ॥
मूरख किमि कर किये भाई । ब्रह्म सकलम रहा समाई ॥
आपहि मूरख आपह ज्ञानी । आप कथा सब कहै बखानी ॥
आपदि ॐच नीच दिखलावे । ज्ञानी होय जगत सुञ्ञावे ॥
आपरि ब्रू आपी नाहीं । आप आपमहं सकल समाहीं ॥
आपरि सुभिन करे बनाई । जप तप ज्ञान आप उहराई ॥
स्वग नकं सब आपहि वासा । बाजीगर हवै करे तमासा ॥
आप तमासा आप भुलाया । आपरि ह सब माहि समाया ॥
आप आपको चीन्है नाहीं । आपहि ज्ञानी आपं समां ॥
साखली-आप आपको चीन्दके! आप ब्रह्म हो जाय ।
आप न चीन्है आप क, परौ भमं महं जाय ॥
चौपाई
अकह कदन कहि नहिं जाई । आप अकथ हो कथा सुनाई ॥
आपहि मनका कूप बनाया । दूया होके जगत दिखाया ॥
एेसा भाव विधाता कीन्हा । ताते कोड न पावै कीन्हा ॥
साखी-आप आपको चीन्हकै, सब तशय मिटजाय ।
कहै कबीर निर्दोषि भये, बह्म स्वषूप समाय ॥
, चौपाई
जवबदि ब्ह्मूप कदं जाना । तब संसार ज्ूठ कर जाना ॥
किह न देखे दूजा नाऊ । सब घट बह्म जो रहा समाऊ ॥
जादि ज्ञान अनुभव परगासा । सकर कर्मेको भयो तब नाशा॥
कम धमे जो दोउ मियये। ना कहगये ना कहूं आये॥
जेसा रदा तेसा रहै सोई । बीचको भम मैट सब खोई ॥
कमे म्म की छटी आशा। एके नाम करह विश्वासा॥ `
नाम छोड़के ओर न जाने । तीरथ त्रत क मन नरि आने ॥
( २९९६ ) अमरमूल
आपरि तीथे आपहि देवा । आपरि आप लगति सेवा ॥
आपहि सूरत पिंड बधवे। आप जन्ि हे जन्तर वे ॥
आपहि महिमा सबकी कीन्हा । आपरि निन्दकं मिथ्या कीन्हा॥
साखी-आप सकर जग ग्यापिया, आपहि अलख अपार ।
आपहि जग उपजावदी, आपरि दस ओौतार ॥
चौपाई
आपहि देव दैत्य सहारा । आप युद्ध कीन्ह असरारा ॥
आपरि महाभाथ करवाया । पांडौको शुभ ज्ञान सुनाया ॥
आपरि कौरव पांडव भयऊ । आपरि होय सबनसौँ कियञ ॥
आपदि है अकार स्वरूपा । आपरि र्यत आपरि भूषा ॥
आपहि चाकर हो सेवा खावा। आप पेडित हो वेद् पटावा ॥
आपहि भखा बुरा अनुसारा । आप अमीर न्याव निर्बारा ॥
आप ठे आवे आपरि खाई । आप अतीत आप सिवकाई ॥
आपरि न्याव आपदि बादा । आपहि तीता आपरि वादा ॥
आपदि खारा मीठा भयऊ । आपरि सर्वस्वाद कर लयञ ॥
आपदि लघु दीरघ हो देखा । आपरि दूर निकट हो ठेखा ॥
आपरि सकलो वेद पुराना । आपहि पोथी आष बखाना ॥
आपदि ` छऊ शाख बनावा । वाद् विवाद कर् ज्ञान सुनावा॥
आपि जौत आपरी रारा । आपहि तरे आपदी तारा ॥
साखी-एेसी महिमा ब्रह्मकी कहत कटी नरि जाय ।
जो कोड यद व है तेही ब्रह्म समाय ॥
र
ब्रह्म अखण्ड खण्ड नरं होई । खंडित ब्रह्म ध्यावे सब कोई ॥
आप कः है ब्रह्म अखंडा । आपि खंडित कह सबखंडा ॥
आपहि मनष्य रूप कदे । आपरि दूजा भाव स्वमते ॥
बोधसागर ( २५७ )
आप अवचन वचन नहिं अवै । आप वचन कहि सब सथ्चपै॥
आप अहप शूप नहिं कोई । आहि सकट स्वह है सोई ॥
आपदि निरयण हप जो किये ! ज्ञानगम्यतँ यह मत लदहिये ॥
आपहि ज्ञान शक्तिके दाता | आपहि दाता आपहि सक्ता ॥
कहँ कबीर सुनो धम॑दासा ) एेसा ज्ञान घट करौं प्रकाशा ॥
धर्मदास वचन
धर्मदास विनती अबुस्ारी । हे साहिब मै तुम बलिहारी ॥
यह मत मोहक अगम क्खावा । इदय कमर अब आन चडावा॥
एक वात म ब्ह्लहं साह । सोई कौ जिरि संशय जाई ॥
तुम सब बह्म कहो सष्ुञ्ञावा । मोरे मन निश्चयं यह आवा)
आओरन सों कह कहौ गुसोई । यह तौ ज्ञान कहौं नरि जाई ॥
भे जाना सब तुम्दरी दाया । ओर जीव नहिं शब्द समाया॥
ताकर मोहे कहौं उपदेशा । सो हसन सों कौं सन्देशा ॥
सद्यङ् वचनं
धर्मदास तुम ज्ञान सुनाऊ। जो मनेँसो सन्त स्वभा ॥
जो नहि माना शब्द् तुम्हारा । फिर प्रछत रै वारम्बारा ॥
धर्मदास तुम आपन सोधौ । तब तुम सकल सष्ठिपर बोधौ॥
जो तुम्हरो मन भिर नहिं होई । तबख्ग पथ चकै नहिं कोई ॥
साखी-जब मन कहं प्रबोध हृ, सकर भर्म मिरजाय ।
एक नाम कहं सेवहू, आवागमन मिरजाय ॥
चौपाई
धर्मदास भ कहौं नवेरा। जासों हस भक्त होय तेरा॥
मुक्ति होय सत नामहि पयवे । बहुरि न योनी संकट आपै ॥
( २५९८ ) अमरभरख
धर्मदास वचनं
धर्मदास कै सुनो गुसाई । सुक्ति वस्तु सो मोटि सुनाई ॥
तुम तौ मुक्ति भम कर डारा। तुमते पार्यउ ज्ञान भडारा॥
सक्ति कस जो बन्धा होई । यद तौ हंस निबन्धक सोई ॥
नि कोई बन्धा नहि कोई छटा संशयके बस सब जग टूटा ॥
तुम्हरी दाया सो इम जाना । शुक्ति असुक्ति दोउ भमाना ॥
सद्गुङ् उवाचं
अब तुम्हारे जिव निश्चय आई । हम जाना तुम सिखहौ भाई ॥
निज मन्दि जानह धममदासा । अब क ब्रञ्चद सत्त विलासा॥
जो किये सो वचन विखासा । यह तौ साखी पद् परकासा ॥
ग्रन्थ कदेउ सब जगत प्रबोधा । जो ब्ून्चे सो पावे सोधा ॥
जो बूञ्चे म्रन्थनकी वानी । तब पवि गम निज सदिदानी॥
जब पावै शब्दहि कर रेखा । तब जानहु जेसे सब धोखा ॥
धोखा योग यज्ञ तप कीन्हा । धोखा दान पुण्य सब लीन्हा॥
धोखा कर्म करे ससारा। धोखा कोटिन ज्ञान पारा ॥
धोखा पुरान सकल जहाना । धोखा शाश्च वेद मत ठाना ॥
धोखा साखी पद रै भाई। घोखा कह सब ज्ञान नाई ॥
धोखा प्रथम साच कर माना । समञ्च धोखा सवे नसाना ॥
जस निर्गंण तस सथुण माना । निगुण सगुण एक समाना ॥
अगण सगुण दोनों मिट गय । आदित्रह्म सौ परिचय भयउ॥
धर्मदास यह मति सुनि र। धोखा ज्ञान चित्त मत देदू ॥
ग्रथमटि भक्त पकर ज्ञाना । ता पीछे फिर तत्व समाना ॥
जबही तत्व समाना भाई । तबदी जीव लोक कहं जाई ॥
जबरी सत्व ङ्द मर्द अवे । धोखा रूप सबे मिट जावे ॥ `
जब तुम अपना तत्वह जानौ । गुर ओ शिष्य दोडपहिचानो॥
सोधस्षागरं ( २५९ )
तुमही शिष्य गुर दौ सोई । तुम गुश्दी शिष्य सब कोई ॥
गुक् अङ् शिष्य एककर जाना । दूजा भाव सो सवे बिलाना ॥
दूजा भाव वसत है जाके | नहीं शिष्य नाहीं शङ ताके ॥
साखी-गुर शिष्यकी मरिमा; कहै कबीर विचार ।
अमरमरूल जो जान हौ, उतरौ भौजल पार ॥
चौ पाई
तुम कँ शब्द दीन्ह कसारा । सो हसन सों कहो पुकारा ॥
शब्द सार का सुम्रन करिहै। सहजे सत्यलोक निस्तरिहै ॥
सुम्रन का बल ठेसा होईं। कमं काट सब पलमहं सोई ॥
जाके कमं काट सब डारा । दिव्य ज्ञान सहज उजियारा ॥
जा कूं दिभ्यज्ञान परकाशा । आपिम सब लोकं निवासा ॥
लोकं अलोक शब्द है भाई । जिन जाना तिन संशय जाई ॥
तत्व सार सुम्रन रै भाई । जति यमकी तपन बुञ्चाई ॥
सुभ्रन सो सब कमं विनाशा । सुप्रन सों दिभ्यज्ञान प्रकाशा ॥
सुम्रन सो जरै सतलोका । सुभ्रन सोंमिटेदै सब धोका ॥
धर्मन सुम्रन देह ल्खाई। जासों दस सबै भक्ताई॥
गुरू धोबी सिख कपड़ा जानी । सुभ्रन साबुन रै परवानी ॥
बस्तर को तब मेख नसाई। तैसे ज्ञान दिये दर्साई॥
दे ज्ञान परकट जब रोई । कमं भ्म सब मिटगणए दई ॥
ज्ञान दीप जबही परकाशा । मोहे तिमिरको भयो विनाशा॥
सत्य पुरूष मर्ह जाय समाना । इस पुरूष एकटि कर जाना ॥
दुतिया धोखा मिट तब गयऊ। एकं रूप महं एकसम एञ ॥
धमदास वचन
धर्मदास विन्ती अनुसारी । है सतशुू तुम्हरी बलहारी ॥
एक बात अब बलच साई। जिहते मनकी संशय जाई ॥
( २९६० ) अमरमूर
तम तौ एक एक ठहरावा । एक महातम निज दम पावा ॥
सत्य लोक का कौ ठिकाना । केतक रै विस्तार प्रमाना॥
केतक ॐच नीच है भाई। सो मोहि सादिब देह बताई ॥
केतकं ठ्वा ओ चकराई। सो सब रेखा कटु ससुञ्चाई ॥
सद्गुङू् वचन
कृषे कबीर सुन सुकृत वानी । रोक कथा सब सुन वि्छानी ॥
सब विस्तार तोरि समञ्चाञं । रेखा नरीं अरेख रखा ॥
कटि तो रेखा हो भाई । अलेखा बात सुख कही न जाई ॥
जासौ किये अगम अपारा । ताको अंश न पावहि पारा ॥
जई लेखा तई परल्य होई । अलेख अंत न पावहि कोई ॥
एकं समय एेसो धमदासा । अपने चित्तको करौ प्रकाशा ॥
जब इम सत्यलोके रदिया । सो वृत्तान्त तुह नहिं कंदिया ॥
सत्यलोकं त आगे गय । अचरज तर्हवा देखत भयऊ ॥
सो अचरज अब कटौ न जाई । तुम पौ तौ देहु बताई ॥
एसी बात ताहि काहू जानी । तुम ना कारू फिर पछी आनी ॥
धर्मदास प्राण हित मोरया सुनह ज्ञान यह दीप अजोरा ॥
केतकं सत्यलोकं भ देखा । पुरूष प्रमाण न जात बिशेखा ॥
दसा लोकं यदी व्यवहारा । एेसदि हप तह पुरूष सर्वोरा ॥
तद्वां देख सुतं ॑सौ जाई । जिन मोदि दीन्हा अगम लखाई॥
साखी-अनत कार तरह देख, सत्यलोकं विस्तार ।
गिन्ती कर लग कीन्हे, धर्मदास निधोर ॥
चौपाई
मिन्ती कहौ गिनौ निज धामा । को वर्णे सो पुरूष प्रवाणा ॥
गिन्ती की मर्याद मिटाई। सार शब्द सब चन समाई ॥
बोधसागर (२६१)
साखी-जौ कड गिन्ती आवी, ताकौ है सब नाश ।
परे न गिन किम गीनिये, एेसा शब्द यरकाश ॥
चौवाई
वचन मेद कर कथा सुनावा । जिहते तुम्हा मनपति आवा ॥
बरह्म अखण्ड ठेख किमि जानी । खंडितं कर किमि ज्ञान बखानी॥
तहं ख्गि खनी सो माया जानी । जो देखा सो भम बखानी ॥
कृटिये जो तौ दतिया होई । दुनिया भम मर सब कोई ॥
तकं ब्रह्म दतिया नहिं कोई । केसे दुतिया किये सोई ॥
साखी-नहि उत्पति नहि प्रलय; नहिं अवे नहि जाय;
नहि गिन्ती अनगिनत वह, बूञ्च के शब्द खमाय ॥
चौपाई
तब हम आगे दीन्ह पयाना । जह देखा तहं ईस समाना ॥
अक्षर एक हम सब मं देखा । भाव अनेकं कहो का खा ॥
तब हम चङे आप स्थाना । उध्वंखोक सो कीन्ह पयाना ॥
मारगमें अचरज एक देखा । ताका अब म. कहौं बिवेका ॥
अद्भुत लीखा वणि न जाई । कहे खने सों को पतिआई ॥
धर्मदास मै तुमहिं सुना । अकथ कथा कथ ज्ञान बुञ्चाऊ॥
तवां देख कबीर कर लोका । असंख्य कबीर कर देखा थोका॥
हम जाना की हमहि कबीर । जँ देखा तहं कबीर शरीरू ॥
तब अपने चित कीन्ह बिचारा। एकि रूप सकर विस्तारा ॥
दूजा ओर आय निं कोई । सब घट र्भ कबीर समोई ॥
साखी-दम कबीर हम कतां, सकल सृष्टि धमदास ।
दूजा ओर न देखिये, सत्य॒ शब्दं परकास ॥
(२६२) अमरमुख
चौपाई
नरीं कीर नदीं ध्मदासा । अक्षर एकं सकल चट वासा ॥
सत्य पुरूष वाही सों किये । आदि अन्त अक्षर गह रदिये ॥
अक्षर सूल ओर सब डारा । शाख रमनी पत्र पसारा॥
कथा जो कि-कटि ज्ञान सुनावा। यरी भांति संसार बुञ्चावा ॥
जिन ब्रञ्चा तिन धोखा साना । सकलबात मिथ्याकर जाना ॥
साखी- कटै कबीर यह मनि रै, मतका सकल पसार ।
` चिन्ह यह मन कर बूक्चिया, आवागमन निवार ॥
धमदास वचन-चौपारं
धमेदास विनती करजोरी । बेदिछोर सुन विन्ती मोरी ॥
निश्चय जान मोहि समुञ्चायो । निश्चयसकलदमतुमसों षायो॥
सो यह बात अब ब्रञ्चोौ सांईं । सो सादिब मोर देहु बताई ॥
आवागमन कवन विधि होई । बन्दी छोर सुनावहु सोई ॥
श्रीसाहिब कबीर वचन
तब साहिब कदिबे अनुसारया । कटो विचार तासु व्यवहारा ॥
पांच तच्वका पुतरा बनावा । तामं परगट आप समावा ॥
त्रिगुण आतमा रूप बनाई । दुख सुख ताहि सबे सुगताई ॥
इन महं मन राजा कर दीन्हा । ताति जीव बुद्धि गह टीन्हा॥
आपन खूप आपन चीन्हा । तातं आवागमन कर ीन्हा ॥
ना कोई आया ना कोई गया । मनके मते जन्मत भया ॥
मनही ज्ञानी मूरख कंदिये। मनरी ब्रह्महूप यह कदिये ॥
मनका है यह सकल पसारा । मनदही पाप पुण्य विस्तारा ॥
मनही मोह काम उपजावे। मनदी आशा तृष्णा लावे ॥
सोधसागर ( २६३ )
मनही देहरा देव पसारा। मनही पूजे प्रजन हारा ॥
मनही नार पुरूष कर जाना । मनदहि पुत्र मन बाप बखाना ॥
मनदही राजा रय्यत किये । मनहि दिवान मनटहि मिलि रहिये
साखी-करं कबीर यह मनि है मनका सकल पार ।
मन चीन्हेते अमर दै गह निहअक्षर सार ॥
चौपाई
कृटुखग किये मनकी बानी । ब्ुठ पस्रारा सनि बखानी ॥
एकं ब्रह्न सब घटहि समाई । नहिं कहं आवे निं कहं जाई ॥
मनकी वृत्ति यह कथा सुनावा । मनही वेद पुरान पटावा॥
मनदि शाश्च ञ्ुम घड़ी विचारी । उत्तम मध्यम कद निवारीं ॥
मनही भाव वत्त सब करई । मनके भाव योग तप धरई ॥
मनके भाव यज्ञ जो कीन्हा । मनके भाव दान जो दीन्हा ॥
मनके भाव प्रतिग्रह टेहं। मनके भाव तुला सन देइ ॥
यह सब है मन केर खुटाईं । सतशुरू मिस सब कमं छुटाई ॥
साखी-यह सब मनकी दौर रै, मनका सकर पसार ।
ज्ञान चीन्ह मन अचल है, कै कवीर विचार ॥
चोपाई
मनकी कथा कहे प्रसगा । अचरज बात कडेर सब रंगा ॥
यह मत तौ हम तुमसों कहिया। ज्ञानी होय कोड कोई लहिया ॥
इकं अक्षर का यदै ठेखा । ज्ञानी हों सोह शब्द् विवेका ॥
धर्मदास अक्षर टट जानो । दूजा भाव न मनमहं आनौ ॥
दूजा किये मनका भाऊ । ताते सत्य ज्ञान समञ्ञाऊ॥
जडा रै मन का पेसारा। ताते चित महं शब्द सभारा॥
( २६९ ) अमरमूल
साखी कहे कबीर विचारके, सुनियो सन्त सुजान ।
हम तुम कहं निज भाखऊ, सत्य शब्द् परवान ॥
चौपाई
घमेदास सन सत्य देशा । सत्य शब्द् कियो उपदेशा ॥
जाके पास होय दिव्य ज्ञाना । सोई पावहि पद निवाना॥
छंद्-निर्वान पद कर पाय है सोई ज्ञान दीपकं उर धरे ।
अज्ञान तमको नाश कर परकाश आतमको करे ॥
जिमि भाव है आकाशमे प्रतिबिम्ब सब घट देखिये।
ब्रह्म जीव रै मेद इतनो धम्दास विवेकिये॥
सोरठा-सत्य नाम परवान' कहँ कबीर विचारक ।
पहुचे लोकं टिकान, यरै मेद् जो पावही ॥
इति श्री अमरमल, जीव सीव भेद रोकवणन
नवम विश्राम
धर्मदास वचन- चौपाई
धर्मदास उठ पांयन परई। सतगुशसों विनती अनुसरईं ॥
सत्यलोक मोहे बरन स॒नावा । बचन तुम्टारे सब कखि पावा ॥
तुम तौ कं अवचन रै सोई । चरचा शब्द् कटौ किमि होई ॥
जब तुम शब्द् जो कटि समुञ्चावा। वचन भावम सब जो आवा ॥
अवचन बात वचनकिमिकहिये । सो मोहे स्वामी भेद बतइये ॥
प्रथमदहि तौ तुम शब्द् सुनावा। ता पीछे फिर ज्ञान दटावा ॥
ओर तुम कंदे वचन अनलेखा । हम सेवकं किमि करं विवेका ॥
एक वचन किये सञ्ञा । निहिते चित्त अन्त नि जाई ॥
बोधस्ागर
साहिब कबीर-वचन
तब कबीर अस किष टीन्दा । ज्ञान भेद सकल कहि दीन्हा ॥
धमेदास म कहो विचारी । जिहितै निबहै सब संसारी ॥
प्रथमदहि शिष्य होय जो आई । ता केँ पान दे तुम भाई ॥
जब देखह् तुम ददता ज्ञाना । ता क कहू शब्द् प्रवाना ॥
शब्द मांहि जब निश्चय अवे। ता कँ ज्ञान अगाध सुनावे ॥
अनुभवका जब करे विचारा। सो तो तीन लोकसों न्यारा ॥
अनुभव ज्ञान प्रगट जब रोई । आतमराम चीन्ह टै सोई ॥
शब्द निशब्द आप कदलावा । आपरि बोर अबो सनावा ॥
आपहि चुप जो बोलत रहिया। आप वचन अवचन जौ कंडिया॥
आप गुर् है शब्द् सुनवे। आप शिष्य ह सुतं समवे ॥
आहि गुरू शिष्य जो होइ । देखे सने आपी सोई ॥
साखी-देखे सने कहै सवे; आपह शूप अपार ।
आप न चीन्है आप करट, भला सब ससार ॥
चौपाई
यह मति हम तौ त॒म कं दीन्हा। बिरला शिष्य कोड पावे चीन्टा॥
घमदास त॒म कहौ सन्देशा । जो जस जीव ताहि उपदेशा ॥
बालकं सम जाकर है ज्ञाना । तासौ कह वचन प्रवाना ॥
जा कर सुक्ष्म ज्ञान है भाई। ता कहं सुभ्रन देहु ठखाई ॥
ज्ञान गम्य जा कर्हं एुनि होई । सार शब्द जा कहं कह सोइ ॥ .
जा कहं दिव्य ज्ञान परवेशा । ता कहं तत्व ज्ञान उपदेशा ॥
अनुभव ज्ञान जाहि कर होई । दूसर कितह न देखे सोई ॥
उथज्ञान जा कहं परकाशा। आतमराम घटमाहिनिवासा॥
आतमरामकी प्रचय होई । आपहि आतमराम है सोई ॥
( २६६ ) अमरसूल
दूजा कितदहं न देखदि भाई । आप रहा सब ॒टांव समाई ॥
यही भांति तुम जग सथ्ञावो । जो समञ्च तेहि लोक षडावो ॥
आात्मारासकी परिचय पाई । ताके निकट लोक रहै भाई॥
हम तो एक लोकं कह दीन्हा । अनतलोक घट नाहीं चीन्हा ॥
अनतलोककी परिचय पावे । कह कबीर भव बहुरि न आवे ॥
एकं बचन तो देडं ल्खाई । जिहि तै तुम्हरो संशय जाई ॥
एकं समय सत लोकि र हिया । सत्य पुर्ष इक मोसन कटिया ॥
हे कबीर हम तुमरैएका | दूजा भाव मति राखद् ठेका ॥
सुतं॑स्वरूप तुम्हारा भाई । शब्द् शूप हमही निर्माई ॥
सुरत शब्द् निकट इक भाखा । पदां अतर कद न राखा॥
ब्रह्म स्वरूप मोटि कहं जानो । केवल ब्रह्य स्वश्प बखानौ ॥
शब्द् मोहि यकं सुत उतपानी । सो मोकों तुम निश्चय जानी ॥
धमराय दै मेरो अंशा। सो निज जनह हमरो वेशा ॥
आदि भवानी शूप बनावा । तामे निश्चय जाय समावा ॥
तीनों गुणदरै मोर प्रकाशा । पांच तत्व महं मोर निवासा ॥
जीवन शूष कियो दम भाई । आतमद्प जु हमि बनाई ॥
पांच तत्व प्रकट हम कीन्हा । निश्चय वास तदां हम लीन्हा ॥
आपि सों सब रूप अवतारा । राम कृष्ण परकट संसारा ॥
यह सब रूप मोर रै सांचा । इनहि चीन्ह सो यमसों बोचा॥
यम माहीं दहै मोरो रूपा । सब प्रथ्वीमह मोर स्वपा ॥
चौरासी लख योनी कीन्दा । आप बास योनीम्हं लीन्हा ॥
हम से दूसर नाहिन कोई। भमं मोह सब रहे समोई ॥
भम शूप हम सृष्टि बनाई। भभ मांहि सब रहे समाई ॥
सुर नर शुनिगण यक्ष अपारा । राची सृष्टि भम व्यवहारा ॥
बोधसागर ( २९७ )
इतने भ्म न दछृटत भाई । ब्रह्नादिकं से रहे थुखाई ॥
हे कवीर हम तुमसों की । निश्चय जान बात यड सही ॥
पुरषं बात यह मोहि सुनाई । सो यँ ठम करै आन जनाई ॥
घर्मदास निरखह निज नैना । निश्चय जान परख मम वना ॥
धर्मदास वचन
धर्मदास विनवै कर जोरी। साहिब शुनहू विनती मोरी ॥
यहै कथा तुम मोक भाखी । दृसर ओर कवन है साखी ॥
सतु वचन
तब कबीर वोढे अंस बानी । सत्य बात यह सुनियो ज्ञानी॥
यहै कथा हम अता भाखी । मधुकर विप्र ताहिकर साखी ॥
साखी-यहै कथा अता कदी, मधुकर सों स्ञ्चाय ।
ओर न दूजा जानही, धमदास सुन भाय ॥
धर्मदास वचन-चौपाईं
अमृत कथा मोदि समुञ्ञावा । डदयकमर मम आन जड़ाबा॥
सतु सम्रथ की बलिजाॐ । बहर न भवसागर महं आऊ ॥
अस्तुति कवन एकमुख करॐ। सतगुरू चरण इदयमंह धरॐं॥
गद गद गिरा नयन भरदयऊ । अहो नाथ मोहि बड़सुख भयञ॥
बहत अनेद भयउ मन माहीं । अचरज सुख क की न जाहीं॥
बचन सुधा रविकिरण समूहा । मम संशय यामिनिगत जूहा ॥
बहत अनेद भयउ हियमादीं । ब्रह्म अनद कडो नहि खाहीं ॥
विनती एक सुनो गुरू ज्ञानी । त॒म महिमाकिमिकरहोबखानी ॥
जो अब दाया करो गुसाई । सोई शब्दम रहं समाई ॥
श्रीसाहिब कबीर वचन
कटे कबीर सनौ धर्मदास । हम तुम एकं शब्दमहं बास ॥
दूषर भाव नदींहै आशा। सोई कबीर सोहं धमदासा ॥
(२६८ ) अमरसरुख
एकं रूप धमदास कवीरा । क्ख चौरासी एकं शरीरा ॥
काया बीर नाम रै धीर) सब घट रहँ समाय कवी ॥
जो बोरुत सो शब्द्प्रवाना । शब्दहि रूप कबीर समाना ॥
शब्दहि रूप कबीर कहाई । शब्द् रूप हि रदै समाई ॥
निजदी शब्द कबीर रै सारा । जाका रै निज सकल पसारा ॥
एके रूप शब्द पुन एका । एक भावं दुतिया नरि देखा ॥
एकि इम तुम एक शरीरा । एक शब्द है मति के धीरा ॥
एको रूप एके अनुहारी । एकि पुरूष सकर बिस्तारी ॥
साखी-रंग रूप सब एकं है, एकि सकर पसार ।
एक जान सोइ एकै, दूजा यह ससार ॥
बिनती एक करो कर॒ जोरी । सतशुङ् संशय मेर मोरी ॥
जो तुम एसा ज्ञान सुनावा । डदयकमल मम आन जुडावा॥
इक संशय उपजी मन माहीं । चार कमे देखे जिमि पादीं ॥
कम ज्ञान कटे सब कोई । कम करे सो निश्चय होई ॥
कम सकर जीवन कहं फसा । कमं सग यह भयो विनाशा ॥
कमे करे तेसा फल पाई । ऊच नीच योनिन भरमाई ॥
कार पाय कोह ज्ञान बिचारा । काठ पाय सब कर्म संचारा ॥
एेसी कथा सुनी सब ठाई । सोई कौं जिहि संशय जाई ॥
तुम तो एकं एक॒ ठहरावा । दृूसर भाव कवन उपजावा ॥
सव घट ब्रह्म एकं ठहराई । तौ किमि कष्ठ सरैजिव आई ॥
जो तुम कटौ सब ब्रह्म समाना । कोई जीव होहि अज्ञाना ॥
जो किये सब एकरि आई । तौ कस ज्ञान कथा अब गाई ॥
एक ब्रह्म तो सब घट चीन्हा । गुर शिष्य काहे कहं कीन्हा ॥
यह तो आप आप ठहराई। काहे का तुम पथ चलाई ॥
बोधसागर ( २६९ )
जो असकौ सकल प्रयु कीन्हा । ज्ञान गम्य केसे के चीन्हा ॥
काहे कह तुम कथा सुनाई । काहे कहं अब ज्ञान बताई ॥
का कर गुरू शिष्य कावा । कमं अक काहि फर पावा ॥
को बरञ्चे अङ् कवन ब्ुञ्चवि । कवन गुषको शिष्य कवि ॥
साखी-यह सशय गङ् मेदू, बिनती सुनो इमार |
बलिहारी तुव नामकः क्चणमे खीन्ह उबार ॥
साहिब कबीर वचन चौपाई
तब सदर बोले इक्र बानी । अचरज बात लेह पहिचानी ॥
कम रेख तुम पे आई । सो सब कथा तुमह समञ्चाई ॥
मात पिता मिल कर्मं कमावा। ताही केम देह बनि आवा ॥
ब्रह्मलोक सों जब जिव आवा । कर्मं रहित निभर पद पावा ॥
जटखनिधि वारी मेष ॐ आई । बन्द इन्दं निर्भर हर्षाई ॥
भूमि परी डाबर परहिचानी । इमि जीवहि माया र्परानी ॥
पवन ल्गै निर्मल्ता होई। माया मछिनि दूर सब खोई ॥
जल के पवन जीव कर ज्ञाना । ज्ञान भयेते कमे नसाना ॥
कैर्मनसे निमल पद पावा । ज्योंका त्योंतब आपकंहावा ॥
आप चीन्ह भव जले न्यारा । तन षरे पहुचे द्रवारा ॥
जब जन्मा तब कर्मका लेखा । तन छटा तब आंखन देखा ॥
जन्म मरनतथिर नटि कन्दा । एसी विधि है कमको चीन्हा ॥
जाहि समय जेसी बनि आई । ताहि समय तैसा रै भाई॥
तिहितं कम काल ठदराना । सब शाधिनमिलकीन्हबखाना।॥
जीवं शूप ताहीसौं जानी । आपको आप नहीं पहिचानी॥
ताति ज्ञान सनाय आई । जीव बुद्धि जतं मिट जाई ॥
गुङ शिष्य यह कारण आई । कमे अंक लिखनी मिट जाई ॥
ताति पथ चलाएड आई । यह कारण हम ज्ञान सुनाई ॥
( 2७० ) अभमरमूल
एरी तं रै सकर पसारा। याहीति है सब व्यवहारा ॥
आतम राम चीन्ह् जब पावा। सकल पसारा मेंट बहावा ॥
आतम परमातम मिरु जाई । जसे सरिता सिन्धु समाई ॥
जब् रग यह चीन्दे नहि आतसम।तब छग नहि भिखि है परमातम॥
शब्द् बिना आतम दग हीना । सदृश संघ यदी कडि दीना ॥
शब्द ने जबरी ख्ख पावा । सद्गु मिलनिज घरहि सिघावा॥
देसी मति जादी चयटहोई । ईस दिरंमर कदटिये सोह ॥
तिनकर जानड दमि स्वभाॐ। हमं नदीं कड तारि दुरा ॥
धर्मदास यह बरञ्जहु ज्ञाना । जति हस होय निवना ॥
जा कर आतम ज्ञान प्रकाशा । वदी कबीर वदी धमंदासा ॥
आतम राम देख जिन पाई । आष आप सब ठाव समाई ॥
जब देखा तब आप समाना 1 बह्व छोड दूसर न्ह आना ॥
सोह सोर सत्य कबीरा । शब्द मे है प्रकट शरीरा ॥
यहां मथ चै म्र स्नावा । चारहि वेदका मूर बतावा ॥
षरे शाख मिलकर विचारा । प्रकट ब्रह्म यह ज्ञान विचारा ॥
साखी- एेसा ज्ञान जब उपजे, सुनहु हो धमदास ।
परकंट ब्रह्म स्वरूप है, एक नाम विश्वास ॥
चौपाई
यहे अथ सब सुने सुनावे । निश्चय परेम भक्ति को पावे ॥
जो ज्ञानी दि बृह्चे ज्ञाना निश्चय हि दैब्रह्म समाना ॥
चार पदारथ को फल दोई । निश्चय जानहु यदमत सोई ॥
दसो ज्ञान अखंडित भारी । अमरमूल मेँ कदे बिचारी ॥
साखी-अमरमूल यह अ्रेथ दै, सकल ज्ञान भडार ।
सुनत अमर पद् पावरही, कै कबीर विचार ॥
बोधसागर ( २७१ )
धमदास व चन
धर्मन हिय अतिही इषेउ । गदगद गिरा नयन जल बरष॑उ।॥
सतगुङ् चरण रहे दियमादीं । भाव उदय प्ङ्ज बिकसाहीं ॥
मोह निशा व्याकल अतिभारी । तामह सोवत नाहि सम्हारी ॥
गुरू दयाल मोहि लीन्ड जगाई । आवागमन रदित घर पाई ॥
अब सन्देह रहा क्क नाहीं । शब्द् तुम्हार बसा हियमादीं ॥
स्तुति कहा तुम्हारी कीजे । अपरत कथा अवण भर पीजे ॥
छन्द्-तुम आदि ब्रह्म अपार सतथङ्, जीवकारण आयॐ)
कार फन्दा सकल यमके, अमरलोक पठायॐ ॥
मवसिधु कठिन करार भारी, पार काहू ना ख्यो ।
तुम कृपा गोपद जान सोई, पार धमनि कर दयो
सोरठा-दीन्हों मोहि ख्खाय › परमातम आतम सकर ।
अमरमूल समरुञ्चाय, अमर वस्तु शरू दीन्देऊ ॥
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सत्यघकृत, आदि अदी, अनर, अचिन्त, पुरषः
षनीन्द्र, कर्णामय, कवीर, सुरतियोग संतान,
धनी, धमेदास, चरामणिनाम, दशन नाम,
कुटपति नाम, प्रबोध यस्गाखापीर, केवल नाम
अमो नाम, सखरतिषनेदी नाम, हक नाम
पाक्नाम, प्रकट नाम, धीश्ज नाम
उग्र नाम, दया नामकी दया-
वरा व्यालीस्की दया
अथ धीवीदखामरे
एकविश तिस्तरंगः
अथ उग्रगीतापारंभः
् उत्थानिका
दोदा-उग्र गीता सारैः सुकृत दया लिस्लाय ।
करे दूरि अज्ञान को, अजन ज्ञान समाय ॥
करे दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सो देइ ।
बलिहारी वे गरूनकी, हंस उबारि जो रुह ॥
( ६ ) बोधसागर
सोरठा-अजन ज्ञान दै सार, रदे नदीं अज्ञानता ।
तेहि गुरूकी बलिहार, मेरी सदा प्रणाम दहे ॥
चौपाई
प्रथते बन्दौं सतगुङ् पाया । बदी छोर करहु तुम दाया ॥
चमेदास बन्ती अनुसारा । दया करो दुख मञनहारा ॥
अविगतिकी गति जाइन जानी । अहौ दयाल सो कटौ बखानी ॥
वेद शाश्च सब जगत बखाने । गुप्त तत्व कोइ कमं न जाने ॥
जब खमि वेद भेद नरि जाने । तब गि शब्द् न हितकर माने॥
वेद विचारि मेद जो जाने । सत्य शब्दे मोहि पदिचाने ॥
जीव जन्त माया कषराना । ताते वेद् भेद नदि जाना ॥
करवा चौथ ओ होरी प्रजै। परम त्व कैसेहु नर्दिबरञ्चे ॥
देवी देव बहु पूजा ठाने । सार शब्द हृदय नरि आने ॥
तीरथ व्रत मर्ह तन मन पगे । सद्रर् शब्द् न कबहू लागे ॥
तेटिते सब जग गयो विगोई । जनम काट धरि सबही खोई ॥
तुम सद्ररू दौ मुक्ति के दाता । अगम अपार कटौ विख्याता ॥
खदशुरू मोहि कटौ सयुञ्ञाई । जाते मनकी संशय जाई ॥
श्रीकृष्ण गीता जो भाषा । सो समथे सुनबे अभिलाषा ॥
कदि विधि अजन रणम नयञ ।केदि विधि ताहि मोद पुनि भय्उ॥
केटि षिधिकृष्ण ताहिसमञ्चाये । सो समर्थं को भेद बताये ॥
दोहा-दे दयाल बिन्ती करौ, रहं चरण चितलाय ।
गीता अथं भेद सब, मोदि कटो ससुञ्ञाय ॥
चोपाई
कंहे कबीर सुनह धम॑दासा । तत्व भेद दै गुप्त निवासा ॥
वेद भाव संसारं पसारा। ताते सृष्टि रच्यो व्यवहारा ॥
बह व्यवहार रच्यो बहु मति । जगत सकल भर्म॑त है ताते ॥
वेदत्व तुम सुनो खजाना । अजनगीता कृष्ण बखाना ॥
उग्रगीता ( ७)
सो मेँ तुमसन कथा सनावों । तत्व भेदका मता ब्रवा ॥
शाघ्च वेद पुराणन माहीं । गीता मता तत्व जो आदीं॥
तत्व मता जो कृष्ण सुनाया । सद्भर तो कडु अगम बताया ॥
तत्व निरतत्व दो होते न्यारा । धर्मदाप्त तुम करह विचारा ॥
जो सशय गीताके दोही । सो अब सकर सुनावों तोही ॥
गीताका अब गम्य बतावौं। सार शब्दका भेद सुनार्वो ॥
जर देखौ तह आप निवासा । सबते न्यारा सवे बासा ॥
समे-तत्व मता है गीता, वेद पुराणम सार ।
ताते अगम अपार है, पूरण शब्द हमार ॥
अथ श्रीभगवद्धीताप्रथमोऽध्यायप्रारभ्भः
् कबीर उवाच
अब गीता भै करदो बखानी । कृष्ण कहा सो अजन मानी ॥
ताते न्यारा शब्द बतावों । तत्व मांहि निहतच्व छ्खा्वो॥
जब यह सषि भई महि भारा । तेहि मारण हरि मता बिचारा॥
बधु विरोध कियो दरि जबहीं । कोरो पाण्डु जरे दर तबहीं ॥
अजन रथ चटि आये तहवां । दोउ दल युद्ध रचो दे जहवां ॥
कृष्ण सारथी रथ जब हांका । तासों अन रसो भाषा ॥
अज्ञंन उवाच
दो दलम ठे रथ राखों । दूनो देखो अपनी ओँखो ॥
सुनिके कृष्ण रसे ही कीन्हा । दोउ दर् बिच रथ राखे लीन्हा॥
रथ जब दोऊ दरम राख्यो । भयो मोह अजन अस भाख्यो॥
ये सब बन्धु हमारे आही । हे प्रथु में मारौ कहु कारी ॥ `
भाई चचा भतीजा सारा। केसे मारौ इल परिवारा ॥
जँ ल्ग देखों दो सेना । आपन कल मारौ केडि रेना ॥
भिधवा होय है सकला नारी । एेसो दोष छेत को भारी ॥
राज पाट मेँ कष्ट न चाहं । सुलसम्मति कुल्धममं निबाहों ॥
(< ) चोधसागर
तीन लोकका राज जो देई। हत्या बधु तबहु नदि होई ॥
जो तुम करौ उन अवशगुन कीन्हा । छवहु प्रकार भारऊ लीन्हा ॥
तिन्ड प्रकारन सारा चाही । तौ यह् मोहि दोष निं आही ॥
छोमे एकं भकार जो होई । ताके मारे दोष न सोई ॥
धमदास उबच
तब धमेदास विनय अनुसारी । छो प्रकार कवन कह भारी ॥
तेहि प्रकारन मारा चहिये! सो खब स्वामी मोषे किये ॥
| कवीर उावच
देखो हत्या को अब बरना । दह स्राम कियेका सेना ॥
प्रथमे अभि देईं चर कोई । मारत तास दोष नरि होई ॥
दूजे ओरको जहर खबावे । हने ताहि कषु दोष न पावे ॥
तिसरे च्च जो ठेईं छडाई । राज काजरे षापन माई ॥
चौथे नारि पराई ठेदी मारे ताहि पाप नहि तेही॥
पचये धन चोरावन आवै । तेहि मारे कृद दोष न आवे ॥
छटये शखर ले मारन धावै । मरे ताहि विम्ब न लावे ॥
यह अपराध मारिये जोई । मारत . इत्या कबहु न होई ॥
अर्जुन उवाच
छ अपराध हमरहिक् लाभे । तऊ न इतों कमं सब त्यागे ॥
मोषो यह अपराध न होईं। जो मोक इदि मारि विगोई ॥
अजुन घनुष बान गहि डारा । सब्रका अपनो बधु बिचारा ॥
सब कह कुल परिवार निहारा । उपजो मोह अच्च गहि डारा ॥
सुनहु सन्त अजनको विखादा । इइ गि कीन्हो वाद् विवादा॥
अर्जन मोह सम्पूरण भय । कृष्ण अपन मनमत जो ठयञ॥
कीजे छर यक मता विचारा । अर्जन बुद्धि हतौ यहि वारा ॥
ब्रह्मज्ञानते यदि समुञ्षावड । काल रूप अपनो देखलावड ॥
तब यह मने कहा हमारा । मारौ फोरि सकल परिवारा ॥
उग्रगीता <)
कृवीग उवाच
धर्मदास यह काट सुभावा । जाके जयन शष्ि मन खावा ॥
सुर नर मुनि सब छलि रमारा कोहं नद््टो यह संसारा ॥
ताते सतग्ररू शब्द पुकारा) चीन्दो तत्व भद टरकसारा ॥
मूरख सत्य शब्द् नहि जाने । ञ्चुठदि शठ सदा खख माने ॥
परपची यह जग को रचना बिन सतश् कोई नादींवचना॥
छन्द-यहि भातिके हरि यद्र ठानौ भाव कोई ना रहै ।
सकट बधु विरोध करिके तास को मारन चहै ॥
ज्ञान ओ अज्ञान करि भरमाई§ डरो चित्तको ।
तबह् मूरख नहीं बरञ्चे देख फेदि उस बरतक्रो ॥
सोरग-सुन धमदासर सुजान, शब्द एक संसार रहै ॥
हेस होड निरवान, मन बच क निश्चय गहै ॥
इति श्रीउग्रगीतात्रह्मज्ञानयोगमतकवीरधरममदाससवादे
अजनविषादो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ।
अथ द्वितीयोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
कृष्ण जो मन मे मता विचारा । अर्चन सो पुनि बचन उचारा ॥
तुम काहे मोहै गहि लीन्हा । केहि कारण तुम होड अधीना॥
्षत्री धर्मं खज बडि होई । त॒म कह दोषन लहै कोई ॥
जो तुम जानु सदा ये जीहै । येई तौ जन्म फेरि फेरि टेहै ॥
अमर तुमह मे नाहीं कोई । फिरि २ आवागवन समाई ॥
मरे हँ अमर नरींहीं भाईं। हम तुम यदहिविधि फिरिरआई॥
जब २ पाप प्रगट मोहि होई । धरि अवतार करौं क्षय सोई ॥
जब २ द्वापर आवै भाईं। हमतुम यहि विधि फिरिर्आई॥
कौरव पाण्डव फएिरिर्लडि है । आपहि आपु मारि के मरि ॥
( ९० ) चोधसागर
तुम्रो कीन्ह कद्र नहि होई । देखो ब्रह्म ज्ञान केरि सोई ॥
मनम अहं कबहु नहिं कीजे । को मारे कहू को कह छीजे ॥
आपुजो करता कार कहावै। सोई यह संघार करावे ॥
मनमहं सोह कबहुँ नटि कीजे । इच्छा प्रभुकी गहि कर लीजे ॥
श लेह तुम इहाथ उठाई । कारण करण कंरे प्रभु आई ॥
तुम शिर कचन रुगे भारा। अपुतेआप जाय सब मारा ॥
जो त॒म कहो जीव सब मरि । जीव अमर फिरिर्अवतरिरैं ॥
मारे मरे न जारे जरईं। ताको मोह काते करई॥
जो काया सो मन चितरखाया । मृतकं सदा बनी यह काया ॥
मृतकं रूप सदा रहै काया । तेहिकारणतुम करत हौ माया॥
तुम हौ अहा युद्ध अति आगर । यहि जगम तुम्ही हौ उजागर॥
जो तुम युद्ध करो निं भाई ' जगम होड है तुम्हरि हसाई ॥
कहि दै सवे युद्ध सो उरई क्षति धर्मं तेरो नहि रदरई।
अपने लक) धम जो हारे । नकंवासको सो पथु धरै ॥
जौ कुल धमं सदा प्रतिपाङे । स्वर्गवासं सो सुख चा ॥
अपनो .घमं न छाडिय भाई । काहेको तुम करट साई ॥
रोग पच जो निदा करई । धिग जीवन तोको अनुसरई ॥
तब तो भटी बात नहिं होई । महा दोप पुनि खागे सोई ॥
पाप दोय मनमे पछिताई । न्कवास तव रहै समाई॥
केम योग तोहि वाक्य सुनावौँ । स्वगैवास ताते पहवावौ ॥
ब्राह्मण क्षजी वैश्य ओ शद्रा । प्रथु कह छांडि भरे सब वोदा ॥
नरनारायण देह सर्वोरा। तबहु न चीन्है भरट गर्वोरा॥
बराह्मण कम सुनो वितलाईं । प्रातः सान जपे प्रथु राई॥
नेम धम शुचि सयम करं । सन्ध्या गायप्री चित धरई ॥
ठाकुर सेवा मन चितलवे। कथा कीर्तन केरे करावै ॥
मने सेवा फर नहिं मांगे । स्वरगैवास पचे सब आगे ॥
उग्रगीता ( ११)
क्षी धर्म॒ कमं बहु करई । स्नान करै परभुको चित्त धरई ॥
यज्ञदान निज धमं निवाहै । श्रुरातन निं दकहि सका ॥
वैश्यवणं व्यापार व्योहारा । नेम धर्मं जव तव व्रत धारा॥
शुद वर्णं सेवकाहं करई । मन वच कर्मं इहै चित धरई ॥
सेवा फल रै अगम अपारा । आवागमन ते होड नियारा ॥
एते कुल्के धम जो किये सदा सर्वदा जो निर्षहिये ॥
यह मारग जो लागा रहईं | स्वगे वास्मे सो सख छहई ॥
मारग छांड़ि कुमारग लगे । काम कोधे तन मन पाम ॥
नकवास तेहि कारण पव । जन्म २ वह् योनी आवै ॥
निदा सकट ताहिकी करई । वाउ बेद ताहि परिष्रई ॥
ताते अजन ज्ञान विचारो । ब्रह्न ज्ञान मनते सभाग ॥
मोह लखाजके वंदन छो । लेके अच्च कुटुम सब वाडो ॥
तुम कह पाप पुण्य नहि होई । कारण करण करवै सोई ॥
साधु सतजो प्रम सनेही। पाप पुण्यते छिप्तिनदेही॥
अर्जुन उवाच
के अर्जन सुवु पुरूष पुराणा । तिन साधुन कर करौ बखाना॥
केसी रहनि रहै वे बोै। कैसे बेटे कैसे डो ॥
बोरे कृष्ण तब चतुर खजाना । यहि विधि रहै साधर निर्वाना॥
स्थिर मन इद्धि निहकामी होई । पांच पचीसौं रहं समोई ॥
बोले सत्य असत्य न भाखे । अभ्यन्तर गति प्रथु कह रासे॥
सो तो कड दुख सुख नाहि माने । दृष्टि माह प्रभु पूरण जने ॥
तत्व प्रकृति चापि करि बेठे। जेसे कओ पाड समेट ॥
, सीतल सत्य सहज पशु धारे । बाहर भीतर ब्रह्न निर ॥
यह लक्ष्ण संगति के भाईं। इंद्री जीते साधु कहाई ॥
पूरण पक्ष जो अजन करेऊ । रोगी मूखं भाव जो धरेड ॥
4 ०, चोधसागर
निद इच्छा रोगी रहै भाई । मूरख उच्छा नाहीं षाई॥
ताकर भे विरतान्त सुनाञ । सकट कामना तोरि मिराञ॥
मुरख सुग्घ कच नहिं जाने । काम कोष मन कचन आने॥
पुरइन सम वासा दै वाको । लिप्त अग क्कु होड न ताको ॥
निशिवासर फिरिनाम भुलाई । तेहि कारण भम सब गई ॥
रोगी ईदी जीत कंदे । काम कोध नहि क्ुधा सतावै ॥
पे इच्छा जो अब उरि छेहै। काम क्रोधे ब्रह चित दैहै॥
नाम विहीन दुखी बडु तल्पै । खान पान आगे बहु कल्कै ॥
ताते परतर भक्त न भाई । बाधा यम पाटनको जाई ॥
साघु संत की रहनि बतावौ । करनी साखि जो वाक्य स॒नावौ॥
एेसो रहनि साधु जो होई । जाकी महिमा वरनि न जाई ॥
ताते अजन ज्ञान बिचारौ। मनते लोभ मोह गहि डासौ ॥
दुतिय अध्याय इहां लगु कहेऊ । आगे सेद ओौर कृष्ठु ठरे ॥
कवार उवाच
करै कवीर सुनो धमेदासा । यतना कृष्णकीन्ह केहि आससा॥
छल च््रदि कै ज्ञान सुनवै । अर्यन कह तम गुण उपजवि ॥
जाते धयुष बान संधार । सब परिवार चुनीञ्धनि मारे ॥
करता आप जो युद्ध करवै शिर पाण्डों के भार चटातै॥
छन्द्-कार कतां करम करई समुञ्धि देखि विचारक ॥
सत शब्द् एक सार निमल ताहि रेह संभार ।
तीति गुण सब राखिके जब जाईकै चौथे मिले ॥
शब्द् सुरति ठे टोक पहुचे तबहि हसा उठि चले ।
सोरञ-एेसी रहनी रस, धर्मदास सो अमर है ।
रहै न कब संश, जो नामी नामे गरै॥
इति श्रीमद् उग्रगीतात्रहमज्ञानयोगमतकवीरधमेदाससवादे
अजैनकृप्णअशकयोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
उग्रगीता ( १३ )
अथ त्रतीयोऽध्यायः
असैन उवाच
अर्चन पे सुच भगवाना । निर्मल ज्ञान सनावो काना ॥
तुम तो कहौ कि युद्ध मचावौ । सब पल्को तुम मारि गिरावौ।
ज्ञान कही कहि मोदि समञ्च वौ । फिरि इरूधम् मोहि बतखावौ
जेहि ते मोर अकाज न होई । मोहि ज्ञान प्रथु दीजै सोई ॥
श्रीभगवाबुवाच
कै कृष्ण सुनु अजन बीरा । तुम तौ क्षिय हौ रणधीरा ॥
मारग दोड ज्ञान द भाईं। तति तेहि कटौ सञ्चञ्चाई ॥
निवृत्ति मारग आहि निरासा । सदा बह्म रहै निवासा ॥
तत्व प्रकृति लिप्त नदीं होई । सदा रहै निरेपी सोई ॥
नाम विना क्क बात न बोरे । मन वच कम अतरवर खोडे ॥
निष्कर्मीं निम॑ंल निर्मोही । नरि इच्छा मननाम समोई ॥
जगम रहे कमल सम भाज । एसे छिप्त होड नहिं काञ ॥
दान पुण्य जो यह कु करई । ताकर फल मनम नरि धरई ॥
दाता भुक्ता प्रथु कह जानं । कमं धम कदु मनहिं न आने ॥
मारग निवृत्ति साखि जो अइ । महाकठिन मारग तेहि कंदई ॥
कठिन विर्हेगम मारग होई । पचै कोटिन्ह महं पुनि कोड ॥
तेहि मारग कोई चलने न पावे । काम कोध मद लोभ भुखावै ॥
पूरण सिद्ध हवा नहि जाई । ताते तोहि प्रवृत्ति टढाई ॥
कुलके कमं सदा चित धारे । कबहु न छाडे लोकाचारे ॥
दान पुण्य जप तप त्रत करई । सध्या तपण मन चित धरइ ॥
नियम धम ओ करे जो श्चाना। सवा समिरन धरे ध्याना ॥
उद्यम अपने कुटको करई । यह मारग जो लागा रहईं ॥
सोतो कर्मके कश्मर धवे । धीरा तन मन मेल जो खोवे ॥
९१ ) खोधसागर
यद पिपी मत कंदिये भाई । हरे इरे वह॒ मारग जाई ॥
तेहि मारग कोइ विचरन लगे । कमहि कम धर्म तब जगे ॥
स्व्गवास पावे सो प्राणी । कबरीं ताको रोय न हानी ॥
तासौ मे बहु प्रीति जनाव । संशय दुख सब दूरि बहावौं॥
घन सम्पति सुख बहु विधि देऊ । आपन करि म ता कह ठे; ॥
ताते प्रवृति अपिक फर भाई । लोकाचार समीप बताई ॥
तुम क्ष्रीं रणपति रदौ आगर । गहो धनुष तुम जक्त उजागर ॥
एसो को जब कृष्ण सुजाना । अन पुनि प्रो भगवाना ॥
कैसे कमे लिक्ति नहिं होई । कर्म धमं त॒म थापेउ सोई ॥
कटे कृष्ण अजन सुन लीजे । सेवा सुमिरण में चित दीजै ॥
करि करि कमं मोहि सब अप । कवहँ न पाप दोष सो उपे ॥
ताके शिर नहि खगे भारा । सत्य भाव मो ठेसे विचारा ॥
पाच हत्या नित गेदी करई । अध मावते गेदी फिरई ॥
नित नित इत्या शिर पर छेदी । बांचे जन कोह परम सनेदी ॥
कटै अजन यह हत्या कैसी । गेहीको तिन लगे सौसी ॥
सो तौ वनिके मोदि सुनावौ । दुविधा भावसो मोहि मिराबौ ॥
कहै कृष्ण अजन सुनु वेना । हत्या पच निरखि कै लेना ॥
प्रथम् इत्या जो पीसेपिसाना । दृसर कटे आनि जो धाना ॥
तिस॒रे बदृनी जो घर दैईं। चौथे कलशा भरे जो कोई ॥
पचये रसोई चूल्हा वारे । इत्या पांच जीवद्रं मारे ॥
कहै अजन यहि विन को रदईं । यह पातक कैसे परिहरई ॥
यह पातक जो देह सनेही । कैसे उधरनी इनसो छेदी ॥
सुन अजन जिव कमे न लागे । नित नित करि प्रभु चरणन पागे॥
जो क्क केरे सो प्रथुके कारण । तादक दोष न कट् विचारण ॥
केरे रसोई प्रथुके नामा । पुनि अपे जल ठे सब सामा ॥
उग्रगीता ( १५ )
अंत कार काद षरसादा । दीन दुखित जो पोषे सादा॥
ता पाठे घ्रसाद जो पवे। ताको हत्या निकट न अवि॥
ठेसे कारज प्रथु सनमनै । ताहि दोष नहिं वेद् बखाने ॥
अध्याय तोहि सन कदे । कथ योग॒ प्रकट क सहे ॥
कृहै कबीर सुनु धर्मसुनि आगर ! सत्य सुक्तको ज्ञान उजागर ॥
यह तौ कमं ज्ञान दद्व फल भोगे फिरि योनिहि आते
निवृति करै भिवृति ठे अवै । फिरि फिरि छेके कम दढ़ावे ॥
ताते नै संसारहि आवा । सत्यं शब्द् कृहि बहु गोहरावा॥।
बूञ्ेगा कोई सन्त विवेकी । ज्ञान दषते सब कड छेकी ॥
हम तौ तीनि लोकते न्यारा । जो ब्ह्यै सो ईस इमारा ॥
यह् रीञ्च तौ स्वगं देह वासा कम भोगि बतुखौकं निवासा)
छन्द-धर्मदास म कदौं तोसौं सार शब्द जो भेद है ¦
हंस मन बच गहै ताङ्क पालक ना विद्रा है ॥
विश्वास देखो प्रीति करि यें निकट प्रकटो ताञ्चको ।
यम फंद शंसा भरी चौथो लोक देऊ निवासको ॥
सोरग-अगम भेद है सार, भेद कोड नरि पावईं ।
उतरे भव जरु पार, शब्द गहे विश्वास के ॥
इति श्रीमदुगी तान्रह्मज्ञानयोगमते कबीरधमदाससंवादे
कर्मयोगाख्यानो नाम तृतीयोऽध्यायः
अथ चतुर्थोऽध्यायः
श्री कृष्ण उचाव
अर्जन सो अस कड भगवाना। अगम मेद॒ बतावै ज्ञाना ॥
यह गीता काहू नरि पाई। सो में तोसों वाक्य सनाई ॥
प्रथम मे गीता सूयं खनावा । उन वैवस्वत पुत्र पटावा॥
( ९६ ) चोधसा्गर
ताकर सुत देवसि जो भयऊ । अपना सतहि पढाया ख्य ॥
उन्ड ठे सुत इष््वाङरि दीन्हा । परगट फिर काहू न्ह कीन्दा ॥
यतिक दिवस जो रहेउ समाई । अब तुम कं मेँ आनि सुनाई ॥
ओर ज्ञान यहि सम नहिं होई । सुरति खौरति ठे देखह सोई ॥
तब॒ अजन पेठ अस बाता ! तुम तौ भये यहि युग उतपाता॥
सूयं को आदि शुग गय । तुम सो गयडउ उन्ह ज्ञान पयञ॥
श्रीभगवानुवाच
कहै कृष्ण सुनु वचन प्रमाना । जो यँ तोहि स॒नावों ज्ञाना ॥
मे तो सदा रदो जगमाहीं। तुमह रदौ हमारे पादीं ॥
जन्म अनेकं तेरो चकि गय । जन्म अनेकं मेगे पुनि भयञ॥
ते अचेत माया मे बेधा । मं निम जस पूरण चन्दा ॥
जन्म जन्मके गुण म जानों। अपनो तेरो गुण पहिचान ॥
आदि अत सकलो भे जानो । ताते यतना भेद बखानौं ॥
तेदहै काम कोष अधिकारा । नि ब्ूञ्च ते चरित हमारा ॥
अजुन उवाच
पुनि अजुन अस पून ख्य । कारण कवन जन्म तुम धरेञ ॥
निह इच्छा तुम अतयांमी । काहे आवागमन समानी ॥
तुम्हारे इष्ठ मित्र नरि कोई । कारण कवन जन्म धूर ई ॥
श्रीभगवानुवाच
कहै कृष्ण सुनु परम पियारे । धरणी मोह पाप दोह भारे ॥
बहुत अधमे होन जब्र रागे । वसुधा भार मदी उठि रागे ॥
जब जब देखो महि पर भारा । तब तब आनि रेड अवतारा॥
जन्म कमं ठे खेलों जगम । करि सहार जो रदौ अल्ग म ॥
मेरी गति मति कोड न जाने । महिमा चारौ वेद बखाने ॥
होड निष्कपट जो मोहक ध्यावे । महा अनेदं परम निधि पावै ॥
उग्रगीता ( १७)
जो मोसों कोड अंतर राखे। कैर दम भक्ति मन भकतै॥
ता करं काल बहुत दुख देईं । दंभी भार बहुत शिर रेह ॥
मे इं तासों अतर राखौँं। कबही तासो निकटन भाखौँं ॥
ताते त॒म मोहक पहिचानौ । येरो कहा सदा तम॒ मानौ ॥
तब अयन बोले अस वानी । मै तुम्हार न काहू जानी ॥
करन करावन तुमही स्वामी ! केहि कारण प्रथ्वी.अङ्लानी ॥
तुम॒काहेको मारण आवौ । केहि कारण तुम भार चढरावौ ॥
तब अस बोरे कृष्ण सुजाना । मर्म आपनो कहौं बखाना ॥
तीनि लोकं जो राज हमारा । तति रचौँं ले विस्तारा ॥
बहुत भांतिके ख्याल बनावोौँ । खेि स्यार पुनिताहि मिटा्ौं॥
तीनि लोक मे आवौ जावौँं। निर्ण सथुण ज॒ नाम धरावौं ॥
जो जन भक्ति इदमारी करडईं। मन वेच कमं मोहि चित धरई॥
तेदि कह महू सहायक होऊ । उन्हके दुहि भारि बिगर ॥
सदा रहौ भक्तन हितकारी । तारण तरण है नाम अरारी ॥
अजन बहुरि जो पन लागे । ईदी जीति सबै शुण त्यागे ॥
करन करावन क्वौ स्वामी । तुम परण हौ अंतर्यामी ॥
काहे सेवा पूजा खवै। देवि देवता बहत मनाव ॥
देव पितरको पिण्ड जो भरई । केहि कारण बेधनमे प्रई ॥
तीरथ बत बहते तुम धावै । केहि कारण तम नाम धरा ॥
सुद अन में कौं बखानी । मेरी मति गति विररे जानी ॥
जग रचना स्थिर नहि पावै । ब्रह्म अज्ञान विराग उटावै ॥
कोड काकी शंक न मने। आपु आपुमे बह्म बखाने ॥
सब व्यवहार जगतके चाहं । राज काजमे वोर निवाहौँं ॥
तब यह कमं दढावौ आईं । तौन सृष्टि ठुम कंस उरञ्चारईं ॥
(९८ ) सोधस्रागर
चारि चरण तब परकट कीन्हा । कमे धर्मपुनि ता कह दीन्दा ॥
ताते पजा हम री थापो। देवन मर्ह हम रही आपो ॥
पूजत मोदि देखे संसारा । बहते भोति तब पजा धारा ॥
तीथे बत जप तप गहि लीन्हा । ताकर कल संसारटि दीन्हा ॥
फ़ल कारण सब जग अ्ञ्लाना। देवी देव॒ रहे र्पटाना ॥
जेसा केरे तैसा फर पावै) दान पुण्य बहते मन लावै ॥
ब्रह्म ज्ञान विदु मोहिंन जने) तति चौरासी अश्ञ्चाने ॥
आवे जाई जगत मञ्चारा । पञ्चवा शूकर श्वान सियारा ॥
चोरासी योनीमे कफिरईं। बडे भाग नर देही धरई ॥
जो कोड भक्त मोहि न चितखवे। यक्ष शुक्ति परम पद पावै॥
मन संकल्प विकट्प ते त्यागे । तब यह पूरण तंतुहि रमे ॥
यज्ञ कमे सब विधि व्यवहारा । ताते भवं जल उतरे पारा ॥
द्वादश यज्ञ कमे दै भाई । जेहिते महा परम सुख पाई ॥
सो अब तुमसो कौ बखानी । यज्ञ॒ कर्मं क्रे जो प्राणी ॥
प्रथमे बह्म यज्ञ॒ है भाईं। ब्रह्न सउज टे ब्रह्म अपरां ॥
बह्े अभि होम बह्म देईं। सब विधि ब्रह्म जानिके ठेई ॥
दुतिया यज्ञ देव यज्ञ॒ करावे । देवि देवता बहुत मनाव ॥
सब ॒साउज रे होम करावै । यहि विधि जन्म सफल सो षाै॥
तीसर यज्ञ सयम कर् इंद्री । साधे भूख प्यास ओ निद्री॥
पांच पचीश गुप्त ल्ियि खेले। मनुवा निशि दिन प्रभु सो मेरे॥
चौथ यज्ञ संयम ओ आतम । अभ्यतर चीन्दे षरमातम ॥
आतम परमातम जब जाने । यहि विधि भेर श्री भगवान ॥
पैचयें द्रव्य यज्ञ जो दोईं। करि महिरक्षा साधु रसोई ॥
बहत भांतिकै साधु जववे । तेहि पीछे वह भोजन पावै ॥
जस. कीरत हवै संसारा । ताकी गति वेदकं सवारा॥
उग्रगीता (९)
छटये यज्ञ॒ तपस्या भाई । आगिरु जन्म राज कर पाईं ॥
स्त्ये यज्ञ॒ योग जो साधे। आसन भूल पवन अपराधे ॥
पूरण योग होइ जो कोई । कार असि कंह जाने सोई ॥
जब्र ठगि चारै काया रावे । फिरिजन्मैतो योग अभिलाषे॥
अव्ये योग यज्ञ॒ अधिकाई गीता कथा षाठ करे भाई ॥
पोथी पदि गुर् मारग गहर । सो भवसागरते निवहइ ॥
नवयें ज्ञान यज्ञ दहै भाई | ज्ञान ध्यानै रहे समाई ॥
दशय यज्ञ जो प्राण पयाना । यह नारम जो रहै कुपटाना ॥
एकादश है सयम सारा । सुक्ष्म भोजन करे जवनारा ॥
देहीको मिभ्या करि जने। प्रभु पूरण अन्तर पहिचान ॥
द्रादश यज्ञ विधि नाम कमवै। योग युक्ति सब जानि जो पावै॥
यहि विधि द्वादश यज्ञ हैँ भाई । जो कोह करे परम हित खड ॥
सो भावस्रागरते तरि जाई विष्णुरोकमें जाई समां ॥
अर्जन तुम तौ भक्त हमारे । बहत उजागर प्रेम पियारे ॥
माया मोह चितते तुम डरो । धवुष बाण तुम वेगि सम्हारो ॥
चतुर्थाध्याय करेड तुम सगा । यज्ञ योग नाम सब अंगा ॥
कृवीर उवाच
धर्मदास तुम सत सुजाना । सत्य शब्दका ममं जो जाना ॥
यह तो धर्मकर्म व्यवहारा । कहा केरे जिन शब्द् सभारा ॥
शब्द हमार भेद रकसारा। जो ब्रूञ्चै सो उतरे पारा ॥
भुक्ति होई सत्यखोकं॒सिधावै । तीनि लोक बंधन सुक्तावै ॥
तीनि रोक जग आवागवना । अधर लोकं है सतशुरू भवना ॥
इच्छा शूप रे . जन भुक्ता । जहां पुरूष समीप संयुक्ता ॥
तह कर वणेन का बखानों । ओरँगेको सपना सम जानां ^
(२० ) बोधसागर
छन्द्-लोकं उपमा कहा दीजे जगतमे कडु नाहि दो ।
पुरूष परतर कहा दीजे ससञ्चियो मन मारहिदो ॥
नदी अगरहं गण्डका रेणुका भरपूर हो ।
पुरूष शोभा अय आभा एति सूरय ज्र हो ॥
सोरठा-पुरूष खूप अपार, कते शोभा ना बने ।
चीन्दो शब्द् हमार, जहिते पर्ष परसि हो ॥
इति श्री मदुअगीतात्रह्मज्ञानयोगमते कवबीरधमदाससवादे
दादशयज्ञव्याख्यानो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अथ पञ्चमोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच
अजैन तुम हो भक्त हमारा । तुम्हरो काजकरोँ मे सारा ॥
ज्ञान ध्यानम मन तन देद । निशिवासर सुमिरनके रू ॥
ज्ञानवन्त जो दै तत्त्वज्ञानी । तिनकी महिमा अवर नजानी॥
इषं शोकं जाके नरि हों । काम कोध सो लिप्त न सोई ॥
कमं कंरे करता न कंहावै । अभ्यन्तर मारग चितलावे ॥
इद्री आपु आपु सुख चाहै। ताके कबहु निकट न बाहे ॥
इंद्री कमे सदा दोय भाई । ताके छिक्ति न होवे भाई ॥
तिनसों कर्मं केरे जो कोड । परमातम कड राग न सोई ॥
सखम दृष्टी होय सर्वं॑निहारे । स्वं योनिम ब्रह्म विचारे ॥
ठेसो जो कोड प्राणी रोई । जीवन युक्त काव सोई ॥
काम कोधमे यह जग बेदा । ज्ञान न उपज मूरख अधा ॥
निशिदिन ताहि मोह भरमावै । बहुरि बहुरि पारे परितावै ॥
नारी सुत हित बन्दन लाया । धनसो मन जो बहुत लगाया ॥
अंतकाल कोई काम न आवै । होई विछोह पाछे पछितावै ॥
अन्तकाल जब संकट आव । कालके हाथ सो कौन बचावे ॥
उग्रगीता (2१)
रोवे बहुत भांति तेहि कारण । शुये न जीवै बहत पुकारण ॥
प्रभु हिरदय नहि मूरख जने । म्रतक आशा खमि भुखाने ॥
मृतके रोवे भला न माने । फिर यमज स्षकट ठे ॥
लोगन घरतै बाहर कीन्हा । की जरिकी मारी दीन्हा ॥
मृतक रूप बनी यह देही । करि ङे प्रीतम तरेम सनेही॥
जगके बन्धन जगम टे । बहुत आस तेहि यम धरि ट्टे
इन मों कहा मोह चितलाया । प्रभु इच्छा नहिं मूरख पाया ॥
काकर पिता पुत्रको होड नारी सत डित खमे सोई ॥
ता कारण यह दुख सुख माने । अज्ञानी नहिं प्रभुको जने ॥
कबहु न सुमिरण प्रभुका करई । निशिदिन ज्ञान ध्यान परिहर
ताते बहुत भांति दुख पावे । प्रभुकी शरण न कैसे अवै ॥
यह तो लक्षण जग व्यवहारा । ताते बडे मूठ गर्वरा॥
अजन कम योग है नीका । संशय मेटो सकर जीका ॥
केम करे शिर अपने टेई। कारण करतें चित देई॥
आपन कर्मधर्मे नहिं छोडे । दख सुख प्रथु इच्छा शिर बोडे॥
सदा अनन्द रहै सुख बासा । अन्तकाठक वैकुंठ निवासा ॥
क्षत्रिय धम तोहार जौ होई । करौ सहार श पुनि सोई ॥
तुम्हारे ररे से कोइ रखग्दिं। नातो निदा तुम्हरी करि ह ॥
धर्मं छांड़ि जनि पातक हू । युद्ध करनको मन चित देह ॥
कम संन्यास पञ्च अध्यायी । अजन सुनि मन दुविधा आयी॥
युद्ध करो की ज्ञान विचारी । केहि विधि अपनोजीव उवारो॥
कीर उवाच
धमदास यह कार तमासा । तासो चाहे मुक्ति निवासा ॥
ज्ञानी अज्ञानी भरमावै। धमं अधर्म दोऊ ठदहरावै ॥
धमं अधमं काल की पाशा । ताते न्यारा शब्द प्रकाशा ॥
कमं अकम मध्य है सोह । तुम जाने जाने सब को ॥
(२२) बोधसागर
षद्ररू सषि कखे को पारा । निराधार है अधर अधारा॥
छन्द-गमि अगमि सद्र कखायो निअक्षर सो षास दै।
कली षले बास धावे एेसो शब्द् निवास है ॥
पूर तिक जब संग कीन्दों सवस बासा तब भई ।
हस बासा शब्द ठीन्दटो शब्द् ह्पी सो सही ॥
सोरटा-शब्द मता है सार, सुर नर मुनि जानं नदीं ।
अधा अघ अचेत, अघेरे न सुरति आने नहीं ॥
इति श्रीमद्म्रगीतान्रह्मज्ञानयोगमते कबीरधमेदाससवादे
कमेसन्यासत्याख्यानो नाम पचमोऽध्यायः | ५ ॥।
अथ षष्ठोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच
ठे अध्याय ध्याय हे योगा । सुनु अजन मे कहौं संयोगा ॥
जब खगि ध्यान योग नहि करई । तब लगि निर्मर चित नरि कृरईं॥
ध्यान योग योग निज साधे । मन वच कर्मं नाम अवराधे ॥
मन संकल्प विकल्प न जाके । दीन वचन कटोर न ताके ॥
निस्तरंग कष्ठ उटे न इच्छा । सबमे वारत्रह्न उत पेच्छा ॥
पांच पचीश न कबहूं धावै। निशिबासर प्रथु संग रहावे ॥
पांचौ इद्विय क्कि न होई ।रेसे साधु विररे कोई ॥
गरहस्त जीवन मे बासा लेहं । उत्तम टौर कुटी कर देइ ॥
मायचुष तहां रषि नरि आवै । आसन उत्तम तहां बिछावे ॥
प्रथम धरणी पर धरे मरगछाखा । तापर कुश साथरी रसाला ॥
तेहि पर बैटे खट करि आन । कैसो भांति न रोड उदासन ॥
खंभा खम आसब टट आसन । सुरतिनिरति टे नाम सभारन॥
ज्ञो यतने मे आतम द्रसई । सो ज्ञानी प्रभु पूरण परस्इ ॥
ठेते जो कोई ध्यान करगावे । बहुरि योनि सकट ना आवे ॥
उग्रगीता (२३)
साधे निद्रा हार व्यवहारा । बहत न म्रूदे नैन उघारा॥
सयमके सो साधन करहं। सो साधर् आहि निस्तरईं ॥
मन कह ज्ञान ध्यान म राखे | सरति निरति सो अश्रत चाखे॥
जो मन अन्त न धावा चाहे । धेरि धेरि अभ्यन्तर बाहे ॥
तब अर्जुन अस पंन ल्मे! यदह मन चञ्चल परु पर भागे॥
यह तौ काहू जाई न पकरा } कौन उपाय जाइ मन जकरा ॥
गगन वाह जो गजत आवै केसे गगरी यहि समाव १
यहि विधि मन चञ्चल यह भाई । तौ केसे यह पकरनं वाइ ॥
श्रीभगवानुवाच
कृष्ण अर्जन सो कहेउ बुञ्चाई । एेसे चञ्चल अस्थिर भई ॥
जो यह मनको साधन करई । अभ्यन्तर ठे फिरि २ धरहं ॥
चारों दिशा चलन नहि पावै । जवे चङे तब आह समवै ॥
पारब्रह्म देखे तब नेता दोहं अनन्द परम सख चैता ॥
दीन दुखित कह दाया करई । अपनासा दुख चितम धरई ॥
दया भावसो हितकर बोले । तृप्त करे साधन कह सो ङे॥
प्रका दुःख नेवारे सोई । एसी भक्ति परम गति होड ॥
अखन उवाच
अर्जन कहै सुबु कृष्ण मुरारी । तारण तरण भक्त हितकारी ॥
दसा साधु कोह ना देखा । आपनसा दख सब्र कटपेखा ॥
आपन सुख चारै सब कोहं । ओरन दुःख दोय सो होई ॥
श्रीभगवानुवाच
अजन नो है परम सनेदी। आप निकरि नरि जानदहिदेदी॥
पर सुख कारण आपु निरासा । दख सुख देखे सकल तमाशा॥
भक्ति करे जो मन चित लाई । ताते परम षदहिमं जाई ॥
नि्यंण साधुजो पूरण ज्ञानी । ताकी महिमा वेद बखानी ॥
वेद पुराण ते अधिकं है सोहं । ताकी पटतर वेद न होई ॥
(२७४) चोधसागर
वेद भाव सखार पसारा । परमभक्ति रै अगम अपारा ॥
तुम हू भक्ति करो मन खाई । छांडौ माया मोदि भाई ॥
छटो अध्याय इहां खश कटिया। आतम संयम योग जो रहिया॥
कवीर उवाच
करे कबीर यह आतम जानी । इतने अधिक बखानों ज्ञानी ॥
चमेदास तुम ज्ञान उजागर । तुम तौ बसि हौ सुखके सागर॥
यह करनी जो कृष्ण बखानी । यह विधि धै आतम ज्ञानी ॥
मे तो ज्ञान अगम तोहि दीन्हा । कारु कमंको पापउ चीन्हा ॥
ताते हंसा दद् करि लेऊ। अगम अगोचर दीन्हेड मे ॥
यहं मन चञ्चर् धिर न्ह होई । केसिहु विधि जो चाहे कोई ॥
ताकी विधि मे प्रगट सुनाऊँ । मवुवां इस्थिर करि दिखलाईः॥
यह मन पानो रूप सशूषा । बुद्धि धाम पृथ्वी कर षा ॥
चित जो वाइ सरूपी होई । अहं अज्ञानी रहै समो ॥
पानी मही बराबरि भाई । चित्त पवन के आह उगई ॥
ज्यों २ पवन चे ज्ञक श्चोले । त्यों २ मनुर्वा चहँ दिशि डोडे ॥
ताते यह उपचार सुनाऊं । मनवा कह अंतर टठदहराॐँ ॥
मनु पावना ले चिकुटी रेखे । अक्षर सुरति अमीरस चाखे ॥
जौ लो पवन रदित न्ह होई । तबलगिमन अस्थिर नह सोई॥
गगने पवन रहे पुनि भाई । तरिङ्कटी गागरि रेहइ समाई ॥
पानौ पवन संघ जब रोई । ब्रह्म अभि उपजवै सोई ॥
मन ओ पवन होइ जब मेला । परम पुरूष ते होहहि मेला ॥
ना कहं आवे ना कहं जाह । तब यह मनुवां सहज समाई ॥
छन्द-चलत मनुवां अचल कन्दो पवन अस्थिर जब भई ।
मन पवन जब मला भया अमृत धारा बरही ॥
उग्रगाता (१ क
जिन्हे सतगरर् शब्द मिलिया अमी सो हंसा पिया ।
अजर अमर शरीर पायो बास सुख सागर लिया ॥
सोरग-सत करो विवेक, शब्द सार गडु ब्ञ्धिके |
सुरति निरति सो देख, सतश् शब्द् अपार जो ॥
इति श्री मदु्रगीतात्रहज्ञानयोगमते कवीरधर्मदाससंवादे
आत्मस्यमयोगो नाम बष्ठोऽध्यायः |) ६ ॥
अथ सप्तमोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच
कृष्ण क अर्जन सुनि रीजे । भक्ति हमारी मन चित दीजे ॥
सखतये अध्याय जो तमसो कह । मक्तनमें हितकारी रहॐ ॥
मरै री करौं करावौं भाईं। तीनि लोक जदं खमि निर्मा ॥
तरै सघारीं भ प्रतिषारौं। चौदह थुवन परक टरौँ॥
जँ लगि प्श्य पक्षी जिव होई । मँ सबही मे रहौ समोहं ॥
दानपुण्य आदिक सब माहीं । बनिज व्यापार करे सब वाही ॥
देवी देव सकलं मे सब दी । भवसागर सकर जग इम डी॥
तीनि लोक्रमे विजय म सारौ । जब चाहौं तब बैर सधघाररौ ॥
करौं सघार सृष्टि पुनि सोई । रहौ अलेषप निरंजन होई ॥
सगणते निर्ण मँ दोह जाऊं । फिर चाहौ सशुण होड जाॐ ॥
सगण ओ नि्ुण शूप हमारा । जहिते सशि रच्यो व्यवहारा ॥
अञ्जन सबमे मोही जानो । कहा हमारा निजके मानो ॥
चारि प्रकार भक्ति जो होई । तामं ज्ञानी अगिकं सो होई ॥
रोग दुःखम भक्ति जो करई । दुख कारण जो मोहि सुमिरई॥
दीन दुखी निशिदिन खव लावै । कब प्रथु मोक भोग भोगावे ॥
रभ्य चरै जो द्रग्यहि स्वारथ । ज्ञानी चाह मुक्ति पदारथ ॥
(२६) बोधसागर
ज्ञानी सदा मोरि पहिचान । मेरी भक्ति सदा सुख मने॥
ज्ञानी अधिक तादिते होई । भक्ति हि हेतु अधिकं है सोहं ॥
अज्ञानी- मोहि नर दी जाने ।अलख श्प मोहि नरह पटिचाने॥
पूरण ज्ञान रोर जब भाई । तब दी निश॑ण अख लखाई॥
देवी देवा सबं नर पजे। तिनदीको करता करि वृधे ॥
उनकी प्रीति देव रोइ जाडं । उनकी मनकामना पुरां ॥
कोडन ब्ञ्चे ख्याल हमारा । रहँ शटि पुनि करो संघारा ॥
ज्ञान विज्ञान योग जो होई । सतर्वांध्याय सुनायो सोई ॥
कृखीर उवाच
कदे कबीर जगकरता आदी । धमंदास तुम चीन्हौ तादी ॥
पुरूष तीनि लोक यह दीन्हा । तीनि लोक राज इनं कीन्हा॥
सब जग मोदि कर यह राज् । मन इच्छा कर सबका कान् ॥
इनते युक्ति कदो कस होई । देखहु आतमज्ञान कैसोहं ॥
इनते मुक्ति रोइजो साजा । देह धरावै कवने काजा ॥
धम अधम जीव अश्ञ्ञाया । आवागमन महा दुख पाया ॥
आवागमन न ष्टे भाई तीनिरोकं राखे रपटाई ॥
धरि अवतार जवै जग आवे । सकल सभा रेसी हि भरमावे॥
सृष्टि जहां खमि है ससारा । देसी भांति सष अवतारा ॥
काहू मुक्ति दोह नरि भाई। राम कृष्णते को बड आही ॥
उनहू आवागमन न ष्टे । धमराज फिरि २ जग ट्टे ॥
धमराज यह खेर . पसारा । ओघ घाट मदि सब द्वारा ॥
तीनि लोकं ते जनेन पावें । स्वर्गं पत्यु पातारु रावे ॥
धम करमते स्वगं हि जाई । धमं घटे मृत्यु मडल आहं ॥
जैसे धरिया रहट सुभा । ऊँचे नीचे फिरि २ आऊ ॥
बन्धनते छट नहि पव एेसे जीव सदा भरमावे॥
उग्रगीता ( 2७ )
सद्रक् चौथे लोकं निवासा । मिरे अ्ूरी जो निजदासा ॥
सार शब्द् है तेहि पचा । तीनि खोक बन्धन शुक्त ॥
पावें सार शब्द निज बीरा । पहंचै लोकं जब टे शरीरा ॥
यमराजा तेहि निकट न अव । चौरासी ते जीव ओडति ॥
सार शब्द गहै निज डोरी । उतरे इसा घाट करोरी॥
छन्द्-धमं सेवा बहुत कीन्हो पुष दीन्हो राज हो |
लोक तीन राज पायो गर्वते अति गाज हौ ॥
घाट अवचघट सवे मंदो कतहु नाहि निकास हो ¦
पुरूषते दई ठानिकै सब जीव राखो पाकर दौ ॥
सोरगा-रेसी युक्ति बनाई, पाप पुण्य कंदा रच्यो ।
चरे खोक सो जाह, सद्र शब्द प्रताप जहि ॥
इति श्री मदुग्रगीताज्ञानयोगमते कबीर धर्म॑दासस्वादे
ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ < ॥
अथ अष्ठमोऽध्यायः
अजन उवाच
अर्चन करै सनो प्रथु मेरे। मतो अधीन सदादहौँंतेरे॥
कहौ बखानि ब्रह्मको आही । सो निज भद कहौ मोहि षारी॥
अध्यातम तुम कहौ बुञ्चाईं । कमं नाम कारैको रहाई ॥
अद्भुत शूप बखानौ सोई । क मोसों जनि राखौ गोड ॥
अर्धनाम कवे सोई । अर्धनाम जग काकेर होई ॥
श्रीकृष्ण उवाच
करैं कृष्ण सुनु अर्जन भेदा । तुमसों कौं मे वेद॒ निषेदा ॥
ह्न सदा जो रहै अविनाशी । ओर सृष्टि सकरौ पुनि नाशी॥
रहित नाम अविनाशी होहं । पूरण ब्रह्म व्यापक है सोहं ॥
(२८) बोधस्ागर
ना कहु आवे ना कहं जाई । सब घट मादी रद्यो समाई ॥
नहीं हष्टि देखन मरै अवे । सकर सृष्टिके माहि रहवें ॥
रूप वरण कडु वरणि न जाई । कोरि सूर्यं तेहि तेज समाई ॥
तिनका नाम सदा अविनाशी । रहै निरंतर अंतरबासी ॥
अक्षय है सब जक्त पसारा । व्यापकं शूष रहा भरिभारा ॥
तिनकी भक्ति करे जो कोई । आवागमन कबहु नदिं होई ॥
अध्यातम आतम सो ज्ञानी । समे रेके ब्रह्म समानी ॥
कम नाम करता है सोई । दुख सुख कारण करता होई ॥
अद्भुत खूप सूप रै भाई । तेहि समान हप नरि भाई ॥
कोरि सूर्य्यको तेज समादी । अद्धैदेव सब देवन माही ॥
रहो समाई जो सकरौ छाई । अरदधनाम सकलो जग खें ॥
व्यापक सदा सकलम सोई । महा प्रख्य जब आवे भाई ॥
ङे सौ वच अवधी रहईं। नि दिवक्षछेमाख जो दोह ॥
दिवस एक देवन कर सोई । छः मास अवर जब जाई ॥
राति एक ताकर होइ भाई । एेसे वषे दिवस नर होई ॥
दिवस एक देवनकर सोई । तासे मास वर्षं गनि लेहं ॥
फेसे वषं देवकर कहिया । अहनिशि एक बरह्म पुनि तरिया॥
दिवस एक॒ ब्रह्माकर होई । चारि पहर चारिउ युग सोई ॥
रातिडउ रेसे जान सभा । बरते चारिउ युग पर भा ॥
दिवस ओ राति जब एेसो जाई । पक्षमा पुनि वर्षं कहां ॥
सात वषे बह्मा षर वानी । कार आई सो केरे तब हानी ॥
ब्रह्म भ्रल्य जब आवड भाई । रोमस रोम परे खहराई ॥
जब २ प्रख्य काल जब आहं । एक रोम रोमस गिरिजां ॥
दहत प्रलय देसे चलि गय । आदि अंत कादर नर्द पय ॥
अष्ट अध्याय जो कदा बखानी । अक्षर ब्रह्म योग दै ज्ञानी ॥
< ५ १।१९।॥ ६. श
कटै कवीर सुय धर्मनि धीरा । ब्ूञ्च भेद तुम गदहिर गमीरा ॥
जो यह कंच प्रभाव बखाना । पे निर अक्षर भेद न जाना ॥
जो निर अक्षर मेद न जानै। कैसे सार शब्द् पहिचान ॥
जो निर अक्षर भेद हि पवै। सो भिरोकं बधन क्तव ॥
अक्षर सार अपार जो होई । बिनु सत शुङ् पावे निं सो ॥
सतश् मिले शिष्यको जबदी । सार शब्द पावै पुनि तबही ॥
हेस खूप ताकर पुनि होई! सो तौ ईस निनारा सोह ॥
यह जाने नं ताकर भेदा । कितनौँ षद नर चारिउ वेदा ॥
सार शब्दका मर्म न पवे। सो कैसे सत्यलोकं सिधावे ॥
जो मानै तेहि लोक पठा । सार निरक्षर अलख ङखाॐ ॥
खान प्रवान शब्द् टकसारा । यमको चीन्दै उतरे पारा ॥
चरवारा जबर पवि चीन्हा । तब हंसन कह अव दीन्हा ॥
छन्द--सुरतिमंत जो ईस दोव ताहि दीजे पान हो ।
नत दशौ दिशा घाट रोके मागि शब्द निशानि दहो)
देखि है जब शब्द सां चा चीन्ह पावे टोकको ।
अपने कषे तहि उतार मेटि संशय शोकको ॥
सोरठग--धमं हमहि सो कौर, कीन्हो अति आधीन हो ।
हस शब्द सत बोर, निमिषं माहि पहु चाइया ॥
इतिश्रीमदुम्रगीतान्ऋज्ञानयोगमते कबीरधमदाससवादेऽक्ष-
र्योगव्याख्यानोनामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
अथ नवमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
अर्जन शाघ्रे मतो है नीका । कमं धमं सब कारज जीका ॥
शाच्च वेद पुरान जो आदी । मन वच कर्मं अजन गहू ताही॥
(३० ) उधसागर
बहत लोग साल्ुष सोहि जानें । दुख संख व्यापकं मारी साने ॥
बडे भाग प्रानी रोर । अन्तर पवन ररौ सोई ॥
पवन सकर मे बते भाई । बाहर भीतर फिर सदाई॥
किप दोइ पुनि रहै निनारा । एेखा अदभुत खेर हमारा ॥
बहुत साधु एक करि पूजे । सर्वं मध्य आतम कूचे ॥
बहुतक प्रीति भाव जो जाने । साहेब सेवा रित के माने॥
बहतकं तीनो देवन मनि । अवरसकरू मिथ्या करि जानं॥
सोकहयदहि बिधि जो कोह ध्यावे । तेहि विधि साह परम सुखपावे॥
सवं व्यापकं में हौं माई । मोहि विन दूजा ओर न कोई॥
मेरे मित्र दुष्ट नरि कोईं। जो ध्यावे पव पुनि सोई ॥
एक भाव मे सबसो रहे । जसे अशि भावं सो केॐ ॥
ध काल जड़ आवे भाई । बैठे रोग तापन कड आई ॥
चडूदिशि खोग अभि बिच होई । सब तापे काया नर रोई ॥
अभि काहु के मिजन जाने। ओर न काहू दष्ट हि माने॥
सब कह लागे एक सम भाई । देसे रहौ बे सहज समाई ॥
जो कोड परजा देवन लावै। सो नर देव के रोकं सिधवे॥
जो एेसा दोह भक्त दमारा । ता कह पठवडं स्वर दवारा ॥
जो कोड मोसे चित्त लगावे । सुख संपति बह शोभा पावे ॥
अद्धि सिद्धि बहते के देऊ । आपन के म ताकह ले ॥
सदा सर्वदा बात न देङ् । दुख संताप ताहि कर फें ॥
अञ्न परम भक्ति मोदि भवे। जो कोड मोसों मन चितलावे॥
नौ अध्याय इदां ल्यु होई । राज योग गून है सों ॥
कचीर उताच
कहै कबीर सुनो धर्मदासा । बहुविधि कृष्णजो करे तमासा॥
कर्मं धर्म कहि जग ससुञ्चावें । अलक पुरूष कैसे खि अि॥
उश्रगीता ८३१)
ज्ञानवंत त॒म धर्मं निआगर । सत सुकृत गहु परम उजागर ॥
कृरौ विचार सतकी रीती। मन वच कङ् सतर परतीती ॥
इन्द तौ शाच्च ज्ञान विचारा । कम कफंद् जीवन्द सब डारा ॥
कोड भक्ति जो इनकी करइ । द्धि सिद्धि स्चुख संपति टह३॥
बहत भांति तेहि देइ बड़ाई राज पाट इन्द्रासन खाई ॥
आवागवन न मेरा जाई ) बहुविधि चीन्हो मनचितलाईं॥
दाता भुक्ता होवे आपे) पे कोऊ नहिं छटा पापे॥
अवं जाइ सकल जग लोह । कबहु न द्रटे बवेधन सोई ॥
बहुविधि चीन्हो मन चितलाई । आवागवन न मेटा जाई ॥
बैन सतगुक् तुम्हरो तोरा । तुम कह नदि व्यापें यम चोरा)
सतगुशूका है पथ अपारा जो बकच सो उतरे पारा॥
छन्द्-धर्मदास तुम ब्ञ्चि देखो भेद सतश् अगम है ।
तीनि लोकं अश्ञ्जाइ कारण वेद शास्तर सो कटै ॥
बूञ्ि देखो अंग सब मे आयं तोरन फंदको ।
हेसको सक्ताय यभसो मेटिषौँ दख दको ॥
सोरठग--सतशथुङ शब्द अपार, वार पार कोह ना रहै ¦
हस शब्द आधार, ताहि भुक्ति पारे फिरे ॥
इति श्रीमदु्रगीतान्हमज्ञानयोगमते कबीरधमेद्ाससवादे
राजद्िधाराजगुद्ययोगोनाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
अथ दशमोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच
महाबाहु अङैन सुज भाई । दस अध्याय कटै अर्थाई ॥
विभूति योग मँ तोहि सना । सकलद्प तोहि वरनि सुनाॐं॥
जल थल प्रणमे ही ग्यापो । कीट पतंग सर्वम आपो ॥
( ३२ ) बोधस्ागर
मेरी गति मति कोई न जाने समै सशि नारायण माने॥
ऋषि खनि देव देवता भाई । उनहू मेरी गति नदिं पाई ॥
मै तो गति मति सबकी जानौं । व्यापि रद्यो म सकर जदानौं ॥
देवि देवता आदि जोम री । ऋषि ुनिसृषि अवतारज रेदी॥
मोहिते आदि ओौर नहि कोई । सबके आदि करा रचि सोई ॥
पिताकी खरि पुज नहि जाने । कैसे पित॒की आदि बखनि ॥
आदि अन्तको मेरी पवै। जग रचना सब पुत्र कावि ॥
विभूति रूप संक्षेप जो कटिया । अन पं कृष्ण पुनि कदिया॥
सब व्यवहार विभूति सुनावो । रंचक समोसे कंन दुरावौ ॥
कृष्ण करै सुनु कंतिङ्मारा । तोसों कौं सकर विस्तारा ॥
पहिरे सकल जोति जग जो है । शशि पूरयकी कीरनि मोहे ॥
सयं शूप मेरो रै भाई) दूजा भाव जनावौ जाई ॥
शोत पूरण निमंरु चदा । है मेरो यह हप अनेदा॥
बलीदान यज्ञ जो ठनो । बावन ङ्प मेरो पदिचानो॥
सिरजा पवन समे सुखदाई । मे दी पवन हप रौं भाई ॥
चारि वेदम साम जो वेदा। मेरो ष सुनो तुम भेदा ॥
व्यास रूप मेरो दै भाई। नारद भाव धरउ मै आई ॥
देवन माहि इन्द्र पुनि मदौ दानी बछिराजासो ैदहीं॥
विषधर मारि वासुकी हम ही । ईश्वर माहि महेश्वर हम दी ॥
इन्द्रिय भुक्तो मनसो मे दी । राजन भारि राजु करौ मै दी॥
भिरगन्ह मध्य सिह गति मेरी । वृक्षनम पिप्परु मोर देरी ॥
नदी मांहिदमदी रै गगा । सुद्र रूपमे लहरि उतंगा ॥
मुनिवर कपिर हमी ह भाई । परशुराम योधा दौ भाई ॥
नरसिंह शूप जो मेरो दोईं। रामचन्द्र तन ङ्प जो सोह ॥
दत्ताय आनंदित रद । षिन मध्य पाराशर अदऊं ॥
उग्रगीता ( ३३ )
जर जीवन जलसाई कहाई । मेरो शूप सभाव रहाई॥
ज्वारिन महे में जवा कहावा। खवा श्प मेरो ख्य भावा ॥
जहं लगि जगम होइ लराई । मेरो ह्य लराई भाई ॥
जग परपच जहां ठग होई । पपच हप रहौ समोई ॥
वाद् विवाद केरे जो ज्ञानी । वाद् हप मोक पहिचानी ॥
शकर रूप मोर रै भाई । भ्रत्युकाल्मे रहौ समाई ॥
पाप पुण्य धारौ दुह देही । कम धर्म रचना है शदी॥
जग रचना विभूति मेरी होई । जक थच चै रहौ समोह ॥
कहं लगि वणौ वरणि बखानों । सब वसरधा्मे मोरी जानौं ॥
मोहि छोडि कोई ओर नदूजा। तीन लोकम मेरी प्रजा ॥
देवी देवता पजा कखवैँ। सो सब पूजा मौ कदल ॥
विभूति हप अध्याय है दश्वा । इह खमि भाव बतायं दशवां ॥
कवीर उवाच
कहै कबीर सनौ चितलाहं । धम॑दासर तुम ठह अर्थाई ४
तीनि लोकं नायक भगवाना । तिन कह पुष दीन्ह रजधाना॥
ताते कडा करै अनदा। खेर अनेकं खेर गोर्विदा ॥
तीनि लोक बाजी दइ राखा । परपंची अपने अख भाखा ॥
सत्य कई सत्य भाव ठकखावे । करि प्रप॑च जीवन भरमावे ॥
जीव जो मूल बीजके आदी । इन पाया सब पुर्षके पाही ॥
बीज आदि तिहुलोक जो एूखा । आपुहि जाने पुरूषदि तूला ॥
करि अभिमान पुरूष विसरावा। आपुहि पूरण पुरषं कावा ॥
स्वम ग्यापक आपुहि रदईं । पुरूष भेद नहि काहु सो करई ॥
भेद कहै उजरे पुर तीनो। आपन थापन ताते कीनो ॥
चारिहु वेद नेति जो गावैं । सदगुू रहित पुरूष बतला ॥
न.८ कबीर सागर ~ २
५ ३४ ) | चोधसागर्
जीव॒ जन्तु राखे अर््ञाईं । बीज पुरूष जो दीन्हो भाई ॥
जब नहि बीज पुरूषपरहं जाई । तबे पुरूष हम कं उपजाईं ॥
बीज अङ्री लोक ठे आवौ । घमैराजते रस छुडावौ ॥
सेवा वसि वहि दीन्हा राज् । अब मेटौ तौ सुकृति खान् ॥
सुत हमार भया वरियारा । जेहि दीन्दों ति्हलोकके भारा॥
तुम अंकूरीः सेवहु जाई । बार २ मै कौं बुञ्चाई॥
ताते मे संसारहि आवा । पुष शब्द् टारो न्ह जावा ॥
नाहि तौ तीनौ लोकि तारौ घर्मराज ते सबै उबारौं॥
जो जन अंश पुरूषके आरी । सो सब अवै हमरे पादी ॥
अवर सकलजग कारु बसेरा । नित २ प्रख्य होत श्चकञ्चेरा ॥
यहि कर काल पुरूष दियो नामा। तीन लोकते न्यारा धामा ॥
अध्याय एकादश आगे रोई । कारु सूप बखानो सोई ॥
धमदास मन मारि विचारो । का हप सब भाव निहारो ॥
जो तुम कौ पुरूषकी आशा । सद्गुङ शब्द करौ विश्वासा ॥
छद्-दस कारण पुरूष पठ्यो तबे विनती मै कौं ।
धमे है अति बली ति्हपुर सोई दतिया करि रदौ ॥
जाऊ भवसागरदि जो बह भांति मोसों युधि करे ।
यह सुनि पुरूषसत्य शब्द दीन्हों धर्मराज जेहि ना डरे ॥
सोरग-सुनते शब्द संदेश, सुरति. निरति हंसा गो ।
पूरण पुरूष संदेश, बहुरि धरौ जग देह नहिं ॥
इतिश्रीमदु्रगोतात्रह्मज्ञानयोगमते कवीरधमेदाससेवादे
विमूतियोगत्याख्यानो नाम दश्चमोऽध्यायः ॥ १० ॥
उप्रगाता ६ २९,
अथ एकादशोऽध्यायः
अजुन उवाच
अर्जन कृष्ण सो बिनती उनी । हे स्वामी तुम अन्तर्यामी ॥
दश अध्यायं तुम वरणि सुनायो ज्ञान विज्ञान जो मोहि बतायो॥
संन्यासकमे ओर वाक्य सुनायो। आतम संयम योग बातायो ॥
परवृत्ति निवृत्तिजो मारग भाषा कम योग मन दढ करि राखा ॥
यह् सब सुनिनिर्मल भयो अंगा । अव मोहि दर्थंन भयो उरगा ॥
होड दयाल विराट देखावौ । मति मोक तुम द्रि बहावौ ॥
जो मोहि शक्ति न देखत होई । तौ अब शक्ति दीजिये सोई ॥
तुम ठङ्कर हौ अंतरयामी । अब दर्शन बिन रहौ न स्वामी)
अहो दयार कृषा-निधि-सारग । दीनबेधु तुम पतित-उजागर ॥
तब हरि बोरे चतुर सुजना । इन नैनन्ह नदि दशन जाना ॥
तुमतौ हौ निज भक्त दमारे | दर्शन तुम कह देउ पियारे ॥
यह सूप काहू नहिं देखा । इद्रादिक सुर नर युनि शेषा ॥
सो दर्शन तुम देखा चेहौ । तीनि लोकं इरकंप बटेदौ ॥
देखो कालप जव मोरा। अजन तुम तब रहौ न गरा ॥
डरपो बहुत होड डर भारी । उरे रोग सकर संसारी ॥
केर अर्डन सुव॒ कृष्ण भरुरारी । प्रथम देह दृढता मोहि भारी ॥
जो मँ उरौ द्रसको करई । विन मारेदी मृतकं होइ रई ॥
सोई दष्ट मोहि देव गुसाई । जेहि द्रशे परसौं तुम पाई ॥
दिव्य दष्ि अजन कहं दीन्दा । अन है मम द्रश अधीना ॥
धारो शूप अकाश पताला। महा स्वकूप भयकर काला ॥
माथ अनेक अनेकन्ह नयना । कण अनेकं बहुत अख बयना ॥
नाकं अनेकं -ङ दत अनेका । चितवत दृष्टि मारि है वेगा ॥
निकसि दाढ् बाहे मुख भारी । तिन देखत जिव नाहि संभारी॥
( ३६ `) बोधसागर
वदनं अनेकं भरे ओ रीते। ऋषिश्चुनिवर तहँ भये विपरीते॥
ुजघारी बहु बाह बिराज । ठेसे केसो दरशन राजं ॥
पाव पतारु रहा जब जां । शीश अकाश सातये भाई ॥
भषण भांति. २ के छाज । सुक्र अनेकं शीश पर राज ॥
सूर्य॑ चंद्रमा तहां रहाई । छषिसुनिवर तर विनती छाई ॥
जरह गि देवी देवता आरीं । सष देखो तिनके ख मारीं ॥
अजन देखि अचभौ कीन्हा । अति उरि भये बहत अधीना ॥
देवता ठाढे अस्तुति करदीं । भौ व्याप विद मारे मरहीं ॥
किन्नर यक्ष गुणी सब टदे । कैप स्वै देखिके गाटे॥
राक्षस देखत भागे जादीं । कोह नेरे कोई दूरि परादीं ॥
कोड जन अस्तुति करे मनुहारी । अब रक्षा प्रथु करो हमारी ॥
कोई एक जन दुरि परिहरदीं । कोई जन निडर द॑डवत करी
एेसे सृष्टि सकर जग देखा । तवां रहे समाइ विशेखा ॥
ओ सुख देखा बहत भयावन । जानौ अब् चाहत है खाबन ॥
सुखम तीनि लोकं जो देखा । तद्वां रहे समाई विशेखा ॥
जहं लगि साधु असाधु कहावै । सो सब ताके सुखम आवे ॥
दुर्योधन देखा अख माहीं । भीष्म द्रोणाचार्थं जो आदीं ॥
योधा चरे सवे मुख मारीं । कोरौ पाण्डवं उदर समाहीं ॥
कोस अड़तािस करक जोरदिया । सो सब अुखमें देखो तदिया॥
संसारी लोकं पसारा। सो सब शुखके मध्य निहारा ॥
नदी आवे जस एके धारा । सागर मादिं धसे सब खारा ॥
ठेसे जग सब उद्र समवे । मुख मारीं सबरी चङि आवे॥
जेसे जोत चांदना दोई। जीव जन्तु सब लेड समोहं ॥
केतक डान माहीं अटके । केतकं भागे फिरित जो भटके ॥
कोड कतहु जाने नदि पावै । बहुरि २ ुख मारं समवे ॥
उग्रगीता ( ३७ )
देखत अयन बहत डराये । मनम धीरज नेक न आये ॥
विनय दंडवत करि बह भाई । क्षमा करौ अब मोर यदुराई॥
मोक सँभरन दे यदुराईं । चित मेरो विम दोह आहं ॥
तुम तौ पूरण पुरूष हौ सांईं । इव सतेटो चित्त उराई ॥
काल शपते बहुत उराॐ । कृषा करो जिय मोर जड़ा ॥
श्रीभगवानुवाच
कहै कृष्ण अन सुनु बयना । रयै जनि भदौ दोउ नयना ॥
तुम कारण यह भेष बनावा । ओर काह देखो नहिं पावा ॥
त॒म तौ क्षत्रिय बहुत पियारे । तुम कारण यह इष सवरि ॥
अच्च ह तुम हाथ उगई । इन कह मार बह विधि भ॥
जो कोई युद्ध करन कहँ अवे । राज धमे तेहि मारि गिरावै ॥
इन सबको हम मारिजो राखो । सो सब देख्यो अपनी आंखों ॥
ए सब हमरे भुखके माहीं । तुम कहं दूषण एको नाहीं ॥
तुम्हरे यश कद कारज कन्दा । अब रखुगि राखा ठम्डरे लीन्हा॥
आमे यदी भरतकं जो आदीं । तुम जग यश छेते कस नाहीं ॥
जगे मदा बाह तुम रोह । अब तुम इन कर मारि विगेोहू॥
देवै युद्ध सकर संसारा । यश कीरति तब होई उदारा ॥
अरज़्न उरपत बिनती कीन्हा । तुम कर्ता मै सदा अधीना ॥
अब गि तुम करै मे नहिजाना । अब जो कदौ सोह परमाना ॥
विनय करौ तुम सुनड गोसाई । बह अपराध भये मोहिं सांईं ॥
तुम सग सखा शूप हम डोर । ऊव नीच बोर जो बह बोडे ॥
तुम तौ पिता सकर के दो । पाठे मात पिता सुत सोड ॥
बालक लाख दोषं जो करई । मनम पिता रोष नरह धरं ॥
त॒म सो वैन कठिन मँ भाषा । सारथिके अपने रथ राखा ॥
कष चक हमसे जो होहं। सौ अपराध क्षमा कर सोहं ॥
(३८ ) दोधसागर
रूप देखावह श्याम सरूपा । वेगि छिपावहु काल सङ्पा ॥
मेरो जीव न धीरज धरई । अवदं जानौं भक्षण करई ॥
दया ङूप अपनो दिखलावो । चित वित मेरो टौर मिरावो ॥
ना तौ चित वित मेरो जाई । कैसहु धीरज मों न आई ॥
कालरूप तड् लीन्ह सकेली । कृष्ण प घरि तब री खट ॥
शंख चक्र गदाधर जानी । मोर शुद्र पीताम्बर तानी ॥
विश्वरूप सम्पूरण भयऊ । अध्याय एकादश लगि कद ॥
कृचीर उवाच
कहै कबीर सनौ धर्मदासा । कर कैसे यह कार तमाशा ॥
यह जग अन्धा उल्टी रीती । अधा मोर न एटि मसीती ॥
अघरे पंडित पद् पुराना । पदि पदि काह मेद न जाना ॥
करृष्णजो निजष्ुख गीता भाषा । कारु स्वह्ष देखायउ आखा ॥
तबहु न मूरख कारि चीन्दे । ज्ञान हीन है मतिके दीने ॥
ज्ञान अगम मे बहुत पुकारा । सब ञ्जुठे मिरि करै खुबारा ॥
मूरख साच ज्जूठ निं जाना । केसे गू भेद पहिचान ॥
मेद विना सो जन्म गववांवा। बार बार भग द्वारे आवा॥
आवत जात महा दुख दोईं । जन्म बहुत धरि जाइ विगोई ॥
सतशुरू शब्द चीन्ह जो पावै । अजर अमर घर रंसा पावे ॥
धमेदास सम दंस सुजाना । ज्लूढो सत्य छह पटिचाना ॥
सांच ूठ मे रदा छिपाई। चीन्दो ताहि गहौ चित छाई ॥
जुटे त्यागि सांच कह रागो । सत्य सुकृतम तन मन षागो॥
सत्य्िते जिव उतरे पारा सत्य शब्द् जियको कड्हारा॥
सत्य गहै सत्ये मुख भाखे । अभ्यन्तर सत्यहि गदि राखे ॥
सत्यै कमै धमे तुम करहू। कमे भ्म दोऊ परिदरहू ॥
सत्य भ्यवहार सत्य सुख बेना । सत्य है रेन सत्य है देना ॥
उग्रगीता ४ - (3)
षत्य सत्य तुम ॒वतंहु भां । यह उवदेश हमारो आई ॥
यह संसार सत्य नहि चञ्च । सत्यहि दन्य जट अड ॥
जैसे नलिनी सुबना गहं । एेसे वंह जग कंदा रहं ॥
सत संगति ते उकं मागे । नाच पवारे भन अनुराग ॥
विषय वासमे तन मन खो । उत्तम देही जानि विगोवि ॥
यह संसार कार्कर फन्दा विन सतशुङ्् नहिं टै ष॑दा ॥
जब अक्षर निरअक्षर जानं । सतश् शब्द करै व्रवानै ॥
सार शब्द मै आनि पुकारा जो ब्न्चै सो उतरै वारा॥
छंद-वहौ बहुविधि बञ्ि देखो धम दाक्ण काल हो ।
वेद् पुराणम सार गीता जस कषयो विकरार हो ॥
विश्व सब भोजन करे यह सवे वञ्ुधा वाङ ही ।
दया जाके ताहि अवे सब जीव राखे दाङ हो ॥
सोरढ-ज्योति सश्पी काल, सदा अखंडित छवं वरै ।
कबहु न होय दयार, जीवजंतु सबं ठे जरे ॥
इति श्री मदुम्रगीतान्रह्मज्ञानयोगमते कचीरधर्मदाससवादे
विरइवरूपन्याख्यानो नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥
् अथ द्वादशोऽध्यायः
अजुन उवाच
कहँ अन सुव॒ अन्तर्ांमी । पूरण पुरूष अगम तुम स्वामी ॥
ज्ञान सृष्टि भक्ति अधिकाईं । नि्यंण सथणमे को अधिकाई ॥
यह संशय उपजे जिव मोरा । कृषा करो तुम करौ निहोरा ॥
अजन जो पेड परभा । सो अब प्रकट बखानौ दो ॥
ज्ञानी अधिक करे जो ज्ञाना । निशि वासर रदे ज्ञान समाना ॥
भक्ति करे जो मन चित खाई । निस दिन समिर इम कर भाई ॥
बहुत भांति के सेवा रावे । भेम मग्न मेरो यश गावे॥
( ऽ ) - सोधस्ागर्
खख सपति सुत भवन न भावै । काम कोध मद लोभ बहाव ॥
रेखा भक्त मेरा मन भवे । मोक्ष मुक्ति परम पद् पावे ॥
ज्ञानते अधिकं सक्ति दै भाई | निसदिन मोमे रहा समाई ॥
निथैण सगुण है रूप हमारा । वह निष्प यह खेर पसारा ॥
नियेण ब्रह्म सकर वट माहीं । सगुन शूप मारो आदीं ॥
बहुत साधु निथैण कह धावै | कमं धमं ठे दरि बहावै॥
निगण भक्ति बहुत अति भारी । कोई कोई बिररे दै ब्रतधारी ॥
छंँडे इद्री तन मनकमौ । मनसा कबरी जाई न भमा ॥
पच पचीसो को परमोधे । अभ्यन्तरं आतमको शोधे ॥
संकल्प विकल्प जब मनसे रै । काट कटेश नाता कर ट्ट ॥
सदा नाम जो रहै ख्वलीना । सो साधू पुनि ब्रह्महि चीन्हा ॥
पारब्रह्म दै अरुख अपारा । दाथ पाड नरि देह संवारा ॥
क्षर अक्षर कबही नहिं होई । पूरण बह्म व्यापकं है सोई ॥
अलख रूप सदा अविनाशी । रहित वित अवित उदासी ॥
एसा ब्रह्म जो रहित अकेला । सो साधू दै अविगति मेला ॥
पसे निथेण भक्त पियारे। तिन अपना निज कारज सारे॥
ताते कठिन भक्ति यह भारी । सथुण भक्ति है मोहि पियारी ॥
शुचि सयम एकादशि करई । मन बच कमे मोहि चित धरई ॥
अपणके सब प्रथुके नामा । सुफर होइ सब पूरण कामा ॥
सदा सवदा मो कदं ध्यावे । मोक्ष ञुक्तिमादीं फर पावे ॥
ओर सेवा सुमिरण जो करई । निशि दिन मोक चैत रहई॥
ध्यान धरे जो श्याम सशूपा । मोर मुकुट शिर बनो अनूषा ॥
पीत वसन वबेजती माला । कानन कडरु नैन रसाला ॥
हसी भांति ध्यान जो करहं। सो साधू भवसागर तरईं ॥
ए अर्जन मोदि सब विधि भावे । भक्ति करै मेरो यश गावै ॥
उग्रगीता (४१)
हम तो पेम प्रीति के भ्रूखे। साश्रु सत कवी नहि दूखे ॥
हमरी आज्ञा साधु जो धवे महा पदारथ मोक्ष सो पवे॥
जो तुम सो कदु भक्ति न होई । मानह मोर कहा निज सोई ॥
क्ष्री धमं न छोडियं भाई । एहिते तुम पुनि परह चो जाई॥
धनुष बाण तुम रेह उठाई । थुद्ध करहु तुम अर्जन जाई ॥
मनम मोह कष नदि कीजे कारण करतां चित दीजे ॥
जो त॒म युद्ध जीतिके आवौ । पदवी अरर परम पद पावौ।
द्वादश अध्याय भक्ति जो भाई । कृष्ण बखाना यह अध्याई।॥
कबीर उवाच
कहै कबीर धमनि हितकारी । भक्ति केहेउजो कृष्ण खरारी॥
निरयण भक्ति सत्य है आदी । सगुण भक्ति जन्य न वादी॥
हम अगम बखानी एसी । करे विवेकं विचारे तैस्ी ॥
निेण सय॒ण दोउ उर स्चेखा । बूञ्चेगा कोह संत सहैखा॥
क्षर अक्षर माया है भाई । निरअक्षर सद्रक् सशु्धाई ॥
ताकर भेद न काहू पाया । मरूरख धरि २जन्मगवाया।
सदृश शरण जीव जो अवे । काल फांसते जिव शुक्ते ॥
छन्द-निशुण सगुण दोउ छंडौ संधि सदगुङ चित धरो ।
सार शब्द् अपार अविगति क्षर अक्षर निर अक्षरो ॥
भेद ब्रूञ्चो अगम गमि करि कछ न सशो घट रहो)
सोई दंसा अमी पीवे पुरूष को दशेन ल्दो।
सोरग-सोई भक्ति निज सार, जेहिते पुरूषटहि परशिहो ॥
बहु विधि कहौं पुकारि भक्ति दीन दरश नहीं।
इति श्रीमदुमगी ताब्रहज्ञानयोगमते कवीरधमेदाससंवादे भक्ति-
योगव्याख्यानो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥।
६ ७२) | योधसागर
अथ अयोदशोऽध्यायः
| श्रीकृष्ण उवाच
अजन सों बोरे गोपाखा । निर ज्ञान सनौ यहि काला॥
माया ऋय सदा सयोगा। माया सग जीव पुनि भोगा ॥
तीनिड शण समायाते भयऊ । रजगुण तमगुण सतगुण भयउ॥
रजगण ब्रह्मा सशि पसारा । सतगुण पोषण विष्णु विचारा॥
तमोगुण रुद्र घोरे सोई । तीनिडउ पुज माया के होहं॥
पृथ्वी तेज वायु आकाशा । जल मिली षां च तततव प्रकाशा॥
दश इद्री कन्दो बैधाना। कमे पांच २ दै ज्ञाना ॥
मन बुद्धि चित अदेकार जो कीन्हा। इच्छा दोह यक धीरज चन्डा
दुख सुख क्ष जो कीन्हा माया । क्षेज्ञ पुरूष अविगति समाया॥
क्षेत्र देद क्षजज्ञ जिव होई । चेतन जीव अचेत समोह ॥
देह धरेते जिव दुख पावे ।माया जड़ कड शोक न आवे॥
आदि अनादि बह्म ओ माया । कारण सृष्टि धरे द भाया ॥
जैसे वृक्ष २ की छाया। वृक्ष विना छाया निं माया॥
एसे ब्रह्म सदा यक सगा । कारण सृष्टि रच्यो अङ्गा ॥
अजन ग्यापक जीवदहि जानो । अतो न न्यारो तह्न पिछानो॥
जीवातम माया भयो अगा । परमातम देखह सब संगा ॥
पारज्ह्म सो र्पति न होड । हाथ षाव इंद्री नहिं कोहं ॥
सर्वन्द्री जाके चहँ ओरा । जहां तहां परकर सब ठोरां ॥ `
नैन चह दिशि देसे सोई । कानन सर्वं यण सुने है जो॥
मुख सकरौ जो खाय खवावै । पाव पवनते अधिक जो धावे॥
हाथ रसे जो रच संसारा । नासा सकट वास विस्तारा ॥
जो किये तौ सकलो सोई । नाकं होई तौ कड् न होई ॥
जाके कोई पुण्य न पापा । अल्ख रूप सो आपे आपा ॥
उग्रगीता ( ४३ )
ठेसे परब्रह्म पहिचानौ । ताकी महिमा वेद बखानौ ॥
जो कोह साधू साधन करहं। इद्री त्यागे यण परिहर ॥
काम कोध मद लोभ न आवै। तंतु ग्रकृति ठे दरि बहावै॥
माया रहित ब्म रै सोई। ताको आवागमन न होई ॥
माया लिप्त रहै संसारी । लोभ मोहमे भूरे भारी ॥
कैसहु नदीं बह्म कर्द ब्ञ्धे। अंध नयन दये नहिं सूञचे ॥
सुख संपति हित चितसो गईं । ता परताप नकं सो परईं॥
सूकर श्वान जन्म सो धरई । माया छीन सदा सो करई ॥
चौरासी कर्म जेहि गुण होई । निष्कर्महि जानै नहिं कों ॥
आतम परमातम नहि जानें । परब्रह्म मन कबर न अनि ॥
रहत समीप सदा सुख सोहं । न्यारा कबदीं नारि विड ॥
जैसे सूर्य्य जो ररै अकासा । एेसे क्षे कषेजज्ञ दै वासा ॥
कर्मं छिप्त जिव नाम धराया । पारब्रह्म सयोग बनाया ॥
माया बिना ब्रह्म जो होई । पारब्रह्म पुनि किये सोईं॥
आपुन आपा खोह भुखाना । माया सग सदा सुख माना ॥
ता कारण अम चौरासी । फिरि २ भवस्रागरके वासी ॥
ताते निशैण भक्ति न दोई। सगुण भाव बतायो सोई ॥
केम करियं करि निमंङ् होई । एेसो तारो सब नर खोई ॥
मन वच कर्म मोहि चित राखे । मेरो ध्यान सदा अभिरापे ॥
यहि प्रकार नर मोक गावै । सुख संपति धन लक्ष्मी अवि ॥
ब्रह्म यज्ञ अदश अध्याई । क्षे कषेजज्ञहि वरणि सुनाई ॥
कवीर उवाच |
कहै करवीर सुनो धर्मदासा। पएेसाभेद सो कार प्रकाशा ॥
करि २ नि्ेण सगुणे द्याव । पारज्रह्मते दरि _ बहावै ॥
कह कहौ करैकगि गोहरावौं । अपि मारग कैसे पावो ॥
( ७४७ ) सोधसागर
दिवसहि खोक न सञ्च भाई । सुरस्यहि कैसे दूषण राई ॥
ज्ञान अपार करउ परकाशा । जेसे सुरज जोति अकाशा ॥
चहुंदिशि जो उज्यारा आदी । नैन विना अधियारा तादी ॥
ज्ञान रषि होई नरि सूच । सतशुङ् भारग कैसे बञचै॥
छन्द- ब्रह्य ज्ञान कडि २ सुनाव बहुरि आन कय सो ।
आपकोही स्थापि बहू विधि सब जीव राख भम सो॥
कमं घेहि भम त्यागे बञ्चि खतशुरू भेदको ।
अगम मारग वेदते जो बूञ्ि वेद निषेद को ॥
सोरठा-एेसो मतो अपार, वेद पार पावै नदीं ।
पुरूष शब्द् नीनार, पुष्य बास जैसे रहे ॥
इति श्रोमदुम्रगोतानब््मज्ञानयोगमते कबीरधर्मदाससवादे
्षतरकषत्रज्ञनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
अथ चतुदशोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच
बोरे कृष्ण भक्त-दितकारी । अर्जन सो अस वचनं उचारी ॥
आगे बहुत ज्ञान समञ्चाया । पै अब अगम करो तुम दाया ॥
जोन ज्ञान सुर निं पहिचानै । महिमा चारो वेद बखान ॥
अब तुम इदया धरउ छिपाई । एसो ज्ञान नरि प्रकरे भाई ॥
प्रथम तत्तव महि पुरुष सवारा । प्रकृति तत्त्व तेहिमे अवुसारा ॥
कमे बध महि तत्वह रइं । कमे विधी बेधन सो कदु ॥
सब उत्पति मरि तत्त्वते होई । प्रख्य काल सब ताहि समोई ॥
आदि आनादिते मदि चखिओआई। काहू जाकी अन्त न पाई ॥
महि तच्व रूप ब्रह्मकी इच्छा । माया बह्म समीप समीक्षा ॥
ताति तीनिर ण जो भयऊ । सतरज तमशुण उतपन कियञ॥
ताके लक्षण करौं बखाना । तीनउ व्यापकं सकर जहाना ॥
उग्रगीता ( ४९ )
प्रथमे सतशण सत्ते जानौ । शीर खाज सन्तन हित मानौ ॥
प्रथुके सुमिरण रहै समाई । भक्ति भाव सन्तन सुख दाइ ॥
शुचि संयम स्नान जो करई । जप तप दान पुण्य मन धरई ॥
निशिदिन चित रहै स्थिर भाई । सत्य संतोष जो सदा रदाई ॥
यह् लक्षण सत्वयुण जो जाना । ताक गति संक्षेप बखाना ॥
एेसी माति कांच जो होई । स्वर्गं लोक सुख युक्ते सोई ॥
बहत भोति सो सदा अनन्दा । सत्वगुण विष्णुभाव गोविदा॥
रजोगुण ब्रह्मा भय उतपानी । भ्रूषण भोग खदा ङ्चि मानी ॥
बहत भांति के वस्तर भवे! घोडा हाथी रञ्च बद्व ॥
बहुत ॒दामके चाहै गाटीं । बुद्धि फिरै भक्तन सा नारी ॥
जहां तहां प मेरी बोठे। सुख संपति कह धांवा डङे ॥
सुखसपति कड काम न अविं । दरिषिन भूरख जन्य गवा ॥
यह लक्षण रजयुणके भाई । अन्तकाल मध्यम गति षां ॥
तमोगुण रद्र धरो जो देदी। काम कोधके सदा सखनेदी॥
निशिवासर ररै अहंख्पराना । आपन सम काहू नहिं जाना ॥
कोधदि ल्थिये करे सब कर्मा । भीतर रोख उपर तके प्रेमा ॥
देवि देवता बहत मनव । अन्त समय कोई काम न अविं
आलस निद्रा वसे शरीरा । काहूकी नरि ग्यापे पीरा॥
तमोशुण लक्षण यह व्यवहारा । अन्त समय बहु करे पुकारा ॥
यमके दूत आस बड़ देही । गति निकृष्रमे बासा खेदी ॥
नकं बास बासा रेडं। योनि अघोर सदा भरमेईं ॥
तीनौ यण बरते सब अंगा । पलपल छिन छिन तीनो रंगा॥
तीनौ शण रहै देह समाई । ता कारण भरयैं सब भाई ॥
जिन साधुनं गुण व्यापे नाहीं । सोतौो अवं इमरे पाहीं ॥
तीनउ गुणते न्यारा खेरे। ज्ञानेन्द्री छे मनहि सकेठे ॥
ठेसा साधु भुक्ति गति पावे । आवागमनकी पीर मिटवे॥
( ७६ ) बोधसागर
अजेन उवाच.
करै अजेन तुम ॒सुनह् थुवारा । गुण तीनो कस रोई निनारा ॥
करनी रहनिते साथ सो रहईं । केसे इनते न्यारा कईं ॥
इन बिन कमे कद्र नरि दों । केसे के निष्कर्मीं सोहं ॥
श्रीकृष्ण उवाच `
कं कृष्ण पूछे तुम नीका । मेरौ सशय सकलो जीका ॥
तीनो गुणै नकेकी खानी । पै सत्व गुणते नर उतपानी ॥
ताते सत्वगुण अधिक महातम । करे भक्ति चीन्हे परमातम ॥
जो सत्व गणम बास करई । इच्छा फर मनसे नरि धरहईं ॥
दुख सुख दोऊ एकं समाना ।.मला ब्रा कड मनहिं न आना॥
` मित्र शच्च कोड दृष्टि न आवे । सुत ओ अरि दोउएक सभावे ॥
पाप पुण्य की करे न आसा । निशिवासर हरिचरण निवासा॥
रहै उदास सदा जग मादी । शीत् उष्ण व्याप नदिं ताहीं ॥
आनद रूप सरूप है जादीं । जगके सुख दुख व्याप नादीं ॥
देहीको आपन नरि जाने । बह्म हप न्यारा पहिचानै ॥
खत॒दाराकी कौन ` चर्व । जगके बन्धन सब शक्ताव ॥
फेसी रदनि जो साधू होई । व्यापकं गतिको पावै सों ॥
यह तो ज्ञान अगम में कटिया । अञ्जन राखो मन वितगदहिया॥
चतुदंशाध्याय केड जो कृष्णा । चिशुण विभाग कहे सपूर्णा॥
- ` ए. कीर उवाच
. कहै कबीर सुनौ मम , पासा । सत्य पुरूष चीन्हौं धर्मदासा॥
जाते पुरुष प्रकृति जो भयऊ । माया ब्रह्म भाव दोउ ठ्य ॥
महि तत्व कारण जग निमाया । तीनिडउ गुण षग तेहि भाया॥ `
ब्रह्मा विष्णु मदेश्र नामा । इनते जगत रच्यो सब सामा॥
इनते पुनि अवतार . अनेका । जन्म धरे युग युग फिरगा॥
उग्रगीता ८ ४७ )
ज्ञान सत्य यह कृष्ण सुनाया । पे फिरिके आपा ठहराया ॥
आदि पुरूषते परे जो दूरी। कैषे पहँचै लोकं इजूरी॥
यह तौ आपा कह टठदहरवे । बह्मज्ञान कहि कहि सथुञ्चावे॥
जो नहिं थापे आपा भाई । कैसे चङे तिहुखोकं बड़ाई ॥
राजनीति सब आप भिवे) जाते देश न उजरन पवि ॥
पुरूष भेद जो पावह लोह । तौ तीनि युर उजर होई ॥
तेहि कारण तीनिडउ गुण फंदा । जीव जंतु सब इनक बधा ॥
विष्णुरूप सत्वगुण जो कहिया । सत्वशणसोकारजनिदिया।
अपने मुख जो कृष्ण सुनाया । तबहु न सूरख मोहि पतियाया॥
अक्रूरी जीव मोहि पतिआई। ईस होड सत्य लोकं सिधाई ॥
छंद्-पुरूषते प्रकटो निर्न बीज माया सगदं ।
सेवा बसि तिर्हलोक पायड करण कारण सो भई ॥
करे करावे मन जो भवे थापि आया आपको ¦
पुरूष सो जिव रहे न्यारे लागि इनके आपको ॥
सोरग-सुनु धर्मदास सुजान, सतगुङ्् विना न दर्शई |
गहो शब्द् निवान, जेहिते पुरूष परसि हो ॥
इति श्रीमदुभ्रगीतान्रहमज्ञानयोगमते कवीरधमदाससंवादे त्रिगुण-
~“ ` विभागयोगो नाम चतुदेश्चोऽध्यायः ॥ १४ ॥
अथ पञ्चदशोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच
अर्जन सो बोरे अस बानी । कृष्ण सकूपी चतुर विज्ञानी ॥
जिशुणविभागयोग कदो ज्ञाना । अब पुरूषोत्तम योग बखाना ॥
वृक्ष भाव है यह. संसारा । उर्ध्वं मूर अध है तेहि डारा॥
उलटा ब्रक्ष नीचे दै शाखा । यह संसार वृक्ष सम भाषा ॥
पातहि पात तरु -डारहि डारा । फल रागा विन फूल रसाना ॥
( ८ ) बोधस्ागर
असन उवाच
अङेन पूछहि सुद ॒भगवाना । वृक्षके वर्णन करौ बखाना ॥
कै कृष्ण सुनु कुतिकुमारा । वृक्ष शरीर रच्यो व्यवहारा ॥
ऊपर सूल तर डार बताऊ । शाख पञ्च सब तोहि सुना ॥
मूर वृक्ष दै पुरूष अगोचर । शाखा बह्मा विष्णु महेश्वर ॥
ससारी यहि गुणते अवै । बरन्द्बन्द फिरि २ उपजावे॥
साधु सन्तको आतम ज्ञानी । प्रथु पूरणकी गति परहिचानी ॥
आवागमन तिन्ह जो नारीं । रै समीप पुर्षके पादीं ॥
कहँ अजेन तुम वृक्ष बखाना । सो तौ आवागमन समाना ॥
साधुको आवागमन न होई । कैसे ब्रक्ष न जिं सोई॥
अब तुम सुनौ हौ चतुर सुजाना । निमे तोहि स॒नावौ ज्ञाना ॥
निष्कामी इच्छा नहिं जादी । असग अच्च छे कारे तादी ॥
असग अख सब वृक्षहि काटा । जरा मरणको छटौ घाटा ॥
सो साधू मन चलन न पावे । बाहेर जाते भीतर ल्याे॥
जेसे पुदधुप बास दै भाई। पवन सषूपी ठेह समाई॥
एसे इन्द्री जिव रहै बासा। मन दौरे इद्िन के पासा॥
इन्द्र साथ महा सुख माने । अंतकाल रह तेहि पछिताने ॥
इन्द्रिय वश जो मन नरि होई । पूरण ब्रह्मम रहै समोई ॥
मन इन्द्र सो रहै निनारा। सोई पावें मुक्तिके द्वारा ॥
एसा साधू कोहं माई। कोटिन मध्ये एकं. रहाई ॥
अञ्जन कहै परमपद कैसा । कहे कृष्ण सुनु अर्जन एेसां ॥
कोटिन सस्यं एकं सम होई । कोटिन चन्द्र पूरण है सोई ॥
तबौ न ब्रूजौ ब्रह्म उजियारा । पर्य दै अपरं पारा॥.
अर्यन कहै सनो प्रथु मेरे। म आधीना दास हौं तेरे ॥
उग्रगीता ( ४९)
जब नर नींद करै सुख सोवे। सुपुषति लिये मगन सो होषै॥
ओर जब प्रलय होड संसारा । रै रीन सब बह्म बञ्ञारा ॥
ए गतिभक्तिते भुक्ति कवि । पे काडिते अवै जवै॥
सुन॒ अर्जन मँ करौं बखानी । मेद न जा नर अज्ञानी ॥
संशय लीन मगन होह सोषै तते फिर २ सथय होत ॥
प्रलय घात जिव ब्रह्म समाई । मनोकामनाति फिरि आई ॥
जेसे कामना होवै रीना । तैसे कामना हवै बीना ॥
ताते आवागमन न द्रटे। फिरि२जन्मर योनि धरि द्टै॥
जो चीन्दै अभ्यन्तर आतम । चेतन शप चिन्ह प्रमातम ॥
सबके अतर मंदी व्यापौ। करण करावनमैं ही आषौ॥
जेसे तिल्मे तेख राई । जेसे काष्ठमे अथि रहाई ॥
अभि षूपदो अत्र पचावौ । सब जीवनके मध्य रहावौ।
से व्यापक मे अभ्यन्तर । चारिउ भोजन करौं निरन्तर ॥
चारिउ भोजन सुनो स॒ुजाना । जो अुखमें सब आभि समाना)!
भक्षणमें एक भोजन भाई । डाठते चाभिर् सो खाई ॥
दूस्र भोजन कदावै सोई । परहित भात जो भोजन होई ॥
तीसर भोजन जो नाम काव । डा दांत ताहि नरि पावै ॥
सीरा सिरखन कटी कहावै । बिना दांतन रसना ठे जतै ॥
चौथा भोजन नाम जो किया । दांत खगाय रस चसे जहिया॥
यह सब भोजन भ दी कर । उदर सकरबिधि मे दी भरॐ॥
ब्रह्महूप अविनाशी मोरा । पूरण अश आहि यहि थोरा ॥
क्षर अक्षर दोउ ब्रह्म स्वषूपा । क्षर बिन रहै अक्षर अनत्रूपा ॥
अक्षर पारब्रह्म सो आही । दुख सुख कड व्यापे नरि तादी॥
ब्रह्मो निशि दिन खोजत रदं । ताकर वार पार नदिं लदईं ॥
जेन यती संन्यासी ढे । बहत अुडावै बहते अडे॥
वाता
(द) बोधसागर
ताक्र वार पार नहि पावे। खोजत २ जन्म गँवा ॥
योगी जगम ओर दरबेशा । बह विधि रूप बनावे वेशा ॥
अक्षर गति कोइ पार न पावै । प्रथु पूरण सब मा रहावे ॥
जो खुभिरे प्रभु परेम र्गावे । ताकह काल क्रब्हँ नरि पावै ॥
ताको अवागमन नशाईं। ना कहं आवे ना कहं जां ॥
अजेन यह पुरूषोत्तम योगा । अध्याय पेचदश नाम संयोगा॥
कृचचीर उव।च
कहे कबीर धमदास सुजाना । ब्रह्मज्ञान यह कृष्ण बखाना ॥
जद्मज्ञान एसा दै सोहं। उ ज्ञान जानै नहिं कों ॥
जिन जाना तिन दी पहिचाना। जेस ्गैगे सपना जाना ॥
- शुंगा शन जो गंगा जानी । अभिअन्तर सो रे पडिचानी ॥
मै तोहि प्रगे कौं बखानी । गुप्त शैन कोड गगे जानी ॥
अगम अपार शब्द निर्ारा । बृञ्च आदि अन्त सुख सारा ॥
नदि बोरी भाषा महै आवै । नहीं रूप कदु वरणि सुनते ॥
हाथ न पाव सुति नरि जके । कटो केसे कोउ षावि ताके ॥
इष्टि अदृष्टि न देखन अवे । सतथुरू अवर न वरणं रुखावे॥।
छन्द्-व्रण अवरण भाव ब्रह्य क्षर अक्षरको भेद जो ।
क्षर विनशित अक्षर सुस्थित अथ के यह मेद जो ॥
अक्षर माहि नि द्रशय शुरू भेद लखाश्या ।
कोटि वेद् पुराण वाचे सतश् भेद ल्खाइया ॥
सोरढा-अक्षर भेद रै सार बह विधि कदो पुकारिकै।
बूञचे बरूञ्जनिहार, आदि पुरूष शख शब्द है ॥
इति श्रीमदुभरगीतान्रह्मज्ञानयोगमते कवीरधमेदाससेवादे पुरुषो-
्मयोग व्याख्यानो नामपचद शोऽध्यायः ॥ १५ ।
उग्रगीता ( ५१)
अथ षोडशोऽध्यायः ^
श्रीभगवानुवाच
सुनो सत तुम कृतिकमारा । पुरूषोत्तम म कैं विचारा ॥
अब दुई योग मँ कदेडं बखानी । दैव आरी ताको मानी ॥
देव योग जो साधे प्राणी । देवकी शरण ठेइ पटिचानी॥
ताको लक्षण कहि सञुञ्चावौं । भिन्न भाव करि बरणि सनावौ॥
देव योग संपदा को वर्णक । ताको पूजि हो जो श्णक ॥
प्रथम अभय निभय होड रइडे । काहूकी कडु शंक न करइ ॥
सत॒ रसि अभ्यतर अपने ञ्जठ न व्याप कबहीं सपने ॥
ज्ञान योगते मन थिर राखे । दम शमके काया वें राखि ॥
दान पुण्य म चित अभिलाषे । योग युक्ति मैं बह विधि भावै ॥
नित्त नेम पटे गुर् मजा । ताते काया होड पवित्रा ॥
अरि ओं मित्र एक सम जाने । इच्छा काहूकी मन नरि आने॥
होड अक्रोध जो त्यागे हठको । शीतर शूप जो साधे चटको ॥
चुगली चारी दूरि बहावै। दया भाव चित माई समव॥
लव छिप्सन होई जिय जाके । कोमल वचन रहै सुख ताके ॥
रोक लाज तजि साधु सुभावे । चपट बुद्धि कह दूरि बहावै ॥
तेज तजे सक्तियाकी आसा । क्षमावंत हो रहे उदासा ॥
धीरज मनम सदा समाई । शुचि संयम करि युक्ति रहाई॥।
होइ अद्रोह दोह नहि अवे। सदा देव सपद ` मन भावे ॥
मन इच्छा पूजे सब कामा। देव कर्म ताकर है नामा ॥
असुरी सषदाक्रो वणन.
अब आसुरी को करं बखाना । इदयमे नहीं ज्ञान समाना ॥
देभ करी करि खोक देखावे । अंतर्गत नहि बह्म समवै ॥
दन्य देखि पएूंटै अधिकारी निशिदिन ख्वरिप्साचितधारी॥
( ५२ ) चोधसागर
करि अभिमान आपको जाने । ओौर न दूसर चितम आन ॥
कोष सदा अभि अन्तर राखे । बह कटोर कोमल नहि भासे॥
रहै अज्ञान ज्ञान नरि भावे। जहां ज्ञान तह रोष उठा ॥
प्रवृत्ति निषृत्ति पुण्य ओ पापा । कर्म घर्मं करि थाप आपा ॥
शोच क्रिया मनि नरि अवे । निराचारम मन चित लै ॥
जक्तके अस्त सदा सुख माने । जग कर्ताको कबहि न माने ॥
यई व्यवहार आसुरी आही । कबहु न सुमिरे प्रभु जो तारी॥
जीव सदा दुख पावै । नरकं वास मे जाइ समवि ॥
नकं द्वार तीनि दै भाईं। जेहिते जीव सदा भर्माई ॥
तीन द्वार नकेको वर्णन
प्रथम द्वार जो काम बनावा। काम द्वारे चित्त र्गावा ॥
कामविषय निशिदिन रपटाना । नकं॑वासमे जाइ समाना ॥
दस्र द्वार कोध कंहावै। जाके कोध सदा चित भावै ॥
ताते नकंवास मे जाई। उपजत विनशत बह ख पाई॥
तीसर द्वार खोभ है भाई । जेहिते जीव सदा भर्माई॥
लोभ लागि जो. जन्म गर्वेवि । वासा नकं सदा सो पावै ॥
नकं द्वार यह तीन बखाना । मूरख इनमें रहै समाना ॥
देव आसुरी संपद नामा ।अध्याय षोडशो कटेड बखाना॥
कचीर उवाच
कटै कवीर सुबु संत विवेकी । दोउ संपदा कदे विशेखी ॥
पाप पुण्य है दोऊ बेरी। एकं रोहे एकं कंचन केरी ॥
वैरी पाय एक दुख रोई । कंचन ते सुख अधिकं न सोई॥
यह संसार फंद यम केरा । केसे छट यम उर डरा ॥
कमं कर कतां न_ काव । पाप पुण्य शिर भार रेयावे ॥
सत॒ सतोष दियेमे धरई । सदज सषूपी भवजल तरं ॥ .
उग्रगीता ( ९३ )
साधु संत सेवा चित राख । सदृशुङ् शब्द अमीरस चाखे॥
चाखत अमी अभर सो होई ।अजर अमर सत्यरोकं समोई॥
छन्द-धर्मदास तुम घनो चित दै कम न कमे दासको ।
पाप पुण्य बंधा रहैजो टन चहि कंद सो॥
सुवा नछिनी पकरि अरञ्चो आपनी मति मद सो)
सोरठा-सषदा अहेरी काल, पाप पुण्य फंदा रचो ।
सद्शुङू दीन दयाल) कम काटि शक्ता करो ॥
इति श्रीमदुभगीतात्रबमज्ञानयोगमते कवीरधर्मदाससधादे देवा-
सुरसपदातयाख्यानो नाम षोडद्योऽध्यायः ।। १६॥।।
अथ सप्तदशोऽध्यायः
अर्जन उवाच
अय॑न केहेड सनौ यदुराईं । कड मोरे जिय संशय आईं ॥
सो अब प्रगट कहौ भगवाना । आगे सुक्ष्म सना चै काना ॥
शाश्च धमं छाडि जिन दीन्हा । तिनकी गति त॒म कैसे कीन्हा॥
हप सखूप . कोन है ताहीं । सत रज तमशुण ये को आदी॥
श्रीभगवानुषाच
कै कृष्ण सुनु कुंतिकुमारा । भटी बात कर कीन्ह विचारा॥
जग रचना शाघ्न मत आही । तेहि मारग सब लागे जारी ॥
शाञ्च नवेद पुराण न छोडे। सो तौ नकवास में बोडे ॥
जब लगि ब्रह्मज्ञान नहि अवे। तब रखगि शाञ्च धर्मं मन टावे॥
जब आवे याको ब्ह्ज्ञाना । शास्तर वेद कितेव देराना ॥
ता कह कमं न रागे भाईं। निशि दिनि रहे नाम लखौखई ॥ `
जब आतम परमातम जाने । कर्मं धर्मते मे निरवाने॥
५ ५8 ) चोधसागर
सोक्ष सरूपौ आपे रोई । ना फिर जन्मे मरे न सोई ॥
फेसी भांति जो साधु रहाईं। ना कँ आवे ना कं जाई ॥
अब तीनो गुण वनिं सुनावों । सकर कामना तोर भिटावँ॥
| त्रिगुणको वणन
सत रज तमशुण तीनि बखाना । तीनते तीनि २ ओ जाना ॥
पूजा तीनि अब करौं बखानी । पूज सुर नर शुनि ओ ज्ञानी ॥
सात्त्विकी देवा प्रजे भाई । राजस पूजँ यक्ष बनाई ॥
तामस भूत प्रत पूजावर्हि। नकंवास ठे सो शुक्तावर्दि॥
त्रिगुण अहारको वणेन .
अहार तीन अब सुनके भाई । सब षत रज तम जो आई॥
खीर खांड घृत ॒कंरे अषहारा । यह लक्षण सतश्ुण व्यवहारा॥
साथ सङूपी सदा सु चाखा । सन्तनको बहुविधि प्रतिषाखा॥
कृर्वा खहा लो तीक्षण । ये अहार राजस लक्षण ॥
दुख सुख ताहि जो व्यापे भाई । नाना व्यञ्जन करे बनाई ॥
तमशणके आहार बखाना । भह रसोई पहर सेराना ॥
भोजन करि २ लोक सिधावे । स्वाद अनेक ररै ना षै ॥
होइ उचिष्ठ अत्र अब भाई! तामसि तामस करि २ खाई॥
त्रिगुण यज्ञ वणेन |
द्रभ्य यज्ञ॒ प्रथम दै भाईं। बिन फल इच्छा यज्ञ कराई ॥
प्रभुके सुमिरन रहै समाई । ताकी बुद्धि सात्विकी भाई ॥
राजस यज्ञ करे फल चाह । दंभ करे यश कजिम समार ॥
यज्ञ विधि निह तामसी होई । अन चने बिन केरे रसोई ॥
जैसे तैसे यज्ञ॒ केरे पूरा । दक्षिना देत बहुत कै पूरा ॥
खरच करे ओ कट्पे भाई । ताते नकं बास चङि जाई ॥
उग्रगीता (५९ )
त्रि्ण तपस्या वर्णन
तनसो देवता प्र॒जा रवे । गरू ओर ज्ञानी पूज युजते ॥
शुचि संयम जो कोमल रहई । ताकर कार पला नहिं गई ॥
बरह्मचय॑ पुति आनि जवावे । रटै अनिच्छा सत्य न खोवै ॥
यह तन पूजा करे सुजाना । अङ् गोविन्द को धरै ध्याना
सच्विकं मन तप कदं बुञ्चाइई । इन्द्री सबे हाथ जेहि आई ॥
प्रथमे प्रसन्न जो राखे। मौन रहै अघ्रत रसं चाखे ॥
आतम निग्रह करे स॒ुजाना । अन्तर्भाव धा निवाना ॥
तपस्या मनकी कदी सुनाया । सुधा सह्पी सतञ्रण भाया ॥
साचिकी चन तपस्या बणंन
वचन तपस्या कंरों बखाना । यह तप अुखते भया पवीना ॥
अभय वाक्य ताक भइ नाहीं । सत्ति सरोत्तर जस अख बादीं ॥
प्रिय हित साधु वचन सो कदी । पाठ करी करि जन्म सधरही ॥
एते वचन तपस्या होईं। सुखते करे करावै सोह ॥
तीनि तपस्या सतयुण भावा । सो तौ वनैकं वनिं सुनावा ॥
रजस तपस्या अ परकारा। ताक अब्र करो प्रचार ॥
तीनि तपस्या राजस भाई । तनसों तपकरि रोकं देखाई ॥
मनसो कपट कब्र नरि टे । वचन सदा सुख बोरे ञ्जे ॥
तीनि तपस्या राजस होई । एेसी भांतिकरे जो लोई॥
तामस तप रै तीन प्रकारा । श्चुम अश्चुभकड्ुनारि विचारा॥
हठ. करि तपसो तनको गारे । मनमें कोध सदा जो धरे ॥
वचन कठोर बहत सो बो । तामस तापं अहं छिये डोठै ॥
तीन तपस्या अगण सुभावा । सो तौ वर्नकं वनिं स॒नावा ॥.
त्रिगुण दानका वणन
तीनि प्रकार दान अब वर्नं । उत्तम सेवा अद्मि चीन्हों॥
( ५६ `) चोधसागर
अन आभरत को देइ जो दाना । तीरथ उत्तम टौर न ॥
दान देह फर चारै नारीं । सात्त्विकं दान सो किये तादीं ॥
राजस दानका बणंन
जत अश्रेको दान जो देई। खाहा कारण सशय रई ॥
यर् तौ राजसको व्यवहारा । दान देइ चित कल्पे भारा ॥
तामस दानका वणन
तामस अश्चचिको देह जो दाना । नटवा वैश्या हित करि जाना ॥
ब्राह्मण देत कोध मन करई । इच्छा बहते फरको धरई ॥
यह लक्षण तामस कर होई । तीनि प्रकार दान है सोई॥
तीनि नाम त्रिगुणको वणन
तीनि नाम वर्णो मेँ बिशुणा । जाते सृष्टि होत है सशुना ॥
वह अतुतु हे मति सोई । तीनिडउ नाम एक सम होई ॥
निज महि मे भाषि सुनाया । ताको ममं न काहू पाया ॥
पाकं रसोई छरति जो दोह। वो अतत्र सति दै सोहं ॥
पातक छूति रहै नरि कोई । यह तौ म्र पविञ् कराई ॥
पावे प्रसाद् जो सकर जहाना । सुभिरे पावे षद निर्वाना ॥
सब कारज सुभिरे उ नामा । पूरण होड सकल विधि कामा॥
योग॒ सिद्धि सह अध्याई।सोतौ परण वाणि सुनाई ॥
कचीर उवाच
कहै कबीर सुनु धमनिराया । तीनिडउ शण वरते संसारा ॥
साधू कं कोड कमे न लागे । तन मनते इच्छा कह त्यागे ॥
कर्म करै कतां न कंावै। मनसो कुमारग जान न पावे ॥
मारग अगम साधुकर होई । कृष्ण अपने मुख भाषा सोई ॥
वेद पुराण पार नहिं पावे। जर्हवा साधू ध्यान लगाव ॥
वेद फिंतेब दोउ है फन्दा । यहि ते खागि रहै जग धन्धा॥
उग्रगीता ( ५७ >)
ज्ञानहि कहि २ कम॑ दटावै । यज्ञ दान फिरि जन्म धरावे ॥
हम तौ कहो अगोचर ज्ञाना । जते होड ईस नि्वाना ॥
छन्द-अगम अगोचर भेद सद्गु साधु रहै समाई कँ ।
हम हह सत्यलोक अवे दरस सद्र पाइ के ॥
पूरा गुङूजो पावईतौ मिटे यम फ़ंद् केो।
हेसको स॒क्ताइ यमसो मिरे अच्थुतार्नदको ॥
सोरठा-रेसा शब्द अवार, वार पार विचमेद को)
सत्य शब्द निर्धार, सद्र सोह बताश्या ॥
इति श्रौ मदुभगीतात्रहमज्ञानयोगमते कबीरधमेदाससंवादे योग-
सिद्धव्याख्यानो नाम स्तः ओोऽध्यायः ॥ १७ ॥
अथ अष्ादशोऽध्यायः
अजुन उवाच
अजन करै सुनो यदुनाथा। जो पँ सो कगौ सनाथा ॥
सन्यास कमं काहे सो कटिये । व्याग प सब वणेन चहिये ॥
संन्यासको वणन
सुबु महाबाहु म कहौ बखान् । कृ्मं नाश संन्यास समाना ॥
कमं ॑धमको मारग छडि । बह्म ध्यान अभ्यन्तर मांडे ॥
सब परपचते न्यारा शई । क्म संन्यास कहावे सोई ॥
त्यागरूप इणंन
त्याग रूप दै अगम अरेखा । कम करे नहिं आपु विशेखा ॥
निशि दिनि कमं धमं जो होई । रहे अछिपत रिप नटि होई ॥
अपनेको कता नरि जाने । फट ओौ फर मनहिनरिं आने॥
ताकर्दे त्याग कदहीये भाई । निशि दिन रहै नाम लौटाई ॥
(४-२, बोधसागर
सन्यास त्निपरार बणन
खंन्यास त्याग तीनि गति होई । अनिष्ट इष मिश्र गति सोई ॥
अनिष्ट नकेकी योनी भुक्ते । देव योनिको इष्ट सेयुक्ते ॥
मिश्र माङषकी देह जो पे । तीनों गति गीता बतलावे॥
ज्रिप्रक।र क्रिया वणन :
कहौ क्रिया तीनिहु सखुञ्चाई । ज्ञान कभ कतां जो आई ॥
ज्ञान क्रिया ज्िप्रकार
प्रथमे ज्ञान सुनौ वितलाई । ताकर लक्षण तीनि बताई ॥
जबही ज्ञान इदयमें अवि । सव त्यागि प्रथुको लवलावे ॥
सवं व्यापि जो ब्रह्महि जने । सास्तविकं लक्षण ज्ञान बखाने ॥
राजस लक्षण जाने प्रथु न्यारा न्यारा २ बह्म विचारा ॥
तामस लक्षण एकं टोरदहि जाने। मूरति प्रतिमा पजा उने ॥
ताहि एहै ठाकुर दै येरी। परम पुर्ूषते नाहि सनेरी ॥
जेहि देवा को जो कोई ध्यावे । तेहि देवहि उङ्कर ठहराव ॥
यह लक्षण तम गुण व्यवहारा । तामे वाख है नरक दुबारा ॥
कमं क्रिया त्रिप्रकार वर्णन
दोसर कमं लक्षण है तीनि । जानै कोड साधू परवीनी ॥
कमं करं फर चहैन ताको । पुत्र कलर असग सदाको ॥
राग द्वेष जाके नहि अवै । एतौ सत्वगुण कम सुभावै ॥
राजस कमं सुनावौं मीता। करि २ कर्मं कामना प्रीता ॥
कमे अधिकार आपु ना होई । फल वांछै मन राजस सोई ॥
तामस कमे सुनौ त॒म भाई । तप स्नान ओ जप लर जाई ॥
हठ करि कम करे बह भाई । दुख सुख अह निशि लहै सदाई॥
ता प्रकार कोह बह होई । तामस नकं वासं है सोई ॥
कतां रक्ष्णत्रे प्रकार `.
तीसर कर्ता टप बखानौ । कारण करण करे सोई जानौं ॥
उग्रगीता { ५९ )
सात्त्विक कर्ता जो कद करई । आबु मेटि प्रभुको चित धरई ॥
आषुको कर्तां नहि जानै । कतां पूरण पुरूष बंखने ॥
एेसी रहनि रहै जो दासा । नकं स्व्ेकी ताहि न आसा ॥
सो सतव गुण लक्षण है भाई । जते किये साधु सुभाई ॥
राजस करतां आपुको जाने । दागहित सुत आपको माने ॥
बहुत हषं शोक तेहि भवै! थोर केरे बहते फर धवे ॥
तामस कतां लक्षण भाई आलक्ष निद्रा बहुत रडहई ॥
आपु अयोग चाह पुषरूषारथ ! हं अधीन नि चाहै स्वारथ ॥
कारज होऽ गये अवं जको | दिनि ओ राति तावै ताको ॥
भोर होइ सो दिविस बतावै। तामसकर यह सदा खभवि ॥
त्रिप्रकार बुद्धिको बणंन
तीनि प्रकार बुद्धिरै भाई । प्रथमे सुमिरन यै उहराई॥
निव॒त्ति परवृत्तिजो मारग जाने । करे विचार धमं पहिचान ॥
काज अकाज न बंध न मोक्षण । सो साध्वी है सात्विकं लशक्षण्॥ `
दुसरी बुदि तो धमं अधमां । काज अकाज जाने सब पमौ॥
राजस बुद्धि लक्षण यह भाई । मनम सहा विचार कराई ॥
तामसबुद्धि अब सुनह् सुजाना। कोध लिये मन विषय सुजाना॥
धमंहि सो अधरम करि जाने । करे अधमं धमं पदिचनिं ॥
ता अधरम कह धमं जो कईं । सदा तामसी बहु दुख सई ॥
त्रिप्रकार धीरज
सात्त्विक धीरज वरणि खना । संशय तोर जो सकल भिटाख॥
पांच तत्तव मन सयम साधे । सकल कामना यह अवराधे ॥
इद्री सकर एकं सम कराई । सास्विकं एेसो धीर धरा ॥
राजस धीरज दे परसंगा। पारस लागे धर्म उमंगा ॥
कमं करै संगति ते सोई। ओ फर चारै राजस होई ॥
( ६० ) सोधसागर
यीरज तामस सपना देखे । भय अभय सकल मे पेखे ॥
शोक विषाद बसे मन मारीं । तामस वीरज लक्षण आदीं ॥
त्रिप्रकार सुख वणेन
अब सुख रक्षण कहौं जो सोई। तीनि भांति सुख ग्यापक दोई॥
प्रथमटि साच्विक सुख सुद भाई। सुख कहँ बिषके जाने सोई ॥
सुखसो कवरी हेत न जाने । विष समान ताकह पटिचाने ॥
अत समय विषसो सुख होई ! सात्विकं लक्षण बरनों सोई ॥
दुसर न्द्री सख संयोगा । परनारी सों केरे जो भोगा ॥
यही प्रकार महा सुख करर । सो सुखी अंत जो विषसो दोई॥
राजस सुख लक्षण यह् भाई । दुख बहुतक् व्याप जाई ॥
तीसर तामस सुखहि बखानो । विवेकं विचार हदय नहिं अनो॥
आलस निद्रा बह सुख मने । सपने कबरीं रास न जाने ॥
तामस सुख यदह किये भाई । जाते नके खदा भमांई ॥
वणका वणन
चारि व्ण अब्र वर्णो भाई । तिनके ये गुण प्रगट सुनाई ॥
बराह्मण सत्वगुण रूप विराजे । कर्मं स्वभाव ताहि तन छाजे ॥
शम दम तव शच्या सो कर । ज्ञान विज्ञान सत्य मन धरई ॥
स्थिर मनमे कटोर तन दो । ब्राह्मण कमं स्वभाव जो सोई॥
क्षिय सत्त्वरज दु गुण धारी। श्रबीर दाता अधिकारी ॥
तीक्ष्ण धीरज बुद्धि दे जागी । युद्ध करतं कब नि भागी ॥
वेश्य राजसी कौं बुञ्चाईं । कृषी ग रक्षकं द भाईं ॥
वणिज व्योहार बहत ससारा । यह तौ लक्षण वणिजिभ्यवदारा॥
शुद्र वण सेवकाहं करदं । सेवक होई भवसागर तरईं ॥
सेवा फर है अगम अपारा । आवागमनते होई निनारा ॥
जो अभिमान तौ जन्म गवव । सेवा विना नहीं बनि अवि ॥
उग्रगीता (६१)
चारि वणको कर्म सुनाई । अन तोहि कँ सथ्ञ्ञाई ॥
जो कोइ अपने धर्मैहि चारै । प्रीति भाव सदा चित खाहै॥
भला जानि पर धर्मेन ठेह। आपन धर्मं छांड़ि नहिं देई ॥
निज कुट छांडि उच मन धरई। सो पुनि भवसागरमे परई ॥
लके कर्मं सदा सुख पते । नवनिधि लक्ष्मी ता चर आवै
ताते तोहि कौं सयुञ्ञाई । युद्ध करो तुम अर्जन भाई ॥
कहा हमार चित्त नहिं धरिदौ । इमरे के युध नहि करिहौ ॥
तौ अव कमं रेख उदि धावै । तोसो यद्ध अनेकं करावै ॥
तब तुम करौ युद्ध संयामा। करो मारि क्षबियके कामा ॥
तब तोहि रोख अधिक होइ भाई। इमरी परीति भंग होड जाई ॥
जो नीका सो करो सुजाना । ज्ञान अज्ञान सब करेड बखाना॥
यह गीता मँ कहि जो सुनावा । वै कषु मेद ओर स्ञावा ॥
गीता मता गुप्त ठे भाईं। चारि जनको कडि सज्ञाई॥
च।रि अधर्मको वर्मन
भक्तौ हीना तपसो दीना । सेवा षिना नदीं आधीना॥
निदा रूप सदासों रइई । तासो गीता कबह न कई ॥
तासो सगति कबहु न॒ कीजे । इच्छा प्रथुकी गहिके लीने ॥
पत ज्ञान ह . कथा पियारी । तहां केदो जरै होई हितकारी ॥
भक्तं साधु जहं हरि यश गवं । गीता कथा तहां अविं ॥
सुनत सुनावत बहु सुख होई । कोटिक अश्वमेध फर होई ॥
अञ॑न गीता तुम्डै सनावौं । ज्ञान कथा करि बह सञ्च ॥
मोह तम्डार शटि की नाहीं । सो ठम बोलो हमरे पादीं ॥
जो कड ॒तुम्दरे मनम होई । करो जाई तुम अञ्न सोई ॥
अन सनत देडवत कन्दा । विनय. भांति ते बह सुख दीन्डा॥
मोह मोरि सब दरि प्राने । वचन तुम्हार ज्ञान करि माने॥
अन्न लीन तब हाथ उठाई । महा कोप होई धष चडाई ॥
( £२) बोधस्रागर
अध्याय अगरह कहा बखानी । योग सन्यास नाम तेहि जानी॥
अखन गोता भयो समापति । जो कडु कदी आपुकमलापति॥
कचीर उवाच
कहे कबीर सुन धमनि रीता । तुम्हरे ख्ये बखानेडं गीता ॥
तुम तो भक्त जक्तते न्यारा । आवागमनके बीज तुम्हारा ॥
अब तुम परम भक्ति चितखावो। निशिदिनसतगुरूशब्द समावौ ॥
धमेदास बिनती इटि लाई । सुनि गीता सशय उपजाई ॥
गीता कही कृष्ण केहि कारण । अन उठे कुटम्ब संघारण ॥
ज्ञान सुने मति निर्मल होई । मित्र ओ दुष्ट एक सम होई ॥
ज्ञान सुने कड कोध न आवे । परम पुरूषते मन चितराते ॥
गोता कृष्ण जो कदेउ बखाना । ज्ञान सुनाई कोध मन आना ॥
कोधविना सो युद्ध न दोई। नक द्वार कृष्ण कहे सोई ॥
को किये अज्ञान कदावें । यह सब भेद मोहि सञरञ्चावे ॥
कृष्णमता कदि प्रकट देखा । ज्ञान सुने अज्ञान न आऊ ॥
कचीर उवाच
सुनि धमनि यह भेद है वेका । जानत नहीं राड ओ रका ॥
कृष्ण ठगौरी जक्त , लगाई । ताते मेद॒ न बर्लौ भाई ॥
यह् प्रपच कृष्णकर आदी । तीनिहु खोक सदा भमांई ॥
चाहे छ बल युद्धं करावै । अन कैसे धनष उट ॥
महामोह तेदि .रहा समाई । ओर भांति नहिं माने भाई ॥
छलहि मता किन्हो आपे सोई । ज्ञान सनाई मोह कद खोई ॥
यह तो ज्ञान कहो परमारथ । जेहिते युद्ध हो पुनि स्वारथ ॥
जेसी इच्छा करे जो ज्ञाना । फल पावै सेवा अनुमाना ॥
नहिं अजन मनपुरुष मिखापा । केसे कमे होइ निष्पापा ॥
पुरुष मिलाय न कष्ण सुनवै । कैसे अगम अगोचर पावै ॥
उग्रगीता ( ६३ )
पावै अगम कृष्ण को माने। तीनि लोकको भूपति जाने ॥
ताते ज्ञान कहि कर्मं दृटरावै । फिरि २ भवसागर भटका ॥
धर्मदास उव।च
धर्मदास कै सुनो गोसाईं । मारग साधु जो अगम सुनाई ॥
कम धमं कह पाछे मेङे। ज्ञान खूप अभ्यन्तर खेठे ॥
परम अनद् पुरूपको दर्शे । सेवक स्वामी चरण न पँ ॥
गीता कटै ओ करम दटावै । केहि कारण इनको भटकावि ॥
कोन ज्ञान जो भर्म बतवै। फिरि २ भवसागर भटक ॥
कषीर उवाच
धमदास में कौं उुञ्ाइं | मूरूख रोग नहीं वतिओआई ॥
तीनिड लोक पुरुषपहि दीन्दा । रजे काज करावन कीन्डा ॥
जो चाहै सो रचे बनावे । तीनि लोकते जान न पावै ॥
ज्ञनोपदेश देदह जो भाई। तौ यह सृष्टि वैराग उठाई ॥
तब यह रचना सबही थाके । इनको कौन गोसांइया थापे ॥
तेहि कारण इन कर्मं दढाई । अर्ञ्ची सृष्टि सकल भमा ॥
सतगुरु शब्द् सुना कहं द्रसे । जाते प्रभु पूरण कहं परसै ॥
गीता कदि जो कृष्ण सुनाई । तबहू न अधा मोहि पतिआई॥
धमेदास उवाच
` धममेदास विनती अनुसारी । हे सतगुरु मे तव बलिहारी ॥
जब कर अर्जन धनुष संभारा । कडा कीन्ह सो कहौ विचारा ॥
कवीर उवाच
सुनो संत धमनि निवना । अत युद्ध सब करों बखाना ॥
बहते भांति युद्ध तिन कीन्हा । युद्ध जीति राजहि मन दीन्हा ॥
राज युधिष्ठिर मनहि विचारा । बहते भांति वेष हम मारा ॥
कस प्रायित्त मोक्षण होई । को ग्यास हमसों त॒म सोई ॥
( ६ ) बोधसागर
यास कृष्ण मिलि मत अर्थाई । कु इत्या कैसे सुक्ताई ॥
करो विचार अश्वमेघ जो करई । यज्ञ करत दत्या परिदरई ॥
सब मिलि एेसा मता विचारा । बहत भांति यज्ञ करौ समारा ॥
ताते पाप मोक्ष दोहः भाई । यज्ञं करनको मता दटाई॥
करो यज्ञ मन मयो विश्रामा । राज मनोरथ पूरण कामा ॥
धमेदासर उवाच
चर्मदाख विनवे कर जोरी सशयं उपजी मेरे मोरी ॥
पांडव कृष्णहि बहुत पियारे । किया यज्ञ तब कहां सिधारे ॥
कैसे गति मति उन पुनि पाई । कृष्ण सरीखो रहै समाई ॥
कबीर उवाच
घमेदास तुम चतुर सजाना । पेड सो अब करौ बखाना ॥
कृष्ण देह जब ॒ छांडन लागे । तिनसों क्यो तादिते आगे ॥
अवधि दमारि आय नियराई । तुम हूं गरो हेवारे जाई ॥
अजैन कहु सुनो गोसाई । कारण कवन हेवारे जाई ॥
कृष्ण करी तब देसी बाता । तुम तो बधु कीन्ह रै घाता ॥
पातक बहुत जो तुमसे भयऊ । गरे हेवारे ताते कंहेऊ ॥
कहै अजन सुनु पुरूष पुराना । मारण बेधु न हम चित आना ॥
गोता ज्ञान मोदि समुञ्ाया । युद्ध केरनको अघर तैधाया ॥
तुमको पातक नारीं लगे। कता करै आपु अनुरागे ॥
तुम्दरे कदे युद्ध हम कीन्हा । पातकं हम शिर काहे दीन्हा ॥
पुनि तुम कह अश्वमेघहि करदू । सब पातकं पाछिर परिदरहू ॥
तापर हम अश्वमेव जो कीन्हा । तवद् पातक हम शिर दीन्हा ॥
कैं कृष्ण अञ्न सुनु भाई । कमं रेख मेटो निं जाई ॥
केम रेखते सब जग आवे । बार बार दुख सुख भुक्तावे ॥
चारिउ युग फिरि याद आई । हम तुम रेसे संग रहा ॥
उप्रगीता ( ६५. )
ताते कषु सदेह न कीजै । वेनि दहेवारे पयाना दीजे);
धरयदासत उवाच
धर्मदास पै सुदु भाई । अगि कैसे महं गुर्सोई॥
कवीर् उवाच
करै कबीर यह सगे बखाना । तुमसों वर्णन कहौं निदाना ॥
पांडव जाइ हेवारे गल्या । देह समेत युधिष्ठिर चखिया ॥
रेख पुण्य जप तप॒ ओौदाना । तति पहुचे स्वगे स्थाना ॥
ओर षपांडवा नकं समाने । दत्याके फर नकं रहाने ॥
तहां जाइ कोड बधु न देखा । पेड समे देवं भुनि शेषा ॥
कहां हमारे चारिउ भाई । केहि कारण मोदि इहां ङे आई)
इहां कहां वे बसवे पाईं । जाके खोज चारिडि भां ॥
तुम राजा हौ धर्मं अवतारा । ताते पहुचे स्वगं इरा ॥
बंधु तुम्हार पातक बड़ कीन्हा । ताते बास नकम दीन्हा!
युधिष्धिर् उवाच
की उनको इहवां ठे आवह । की हमको उद्वां ङे जाह ॥
जब यह विष्णु सुनो मन जानी । इनकह पुण्य बहुत पहिचानीं ॥
उपजो मोह बंधु रहित भाईं। जाइ ठे आवह बधु देखाई ॥
नकं कुण्ड तेहि जाई देखाई । बड देखे चारिउ भाई ॥
ओर सकल परिवार धघनेरा । काहू सुधि नहि काहू केरा ॥
चारिउ भाई रोवन लखगे। कम हीन हम बड़े अभागे ॥
राइ युधिष्ठिर मोह जनाऊ । मोह नकं कुंड ठे ना ॥
दूत विष्णु सों बहुरि जनाई । आपु युधिष्ठिर नकम जाई ॥
जो कद आज्ञा होड गोसाई । आज्ञा मानि करो सोड जाई ॥
कृ विष्णु यह धमं सशूपा । करो युधिष्ठिर पुण्य अनरूपा ॥
जो कबहीं वे नकं मों जेर । अघ जीवन सब ठे उतरे है ॥
ने.८ कबीरसागर - ३
( ६६ ) बोधसागर
क्षण अंगुरी ठे नकैसो उरो । एते चारिउ बन्धु उबारो ॥
फिर रे आवह कती जवां । स्वग स्थान वैकुढ दै जवां ॥
रेसी भांति करौ तरह जाई । क्षणहि अंशुरी नकं बडाई ॥
ता कर्द लागि बेश्ु सब आये । राइ अनंद् बहुत सुख पाये ॥
गये युधिष्ठिर ध्म स्थाना । धमे पुर रहे धमे ठेकाना ॥
भोम जाइकै पवन समाई । पवन पुज जेहि किये भाई ॥
अजन इन्द्र पु जो रिया । इद्रलोकेमै बासा करिया ॥
सदेव नङ्रु जो दूनो भाई । अश्विनि कुमार पुर हितलाई॥
एसे स्वगे लोक जो किय बासा। पुण्य घटे भवसागर आसा ॥
धमदास् उक्ला
धमेदास कै सुनो गोसौईं । पांडव मित्र विष्णुके आदीं ॥
गीता भागवत वेद् पुकारा । दशन भ्रु जिन नेक निहारा ॥
ताकर आवागमन न होड । सुर नर शुनि सब भाषे सोई ॥
साश्रु संत मिले सब गुणगावैँ । जो कोई दरिके दर्शन परत ॥
ताको मोक्ष मुक्ति होइ भाहं। जरा मरणको बीज नसाई ॥
साक्षादशन कृष्णको लदिया । ओौरं विरा देखायो तदिया ॥
मोक्ष भुक्ति उन काहे न पाईं । साहैव कहौ मोहि सञुज्चाईं ॥
। कचीर उवांच
करै केवीर सुनो धमंदासा । पुरश्ष एक आदि रहि वासा ॥
तिन्द पुनि श्वासा कीन्ह प्रकाशा। धर्मं धीरः एक अंश नेवासा ॥
तिनते उपजेउ ॐञ्कारा । माया प्रकट भई विस्तारा ॥
ह्ला विष्णु उपजे तब भाई । जिन यह रची सृष्टि दुनिआई॥
इनकह तीनरोकं जो दीन्हा । राज् रूप रचना तिन कीन्हा ॥
सकल बीज जो पुर्षते आया । जाते सकल सृष्टि निमाया ॥
कामिनि जवै घमं निज कीन्हा । कमरेख जो भया अधीना ॥
दश अवतार कमे सो भयउ । कारण कमे इन्दै निमय ॥ `
उग्रगीता ( ६७ )
कर्मरेख रघुपति दुख . पायडउ । सीता शोक बह पचितायउ ॥
नरसिंह श्युकर हप धरावा । मच्छ कच्छ सवं कर्म बनावा॥
वामन होइ बलि छलिया जाई । परञ्जुराम होड युद्ध कराई ॥
कमरेख यदुपति दुख पावा। बन २ घेदु चरावन धावा ॥
गोपी षोड़श. सहस्र अनंदा । तिन सग नाचे बाल शङ्न्दा ॥
केमरेख भे बोध शरीरा आवा गमन भिये नहीं पीरा॥
निष्कठक है दश अवतारा । कर्मरेख भय प्रख्य संचारा ॥
इनते अधिक ओर को आही । कर्मरेखते अुक्तत जारी ॥
अकूरी कोड जीव रहे भाई । सो अद्र पुरूष ते आई ॥
तिन कह पुरूष जो चितवन कीन्हा। केसे छोकं होई ख्व लीना ॥
सतगुरू यदि कारण उपजावा । इसन कारण मोहिं पडावा ॥
मूखां शब्द् नहिं मने भाई । अक्ूरी परवाना पाईं)
कमरेख. पांडव दुख पावा । कर्मरेख ष्टे न छटावा॥
इन कटं सब जग करता जने । ताते आवा गमन नसाने ॥
सतशुङ् मिरे सत्य शब्द कखावै। कर्मरेख बंधन सुक्तवि ॥
छद-पमदास तुम ब्ध देखौ छल मता भगवानहो ।
मूखं जन उपदेश कारण गीता कियो बखान हो ॥
पांच पांडव परम मजी तिनको गति कैसी दहं।
नके स्वरगमें वास करि २ जन्म फिरि २ तिन ल्ई ॥
सोरढ-बरञ्चो सत सुजान, गीता कथा जो सब सुनी ।
चेतनि हंस अमानि, ओर सकर भरम दनी ॥
इति श्रीमदुग्रगीतात्रहमज्ञानयोगमते कवीरषमदाससवादे
त्यागसन्यासव्याख्यान नामाष्टादश्चोऽध्यायः ॥ १८ ॥
( ) चोधस्ागर
अथ उपसंहार
धमदास उचाव
यमदास विनवै जोरी । तुम दयाह्ु बदी मोरि छोरी ॥
गीताजो तुम कही बखानी । षांडवकी गति सब मँ जानी ॥
णेसे सब जीव भरमाई । कैसेहु भांति शुक्ति नहिं थाई ॥
सोई ज्ञान मोहिकहि सथुञ्ञावौ । जरा मरण को बीज नसावौ ॥
कवीर उवाच
सुल धमेदास हस पतिराया । हसन कारण पुरूष की दाया ॥
अक्ूरी जिव आपु बोलखाया । ताते हम कह खेन पठाया ॥
सत्य शब्द अब करो प्रकाशा । पावै इसा लोकं निवासा ॥
उग्रज्ञान दै मता निनारा। सुक्ष्म बेद जो पुरषं संचारा ॥
पुरूष दया आनेउ संसारा । जेहिते पावै शुक्ति दवारा ॥
अध्याय उनइस कौं ये भाई । सुर नर शुनि जानै नहिं ताईं ॥
मुक्त दोइ सत्यलोकहि जावै । आदि पुक्षके दशन पावै ॥
प्रथमे रहनी दंस बखानो । निशि दिन रहै नाम लपटानो।॥
तीनौ यण है विषके मूला । ताति दुख सुख भये स्थूला ॥
दुइ गुण कबहीं चित नहि धारे । रज तमको परपच विसर ॥
वासा करे सत्यके मारीं। आसा ताकी राखे नारीं ॥
प्रकृति पचम पेच तत्त्व रई । तीनिउ शुण कारण यह वदरं ॥
जो तीनिउ गुण वश करे आपे । पेच पचीस को नहि व्याप ॥
तीनिड गुणते न्यारा खेले । मवुआ सत्य सुभिरनमें मेले ॥
चास खति एक डोरी लावै । अजर अमर होई हंस भिरावे॥
मन पवना छे सुख मनि राखे । सोदरं रस॒ अमीरस चाये ॥
तहवां अनदद् दोह नकारा । विन दीपक मदिर उजियारा ॥
अनदद् सुने अकह यत्त॒ गाव । मन चित गहि २ सुरति लगावे॥
तवां रन दिवस न्ह होई । पुरुष रसो सुरति समोहं ॥
उग्रगींता (६९ )
देसी रहनी हंस रहि । बहुरि न योनी संकट आवे ॥
धर्मदास उवाच
धर्मदास कटै सुनो गोसाईं । पुरूष नाम कह सयुञ्चाईं ॥
सदख्नाम जो देव बखाना ) नेति २ कह बहुरि निदाना ॥
कौन नाम को सुमिरन करदं । कैसे सदा घुर्ष चित धरई ॥
कैसे आवागमन भिटाई । क्षर निर अक्षर केह सथुञ्चाई ॥
कवीर् उवाच
सुनु धर्मनि तुम हंस पियारे ) तुम्हे काज सकर इम सारे ॥
सुमिरन आदि भें तुम्हे सुनावोौं । सकर कामना तोर मिदावौँ ॥
नाम एक जो पुरूषको आही । अगम अपार पार नहि जादी॥
वेद पुराण पार नहि पवे। बर्मा विष्णु महेश्वर धावै।॥
आदि कहौ तौ को पतिओआई । अत कहं तौ परले जाई ॥
भदे अंतमे बासा होडं। निर अक्षर पावे जन सोई॥
अक्षर कह सब ॒जक्त बखाने । निरअक्षरको ममं न जानै ॥
कृहो न जाई लिखो ना जाई । बिन सद्वरू कोड नाहीं पाई ॥
सद्रकू मिरे तो अगम लखावे । हंस अमी पीबत घर अवे ॥
अंकुरी जीव लहे निबोना । पावत हंस लोक पहिचान ॥
सुतिंवत पावै निज वीरा। संगरं मँ दास कबीरा॥
जो कोई हंस प्राना केै। अथ नाम सद्वु कदि द€॥
बिन सद्र कोड नाम न पावै। पररा गरू अकह स््चाव् ॥
ई मुञ्ञाई ॥
अकह नाम वह कहा न जाह । अकद कहि कटि रू स
समुञ्चत रोकं परे पुनि चीना । जति कोक दोह लख्वलीना ॥
हरदम सुमिरे चित्त रगारं । रोकं दीप जाई समा, ष
अजर अमर होह रोक सिधावै । चौरासी बेधन . इतत; ॥
आवागमन ताहि नहि भाई । जरा मरणका बीज नसा
( ७० `) बोधस्ागर
धमदास उवाच
चमदास भये बहुत अधीना । सदर पूरा तुम कँ चीन्हा ॥
तुम्द्री दया नाम इम पावा । बन्दी छोड हंस भुक्तावा ॥
करह दया अब अंतस्यामी । लोक दीपको वरण बखानी ॥
जहवां सत्य पुरूष रह जोई । हसा तदवा दर्शन होई ॥
पुरूष शोभा वरणि सुनावो । दया करो अब भेद लखावो ॥
कृचीर उवाच
कहै कबीर सुनो ध्मदासा । ेसा मेद नीं परकाशा ॥
यह तौ भेद अगम है भाई । वेद् कितेव कहं नहिं पाईं ॥
शेष॒ मदेश न कोहं जाने । ब्रह्मा खोजत ताहि भुलाने ॥
विष्णु सदा मन सुमरिन करई ! पे काहू नि प्रकट करई ॥
ज्ञान करै तब पुरूष बतावे । सुनि पुनि आपा ॐ ठहरा ॥
यह जग मूरख महा अचेता । परम पुङ्षते नाहिन हेता ॥
देत बहूना जो नर आही । यह तौ मेद कही नहि ताही ॥
सुरतिवेत दसा जो होई । तासे भेद न राखेह गोईं॥
उभज्ञान यह भेद अपार । तुमसे कहा आज हम सारा ॥
सक्षम वेद भेद जो पावै। अजर अमर होइ लोकसिधाव ॥
लोक दीप ओ प्रकट बखानो ! धर्मनिसुरति रनितिसो गनौ ॥
तीनिलोकते भिन्न॒ पसारा । सत्य रोकं पुरूष दरबार ॥
पुष्प दीप जहं पुरूष स्थाना । आदि पुरूष जरह बैठ अमाना ॥
सूरय सोरह जोति निवासा 'एेसा एकरस परकाशा॥
श्वेते दीप श्वेत विस्तारा। श्वेते मंदिर श्वेतै द्वारा ॥
अजर दंस दै श्वेते भाईं। सदा अनद् रहै सुखछाईं ॥
श्वेत छ सिंहासन छाज । अनहद शब्द सदा धुनिगाजे ॥
अक्षय वृक्ष जदं श्वेत सोहावन । श्वेत पुरूष श्वेत फल पावन ॥
श्वेते पान श्वेत पनवेरा। श्वेत सुपारी नरिअर केरा ॥
उग्रगीता (७१)
श्वेत मिगईं कदली मेवा । अजर आरती हंसक मेवा ॥ `
सदा आरती हस जो करदं । अपने पुरूष चरणन रईइई ॥
असंख्यकमटश्वेत तदं रिया । सप्त पारी कमल जो रदिया ॥
पुरुष गतत होड रहे समाई । सृक्षम शीश तहां दरसाई ॥
संपुट पश्य टखाख है भह । वानि उठे संपुट विहराई ॥
उरे संपुट दशन पावै । अजर हंस त्वाँ सञ्च पवै॥
केरत अनन्द सदा सख भोगा । जरा मरण नहि सशय सोगा ॥
जग मग जोति सदा उजियारा । कौटि स्यते वर्ण अपारा ॥
जर देखो तहं शोभा छे । पूरण शोभा पुरूप विराजे ॥
कंहा वखानौ पुरुप सरूपा । वरणि न जाई वह डप अनूषा॥
जब ठग तियापुरूप नदिं परसे । कदा बखाने खख बिव तरवे ॥
तिया पुरूष जब मिलिया भाईं। तवर सुख कद कही न जाई ॥
जिन जाना तिनदी पदिचाना । जेसे गंगा सपना जाना ॥
कहा बखानों वरणि न जाई । गगा गगे सेन ल्खाई ॥
एेसा सतगरू भेद लखावै । सुरतिवत हंसा सपति ॥
वारू नदी अटारह गंडा। जेते तारा है बह्मडा॥
एते सूर्य जो वसे अकाशा । तञ न पुर्षके सम परकाशा ॥
पटतर तहां पुरूषकी दीजे । सतशगुङ् सेन सुक टीजे ॥
छन्द्-पुरुष शोभा कह बखानो क नहीं सम त्रूल हो ।
असंख्य प्रय प्रकाशते वहं जोति अगम स्थूल हो ॥
सेन करि करि नेन भरि भरि शब्द सतशुङ् प्च हो ।
पुरूष अवर न रूप जाको शोभा हंस ठग दुशं हो ॥
सोरग--उग्रगीत यह सार, गुप्तं अध्याय उत्रीसमों ।
` शब्द सुरति आधार, हंसा पहंचे लोकको ॥
इति श्री मदुम्रगीतायां एकोन विशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इति श्रीबोधसागरान्तर्गत
श्रीमहटूुग्रगीता समाप्रा
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भारतपथिक कवीरपंथी-
स्वामी श्रीयुगलानन्द् द्वारा संशोधित
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तेमरज श्रीकृष्णदास
अध्यक्ष-““ श्रीवेङ्टेश्वर "' स्टीम्-प्रेस,
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पुनरमद्रणादि सर्वाधिकार “ श्रौवेङ्धटेऽवर “ मुद्रणयन्ताल्याध्यक्षकं अधीन है ।
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एनीन्द्र, कटणामय, कवौर, सरतियोग संतान,
धनी, धमदास, चशमणिनाम, अदशेन नाम,
कुलपति नाम, प्रबोध यस्नारखापीर, केवल नाम,
अमोल नाम, सरतिषनेही नाम, हक नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीश्ज नाम
उग्र नाम, दया नामको दया
वरा व्याटीसकी दया
अथं श्रीबोवखागरे
दवा विंशतिस्तरगः
अथ मन्थज्ञानस्थितिबोधपारभः
पैः
सुदूगुरुभ्योनमः
साखी-सतयुरु आये लोकसे, धरी देह जग आय ।
जीवनबन्ध निवारिया, बन्दीचोर काय ॥
अत्र पानि नहि मक्षिया, नदीं गभे टीन्ड अवतार ।
(८ ७८ ) चोधसागर
पांचतत्व गुण तीन मथी, निशेण रूप सम्हार ॥
ज्ञान विविधि विधि सब कृद्यो, चौदह कोटि बखान ।
तासो न्यारे राखिया, मर ज्ञान निदान ॥
चौपाई
धमंद्ास वचन
चभदास उठि विनती कीन्हा । कृषासिधरु मोहिं दशेन दीन्हा ॥
जामे यह मन अस्थिर रोई । सोई भेद मोहि कटो विलो ॥
विनथिर भये न होइ अनन्दा । मेरउ मोर भरमके फन्दा ॥
आदि बचन में करौं विचारी । धर्मदास यह कथा निनारी ॥
यह तो कथा बहत अवगाहा । ज्ञान गम्य नदि पावे थाहा ॥
ग्रन्थ अनेक करी बहूबानी । यह निजगम्य सुजन जन जानी॥
यह तो ज्ञान न काहू पाया। सोमँ तुम कं भाषि सुनाया॥
स्थित ज्ञान अवर कहौं बखानी । जाते छूटे यमकी खानी ॥
स्थित ज्ञान बिनु मुक्ति करट पावे। भरमत रिरे कार सन्तावे ॥
जोई भेद पुरुष कटि दीना । सोहं ज्ञान स्थिति में चीना ॥
साखी-यकचित यकं मन होइके, रदे शब्द् लोलाय ।
कहै कबीर धमदास सो, तब हंसा चर जाय ॥
धर्मदास तोहि कहौं चिताईं । स्थितिज्ञान सुनौ चितलाइ ॥
पहले करो रक्ष मन नेहा । तबहीं बादे शब्द सनेहा ॥
जो सने कहूं चोर यह बेना । सुनिके केरे अपरबल सेना ॥
बीरा सार बारुक कर दीजे । सुरतिवन्त कद स्थिर कीजे ॥
स्थिति ज्ञान जो पावे कोईं। जरा मरण रदित सो दोह ॥
निरअक्षर वह नाम अपारा । अरन्थनसे वह रहत निनारा ॥
अक्षर ज्ञानसखार मे भाषा पुरुषभेद यादे राषा ॥
यह पायह तब आयव आई । धमेदास मँ तुम्हे रुखाई ॥
ज्ञानस्थिति्ोध ( ७९.)
यमराजा जहि देखि डराना । सोहं शब्द् अहै निर्वाना ॥
स्थिति भेद ज्ञान नरि पावे। कास फास कैसे अक्तावै ॥
गुर होड बदहियां ताहि लखवे । योनी संकट बहुरि न अवे ॥
साखी-ज्ञानस्थितिके पायते, जीवनशुक्त होड जाय ।
केवीरा आन पुकूषकी, समरस सेज विद्ाय ॥
धमदास उवाच
धर्मदास विनती अनुसारी । दे सतश् म तुम बिहारी ॥
स्थिति ज्ञान कहां तुम पावा । केदि कारण यह पुहमी आवा ॥
सो अब मोहि कदो समुञ्चाई । जाते मनको संशय जाई ॥
तुम प्रभु अंहु मुक्तिके दाता । आदि अन्त किये विख्याता ॥
सद्ुरु वचन
धर्मदास मँ करौं बिचारा । दंसराज बड भाग तम्हारा ॥
जवरी इतो पुरुषके पासा । पुहुपद्रीप सब दीप निवासा ॥
दंस दुखी मय कालके पासा । दया पुरूष तबे परकासा ॥
अमर वचन प्रथु भाष्यो जबही । पुह्पद्वीप विकसित भो तबही॥
पुरुष वचन
जाह सतायन तम भवसागर । नौतम सुरति दौ हंस उजागर ॥
जीवन फंस काले डारी । तिनसौ ज्ञानी करो उबारी ॥
भवसागरते जाय डाओ । अमरलोक ईंसन वेटाओ ॥
सदृयुरु वचन
दाया होत चला मै जबहीं । भवसागर पग दीना तबहीं ॥
देखे यमराजहि वरिवंडा । आस दिखावत है नौखण्डा ॥
सब जीवन करं फांसी खावा । जब हम जाहि तुमहिं उरपावा॥
शन्दसार कीन्हों संधाना । धर्मराय तब देखि सकाना ॥
( ८० ) रोधसागर
साखी-सोई शब्द तुमते करो, घमेदास रेड मानि।
जीव सुक्तावहु कालसं, सत्य शब्द् परमानि ॥
ओर बहुत सुमिरन ह भाई । बिना नाम नहिं काल नशाई ॥
धमद्स बचन
घमदासख विनवै करजोरी । माषहु मोर नामकी डोरी ॥
कैसे भयो नाम जो सारा | कैसे भयो सबै विस्तारा ॥
सौ यह भद कटौ गुर् स्वामी । करिय कृषा कहिय सुखधामी॥
सद्गुरु वचन
धर्मदास मे करौं बुञ्चाई । स्थिति ज्ञान सुनौ चितलाई ॥
आदि अतको नदीं निवासा । तब निं पुलक प्रकाशा ॥
तब नहिं जीव जतुकी खानी । तब नहि अमी अभिरसआनी॥
तब निं देह ॒विदेही चीन्हा । ज्योति श्चुन्य नारि तब कीन्दा॥
तब नहि इतो अथरको मूला । अग्रि अग अब्दो ञ्ल ॥
अग्र डोरी विहंग है नाला । वि्गअम्रतर्द आदि बिशाटा॥
विहगवास सबदिन मों लीन्हा । विहंग अग्र कोड विरे चीन्हा॥
विहग अक्षर हते प्रयु सोई । विहग नाम मर रहे समो ॥
अम्र विदेग नाम सुनि लीजे । निरखि परखि तामर्चित दीजे॥
सोई अंश तुमहि सम त्रला। जो यह गहै अग्र निज भूखा ॥
साखी- विहंग नाम प्रताप सुनि, भयो सकल विस्तार ।
कहै कबीर धर्मदास सों भाख्यो शब्द विचार ॥
धमड़ास कवचन
धर्मदास विनती अनुसारी । समरथ खसम जा बलिहारी॥
मोक शब्द दीन्ह टरकसारा । जीवन भुक्ति देइ भवतारा ॥
विदेह नाम यण कदो बखानी । जासो यमकी होवे हानी ॥
सदगुरु कवचन
धर्मदास मेँ कौं विचारा। राखो गुप्त गुप्त अनुसारा ॥
जलानस्थितिवोध (८१)
अगर विहंग सुरति भयउ जबहीं । हंस सुजन जन प्रगटे तबहीं ॥
विदेही अग थाय्यो प्रु आई । विहग इच्छा तबहीं उपजाई ॥
विदेह देहधरि भौ उजियारा । शर्य उदित संदितं भये तारा॥
देह धरे हाथ ओं पा । रतन रंग बह रंगवाॐ॥
वहतो नाम सुजन जन चीन्हा ! दया कीन्ह प्रथु इमहू दीन्हा ॥
सञ्जीवन नाम आदि प्रकाशा ) इस सुजन जन कीन्ह निवासा॥
साखी-जोड गहै निज नामको, सोह हंस हमार ।
कहै कबीर धर्मदासों, उतरे भव ज पार ॥
धमदास वचन
चरण टेक बिन्ती अबुसारी । साहब वचन जाव बलिहारी ॥
प्रथम स्थूल करो समरञ्चाई । विदेह हप जब पुङ्ष रहाई ॥
केतिक सज्याको परमाण । जर्हवा आष कौन स्थाना ॥
सोई भेद प्रभु कहो निनारा । जीवन जन्म शुक्ति होय मोरा \
सद्म्ुङ वचन
धर्मदास तुम बिन्ती कीन्हा । अगम पंथ काहू नहि चीन्हा ॥
मै षाया सतशुकूकी दाया । धर्मदास यैं तुम्दै ल्खाया ॥
जेहि विधि पुष रूप सधाना । सो सब तुमसों करो निदाना ॥
अग्रभूक विदेह स्थाना । सोह नाम सुजन जन जाना ॥
अब रों लङ्क द्वीप दिखा । बारह पलंग विस्तार सुना ॥
बीजक अमान अखंडित द्वीपा । सत चैतन आनन्द सर्मीपा ॥
साखी-अन्तरिक्ष छः पाटंगभरि, खोटग द्वीप स्थान ।
| तहां सो सब उत्पति भह, यदी परमपद जान ॥
कंचन हेम द्वीप उजियारा । ताते उत्पति भई हमारा ॥
तेरह पाठ्गा रै सो ठा । तिर प्रमाण सेज्या निर्माञ ॥
१ शप्त
( ८२) बोधस्रागर
अस्थु कूप राई परमाना । प्रगे महा नाम सधाना॥
कला अनन्त अनति चावा । बरनत जीव लक्ष नदि आवा ॥
सत्य शब्द पावै परवाना । सोह हश्च वहाँ करत पयाना ॥
जो निं गहत शब्द सहि दानी । सो पुनि परै नकंकी खानी ॥
सुरति निरति ज्यों लौ रोरखावा । सो हंसा जग बहुरि न आवा ॥ .
एही नाम सम्पूरन सही । एही नाम हंसा नि्वही ॥
मूलदीप तब नदीं निमासा । प्रथमहि चती पुरूष प्रकाशा ॥
वही सुरति सब रचना कीन्ह । मरु शब्द् हिरदै धर लीन्दाँ ॥
पुरूष गले पुहुपकी माला । हाथ अमर अंदर रिसाखा ॥
कहै कबीर सुनो धर्मदास । एही मरु सब रोक प्रकाञ्चु ॥
ओर नाम बहुत कहे भां । पुरूष नाम हंसा रूषटाईं ॥
साखी-यदी शब्द् दद् कर गहो, कहे कबीर समञ्चाई ॥
अग्र विदेही नाम गहि, अभ्र शूप हो जाई ॥
धमदास वचन
धमेदास विनवै कर जोरी। साहेब कहो ज्ञानकी डोरी ॥
जाते मन चित्त अस्थिर होई । चरण प्रसाद पाव वर सोई ॥
महा कठिन भवरसिधु कराला । लीन्ह उवारि काटि यमजाला॥
सद्गुरु वचन
धर्मदास भर कीन्ह विचारा । हंस राज बड भाग तुम्हारा ॥
ओर ध्यान सुमिरन हम भाखा । विदेह नाम सोह न्यारे राखा ॥
सो अब तुम कद दीन्ह चिन्दाईं। देह विदेह लेह निम ॥
भाग बडे वाहीके कंदिये । सुरति शब्द् महँ बासा लदिये॥
नाम महात्म कदां समुक्षाईं । जेदि प्रताप यम देखि उराई ॥
ध्यानं विदेह यहे परभा । इकोत्तरसे पुरूष तरि जाऊ ॥
सार शब्द् सों चित नरि लागा । सोहं जीव बड आहि अभागा॥
ज्ञानस्थितिबोध ( ८३)
साखी-अब में कब तोहि सा, ए चित करो विचर ।
करै कवीर पुङ्पकौ, यही हप निज सार ॥
चौपाई
कहै कव्रीर सुनो धर्मदासा । अगरम्रर बिदह प्रकाशा ॥
इच्छा पुरूष काया बवंधाना । खीलागर दीप कीन्ह अस्थान)
सुजन हंसं जन कीन्ह विश्रामा । धरै ध्यान बुङ्षकर नामा ॥
तेवा पुक्षं कीन्ह अस्थाना । अस्थलरद्पको कों ठिकाना ॥
कंठमाल पुहुषनकी राजे । मथ प्रथुके छ विराजे ॥
हाथ अमी अर विचारी । जगर मगर शोभा उजियारी ॥
उपमा काकि वरनों भाई । कोरि भावु सोजार्यं छजाई ॥
भालप बरनन कटि कैसा । बीस सदहख् चंद छ्खि जसा ॥
शरवन शोभा देह बताई । रवि सदस तहे रहे कजाई ॥
चक्षु अमीकर चितवन केसी । सधा सिधु ठहरं उठ जेसी ॥
नासा ओरीवा कंठ कपोखा। शोभा इनकी आइ अतो ॥
भुखारविद अरर्विदहि जानी । उदय कोरि सुरजकी खानी ॥
उभय दंस अधरमो विहरे । दामिनि दशनउठत जु कुहरे ॥
. अजा ्बौह मन चिङ्कर बनाई । हदय राखि उर कलित लजाई॥
साखी-कटि नाभि पिडरी जघनि, नख सिख बहुत अनूष ।
लञ्जलात ञ्जकुकत महा, शब्दहि शूप सूप ॥
चौपाई
निगम नेति नेतिहि करिधावै । तिनको रूप बरन को पावे ॥
मन बुधि चित पहुचे नहिं तहा । अबरण पुरूष विराजे जहां ॥
जहाँ लों निजमन दशन पावा ।तशं गि वरणि कबीर सनावा॥
अगम अगाध गाधमो नाहीं । ज्योके त्यों प्रथु सदा रहारीं ॥
अग्र नाम पुरुषफे बरणी । भवसागरकी है यह तरणी ॥
( ८७ `) खोधसागरं
ध्यान बीच जिन कन्द समारा । ते चदि हंस दोर असवारा ॥
साखी- कहे कबीरा धमेदाससों, पहुंचे रोक मञ्ञार ।
लीलखागर दीप जह पुरूष है, दसा करत बिहार ॥
धमदास दचन
घमेदास जो बिनती करदहीं। बचन विचार अखे उच्चरदीं ॥
तीन रकम व्यापक काला । धराय जिव कीन्ह बिहाला॥
इहि भूमि यम जाल पसारा । नेम जाप षट करम अचारा ॥
इहि बिच सबदी दुनी थुखानी । नाम सार काहू नरि जानी ॥ `
एक मेज काहू नदि षावा। पेड छोड डारदही थुटावा ॥
प्रथम पेडको पालन कीन्हा । पेड मरम काहू नहिं चीन्हा ॥
सद्र वचन
पुरूष पेड निरञ्जन रै डारा । विगुण शाखा प्रति संसारा ॥
सत्य नाम नहिं जाने कोई । सार शब्द् बिन गवी गोहं ॥
साखी-नाम महातम भाषि, धमदास्र समद्चाय ।
जो नर प्राणी नाम बिन, ताहि का धरि खाय ॥
चौपाई
निवृति ज्ञान जीवन समञ्ञावह । अजर नाम सो प्त छिषावहु॥
जियरा होवे अद्री । वासे कों शब्द भरपूर ॥
जिह्वा कों तो जगत रि्चाईं । प्रकट कों तो कार नसा ॥
उपजे पिनशको संसारा । कैसे पुजे काल अहारा॥
साखी-परकट जनि भाखडु, दिरदे धरो छिपाय ।
बीरा दै समञ्ञायह्, सद्र येहि रकुखाय ॥
घधमदास् कवचन
धर्मदास विनती असारी । बिन पंजी कैसे निस्तारी ॥
पूंजी मेद कहौ विर छानी । जाते भिरे जन्मकी खानी ॥
ज्ञानस्थितिच्लोध ( ८५ )
वाजी मेद पावा नहिं कोई । ताते गयो बिगोह बिगोई॥
देहि बीच जोहि कखि पावा । ताकर आवा गमन नशावा ॥
जब तकं आप चीन्ह नहि परई । तब कग काज न एको सरडं ॥
सद्र्धङ वचन
धर्मदास यै कों विचारी । वांजीभेद कों अतिभारी ॥
पाजी डोरी चित न धरहं। मिथ्या दोष ुङन कहं करई ॥
यही भेद है अगम अपारा । अब भै कों घकल व्यवहा ॥
जो चीन्है मो दरशन पाई । हंसहि इक्र भिरे पुनि जाई ॥
अन॒चित बचन हमारे धरई । यमकी डगरी जायं सो करई॥
साखी-पांजी कों सभ्रुञ्चायके; मन बिच छोकदडि जाय ॥
भूलशब्द निबाण है, कहे कबीर सशरुञ्चायं ॥
चौपाई
मूल शब्द् है गुप्त जौ सारा । बिररे पिं शब्द इमारा ॥
सत्य बचन अस्ती ना माने । गहे ईस सो पहंच टिकाने ॥
अभ्र अचित सुरति सो्हगा । एदि रू गहि हंस विहगा ॥
अमम विहग नाम जो पवे। तबहदीं हसा धरको आतै॥
विर्दैग शब्द जाने नरि कोई । सो तो गये बिगोह बिगोई ॥
सुरति बिर्हैगता छे चित जोरी । बिर्हेग नाम विर्दैग है डोरी ॥
विहग हस विग है बीरा । निज सोकाम ये कहे कबीरा ॥
बिर्हग शब्द विदग रै नाला । विहग पुरुष सग हंस बहालखा ॥
सातौ नाल जो आय बिर्हगा । विहगं पतारु आहि जटरंगा ॥
तँ बेदी जलरंगी शाला । बायै कर पृथ्वीकी नाला ॥
ता उपरहि कमं अवतारा । कै कबीर भेद टकसारा ॥
लघु दीरघ अक्षर नहिं जाना । कैसे संत होड निवना ॥
एकं भेद जिनदी सि पावा । तिनके काल निकर नरि आवा॥
( ८६ ) बोधस्रागर
सोई सिदध संत है भाई सोहं नारु चीन्ह जिनषाई॥
पुरूषटि खम शिर सेज बिछावा । जिन जिन शब्द हमारा पावा ॥
नारे सत्य पुरूषकी स्वासा । सो नार पताख्मे बासा ॥
तरां दै पांजीको दरबारा। ता चटि रस उतरिगो षारा॥
पोच नाम तिहको परवाना । जो कोई साधु दयसे आना ॥
पचि नाम
साखी- आदि उदित अति अजरमन, सप्त सिशुं निज नीर ।
अदर अदल सोहं गहै, साहब कटै कबीर ॥
चोप।रं
यही सप्त नार दहै सरी । यरी ईस नाम निरबही ॥
सप्तनाख्के सातों नामा । बीर बिग करे सब कामा ॥
सिधुनालमे _ दस षठाए । पुहुष नासो सकल स॒हाए ॥
अमीनारु मह हस पयाना । सुरति नालसे दंस सिघाना ॥
अग्रनार महं करत अहारा । सोहंग नालको सकर पसारा॥
अजर नारुवट कीन्ह विचारा । तबे पुर्षको दर्शं निहारा ॥
सप्त नार रै एके गाऊं। सोई सुरति भेद निज पाड ॥
सद्भरु मिरे वस्तु निज पावै । बिन सद्रर् को भर्म भिर ॥
सद्वरूदया सबे कु पाई । बिन सदगुङ् वह जाई नशाई ॥
साखी--सतगुर् बडा सुनार रै, षरखे वस्तु भडार ।
सुरतिहि निरति मिलाइके, मेरि डार खुटसार ॥
सदृगुर् साचे शब्द् है, कायाके गुणवान ।
जीवनसुक्त शब्दहि मिरे, महापुरूषके ज्ञान ॥
धमेदासर उवाच
धर्मदास विनती अनुसारी । मै सब पायब्र तुम बलिहारी ॥
बिहारी सतनाम तुम्हारी । जाते भयो सबै निस्तारी ॥
ज्ञानस्थितिबोध + (८)
अब प्रथु मोपर दया हि कीजे । भेदं अमीको मो कडिंदीजे ॥
अमी अक केहि कारण कीन्हा । वह तो अक मोर नहि चीन्हा॥
सो प्रभु मोक देह चिन्हाहं । अंक विस्तार को समुञ्चाहं ॥
सदयुरु वचन
धर्मनि तुम विनती अवुक्षारी । सोई मेद अब कष्टो विचारी ॥
ज्ञान स्थिति हम कीन्ह बखानी। जाते भह सकर उतपानी ॥
जबहि देह धरी परभु आई) अमी अक है अंक बनाई ॥
अशर नाम देह धरि आई । अकं यही कहो इुञ्चाहं ॥
स्थुल धरो सारिव यहि कारण। बिन अश्थूरु न वस्तु उचारन॥
मूलहि अंक विदेह विचारा । देह धरी नामहि संचारा ॥
जो नरि होत नाम परभा । तो सब जगतकार धरिखाॐ॥
जोकर्टे लेह नाम टकसारा । देह छट जाय पुक्ष इवारा ॥
जबही नाम लेत हसा । तबदही कार मरते सषा ॥
तारण देस देहे धरहूं। यमको मारि शुक्ति पै करट ॥
नाम प्रताप स्वे कषक भाखा । सुमिरत इस बोर हम राखा ॥
साखी-हंस उबारन नाम यह, करै कबीर बरखानि ।
जाय जीव सवृ घर) धरमराय परितानि ॥
| चपा
अमी अक जब दी प्रभु कीन्हा । उतपति सकल ताहि इम दीन्हा॥
पुहुप दीप सब दीप निवासा । तीन रोक याते परकाशा ॥
स्वगे पताक भयो पुनि सबदी । अमीअक पुरूषटि किय जबरी॥
चन्द्र॒ सूयं सकल्दि विस्तारा । अमी अक सो भयो संसारा ॥
अमी अकं दोह शूप बनावा । पुरूष शक्ति सो नाम कावा ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश विचारा । अमी अकते सब संसारा ॥
अमी अक्के यण ह एेसे। सोरह सुत उतपत भये तैसे ॥
अमी अकं जब नारीं कीन्हा । तबही सुनदि शब्दे चीन्दा ॥
(८८ ) खोधसागर
सोरी अक करी अब तुमसों । अकं प्रभाव सुनो तम हमसों ॥
अमी अक तुम राखि छिषाई । सुरतिवत कह देह टलखाई ॥
अक बिना पारस नहिं जोई । पारस चिना सक्ति नहिं होड ॥
पारस लोहा कंचन सोई । पारस विन पहुंचे न्ह कोई ॥
पारस परख गुरू शिर नावा । गुर् पारस परसे सतभावा ॥
सार शब्द है बीजक ध्याना । पारस आहि सूर स्थाना ॥
तब सुकृत मिलि सत्य समाना। सत्य शब्द निशथय करिजामा ॥
सिखापन मानि पुरूषकर लीन्हा । बलि तुम्हार दम पारस दीन्हा॥
नाम तुम्हार न धोखे डारों। घट भीतर सो कबहुंन टारोँ॥
साखां-सब धोखा को मेरिके, पारस षरसे संत
कबीर करै घमदाससो, मेटो यवका अंत ॥
धमदास
धमदास चित बहुत हलसा । ज्यों रविउदय कमर परकाशा॥
दयासिन्धु पूरण गुर् स्वामी । कीन्ह कृतारथ अन्तयांसी ॥
अविचल नाम मोर कहदीना । सकल जीव आपन कर रीन्हा॥
जो जिय नाम तुम्हारा पावै अवागमन रहित धर जावै ॥
साहेब किये शब्द विचारी । जाते ट्टे अ्रमकी बारी ॥
अन्त सम बाखकं कर आही । तब यम सञ्च परे कहि नारी ॥
समय साधिबालकं नहि जनिं । केसे बाचै जीव आपने ॥
यमकी घरी पचे जब आई । तर्दौको भेद कों सञुञ्जाईं ॥
वह बाच यम॒ जाह दराईं। कष्ट परै सब सुधि बिसराई ॥
जड़ चेतनको है यह चारो । केसे भवसे होत उबेरो॥
सद्गुरु वचन
पुरुष अंश सुकृत तुम आगर । भलमति पब धर्मनि नागर ॥
सो सञ्ञा कहूं तोदि रंग । जादि रंगभौ यमको अग्र ॥
ज्ञानास्थितिषोध ( ८९ )
जब आवै बारकंके पाहा । पट्टे देह धरे निज नाहा ॥
भक्तिकप धरि अवे सोई। मस्तक श्याम फेर नहिं होई॥
जब जिय नाम करे सम्भारा । तव यमकी जड़ दोवे छारा ॥
शब्द सिधुमं रहै समाई । तहांयम कबह निकर नहिं आई॥
शब्द् विचार बारि दद् करां । मू रहस रखवारी धरहीं ॥
जब फिर चारं करन पयाना । अथज नाम करी सधानां ॥
साखी--वश छंय बीरा ख्ख, नाम सन्धि चित लाय ।
कहै कबीर निःशंक हो, ईस लोक कहं जाय ॥
जब सष्हार चरे ठे हंसा । सप्त सिधु प्ुचत गई ससा ॥
सप्त सिधु आसन जो करदीं। इददय हप हंसा सद धरदीं ॥
आगे लेन हस तहे आवि । आरति साजि चीर परटिरावदहि)
ङशल क्षेम प्छे सब कोई । यमकी कज्या किंहि विधि खोई॥
कहि प्रसाद आई यदि ठाऊॐं । केटिं करनी पहची इरि गर
तबे हस उठि बोठे वेना । गुश्प्रसाद पाया निज नैना ॥
गुरू मोहि वह नाम सुनाई । तेहि प्रताप आये इहि गह ॥
तबही हंस पुरूष सौ कईं । रंसन चाह दर्शकी अहह ॥
साखी-नाम महात्म कबीरको, तेहि प्रसाद सो आइ ।
बिनय करत अभमिलाख चित, पुर्षहि दरस कराइ ॥
चौ पां
पुरूष बुलाई दंस कट लीन्हा । हसन सकल उण्डवत कीन्हा॥
दीन सिंहासन क्षर च धरदीं । हंस सुजन जन दर्शन करहीं ॥
सिंहासन बेदी सुख पावा । शब्द अहार पुरूष सग आवा॥
जन्म मरनकी भूख बु्ाईं । सब सुख भुगते अय अधघाई ॥
निरंजन सुख सुधि नर्हिं पावा । ब्रह्मा विष्णु बैठि पलितावा ॥
वहतो ईस कहां उड़ि गयः । आदि अंत काहू नहिं खयहू ॥
( ९.० ) सोधसागर
साखो-यर् सुख ज्ञान स्थितदिमे; जो कोई भुगते आय ।
घन्य् भाग्य वा हंसके, करै कबीर समुञ्चाय ॥
धमेदास वचन
यमेदास बिनवै करजोरी । देद विदेह कदिब कु थोरी ॥
कवने कमरु उठत है बानी । कवने कमल शब्द् सहिदानी ॥
कवने कमल सूर अस्थाना । कवने कमल सुरति परहिचाना ॥
कवने कमर ब्रह्माछ्िय वासा । कवन कमल टै जीव निवासा॥
दग्र वयन
अक्षय कमल सखशब्द् उचारी । सुरति कमर वानी अनुसारी॥
श्वेत कमल निगुण अस्थाना । भवर गुहा मूलि पर्हिचाना ॥
कंबु नाल मूलके पासा । तवां बह्म लीन है बासा॥
अष्टकमल्ते उठे जो बानी । कुसुमदि दर ताके परवानी ॥
बकदि नार वेकं रहै घाटा। जो ईसा चीन्डै वह बाटा॥
साखी-बकं नालनी नवरिके, भिन्न भिन्न कर ठेख ।
भवर गुहामे पेठिके, घरियारी कर ॒पेख ॥
सुरति कमलके बीचमे, सदगुरूको विश्राम ।
सहख जाप अजपा कही; पूरूषको निज धाम ॥
चो पारं
द्राच्छ कमलम चिक मिर तारा। अरुख सशूपहिको विस्तारा ॥
विषम सरोवर दै तेहि ठं । मान सरोवर परै रदाई॥
मान सरोवर ददहिनो देही सद्गुर पथ तहांहो रही ॥
आप कमर तेरिकहौ बखानी । बिररे जन कीन्हीं षटहिचानी ॥
पारब्रह्म बस अधर अटारी । जगमग ज्योति जहां उजियारी॥
हीरा रतन जटित बह भाती । खल अमो गने को पांती ॥
ज्ञानस्थितिबोध (९१)
रत्न कमल पै स॒त्य विराजे । हिश्मर इसत संग बहु छाजे ॥
गोरख देत पहंचि नहि कोई । पारब्रह्म अस भवन है सोई ॥
ये सब अटक सुनि मंज्ञारा । सत्य पुरुष नहि कीन्ह विचार्ा॥
चउदा कमल महं सत्र विराजे । द्वादश कमल गगन धुनि गाजे॥
भम भूलि अरके तहां ज्ञानी । भर्महि भमं भम टपटानी ॥
सुर नर मुनि पवनहि अवराधे । सिद्धहु बारे उनमनि साधे ॥
नाभी मण्डल पवन किवारा | तहं गि गमी कीन्ह रकसारा॥
हमरा घर कहँ बिरलन ब्रूया । उधं कमल्का पथ न सूञ्चा॥
साखी-सुरति कमलपर बेषिके, अमी सरोवर चाखि।
कहै कबीर विचारिके, संत विवेकहि भाखि ॥
उर्ध्वं कमलके उपरे, परिमल बास सबास् ।
अमी कमल महं बेठिके, दशेन दश इलस्च ॥
चौपाई
उत्पतिको वद वृक्ष बखानी । प्रख्य कबहु होवे नहि इदानी ॥
पिण्ड मांह वह वक्ष बताडं । अगम अगोचर गम् नहि पाॐ॥
अगम गोषठि तुम प्रूछन लाई । सुनो धम अब कदं बुञ्ाईं ॥
अगम मोष्ठि अगम व्यवहारा । अगम पंथ हम कों विचारा॥
अब मैं कहौं जो गम्य बखानी। अगम गोष्ठि कादू नहि जानी
उत्पति सब तँ तुम्दै सुनावा । ये हमते कोड जानि न पावा ॥
उत्पति सुनु वा वृक्षकी भाई । प्रख्य तरे वह कबहु न आई ॥
जासों कों अमरपुर गाड । बिना बीज वह वृक्ष रदहाऊ ॥
बिन धरती अङ्रहि आनी । प्रानी रंग नहीं उत पानी ॥
मूलब्क्ष वह पुरूष बखानी । शाखा तासु निरंजन जानी ॥
डाली ब्रह्मा विष्णु महेश्वर । प्र॒ ता संसार नरेश्वर ॥
सत्य सुकृत जह कर विश्रामा। अख्य वृक्ष जाकर दै नामा ॥
पचररूप ससार बखाना । धमदास रुखवो यह ज्ञाना ॥
( ९.२) सो धसागर
साखी-पानोभे सबउपजरहि, पानि जान सब कोड ।
जासों पानो उपजा, सोररग केसो रोइ ॥
यौपार
रगदहि रंग रंग उपजाया । एकं रगसे सबरेग आया॥
बहुरंगीसे पानी भयऊ । पानीरंग नाद जो किय ॥
नाद् रंगसे वेद उचारा वेद रंगसे भयो संसारा ॥
साखी-हीर डोरको भाव यह सत स॒जाना देखि ।
कृ कबीर विचारिके रंगहि रंग विशेखि ॥
पुरूष डोर तुमसों कही, सुनो सत चित लाइ ।
धन्यं भाग्य वह जीवके, ज्ञान स्थित जो पाइ ॥
चौ पाई
सो सब तोहि किव चित लाई। परखि लेह दियको सभुञ्ञाई ॥
पांच तत्व जो प्रकटे आईं । पांच तत्व वे गुणत रहाई ।
सोइ तत्व तुमको न सुनावा । इदये भीतर गुप्त छिपावा॥
कोन शब्दसे तत्व जो आऊ । सो अनुसार तोहि सञ्ञा ॥
विदेह तत्व अगरको मूला । सोम तत्व आदी अस्थूला ॥
अनुम तत्तव सब दीप बखानी । अनुप तत्व सब दीप बखानी ॥
अंकुर तत्त्वसों सब कद कीन्हा। ताको मरम न काहू चीन्हा ॥
पाच तत्व प्रगे दुनियाई । तामहं जीव रहै अश््ञाईं ॥
आप तेज वायु तत्व बखानी । पृथ्वी अकाश देह सब जानी ॥
धमेदास वचन
कौने तत्व सो रची दै देदी । कौन तत्व है फूल सनेदही ॥
कौन तत्व सो देहमें आवा । कौन तच्छ निज मूर कहावा ॥
सत् गुरु वचन
अजर तत्व निःस्वादी कदेड । पुद्ुपतत्त्व निजमूलहि रहेउ ॥
ज्ञानस्थितिबोध (८),
अमी तत्वकी देह बखानी । अजर तच्वमरख पदिचानी ॥
साखी-अमरपुरीको येह गुनः अमर दंस दौजाइ।
कवीर ज्ञान स्थिति बिना, जीव भरख्य तर जाइ
चौपाई
नाद् प्रकर िदुहि सो भयञ । बिन्दु प्रकट नादहि जो डिॐ॥
शब्द भेदते श्वास जो जानी । श्वासहप शब्दहि पहिचानी ॥
नाद विदु जव नाहीं रहिया । तवबकी बात तुमहिशषौ कडिया॥
अमी अधर कीनी जब थामा । नीर जह्य खीनो विश्ामा ॥
नाद निरञ्नन प्रगे जवही। शास्त म्रेम गुर् कीन्हो तबही ॥
बिन्दु सकले भयो पसारा । देह बिदेह सो रहत न न्यारा ॥
जब नहि धरती नहि आकाशा । तवर नहि संहज कर्यं प्रकाशा॥
चकित अण्ड चौंकरे सुचदा । हमे देखि करि सहज अनेदा ॥
खारशब्द कवीरहि जाना । अगहि अंग आहि बिहशना ॥
फूटा अड कटे तब अंशा । योग जीत उपजे निःसंशा ॥
नहि तब धरती नहि आकाशा। साखी शब्द नदीं प्रकाशा ॥
तबही पर्ष कहां धौं रहे । कौन तत्त्वम बासा खृहेॐ ॥
गुप्ति तच्च ग॒प्त अस्थाना । गुप्त वस्तुमे रहे निदाना ॥
गुप्त इते तब प्रकटे भय । अमर दीप उच्चारण ख्यॐ ॥
शब्द उचारो अमर अखंडा । बीरा सार बिदेही पंडा ॥
तादिन पुरूष आप जो रहते कोन पिंडे वासा करते ॥
साखी-राईभसा जो वस्तु थी, राई मर अस्थुर ।
लहर रहर दिर अद्रा, तहा पुरूषको मूल ॥
चौ पा
ज्र नहि हते कूमं ५ कामा ।आदि पुरूष कीन्हो निज नामा॥
नाम सार रषा जेहि पावा । वो जन चार कार पहंचावा ॥
(न चोधसागर
पह चावतमे कल दिर मोरा । वारी लाँधि सके नहि चोरा॥
जो बोरे तो शिर छिन जाई। खट गहे तो अंग नशाई॥
सारनाम _ सतयुरूने. दीना । ताते धम शीस पर रीना ॥
जो कोइ करे नाम मह वासा । ताकहं दोर न का तरासा ॥
नाम प्रताप कार नश जाई काले खेरे पुरूष जाई॥,
नौ दर गुप्त दयते टीका । अमर मोक्षद पावे नीका ॥
` नौदल नाम जो कहौं बिचारी । षटदरू काटि जो बाहर डारी॥
शुभ दर श्जुमचित बन भरमा ।भये द कोघ संत तज करमा॥
अस्थित दरु राखे निज मनको। पहुचे हंस रोकं सुरजनको ॥
साखी-यहि गुण ज्ञान स्थितिदहिमें, शब्द सिहाप्षन सार ।
कहे कवीरा नाम बरुपर्हचि पुर्षके द्वार ॥
धमेदास उवाच
घमेदास्र विनवे कर जोरी। साहब कों नामकी डोरी ॥
अगम निगम शारद ओ शेशा। तम दातामांगन सब देशा ॥
कहो बचन प्रभु डदय विचारी । कैसे कूम लीन अवतारी ॥
आदि ब्रह्मका कौं निवासा । केदिविधि रीन कमले बासा॥ .
सतगुरु वचन
धभदास मे करं बुञ्चाईं ।अकथ कथा कडु की न जाई॥
आदि अन्तको नारिं निवासा । ्ासा सार पुरूष परकाशा ॥ ,
बिना नालको कमल अनूपा । प्रुष तामहँ कदी सह्पा ॥
तबही भई अधर सों बानी ।बिन रसनावह अगम निशानौ।॥
बिनटि विन्दु जिद एक किय अजय अपार सरोवर लियञ॥
अश्च कमल तशं कीन्ह प्रकाशा। अष्ठ पु को तहां निवासा ॥
अष्टताल सुत नाम धरावा। अबमें कों नाम परभावा॥
मनसा बुद्धि निर्जन कीन्दा ।सदज सुरतिसों उतपति लीन्हा॥
ज्ञानस्थितिबोध ( ९९ )
रग रेख कमे उपरान् । सरवन सुरति वहे यण ज् ॥
योग सत इनको विरमाए । तिनको अतन काहू वाण ॥
सुकृत अंश भये तेहि ठ । सोहं रति अचित बनाॐ ॥
आड अंश ये उपने भाई। ज्यों दर्पण प्रतिर्बिव समाई ॥
पुरूष सहज सो माषे लीना } दीष एक् तुमह कहँ दीना ॥
अमो दीप प्रदीप निवाता । गर्भते कर्मं तहा परकाशा ॥
तबही पुष कूर्म उपराजा । बाहर पलंग हप तेहि जा ॥
उपने कूर्मं पृथ्वीको भारा । सोरह पठग दीपं विस्तारा ॥
रचना सवहि कर्मकह दीना । इहतो चरित सहज नि चीन्डा॥
साहब चरित रखे नहिं कोई । सुरति पच उपराजे सोई ॥
महा अपर्ब रै अधिकारी । पृरूषके किये भण्डारी ॥
दया करी सुरतीको जबही । सुरति अंश उपराजे सबही ॥
साखी- ज्ञानस्थितिके यहे गुणः, सुरति क्रमे उपजाई ।
कहै कवीरा नाम बिन, जीव अकारथ जाई ॥
यौ पाईं
कूरम उदर बिदारो जबदीं। चारों अंड पूट गये तबहीं ॥
चारों अड ब्रह्मांड सम्हारा। कृत्रिम वस्तु कीन्ह संसारा ॥
कती आदिपुरूष कर नाऊ । सोई नाम निरंजन पाड ॥
फूटि अड चौभंगा भयऊ । पोचो तत्व तीन शुण ठय ॥
पच अमीसे सब ससारा। पच अमीका है विस्तारा ॥
पंच अपीकर नाम न जाने। सो मनं आन केर तन उने ॥
अमी दहे है सकर जहाना । अमी रंगसे कीन्द टिकाना ॥
अभी वस्तु जिनही परिचाना । पंच अमीको सकर जहाना ॥
पच अपमीको नाम सुना । भिन्न भिन्न सब तोहि बताऊ ॥
( «६ ) बोधसागर
अपीके नम
सिधु खुअशदि । १ । सुरंगको नाम । २ ॥ सदजसुतमूरुको
नाप । ३ । अरकेहअमा । । अंकञअमी । « ।
साखी-कडी कबीर धमदाससों, पंच -अमीको नाम ।
शब्द् अमीसो जानियो, प्रकट भये गुणघाम ॥
यौधा
अमी शब्द् सुमिरे जो कोई । अमीस्वरूप होदि पुनि सोई ॥
अमी शब्द जिन नारीं पायब्-। सोई जीव प्रलय तर आयब ॥
मर शब्द राखे चित सानी । अमी शब्द् मूष बोरे वानी ॥
पोच बेर सुमिरे नर कोईं। ताकों आवा गौन न होड॥
एहि शब्द् मे कहं बखानी । ब्रह्ला विष्णु महेश न जानी ॥
इह पुनि नहीं निरंजन पावा । धर्मदास भ तुमहिं बतावा ॥
शब्द् अमी सुपुरूष छिख दीन्हा । एकु अक परे निं चीन्हा ॥
साखी-कमर अंक पेखुरि अङ, सुरति बध सुखसेज ।
कडि कबीर संशय गई, महापुर्षके एज ॥
ज्ञानस्थितके यही यण, अभी अमी होजाई ।
कहे कवीर ध्मंदाससों, देह हिरण्मय पाइ ॥
चौपाई
घर्मदास उठ विनती कीन्हा । तुमरी दया षय्यो सब चीन्हा॥
अपनो भेद कों विलछानी । जाते परे दरस पदहिचानी ॥
वहै शब्द् गुर् कहां प्रकाशा । जामे दवे सुकृतको वासा ॥
वही शब्दम दशन रोई ।भित्र भिन्न मोहि को बिरोईं ॥
तुमर्हं सगण तुम निथण रूपा । कारण कारज किये भूषा ॥
तुम धरती तुम पवन अकाशा । तुमहीं चांद सूरज परकाशा ॥
जलछथट भीतर कीन्ह निवासा । लोकद्वीप तुमहीं प्रकाशा । ।
ज्ञानस्थितिबोध ( ९.७ )
तुमही माटी तुम फुलवारी । तुम हौ करता तुमरी बारी ॥
तुम सागर जलहरी तरंगा । तुम मलीन तुम निरमल अंगा॥
तुम हौ उड़गण पर्वत चंदा । मोम तुमसे हर्षं अनन्दा ॥
तुम शुषा तुमहो दिनि रांती । सुर नर युनि गधं तुम ज्ञाती ॥
तुमदी अरुख तुमहि संसारा । त॒मही इरि हर विधि अवतारा॥
तुमही खोप अलोप अलेखा । तुमही गुप प्रगट सब देखा ॥
तुमही पुरूष तुमहीं हो प्रकृति । त॒मदही योग तुमहि गति गति।॥
चारों युग तुम करत निवासा । तुम रमता देहीमों बासां ॥
साखी--तुमहो दूसर अवर नहि, तुमरा सकर प्रकाश ।
करहु दया अब मोदहिपर, सत्य नाम बिश्वास्च ॥
सद्गुरु वचन
धमदास तुम विनती कीन्हा । हमरो हप न काह चीन्हां ॥
अमरमभेद अस्थल्के माहीं । जो पावे अस्थिर मन ताहीं ॥
लीरंगर द्वीप पुरुष अस्थूला । वदी द्वीप उत्वतिको शख ॥
गगन धरनी उत्पति सब नीरा । काया बीर खनाम कबीर ॥
याविधि पुरूष हमहि सों कदिया। बिन अंकुर जीव काँ रहिया।।
नाम हमार सुमिरे जो कोई । आवा गमन रहित सो होई ॥
हमरा नाम रेत घर आवे। सुख सागर निर्म हो जतै ॥
नामलर्ेत जो कार उराई । सुमिरत नाम हो दूर हो जाई॥
हमरो नाम सार रै भाई। जो चीन्दे तेहि कालन खाई ॥
साखी--नाम हमारा भुक्तामणि, पुरूष आपहि भाखी ।
शब्द शिरोमणि सार यह, हंस सदा चित राखि ॥
चौपाई
येहि नाम लोके प्हुचवे । सुमिरत नाम पुरूष कँ पावै॥
अब यह शब्द् कदड सम्भारा । सनि हदय महं करो विचारा॥
नं.८ कनीर सागर -ये
श) बोधसागर्
जाते दुःख दरद भिरि जाई ध्मराय वैठो परिताई॥
यहि नामको शिरहि चटाई । यामे सब सुख षविलसे आई ॥
कपट हप धरिहै जो कोई । भ्रमकी डगर परे पुनि सोई॥
आदि शब्द सो नाम हमारा। जो ब्रूञ्चे सो उतरे पारा॥
धन्य भाग्य हंसनके किए । जो या नाम भुक्ति मन गदिषए ॥
सो करूणाकर बहइत उघारी । एकं नाम चित खेय बिचारी ॥
पाच नाम |
आदि अजर १। अद्री अदर २ । पुरषं निरक्षर नाम २।
मुक्तामणि प्रभुनाम जो ७ । सख सागर विश्राम ॥
साखी-ज्ञानस्थितके येह गुण नाम विवेकी पाइ ।
कहै कबीर धदासको, हंस लोकको जाई ॥
चौ पां
धमदास चरण चित धरही। बार बार विनवे अतुसरदी ॥
पाजी नाम मोहि को विचारी। जामे दोय दंस निस्तारी ॥
बिन पाजी कदा जाने भेदा । पाजी नाम गर कीन खेदा ॥
सद्गुरु वचन
धर्मदास भल कीन्ह विचारा । हंसराज बड भाग तुम्हारा ॥
नाम सिशुं पायो तुम जब ही । पोँजी निर्भय पचे तव दी ॥
विन निभय कोड भेद न आवे । विना मेद कैसे प्हिचाने ॥
कहे कबीर होड शुरु दाया । तदही हंस अमर घर आया ॥
अब खनिये पोजी को द्वारा। ता चि दंस उतरि दै पारा ॥
एकं नाम एक चित दो देखा । तहां हंसा सुख सागर पेखा ॥
पोजी अदधत कदां सुमारा । ताते होय सक्ति व्यवहारा ॥
सोहं शब्द् उरली कर देखे । तिल प्रमाण जहां द्वारी पेखे ॥
उलछरि पवन पञ्िमको धारे । गरज गगन मेर् तहां दारे ॥
ज्ञानस्थितिवोध ( ९९ )
अरध ऊर्धबिच कमर अपारा । दामिनि कोरि दौत उजियाा।॥।
पाजी नाम पच दिक राखो । हसा उवारन कहि यह भाखो॥
अ[काशर्पोजी
आदि अजर अदरीनिर नामा । सप्तसिन्धु है जियको कामा ॥
सप्तसिन्धु पाजी रके नामा। सो यह परब्रह्मको धामा ॥
यही नाम जियको रख वारा । खोलो जी इटफ केवारा ॥
हेस छे गए पुरूष द्वारा । ्चिख्मिर ज्योति ञ्जलक उजियारा।॥
नाभि मण्डल पवन किवारा । दरे सुनीरी मरके द्वारा ॥
भए निरन्तर थक्रित शरीरा । धमदास कह भिठे कबीर ॥
धर्मदास यह दिल्की पंजी । यदी नाम धरि बहु सजी ॥
पिंड नामसो दिर्ल्मे मूला । येहि नाम पहुचे अस्थूला ॥
साखी-ज्ञानस्थितके येह गुन, पुरूष पाजी निज सार ।
यह पाजी जब पावही, हंस दइं निस्तार ॥
चौपाई
हो सदृशुमे तुम बिहारी ।मिटि गह तिमिर भई उजियारी)
हों पतग तुम भग शसा । आप सरीख कीन्ह एहि गई॥
सप्त सिन्धु प्रथवीमे आदीं । सकर जगत इन्हीके माहीं ॥
सप्त सिन्धु जो रहे पताला । सातनार प्रथु कह रिसाख ॥
सतौ नाल कवन विधि हेरा । जामे सुषुमण होड निवेरा ॥
सदगुरु वचन
धर्मदास यह अकथ कहानी । बिररे हंस कन्द पटिचानी ॥
अगम विचार कीन्ह व्यवहारा । जासों भया सकर विस्तारा ॥
जबहीं हसा तजे शरीरा । शब्द प्रताप दोय गंभीरा ॥
सप्त सिधु नर॒ पावै कोई। सप्त सिधु जाय समोई॥
सत्त सिधु आरम्भ न करई । त्यागि शरीर देस गति धरई ॥
जाय करे सुख सागर बासा । मान सरोवर करहि निवासा ॥
( ९०० ) बोधसागरं
सख्त सिन्धुके नाम सुना । भिन्न भिन्न सब तोहि लखा ॥
सप सिन्धु अब खि पावे कोई। समता सिन्धुम रहे समोई ॥
योग सिन्घु अब कों बखानी ।अजांवन सिन्धु टेव पटिचानी॥
अमर सिन्धु रंखा कखि पावे । अकह सिन्धुम जाय समाव ॥
सुखि सिन्धुहि कीन्ह पेठारा । सपरहि सन्धुहि नाम उचारा ॥
साखी-ज्ञान स्थितको पायके, मन सस्थिर हो जाय ।
कहे कीर धयदाससों पुरूष नाम सखङ्जाय ॥
चौपाई
पुरुषहि नाम कौं सुञ्चाईं । धमदासर दियं गहो बनाई ॥
याही कारण अजपा कीन्हा । जीवन सपि परी नहि चीन्हा ॥
पुं रूषहते तब मूरुके गॐ । तब नहि दीपलोक् अवगाॐ ॥
चोबिश पु तबे नद रहिया । तबही बचन अग्र जो कहिया ॥
ता पारे ओंकार जो कीन्हा । ओंकार सो सब रचि ढीन्हा ॥
साहब वचन सत्य फरमाया । सत्य शब्द अक्षर निभाया ॥
कबहु नादिन अस्थिर दों । बरा बार मन देइ बिगोई ॥
काया भीतर आप लखावा । ताते अजा नाम कावा ॥
याहि शब्दसे सुद्ध शरीरा । याहि शब्दसे भिरे कबीरा ॥
याहि शब्द् द्य होई । निमलदहोहि विषं सबखोईं ॥
अस्थिर मनकर प्रफुखित राखे । नाम सपि दये मर चाखे ॥
निम दंस होत दहै तबरी । अमरलोक पहचि है जबही ॥
सातो सुरति तबहि परकाशा । पुरूषहि को राखे विश्वासा ॥
उतपति शब्द जबे निर्मांवा । सोअक्षरमिरखिशिवर्हिकहावा , ॥
शिवहि शब्दसों जीव कावा । जीव नाम संसार कावा ॥
सातों नाक वाहिके अंगा । जिदहिजग मीतरमाडो रगा ॥
अक्षर शब्दसे शिव जो आवा । वाही अक्षर शर कावा ॥
|
ज्ञानसिथतिवोध ( १०१)
काशी मध्य मरे जो कोई । रोहि पान हप तब सोई ॥
चौरासीसे रहित जो दोई। पाहन शपि जन्म बिगोहं ॥
शब्द सुप्ररन शिव जो जाना त्यों सुक्ृतके बहुत परवाना ॥
अक्षत के आरति कर सोई । उन कर म्र कहत सब कोई ॥
तारक मज वयसको नाहीं । पण्डित शब्द् गहत सनमादहीं ॥
ही मंज कहत सवं कोई साहब चरण न पिं सोई॥
क्षमा गरू निश्चय जो पावा सद्रङ् शब्द् अहनिंश कावा॥
क्षमा गुरू कहिए अविनासी । मानसरोवर तटके वासी ॥
रचना मेद ठे शिव कह दीना । यहि विश्वास मनि कर रीना!
भवसुर केहि शिखावन रएहा । सनकादिक कर चरण शषनेहा ॥
यदी प्रणालि गदी सब कोई । युङ् निशुणकर भेदं समो ॥
याहीम सब परे भुटखाई | ददृतदी जग कल्प वितां ॥
जो चाहे सुकरत कर ल्खा। आप आपसो करे विवेका ॥
उनकर चीरि्हि अमरपद पाईं । सक्षम शक्ति नाम शुण गाई ॥
साखी-यह गुण ज्ञानस्थितदिके, जो पे निज नाम ।
अजपा जपे कबीरको, सो पहुचे निज धाम ॥
् चौपाई
शब्द पाय रोकं जिन चीन्दा । नाम अखण्डित जब धरलीन्दा॥
मुक्तामणि निज नाम दमारा। रस उबारदि भवसे पारा ॥
साखी-सों नाम ङदय धरे, ओर जपे नदिं जाप ।
मूल शब्द रटन कर, मूर शब्द हो आप ॥
करे निूपण शब्दको, करै कबीर बखान ।
मुरु ध्यान गहि पावही, खख सागर अस्थान ।
` मूल शब्दके येह युन, अमी दीपक कहं जाइ ॥
कृबीर ज्ञानस्थित बिना, मूर नाम नहि पाइ ।
५५९२) बोधसागर
गर महिमा प्रारम्भः
यौ पाइ
गुरु रोहि वहि ताहि रकुखावै । गुर बिन अत न कों पावे ॥
जिन गुरूकी कौन्दी परतीती । एकं नामकर भव जल जीती ॥
गुरूः पुरूष जिय करहि मराला । गुरू सनेद बिन काग करारा ॥
गुरू दया गुरु शब्द् हमारा । गुरू प्रगट है गुप्त अधारा॥
गुरू पृथ्वी गुरू पवन अकाशा। गुरू जर थलमर्ह कोन निवासा ॥
चंद्र सूयं गुरु सब संखारा। गुरू गघवे गुर् सब व्यवहारा ॥
गुर् ब्रह्मा ओर विष्णु महेशा । गुरू भगवान कूमं ओ शेशा ॥
चराचरदि जह गि सब देखा । गङ् बिना कच ओर निं पेखा॥
उत्तम मध्यम ओर कनिष्ठा । ये सब कीन्हे शुरू शरिष्ठा ॥
ये सब जीव गुरूमय जानो । गुकूस भिन्न अन्य नहि मानो ॥
कटे कबीर सो दस पियारा । येहि भांति शरू दरश निदहारा ॥
साखी-सो गुरु निशिदिन बदिये, जासों पाये नाम ।
नाम बिना घर अध रहै, ज्यों दीपकं बिन धाम ॥
` चौपाई
गरू चरण ज रख ध्याना । अमर लोक वह करत पयाना ॥
भ्रमर कमल ज्यों रर लुभाईं । या विधि गुरू चरणन रूपटाई॥
तन मन घन न्योछावर राखे । दशहि पश अमी रस चाखे ॥
चरण धोय चरणामृत पावे । पुरुषं समीप पहच सो जवे ॥ `
गुर् बिहून अमृत नदिं दीने । अमृत छांड़ि विषय रस लींजे ॥
साखी--महा पुरुषको नाम रै; जा घट मांहि समाय ।
सोई सद्र जानिया, अर् कु्चिम सब पाय ॥ `
धमेदास वचन-चौपाहं
धमदास विनती अय॒सारी । समरथ खसम जादि बङिदारी॥
ज्ञानस्थितिबोध ( १०३)
जवसे दीन्ह मुक्तिकर बीरा । तीन ताप मिरि गई अधीरा ॥
साहब कटिये शब्द अनन्दा । जाते यमकर ट्टे फन्दा ॥
चरणामृत कैसे कर॒ रीजे । तोन शब्द मोसों कहि दीज ॥
सद् मुर वचन
धर्मदास म कों विचारी चरणाभरत शब्दहि निरवारी ॥
यहि पाये निज करदि अहारा जासों यमकी ष्टे धारा ॥
प्रथम भोर मुख उरिके धोवे। काट कष्ठ यमद्रार बिगोवे ॥
फेर करहि शब्दको आशाना । वही शब्दसो अक्ति निदाना ॥
बहुरि दिये मर्ह नामहि आने । नाम विदेह दरश पहिचाने ॥
नाम विदेही कखिन अपारा । तारि चीन्हि कर करटं अहारा
ध्यान बीज गुरुचित महँ आने । सुरति निरति पुरूषहि परिचाने॥
बहुरि शब्द आनंदित भाषे । शख महं धो नाम रस चाख॥
साखी-इह गुण ज्ञानस्थितदहिके, शब्द भेद निजसार ।
गुरुचरणामरत छेहि तब, दोषे हंस उवार ॥
स्मरण
श्वेत मिठाई शवेतहि पाना। श्वेत शब्द रेखनि परवाना ॥
योग सत्य इन दीन्हो बीरा । मनको उलरि खोज छ हीरा ॥
बीरा खाय भयो सुख भारी । प्रथम पुरूष ऊपर उजियारी ॥
दृसर सत्य युर नाम जो भावा । तीसर लक्ष्मी ठे घर आवा ॥
चौथे जन्म मरण नरि दोईं। जो चरणामृत पावे कोई ॥
साखी-कालरफास नहिं आवी, तन्त्र मंज क्षयमान ।
बचन कबीर गुर्सोडको, सत्य हि शब्द परमान ॥
मत्रसम्परूरण |
धमदास वचन.
चरण टेक कर॒ विनती खाई । कीन्ह कृतारथ मोक आई ॥ `
( ९०७ ) वोधसागर
सब विधि घमदास पर दाया । मुक्ति युक्ति गुरू स्वे बताया ॥
सादि किये शब्द् उचारी । जोन शब्द मुखधोय निहारी ॥
सोई शब्द् गुरू कटो बखानी । जाते जरे कालकी खानी ॥
साखी-कार जरे कटक जरे, राखो चितम नाम ।
मनसा वाचा कमणा, जाय रस निज धाम ॥
सद्गुरु वचन
घमदासख यह शब्द उचारी । यारी शब्दसों हंस उबारी ॥
कारु जजार मिरत रै जबरी । शब्द खेय मुख धोवै तबदी ॥
काया शुद्ध होइ निज वारा । खख धोवे मोहे संसारा ॥
दिन दिन सुख उज्ज्वल तेहि केरा। रविसमान शख होय उजेरा ॥
अब म शब्द कहत मुख बानी । ध्मदास्र लीजे वपहिचानी ॥
स्म्ररण
सिघलद्रीप दंस कहां रिय । पहले पार कबीर किय ॥
बसले पानी सुख घोय। चदन कारिके धोय अख ॥
सुरति करि अस्चान।तेतिसकोरि सुरदेवता लखे अभ्यतरधरिध्यान
मुख घोवे मनमोरी। ओ देह नरि जान ॥
मनमे ध्यान कबीर कंटिये । सखे वित्त पहिचान॥
मोरे माथे मन वसे । अवर मदिर कोड ॥
सिघल्द्रीप दिग वेठके | कबहु न जाय विगोईइ ॥
साखी-ज्ञानस्थितिके येह गुण, मुख धोवे सर ज्ञान ।
कहै कबीर विचारिके, हंस होहि निबौन ॥
चौपाई
धर्मदा यह _ धम अपारा । जासों होत दिशबर | भारा ॥
दिगबर देह दोत जब भाई । स्नान शब्दं जब गुरुसों पाई ॥
यही शब्द धुधलको दीन्हा । धुधल राव मानि शिर टीन्हा ॥
ज्ञानस्थितिबोध ( १०५. )
मृतकहि देह धरे संसारा । बिना शब्द है कारु अहारा ॥
स्नान शब्द इदयमरं धरदीं । जीवनश्ुक्ति होड भवं तरहीं ॥
यरी शब्दसो धवे अंगा दिव्यदेह जानो परसंगा ॥
जो कोड करे शब्द अस्ननाना । ताकर धोखा जाय निदाना ॥
लक्षहि दान करै नर कोई । जीवं दया बिन शुक्ति न होई ॥
जो घोवे निथय करि देहा । तबही कीजे शब्द सनेहा ॥
कटे शब्द अब्र कहो बखानी । धर्मदास रीजो शिर मानी ॥
नित्य प्रीतिकर शब्द स्नानां । ताकर दोषन रहै निदाना ॥
स्मरण
साखी-अगम सरोवर विमर जल, इख बेठिके न्हाइ ।
काया कंचन मनमगन, कमं भमरं मिटि जाइ ॥
पिडदिसों ब्रह्मांडहि जाना । मान सरोवर करि अस्नाना ॥
सोह सोहं ताको जापा। छिखतन करे पुण्य ओं पाषा)
पुण्य पापसे रहत न न्यारा । पेठि सत जन करो विचारा ॥
यादीविपि जो करि असनाना । सो हंसा करे रोक पयाना ॥
धर्मदास खन शब्द विशेषा । गगवाङ् इतने रै ठेखा॥
स्मरण सम्पूर्ण
आदि अंत सब कहां बखानी । धर्मदास कीजो बिख्छानी ॥
मूलपुरूष काट निं जाना । सो त॒मसो सब कों बखाना ॥
मूलशब्द तहां अम कदहावा । अग्र विदेह अस्थुर सुभावा ॥
मूलभेद काहू नदिं पावा । मूलनाममे गुप्त छिषावा॥
कहं प्रतीत देखी भं तोरी। ताते कों मूर निज डोरी ॥
मूलहि शब्द असंभव नामा । कहै सुने नदि पावे ठाना ॥
चाररोक चार रै नाॐ। चार चार सो बरन सुना ॥
सीख शुङू या बिचि जो धरदीं । जेसी विधि तुम इम सो करहीं॥
( १०६ ) बोधस्ागर
तन सन शीस न्योछावर डारे । तब गुर शिष्य दय सचारे ॥
रंचकं कपट दहियेमर्है राखे । गुरूसनेह रस कैसे चाखे ॥
खुखसे बति मीठी करहीं । अथेद्रव्य मन करजजिम धरदीं ॥
शुरूरोभी शिष्यलालचि जानी । परमारथ नारीं पहिचानी ॥
कैसे ताकर दोय उबारा । ब्रूडरि भवसागरकी धारा ॥
साखी युक्ति सुक्तिको को कंडे, नरकृह नादी ठोर ।
पिशाचषूपष भरमत फिर, बोधे यमक पोर ॥
यौपाडं
चन्य भाग्य तुम हमको चीन्हा । तन मन धन न्यौखावर कीन्हा ॥
यहि कारण भे कीन्हो नेहा । मूलशब्दसों करहु सनेहा ॥
साखी-कंटियत वचन विचारिके, तुम सुनियो चितटाय ॥
धीरज दटता ठानिके, अभरत पिये अघाय ॥
चोपा
जब प्रभु इते मूर अस्थाना । हंस सुजन जन नहि उतपाना॥
सो निज ठंम ल्खावों तोही । धर्मदास जो पूरे मोही ॥
तब ना हतो अग्रको मूला । तबना हतो विदेह स्थूला ॥
तब नहि दस सुजन जनकीन्दाँ । तब यह हंस बास कहां खीन्ह॥
तब साहब समसर उपराजा । खमसर अग्र कीन्ह सबसाजा॥
दशं ग्याश्ड नारीं ब्ह्मडा । तब नहि हते लोक अङ् अंडा॥
तब नरि अमी अमी रस छंदा । तब नहि दिवस रेन अर् चंदा॥
सो अब करौं मूल नि कन्दा । मूर विदेह नाम आनन्दा ॥
केड भेद ॒छृहेड निज नामा । जासों परण है सष कामा ॥
ज्ेे जलय दिनकर ज्योती । यों घट भीतर रछुखिये मोती ॥
धमं नाम असभव नाऊ । निरालम्ब अभिम है गाऊ ॥
निराटब आलंब ठिकाना । याविपि साहिबको पहिचाना॥
्ञानस्थितिवोध ( १०७ )
सोभ देखि तोहि समञ्चाऊँ । यदह तुम राखो दिय छिपा ॥
वह प्रथु निराटब बतलाई । नाम प्रभाव पुष खखिपाई ॥
सार नाम जिन हिये समोई। काल जाल सब जाय विगोई॥
निराट्व है अधर अकाशा । प्रथ्वी षवनहि माहि निवासा
साखी-निराखवहि प्रभाव यह; सकर सृषश्ि बिन नाम ।
अजर अमर विनसँ नहि, बिन थूनीं बिन धाम ॥
चौ पार
सो विधि. ताको मे सशुद्जाई । अविनाशी या विधि पगटाईं ॥
बिना तत्त्व तत्व जो भयऊ । बिना प्रतीति भेद किमि रषेडः॥
कृरि प्रतीति तजि अन्य उपाईं । आनंद गाव॒ अनंद कराई ॥
तब हंसा आनद दहो जाई । आनन्द शब्द् हदयलों छाई ॥
जीवतही नर अक्ति होई । अक्षर गहि निर अक्षर रोई ॥
येहि प्रताप अग्रको लदहिए । स्थूरं बिदेह वादहिमो कदिश ॥
निरालम्बसो सो भए अलवा । शब्द् सश्प सृषठि सब थभा ॥
साखी-निरारुत्रके खोजमे, सब जग परो छंभाई ।
जब सतशुङू दाया करै, तबही परे लखाई ॥
चौ १।३ं
धर्मदास जो विनती करदही । चरणि पकरि शिर ऊपर धरदी॥
तुम समथ म दास तुम्हारा । चरण प्रसाद् भयो विस्तारा ॥
एक विवेकं कदी ससुञ्चाहं । वचन सुधा सुनि तषा बुञ्चाईं॥
अब साहिब कटिये व्यवहारा । मतक जीव गरूड संचारा ॥
जेहि विधि जीवहिगक्डजियावा। सोई भद गुरु मोहि बतावा ॥
मूलशब्द अक्षर पहिचानी । अगमहि नाम अकाश जानी ॥
सो कदिए प्रथु भद बखानी । बाल जिवाई गरूड नरि आनी॥
५९०८) बोधसागर
सद्र वचनं
घसेदाख बूञ्चा व्यवहारा । यै भद अति कठिन अपारा॥
योगी जगम रहे ठकखाई । याहि मेदको अंत न पाई ॥
कलियुग महमदको अवतारा । तिनसो दोय म्लेच्छ अपारा ॥
वेद अथवैनको सत लावदि ! मानस मारिस्ाख बतलावर्हि ॥
पीर पेगम्बर अजमत धारी । जीव दया नहिं कीन्ह विचारी॥
अनकंट वचन कहे दिन राता माता पिता पे नहि बाता ॥
येरि वचन सुनि इडदय लगावो । समञ्चि बुञ्धिके गुप्त छिषावो ॥
आपा माडि थाप सब कीन्हा । आतम सधि कृष्णकटहि दीन्दा॥
अबुजते अमतदो आवा । अद्ुजते जल पृथ्वी ठावा ॥
साखी-करै कबीर विचारिके, धमदास सुनि खेवं ।
इट हो अमत पीजियो, सब जीवन कटि देव ॥
| स्मरण
ॐअकार न्याव सों सारा ।अजब अतीत अचिन्त व्यवहारा॥
अजर अहार अती दै उन्नवल । स्थित उत्पन्न वरी है निमे ॥
अधे ऊध यादि सदी । बकैेत फकं यादि कदी ॥
भयो अक्खते सब संसारा । ख्यो अध ऊर्धं पर मारा॥
साखी--अधथ ऊध आलेख सब, म भे रर समाय ।
कहै कबीर धमदाससों, सोद रहे घर आय ॥
बोर अडोरु आप जो कहेड । दीप अदीप एक नहिं रहेऊ ॥
अष सुषि कटि पच प्रभा । ये सब वारीसो होड आज ॥
कृस नहिं जीव मुक्तिक हेड । एक घरीक जो बोल कंहेऊ ॥
कृरि प्रणाम देहम आवा । अजर अमर अटक घर पावा॥
पुरुष तयोग जो सेय बिछावा । अधं ऊध उपर सच पावा ॥
रसना पाय अमृत जब चाषे । तब उठि जीव वचन सुख भाषे॥
ज्ञानस्थिति्ोध ( १०९ )
साखी-यदह् गुन ज्ञानस्थितदिके, ज।वं जीवं तन अवि ॥
कहे कबीर धर्मदीस सो, अध ऊं समाय ॥
सभ्वूणं स्मरण-चौ पाई
भाषो जो प्रथु अघरत कीन्हों । जहि विधि अग्रत सिरजटीन्ों॥
धर्मदास यह कों इु्चाईं । जहि विधि अम्रत कीन्ह बनाई॥
आपरि आप अधर जो आवा । अश्रत वदी कूर्मं जो पावा ॥
कूम जाय रीति जहि वैडा। धमं सदहितसों कीन्हों पेडा ॥
सहज निरंजन भेद बतावा । भाषो मेदं बरण सब पावा ॥
धर्मराय कूर्मदिपर आए । कू्मनाथ जहां अञ रहाए ॥
मस्तकं काटिय पेट विदारा ।कूमं दुखित भश शक्ति निसारा॥
प्रकट समुद्र॒ तभीसों भय । जवबदही पेट विदारि खये ॥
अभरत धर्मराय क्क पावा । कदु गिरपरा सश्र समावा ॥
अभरत विष्णु तबही जो खीन्हा । जबही मथन सशुदहि कीन्हा ॥
असरत तबहि निरंजन पावा । सोई अभ्र सुक्ृतहि समवा ॥
धर्मशील कारो रै तबही । विषम सरोवर उपजो जबही ॥
धर्मराय अभरत जो पावा । तेहिकारणसों अलख कावा ॥
अमर शीश कमुके पाई । बह्मा विष्णु तबे उपजा ॥
जीव जत पृरथ्वी उपजावा । यह बरु विष्णु राजसो पावा ॥
इद्र जाय तब सेवा करहीं। भांति भांतिके सुख अनुसरदीं॥
तप्त कीन्ह देवन सब अगा । विष्णु दया कन्दी परसगा ॥
साखी-सृक्षम इ दया करी, इद साजि विस्तार ।
ब्रह्मा विष्णु महेश मिलि, कन्दो सकल पसार ॥
चौ पाईं
धर्मदास जो बिनती लावा । गरूड अमृत केहि कारण पावा॥
सतमुरु बचन
पूर्वं कथा अब कहो बखानी । धर्मदास लीजो बिल्छानी ॥
( १९० ) बोधसागर
नागरि लोकं इद्र जो गय । सुधा हेतु कारज तेहि ठय ॥
डारेड नाग फसते तबरीं। कौन दुडवे याते अबहीं॥
नागदेवके मात रहीया। ग्ड मातसोदीं छट करिया ॥
माथे लीन्ह गरूडकी जीती । छुलसों भई दयाकी रीती ॥
गरूड मात कहि वचन सुनाई । दासी भाव कहां तुम पाइ ॥
तब् उडि माता वचन उचारा । सुनो पु एक मेद हमारा ॥
नाग मात मोहि वचन हरावा । याते दासी भाव रहावा॥
पीतबरण शशि हम कटि सोई । श्याम बरण उन करो बिरोई॥
यह छल जानि परा नहि मोदी। सनो तात सथुञ्चावों तोही ॥
कोपि गरूड तब गये पताखा । नागलोकं जहौ विषकी ज्वाखा॥
देखत गरूड नाग सब भागे । मातासो छल कीन्ह. अभागे ॥
मागो सो दम तुम कह ददी । हम कर जास देव जिन एही ॥
गरूड अहिन तब बचन उचारा । अमृतकुण्ड देव॒ सब धारा ॥
नाग आइ तब कीन्ह निदोरी । गक्ड इद्रकी बधन छोरी ॥
अमृत रह दशनको गय । नाग गरूड प्ुंचावत भयञ ॥
गरूड मात नाग जब देखा । दासहि भाव तजब तुम रेखा ॥
अमृत पाड गरूड बरियाना । तब छल ईद ॒गर्सों ठाना ॥
गरुड मदाबल सुख रुदलीन्हां । बोई बेबूर अपरत किमि चीन्दां॥
ज्यों मल्यागिरिं निकर रहावा। तास्वहूप काटू नहिं षावा ॥
कूम उद्रसे सो चलि आवा । सुधा समुद्र॒ मथे तब पावा ॥
गुरु द्वोदसों जन्म बिगोईं। नाम पाइ अस्थिर नहि दई ॥
चचरीकं चचल दहै बहई। मल्यागिरिकी सर्म न लहई॥
मलयागिरिको यदि प्रकाद्य। बिष निं बेधे वास सुवास ॥
साखी-मल्यागिरिके वाससे, सब दुम होइ सुवास ।
बासन कहू बेधरी, सदा रहत है पास ॥
ज्ञानस्थितितोध {१
तबहि सकृत बिनवे करजोरी । कृपार्सिधु खनि विनती मोरी ॥
प्रथम तत्व प्रभु भाषव तुमहीं । सो सब ब्ञ्च परैगी हदमहीं ॥
पौच प्रगट गुप्त है पाचा । प्रगट समञ्ि लीन्हें हम सोँचा॥
पंच गुत्तको किये टेखा । पोच प्रगट ये सब हम देखा ॥
पृथ्वि तेज जल पवन अकाशा । सो प्रथु मोहि कदो परकाशा॥
जिरि बिधि ए प्रथु प्रगे आईं सो पथ भाव कहेड समञ्चाई ॥
धिः सतगुरु वचन
धमदास तुमनजो कषु ब्ूञ्चा। सो सब भिन्न २ हम सञ्ञा ॥
पृथ्वी रदी युप्तके नेहा । बहुरि प्रकट हये शब्दं सनेहा॥
पृथ्वी अंग वैराटहि जानी । पौव पतार शीसं अवमानी ॥
इच्छा सुरति शक्ति उपजाई । वैराट हप जाय भिलाई ॥
अलख निरंजन यासों किये । यदी ख्याल अविगतको छद्िये॥
मन माया जब एके भयऊ । सकल स्रष्ि उत्प्रे यड ॥
साखी-जब दोई एके भये, भयो लीन मन ठर ।
नाभिकमट ब्रह्मा भए, सब रचनाको मौर ॥
चौपाई
धम॑ंदास अब कहां बखानी । त॒म हिरदै कीजो बिल्छानी ॥
पाच तत्व जे गुप्त रहावा। सो सबमभेद तोहि समञ्चावा॥
पोचदि अमी पुरुषने कीन्हा । पांच तत्व ताही सो चीन्हां ॥
अचल अमी जो अकाश बखानी । शब्द अमी वायू उतपानी ॥
अजर अमी सो तेज पसारा । अकद अमी जलतत्व सम्ारा॥
रंग अमी सो प्रथ्वी भय । रचना सब याही पय उयञ ॥
पाचों अमृत तर्हवा छाने । पाचतत्व तासों उपराजे ॥
पंच तत्व सों देह सवारी । तीनों गुण तामे अनुसारी ॥
( ११२) खोधसागर
देरी गति काहू नहिं पावा । देह धरे यम काम सतावा॥
गातसकूप रंग जिन जाना । प्रफुलितरोयकमरू विकसाना॥
इषित भयउ बुन्द जो टारा । परे अगाध सिधु मञ्जधारा ॥
परति बुद रंग सब्र छजा। जलतरंग जरु रंग विराजा ॥
साखी-यह गुण ज्ञानस्थितिहिके,जलतरंग उपजाई ।
जलसों सब जग ऊपजो, जरधों का समाई ॥
चौपाई
नाम तत्वजल तत्वहि कन्दा । अस्तुति जरह रंगकर रीन्हा॥
जल उपरहि कूमं उपराजा । कू्मपीठि वाराह विराजा ॥
पीठ वराह शेष जो रहई । शेषि फनपर पृथ्वीं धरई ॥
कूमे सुरति पुरुषकी अदहईं । उनको अंश कूम इह खद ॥
महापुरूष आसन जां आई । स्वासा शब्द् पुरूष उपजाई ॥
बहुरि तेज पुरूष परकाशा । सुरके चर हो तेज निवासा ॥
आनंद रूप लोचन जब कहे । तेज हर्षैषर घट हो चे ॥
हरष तेज सूरय उतषानी । सो सब जगमें कीन्ह पयानी ॥
तेज अग सूरय कर हषा । शीतलता शशिके रसषूपा ॥
या विधि दो अंश उतपानी धर्मदास लीजो बिल्छानी ॥
अग सूर्यं शशि लयो बनाई । तेज दषं गुण उभय बताई ॥
साखी-कूम उद्रसों प्रगर ह, रहे जगतमे छाय ।
बिन सतयुरू नहि पावही, कदे कबीर समञ्जाय ॥
चोपाइ
जो अज्ञान ज्ञान न्दं जाना । तासों भद न कब स॒जाना ॥
बहे बाये मन थिर नि जेदी । सार शब्द कहा करे सनेही ॥
स्वासषासार पुरूष उपजाई । सुरहो श्वासहि समसर छाई ॥
समसर भेद जानि नटि कोई । अग्र शास तेहि किए सोई॥
ज्ञानस्थथितिवोध (र)
वहे गुप्त यह प्रकट बताह । यामे फर्क न जानह भाई ॥
समसर पवन है सकल सुगंधा । ता बिन जगत आय सब धघधा॥
गंध विगेध रची यह देही । समसर पवन स्गेध सनेही ॥
समसर अंग अग्रको आह । समसर गहे पुङ्षको ठह ॥
अग्ररंग र्बोए उपराजा । उनसों होत रंगको साजा ॥
रंग रेख ॒ सब उनसों होड । घ्रतकर रंग डार उन खोई ॥
रंग बोएसे इरियर कान्हा । हरियल रंग जात सब टीन्हा॥
जीव जन्तु ओ कीट पतद्घा । दुम ओ बेली सबके सङ् ॥
घास पात जिव सकल विहङ्गा । इरियर राखो सबके अन ॥
साखी-यह निं होतो जगतर्भ, मरत सकर ङम्हखाय ।
ज्ञानि अरिथत पुरूषको, करै कबीर सबुञ्चाय ॥
चौ पाईं |
दहि वायु इरियर जो कही । हरियर वायु तहांसों सदी ॥
अकाशमदिरमे कोन्ह निवासा । जहि मंडर्ते उपजी खासा ॥
याविधि उपजन भौ सब ठौरा । संसारी भेद कों कड ओौरा ॥
कार्द॒ फसी बड़ डारी। तासों परै न वस्तु विचारी ॥
जब स्वासा सादि उगई । मूल दीक्षा प्रथम कहाई ॥
जब बाठकको दीक्षा दीजे। बीरा देकर अस्थित कीजे ॥
सार नाम तब देव ल्खाईं । जरा मरण सुस्थित घरपाई ॥
निज केरे नाममें बासा। जासो स्वासा नाम प्रकाशा ॥
बिना नाम काल्की रफसी। दीक्षा मूख यही प्रकाशी ॥
साखी-मूल दीक्षा संग इह रे संत चित लाय ।
धन्य भाग्य वा हंसके, नाम सधि जो पाय ॥
बिना शब्द् संधी बिना, काह न पाईं बास ।
सधि नाम हंसा गहै, करे कार नहि जास ॥
( ९९४ ) वोधसागर
सत्य सुक्रतकीं रहनि रहि, गह अजमन नाम ।
करै कीर घमदाससों, सत्य शब्द् परमान ॥
सत्य सुकृत लों मेड टै. ग्यान ध्यान धर धीर ।
शब्द् अजानन रै वही, सोई तत कबीर ॥
आजर अमर वह पुरूष रै, सत्यनाम बेपि छोर ।
कहे कबीर धमदाससों, थाह शब्द शिरमोर ॥
चौपाई
अब यैं कों अकाश बिचार जिरि विधिभयव तासु विस्तारा
अकाश अड मध्य जो रदेऊ । अकाश भेद बिररे जन रहै ॥
अकाश अग सो सब निमावा.। श॒न्य मदिरे नाभी आवा ॥
पुथ्विअकाश योग अब कीन्हा) शब्द् देतु काहु बिररे चीन्हा ॥
ताटमृदग अकाशते रोई । रहित शब्द पुनि सुनी समोहं ॥
अकाशबीच असटोय गजारा । बिना म्रदग शब्द नकारा ॥
अकाश पेट अकाशदि चीन्डा । सुरति सुनी आकाशि दीन्हा ॥
सखी - कटै कबीर अकाशगुण, ब्रूञ्त बिरला कोय ।
लीलारंग अकाशका, सुनिनो सत्य बिलोय ॥
चोपाई
जो मदिर अकाश नदि देखे । तबरगि शब्द् रहत अनपेखे ॥
पोच अकाश तै लखिपाई । जवे मेज गायनी आईं ॥
साखी भेदाकाश गुण अधरहै, ज्यों टखि पावै कोई ॥
नहि अक्षर ठखि आवी; पहुचे निज सोई ॥
त्र गायत्री
धमदास विनवे करजोरी । भाषों शब्द् गायत्री डोरी ॥
मेद गायत्री बालकको दीज । प्रेम सुफल बालककौ कोजं ॥
ज्ञानस्थितिबोध ( ११९ )
यापर करत केसे जाई । प्रकृति अग मायाको भह ॥
माया अग अष्ठागी कीन्हा । अषश्टगी गायनी चीन्हा ॥.
येह शब्द् हम कहो बुञ्चाई । खीजो सतो शरदि चद्ाईं ॥
बारा योजन बडे जाइ । पठ पठ टे इहीठां गाय '॥
अरमनाको आगो यह टे । ब्रह्म कथौ हिरदय रसन टूट ॥
जार बार कालरिकर छीरा। करकर निमरु अंग शरीरा ॥
बास अमरपुर शब्द सधाना । करै कबीर कार पछिताना ॥
सम्पूणं
न्यक्
रक्षा प्रथम न्यास जो करई । सुर गंधर्व न्यासो उरई ॥
कालजाट निज बदन दोईं। निम रहै कार कं खोई ॥
भूतदि प्रेत वीर वेताला । वायु बतास ओर सेताला ॥
साठ तीनसौ उखत किये । दगन्यास कर एक न रहिये ॥
साखी-यह गुन दग अन्यासके, कटै कबीर बखानि ॥
प्रथम रक्ष या कह पटे, बद हितचित पहिचानि ॥
चौ पार्
दुष्ठनको वेधन दै येही । हंस शुक्त मन युक्ति सनेदी॥
रगन्यास प्रथम जो पटृइ। तब रक्षा मन शब्दहि दद्ई ॥
टगन्यास बालकको चाही । संशे अंश रहित रो तादी ॥
यदी शब्द मेँ कों बखानी । यही भेद ॒बिरले परिचानी ॥
साखी--उत्तम मध्यम अधम जो, सबदि करे निर्वाह ॥
दगन्याप्षके येह यण, शल क्षेम परवाह ॥
धमेदाम वचन -
धर्मदास बिनती उदि कीन्हा । पुरुषहि भेदसकल इम चीन्दा॥
निश दिन चरण चित्त तव धरहू। अन्य उपाय सबे परिदरहू ॥
( १९६ ) चोधसागर
येरि वचन प्रभु कहो बुञ्ाई । जाते काल दंड दुख जाई ॥
इदुमती कह कारु सतावा । रहि सचत शब्द खखि पावा ॥
सो मोहि भेद बतावहु स्वामी । करहु कृपा यरु अन्तयामी ॥
सद्गुरु वचन
मेदास भरु पूछन कीन्हा । सो अब्र भद् तोहिकटि दीन्ां॥
रानी काल कीन्ह जब जासा। तब हम शब्द् कीन्ह परकाशा॥
साधु सत सेवा चित धरदीं । भक्ति प्रेमबहु बिधि सों करदी॥
दमि छोड नरि जाने दूजा । कुरुकरनीकीं छंडे प्रजा ॥
तजि कुल करनि अमरपदपावा। येही सात नाम चित रावा ॥
तोसों शब्द् विरही भाखी । तवं कारण दिरदेमे राखी ॥
येदी शब्द् लेह शिर मानी । मनसा वाचा निश्चय जानी ॥
विरहुरी
आदि अन्त तबन इते बिरही भूमि अकाश न हते बिरहुरी॥
तब् विष नटि अवतार षिरहली। विषकीक्यारितुमबादिषिरहटी॥
बिषका कीन्ह अहार बिरहुली । सवा लक्ष पर्वत थे बिरही ॥
तदा विषको अवतार बिरही । गड़गड़िशकर बोह बिरही ॥
पवेति डारेउ पानि बिरही । सोषिष सतहि खाइ बिरदृ्टी ॥
विष मारि होय जाय बिरहरी। मउरी ससय करिय बिरइटी ॥
आपूय हरतार षिरहुरी । सबसों शब्द निरंत बिरही ॥
भाय विषपेटि पता रु बिरंहुली। बनदि कंदविष विकर बिरहूली॥
पोस्त धतरा भोग विरहुली । गुरु बचन धरि बोध बिरहुली ॥
विष न संचरे ग ॒बिरहृरी । उदमदपिष मदराज बिरही ॥
यह विष बिरछे सम्हार बिरहुली । जब नदि स्वग पतार बिरहुटी॥
तब विष नईिअवतार बिरहुली । दूत भरत॒ सब भगे बिरही ॥
जहां बसे साधू संग बिरही । भोगा कीयो तें कां विरही ॥
ज्ञानस्थितिबोध ( ११७) `
कँ ये उसवत आये बिरहृटी । साखी नामकी चले बिरह्टी ॥
सव दुख तुरत नशाये बिरहुटी। नामकी कदाउतपाति बिरहटी॥
सवबहि तुच्छ कह जाय बिरहखी। वचनादिके अकार बिरहुखी ॥
मन विष दूरि पराय बिरहुटी । तनसों दूरि है जाय बिरहलीं ॥
शब्दसुनत विष जाय बिरहृटी। इरि पके संसार बिरहटी ॥
साहिब कीयो संसार बिरही । दूत भूत सब हारि बिरहटी ॥
पहुचे सत्य कबीर बिरहुखी । भई यम जिय पीर बिरहटी ॥
इन तन बिषन समाय बिरही । उत्तर रानी पाय बिरही ॥
उठिके आसन दीन्ह बिरहुखी । विरहुलो दुःख नशाय बिरहुटी॥
वार वार शिरनाय विरहुली । कबीर गुण गाय वबिरहली ॥
विरहटी संपूणं
धमेदास वचन
धमेदास फिर विनती करहीं । सतगुरु चरण शीश पर धरहीं॥
अब प्रभु करिए खोक सरूपा । दीन दयार पारु अनूपा ॥
पदयुरु वचन
धमेदास मेँ कों बुञ्ाई। विना मेद् लोके नरि जाई.॥
अंधी सुरति शब्द बिन जानौ 1 छोकं दीप केसे परहिचानौ ॥
शब्द पाय जब सुस्थिर होई । थान अकाम लखे पुनि सोई ॥
जो रणि पावै थान जुकामा । सुरति चले तब पावै नामा ॥
विना नाम नहि ठर ठिकाना । अंध सुरति हो रहे ठगाना॥
सोदैगत सब छौं बखानी । एक चित्त हवै गहे च प्रानी ॥
पुटप दीप सब दीप निवासा । छष्विस दीप रचौ तेहि पासा ॥
कंचन दीप् पाह पर॒ सोहै । रत्न अन्रूषप कोरि रवि मोहे ॥
तहां पुरुष पर कीतिं विराजे । उत्पति प्रर्य तेदिपर छाजे ॥
लीखगर दीप पुरूषको वासा ।जहां पहुचे न कार्की जसा ॥
(९.२८) नोधसागर
कारहि गसो वहां नहिं आवे । सहज पुरूष जौँ बेटि रहावे ॥
विनती सहज कन्द कर जोरी । जीवन बध वेगि प्रभु छोरी ॥
बीज शब्दम सोहं वीरा । यह उत्पति शङ् कटै कबीरा ॥
यहां गमी कोऊ निं पावै जौँ लीटखगर द्वीप रहवे॥
ताँ सुजन जन बैठे ज्ञानी । सत्य सुकृत दोई अगवानी ॥
अवमे कों दीपकर ठेखा । जाविपि रचिव रंग आओ रेखा ॥
वोज शब्दमे सोहं बीरा । ये उत्पन्न सुन धरौ शरीरा ॥
जगमगज्योति सदा उजियारा । शब्दशपं काया कर प्यारा ॥
शब्दहिं हेत वचन दहै वोटा ।रत्न शिखा चहँ दिशि रै कोटा॥
लोकं नाम है लोकं अनन्दा । उडगन महँ सोहत जस चन्दा॥
आस पसि कचनकी बारी । दीरा लाल रत्न अवतारी ॥
कहा कों मदिर कर रेखा । खम्भा कंचनके आहि विशेषा॥
सिंहासन अति तदी विराजे । कंचन जडित लार बह छाजै॥
लागे कोरि वर्ह दिश खूपा। चन्द प्रकाश ही जान स्वष्टपा॥
तेतिस कोटि सूर्यकी पोती । बीच बीच देखो असं कती ॥
तापर सोहत अधर अटारी । हीरा मोती बहुत सवारी ॥
ता ऊपर शोभित कस रेखा । कोरि रत्न दमकत जब छेखा॥
मोतिकं चौक. प्रर जनु डारी । शोभित चौक कलित विस्तारी॥
ता उपर जु रग अस सोहै । मानहर रत्न मणी मय होवे ॥
जगर मगर सोहै उजियारी । उपमा बरण सके को प्यारी ॥
बहुत हि उपमा को कह दीज । कोरिन भाग सूं शशि कीजे॥
पाटगहूप काकटिके बखानी । हीरा रतन बीच बिच खानी ॥
सेजरूप शोभित शशि खानी । चन्द्रं सूयकी ज्योति छिपानी॥
चन्द्र सूय नादीं वह तारा । नाहि रत्न कञ्चन महि भारा॥
साखी-ज्ञानस्थितिके येह गुण, पुरूष रूप उजियार ।
परल इच्छाते भए, लोकं दीप विस्तार ॥
ज्(नस्थित्तिबोध (१)
चौपाडं
ताँ पुरूषने सेज विछाई । चन्द्र सूये जहा रहै लजाई ॥
तिलभर सिज्याको परवाना । सोहं सरति अभयपद् ज्ञाना ॥
तहँ पुरूष करहि आनन्दा । जिनसों अम भए सब छन्दा ॥
तहाको बरन कहे को भाई । लक्ष जीवक्षों नाहि कहाई ॥
अमर चीर सोहं अस अंगा । सू्यमणीसौं अधिक सुरंगा ॥
यदी त्रत सनको माई पुरूष रूपको कहै बनाई ॥
शोभा कहो दोउ कर॒ पानी । चन्द्र सूयेकौ ज्योति छिपानी।
सर्वं वरणको करो बुञ्याईं। उमे सूयं मानो उमगाई॥
दत स॒र्ग शोभित अति भारी । मानो मणि वत्तीस विचारी ॥
भालषप का कों बखानी । चन्द्र किरण सानौ ल्पटानीौ ॥
इक २ चरित वरणि नहि जाई । मान सुकृत सत्यं उमगाई ॥
अधर नासिका सोहत कैसा । उभय रस्त विहरत है जसा ॥
साखी-बरणन सबका याहको, मोसों कहो न जाय ।
उपमा केहिको, दीजिये, पटतर नाहि दिखाय ॥ `
सूरय होय समुद्र भर) भ अकाश भरि चद् |
तबहु न पटतर पाडये, पुरूष वदन आनंद ॥
राई भर वह् वस्तु दै, अधराई अस्थूल ।
लहर लहर वटर्मेकरे, वही पुरूष निजमूल ॥
इह गण ज्ञानस्थितिहिके, कटे कबीर समुञ्चाइ ।
पुरूष ध्यान जबही करे, सब दुख जाय पराई ॥
धर्मदास वचन
धर्मदास तब बिनती ठाना । दीन्दों मोदि मुक्ति फलदान ॥
साहेब कहिए मोहि बखानी । सत्ताइस दीप कहो बिलछानी॥
दी पनको किये मोहि लेखा । जामे परचे शब्द विवेका ॥
{९ ९२० `) चोधसागर
घमेदास जो पचि आईं। सो अब्र कथा कटो ससुञ्षाईं ॥
पुडुप द्वीप जहौ पुरूष रहाई । अलोप दीप तासों कदि भाई॥
आख षास दै छठ्बिस दीपा । तहां पुरूष रहै अधर समीपा ॥
तीन दीपनको नाम बखानों । ध्दास मनमों बिलछानों ॥
अजर द्वीप पुरूषके पासा । कुसुम दीष सतशुङ्् निवासा ॥
अपरदौप सुजन जन जाना । सुमन द्रीप अब कटौ बखाना॥
सदस नेर द्वीप सुनि लीज । अलोक द्वीप सुनिके चितदीजे॥
कंचन दीप वबरखानों आई । केचन दीप सुनो चितलाई ॥
सुरजन द्वीप कों सम्भारा । अजर द्वीप निर्मल उजियारा॥
हेत द्वीप सुनियो चितटाई । लवंग द्वीप द्वीप अति छाई ॥
अबहि निरक्षर किये द्वीपा । कमल द्वीप तह पुङ्ष समीण॥
अबु द्वीप बहत उजियारा । सुरति द्वीप अब्र कहौं पसार। ॥
भिरत द्रप सोरी जन जाने । निह द्वीप करै पहिचान ॥
श्वेतद्रीप समञ्च दो ज्ञानी । निशित द्रीपमों जाय समानी॥
सुस्थिर द्वीप चित्त जो राखा । कीरति द्रीपकरे अभिलाषा ॥
अकृत द्वीप आदि उजियारा । अक्ष द्वीप मह शब्द पारा ॥
„ द्वौ पचद्र॒ मन करौ अनन्दा । पतंग द्वीप उमगे रवि चन्दा ॥
कुरच द्वीप धर्मनि घु जानी । सताइस द्वीपके नाम बखानी ॥
साखी-इतने द्वीपक गुप्त कोइ न जानत नांव ।
कहँ कबीर धमं दाससों, सोई ठंव टखखाव ॥
चौ पाइ ्
धमदास तुम सवे विचारा । सार शब्द नारि अवुसारा ॥
जबर कमि सार शब्द नि होई । तौ जिय केता जन्म बिगर ॥
काम कपार भोज बसु नारी । सो साधू जिन नाम रसंभारी ॥
ज्ञानस्थितिवध ( १२१ )
इकोत्तरसे पुरूष तर ॒ जाई । इहि विधि रहन गहे चितलाई॥
नारि पराईं चित मन देही) जन्म सात कुष्ठी कर छेदी ॥
नारि पराई अंग ववे । कशमर रगे तत्व वटि जै॥
लाख वषं रहँ भूतकी खानी । भुगते नक घोर सो प्रानी ॥
विना शब्द जो भुगवहि नारी) तो सव परे कालकी वारी ॥
बिना शब्द निरजन टीन्हां । ताते पुङ्ष माथ पुनि रीन्ं॥
नकहिकी कहा बात ज किये । सुर नर सवे काम वश रदहिये॥
धमेदास सुनि टीजे हमसों । उत्पति सकल कदी इम तमसो॥
राजा युग धिर पास म गहिञ। बाटकषप तहां पनि रहि ॥
घरन कृमार तासकी रानी । प्रीतभाव बह सेवा ठानी ॥
पुत्र भाव उन हमकह जाना । कपट भाव नरि तजौँ निदाना
गन पुण्य वे बहुतहि करीं । राज गुमान गर्वं अति धरदीं ॥
शब्द हमार नहीं उन चीन्दा । कुजर देह जायसों लीन्हौँ ॥
कनकं सिह तिनके सुत कदिये । राज तिलक उनके शिर रहिये
भाग्यवन्त भयेऊ बड़ राजा । पिता पीड करदी सब साजा ॥
बहुतक दिवस तहां चछि गयउ। एक दिवस कौतुक अस भयॐ॥
आधी रात बीति गई जवबदी । राजा स्वप्र दीन्ह पुनि तवबही ॥
कुंजर देदह धरे तब आवा । कनक सिह कर स्वम जनावा ॥
अहो पुत्र सुनु बचन हमारा । यहि घर आय तू सिरजनडहारा॥
भ्राताशप उन्है जिनि जानौ । सतगुरु आप ठेव परमानौ ॥
जब तुम भक्ति करो चितलाई। कुजर देह छरटि मम जाई ॥
चटपट परत राति नियरानी । मीन करत जो पानी पानी ॥
प्रात आई पदं शीश लगा । हम निं चीन्ह तुम्हारा भा॥
चकं परी हमसे शुरु साई । मरम तुम्हार चीन्ह नरि पाई ॥
त्राताङूप हम तुम कह जाना । तुम तो बह्म आहू निरवाना ॥
( ९१२२ ) सोधसागर
पिता इमार कुजरदि मय । आधी रात खबर मोटि दयञ॥
क्षमा अपराध कीजिये स्वामी । कृपा सिधु हौ अंतरयामी ॥
खादब दया करो अति भारी । सकल जीव ह शरण तुम्हारी॥
दाया करि दीजे वर सोई। जाते आवागमन न रोई ॥
जिदहिमो दोय मोर निस्तारी । सो प्रभु करिहों तब बलिहारी॥
तब हम उनपर दाया कीन्हा सपिक नाम उनि क दीन्हा॥
विधिपर भक्त कीन्ह चितलाई । धनकर मनकर तनकर भाई ॥
सतरहसे रानी परवाना । कर्मनि काह कहा नहि माना ॥
कंडकं उहागिर हती जो रानी । सोउरि चली शब्द परिचानी॥।
सकल रूप कर चटी सिगारा । भक्ति हैत कारन पग धारा ॥
लीखावती नाम तिहि केरा। सो हम जीवन कीन्ह उबेरा॥
सोरद रानी सहो राजा । पहंचे लोकद पुरूष समाजा ॥
सोई कथा कुंजर मों आई । धर्मदास परखो चित खाई॥
साखी--यह गुन ज्ञान स्थितिहिके, सेव शब्दं निजसार ।
या विधि हस करनी करै, उतरे भवज् पार ॥
` सजको शाब्द
साखी-अक्षय नामके सेजपर, रसा पारस दीन्ह ।
कालम यम लूटिके, हंस आपन कर ीन्ह ॥
अक्षय सुख सेज आदी बानी । जापर रसा पारस आनी ॥
साखी-जो हंसा पारस परसि, कहे कवीर सत बोल ।
ताक चोर उदके नरीं, युग २ आदि अमोल ॥
ते द॑सागये अमर लोककरदे,अक्षय अंक दमपारसटीन्द।
कटै कबीर सतरोक बेठिकर; जीमें चीन्दोती दीन्ह ॥
धर्मदास वचन-चौपां
वर्मदास. चित सेवा ठाने । दोह कर जोरि चरण रूपटाने ॥
ज्ञानस्थितिबोध ( १२३)
कठिन बेद साहेब तुम केदेऊ । जीवन मर्म न काहू ठे ॥
ब्रह्मा विष्णु शंकर मिरि भाई । अलख निरंजन ध्यान ठगाई॥
सुर नर मनिकी कौन चलावै । पचि २ मरे पार नहि पावै ॥
तवन भेद सदिव मोटि दानन्टा । दंस उवबारि खोक कहं लीन्हा ॥
अत्र प्रभु मोही कृतारथ कीजे । लोक दिखाय दरस ब्रभु दौज
यही देहसों लोकं दिखावो । हे दयाल मम त्रषा बुञ्चावो ॥
चित चकोर तब होइ अनदा । दिखे अवाई लोकं सुटि चदा ॥
साखी-घर्भदास विनती करे साहब सनो चितलखाय |
जबही मम संतोष होई, परूष दश दिखाई ॥
चौ पाईं
सदगुरु बचन
तब साहेव कटि बचन प्रमाना । धमदास तुम मन पतियाना ॥
तुम जग पथ चलावहु जाई । हमकह चिह्न पुरूषकह पाई ॥
हमदि पुरूष कदु अतर नाहीं । सुरती या संग रहाहीं॥
धमेदास्ष वचन
धर्मदास न्यौछावर कीन्हाँं। भये कृतारथ दर्शन दीन्डौँ ॥
अब साहब मोदि लोक दिखाॐ। तुमि शंडि दूजा नहि भाञ॥
बिनदेखे सुस्थिर नहि रोड । कृषा करहु निज राखो गोई ॥
जैसे कृपण द्रभ्यकी आसा । बिन पाए बहु होवे जसा ॥
द्रस करत तन तपत बाहं । जेसे रकं महानिधि पाई ॥
बिन देखे ग्याङकुलचित भारी । पञ्च मरे जिमि मात दखारी ॥
द्रश विना नाहीं चित खागा। हे प्रथु मोक करहु सुभागा ॥
सद्रथुर् वचन
धर्मदास भाल कीन्ह विचारा । अब तुम बचन सनौ रकसारा॥
काया अवधि पुरी जब आदी । तब लेजाव पुरुषके पाही ॥
( श्रध) बोधसागर ,
सुरति शब्द डोरी दढ धरहू । छरृटे देह तसे तब करहु ॥
तब रगि पेथ चलावह जाई । दृढता मानि करौ शु्ूवाई ॥
भिथ्या वचन तुमहिसो करिह । यमकी डगरि जाय सो परिहे॥
धमदासं वचन ्
मूक्छित होड चरण चित लागे ।जरु बिन मीन प्राण जिमित्यागे॥
विन देखे नरि रोय अनन्दा । विडिया व्याकुल है अतिफन्दा॥
तुम सादेव अस बचन उचारा । कंप्यौ जीव जास भवसारा ॥
हम दरशन विन है अति चोरा त॒म प्रसाद दम पाइत वोरा ॥
अतरध्यान मए प्रभु जबहीं । सात दिवस बीते पुनि तबरीं ॥
सात दिवस खग अन्न न पाया। कबीर कबीर ध्यान मन काया।॥
सदगुरू दया करी चित लाई । कच्छ देशते तब चलि आई ।'
कच्छ देश जब कीन्ह पयाना । अरीदास धोबी परिचान। ॥
नाम पानता कर्द समुश्चाई । धर्मदास कद आन जगाई ॥
छोड्ड हठ चित शब्द विचारौ। पथ चखावह ईस उबारो ॥
जीवन अपनी बाह चटखावो। दै परवान रख शरुक्तावो ॥
तुम सब दसनको सरदारा । जीव उबारि जाय द्रबारा ॥
देही सहित जान तुम चादौ । देह धरै कैसे निबीरौ ॥
लोकं बेटि तब करिदौ राजी । काग कालकी टोरहु बाजी ॥
अपनी सशय तुम मत घरहू । जीव उबारनकी सुधि करहु ॥
साखी-देह धरेका यद गुण, देहसहित नरि जाव ।
सुखसागर तबरीमिरे, सुरति शब्द् लोलाव ॥
चो पाडं
धर्मदास उरि विनती कीन्हा । नामसपि साहब मोहि दीन्हां॥
लोकं दीपकी सुनी बडाई । ताते द्रश परश चित खाहं ॥
जब लगि नादीं देखो नेना । तब गि नहिं पतिया बेना॥
ज्ञनास्थितिवोध ( १२५ )
अन्तर ध्यान बहरि प्रथु भयञ। धर्मदास बिरुखत मन भय)
ङ्दन करत रिरे बिलखाता । कहं ना देखे साहब गाता ॥
मोहि अपराधी कस प्रथु छंड़ा। विरह ज्वार जरदी मन भांड़ा॥
हौं अपराधि करम कर हीना । साहिब तरस परे नहि चीन्हा ॥
बिन देखे नहि जियत न आॐ। गुरूचरणाश्रत बिन पकताऊ ॥
अपना दास दास प्रभु कीन्हां। अभिम पदारथ हम कह दीन्हां॥
अब साहेव मोहि दर्शन देहर । तुम बिन कासो करब सनेहू ॥
दिवस आठ अत्रहि बिन बीता। तिना कबीर जीव नदिं जीता ॥
या विधि बारह दिनि हो गयदू्। तब साहब फिर दर्शन दियदहू ॥
साखी-सजिव भये निर्जीविते, अति अनन्द उर बाद ।
धर्मदास मन हषं भ।, सुख अनन्द हिय गादि ॥
चो पाई
धर्मदास विनती तब लाई । इतने दिवस दरस बिन जाई ॥
हम तो भमर कमलके बासी। जल तिन मीन सूरतिज्यो प्यासी)
सदरूयुर वचन
तब साहब अस भाखर बैना । अब तुम देखो अपने नेना ॥
देखह ध्म निरूप इमारा । दमदही छंड़ ओर चित धारा ॥
हिरिणिकूप धरो प्रथु तबहीं। कोटिन भाव छिपाने जबहीं ॥
येहि शूप दै आदि हमारा । हठ निग्रह जिन करब बिचारा॥
जब तुम इतना कीन्हा उपासा । तब कह दरस पाइ इम पासा॥
धप्रद्ास कवचन
भये कृतारथ दर्शन लीन्हा । ध्मदास न्योछावर कीन्हा ॥
बहूरि दास उठि पायन परही । चरण टेक बिनती अनुसरही ॥
जबसे पावब नाम तम्हारा। तसे सुनब रोकं व्यवहारा ॥
अब्र मनसौ अभिलाखा येदी । सोक दिखावडू पुरूष विदेदी ॥
( ९२६ ) बोधसागर
सो कड खेडि चल प्रथु तहवां । सत्य रोक ॒पर्षही जदवां ॥
बिन परिचय नहिं मन पतियाई। विन दर्शन नहिं सुरति दद्ाई॥
तुम प्रसाद पाइब मे मेदा अब परसौ चित अमृत केदा ॥
सत्यरोक परसो उजियारी । भै अब बलि २ जाऊ तिदहारी॥
साखो-यम बेधन सब कारिक, हंस ठगावहू तीर ।
धन्य भाग्य वा हंसके, कहि नाम कंवीर ॥
सद्गुरु वचन चौपाई
तब साहब चित पाया आई । चलँ वेग भँ दश दिखाई ॥
पृथमरहि करौं नासिका बारी । फिर रक्षा मन है रखवारी ॥
चेडे नारीं काट शरीरा । बहुरि किन दोवे तब पीरा ॥
जब तुम करह् अग्र सनेहा । शब्द सपिसों राखो नेहा ॥
उन मुन कर पवनहि अवराधौ। उल्टे ते सुख्टा करि साधौ ॥
सोहं सोरे रोइ सवारा। छोडह देदह चलो द्रबारा ॥
चले जो रस पवनके तेजा । परह चे निमिष मांह जहां सेजा ॥
परग साठ राह इम कोन्दां । साहिब सेचि पकम लीन्हां ॥
राह माह एक नाचहि दृता । शब्द बान मारय अजगूता ॥
छिनमे साहब ङेगये तर्हैवा । पुष दीप ` पृक्ष रह जर्ह॑वा ॥
सुरजन पीप जाइ भे ठाद । देखत दरस हरष अति बाद ॥
धर्मदास सत बिनती कीन्हीं । साहब सुरति घटदिमों चीन्दी ॥
लेकर सुररति चले पुनि तहां । हस सुजन बैठे जहां ॥
करी प्रणाम दण्डवत कीन्हा । हसन कशल पूछि सब लीन्हा ॥
केदि बिधि तुमरक्षा मन आयडु। कोन शब्दसों अमृत पायह ॥
यमको जोर पचत है प्रचण्डा । केसे कटि आये नव खण्डा ॥
कौन प्रसाद पाय त॒म भाई । कोन वस्तु बल इहवां आईं ॥
पिछली सुरति क तुम आनो । रक्षा हस आप कह जानो ॥
£ ज्ञानस्थितिबोध ( १२७ )
धर्मदास तब वचन प्रकाशा । आये इह कबीरकी आशा ॥
नाम संधि उन मोहि टाई । तिहि प्रसाद सेवा तुम पाह ॥
आरतीकर परवाना पावा। काल फस सबदहीय नशावा ॥
सुरति निरति भूख गये जब ही । भवसागरमों ठटे तब दीं॥
साखी-लोक वेद् सव भ्रूलिद्ू, भूखा आपु भाव ।
बलिहारी सतगररूनकीं, जो व्याये इहि गव ॥
् चौपाई
तवहि सुजन जन पी बाता । कडिव कडा है हमरे भाता ॥
तुमरे दीप मोहि. वे ठद्। हम पूरन उनहीके बाट ॥
तत्र सुरजन जन आये तदेवा । आइ कबीर वैरे दँ जरहैवा ॥
चरण लगाई अकमर टीन्हां । भटे गुसोँई दशन दीनं ॥
सिंहासन साहब बैटरी । सुरजन हंस विराजे भारी ॥
आज्ञा साहब दीन्ही जवही । धर्मदास उटे भये तब दही ॥
पुूषहि तवहि वचन उचारा । सुकृत अंश लावो सटिहारा ॥
अरति साजि हंस सब आये । चलिए सुकृत पुरूष बुराये ॥
तब सुङ्कत चित आये तर्हवा । पुहुपदीप पर्ष रहि ज्हैवा ॥
` पुहुपदीप नरि बरनो जाई । जगमगज्योति सदा अधिको ॥
` कामिनि दमक होय अति भारी । कोटिन भावु जाय तहँ वारी ॥
हंस जाय तहां करै अनन्दा । कालजाल व्यापे नहि फन्दा ॥
पंख बेह नभचर तहां फिरदी । अगिन बेहुते दीपकं जरही ॥
बिनं करतार भदंग जो बाजे । चिर विचित्र बीन कर छाज ॥
` बीना सुर तशं शब्द पुकारा । बीना श्रवण सनत ञअनकारा ॥
बिना नारके कमल अनूपा । तामध्ये है पुरूष स्वरूपा ॥
` कृरतहि दरश हरष उर आनी । सतशुरूषचन सत्य कर मानी ॥
साखी-अति अनद् उर उपजो, बाजत अनहद् तूर ।
हीरा खरु मणि जग मगे, अमृत शोभा भरपुर ॥
(९२ ) सोधतरगर
यौ पाई
घमदास सन भये अनन्दा । जिभिरविदरश फएूलि अरर्विदा॥
शोभा दरश हरष अति भाऊ ।उभयसुरखगतिबरणि न जाञ॥
तब सुरजन जन जाई जनावा । साहेब धर्मदास यह आवा ॥
इच्छा अधिकं करे दशनको । पुरूष चरण हियमो परसनको॥
ये दोह रूप तुमि उतपानी । सद्रक् सकते नाम बखानी ॥
तब ही पुरूष बचन फरमाया । सुरजन हंस जवे बुलवाया ॥
लेह बेगि सुकृत तुम अंशा । पुरूष दरश करीब निःशंसा ॥
दंडवत अष्टांगहि कीना । घमैदास आमे पग दीन्हौँ॥
पायर दीप ठाद्भे जब दी ।अभ्रतकला देखत मै तब तब दी॥
पर॒ धमेदास दहि स्रञ्चाई । देखि रूष अब मति अधिकाई॥
कोटिन कला सूयं ओ चन्दा । हीरा रतन भगिने को गन्दा ॥
जगमगज्योति अधिक तहँ राजे। चितवनदष्ि डगत शनराजे ॥
हग संपुट अब्ज सम आदी । द्रशदहरशकछबिरियहि अघादी॥
आनन्दरूप मूरछा आईं । तब सुरजन तन कीन्ह उठाई ॥
सुचित चित्त होऊ धर्मदासा । आभारूप करि शब्द निवासा॥
उटठिकर बाह निछावर करी । शीश नवाय चरण रज धरही ॥
दड प्रणाम कन्द . बहुभांती । सीष अघाइ षाइ जिमि स्वाती॥
तबहि पुरूष अस आसन दीन्हँ । शब्द सहाय हमही तुम चीन्ह॥
तब सुरजन जन बचन उचारा । सुकृत अंश कीन्ह दीदारा ॥
पुरूष दीन सिंहासन टारी । हंसदिरम्मर वैगे आरी ॥
पुरूष तबि थह वचन उचारा । केदिके अंग आदि दरबारा ॥
धर्मदास केसे तुम आये । को वदहियां जिनधरि पहंचाये ॥
. काहेके बर काटि जीता । कोन शब्दसे राखब प्रीता ॥
तब सुकृत बिनती असारी । सादब बचन प्रीति उर धारी ॥
ज्ञार्स्थितिबोध ( १२९ )
ज्ञानी अंश शब्द मोहि दीन्हा । उनकी बह गौन हम कीन्हा ॥
कृरतादेत छकि जब बारा । शब्द् बहि श्रौता कद कारा ॥
काटि जीति अंशटे आवा । उनकी बह दरस दम पावा ॥
सुरजन अश वचन उच्चारा । सुकृतघटये कवि सम्हारा॥
देखहँ लोकि दृष्टि पसारी । ज्ञानी अंश कहां अनुसारी ॥
कौन दीप कद्वो अस्थाना । कौन हप ज्ञानी कर जाना ॥
धर्मदास घट कीन्ह विचारा । पुरूष वचन दष्ट उजियारा ॥
लोकं दीषदेखो सब ठावा । ज्ञानी अंश नजर नहिं आवा ॥
साखी-लोक दीप सब देखिया, अंश नजर नहि आय ।
पुरूष कबीर घट एकह, दूजा नदीं ख्खाय ॥
चौपाई
धर्मदास दुविधा बिलगाना । पुष कबीर एकं पहिचान ॥
हप रेख सब एकि देखा । दूजा भाव अन्य नहि ठेखा ॥
धर्मदास तब चकत भय 1 पुरूष कवीर एकी भयं ॥
ह बन्दगी शीस नवाई। क्षमा अपराध कीजिये संहं ॥
तुम प्रथु आप अवसर नदि कोह। बकसहु चकि मोर क्कु होई ॥
ब्रह्म अखडित अन्तयामी । कृपासिधु प्रभु पूरण स्वामी ॥
लजावान अविगति अविनाशी। खोक दीप सव कोन्ह प्रकाशी॥
पुरुष वचन
धमेदास तोरि दाया कन्दी । अवगति शूपदरश दम दीन्हौ॥
ये दोह करा भिन्न नरि जानो । पुर्षष कबीर एक परहिचानो ॥
एक श्प हम दस उबारा । एक रूप अलोक मद्रा ॥
तुम्दरे शिर जीवनको भारा । भवसागरके तुम कदियारा ॥
यासे पररखो दीन्ह बताई । यह रमती घर देवरि गाई ॥
जो तुमरे घटते नाहि जाती । तो सब जीवन मौह समाती ॥
नं.८ कनीर सागर - ५
(१३० ) व्योधसागर
यह इरमत मनमर्ह जो घरदी । फिर २ भवसागरमों परही ॥
पुरूष कीर एक जिन जाना । इस हमारा सोई पहिचान ॥
के कारु निकट नहिं आई । नाम कबीर कहो चितलाई ॥
खाखी-अब त॒म जाइब जगते, दसन कंरो उबार ।
हईंखराज तुम अंश मम, युगवो सुखि अपार ॥
प्रखयकारके अत्म, जीव जन्तु सब तार ।
दरस परस सब पिरि करे, अस्थिर शूप अपार ॥
चौपाई
पुरूष रूपमे ज्योति निकारा । नाम कबीर देह तब धारा ॥
धमैदास दिग बैठे आई । जौन डप धरि गये ठेवा ॥
चीन्हो सुङकरत खूप इमारा । अब तुम घरमे भव उजियारा॥
चलहु बेगि जिन खावहु बारा । जीवनाथ देव टकसारा ॥
चके सुकृत तबदी शिरनाई । ज्ञानी कीन्हे संग लगाई ॥
निमिष एकं नदि रागी बारा । पहुचे सज शुन्यं मञ्धारा ॥
धर्मदासकी काया जर्दवां । पहुचे ज्ञानी आये तर्हर्वां ॥
चारी दृत देह टिग आवा । चेठन केर उपाय रगावा ॥
घरमे पडटि देह रे जाऊ । धर्मदास फिर करवां आउ ॥
साहब शब्द बानसे मारा | दूतहि मारि रस पेठारा ॥
धर्मदास कहा मर्ह जागा । रोम २ आनंद बहु पागा ॥
गुरू कवीर कह निज कर चीन्हां। तन मन धन न्योछावर कौन्हां ॥
बहत अनन्द कीन्ह गृह मादी । चरण शरण मन लीन्द सदांदी॥
साखी-यई गण ज्ञान स्थितदिके, कंदे कबीर विचार ।
धर्मदास दीदार करि, आए जगत मंञ्चार ॥
चोपाई
धर्मदास दिय॑मे अति इषं ) गद्रद गिरा नेन जल वषं ॥
ज्ञानस्थिति बौध ( १३१)
मम हिय तिमिर आहि अधियारा। महर पतग कीन्ही उजियारा॥
मन अहि तपत कबहु नहि धीर । वचन अंग शीतलमर्यागीर्॥
तेहिषर सत भिय ताप बुञ्चनी । अमरी अस्नजियिपतअघानी॥
पायउ दर्श कत।रथ आन् । दरसन देखेव हंस समान् ॥
अब गुर् मोकर्द देव कलाई । बुहुप द्वीप केसे निरमाई ॥
अं्ुद्रीप कौन विधि मय । धराज कैते निर्भय ॥
सदूयुर वचन
धर्मदास पछी भटवानी । सो सब कथा कही बिटब्मनी॥
पुरूष विदेही देह निमासा । चासा सारते पदप प्रकाशा ॥
सत्रह शंख पखुरी कीन्हा । ताहि मध्य वासा परभु ीन्ह॥
अब्ुदीप तवी जो कीन । सहज पु कह वेक दीन्ह ॥
सवा शंख पंखुरी राजे। जग मग शोभा तहां विराज ॥
आठ पुत्र तरसे उतपानी । तिनसों आगे सिद्धि बखानी ॥
जोति सष्पी पाया आई । ज्योति ह्पके काठ बनाई ॥
उतपत करै प्रख्य संहारा । तउना उपे काल अहारा ॥
सहज धमसों गण परकासा । ज्योति सह्पी ज्योति निवासा॥
धमरायको बल परकाशा। माया जाल जीव सब फसा ॥
आपुन रदियब सुनी मश्चारा । वह बैटि सब कीन्ह पस्रारा ॥
पुटप दीप आवन नहि पावा ' जाने साहब नाहि रहावा ॥
धमराय माया उपजाई । ज्योति स्वषूप जीव अर््ाई ॥
साखी-पुरूष पार नाहीं हे, अटक ज्योतिहि मूतिं ।
ज्योति भह हे प्रकृतित, प्रकृति बनी रै सूतिं ॥
चौ पा |
इह कारण वह दीप सम्हारा । धर्मनि पाव वही वेटारा॥
पुपर दीप जब सिरजन लीन््ी। समसर पवन वास तहं कीन्टां॥
( ९१३२ ) बोधसागर
ज्योति ओट यह बोरुत बानी ¦ सबको जाने पुरूष निसानी ॥
कारु दु जीवन छलि राखा । ज्योतिहिओर वचन मुख भाखा॥
पति प्रलय याहिसों भयऊ । भूर अुलाय सबनको दय ॥
पुदुप दोपको सुमिरन करई । ज्योति स्वरूप नहिं सो परई॥
साखी--इह गुन ज्ञानस्थितहिके, पुहुपदीप अनुसार ।
एहि दीप बासा करे, आवां गवन निवार ॥
चौपाई
पुदप दीपमे समसर कीन्टौ ।समसर पवन श्वास तहँ लीन्द॥
अमर वासना येही आहै। इहि बैठि सब करी कथा दहै ॥
थाह न जानत सूदृ गर्वारा । हुब्ध रेव जयमार पसारा ॥
पुहुपदीपको सब दीप निवासा । जहाँ वड पार ब्रह्मकर बासा ॥
येहि शब्द् तुम खेव विचारी । पुहुप दीप कीन्दां बहू बारी ॥
पुहुपदीप दीपनमे साा।जो बुञ्चेसो उतरदि पारा॥
साखी-यहि सुरति ठे राखहु, पुष दीपके पास ।
सत्य पुरूष जहां आप है, अश्रेत सिधु निवास ॥
् खौपार्
तहको ईस करद पेठारा । जब मिलि रै सद्व कड़दारा॥
देस जाय पुर्ूषटि दरबारा । अविचर्नामकोमरदि सम्दारा॥
सत्य कमलपर बेढक दीन्हा । बैठे हस अतिरि खख लीन्हा ॥
सुधा अहार अमर भे काया ।आदि नाम अविचल मन भाया॥
कोटिन कोरि दृडवत रीन्डा ।घनि सत्य सुकृत नामजो दीन्हा॥
पुरूष शब्दजिनि आपु बतावा । आवा गौन रदित चर पावा ॥
साखी-येदि गुण ज्ञान स्थितिहिके, पुहुष दीप निज बास ।
कहे कबीर वह शब्द् गुन, दसा करदि विास ॥
धर्मदास वचन चौपारं
धर्मदास तब सेवा ठानी । सुरति भेद पृछनको आनी ॥
ज्ञानस्थितिरोध ( १३३)
सो सद्व मोहि कहो बखानी । जासो आदि अन्त पहिचानी॥
जोन सुरति साहब तुम साधी । सो मोहि किये मिटत उपाधी॥
जेहि सुरति प्रथम जो आह । वही सुरति मिलि सबको थाह
बिना सुरति नहिं युङको पादी । चिना सुरति नहिं लोकै जाई ॥
सुरति हो तब ज्ञान उचर । सुरति होय तब ध्यान सम्हार॥
सुरतिहि पेठि पवन को गहै । बिना सुरति वह प्राणी उहे ॥
सुरति होड तत्र अगम जानी । भला बुरा सबही पहिचानी ॥
बहिनभानजी सुरतिदिजानी । माता पुरी सुरति बखानी ॥
मोह न नारि सुरति कह देखौ । ध्म पाप सब सुरति वितेखौ ॥
साखी-जो ङ है सो सुगति है, साहब दे षतलाय ।
सुरति भाव जव चीनरिहि है, तब हसा घर् जाय ॥
सद् युर बचन
तब सद्भङ् अस वचन उचारा । धर्मदास पृच्व मत॒ साशं ॥
विना सुरति पनि कड अनपाई। सुरति विदं नईं आवहि जाई॥
सो अब्र तुमसों कों बु्ाई । सात सुरति सब देव लाई ॥
पुरूष सुरति आपहि उपराजा । विर्हेगसुरतिप्रथमहि किय साजा
बीस आट प्रकृति जो कीन्ही । जो जनमे तस ुगने लीन्हा ॥
जेसे योग॒ मनटिं राई । तैसे इद्धि शरीरहि सोई ॥
प्रथम कों अब सुरति बिचारी। पुरूष एक उत्पन किय नारी ॥
जेदी सुरति तबहि उच्वारी । चारट खोक कीन्ह विस्तारी ॥
विग सुरति तादी सो किए । ब्रह्म सुरति मूर वह लहिए ॥
निरति सुरति ये स्थूलहि छाजा। हरषत सुरति विदेही साजा ॥
बाटी सुरति नाद न गहै। धीर सुरति नाद गुण गहै ॥
साखी-सुरति पुरूष अंगहि बसी, एूट अंडके भाव ।
बीजमूल गुण प्रकट है देखे ते सच पाव ॥
( ९३४ ) चोधसागर
चौ पाई
सुरति शब्द अब कहौं बखानी । धर्मदास लीजो परहिचानी ॥
सुरति शब्द् भाखिब हम तुमसे। सुरति प्रसन्न होय तब हमसे ॥
सुरति माहि रच्यो ससारा । सुरति करै तब उतरे पारा ॥
जेठो अश सुरति जो आदी । पुरूष सग वह सदा रहाही ॥
विहग सुरति पुरूष जब कीरन्हौ। रचाना सपत सोप तब दीन्हो॥
अबही कों सुरती कर मूला । उपज्यो अनर शब्दसो स्थूला॥
जबहो पुरुष कीन्ह है इच्छा । तब इह प्रकट भई सब शिक्षा॥
सुरति शब्द पुर्ूषहि उपजाई । सुरति प्रसन्न खोभ रच आई ॥
सुरति निरति सुख देह अनन्दा। मेटत सुरति सकल दख दरदा ॥
सुरति निरति जब एके होई । तब साव कह देखे सोई ॥
साखी-कदै कबीर वह सुरतिते, सब कड भयो प्रकाश ।
शब्दहि सरति र है, लीन्ह अथमो बास ॥
च पाट्
धर्मदास सुनियो चितलाई । घट भीतर लीजो निरताई ॥
सुरति दप देखो निरधारा । मन बुद्धि चित्त पवनसे न्यारा॥
पोच तत्वकी रचना येही । इनते सुरति जो आहि विदेही ॥
ब्रह्म अंगसे प्रकटी आई । तीनि अग शण कला धराईं ॥
सत्यरूपसे सुरति बखानौ । चेतन अंग निरति कहं जानौ ॥
आनंद सदन शब्दं पदिचाना । सत्य सुकृत दो नाम बखाना॥
सुरति रूपं चैतन्य समाई । चेतन रहित शब्द रौ लाई ॥
सुरति समुदरहि मठी इवारा । हंसा पैटि देखि निर्धारा ॥
साखी-कटै केबीरदि सुरति बर, अपने पुर्षहि देख ।
मन बुद्धि चित्त समेरि के, चेतनकूप विशेष ॥
अक्षय वृक्षक्री सुरति, हंसा लेहि बसेर ।
कटै कबीर ले निबहि दहै, जात न लागे बेर ॥
ज्ञानस्थितिबोध ( १३५ )
अबु दीपकी सुरतिषपर, रस होय असवार् ।
कहे कवीर ठे निबदहिही, कोटि वक्षं बटषार् ॥
गूदृदान रोके नही, सुरति इस ॐ जाय ।
कहै कबीर यम हारियो, कार पैटि पछिताय ॥
इह गुण ज्ञान स्थितिदहिके, गहे शब्द चितलाय |
कृरै कबीर यम दारिया, काल बेहि पलिताय ॥
धमद्।सव चन-चौ पाई
धर्मदास विनती अवुसारी । त॒म साहब हस दास तम्ारी ॥
गुर शिष्यकी. रहनी केसी । सो सथन्चाय कहौ गू तैसी ॥
योग अयोग मोहि समञ्चावो । हे दयाल मम जिखां ञ्चावो॥
सटद्रयुरु वचन
सदगुरूषचनरि विर्हसि उचारी। अगुण सगुण विच गुह अघारी।
शिष्य पछि गुरू भए उदासा । सो गर उरि आए धर्मदासा ॥
जिमि बालक रोवै बिदाई । मात पिता बह बोध कराई ॥ `
येयाविषि गुर शिष्य है मोई । जगम अभरत पीव वोई ॥
शिष्य सीप गुर् स्वाती जानो । गुरूपारस शिष्य रोह समानो॥ `
गुर मल्यागिरि शिष्य भुजंगा । गरू पारस शीतल होय अंगा।
गुर सशुद्र है शिष्य तरंगा । गुर् दी पकं हे शिष्य पतगा ॥ ्
शिष्य चकोर गुरू शशि जानो ।गुूरविकमल शिष्यविकशानौ।।
इह सनेह शिष्य निहचै लदईं । गुरपद् परस दशं हिय गहई ॥
जब शिष्ययाविधिध्यानविशेषा। सो वह सीख गरू समलेखा ॥
गुरून गुरुनमों मेद॒ विचारा । गर गुर करै सकल संसारा ॥
गुरू सोहं जिन शब्द रुखाया । आवा गौन रदित दिखलाया ॥
शुरूहि सजीवन शब्द लखाया । जाके बर हंसा घर आया ॥
वा गुरूसो कड अन्तर नाहीं । यर ओ शिष्यमताएक आही॥
( ९३६ ) खोधसःगर
खाखी-गरू शिष्य एके भए, भिन्न न कबहु दोय ।
दुमेति दिलसो मारिकै, सुरति शब्द चित पोय ॥
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धरमदासबचन--चौ षार
घमेदास तब विनती कीन्हा । चरण पकरिके विन्ती लीन्हा ॥
ब्रह्या विष्णु महेश्वर देवा । केदिविधि उपजे सो कडि भेवा॥
चारि सुक्तिको भेद बतावौ । सुस्थिर ज्ञान मोहि समञ्चावो ॥
सत्गुरु वचन
सदगुरू बचन विहरसि कर बोञे । युक्ति मेद् करहुं परदा खोरे ॥
आदिहि पुरूष निरञन कीन्हा । माया आदि ताहि कह दीन्हा॥
तिद संयोग भये तिय बारी । बह्मा विष्णु महेश विचारी ॥
चार स॒क्तिके वे है राजा । पेच भुक्ति भिन्न उपराजा ॥
प्रथम मुक्ति सालोक बताई । मारग वाम ताहि कर आई ॥
दूजी मुक्ति समीप कावा । निर्वाण माग हो ताक पावा॥
तीसरि शुक्ति स्वरूप बखानी । अघोर मागेही ताकर जानी ॥
चौथी मुक्ति किये सायोजा । सभग मागे कलमा पड़ रोजा ॥
चारों मुक्ति निरञ्जन लीनो । तिनके बसहि जीव सबकीन्हां ॥
अब खन पांच मुक्ति विचारा । घंमदास परखो मतसारा ॥
जीवनमुक्ति दरस तब ठहये । सृतकदसा होय नामि गद्टिये॥
सत्य वचन मुखसो उच्चरईं । नाम सार इदये महँ धरई ॥
नियम धम षटकम्मं अचारा । अिग्ण फंदसों रहै निन्यारा ॥
सुरति निरति नामसों राखे । सद्वर वचन सत्यकर भाखे ॥
लोभ मोहसो रह निह न्यारा । करम कोधते आप उवारा ॥
दुख सुखकी कडु संशय नाहीं । पाप पुण्य नाहीं चित माहं ॥
अरथ द्रव्य भिथ्याकर माने । जीवन जन्म नाम पहिचाने ॥
दया क्षमा कल टूट कावा ¦ विषमे हरषन चितम लावा ॥
ज्ञानस्थितिब्ोध ( १३७ )
सो जिव उतरहि भवजल पारा । जो यह चार चले निर्धारा ॥
अर्धं उरधका करहि विचार । सत्यनाम इदये मर्हधारा ॥
उलरि कमल सुलटा जवर करई। मनहि समेरि सुरति चित धरई॥
समसर पवन. योगि कह तरे । पवन डोरि स्वासा निक्वारे ॥
सोह तार धडदिमे देखे । स्वेत भवर गहि शब्द् विशेषे॥
भवर गफामहँ जगमग जोती । वा घर बरषे माणिकं मोती ॥
निहकामी निरबानी जानी । निदहृहूपी निशितदि बखानी ॥
साखी-आदि सुदंग बखानऊ, स्वर्ग पताक भरि यैर्
कहै कबीर धर्मदाससों, वदी रस शिरमौर ॥
चौपाई
सुरि कमल याजीकर छोरा । सरति करं तब देखि निहौरा ॥'
देसी सुरति निरति मन राखे । सचि दरश पुरूषके भाखे ॥;
जबदही दरश परश पुनि दवै । जन्म जन्मके कश्मर धोवै ॥
जीवन शुक्ति होइ पुनि तबही । सधिकं नाम आव घट तबही ॥
कागहप सब चाल मिटाई। गुर्प्रसाद हंस गति षाईं॥
निमेख जीव इईंसगति भय । नाम सपि इदयेमहं लहेऊ ॥
वंश प्रताप सौचकर चीन्हा। नाम सार अभरतरस लीन्हौ ॥
जीवनशुक्ति देहम पाईं । हिम्मर शूप धरे सो आई ॥
जाती बरन पटे सब अंगी । सद्रङू सचि मिखि बहुरंगी ॥
साखी-मख्यागिरकी वास ज्यो, दीपक ज्योति पतग ।
पारस छुड ध स्वाति सीपके संग ॥
पाड
स्वाती सीप नाम मिटि दौर । क्ता इल तेहि कह सब कोई॥
| धमदामस कवचन
धर्मदास गुर् चरण न प्रई । शीश नवाय दण्डवत करई ॥
धन्यभाग्य दशन प्रथु दीन्हा । अधम जीव पावन कर टीन्हं॥
१९२२४.) बोधसागर
खांदब दया दास पर कीजे । विदेह शुक्ति कर भेद जो दीजे॥
विदेद् शुक्ति किम देड समाई । कोन भांति हंसा खखि पाई ॥ .
्च्छी नदी रेन अति भारी ।सलिरुप्यासकिम मिरे दुखारी॥
पौचो तत्व पोच गति संगा! जिशुणफंद जीव यह रगा॥
नऊ नारीकं कदे वटमारीं । स्वासाषूपए जीव संग तादी ॥
सनको कला अनेकं पसारा । काम कोध तृष्णा अधिकारा ॥
लोभ मोह चिन्ता अतिभारी । जडता गभे इरि विस्तारी ॥
इनके सग काग गति पाईं । हसवरण किमि होय गोर्सोई ॥
यही अंग मन चितवन कीन्हें । केदिविधि साहब तुम कह चीन्हों॥
साखी-घमदासर विनती करै, साहब बधन कोर ।
सब अंगमे भरि रहै, विदेह अगको चोर ॥
सद्युरु बचन
सद्शुङ् वचन सुनो धर्मदासा । अगम भेद तोहि कों परकाशा॥
विदेदसुक्ति तुम पिब आई । सो सब कथा कहो सशुञ्ञाहं ॥
पुरूष विदेह कमरमों र । सुरति विदेह शब्द जौ ठयॐ॥
लोक दीप सवर सुरति कीन्दौ। तेहि षाछे मन उत्पन कीन्ह ॥
विदेह शुक्तिकी डोरी चीन । शब्द सुरतिके हाथहि दीन्हाँ ॥
मन्दं समेटि सुरति पदिचानी । सुरति जाय तब शब्द खमानी॥
शब्द् सुरतिकर बाधो भेखा । भवसागरसे दीन्हों हेला ॥
शब्द विदेह गुङ्कर वासा । सुरतिस्वरूषी शिष्य निवासा॥
सुरति शब्दम लीन्हो बासा । सुरतिस्वशूपी शिष्य निवासा॥
मायाजाल किम सब ठेखो । अग्रञ्जलक नेननमे देखो ॥
कूप याकि दो वचन विदेदी । अग्नी जारः उठवै संही॥.
अग्र शब्द तबही खि पावे । मृतक दिशा हौ सुरति समावे॥
शीतल तपत स्वाद नहि जाने । जन्म मरण शंका नहिं आने ॥
ज्ञानस्शितिचोध ( १३९ )
चरते फिरत वचन अप भाखा । चेत अचेत बोघ नहि रखा ॥
पुत्री पिता बधु नहिं जनि। माता बहिन नाहि पहिचान ॥
ग्रीहि अभूषण धरे न अंगा | तृषा क्षुधा नहि स्वाद उमंगा ॥
ऊच नीचकी नाहि विचारी । धम अधमं दोउसे न्यारी ॥
दुख सुख सब एकि करिजानी । विदेह अंग देसे पदिचानी ॥
साखी-काया सीप सम जानिये, स्वातिशब्द् षट आन ।
परख नेह संपुट बेधो, अुक्ताहल उतपान ॥
चौपाई
धर्मदास इद भेद विदेहा । इह धन धन्य ओर सब शखेहा ॥
जस चकोर चंदा कह ताके । याविधि जिघ्र नामक नाके ॥
केमलचक्र है मनको हषा । स्वप्पह्प भमित वह भूषा ॥
पाँच पचीस कठिन विकारा । देह बीच इन राज पसा ॥
सेमर एूल जस किंशूवां आवा । देखि एूल बहु हरष बढावा ॥
चुगल गारत सुआ उड़ानो । रोम रोम मिथ्या कर जानो ॥
जाना नहीं विवेक विचारा । ठोक कषार चरो खमारा ॥
मायारूप आहि इमि भाई । जिमि फुल सेमर सुन्दरता ॥.,
साखी-नारीषूप नर देखिके; कूकर सम॒ ल्िषटाय ।
बिषय बासनो वधि रहि, विदेदश्ुक्ति किमि पाव ॥
चौ पारं
घरी घरी मन काम जगते । ज्ञान थुलाय नाम विशरावै॥
स्वप्न मोहि सोई छल करई । गुप्तवासना इदये धरई ॥
कूद कूपके अगिन मं्आारा। राखे कौन जीव निज सारा ॥
सम्बुख आय बाधके कोई । भक्षण यतन करे वह सोई ॥
रक्षकं शब्द जाहि तन गाजे । उलरो कारु तदसौ भाजे ॥
यरी शब्द् धट राखि समाई । माया ताहि खान नहि पाईं ॥
( ९७० ) रगेधसागर
खारवस्तु घटमों पदिचानो । रोम रोम अस्थिर उहरानौ ॥
काया खकरु कालकी बारी । निसदिनध्यान शब्द चितधारी॥
देरी सकरु कार्की जानै । बिदेह अंग आपि पहिचान ॥
देहं ॒ विदेह नेद शण जाने । आपा मेरि आदि गुण ठाने ॥
याविधि मनमों रहनी करई । आपा मेरि आदि गुण धरई ॥
साखी-करै कबीर वह आपै, नरि समरन नरि जाप ।
धमदास छिखि खीजियो, अकह अगोचर छाप ॥
चौपाई
अक् अंश जब कहत रहावा । षांचततव गुणतीन समावा ॥
चलत हंसत बोटत बहुबानी । आपुन राजा रंकं समानी ॥
माता पिता धरणि घर कीन्हे । आपुहि योग भोग सब चीन्दे॥
गृह निकरे पुटि उपजवै । अपरि षटकर्मन कह सवै ॥
भूख प्यास तृष्णा बह सिया । दुख सुखको सगीसोहिरदिया॥
अथ द्र्य सुभिरण सों राखे । मिथ्या सत्य आप ख भासे॥ .
सुमिरण भजनआपदी करई । अकला बै अकला संचरई ॥
भर) बुरीको करत बिचारा । आपदि पाप पुण्य विस्तारा ॥
कबहुकं सत असत कहावे। मनके भाव अनेकं दिखाते ॥
आपटी सेवा केरे करावै । खीञ्चे रसे मनहि परितावै ॥
साखी-आप आपी रमि रहो, आत्मषूष परवान ।
यासो रहित अपार है, परमातम सुस्थान ॥
चौपाई
तब साहब अस वचन उचारा । रदित शुक्ति सब इनसो न्यारा॥
रहित भाव जो घरमे देखो । आवा गौन रहितई ठेखो ॥
रहित पुरूष कंद तवही पावे । अस्थिर ज्ञान चित्तम रावे ॥
ज्ञानस्थितिबोध ( १४१)
लिखि षडे नहि पावै भाई । बिन सतथ॒क्को दे खाइ ॥
प्रेमसुधारस तवदी पव । युङ् बदियां मिलि भद् छ्खवे॥
चित आनंद अस्थिर तब जाने! स्ुभिरन भजन नाम पहिचने॥
मातु पिता सुत नारि पियारी । पुरजन जरम रइनि विचारी ॥
नाम गोर तन शीतल कीन्हां । मिथ्या नारिषु कुक चीन्हां ॥
भह प्यास गईं तन ताको । दख ओ खुखकी आस्न जाको
अथं द्भ्य मिथ्या करि जानी । बुधकां बुधौ रहित कर मानी ॥
भटी बुरीकी नहीं विवेका । जह देखो तहं आनंद पेखा ॥
पाप पुण्यकी सशय नाहीं । सत संत रहित जो आही ॥
मन बुधि चितते रहे थुखाईं । पांच पचीस राखि अङ्ङ्ञाईं ॥
बेढे उठे दूजा नहि आने। उत्तम मन अग्रतरस सने ॥
मन अशू वचन रदित करि जाने। शासा बीज नाम शुनि तन ॥
नयन नासिका रहित अनन्दा । उदित भए जनु परण चन्दा ॥
हाथ पांव इन्द्री बस कीन्हे । सूरय चन्द्र रहित धर चीन्डे ॥
जो देखे सो रहिते देखे । रदित अनन्द अवर नहि चेखे ॥
सब गुण सहित रहन है ज्ञानी । रहित बिना है भेद दिवानी ॥
जब ही रहित आप वह कौन्हां।पुक्ूषदहि समसर जो जिय चीन्डां॥
रहित शब्दमों है मतवाला । ताक देखि भूरि रहि काला ॥
सुरति सम्हार नाम दढ रीजे । नाम सुधारस भरि भरि पीजे ॥
साखी-इदगुण ज्ञानस्थितिदिको, रहित अुक्तिकर मेद् ।
कहे कबीर धमदाससों, नाम अमोलिक लेव ।
हप मगन मन हा रहो, अंग अंग सुखधाम ।
जिमि मिसि कागद परी, होत सुअक्षर नाम ।
चौ पाइ
त्रम पियाला कठिन रहाईं ¦ सत्यशूप धरि पीवे अघा ॥
( १७२ ) नोधसागर
जिमि सत्तो सरको चदि जवै । पिव कारण वह् जीव ौवावे ॥
संसार कहे वह बोटत भाई । जरबर गई प्रेम निर्वाह ॥
जौवतहो जिय पीयके सगा । माया भरम तजौ परस्गा॥
जो कोई दोय इस अद्री । नाम स्नेह रहै परंसगा॥
ज्यो पतंग दीपके कारन । जीवन आये अंग सब जारन॥
अग विदेह येह अवुसरहीं ।असन बस्तनीकी सुधि नहि करदीं॥
करत सुनत जिय तनमर्ह डोरे । जीवन प्राण पवनरसग खेदे ॥
साखी-रदितदहि भुक्ति कठिन है, कोड न जानत भेदं ।
शब्दहि सुरति समायके, हंसराज इइ खेद ॥
जो जन पियके मद् छकै, करे पियापिय पीव ।
पीव मिरे हिटमिलि रहै, शास्र समानेउ जीव ॥
चौपाड
इश्कभाव दै कठिन अपारा । विरले जीवहि करे सम्हारा ॥
धमदास करि सनो गुसाई । कीन्द कृतारथ मोक आई ॥
सुस्थिर ज्ञान मोदि समञ्चावा । मनचञ्चल सुस्थिर उहरावा ॥
कीन्ह कृतारथ मोकर्द आज् । बरनेव पुरूष दंस समानु ॥
इद ब्रदान देहु मोदि स्वामी । कषासिधु गरु अंतर्यामी ॥
चरणकमट उरसो नरि टरदी । पदपराग मनवासा धरही ॥
मन चचल है कठिन कटोरा । कैसे प्रीति लगे गुर वोरा ॥
सो समञ्चाय देव मोहि भेदा । आदि अंत सवर कीन्ह निषेदा॥
साखी-तुम प्रभु दीनदयाल दौ, इम निज दास तुम्हार ।
भवसागरते काटिके; दीजे पार उतार ॥
चौपाई ¦
परदास निश्चय मोहि चीन्हां । तुमरे घट दम बासा लीन्हा ॥
जहं लगि जीव जगतमें आदी । ते सब उषरहि तुमरे वादी ॥
ज्ञानस्थितिवोध ( १४३ )
वंश बयालिष जंग ओौतारा । तेजह है जीवन काडनहारा ॥
नाम विदेह अकह दम कीन्दा । सोई वंश हाथ करदीन्हँ ॥
वचन हमार शब्द दकसारा । च्रूरामन तसि आओतारा॥
पुरुषटि अंश आहि निज सोह । शब्द अतीत नाम कहि सोई ॥
आदि नाम निरअक्षर जानौ । मुक्तामणि तिनको पहिचानौ ॥
उनसोँड सकल गवे सोचा सोई जीव कालसों बचा ॥
नहि अक्षर नहिं आदिकि बानी । सोहग तार पुङ्षहि उतपानी ॥
इतनो भेद जानि है सोईं। जोरा हि अंङ्री होई ॥
विच्छ मच जानि नहिं पावा । सर्वकी बनी हाथ समावा ॥
मुक्त न होय परे यमखानी । नरक वास ओँधे अख आनी ॥
प्रेम प्रीति जाने निं कोह । तासों गए गोड बिगोई॥
अक्षर इश्क आदि निज सोचा । जो चीन्हे सो परछे बचा ॥
साखी-ज्ञानस्थितिके येह गुन, इशक पुरूष निज बास |
कटे कबीर धर्मदाससों, गाउ अक्षर विवास ॥
चौपाई
सुर नर मुनि गण गंधर्वं देवा । रहित पुरूष कर ल्खौ न मेवा॥
धर्मदास सुनि प्रेम स्वभाऊ । शीस देड तब प्रेम कटाञ ॥
अब मै कहौ मुक्तकर भाज । अक्षर मिलि हैसुक्त प्रभा ॥
जो देखे सो समञ्चकर देखे । अक्षर बिना पुरूष नरि चेखे ॥
भला बुरा सब समकर देखे । नर अर् नारि एककर लेखे ॥
पाप पुण्य शंका नहि करई । दुख सुख दोऊ समकर धरई ॥
नर ओर नारि एकदी घटमों । ज्यों कपास है सूतहि पटमो॥
जल थर पवन अकास बखनो । धम अधमं एक करि जानौ ॥
पौँच परचीसौ बधन करहीं । अयदश पाँच ताहिसों तरहीं ॥
रसना रसपति माया डारी । इच्छासंगम मन फटकारी ॥
( १७७ ) चोधसागर
नयन नासिका श्रवण तरंगा । जिह्वा इद्धि करी एक संगा ॥
दाथ पौव जीव सबमों वासा । पर २ किन २ करि प्रकाशा॥
काया मोहि शब्द पहिचानौ । मिथ्या जग स्वप्नहि सब जानौ॥
लोम मोह नाहि बवितधारा । निज अक्षरको करे सम्हारा ॥
अक्षर बहे शीसके मारीं सो लखि आवै सतगुरू पादीं ॥
उन सुनि करिके अक्षर देखे । अक्षरसों भिरअक्षर पेखे॥
निरअक्षर रहै वस्तु अपारा। जो जने सौ उतरे पारा ॥
अक्षर निर अक्षर दूजा नादी । दूजा केरे बिशुक्चन तादीं ॥
नाम स्थि इदये महं राख । अभ्र विदेही अभरत चाखे॥
साखी-ज्ञानस्थितिके येह यण, सबविधि केरे सहाव ।
` मुवा अस्थिर दोह रदे,पुर्षहि दरस कराव ॥
- कहै कबीर धमदाससों, अक्षर सुभिरह सार ।
निरअक्षरसो प्रीति करि, उतरहुभवजरपार ॥
चौ पा
धमदास तोरि मेद बताई । एदज्ञान काहू नहि षाई॥
बहुतक अथ तुम्दे ससुञ्चावा । ज्ञानस्थितसो शप्त रहावा ॥
ज तुम कीन्हो खोज बहुता । तब एह भेद कदेव अजगूता ॥
जो यह ग्रथ सुने चित गदईं । आवागौन तासु निर्बहई ॥
जो कोड दंसदिहो अंकूरी । तासो भेद कदिब भरपूरी ॥
कृपटकूप जाके तन होई । तासो बस्तु जो राखह गोई ॥
येहि सिखावन पथ चरावौ । भवसागर के जीव शक्ताव ॥
धमदास वचन
धरमेदास बिनती अनुसारी । तारण तरण जाब बिहारी ॥
अब एक इच्छा चरमो आहं । सद्र भक्ति करो चितलाई ॥ .
पान प्रमान हमद कह दीजे । दीन दयाल दया प्रभु कीजे ॥
ज्नानस्थितिबोध ( १४५ )
संधिक नाम पाइ सख होई । बिना छाप खातिर नहि दोई॥
तवब्र सतगरुश्ने साज ्मेगावा । कदली खम्भ आनि गडवावा॥
चोका सोरह सतकी कौजे । मान सिखावन इमरी टीजे॥
धर्मदा सोई बिधि कान्द । जो सद्य कपा कृरि दीहो ॥
सोरह हाथ सूत्र तनवार) सरह धोती आनि चटाई ॥
सोरह रियर ठे परवाना । खग उखाची धरि मिष्ठाना॥
मेवा अष्ट जगुतिसो लाई । चौका चदन कीन्ह बनाई ॥
बासन पांच धातुके धरिया । वां सहित गाय अवसरिया॥
आरति ज्योति कीन्ह परकाशा । बाजत शख आर तमनाथा ॥
धर्मदास ओ आभिन आवा । सदगुर् चरण हिथे ल्व खवा ॥
चरण पखारि चरणाभृत लीन्हों । तन मन धन न्योछावर कीन्हों ॥
षोडश शब्दहि कीन्ह उचारा । मोरत नरियर भौ उजियारा ॥
धमदास प्ररवाना लीन्हा । शिरिहि नवायवेदगी कीन्ह ॥
तापी आमिन चलि आई । कीन्ह बंदगी शीस नवाई ॥
तब सदगुरु दीन्हों परखाना । आमिन हिय बहन हरष समाना॥
धमदास गुक् बेदन कन्हां। साहब शब्द नाम जो दीन्हां ॥
सम्वत पषन्द्रहसो चालीसा । भादों श्चुद्ध रपोचदिन तीसरा ॥
पूरणमासी पूरण जनौ । गुर्वासर शरणागति आनौ ॥
तव सद्गुरूने दीन्ह अशीसा । मुक्तिराज दीन्दो बखशीसा ॥
सुक्तामणि निज अंश हमारा । आमिनि घर लेहे ओतारा ॥
उनके वश बालिस होई । जक्त जीव अुक्तावे सोई ॥
कहे कीर धमदाससों, हम तुम दूजा नादि ।
शब्द विषेकं विचार कर, जो देखा घटमाहि ॥
शब्द् सुरति ओ निरति रै, कदिबेको हे तीन ।
निरति रौरि सुरतिदि मिली, सुरति शब्द लटखिदीन ॥
( १७६ ) चोधमागर
गुरूशिष्य इमि जानिये, करिये भिन्नहि भित्र ।
शब्द् सुकृत एके भई, सुकृति चरम चिदह् ॥
याहिविस्तुमों स्थिर रदौ,अस्थिर अचरसमाध ।
घमेदास रषेत भए, पायो सखे अगाध ॥
॥ इति श्री भ्रन्थ ज्ञानस्थिति शुभमस्तु ॥
सवेसन्त महन्त गुरुनके चरणारविंद सम नमो सत्यते ।
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अथ संतोषबोध वार॑भ
भ[रतपथिक कवी रषथी-
स्वामी श्रीयुगखनन्द् द्वारा संशोधित
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तेमरज श्रीकृष्णदास
अध्यक्ष-““श्रीवेङ््टेश्वर "” स्टीम्-परस,
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पुनर्मुद्रणादि सर्वाधिकार “ भीवेङ्कटेइवर मूद्रणयन्त्राल्याध्यक्षकं अधीन है ।
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धनीन्द्र, कर्णामय, कबीर, सरतियोग संतान,
धनी, धमदाघ, चशमणिनाम, चदन नाम,
कुलपति नाम, प्रबोध यस्बालछापीर, केवल नाम,
अमोल नाम, सुरतिष्नेही नाम, हक नाम,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीश्न नाम
उग्र नाम, दया नामके दया
वंशा व्यालीसको दया
अथ श्रीबीधखागरे
जयो विंशतिस्तरगः |
छाटा संतोष बोध
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चोपाई
धमदास बिनती सन ज्ञानी । अमीशब्द भाषो मृदुवानी ॥
हम सेवक तुम सतगुरु मोरा । जीव अचेत भरमवस भोरा ॥
तिनकी आयुषः केसी होई । ईंसन मग माषौ प्रथु सोई ॥
( १५९२ ) चोधस,गर
समदश बचन शब्दकी राहू । हसराज कहु हंसन नाहू ॥
शब्दचारू तेहि कालन पाईं । कृषा करो षद् बरु २ जाई॥
ज्ञानी वचन
समरथ बचन सुनो धमदासा । त॒मसों सत्य शब्द् परकाशा ॥
सतोषमोध सतरीते मये । सत्य पुरूष आपन सुख किये ॥
साधुखतपर कन्दे दाया। मोह लोकते जगत पाया ॥
उट] अवाज पुष्पतें जसी सो वणन भाषौ म तेसी ॥
पुरूष वचन
हौ ज्ञानी त॒म अंश हमाग । बचन सत्यभ कहौ पुकारा ;
जो कोड साध मोहको साधे। रोम मोह त्ष्णां गहवाघे ॥
तृष्णा वाध साधजो पवे। आवत लोक वार नहि कवे॥
तृष्णा लोभ काल व्यवहारा। जो त्यजिदहैसो हंस हमारा॥
ज्ञानी बचन
तत्क्षण ज्ञानी विनती गनी । वचन तुम्हार कोडनरहि मानी ॥
भक्तरीन आधर दुनिर्योई। चट २ फास काठगडइ नाई ॥
कोट वार जीवन परमोधा । कोईएक सत्य शब्द ममप्तोधा ॥
साखी-परथवी जाय जीवन कि, युग२ शब्द बिताय ।
कोड एकं ज्ञानीं चित गहे, आंधर ना पतियाय ॥
पुरुष वचन
जाह वेग तुम वा संसारा । जो समञ्च सो उतरे पारा ॥
वार २ तुम जगम जाह । आपन कह सब कथा सुनाई ॥
ज्ञानी वचन
धर्मदास तब जग हम आवा । आपन कह जीवन समञ्ञावा ॥
युग अशख अबे बहु बीता । कै २ बार पृथ्वीं हम कीता॥
शेष गणेश महेश न ब्रह्मा । विष्णु नाम धरती नहिं थम्हा ॥
ज्ञानस्थितिकौध ( १५३ )
यह् युग बीत अनन्तन बारा । युग २ आये जिव रखवारा॥
नर॒ जाने जलदा अवतारा । साधन काज देह हम धारा ॥
अगम शब्द नहिं जात गवारा । बार अनेक जगत वुकारा ॥
जीबन बारदिषार पुकारा । नरदेही बहते ईकारा ॥
साखी-जीवनसों घर २ कटा, नहि माने उपदेश ।
गुप्तभाव हम तत्र भये, चरे अमरपुर देश ॥
चौ पाईं
पांजी चले ठाव हम भये । सात स्वर्गं ऊपर चढ़ गयेडः ॥
तहवां देख ध्म अस्थाना । नानञ्लंकारी ताहि बाना ॥
द्वारे वज्ञ सिखा दे वैदे | बैठे हर सव॒ जदे॥
ध्मराय अति परल जगाती । मागे दान जीव बह भाती ॥
तिन हम सको आई बढ़ावा । कैसे ज्ञानी जीवन शक्ताव ॥
हम कं सुनो दुष्ट॒वटपारा । छोडह रार परकमे मारा ॥
छोड़ ठांव यम भये निनारा । परहवे अमरलोक मज्चारा ॥
पुरूष दरश कीन्हे तेहि क्षणमें । वट २ व्याप पकर जीवने ॥
तह नहीं परवेश जमन को । बैठकर पति सकछ हंसन को ॥
हरष शोकं नहि करे कतूला । सदा बसत फूल ॐत एला ॥
भोर चकोर बोल मृदु बेना। कोकला कोयल वचन सुबेना ॥
बैठक तहांही सकल पुक्षकी । बोलत वचन अमीरस रसकी ॥
पुरुष वचन
साखी- वह सत बोले पुरूष तब, सुनो सदेशी अंश ।
भवसागर बहु दिन रहै, केतक छाये हंस ॥
ज्ञानी वचन-चौपाईं
रहे शब्दसों तब कर॒ जोरी । बंदी छोर बिनय सुन मोरी ॥
काम अरं करोष मोह ओ लोभा । माया फंसे जीव पर शोभा ॥
( १५९७ ) बोधसागर
सकर जीव अच आतम पुंजा । फिरि २ परहि जनमके कजा ॥
पुरुष वचन
तब समरथ असख वचन पुकारा । नियौ जात काट मुख द्वारा ॥
दो ज्ञानी तुम बहुर सिधाओ। शब्द् देव॒ जीवन सुक्ताओ॥
देव परवाना अपने हाथा । सकल जीव जो होय सनाथा ॥
तिनका तोरह यम काशा । माथे दाथदे कहो संदेशा ॥
नरियर धोती तान गे दो । सत्य शब्द देअकं चटेदहो॥
येरी शब्द येही परवाना । सत्य शब्द निश्चय कर जाना॥
सन्त समाज सनो त॒म महिमा । गुरूपद परस दरस एक लहमा॥
तेहि समधन नरि जगमें ओरा । कोर जन्म तीरथ फल दौरा ॥
जो कोड साध मदिरमे आवे । चरण पखार चरणाभरत रवे ॥
नारी पुरूष एक मत कीजे । सतगरुङ् दया अमीरस पीजे ॥
साखी-काम कोष तृष्णा तजे, तजे मान अपमान ।
सद्वरु दया जाहिपर, यम शिर मरदे मान ॥
चौ पाईं
जो ये तकं तज सेवा करहै । सो प्राणी भवसागर तरहै ॥
सेवा करत कसर भई जाई । तवै कालघर बजत बधाई ॥
सेवा करे चरण वितखाईं । पोच साधमिर भगत कराई ॥
संतोष बोघ जीवन पर भाषा । जो कोड साधू मन दद् राखा ॥
जरा मरण तिनकाहो नासर । गुर पद गह सन्त निज दासु ॥
अगम ज्ञान संतोष वरदानी । हसा आप दोय महिमानी ॥
अगम अपार ज्ञान संतोष । सकट साधु दिरुमिर परतोषू ॥
संतोष ज्ञान स्वाती सम कदिये । सनन सत समञ्च द् रहिये ॥
स्वाती ज्ञान साध जो पवे। सो साधू सतलोकं सिधावे ॥
ज्ञानस्थितिषोध ( १९५९ )
साखी-ज्ञानकथा ठेसो कहे, जप्त स्वातीको षन ।
सबहिनमे जो गुण करे, सन्त ठेह बिलदछान ॥
यौ पाई
संतोष ज्ञान मल्यागिरि जेषे । निकट वक्ष प्रबल हो जसे ॥
श्रोता सुने श्रवण चुम बानी । ज्ञानी हदय करो बिक्छानी ॥
साधू ज्ञान सुने वचितलाई। ताक्रा रक्त विगोह न जाई ॥
अत्र सोय जो भख बुद्चेहै। ज्ञान सो जेहि लोकटहि जहे ॥
सतशगुर शब्द् गहे जो हियमें । बचन अमोल मानमि पियमे॥
जाके हृदे कपट नहिं व्याप । सोसाधरू मेरे त्रिय तापू ॥
बहर न देह धरे यहि जग्मे । कमलप सम न्यारे जर्तं ॥
जो प्राणी रेसी गहि रीती । तजतहि देह चङे यम जीती ॥
काया तजे प्रीति गुरु लागी । दंस समाज पंच अवरागी ॥
गङ् प्रताप मम दर्शन पावे। हसन समसर सेज विशावे ॥
अभरत फलके भोजन पेहो । अरल दुलीचा सेज बिैहो ॥
कीर रवीस जगमगत सुहावन । अमर चीर शोभा बट् पावन ॥
षोडश रषि जनु अंग रपेटा । दरषहि शोकं सकल दुख मेटा॥
साखी-अस बीरा परताप बर, प्रबल काल क्षय होय ।
जहि सद्भर वद्यो मिरे, ईंसन जाय विगोय ॥
इति भीषोदास्षतोष बोध समाप्त
छात
( १५६ ) बोधस्रागर
अथ बड़ा सन्तोषबोध प्रारभ
चतुर्विशतिस्तरंगः
©
धर्मदास वचन चौपाई
धमदास पूछे चितलाई । तत्त्व भेद॒ कंडिये समुञ्जाई ॥
तुरीके योजन दौरा । भाषो साहेब हम दै भौरा ॥
तच्वनके स्थान `चिन्डाओ। बाहर भीतर भाषि सुनाओ ॥
विनय करू कीजे प्रथु दाया । धमदास्र गहे दोन् पाया ॥
सद्गुरु वचन
मेनि सनो तत्व व्यवहारा । निशिवासर का कहूं विचारा ॥
तच्वतच्वका स्थान चिन्हाॐ । कदि करि वाहर भीतर दशाॐं॥
स्वासासग रोय आवे जाई । तत्वभेद सुनियो विता ॥
लाल्तुरी योजन परवाना । मुशकी कोजन डेढ सिधाना ॥
हरीतरी योजन दोय जाई । पीला योजन तीनि चखाद ॥
हसा योजन चारहि ध्यावै । फिरिके दण्ड तबे ठे अवे॥.
मूर कमर रै तेज ठिकाना । षट दर तत्व अकाश बखाना॥
कमल अष दर है तत्त्वबाईं । द्वादश दल पृथ्वी सु रहाहं ॥
षोडश दरु जलतत्व बखाना । धममेदास गदि राख टिकाना ॥
याविधि पाचौ आवे जाई । अपनी मनजिरको सुन माई॥
गौँचतुरी रथ एक सर्वौरा । ता उपर मन जिव असवारा ॥
जाव पडयो रै मनके हाथा । नाच नचावै रखे साथा ॥
क्षण भीरत क्षण बादर अवे । सतय॒रू मितो सापि ल्वावे॥ `
साखी-अष्टपाखुरी कमछ रै, ता ऊपर जिव बास ।
ताकर मनको आसना, नख शिख तनके पास ॥
संतोषबोध ( १५७ }
धमदास वचन
साहेब कटो भेद टरकसारा । जहिते जिवका दोय उबारा ॥
नौ तत्वनक्रो भेद बताओ । सकल कामना मोर मिटाओ ॥
पोच तत्व जाने सब कोई । चारि तत्वकी खबरि न होड ॥
पोच तत्व वेके मदाना । चारि तत्व रहे कौन ठिकाना ॥
कृदो तत्वनको भोजन केता । ताके चेते आगम दहै चेता ॥
इनका सतगुङ कहो विचारा । कदो केता तच्च करे अहारा ॥
सद्र वचन
धर्मदास मे अगम बता । नौ तत्व को भेद क्खाऊ ॥
पाँच तत्व ॒खेरे मदाना 1 चारि तत्व ब्रह्मांड ठिकाना ॥
छटर्वा अभि तत्व जो होई । नेना वीच रमे पुनि सोई ॥
दोयदल कमल वरणे चारी । बेठे निरज्न आसन मारी ॥
ताहि कमर्को नाम बताऊ । चारि बरणका शूप दिखा ॥
लखे शब्दसो जाने भेदा । राता पीरा श्याम सपेदा ॥
साखी-ताहि केमलको शडिके, कीजे शब्द विचार ।
पाँच तत्व सतभारिहो, उतरो भव जल पार ॥
चोषा
निशि बासर की स्वांसा जती । क्रं विचार चरे दम तेती ॥
छसे स्वापन इक्कीस इजारा । येते निशिदिन दृमहि सुधारा ॥
ताको मोजन सबमिलि पावे । जो सतगुरु यहि भद बतावे ॥
बीस सदख पच देव पाई । ताकों ठेखो कटू सयुञ्ञाहं ॥
प्रतिदेव पाछे चार इजारा । रहै जाप सोलदसे सारा ॥
छट तत्व ॒निरजन राई । जाप सदस्र तह पहचाइं ॥
सोलहसे मे छम्ते रहईं । ताको भेद ॒ हस कोह गहं ॥
जाप अटोतर जब रहि जाहं । ताछिन शब्द् सुरति भिदां ॥
( १५८ ) चोधक्षागर्
साठ्समे बाहर चौपाई । ततछ्िन हंस लोक को जाई ॥
सखुषुमनि तत्तव करे असवारी । तबे काल्की प्हचे धारी ॥
साखी -जादिन कार भासि, पगते करे उजारि ।
भागि जीव चटि बेठदी, द्वार कुटफ उधारि ॥
धमदास वचन--चौपाई
साहेब इतना भेद बताई । जाते काल वन नरि पाई ॥
सच ततत्वनको भायो भदा। एक २ का कंद्यो निषेदा॥
तत्वके संग जीव चलि जाई । कौन टौरनये बासा षाई ॥
कोन तत्व सग धरे जिवदेही । कौन तच्व है शुक्त सनेही ॥
सदु वचन
नौ तत्वनका भेद बताई । द्वारा तीनको कहि समञ्च ॥
तेज॒ तच्वमे करे पयाना । व्रशिलमे जाय समाना ॥
आकाश तत्त्वम छृटे भाई । तारागणमरे जाय समाई ॥
वायु तत्त्वम छाडे देहा । वन वक्षन जाय उरेहा॥
पृथ्वी तत्त्वम टे भाई । तौ जीव देह षञ्ुकी पाई ॥
जल तत्त्वम जब छूटे जाई । नरकी देह धरे तब आई ॥
अभ्चि तत्त्वम तजे शरीरा । दोय पञुपक्षी करै कबीरा ॥
छे तत्त्वनको कल्यो बिचारा । तीन तत्वको मेद निनारा ॥
तीन तच्व भेद जो पावे। निश्चय हसा लोकं सिधावे ॥
धमदासर बचत
छै तत्वनको पायो भेदा । तीन तत्वको को निषेदा ॥
तीन तत्त्व देह प्रकट बताई । जासे रसा रोक चल जाई ॥
सद्ग्रु वचन
धर्मदास सुनिये चितलाई । तीन तत्तव भै देर बताई ॥
शब्द तत्तव जो जाने भाईं। सुरति तत्वको ध्यान रूगाई ॥
स्तोष बोध ( १५९ )
नीर तत्व जाके घट होई । ताकर आवागमन न दोहं ॥
नौ तच्वनको कषयो बिचारा । धर्मदास तुम करो सभाया ॥
क्ट भेद तत्वकी बानी । क्ष अधर है नाम निशानी ॥
घृषु कमल नैन लगि देखा । तीन भेदको कटर विवेका ॥
तीन भेद पुष तेदिके पाता । छड़ कार जीवकी आसा ॥
पुरूष शब्द हँ शीतर अंगा ! तत्व निःअक्षर कमरके सेगा॥
आप पुरूष तेहि पिण्ड न हाथा) पुरूष बिदेहि शीश बिन गाथा॥ `
कायामांहि कगी यकं नाछा । तद्वां रहै निरंजन काला ॥
ताशिर उपर पांजी खागी। ताहि चडि इसा जाये आगी ॥
स्वेत ओ पीत कमर है गाता । तीन तत्तव जीव संग राता ॥
ताहि तक्वको भाव सुनाई । तीन इष तीन अदहिई॥
कायाक्ष्र ताहि इम दीन्हाँं। खेत कमाय सो आगम चीन्होी
सप्तपाखुरी कमल यकं होई । ताकर भेद कटौ च सोई ॥
कृमल एकं छोकहै तीना । तीन खोक तीनोषुर कौना ॥
चौथाटोक अधर कहि चीन्होँ । ताकरि काल गमन नहि कीन्ह॥
साखी-तीनरोक विचारिके, गहे शब्द टकसार ।
कहै कबीर विचारिके, उतरो भवजट्पार ॥
धर्मदास वचन चौपाई
साहेब बचन करी परमाना । तीनटोकका कहो ठिकाना ॥
चौथालोक मोहि समञ्ञाईं । सुनू भेद तब मन पतिआई ॥
सतगुरु उवाच
धर्मदास य तोहि बुञ्ञाड। तीनलोक स्थान चिन्ह ॥
ब्रह्मलोक छग अस्थाना । तति उत्पति होय निदाना ॥
विष्णुलोकं नामी विस्तारा । शिवका खोक हदय मंञ्ञारा॥
( १६० ) चोधसागर
चौथालोकं अघर अस्थाना । करै कबीर मै कषयो विधाना ॥
तारि लोकको ध्यान लगाव । चर्त रस काल नरि पावे ॥
साखी-अधर करै जब आसन, पिण्ड अरोखे नूर ।
सँ अदर कदली बसू, कहां खोज बड दूर ॥
धर्मदास उवाच चौपाई
साहेब लोक कडा हम जाना । ओर भद कदु कटो बखाना ॥
सात पांखडी वरणि दिखाओ । भिन्न २ करि मोदि टखाओ ॥
सद्गुरु उवाच
सात पांखडी करं ठिकाना । धमनि बचन सत्तकर माना ॥
श्रवण दोय पांखडी जाना । सने शब्द तबही सुख माना ॥
होय पांखडी नेन बखानी । पापदशठि सबही क्षय हानी ॥
पांचये पांखडी कहं बिचारा । रखना शब्द उे ईकारा ॥
छठी गांखडी इन्द्र जानी । उत्पति बिन्दुरे डारे तानी ॥
सातवीं पांखड हेठ बतावा । खोज कमल स्थिर घर पावा ॥
पांखडी सातः कमल है एका । भीतर ताहि जीव मन ढेक ॥
ताहि कमलम तार क्गाई । सोई तारको चीन्दों भाई ॥
सोदी तार अघर रे राखा। जो कोड साधु दयसे ताका ॥
ताहि तारका बहुत पसारा । खंड ब्रह्मांड षताला सबारा ॥
ताहि तामे डोरी लागी । बिरिखा चीन्हे सत समभागी ॥
श्रेतभाव तारको अंगा। नाम निःअक्षर ताके संगा ॥
साखी--करटै कबीर धमदाससे, गुप्त निःअक्षर नाम ॥
निःअक्षर लखपावडई, दोय जीवको काम ।
धर्मदास उवाच चौपाई
कमृरभेद् तुम भरे सनाया । अक्षरभद सोह हम पाया ॥
साहेब कहो जीव किमि आया । नरदेही कैसे करि पाया ॥
सतोषबोध ( १६१)
केस घ्र कीन पसारा । कौन अस्थल बैठक संबार ॥
इतना भेद कों समज्ञा । सतथुक््य तुम बलि जाई॥
सद्ग्रुङ् उवाच
धमदास सुनियो चितलाई।जो ब्रूद्ये सो देऊ बताई ॥
पवनजीव ब्रह्माण्ड रहाई । ता पीछे नाभी चल्जाई ॥
नयन नासिका कीना साखी । म्ल कमल सुरति गहि राखी ॥
चक्ुज्योति जो बरे उजियारा । दिरदाकमलर ब्रह्माण्ड मञ्जारा ॥
जीव बेठे द्रीपन मे जाई । काया क्षेमे जाय समाई ॥
ता विधि घरमे जीवहि आया । रज बीजरीते बिड बंधाय ॥
शीश स्वारि बांही निर्माई। कंठ कमर दथ बनाई ॥
ता उपर द्विपि बदन सवारा । पवनजीवस्ते भय उजियासय ॥
कमल सबज स्वेत है राता । नाभी सकल पुनि सब गाता ॥
श पीके दोय खम्भ लगाया । रचिकाया पुनि जीव समाया ॥
स्वाती पवन पुरूषकी स्वांस्ता । जिन कीना जीवन संग बास्रा॥
ताको भेद सुना धर्मदासा । तौलि लेह सत्ताइस मक्षा ॥
छिन छिन पटपर आवे भाई । जीव सपि चेखे नरि षाह ॥
प्रथम घडी ब्रह्माण्ड रहाई। दूजी घडी नाभी चल जाई ॥
साखी-तीजी षडीके बीतते, फिर त्हैवा चलजाय ॥
अस बिधि रहनी जीवकी, कटै कबीर समञ्चाय ॥
¢ ¢
धमदास बचन चौपाई
जा बिधि जीव देहम आया । सोई भेद हम निज कर पाया ॥
द्यावेत प्रथु ओर बताई । टे हंस कौन दिशि जाई ॥
काया तजिके होय न्दारा। कौन दिशा हंस परगधारा॥
तौन गम मोहि देह बताह । तहां सुरति रां ठदराई ॥
न.८ कबीर सागर - ,.
( १६२ ) चोधसागर
सखाखी-चारखूट धरती अहै, आढ दिशा है पवन ।
सखतशुङ् कहो विचारिके, हंसाके दिशि कवन ॥
सदयुरु बचन चोौपाइ
मारग दोय तोहि कहं ज्ञाना । एक बधन एक मोक्ष बखाना ॥
जो स्वासा सग करे पयाना। षांच त्वमे जाय समाना ॥
फिरि फिरि अवै फिरि २ जवे । बहुरि जगम नाम धरावे॥
अघर तत्त्वम शब्द निवासा । ताहि माहिजिवकरेजो बासा॥
सार शब्दे रहै समाईं। अभय द्वार होड आवै जाई ॥
वहां न रगे काल कसाई। द्वीप अधरम बैठे जाई ॥
गुप्तभेद काह बषिररे षावा। तुमको घस॑नि परगट सुनावा ॥
साखी-उत्तर घादी ऊतरे। अधरहि वेढे आय ।
ताते सुरति लगावई, पुरूषके परसे पाय ।
धमदास वचन चोपाई
ताहि अधरको कदो ठिकाना । देखू जब मेरा मन याना ॥
बिन देखे परतीत न आवै। जो नहि सतगुङ्् भेद बतावे ॥
सद् गुरु बचन ॑
धमदासख मे भेद बताई । जाय अधरम जीव समाई ॥
ताहि अधरको कहँ ठिकाना । योजन आठ ऊषर परमानां ॥
साखी-एक अधर दोय आवी; एक अधर होय जाय ।
एक अधर आसन करै, अधरदी मादि समाय ॥
चौपाई
प्रथम रस सखसागर जाई । सुखसागर म दशन पाई ॥
सुखसागरका यदी सदेशा। खगे उड़गण पाती केसा ॥
हेसा पेषिके कीन सनाना । भय उजियारी षोडश माना ॥
लागी डोर शब्दकी नेहा । असपांजी अवर बिदेहा ॥
सतोषबोध ( १६३ )
लागी डोरी शब्दकी तारा । चदे हंसा पांजी उजियारा ॥
चटिके हंस अधरषे पेखा । ईक्षा उलटि टको देखा ॥
भलि सहेव मोहि कानि दाया । छटि सकर मोह ओर् माया॥
पु पमांहि जस वास समाना । ईस धरै इमि पुङ्ूष व्याना ॥
या विधि हंस अमरघर जाई । धमदास भुनियो चितलाई ॥
साखी-धरती अकाशबे बारिरेः जहां शब्द निर्वान ।
तहां जीव चडि बेठही, कारू मरम नर जान ॥
धर््रदास वचन-चौषाई
सद्रर् भेद सतहि समाना । द्वीपखडका कहो दिक्ाना ॥
कायाखड कटो मोहि भाखी । जाते जीव अमरधर राखी ॥
सतगुरु वचन
धर्मदास ब्ञ्जी भल्वानी । सत्य वचन तोहिकषं बखानी॥
प्रथमखण्ड शब्द् रै भाई । दस्र खण्ड सुरति उहराई ॥
तीसर खण्ड निरतिमे ठय । चौथा खण्ड प्रेम निर्मयञ ॥
ठांचर्वो खण्ड शील है भाई । छटा खण्ड कमा निर्मा ॥
सतर्वा खण्ड संतोष दटाया । आ्वां खण्ड दया समञ्चाया॥
नवं खण्ड भक्ति कहि दीन्हा । धर्मदास त॒म निजकरि चीन्हा॥
इन खण्डनमे खेटे जाई । निश्वय हंसा रोक सिधा ॥
सुनो सात द्रीपनके नाॐ। भिन्न भिन्न करि कदिसमञ्चाः॥
द्रीपतक्व है बड उजियारा । ताको निशिदिन करो विचारा॥
धर्तीं तच्व अग्नि जो होइ । द्वीपजलकानिपधि जाय समोई ॥
तेजतच्वमे भाषि सुनाई । द्वीप शन्यमें जाय समाई ॥
जलका तत्व कहू विस्तारा । तेहि सुखसागर दीप सिधारा॥
वायस तत्व सुनो धमनिवानी । पवनद्रीपमे जाय समानी ॥
तत्व अकाश कूं समञ्चाईं । द्ीपरस्वर्ममे जाय समाई ॥
५ १९६७ ) ् चोभ गर्.
` अथितत्वकी सुनियो वानी । दीप अभ्चिमे जाय समानी ॥
सुषुमनि तत्तव करर समञ्ञाई । द्वीप अधरम बैठे जाई ॥
: सखाखी-सातद्रीप नौ खण्डैः इने, रहे समाय ।
कहे कवीर धमदासस, निश्चय रोकं सिधाय ॥
| प्मदास उवाच
साहब भेद कंद्यो हम जाना । सातवबारका कदो ठिकाना ॥
खातवबार कैसे उषपजाई। चन्द सुय कैसे निमाई॥
सूरज केसे तेज समोईं । सीतल चन्द् कौन विधि होई ॥
^ निशिवासर कैसे .कर {जानी । ये सब भेद कहो मोदि ज्ञानी ॥
, | सतथुरु उवाच
धमेदास ब्रूज्ली, बल नागर । सत सुकृत ज्ञान उजागर ॥
कहँ मेद सुनियो चितलाई । चन्द्रसूर दिनवार बताई ॥
पुरूष कमल्ते सातो वारा। ताको भेद कहं टकसारा ॥
सप्तपाखडी जब बिकसाईं । सातबार तदंति आईं ॥
आद्वां बार कमले रदे । ताहि बारते सातो किंथेङ ॥
करीकमरु भये अधियारा । निशिवासरको भयो विचारा ॥
- साखी-मजन कीनो कमलको, शेखन कीनो पास ।
चन्दसूर जाते भये कियो पृथ्वी प्रकाश ॥
न चौपाई
. पिरे छोरन जट नहि रहेड । तति सूर तेज जो भयऊ ॥
सुनियो चन्द्रकेरि शीतलतां । धमदास मेँ दें बताह ॥
सीच्यो अभी शोर पुनि जबदी । शीतल चन्दा उपजे तबदी ॥
छोलन चनि इरि रि परही । नक्षत्र चद्रमा सगति करी ॥
यहि विधि चन्द्रसुर जो भयेख। धर्मदास दम तुमसे कंदेउ ॥
यह सब रचना कूमम॑को दीना । पाछे.ध्यान अधरम कीन्हा ।
सतोषचोध ( १६५ )
सव्र विस्तार कूर्मही दय । तबदही चुरूषवं कन्याको कियञ॥
रचना रही कर्मके पेटा । धर्मरायं ताचर नहि दीटा॥
साखी--रचना रदी क्म, पुरूषहि दीन स्वाँरि।
जाते शब्द उत्पति भई, सो मे कहू विचारि ॥
| सोवा
धर्मराय सेवा सितधारा । तब पु्ष ताहि वाचा हारा ॥
पुरूष दीन उत्पति ध्मैराईं । धायके ठ्डे कूर्भसे जाई ॥
साखी--क्षीणे माथा नख करी, इरे सवे विस्तार ।
महाश्चुन्य लेय आय, धमराय बरियार ॥
चोौप।३
निकरसी खान वेद रस बानी । चांद घ्य यों उडगण जानी
सब्र विस्तार निकसिजब आया। धमं जखनिधि राख छिषाया।
साखी--निकसी वस्तु कूमते, ना कोई कीन विचार ।
मूल बीज जब पाइया, भयाकार बरिआर ॥
धर्मदास उवाच चौपाई
को रे शीश कमं का छीना। यह तो भेद सकल हम चीना॥
धूर्मराय कन्या कैसे पाहं। तीन देवं केसे उपजाईं ॥
€ सदगुरु वचन
अदा पुरुष दीन प्रदवाईं। आदि भवानी अभरत खाई ॥
अष्वांगी देखी धर्मराई। ताञ्च सुरति संयोग बनाई ॥
अद्याके विधि शिवसो भरारी । मथि जटछनिपधि रतन निकारी॥
अष्टांगीते भये, विस्तारा । सब रचना या कीन इमारा ॥
| कम बणन
विनती कूमं पुर्षते ठाई । तव सत शीश हमार छिनाहं ॥
छोछा उद्र भया हमारा । अहो पुरुष कडु दे अहारा ॥
( ९६६ `) बोधसागर
साखी-वचन तुम्हारा मानेऊ, राखि शब्दकी कानि ।
नीर जखानिधि सोखिके, मेरत सब उतपानि ॥
पुरुष उवाच
वाणोपुरूष. अधरसे कदेऊ । जाउ कूम भागि सो ठे ॥
वचन हमारा सत जोदोह। जो मांगो सो देऊ तोईं॥
देम उवाच
साखी-ना कडु भोजन चाहु, ना कदु कङ् अहार ।
चन्द्र सयं जब पाड, तब ठेऊॐ शिर भार ॥
पुरुष उवाच चौपाई
चांद सूयं मे देह तोही । कैसे चङ सृष्टि पुनि सोरी ॥
जो जगम रोय अपियारा । केसे चले सषि व्यवहारा ॥
क्रम उबाच
साखी-चांद सुर्यं चलि आवी, तो चै कष्टं अहार ।
चांद सूयं पहुचे नहीं, निशुदू सब संसार ॥
पुरुष उवाच-चौपारं
पुरुष वचन तब कहै विचारी । भोजन सूर पहरलेह चारी ॥
शशि भोजनका भाष् रेखा । घडी घडीको कष विवेका ॥
अमी चन्द्रके पेट रहाई। ताको लेखा कटं समञ्चाई ॥
अमृत क्षणक्षण तुम लेहो । पाके संम्पूरण करि देहो ॥
चन्द्रतेज धमनि इमि हानी । सूर््यतेज जो बहुत बखानी ॥
` कूमं पुरुष वचन दियो देखा । घडी पहरको बांधे खेखा ॥
पल क्षण दंड परमाना। घडी पहरकी कहू ठिकाना ॥
षट स्वासाकी परु यकं होई । षट पठकी क्षण जानो सोई ॥
दश क्षणको यकं दंड बखाना । दोय दंड यकं घड़ी परमाना ॥
चारि घड़ी यक पहर विवेका । चारि पहरका दिन यक रेखा॥
सात बार दूना करि जाना । यहि विधि पाख भयो परमाना॥
सतोषत्रोध " ( १६७ )
दोयपाखको मास॒ बखाना । दोयमासकी तु यक जाना ॥
दोयऋतुको थककार विशेषा । तीन चौकड़ी बरष यक दैखा॥
आगे देखो ताकर खेला । ध््दास अब कूं बिवेका॥
निशि वासर पुनि होय जवही । कर्मं अहार शुररे तब ॥
चारिपहर निशिकरे जो याका । बाक्षरसुर . सब होय प्रकाशा ॥
अब्र चन्दाको क बखाना । धमदास तुम निज करि जाना॥
कृष्णपक्ष पडिवा जब आवे । कूम अहार चन्द्रको पव ॥
कूर्म अहार चन्द्र इमि लीन्हौँ । घडी घडी घटती तब कीन्ही ॥
शुद्पक्षते भया निवासा । पूनम चन्द्र किया प्रकाशा ॥
पूनम त्रत कूम जो कीन्हा । ताति चन्द्रास नहिं रीन्ह्ा ॥
अमी चन्द्रम रहै समाई । पूनम अधिकं जाहिते भाई ॥
पूरण व्रत पूनमको दहोईं। पूनममे चौका आरम्भे सो ॥
तौन बत वशको दीना। अंश बचाय अपनाकरिलीना)
साखी-दीना अपने वंशकी, करि है शब्द् सभार ।
गुप्तनाम गहि राखि है, ईस उतारे पार ॥
चौपाई
सुभिरे नाम ओौ सुरति सभारे । नाम पान दे हंस उबारे ॥
जा दिन अक्ति साथै कोई। निःअक्षरकी गमताही होई ॥
पूरण वत्त पूनम जो होहं। पूनम चौका कूर्मका सोई ॥
अहो कूर्मं आसन प्र॒ जाई । सत्य वचन कटं समञ्चाई ॥
देसे वचन कृर्मको भयऊ । कहै कबीर धर्मनि सुनि छ्य ॥
धमेदास बचन
साहेब भेट कंदे हम पेखा । अब भाष्यो पवनन कर रेखा॥
पवन मेद् मोहि कदौ सभुद्ञाई । वचन तुम्हार रहं टवा ॥
कहो कहां ते पवन उखि आई । दिशा भेद तुम मोहि सुनाई ॥
( ९६८ ) वधसागर
कवन पवनते जीव उत्पानी । सोहं पवन तुम कहौ बखानी ॥
तारि पवनको नाम बताओ । कर्मं कारि हसा सुक्ताओौ ॥
कैसे सीप स्वातीको पावै । कारण कौन बांञ्च रहि जपै ॥
ये सब भेद दया करि कहेऊ । साहब मोहि अपना करि लयेउ॥।
सद्गुरु उवाच
धमेदास सुदु पवनकी खानी । कूम सुखते पवन उत्पानी ॥
चारि अरति पवन उटि आया । ताको मेद कोई जन पाथा ॥
शीश मका कटू बखानी । साधुं सुजन कोई कोई जानी ॥
माया आठ प्रथ्वीमे भीना। आट दिशा ह ताकर चीना॥
माथा आठ आठ है माना। चारिदिशाचारिकौनपरमाना॥
माथा तीन छीनि ठे गय माथा तीन पेट रहे ॥
काकर चौदह भुवन बनाया । सोई हूप नर करे सुभावा॥
अधर पवन सो जीव उत्पानी । चले उरदसों अधर समानी ॥
ताहि वचनको पारस नामा । दोय सयोग उठ जब कामा ॥
षाइ ओर ते देहि जगाई उमगे काम चके मनताई॥
चले बिन्दु तीन मुख धाई । उरधडृते अधर जब आई ॥
ऋतुब्रसन्त जा दिन होई । स्वाती पवन पडे पुनि सोई ॥
ऋतुब्रसन्त तियतन अवे । खुरे कमल तब चाह जनावे ॥
शिव शक्ति सो मिलि है आई । स्वाती बुन्द शक्ति तब पाई ॥
न पवन बिन्दु गहि ठेदही। ताते वाञ्च होय नहि तेही॥
उत्पति पवन कही हम सोइ । स्वाती पवनटे सम्पुट होई ॥
साखी-जाहि पवन पर चदा रसे, ताहि न से काल ।
को यह भद विचारि है, सोह जौहरी खार ॥
चौपाई
धर्मदास तोहि कूं बिचारा । सुञि षडे सो भेदन्यारा ॥
संतोषगोध ( १६९ )
स्वाती पवन छुवन नहि पावे । विन्द् अकेला जो उटि धवि ॥
ताते न्य होय पुनि जाई कहं मेद वितराघ्ु समाई ॥
पवन भेद हम तमसो कहेड । नाम न्यारा इनते रहे ॥
खी-पवन भेद इम भाखेऊ, ताये काटपस्षार् ।
पचासी पवनके बाहिर अरज शब्द है सार ॥
धर्मदास उवाच-चोपाई
पवन भेद सतशुङ हम जाना । अब क्कु किये नाम बखाना॥
निःअक्षरका कटो प्रकाशा । है भीतर किं बाहर बसरा ॥
कैसे हसा लोकं समाई । कौन बस्तु जो होय सहाई ॥
केप्रमान वस्त॒ जो होई । साहेब मोहि कटो त॒म सोई ॥
सदगुरु उवाच
वर्मदास यँ मेद बताॐ। सशय तेरो सबि मिटा ॥
बावन अक्षर मय ससारा। निःअक्षरसो लोकं पंसार ॥
सोह नाम है अक्षर निवासा | कायति बाहर प्रकाशा ॥
नाममेद मै तुमसे केदे । धमदास तम निजकर ठउहेऊ ॥
तोन नाम सनि हंसा पवे। कहै कबीर सो लोकं सिधवे ॥
साखी-धरनि अकाशके बाहिर, योजन आठ परमान।
तहां क्षचरतन राखेउ दंसा करे विश्राम॥
चौपाई
तिन सतय॒रु कोई भेद न पाईं । धर्मदास मैं तोहि ठखाई ॥
राई भर टै वस्तु हमारी । अर्धराय स्थूल सर्वारी॥
लहर रहर बादलमे होई । पुरूष मूल निज जानो सोई ॥
उनको सौप दीन शिर भारा। वे जीवनको करै उबारा ॥
भाषू शब्द ॒प्रथमहै राहं। एटि अकाश घोर होय जाई ॥
वाहिवक्त जो तजे शरीरा । अवे लोकं अस कहै कबीरा ॥
( १७० ) बोधसागर्
सत्तलोक अधर है धामा । तहँ पुरूष अजर दै नामा ॥
तौन नामटे रईस उदाना । पहुचे दंसलोक अस्थाना ॥
तहँ गये जिवकाल न पावे योनि सकट बहूरिन आवे ॥
साखी--सवबे मेद दम भाषेऊ, कहा शब्द रकसार ।
थमदास प्रतीति करि, सुमिरह नाम हमार ॥
धमदास उवाच-चौपाई
कहेड शब्द मोर मन माना अब प्रमु कदिये सुरति रिकाना॥
कहो सुरतिकी उत्पति भये । कटो निरति दूसर निमय ॥
कोन ` सषूप सुरतिको जानी । केषे निरति दूसरी ठानी ॥
केसेके घट आनि समानी। सो समरथ मोहि कटो बखानी॥
सुरति निरति संगति किमि भयञ। केषे समञ्च इदयमे रहे ॥
साखी- सुरति निरतिकी उत्पति, सब कहि भाष मोहि ॥
दोनों केसे देखिये, पृछतदहौ शङ् तोहि ॥
सदगुरु ३चन चौपाई
धमेदास भ कहूं वानी । भाखु सुरति निरति उत्पानी ॥
मूल नासिते शब्द उचारा । एूढीनाल भई दइ धारा ॥
स्वाती पवन अधरते आईं । सुरति निरति सगति मिछि घाईं॥
सुरति निरति यों उत्पति रोई । ताको भेद खे जन कोई ॥
सुरति निरतकी सुधिना पाईं। सो नरपशु पक्षीरै भाई॥
मूरख सो मोहरति है गयञ । शब्द् बांधि जिन सुरतिना गहेड॥
तेहि शब्दका करो विचारा । सुरति निरतिरे शब्द् संभारा ॥
साखी-अकुर नाम वह शब्द् है, कीना सकट पसार ॥
कहै कबीर धर्मदास सों गदो शब्द टकसार ॥
चौ पाई
गरे शब्द॒सो रोक सिधाई । बिना शब्द पञ्च पक्षी भाई ॥
संतोषचबोध ( १७१ )
तिना शब्द जैसे घट अंधियारा । धरि धरि काठक करे अहारा ॥
शब्द् सुरति निरति यक गौरा । कै पुरूष तहां मोहि निहीरा ॥
अगम तत्व गहि मथ शरीरा । निरति नाम मये सत्तकवीरा॥
निरति धरे शब्दकीं आशा । सुरति नाम तुम गहु धमदासा॥
सुरति निरतिसे बाधे नेहा। पावै नाम होय इस विदहा ॥
कथि ज्ञान भाषेड टदकसारा। धमदास्च तुम करो विचाग ॥
हम तुम कीना सकट पक्तारा । सटीक न जाने मूठ गवारा ॥
मथुरा बेरिकि ज्ञान सुनाई । धर्मदास गहे सतशङ् पाई ॥
पूरण ज्ञान तुम मोहि सनावा । सस्य सबही दूर बहाया ॥
साखी-गुरू समाना शिष्य, शिष्य ख्या कर न॑ ।
विलगाये तरिरगे नही एक प्राण दु दहं ॥
इति श्रीभन्थस्षतोषबोधं समाप
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सत्ययुकृत, आदि अदष्टी, अज, अचिन्त, पुरुष,
एनीन्द्र, कट्णामय, कबीर, सरतियोग संतान,
धनी, धर्मदास, चशमणिनाम, अदशेन नाम
कुलपति नाम, प्रबोध यष्वालछापीर केवल नाम,
अमोल नाम, सचरतिधनेही नाम, हक्क नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीश्ज नाम,
उग्र नाम, दया नामको दयाः
वंह व्यालीसक दया
अथ श्रीबाोधसागरे
पथविंशतिस्तरंगः
अथ काया पंजी प्राश्म्म
ण
धर्मदास उवाच-चौ पारं
धर्मदास जब् विनती कीना । कायापांजी पड सो लीना ॥
धर्मदास पै चित लाई । कायापांजी कदो अर्थाई ॥
काया पंजी को विचारी । जहां दोय तत्त्व करे पेडरी ॥
काया पांजीका करौ बखाना । जवां सखुरतिका सदा टिकाना॥
कायापांजी निजकर पाञ । सुरति शब्दम जाय समा ॥
( ९.७४ ) बोधसागर
कायापांजी कर कटो विशेखा । मै अपने घट करू विवेखा ॥
करि विवेकं तहं सुरति लगा । पांजी द्वार चार म पा॥
सुरति गाय रर्हू भ तर्दैवां । सार शब्द मूल दै ज्वां ॥
करि विवेकं तहां सुरति पठा । पांजी द्वार चार मै पाड ॥
पावो घाट सुरतिके द्वारा। तों सरति करो पगरा ॥
बिना वार कहां जाऊ भाई । षिन जाने कहँ रहं समाई ॥
बिन जाने जाड केहि घाद । केसे पाड शब्द के बारा ॥
बिन जाने शब्दकरि घाटा । शब्द् अगम अगमदैबाटा॥
शब्दके अंग अगम है भाई । बिन जाने सब गये नसाई॥
पाड द्वार शब्दका रीका । अवर स्षकलजग लागे फीका॥
अगम शब्द कटो अथाह । बिन पाये शब्द गद्यो न जाई ॥
मूर शब्द् जहं होय उचारा। सो पाऊं सुमेर चदि द्वारा ॥
भाषो द्वार सुमेरु बखानी । क्वाति सुमेश् पुनि जानी ॥
करर्वाते अकाशका लेखा । सौ मोहि साहेब कटो विवेखा ॥
साखी-घमदास बिनती करे, घाट घाट कहो समञ्चाय ।
तहा मे सुरति लगाईके, शब्दम रह समाय ॥
सदगुरु उवाच-चोौप।ई
धर्मदास मे मेद बताऊ सुरति शब्दका द्वार चिन्दाड॥
चन्द्रलगनका कटू विचारा । तहवां सुरति करो वैढरया ॥
चन्द्रद्रार दोय आवो जाई । यहीघाट मै रहो समाई॥
दोउस्वर सापि करो यकं घाटा । चन्द्रद्रार दोय पावो बाटा॥
धमेदास उवाच
कौन घाट चन्द्र है भाई । कौन घाट सूरय पै आई॥
१ विवेखा-विवेक-विचार
` कायापाजीं ( १७९५ )
सदगुरु उवाच
द्हिने घाट चन्द्रका वासा । बोविं सूर करे प्रकाशा ॥
यही दोउ स्वर साधो भाई । चन्द्रद्रार् होय निकसो आई ॥
अगम पथ दहने स्वर करहू । सुरती संयोग नाल चित धरहू॥
चन्द्रदवार होय आओ जाह । शब्द् सुरति रहो समाई ॥
स्वर दाहिने सुरति चदढ़ाओ । तबदही डोर शब्दकी प्रायो ॥
शब्द् डोर दहने दिशि जाई । धर्मदास तम गहो बनाई ॥
पाओ डोर शब्दको भाईं। अगम पंथ चदि बैठे जाई ॥
गहो बनाई कटे यम पापी । प्हंचो लोक भिर चौरासी ॥
स्षर दाहिने दोय करे पयाना ।तब सोहं सुरतिहोय अथ॒ आन।॥
साखी--करैं कबीर धर्मदाससे, एसा साधो कवाट)
आगे भेद बताऊ, तहं देखो लिजवार ॥
चौपाई
अहो धर्मदास मँ भेद बताओ । शब्दहि सुरतिका दार चिद्वाड॥
भाष्यो शब्द् सुरतिका पासा । सो मै तमसे कों प्रकाशा ॥
कहँ तत्व तहँ करो जो बासा । मथो तत्व तुम धर्मदासा ॥
मथो तच्छ सुरति सो भाई । पुनि आगेको देह रंगाई ॥
तत्व भथो तुम अश हमारा । तच्वसे उतरो भवजल पारा ॥
धम॑दास उवाच
क्यो तत्व तुम मथो बनाई । ज्ञानी त॒मदहि कटो समञ्ञाई ॥
कडवा आहि तत्व को बासा । सो ज्ञानी मोहि कटो प्रकाशा॥
ततग्रुर् बचन
द्हिनस्वर सापि चढ़ आकाशा। ्रिङ्करी मध्य तत्तका वासा ॥
निङुदीमध्य तत्त जो रहाई । तहां सुरति सो देखो जाई ॥
त्रिकुटी मध्य तत्वको थाना तेहि मथि आगे देह पयाना ॥
( १९७६ ) वोधसागर
सुरति डोरी चे बरजहेरा । मथिके तत्व केपार उचेरा ॥
तेदि आगे समेरू बखानी । बरनो द्वार स्वरूप खानी ॥
वाहि द्वार रोय सुरति चदाओ। आगे अगम मेद् पुनि पाओ ॥
व्ङ्री आगे सुमेर ठेकाना । तापर ज॒ञ्या अकाश विघाना॥
आंशरुचारि अकाश परमानो । घ्मदाक्त तुम निजकर जानो ॥
धभैदास वचन `
अब अकाशका भाखो राहा । हम अजानका जानो थाहा ॥
सद्गुरु वचन
अब अकाशका भाखं टलेखा । सुरतिकमर तहँ निजकर देखा॥
बांये धमैराय अस्थान । दहने सुरति द्वार ठिकाना ॥
सुरति कमल स॒ुमेरूके आगे । बिर्हगम डोर तहांसे कगे ॥
सुरति कमलके शूप बखानो । एक चन्द्र॒ आभा अनुमानो ॥
वाहि कमलम रके चदा । सुरति चदाय तुम करो आनन्दा॥
तहवां डोर शब्दकी भाई । सुरति सयोग चदि देखो जाई॥
सुरति नाल रै बड़ बरियारा । मध्य लिलार धर्मं रखवारा ॥
शब्द् काहैन करह विचारा । धमंदास तुम अंश दमारा॥
दहने सुरति कमल कर पावा । तेहि आगे पुनि ध्यान लगावा॥
तेदिदिगसुरतिकमलको लेखा । सुरति तच्च नैन बिन देखा ॥
ताकर भेद में देँ बताई । सइ परमाण द्वार निरमाई॥
धर्मदास में कर्हँ पुकारी तिल परमाण तर खुरे केवारी॥
तेहि केवार दोय दै घाटा । चदे सुरति तब पावो बाटा॥
सोह सुरतिरे चटो संभारी । तिर परमाण खुले केवारी ॥
नासिकानाल सुरति जो ध्यावे । खोली केवारी तब बाहर आे॥
पुरी सुरति कमलको जानी । तासे सुरति करो पहिचानी ॥
साखी-सतगुर् भेद बतावई, तब पावे यह द्वार ।
करे कबीर धमंदाससो, निश्चय वचन हमार ॥
कायापांजी ( १७७ )
©
धमेदास बचन-चौष!इ
धर्मदास चरनन चितलावा । अगमागम तुम मोहि बुखावा ॥
आगे गम्य मोहि देह लखाई । अब म गहों सुरति बनाई ॥
यह तो दीक चिन्ेड म भाई । सुम परताप गम्य हम पाइ ॥
अब आगेकर कटो बखाना । जं मूक शब्दका पावो ध्याना॥
जेहिते शब्दम जाय समाई । तवन गम्य मोहि देइ खाई ॥
भाषो मूल जाओं बलिहारी । भ्रख्शब्द पुनि गह सम्हारी ॥
सुरति कमल गम तुम भाखो । सरति सम्हार अपने चितराखौ॥
सुरति कमल सनव मे साहैव । विहंगम डोरि गरी चितलायब॥
अब आगेका भाषो राहा । हम अजान का जानो थाहा ॥
तुम्हरे जनाय हम जानव भाई । तुम जानो सो करो बनाई ॥
साखी-समरत्थ आगे भाषो, मेककू सरति सम्हार ।
सकल पसारा मेरिके उत भवज् पार ॥
सतु तब दया भई, पावो पद निवान ।
आगे गम्य बतावहु, सतयुङ वचन परमान ॥
सद्र वचन-चौपाइं
सुरति कमलके आगे भाखों । तमसे गोप क नहि राखो ॥
सुरति कमखदोय निकसो भाई । विहंगम डोरि गदो चितखाडं ॥
विर्रगम डोर दहिने दिशि जाई । तमसो भेद कों समञ्जाई ॥
सुरति कमलके कहो विकाना । आगे है योजन _ परमाना ॥
अक्षय वृक्ष तर्हौ लागा भाई । दवना मरू बरनि न जाईं ॥
बेलि चमेली बास सुबासा । बास सुबास किया प्रकाशा ॥
साखी -दवना मरूआ यला है, यलाब चमेटी बास ।
तहवां अक्षय ब्ृक्ष है, वरणों वास सुवास ॥
(१७८ ) ` बोधसागर
चौपाई
अक्षय बक्षके बरणों अंगा । श्वेत स्वशूप तहां देखो रंगा ॥
श्वेत स्वरूप तहां देखो भाई । एेसा मेद अगम अर्थाई ॥
णेसा अरुख छ्खे जो कोई । जरा मरण रहित सो होई ॥
विगम डोरि तोते आई । अकल कलमे जाइ समाई ॥
श्रवण ऊपरका कों ठिकाना । ज्ींश॒र शब्द करे चमसाना ॥
दहिन स्वरषर ताकर गॐ । यदी निजमेद भें तुम्दं बताऊ ॥
अधे कमर उधेभ्ुख रई । तहवां भूल शब्द उच्चरई ॥
घमदास तुम करहु समारा । अकर कलाम शब्द् उचारा ॥
ताकी सुरति धर्मनि तुम धरह् । दोय धमनि यहि शब्दे गह ॥
तौन शब्द भ दीन बताई । उदै डोरीरे आगे जाई ॥
सबे दिशि लागी दै तादी । यहि डोरी गहि मिह् वादी ॥
षि्गम डोरी शब्देभ रागी । आगुर शब्द् उबे घन जागी ॥
अकर् कमल है श्वेत स्वपा । ताहि जोतिका कों निषूपा ॥
अकल कमलका भाषों टेखा । छत्तीस पैखुरी ताहि हम देखा ॥
ब्लके मोति वरणि नहिं जाई । चहँ दिशि ज्योति चमके आई॥
छत्तीस ॒पखुरीका विस्तारा । आप आप भख राग उचारा ॥
तेहि भीतरका कों इवाला । आभा उटि तहां चमके खाला॥
होय उजियार दीपकके टेमा । पावो जाय सुरतिके प्रेमा ॥
आभा उठे सो वरणि न जाई । तमक दीन अलख रुखाई ॥
भीतर कमर् होय उजियारा । तहां मूलशब्द करे नकारा ॥
उमगे मोती लाल अर् दीरा । तद्वां बेठे सत्त कबीरा ॥
मोती आखर उपर छाजे । भीतर शब्द् जो मूर बिराजे ॥
अक्षय कमल जह तार ठिकाना। गुद्यकमरु जहाँ होय निदाना ॥
तेहि आभा वरणि न जाई। साठ भादुकी ज्योति छषाईं ॥
काया्पाजी ( १७९ )
अस उजियार तेहि कमलम होई। ताका मरम न जाने कोहं ॥
अरिष्ठ कमर है भेद ॒निनारा । देखो जाई सकर उजियारा ॥
वोहि ठेकान सुरति कक् ध्याना। तां शुत्त होय जाय समाना ॥
एह समान जो बैठे जाई। हो धर्मनि तोहि देउ कखाई ॥
अकह कमर तहां प्रकाशा । ताहि महं निःअक्षरका बासा ॥
दुह कमर शुखही अख जोरा । तेहिमा शब्द करे धघनघोरा ॥
गुप्त नाम गु्ार तहं देख्यो । बूलशन्दकी जड वेख्यो ॥
गजार अकह कमलम अवे । मूलशब्द श्चकार सुने ॥
मोतीवरण दोय उजियाग । एही छट अगरकी धारा ॥
छटत अगर धार तदहं भारी । सभे बिलोय म कँ विचारी ॥
सुरति सजोय तरह पिव अघाई । जाते तप्त इर होय भाई ॥
अकह कमलम करो पेठारा । पीबो जाय अगरकी धारा ॥
मकत अगर तशं निज मूला । उनसम तुल्य नहीं को$ तला॥
यहि निज जपु अजपा जापा । पहंचो रोक भिटि संतापा ॥
ब्रषे तहां अगरकी धारा । सुरतिनार तहां करो अहारा ॥
जीवतदी तहां रहो समाई । यह निज दीन्दों वस्त॒ र्खाई ॥
साखी-कहै कबीर धर्मदाससे, यदी वस्तु निजसार ।
यही वस्तु जो जानिये, उतरे भवजल पार ॥
इति श्रीग्रन्थ कायापांजी सम्पूणं
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खत्यय्ुकृत, आदि अदली, अजर, अचिन्त, पुष,
छनीन्द्र, कहणामय, कवौर सरतियोग संतान,
धनी, धमदास, चरशमणिनाम, चदन वाय,
कुलपति नाम, प्रबोध यस्वाछापीर' केव नाम,
अमोल नाम, सुरतिष्नेही नाम, हक नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरन नाम,
उग्र नाम, दया नामके दयाः
वृह व्याटीसकी दया
अथ श्रीबोधखागरे
ष्टूविंशतिस्तरंगः
अथ पच्च सुद्र प्रारम्भ
सुक्रित त
सुक्रित कँ सुनो शुरश्ज्ञानी । आगम भेद तुम कटौ बखानी ॥
सकर सृष्टिकी उत्पति भाखो । मोसों गोय क निज राखौ ॥
ब्रह्म जीव कैसे उतपानी। सोई मेद गुर कहो बखानी ॥
क्त भेद यरु देह बताई । जाते हसा रोकं सिधाई ॥
( १८२ ) बोधसागर
योगजीत वचन
योगजीत तब बोर बानी । स॒ुक्रित सुनो आदि सहिदानी ॥
जाके ममे ना जाने कोहं । तुमसों भाष कदोंभे सोई ॥
उतपतको सब भेद बताऊ । अगम निगम सब तुम्हे खखाॐ॥
साखी- ज्ञान पेचभुद्रा कदं, सभूलज्ञान को सार ।
अषि सुनि देवनको मता, ताते अगम अपार ॥
चौपाई
प्रथमहि सुद्रा खेवरी किये । सो स्थान गगनमो लदहिये ॥
धूप बरण तहां लखो प्रकाशा । चेतन ब्रह्मको तमे वाशा ॥
तत्वमाहे विचित्र है सोह । कामधेनु तहां कहिये जोई ॥
पुदुप प्रकाश तदां बिजली देखा। क्चिखमिरु जोत तारागणदेखा॥
रक्तवण तहां सूयं रखाहं । प्रथम आकाशको मेद बताई ॥
साचरीख॒द्रा नासिका अस्थाना। उतंग बिदको है तहां ध्याना ॥
तहां नाकाश गगनदै वासा । बिजली षशपरेख प्रकाशा ॥
मणिगण रतन मुक्तामणि दीरा। सो्ंग शूष पवन तहां धीरा ॥
नासा अग्र करे तर्द मखा । पवन सिन्धुम दीजि देल ॥
तासों दंस रीन होय जाई । निःअक्षरसो जाय समाई ॥
चाचरी सद्र दियो बताई। ताको मेद कटौ ससुञ्ञाई॥
भोचरीको स्थान ठखाॐँ । रकाश गगनको मेद बताई ॥
मन बुद्ध चित तहां होत इलासा । तहां योग॒ कीजे प्रकाशा ॥
चितचेतन तदा ्चिखमिर देखा । नीट वरण पवनकी रेखा ॥
तवां कोर सूयेको तेजू । जीन महरुमों सुखमन सेज् ॥
तहां गगनमो होत . अनन्दा । तहां उदित है पूरण चन्दा ॥
तामो अरुख ब्रघ्नाको किये । जासों भेद मुक्तको रदिये ॥
तेहिषों ध्यान लगावै कोहं । अमी बुन्द् तहां चाखे सोई ॥
प्चभुद्रा ( १८३ )
अगोचरीको अव कहो निवासा । तासों कीजे योग प्रकाशा ॥
सुतनदीं तहां उठे तरङ्खा। ्आटर भेरी शंख भ्दंगा॥
किकिन चिचिन किगरी वेना । गरजनिशान धुनधुन सुवसेना ॥
शून्य महलमों बैठे जाह । दशोद्रार तब बन्द कराई ॥
यह विध ध्यान गगनमों करई । सत्तर बाजा तब सुब परडं॥
अनहद नादसुने जो प्राणी । उषजे महाञ्चखके खानी ॥
सतगुङ् कटै सांच सोई योगी । तहां मरण मगन रमावत भोगी॥
अगोचरी भद्रा कहा प्रकाशा । ताको योग य॒ुक्तकी आशा॥
उनयुनि मुद्रा महद अकाशा । अल्खषपुषं तहां कीन्हो बासा ॥
ब्रह्म प्रकाश तहां अण्डन पिण्डा। खोकाटोक नहीं ब्रह्मण्डा॥
ब्रण अव्रण जात नहीं पाती । नदींतहां दिव नदीं तहां रती।
तामों सरवर गदहिर गभीरा । जाके आदि अन्त नहीं तीर ॥
ज्ञानी योगी जप तहां लागा । भयोअनन्द् सको भ्रम भागा
तामो टीनरहै जो कोई । गुप्त मनोरथ पावै सोई॥
योग जीत करो भेद अपारा । बिरखा साधू करे विचारा ॥
खेचरी चा चरी भोचरी जानी । अगोचराउनस्रुनिकदी बखानी
उनश्रुनि लागी योगपर निदा । सुख समाज जहां पमं अनन्दा ॥
यह प्रकाश उनशुनिमों किये । क्क भेद पुनि तामं खहिये॥
पञ्च द्रा ओर पञ्च अकाशा । पच ध्यान ओर पञ प्रकाशा ॥
पञ वर्णं ओर पञ्च है वेदा । पञ्च तत्त्वके पञ्च हैं मेदा ॥
पञ मन्दिर ओ पञ दै द्रारा। पञ षप ओ पञ्च अहारा ॥
पञ इन्द्री ओ पञ्च रै स्वादा । पञ्च विद्याओं पञ्च दहै नादा ॥
पञ ह आसन पञ्च रै योगी । पञ मंदिर ओं पञ्च है भोगी ॥
पञ सक्त ओ पञ्च दहै सीउ। पञ कर्म ओ पञ्च है जीउ॥
पञ्च पृथ्वी ओ पञ्च है नीरा । पञ तेज ओ पञ्च समीरा ॥
( ९८७ ) बोधसागर
पञ्च ख्गिओ पञ्च दहै पूजा। पञ्च एक पञ्च है दूजा ॥
पांचो आवें पाचों जाई । पाचों मरे पांचोंको खाई॥
पाचों सुक्षिम ओ पांच अस्थूला । पांचडारओ पांचटहैं मूला ॥
पांच पाप ओ पांच रै पुता । पांच बस्ती ओर पांच दहै सन्ना ॥
पांच पांच पाचों सब भवा । पांच स्वामी ओौरर्पांच है सेवा॥
पच गुरू ओर पेच रै चेला । पांच भाव ओर पांच दै मेखा॥
पञ युद्राका कों विचारा । ताको योगी करे सम्हारा ॥
चार छोड पांचो करे बासा । ताते पंचका कहो प्रकाशा ॥
पांचों मुद्रा उनसुनि किये । तासों भेद शुक्तिको रदिये ॥
ब्रह्म प्रकाश तहां पूरन चन्दा । रेन दिवस नरि सहज अनन्दा ॥
दुतिया भाव तह नहि काया । तद्वां नदीं धूप ओर छाया ॥
हम तुम कमे अरम नहिं दोई। तहां सिखान ब्य सो रोई ॥
सहज शून्यको ख्खेजो मेवा । आपदी कता आप दी देवा ॥
प्रथमरी आपुपुषं विस्तारा । तदति भयो ब्य आकारा ॥
आकारते अहंकार उपजाईं । ताते बहु विस्तार बनाई ॥
सोहं स्वासा पुषं उचारा | तहति भौ अक्षर ओंकारा ॥
पांच ब्रह्मकी उतपति भाषों। तमसो गोय कद नहीं राखौं ॥
अकास ब्रह्मको भास बताऊ । वायु ब्ह्मको तदहवां ला ॥
पुन दहै तेज ब्रह्मकी वानी । जलकी बहुरि कहौं उतपानी ॥
फिर प्ृथ्वीको भास लखाऊ । प्रथम ब्रह्मको भेद सुना ॥
अविगत आदि ब्रह्मको भासा ताको भेद कहौं प्रकाशा ॥
प्रथमे नाम आकाश कहाई । दुतिये गगनाकाश बताई ॥
फिर रकाशको नाम सुना । चौथे गगनसकाश रखा ॥
पांचे महद अकाशकी बानी । पञ्च अकाशे कहौं बखानी ॥
अब सन कौं पञ्च अस्थाना । सक्रित तुमसों कौं बखाना ॥
पञ्चमुद्रा ( १८५ )
बुखके अग्र खेचरी बासा। ताकोध्यान जन करे अकाशा ॥
नासा अग्रधिङटी अस्थाना । चाचरी अद्रा तहां बखाना ॥
चक्षु अयथ भोचरी जाना । उ्धअकाशकेो है तहां ध्याना ॥
श्रवन अग्र अगोचरी थाना) सहज ञ्ुन्यको है तहां ध्याना॥
तिखकपाट उनुनी कीजे । महा्चन्य ध्यान तहां कीजे ॥
प्रथमदि खेचरीक भ॒द्रा किये । धूमबरण रंग तहां लदहिये ॥
पीतवणं तदो देखे जाई । अकह प तहँ रहो समाई ॥
ओरो वर्णं रक्त लख आई । कामधेवु ताँ देखो गाई ॥
कस्पबृक्षको तदहवां छाया । नहीं तहा काल नहीं तँ काया॥
तहां समाध लगावे जाई । अमी इद् ताँ चाखे भाई ॥
ताकर पीबत अमर होइ जाह । सोई भेदम वरण सनाई ॥
दुतिये चाचरि सुद्रा बखानी । नासा ध्यान तासषकौ जानी ॥
तहां उतग ब्ह्मको देखा । हंस शूष तहर्वौँ पुन पेखा ॥
मणिगण रतन बिन्दको बासा । कर्ताह्प पुरूष प्रकाशा ॥
जगमग ज्योति देखिये तदिया । बिन शशि सूर उजरो जहिया॥
चहुंदिश दामिनि दमके आह । चन्द सूर तामों छपजाई ॥
इतना शूप चाचरी जानी। ताको भेद कों प्रवानी ॥
तरितिये भोचारी अदा किये । अष्ट अंग पुन तामों लदिये ॥
मन बुध चित अहंकारन माया । ममता काम दर्षकी या ॥
तेज पुज तदो क्चिलमिर देखा । सक्षम अस्थान तहँ एन पेखा ॥
चित चेतन्य तर्हो पुन दोह । तामों मिरे परमपद सोई॥
भोचरी अुद्रा कटि समज्ञा । ताको म्म कोः ज्ञानी पाई ॥
चौथे अगोचरी अद्रा जाहीं । महाशब्द धुन उपजे ताहीं ॥
नाना तार बेन मृदंगा । यत्र ढोरु सहना अंगा ॥
राबाब किकिन श्ञाररी बाजा । नभेरी चिचिन शंखधुन गाजा॥
९ १८६ ) ्ोधसागर
मेचनाद गजनी तहां किये । शंख शब्द धुन तामों लदिये ॥
बाजा सने सूष्य तव रोई । काम कोष मद सब गहि खोई ॥
कोभ मोह तज पावे सोई । प्रवतं छोड़ निरवतं जो हों
तसो सतो रजो शण विसरावै । आगे हप दशं तब पावे ॥
अगोचरीको अब कहे उपाईं । योगी कमं महा सच पाई ॥
पांचे सुद्रा उनसुनि जानी । ताकर भेद अब कों बखानी ॥
उनसनि देश लखे जब जाई । अमर वस्तु तब भाषे आई ॥
बरह्म अखण्ड देखिये जाई । ब्रह्मरूप तब भाषे आईं ॥
अत पीत श्याम नहिं सोईं। अक्ण सब्ुजतें न्यारा होई ॥
रूप सरूप दद बेहद नाहीं । चारो बानि खानि नहीं ताहीं ॥
रण अव्रण काया नहिं माया । युग बेदनकी तहँ न छया ॥
षटदरशन पाखंड ना तरह । बावन अकवर अकार न जहौ ॥
नौ षर चार अषटदश नाहीं । पचो तत्व धाम नहि ताहीं ॥
मन बुध चित अहंकार नावासा । काल कभेको नहीं प्रकाशा ॥
तौ ध्यानधर तारी खवे। सोई शूल परम षद षतै॥
उनसुनि सिखर बहर चदृजाईं । जर्दोकी गम्य देव नहि षाह ॥
नहि तहा कार नदीं तहं काया । नहीं तहां प्रमता मोहन माया ॥
चन्द् सूर॒ तारागण नादीं। दिवस रेन तँ धूव न छाहीं ॥
पड ब्रह्मांडको तहँ न रेखा । केवर षारब्रह्म ताँ देखा ॥
अलखरूप तहा अबिगत सोहं । सबके परे ध्यान वह होई ॥
तासों ध्यान लगावे प्राणी। असी चारके छृटे खाणी ॥
अब वेदनको बास बताॐ। ताको भेद अब वणं ॒सुनाङ ॥
जिहा अथर ॐग्वेदको वासा । नासा अग्र॒ यज्ञर प्रकाशा ॥
श्रवण अग्र शाम सुति किये । चक्षु अग्र अथरवण रदिये ॥
न्य अग्र सोदंग प्रकाशा । तद्वां खसमे वेद को बासा ॥
प्चयुद्रा ( १८७ )
वेदनके ` अस्थान बताई । अब इरिनके स्वाद टखाई ॥
लिगि इदी कामिन सो नेही। जिह्वा षट् शाद तो ल््ी॥
नासा गध सुगंध अवाह । चक्षु ही हव लोभाई॥
श्रवण स्वाद मधुर धुन बानी । ये पांचोके स्वाद बखानी ॥
पुथी अस्थूल ऋग्वेदकी बानी । नीर अस्थूल जजर पहिचानी ॥
वाथ अस्थुर साम सुति किये। तेज अध्थूल अथरवण लिये ॥
अनदहद अस्थूल सोह॑गकी बानी । सुसम देवताको पहिचानी ॥
खोजे ताहि सक्त तब होई | ससम बेद सम ओर न कोई॥
वेद अस्थूल कहा समञ्ञाई । आसन योगी भेद बताई ॥
पुथ्वीषप जहो आसन जाना । जीवह्व योगी प्हिचवाना ॥
पानीरूप जहां आसन किये । हईसह्प योगी तहां छदिथे ॥
तेजश्प जरह आसन जानी । चेतनह्षं योगी पहिचानी ॥
बांयेषूप हे आसन जहिया । निराकार योगी ह तदिया ॥
आकाश इष आसन प्रवाना । निरंजन योगी जहौ बाना ॥
आवागम अब भेद बताईं। तमसो सुक्रित नाहि दराई ॥
जीव पृथी मिल अवे जाई । मिल पृथी पुनि बहुरि सिधाई॥
हस हप जर मिके आवे । बहर नीर मिल धरहि सिधावै॥
चैतन तेज मिल आवै सोई । बहुर तेज मिल तहँ सगोई ॥
निरा बाये मिलि आवे । बहर बाये मिरु गृहे समाव ॥
निरञ्जन मिक आकाशको आवे । बहर गगन मिल उलट समवे ॥
आवागम म दीन बताई । जन पहंवनको भेद लखा ॥
प्रथम पृथीको जरल उपजावे । सो जर बहर परथीको खादै ॥
जलकी उतपत तेज सो होई । भक्षे तेज पुन जरको सोई ॥
तेजको बाये रूप उपजावे । उरृट वाये पुन ताको खावे ॥
वीये ङूप अकाश उपजाई । फिर अकाश पुन ताको खाई॥
आकाश श्चन्यते उतपत जानौ । बहुरि च्ुन्यमे जाय समानौ ॥
{२४८८ >) बोधस्ागर
फुथी जीव गृहे करौं प्रकाशा । गुदा द्वारमों कीन्हो बासा ॥
पानी रंसको गहे बताई । ललाट अधरमों बेढकं पाईं ॥
तेज चेतनको धाम बताई । पीत चक्षुके द्वार रहा ॥
निराल्म बायेको थाना । नामी नाशिक द्वार समाना ॥
आकाश निरंजनको प्रकाशा । श्रवण द्वार ब्रह्मांड र बासा ॥
पांचोके गृह वण सुनाईं। रंग अहार कों सथुञ्चाई ॥
पृथ्वी पीतवर्णं उच्वारा। सो तो जीवको कों अहारा ॥
पानी श्ेतवणे रै माई। सोतो अहार दसको आईं ॥
तेजको रक्तवण पटिचाना । सो तो अहार चेतन को जाना ॥
वायेको सबुजवण रै भाई । निराट्बको भक्षण आई ॥
अकाश नीखुवण पहिचानी । निरंजनको अहारसो जानी ॥
रंग अहार कटे सथुञ्चाईं । पृथ्वी पंचके नीर बुञ्लाई ॥
पृथ्वी नीर पुत्र रै भाईं। हाड पृथ्वीको बिद कदाई ॥
नीर प्रथीको श्रोणित अंशा । पसीना त्वचा परथीको वशा \
रोम प्रथीको वेश कहाई । परथी नीरको भेद लखा ॥
पृथी बिमल गुण किये भाई । अब पृथी गन वर्णं वताईं ॥
तेज तमोग्ुणको पहिचाना । बाये गन्धशुण कखो सजना ॥
अकाशअल्खयुण जानह भाई। पांचोके शुणवर्ण सुनाई ॥
अब प्रकत पचीस बताऊ पाचों तत्त्व विभाग ठकखाॐ ॥
हाड चाम मास रोम रुखाईं । नाटिका पृथी प्रक्रित बताई ॥
रक्तं पित्त कफ स्वाद बखाना । श्चारप्रकरितजरतत्वको जाना ॥
भूखप्यास मुख प्रभा जम्दानो । आस निद्रा तेज पदिचानो ॥
धावन कूदन बकर भाई । परसन सङुचन पवन बताई ॥
लोम मोह दकार भे जाना । बिद् अकाश प्रक्रित बखाना ॥
पांच परचीस अंग कि दीन्हँ । तासु मम को बिररे चीन्हौ ॥
पचमुद्रा ( १८९ )
प्रथमहि जीवहूप पहिचानो । प्रथमे ताके चेला जानो ॥
ओ पुन हंसङूप रै भई। पानी वेला तास बताई ॥
चेतनरूप शुरू है सोई। चेला तेज ताञ्चको होई ॥
निराटंब शुरू पहिचानो। वाय तासको चेखा जानो ॥
अक्ख निरंजन गू बखाना । चेला आकाश तासको जाना ॥
गुरू शिष्यको भेद वता । अब्र तत्वनकी परष लखाई ॥
छद्-चौकोर मंद ओर द्री धरनी है सोई।
चे शीतल मद चले जकको तत होई ॥
तेज तत्व जो उच आगमनकी आइ हो$ ।
दिने बाय चले बयि तत्त जानो सोई ॥
सब्ुजके मध्य सुखमना पवन गगनको जानिये ।
आकाश नाम तासों कहि पाचों तत्व बखानिये।
नाभी गष समान पवनको अंश बखानो ।
हदे माही प्राण अगिनको अंश सो जानो ॥
कंठ बसे आपान अंश तेहि जलको जानो ।
गगन बसे उद्यान अंश आकाश बानो ॥
सब देदीमे व्यान है अंश प्रथ्वीको जानिये ।
पच प्राण ये जानिये अंशदहीते पहिचानिये ॥
चोपा
पचगप्राणकीो संघ रखाईं । अब उनयुनिको मेदं बताई ॥
सुदरापचि पकट मे भाषा। तामहि ॐष्ठ उनुनि राखा ॥
चारोके परे उनसुनि किये । अर्खूप पनि तामों लदहिये॥
सोई ब्ब्न्ञान कहलावे। धरे ध्यान तहां अभरत पातै ॥
पावे साप अमीरस पीवे। सो योगी जग युगथुग जीवै ॥
ना फिर आवे ना फिर जाई । अखंड मंडलमं रहे समाई ॥
( १९.० ) चोधस्ागर
ताको जरा मरन नहि रोई । परम तत्वमे रहे समोहं ॥
योग जीत कड ज्ञान अपारा । यह मारग रै सत्त बषिचारा ॥
सुक्रित बचन
सुक्रित करै सुनो गुर्क्ञानी । यद्रा पच तुम कदी बखानी ॥
ओर कथा एक पृछछो तोरीं। सो सघुञ्ञाय कदो प्रयु मोही ॥
कायामाहे कमल जो होई । तेहि स्थान स॒नावो सोई ॥
कौन कमलके पुरी जाना । कौन देव तहां कीन्हों थाना ॥
कौन कमलसों स्वासा आवि । कौन कमलमों जाय समवै ॥
कोन कमलसों होय गुजारा । कोन कमलसों करे उचा ॥
केतिक स्वासा आवे जाई । भित्र भिन्न सब ठेख बताई ॥
योग जीत दचन
हे सुक्रित मे तुम्दै लखाऊ । कमर्नको प्रमान बताऊ ॥
प्रथमदि कमल चतुरदर कदिये। देवगणेश पुन तामं छदिये ॥
रिदसिद्ध जां सक्त उपाषा । तहां जाप्छै सो प्रकाशा ॥
ष्टदल कमक ब्रह्ाको बासा । सावि तहा कीन्ह निवासा ॥
षटसदहख तहां जाप बखाना । देवन सहित इद॒ अस्थाना ॥
अष्दरुकमटखदरिरक्ष्मी वासा । षटसदञ्च तहां जाप निवासा ॥
द्रादश कमलमों शिवको जाना । षटहजार जाप बंधाना ॥
तहां शिव योग॒ ख्गवें तारी । पारवती सग सहितं विचारी ॥
षोडश कमल जौव मन वासा । एक सदस जाप प्रकाशा ॥
तरद कमर भारथी वासा । सोतो उज्ज्वल कमर निवासा॥
एकं सदस जाप तदा कौज । यह सकल्ष जाय तदहो दीजे ॥
दोय द् कमर दस अस्थाना । तामह पम रंसको जाना ॥
एकं सरस जाप प्रकाशा । कमे अमको दै तदं नाशा ॥
सदहखदर कमलम क्चिरुमिल जाना। ज्योति सूप तर्द पहिचाना॥
ताहै र॑गहैे अख अपारा । अलख पुषं है सबते सारा ॥
पञ्चमुद्रा (९१)
नवे कमर आदको जानो । जाति निरयण पुषं बखानो ॥
एकस दजार कैसे जाप किये । सो सब पुषं ध्यानमों खटिये ॥
अष कमल्को भेद बताई ओर ज्ञान अव भाषो भाई॥
स्वासाको प्रमाण अब भाषो । तेहि वभाव प्रकटकृर राखो ॥
अब स्वासाको मेद बता! जाको मर्म कोहं नहि पाड ॥
अमी अखण्डते ववे धारा । तहति स्वा शोय शंजारा ॥
निस्वासरको जाने मूला | स्वाक्षा सार शब्दक्षमतूला ॥
दशर्य धरते स्वासा अवै । कटु नाभी क्क अल्ख चढ़ावे ॥
निस दिन चले स्वासाकीं धारा । सातसे आगर साठि इजारा ॥
अमी कमल अमान सो नाला । अद्ाहं इर प्री रिसाला ॥
तोति चरे पवनकी धारा । स्वासा माहे शब्द शुजारा ॥
उनचालिस हजार एकसे आवे । एतिकं चिङ्कर द्वारसो धै ॥
हृदे कमल होय स्वासा अवै । एकडस हजार ओर छसे धावै ॥
एता जाप तदं प्रवाना । एकडस हजार ओर छसे जाना
एतिकं स्वासा ददे के आवै । षिन बाहिर किन भीतर धवे॥
दुसरा कमल है क्चिखमिर मादी । अलके जोत अधर धुन तारी ॥
सहस्र पखुरी कमर अनरूपा । तदो बसे मन जीत सह्पा ॥
ताहे कमर पर बाजा बाजे । सत्तर बाजा तदहं बिरजे ॥
तहां घरनी घरियार बजे । घरी घरी टंकोरा कवै॥
छेसे ओ पचहत्तर स्वासा । एतिक एक धरी प्रकाशा ॥
एतिक स्वासा कमत युगमादही । तब धरनी धरियार बजाही ॥
या विधि चार टैकोरा ठोके। राह केत॒ सग व्यालि न रोके ॥
पहर एक करे धुन पूरा । ग्रहण गिरासे शशि ओ सूरा ॥
गहन गिरा सत निरे स्वासा । रवि शशि राह केतु प्रकाशा ॥
तेहि सग एकं ॒सापनी रहर । षरीघरी वह जीवको गहई ॥
श्वासा सोरह अहण लगावै । छटे मास तेहि काल सतावै ॥
( ९९३ ) सोधसागर
स्वासा परख घरीकी राखे। जो दम चरे सो आगम माखे॥।
सत्ताइससो स्वासा चरे जबरी । पहर टंकारा मारे तबदी ॥
एतिक स्वासा पहर प्रवानी । घरी चारमों गजर बन्धानी ॥
आढ पहर छ घ्री बजावे । ठोके गजर गहर नरि रवे ॥
चार घरी चारो युग मूला । चार पहर चारो अस्थूला॥
चारो युग एक पहरके माही । चारो युगकी वतं छादी ॥
प्रथम पहर सतयुग प्रवाना । ताकर प्रथम चरी बधाना॥
सतयुग युग चार अपारा) चारो युगके नाम निनारा॥
प्रथमह सतयुग रोपो थाना । चारो युग तेरि माहि समाना ॥
सतयुग प्रथमदहि घरी उतपानी । किरकं नामयुग ताहि बखानी॥
किलक जगकी स्वासा सारा । छसे पचडइत्तर स्वास सुधारा ॥
एतिकस्वासाकिलक युगमाहीं । पे जीव अकेकी छादीं ॥
वीतत घरी गजर वहराई। कार टंकोरा मरे धाहं॥
या युग अन्तकी आवे घरी । मे नागिन सनश्चुख खड़ी ॥
प्रथम किलकयुग दोय सघारा । पीछे कमतयुग करे पसारा ॥
सतयुग घरी दूसरी अवं । तेतिक स्वासा कमत युग पावे॥
जवे कमत युगकरे रहंकारा । उतपत थोरी बहुत संघारा ॥
कृमत युगकीौ स्वासा जानो । कैसे पचहत्तर स्वासा बखानो॥
एतिक स्वासा कमत युग मादी । गुण ओगुण सब निखं तादी ॥
बीते कमत कमोद् युग आवे । तीसरी धरी बासना धावे ॥
आवागवन विचारे जोई । युग कमोद सुख पावे सोई ॥
तिखरी घरी कमोदकी आवे । तब कमोद् युग सुख दिखरावे॥
युग कमोद् अमर जब आवे । दुखी सुखी नर सब सुख पावें ॥
युग कमोदकी प्ररे होई । दुखी सुखी जाने सब कों ॥
तबही होय सूर सचारा। महाविरोध उपजे ससारा ॥
पच्चमुद्रा ( १९३ )
चन्द् सनेह होय जो हीना । महाश्ुल तन होय मटीना ॥
शासा घरी सातस्े भारी । युगकमोदकी कथा निनारी ॥
युगकंकवत होय वैसारा । चौथी घरी कोध अधिकारा ॥
ताकां चरी निकट जब्र अवै । सरतञ्ग अत केंकवत षव ॥
सतयुग अंत होन नहि पावै) युग कंक्वत आन समवै ॥
युगककवत काक इदखद्ाई । काया कहर गिरासे आई ॥
युगकेकवत कालकी वाजी । कलह विकार सब जगमा साजी॥
युगकेकवत महाब योधा । अंतकार सतथगसो कोधा ॥
सतयुगअत कंकवत माहीं । अंतकाल्कौ व्यपि अही ॥
युगकंकवत मोहकी अदी) काम क्रोध ममता लवर ॥
अतकार सतथुगके भय । चारो युग ॒प्रछे तरं गयं ॥
चारों युगका मेद बतावा ।अगम निगम सवं भाष खनावा॥
साखी-एके युगके बीतते, चारों गये बिना ¦
एक नाद् चारों युग खायो, सतयुग कीन्हो यद ॥
किलक कमोद् चदके नेहा । कमत कंकवत दुर सनेडा ॥
भये युग अंत एक संगचारी । चार शब्द एक नादं संघारी ॥
एक नाद् एक पहर कवे । चार धरी एकं माहि समवि ॥
चार घरी चारों युग बीते। शब्द नाद रवि शशिघर जीते॥
सतथुगको तब भयो बिनाशा । उतायुगको भयो प्रकाशा ॥
दूसर युग तब मौ विश्वासा । दूसर पहर तत्व प्रकाशा ॥
तेज ठगन श्वासा अनुसारी । तते उतायुग संचारी ॥
रेता ुगकी प्ञुरी चारी । चार घरी थुग चार बिचारी ॥
जस युगअंत सतथुगमों देखा । सोहं युग ञतामों रेखा ॥
जम जब अत होय युग केरा । तब तब नादकार घन घोरा ॥
न.८ कबीर सागर - ७
( ९९७ ) ् बोधसागर
त्रेता युगमो कल्ह् अपारा । यज्ञ दान तत नेम अचारा ॥
तेहि पीछे द्वापर युग आवा । कारु अत तब आन समावा ॥
अहंकार तामे अति भाखा । अब कलयुगकी वणो साखा ॥
काम कोघ ओर पाप अपारा । लोभ मोह यम कीन्ह पसारा॥
एक पटर चारों युग जाना । ताको वणं कहौं बिरान ॥
पांच तत्व तीनों गुण किये । ताते पिंडकी उतपति खदिये ॥
अष्ठधात किये अस्थूला । ताते रचो गभेको मूला ॥
शिवकी शासा वायु सरूपा । सक्ती गहे जानके रूपा ॥
शिवको रूष शक्ति गहि लेहं । तब साचा मो जावन देई ॥
जावन जगे तब साचा माहीं । थाका होय श्धिरके ताहीं ॥
तेहि थाकाकी रचना भारी । तीन लोकंकी बिभो सवास ॥
महर मध्य पुनि जीव समावा । जरूके भीतर महर बनावां ॥
मदलके माहि बनाये छना । तामो दश कीन्टों दरवजा ॥
साचा अच्र जरे नदिं कबरीं । पिंड सवारो अन्तर जबहीं ॥
साचा मादि दियो रंग टढारी । नख सिख शोभा बहुत स्वांरी॥
तीनों लोकं रचो पलमादीं । गदृषति अंश तब साजा ताही॥
प्रथमहि सायेर सात वारा । पवेत आठ कीन्ह अधिकारा ॥
अटारह गंडा नदी बहाईं। तामह ग॒त्त॒ बै उदहराई ॥
अटारह सहस्र बनाये नारा । अष्टधातुरे साज सुधारा ॥
रक्तं हांडको सब अस्थूला । बाढ़ छ्गि सवारे भुला ॥
आगे रचो दोह भुज ठंडा । सातद्रीप प्रथ्वी नौखंडा ॥
बहर संवारो दोय पग खंभा । मदन महाब उपजो रंभा ॥
नासा चटाय मस्तक पर खाई सातर्भवर नोनार रगाई ॥
उतर मेर शिर जो अस्थूखा । सरवर मा कमर बहु फएूला ॥
नाभी मारि दल चार बनाई । एल फर बास धट छाई ॥
== = - - =-==-- ~~~ ~~~ ~~~ --
पश्चमुद्रा ( १९५ )
आगे अंग रचो अस्थूखा । शिव शक्ती दोनों समत्रला ॥
सोई अंग शक्त सोह ईसा। एकै हष ठकं समदीसा॥
नख सिख रचो गभस्थाना । सातद्रीष नौखड बखाना ॥
प्रथमहि ब्रह्म द्वप निरमावा ) तापर बह रचना लवा ॥
एकद्वीप नौखड बनाई । जिङ्करी सात तहां निखाई ॥
एकद्वीपमदं सातो नाला | सातोनार सात है चाला॥
सरवर सात कमल है साता रंग कांच पांचौ उतषाता॥
जिकुरी मध्य एकै कीला । तहां देखिये रंगरसीला ॥
ता कीरखामहद कानी छागी । पवन सनेह आत्मा जागी ॥
ता कौरमह लागी डोरी । बूटा छ्गा पवन अकञ्चोरी ॥
जूके मन पवन श्जुखावै घेरी। एकं घर श्ुन्य एकं घर फेरी ॥
छटा दोयके पवन कोरी । इगला पिंगलो स्खमण जोरी ॥
रविशशि पवन गहे मन जोरीं । खटा खाग पवनकीं डोरी॥
मेरे उंडपर खटा गाड़ा। नदीं तीन ताञपर बाडा ॥
सूटातरे नदीत्रिय बह । तीननदी बिच लूटा रइं ॥
खटाके दहने दिश गंगा। अति शीतल बै नीर तरंगा ॥
सूरसनेह नीर हिय पसे । सुर्तसनेह धनी तहं दसै ॥
खेटाके दै बय अंगा । यश्रुना नदी बहे अतिरंगा ॥
सुखमन सरस्वती नीर तरंगा । लहर खाच तेज विष अंगा ॥
तहां बसे सरयू तेहि साथा । रावर एक बयालिस हाथा ॥
कार अनन्त षप रस नाथा । बसे अधर दीखे नरं माथा ॥
बाढी नदी दोह बिकरारा। शीतर तेज बहे दोउ अधारा ॥
तिसरी नदी गुप्त पर्वाहा। अविगत जल बहेअगमअथाहा॥
खटा तरे होय नदी सिधारा । चली सरस्वती फोरि पहार ॥
मध्यं लहर रस विषके खानी । गेगा युना बीच समानी ॥
( १९.६ `) चोधसागरं
बिङ्टी सगम भयो भिटाना । भवर शुफा माधो करथाना ॥
अविणी तट बसे सखटेगा। ताको मम लखा प्रसगा ॥
गणं घव सुनि सब कर थाना । सुर नर सुनि कर बैठे ध्याना ॥
तेतिस कोट देवं मुनि भारी । यक्ष यक्षणी देव कमारी ॥
नागसुता अपसरा मोहिनी । चट् बिमान सब्र फिरे जोहिनी ॥
असुरपिशाचऋषनागजोलादङ। अिवेणीतटर करे कोटादट ॥
तीनखोकं जौ जीव निवासा सो सब करो वेणी बासा॥
भरिवेणी तट माधौ देवा । सब भिर करे तासुकी सेवा ॥
ताहि पराग दोय चलो प्रवाहा । गगास्ागर संगम जाहा ॥
देश देश गेगा फिर आई। घाट घाट बह त्र वैधाई॥
जहां तहां तप ध्यान लगावै । योग यज्ञ तप बहत करावे ॥
ऋतुबसत प्रागको धवे मकर नहाय बजार लगावै ॥
अधे उध बिच लागी हाटा। भीतर बाहर ओघट धाटा॥
गभमाहि सब युक्ति बनाई । तीन कचहरी तहां लगाई ॥
जहां नदी संगम पर्वाना । तहवां रचो एकं अस्थाना ॥
सगम बीच गुफा एकधारा । ताहि शफामो सात हे द्वारा ॥
एकद्वार दोय नाद सुधारे एकद्वारं दोय श्प निहार ॥
एकद्रार दोय वास बसावे। एकद्वार दोय अग्र समाव ॥
एकद्वार हो स्वाद छिवावै। एकद्वार होय न्याय चुकावै ॥
एकद्व]र दोय नाद उचारा । योग जीव यह् मता विचारा ॥
सातनार चौदह सुरभाञ । सातोके है एक सुभा ॥
सातो सात न्य मों बासा। सातो बसे शफाके पासा ॥
अनदद् मेद॒ शासाक्री धारा । ताको भाषतहों व्यवहारा ॥
साखी-रचना भाषे षिडकी, शासा सहित बिचार ।
बिरलाजन कोहं परखि है, अलखङप ब्यवहार ॥
पच्चबुद्रा ( १९७ )
सुक्रित वचन-चौपाः
सुक्रित कह सुन सत्यगुर् ज्ञानी । अगम कथा कदी अन्तरयामी॥
ओर कथा अब मोषो भ्षोँ। जोरों सो गौयन रषौ ॥
देस अवधको मेद बतावो । ताक अर्भ सब मोहि सनवो॥
आगम वरषं माक्षषट जानो । तो कङ्क अपनो निजम्रत गनो
ताको भेद कों सथ्ञ्लाईं। सो मोहि सतञ्ङ्् भेद ख्ख!ईं ॥
योगजीतव बचन
सुक्रित सुनो सत्त मम बानी । भिन्न भिन्न चै कों बखानी ॥
पाचचघरी बांये सुर षाह । सोई दहिनो श्वासा चहं ॥
दशश्वासा सुखमन जो कष्िये। ताको भेद बराबर छदिये ॥
आढ पहर पिंगला सुर हारे बरष तीसरे इसा चि ॥
आठ दिवस दिनो सुर बहे । हंसा अवध वषं दोय रहै॥
सोरह दिनि पिंगला सुर बोडे । बरवे एकं मो इषा ङे ॥
वीस रेयन दिन दहिनौ पाईं । तब षट मासमों इस चलाई ॥
एकति सरोज दक्षस्वरको जानो। तब दोय दिनमों हंस वयानो ॥
पांचघरी सुखमन जो इङे। वांचधरी मो ईसा चाे॥
चन्द् सुर सुषमन छषजाई । अुखसे तीजो पवन चलाई ॥
एेसी विधि पवन चलाई । पहर मादिं ईसा चर जाई ॥
साखी-धूम मंडल दीखे नही, जोत न नेच ङुखाय ।
छठे मास हंसा चले, बचै न कोट उपाय ॥
छाया शीस दीखे नदी भुजा शिखर ना दिखाय।
दीप बास आवै नहीं, छठे मास चल जाय ॥
गगन शब्द गरजे नदीं, नेत य॒ज्ञ छपजाय ।
भास एकके अवधमें, हंसा तन तज जाय ॥
मैवरशुफा तिरु ना लखे, पुतरी जब चदृजाय ।
पहर एकमे जानिये, हंसा तन तज जाय ॥
(९८८ ) बोधसागर
पृथी जीव गृहे करौं प्रकाशा । गुदा द्वारमों कन्दो बासा ॥
पानी रंसखको गृहे बताई । रकखार अधरमों बैरक पाईं ॥
तेज चेतनको धाम बताई । पीत चक्षुके द्वार रदाईं ॥
निरालुंभम बायेको थाना । नाभी नाशिक द्वार समाना ॥
आकाश निरंजनको प्रकाशा । श्रवण द्वार ब्ह्मांड रै बासा ॥
पांचोके गृह वणे सुनाई । रंग अहार कों सभुञ्चाईं ॥
पथ्वी पीतवर्णं उच्वारा। सो तो जीवको कों हारा ॥
पानी श्ेतवणं दै माई) सोतो अहार हंसको आइ ॥
तेजको रक्तवर्णं पटिचाना । सो तो अहार चेतन को जाना ॥
वायेको सबुजवण है भाई । निराट्बको भक्षण आईं ॥
अकाश नीख्वण पदहिचानी । निरंजनको अहारसो जानी ॥
रंग अहार कटे सभुञ्चाहं । पृथ्वी पेचके नीर बुञ्ञाईं ॥
पृथ्वी नीर पुज रै भाई। दाड पृथ्वीको बिद कहाई ॥
नीर पृथीको श्रोणित अंशा । पसीना त्वचा परथीको वंशा \
रोम प्रथीको वेश कहाई | पृथी नीरको भेद छ्खाईं ॥
पृथी बिम गुण किये भाई । अब पृथी गन व्णं॑वताइं ॥
तेज तमोशुणको परहिचाना । बाये गन्धशुण खो सुजाना ॥
अकाशञअलखगुण जानह भाईं। पांचोके शणवण सुनाई ॥
अब प्रकीत पचीस बताऊ । पाचों तत्व विभाग लखा ॥
हाड चाम मास रोम लखा । नाटिका प्रथ प्रक्रित बताई ॥
रक्त पित्त कफ स्वाद बखाना । ्चारप्रक्रितजरतत््वको जाना ॥
भूखप्यास मुख प्रभा जम्हानो । आलस निद्रा तेज पदिचानो ॥
धावन कूदन बलकर भाई । परसन सङचन पवन बताई ॥
लोभ मोह ईकार भे जाना । बिद अकाश प्रक्रित बखाना ॥
पांच पचीस अग कहि दीन्हा । तासु ममे कोई बिररे चीन्हा ॥
पञमृद्रा ¢ (4)
प्रथमहि जीवहूप पहिचान । प्रथमे ताके चेला जानो ॥
ओ पन हठंसङूप रै भाई। पानी चखा तास बताई ॥
चेतनरूप शू दै सोई। चेखा तेज ताको होई ॥
निराटेब गु पहिचानो । वाय तासको चेखा जानो ॥
अलख निरंजन शुरू बखाना । चखा आकाश तासको जाना ॥
गुरू शिष्यको भेद बताई । अब तच्वनकी प्रष लखाई ॥
छद्-चौकोर मद ओौर श्दपुरी धरनी ह सोई ।
नीचे शीतल मंद चले जल्को तत होई ॥
तेज त्च जो उच आगमनकी आख होई ।
द्दिने बयेि चले बोँये तत्वं जानो सोई ॥
सबुजके मध्य सुखमना पवन गगनको जानिये
आकाश नाम तासों कहि पाचों तत्व बखानिये।
नाभी गध समान पवनको अंश बखानो ¦
हदे मादी प्राण अगिनको अंश सो जानो ॥
कंठ बसे आपान अंश तेहि जलको जानो ।
गगन बसे उद्यान अंश आकाश बखानो ॥
सब ॒देहीमे व्यान है अंश प्रथ्वीको जानिये ।
पच प्राण ये जानिये अंशदहीते पहिचानिये ॥
चौपाई
पचप्राणकी संघ ल्खाईं । अब उनमुनिको भेदं बताई ॥
सुद्रापांच पभरकट मे भाषा। तामहि रेष्ठ उनमुनि राखा ॥
चारोके परे उनमुनि किये । अर्खरूप पुनि तामों लहिये॥
सोहं ब्रह्मज्ञान कदलावै। धरे ध्यान तहां अभरत पराव ॥
पावे. साध अमीरस पीवे। सो योगी जग युगयुग जीवे ॥
ना फिर आवै ना फिर जाई । अखंड मंडलमें रहे समाई ॥
( १९० ) चोधसागर
ताको जरा मरन नहिं होई । पम तत्वमे रहे समोह ॥
योग जीत कह ज्ञान अपारा । यह मारग है सत्त बिचारा ॥
सुक्रित बचन
सुक्रित करै सनो गुश्ज्ञानी । मुद्रा पच तुम करी बखानी ॥
ओर कथा एकं प्रछो तोहीं। सो सश्रुञ्ञाय को प्रथु मोहीं ॥
कायामाहे कमल जो होई । तेहि स्थान सुनावो सौई॥
कोन कमलके पखुरी जाना । कौन देव तहां कीन्हों थाना ॥
कौन कमलसों स्वासा अवे । कौन कमलमों जाय समवे ॥
कोन कमलसों दोय शजारा । कौन कमरसों करे उचारा ॥
केतिक स्वासा आवे जाई भित्र मित्र सब लेख बताई ॥
योग जीत दचन
हे सुक्रित मे तुम्दै लखा । कमल्नको प्रमान बताऊ ॥
प्रथमदि कमर् चतुरदर कहिये। देवगणेश पुन तामो छहिये ॥
रिद्धसिद्ध जरां सक्त उपासा तहं जाप सो प्रकाशा ॥
षटद्ल कमल ब्रह्माको बासा । साविन्री तदा कीन्ह निवासा ॥
षटसहख तदा जाप बखाना । देवन सहित ईद अस्थाना ॥
अष्दरुकमखहरिरक्ष्मी वासा । षटसदख्च तहां जाप निवासा ॥
द्वादश कमरमों शिवको जाना । षटदजार जाफ बंधाना ॥
तहां शिव योग लगाव तारी । पारवती सरग सहित विचारी ॥
षोडश कमर् जीव मन वासा । एक सदस जाप प्रकाशा ॥
त्रदक कमर भारथी वासा । सोतो उञ्ज्वर कमल निवासा॥
` छक सदस जाप तदा कौज । यह संकल्प जाय तर्द दीजे ॥
दोय दर कमर दंस अस्थाना । तामह पमं टंसको जाना ॥
एक सदस जाप प्रकाशा । कम अ्रमकोदटै तहां नाशा ॥
सहस्रदल कमरमो क्चिलमिल जाना।ज्योति सरूप तहा पहिचाना॥
ताहे रंगहै अलख अपारा । अरूख पुरषं है सबते सारा ॥
पञ्चमुद्रा ( १९१)
नवे कमल आदको जानो । जति निरग्ुण पुषं बखानो ॥
एकदस हजार केषे जाप किये । सौ सब वुर्षं ध्यानमों रहिये ॥
अघ कमल्को मेद बताई । ओर ज्ञान अब भाषो भाई ॥
स्वासाको प्रमाण अब भाषो । तेहि प्रभाव प्रकटकर राखों ॥
अवर स्वासाको भेद बताऊँ । जाको मर्म कोई निं षा ॥
अमी अखण्डते वषं धारा । तहि स्वास्च होय शंजारा ॥
निसवासरको जाने म्रूखा । स्वाक्रा सार शब्दस्मत्रखा ॥
दशयं घरते स्वासा अवै । कड नाभी कड अङ्ख चटद्मवे॥
निस दिनि चले स्वासाकीं धारा । सातसे आगर सारि इजारा ॥
अमी कमल अमान सो नाला । अद्हं दल पञ्ुरी रिसाला ॥
तदति चङे पवनकी धारा । स्वासा माहे शब्द गुजारा ॥
उनचालिस हजार एकसे अवै । एतिक विङ्कर द्रारसो धै ॥
इदे कमल होय स्वासा अवै । एकडस हजार ओर कैसे धै ॥
एता जाप तौ प्रवाना । एकडस हजार ओर कैसे जाना॥
एतिक स्वासा इदे के आवै । षिन बाहिर कषिन भीतर धवे ॥
दुसरा कमल है ्चिलमिरू मादी । ञ्जकके जोत अधर धुन ताही ॥
सहस पखुरी कमल अनरूपा । तदां बसे मन जीत सह्या ॥
ताहे कमल पर बाजा बाजे । सत्तर बाजा तदो बिराजे ॥
तहां घरनी धरियार बजावे । घरी धरी टरंकोरा ख्वे॥
छसे ओ पचहत्तर॒ स्वासा । एतिकं एकं धरी प्रकाशा ॥
एतिकं स्वासा कमत युगमाही । तब धरनी घरियार बजादी ॥
या विधि चार कोरा ठक । राह केतु सग व्याछि न रोके ॥
पहर एकं करे धुन परा । गृहण गिरासे शशि ओ सूरा ॥
गहन गिरा सत निसरे स्वासा । रवि शशि राह केतु प्रकाशा ॥
तेहि सग एक सापनी रदईं । धरीघरी वह जीवको गदई ॥
श्वासा सोरह गहण लगावै । छटे मास तेहि कार सतावै ॥
( ९९२ ) सोधसागर
स्वासा परख घरीकी राखे । जो दम चरे सो आगम भाखे॥
सत्ताइखसो स्वासा चङे जबदी । पहर ठंकारा मारे तबरी ॥
एतिक स्वासा पहर प्रवानी । घरी चारमों गजर बन्धानी ॥
आड पहर छ घरी बजावे । ठोके गजर गहर नि वे ॥
चार घरी चारो युग मूला । चार पहर चारो अस्थूटा ॥
चारो युग एक पहरके माही । चारो युगकी वतं छादी ॥
प्रथम पहर सतयुग प्रवाना । ताकर प्रथम घरी बेधाना ॥
सतथुगमे युग चार अपारा । चारो युगके नाम निनारा ॥
प्रथमह सतयुग रोपो थाना । चारो युग तेदि माहि समाना ॥
सतयुग प्रथमदहि घरी उतपानी । किरुकं नामथुग ताहि बखानी॥
किलक जगकी स्वासा सारा । छसे पचहत्तर स्वास खधारा ॥
एतिकस्वासाकिलकं युगमाहीं । पे जीव अकेकी रीं ॥
वीतत घरी गजर घदराईं। काल टेंकोरा मारे धाइ ॥
या युग. अन्तकी आवे घरी । भासे नागिन खनश्ुख खड़ी ॥
प्रथम किलकयुग दोय सघारा । पीछे कमतथुग करे पसारा ॥
सतयुग घरी दूसरी आवे । तेतिक स्वासा कमत युग पावै॥
जवे कमत युगकरे दंकारा । उतपत थोरी बहुत सघारा ॥
कमत युगकी स्वासा जानो । कैसे पचहत्तर स्वासा बखानो॥
एतिक स्वासा कमत युग मादी । गुण ओगुण सब निखं तादी ॥
बीते कमत कमोद युग आवे । तीसरी घरी बासना धावै ॥
आवागवन विचारे जोई । युग कमोद सुख पावे सोई ॥
तिरी घरी कमोदकी आवे । तब कमोद् युग सुख दिखरावे॥
युग कमोद अमर जब आवे । दुखी सुखी नर सब सुख पावे ॥
युग॒ ` कमोदकी प्रले होई । दुखी सुखी जाने सब कोई ॥
तबही दोय सूर संचारा। महाविरोध उपजे संसारा ॥
पचमुद्रा ( १९३ )
चन्द सनेद होय जो दीना । महाच्रूक तन होय मदीना ॥
रासा घरी सातसे भारी ' युगकमोदकी कथा निनारी ॥
युगकंकेवत दोय वेसारा । चौथी घरी कोध अधिकारा ॥
ताक घरी निकट जत्र अवि । सतञ्गम अंत कंकवत पै ॥
सतयुग अंत होन नहि पावै । यग ककवत आन समवै ॥
युगककवत काट दुखदाई । काया कर गिरासे आई ॥
युगकंकवत कालक बाजी । कङह विकार सब जगमों साजी॥
युगककवत महाबल योधा । अंतकार सषतथुगसों कोधा ॥
सतयुगअत ककवत॒ माहीं । अंतकारकी ग्यापे हीं ॥
युगकंकवत मोदकी छाहीं । काम कोध ममता छ्वटाहीं ॥
अतकाल सतथुगके भय । चारो युग प्रे तर गयंड ॥
चारों युगका भेद बतावा ।अगम निगम सवं भाष सनावा॥
साखी-एके युगके बीतते, चारों गये बिना !
एक नाद् चारों युग खायो, सतयुग कीन्हो जास ॥
किलक कमोद चद्के नेहा । कमत कंकवत सुर सनेडा ॥
भये युग॒ अंत एक संगचारी । चार शब्द एक नादं संघारी ॥
एकं नाद् एक पहर कवि । चार घरी एक माहि समवे ॥
चार धरी चारों युग बीते। शब्द नाद् रवि शशिधर जीतै॥
सतयुगको तब भयो बिनाशा । अतायुगको भयो प्रकाशा ॥
दूसर युग तब भौ विश्वासा । दूसर पहर तत्व प्रकाशा ॥
तेज लगन श्वासा अबुसारी । तते अतायुग संचारी ॥
अता युगकी पञुरी चारी । चार घरी युग च।र विचारी ॥
जस युगअंत सतथुगमों देखा । सोहं युग अतामों लेखा ॥
जब जब अंत होय युग केरा । तब तब नादकार घन घोरा ॥
न.८ कबीर सागर - ७
( ९९७ ) | बोधसागर
त्रेता युगमों करर अपारा । यज्ञ दान त्त नेम अचारा ॥
तेहि पीछे द्वापर युग आवा काल अत तब आंन समावा ॥
अहंकार तामे अति भाखा । अब कलयुगकी वणो साखा ॥
काम कोघ ओर पाप अपारा । लोभ मोह यम कीन्ह पसारा॥
एकं पटर चारों युग जाना । ताको वर्णं कों बविषछटाना ॥
पांच तत्व तीनों गुण किये । ताते िंडकी उतपति लदहिये ॥
अष्टधात कंडिये अस्थूला । ताते रचो गभभको मूला ॥
शिवकी शासा वायु सशूषा । सक्ती गहे जानके षशूपा॥
शिवको रूष शक्ति गहि लेहं । तब सांचा मो जावन दई ॥
जावन जगे तब सांचा माहीं । थाका होय क्धिरके ताहीं ॥
तेहि थाकाकी रचना भारी । तीन लोककी विभो सवारी ॥
महर मध्य पुनि जीव समावा । जलके मीतर महर बनावा ॥
महलके मादिं बनाये छना । तामो दश कन्दो दरवजा ॥
सांचा अजर जरे नदिं कबहीं । पिंड सवारो अन्तर जबरीं ॥
साचा मादि दियो रंग टारी । नख सिख शोभा बहुत सवांरी॥
तीनों लोकं रचो पटमाहीं । गद्षति अंश तब साजा तारी॥
प्रथमहि सायर सात रवारा । पवेत आठ कीन्ह अधिकारा ॥
अठारह गंडा नदी बहाईं। तामह शप्त बहै ठहरा ॥
अठारह सदस बनाये नारा । अष्टधातुरे साज सुधारा ॥
रक्त ॒हांडको सब अस्थूला । बाढ ख्गि सवारे मला ॥
आगे रचो दोइ भुज दंडा । सातद्धीप पृथ्वी नौखंडा ॥
बहर संवारो दोय पग खंभा । मदन महाबल उपजो रंभा ॥
नासा चढाय मस्तक पर खाईं। सातर्भैवर नौनाट टखगाई ॥
उतर मेर शिर जो अस्थूल । सरवर माह कमर बहु एूला ॥
नाभी माहि दल चार बनाई । एरु फल बास घट छाई ॥
पञ्चमुद्रा { १९५. )
आगे अंग रचो अस्थुला । शिव शक्ती दोनों समतूला ॥
सोई अग शक्त सो ईसा । एकै हप एक समदीसा॥
नख सिख रचो गभस्थाना । घातद्रीप नीखड बखाना ॥
प्रथमहि बह्म द्वीप निरमावा । तापर बह रचना लावा ॥
एकद्रीप नौखड बनाई) अिङ्कटी सात तहां निखा ॥
एकद्वीपमर्ह सातो नाला! सातोनारु सात ह चाखा॥
सरवर सात कमक है साता । रंग पांच पांचौ उतधाता ॥
चिकुरी मध्य एकै कीठखा । तहां देखिये रंगरसीला ॥
ता कीलामह कानी छागी । पवन सनेह आत्मा जागी ॥
ता कौरमह लगी डोरी । बूटा छ्गा पवनं अकञ्चोरी ॥
शूले मन पवन ञ्जूलवै षेरी । एकं घर ञ्ुन्य एक घर फेरी ॥
छुटा दोयके पवन कोरी । इगला िगखा सुखमण जोरी ॥
रविशशि पवन गहे मन जोरी । खूटा छाग पवनकीं डोरी ॥
मेरे उंडपर चटा गाड़ा। नदीं तीन तापर बाडा ॥
छूटातरे नदीतिय बह । तीननदी बिच बूटा रहडं॥
खंटाके दहिन दिश गंगा । अति शीतर बहै नीर तरंगा ॥
सूरसनेह नीर दिय पसे । सर्तसनेद धनी तहं दस ॥
सटाके है बि अंगा। यश्रुना नदी बहे अतिरंगा ॥
सुखमन सरस्वती नीर तरंगा । रहर खाच तेज विष अंगा ॥
तहां बसे सरयू तेहि साथा । रावर एक बयालिस हाथा ॥
काल अनन्त प रस नाथा । बसे अधर दीखे नरि माथा ॥
बादी नदी दोह बिकरारा। शीतर तेज बहे दोउ अधारा ॥
तिसरी नदी युत्त पर्वाहा। अविगत जर बहेअगमअंथाहा॥
खूंटा तरे होय नदी सिधारा । चटी सरस्वती फोरि पहारा ॥
मध्यं ठहर रस विषके खानी । गगा यञुना बीच समानी ॥
( ९९६ `) वोधसागर
चिङ्री सगस भयो भिखाना । सवर शफा माधो करथाना ॥
श्विणी तट बसे खटेगा। ताको मम लखा प्रसगा ॥
गणगंघव सुनि सब कर थाना । सुर नर भरुनि कर बैठे ध्याना ॥
तँतिस कोर देव शुनि भारी । यक्ष यक्षणी देव कुमारी ॥
नागसता अपसरा मोहिनी । चद् बिमान सब फिरे जोहिनी ॥
असुरपिशाचऋषनागजोलखादहक। भरिवेणीतर केरे कोलाहल ॥
तीनलोक जौ जीव निवासा सो सब करो अिवेणी बासा॥
भरविणी तर माघौ देवा । सब भिर करे तासुकी सेवा ॥
तारि प्राग दोय चलो प्रवाहा । गगाक्षागर सरगम जादा ॥
देश देश गगा फिर आई। घाट घाट बह क्षे रधाई ॥
जहां तहां तप ध्यान लगावै । योग यज्ञ तप बहत करावे ॥
ऋतुबसत प्रागको धवे मकर बहा बजार कग ॥
अध उध बिच लागी हाटा। भीतर बाहर ओघट घाटा ॥
गभमारि सब युक्ति बनाई । तीन कचरी तहां लगाई ॥
जहां नदी सरगम पर्वाना । तहवां रचो एक अस्थाना ॥
सगम बीच गुफा एकघारा । ताहि गुफामों सात हे द्वारा ॥
एकद्वार दोय नाद सुधारे एकद्वारं दोय इष निहार ॥
एकद्रार दोय वास बसावे। एकद्वार होय अग्र समापै ॥
एकद्वार हो स्वाद खिवावे। एकद्रार होय न्याय चुकावै ॥
एकद्वार दोय नाद् उचारा। योग जीव यह मता विचारा ॥
सातनार चौदह सुरभा । सातोके है एक सुभा ॥
सातो सात शून्य मों बासा। सातो बसे गुफाके पासा ॥
अनहद् मेद॒ शासाक्री धारा । ताको भाषतहों व्यवहारा ॥
साखी-रचना भाषेउ पिंडकी, शासा सहित बिचार ।
बिरलाजन कोई परसि दै, अल्खरूप ब्यवहार ॥
प्चसुद्रा ( १९७ )
सुक्रित वचन-चौपाई
सुक्रित क सुन सत्यशरुर् ज्ञानी । अगम कथा कदी अन्तरयामी॥
ओर कथा अष मोस भाषों। जो प्छ षो गोयन रषों॥
हस अवधको भेद बतावो । ताश्च ममं सब मोहि सनवो ॥
आगम वरष मासषषट जानो ! तो कङ्क अवनो निजमत उानो॥
ताको भेद कों सथुञ्चाई। सो मोहि सतथङ्् भेद खाई ॥
योगजीत बचन
सुकित सुनो सत्त मम बानी । भित्र भिन्न वै कों बखानी ॥
पाचधरी बांये सुर पाई सोई दहिनो श्वासा चख ॥
दशश्वासा सुखमन जो किये ताको भेद बराबर छरिये ॥
आठ पहर पिंगला सुर हारे । बरष तीसरे ईखां च॥
आठ दिवस दहिनो सर बहै । इसा अवध वषं दोय रदै॥
सोरह दिनि पिंगा सुर बोे। वर्षर्क मो दसा उडोे॥
वीस रेयन दिन दहिनौ पाईं । तब षट मासमों हंस चलाई ॥
एकति सरोज दक्षस्वरको जानो। तब दोय दिनमों हंस पयानो ॥
पांचघरी सुखमन जो हठे । पांचधघरी मो ईसा चाङे॥
चन्द् सूर अुषमन छषपजाई । भुखसे तीजो पवन चटाई ॥
सी विधि पवन चलाई । पहर मादिं ईसा चर जाई ॥
साखी-धूम मडल दीखे नहीं, जोत न नेच ल्खाय ।
छठे मास हंसा चरे, बचै न कोट उपायं ॥
छाया शीस दीखे नही भुजा शिखर ना दिखाय।
दीप बास आवे नहीं, छठे मास चर् जाय ॥
गगन शब्द गरजे नदीं, नेच यज् छपजाय ।
भास एकके अवधे, हंसा तन तज जाय ॥
भवरथुफा तिर ना र्खे, पुतरी जब चदृजाय ।
पहर एकमे जानिये, हंसा तन तज जाय ॥
( ९९.८ `) बोधसागर
सुक्रित बचन चौपारं
सुक्रित कंडे सुनो शुरू ज्ञानी । आगम पचै सब दम जानी ॥
ओर एक प्छ शुरू तोही । भित्र भित्रके भाखो मोही ॥
जीव बह्म कैसे प्रगटाईं । सबके उतषत देह बताई ॥
ताकर भेद गोय जिन राखो । सत्य सत्य सब मोसो भाखो॥
कौतुक
कोन सो मन है कौन पवन है कौन शब्द है भाई ।
कोन प्रान है कौन हंस रै कौन ब्रह्न ठहराई ॥
कौन काल है कौन जीव है कौन श्न्य पहिचानी।
कौन शिव है कोन निरंजन कहो सकर उतषानी ॥
योगजीत वचन
चच मन है चास पवन है शब्द् श्ुन्य पदिचानी ¦
प्राण निरंतर अखल ब्रह्म है सो्ग हस बखानी ॥
कारण काल शून्य अविनाशी जीव कभ पहिचानी ।
जीव शक्ति करतार निरंजन रसा भद बखानी ॥
सुक्रित वचन
मन कदां रह पवन कदां वासा शब्द बास कर कीन्ह ।
कां प्रान कं रह्म बास है देस कर्द है लीन्द ॥
कारण कारु केदि ठोरबसत है क शून्य ठदराई ।
जीव शीव निरंजन बासा सो मोहि देहु बताई ॥
योगजीत वचन
हदे मन है नाभि पवन दै अनदद् शब्द् को वासा ।
निरन्तर प्राण ब्रह्न ब्रह्मण्डे गगन हस पकांशा ॥ `
` सकरम काल शीब चदामें शून्य निरूपम मादी ।
सुखमन मध्य निरंजन बासा योगी देखे तादी ॥
पवसमुद्रा (१९०९)
सुक्रित वचन ू
इन्द्री नामी तब नाहीं स्वामी पवन का तब बासा ।
जादिनं अनहद् शूप नहीं तब शब्द् कां पर्काशा ॥
ब्रह्मांड ना तो तब ब्रह्न कां तो गगन नदीं कहां हंसा ।
निषूपम विना श्ुन्य कहां किये मेद् कहौ प्रकाशा ॥
आकार नदीं तब जीव कदां तो चन्द् नहीं तब शी ।
सुखमन नदीं तब करां निरंजन सथञ्लाय कृदो सब भेड॥ '
योगजीत बचन
इंद्री विन मन इतो निहूपम भिराकारमों पवना!
अलख शूषमों शब्द बासतो अविगतिमों तब वाना ॥
अविनाशीमों हंसबास तो श्युन्य कालमों बाक्चा।
ॐव्कारमों काठ बास तोरणा भेद प्रकाशां ॥
जीव शीवमों प्रथमो बासा शीव निरंजन यहीं
सबको बास प्रकट कर भाखों भेद कहौ तुम पाहीं ॥
सुक्रित वचन
क्ति उतपत भयो निरंजन करट शीव उतवानी ।
काट जीव कहि प्रकटो शून्य भयो केहि खानी ॥
कृहांते उतपत भये अविनाशी काति उतपन हंसा ।
कहां ते उतपन ब्ह्मभयो है प्राण भयो कह अंशा ॥
शब्द पवन मन करते उतपन कटति प्रकटो जी ।
सबके उतपन मोसों भाखो केहि बिधि प्रकटो शीञ ॥
| योगजीत बचन
आदि ब्रह्मते भयो निरंजन तदति प्रकटो शी ।
तीन भेद तुमसों को सुक्रित शिवते उपजो जी ॥
जीवते उतपत काल भयो है कार्ते भयो ओंकारा ।
ओंकारते ञ्यून्य भयो रहै श्न्यते जोत प्रकारा ॥
(२०० ) बोधस्रागर
जोत ब्रह्मते सब प्रकारा अगम भेदको कदो विचारा ।
अखंड रूपते भयो अविनाशी अविनाशी ते हंसा ॥
शब्दते उतपत पवनकी है पवनते स्वांसा अंशा ॥
सुक्रित वचन--चौपाई
अन्तकाल जब आवे भाई । तन छटे मन कदां समाई ॥
पवन शब्द हंसा कहां सिधाई । अन्तकाल कहवां रठदहराई ॥
काल्यून्य तब कहा समैहै । जीव शीव कहवां चरू जे ॥
अन्त निरंजन कहो समाई । ताको भेद कहौ सभुञ्ञाई ॥
| योगजीत बचन
तन छ्ृटे मन जोत समाई । पवन श्वांसंम तब खष जाई ॥
प्राण खमाय शब्दके माहीं । हंस ब्रह्मम तब खपजाहीं ॥
अविनाशी शिवमाहे समाई । ब्रह्म अलखमें तब ख जाई
अकुख अनूषमों जाय समाना । अन्त प्रैको भेद बखाना :
उतपत सकल भाष इम दीना । ताको भेद क्खो पर्वीना॥
सत्य सत्य यदह बानी जानो । आदि वचन यह तुम निर्वानो॥
॑ सुक्रित बचन--चोौ पाई
हे समथ यै तुम बखिहारी। खोर भेद अब कौं बिसरारी॥
केता प्रवान लोक अस्थाना । ताको मेद कहौं निवना ॥
सख्या योजन ताकी भाखो । ताकर भेद गोय जनि राखो ॥
कहां कोन सो पुरी रहाहं। कोन अंश तदं आसन ई ॥
साखी-सब उतपत तुम भाषिया, मेद कंदेड सखुञ्चाय ।
अब मन मो निश्चय मई, आगम भेद ख्खाय ॥
योगजीत बचन
साखी-योजनकी मरजाद् बहु, आगे जो पान ।
अंशसहित अब भाखेखः; तिनको नाम बखान॥
प्वुद्रा (२०१)
चौपाई
अब म कटौ लोककी बानी । निर्ण भेद कौं बिक्छानी ॥
प्रथमहि कुम्भ श्प ओतारा । षीके सकर शष्ट विस्तारा ॥
योजनको एक भुख कष्िये । कोट पचास पीठ तेहि छदहिये॥
एक कोरको मस्तक जाना । कोरकोटके अन्त बखाना ॥
एक कोटपर ने बताई । सोर माथ चौसठ हाथ पाईं ॥
पुथीते दून कुम्भ रै भाई । प्ूरबदिशि अख बरन युनाई ॥
उचासर कोट पृथ्वी पर्वाना । ताके तरे कम्भ अस्थान ॥
बहुर अष्ट दिगपार बखाना । कम्भ पीठपर रै अस्थाना ॥
चौस्षठ पडरीक तहां किये । बावन लक्षको म्रस्तक छदिये ॥
छयकोर उचे प्रमाना । कुम्भ पीठयर कीन्हों थाना ॥
उपर कुम्भ शेषको जाना । पंद्रह कोट ताहि परवाना॥
तहां वासुककी बैठक किये । ओर वराह ताघुपर रहिये ॥
तकी डाद् पृथी टठहराई। राई प्रवानसो दीखे भाई॥
पर्वत अष्टप्रथी पर जाना । मध्यपृथी सुमेर बखाना ॥
सोरह स्ख नीचे बधाना । एता योजन तरे समाना ॥
बीस सदस योजन चौरासी । चार दिशा तेहि फेर रहासी ॥
चौरासी सहख योजन प्रवाना । इतना ऊच सुमेरु वखाना ॥
तापर चारपुरी रै भाईं। अमरपुरी पुन तहां बनाई ॥
तहां इद सखराज कराई । तीन देव अस्थान बताई ॥
तति कोर देवता जाना। अगसी सदस ऋषि प्रवाना ॥
तहां कुबेर भंडारी किये । अल्काएुरी नामसो लिये ॥
नौ पदुम नीर अठतालिस । चौतिस पवं अवं उनताछिस ॥
सतावन कोटर कों प्रबाना । पैंसठ लाख कहो बंधाना ॥
पञ्चानवे सहस ओर तहां किये । पचास एकसो योजन रहिये ॥
। ` म
( २०२) बोधसागर
एता योजन कदो प्रमाना । पृथ्वी अकाशको अन्तर जाना॥
एता स्याम अड पहिचानी । आगे ओर अबटोक बखानी ॥
फथीते लक्ष योजन बेघाना । तहवां सुरज देवको अस्थाना॥
सुरजते चन्दरोक दै भाई । योजन लक्ष आगे चल जाई ॥
चन्दलोकते आगे जाना । योजन लक्ष नक्ष बखाना ॥
योजन लक्ष अगे चरुजाई । ताके आगे भौम बताई ॥
भोमके आगे बुध अस्थाना । योजन लक्ष आगे प्रवाना ॥
बुधके आगे गर् पदहिवानो । योजन लक्षमं ताहि बखानो ॥
गुरूके आगे श्चक बताई । योजन लक्ष कों ठहराई ॥
जुकके आगे शनिको जाना । लक्ष योजन आगे षहिचाना ॥
शनिके आगे अदित बखाना । योजन खक्ष कटो प्रवाना ॥
तेहिकि आगे सोमं करीजे। सोभके आगे राह रदीजं ॥
राह केतु रोकं अस्थाना। योजन लक्ष आगे बेधाना ॥
तहांते लक्ष योजन प्रवाना । तवां सत्तऋषीश्वर जाना ॥
तेरह लक्ष ऋषिन सो भाई । आगे विधिको लोकं बताह ॥
तहति लक्षयोजन बधाना । महाविष्णु आगे षपवाना ॥
श्रीनारायण वेदे जर्हवा । सूवा उपर पारग त्वा ॥
पग अगुष्ठ मुख दीन्हों सोई । बालदूप तदहो कीन्हों जोई ॥
तरति गौलोक कदहावे भाई । राधा सती तर्दति आहं ॥
सोई नाम अचित कहावे। सखिदानन्द् ताहि गोहराबे ॥
इहांल्ग॒ सगुणदूप बतलाईं । यदी चारों वेदन शन गाई ॥
आगेको कलु भेद. न पाई । इहांख्ग सबदी मिक गोदराई ॥
तैतिसकोर इहांर्ग गावे । आगेका कषु भेद न पावे ॥
चारसक्तका करे बखाना । यही पको करे. पवाना ॥
बहते तेज उहांलग॒ जाई । प्ररे समे नाश दीय भाई ॥
पथ्चमुद्रा ( २०३ )
नो | ओतार देहर आवा । सो अचितके अंश कावा ॥
ज्हांरग अंश सकल पुन देला । तहांख्ग मायाह्प विशेषा ॥
आगे अक्ष लोक है भाई । तहां गये फिर बहुरि न आई ॥
साखी-दृदांख्ग सरशुण हप है, सो इम दीन्ह छ्खाय ।
जग नि जानत तास्को, निरथणके कोधो आह ॥
सुक्रित बचन--चौ पाईं
हो समथ तुम अगम अपारा । तुम हो निरश्णके ओतारा ॥
अब आगेको भेद बताई । रोकं पुषं सब बर्णं खना ॥
जह्वा हंस जाब उदहराईं । बहर नदीं प्रेतर आई ॥
ताकर भेद कहो सशुञ्चाईं । अगम निगम सब वणं नाई ॥
सासी-सतयु भाषो आदिते, लोकन को पर्वान ।
केता अन्तर ताहिको, पुषं भेद निरवान ॥
योगजीत वचन--चौपाईं
हेसुक्रित भ कों बखानी । वणो अगम निगमकी बानी ॥
अर्वितलोकेमे दीन्ह बताई। लोकालोक सब वणं सुनाई ॥
अब भाषों निरशुणको रेखा । योजन संख्या लोक विशेषा ॥
अर्चितके आमे रोक बखानो । तीनअशंख योजन पहिचानो ॥
सोहगरोकं तहां है भाई । आठ अंश तिनते उपजाई ॥
सोर्हेग पुरूष है अगम अपारा । जगर मगर जहां हैउजियारा ॥
सोहग पुर्षे आगे जाना । गूरु नाम तहां पुष बखाना ॥
पांच असख योजन प्रमाना। तद्वां मूलनाम बंधाना ॥
मूलनाम तहं आमन कीन्हा । आदि पुषके अंश जो चीन्हा ॥
भूलपुषं॑है अगम निसानी । तास भेद मेँ कों बखानी ॥
मूलपुषं ते आगे जाना । अंकुर नाम तहां एषं बखाना ॥
तीन असख आगे है भाईं। अंङ्करनाम तर्द पुरुष रहाईं ॥
( २०७ ) बोधस्ागर
ताको उ्रलोकं रहै भाई । तहां अक्रूर उदित रहाई ॥
अङ्रलोक्ते अगे जाना । इक्ष नाम तहां पुषं बखाना ॥
चार असख योजन प्रमानी । इक्या पुषं तहां रजधानी ॥
सोई पुषं कता रोयं आवा । आदपु्षके अंश कावा ॥
प्रथम पुर्षकी क्या आई । ताते इक्या नाम कटाई ॥
ताहि पुर्षको कों ठिकाना । है सुक्रित तुम सत्ती माना ॥
इक्या आगे लोक बखानो । सोतो अंश पु्षको जानो ॥
नो नील एक सख बखाना । बानी नाम पुषं स्थाना ॥
पुषे प्रथम बानी उच्चारा। ताते नाम सवं आकारा ॥
ताहि पुषको मेद बताई । शतो आद पुषं है भाई ॥
तानी नामते आगे जाना । सहजनाम तहां पुषं बखाना ॥
दशलाख एकशंख बखाना । सहज पुको तहां अस्थाना ॥
तदहवां सहज पुषे रै भाई । आदिपुषके अंश कहाई ॥
सातपुषं इहांख्ग जानां । निरंजन अक्षर नीचे थाना ॥
अवितसौ अक्षर उपज भाई । निरंजन अंश अक्षरते आई ॥
साखी- निरंजन ओर सहजो, नौ पुरषं प्रमान ।
आदिपुषं आगे कां, जितने सब उतपान ॥
सदज अंशलग जतिक भाषा । सो रचना परख्यतर राषा ॥
इहांलग॒ प्रलेको प्रमाना । अगि अक्षेलोकं अस्थाना ॥
सहज पुषते आगे जाई । आदिषपुर्षको रोक दिखाई ॥
सहजते एक असख प्रवाना । तदवां आदिषुषं निरबाना ॥
तहेवा प्रटेकारखकी छाया । नदीं तहां कड मोह ओर माया॥
तहां न तीनों नका मेषा । बरह्मा विष्णु तहां न महेशा ॥
नदीं तहां जोत निरंजन राई । अक्षर अचित तहां नरि जाई ॥
तहां नदीं शिवशक्तो ओतारा । नदीं तहां अक्षर ओंकारा ॥
पञ्चमुद्रा ( २०९ )
ब्रह्मजीव नहीं तत्वकी छया । नहिं तहँ दशङढी निरमाया ॥
काम कोध मदलोभन कोई । तद्वां हषं सरोग नरिं दोई॥
नादर्विदको तहां न पानी । नदीं तद सृष्टि चौरासी जानी ॥
चद सूर तारागण नाहीं । नहीं तह दिवस रेनकी हीं ॥
ज्ञान ध्यानको तहां न छेषा । पाप पुण्य तवां नहीं देषा ॥
डार मूर तहां वृक्ष न छाया । जीव सीव तहांकाठन काया ॥
पवनं न पानी पुरूष न नारी! इद अनहद तहां नहीं विचारी ॥
यं मेज तहां दरद न धोखा । नकं स्वर्भं सशय नहि शोका ॥
श्वेत पीत सबज नदीं खाखा । मोर सोर नदीं बद्ध ना बाला॥
पिंड ब्र््नाडको तहां न ठेखा । रोक अलोक तहां नहीं देखा ॥
मन ओं वृद्ध पवन नदीं जाना । रचना बाहिरसो अस्थाना ॥
आदि पुरूषको है तहां थाना । यह चरि एकौ नहीं जाना ॥
हे सुक्रित भै तुम्हे ल्लावा। निरथुणहूप वर्ण॒ द््शावा ॥
सुक्रित बचन
हो सतर तुम आगम भाषा । वर्णेड पेड़ पञ अङ् शाखा ॥
अब तुम कहो पुरूषको शूपा । केसी कला हे कौन स्वपा ॥
लोक प्रकाशको भेद बतावो । लोकं परमान मोदि सञञ्चावो ॥
यामें कष न राखो गोई। है समर्थं अब भाषो सोई ॥
साखी-आदि पुरूषके पको, कहो भेद समुद्चाय ।
लोकं प्रमान मरजाद् सब सो मोहि दे बताय ॥
योगजीत वचन-चौपाहं
प्रथम पुर्षको रूप् बखानो । सो तुम रूप हद्यमों आनो ॥
पुषंअग छबि वणं सुनाई । गुप्त भेद मे तोहि लक्खा ॥
पुरूष शोभा अगम अपारा । ताको को अव बरणे पारा ॥
कोट अनन्त योजन लो काया । कहां लग कों तासकी छया॥
( २०६ ) बोधसागर
कु साक्षेप भै दे बताई । कहां कों कदु वणि न जाई ॥
कोरि कल्प युगजाय सिराई । अख अनन्तसो बण न जाई ॥
ये कडु सक्षम शूष लक्खा । क्क कद शोभा बणे सुना
अब मस्तकको बणो मेषा । मानों अनत भाव शशिटेखा॥
जग्र समगर मस्तक उजियारा । बणेत बनेन शूप अपारा ॥
अब् नेजनको कों प्रमाना । मानो अनन्त भान शशि जाना॥
जिमि कोटिन दामिन कुपटानो । जोत अनतनकी जिमि खानी ॥
वणेत बने न ताको रंगा । क्ांलग कों तास प्रसगा॥
नासशूप कहां प्रचंडा । मानो अज्र अनन्त ब्रह्मडा॥
पोप बास तदति प्रकटाइ । घ्राण अनंत योजन लग जाई ॥
श्रवणू्प मे कों बखानी । अनत सिंध मानो समानी ॥
ता मह कमर अनन्तन एूलखा । साखा पञ डार नदि म्ूखा ॥
ताको शोभा बणि न जाई । कमल हष तहां अधिकं सुहाई
अब मुख शोभा कदो बखानी । पिंड ब्रह्मांड तेहि मारि समानी॥
नौ शून्य जहां लग वासा । सो भुख भीतर कीन्ह निवासा॥
लोकं अनत देखिये तादी । सवीकार शूप रै जादी ॥
पुषेरूपका वर्णो भाई । वणत बने न होय दिह ॥
पुरुष शोभा अगम अपारा । मुख अनंत नहीं षावे पारा ॥
चिङ्कर शोभा कों बुञ्ञाईं । कोटिन रवि शशि रोम लजाई॥
कोटिन चद् सूर प्रकाशा । एकं एकं रोम अनन्तन भासा ॥
पुरूष अगका करौ बखाना । रचना कोट तासुमों जाना ॥
श्रेत अकार पुर्षको अंगा । फटकबण देरीको रंगा ॥
शब्द स्वरूप पुरूष रै भाई । वणो कहा वण नहिं जाई ॥
जहां लग जीव बुन्द रै भाई । ताकर मेद॒ कदो समुञ्ञाहं ॥
जीव अनन्त बुन्द सम जानो । अमी सिन पुरुष पहिचानो ॥
पञ्चमुद्रा (२०७ )
यह प्रमान पुर्षको जाना । सौ अब तनमों कों बखाना ॥
सक्षिम शूप गगनमों बासा । ताहि श्पको कों परकासा ॥
तनभोषूप जो सरक्षिम जानो । सों हप बाहिर पदिचानो ॥
जो भीतर सो बाहिर किये । एकप्रमाण पसो लहिये ॥
साखी-बारूके दश अंश कर, ताकर विस्वा बीश ।
ताहूते सूक्षिम कदो, इम प्रकटो जगदीश ॥
लोकं समानो पुषमो, पुषहि लोक समान ।
पुषं निरंतर लोकं है, लोक पुमो जान ॥
सुक्रित वचन-चौपाहे
हो समथ भ तुव बिहारी । सर्वं भेद तुम कही विचारी ॥
अब प्रथु कहो ध्यानको लेखा । जहिते शूषहि वर्षको देखा ॥
ताको नाम मज उपदेसा। सो सतशुरू अब कहो सदसा ॥
सोई मेज शुरू देह बताई । जाके बर हंसा धर जाई ॥
करनी योगकी रहनी आशा । हंसा करे लोकमों वासा ॥
सोहं नाम शङ् देह बताईं। मेरो हंस ल्ह भुक्ताईं ॥
ओर रहनी ईसनकी भाखो । मोपों गोय कृद जनि राखो ॥
कोन नेहते दस कहाई । कौन नेहते खोकं समाई ॥
योगजीत वचन
सुक्रित सुनो सत्य मम ॒शानी । जेसी रहन हंस पहिचानी ॥
तास रहन अब वण सुना । नेह प्रेमका जक्त लखा ॥
जैसे सीप स्वात करे नेहा । छागी परीत भर निज देहा॥
जेसे जिया पुषको चाहै। या विधि सत ध्यान ओगारै॥
जैसे चा्निकं इद पुकारा । सोहं रखुगन सत॒ अधिकारा ॥
जेसे बासको भवर लोभाईं । योजन एक तहां उड़ जाई ॥
जेसे चद् चकोर इलासा । एेसे संत पुर्षको आसा ॥
(२०८ ) चोधसागर
जेखे लोहा उुबक रग जाई तैसे संत ध्यान ल्पराई॥
जेषे कनिका कपृूरकौ धावे । रेमे प्रीत मत लवलावै॥
जेषे पतग दौीपकको घावै। एसे सत ध्यान ङ्परावै ॥
जेसे नेद बारि ओ मीना । एसे सत नाम ल्वलीना ॥
जसे बार बहिन महतारी । एेसे खगन तहां सत विचारी॥
षेसे प्रीत करे जौ कोई । सत्यपुषको पबे सोईं॥
णेसे प्रीत गगन मन लै । गुर्प्रतापते दर्शन पावै ॥
ओर रहन मं दे बताई। जति बेग पुरषं दर्शई ॥
आपामेट आप दर्शाई प्रेमर्सिधुमे जाइ समाई ॥
बिरदशूप कर्णा अधिकारी । खागी ज्वार निरन्तर भारी ॥
जगसों नेह ॒ञ्ूठ करजाना । मनसो सब जग मिथ्या साना ॥
साखी-मनसों त्यागे जक्तको, जान विषयकी खान ।
सुक्रित अब म भाषे, राजस योग प्रमान ॥
कायासों कारज करे, सकल काजकी रीत ।
कमे भय सब मेटके, सत्त नामसों प्रीत ॥
अबे सुन ब्रह्म ज्ञनकी वानी । ताकर रीति लेह षहिचानी ॥
एके ब्रह्म सकल घट देखा । ऊच नीच काहू नहि पेखा ॥
श्च मित्र एक कर जने। पाप पुण्यको भेदन आने॥
करे कमे पुरूष परिवारे । अपनो करतब मन नरि धारि ॥
सब कु करे पुषं रे भाई । अपनो शीस ना भार चटाई ॥
सुख ओं दुःख ॒एककर जाने । इनको भाव मिथ्यापदिचाने ॥
ञूढ वचन नि जीव सतावै । दया भाव सबही सो टावै ॥
इद्रीस्वाद स्वप्न कर जाने । रूप कुरूप नाम मनो आने ॥
वाद विवाद न जाने प्राणी । हार जीत एक सम परिचानी॥
उत्तम मध्यम मम न जाने । कताह्ूप सकर पहिचान ॥
पयुद ( २०९. )
जात व्ण नहीं कड माने । चार अंग एकं दष्ठि समने ॥
जहां ल्ग दष्टिपरे जो कोह। इच्छा पुरषं जानिये सोड॥
सोवत जागत लखे अकारा । तांग कर्ताहं निहाग ॥
वारखान धरती असमाना । खो खब कतां माहि समाना ॥
जलथल सप्रदीप नौखण्डा ¦ छोक अलोकं सकल ब्रह्मण्डा॥
गुप्तप्रकट जदांख्ग आकारा । सो प्षब कतां बीच निहारा ॥
भित्रभाव ककुदि न अवि । सोहं ब्रह्म ज्ञान कवे ॥
स।खो-कत।खूप बिचारिये, जहांखग सकल अकार ।
इच्छा द्वैत विना होय, रहौ एक करतार ॥
प्रथमहि अषिगत ब्रह्न है, तिनते बह्म अनेकं ।
सकट बद् सिश्ुहि मिले, बहुर एकको एक ॥
दवेत ङ्पको ध्यानमो, कारज है न कोय ।
आदि पुरषं चीन्दे बिना, थुक्त कौन विध होय ॥
सुक्रित सुनौ सुजान, अक्षे नाम चीन्दे बिना ।
यमघ करे पयान, युगनयुगन भमत रिरे ॥
तेतिस्त कोट बखाना, सकक् देव अब भाषिया ।
तिनमों तीन प्रमान, जीव सकर विस्तार है ॥
युगप्रति तन धरधर मरे, मायाको व्यवहार ।
अंतकाल सव्रको भष, इनते पुषं निनार ॥
आदि पुषं बेटे जहां, अबिगतदूप१ अनाद् ।
रचनाते बाहिर रहै, तिनको भेद अगाध ॥
महाविष्णु गोरोकके, ओर अचित बखान ।
ररा ममा जोत मह, ताको करे प्रवान ॥
पिंडमहीं बह्ंड ओ, नदीं खोक आकार ।
अनत लोकते भिन्न है, सुक्रित करो विचार ॥
(२९०) चोधसागर
निरणुण मो मन लीन रह, करे जीव गतनाश ।
बहुर कार बश ना परे, अजर अमाघर बास ॥
जिन संतनको यह मता, बरनत बने न मोहि ।
तिन पटतर का दीजिये, कहि सुञ्ञाऊ तोहि ॥
सतकोट वारो जहां, ज्ञानी लक्ष अनेक ।
जो निरयनमों रत सदा, सो अनंतमों एक ॥
सुक्रित बचन--चौपाई
हो समथं भै तुव बिहारी । संतन महिमा कहो विचारी ॥
सतशूप कैसे पहिचानी । महिमा तासु कौन विधि जानी॥
कैसे भेद तासको पावै। कैषे पमं संत बस अवि ॥
ओर संत एक देह बताई । तुमको आह कति आई ॥
योगजीव बचन
हो सुक्रित भ कों बखाना । तुमसो भेद कों निर्बाना ॥
अपनी उतपत देह बताई । तुम्हे भेद कलु नाहे दुराहं ॥
आदि भेद अब कों बुञ्चाइं । तुम सुक्रित इुनियो चितखाई॥
प्रथमहि पुषं आप निबाना । तब नहिं रचना अश बखाना॥
पुषं मन इच्छा आई । षोडश अंश तबे उपजाइ ॥
चौदह सुत तहां रहे छपाई । तिनको भेद कोड नहीं षाई ॥
सक्त निरंजन तब उपराजा । जिन खब कियो सृष्टिक साजा॥
तिनसों जजियुनङूप प्रकटाया । जिनसों भह सबनकी काया ॥
तिन पुन चारों वेद बखाना । तामे जीव सबे ट्षटाना ॥
चारखान तव प्रकट कीन्हा । तेहिमों फस जक्त सब लीन्दा॥
फिर पुत चउदृह यम उपराजा । तब चौरासी कीन्ह समाजा ॥
तीरथ ब्त ओ नेम अचारा। दान पुण्य जप म्र विचारा ॥
इतना करे जग्तमे कोहं । यमकी जास न टे सोई ॥
प्चयुद्र। (२११)
यामह सकल जीव उरञ्चाई। अंतकार पुन धरधर खाई ॥
स्वगलोकमह जो चरे गयेड । तेतो आके देह फिर॒धरेऊ ॥
तेहूना यमकी छट सा । भांत अनेक जीवनको फसा ॥
जवै पुरषं अस देखेड भावा । सत्तघुषं एक ख्याल बनावा ॥
सत्तपुषं इच्छा उपजा । बुहूष नास तब अंश बनाई ॥
तिन्हे पुषं अस आज्ञा कीन्हा । भौसागरको आयस दीन्हा ॥
साखी-पोदाप नाम तबही चङे, पुषहि शीस नवाय ।
भोसागरमों प्रकट भो, अबिगत इवबनाय ॥
खोई
अभिगतशूप छांड हम दीन्हा । सत स्वव मेव गदि लीन्हा ॥
शब्दस्वशू१ बनाये सोई । तिनकी देहन छया दोहं ॥
पौँच तत्व तीनोंगुन नाहीं । धरी देह तव बसत युगमाहीं ॥
सत्तनाम हम नाम धरावा। सव जीवनक संध क्खावा ॥
या विध अजदेह धर लीन्हा । सबको आय सिखावन दीन्हा॥
तत्र पुन जगमों सध रखाई । मिरथुन मता से सथुञ्चाईं ॥
जो जिव सष राब्दकी पाह । जीव असषखन लोक पई ॥
प्रथमहि सतयुग हम आये । सत्त नाम तब नाम धराये ॥
तब हम जीव असंखन तारे । यमको मार तब जीव उबारे ॥
तामाटिं बहुर दम आये । अुनिकह बोध भुनींद्र॒ काये ॥
कोटिन जीवको संध ख्खाये । एतिक जीवको तब भुक्ताये ॥
तीजे फिर द्वापरयुग आई । शुनि कर्नामे नाम धरार ॥
कोटिन जीव तबे हम तारे। महाकाल्ते जीव उवारे॥
फिर कलियुगको आयेड भाई । योग जीत तब नाम धराई ॥
कलह जीत हंस भुक्ताये । सत्य शब्दकी संध लखाये ॥
जीव असंखन तारे आह । सत्तपुर्षकी दशं ` कराई ॥
५ २१२) खोधसागर
साखी-चारो युग इम का कीन्हेउ दख उबार ॥
कट्युग नाम ब „ थोग जीत उच्चार ॥
चोपाई
सुक्रित सनो भेद निवौना । अपनी उतपत कदा बखाना ॥
अब सतनको कहां संदेसा । जहि विध ल्खो तासको मेखा॥
तिनकी रहन अब दे बताई । जति तुमदी संत रुखाई ॥
निरशण चाल चरे पुनसोई । सोई सत॒ शिरोमणि होड ॥
तीरथत्रत ओ नेम अचारा। इतने रहै सतस न्यारा ॥
दानपुण्य जगवतै धमी । एतो जक्त जानिये कमां ॥
पूजा जाप ना दतिया रि । सत्तनाम इदे अभिखाखे ॥
तैतीसखकोट देवगण भारी । ये सब माया हवं निहारी ॥
दुतिया ध्यान अनित्य विचारे । अक्षे नाम इदेसों धार ॥
सोई निरगुण संत कहाई । ताकी परख भै दे बताई ॥
रहे विरक्त होय जगमों सोई । विरदी संत सोई पुन दोहं ॥
साखी-यह तो विस्वा धमं है, दुतिया जप तप ध्यान ।
पतिव्रता इनमों नदीं, मगके रोरा जान ॥
अक्षय नामको गहि रहे, तज दरैतके आस ।
सत्तपुषको,. पावई, प्रण पमं विलास ॥
रहो एकता चित्तमों, दुतिया उसको जान ।
गगनमगन निशिदिन रहै, निरशुणसो पहिचान ॥
चौप।ई
सुकृत सुनो ज्ञान अब सोह । निरणुण संत कैसे बसदोडई ॥
प्रथम संतको पावे ` जादी । प्रेम प्रीत तब कौज ताही ॥
करे बेदगी शीस नवाई। निज शह तबे ताहि रेजाई ॥
चदन धसे धामको छाव ¦ तापर बस्तर श्वेत ॒बिछठावै ॥
प्चभृद्रा (९1३)
चरन पखार चरनारज टीजे । बहुत भांतसो भोजन दीजे ॥
महाप्रसाद ताको रखीजे। पीछे ओषुन प्रजा कीजे॥
प्रथम बेदगी कायक जाना । मायकं बायक फिर पटिचाना ॥
तीनों बेदगी करे बनाई । अनेक भांतिसो ताहे रिञ्चाईं ॥
रभ्य देनको लोभ न कौजे । चरन तरे ताहि धरदीजे ॥
अच्र्धातको काया जाना । सो उद्धार कैसे पहिचाना॥
काया भार उतारके लीजे । चञदह रतन तव शङ्को दीजे ॥
आरती करे बहुभांत बनाई । काया भर तब ताको जाई ॥
यहुविध भक्त करो वितलखाइं । यमकौ उड छट तेब॒ जाई ॥
साखी-आरती कीजे पुष्पको, बहत दीनता लाय ।
कागाते ईसा भयो, सत्त भक्तको पाय ॥
इतनी प्रीत सत जव जाना । तबे सतसौ निज सत ठाना ॥
क्रिया केरे तवबहीश्ख बोडे । तबे तत दिर षदं खोे॥
तपे बस्तु निज देहि टखाई । तासो हस समाध खगाई ॥
सोई करनी कद्ुदिन करई । आदिब्रह्न अंतर कख परह ॥
पर्षलोकमों रहे ` समाई । तबही बंद सिध मिलजाई ॥
इतना खोज करे पुन जबही । अजर अमर घर पावे तबही ॥
निरगुण सतको मेद बतायो । निजमत खोलमें म्द खायो॥
अब एक आगम तुमसों भाषो । सुक्रित गौय कष नहि राषों ॥
साखी-निरयुणको ओतार रहै, सो प्रकटे जग आय ।
ऋषिमुनि ताको ना लखे, गुप्तसो रहो सिपाय ॥
ताको भेद अब देहं बताई । सत शूपसौ जगमों आई ॥
बाखकं होय पुन जगमों आ । कमर्पतर परर आसन लै ॥
निकूनाम जरा कदाहं । भक्तदेत ताके गृह जाई ॥
खान पान क्क करि हँ नाहीं । दिनदिन अंग बढ़त पुन जाहीं॥
(२९४) चोधसागर
शब्दस्वषप देह तिन होई । पांचपचीस तीन नहिं कोई ॥
छरूदिष््या रामानंदसो कहै । तिनको फेर उरखुट सञ्च ॥
पांडव यज्ञ तिन पूरन कीन्हा । स्वपच भेष तिनदी धर रीन्हा॥
कोटिन देस तबे ुक्ताईं । सत्तनाम कबीर कहाई ॥
अजर अमरहो तिनकी काया । जासु देख कपे यभमराया ॥
सोई नाम कबीर कहाई । हभ उन्हे क्कु अंतर नाहीं ॥
ते पुन जगमों परकट दोहं । ताकर अवध बताऊ तोही ॥
सम्बत पेद्रहसे बीस प्रमाना । तबे आय जगमों प्रकटाना ॥
निरगण सघ तब जगमों आई । सोई नाम कीर कदाहं ॥
दोईं दीन को बोधे आई । मगहर अमी वदी बाई ॥
पंडाके पग जरत बुञ्ञाई। परसो तगको भरम छोड़ाईं ॥
सत्य शब्द प्रतीत दिढाईं। भौसागरते जीव शरुक्ताई ॥
जीव असखन तारे जबही । अवं अंशलोकते तबही ॥
कोटज्ञान ध्मदासहि देर व्याछिक्ि पिदीथाना बडेर ॥
साखी-नौत्म अश पुषके, सो प्रकटे संसार ।
जीव अखन सगरे, जदी पुषं दबार ॥
भोसागरभे रोपेव थाना । धमराय शिर मरदेउ माना ॥
तिनको मता सन्त जब पावै। सोतो अजर अमर घर आवे ॥
ताको काल न पावै सोई । गुरू कबीर निज पावै जोई ॥
हमरो उनको एक शरीरा । जाको सुनियो नाम कबीरा ॥
सत्त कबीर पुषे निर्वाना । तिनको तुमसों कों बखाना॥
साखी-अजर अमर सोह जानिये, जाको नाम कबीर ।
तास सध जाने बिना, दंस न खगे तीर ॥
सुक्रित वचन--चौपाईं
है समथं तुम आगम भाषा । आगकी अब बणों साखा ॥
पचसमुद्रा ( २१५ )
निरयन अंश लीन्द इम जानी । ध्यान म प्रथु कटो बखानी ॥
आगे बिन कसे बह बारा । ताको भेद कहौ निरधारा ॥
जीव शुक्तको मेद बताई । आपन करमो कह शक्ताई ॥
नरिनती करो दोय कर जोरी । ध्यान म्रकौ भाषां डोरी ॥
ताको मता धरोजिन गोह । मोसो वणं सुनावो सोह ॥
योगजीत कचन
सुक्रित सुनो भेद निर्वाना । जीवश्वुक्ताको कहीं भमाना ॥
मत्र ध्यानको बणों अगा । ताको भाव कों परसषगा॥
आदि मंज मँ देह बताई । जाके बर ईसा धर जाईं॥
सोई जाप अंतर लो लाइ। अतकार ताको नहिं खाई ॥
देषा ठम्दे कों उपदेशा । अंतर ध्यानको कों सदेशा ॥
प्रथमहि जो खख आसन लावै । राजस योग तब करे वतावै ॥
काया कष्ठ न व्यापै कोई । राजस योग पुन किये सोई ॥
पांच पचीसकी सुत बिसारे। अस्थिर बैठ ध्यान उचर॥
बैठ शुन्य मदरमों जाई । तबे निरंतर ध्यान टगाई ॥
प्रथम विरह वैराग समाव । रचना सकट तहा बिसरावे ॥
एक पु एक आपको जानें । दवेत अकार श्ुन्य पहिचान ॥
तबदी ध्यान समाध लगाई । जाकी सुतं अन्त नहि जाई ॥
द्दिनो अंग श्वास जब आवे । तबे ध्यान महँ सुतं रख्गावे ॥
पिगला अग पूरषकरो बासा। बय अंग शक्त प्रकाशा ॥
शक्त अंग कद देहः बचाई । दक्ष अंग वह सुतं लगाई ॥
प्रथम ङ्प सोहंग उचारा । तामों ख्खो पवनकी धारा ॥
तामहं अधे पवन जो कषये । सोहंगनाम पुन तामों रहिये ॥
प्रथम ध्यान धर देखे सोई । अग अंग की पच होई॥
(२१६ ) चोधमागर
तास अंगम देहु बताई । यह कौआय करदांते आई ॥
सोतो पणको अंश कहाई । भीतर बाहिर सिद्ध कराई ॥
पिंड ब्रह्माण्ड रहा भरपुरी । सोई निकट सोई है दूरी ॥
तब अजपाकी तारी रखवे। विन जप हसा तहँ समाव ॥
श्वेतषूप श्वासा को रंगा। सुतं समानी ताको सगा ॥
सप्तपताल कोर ब्रह्मण्डा। सातद्धीप प्रथवी नौखडा॥
सोई सवबमों रहा समाई। सो जगको करतार कहाई ॥
एक सख छेटक्ष प्रमाना । इतना योजन रोकं बखाना ॥
सोरेग नामको लोक प्रमाना। आमे पुषं कों निर्बाना ॥
पद्राख गुप्तकर भाखो । अक्षरकाट ग॒प्तदी राखो ॥
जेदिते जक्त लखे नहीं कोई युप्त अक कर भाणो सोई ॥
ताके आगे नाम बखानो । सोई नाम शुरूगमते जानो ॥
प्रकट नाम कर भाषो सोई । सुनके जीव तरे सब कोई॥
अब्र मे कदं आगेकी बानी । युत अक शुरूगमते जानी ॥
प्रथमदही सोदेग नाम बखानो । तामह बोहंग बह्म समानो ॥
सोदहग मध्य को्ग दर्शाई । सोतो अंश पुर्षको भाई ॥
दोय असंख दशनील बखाना । एता योजन लोक प्रमाना ॥
श्वेत अंग तिनहूको किये । सोहग पार धामसो लिये ॥
तिनके दशं रस जब पाईं । कर प्रनाम तहं शीस नवां ॥
वोहेग नाम आसिका दीन्हा । बहुत भांति तिनदाया दीन्दा ॥
` तबे ₹रंसको टीन्ह बुलाई । टोकं प्रमान सब दियो बताई ॥
तव उन डोरी दीन्द रुखाईं । ता चदि हंसा लोकं सिधाई ॥
साखी-बोदईगको प्रनाम कर, तब डोरी गहि लीन ।
पुष नाम सुमिरत भयो, परे पयाना दीन्ह ॥
पञ्चमुद्रा ( २१७ )
तब अगेको कीन्ह पयाना । कोम नाम जहो अस्थाना ॥
कोहंग नामको देखा जबही । हंस प्रणाम कान्ह पुन तवही ॥
दोयकर जोर सब्र अस्तुति कीन्दा । मस्तक हाथ पुरब तब दीन्हा॥
तबही हस वहत हरषाना ` पायो पूरन पद निर्वाना॥
तीन असख वटनीर बखोानां । एता योजन लोक प्रमाना ॥
श्रेत स्वप पुरषं है सोई । शेतदही वर्णं लोकं वंह होई ॥
तवै दंसको टीन्ह बुलाई | पौजी खोकको दीन्ह बताई ॥
मक्रतार तब डोर ल्गाई। तब अगिकी संध बताई ॥
हंस प्रनाम पुष्को कीन्हा । तबरी डोर दस गहि लीन्हा ॥
साखी-बहुत भांति तिन पुर्णसों, हंसा कौन प्रनाम ।
तब आगे गवनत मयो, जोग नामक भाम ॥
तब हंसा आगे चलरजाइं | जोहंग नाम तदं पुषं रहा ॥
हसा तहँ प्रयाना दीन्हा । जोग नाम तह वेक कीन्हा ॥
तबही पुषं हंसतन देरा। हस प्रनाम कौन्ह तेहि बेरा ॥
तब परष दिल्दाया कीन्हा । वचन आसिका इईंसहि दीन्हा
तब॒ दसा रहिरदे हरषाईं। हम पुरुषके दशन पाईं ॥
चार असख नो पदुम प्रमाना । जोंग नामके रोकं बखाना ॥
श्वेत सरूप पुर्षकी काया । श्वेत वणसों लोकं बनाया ॥
तबरी पुषं हंस रग लीन्हा । लोकदिखाय तास्ुको दीन्हा ॥
ताके परे विहेगम डोरी । ुक्तकेमारगजाय जिवसोरी ॥
सो हसाको दीन्ह ल्खाई। ताचढ हंसा खोक सिधाई ॥
अगे आदि पुषं निवांना । तदक ईसा कीन्ह पयाना ॥
साखी- भांति अनेकन पुषंसों, अस्तुत कीन्ह प्रनाम ।
आदिपुषं अवस्थानमो, हंसा कीन्ह पयान ॥
(२,१९.८ `) चोधसागर
जबही रसरोकं नजिकाई । तबरी देह हिरंमर पाई॥
षोडश भान देर् उजियारी ।एेसा शूप हंस तब धारी ॥
देखा तबे तहां चरु जाई । जक्षत पुषं ताँ आप रहाई ॥
कमल अनत पखुरी जानो । आदिपुषं जहाँ आसन ठनो ॥
पोरोप दीप तेहि नाम बखाना । सत्तपुणं कीन्हो अस्थाना ॥
सोईं नाम निगेभ्य बखानी । अनत नाम ताते प्रमानी ॥
ताको नाम रख जो पाई। जीवन भुक्त हंस होय जाई ॥
सोह नाम जो सुभिरण करहं । धिनतपक्तिसो प्राणी तरई ॥
योजन अनत लोक विस्तारा आदिपुषं त्हौ करटि विहारा ॥
श्वेतहि वण पुष्क काया । संपुट कमर देखिये छाया ॥
पुष्पहि धरनी तहां रहाईं । जहाँ हंस सब राज कराई ॥
चारकरी रसिहासन जोरा । तवां मध्य पुषं अजोरा ॥
जगमग जोत अगिन उजियारा । बणंत बने न अप्रभ्वारा ॥
हंस अनतन वेढे तदर्वो। माथे कर छचमणि जहवोँं ॥
षोडशभान रस॒ उजियारा । देह हिरंमर सो विस्तारां ॥
चद् न सूर दिवप्त नहि राती। वग अवणनजात नरि वांती ॥
माया कार्की तदां न छाया । अजर अमर हसनकी काया ॥
पुरुषनाम अस्थान बतायो । आदिनामकी सध क्खायो ॥
सोहं नाम हंस जो पवे। योनी संकट बहर न आवै ॥
साखो-आदि अमर अक्षत है, अबिगत अविचल धाम ।
आदिषपुरूषं सो जानिये, रूप निहगस्मी नाम ॥
आदनाम मे परकट भाषा । वणौ मू फू फल साखा ॥
ओर नाम एकं पुषं बखाना । विग नाम ताश्चुको जाना ॥
सोतो रहे पुरुष दरबारा । ताको भेद म कों विचारा ॥
अजपा सिद्धि दे बतला । ताको मेद॒ कों समञ्चाई ॥
पञ्चमुद्रा ( २१९ )
व्रथमे सोहे पुष बलाना । तमे अर्ख ब्रह्न पहिचान ॥
निः अक्षर निःतत्व अधारा । तामह अधं पवन दकार ॥
सोहेग कार गगन अस्थाना । तामह पूरण ब्रह्न समाना ॥
तामह नाम निगभ्य है सारा! सोहै सबको सिरजन हारा ॥
तासों हस छीन होय जाई । निःअशरमों रहे समाई ॥
सिधुबन्द तै एकै दोहं । इनिर्योभाव नाश होय सोहं ॥
सोनिजञ अजषा रै निवीना । आतम ईसा तहां समाना ॥
वोरैग को्ईग जोग नामा। सोहग सुतं निरन्तर धामा ॥
सोई नाम जीव रखषारा। अमी अच्च बिग विचारा ॥
अगे आदिनाम हम भाखा । ताकर नाम सो युत्ति राला ॥
अंतर अजाप नाम सनेदही। अमी सो्ग पुष्को ददी ॥
लागी निरंजन वबेहेगमतारी । अष्ट गगनकां खु कवारी ॥
दहिनो अंग पुष अस्थाना । तवां हंसा कीन षपयाना ॥
मकरतार गहि ईस उड़ाई । आगे अकह कमल द्रशाई ॥
कमल अनेत पखुरी छजे । आदिपुषं जर्हो आप विराजे ॥
श्वेत सिंहासन श्वेतहि काया । श्वेतहि पुषं वेतदी छया ॥
शेतछत्र शिर अकुट बिराजे । भान अनंत शोभा तरौ लाजे ॥
श्वेत चवर शीस फहराई । भान अनंत कला वहां छाई ॥
देसे निरशण नाम अनूपा । महापुर्पसो आदि स्वरूपा ॥
नाम तेज बल सुमिरन पाइ । महाकाल्ते जीव डां ॥
बहर न होय जीवकी हानी । निश्चय सत्तपपको जानी ॥
यह मत निरशण पावे कोई । जाको सतश॒रू पूरा रोई ॥
यह मत पाय अमर होय जाई । बहर न जीव प्रे तर आई ॥
सत्यनाम सतथुर् परतीती । ईसा चरे तब भौजल जीती ॥
है शकृत तुम सत सुजाना । त॒मसों कों मे योग ठिकाना॥
( २२० ) चोधसागर
या विधि करनी करे बनाई । सत्त सिधमो जाय सहाई ॥
ना फिर आवे ना फिर जाई । अजर अमर घर रदै समाई ॥ `
जीव बद्ध नाश तब रोई । ब्रह्म समाय ब्रह्म होय सोई ॥
ताकर सव करो निरवारी। ईसदोयसो टेय विचारी ॥
यह तो भेद ना राखो गोईं। आदि योगम भाखों सोई ॥
अब मे कहौं मत्र उपदेशा भाखो आदनामको मेषा ॥
गुप्त अक लिखि देउ बताई । पुस्तकं देख लखो नदि जाई॥
साखी-ग॒प्त भेदको म यह, वर्णोअंक छषाय ।
सो अतरमों जाप कर, ताको कारु न खाय ॥
अजपाको मन ध्यान धर, सो यह मंज बखान |
सो तो पुन अस्थिर भयो, बहुर न जीवकी हान ॥
मत्र
बोसोंजोकोअअनिःमबेकांजमीरंदहरहहं हं ह @
ङूदैसंदहंममनोगनिपूपतञअदह॥
है सुक्रित तुम बडे विवेकी । तुमको बुद्ध सकल हस देखी ॥
ताते तुमको मंत्र सुनावा । जीव काजको शब्द रुखावा ॥
सो तुम राखो गुप्त छिपाईं । यह जनि कहो खोरके भाई ॥
यह निजमन् प्रकट जो दोइरै । विन करनी हंसा तर जैरै ॥
गुरमत पथ चाल मिट. जाई । ताते करनी कहि सबुञ्याई ॥
योग ध्यान कुछ करनी कीजे । पीछे मेज जाप तेहि दीजे॥
मजरपाय मन आपा आईं। गुरूकी आसन राखे पाई ॥
तबे हंसको होय अक्राजा । ताते कहो योगको साजा ॥
मंज जोर ते लोके जाईं। शोभादहीन हंस होय भाई ॥
षोडश भान दंस उजियारा । सो नररै गतमद् विचारा ॥
मंज ध्यान अजपाको साधे । याबिधसन्त ध्यान अवराचै ॥
पचवमुद्रा (२२१)
तबही सुफल कामना होई । पचे ईस लोकको सोई ॥
अजर दहिरंमर देही प्रवे । योनी सकट बहर न अवै॥
साखी-जीव युक्तको मज यदह, बण अंक छषाय ।
ताको जप मनमों करे, ताको कार न खाय ॥
सुकित वचन-चौपाई
हो सतर तुम म सनायो । मेरो दै साच अब आयो ॥
अब गुरू कटो कगनकौ वानी । शासा लगन कैवे वहिचानी ॥
अलख मता दै ताको साई । ताको भेद कहो स॒ञ्ञाईं॥
केसो रंग ल्गनको होईं। कारण भेद कहो भ्रु सोई ॥
साखी-जमुन जगपत केतुकी, ओ ग्यािनं पहिचानी |
गुण प्रकाश लक्षण सहितः सतयरू कहो बखानी ॥
योगजीत वचन
खक्रित सुनो ठकगन वेवहारा । तुमसों मेद सब कों बिचार ॥
प्रथमे श्वासा ध्यान ल्गावै। ताको रंग दष्ठमों अवि॥
पीतवणे तहां देखे जबदीं । अति हास मन आवे तबहीं ॥
उषजे सुख पीत रंग जानी । जगपति गन पुन ताहि बखानी॥
अङ् पुन श्वेतवण लख आई । अस्थिर समाध रहै ठदहराई ॥
उपजे सुख प्रेम भक्त अधिकारी । दया छीन तब स्तं निहारी ॥
श्वैतभावं जब मनमों अवै । सोई जेमन लगन काव ॥
बहुर ध्यान धर देखे जाह । श्वासा पवन अत लख, आई ॥
जर आकार पुन भासो जबहीं । उ सुगेध शासमों तबहीं ॥
ध्यान बीच आकार न जाने । केतुकी लगन ताहि पहिचाने ॥
बहुर ध्यान धर देखे जाई । अरूणश्याम तहँ भूमि ल्खाई॥
अहंकार मन शठता आवै । सुख नाशदोय दुःख उपजावै ॥
इतना भावदी देखे जाई । ग्यारु गन कहावै भाई ॥
च
(२२२ ) बो धसागर
साखी-श्वासा मद्धे तत्तव दै! ॥ रगन तत्त्वके माहि ।
योर्गीजन पदिचानि दहै, ज्ञानीजानत नाहि ॥
प्रथमहि पथीतत््वको पाई । तामे जगपति गन भिलाई ॥
अषटोदिशा गवन तब कीजे । सकल बिचार छांड़ तब दीजे ॥
अष्ट सिद्ध नव निद्धि कडाईं । सो तो तहां सहजमों पाई ॥
मनमों इच्छा जाकी रोई । सफर कामना पावे सोई ॥
कोटिन कायं सिद्धता पावे । सर्ब जीत होय घर कोआवै॥
मनमों हार न आवे कबदी । एेसी लगन बिचारे जब्दी ॥
सूरको सयुन एक शुन जानो । यह मत बिश्वावीश बानो ॥
ताको भेद में दीन्ह बताई । स्षबे सिद्धको सूर लखाई ॥
साखी--जेतिक कारज जगतो, चर ओ अचर विचार ।
ते सब जानो सुफल दै, कोट सिद्धको सार ॥
जेसुन लगन कहौ ससुञ्ञाईं । ताकर फल भँ देख बताई ॥
जखके प्रथीतत्व दोय पव । तामे जश्न लगन पिलावे ॥
तबही ज्ञान करे जो कोई। सवै सिद्धता पावे सोई ॥
कब दहं न दोवे तनमों पीरा । जीते शुद्ध महा रणधीरा ॥
मनवांछित फर पवे सोई । जितने कार्थं जगतमों होई ॥
एक सिद्धकी कोन चटखवि । कोटिन सिद्ध तासे फर् पावे ॥
साखी-नौ रह घातिक दरसके, ओर योगिनी काठ ।
लगन तत्त्व खखके चरे, कारज होयं ततकाल ॥
सुर ओ तततव बिचारके, तामह जैघुन होय ।
` जौन वचन मुखसों के, सिद्ध जानिये सोय ॥
तीसर कगनको मेद॒ बता । ताको अर्थं तब वर्णं सुना ॥
जलके परथी तत्व एक पावे । तामद.रखुगन केतुकी आवे ॥
ताके जोर का्य॑को जाई । सोतो कायं मिरे उठ धाह ॥
पचचभुद्रा
राजाराव भिलनको जाई । देखत ताहि सभा भहराई ॥
हाथ जोर आगे चल्आई। बहत भांति तेहि सेवा खाई ॥
कार्यं सिद्ध तब जगमों जानो । चर अङ् अचर जेते पडिचानो ॥
योग सिद्धके साधन कीजे) यह मत सुरत देख जब लीजे ॥
साखी-सर्वं अथं मन कामना, आनन्द सकल इलास् ।
जते सुख है जगतो, सो सब ताके पास ॥
चौ पाई
व्यार लगन अब कहौ विचारी । सोतो युदकार्यको भरी ॥
दृहिनों सुर पुन अवै जवी । व्यार लगन कह तबही ॥
सोसोजाय लाखको मारे सो सभ्राम न कबहु इरे ॥
यम स्वप जव कटकं दिखाई । देय श्च तब तुरत प्राइं ॥
याको दृष्टि भरि हेरे जबही । मानां काक गिरासे तबही ॥
मानों कार लीन ओतारा। या विधि ताको हव निहारा ॥
साखी-ज्याल लगनको भेद यह, तुमसों कहो विचार ।
सिद्धिकार्यं यामे नहीं, युद्ध जीत अर्हकार ॥
जेमन जगपत केतुकी, ओ भ्यालिन पहिचान ।
अथं सहित गुण लगनको, तुमसों कदं बखान ॥
कोटि योगको योग है; कोटि ज्ञानको ज्ञान ।
कोरिसिद्धको सिद्ध है, कोटि ध्यानकेो ध्यान ॥
नौ षट चार अष्टदश, तँतिस कोटि बखान ।
ताते मत आगे कटौ, महाशूप विज्ञान ॥
योग ध्यान आक्षेप मत, आदि नाम रे जोय ।
उलट समानो आपमों, जीवन सक्ता होय ॥
चार शुक्तके बीचमे, रहे अवध परमान ।
याते रहित बखानिये फिर निं आवाजान ॥
६ २२४ ) बोधसागर्
चरो पूतरी नोनको, थाह सिन्धुको टेन ।
आपन गर पानी भई, उर कंटेको बैन ॥
- खौ पा
डे सुक्रित त॒मो बड़ ज्ञानी । तुम सोभेदअबकहों बखानी ॥
यह निरगुण मत राखो गोईै। जगमों प्रगट न कीजे सोई ॥
यदतो अगम निगमकी बानी । ताको भेद जक्त नरि जानी ॥
अपनो काज गुप्त कर लीजे। ताको मम न काहू दीजे॥
जाकह जानह आप समाना । ताको यह मत कदो बखाना ॥
तुम आये जीवनके काजा । बास्न जानबस्तधरो साजा ॥
कलियुग आदि द्वापरको अन्ता । निजमत तुमसों भाषो सन्ता ॥
यदह तो तुम्हे सिखावन दीन्दा । तुमतो रहो नाम खौ ढीन्दा॥
ध्यान समाध करो वितलाईं । आप अपनमों रदो समाई ॥
पुषं संघ इददयमों राखो ओर ज्ञान प्रगटकर भाखो ॥
अब भौसागर करो पसारा । हम अब चले पुषे द्रबारा ॥
आपन सत नामसों लवो । मौसागरते जीव सुक्तावो ॥
जीवतपुषं सो पचै कीजे । एेसो चित समाधमों दीजे॥
बहर मरे की रहे न आसा । जीवत करे लोकमों बासा ॥
साखो-जीवत समानो लोकमों, नहीं मरणकी आस ।
जीवन मुक्ता रोय रदो, सत्तनाम पकाश ॥
सिधु समानो बुदमों, बुन्दहि सिधु समान ।
सिधु बुन्द एके भयो, बहर न आवा जान ॥
अगम ज्ञान अक्षेत मत, आदि कूप विज्ञान ।
हेसुकृेत निरगण कथा, तुमसों कटौ बखान ॥
इति श्रीभ्रन्थ पेचमुद्रा सुरूतो योगजीत संवादः सम्युणेः
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51218, 0५6 411 013
अथ आत्मबोध बारभः
भारतपथिक कबीरपथी-
स्वामी श्रीयुगलानन्दद्वारा संशोधित
खेमराज श्रीकृष्णदास घपरकाशनः,
बम्ब
सत्यनाम
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घत्ययुकृत, आदिअदटी, अजर, अचिन्त, पुष,
घुनीन्द्र, कष्णामय, कवीर, शुरति योग, संतायनं
धनी धमदाच, वरशमणिनाम, चददेन नाम
कुटपति नाम, प्रबोध शस्वाहछापीर केवह नाम,
अमो नाम, य॒रतिधनेही नाम, इक नाय,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरन नाम,
उग्र नाम, दयानामकी दया बडाः
व्याटीसके दया
अथ श्रीबोधसागरे
सप्तविंशतिस्तरंगः |
आत्मबोध प्रारम्भः
4
रेखता
भक्ति भगवानकी बहुत बारीक है, शीस सपे बिना भक्ति नाहीं।
होय अवधूत सब आश तनकी तजे, जीवता मरेसो भक्ति पादीं ॥
नाचना कूदना ताल्को पीरना, रोड़ा खेलकी भक्ति नाहीं ।
रेनदिनि तार निधार सो लागीरहै, कै कबीर तब भक्ति पाहीं ॥
(^>), बोधसागर
भजनके वासते सन्तजन कहत है, राम रमतीति एक नामतेरा ।
नामएकठामकुलगाम नहि देखिये,अगमओनिगमदोउथकतचेरा॥
इन्द्रियादि मन वाक्य पहुचे नदीं, सकर प्रकाशकरि रहे न्यारा
रूप अर् रेख वपुभेष नहि पाहये, कै कबीर सो पीव प्यारा ॥
आप द्रि आवहै अगपुनी आवदी, आपी इुदञ्खुदा फेन होई ।
आपरी चर है मठ पुनि आपदी,आपदी अम्बर अकाश सोई॥
आप प्रकट है आप माही रमे, आपी करत किलोर भाई ।
कै कवीर आपी रभिरहा, आप बिनु दसरा कहौं समाई ॥
आपी मृत्तिका आपी कलार है,आप दही फेरता चक्र कारा ।
आपी सुत है आप मणिया बना,आपदी फेरता चक माल ॥
आपी सतश् शिष्य पुनि आपरी,आपरी करत उपदेश माई!
कं कबीर तहां आपदी बनि रहा, आपही आपको दे ठखाईं ॥
ऊच अर् नीच कदु भेद आने नदीं, राव अङ् रंक सब एक देखे)
एकी तत अर् एकी टाठ है, एक बिन दूसरा नाहि पेखे ॥
काममें कोच अर् रागम् द्वेष है, राम मजि राम मनि द्र चेरे।
कहे कीर मन पवनको फेरिके,पिसन पांच प्रबरुको पडि जेरे ॥
एकषिन दूसरा षि आवे नीं, एकबिन कृदो तुम कोन दूजा ।
एकविन दूसरी सेव कदो कौनकी, एक विन दूसरी कोन पूजा ॥
पांच पचीसका एकं मंडान है, एक प्रकाश ब्रह्मांड कीया ।
कहे कबीर अब दवेत दीखे नहीं, एक अद्वेत गुक्देव दीया ॥
अडिग्ग अडोल अवीर्सभ्रथ धनीनाम निर्वाण तिस थाह नाहीं।
शेषशिव वषिरंचि तिस थाहपरवविंनरीं,उदय अर अस्त नहीं धूषछांदी॥
श्प अर् रेष नदीं वणं आश्रम करहु, आप अरेख सब ठर पूरा ।
कहैं कमीर कदू लिप्त होवे नही, सेन लखे कोई सन्त सूरा ॥
जल जहां थर करे थलतदहा वदन करे, वहन करि फिरि थलकरत साई।
आत्मवोध ( ७ )
रावे सो रेक करि रंक राजा करेःअविगतिकी गति को कौनपाई॥
पटलएकमे भाजिकरि फिर रचनकरेसमरत्थकीवाजिया कौनजाने।
कृं कबीर यह खेर समरत्थकाःहोय खाक्षी तिदहिको सुख माने ॥
रजाय तुम्हारी साहंयां करोसो होगया,आपकीरजाकहो कौनमेटे ।
पट एकके वीचमें दरिआवदहयेखुता, फिरि षलर्कमहंलेस मेरे ॥
उलटका पुलट अर् पुरखुटका उरूट है,आपका खेर को कौनपावे ।
पटल एकमे भाजि करि फिरि रचनाकेरे, कहैं कवीः नदीं हारिअवि॥
रृष्ठि ओं शष्ट नि ज्ञान शटि तहसकलट प्रकाश करिरहैन्यारा ।
सकलके मांहिअक्सकलकी जानहै आदिअङ्अन्तनईिं मध्यवारा॥
परम प्रकाश आकाशवत जानिये, बाहिरा भीतरा एक खाई ।
कहँ कवीर यह खेल भरपुर रै, आवना जावना फेरि नाई ॥
खेर अवधूतका महा अद्रेत है, देत परथचका ङेश नाहीं)
गुणमयीङत सब कालकी डाट्मेःशेषशिवविरंचि अश् विष्णु तादी)
रहै निधार आकार थिर ना रहै, विश्व संसार सब अधर माही ।
कहै कबीर यह खेर निश्च किया,जन्म अङ् मरण तिस भमे नाही
देख अवधूतके ज्ञानका वेला, कालके जारको दरि तोडे ।
गुणमईं कृतको कारि पयमार करि पांच पचीसको पररि मोडे॥
राग अश द्वेषकी भीतिको गय करि, भर्भके कोटको फोर फोडे ।
कृ कबीर यों प्रेम प्रकाश करि, सुरति अर् निरतिका तार जोडे॥
सेलियां बाकरियां देख अवधूतकी, जीवता मरे सो भक्ति पादीं ।
तीर खुरसानका बहत तीखा बहैःखगे उर मांहि गद रिकिनादही॥
राजसा माहि गद् बह उपजे, तामसा मांहि अहेकार भाई । ..
कहै कबीर तहां शांति कँ पाइये, जीवकी -वृत्तिको ठीक ठाई ॥
हृष्टि अवधूतका दुष्ठ नहिं सहि सके, दु्टको द्वेतकी दष्ठि भासे ।
परम प्रकाशका मेद् पावे नदीं, इन्द्रियां द्वारके रहे आसे ॥
0 बोधसागर
करै सब साथ अगाध मे क्या केहूःबिना निवैद नहि ट्ठि आवे।
कहै कबीर यहं खेरू बारीकं रै,बिना गुरू देव कहो कौन पावे ॥
देव निवाण तहां बाण लागे नहीं, सकल करा सिरे कारु देवा ।
शोष शिव बिरंचि तिस पार पावे नदीं,चन्द् अङ् सुर फिर कैरसेवा॥
तेज क्षिति पवनजरू रहत आज्ञासदी, निगमहू कहत नहि पार आव।
कहत अगाध २ सबं संत जन, दास कबीर तहं शीस नवे ॥
सांचा साइयां एकत ओर दजा नही,दशि दीखे तेती सकलमाया।
गुणमयी कृत प्रपच सब बिनसिहँ थिर नदीं दीखता रहन पाया॥
चट अङ् मठ महदादि थिर ना रहैःरहैगा आदि सोह अंतनारई ।
कै कबीर म ताकी बन्दगी; एक भरपूर सर्वज्ञ साई ॥
देवरे देवरे देव निवीण है, कालका बाण तहौँ नाई खमे ।
चन्द् ओ सूर प्रकाश करि सके, करत प्रपेच कै रहै अगे ॥
विश्व आधार अङ् आप निधार है,ै कोड संत श् ज्ञान जागे!
कहे कबीर विष धार सो ना बहैजन्म अङ् मरणका भम॑ भागे
खिर सो थिर नहीं थिर नदीं सिरत है,आनद् अभमरानद अर्ख योगी।
सकरकेमाईदिअक्रहतअतीतदोय,तीनगुन षांचरस सकरुभोगी ॥
खेर अगाधकु कहत आवे नदीं*खेलको देखि करि मगन हआ ।
कहै कबीर यह सेन शंगातणी, जानिरहै संत सो नाहि नूआ ॥
जागता २ जागकर देखिया सोवता सोवता सख सोया ।
खोवता खोता खोय सारा दिया,रहासो कहनमे नारि आया॥
अथं अगाध कोहं साध भल पादै, जाञ्ुके खेर प्रकट होई ।
कह कबीर यह खेल प्रतीतका, बिना प्रतीत क्या करै कोई ॥
रेन दिन संत यं सोवता देखिये, संसारकी तरफसूं पीट दीया।
मन अर् पवन फिर पएूट चाले नहीं, चन्द् अङ् सूरङू समकीया॥
टकटकी चन्द् चकोरकी रहत है, सुरतिअरश्निरतिका तारबाजे ।
अत्मबोध (९)
नौबत तौ रन दिन श्ुन्यमें धरत हैक कबीर यों गगन गाजे॥
पाव अङ् वलकी आरती कौनसीःरन दिनि आरती संग गावें ।
घुरत निशान तदह गौबकी आलरा, गैवके घंटका नाद् अवे ॥
जहाँ नेव बिन देहश देव निर्बाण हैःगगनके तख्तषर यक्ति सायी।
कैं कबीर तहं रेन दिन आरती, बातियां पांच पूजा उतारी ॥
साई आपकी सेवतो आदी जानिहो,आपका भेद कट कौन पावे)
आपनी आपनी बुद्धिउनमानसो, वचनविखास्न करि रहरिङ पि
तू कहै तेसा नदीं है सो नदीं देखियेःनिगम इ कहत नहीं वार अषि)
कहे कवीर या सेनयंग तणीः यग शेय सो सैन पावे ॥
कथत है ज्ञान अङ् ध्यान पुनि धरत है,चलत विचारके पंथमाँही)
श्वास उश्वास्र फिरि गूदडी सीवताः सुरतिकी सहन अंतजाही)
रहै निद्रन्द् कोड न्दम ना पडे, मन अङ् पवनका करे खे ।
कहँ कबीर फिर एूट चाठे नदीं, सहज दरिआवमभें रये पेखा ॥
पुर्षकी सेवते पुरूषही होत रै, नारिकि सेवते नारं डोह ।
पुर्षकी सेवते प्रम पद पाये, नारिके सेव नहिं अक्ति कोई ॥
पुरष प्रमात्मा देव निर्वाण हैः नारिये करत प्रपच सारा ।
गुण मई कृतको त्यागरे बावरे, कँ कबीर ज्यों होय पारा ॥
द्रोगे बापडे दाम ठेखे किया, छतरिया माहि तबकरी बोरी । `
सोवरी माहि तहां बेसि करि बावरे, ज्ञान कपट सँ जडी मोरी ॥
रामह राम तहां सदा विश्राम है,रेन दिन जाम जहो बजे बाजा ।
कटे कबीर तहा पीव संग खेलना, सकर देवा सिरे देवराजा ॥
पोच अर तीनकी छद्धी साज करि, रोगे उपरे भाण हआ ।
गगनकीयुफाको पवन्ुःसाफ् करि'द्१दिदम तहं छया अनुवा॥
शाह उलतान खन्दान सू सुखरू, दरोगे जाय करि ज्वाब दीया ।
कहे कबीर दीवान तब मिहर करिःआपने कदम मों राखि लीया॥ `
( १० बोधसगर
कसं अर् भ्म सब संसार करत रै,पीवकी परख कोह संत जाने।
सरति अश्निरतिमनपवनक्ूपलरिकरिगंगअर् यञ्चुनके घाट आने॥
पौँचको नाथकरि साथसोहं लिया, अधर दग्िवका सुख माने।
कहे कबीर सोइ संत निभेय रहै, जन्म अङ् मरणका भमान ॥
नासि कस्तुरिका सग बारे फिरे,उरटि करि आपमे नाहि जोवे।
भमता मेता योनि पूरी करे, अधयो आपुनी बस्तु खोवे ॥
नासि निज नामसो गम पावे नरदींजगत सब तीर्थं गभ भूरा ।
कृं कीर हरिपंथको नाल दै, अध मवसिन्धुमें फिरत ञ्खा॥
उरि बनूदमे भमना दरि करिबाछिके मटकने सिद्धि नाहीं ।
फिरत बाहर तदं वस्तुको नास ई, वस्तु विचारि त्रु देखमारही।
आपे आपै आप अजपा जपो, जाप जपेते आप पावे ।
कँ कबीर ये सत्यकी सेन रै, सत्तका शब्ड सब संत गावे ॥
गंगा उलटि धरो यमुन बासा करो,परटि पञ्चतीर्थीं पाप जावे)
परि वषा तहां रेन दिन श्चरत है, न्दायसो फिरि भौ नाहि आवे॥
फिरित वारे तहां बुद्धिको नाश है, बज्ञके भरक्ने सिद्धि नारीं
कहँ कबीर इस युक्तिको गहेगा,जनम अश् मरण तवं अंत पादीं ॥
बपु बालोतरा मादि वावो रहै, ज्ञान प्रकाश बिन रहै नाहीं ।
बोकता चालता खावता पीवता, करे उपदेश अङ् रहै माहीं ॥
ष्ठि दीसे तिनको रहन पावे नदीं, बपु वालोतरो बिनसि जावै।
केर कबीर एक बोरता सरी करेसो जन्मअङ्् मरणम नदि आवे॥
देख बनूदमे अजब विश्राम है, होय मौनूद् तो सदी पवि ।
फोरिमन पवनको घेरि उरख्टा चलेरपीच पचीसको पररि खवे॥
शब्दकीं डोरि खख सिन्धुका ञ्खनाःचोरकी शोर तहं नाद गाव।
नीर तिनुकमल तदं देख अति एूलिया,करै कबीर मन भवरछछावे॥
रामकी दयाते खेल प्रकट हुआ,तासुका खेल कटौ कौन जानें ।
आत्मबोध ( ११)
होय अंटीक सो खेल पवैसदही, मगन दोय आपत मौज माने।॥
सदा निन्द कोई द्न्दव्यापे नहीं, यु्देषकी मेहर ते मौज पा!
कहैं कबीर योंखेल सुख सिन्धुम, भलि भर्ते नहिं अंतजाई ॥
चक्रके वीचमे कमर अति षूटिया,ताञ्चका सख कोई सन्त जाने!
कुफ़रु नौद्रार अङ् पवनको रोकना,भृद्कटिमध्य मन भवर उने॥
शब्दकी घोर चहुं ओर तहं हात है, अधर दीर आवका सखमाने।
कृं कबीर यो खेरि सुख सिन्धुमें,जन्म अशू मरनका भ्यं माने॥
गंग अशू यमनके घाट को खोजिरेमेवर जार तहा होय भाई।
सरस्वती नीर त्हौँ देख निर्म वहै'ताञ्चके जर पिये प्यास्त जाङ्ञा
पौँचकी प्यास तहं देखि पूरी भई, तिनकी ताप तो खगै नाहीं ।
कहैं कवीर यह अगमका खेर है, गेवका चोदना देखि माही ॥
बोररे बोल अब चुप क्यों होइ रहा,बोल मन सवटा बह्म बानी)
पौ चको पर्रिकर तीनिको जी तिरे,महलचोथातनी खबर जानी ॥
गगन गजं तहां नीर ॒निञ्चर रे, परथि परे कोह संत सर ¦
कहँ कबीर मस्तान माता रहे, बिना श्रदंग बजे त्रा ॥
मोडि मथान मन रईइको फेरना, दोय चमसान तहां गगन गाजे ।
उढे ञ्जकार तह नाद अनहद घुर, तरी महलके बेठ जे ॥
नामकी नेति करि वित्तको फेरना,ततको ताय करि घृत लिय ।
कहै कबीर योंसंत निभेय हआःपरम सुखधामतहीं लागि जीया॥
गड़ा निशान तहँ श्चुन्यके बी चमे,उलरि करिसुरतिफिरिनारि अवे)
दूधकोमथिकरि घृत न्यारा किया,बहुरिफिरितकरम नारि समावे॥
मांडि मथानतर्हौ पांच उलटा किया, नामकीनेति सोसुरतिफेरी ।
कहै कबीर यों संत निर्भय इआ,जनम ओ मरणकी मिरी फेरी ॥
श्रवण अङ् नयनसुखनासिका रटत है. रोमही रोमधुनि एक रोई ।
बाहिग भीतरा एकी तान है, एक बिन दूसरी नादिं कोई ॥
( १२) बोधसागर
अघर दरिआव धसेको मीखिया, बाहिरा भीतरा एक पानी ।
कडँ कबीर यह् खेख्दरिआवका, योग अवधघूतकी यै बाणी ॥
शशि प्रकाशते सूर उगासही, तूर बाजे ताँ संत ञ्जुले ।
तत अनकार तहां तरर वषत रहै, सरस पीवे तहां पांच भे ॥
दरिआव ओर बुन्दज्योदेखअन्त नहीं*जीव अशूशीवयों एकओही ।
कहे कबीर यहं सेन शंगा तणी वेद कितेवकी गम नाहीं ॥
अगम स्थान गुश्ज्ञान बिन नार है,खहै युश्ज्ञान कोइ सत पूरा,
द्वादशां पररि करि षोडशां प्रकटे, गगन गजं तहां बजे तूरा॥
इंड़ा पिंगला सुषुमना समकर, अधे अङ् उधं विचध्यानखवे ।
कहँ कबीर सोइ सत निभेय रहैःकारुकी चोर फिर नारि खावे॥।
अघर आसन किया अगमप्यालापिया,योगको सूरुगदिथुक्तिषाई।
पेय विन चलिगये शदर बेगम्य पुरा,दया शुशूदेवकीसमञ्चि आई॥
ध्यान धरि देखियानेन बिदपेखिया,अगमअगाधसब कदत जाई।
कह कवीर कोड मेद बिरला रहै, सो कटैया मेद भई ॥
शहर बेगम्य पुरागम्य कोई ना रुहै,होय बेगभ्य सोई गम्य पवे।
गुननकी गम्य ना अजब विश्राम हैसेनको कहै सोह सेनगावे॥
मूकं बाणी तिको स्वाद कैसे रदे, स्वाद दावे सोई सुख माने ।
करै कवीर या सेन शुंगा तणी, गंगा होय सो सेन जाने ॥
अधरदी ख्या अर् अधरही कल है,अधरके बीच तहँ मठकीया।
खेरुउर्टा चला जाय चौथे मिरखा,सिन्धुकेशचुख फिर शीस दीया।
शब्द् घचोर टकोर तहां अधर हैनूरको परास करि पीव पाया!
कैं कतीर यह खेर अवधूतका,खेलि अवधूत घर सहज आया॥
छका अवधूत मस्ताना माता रिरे, ज्ञान बेराग्य सो छका पररा,
श्वास उश्वास्का प्रेम प्याला पिया, मगन गज तहां बजे तुरा ॥
पीठ संसार सो राम राता रहै, यतन जरना छखिया सदा खेर ।
आत्मबोध ( १३ )
करैं कवीर शङ् पीर सुर्खशू, परम सुख धाम तहा राण मेठे॥
छकासो थका फिर देह धारे न्ही,करम कपाट सब दूर कीया ।
जिनशधासउश्वासकाप्रेमप्यालपियाःनामदरिआवतहपिसिजीया॥
चटीमतबाखियाओंरहुआमनसावता,फकटिकन्योंफेरिनर्दिएूरज वि)
करैकवीरजिनवासनिभय किया,बहुरि संसारम नारिं अवे ॥
तरक संसार सो फरक फक सदा, गरक शुर्क्ञानमें युक्ति योगी।
अर अङ् उरधके बीच आसन कियावेक प्यालेपीवे रस भोगी॥
आधा दरिआव जहँजाय डोरिल्गी, महर वारीकका मेदपाया)
कैं कबीर यों संत निर्भय हआ"परमस्ुख धाम तहा पाणलाया॥
चमडी मतवालि तहँ बह्म भागी इरे, पिवे कोह सूर्यां शीस्षमेङे!
पांचको मेखि सेतानको पकड़ करि, प्रेमकाम्यालाअधर ञ्चे ॥
पठलरिमनपवनकोउलरिसूधाकेवल,+अरधअङ्उरधविचध्यानलवै।
कृं कबीर मस्तानमाता रहै, बिनाकर तातियां नाद गतै ॥
आब्दी पहर मतवाली लागी रहै, आब्दी पहरक छक पीव ।
आढठही पहर मस्ता माता रहै, ब्रह्मकों छोलिमिं संत जीवे ॥
साचहीकहतअश्सां चदी रहत हैकाचकोत्यागिकरि साच खागा।
केह कबीर यों सन्तनिभेय इआ, जन्मअक्मरनका भमं भागा ॥
करत किलोकं दरिआवके बीचमें, अरह्मकी छोलिमिं ईस जके ।
अरध अङ् उरधका एकवारा तूहो"पलटिमनपवनको कमखपफूले॥
गगन गजं तदा सदा पावस रे, होत अड़रेन दिन बज तुरा ।
बेनकितेवको गमनाहीं तहां, करै कबीर कोई रमे सूरा ॥
बजत करतार तहां नीरनिञ्चरञ्चरेदोत कसार तहौशब्द परा ।
गेवकी मौन अर् ज्ञानका चांद्ना, शब्दअनहद तदो बजे तूरा॥
होत ततकार तहा निरतनिशदिन करं, सुरतिमनपवनकेबेविछाजे । .
कै कवीर गुरूपीरकीमिहरिसँ बिना बयबादले गगनि गाजे ॥
( ९४ ) बोधसागर
गगनकीगुफातदौं गेवाकाचांदना, उदयअश्अस्तका नाम नाहीं ।
दिवसअर्रेनतरौ नेकनरि पाये, परमप्रकाशका सन्तमादहीं ॥
खदा आनन्द दख दन्द व्यापे नदीं, पणानन्द् भरपूर देखा ।
श्रम अर् न्ति तहां नेकनरहि पाइये, कैं कषीर रस एकपेखा ॥
खेर ब्रह्मां डका पिण्डमें देखिया, जगतकी भरमनादूर भागी ।
बाहिरा भीतराएक आकाशवत, सुषुश्चा डोर तदा उलरिलामी॥
पाचको पठरिकरि शून्य मोघरकिया,घरामे अधर भरपूरदेखा ।
कै कबीर गुर् पीरकी हमरि सू, बिकुटि मध्यं दीदार पेखा ॥
देख दीदार मस्तान मन होरहा; सकल भरपूर है तूर तेरा)
सुभग दरिआवजहोदसमोतीचगे,काटंका जरतो ना्हिनेरा ॥
ज्ञानिकोपाकिअर्सहजमतवाखिरै, अधरआसनकिया अगमडेग।
कहं कबीर तहा दवेत भासे नरी, जन्म अङ् मरनका भिटाफेया ॥
ब्रह्मदरियावतरं करतकिरोलमन, सुरतिकीसीपतदहौं शब्दमोती ।
गुरूपीरकीनिहरते भेदयह पाय है, मोतिया माहिती नाम जोती॥
तिनयापरख कोड जानि जोहरी, कोडियावणिजनदिपरखिअवि।
कहैकमीरकोड दोय मरजीबता, तोखेरु दरिआवका हाथ अवे ॥
चितकीरचमककीप्रीतिकरि पथरिया, सुरतिकासोखताखूबलाया।
अ्िको ्ारि अवधूतप्रचण्ड करि, कमसब काठरे माहि द्राया॥
हुआ निधूमसब सकलसंसार मिटा, खुला कपाट तब चाटपाया।
केह कबीरअब द्वैत दीखे नदीं, अखंड कर्णा मई रामराया ॥
करियोगयमडाटउगाि करिदेदयण,चतुदेशमवनका रोग खाया)
महाप्रल्यकियाबीजकोईनारहा, रदा एकनिदरन्दनरिकाल्खाया ॥
खेल अगाधकोड साधुभर पाइ ह, महाप्रख्य जिनकिया सो ।
केह कबीर फिर उपजिविनशे नरी, अ्ममताजिनकुञ्ुपि खोई॥
कालकेजारूके मेद नरि रामम, कालकहौं कौनको खाई दै रे ।
आत्मबोध ( १५)
वस्तुभे वस्तुअङ्् तचत््वमें तत्व मिक, जीवका नामय जायं २॥
जन्म अङ् मरनकी शंक नाहीं क, जन्म अङूमरनेको पाह
कैं कबीर यों संत निर्भय इ, बहुरि संसार नहिं आह रे ॥
घेन व्यावेतिको दूध भशवे नहीं, बौँञ्डी घेवुको दध होर ।
बँञ्जडी घेठ॒को दूष ॒पीवेतिको, दोय ख हप ना मरं कोड ॥
बोञ्लडी पेचको पुत्र पेदा इआः मरि मन श्रगको मास खव ।
कृं कबीर सो पुज हँ पला, चदे आकाश फिर नाहि अव॥
सयुन्द्र उल्टा तबे सीपमाहीं मिखा!इञा मोती तहं सीषमाहीं ।
जल बिनाहंसतहांसदामोती चमे, ताहसको कार्की चोर नाही॥
नदी उल्टी तबे सथरन्द्र मदी मिलीःप्राण ईसा तशं सदा च्रे ।
कहं कबीर कोइ मेद बिरखा ठहैःविना जक केतकी कमर् कूले।॥
नहरी काटि करि उलटि पा दङ,ज्याथं दरियावका सोतलाभि।
सदा छख सिधु मारले खता, जन्मअङ्मरनका अमंभागा)
रोमदी रोम रसनीरको पीवता, नीरकीं प्यासमें सदा जीवे ¦
कहँ कबीर सुख सिधु छाडे नहीं, खार दरिआवजलनाहि पीवे॥
सुख सिधुकेसीरका स्वादं तबपाह है'चाहका चौतरा उव्जिविं ¦
बीजके माहि ज्यों वृक्ष विस्तार है'यों चाहके मांदिसबरोग आवे॥
प्रो वेरागमे होय आढ मन, चाहके चौतरे आग दीजे ।
कहै कबीर यों होय निवांसनी, ततसो रत्त होय काज कीजे ॥
सूर प्रकाश तहां रेन कहां पाड्ये, रोनिप्रकाश नहिं सूर भासे ।
ज्ञान प्रकाश अज्ञान कहं पाइये, होय अज्ञान तहां ज्ञान नासे ॥
काम बर्वान तराम कं पाहये, रमिरहा राम तहां कामनाी।
कह कबीर यह तत्त्वविचार है, समञ्चि बिचारि करि देख माहीं ॥
कामक कोथली मूलम जकि गई, रामकी कोली रहै प्यारे ।
राम विश्राम तहां काम कश पाहये,कामविश्रामतहांाममन्यारे॥
न.९ कबीर सागर - २
( १६ ) बोधसागर
दिवस अक् रेन फिर एकठां ना रहे, ज्ञान अज्ञान नहि एक होई ।
कहै कसीर यह भद् जान्या बिना, जीव विश्राम क्यों कहै कोई॥
चुरत निशान तहां श्चुन्यके बीचर्म,रमत चौगान कोई सन्त सूरा
जजञ्ज बिन ज्ुञ् अर् बूञ् बिवु बुञ्जनाःपावबिनपथतहांबजे तूरा॥
नैन बितर सेन अङ् बेनबिनुबोखना, पाप प्रचंड तहां जाय चरा ।
कं कसीर ये विकट सा खेर ₹है,रदै कोड सन्त गुङ् ज्ञान पूरा॥
एकं शम सेर एकसार बजती रहे, खेर कोई सुरमा सन्त ञ्ेरे ।
कामदरुजीतिकरिकोधपयमाककरि) परमसुखधामतहांप्राणमेखे॥।
शीर सनाहकरि ज्ञानको खड्धरे, आय चौगान खे खेडे ।
करैं कबीर सन्त जन सुरमा, शीसको सोपि करि करम टेरे ॥
पकड़ शमशेर संभ्राममें पेष्या, देह प्रयत करि युद्धं भाई ।
कारि शिर बैरिया दाबि जाक तदहां,आयद्रबारम शीस नाई ॥
करतमतवाली जहौ सन्तजनसूरमाघुरतनिशानतहांगगनि घाई ।
करै कबीर अब श्यामसो सुखं, मौजदरियावकी सक्ति पाईं ॥
तन बन्दूकं अङ् पवन दारू कियाशज्ञानगोरी तहां खूब दारी ।
सुरतिकी जामगीमूढ चौथेखगी, भमेकी भीति तहां दूरिफाटी ॥
क कबीर कोह खेरि सूरमा, कायरा खेर यद् हाथ् नाहीं ।
आसकी फांसको कारि निर्भय भया, रामरमिरामरमि गकं मादीं॥
ज्ञान शमशेरको बधि योगी चदे, मारिमन भीररणधीर हआ ।
खेतकोजीतिकरिपिसनसबपेखिया,मिखादरिमां दिअबनार्दिजूवा ॥
जगतमे यश अर् दाद् दगीहमे, खेल्यों खें सूर कोई ।
केह कबीर यह सूरका खेर है, कायरां खेरु ये नाहि होई ॥
सूर संग्रामको देखि भाज नदीं, देखि भाजेतिको सूर नाहीं ।
काम अर्करोधमदलोभसोनृक्षना, मंडाघमसान तहां खेतमादीं ॥
शीङ अर् सोच संतोषसहाह भयेशज्ञान शमशेर तहां खूब बाजे ।
आत्मबोध | ( १७ )
कहं कवीर कोई जृञ्चि ह रमाः कायरा भीङ् तहां धरडिभाजे ॥
चर संग्ामको देखि सन्धुख डा, शीश दे नाथको साथ इआ।
कंमदकीलो कियो फोजमांरी पड़ा पिसन पोचुदलजीति डवा ॥
ज्ञान शमशेर ठे भूमि सवसर करी, जाय निर्बानपद् कियाबासा ।
कहैं कबीर रणधीर निर्भय हआ, शीस जगदीश जगजीति खासा ॥
साधुका खेर तो विकटबेडा मता,सती ओं सूरकी चार अगमि ।
सर घमसान है पलकणएक दोयका, सती वमसान पलषएक लागै॥
साधु घमसान है रेनि दिन जूञ्चनाः, देह परयत का काम माहं ।
कहे कवीर टकबाग दीटी केरे, तो उलरि मनमगनसौ जमी आई ॥
साधु षद कहत तो बात अगाध हैसाश्च का खे तो कठिन भाई ।
होयमरजीवता गत सब ग॒ण करे, साधु पद भला तो शथ अइ ॥
अवनिकैग्रण धरे रहत गिरि मेश ज्यों, किरोकोदेखि नहिम पतै)
कृं करवीर कोई रेख नहि उपजे, साश्रु पद भखा तो शथ अवे ॥
नाच अवै तवे काछको कालियेनाचविनकाछ किंस काम अविं ।
परिरि सत्राह धरि नाम रणजीतको, बेरचमसानके कूदि जवे ॥
उतरे नूर अर् श्याम निं आदरे, दाद् दशाह मेँ नाहि प्रवे ।
सिहकी खाल अश् चार है भेडकी, कहं कबीर तब सियार्खावे ॥
ब्रह्म चौगान तहँ ज्ञानकी गद् है, रमत अवधूत कोई सन्त सूरा ।
सुरतिके देडसोफेरि मन पवनको, शब्द अनइद् तहा बजे तरा ॥
सदारसएकतहँ मूनहीं बिभचरे, काटसेतीठडेरेनदिनहोय घमसानमाहीं।
केह कबीर यह विकट बेड़ा मता, कायरा खेर का काम नाहीं ॥
सकट संसारम एक चीपि रिरि, शीर अर् साच सतोष नाहीं ।
जगत अर् मेष सबणएक नाके चखा,जत अरशुसत्त कहाँ ओर पाही॥
द्म्भपाषंड संसार सब मिरत है, सांचके शब्दको नाहि माने ।
कृ कृवीर यह ॒ खेल बारीकरै, साधुके राहको कौन जने ॥
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( ९८ ) बोधसागर
सकर संसार विषधारमें बहत है, रहत कोई सन्तजन नामराता ।
जठ अर्कपटयेदृरिदिरते करेतबजन्मअर् मरनका ममं भागा॥
खखसार ङदयधघरे छारसब पर दरे, इन्द्रिया द्वारते रिरे पू ।
कंडे कवीर सोई सन्त निभय हआ, जगतसंसार सो रहै रूढा ॥
राग् अर् देषते रदित ई तेजना, येजना रामके रंग राते।
मद बारीकमे सदा भीना रहै, पेम प्याखा पिवे रस माते ॥
ज्ञान गलतान अङ् अंग शीतरुसब, धरामे अधरमिलिणएकहूआ ।
कहै कीर महदादि अङ् मडउज्यों, घटा पटे जवे माहि जुवा ॥
भेष दरिआवमं दंस भी दोत है, भेषद्रिआव तहा बग होई ।
मेषद्रियाव तौ रतन भी दोत है भेषदरिआव तहँ सङ सोई॥
जीवता सुये बिन भेद पावे नरी, जीवता मरे सो मेद् पावे ।
कहै कबीर गुश्पीर परा मिले, तब कञ्च नमूना दष्ठि आवे ॥
शूठ अरु सांचका तान केसे मिे,रेन अर दिवसका फरकभारी।
लौनअरू शकरणएकटोतै, कां खोडकीजात करटा ल्वनखारी ॥
हेस अर् बगदोउ एकसे देखिये, चालके मादिती फरक भारी ।
केँ कवीर वह दंस मोती चुगे, बगतो माछली दटिमारी ॥
साधुके संगते साधुदी होत रहै, जगतके संगते जगत होवे ।
साधके संगते परम सुख उपजे, जगतके संगते जन्म खोवे ॥
साधके संगते परमपद पाइये, जगतके संग दुख होय भारी ।
क कबीर यह संतका शब्द् दै, सनोर जीव सब पुषं नारी ॥
दरिद्री देख अवधूत है भरथरी, दसरा दरी ना कोई ।
पांच अर् पचीसकूपलरि नकेकिया, मनअरूपवनयेजातिदोई ॥
सदानिदर॑न्दकोददन्द्र व्यापेनदीं, अजरअमरानन्द अगम राता ।
कृ कबीर यह दरिद्री देखिये, दसरा दरिद्री नरक जाता ॥
सुखी अवधूत दुखी सब जगत है, रेनदिनपचतनर्िं भूख भागे ।
आत्मबोध ( १९)
ये सदानिदन्द् कोह दन्दभ्यापेनदीं)युरूदेवकेशब्दतेखूरति लागी॥
तत्त्वसुरति अशूगत सबथण कियाःभकटी अचि सब मर्म भागा ।
केहैकबीरसंसार सब गर्त है, नहि ज्ञानका ओटनासदा नागा ॥
नरककाजीवसबनरक्मे भिखरहा, नरकविनओौरन्हिवातअवे ।
नरके उपज्या नरकमे खयेगा, रेनदिन नकके माहि ध्यव ॥
शील अर साच संतोष सञ्च नीं, इन्दिया द्वार रस जहरपीवे।
कृद कबीर नर सदीसो मरेगा, बिना इरि आसरे काँ जीवे ॥
नाम गुरूदेव अङ् शिष्ये नारिका, कपिज्योनाचताफिरत भाई।
देतहै ठन तब करत उनमाद् नर, बन्दगी करतहै चित्त खाइ ॥
केरत संघार अकू खानको देत है गुडअङ् संठ शरा बिखाईं ।
कृरैकवीर यह अकिंल अज्ञानकौ, कहत शरदेव नहीं लजओई ॥
बारहिबार मन पनको सोधि नर, पांच प्रमोधि करिनामरीजे।
भांग अङ् तमाक खाय अफीमको, कालके जाख्यं न्यायछीजे॥
भांगकी तोरम रेनि दिन फलिया, भजन प्रताणका खख नाहीं ।
करैं कबीर सुव॒ शब्द सांचा कू, समञ्जविचार करिदेख माहीं ॥
कृहनको साध अर् व्याध दृटेनदीःकोरिमें षाव या देख भाई ।
खेत अश्कुवा फिरग्याज बाटो करे, बल्धिया्हांककरि देतखाई॥
नामको फेरि करिजगत धूतासबे, नागिनी नारि घर बार परा ।
केह कबीर मनमाहि एला रिरे, कार शिर बाजिहै देख तूरा॥
प्रतिभह ्चेरुता डरता नाहि है, कौन गति होई है जीव थारी ।
होयगा उट अर् बाडिको चरेगा, सो डरता फिरेगा बनसारी॥
पायकी पोरको डारिरे पापिया, प्रे भी भार तलबहै भारी ।
कहैं कबीर नर॒ अंध चेते नदीं, बात साची कहू लगे खारी ॥
साधु जो होय तो व्याधको नाशकर, व्याधके नाशते साधर होवे।
वासनाग्यापि सब जीवको दहत हैःनिना ग॒रुूदेवकह कोनखोवै ॥
(२०) बोधसागर
कृतरनी कपट दिलबीचते दूरिकरि, सांचकी नापनी हाथ रीजे ।
कहै कीर यों दोय निबोसना, निमला तत रस नाम रीजे ॥
सगनरोयविश्वासधरिध्यानअलेखको, लिखाहैरेखसोमिटेनाहीं ।
क्या है कृत कहू मेटिको करिसके, दुखअश्सुख या देहमांदी ॥
रदल्ुवा संग दोय टर् करबो करे,आपनी आपनी बेरि आवे।
कहं कबीर यों जानि निभेय रदी, किया है कृत सो का जावे ॥
कियासो इआ अर् करे सो होयगाःजीव कयो कस्पतापिरिभाई।
रिखादै अकसो मेरिको करिसके, बिनाहै रिज्क सो दियाजाई॥
गो विश्वास एक समरत्थ घनीका,आनको छडि अरेखधावो।
कहै कबीर सब कल्पना दूरिकरि, पेसिदिलमादहि दिर्दारषावो ॥
जीवको जक नहीं रेनदिन पचतहै, करमकी रेख सोहं पाइहै रे।
तनकी भूख सदर दहै बावरे, मनकी मेर नहीं धायहै रे ॥
आपना कृत तो दि नहिं देखता, पारके भागको रोयहै रे ।
कहँ कीर यों रतनको खोय करि, जीव अज्ञानमें सोय रे ॥
आपनी अभ्रम आपी जलत, दोष कदो कौनको दीजियेरे ।
संत तो चन्दज्यों अंगश्चीतर सबे, जीवआपदी आपं छीजियेरे॥
नीरके पीयेते प्यास भिटि जात दहै, इषि मरेतो दोष कैसा ।
कहै कबीर ये दोष कहु कोनको, जीव पाताल ठे न्यायवेसा ॥
कामकी अभ्निमें जीव सब जरत है ज्ञानविचार कष्ुनार्हिबू्े ।
खोय प्रतीत अर् बोय बाजीद्ई, शब्द् माने नदीं काल सञ्च ॥
बुठको थापि करि सांचको उत्थपे, श्ूटकी पक्षको गहेर्गादी ।
कृं कबीर नर अधचेते नहीं, कार्की चोर यों खाय डादी ॥
कामबल्वानजगमादि योद्धासबरु, बीजविस्तार तिहुलोककिंया।
स्वगेओमृत्युपातार सबघेरिया, जीवजरथर सब मारिलिया॥
खंडन्रह्माण्ड सो जीव सारागया, रहा कोई एक जो कोटि माही।
आत्मबोध (२१)
कहैं कबीर शर् शरन गहि उबरा, सो विषधारमें बहा नाहीं ॥
करे प्रतीत सो खाय खोटा सही, रहै निभंय तहां चोर छै ।
अभिके संगमं ज्योघीवपिघलखा चङे,कामिनी संग यों कामजामे॥
काम बलवान सब जीव अधा किया,पडामनस्वार्थी संम श्ये ।
कहँ कबीर कोह संतजन बरे, नाम निर्बाण नहि परक भे ॥
नैनकी चोट तो बहुत करडी बहै, चोरश्च उबरे संत कोई ।
शीर सत्राह करि ज्ञानको खड्ग छे शब्द्॒र्देवके सुरति यो$ ॥
शब्द् विचारका कोट नीका किया) ताके उपरे चोट नाहीं ।
चोट तो तास्ुको लागिहै आत्मा, कपटकी कतरनी रहैमारीं ॥
जीवके बाधने एक नारी बनी, दसरा ओौर नहीं बन्धं है रे।
ज्यों चोरको रोकने एक खोडा घनाःनहिकाठबिना इ्राफदरैरे ॥
उरे एकको कोरिमें सत जन, कीटको कारि हरिनाम कँ ।
करै कबीर फिर फन्दमें ना पड़, शब्द् शुर्देवके अरति जगे ॥
तीनदी लोक तदो एक नारी बनी, स्वग अर् त्यु पाता माहीं ।
चारहू खानका जीव प्रबस पड़ा, नारिविन इसरो फन्दनाहीं ॥
मृत्तिका एक ओर घट बहु भांतिके, मोहिनी सकरम एकं दीस ।
कहै कबर कोह सन्त जन ऊषरे, दसरा जीव सबका पीसे ॥
नारिभगद्रारभ्ुख बिन्दुनरिदीजिये,जगतकीकस्ताननरि जोरभाई।
ज्ञान वेरागि अङ् भक्तिसो पलरिये, एकदिन काजसो सिद्धपाई॥
पाचको उलरि मन अर् पवनको, संत अनेक यों पार इआ ।
सहजरी सहजदरिआवमादहींमिला, कहै कबीर ते नाहीं जूआ ॥
दास मनोहर नदीं यकरंग रहत है, करे किरकंट ज्यों रंग केता ।
गहै वेरागअङ्् चटे आकाशको,गिरे धरनिमारि फिर नाहि चेता॥
मानकौतानमें खायगोतासदीकांचअर्स्फरिकं ज्यों एूरिजावे ।
कै कबीरजनहीर कहं पाये, इन्द्रियाद्र।रमनउलरि अवे ॥
( २२) बोधसागर
भिदरकरसिदरकरमिदरकर महाबली, जीवकं शरणअब राखतेरी।
पिखनपांचमबरु सोबसि मेरे नहीं, सन महानतकी सब्र फेरी ॥
तरखअबं कोजियेसुख मोदिदीजिये, दयाकरिजीवकोराखिरीजे ।
दासकबीरकी बिन्ती साम्भरो, देवकर्णा मई दरश दीजे ॥
सांईं बारदी बार भ कहतपुकारिके,दरदसों दरसदेओ नाम तेरा!
पाचको नायि करि साथराखौसरी) विनादीदार दुखप्रानमेरा ॥
कार अकरारुकी चोरजोराबहै, विनानिज देवको कौन राखे ।
दास कबीर यह बीनती करत है, बारदीवार रस॒ राम चाखे ॥
तुरी तू तुरी एकसमरथ धनी, तुम बिना ओर को नाई मेरे
काम अर् कोधमदलोभ बेरी सबरू, रैनि दिनजीवको रहै चेरे॥
आहि पुनि जाहिमे रन दिनकर हू, मेदरिकरि आपनीशरणरीजे ।
दासकबीर यह बीनती करत है, देवकषणा महं नाम दीजे ॥
होयं निरपक्ष सबपक्षकू त्यागकरि, रहै मस्तान युशङ्ञानमारीं ।
शीर अङ सांच संतोष दयधरे, कपटकरत्रूतके निकट नादीं ॥
कृपटकरतूति तदा रामराजी नरी, सांचकरत्रति सब साश्च गावै ।
कहे कबीर यकं सांचको ठे रहो, वेद कितनँ सब सौँच गवं ॥
जगत् अर भेषके पक्षम ना पड़, रहैनिषेक्च सोहइ युक्ति योगी ।
फेरिमनपवनको घेरि पांचोपिसन, प्रेमञ्चखधामजहां प्राणभोगी ॥
जहा आयो तदहो दुख रै बहुधना, पक्षकीराय सब जीव छीजे ।
कबीर कोह सन्तजन सरमा, दोय निपेक्ष रस अगम पीजे ॥
राम निपक्च निपेक्षदी साधु रै, दोय निधेक्ष निपक्षरी माहीं।
` सोचको परसि अर् ञ्ुठको त्यागिये, सौ चकी पक्षकर्हदागनारीं॥
सोच सदजेतिरे ञ्ुठमे बह मरे, अड प्रपेच स जगत भाता ।
के कबीर कोई संतजन जौहरी, छाडि प्रपच निजनामराता ॥
मेषको पहरिकरि भम भूटेमती, भष परिरे कटक सिद्धि नाहीं ।
आत्मबोध ( २३ )
काम अङ् कोध मदलोभमादीवणा, शीलअक्् सांचसंतोष नाही
केपटके मेष सो काज सञ्च नदीं, कपटको मेष नहीं राम राजी ।
कहै कबीर नरसांच करनी विना, काल्की चोट परखायताजी ॥
भेष अवधूत अङ् भृत माही वसे,जीवक्क बावखा करि दिर ।
नहिबोलनेुधिअङ्वालनेखबरिनं,बशिनहीतह पांचवलधियारे॥
घारि्यांदोयतर्हातहूत साधनी, साकरीताञ्चकेबीचमेउलक्चियारे ।
कहैकबीरनरपन्थको भूलि करि, सुरतिका सूतनहिं सुरूञ्चियारे ॥
विलकमाथे दियाहाथमे लकड, भजनका भेदतो नाहि पाया ।
शीलअक्सांचसंतोषञअन्तरन्ीं, कनक अङ् कामिनीजदरखाया ॥
गूदड़ीपदिनकयिगआसनकिया, माछलीगटकनेकोञ्चरति भारी
कृं कवीर जब कार गद्षेरिहै, कौन गति हौयगी जीवथारी ॥
हाथके माहि तो सुमरनी फिरत ईह, जीमह फिरतहं अखमाहीं ।
दास मनोहर तो चहैदिशफिरत रहैमनअङ् पवनकौ गसनाहीं ॥
निरखता भीति अश्गोरडीखतरडी, नागिनी मार्दिफोंकारमेरे ।
केह कबीर यह भजन केसे करे, नीदके आश्रय जीव खेङे ॥
शीर अश्सांचसंतोषकाभेष करिः क्षमा अकूदयादिल्मादहिधारो ।
जू अर् कपट दिलत दरि करि, सत्यका शब्द श्रुखते उचारो ॥
सोँचका भेष यह देख सतश् का, संत अनेक यों पार इ ।
कृं कबीर सुखधामममाही मिटा, बहुरि विषधारमे नाहि सूओआ॥
भेषकर पिरि करि जगतधूता सवे, नामका आसरा नाहि नेरा ।
ओषधोबूटियांखगिभमत रिरि, क्यों रिह जीवका भम॑ फेरा ॥
भारता धातु हरताल तांबे सुरा, यजा मजा बुधि खोहं।
करैं कबीर नर स्वांगकोपरहिरि करि, अतको बेरियोंचट्या रोई
मेषकोपरिरिकरिजगतधूतासे, एकनामनिवाणडर नारिं आशा ।
ओषधो ब्रूटियांरागिभमेत रिरे, क्योदरिहै जीकाकार फसा ॥
( २४) बोधसागर
ओर डहकायकरिआप उहका पिरेजीवका भखाक्योँरोय भाई ।
कै कबीर नरस्वांगकोपरिरिकरि, साधुकी राह नहि हाथ आई ॥
संत पूरा मिरे जीवको तारि है, वासना जीवकी खोवे।
नाम उपदेश अङ्ूभमनादृरिकरि, पाचको पटरटि भवपार रोवे ॥
भिङे अच बेसरा इन्द्रिया स्वार्थी, जीवबहकायकरि ट्कखवे ।
आपुभव सिन्धु ओ जीवको टेवहै, कर कबीर नरि पार पावे ॥
योगकी युक्ति तौ मूढ समञ्च नही, स्वांगकोपदिरिकरि सिद्धू ।
ज्ञान वेराग अर् दया जाना नदीं, वासना बीज तहां जाय सूओ॥
मान मस्तान अशद्रेष मादीघना, आंठि अभिमानकीं नाहि छदी ।
कहै कबीर सो पार कैसे है, मारली बाहिटी चारि एूटी ॥
अघसाधुपदचछाडिसंसारमेवीसषडा, कोडिया ख्याटमोरतनखोया।
जन्म अक्ूमरनकादुखसिरपरसदा, यो मोहकेमहलये जीव सोया ॥
अल्पर। भोग अङ् अल्पदी जीवना.ज्ञानविचार कदु नारि कीया
कहँ कबीर यों बूडि विषधारमं, छडि सुखसारको जहरपीया ॥
प्रेमके पथको भूलि उल्टा षडा, वैवनको खायकर फूल बेडा ।
गयो वेराग अङ् वन्दगी नाबन्यो, कभके कीचमे गला रै ॥
नरकमे जानकी टेक गादी गरही, दोष निर्दोषको धार माही ।
कहै कवीर सो सुखसार कैसे कै, छंडिसुखसारक्ं जदरखाई ॥
ताहि उगालकरि फेररे खात है, देख मनकूकरा पडत भारी ।
शब्द् अश्षेषला कानिमाने नदीं शम सुञ्चे नदीं होत स्वारी ॥
जदाका उपजा तदां फिरि आग्या, मायकाषप फिरिनारिकीया ।
कारु अकरालकी चोट ष्टे नहीं, कँ कबीर पिरकार जीया ॥
नामनिज नीरषिन पीर पावे नहीं, पाचसोरांचिकरिसांचखोया ।
श्हदकी बुन्द्के रस प्रवसभया, यो मोहके मदल्मे जीवसोया ॥
कामअर् कोध मदलोभमादीषना, कनक अङ्कामिनीरंगराता ।
आत्मबोध ( २५)
कैं कषीर सोहपार केसे रहै, कारकौ चोरकं फेरि लाता ॥
अध ज्ञानवेरागअश् भक्तिको कदत है,रहसतोएकनटहिहाथ अवे ।
फिरत कडछी जैसे पाकके वीच, रसके स्वादको नाहि पावें ॥
ज्योरिरीकोदेखिकरिदिष्धीकीनकलकहै, ताश्चकीनकठकोड ओर ठाने ।
कृ कृवीर कोई भद पवि नही, भेद तो देखने हार जानै ॥
वेद् वेदांत अङ् कथत भागवंतको, अथं अब्ुभवतर्णांकरतनीका |
ज्ञानवेराग अङ् भक्तिको कहत है, रईतर नामतिना सवे फीका॥
कामिनीङ्कबुद्धिडरमांहिर्कादाघना एकनामनिबाणडरनादहिरक ।
करैं कबीर सो पार केसे दै, कनक अक् कामिनी इाथमीका ॥
रांड़या खेले रांड़या होयगा, खेर अवधूतका होय न्यारा } .
खान अश् पान वशी ते जीवहै,कहो क्यों होय भौ सिन्धु पारा॥
चाखताजमीपेअश्कहत आकाशका, कदोक्योमानिदहैसाश्च सोई ।
कहं कबीर यह संतका शब्दै, कहै ज्यों रहै अवधूत सोई ॥
कहत वेराग अर्ूराग छट नहीं, पांचसों राचिकरिजीव खोया ।
इन्द्रियास्वार्थी शब्दअवुभव कथे, पदसो बांधिकरिजीव खोया॥
नाम निगुण कि है रहत है युणमई, शिष्य शाखातणी भख भारी)
कहँ कबीर जब कार गढ षेरिहै, कौन गति होयगी जीव थारी॥
राग अर् द्वेष की चौतरा सानि करि, तासुके उपरे जीव बेड ।
ञूठको थापिकरि सांचको उत्थपे, अज्ञानकी केन्द्र गरकपेडा ॥ .
रागअक् द्वेषका चौतरा खोदिये, ज्ञानकूदार सोढाह भाई ।
कँ कबीर तब साधु पद् पादय, मुक्तके महल्मं सहज जाई ॥
पांच अर् तीनको करत निषेद नर महल चौथा तणी बात गावै)
रहत रजमा बिनाकहतर श्चूटी से, होय अवधूत तो कहत भावे॥
जेनाम रसना रटेषापपलमें कटे, कनक अरूकामिनी त्याग दोई।
कामअर् कोधमदलोम को त्यागि नर,कहैकबीरयों सहज सोई ॥
( २६ ) बोधसागर
कहतको सूर अर् रहतको कूड, रहतबिनकहतकिसकामअवे ।
रहत रजसा विना कहत ज्खूठी सबे, पांच एूटा रिरे कारु खावे ॥
पांचको वसकेरे नाम हदय धरे, सुक्तिकी राह क्यो सहनजि अवे ।
कैं कबीर कोई सन्त जन सूरमा,कहत अश् रहत तब एकभावै ॥
ज्ञान वेराग वि कूफफद टूट नहीं, ज्ञान वैराग सोङ्कपफ़फंदटटे ।
ज्ञान वेराग विन जीव ददे नहीं, ज्ञान वेराग सो जीव छे ॥
ज्ञान वेराग विन पीवं पावे नहीं, ज्ञान वैराग सो पीव पवे।
ज्ञान वेराग बिन काज थाव नहीं, ज्ञान वेराग सो काज थव ॥
बिनवेरागकदोज्ञानकिंसकामका, पुङ्षबिननारिनर्दिशोभाषवे ।
स्वांगते साह अर गति है चोरकी, केरे तब चोरिया शिर कटावै॥
भेष तो साधुअर्ङकबुधि मादीवणी)ङ्बधिको कोथली नाहि छट
शीर अङ्साचसतोषअन्तर नहीं, कहैं कबीर तब कार क्ट ॥
कृहनको साह असगति है चोरकी,साहजी कदत नरि शभ आवै)
ञूटही कहत अङ् ज्ूठदही रहत है, रेन दिन ज्जूडमें जन्म जावे ॥
मानके आसरे एूलकरि वेसिया, इन्द्रियास्वाद मनमाईि भावे ।
कहँ कबीर ते साहु क्यों बोलिये, यमरायके खेसरे खूब खावे॥
ज्ञान वेराग बिन शब्द चाड नहीं, चद् कथानं बिद वीर कैसा ।
उज्वला दीसता द्रव्यखोटकारूपया, तासुकाकोनगनि देइ पैसा॥
कठिन करतूतिपुनि काका होत रै, रहतर जमा बिनाशब्दज्ूा)
कँ कबीर जन काजतबदी सुरे, पोच मन मनसा पिरे पूठा ॥
तुरंग रागातङे कान मोती इले, पच हथियार तहां बांधिसोई ।
माकमोतियातणीसौजआछछावनीःपणिबिनाकारण रहे पुरूषकोई॥
नारि सुख नाले गभं तो नारहैः. बिना वैराग तो शब्दं काचा ।
कैं कबीर ज्यों पुरूष रैदीजड़ा, बिनाकरतूतिनर्दिपुरूषसो चा ॥
शब्द अदुभेव करे मादिप्रचोधरे, मन अर पवनकीं युक्तिआने।
आत्मबोध ( २७)
ज्ञान चौकस कहे सैन चौथे गहे, सीस सतनामकौ छप ठाने ॥
कृनकृ अङ् कामिनी रेख मादीघवणी, भायत्तष्णातनीमीरिनाहीं ।
कहँ कबीर सब बढ दी बोलना, आप है कारकी डाढ माहीं ॥
पवनको सापि करिकरतउषाधिनरः बासतना बीजतो नािछीजे ।
दूध अङ् भातफिर ओगरामागताः दास मनोहरका लाडकीजे ॥
कहत है योग अङ्भोगको गहत है, योग को शूल तो हाथ नाही
कं कबीर नर करत आजीवका, खान अङ् पान है चित्त मादी
ददैमन्द् दर्दके चोदको जानि है, वे द्दको चोटकी खबर केसी ।
पीवकी चोरको बिरहनी जानि, रेनदिन पीवनें सरति बसी ॥
श्रवणअङ्नयनसुखवेनमे बसत हैःपीवबिन ओर नहिं बाति अवे)
कृ कवीर यह विरहनी अग ३, रेनदिन निर्खता थ जवै ॥
नीर बिनुमीनअङ्चन्दचकोरबिन, सीपकोस्वातिकीएकम्यासा ।
धरणिके नीर नहि नेह पपीहरे, बिरहिनी एकयो राम आसा ॥
नारिसे पुरूष अक् पुर्ूषसे नारि रै, सुरतिकीडोरन्योंएक हवै ।
कहँ कबीर यह ॒विरहनी अंग है, रेनदिन पीवका पथ जोव ॥
योगकी युक्तिको रोगिया नार हैःरोगकी खानितहां योगनाहीं |
करूडिया कंथिया काज सीजे नहीःकहत कपुर अश्हीग खासी ॥
नाम निवाणतहां कामक पाहये, कामनाङ्कब्ुधितहानामकेसा ।
कहै कबीर नर जहरको खात है,शब्द अवुभव करेफूखिवेसा ॥
योगकी युक्तिकोरागिया नार हैरोगकौ खानि तहां योग कैसा
कनकअर्कामिनीखानगहिरीखरी, ताके उपरे जीव वैसा ॥
भूखिया खायकरि करतउदगार नर, कहत कपूरकी बासअवै ।
कहै कबीर एका दष्ट देखये, कनक अशू कामिनीजहर खा ॥
शब्दको मानिरहै कौन पर्माण है, वेदांत सिद्धांत तहां एकमेखा ।
त्याग वैराग अङ् शीरसंतोषबिन, करतज्योटेजियाबारुखेला ॥
( २८ ) बोधसागर
पीवको परखता कष्ठ बहु होत है, पीवकी सेज निं खेलर्हासी |
कड कसीर रदत रजसा बिना, शब्दअनुमवकियाां धिजासी ॥
त्यागवेरागअर्ूदरतरजमाबिना, शब्द्अनुभव किया कौन माने।
चूर अर् तेज मन पवन कू कथतहै, महर् चीथातणी बातठाने॥
खेतनिपेदे इई चोडदी जानिये, शीरखुअङ्् साच संतोष अवे ।
कडँ कबीर एता दशि देखिये, वेदांत सिद्धांत सब साधु गवे ॥ `
सोवता रोय तो जागि है बापुडा,जागता सोवता कों जागे
सान सनमाहि अभिमान ज्ञानी इआ,शब्दअवधूतकाकौं रखागे॥
कदतअर् सुनतसबअवधिषपूरी मई, अनुषाइनी भक्तिनर्हिदाथआई ।
कहँ कबीर ये ज्ञान सब थोथरा,जीवका भरा क्यों होय माई ॥
कदत अश्सुनत सबअवधपिप्ररीभई, उर्चिसुलञ्चिनदींएक आया ।
शीरखुअरूसांचसंतोषअन्तर नही, कामनाङ्कबुधिडरमाहि काटा ॥
अथिकेसगज्योलाखपपिरुतचंरे, योशब्दकोसुनतट्कचेतहोवे ।
कहैकवीरनरपंडे जबआंतरा, कारु की लाखन्हि उरूटि जीवे ॥
कृरत आचारअङूखबर तनकी नदीं, सदा नौ द्रारसें बहै आमे ¦
नाकम रीर अर्अमिंकीचड़ा, सदा ठेढठी बै कान तामे ॥
हाडयुखलार अर् मूच विष्ठा बहैकरत अभिमान तू देख जमे।
के कतीर नर चेत सोवे कँ, दोयज्योपाकभजिसन्त नामे ॥
फोडिपाषाण को दूजी दरिबीच करिआपकतां हुआ देखु दूजा ।
तोडि सरजीव अर् पूजिनिर्जीबको, कहो क्यो मानिहै रामपूजा॥
केम मागे चदं सांच बरञ्च नरी, मानतादैमे करत प्रूजा।
कृ कबीर नर अथ चेते नरी, परि चारो गई पडा दूजा ॥
जागती जोति तदी छत खगे नदीं, छत लागे तदा भम भाई ।
म अशू्मममे जीव नुञ्चे से, चार अङ् असी कापडा खाई ॥
शोचके शब्द का भेद पवे नरी इन्द्रिया स्वादसब जीवरागा ।
आत्मबोध ( २९)
करैं कबीर तदौँ जागती जोति हैकमं अर् भम सब दूर भागा ॥
दके जीव सो बोखना कौनसा, बःत बेहदकी कहा जाने ।
प्रवृत्ति प्रपञ्चमें रेन दिन जृञ्चना, शब्द् अवधूतका कदा मने ॥
रष्िदीसे तदी कारका जाल है, नामनिवाण नहि इहाथ आया ।
परेम प्रकाशका मेद पाया नीक कबीर तदा सहज बिलखाया ॥
आपनी आपनी खाल्में सबमस्तहै, चार अङ् असीका जीवसाया ।
कृरत आचार तहां गरकमनदोयरदहा) हय उदास नदि हौय पारा ॥
सूकरा कूकरा तनको पायकरिः श्ुकरा ककरा भोग मवे ।
कहैं कबीर यों नकम टना, बिना संतसंग नरि पार पवि ॥
इश्क साहं तहां तकं वजूद है इश्कवजूदं तश नकं साई ।
योगिया यतियां शेष संन्यासियां, भेषहूं देखिये बहत याही ॥
भिनाही बन्दगीविरहिस्त पवेनरीं, बन्दगीकरत नहि खेखहाी |
कहैं कबीर ये इक वजूद का, दोजखकी राहकीो लिया जास्ती ॥
तकं वजूद सो $श्क सांईं करो, छड़ि बदफेल रस एकं पीजे ।
मनीको मारिदिलममोहि नेक गदो, भिस्तिकी राहक्सोधिरीजे ॥
सबआपपेदाकियाघटन्हींफोडिये, फजंन्दसब आपका देखभाईं ।
कृं कबीर यह सतका शब्द्है, विदिस्तके राह को सहज जाई ॥
मियांजीजीवतामारिकरिकिहत दलार्हुआ मुदारनरीं खुबखाना ।
मिहरिको दरिकरिकहर दिलमेधरी, दोजखकींराहको सहीजाना ॥
नफसके वास्ते कफ बहत करतेहौ, ज्वाब दर्गाहमें भरे केसा ।
के कीर इन्साफ तब दोयगा, मार दगांह मे खूब वेसा ॥
भिर्योजीराहकोकडिवेराहक्यो, चलतहौ ज्वाबदगादमेनाहिआवे।
कृरत बदफेर दिन चारके वास्ते, देखि वज्द् क्यों शाक खावे ॥
भुसरुमानहमानसो पाककमारुभरो, जीवकोमारिकरिनारदिखाना।
नकसशेतानको मारिकिरिद्रिरिकर, बावरे करैकबीरयोंभिशतिजाना॥
( ३० ) बोधसागर
सियाजीआबकानीपनादक दगांह्े, पिशाबकानीपनाददनादीं ।
कहर कोढरि मिहरदिख्मे धरो, यो बन्दगी करत कंब्रूल साहं ॥
पांचविसमसिरूकरो पाकरोजा धरो, गुस्सेका गला तरका भाई ।
कहैं कबीर यह सत्यका शब्द् है,विरिस्तकी राक सहज नाईं॥
जेनके सारि तो खेन षेदा इआ, खेनका रोग तो जाय नारीं ।
कृण बिना तुसडा करते ह सदा,कमयें लीन नहि सांच पाईं ॥
दयाको करै अर् सदा निदंईं रहै, तोडि सर्जीवं नरजीव प्रजे ।
कहै कतीर यों जन्मका ओधलखा; सांच अर् ज्चूठ नरि सूञ्चे ॥
खेनके रोगते श्वांस बेटे नरी, श्वांस वेढे विना कहां साता ।
नामनिज ओषधीनिकट न्यारीरदी,ाडि निज ओषधी कमराता ॥
आपप्रकाश विन कदा नरी उपजे, कालके चक्रमे खाय फेर ।
कहे कबीर यों जेनमे खेन ईँ, नाम निर्वाण नहि निकट हेरा ॥
कौड्यां कोडियां जोड़ी करि एकठी, खाय खच नदीं मूरखुषापी ।
घरे चरमा फिर व्याज बाटो करे, रेन दिन मदिरे बुरीथापी ॥
दोयगा सपे अङ् भूत भमत रिरे, खाय खच नहीं सू भाई ।
कह कसीर जब ज्वाब केसे भरे, यमराज के चेसले खुब खाई ॥
शब्द् उपदेश में सबनकरू कदत ह, समु्चिकरिआपनास्ुखलीजे ।
राग अर द्रेषकू दूरिसब छोडिके, आपने जीवका भख कीजे ॥
आय सतसंगमें कुुधिको दूरिकरिः सुब्ुपि सन्तोष उरमा्हिधायो ।
कह कबीर यह् शब्द् नि्दषि रै, आपने जीवका काज सारो ॥
टेरि एकारि सब जीवसों कहत हौ, सत्यका शब्द् तुम गुनो ।
गुरूदेव करतत गुरू देवदी पाइये, शिष्यकरतूतसो शिष्यं होई ॥
शिष्य दुबुद्धि य॒र्देव क्या दोषै, शिष्य अवधूत गुरूवार वेसा ।
केरे करतूत सो आपनी पादै, शिष्यगुरुदेवका काम केसा ॥
शब्द सांचा कहू यत्तका कामना, सांचके शब्दको लाज कैसी ।
आत्मबोध (३१)
आप अङ् बाप गुरूदेव अर शिष्य हैके करत्रतसो वायतेसी॥
सांचके खेलकर सांच मीग खमे, कषटके खेलक सांच खारा ।
कृं कवीर ये एकठे ना रहै, दिविस अङ् रन अकाश न्यारा ॥
आपने आपने सांचसो खेखना, कपटका खेर नाहीं काम अवे।
कृषरके खेलसो काम कोई ना्षरे, अंतकीं बेरदख प्राणपावे ॥
बाहिरा भीतया साफ दिलको कसे, मेखको धय रसराम पीजे ।
दास कबीर यों कहत पुकारिके, कषटकी कोटी दरि कीजे ॥
सांच करणी केरे सांच युखऊचरे) दम्भ अङ् कृषट्को इरिडारे ।
शील अङ् सांच संतोष इदयधरे, कामअर्कोधमदलोभमरे ॥
कृनकअङ्् काभिनी त्यागि साहं मजे, रामतेजे जनाराम गावै
कृं कवी जनपार तदी रहै, कार्की चोट फिर नाहि खत ॥
साच करनी केरे दम्भक्ू परदरे, सांच करत्रतको सत गवे ¦
सांच करनी रहै सांच अुखते कै, साच दगोहमे दाद पवि ॥
द्या अङ् शील संतोष सचि गहै, ्चुठ दर्गाहमे दाद् नाहीं ।
कृ कबीर जन्म च्चुठहै जदंङ, सांचके बीच हे आप् साईं ॥
सांच करनी बिना काज सीञ्चे नहीं, श्चूठप्रपच सो जीवं राजी ।
मानमस्तान अङ् खानहै टूनकी, कालकी चोट यों खायताजी॥
ब्द चचां नहीं ज्ञानहै पेसला, देखि शेखी करो पेर मोटा ।
कहे कबीर यों जानि जडइदोयरहो, सुमिरिसतनाममतखायखोटा॥
मिले जो साधुतहां बोलना खूबहै, होय बकवाद तहँ ज्ञान टटे ।
साधुके बोलने प्रेम सुख होत है, मूढके बोलने काल कटे ॥
रेनदिन चित्तको वृत्तिकरं घेरिये, युक्ति जाने तिको युक्त योगी ।
कहै कबीर मनपवन कू फेरिकरि, सदाआनन्द्रस नामभोगी ॥
सबकपरक्ं दूरिकारि सांचकरणीकरौ, कपटकरतूतिनरि पारपावे।
कपटकरत्ूतसो काज कोई नासर, सांचकरतूतसो काज थावे ॥
(३२ ) बोधसागरं
सांचकरतूतितदांआप हाजिर खड़ा, कपरकरत्रततहां आपनादीं ।
कह कबीर सब संतजन कहत है, वेद कितेबहू देख मादीं ॥
नामनिगैण कै रहत ई गुणमई, युखस्ं कहत नरदिखाज अव ।
कासअरूकोघचयर्मारियोधासबरू, ज्ञानअश्ष्याननरिरहनपावे ॥
जासुके ज्पडे लाय लगेसदीं, श्युषडा माहि क्या रहै माई ।
कोघसी अभि तहँ देखु प्रकट भई, करकवीर यह केसी कमाई ॥
कृडतभी खुब जो रहितं रजमारदहै, कहती खूब जो सांचबोे ।
कहत भी खुब सबत्यागि साईभजे, कहतभी खुब मनमेर खोले ॥
रहत रजमाबिना नफा नादी कङ्क, कहा आकाशका शब्दबोला ।
कहं कबीर सु शब्द् सांचाकहू, कहा जो प्याजकारोतदछोला॥
सांचके शब्दको सुनत निदाकरे, ब्ुठके शब्दय प्यार होता ।
ञठ अर सांचएकटे क्यों रहँ, जमीं आस्मान नरीं एकोना ॥
प्वृत्तिप्रपचसब जमीका खेदे, गुणातीतअवधूतका खेलनाई ¦
कहं कबीर कोह रीञ्चभावेखीञ्चिरै, कहौगा साच नरि ब्रू माई ॥
सांचके शब्दम पक्ष कोई नारहै, पक्षतो सांचका शब्द केसा ।
सांचके शब्द पाप लगे नरी, ञ्ुठके शब्दे पापवेसा॥
साधुकी चारतो सांच सबकहतहै, श्ूठतो साधुकीचारु नाहीं ।
केर कबीर यदह खेर आकाशका, साधुपद् दूरकहू निकटनारीं ॥
सांचका शब्द तो एकदी बहुत है, बारदी बार नदीं बकनाजी ॥
पाषाणके बीचमे वीरलागेनदीं, यों सूटसौ बहुत नहीं ्कनाजी ।
रेनदिन होत घनघोर वषोघणी, चीकटे घडे नहिं पुनगलागे ।
` कहे कबीर तहां कमकी जोड है, जीवजड होरहा कहां ` जागे ॥
पापाणके बीचमे तीर बेधेनही, बाहनेहार क्या दोष भाई ।
सुनती सुनत सबअवपि प्ूरीभई, इन्द्रियाद्रार मनजहरखाई ॥
क्सत्राहकी कडीसजडी जड़ी, ज्ञानगोरी तदा नादिं खगे ।
आत्मबोध ( ३३ )
कैं कबीर तहौँ कर्मकी जाड है, जीवघोर निद्रापड़ाकर्ाजागे ॥
आपनी २ बीज अकर है, केरे करतूति सो पाय तेसी।
बोई है आम तो आम्बफल खाहहै, बोई है बन्रुलतो सूख्वेसी ॥
पाषृअङ्् पुण्यं दोउषीज अक्र है, वाहिसो बीजफक हाथआवे ।
कहँ कबीर ये संतका शब्द् है, करं कृरत्रतसो नाडि जवे ॥
सदगति जीवको भटीमति ऊपजे, इदगतीजीवकी बुरी अविं |
सदगति जीव सुखसार साई भज, इर्गतिजीवमिखिजदहरखवें ॥
सदगतिजीव सतसंगजनबन्दगी; इगतिजीव विषधार पसा ।
कृं कवीर ये बीज अक्र है, बाहि है बीज फञ्खाय तेसा ॥
बुराभी आपना आपी करत है, भख भी आना अप सरे।
आपी आपको पाररे उतरे, आपही आपको बोरि मरे ॥
आपही उलञ्चिकरि बहेविषधार्मे, आपदीञ्चकङ्चिदरिनायलमे ।
कहैं कबीर ये भाव सब आपना, आपही सोयकरि आपजगे ॥
जीव अज्ञान सबंध चेते नहीं, बहै विषधारमें खाय गोता ।
घाप करनी करे नाम उरना धरे, पापके बीचसों फिर रोता ॥
यार आशनासूं प्रीतिअतिकरत है, रामके जनोकी करतहांसी ।
कृं कबीर नर उबरे कौनविधि, मारि कार गर्डार फांसी ॥
मोहके वृक्षमे जीव सब मगन दहै, देत है अंड तहँ हष मने ।
कारु अकराल तदा रेनदिनतकतहै, चलतहै चक्रतदहं सकलभने ॥
रावं अक्रंकसबएकनाके चरे, नहिपावअश्परख्ककी खबरजने ।
कृ कबीर सो$ संतजन उबर, रेन दिनि रामही नाम गवे ॥
मोहिके महि सब जीव मस्तान रै'खान अर्पानमे मगन इआ।
नारिसु पुरूषअर पुरूषसु नारिहै, अरस अर् परसमिखि नाहि आ ॥
नारिके रेनदिन ध्यान है पुरुषका, पुरुषको ध्यान है नारिकेरा ।
कह कबीर यों जीवसबडउलक्चिया, कौ क्यों इटि है भर्म फेरा ॥
बो० सा० ९।
( ३४ ) बोधसागर
नारिकी बासना पुरूषकी सारिरै, पुरूषकी बासना नारि खोवै ।
सखुरतिमनपवनकोसमिरि साईमजे, जन्मअश्ूमरनतबनािदोवे ॥
शीरुअर्खां च संतोषकी सेदजरे, क्षमा अकूदया दिरूमा्ि धारे
नारि अर् पुरूषका काम केसारहा, कै कबीर सो आप तारे ॥
जन्य अरूमरनतोभजनवि्नामिरे, कड्बां रकरिखायतोदहाथ आे।
रावअश्रङ्् सबएकं गरे चरे, विना हरिभजन सबवाद् जवे ॥
बगरी चेतरे बावरे मखा, जीवते जीव कु हाथ कीजे ।
कहं कसीर नरचेत सोवे कां, होयगा टोड् तब प्राण छीजे ॥
देह तो देख मिरु जायगी खेह्े, देहसों काज कङ्क कीजियेरे ।
रामका भजन अङ् जनोकी बन्दगी, देहधरि खादडारीजियेरे ॥
चारुती वोड्याकाज कड्कीजिये, कोडियासाथकड् नाहिजाई ।
प्राणके छटते पलक पारकी, कँ कबीर ञुदुचित्त खाई ॥
बीच्उजाङके पुरूषसक भरूलिया, सो भम॑ता भसंता कूषपाया ।
कूपके माहिती नीर तिन देखिये, तिसनीरकेडपरे लीरुकछाया ॥
पीवना दोय तो पीयले बावरे, यों विनशिहै नीर थिर रहै नाहीं ¦
हं कबीर फिर नीरनि पायो, बहुरि बे बानके वीच जाई ॥
दोयद्रियावके बीचएककाज है, तासुके बीच एक पुरूष गढ़ा
एकं द्रिआवमे सदी सो लिहे, करो कोह बन्दगी करो जाडा॥
जाडितो जन्म अनेकके जीवको, बन्दगीकरतसो$ धुक्ष प्रा ।
कँ कबीर कोह ब्रह्मद्रियावमें,रहत भवसिन्धुते सदा दूरा ॥
घडीघड़ीनरकहत पुकारिके, षटकदी पलक नरआव कीजे ।
चेतरेचेत अब अघ सोवे करी, नामभि नामभि काज कीजे॥
आगिलगायाअरूपाछिलाथिरनदी, बहुरिउपजे सोई फेरजासीं ।
दास कबीर यों कहे एुकारि करिनामभजनाम नईं कार्खासी ॥
अंधचेते नहीं अवधि सारीगह, शीसपर कालका हआ डरा ।
आत्मबोध ( ३५ )
पलटा साजका कोईनासरा, गिदसे कोट सब आहइषघेरा ॥
नहीं श्रवणसुने अक् नैनभी अरत है'चाल्ता विमं प्रत आदी)
कहँ कवीरकोहकान मानै नही, जरा जब योगनी गहा मारी ॥
चेतरेचेत अबमूढ क्यासोरहा, सडसब अवस्था जाय बीती ।
आययमराज जबचहुंदिशिषेरिदैःहोयगी तोहि बहुत फजीती ॥
देख ओसषान यह फेरिपविनरीं, सुमिरि हर्निामक्षबतज अनीती ।
कहँ कबीर संसारङक स्वार्थी, नदीं परमार्थी ड़ प्रीती ॥
चेतरेचेत अब अंध सोवे कहा, खोज ज्ञानमनजागमेरा ।
तात अ्मातसुनबन्धुथुवतीसखा, कहोकालरूकी चोटमेकौनतेरा ॥
येभिरेसब स्वार्थी नार्हिपरमार्थी, ताघ्चुके बीचते किया डरा |
सखबठ्गोकाबासहै अ्ूढविशवासहै, काटिमोहफांसीगहोनाममेरा ॥
कहँ कबीर निजनामको सुमिरिङे, बहुरि नदिहोय संसार फेर ।
संतसब कहत अध चेतेनदी, मोदके महरूम जीवं सोते ॥
देखदहीरे जन्म फिरि पावे नदी, कौँचके राचने काह खोवै |
वस्तुनि पाइरै बहृरिपकताइहै, सीखसनि खे सतसान मेरी ॥
कै कवीरजबकाटचपेरिषहै, हेय छिन एकमे खाक देरी ।
भेता भर्भ॑ताहाथदीरा चटा, सोकोडियामाहि ने काहि दीधौ ॥
देखहीरोजन्स फिरि पावे नहीं, बड़ीनिधि पायकेते कहाकीधो ।
विनशिहैं पककमें आशनाहीकष्ु, राभभजरामभञ्काज सीजे ॥
करै कबीर नरखायखोटामति, मोहके जाख्मे कहा छने ।
देखनिर्मोरुको हाथहीरोचद्यो, चेतरे अध अब कहां सोवे ॥
भजोभगवानअश्करोजनबन्दगी,कोडियाख्यालकणिकादिखोवे ।
सुखसारडदयधरोारको परहरो, सुरतिखरन्चाय जौ खक्तिपावं ॥
कहै कबीर नर चरकं अवसानको, दावको खोय करि कहां रोवे ।
खतामत खायतर चेतरे बावरे, शीस आई जरा नाम लीजे ॥
(३६) बोधसागर
सत्यकाशब्दसब संतजन करत, कारिभरमजार भजिरामजीते॥
देहतो देख मिखुजायगी खेहमे, ये मिरे सब स्वार्थीसषगी नादीं ।
कै कबीर जब कार गद् घेरि ई, तब आपने आपने पंथजादी ॥
देह तो देत है तोरिचिताघणी, सुमिरिदरिनामअबचेत अघा |
करतबहुय नयद्विनशिदैपलकमे, यादकृरिपीवयमकारिफन्दा ॥
दुःखको रूप अरूराशि आओगुन भरी, याद्करदकपुखकदाभूल्यो ।
क कबीर यादेहसोतरक करि सदा सुख सिन्धुके मारि ञ्लो॥
देह दुख शूप सुख खश मात्र नदीं, देदसुखदूपजोनाटिरमे ।
जन्म अङ् मरनकीो असतवबरहींमिटे, काल कांटासवेद्रिभागे ॥
धारि इस कामकोकरहरिबन्दगी, युवाविषधारमें जीव सारा ।
कंदे कबीर कोड कोरिमें उबरा, परसि निर्वाण पदहुआन्यारा ॥
गभ बासके बीचमे देख रक्षा करी, आबकी ब्न्दसो पिंडकीया।
अन्न पानी सब मस्म दो जातहै, प्राण सुक्ष्म तहांराखिरीया ॥
उवत दशमास तहां पोना ठे दिया, कोलकेबोरुकरिजन्मपाया ।
कै कबीर नर एूठि संसारम, बिसरि कर्तीको जहर खाया ॥
दीद बरदीद प्रतीत आवे नदीं, दूरिकी आशा विश्वास भारी ।
कथा अङ् कबित श्लोकं रसरी बड़ी, कथेबहु भां तिवब्रूडअनारी ॥
हृद्य सञ्च नदीं सन्धि बरञ्चे नदीं, निकटकीबात ठे दूर डारी ।
तत्वको छाडिनिःतत्वको सव कथे, भर्ममें पड़ सब मेष धारी ॥
जटाधारी घने यती योगी बने) पदिर थुद्रा ल्ि कानफारी ।
एकं मौनी रहै एकतचरक त्यागीरदहै, एक द्राडी रहे एकब्रह्मचारी ॥
एक नागा रहै सव लज्या तजे, एक छेद वजूदको नाथडारी ।
एक बां धिपगर्धूघह् निरत करता रहै, स्वांगकेने करे भर्मभारी ॥
एक आकाशद्रष्ठा रहे मोनी रहै, एकडद्धबाहू रहै नखधारी ।
एक भोगी रद भोग भोगत रदै,एक बजरकछोटी कसिकाम जारी॥
आत्मबोध ( ३७ )
एक पग बवाँधिके अद्ध खत रहै, एक उटेश्वरी कष्ठ कारी ।
एकगभमरते रहे पञ्चाञ्चितपतारहै, एक बेठिजरपेज आसनआरी ॥
कां लँ कटं बहु शूपकोपेखनो, आप आपनपौ सबनेपिसायी ।
एक अन्न मोजन तजे दूबरंगनरह, एकदूध भोजनकेरे दधाहारी ॥
एकं टूनदछोडिके भये अदनिया, एकं बेठिके गुफामेंखायतारी ।
एकतिलकमालादियेगोपचोखाटिये,एकशुदड् पटिरिकरिडिम्भधारी
एकं पूजिके मूर्तीगभ भारिर, एकं शंखधुनि आरतीजोति बारी ।
सेव कीन्ही सहीदेवचीन्हानदी, आत्माछोड़भये जडके पुजारी ॥
पूजिपाषान अभिमान अधारि सतचेतनस्ं बीच यारी)
योगी पण्डित बडे स्वेगीता पटे, भमकी भीति नहि ररतटारी ॥
कहै कबीर कोई सन्त जन जौहरी, मेरि यमफन्द् उठे संथारी |
इतने विरम्ब सो वस्तु न्यारी रदी ज्ञानकीौञ्चरतिसोल्योविचारी ॥
अगमकोगमकरोध्यानद्दयधरो, चटञ्युन्यकींशिखरकरजिकिरभाईं।
फपिक्रकोत्यामगिनिजनामसो कागिकरि, खषुश्ना तात त॒त् बजाई ॥
गगनअरुघरनिबिचख्यार अद्धतरचा, गेवकोकलासतथ्॒रुल्खाई।
कं कमीर अब भोग पूरन भाया, ज्ञानके मौज वैराग पाई ॥
दौडदोडरेबालकाखवरिकरदबार्मे, अलमस्तअवधूतफकीरआया)
जाके अरुतिलकगलमाल मस्तकबना, सत्तकी एकञओवाज आया
खोलिपटदेखरे जगमगीजोतिहै, नाद्अरु बिन्दुगटजीतकाया ।
कृं कबीर सर्वग अविगत मिला, भर्मको छाडिय॒रज्ञानपाया ॥
उररि यंत्र धरो शिखरआसनकरो, देखसो देव दरगाह माहीं ।
जहाँ तेल बाती बिनाअधरदीपकबखे,युक्तिकी जोतसो घटे नाहीं॥
जरौ ताल्तातीषिना रागरमतासुना, पावेबिन निरत अंकारखाहीं।
हाथबिनपांवबिनशीसमस्तकबिना, इङमहथियारबिन फोजधाई॥
जदं जतेजी नहीं गेद छजे नदीं, युद्धमंडा तह घाव नाहीं ।
( ३८ ) बोधसागर
पातबिन पेड बिन बागडम्बररहे, पालिबिनसवेदिरोरखादीं ॥
नीरबविनकसरूतरहंफूखिनिमेररदै, पोखबिनभवरशंजार खादी ।
नेवविनमदरुकेदशोखाजाबना, ङपबिन देव जहौ मौज पाईं ॥
कहै कदीर कोडनिरतिलोनिरखियो, पपिरके पथमे गयंदजाई ।
द्रसबिनदीदपरतीति आवे नही, पार की कहैं नब ज्ूड ्आाई ॥
इकार सकार अनकार रागि रहै, बेठमनतख्त जहां तत्त पाईं ।
रूपबिन रेख जहौ राग रमतास्ुना, ताटभरदगपर टेर खाई ॥
अजरअरुअमरका अगम बासाबसे, नादअरबिन्दकीखबरषाई ।
सोधि अस्थूलरहमान जबभेटिया, नामकी छपजबजायखाई ॥
जहां एदहिरी परबोकरे अभीञ्चरबोकेरे, प्रेमकी पुरीसो घटेनाई ।
आपकी तापधरि कारलागे नही, कार्कोमारि जंजाख्खाई ॥
शुन्यकी ध्वजा जहो फरकखाबोकरे, सेतदी गगन शंजारखाई ।
अगम अरु निगमका खुबछाजा बना, इपविनदेवजहौँगस पाई ॥
अखंड अपार जहाँ ताररागारहै, तारमें क मिखे सो पार होई ।
भमको छेकि परन्रह्मको मेंटिकरि, सुरतिको कोटिब्रह्मांड मोई ॥
कोरके कंगुरे ज्योति अल्मरकरे, माञ्लरी शून्ये फरकखाई ।
दासकबीर निवीनपद परसिया, मिरिगया शठ अकञ्चोर आई ॥
सत॒कबीरका सेतदी घर रद, श्वेतही शन्यमे रमे भाई ।
जरां यती ओ सतीतो निरतकरबोकेरे, प्रेमरस पीवे सोघंटे नाई॥
तार म्रदग अनदह रागा रहे, सुषुश्नासाधि संतोष पाईं।
विहगमशब्दजदौं फरक खावो केरे, शब्दकीखोजकोइसंतरखाई ॥
जहानकी टेक अस्मान लागी रहै, सदजमे भवरथजार खाई ।
उलटिकरिपवनतदौ गगनखागीररै, टूमञ्चरलार आकाशा ॥
देखिधरिध्यान जहाँ ईद गवनीकरे, अमीका कंड दिरोरखुखाई ।
शब्दका चांदना अगम लागारदै, उठे ञ्लनकार ब्रह्माण्डमाई ॥
आत्मबोध ॑ ( ३९ )
दासकबीर रौटीनं ठंका चदे, परुककी द्रसमें अलक पाईं ॥
श्ून्यकी शिखरषर जिकर देसी, घटा धघौर् संजोर बाजे ।
शब्दकी आवाज जहांगाजबानीकरैः भवर यजारनिशिदिनगाजे ॥
हीरा अर खारू अबेध मोती षड, श्वैतदी श्चन्यजहौं सन्तनङ्चे ।
कहं कबीर ये पन्थ अगमकाः सोहगभं सुरति सतलोक सञ्च ॥
वाहवाहसिदकेजाऊ$्नखरिदकेकदमोपर, एकहीस्वाछभनिहाठमन किया है।
पीरमेराखासामे अुरीदहताका, करिकिमिहरदस्तपजाशिरदिंया ३॥
ज्ञानकेकमानवानमारतहैतानि रसो$जनजानेजाकीदुरतिकरिवारवारह ओहै
अकिककीगिलोढकरिनिजमनठहरायदेख, वेतोरहमानथारवाहैनजियाहै !
साईसर्वज्ञहराओर वेकेववेदेवःकैकबीर वेतोसाहिबमहवबबमिया है
बदन बिकशत खुशालआनंदर्मे, अधरम मधुरघुस्कात बानी ।
सतडोलेनहीं श्चबोलेनही, सरति ओ खमतिसोसत्यज्ञानी ॥
कहतदहूं मेँ ज्ञान उपदेश सबन, देत उपदेश दिर्ददं जानी ।
ज्ञानकेषूर है रहनिके सुर है, दयाकी भक्तिदिख्बाहिं उनी ॥
ओर सो तोडिङेएकसोरत रहै, एेसे जन जगतस बिरखाभ्रानी ।
ठग्वंटषार संसार भरपर है, सत हसकी चारु कहाकागजानी ॥
चञ्चल चपर चित्त रङ् ह चीकने, बात दरस दिखकपटजानी।
पेट कतरनी दया जिनके नही, कहतमे खध मन बगध्यानी ॥
जीवकी दुर्मती भम टे नहीं, जन्म जन्मात्र पड़े नकंखानी ।
कोवा कुड्ुधि सुब्वधि पावे नहीं, कठिन कंटोरविकरार्बानी ॥
अभथिके ए है शील शीतल नदीं, विष अग्रत लिये एकसानी ।
कहा भयोसाखीकटो ष्ठि उभरी नही, सत्तकी चालबिदधूरधानी ॥
सत सुङृतकी साची रहनी सही, कागब्ुग अधमकीकोनवानी ।
कै कवीरकोहबिरखजनसुषड़रै, सदाशब्दध्यानसुनेनिशानी ॥
छाडिधोखादियाआपनिश्वयकिया,आदिअस्अतसाहबएकजानी ।
( ४० ) बोधसागर
सुरतिके थाकते निरतमी थाकिया, निरतके थाकंते शेषकपा ॥
शेषके कंपते धरनिभी घसमसी, धरनिके धसमसे मेरुडोखा ।
सेरुके डोरुता शब्दसायर मिला, उद्धम शब्द् घनघोर गाजा ॥
बखत बखतीभिली कमयारी जरी, बां धिपाताक आकाशफेरा ।
सत कबीर तरां ब्रह्म चोरी रचा, सत साहब तहां छया फेरा ॥
अधर दरियाव दरगाहकुछ अजबहै, निम खी ज्योतिजदांखूबसाई।
ञ्योतिके ओट यम चोट लागे नहीं, तत ञकार ब्रह्माण्डमादीं॥
ज्ञानका बाग ज्हागेवका चांदना, वेद् कितेबकौ गम्म नाहीं ।
खुल गयेचश्मजवदश्मसब पशमहै, दीन अरुदुनीका कामनादीं ॥
कह कबीर यह भेद ॒बिरलारहै, इ्जलमलेज्योतिजदाङ्गलेञ्खाईं ।
इति आत्मबोध रेखता प्रथम भाग समाप्त
जेनधमवोधप्रारंभः
स्वामी श्रीयगटानन्दद्वारा संशोधित
खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई प्रकाशन
ध = श, १९.११. , वाह 7 काक पीकर = क, र शः
सत्यनाम
श्री कबीर साहिब
त्यप्कत, आदिअदटी, अजर अचिन्त पुद्धष
युनीँद्र, कस्णामय, कबीर रति योग संताथन
धनी धर्मदाप्त चररामणिनाम, यदशनं नाप, क
टपति नाम, प्रमोध यस्वाछापीर केव नामं
अमोल नाम, युरतिषनेही नाम, दक्ष नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम उम
नाम, दयानामकी दया ंश्च-
ग्याटीसकी दया । _
अथ आबोधसागरे
अष्टा विंशतिस्तरंगः ।
अथ जेनधमबोधप्रारम्म ।
}.4 ।
दोहा-तीर्थकर जह देवकह, गुरजतिहै जो जेन ।
जनेश्वर युख भाख जो, अन्थ है केवर वैन ॥
उत्पत्ति कथावणन
भागकःट षट् जेन मत्, तामं 2 विधि कीन ।
तीनकाल ओ सपिणी, उपसपिणी है तीन ॥
( ४६) बोधसागर
आदि काल तिहु पथमके, तामे उत्पति होय ।
नामजगलिया नारि नर, प्रकटहोय द्वे दोय ॥
जगत अनादि निधन करै, तास न कबहू नाश ।
बीजते रचना सकर दो, यह जगत स्वयमप्रकाश ॥
याको कतौनाईि कोई, यह जग आपे आप ।
कम प्रेरि करवाव सब, कमंहि रचना थाप ॥
ईश बसे वेकुढमें, अलग कमते सोय ।
निविंकार निटेषप सो, नाम निरञ्जन होय ॥
चोपाई
सो प्रथु करे करावे नाहीं । जिवस्वच्छन्दनिजवशमें आदी ॥
जीव जन्तु जग नाना जाती । जेते जड चेतन ते षांती॥
कमं जनित फर भोगे सारे आतम सबके न्यारे न्यारे ॥
जख कछ कमे केरे जो कोई । उभर इुद्रता के वश होई ॥
विश्वमा जड चेतन केते। जेते जीव आतमा तेते॥
निविंकार जो ईश्वर रोई । जग विकार ताते नि कोई ॥
सो नहि कर्मके बधन पडता । राग देष ता इदय न बतां ॥
नहिं उपजाव न पारे कोई । नरि संहार सष्ठि कर सोई ॥
सकर विकारते सो प्रथु न्यारा । जीव कमे निज भोग निहारा ॥
यहि षरकाठमेदख सुखडाटा । तीनमे बृद्धि तीनमे घाटा ॥
तीन कार सुख स्वगे समाना । उगे धरनि कल्पद्रुम नाना ॥
पाप रहित माष तब सारे । नर सुर दूनों संग विहारे ॥
द्रे द्रै प्रकर होय तब सोई । नाम जगखिया तिनको दोहं ॥
आयू परम दीर्घं रइ जाको । सब सुख छाय रहा महिताको ॥
कुर्म कृपा कु सो नरि जाना । राव रकं सब एक समाना ॥
सदा कार यक सम उजियारा । कंटपद्ुमकी उयोति अपारा ॥
जैनधर्मबोध ( ४७)
दिनि ओ राति कोह जाने । रविं शशि उड़गण सकट दुरानं॥
चन्द् सूर नूर भ्रचण्डा | पारिजात आमा नौ खंडा॥
द्रद्र पर॒ सुरत वर छागे । सकल नारि नर सुखम षागे ॥
पुरवी बोल-छन्द बरं
दमक देव दम॒ बमके महि शशि सुर ।
गममि रदृ चहं ओरवा चमक चूर ॥
पूरन धरनि अकसषवा जोति अवार ।
यकं समान दिन रतिया बर्हि अधियार ॥
छपे सुरतस्की जोतिया छगनमे मन्द् ।
एक न दीख नखतिया नहिं रवि चन्द् ॥
नर तिय सकल जगछिया सब निस पाष |
पुण्य पाप कद नाहीं कम नं थाष्॥
तब नहि बोध बिचरवा नहिं शर शिष्य ।
कतह न वरणाश्रम वासव सम दिष्य ॥
कहूं उम्र न सदवां रंक न रवि)
नर सुर विचर धरनिया कड न बराव ॥
हिर भि दोउ दर रहते जव सग भाय ।
भोग भूरि कल्पद्रम काम पुराय ॥
महि सुख छाय स्वरगवा छबि सरसाय ।
हीरा खार कि स्वनियां कविको गाय ॥
नदिं कंद वेदन बानी नहि ति छद् ।
घम न कषु श सहजानन्द् ॥
इ
अथ चोथा कालवणंन
सोरग-लछागत चौथा काठ, सुरतरु जबही खोप हो ।
नर गह न्यारी चाल, कृत्त चली तकाल तिदहि॥
न.९ कबीर सागर - ३
( ४८ ) बोधसागर
चोपाई
चौथा कारु खगे जब आई 1 तत्रसे राति यौस बिलगाई ॥
कटपवृक्ष तब जादि डुषाई । चन्द् सूर तारे द्रशाई ॥
` जिरि ओसर निशदिन बिलगाना। सिन्नभाव तब जगको जाना ॥
तब मानुष उपरको देखे । चकित होय सब्र कै विशेषे ॥
यद् क्या हमरी नजरमे आयो । जो दम काहू देखि न पायो ॥
तब कुलकर ब्योरा कदि देही । चन्द् सुर तारे है येही ॥
कुखुकर सोई नाम धरा । जो मावुष करको बिटगावै ॥
जाति वर्णं कर न्यारा करही । तिहि अलसार धर्मं आचरदही॥
राजनीति सब भाषे ओई। खेती कमे सिख सोई ॥
जब मानुष सुरतरु नरि राखे । कुरुकर तबहि कृसानी भाषै ॥
तबते कृतकं रही सब लोग । अन्न उपायके भोजन भोग ॥
जबर देव द्रम गयो दुराई । ईख उगी मानुषं सुखदाई ॥
भांति भांतिके ऊख गत्रा । जिवको दख द्रिद सबभन्ना ॥
कटपवृक्षके बदरे इईखा प्रथमदहि जाको माष चीखा ॥
ताकी खेती प्रथमहि चाला । कुलकरकी आज्ञा सबपाली ॥
कुलकर अनुभव ज्ञान गदाईं । सब जीवनको राह बताई ॥
करुकर आदि भूप ॒इृक्ष्वाका । प्रथम चली जग जाकीशाका॥
इक्ष्वाक कुटकर कलाय । प्रथम जो नरको इख साये ॥
अर्थं सहित यह नाम कहाया ।इक्ष्वाक् जिन ईख साया ॥
तिहि अवसर गुणदोष विभागा । पुण्यपापं माषको लागा ॥
कम दोष गुण तबते पागे। प्रकट करे कुरु करके आगे ॥
कंठ ओगशुन जब नरमें पावे । निटि खकर धिक व चन सुनाे॥
सौ धिक वचन सुने नर नारी । निज्मनमे अति दोहि दुखारी॥
यतने अस लना माना। तजे तुरंत आपनो प्राना ॥
जेनधमबोध ( ४९ )
अस कहि नर छोड निजचोखा । आज इमे कलकर धिकबोला ॥
कट्कु दिस बीते मनुष टिगई । धिकं बोटीसे सो मरू जाई ॥
जब पिकं वचनसे राह न धरही । बहुरिधि काधिकडकलकर करी ॥
यतनेह् पर जब शर्म न माने । अधिक ठंड तब कुलकर ठाने ॥
केमही क्रम आओगुन अधिकाहं । बेडी बांसके दे ठदराई ॥
शटी फासो दण्ड प्रचंडा। ल्गा होन पृथ्वी नौ खंडा॥
इति
अथ वणं विभाग वगणंन-चौवाई
चौथा काल आनि जब छामा । तबते ादुष जाति विभागा ॥
तीन वणं प्रथमहि तब कने । छी वेश्य ॒च्यद्र कहि दीने ॥
दोय प्रकार शूद्र पुनि कीना । एक लीन भौ दुतिय मलीना #
तबते जाति बरन उहराईं। कुखकर भिन्न २ बिरूगाई ॥
दोय प्रकारके रोग काये । यक नर यक विद्याधर गाये ॥
मानुष भू गोचरी बखानो । विद्याधर खगोचरी मानो ॥
भ्रगोचरी भूमि पग डाङे। उडि अकाश विद्याधर चाङे ॥
जाति वर्णं दोनोमे कीना । नर विद्याधर धमं धुरीना ॥
नर॒ विद्याधर जैनी सारे। तिरथंकर सेवा चित थारे ॥
पचम कार लागे जब आईं । तब मिथ्या फेर अधिकां ॥
जवते मिथ्या मत सरसाने । तबते विद्याधर वबिर्गाने ॥
चौथे कार माहं परिपाका । प्रकटे तिरसठ पुरूष शलाका ॥
एकं सो उनहत्तर जिव सारा । चौथे कार माहं ओतारा ॥
भुक्तिपाज् किये नर॒ जोई । चौथे कार प्रकटे सब सोहं ॥
प्रकरे तबहि तिरर्थकर देवा । सुर नर सुनि कर जाकीं सेवा ॥
सुर सुरपति प्रथ्वीपर अवे । तिरथंकरको अस्तुति गावे ॥
योऽ्सा० ९
( ५० ) बोधसागर
अषमनाथ हे आदि तिर्थकर । तिनके पुमे भरथ भूषवर ॥
चक्रवति थे भरथ यथुवाखा । चौथा वणं कीन तिरि काला ॥
खब माञषकी पारख लीन्हें । दायावेत अधिक निहि चीन्दे ॥
ब्रह्म चीन्दि जिन दाया धारा । तिनको भित्र कियो तिहि बारा॥
बरह्मन तिनको नाम पुकारी । जिनके इदये दाया भारी ॥
चौथा वणं मरथ नृप थापा । तबते चार बरणकी छपा ॥
ऋहषभनाथकी केवर बानी । तिहि ओसर असक बखानी ॥
भरथ विप्र थापे दै जाको । चले जगतमें तिनकी साको ॥
पञ्चम काल जादि दिनि रेह । बहमन जेन विरोधी वहै ॥
जेन विश्द्ध कम सब करिह । दोह षदा जैनीसे धरि ॥
कद्ुदिन यदिविषधि गयोसिराई । मन मत ब्रह्म न वेद बनाई ॥
जेन विरूढ कमे सब ठाना । रिसा कमं करि विय नाना ॥
अश्वमेध गोमेष रचाईं । अजामे नरमेध बनाई ॥
ब्राह्मणजातिकी अधिकं प्रशंसा । लिख्यो ताहि जह्याको वेसा ॥
अपने मन सब ` शाञ्च बनाये । सबते आपको श्रेष्ठ बताये ॥
करि प्रपच सबं थाप अचारा । जैन विशद पाखंड पसारा ॥
चौथा काल बहुरि जब रहै । फेर न ब्राह्मण वणे षह ॥
बहुरि प्रतिष्ठा देय न ओरी । थे न जैन ध्मैको दरोरी ॥
जाति वणेकी बात बखानी । अब पुर्षनकी कटो कानी ॥
छद त्रिभगी
चौविस तीथकर जेनी शंकर बस कम कंकर धूर कियो ।
गुण ज्ञान गतं शुक्ति लदेतं अरि हतं अतिचूर कियो ॥
दाया उपदेशं रदित केशं मोह न ठेशं ध्मघनी ।
कुल पद् बत्तीशं बानी दीशं जेन सुनीशं भम भनी ॥
जनधर्मनोध (५१)
अथ चोबीस तीथकरके नाम व्गन
दोदा-ऋषम नाथ प्रथमे को, अजित नाथ कह फेर ।
शंभो अभिनंदन कहो, अमतिनाथजी टेर ॥
पद्म प्रभ क्षुषारसो; चद प्रभ बखान।
पुष्पदेत शीतल श्रेयसः, बासपुञ्च युनि जान ॥
बिमर अनन्तो धमनाथः शातिङ्खन्थ नाथोय )
अनाथ अङ् मल्लजीं, भ्रुनि सुद्रत्त कह जोय ॥
निमनाथो नेमनाथ कह; पारसनाथ कोय !
महावीर नाथो कदो, अन्त तिर्थकर सोय ॥
इति
अथ बारह चक्रव तिर्थोक्ते नासं
दोहा-भरथ सगर मघवा को, सनतङ्मार गनाय ।
सांतिनग्धक्थनाथजी, अहनाथ कंहवाय ॥
पुनि सुभूमि पद्मो विजय, दरिखेनो ब्रह्मदत्त |
सारी पृथ्वी बश करे, कर निज चक्र गहत्त ॥
अथ नो बलिभद्रकं नाम
दोहा-विजय अचटख्जी धर्मधर, बहुरि सुप्रथुजी दो ।
फेर ॒सुद॑शन जानिये अङू सुनन्द् कहै जोई ॥
नन्दमिन्न पुनि रेखिये, रामचद पुनि जान ।
पद्म फेर कहि मानिये, नौ बिभेद प्रमान ॥
अथ नौ नारायणके नाम
दोदा-प्रथम दुपिष्ठ तृपिष्टजी, बहुरि स्वथभ् गाय ।
पुरषोत्तम नरसिहजी, पुण्डरीक बतलाय ॥
केवल दत्त बखानिये, फेर रक्ष्मण मान ।
कृष्णवन्द्र नीम कहो, यदुङ्कल दीपक जान ॥
( ५२ ) बोधसागर
अथ नो घततिनारायणके नाम
दोहा-अश्वग्रीव तारकं मेरक, मधु निङ्ुम्भ प्रहराद् ।
बलि रावण जरासंध नव, प्रतिनारायण बाद् ॥
इति
अय तिरसठ शकाक।पुरुषक न(म-चौपाई
तिरसः पुरूष शलाका येरी । जन जान अति उत्तम तेही ॥
मात पिता तिरथकर करो । अरतालीस जीव सोदहेरो ॥
चोबिस कामदेव नौ नारद् । चौदह कुककर बुद्धिविशारद् ॥
ग्यारह रद्र यक सो उनदत्तर । सुक्तिषाज अवश्य येते नर ॥
इतने इतर ओर अधिकाईं । केवल ज्ञान गदि शुक्त कहाई ॥
अथ जनशस्त्र सख्य। पमाण-चोपारई
जेन शाल संख्या परमाना । एेसे ताको सुनो बखाना ॥
बत्तिस षद् सब शाश्च कदावै । एेसे ताको रेख लग ॥
प्रतिपद ठाई सौ मन स्याही । यकं षद् पूरन छिखिये तादी ॥
यकं चावर कजर जो लीजे । यकश्रोकं पूरण तिरि कीजे ॥
बत्तिस् पद यह रेख लगाई । स्वै शाञ्च ताते छिखि पाई ॥
कजल आठ सदस मन लागे । केवर बेन जेनपति जागे ॥
केवल वानी जेनको जोई । अंथ प्रमाणिक इनमे सोई ॥
अय अष्टकम विधान वणन
दोहा-अष्टकमं जो जेन कड, ताके बेधन जीव ।
भवसागर भोगे सदा, पावे निं निज पीव ॥
ज्ञानी बरनी प्रथम कह, दशना बरनी फेर ।
बहुरि बेदनी जानिये, महा मोह पनि टेर ॥
जनधमंबोध (५३)
आयु कमे बहुरि कहो, नाम कमं पुनि भाषि ।
गोत कम अतराय कर्म, बरनौ तिनकी शाख ॥
कम एकी जानिये, आभाति सो दीस।
प्रकृत जन बानी कै, एक सो अरतादीस ॥
इति
अथ ज्ञानावनां कमकी पंच प्रङ्कति वर्णन~-यौवाई
मति ज्ञानावनीं जो कमा) सो आरि राख्यो मतिधर्बा॥
श्रुति ज्ञानी वरनी जब होई । ज्चुभञथति ज्ञान करे नहिं कोई॥
ओध ज्ञान आवर्नीं जबही । ओध ज्ञान हिय होय न तबही॥
मन पजय अबरन उगि अवे । सो मन पजय ज्ञान छवातै ॥
प्रकटे केवल ज्ञाना बरनी । केवर ज्ञान गोष तिह करनी ॥ `
मतिश्ुति ओधञअरूमनपरजाई । केवर ज्ञान पेच विधि गाई ॥
मति ज्ञान सो नाम बताई । मति बुधिते जेती चतुराई ॥
कारीगरी अर् गुन गन जेते । मति ज्ञान करि रहिये तेते ॥
द्वितिये ति ज्ञानजिहि कईं । सर्वं शाश्च थुख पाठ जो २रडई॥
तीन काल देखे अति द्वारा । जाने सकल अचार विचारा॥
ति केवल ज्ञानी कह सोई । प्रन जो अति ज्ञान ते शेई ॥
शुतिके बली जो पंडित प्रा । थति द्वारे संशय कर दरा ॥
त॒तिये ओध ज्ञान जब होई । मनकी बात जाने सब सोई ॥
जाके मनमें जो कष भासा । सब ओौधते. होय प्रकाशा ॥
चौथे कंड मन प्रजय ज्ञाना । जो मनकी परजायको जाना॥
जहं जहं मन छन २ करदौरा । जो क्कु फुरे जाय जिहि गैरा॥
मन प्रजय सो सबही जानो । सृष्ष्म गति मन कल्क नदुरानो॥
पचम केवर ज्ञान काव । ताकी उद्य सक्ति जिव पावै ॥
केवर ज्ञान जो डदय प्रकाशा । सकल ममे भयकेर विनाशा ॥
( ८४ ) बोधसागर
केवर ज्ञानी साधू जोई । प्त बस्तु तिनप नदि कोई ॥
चच पौरि जो ज्ञानको किया । ताको एसो रेखा ठहिया ॥
मति ज्ञान जिहि पूरन होई । तिज्ञान अधिकारी सोहं ॥
श्रुति ज्ञानते ओध गहावे । ओधते मन पजय उगिश्रावे ॥
मन परजयते केवर ज्ञाना ।मतिश्तिओघनजोप्रथमबखाना।
तीन पौरिरो अम नरहिट्टे चौथ पौरिते पचम जरे ॥
तीन ज्ञान लो दो अङ् जाई । मन पजय निं फिर बिनशाई॥
मन परजय अर् केवर ज्ञाना । होके बहुरि न कबहुँ हुषाना ॥
यामे विधि . बहुत बखाना । पौरिको नरि कु बेधाना ॥
अकस्मात कबहु अस होई । बिना ओध केवल रह रोई ॥
बिन मन पर जयकेवल ज्ञाना । निर्णय जेन धर्मपर माना ॥
ज्ञानाव्णं॑ते ज्ञान न रोई) अवरन भजि राभदहो सों ॥
ज्ञानाबरनी पच॒ बताओ । बहुरि दशना वरनी गावो ॥
इति
अथ दशना बरनी कमक्ोना षक्ति वणन--चोपाई
द्वितिय दर्शना बरनी पहारा । जाके ओर अलख कर तारा ॥
चक्षु॒द्रशना बरनी जो बध । जोजिव केरे दोयसो अंधा ॥
अक्षर दर्शना बरनी जादी । शब्द् प्रसरस ब्योरा नाहीं ॥
ओघ दर्शना बरनी उदोता । विमल ओध दर्शन नहि होता॥
केवल दर्शना बरनी जाहा । केवल दशन दोय न ताहा ॥
ध्यान अरूञ्चि निप्रामें परईं । सो प्रानी विशेष बरु करई ॥
उठि उठि चङे करे कदु बाता । करे प्रचंड कम उतपाता ॥
निद्रा निद्रा उदय पुकारी । सके नसो जिव षरुकडघारी॥
प्रचला प्रचला जवो गई । चंचर अंग. लार सुख बह ॥
निद्रा उदय जीव दुःख भरता । उ2े चे बैठे गिर परता ॥
जनधमंनोध ( ५५ }
रहै ओंँखि प्रचलते बंधी । आधी बद खटी रह आधी ॥
सोवत माह सुरति कडु रहं । बार बार खघ निद्रा गई ॥
इति
अथ वेदिनी कमं देविधिव्णन-चोपादुं
कर्मं ॒वेदिनी द्रे विधि हूवा | साता एक असाता दवा ॥
साता कम उदय जब होई । जीव विषय सुखवेदक होई ॥
करम असाता उदय जो हो । जिव बेदे इख शखेदत डो ॥
इति
अथ मोहनी कसं द्विविध बणन--चौपाडं
दो विधि मोहनी कमं बखानी । यक दर्शन यकं चारितं हानी ॥
दर्शन मोह दुविध उच्चार । चारित मोह पचीख पकारा ॥
प्रथम मोह मिथ्या ती होई । जिव जब ओर किं ओग गहर
दृजे मोह भिश्रकी चाला । सत्त असत्त गहै समकाल ॥
ततिय मोह समकित कदी दीनी । जिन मीन सम किंतकह कीनी ॥
दर्शन मोह विध यद भाषा । सन पचीस अबचारितशाखा ॥
प्रथमे सोलह कहो कषाई । फिर नौबिधिको रेखलर्खाई ॥
प्रथम कषाय कोध कहि दीजे । जाकी उदय क्षमा अन छीजे ॥
द्वितिय कषाय मान प्रचण्डा । बिनय विनाश करे सतखण्डा ॥
द्वितिय कषाय है माया शूपी । जाकी उदय सरल्ता शूषी ॥
चौथे लोभ कषाय प्रकाशा । जास उदय संतोष बिनाशा ॥
येही चार कषाय कीजे । अनुक्रम सक्षम थरु गहीजे ॥
सो चारो चौगुना करीजे। ताते सोलह भेद भनीजे ॥
अनन्ता अनवांधिया कषाई । ताञ्च उदे नरि समकित थाई ॥
जाको किये प्रत्याख्यानी । तहां सवे सयमकी हानी ॥
उदय अप्रत्याख्यानी दोह । सो पञ्चम शन थान कखोई ॥
जोत ज्वलन नाम कदटवे । यथा ख्यात चारित विनशावे॥
( ५६ ) बोधसागर
क्रोष सान साया अङ् लोभा । चारो चार चार विधि शोभा ॥
यड् कषाय षोडश विधि बाना । नोकषाय अब निज चितधरना ॥
रागं द्वेषकैे हासी होई । हास्य कषाय कदा सोई ॥
मगन रोय जबजिव सुखमादी । रति कषाय रस बरनौ तादी ॥
कृ न सोहाय जीवको जहवां । अरति कषाय बोखिये तदवा ॥
थर हर जहौ जीव कंपाईं। मय कषाय सो नाम धरां ॥
र्दन विराप वियोग दुखारी । जहां होय सो सोग विचारी ॥
जदं गलानि उपज मनमादी । सो दुगघा रोग कंदादी॥
बिविषि वेदं स्थित्ति वर्णो सोहं । नर अङ् नारि नषुसक जोई ॥
प्रथन सोई करिये वर्णन । जीव पुरूष बेदीको लक्षन ॥
यथा अभि तण मूटखा केरी । शिखा उतंग तास्ुकी हेरी ॥
अल्पका अति आतप ताईं । अल्पे कारु माह ` बिनसाई ॥
पुरूष वेद धारी जिव एेसे। धमः कम्मे रह नित जेसे ॥
महा मगन तप सयम माहीं । तन तावे तनको दुःख नादी ॥
चित ओदार उद्धत परमाना । पुरूष वेद् धर आतमरामा ॥
बनिता वेदी बहुरि कीजे । जिमि कोइलाकी अभि गरीजे॥
जिमि कोहलाकी अथ्चिदोतीखी । परकट धुवां न तामे दीखी ॥
सिलिगिसिलिगि उरअतरदादा । रहै निरन्तर अति अवगाहा ॥
तिमि बनिता वदी नर दोईं। मीठी बोर बोलता सोई ॥
बाहर ताकी मधुरी बानी । भीतर कषर छिद्रछरु सानी ॥
कृपररपट करिके अधिकारी । निजगलकगतिको बधन डारी॥
पापकम ओरनको सिखई । सबको अंध करे सो विषह ॥
आपा इनि ओरनको इनता । निज ङम बरहुतनते भणता ॥
बमिमा वेदी रेसो शनिये। तृतिय नपुसकं वेदी सुनिये ॥
नगनदाह सम प्रकट न दीसा । युत्त पजावा अभि सरीसा ॥
जनधमंबोधघ ( ५७)
जैसे हो करसीकी आगी। रहै सदा उर अंतर खागी॥
महाकटुषता नित उर जही । वेद नपुसकं धर नर येही ॥
नर अङ् नारि नपुंसक माही । भविधि मदनमद जेन काही ॥
प्रथम तीन मिथ्यात बखाना । बहुरि पचीस कषाय विधाना ॥
दोनों मिलि अटरगहसर होई । मोह प्रकृत जानिये सो ॥
इति
अय आयुकमं चःरप्रकार वणंन-चौवयाई
आगू कर्महै चार प्रकारा । नरष देव नारकी धारा ॥
उदय मनुष आयू नरभोगा । पञ्चुआथूते पञ्च संयोगा ॥
सुरआय सुरपदको जाता । नारक आय नरकं निषाता ॥
इति
अथ नामकमकी तिदानव भ्रक्ृतनणंन- चोपाई
छटये नाम कमं कदरे । जीवको भ्रतवेत दनव ॥
नाम कमे यह चतुर वचितेरा । मूरतखंच रच नहिं फेरा॥
पिडप्रकृत चौदह परतारा । अटठाईस अपिंड विस्तारा ॥
पिडभेद पुनि चौसठ भाषा । अह्ाईस अपिंड मिलिसाखा ॥
ते दनो तिरानबे होई। पिंड अषिड बयालिक्ष जोई ॥
सो तिरानबे करो बखाना । श्रवण खायके सुनो सयाना ॥
प्रथमहि पिण्डयप्रकृेत गतिनाना । सुरनर पञ्च॒ नारकदुखधाना ॥
देवदेह सुरगति उद्यता । नरशरीर नरगतिसं होता ॥
पश्चुगतिसे जिव पश्ुतन पाव । नरकं गती रे नरक बसावे ॥
चहगति प्रमी चारो गनिये ! द्वितिये पिडप्रकृतअब सुनिये ॥
मरनसमय तनतज जिवजबही । परभवगौन तौनकर तबही ॥
पूर्वप्रकृत ल्यावै ` तिहि परी । भावी गतिम ल्यावै घेरी॥
केरे पुरबी आनि सहाई । धरि नवीनतन जिव प्रकटाई ॥
( ५८ ) बोधसागर
तरतीये प्रकृत इद्री अधिकारा । यकद्रेञेचौ पच धकारा ॥
परस जोव नासा दग काना । यथायोग जिव नाम बखाना ॥
सुक्ष्म इद्री धरे जो कोहं । खुखनासा दग कानन होई ॥
सो केटी थावर काया । भ्र जरु अभि बनपती बाया ॥
जाको तन रखनायुत ॒बादी । जखचर शंख जौक गेडवादी ॥
से जत अनत जो दीसा।ते दै इद्ी कह जैनीशा ॥
जाके तन सुख नाक दनृरा । घुन पमी अर् कान खनूरा ॥
ये सब जिव ञे इद्री माषो । आंखिकानयुत रसनिनचाखो॥
जाके तन सुख नासा आंखी । बीषशरूभ टीडी अलिमाखी ॥
यहि प्रकारके जिव जोनाना।सो चौ इदढी जैन बखाना ॥
त्वच रसना नासा दग काना । ज्योके त्यौ प्चद्विय जाना ॥
नर॒ नारको देव पञश्चुचारी।ये पेचद्री करो बिचारी ॥
सोथी प्रकृत शरीर उचारी । ओदारिकं बसकिय वघुधारी ॥
ओदारिक जो उद्रसे होई । नर पु योनि जानिये सोई ॥
देव नारकी भय किय देदी। गर्भवास करते नहि येही ॥
सुर नारक वय किय वपु धरते । देव देह अनि तपबरु करते ॥
जस प्राकृत तेसो तन गहे । चौथी पिंड प्रकृत यह कहे ॥
तनबधन. संघातन दोह । प्रकृत पंचमी छट्ठी होई ॥
बधन उदय काय बधाना । संघातनते दट संधान ॥
दोहुकी द्रे साखा दे खा । यथायोग काया सनबधा ॥
अब सातमी प्रकृतको किये । स्गोषांग तीन मन लिये ॥
कटो आमी प्रकृत विचारा । षटविधि हष शरीराकारा ॥
जो सर्वाग चारु परधाना। सो तनसम चतुरंश ब्खाना ॥
ऊपर शूर अधोगति ठामा । सोनिगोद् पर मंड नामा ॥
हेठ शूल उपर कृश होई । शांतिकं नाम धरावै सोई ॥
जनघमंबोध (५९ )
कूबर सहित वक्र वषु जाको । कुबजाकार नाम है ताको ॥
लघुस्वूपं लघुजाहि निहारो । ताञ्च नास बावन वषु धारो ॥
जो सरवग असुंद्र युण्डा । ताको नाम कवे इण्डा ॥
अघम प्रक्रत भेद षट माघा ।अबनं।मे कह अस्थिकि साखा॥
प्रथम बवखान अस्थि आरंभा । सो षट विधिसे तनको थंभा॥
वज्र कील कीलित संधाना । उपर वन्न पट मंडाना॥
अन्तर हाड वज्मयं रचा । सो कह वज षम् नाराचा ॥
दुतियो हाडजह वच्च सो होई । व्र मेखते अविचल सोई ॥
उपर वेठन हप समाना । ताहि वञ्च नागच बखाना ॥
ततिये हाड जहवच्र सो देखो । रहित वज्ञ पट ऊषर ठेखो ॥
नहीं व्रकी लीजौ होई। नाम नराच कहै सोई ॥
चोथे हाड जो वजर सो नाहीं । अधबेध कौली न तेहि मादीं॥
उपर बेन वत्र न जादी । अधन रावं बोलि्यि ताही॥
पच महाडन वज्रसो जिनको । नहिं परबधन कौली तिनको ॥
कीलित तब दद् बधन धारे । नाम कीटका ताञ्च उतारे ॥
खटी अस्ति अब वर्णन करी । जो यहि कार जीव सब धरड।।
जहां हाडते हाड न बेधा । अमिट परस्पर संधिन संधा ॥
उप्र ना जाल अङ् चामा । ताको किये छेवटर नामा ॥
दशमी प्रकृत गमन आकाशा । ञ्जुभ अञ्युभ दो मेद प्रकाशा ॥
शुभ उग जीवकम श्म करई । अञ्जभके उगे कुमारग धरं ॥
जेसी प्रकृत उदय जिहि होई । तेसा कर्म करे जिव सोई ॥
कां ग्यारही प्रकत विचारा । ताको मेद पच परकारा ॥
श्वेत अर् दुति पीत कीजे । इरित श्याम पांचोगति ीजे॥
जिहि जो संगप्रकृत उगि अवे । ताको तेसा बरण बनावे ॥
प्रकृत बारहीको रसनामा । पच मकार देखिये तामा ॥
( ६० ) बोधसागर
कटम सश्रुर अर् तिक्त बखाना । अमल कषाय पेच परमाना ॥
रसके उदय रसीटी काया । निजनिज्परकृति जीव सबपाया॥
जो प्रकृत जाको उगि अवे। तिमिसो देह रसीटी पातै ॥
तेरदी प्रकृत ॒गंघमय जाना । दुविधि कुगंघ सुगंध बखाना ॥
जो निव जेसी प्रकृत बधा । ताके तनमे तसो गंधा॥
प्रसनाम चोदरी बनीजे । आठ शाख तिहि माहँ गनीजे॥
चिकनी रूप कोमल कठिनाई । लघुभारी तष शीतलताई ॥
ओ चिकनी प्रकृत सुभाया । तब जीव गहै चीकनी काया॥
रूषी प्रकृति उदयो जिनकी । हषी काया देखो तिनकी ॥
कृठिनउदयतिन कठिनविहारो । शरद उदय सदु अग निहारो॥
तप्र उदय दो तप तन येदी । शीतल उदय शीत सो देही ॥
भारी नाम जो प्रकृत उद्यता । सो जिव भारी तनधरि होता ॥
कृघुप्रकृतिजिटिजिवकह परई । रई काया सोः तब धरई ॥
चोदह पिण्ड प्रकृति यद भाषा । कदो बहुरि तिदिषे सड शाखा॥
अब अर्पिडको वर्णन कीजे । अद्ाइस शाखा गनि लीजे ॥
प्रकृतअगुर रघु जब उगि आवे । जीव अशुर लघु तन तब पावे ॥
जबअपु घावउदय निजअंगा । आपु दइखी नर तासु प्रसगा ॥
जब प्रघात प्रकृत परकाशा । तब जिव ओर कोप्राणविनाशा॥
जब उश्वासा प्रकत निवासा । तब जिव रेत श्वास उश्वासा॥
आतप उदय यथा इन भानू । उदितउदय तब शशीसमजाच्॥
तिस प्रकृत जब प्रकर निहारी । जगम तनधरि जीवविहारी ॥
थावर प्रकृति प्रकाश जो दोईं । थिर तनधरि जिव चेनकोई ॥
सुक्ष्म प्रकृति जादिको परईं । ओरके मारे सो नहिं मरई ॥
बादर उदय न तन पावे । सबके मारे सो मरि जावे ॥
प्रजापति प्रकृति प्रकटाई । पूरी प्रजापति जिव पाई ॥
जनधमेबोध ( ६१)
उद्य अपरजा पति जिदहिषाहदी । प्री देह ताकी नाहीं ॥
प्रकृति प्रत्येक उदय जब होई । काय बनस्पति हो जिव सोइ ॥
जड़ त्वचकाठ एक फट पाता । बीज मही तरास कह साता ॥
सातमेद् तन जिव तदहं करू । सो जिव किये राम प्रत्येक ॥
दो विपि प्रत्येक वनस्पति जानो } प्रतिष्ठित अपरतिष्ठित मानो ॥
धार अनत रास जो कायक । ताहि प्रतिष्ठित कहे सुभायक ॥
जामे नर्हिनि गोदको धामा । अप्रतिष्ठित प्रत्येकं सो नामा ॥
कायं बनस्पति कह साधारण । सुषम बादर इविधि विचारण ॥
संथह एक एकी देहा । तिहि कारण निगोद कदटयेहा ॥
पिंडनिगोद है रास अनता। पूरितं नभको पते अता ॥
सक्षम बादर दोय प्रकारा । नित्य अनित्यनाम जो धारा॥
गोलकं दूषी रपौचो धामा । अंडर खंडर इत्यादिकनामा ॥
सो सब नरक पातको जानी । तिनको इख को सके बखानी
जीव निगोध एक तन माही । एते जिव कड वणि न जारी ॥
धरे जन्म सब एके बारी । मरण एकठे मासं विचारी ॥
एकं धस उच्छ्वासके माहीं । तिनकोजन्म भरन असआदहीं ॥
जन्म अठारह बारह जिनको । मरब अगरह बारहि तिनको ॥
एकं श्वास उच्छवासदि काला । तिनके जन्म मरणकोख्याला ॥
एकं निगोद शरीरके माहीं । एते अमित जीव तदं आदीं ॥
तीन कालके सिद्ध जो नाना । तिनके एक अश परमाना ॥
जीवगोदकी कथा अनेतो । वणन इत न दोय बुधववेतो ॥
साधारण प्रकृति जब खदईं । ताते जिव निगोदतन गहई ॥
साधारण प्रकृत रो बरना । चौदह शाखा तामे धरना ॥
शेष ओर जो चौदह रदहं। एसो ताको व्यौरा कई ॥
थिरप्रङत॒ तनमे यथिरताईं । अथिर उदेते तन अथिराई ॥
( ६२ ) दोधस!गर
शुभ प्रकृतिते सब शुभ रीती । अश्चुम उदे ते अज्म गीती ॥
जब् सुभाग प्रकृत जिव धारा । सो प्रानी हो सबको प्यारा ॥
जब दुरभाग प्रकृति उगि आवे । तिहिलखिसबको जीव चिनावे॥
जब स्वस्वर प्रकृति प्रकटानी । होय मश्रुर कोकिल सम बानी ॥
जब दुःस्वर प्रकृति तनघारा । साकी धुनि स्वर मन एुकारा ॥
जब आदेय प्रकृति संनता । तको आदर मान बहूता ॥
अनादेय परप्रकृत जब होई ¦ आदर मान करे नहि कोहं ॥
जब जस नामप्रकृति नर पाहीं । ताको यश कीरति जगमादीं ॥
अयश नाम परङ्त्त फुरानी । अपयश अपकीरति जगटानी ॥
जब निरमान चितेरा अवे । संदर अंग उपग बनावे ॥
तिरथकर प्रकृतिके भेवा।सोजिव हो तिरथंकर देवा ॥
नाम प्रकरति अब पूरण कीने । पिंड अ्पिंड दोउ कटि दीने ॥
पिड प्रकृति भाषे दशचारी । ताकी पैंसठ शाख उचारी ॥
अट् डाइसर अपिड गति बरनो । ते सब भिङि तिरानमें घरनो ॥
तन संबंधी दश पुनि ओरा। यकसो तीन गनो यकं टोरा ॥
इति
अथ गोत्रकमकी दो शाखावणन- चोपाई
गोचर कम प्रकृति रै दोई। ऊच नीच कुल ताते होई ॥
ऊंच गोज उद्योत प्रमाना । पवि जिव ऊचे कुरु थाना ॥
नीच गो्रफरु संगत पाई । नीच गो्गहि जिव प्रकटाई ॥
इति गोत्र
अथ अतर।य कमको द्वि शखादणन-चोपाई
अब सुन अतराय निरबारा । अष्टम करम परम ठगहारा ॥
अतरायकी नौ दवे धारा । निथय एकणएक व्योहारा ॥
प्रथम कहो निश्वयकी बाता ।जासु उदय आतम शणघाता ॥
जेनधमेबोध ( ६३ )
प्रगुण त्याग होय नरि जहेवा । दान कि अंतराय कड तंवा ॥
आतम तत्व लाभकी हानी । खाय कि अतराय सो जानी ॥
जबलो आतम योग न होई । योगको अंतराय कह सोई ॥
बार बार नहिं जगि उषयोगा । उपयोग अंतराय सो भोगा ॥
अष कमते नहिं बिलग । षीरज अंतराय उमि अवे ॥
निश्चय कटीं पंच परकारा । अब सुन अंतराय व्योहारा ॥
तुच्छ वस्तु कषु देय न सकं । दान कि अंतराय बलू उकं ॥
उद्यम किये न संपति होई । लाभ किं अंताय कह सोई ॥
विषयभोग सामी जादी । जीवभोग करि सके न ताही ॥
रोगहोय के भोग न रई । मोग किं अंताय बर कुरईं ॥
एक भोग सामभ्री सारा । मोग तारहिको बारहि बास ॥
कीजे सो किये उपभोगा । ताहको न जरे संयोगा ॥
यह उषभोग घात बिख्याता । बीरज अंतराय खन बाता ॥
जीवकी शक्ति अत बताई। सो जग दशाम रदी दबा ॥
जगम शक्ति कम आधीना । कबहू सबरु कबह बख्हीना ॥
तनं इन्द्री बल फुरे न ज्हेवा । भीरज अतराय कह तंहवा ॥
ताते जक्त दशा परमाना । जेन धमध्वज बेन बखाना ॥
यह ग्योहार प्रकृतिकह पंचो । तिहि बिचार अरम रहै न रंचो॥
प्रकृति बिचार वर्णं यह भयऊ । जन जेष्ठ जस बानी के ॥
इति अष्टम
अय श्रष्ट कमक आयुस्थितिवणन-चौपाई
ज्ञानी बर्नीकी स्थिति दीशा। कोडा कोडी सागर तीसा ॥
यह उतङ्ृष्ट॒ दशा परमाना । एकुहूतं जघन्य बखाना ॥
दुतिय दशना बरनी कमां । थित उतक्रृष्च कहो सुन मर्म ॥
कोडा कोडी तीस सशुद्रा । एक सुहूरतकी भित इद्धा ॥
( ६४ ) बोधसागर
तीजा कभेवेदिनी जानी । कोडा कोडी तीस बखानी ॥
यड उतकृष् मदहाथित सोई । जघन सुदह्ूरत द्वादश होई ॥
चौथे महासोहको मानी । थित उतकरष्ठ जेनपति बानी ॥
साग्र सत्तर कोडा कोड़ी । लघु थित एक सुहूरत जोडी ॥
पचम आयू कमशरीसा । उतकृष्टी सागर तैतीसा ॥
थित जाघन्न सुद्रत एका । जेन ज्येष्ठ कृद सरित विवेका ॥
छव्ये नामकमे निरूवारी । कोडाकोड़ी बीस विचारी ॥
यह दीरघ आयू यितधारी । जघन सुहृरत किये चारी ॥
गोच कमे सातमा काये । उतह्कृष्टी थित वीश बताये ॥
कोड़ाकोड़ी कार प्रमाना । घु थित एक स॒हूतं बखाना॥
अष्टम अतराय जो उजागर । कोडाकोडी वीस रहै सागर ॥
लघु थित एक सुदरत धमा । आयू विविधि भंतिसे बरना ॥
दौर मध्यम रघु कडि भाषा । काल प्रमान यांतिबहुराखा ॥
इति
अथ सागरभमागवणन-चोौपाईं
सागरको अब करों बखाना । जैनधर्मको सुनो व्रमाना ॥
योजन दोय केर चौकोरा। सागर नाम ताहिको शोरा ॥
दोय् सदस कोश जिहि माहीं । योजन पक्वा किये तादी ॥
सोई योजन सुनो प्रमाना । ताका यह.चोकोर बखाना ॥
भेडरोमके तदहं रेआई। ताका यह चौकोर बनाई ॥
रोमखड अस करे जो कोई। खंड एक पुनि खंडन होई ॥
रोमभाग सब यकठे करिये । सो सब तिहि सागरमें भरिये॥
रोमखंड जब पूरन कीजै। सागर एेसो कठिन भरीजे॥
दाबि दाविके रेसे भरना । परमकटिन सो सागर करना ॥
चछवतं सेना सथुदाईं । तिदि सागरषरसे रुधि जाह ॥
द्वे न हेठ भारसो पाई । रोमखण्ड परण कठिनाई ॥
ऊषर ठेठ रोम तहं भाटी । रञचहु कतहु रहै न खादी ॥
अस पूरण चौकोर जो दोहं सागर नाम बानो सोई ॥
जितने खण्ड रोम गनि खीजे । तितने वषं परमान करीजे ॥
एसे किन पर्णं लखि जाको । सागर ठक नाम हैताको ॥
कोड कोड प्र॒ ताको युनिये । कोडा कोडी सागर सुनिये ॥
तीस कोड अङ् तीष कोडो । सोलह सत्र ताहिमं जोड़ो ॥
कोडा कोडी तीस कीजे यों सागरको ठेखा लीजै ॥
कोडा कोडी सागर बनते। माद्बष आथ ताते गनते॥
एते कोडा कोडी जीये। ता पीछे तन त्याग सो कये ॥
देसहि कूप समुद्र॒ कहानी । जिमि सागरको छेचा जानी ॥
विविधि भांतिसे कीना केखो । जेन धर्मं सो निर्णय देखो ॥
ल्यु दीरव आयू -बहतेरी । यथाकाल बल तसो इरी ॥
जवल आगे कर्मन टूट । तबलो जीव योनि जरै ॥
अष्टकम रिपु जो संहारे। ताग नाम अरिहत पुकारे ॥
जब ये कमं जीवते टलके। तिमिर विशाय ङ्प तब अलके॥
। इति
अथ बारह भावनी अथव। आत्मगुण वणन
दोदा-प्रथम अथिर अशरण जगतः, एन अशघुचान ।
आश्रय संबर निरज्रा, लोकबोध इलभान ॥
चोपाई
` जक्तवस्तु क्क थिर नरं परसे । देदृषूप आदिक जो सरसे ॥
थिर बिन प्रीति कौनते कीजे । अथिर जानि ममता तजिदीजे॥
अशरण तोहि शरण कोह नाहीं । देखो तीन लोकके माहीं ॥
बो० सा०९
( ६६ ) बोधसागर
तेरो कोह न राखनहारा । कर्मके वश चेतन निरधाय ॥
यहि संसार भावनी येहा। पर दबेनसे कीजे नेहा ॥
त चेतन ये जड सरबंगा। तते तजो पराया संगा ॥
जीव अकेला आपतकाला । अध मध्य भौन पाताखा ॥
दूजा कोड न तेरे साथा । सदा अकेखा फिरै अनाथा ॥
भिन्य सखद पुदगरसे रहईं । भमेभावं करि जडता गद्ई ॥
ये पुदगर शूपीके खंधा । चिदानेद् तू सदा अबेधा ॥
अश्चुचि देखि देहादिक अङ्गा । कौन वस्तु लागि तेहि संगा॥
हाड मास धिरो गदगेहा । निरखि मू मर तजो सनेहा ॥
अस पसे कीजे प्रीती । ताते बन्ध बटे विषरीती ॥
पुद गल तोहि अपन कोड नाहीं । तू चेतन ये जड सबआदीं ॥
संबरपर रोकनको भा । सुख होनेको यरी उषा ॥
चिदानंद हो निर्मल आपू । मिटे सहज प्रसंग भिखाप् ॥
गहि लीजिये आपनो कर्मा । जाते प्रकट होय निज धर्मा ॥
यिति पूरी हो खिरखिर जाई । निरज्वर माव बडे अधिकाई ॥
लोकमाहं तेरो ककु नादं । रोकं आन तू आन क्खाहीं ॥
है यह षटदर्बेनको धामा । बचिदानंद तू आतम रामा ॥
घम सभाव आपनो जानो । आप सभाव धमे सो मानो ॥
जब तोरि धमे प्रकट ह आवे । तब परमात्म पदे लखि षाव ॥
दुटेभं प्र॒ देनको भाऊ। आपा न्ह दुरम सुन रा ॥
जों तेयो रै ज्ञान अनूषा। तो नरि दुलभ शुद्ध स्वष्ूपा॥
| इति
अथ जनयतिके अट्राईस मूलगुण वणन
सोरडा-पञ्च महाव्रत सञ्च, सुमति पञ परकार है।
इंदवियाणि दम पञ्च, षट् अचार पृथ्वी शयन ॥
जेनधमतोध ( ६७}
तज मनन निरधार, बसन त्याग कच छंचकर् ।
लघुभाजन धित धार, दूतिन रेषन त्यागकर ॥
च।ष]
सब जीवनपर दाया पाला । सत्य वचन बोरे तेहि काला ॥
परसे नहिं धन करे ससो । मदन विकार न व्याये कोई ॥
सकल परिथ्रह्को जिन डाके । अधो दष्ठि मारगयें चाड ॥
सूखी भूमि निरखि पद धरदी । दथाक्षहित शिवपन्थ विचरही॥
निरभिमान अनवद्य अदीना । कोमल भश्चर दोष दख दहीना॥
ठेसे सवचने सदा उचारा । सो जेनेश अक्तिपद धारा ॥
उत्तम कुल सरावक आचारा । तास भौन सक्षम आहार ॥
दोष बयाल्िसिको सो राटी । भिक्षा भोजनक यह चाली ॥
धमेवस्तु कदु संम्रहद धारा । सूखी भूमि निरखि मरू डरा
सीत उष्ण दोउ यकं सम वादा । गंध गधो स्वाद ङस्वादा ॥
शब्द कशब्द कुरंग सुरंगा । स्तुति निदा दोड यक ठंमा ॥
शब्द् भित्र दोउ यकसम भाला । सामा यकं साधे तिह काला ॥
अरि ईतो सिद्धो आचारी । उपाध्याय साधूश्णं धारी ॥
पच॒ प्रम परमेष्ठी बाना । सदा कालतिनका शण गाना॥
दोष् विचारिके प्रा्चित करी । कृषा कर्मे निज चित धरदही॥
जनेश्वर बानी अबुसारा । द्वादशांग आदर उर धारा ॥
काऊ सम सुद्र नित धारे। दये सुद्ध स्वरूप विचारे ॥
सुखी भूमि शयन हितकारा । त्यागे रिविधियोग ममकारा ॥
पश्चिम राति नीद ल्घु गहई । धर्मं ध्यानमहं पावन रहई ॥
अतर बाहर प्रम पुनीता । रेप नहान त्याग सब कीता ॥
नय दिगंबर शद्रा धारी । विगलित र्ना लोकं विहारी ॥
एकं बार टघुभोजन. ठेदी ध चं तजि दातन देही ॥
इ
( ६८ ) नोधसागर
अभ जेन यतिको बाइस परीसा वर्णन
सोरठा-भूख प्यास दिम गमं, हस मशक डस नम्र तन ।
अरतिकेर दुख पमं, चजां आसन शयन कह ॥
खर वध बधन बाद, जोचे नदीं अखराभको ।
रोग प्रस न विषाद, सलमथ आदर मान बिन ॥
प्रज्ञा अक् अज्ञान, दरस मलीन दो बीसये।
जैन परीसा जान, सहै जाहि रिषि राय नित ॥
। चोपाई
एकपक्ष जब दिन वित गेऊ । उन ओदर भोजन तब लेड ॥
विधिवत जौ भिक्षा नरि षाई। अग शिथिल मनम ठताई ॥
पर अधीन भिक्षा षि राया । प्रकृति विक्ढ जो भोजन पाया
ग्रीष्म काल विहारी ठानी । सहै प्यास मामे नहि पानी ॥
हिम तुमे कम्पे संसारी । बाहर तबहि खड वतधारी ॥
वषा वायु शीतको जोरा । सहै सकर नहि तन मन मोरा॥
भूख प्यास उर अंतर दागे। कोपे पित्त देहञ्वर जागे ॥
ग्रीष्म धूप अग्नि सो रागे । सहत सबीसन धीरज त्यागे ॥
देश मशा माखी ईषे सपा । भार शृगारु केदरी दपा ॥
कनखनूर आदिक दुख देदीं । पीड़ा सह दृढता गह येही ॥
विषय विकार जासु उर भरईं । भेष दिगम्बर सो किम धरई ॥
महाकषिन यह नग्र परीसा । सहै शील धर जेन अनीशा ॥
देश कार कारण को पाई । जक्त जीव मन व्याङ्ककताई ॥
देसी अरति परीसा भारी । सरै जेन अुनिधममे सभारी ॥
तियहग तीर शरीर न रागा ! जगम को असजन्म सुभागा ॥
को अस जेहि रतिनाथ न चपा । मन सुमेर सुनिको नदिं कंषा ॥
चार हाथ देखत मर्द चारे । कठिन कंकरी पाये विदारे ॥
जनधमवोध ( ६९ )
चजा दख सहि अनि बत धरदीं । प्रथम स्वादकी सुरति न करदी॥।
सुखी टौर शयनको हरे निश्च अग रहै ऋषिकरेरे ॥
कृखिन पृथ्वीम शयन कराई । शयन परीसा वर जय पाई ॥
खल निरदोष साधु को मारे। इश अनत दे अभिमं जारे ॥
समरथ होय सहै दख सारा । रंच कोध नहिं निज उरधारा ॥
हँसी करि दृष्ठ मिलि च्चारी । कहि कटुबचन देहि बह गारी ॥
वचन बाण मिं जवर तानी । क्षमा दारू ओटे भनि ज्ञानी ॥
छीन भये तन पजर रहैञ । इख अनत जब देही सहे ॥
काहूकी नरं चरै सहाई । प्राणहु गये अयाच रडाई ॥
एक वार भोजन की बेरा । मौन साधि नगरी करि फेय ॥
बहुदिन बीते न भिक्षा पाह । तिहि अलाभ सन खेद न ल्याई॥
भोग संयोग रोग जब होई । क्क उपचार नं चाहै सो ॥
सहै दुःख नित रहै अदीना । देह विरक्त आत्म लौलीना ॥
ककरी कटा पोय विदारे । रज त्रण आंखिनये मरि सारे॥
सहै दुःख निज कर नहिं गाटे । तणपारस विज अनि गाढे ॥
तजि असनान होय दख भारी । चरे प्रसव धूर भरिडारी ॥
मङिन आपनी देह निहारी । मछिनिभाव नरि जेनाचारी ॥
चिर ॒तपसीबुधि विद्यासागर । यणगण अतुलित जक्त उजागर ॥
नर आदर प्रणाम नहि करदं । तहं मुनि मटलिनभाव नहि धरदीं॥
ठेसे बुधि विद्या निधि गहरे । परबादी नहिं समभ्थुख उदरे ॥
आगम अगम अलक्त जाना । पे मुनीश्च मद रच न आना ॥
पालत धर्मं बहत दिन गेऊ । ज्ञानप्रकाश अजौ निं भै ॥
कु विकल्प नरि मनम गहईं । सो अज्ञान विजईं भुनि अदईं ॥
भ चिर घोर घोर तप॑ ठनी । तब बलसिद्ध ञ्जुठ कड मानी ॥
यों कदापि मनम नदिं बाधू । सोई अद्रसन विजई साधू ॥
इति बारईस परीक्षा
( ७० ) बोधसागर
अथ बाईस बस्तु अभक्ष्य वणन--चौपाई
बेगन बहुबीजा अङ् ओखा । बट् पीपर पाकर कटि बोखा ॥
ऊपर कममर निस भोजन । कदमअयाचतुच्छ फलको गन्॥
विष माटी मदं मधु अङ मासा । खार चरो रसघोरव डासा ॥
माखन ओर अचार कवे । बाईस बस्तु अभक्ष्य बताते ॥
इनते अधिकं भर है जेते। भक्षण योग्य न कोई तेते॥
जिनमे धाम निगोद कीजे । जीव अनत न पार रदीजे ॥
इति
अय जेनसाधु ओर गृहीको वणन-चौपाईं
दोय प्रकारके साश्ु बखाना । दीगम्बर श्वेतांबर बाना ॥
दीगम्बर भ॒द्रा कठिनाई। सो नरते अव गदी न जाई ॥
ताते लोप दीगम्बर भ । श्वेतांबरी अजो रहि गे ॥
अजह गृही दीगम्बर मतको । जाने अपने धमकी गतको ॥
गृहीको गही करे उपठेसा । जेसो गु शिष्य पुनि तेसा ॥
श्वेतांबरी साधु बहु तेरे। नाम दृद्िया तिनको टेरे ॥
जेन धमकी बारह पौरी । विविधिरीतिदेखो सब ठोरी ॥
स॒बपर ्रेष्ठ॒दिगम्बर बाना । दुक ताके हेठ बखाना ॥
पुनि दश पौरि सरावक आदीं । सेवा पूजा देखो तादीं॥
तिरसठ पुरूष शलाका जोई । पजा ताञ्च जेन घर होई ॥
तिरथंकरकी मूतिं बनाई । मदिर माई ताहि पराई ॥
दीगम्बर कर फेची टूटी । श्वे्तांबर फेची अुखपट्ी॥
इति
अथ स्वगं ओर मुक्तिशिलावणन-चोपाई
साहि पटल स्वेन म सुनिये । स्वारज सिथ सबपर श॒निये ॥
तापर युक्ति शिला करावे । शुक्तं होय सो तादि समवे ॥
जैनधर्मबोध ( ७१)
इतर धम जो जग विख्याता । कोह भिथ्या कोड मिश्रमिथ्याता।॥
साटि पटल जो स्वगन यहीं । बारहो मिथ्याती जादी ॥
जेनी बिना न उपर जव । बारहो सबही गप्र पावे ॥
जेनधम बिन भुक्ति न होई केवर ज्ञान उभे नहि कोई ॥
स्वगनके सुख रमित बताई । रहे देवगण सबमहं छअई ॥
स्वगकिं थित जब पूरन होई । तब जिव धरणिधरे तन सोई ॥ .
जेसो भाव स्व्गयें धरई । तैसी योनिमाह जिव परईं ॥
जो सर्वारज सिद्धको जवे । एकदेह धरि अक्ति सो पवै॥
जबल कर स्वर्मनमे बासा । तबलो देह धरनकी आसा ॥
चौथे काठ शुक्ति जिव होई । पंच छष्ठं ठे न कोई ॥
सुकरम किये स्व्गको जवे । पच्य छ्य शुक्ति न पतिं ॥
टाईसहस बषं बित गय । पचम काठ कछगत जो भयड)
उगे न तबसे केवट ज्ञाना । विना ज्ञानको अक्ति छडाना ॥
ह्ली कोई भुक्ति न पाई । करि सकमं स्वमनमे जाई ॥
स्वगे भोगि नरतन पुनि पावे । केवल ज्ञान गहि शक्त काव ॥
इति
अभ नकंको वणन--चोपाई
सप्त नरक मत जैन कहां । यम यमगण कतदहूं कोड नादीं ॥
आध ज्ञान जस देव गहादही । ज्ञानक ओध नारकिनमांहीं ॥
बुरा ओध नारकहि फुराना । पूरब वेरभाव सव जाना ॥
पिला सब ओन सुधि अवे । एक एकको मारि इख ॥
शश्चादिकं तहं अगणित जाती । देड किं हैत बना बहुभांती ॥
काटे छेदे तन तिन केरे। कोह को$ कोर्हमे धरि पेरे॥
एकं एकको धरि धरि मारा । मचा चहँ दिश -हाहाकारा ॥
जस पारा तस नारक अंगा । कटि फरि होयसो पिरे टगा॥
( ७२ ) नोधसागर
सातो नरक केर भ्यौहारा । भिन्न मेद पीडा अधिकारा ॥
महादुःख नारकरि बनाई । आयु परम दीध जिन पाईं ॥
दोदा-सई अभ्र भरि सृत्तिका, नरकसे महि जों आय ।
ताकी अति दुगंघते, सब तरू पश्च मरिजाय ॥ इति ॥
अथ प्रलय वणंन--चोपाई
प्रख्यके प्रथम इद्र महि अवे । जोड जोड जिव ठे जवे ॥.
वमे सबकी जतन कराई । जबल प्रलय पणंना पाई ॥
निज विमानमें सब जिव धारी । स्वगं दिशा जब इन्द्र सिधारी॥
ताके पीछे परलय अवे । जीव जन्तु सबही विनशावे ॥
अभ्िवषि पुनि जर बरसाई । जीवबीज नहिं कतहु पाई ॥
पूरण प्रलय दोय हरिजाई । जीव ईद गदहिमहि पुनि आई ॥
ताते पुनि जग उतपति होई । एकंते बहुरि अनेकन सोहं ॥
कबहु न दोय बीजको नाशा । जक्त अनादि स्वतह परकाशा॥
ऋमटीक्रम फिर बटे विभूती । सवे पदारथ पृथ्वि प्रस्रूती ॥
इति प्रख्य
अय स्फटवार्ता--चोौपाई
षर प्रकारकी अस्थि जो कदे । वज्शरीर प्रथम जिवं गहे ॥
वको हाड शी्र किमि गलहं । कहं कहं भूमे अजँ न रलह ॥
यूर्प नर जदं तहं छि जावे । वज्र हाड जिव जंतुको पावे ॥
सो निज मन एेसे अपानो । हाड परा चिरने पथरानो ॥
ताको ममे न जाने सोई । वज्रहाड जिव प्रथम गहोईं ॥
भीम शरीर समस्त वज्र रह । दुर्योधन तन अध वचर कह ॥
लेखा ताहि काल असर रदे । कोड वज्रकाइ घरि तिहि कहैउः॥
ताके प्रथम कठिन सर्वगा । हनूमान आदिक बजरंगा ॥
चिरंजीव जीवे चिरकाला । गहि तन वज्र दोय दुखटाला॥
इति श्रीजनधम
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स्वसमवेदबोध ब्रारभ
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भारतपथिक कवीरपथी-
क्वामीं अ्रीयुगलानन्दद्रारया संशोधित
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वेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई प्रकाशन
सल्यनाम
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सत्यमुत, आदिअदटी, अजर्, अचिन्त्, पुरुषः
धुनीन्द्र, करणामय, कबीर सुरति योग, संतान,
धनी, धमदाघ्, चरामणिनाम, अदशन नाम
ऊुपति नामश्रबोध् शस्बालापीरः केव नामः
अमो नाम, ुरतिस्नेही नाम, इक्नास,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम,
यमग्र नाम, दयानाम की दया
वैश व्याटीस्की दया ।
अथ च्रीबोधक्ागरे
एकोनत्िशत्तरगः
अथ स्वसमबेदबोध प्रारम्भ
1
मगलाचरण-चोप।ई
बन्दों गुरपद नख मणि ज्योती । इदये बसत दिग्यहग होती ॥
कोरि सूर शशि उर उजियारा । तिमिर अविद्या सकर संहारा॥
चरणकमल सुनि दकअलिफंदा । धुरपद् पाय मधुर मकरंदा ॥
( ७८ ) बोधसागर
पद प्राग अतुराग दटाई । कर बहु अम्मर मणिछबिाई॥
चरण सिरु सरि मलन पाना । युगयुगको कलिकटुषनसाना ॥
महा प्रसाद प्रसादी पाई । कोटिन युगकी धा बुञ्चाईं ॥
घमेदास पद प्रथम नमामी । ता पीछे करूणामय स्वामी ॥
वेश बयालिस जगम जिनको । कोरि प्रनाम हमारा तिनको॥
चार गुरू निज सतशुङू दासा । जिन्हें न प्रथु तजि दसरि आसा॥
मन कम बच गुर् चरनन चेरो । तिनप्रति बहन अभिवेदन मेरो॥
सतशगुर् अशनको बह बारी । बदि चरनरज निजसिर धारी ॥
जिन जिन सन्त मोहि उपदेशा । घ्मंधामको क्यो संदेशा ॥
प्रणवों कोटि बार कर जोर । जिनकी कृषा विमल सति सोरी॥
जो गुर् पद पकज भिय पामे । बन्दौं सबहि सहित अलरागे ॥
पुनि बन्दों सन्तनके चरना । शुङ्स्वहूप कदु भेद न ब्रना ॥
साहिब सन्त एक जिन जाना । तिनको आवागवन नक्ाना ॥
नमो बहुरि कवि कुरु समुदाई । सत्य कबीर चिन्ह जिन पाई।॥
भे अङ् अहै मव्य बहुतेरो । तिन प्रति बिनय दीनता मेरो ॥
उभगि उममि जो गुरून गावे । कोटिन जीव लोकं पहं चावे ॥
जड चेतन जह रगिजगजाया । रचना विविधि विरंचि बनाया॥
साधु असाधु सूर अर् कूरा । भोजन विविधि एकरस पूरा ॥
सत्य सुकृत सबमाहि निदहारो ।जोरि जगुर कर सकल जोहारों॥
सब मिलि कृपा कीजिये सोई । भणित मोर मङ्कलमय होई ॥
कबि न होड नर्हि चतुर सयाना । काम्य मेद रस भेद न जाना ॥
कृथ्यौ कथा सतगरुकी आसा । बुधजन खि न केरे परिहासा॥
बार बार यर् पद शिर नाई । धमे कबीर म्मे अब गाई ॥
इति मगलाचरन
स्वसमवेदबोध ( ७९ १
अथ स्वसमवेद ध्मवगन
दोहा-देवं कबीर महत यश, स्वसमवेद् मत भाष ।
सार शब्द् टकार जह, सत्यनामकी साष् ॥
सार शब्द् यक भूल है, टीका चौदह कोर ।
कोटिन मथो गनि सके, कहे न ताको ओर ॥
जे ती जग्मे बनपती, अपस गंगाको रैन ।
अगम अपार अकथ कथाः, सत्य कवीरकी बेन ॥
इति
अथ उत्पत्तिकथा-चोपाई
उतपति प्रख्यकि कथा अनंता । बहन विधि सत्य कबीर भनंता ॥
उतपति प्रलय कोटिन बारा । स्वसमवेद नियं निरधारा ॥
क्क लिखो सो अथन हैरी । कथा अनूपं यथा मति मेरी ॥
प्रथमे आदिमे एसो कटे । स्वतह स्वछंद जीव यक रहे ॥
गहं स्वत आनंद अकेला । नटि तब युर नहीं तब चेला ॥
पद्धी ततत्वको ताकी अंगा। अग पिंड दोनों यक्त टंगा ॥
माया पुरूषसो जीव उपाना । सत्यस्वषपी ताको बाना ॥
अपनो हप अनूप निहारी । अहमित भयो जीव तिहि बारी॥
मोहित भा खि हप निकाई । ताहि मोदमें गा गफिलाई ॥
आपा भूछिरहा नहिं चेता। महागमन मनमभोतारहेता॥
परमानंदम गयो अथुखाई । निजस्वषूपकी खधि बिसराई ॥ `
त्व प्रकृति पलरि गह तवहीं । पक्कीसे कच्ची भई जबहीं ॥
क्रमही क्रम भे छीन शरीरा । धरिधरि देह पाव बह पीरा ॥
जब ३.च्चा भा पक्का सांचा । अंड पिंड दोनों भा कांचा ॥
निज स्वूपको ज्ञान न राखा । भह योनि चौरासी लखा ॥
आपे आप रमे जग सारा। भरमे यूनिः अनंत अपारा ॥
न.९ कवबीरसागर - ४
( ८० ) बोधसागर
बुद्धिभांति भै जिवकी जवते । कार द्या प्रकट भे तबते ॥
आप कार हे कारु उपाया । आपे पैसा आप दुख पाया ॥
वार्ता
प्रथम जीव पक्के रूपमे हता तब दूसरा ना इता । पक्के
तत्वके नाम-सत्य 9, विचार २, शील ३, दया 9, धीरज ५
इन पौँच पक्के तत्वका हप देसाका था, ताके तीनि शुण पक्के
शण इते । अथ सत्य ओर बिचारको गुण-षिवेक १. अथ शीर
ओर दयाका गुण-गुङ् भक्ति साश्रु माव २. अथ धीरजको गुण-
वेराग ३ ये पक्के तीन गुण इते तामे हसा रहा ।
पचो प्रकृति वणन
१ सत्यकी प्रकृति नि्णय-१ निषध, २ प्रकार, ३ थीर,) 9
छमा « इति ।
२ विचारकी प्रकृति-अस्ति १ नास्ति पद्मे भान २, यथार्थं
३, शुद्धभाव ४, सत्यता « इति । |
३ शीलकी प्रकृति-श्चुधा निवारन 9) पियवचन २; शांति
बुद्धि ३, प्रत्यक्ष पारख 9, सब सुख प्रकट « इति ।
9 दयाकी प्रकृति-अद्रोह १, मिज्रजीव २, सम ३, अभय $,
समरश्ठि ५ इति । ॑
८ धीरजकी प्रकृति-मिथ्या त्याग 9, सत्य्हण २, निस्सं-
देह ३, इतानासने 9, अचल « इति ।
ये पांच तत्वकी पचीस प्रकृति द तामे हसाको बासा हता
तब कच्चा तत्व ना इता । पक्के तच्वका पक्का देह इता, तब
कषु अनुमान ना इता । जब्र रेसी अपनी देह देखा ओर
सुंदरता माना तब बहुत आनेद् इआ । ता आनदम दसा मिला
तब आप अपनेको भर गया, गफरत पेदा भई । ता गफलतमं
स्वसमवेदबोध (८१)
एक आई परी । ता ओको सब बह्म सञिदानद कहते
है, ता आनेदमे जीव बड़ा तब तत्व धरक्ृति पलटी । पृककेसे कचा
ङ्प हआ । आपा की खबर न रही । तब पच पृक्ते तत्वसे
पोच कचे तत्व भये । धीरजसे आकाश 9, दयासे वायु २,
शीतटरसे तेज ३, विचारसे जल %, सत्यसे धरती « पद्धेसे ये
पाच कच्च ततव भये ताके तीन अन कच्चे भये । धरती ओर जले
सतोगुण भया १, अभि ओर वासे रजोश्ण भया २,आकाशसे
तमोगुण भया ३, वौँच कचे तत्वकी पचीस् प्रकृति भह ये
विफारकी देह महं । ताको नाम स्थर मनमानता ते आह्लष
किये । तब हकार इआ कि मँ करता, तासे इच्छा भहता
इच्छाको नारीषूप भया, तासों भोग किया, फिर बड इष
विनसि गया, नारी गभसे तीन शूप वेदा भये. १ जीव, तति
मन २, मनसे ज्योति ३, ज्योतिसे श्ण. रजो शण बह्मा 9,
सतो गुण विष्णु २,तमो शुण शिव ३ ये अिशण देसे भये । जब
पक्से कच्चा भया तब सम्पूणं सृष्टि चार खानी चौरासी लक्ष
योनि पेदा भई. आपही अनेक शूप धरि अनेकयोनिमें भर्मता
है, गफलतसे अपनी भूमिका छोड़ा, जब बहत दुःख पाया
तब अपने मनसे कट्पना किया कि इमारा करतां कोह दसरा
है, फिर अनुमानते करता निश्चय किया ता करताके प्रेममें
बहुत वेद् शाघ्च आदिकं बानी बनाया, फिर आप ही उसको
खोजने खगा तब कहा किं मालिक नि्यंण निराकार है तब सब
वृत्ति थकित मई तब आप दही ब्रह्म कहाय असभव करिके
संपूरणं जक्त आपदी हो रहा रै इस प्रकारसे ब्ह्मसे सरष्ि ओर
सृष्टिसे ब्रह्म रयम परा जीवको कीं निश्चय नहीं दोनों प्रकारे
बो° सा० ९
( ८२) बोधसागर
कष्ट पावता है जो साधुनकी सेवा करे ओर बड़े भाग उदय
हों तो पारखी गरू भिरे ओर पर्णं पारख बतायके जीवको भं
छोडावें तब् आवागमनसे रदित हो पका रूप पायके केका
अभाव करे तब आप पारख शूष दो । पारखी आप पारख
रूप-ना कहू घोखा ना भ्रमकूप् ।
दोहा-एकं जीव जो स्वतह पद्, बुद्धि भांतिसे कार ।
कारु होय बहु कार सो, रचनते भयो बिहार् ॥
बेहालीको मतो जो, देव सकर बतरखाय।
ताते परख परमान रहि, जीव नष्ट नहिं जाय ॥
करि अनुमान जो स॒त्र भो, सूञ्चे कतहु नारि,
ओप आप् बिसरो जबे, विज्ञान देहि कह ताईं ॥
ज्ञान भयो जाग्यो जवे, करि आपन अनुमान ।
प्रताषिषि ओंहं लखे, साक्षी ङ्प बखान॥
साक्षी हवं परकाश मो, महाकारन तिहि नाम।
किति मसनुर प्रमान भो, नीर बरन घनश्याम ॥
बादि बिबि अधं पये भो, सुत्नाकार स्वहूप।
ताको कारन कहत रै, महा अंधियारी कूप ॥
कारणते आकार मो, श्वेत अंगुष्ठ ॒प्रमान।
वेद शाञ्च सब कहत तिद, सृक्षमरूप बखान ॥
सुक्ष्म शूपसे कमं भो, कमदिसे अस्थूल ।
परा जीव यहि रदरमं, सहै घनेरी शूरु॥
स्थूरते पुनि सक्षम) सृक्ष्मते कारण दोय ।
महाकारण तुरिया करी, ज्ञान देहि कह सोय ॥
सर्वैसाक्षि सो ज्ञान दै, रहित भयो विज्ञान ।
संतो सबे अनथ पद्, यामे नदि कल्यान ॥
स्वसमयेदबोध ( ८३ )
षट देही वर्णन करो, समद्धिके व्यामो यित्त।
एक एक अब कइत हौ,जिहि प्रकार जिहि मित्त ॥
इति
अथ स्थूल देही वगंन~-वार्ता
स्थूल देही सादे तीन हाथ रक्तबरण ब्रह्ला देवता रजो शण
ञकार माजाका जाग्रत अवस्था वेखरी बाचा अिङ्गटी अस्थान
जठ तत्व खेचरी मुद्रा पपी मागे चराकाश नेवस्थान सत्य-
लोकं विश्व अभिमानी गायत्री भथम पद् क्षर निर्णय बड़वाअथ्री
विषयानन्दादिक आपतत्त दश इन्द्री रहस मचक्ा अर्धं सन्न
ऋग्वेद चौदह देवता पचीस प्रकृति । इति
पचीस भक्ति वणन
( १ ) आकाशक परकृति-काम 3, कोध २, खोभं ३, मोह
9) भय <; रग काला अहार शब्दद्वारा कान इति । (२)
वायुकी प्रकृति-चल्ना १, बोलना २, बर करना ३, पसारना
9, संकोचना 4. रग हरा अहार गंध द्वारा नासिका इति)
( ३ ) अभिक प्रकृति- नींद 9, जयुहाई २, भख ३, प्यास
४, आलस ५. रग लार अहार देखनो दारा आंख । ८४)
जटकी प्रकृति-रक्तं 9, पसीना २, भूक ३, मूत ®, रिद 4.
रंग श्वेत अहार मेथुन द्वारा खग इति । ( < ) पृथ्वी प्रकृति-
दाड १, मांस २ नाडी ३, चाम 9, रोम ५. रंग पीला दारा
गुदा इति पचीस प्रकृति ।
चौदह देवताके नाम
मनके देवता चन्द्रमा 9, बुद्धिके देवता ब्रह्मा २, चित्तके
देवता नारायण ३, अहकारके देवता शंकर ४, नेतके देवता
सूर्यं ५ कानके देवता दिशा &, वाचाके देवता अभि ७. त्व-
( ८४ ) बोधसागर
चाके देवता वायु <, नाकके देवता अशिनीङ्मार ९, जीभके
देवतां वर्ण १०, हाथके देवता ईद ११, पौवके देवता उपेन्द्र
१२. छ्गिके देवता प्रजापति १३, गुदाके देवता यम १४।
सक्ति साखोक इति स्थूर्देदी विस्तार ।
अथ सुक्ष्म देहीक( वणन
खिगदेदी अंगुष्ठ बराबर ओंकार माका श्वेत व्णं॑विष्णु
देवता स्वप्र अवस्था आ्रीदरस्थान मध्यमा बाचा उध सेन्य दीधे
माचका युवद वेङ्ण्डलोकं कण्डस्थान पालनक्रिया आप तत्वं
भ्रचरी मुद्रा विहेगमागे दुतिया षद् गायन्ती अक्षर निणेय मन्द्
किनी कोद अदहेकार सामीप्य शुक्ति पचथूत सुक्ष्म प्राण अपान
समान उदान व्यान चतुष्टय अन्तःकरण मन बुद्धि चित्त अह-
कार शब्द् स्पशं प रस गंध ये सुक्ष्म नौ तत्तव॒ कृदिये, पंच
ज्ञान न्द्री पच कमे इन्द्री ये सब जड है जीव प्रतापते चेतन्य
होते है तासे जीव कहते दँ इति खग ।
अथ कारण दहीका वणन--वार्ता
कारण देदी अये पब्ब श्याम बरण मकार मा्राका गोखहट
स्थान बेसन्ती बाचा मध्य शून्य तमो यणसामबेद चाचरीं अद्रा
कपिमागे महदाकाश दयस्थान पराग्य अभिमान कंठ स्थान
निणय उदायाभि त॒तीया पद गायत्री अदेतानन्द् नवीन इच्छा
शक्ति सुषु्षि अवस्था सारूपपुक्ति इति कारण देदी ।
अथ महाकारण देहीका वणन
महा कारण देही मसूर बराबर विकार मा्रका नीक वरण
ईश्वर देवता हठ पीठ स्थान पराबाचा . शून्य अर्धमा्रक्ा अथ-
वण वेद वायुतत्व अगोचरी मुद्रा । ज्वाला कालामीनमागे चिदा-
काश आष्घेरोकं नाभी स्थान प्रतिज्ञा विष्णु अभिमानी
स्वस मवेदबोध ( ८५ )
चतुर्थं पद गाय्री आदि शक्ति विदेष्टी नद सोहं ओहं अकार
तुरीया अवस्था प्रकाशिक साथुज्य अक्ति इति)
अथ ज्ञानदेहीक्ा वणन वार्ता
इन चारोको साक्षी ज्ञान देही स्वसषमवेद उन अनि बाचा
स्थान भोर शुफा सदाशिव पूर्णं गिरी अद्ुचरीय माकर पूणं
बोध अवस्था कालातीत शिष्यमागे निराकाश शिष्यस्थानं
निराश्रयटोक निरंजन अभिमानी पचम परमार्थ पद गायती
ज्ञाननिर्णय ब्रह्मज्ञान मन ब्रह्मानंद अहंकार ज्ञानदेही ज्योति-
स्वप कते हैँ युक्ति मे ब्रह्ममय सर्वसाक्षी) इति ज्ञानदेही ¦
अथ विज्ञनदेहीका वणन-उार्ता
विन्ञानदेदी आकाशवत् शूप रेख रहित नहीं आवे नहीं जाय
नहीं उपजे नहीं विनशे नहीं भीतर नहीं बाहर दसा है केसा नहीं
अहेकार रहित मान अपमान रहित खूप अषप रदित अह् (मै)
वस् ( तरु ) रहित वचन ओर निर बाच रहित इच्छा अनइच्छा
रहित नाहं कती नाह भुक्ता जेसाको तैसा विज्ञान देही ना कोई
जीव ना कोई मन ना कोई माया एसा भास विज्ञान देहीमें रहता
है इति विज्ञानदेदी । =
चपा
इसके अगे मेद हमारा । जनेगा कोड जाननहारा ॥
कहँ कबीर जानेगा सोई । जापर दया गखूकी रोई ॥
सोरडा-यहि षिधिसे यह जीव, गिरा आपने शूषसे ।
भोगे दुःख सदीव, जबर रहे न भूमिका ॥
चोपाई
यहि विधिजिव निजशूप विसारे! तजि सो भूमि देह गहन्यारे ॥
तजि निज शूप ओर जब भासा । कषक योस तमं कर बासा ॥
( ८& )
बोभसागर
सो तन त्यागि ओर पुनि छे । पुनि कदु कारु तादिमं रहेऊ ॥
पुनि त्याग्यो पुनि गद्यौ नवीना । कम क्रम भयो ज्ञान ग॒नखीना ॥
षर प्रकार गह उत्तम अगा । पुनि पशु पक्षी कीर पतगा ॥
नर॒ तनमे ज्यौ पारख पव । तौ यह जीव बहुरि घर आवे ॥
समञुज देड ज्यौ चेतन होहं। तौ निश्चय जिव जाय बिगोई ॥
घोखे परा जीव यहि ठेखा । माति भांतिको चारे मेषा ॥
रम करि वेद कितेबं बनाया । भ्रम करि द्वेताद्वेत बताया ॥
अम करि क्म धमं ठदराया । धरम करि बड़ बानी कथि गाया॥
भमेको धमे सकट जग माहीं । सब जिव बले ममकी छादी ॥
रम करिके षट दशन थापा । भ्रम करिके जिव ल्खे न आषा
भ्रम करि ईश्वर दूर बताया । बिरदी बने सकर जग जाया ॥
श्रम करि इत उत र्दद्न रागे । भम करि प्रेम भक्तिये पामे ॥
घोखे परा सकर संसारा । बिन सतश् भरम टरेन टरा ॥
सारशब्द सतगुरूको पावे । सब धोखा अम दरि बहवे ॥
दोहा-त्रह्मादिकं सनकादिक; भरम करि बानी गाय ।
ता बानी भ्रम विष चटा, जीव गये गफिलाय ॥
तिदि कारन आसा कखगी, आवा गौनको मूल ।
पटो ताते सात फुरि, जीव सहै बहु शर ॥
इति
अथ सात बीज वणन
ञ्श्रींरसोरोहींड्की. अइउषएवमइ।
चौपाई
सात बीज यह क्यो बखानी । ताते पुनि अंङ्कर उतपानी ॥
क्रम उपादा योग ₹ ज्ञानी । उतपति स्थितिप्रखय विधिनाना॥
सातो अक्रूरे जब चाटी । चित्तरूप तब गहौ कुदारी ॥
स्वंसमवेदवोध ( ८७ )
गोडन लगे नित्त प्रति वाही । उुद्धिके जलत सीचा ताही ॥
आलवाल हकार बनाया । मन पी तहं लाद राया ॥
अंतःकरण भूमिका माही) नित नौ प्व ष्टे ताही॥
नाना क्म उपाह नाना । नाना योग अङ् नाना ज्ञाना ॥
नाना उतपति स्थित है नाना) प्रख्यं अनंत न जाय बखाना॥
एकं एक प्रति नाना बानी । नाममा कहि तास बखानी ॥
सात बीज गुरूवन मिलि बोये । प्रथम सुभेच्छा नाम काये ॥
पुनि सविचार दृपरे किये । तनोमानसा त्रतिये गरिये ॥
सत्वापति चौथे कहि दीजे । असंशक्ति पचम गनि छीन ॥
छठे पदार्थं अभावनी भाषा । तुरिया नाम सत्तमे रखा ॥
बोये सात बीज जब येही । अक्रूरे निकसे फरि तेह्यी॥
प्रथमे सो अब करों बखाना । जति ज्ञानकेर धाना ॥
सोहं बीजको अकर ज्ञाना । आलवार भक्तिमय साना ॥
सचा ताहि प्रेमकी बारी । ताने नित नौ प्व धारी ॥
दोह -ञ्चभ इच्छादिक सात ये, तिनप्रति बानी भरर ।
पट्टव तिनते बहु फटी) रही जक्त भर पुर ॥
ज्ञान परोक्ष हे फू तिहि,फल अपरोक्षजो ज्ञान।
दो बिधि ज्ञान प्रमान्मे, जक्त जीव अश््यान ॥
चौप।ई
दुतिये अकार कमं कडि गावो । ताते कम अक्र उगावो ॥
भय करि आख्बार कर तादी । रोभके जरते सींचा वाही ॥
तामे सात साष कर थापन । यजन याजनअध्यन अध्यापन॥
दान प्रतिग्रह मेथुन गानी । सातो कमकी नाना वानी ॥
बानीते प्व बहृतेरो । एल बासना ताको हरो ॥
पुण्य पापद्रे एरु सो आना । केम केरे यह कीन वबखाना ॥
(८८ ) बोधसागर
पुनि ततिये अब देहं बताई । श्री उषाहा बीज कहाई ॥
तिहि उपा अंङ्र आया । आल्बारु मरजाद बनाया ॥
भावके जरते सींचा तादीं । सात साख एूटी तिहि मारीं ॥
शिव विष्णू गणपति रवि होई । शक्ती राम कृष्ण सातोई ॥
प्व ताहि न एूटी थोरी । महामचर जो सात करोरी ॥
दोहा-जारन मारन बसकरन, उच्लाटन, उच्वार ।
आकषण अस्थंमनो, मोहन सप्त विचार ॥
तिने रागे फर क्चिर, लोकादिक बह एूर ।
आब चोथो वर्णन करो, योग धमेको सूल ॥
- चोपाई
योग बीज रेकी न प्रमाना । ताते योग अंङ्र बिकसाना॥
किरिया आख्बारु कर ताको । साधनं जलर्ते सीचा वाको ॥
शाल पतञ्ररु पछ गायो । सात साख तामे फहि आयौ ॥
प्रथमे सो हढ्योग बतावो । बहुरि योग ख्य नाम कहावो ॥
योग॒ कुंडली तीजे बरना । पुनि टंबिका योग चित धरना॥
पचम तारकं योग बताई । ष्ठ योग अमनसकहि गाई ॥
योग सांख्य सप्तम गुणगाहा । एर समाध बखानो ताहा ॥
अणिमादिकं सिद्धी फल अदं । अब उतपत्य भेद विधि कहई॥
ए उतपत्य बीज बतलाया । तामे उतपति अंकुर आया ॥
विषया आल्बा कर जादी । बानी जल्ते सींचा वादी ॥
उतपति साख सात प्रकटानी । जाते चारो खानि बखानी ॥
शब्द स्पशं ूप रस गधा । बहुरि वासना इच्छा बंधा ॥
शब्दते मेव कौट बहु आदी । दादुर आदिकं उत्पति जादी ॥
बहुरि स्पशे अङ् मेथुन गाया । जीव मेथुनी ताते जाया ॥
तृतिये शूप कि उत्पति ठाना । अनर विहग आदि जिव नाना॥
स्वसमवेद्योथ ( ८९)
जेते दष्चि भावते जाये । सो सब इष उतपन्न कहाये ॥
चौथे रसते जलचर भयऊ । वक्षके फरते कीड़े कहैऊ ॥
पचम गधते उखमज होई । छठे वास्तना उतपति जोई ॥
ताते देव योनि प्रकटानी । भतादिक ताहीते मानी ॥
सप्तम इच्छते सिध योनी । सात बीज यह् उतपति थूनी ॥
दोहा-नारी ताको फूट है, पूङ्षं फल बतल्मय ।
बहुरि स्थितके बीजको, वणन करौ सभाय ॥
चौपाई
हीं स्थिती बीज षष्ठो आर्बाङ तिहि भाया होई ॥
मोदके जलते सींचा येही । सात शाख फुटि निकसीतेदही ॥
अत्र अङ् जल व्रण पृथ्वी पत्ता । फर अर् एर स्थिती गहनता ॥
अन्नते नर॒ जरते है जरचर । तरणते त्रणचर पातं पचर ॥
पुष्पते स्थित पुष्परचर आदी । फलचर सदा फल्नकौ खाही॥
महि अश् मलते जो उपजाया । महिअर मेलसों भोग लगाया
अब सप्तम परल्यको बरनो । छो दै बीज ताहि संहरनो ॥
परटख्यको अङ्कुर सों धारा। सात साख तामे प्रचार ॥
आल्बाल्की ना कठिनाई। कोध वारिति सो तप्ताई ॥
सात राख दहै ताके तीरा । प्रथ्वी पानी अभि समीरा ॥
लात हाथ अक दृत भनन्ता । नास करनको श्च अनन्ता ॥
भय है फूल भरत्यु फल जाका । सत्य कबीर बचन प्रपाका ॥
इति
अय उत्पत्ति कथ प्रथ अमर मूल सत्य कबीर वचन-चौपःरई
आदि पुरूष जब हतो अकेला । शब्द स्वकूपी पंथ दुहेला ॥
मनसा घटते भिन्न निकारी । उत्पति भई ताहि यकं नारी ॥
वह नारी सको जग जाया । भग भोगे सो पुरुष काया ॥
(९० ) बोधसागर
भगद्वारे दह बालक आया । यही भांति सब जग भरमाया॥
यरि घ्म द्वे शूप सवारी । सुग्ज पुरूष चद है नारी ॥
प्रथम उतो जब सुन्र षुभार। काल सुच एकै सम॒ञ्चाञ ॥
कारु मेद कोई नहिं जाना । धर्मदास त॒म सुनियौ ज्ञाना ॥
सुञ्नहि माहं शब्द उच्चाग । धर्भरायको मयौ पसाय ॥
प्रथमहि जिदशूप यकं भेऊ । सत्तर युग सोवत चलि गे ॥
सत्य साहिब मोहि आज्ञादीन्डा । जिद् जीव कह तुमनर्हि चीन्ा॥
तब हम जाय शब्द् अस बोला । सोवत जिद नारि चितडोटा ॥
त्र दम जाय जगावन लागे | मिद् न जाग प्रेम अनुरागे ॥
नादिनि जाग नींद भरम आवा । तब हम शब्द् एक उपजावां ॥
कारु शब्द् कदि टेरि पुकारा । सुनिके जिन्द् मयो संभारा ॥
कार शब्द् सुनि जिद् डराना । तब गहि आनि चरण खषंराना।
कारु शब्द ना होता मे!दईं। तो काहेका भक्ति कराई ॥
कालका डर तपसी तप साधा । इद्र पञ्च काल डर बौँधा॥
= इति
जय उत्पत्ति कथाग्रन्य कबीर बाती ओर अनुरागसागरके
अनुसार सत्यकबीर वचन--चौपाई
प्रथमे आदि समर्थते सोई । दसर अश इतो नरि कोई ॥
आदि अंङ्करा सुरति जो कीना । सत्य करी गभ तव लीना ॥
पांच अड तब भयौ उपानी । तत्व एक रहै भित्र प्रमानी ॥
धावे अड केर चोचन्दा। आप देखके सहजानन्दा ॥
फूटे अड तेज मह धारा । सबमे देख पांच ततसारा ॥
देखि शूप अंडनको भाई । सोद सुरति तबे उपजाई ॥
पुरुष शक्तिम दोय प्रकारा । ताको सौपा उतपतिसारा ॥
तासों उत्पति भेद बतावो । बचन सुरति एके समावो ॥
स्वसमवेदनोध (९१)
जति ओह पुरूष भे अशा ओह सोह मे दे अंशा॥
ताको आज्ञा उत्पति कीना । शब्दं संधि उनहूको दीना ॥
मूल सुरति अश् पुष पुराना । रचना बाहर कीनो थाना ॥
ओहै सोहं अंडन रहे । सकृठ घश्चि के करता भयञ ॥
प्रथम अंक दज इच्छा संगा । तीसर बूर चौथ सोहा ॥
ओह सोहे कीन प्रमान । आठ अंश म तिनते उतपानी ॥
आढ अश मे एक निधाना) करता श्श्ि भये परमाना ॥
सात अशके नाम बखानो । जिनते सकर सशि बधानो ॥
प्रथम मूल अक्रूर गनीजें। इच्छ सहज साहंग भनीजे ॥
पुनि अवित फिर अक्षर मे । ब्रद्धि हेत करता निरये ॥
सातो अश जीव हितकारी । जिव कल्यानं काज तन धारी
यहिविधि रचना करि करतारा । पुनि अपने मनमाहि विचारा ॥
बिना काट नहि जीव डराई। कोड न भक्ति भजन मन खाई ॥
तिहि ओसर प्रभु काल उपाया । जाकी डर सब जीव उराया ॥
जप तपादि संयम जो करनी । कारे के उरते सो सब बरनी ॥
सात अंश जिव दाया करता । अष्ठम कार भयो संहरता ॥
सोरग-चृद्धि देत मे सात, अष्टम नास्तिकि हैत है।
स्वसमवेद विख्यातः, तिनते सब रचना भई ॥
चोपाई
दीपन द्वीप अंश बेठरा। सातो जं तहं कीन पसारा ॥
अक्षर कीन जहाँ निज थाना । तहं समूदजरु तत्व बखाना ॥
अक्षर सुरति पुरूषकौ बानी । अगुण तत्व घटमाहि समानी॥
तब अक्षर को निद्रा आई। सोरह चोकरी सोय सिराई ॥
अक्षर सुरति मोहम आह । ताते दूसरे अंश उपाह ॥
अडस्वकूपी जलमहं दीना । यह अबिगति समरथने कीना ॥
( ९९२) बोधसागरः
अक्षर जागा निद्रा जाई । देखि अड व्याकुलता आई ॥
चकत भा यह किन निरमाई । अडदष्ठिने देखो भाई ॥
चहं दिशि तौ रहे जल छये । अंडा तापर तरे भाये॥
अक्षर दिग अड रुगि आवा । तामे लिखी हकीकत पावा ॥
एेसी तामे लिखो निशानी । परमपुर्षकी सो सहिदानी ॥
तुम गि इम यकं अश पटाई । रचना करो सष्टिकी भाई ॥
तुमते सो करिदै बरिआई । आवन देह जँ टमि आई ॥
सहसो युग उपर तीसा। तासु महातम कर जगदीशा ॥
बहुरि महातम दोय त॒मारा । काल्जाल्ते जीव उबारा ॥
कारु पुरूष तब पुरूष समाई । तासु महातम तब उरि जाई ॥
तब सब जीव भुक्ति पद पे । फेरि न चौरासीमे रेहै॥
एेसो अडप लिखा निहारी । अक्षर पटि मनमाहि विचायी ॥
अक्षर दष्ि अड बिहराना । ताते कार बली प्रकटाना ॥
सोइ ज्योति निरंजन भयऊ । जाको सब जग करता कहे ॥
अक्षर सुरति पुरूषकी बानी । ताते कारू भयौ अभिमानी ॥
निरंजननाम अक्षरने भाषा । समरथ शब्द इदयसमं राखा ॥
प्रभु निज तेजते काल उपाया । ताते सकर सृष्टि दख पाया ॥
यकपग कार रद्यो पुनि ठाटो । युग सत्तर कीनो तष गाटो ॥
तषमे येते काह विताई। मांग मांग वर कह तब सौई॥
कटै काठ प्रभु यह वर दीजे। तिहूं रोकको राज करीजे ॥
भवसागरे राज मारा । सुनि समर्थं अस वचन उचारा॥
पुत्र जाह प्रथ्वीके मूला । जहौ कमं बैठे अस्थूला ॥
सृष्टि भडार कूम॑को भाई । सोह माथ चौँसटहाथ पाई ॥
ताते ले सृष्टिकी रचना । शीश नाय बोरे मृदुवचना ॥
तीन लोकको पायो रानू । घर्मराय तब निज उर गानु ॥
स्वसमवेदबोध ( ९३ )
चारे धर्मं दषं दिय बादे। भनमें करत शुनावन भाट ॥
जाय कर्मके सम्मुख भय । नहीं प्रनाम दंडवत् किय ॥
देखे धर्म क्रूर्मकी काया । अगनबे कौटि योजन बतलाया
बारह पलंग कूर्मं शरीरा । षट पाटग धर्म बलबीरा ॥
धर्मराय तब क्रर्मते कईं । मोहि पुरषकी आज्ञा अहह ॥
सश्िकी रचना मोक देहौ । नादेहो तो मारिकि रहौ ॥
तघहि कूर्म निज मनहि विचारी। यह तो कार भयो हंकारी ।
कृं कूर्म सुनिये धमराया । पुरषं मोहि नहि कडु फरमाया॥
मते मांगे ककु नहि पावो । जाय पुश्प दिग बेगि सिधावो॥
यह सुनि धर्मराय अतिकोपा । कू्मते युद्धं करण भण रोषा ॥
तपबल काल मयो बरियार । अहंकार करि कमं प्रचार ॥
भिरा जायके सन्धुख धाह । करे यतन क्रिमि रचना पाइ ॥
धायकाठ अतिबल तिहि डाा। तासु तीन शिर नखते कारा ॥
शीस ताञ्च जिहि ओसर खंडा । उद्रते निकसा पोन प्रयंडा ॥
रणश्रव कूर्मं तन उग पसीना । सौ जलतच्त प्रथ तिहिकाना॥
पौँ चतत्व धरती अप्तमाना । सूरज चंदर नखते प्रकटाना ॥
तनत पौन छटा जिहि बारा । रचना सकल कान विस्तारा ॥
जबहिं प्रसेव बुन्द जरू दीना । महिउनचास कारि तिहि कीना॥
दूधपे जैसे परे ५लाईं। जरषर तथा जमीन जमाई ॥
कूर्मको तिहूं सिर भक्षण किय । बहुरि निरंजन शन्यम गयऊ ॥
धर्मराय तब कीन विचारा। कं लगि तीनो लोकं पसारा ॥
स्वग भत्यु कीनो पाताला। बिना बीज किमि कीजे बाला ॥
कृरि सेवा मागो वर सोई। जाते तिह पुर मेरो होई ॥
ूर्वध्यान तब कीन निरंजन । युग चौसठ कर सेवासंजम ॥
एकपौव पुनि सेवा किय । चोंसठ युगखों ठाढे रदे ॥
(९४ ) बोधसागर
बहुरि पुरूष दीनो बरदाना । सोह होई जो तोहि मनमाना ॥
बड़ारे निरंजन विनय उचारा । बीज खेत दीजे करतारा ॥
देह टौर बेटा जर जाई । तबहि पुरूष अस बचन सुनाई॥
मान सरोवर बेढठक लीजे। तीन लोककी रचना कीज ॥
तब करता मन कीन विचारा । बीज खेत तिहि काल संवारा ॥
अय बीजखेत अथवा आदि शकितिकी
उत्पत्ति वणंन-चोपाई
अद्याकी उतपत्ति बखानों । मथ श्वास गंजार प्रमानं ॥
निजतन मथि प्रथु मेर निकारी। रची ताहि आदि कुमारी ॥
पुरूष मरूते साचा कीना । पेटी मेर रंग तिहि दीना॥
देकर रंग बरन सब फेरा। भीतर भमर मोह मद चेरा ॥
पुरूष मरते पुत्री कीनी । पच तत्तव तिहि भीतर दीनी ॥
उतपति पारस पुञी पावा प्रगदी करा अनत सभाव ॥
नख शिष देह सिद्ध प्रथु कीना । पचह श्वास तिहि भीतर दीना।॥
जब श्वासा कायाम गे । प्रगरी ज्योति जगामग अडः ॥
आटो अग बना बहु रंगा) पारससार तारहिकेि सगा ॥
निम उदिति बतीसो दता । चमके बिजली कला अनंता ॥
उपजी ज्योति अखेडित बानी । बोले बचन पुष रससानी ॥
मधुर वचन अर लीला धारी । देख प जब पुरूष दुखारी ॥
उपजी रंग रूपकी खानी । बोरे अमी बिरहकी बानी ॥
उपजी कन्या कला अनूपा । पुर्षते प्रकट पुर्ष स्वशूपा ॥
जिहिया रस सब उतपति कीना। सोपा रस कन्याको दीना ॥
उपजी कन्या अगम सुभावा । अष्गी कह पुरूष बुलावा ॥
पुत्री जाहु निरजञन पादी । तुमकहं समरथ सदा सहाई ॥
स्वसमवेदबोध ( ९५ )
अथ आया ओर निरञ्जनकी कथा वगेन-चोपाई
प्रम पुरूषकी आज्ञा षां । कन्या तबहि कैल दिग आई ॥
यकषग खड़ी सेवम लागो । टी समाधि निर्न जागो ॥
सम्थुख पलक उघारि निहारी । देखा गदी आदि मारी ॥
परमरूप शोभा सराह । देखतके हि काम सताई ॥
कहं कैल सव॒ आदि भवानी । मिलि इम तुमजगरचना गनी॥
तब आचा अस उत्तर दीना । यहं विचार तुम अवचित कीना॥
मदौ बहिन त् मेरो भाई मोहि तोहिना होय सगाई ॥
यहि करनी तोहि लगे पापा । धर्मराय तब निज पद थापा ॥
पुण्य पापके भय मोहि नाहीं । पण्य पाप हमदी ते आही ॥
पुण्यं पापके इम करतारा । कोहं ठेय न छेख इमास ॥
कृडँ कैल सुन आदि कमारी । मोहि कारन तोहि पुरूष सवारी॥
म्रानि लेह तुम हमरा बचना । मिलि हम तुम करिये जगरचना॥
कैर वचन आद्या नाहि माना । उत्तर प्रति उत्तर तोहि ठाना ॥
तव॒ मन रोष निरञ्जन कीना ।निजष्रुखमाहि मेखि तिहि दीना॥
लीरुत कन्या कीन पुकारा । पुरुष पुरूष कटि वचन उचारा॥
ततक्षन योग जीत प्रकटाने । गहे कमान बान कर ताने ॥
सुरति बानते कैटहि पारा । कन्या अुखते बाहर डरा ॥
जब कन्या मुख बाहर आई । योगजोत तब गयो लोपा ॥
कन्या मयबश मे तिहि काला । पुरुषकि सुधि विक्षराय बाखा॥
पिता पिता कहि कैटहि बोरे । मदन प्रचंड तासु तन डोरे ॥
कियो निरञ्जन सकल पसारा । पण्य पाप दोड रचे अपारा ॥
पुण्य पाप दोउ फंदा होई । जामे अश्क रहै स कोई ॥
योग ॒यज्ञ संयम त्रत प्रजा । सब मही कोह ओर न दूजा ॥
रची धा माया बिकरारा । पुरुष लोकको मयो दारा ॥
(५ ९६ ) नोधसागरं
कटै निरञन कामिनि पारी । पृर्षं टिग अब हम नरि जाई॥
पुरूष लोकं इहं रचि लीजे । यकछत राज हमहि त॒म कीजे॥
अब तो पुरूष आस नहिं मोदी । गदहिके बाह राखिदहो तोही ॥
छन्द्-भग ना इतो तिहि नारिके नख फारि कीन निगखना ।
यमसाट जिव जेहि बाट विचरे घार उत्पतिको बना ॥
भग भोग प्रथम सयोग सोहं केर आद्या सा ठना ।
मे प्रकट ब्रह्मा विष्णु शकर अगुन मव निधि रंजना॥
अथ निदेवको जन्मकया वणंन-चौपारई
कार कल्क जबर गयो सिराई । ह्परंग क्या तन छाई ॥
जब भरि भांति रग तन मीना । कन्या कैर व्याह संग कीना ॥
कूभको तीन शीस जो रहे । केर कारिके भक्षन किय ॥
ताते तीन अश प्रकटाने। ब्रह्मा विष्णु महेश बखाने॥
देव॒ निरंजन आदि कुमारी । केते कारु कीनो सख मारी ॥
के अर् कामिनि भोग बिलासा। स्वस्मबेद मलिथांति प्रकाशा॥
तीनो सुत जिह कार उषाई । धमेराय तब गयौ लुपाई ॥
राजपाट आद्याको दीना । सुत्रमाहदं निज बासा कीनो ॥
कंट्यो निरंजन आद्या पासा । मेरोभेदन करहुं प्रकाशा ॥
पुजनसे जनि ब्रात जनावो । मेरौ मेद् न तिनहि सुनावो ॥
यतन अनेक ध्यान जो र्ेहँ। तो मम दशं पुत्र नरि पेहै॥
यह कटि श्न्यमे गयो समाई । योगसमापि निरंजन राई ॥
मातासे सुत पै बाता । पिता हमार कदं है माता॥
पुनते कह आदि भवानी । पिता तुमार दमहँ न जानी॥
रचना सकर दमिते होई । दम तुम तुम हम ओर न कोई॥
तुमहो पुरूष दमटि तोर जोई । इम तुम दसर ओर न कोई ॥
हमद पिता इम दीद माता। इम ही तीन रोकके दाता ॥
र्वसमवेदबोध ( ९७ )
जब जननी असर बचन उचारा । सुनि संसे कर तिह मारा ॥
मता कपट कीन इमपाहीं । पिताको भेद तावत नाहीं ॥
तीनो बालक ताति है । जननी बचन कँ सष जे ॥
तब माता बोली रिसिआई । पिताको दरश करह तुम जाई ॥
माता कह तुम पुष्प चढाओं । पिताक शीस परसिके अवो ॥
चरे जो पुज पिताकी आसा । पिता रहै पुजनके पासा ॥
खोजत खोजत कतहु न पाई । रहे निरंजन सत्र समाई ॥
लगी समाधि निरंजन तारी । निकषे वेद श्वाक्च संग चारी ॥
ऋग अक् यज्र अथरबन सामा । धरि तन रट हि निरंजननामा ॥
निरकारकी अस्तुति करही । देव निरंजन अन उच्चरदहीं ॥
देव॒ निरंजन रषि न अवे । ज्योतिज्योति कदि अतिगुण
तिदिमें वेद निरखे निज नेना । अतरुमानहिते भाखे बेना॥
दन प्रति नभ वचन सुनाई । बासा करट सिश्ुमे जाई ॥
आज्ञा दियौ निरंजन राई । बसो वेद सागरम आई ॥
बहुरि निरंजन सेन ठकखाई । आद्यासे अस कौ अञ्जाई ॥
निज पु्रनको आज्ञा दीजें। सिधु मथनको उद्यम कीजे ॥
तब आद्या अस युक्ति बनाई । तीन सुता निज अंग उपाह ॥
पुभिन कह अस आज्ञा दीनां । बसहर जाय सागरम तीनों ॥
माताको अस आयस पाई । तीनों सिधुमे गईं समाई ॥
यह चरित्र जननी जो ठाना । ब्रह्मा विष्णु शंभु नहि जाना ॥
राखा गुप्त न ममं बताया । आया सुतनसे वचन सनाया ॥
सागर मथन जाह मम वारा । पेहो वस्तु महदा सखुखसारा ॥
माताकी जब आज्ञा पाई। चले तिह तिहि शीस नवाई ॥
मथ्यौ जाय सागरको सोई । कन्या तीन प्रकट तब होई ॥
तीनो कन्या जबही पाये । इषसमेत मातु टिग आये ॥
बो० सार
(९८ ) बोधसागर
तब माता पुजन कडि टेरा। यह् तो काज भयौ सुत तेरा ॥
साविची बह्याको दीना । विष्णु लक्ष्मीक बरि लीना ॥
पारवती शकरको व्याहा । नारि पाय अतिमनदहि उाहा ॥
काम विबशमभे तीनों माई । देव दनुज सब दी प्रकटा ॥
जननी पुनि पुजन सयुञ्चावो । सागर मथन फेरि तुम जावो ॥
जो जिदहि मिरे लेह तुम सोहं । तीनों पु चरत तब होई ॥
सोरा-रञच न लायो बार, चरे तिह सुत सिथुतर ।
मथ्यौ ताहि चित धार निकसे चौदह रतन तब ॥
चौपाई
चौदह रत्न निकस निहि बारी । ठे जननीके सम्ुख धारी ॥
माताके जब आगे कीना। ताने बांरि तिषको दीना ॥
पायो वेद सो ब्रह्मा रीनो। पदि गुनिके विचार सो कीनो ॥
ब्रह्मा वेद॒ पदन जब लागा । दृत वेद् तब भौ अलुरागा ॥
करै वेद् पर्ष यक आदी । निराकार जिरि रूप न छादी ॥
सत्य माह सो रूप देखावत । चितवत दष्ठि नजर नहिं आवत॥
स्वगं सीस पग आहि पताला । यह सब देखो ताको ख्याल ॥
ब्रह्मा विष्णसे कंद समुञ्ञाईं । तुमहू शंथु सुनो चितलाईं ॥
आदि पुरूष यकं वेद् बतावा । वेद् करै हम मेद न पावा ॥
तब ब्रह्मा माता दिग आये । करि प्रनाम तेहि शीस नवाये ॥
डे माता मोदि वेद बतावा । सिरजनहार ओर बतलावा ॥
दोदा-ब्रह्मासे माता के, सुन सुत मेरी बात।
सप्त स्वगं है शीस जिदहि, चरण पताल है तात ॥
जो इच्छा तोरि दरशकी, पुष्प ठे तुम हाथ ।
बेगि सिघारो ताहि द्गः जाय नवाबवो माथ ॥
चषा
ब्रह्मा मातदहि शीस नवाई। उत्तर दिशा बेगि चलि जाई ॥
स्वसमबेदबोध ( ९९ )
तिहि अस्थान पहरचे जाई । नहिं तिह रवि शशि सत्र रहाई॥
बहुमिधि अस्तुति करे बनाई । ज्योति प्रभाव ध्यान तहं लाई॥
करते ध्यान गये युग चारी । माता शौच पृ्रकर भारी ॥
ब्रह्मा तात दरश निं पावा । शुन्यध्यान युग चारिगवावा॥
किहि विधि रचना रची बनाई । ब्रह्मा अवि कौन उपाई ॥
उपरि शरीर मे गहि काटी । पुरीष कौन रति टद ॥
शक्ति अंशनिज ताहि मिखावा । नाम गायञी ताञ्च धरावा ॥
गायञ्ची मातहि शिर नावा । चरन टेकिं रज शीस चद्ावा ॥
गायनी बिन कर जोरी । सुन जननीं विनती यकं मोरी ॥
कोन काज मोकह निरमाई । कटो वचन क्वं शीस चढ़ाई ॥
कृद अद्या पुती सुन बाता । ब्रह्मा आहि जेठ तवं जाता ॥
पिता दरश कहं गये अकाशा । आनह ताहि कवचन प्रकाशा ॥
द्रश तातको वह नरं पव । खोजत खोजत जन्म सिरविं ॥
जौनी विधि वह ईहां आई । करहु जाय तुम तौन उपा ॥
चलि गायत्री मारग जाई । जननी बचन प्रीति चित छाई ॥
गायज्री पहची तहं जाई । बह्मा जदा समाधि लमा ॥
लगी समाधि ब्रह्मकी गाढी । गायत्री शोचे तहं गी ॥
केते दयौस रदी सो ताहीं। ब्रह्मा पर्कं उधारे नादीं॥
गायती तब शोचन लागी । कौन भति बह्मा अब जागी ॥
नि मनम बहते अनुमानी । आया ताके ध्यान समानी ॥
आया ध्यानमें ताहि सिवाई । परसो निजकर ब्रह्मा पाई ॥
गायञ्जी पुनि कीनेहु तसो । जननी युक्ति बतायो जेसो ॥
तिहि ओसरसो मन चितलाईं । पररस्यो बह्म चरन तब जा ॥
ब्रह्मा योग ध्यान चित डोला । व्याङर भयो बह्म अम बोखा॥
कौन आहि पापिन अपराधी । काको मोर ओडाय समाधी ॥
( १००) बोधसागर
शाप देब तोको इम जानी । पिता ध्यान खंड मोर आनी॥
कड गायती सोहि न पाया । बरक्धि खेव तब देहो श्राषा ॥
कहौं तोहिते सांची बाता । तोहि छेन प्यौतो माता ॥
चरु बेगि जननी पहं जाई । तुम बिन रचना दोय न भाई ॥
बरह्मा कै कोन विधि जाई । पिता दरश अजहू नरि पाई ॥
कह गायो द्रशन वेहो । चह बेगि नहिं तो परछितेदो ॥
ब्रह्मा कदे देह तुम साखी । परस्यौ शीस देखा मेँ ओंखी ॥
एेसो कहो मातु सपुञ्चाई । तब तुमरे सग इम चलिजाई ॥
गायनी कह यह रै स्वारथ । कब् जानि रैं एनि परमारथ॥
यहि विधि बोल्ब ज्जूटी बाता । कौनी विधि तौ बञ्चे माता ॥
फुष्प _ गायत्रीं अल्ला तीनी । एकमता तिहि ओसर कीनी ॥
तानो मिलिक चङि भये त्हवा । कन्या आदि कुमारी जह्वा ॥ `
करि रणाम सम्मुख रह जाई । माता सव पू्ठी कुशलाई ॥
केसे द्रश भो पिता सुभाऊ । ब्रह्मा सो षब मोदि सुनाऊ ॥
कदे जह्य दोनों है साखी । परस्यौ शीस देखा इन आंसी॥
तव मता ब्रञ्चे अनुसारी । कट गायनी वचन विचारी ॥
तुम देखा इन दशन पावा । कहो सत्य दरशन परभावा ॥
तब गायत्री बचन सुनावा । ब्रह्मा दरश शीस पितु पावा ॥
मँ देखा इन परस्यो शीसा । बरह्मारी मील्यौ जगदीशा ॥
छद्-रे पुष्प परस्यो शीस पितु इन दृष्टिमिं देखत रदी ।
जल टर पुष्प चढाय दीनों हे जननि है यह सही ॥
माता कहे पुष्पावतीसे कहो सत्यहि मोसना ।
जो चदेह शीसपिताके तुम मोसे कहो तुम ततछना ॥
सोरटा-कह पुष्पावति मोर्हि, द्रसकथा निर्ूवारिके ।
यह ब्रञ्ो में तोहि, जिमि ज्मा दरशन कियो ॥
स्वसमवेदबोध ( १०१)
चौपाई
पुष्पावती वचन अस बोखे । माता सत्य बचन नहिं डोङे ॥
द्रसन शीस लद्यौ चतुरानन । चदन शीस यह धरिनिश्चलमन।॥
शाप सुनत आवया अकुलानी । यह अचरज मो मरम न जानी॥
अलखनिरंजन असषुनिभाखी । मोकहं कोड न देखे आंखी ॥
तीनों बो टी बानी । सुनि माता बहते अकखानी ॥
गह् सुनि माता कीनेह दापा । ब्ह्लाको पुनि दीने शाषा ॥
पूजा तोर करे कोह नारीं।जो मिथ्या बोल्यौ इम पाही॥
आगे हेहै शाप तम्हारा । मिथ्या पाप करे बहु भारा ॥
प्रकट नियम बहू करे अचारा । अतरमे पाप विस्तारा ॥
विष्णु. भक्ते # कर हकारा । ताते प्रे नरककी धारा ॥
कथा पुराण ओरन सञुञ्चवे । चारू बिरीन आप दख पावै ॥
उनत ओर सने जो ज्ञाना । करे भक्ति सो कहो पमान ॥
देवन प्रजा, बहुविधि कविं । दछिना कारन गलाकटा ॥
जाकर शीस करे पुनि जाई । परमारथ तिहि नारि ्डाई ॥
अपने स्वारथ ज्ञान सुनेहै। आपन पूजा जगहि टदह ॥
प्रमारथके निकट न जाई । स्वारथ अरथ सवे सञञ्चाईं ॥
गाय्री तोर वृषभ भतार । पोच सात अर् बहुत पसारा॥
धरि ओतार अखज त॒म खाई । बहुत ञ्जूठ त॒म बचन सुनाई ॥
सुनो पुष्प तुमरो विश्वासा । होय विगध मध्यतो वासा ॥
जो तोहि सीच लगाव आनी । ताकर दोय वंशकी हानी ॥
अब तुम जाय धरो ओतारा । केवडा केतकी नाम त॒मारा ॥
छंद-शाप तीनोंको दियो मनमाह तब पछितावई ।
केसे करे मोहि निरंजन पर छमा मोहि न आव ॥
आकाश बानी तब मई यह काकी नम बानिया ।
उतपत्ति कारन तोहि पठ्यौ कह चरित यह ठानिया॥
( ९०२) बोधसागर
सोरडा-नीचहि ऊच सताव, ओट मोहिते पायदहो।
द्वापर युग जब आव, तोहि पौच भरतार हो ॥
चौपाई
शाप ओर जब् सुने भवानी । मनम गने कहे नरं बानी ॥
ओर प्रभाव आपते पाह । अब कृह करो निरंजन राई ॥
तुमरी वश्य परी इम आई । जस चाहो तस करो उषाई ॥
आई माता विष्णु दुंखारा । सुनड् विष्णु यकं बचन हमारा
अब तुम बेगि पिता रमि जाई । बेगि पिताको प्रसह पाई ॥
आज्ञा पाय विष्णु तब चारा । पिता दरश कं गये पताल ॥
अचत पुष्प लीने कर मां । चरे पताक पथ गम नारीं ॥
पचे शेष॒ नाग पं जाई । विषके तेज विष्णु अरसाईं ॥
भयौ श्याम विष तेज समावा । निरंकार अस बचन सुनावा ॥
अहो विष्णु माता पर जाह । कियो सत्त बचन सभुञ्ाई ॥
सतयुग अता जेहै जबही । द्वापर होय चौथा पद् तबही ॥
जब तुम हदो कृष्ण शरीरा । रेह ओर सो कटो बलबीरा ॥
जो जीव देय पीत जेहि काहू । दम पुनि ओर दिखते ताहू ॥
नाथह नाग. कार््दी जाह । अब तुम जाहु विंब न खाई ॥
विरु पचे जननी पासा । कीनो सत्त बचन प्रकाशा ॥
भेत्यो नादि मोहि पद ताता । विषके ज्वार श्यामभो गाता॥
ग्याङ्कर भयौ तबहि फिरि आईं । पिताद्रश नादीं इम पाई ॥
सुनिके दरषी आदि कुमारी । छीन विष्णु कर निकटदुखारी॥
चूम्यौ बदन शीश दियो हाथा । सत्य वचन बोल्यौ खतगाथा॥
देहं पुत्र तोहि पिता मेटाई । तोरे मनको धोख छुंडाई ॥
प्रथमहि ज्ञान टश्ि त॒म देखो । बचन मोर इदयेमं पेखो ॥
` मनस्वहूप करि ताकंर जानो । मनते दूजा ओर न मानो ॥
स्वसमवेदबोध ( १०३ )
स्वर्म॑पतार दौर मन केरा । मन अस्थिर मन एिरे अनेरा ॥
छनमर कला अनत देखे । मनक पेखि न कोई पातै ॥
निराकार मनदीको किये । मनके आस द्रौस निशि रदिये॥
देखह पररि सुत्रमें ज्योती । जहौ ्चिलिमिलि अरूके मोती ॥
यहिविधिविष्णुदरसपितुपायौ । भांति भंतिको रग दिखायो ॥
श्वेत पीत हरितो जगारी ) श्व अनूप गगने भाटी ॥
सुनि बाजा दिये हरषाना । पिता द्रसते अति खख माना
बहत अधीन मातुसं भे । शीश नाय श्रदु बानी केैऊ ॥
तव प्रसाद मम मातु बिशेखा । पिताको दर्श दष्ठिते देखा ॥
मातु गईं पुनि रद्रके पासा । देखि ङ्द मनमाहं इलासा ॥
दोय पु कह मता बतावा । मग महर तोहि जो भावा ॥
हे जननी यह कीजे दाया । कहं न विनसै इमरी काया ॥
कृद जननी तुम रेसे होदी । साधो योग सत्य कँ तोही ॥
जबलों प्रथ्वी अकाश सनेहा । कबहुँ न बिनसे तुम्हरी देहा ॥
तिह सुतनको मता बताई । आदि पुरूषको नाम छपाई ॥
आद्या रेसो छल बर कोना । पुरुष छपाय प्रकर यस कीना ॥
निरंकारको भेद बतावा । पु्षसदेश न सुनत सुनावा ॥
पुरूषमेद विष्णुहू न जाने । निरकारको करता माने ॥
ज्ञेषो छल बल आया कीन्हा । सोई चला जक्तमे चीन्हा ॥
देखो सो नारि स्वभा । मात पिता कड सो बिसरा ॥
केतो प्रीति मातु पितु करदी । कन्या एक न चितम धरी ॥
गे पुनी जब स्वामी गेहा। रात्यौ रंग - ताञ्ुके नेहा ॥
भातु पिता सबही बिसरायौ । अपने पतिकी नारि कायौ ॥
आद्र मान खसमको होई । पिताको नाम रेय नरह कोई ॥
तति आया मरं बिगानी। काल अगद रही भवानी ॥
ककि तया
( १०४ ) बोधसागर
ब्रह्या निज सन कीन उदासा । तब चरि गये विष्णुके पासा ॥
जाय विष्णुसे विनती उना । तुम हो बुद्धिदेव प्रधाना ॥
तुमपर माता भई दयाला । हम तो आप बस भये बिहाखा॥
निज करनी फर पायौ भाई । केसे दोष ल्गावौं माई ॥
अब सोयतन करो रो आता । चरे परिवार वचन रहै माता ॥
कहे विष्ण छोडो मनमंगा। यैं करि हौं सेवकाई संगा ॥
तुम जेटे इम ख्हुरे भाई । चित संशय सब देह बहाई ॥
जो कोइ होवे भक्त हमारा । सोसबदी तुमरो परिवारा ॥
यज्ञ॒ धम प्रजा जो दोहं विप्र बिनाकछ्कुदहोयन सोहं ॥
जक्तमे एेसो ज्ञान रटे) पुन्यफट्नकी आस रूगावे ॥
जो कोई करे द्विजनकी सेवा । दरषित दों तिरि विष्णुदेवा ॥
सोरठा-त्रह्मा भये अनद्, जबहि विष्णु अस भाषे ।
मेखो मनको द्वद, साख मोर सुखते रहै ॥
॑ चोपाई
ब्रह्मा भाष्यो ज्ूठ सदेशा । ताते ताको भयो अदेशा ॥
विष्णु जो संचो बचन सुनाया । माता कीन ताहिषर दाया ॥
शिव कजायके चुप हि रदे । ञ्जुठ सांच एको नहि करेडः ॥
ठत पिता तिह गे हारी । पिताको रूप न कतं निहारी ॥
माता कही विहंसि निज बानी । बह्मा जू यूठकी खानी ॥
शिव कष्ुञ्जुढ सां च नरि भाखो । ताते योग ध्यान चित राखो ॥
योग समाधि करो अब जाई । जटा रखाय बिभूति रमाई ॥
माता विष्णुसे बोरे बानी । तीन लोकं करिदो रजधानी ॥
शिव ब्रह्मा करिहै तब सेवा । गन गंधर्वं रचिहो सुनि देवा ॥
चार बरण ब्रह्मा निरमाई। चार वेद मत चार चलां ॥
शिवके वरण भेद ना दोईं। क्रोध ङूप धरि भेष बिगोई॥
स्वसमवेदबोध ( १०५ )
मातु जो दया विष्णुषर कीने । पिता देखाय निकृरही दीने ॥
माता पिता एक मिलि गे । विष्णु दैखिके हित भे ॥
माता पिता सत एके ठे ।विष्णुसमाधिनज्योति मिलिगे॥
तीनो मिलि जब एकै भयऊ । तिहि पीके जग सिरजे छियॐ॥
तब माता अस बचन उचारा । र्चो सृष्टि तुम तीनो बारा ॥
अंडज उत्पति कीनी साता । पिंडजको ब्रह्ला उतयाता ॥
उखमज खानि विष्णु व्यौहारा । शिव थाबरको कीन पसा ॥
चोरासी लख जनी कीना । आधा जक आधा थल्दीना॥
नौटलख जरके जीव बखाना । चौदह क्ख पछी षरमाना ॥
कमी कीट सत्ता लखा । तीस खक्ष अस्थावर भाषा ॥
चतुर लक्ष मानुष परमाना । मलुषदेह खृह पद नि्वाना ॥
ओर योनि परय नहि पावि । तत्त्वहीन भवं भटका खें ॥
ठक तत्व अस्थावर जाना । उखमज दोय तत्त्वे परमाना ॥
अडज तीन तत्वशुन जाना । पिंडज चार तत्व परमाना ॥
ताते होय ज्ञान अधिकारा । मावुष देह भक्ति अन॒ुसारा ॥
अडज खानि तीन ततब्यापा । वायू तेज तीसरो आपा ॥
थावर एकं तत्व है पानी । उखमज वायु तेजते सानी ॥
पिंडज चार तत््वसे बरनी । पौनो पावकं जल अर् धरनी ॥
विंडज नरकी देह देह रवारा । ताते पेच तत्व ॒परमाना ॥
नर॒ नारीमे तत्व समाना । ज्ञान बिभेद ताहूमे जाना ॥
चारो खानि जीव भरमावा । तब माुषकी देही पावा ॥
पांच तत्व मानुष विस्तारा । तीनो यण तेहिमाहं संवारा ॥
देह धरे छोडे जस खानी । तेसो ज्ञान रहै सो प्रानी ॥
प्रथम कहो अडजकीं खानी । दारदी निद्रा अर्सानी ॥
चोरी जगी निंदा माया । घर बन ञ्ञाड़ी आगिरुगाया॥
(९०६) बोधसागर
तृष्णा दूत भूत॒ सेवकाई । रोवे कभीके मगल गाई ॥
ओर को देत देखि पच्छिताई । गरू सतयुरू चीन्दै नरि भाई॥
वेद शाञ्च सब देत उठाई । आपन मन सब दी द्रसाई ॥
जगम ओर तुच्छ सब आही । मोहि समान बड़ को जगमारी॥।
सरे वश्च सो नहीं नहाई आंखि चिषर मुख लार बहा॥
पासा जवा खेर अङ् दाॐ । कूषर मूड अङ् लामा षा ॥
दूजी उखमज खानि कहावा । ताते जो नर् देही _ पावा ॥
जाय सिकार जीव करं मारा । बहुत आनंद होय तिहि बारा॥
बहुविधि मासु राधिके खाई । शुरूको मेरि करे अधिकाई ॥
निदे नाम शब्द शु देवा । बहत बात कथ ज्ञानको मेवा॥
ञूटी बचन समामे खाई । टेढी पाग छोर ओरमाई ॥
दया धमं मनम नदिं अवे । करे पुन्य तिहिर्हौसी खव ॥
माखा तिलक अङ् चदन करई । हाट बजार चिकन पट धरई ॥
अन्तर पापी उपर दाया । सो जिव यमके हाथ बिकाया॥
लम्बा दन्त ङ वदन भयावन । पीरे नेन ऊच अनषावन ॥
तीजे अचर स्वानिको टखेखा । देह धरेते होय जो मेखा ॥
चछिनकं बुद्धि होवे जिव केरा । पठत बुद्धि न लागे बेरा ॥
गा फेटा शिरपर पागा। राजद्रारसे वामे लागा ॥
घोडेपर होवे असवारा । तीर खड़ अङ् कमर कटारा ॥
इत् उत॒ सेन चित्तसे रावा । परनारीको सेन बोलावा ॥
पर घर रति कर चोरी जाई । शरमभाव उपजे नहि भाई ॥
छन यकम कर पजा सेवा । छन यकम बिसरे सो देवा ॥
छन यक मनम सूरा दोई। छन यकं मनमें काद्र सोई ॥
छन यक मनम करे सुधमां । छन यक माह करे अपकमां ॥
भोजन करत माथ खज्अवे । बाह जघ पुनि मींजत जावे ॥
स्वसमवेदबोध ( १०७ )
भोजन करे सोय पुनि जाई । जो जगाव तिहि मारन धाई ॥
ओंँखी खार होय पुनि वाको । ओर अनेक न लक्षण ताको ॥
चौथे पिडज खानि सनं । न ओयुनको मेद बतावों॥
वैरागी उन मुनि मत धारी । धम पुण्य कर वेद् विचारी ॥
तीरथ पुण्य अङ् योग समाधी । यङ्क चरण चित बल बोधी ॥
पटे पुराण कथे भर ज्ञाना ) सभामे बेठि बात भरू ठाना ॥
राजभोग कामिनि सख माने । मनशंका कद्र नहिं अने ॥
धन संपति खख बहत सोहाई । रोग सोषारी बीरा खाई ॥
खरचे दाम पुण्यमे सोह । दये सुख पुनि ताके हो ॥
चक्षु ॒तेज ताकर अति मानी । परा कमं देही बरू उनी ॥
देखो खद्ध सदा ता हाथा । प्रतिमा निरखि नवव माथा ॥#
सोरठा-छरटे नरकी देह, जन्म धरो फिरि आय जब् ।
ताको क्यो सनेह, धम॑दास सन कानदे॥
् चौपाई
आय आछत जिव मरिजाई । जन्म धरे मावुषको आई ॥
ञ्श होय सो रणके माहीं । भे डर ताहि निकट न जाहीं॥
माया मोह ममता नरि व्यापे । दुरमति ताहि देखि डर कांपे॥
सत्यशब्द प्रतीत कै आने । निदारूप१ कबहु ना जाने ॥
सतगुरू चरण सदा चित राखे । प्रेम ङ् प्रीति दीनता भाखे ॥
यरहिविधि चारों खानि बनाया । सबमें रमे निरजन राया ॥
कर्मजा महँ सवे पसाई। रेखाकमं प्रत्यक्ष देखाईं ॥
कृकी रेख लिखि सबमादी । ताते जीव भवेमे भरमादी ॥
छिखि निरञ्जन केमेको रेखा । ताते जीव धरे बहन मेषा ॥
कमैरेख कहूँ नरं दरे । फिर फिर जीव निरंजन दृटे ॥
चारि खानि रचिकियो परसारा । चार बरन पाखंड व्योहारा ॥
( ९०८ ) बोधसागर
चौरासी ख्ख योनी कीन्हा । चार खानि जिव एके चीन्हा ॥
चौरासी ख्ख बचन बखाना । चारखान जिव एक समाना ॥
रचना रचे सृष्ठि बह रंगा । कामदेवकी कला अनगा ॥
सुर नर सुनि गण काम तरंगा । पञ्च पक्षी सबहीके संगा ॥
कमेः कार सबही भरमावा । शिवशक्ती संग कटा नचावा॥
कनक कामिनी फंद बनाया । तिहि फन्दे सबही अङ्ञ्ञाया ॥
जाति पाति इर मान बड़ाई । ब्रह्मा यह यम फेद बनाई ॥
शिव शक्ती द्रे रूप बनाया । नारि पुरूष सो नाम धराया ॥
भगद्रारे है सब जग आया । भग भोगनको पुरूष कहाया ॥
नखशिख रची कार फुलवारी । फूल कुबास सुबास सवारी ॥
कनकं कामिनी कार बनाई । चार खानि रदी समाई ॥
कामिनि काम संवारा ज्ञानी । चारो खानि रहा विष सानी ॥
कारु कमक खानि बनाई । सब संगतमें रहा समाई ॥
सुर नर सुनि सबहीको उदके । चारखानि सबही घटमहके ॥
तीनों देव॒ निरंजन रूपा । येह भवसागरफे भूषा ॥
चारो मिलि सब सृष्टि सवारी । पञ्चम किये आदि मारी ॥
जहां तहा तीरथ व्रत दाना । देवर देव पूजा पाषाना ॥
मथुरा तीनि देव ओंतारा। बरह्मा पुनि काशी षग धारा ॥
यदहिविधि आया साज्यौ सान् .। तिह पुजनकरँ दीनो रान् ॥
मथुराते चलि आदि भवानी । कोरकांगडे पडची आनी ॥
कोरकांगड़ करि निज थाना । दींगखाज पुनि कीन पयाना ॥
आदि भवानी रदी तहांई । तिहूं पुज जग राज कराई ॥
नाना भांति कमं बिस्तारा । वेद कितेब प्रपच अपारा ॥
भर्मजाल जग्मे फेखाईं।नर नारी तामे अश््ञाई॥
जहत तीन देवकी सेवा । कोई न जान पुरातन देवा ॥
स्वसमवेदबोधं ( १०९ )
तीन देव निज हुकम चराई । अद्याहको नाम छपाई ॥
तीन देव सेवे संसारी । पै निं कोड आदि कमाय ॥
तब अया मनमाहिं विचारा । मम सुत मेरो महातम टरा ॥
कनो तब असि युक्ति भवानी । एेसो करदप गनखानी ॥
तीन शक्ति निज तन प्रकटावा । महामोहनी हप बनावा ॥
दाहा-रभा भूची रेवुका;, तीन इषं निज कीन)
गंधबनको मोहि मनः; वश अपने कर लीन ॥
चौपाई
तिहूं हप मोहनी बनाई । सब गंधव निज संग गाई ॥
भोति भौतिके बश्च अतपा । भूषन भ्रषित अदधत ङपा॥
छतिस भौतिके बाजा टठेई। चली अिदेवपाहं तब येई।॥
राग रागिनी यकसठ जाती । महा म्रुर खर गाव खभोती ॥
तीन देव सुर नर शुनि चारी । निज बस करि टीने तिह नारी॥
जग्मे अपनो अदर चराई । जहं तहं शक्तीसेव थपाई ॥
तीनो देव निरंजन शक्ती । इन पांचोकी सब कर भक्ती ॥
मन उव्कार निरंजन राई। अरुख श्युन्य अविकार कहाइ॥
केलकाल निर्यंन निरंकार । धमराय यम ब्रह्म पुकारा ॥
यादिक बह यमकेनामा। रमे सवम सोह रामा ॥
जेसं तिख्मे तेल समाया । तिमि सबमार्हि निरंजन राया ॥
मनसे ओर नदीं बसिंडा । गाजे तीन रोकं नौ खंडा ॥
सुर नरुनिसब छि छलि मारा । कोई जीव नि बचा कडारा ॥
रचना शुचिर अपार बनाई । सकल जीवको सो भरमाई ॥
कवहुंके देठ कवहुफे उपर । कब्हके डारि देय जिव भूपर ॥
पंजाबी भाषा-छद लना
इत्ते उत्थं कर उत्थते इत्थ धर जित्थेही जाय जिव नाहि डटे॥
( १९०) बोधसागर
भट तिह रोकं है नड जित जाइये तित्थदी तित्थरी काल कुड ॥
सत्यकबौर वचन
तोन लोकम लागी आग । कै कवीरा करं जेहो भाग ॥
चोपाई
पूवे प्रसंग कंरो पुनि वणेन । कूमेषारिं जिमि गये निरंजन ॥
तोन साथ जब ताको छीना । बहुरि शन्यमे बासा कीना ॥
कूम भये तिहि कार इखारी । ध्याने पुरूषते बचन उचारी ॥
अहो पुरूष दाया भल कीना । मोक धर्मराय दख दीना ॥
यहि बिधि पुरूषपे कूम पुकारी । तब सतपुरूष दया उर धारी ॥
बोरे तब अस पुरूष पुराना । सुनो कूमं मम बचन प्रमाना ॥
यह तौ कार भयौ अन्याई । जो यै ताहि देब बिनसाई ॥
तौ सबही रचना भिरि जैद । सोलह पु सबहिं बिनसे रै ॥
सोलह पच एक री नारा । तादी सूत मध्य यह कारा ॥
विषयते रचित निरंजन देरी । मम दरसन अब पाव न येही ॥
लक्ष जीव नित करे अहारा । सवालक्ष नित प्रति बिस्तारा ॥
यदि विधि आप दीन प्रभु तेदी । परमपुर्ष टिग जाय न येही ॥
रचना करि पुनि भोजन करई । सबमे रमे न सो छखि प्रई ॥
षट द्रसन छानवे पाखंडा । धमे कम जर्हलों महि मंडा ॥
सो सब आहि निरंजन खेखा । गह जिव अगुन शक्तिके मेला ॥
नाना भौतिके धमे चलाई । जक्त जीवको सो भरमाईं ॥
एकं विरद पथ कर दूजा । नानाविधिको थापे पूजा ॥
सबहि भरमायके भोजन करई । कारकला नदि जिव खि परई॥
चार शुक्ति जो वेद बखाना । सो सब देव निरंजन थाना ॥
योग युक्ति सब तासु पसारा । पुरुषद्वार ते परदा डारा ॥
युक्तिपंथ नदिं पावे कोई । कारु भमा सब नर रोई ॥
स्वसमवेदबोध ( १११ )
तप्त शिखा यक नाम पुकारा । सब जिव वकरि ताहिषरजारा॥
तप्त शिलाप्र जो जिव परही । हाय हाय करि चटपट करही ॥
तरूफि तरपि जिव तह रहिजादी। भूनि भूनि सब यमधरिखादी ॥
केते युग जीवन धरि खायो जारि वारिके योनि अमायो ॥
जरत जीव जब कीन युकारा । कार दैत है कष्ट अपारा ॥
यमको कष्ट सहो नहिं जाई । हो साहिब इःख टारो आई ॥
यहि बिधि जिव जब कीन वुकारा। पुरषं दयार दया उरधारा ॥
तब पर्ष ज्ञानीको टेरो। ज्ञानी सुनिये आज्ञा मेये ॥
सत्यकबीर वचन
छद्-जव देखि जीवन केँ बिकरू तब दया युकष जनाहया॥
दया विधि सतपुरूष साहिब तवै मोहि बोलाश्ष्या ॥
क्यो मोहि सशरञ्चाय बहुविधि जीव जाय वितावहो ॥
तुव दरशते जिव होय शीतर जाय तपत बुञ्चावंहो ॥
सोरठा-आपा खीनो मानि, पुरूष सिखावन शिर धर्मो ॥
तत्क्षण कन पयान, शीस नाय सतपुर्ूषको ॥
चोपा
आयो ज जई जीव सतावै । कार निरंजन जीव नचाव ॥
चटपट करे जीव तहं भाईं। गढ भयो मँ तहँ पुनि जाई ॥
मोहि देखि जिव कीन पुकारा । हो साहिब मोहि रेव उबारा ॥
तब इम सत्य शब्द गोहरावा । पुरूष शब्द ते जीव जड़ावा ॥
सब जीवनमिकि अस्तुति लां । धन्य पुरूष यह तपन बुञ्ञाई ॥
यमते छोरि ह मोहि स्वामी । दया करो उर अंतरयामी ॥
इति
अथ जीवनक स्तुति--छद तोटक ५
जय सत्य कबीर कृपार धनं, दरु दुष्टहन पय पुष्ट जन ॥
न.९ कबीर सागर - ५
( ९९१२) बोधसागर
योग जीत अतीत पुनीत प्रभू, वपु धारणं कारन तारन भ ॥
खत सुक्कृतं सत्यस्वरूपं सदा, जन ध्यावत पावत शुक्तिपदा ॥
चुकता सनिते जिव जो गता, सतलोक सशोकन भौ भथुगता॥
हस दीन दुखी किमि त्याग चहो, करूणामय हो कर्णामयरो॥
कर्णातन धार करी कर्णा, करूणासयधोँ कर्णा व्णा ॥
सुर सिद्ध बखानत खान दया,जिव देखि अनाथ सनाथ मया ॥
यहि ज्वार जखा यम भक्ष करे, विन देवं दयाको रक्च करे ॥
यम जाखिम जीवन जेर कियो, सुधि रेत दयादधि देर कियो ॥
सुख ठेशन के तक लेश भरे, जगदीश परे जगदीश परे ॥
जिव काठ कराल्के ज्वार दहे, तर उपर भूषर धाय गदे ॥
इम जानि दयार जो काल मजे, गुणग्राम प्रनाम सो नामतजे॥
घटवाह मलाद् सराह कदो, फिर केटकि गेलको सेर न हो ॥
वह सिह समान शिकार करे, प्रिय पीव बिना कह जीव तरे ॥
हारे केदरि देहरि पार करो, सरकार बडे बरकार करो ॥
भयभजन रजन दासनको, खल डाटत काटतं फांसनको ॥
भवसागर ्आगर कार बली, तह जीवकि उक्ति न शुक्ति चली ॥
नदि एकं उपाय बनाय बनी, कर् काज गरीब निवाज गनी ॥
प्रथु पेखतही जिव शीतर है, शति वेद पुराण बखानत है ॥
करुणा रग कोटिन कारु हने, खुग्सिधु कणा गिर बधु बने ॥
मतिधीर कबीर कबीर भजो, दितनाम प्रिया बिन नाम तजो ॥
तपखान कृशान शिखा दहके, जरते प्रभु मारगते बहके ॥
तरफ तप तीख सभी तरते, बिन नाथ किने इन सोपर्ते ॥
निच सृष्टि निवाज सुहष्टि ल्खो, सिरपे समरत्थ जो इत्थ रखौ॥
नरषाल बेहार निहार मदी, दुखद्वद दवारिन देह ददी ॥
मनभौो मदमोचन लोचन दै, जनरक्षक भक्षक पोचन है ॥
म य > जा अ (त
स्वसमवेदनोध ( ११३ )
सबखायक नायक ॒दंसनके, जिवमोषक पोषकं अंशनके ॥
सरवोपर सादहिवि जीवनके, तुम जीवननाथ हो जीवनके ॥
प्रथुके भरमते यमते बजर, यहि तप्त शिखा प्र आनि जरे ॥
तपिया जपिया न पिया परख, बिधि षेद ख्वेदन ते रखे ॥
जिवकाज चरे शिरताज सभी, महराज मयाञ्चख साज सभी ॥
भवभार हरो करतार धनी; धरमराय न पय इखाय इनी ॥
करि नेह बिदेह जो देह घत, शबदाश्त जीव भे कत्तक्कत ॥
सृत नायकं सायकं तख इते, पद प्रीत प्रतीत सदहीत गते॥
परमारथि मारयि नाथ सदा, गहते कहते यव पाथ इदा ॥
जनजाय समाय अमाय षदा, श्चुभज्ञान कुरानन सान मदा ॥
मुनि मानस दंस अनीन्द्रमता, समता लह पाय वता रमता ॥
तब नाम सुधा बसुधा जो पियाःन क्षुधा युगही युग जीव जिया॥
दुखिया हितआय महा भुखिया,कखि पीवरि जीव भये सुखिया
कहं ओर न दौरतो पोर प्रे, सरनी प्रनी करनी नखरे ॥
पद् तीर कबीर शरीर जिते, ठह सारमे ब्रह्म अकार तिते
जग योनि जहान महान महा, युरूदेवको भेव नते बल्डा ॥
कमलापति क्यों कमटापति हो, पद्कीरति कीरति कीरति हो ॥
भगव्याध समाध अगाध गहे, कलपानसिरान न ध्यान लहे ॥
गुन गाय फनी गणराय निती, नहि पावत पार अपार गती ॥
लवलीन प्रवीन नवीन जसे, करिपिक कलंक निशंक नसे ॥
विषया बनराय युखाय परे, दुखदौन बनाकर कौन धरे ॥ `
कह कोन संदेश अदेश बड़ा, भग भूङि गई उग आनि अडा ॥
शिव शोकं कि स्चोकम ब्ुलि रहा,करता भरता अरम भूलि रहा ॥
तिहु लोकं बिलोकं लगीअगिनीयह जामिन रे यमकी भगिनी ॥
तबे सूरको तरर जहूर हआ, ममता रजनी दुख दूर हआ ॥
० साऽ९
( १९४ ) बोधसागर
सगरे गरे रगरे बगरे, पशुज्ञान गहे डगरे डगर ॥
बकचाङ् सभी न सरारुमती;, बिन एक रतीबन एकरती ॥
जब् गभस अभक अजं करे, तिहि गाठते साहिब गाटि धरे ॥
इत् ओरदि ठटाकको ख्याठ खिला,ब्धि खत्त मरे यहि तप्त शिला॥
वह ओघ अचेत सुखोपति सो, कह पाय पराग बनारसको ॥
निज घामते राम पयाम छलिया, जगती भगती पद पाय पिया॥
कित दो ्जलकी मनसा मरुकी, अक् अंघ अचेतकिभयटर्की ॥
दुगदानि किं वानि बिहानि इते, मकरंदके फंदको जीव जिते ॥
सृतन्छगन सिग बिहार करे, कम रेख विशेष नं देखं प्रे ॥
नहिं करोधित अध कि गंध मिरे, जिव दंडकं भंडकं भीर हिले॥
शुर्ूपीर कबीर उजागर है, भव बोहत सोहत सागर है ॥
जगबदन भम निकंदन रै, सरनी सतटखोककि संदन है ॥
सतनाम सनेद सुधाम चटे, कलिमा करिमा कलिभाद पटे ॥
गुणग्राम निकाम कबीर कबी, जस गावत पावत कोटि छबी ॥
धुरम धराधर धार कदो, भवतारक पथ प्रचार कहो ॥
नर पामर घामर बुद्धि बिना, यमज्योति पर्तंगके ठंग बना ॥
जग व्यापि ₹ आघ असाघ करे, चरणाम्बुज च्रूरण चाङ् हरे ॥
भवतारन हेत निकेत कृषा, पयगाम ख्यो सुखधाम नृपा ॥
सखुरभूप स्वरूप अनूप छिपा, रवि सोम जो कोटि करो मदिषा॥
गुरुगुप्त कियो धुरको बरन, भव भोर भयावन तौ शरन ॥
हमरे उरके पुर बास करो, निज दासनको अब दास करो ॥
बिन केतके भो जलत घने, दुखद्रद कफंद कर्फंद् फने ॥
जगमाह कि बाह निबाह रदे, भ्रम भो डरभे डरभीर बहे ॥
द्नुजात बलात निपात भये, रणधीर वहीर गदीर गये ॥
जिहि जानत जान सुधाम धरे, निके मन मदिरे बिहरे ॥
स्वसमवेदबोध ( ११५ )
मनमत्त मतग मते यहि गौं, तुहि रावत दोय महा उतजोौँ ॥
चितचश्चर ब्र बञ्चक है, समसञ्च विरञ्चं न रञ्चकं है ॥
यम॒ वेकट संकट जीव महा, दमकौ गमको रमको न रहा ॥
भवसेत अभय षद देत तुदी, कछिकंटक कोटिन कमं दही ॥
चटि सेत पधीलन टीर तरह, ठचि दीन पयोनिधि पीन महाँ ॥
नर्हि व्को हाड नं चाड रहौ, मन वाक शरीर कबीर को ॥
गुर् नेह न दीसन दीस जिन्दै, सुखवासन आस है जस्ष तिन्ह ॥
तुम दीनन बन्धु न पीननके) नित पास हो दास अधीननके ॥
मद मान मलान हिये अरभौ, नर नागर सागर भौ गरभौ ॥
करि पाप कलाप करे दुनिया, विष बीज अ्मीफल कौ दुनिया ॥
हरिम हरिम हमही वरषे, लहरी भवभक्तिं हरी ईरषे ॥
दखदारिद वारिद ज्ञानघनं, निरभय करि भय शमनं शमन ॥
जिव कालके जाल परे बपुरे, सतनाम निकाम सदा जघु रे ॥
गुशूभक्ति निनार किनार गहे, चतुरे छुतरे भवधार बहै॥
भ्रमभूरते मलते जात भगे, बुध बालन डालन पात ल्मे ॥
मन बाचक याचक हौं दरको, तुम छोड अजोड सभी घरको ॥
प्रभु नामको दान निदान चहो, कोइ आसशूबास विकाश न हो ॥
तरनी बरनी तब नाम जहां, गदहिये लदिये बिशराम तदहो ॥
रसना रसरास रसे रससो, जसतौ बस ओर स्वे कस दो ॥
चट नाम रथा गह बीत बिथा, रसना रसना बिन कौत कथा ॥
पद्पकज प्यार जो इरि गया, अर् सत सनेहको टूरि गया ॥
ठग उाङ्कर आनिके जूटि गया, जगजीवनकीं बुधि छूरि गया ॥
रहगी रमते बड़ भीर भह, सतपंथ विहाय कुपथ र्हं ॥
गु्भक्ति बिना भव भूलि परे, शरणागत पाहि कबीर हरे ॥
( ९१६ ) बोधसागर
दोदा-यरह कबीर पचाशिका, पटे सप्रीति प्रतीत ।
प्रम पुरूष पद् पावही, काल कष्ठ जा बीत ॥
इति श्रीकर पचाशिका
सत्यकबीर वचन--चोौपाई
तब॒ इदम कहा जीव ससुञ्ञाईं । जोर करो तो बचन नसां ॥
जब तुम जाय धरो नर देहा । तब तुम कारो शब्द् सनेदा ॥
पुरूष नाम सुमिरन सहिदानी । बीरा सार करो परमानी ॥
देदह धरे सत ॒ शब्द समाई । तब दसा सतलोकहि जाई ॥
देह धरे कीने जरं आसा । अन्तकाल लीनो तद॑ बासा ॥
अब तोहि कष्ठभयौ जिव आनी । ताते यहि बिधि बोलो बानी ॥
जब तुम देह धरो जग जाई । बिसरे पुरूष काल धरि खाई ॥
जीवं वचन--चौपाई
करै जीव सुन पुरुष पुराना । देह धरे बिसरो नहि ज्ञाना ॥
पुरुष जानि सुभिरों यमराहं । वेद॒ पुरान करैं समु्आाई ॥
वेद् पुरान कहे मत येहा । निराकारसे कीजे नेहा ॥
सुर नर सुनि तेतीस कोरी । मेधे सबहि निरंजन डोरी ॥
ताके मत कीने दम आसा। अब् यह जानि परा यम्फांसा॥
। ज्ञानी वचन--चोपाई
सुनो जीव यह छट यमकेरा । यह यमफन्दा कीन घनेरा ॥
छद-कला कला अनेक कीनो जीव कारन ठार हो ।
वेद् पुरानो शाख स्मृती याते सध्यौ बार हो ॥
आप तनधरि प्रकर ह यम सिफत आपन कीनहो ।
नाना गुन मन कम फाटो जीव बधन दीन हो ॥
सोरढ-कला करा परचण्ड, जीव परे बस कालके ।
जन्म जन्म सह दण्ड, सत्यनाम चीन्हे बिना ॥
की ` 7 |
.1॥॥
स्वसमवेदबोध ( ११७ )
चौपाई
छन यकं जीवनको सुख देऊ । जिव वैध मेरि पुरूषपहं ने ॥
अथ जी वनुक्तावन हेत सत्य कनीरक्ो संसारम आगमन कथा-चौपाई
यहि विधि काल जक्त धरि खायौ। जिव नहिं कोई युक्तिपद पायौ॥
तीनों पुर पसरा यमजाला । सकर जीव कहँ कीन बिहाख॥
कारके करते जीव न द्रटे । बहुविधि योगथुक्तिमें जरे ॥
बिनशत शब्द् न जीव उबारा । तब समरथ अस बचन उचारा॥
| सत्य पुष वचन--चोौपाई
के सकल जग बारयौ खाई । एको जीव लोक नहि आई ॥
ताते समरथ मोहि फरमाई । संचि जीव आन शअक्ताई ॥
पुरूष वचन कोने तिरि बारा । ज्ञानी बेगि जाह संसारा ॥
प्रथमटि चर्यौ जीवके काजा । पुरुष प्रताप शीस पर आजा ॥
सतयुग सत्य सुकृत मोर नाऊँ । आज्ञा पुरूष जीव बर आऊ ॥
करि परनाम तब पगधारा । प्हुच्यौ आय धर्मं द्रबारा ॥
द्वीप आरी नाम बखानी । केक पुरूषकी सो रजधानी ॥
पगके देत आंज्जरी गाजा । केक पुरूष वेड तहँ राजा ॥ `
गये आञ्री द्वीप मंजारा । गित कारु न बुद्धि विचारा॥
मोकहं देखि धर्म टिग आई । महाकोध बोले अतराई ॥
योगजीत इहवां कस आवो । सो त॒म हमसे बचन सनावो ॥
योगजीत वचन-चोपाई
तासो कद्यो सुनो धर्मराई । जीवकाज संसार सिधाई ॥
तुम तो कष्ट जिवनको दीना । तवदि पुरूष मोहि आज्ञा कीना॥
जीव चिताय लोक रे आवो । काल कष्टते जीव छोड़ावो ॥
ताते मै संसारहि आवो । देय परवाना लोकं पठावो ॥
अय कालपुरुष ओर सत्यकबीरका युद्धवणंन-चोपाई
काट क्रोध करि वचम उचारा । भवसागरमे राज हमारा ॥
( ९१८ ) बोधसागर
तुम कस जिव युक्तावन आवा । मारो तोहि अबहि भर्दावा ॥
कारु अनत रूप तब धारा । योगजीत कह आनि प्रचारा ॥
समहाभयकर रूप वबनावां । गज स्वप हि सम्मुख धावा॥
सत्तरयुग दम सेवा कीना । पुरषं मोहि भवसागर दीना ॥
परसपुरूष सेवा वस भे । राज तिह पुरको मोहि देऊ ॥
तब तुम नारि निकायो मोरी । योगजीत नरि छोडो तोही ॥
अख कटि धाय सड फटकारा । दतसो योगजीत पर भार ॥
योगजीत के रहि ललकारा । गहि केर सड द्र तिरि डारा॥
पुरूषप्रताप सुभिर मन मारीं । मारयो सत्य शब्द् से तारीं ॥
ततचछन ताहि रषि पर हेरा । श्याम छिरार भयौ तिरिकेरा॥
पख चात जिमि रोय पखेशू । तेसे केल मोहि प्रति देष ॥
जब फटकार कर गहे डाला । भागा कारु पेठ पाताला ॥
गयो पातार कूर्मके आमे योगजीत गये पीछे छाने ॥
बिनती केरे कूमसे जाई । राखो कूम शरन हम आई ॥
योगजीत मोहि मारि निकारा । जिव ठे जाय पुर्ष दरबारा ॥
युगन युगन हम सेवा कीना । पुरुष मोहि भवसागर दीना ॥ `
एकं पाय हम ठादे रहेऊ । तबहि पुरूष सेवा सब भै ॥
तीन रोक दीना मोदि हारी । अब कस मोक मारि निकारी॥
जाय कूमंकी शरन जो परे । तब ताने दाया उर धरे ॥
कूमव चन--चौपाई
तबे कूम उटि._ निनती लाई । को त॒म आह कहौ ते आई ॥
अपनो नाम कहो मोदि स्वामी । पुरुष अश तुम अंतरयाभी ॥
योगजोत वचन--चोपाई |
तब दम कदा नाम मोर ज्ञानी । वा दम अश बखानी ॥
समरथ वचन जीव बर आवा । काल फस जीवन शुक्तावा ॥
स्वसम्बवेदबोधध { ११९ )
क लखवच्न
सुन ज्ञानी मोर वचन अलेखा । अपने मनम करो विवेका ॥
सत्तर युग हम सेवा कीना । पुरुष बकसि भवसागर दीना॥
समरथ बचन दीन मोहि हारी । तीन लोकं पायौ संसारी ॥
तबकी बात रदित भ भाई अब कसउल्टी अदर चटलाई॥
सवे अंश भुक्ते रजधानी । इमपर कोप भयौ तुम ज्ञानी ॥
अब जस निरणय दमे सुनावो । त्ष सीषा वन जानि चलाओ॥
क मचचन
तबे कूम बोरे अस बानी । बिनती एक् सुनो हो ज्ञानी ॥
जो त॒म॒बिनती मानो मोरा । तौ इम तमसे करं निहोरा ॥
तुमहू केख बचन जों मानो। तौ इम ज्ञानी निर्णय उनो ॥
ज्ञानी सनौ पुरूपके अंशा । धर्मरायको मेटो संसा ॥
चौका पान कजाव तुमारा । लोक वेदको काल परसारा ॥
जो कोइ करे जोर वरियाई। तौ हम ताके संग न भाई॥
कूमं जे अस बिनती उनी । ज्ञानी कैल दोह सुख मानी ॥
फिरके के आरी आनो । ज्ञानी कैक वचन नावो ॥
ज्ञानो आर काल१रुषको वार्ता--चौपाई
बिना शीसके यमकी देही । काल पुरूषको चीन्ह है येही॥
सत्य कबीरसं बिनय उचारी । सुनिये ज्ञानी अरज हमारी ॥
अपनी देह नाथ मोहि दीजे। सी मोपर दाया कीजै ॥
ताको वचन मानि हम लीना । अपनी देहको कैलको दीना ॥
शीश समेत ओर बिन माथा । दोनों देह निरंजन साथा ॥
जब चाहे तब शीस देखाई । निज इच्छा पुनि ताहि लोषाई॥
जो साधू बेरार निरेखे। सो यह कौतुकं नैनन दीखे ॥
रूप विराट श्न्य्मे निरखे। निज आगको खेखा परखे ॥
जब षटमास मरन रहि जावे । काल कबीर कि देह छपावे ॥
|
( ९२० ) बोधसागर
अपनी देड देखावे काला । तब साधू जाने जजाखा ॥
बिना शीस जब दरसे देहा । कारु पुशूष तब जाने येहा ॥
मरन कार निज साघु निहारी । होदि सचेत लगावे तारी ॥
निरजन वचन
सोरग-तुमहं करो बखशीशः, पुरूष जो दीनो राज मोहि ।
षोडशमे तुम इश, ज्ञानी पर्ष एक सम॥
ज्ञानी वचन--चोपाई
ज्ञानी करै सुनो ध्मराहं। जीवनक म आन बचाई ॥
पुरूष आज्ञाते भे चलि आवो । भवसागरते जीव भुक्तावों ॥
पुरूष अवाज टार यदि बारी । तौ यैं तोकदं देब निकारी ॥
11
अपने नामकी सोकर गहै पारि डरीदहो।
तना तनतके बेरवा मारे निधिया गई बौराई ॥
देदरि चदिके मेहरि मारे निई देखो गक्वाई ।
पखा फोरि दरे चोखा निकसे बीचमें भिलि गई हस्ती॥
गोटा चार कमरमे मारेनि निकर गई अलमस्ती ।
आसन टूटेनि वासन टूटेनि टूट तिनपाई पौवा ॥
तार अस मोर सनहक टूटी हांडी चलावन डौवा।
हसियाको बेर कोदोके भूसी ईमोर न्यामत लूटी ॥
कटे कवार सुनो भाई साधो दुबिधा गे अब छूटी ।
| निरंजन वचन--चोपाई
धमेराय अस बिनती ठानी । मैं सेवक दुतिया नरि मानी ॥
ज्ञानी विनती एक दमारा। सोन करो मोर होय बिगारा॥
पुरूष मोकंहे दीनो राज् । तुमहू देव होय तब कान् ॥
विनती एकं करो हो ताता । दढ करि जान्यौ हमरी बाता ॥
स्वसमवेदबोध ( १२१)
कहा तुभार जीव नहि माने । हमरी दिशभे वाद बने ॥
मे दृढ फंदा रच्यौ बनाई । जाये जीव परा अश््ाई॥
वेद शाख स॒मिरन शन नाना । पुज है तीन देव प्रधाना ॥
देवल देव॒ पखान पुजाई । तीरथ वत जप तप मन लाई ॥
यज्ञ होम अङ् नियम अचार । ओर अनेक फेद इम डारा॥
जौँ ज्ञानी जेदो संसारा । जीवन मनि कहा तुमारा ॥
जलानी वदन--चौपाई
ज्ञानी कहै सुनो धमराई। कारो फद जीवं र जाई ॥
जेतो फंद रची तुम गारी । सत्यशब्द ठे सकर विडारी ॥
जिहि जिवको इम शब्द दृटेहं। फेद तष्हार सवे अकतेह॥
निरंजन वचन चोपाई
सतथुग अता द्वापर माहीं तीनों युग जिव थोरे रदिजाही॥
चौथा युग जब कलऊ आई । तब तुव शरन जीव बह जाई ॥
तेसे वचन हारि मोहि दीजे | तब संसार गौन तम कीजे ॥
¦ ज्ञानी वचन चोपाई
अरे काल परपच पसारा। तीनो युग जीवन इख डारा ॥
बिनती तोरि रीन मं मानी । मोकदं ठगे काल अभिमानी ॥
चौथा युग जब कल आई । तब इम अपनो अंश पठाई ॥
काट फन्द चछरूटे नर॒ रखौहं। सकल सष्ठि परवानिकं रोई ॥
घर घर देखो बोध बिचारा । सत्य नाम सब ठर उचा ॥
पांच दजार पांचसौ पांचा । तब यह बचन होयगा सांचा ॥
कलियुग बीत जाय जब येता । सब जिव परम पुरुषपद् चेता ॥
निरंजन वचन चोपाई
ज्ञानी विनती सुनो हमारी । द्वापर अंत होय जिरि बारी ॥
बरौष शरीर धरब हम जाई । जगत्राथको नाम धराई॥
( ६२२ ) बोधसागर
राजा ईददौन पहं जै मेरो मंदिर सोई उढै ह ॥
तब॒ सखघुद्र टाहनको धवि । मदिर मेरो तोरि बहाव ॥
कृपा करो तब तुम तहं जाई । मेरो मन्दिर देह थपाई ॥
जो ईसा त॒मरो शण गाई । ताके निकर तो हम नरि जाई॥
जो कछु वर मोग्यो धमंराया । सो ज्ञानी दीनो करि दाया ॥
चमेराय उठि शीस नवाहं । तब ज्ञानी संसारहि आई ॥
इति
अथ रतयुगमं ज्ञानोजीक्ो मत्युलोकमें अगमन कया ओर सत्य
सुकत नाम धारण ओर जक्त जीव तारण--चौपाई
ज्ञानी योगजीत कदलाये । सत्यसुकृत श्ुनीद बतल्यये ॥
पुनि अचित ञुक्तामणि दोहं । योग संत(यन किये सोई ॥
अविनाशी करूणामय जानी । कवीर आदि बहुनाम बखानी ॥
चारों युगके चारों नामा । सतयुग सत्यसुक्ृत गशणधामा ॥
ेतामोद सुनींद्र॒ नामधर । करूणामय स्वामी कह द्वापर ॥
कटियुगमाहं कबीर काये । ईिद् भुसलमान शण गाये ॥
सेद अहमद कबीर बाना । शेख कबीर करै. अुसर्माना ॥
सोई सकर जक्त गुरु पीरा । नाम अनेकनं ताके तीगं ॥
देश देशम नाम दै न्यारा । सारे जीव जक्तको तारा ॥
वेद् पुराण जासु गुण गवे। नाम अनत जास निरति ॥
आदिकार जब सतयुग आया । सत्यस्ुक्ृत सो नाम धराया ॥
तीन देवते कीन पुकारा । सो नहिं माने मन ईकारा ॥
प्रथमं जब पृथ्वीपर आये । तृष घोघर् कह नाम ददढ़ाये ॥
सतगुरू चीन्हि चरण पटना । नरनायकं लह पद निरवांना ॥
पुनि सतग॒रू मथुरामे आहं । खेमसरी तिय तहां रहा ॥
तेमसरी ग्वाछिनिहि चितावा । क परिवार सहित मुक्तावा ॥
स्वसमवेदबोध ( १२३ )
पुनि सत सुकृत रोक सीधारा । प्व ईस वयुर्ष द्रवारा ॥
पुरूष दरश सब हसन पाई । कोरि सोभ रवि रोम लजाई ॥
पुरूष स्वक भये सब हसा । बीती सब यमकी त्रम शंसा ॥
कछु दिन कीने लोकं निवासा । बहुरि आय देख्यो निजदासा॥
निशि दिन रहौ युत्त जगमारीं । मोक कोड जिव चीन्हत नारी)
जिरि जीवन परबोध्यौ आई । दीन्हं तिनको लोक पठा ॥
सत्यलोक दंसनको वासा । सदा वसंत पुङ्षके पासा ॥
इति
सतय् गका वृत्तान्त
अथ ततायुगमें सतसुङकृतजीको पृथ्वीं आगमनक्था ओौर
मुनीद्रनाम धारण ओर जक्त जीवतारण
सत्तकबनीर वचन--चोौ पाई
सतयुग गत हि उता आवा। नाम अुनींद जीवं धुक्तावा ॥
जब आयो जीवन उपदेशा । धर्मराय उर इआ अदिशा ॥
इन भवसागर मोर उजारा । जिव के जाय पुरूष दरबारा॥
कितनो छल बल करो उपाई । ज्ञानी डर मोर नारिं डराई ॥
पुरूष प्रताप ज्ञानीके पासा । तातेमोर न लगे फसा ॥
इनते काल बसव नाहीं । नाम प्रताप जीव घर जाहीं॥
छंद-सतनामके परताप धमन हंस निज धघरको चरे ॥
जिमि देखि केहरि जस गज हो कंषिके धरनी रे ॥
पुरूष नाम प्रताप केहरि कार गज सो जानिहै ॥
नाम गहि इसलोक पहुचे बहुरि भव नारिं आनिरै ॥
सोरग-सतशर् शब्द समाय, गुरु आज्ञा निरखत रहै ।
रहैनाम लो लाय, कमे भ्म ममता तजे॥
चोपाई
तरताथुग तबरी प्रग धारा । भृत्युोक कीनो पेसारा॥
( ९२४ ) बोधसागर
जीव अनेकन पूछे जाई । यमसे को तोरि खेय छोड़ाई ॥
कृ कमे वश जिव अज्ञाना । हमरे कता पुरूष रै ध्याना ॥
विष्ण खदा इमरे रखवारा । यमसे मोहि शोडावनहारा ॥
कोई परदेश किं आसा खव । कोड चंडी देवीको गवे ॥
कृडा करो जिव भयो विगाना । खसम छोडकर जार बिकाना॥
भ्रम कोटरी सब जग डरा । धोखा दे यम जीवन मारा ॥
खाखी सोई कार सोई है करता, क्ति युक्ति तिहि दाथ ।
हमरो कहा न आदरे, मन यम जिवके साथ ॥
परपची निरंजन, मन सोह ओंकार ।
पदे तीनों खोक सब, कोड न पावे पार ॥
चोपाई
सत्यपुरूषको आयस पावो । कारि मेरि छोरि जिव स्यावो।।
जोर करो तो वचन नशाई । सहज जीवन लेह चेताईं ॥
जो असे जिव सेवै तादी । अनचीन्हे यमके शुख जारी ॥
चहंदिशि फिर आयौ गटलका । जंहैवां रावण बसे निशशका ॥
भाट विचि पय्यौ गुरुचरना । पायौ अमर धाम गहि शरना ॥
दोदरी पेममे पागी। सतशुरूके सो चरनन छागी ॥
रानीको दीनो गुरूदिच्छा। पूरन भई तासुकी इच्छा ॥
पुनि आयौ रावण द्रबारा । जहां पौरिया रह रखवारा ॥
क्यो पौरियाते तब जाई । रावणको मम पां बोलाई ॥
जबहि पौरिया खबरि जनाई । सिद्ध एक प्रथु तुमहिं बोलाईं ॥
सुनि प्रु कोधकीन तेदि बारा । तें मतिदीन आदि प्रतिदारा ॥
शिवसुत मोर दर्श नरं पावे । भिश्चुकं मोक कहा बोलावे ॥
यह मत ज्ञान हस्यौकिन तोरा । जो तरू मोदि बोलावन दौरा ॥
स्वसमवेदनोध | ( १२५ )
हे प्रतिहार सनो यह बानी । सिद्धशूप त॒म कटो बखानी ॥
कौन बरन अर् कौन है मेखा । मोक्षन कहो दृष्ि जो देखा ॥
अहो राव तिहि श्वेत स्वया । शेतहि भाख तिरक अन्रूपा॥
शशिस्षमान तिहि हप विराजा । शेतबरन सब श्वेतहि साजा॥
मदोदरि कदं सुन रावण राजा । यह तो खय पुरूषको साजा ॥
बेगिहि आय गदौ तुम पाई । तौ तुव याज अटख ह्व जाई ॥
छोडो अपनो मान बड़ाई । गहो चरण तिहि शीस नवाई॥
रावण सुनत क्रोध अति कीना । जरत इताशन जु घृत दीना॥
रावण चलो अक्ल गहि हाथा । तुरत जाय तिहि कारो माथा॥
मारो ताहि शीस खसि परह । देखो भिक्षुकं कडा मोर करई ॥
जहं अुनींदर॒ तदं रावण आई । सत्तर॒ बार तरवार चलाई ॥
ठे शुनींद यकं ॒त्रणको ओरा । अतिबल रावण माच्यो चोटा॥
रावण अल अफल जब भयञ । तब खिसियायके सो रहि गयङ॥
तृण श्ुनींद खीने यहि भावन । बर तुमार देखो नरप रावण ॥
काटे जो तण कटे न तेरे। कौन भाँति शिर खंडे मेरे ॥
मन्दोदरी करै सञु्चाई। हे वरप सतगुङ्को गड पाई ॥
रावण कहे सहित अभिमाना । सेवों शिव नहि जानो आना ॥
जाने अटल राज मोहि दीना । ताहि दंडवत परपर कीना ॥
ठेसो वचन सुनीदर पुकारी । हो रावण तम गर्वं प्रहारी ॥
भेद हमारा तुम नरं जानी । बचन एकं तोहि कहौं बखानी॥
रामचद्र तोहि मारे आई । मांस तम्हार स्वान नहि खाई॥
रावणको कीनो अपमाना। ओध नय कह कीन पयाना ॥
मारगमाहँ चो जब जाई । मधुकर विप्र मिखा तब आई ॥
सो भ्रुनींदके चरनन परेड । अतिसे प्रेम मोद मन भरेऊ ॥
तापर सतशुङ् कीनी दाया । सहित कुट्म निजरोक पठाया॥
( १२६ ) बोधसागर
रामचन्द्रं वन भये दुखारी । तबहिं मुनींद तल पग धारी ॥
योग युक्ति रघुपतिहि दद्ाई । बहुविधि ताक शांति धराई ॥
जब सुनौद्रजी दाया कीने। सेत बांधि लंका पग दीने॥
मन संशय कने इतुमाना । सतशुर् कृपा ल्य दद् ज्ञाना॥
गरूड जो परम प्रेमते ध्याये । परम दहंसकी पदवी पाये ॥
यहि बिधि केते जीव चेताईं । तब सुनींदर निज लोकं सिधाई॥
पडचे देस पुरूष द्रवारा । दरस पाय दख ईस बिदारा ॥
कंद्ुकं दिवसजब्रयहिषिधि वीते । उता गत द्वापर तब थीते ॥
इति त्रेतायुगवत्तान्त
अथ हापर युगम मुनी्रजीको पृथ्वीम आगभन कथ। ओर् कठणामय
स्वामी नामधारन ओर जक्तजीव तारन--वौपाई
पुरुष अवाज भई तेहि वारा । ज्ञानी बेगि जाह संसा ॥
प्रम पुरूष कद शीस नवाई । महि मडल खुनींद चरि आई६॥
जो प्रमु आहि नाम अर् नामी । द्वापर कह कर्नामय स्वामी ॥
प्रथमदि जब भूरोकं सिधारे । गट गिरनार तहां पग धारे ॥
चंद्रविजय तरप नाम बखानी । गट गिरनार ताञ्च रजधानी ॥
परम भक्ति मय ताकी रानी । इदमती तेहि नाम बखानी ॥
साधुसे परम प्रीति सो धारे। नित साधुनकी बार निहारे ॥
साधको जहं कहं आवत दरे । नित्त आपने दिग सोटेरे॥
परम प्रीतिसे सेवा धारे । तन मन धन साधुनप्र वारे ॥
तासु प्रीतिकी रीति बिचारी। कर्नामय स्वामी पग धारी ॥
जात चके तेहि मारग मादीं । रानीको मदिर रद जाहीं ॥
देखे रानी चढ़ी अटारी । साधु जानि हरषित भह भारी॥
त्वरित पठायौ तह निज चेरी । बेगि साधुको आनहु टेरी ॥
वृषली चलि हमक शिर नावा । रानीको संदेशं सुनावा ॥
स्वसमवेदबोध ( १२७ )
महाराज दाया चित दीजे। भूषति भौन मौन अब कीजे ॥
करूणामय स्वामी कह तादीं । हम नहिं भवतिके गह जाहीं ॥
राज काज है मान बड़ाई) ह्मे सायना वष घर जाई ॥
पुनि ब्रषटी रानी दिग आवो । खाश्च न अवै मोर बोटावो ॥
यह सुनि इद्रमती उठि धाइ । कर्नामयके षद् शिर नाई ॥
मोषर दाया कीजे नाथा । मौ गृह चल्िये करो सनाथा ॥
रानीकां लखि प्रीति अपारा । कक्णायय तिहि भौन सिधारा॥
ताके भोन जबहि पग दीनो । चरण घोय चरनोदकं खीनो ॥
रानी चरनाभरत करि पाना । बहतभांति कीने सनमाना ॥
कीन मेव भल हिय हर्षाईं । पीछे ज्ञान सखननको आई ॥
सुनि गुर्ज्ञान प्रीति अति बादी । चरनन खमि वेमे मादी ॥
नाथ मोहि युशूदीक्षा दीजे। अपनी शरन माहि अबलीजे ॥
रानीको युरूदीक्षा दीना । राजा चंदबिजय निं लीना ॥
रानीको निज लोकं पठाया । सो सतयर्से बिनय सनाया ॥
है प्रथु वृषको करो उबारा । यद्यपि वह नरि शिष्य तुभारा॥
भावभक्ति रानीके काजा। सतशुर कृषा तरो सो राजा ॥
यहिबिधिजिननजिनग्रगुश्ज्ञाना । सो सब सत्यखोक कर थाना ॥
सनको सतोकं ठे जाई । तहां आप कषु काट विताई ॥
इति द्वापर युग
अथ कलियुगमं करणाभय स्वामीरो पृथ्वीम अगमन कथा
भर सत्य कबीर ओर सेयद अहमद कनोर शेख कबीर
नामधारण ओर जग जीव त।रगण--चो पाई
द्वापर जगको अत जो पाया । पुरुष बचन तब टेरि सुनाया ॥
ज्ञानी बेगि जाइ मत्यं लोका । नाश करो जीवनको शोका ॥
सत्य पुरूषको करो प्रणामा । तब ज्ञानी पहुंचे नर धामा ॥
( १२८ ) बोधसागर
प्रथमरि सत्युखोकं जब आये । कलिश्ग नाम कबीर काये ॥
ईद् अखसखुमान गुरूपीरा । मिश्रित नाम कटाव कबीरा ॥
प्रथमरि प्रकर मये चलि काशीं । तदा आपनो ज्ञान प्रकाशी ॥
नयमे जबहि धरे निज पाई । श्वपच सुदर्शन तहं रदाई ॥
ताने सतशगुरूको पदहिचाना । चरनन लागि गद्यो दद ज्ञाना ॥
जब सतगुरूकी दीक्षा पाईं । करे भक्तिसो मन चित खाई ॥
श्वपच करे भक्ती मन लाई मात पिता देखे दर्षाई ॥
भक्ते पच खि दरषित होई । सतगुर दीक्षा ख्यो न दोई ॥
तादी कार कृष्ण ओतारा । अङ् कौर पौँडव तन धारा ॥
सत्य कबीर कृष्णसंवादा । ज्ञानशुषठि तहं बह कथि बादा ॥
कृष्णरि बहु विधि ज्ञान टाई । क्षर अक्षरके पार रुखाई ॥
सत्य कबीर ज्ञान गंभीरा कथे सकल सुर नर सुनितीरा ॥
तादी समय युधिष्ठिर राजा । ताने कीन यज्ञको साजा ॥
वेश मारि अपकीरति कीना । ताते यज्ञ रचन चित दीना ॥
कृष्णकरे जब आज्ञा पाइ । तब षांडो सब साज गाई ॥
यज्ञ किं सामि्री गदि सारी । जह तर्हते सब साधु हंकारी ॥
पांडौ प्रति बोले यदुपाला । पूरन यज्ञ जान तिहि काटा ॥
घर अकास बजत सुनि आवो । यज्ञको तब पूरन फर पावो ॥
जुरे तदा कोटिन ऋषि राजा । साधू ब्राह्मण सरित समाजा ॥
भोजन विविध प्रकार बनाई । परम प्रीतिसे सबि जंवाई ॥
भोजन कीन सकट ऋषिराह । बजा न घट भूष भ्रम आई ॥
पाडौ तबहि कृष्णपरं गय । मन संशय करि पूछत भयऊ ॥
कृरिके कृपा कटो यदुराजा । कारन कोन घंर नरि बाजा ॥
सो अस कारण तासु बताई । साधू निं कोइ भोजन पाई ॥
चक्रत ह्वै तब पांडो केड । कोटिन साधू भोजन रुहेडः ॥
स्वसमवेदबोध ( १२९)
अब कं साधु पाये नाथा । तब तिनते बोरे यदुनाथा ॥
पच सुदशनको ठे आवो । आद्र मान समेत जेंवावो ॥
सोई साधु ओर न्ह कोई पूरन यज्ञ जाहिते होई ॥
कृष्णकी जब अस आज्ञा षाई । तब षांडौ ताके टिग जाई ॥
पच सुदशनको ठे आई । बिनय प्रीतिसे ताहि जंवाई ॥
भूष भौन भोजन कूर जवही । बजा अकाशे घंटा तबही ॥
काल कष्कुक जब गयो सिराई । तब देहांत शवषचको आई ॥
तन तजके तब सो चलि जाई । सतश् तिहि निजलोक पटाई॥
ताही समय कृष्ण तज देही । बोध्य धार्यौ तब येही ॥
नाम जो इन्द्रदोन तेहि काटा । देश उडेसेको महिषाखा ॥
तन तजि कृष्ण तदां चछि जाई । इन्दरदौन क स्वप्न देखाई ॥
स्वप्नमें अस हरि ताहि बताह । मेरो मदिर देह उञई॥
भूपतिसे जब एसे केरे । सो मंदिरकी रचना गहे ॥
रामचंद्र गहि निज दल भीरा । गये जबहिं वारिधिके तीरा ॥
बाध्यौ सेत बध बरियाई। तेहि कारन सागर इख पाई ॥
जो बलवान अबल दुख देह । बदला अवशि भरैगे वेड ॥
नीति निरंजनकी यह जाना । स्वसमवेदमे प्रथम बखाना ॥
बदला पूवं ठेन तिहि बारा। शोभित सिन्धु उठा खरधारा॥
जब रचि मदिर खग उडावा । कोधवंत- सागर तब धावा ॥
छनमे धाय सकर सो बोरे । जगन्नाथको मंदिर तोरे ॥
हारा नृप करि जतन उपा । हरि मंदिर तहं उढे न पाई ॥
सत्यकबीर वचन--चोौपाई
भदिरिकी यह दंशा विचारी । बर पूरव भनमाहं सभारी ॥
तब॒ हम चके उड़से मादी । इन्द्रदौन भूपतिके पाहीं ॥
मन्द्रि षट प्रकार बनाई। उदधि नीर तेहि छीन बुडाई ॥
पे उदधि , तीर इम जाई । जायके चौरा ताँ बनाई ॥
{ १९३० ) बोधसागर
इन्द्रदोनकहं वचन सुनावो । अहो राव त॒म काम रुगावो ॥
मण्डप शंकं न राखो राजा । इहव दम आये यरि काजा ॥
जाइ बेगि जनि कावह बारा । निश्चय मानो वचन हमारा ॥
राजा मण्डप काम लगाई । मण्डप देखि उदपि तब धाई ॥
सागर खहरि उड बिकरारा । आवै खरि कोध चित धारा ॥
उदधि उमङ्ख कोघ अति आई । कहरि आनि चौरा नियराई ॥
द्रस हमार उदधि तब पाई । अतिभय मान रहा ठहराई ॥
समुद्र वचन
छन्द्-रूप धाञ्यो विप्रको तब उदधि हमपे आइया ।
चरन गदिके माथ नायो मरम हम नि षाइया ॥
जगत्राथके भोर स्वामी ताने हम इत आहया ।
अपराध मेरो क्षमा कीजे मरम अब इमपाइया ॥
सोरठ -तुम प्रु दीन दयाल, रघुपति ओल दिवाइये ।
वचन करो प्रतिपा, कर॒ जोरे बिनती करो ॥
चौपाई
कीनो गोन लंक रघुवीरा। उदधि बाधि उतरे रन धीरा ॥
जो कोई करे जोर बरियाई । अलखशूप तिहि ओर दिवाई॥
मोपर दया करो तुम स्वामी । ठेव ओक उर अंतर्यामी ॥
` कबीर वचन-चोौपाई
ओर तुमार उदधि दम चीन्दा। बोरे नर॒ द्वारिका दीना ॥
उदधि वचन
यह सुनि उदधि धरयो तब पाईं । चरन रेकि तब चरु हरषाई ॥
उदधि रृहरि उर्मगी तब धाईं । बोस्यो नम द्वारिका जाई ॥
मंदिर काम पर् तब भयञ। हरिको थापन तरव किय ॥
कृष्ण वचन--चोौपाई
तब पडन हरि स्वप्न जनायो । सत्य कबीर मोहिपे आयो ॥
स्वसमकेदबोध ( १३१ )
आसन सागर तीर बनाई । दरस कवीर उदधि उठि जाई॥
यदि विधि मदिर मोर थपाईं । कलिथुगमे एक धाम बसाई ॥
पडा व्चन--चोपाई
पडा उदधि तीर तव जाई । करि अक्षनान मडपि जाई ॥
पडा मन अस पाखण्ड लाई । प्रथमहि दरस मटेच्छ देखाई॥
रिको दरसन हम नरि पाई । पहिरे इम चौरा गनि आई ॥
तब इम कौतुकं एक बनाई । पूजन मंडप षडा जाई ॥
तद्वा एक चरि रहाईं । रुखि षडा चज़्त दह जाई ॥
जह लगि सूरत मदिर मादीं। भये कबीर हप धरि ताहीं ॥
हारे मूरति कँ पडा देखा । भये कबीर हप धरि मखा ॥
अछत पुष्प ठे विप्र थुखाईं । नहिं टाङ्करको पूजन पाई ॥
देखि चरि विप्र शिर नावा । हम स्वामी तम सस न षावा॥
तुमकदं देखि दीन मन लाई । ताते मोहि चरि देखाई ॥
छमा अपराध करो प्रभु मोरे । बिनती करौ दोड कर जोरे ॥
छन्द-बचन एक मँ क्यो ताते विप्र खन तँ कान दे ।
पूज ठाङ्कुर दीन आयस दुबिधा मनकी छाड़ दे ॥
रति भोजन करे जो जिव आगहीनो ताञ्को ।
करे भोजन छरति राखे शीश उलटे जासुको ॥
चोपाई
पडो मनम मान्यो दीना । ताते यह चरि गुरु कीना ॥
जगन्नाथकी ति उठाई । बनं विषेकं न तहा रहाई ॥
सबहिं जाति इरि भोग लगाव । यके बेठके भोजन पावै ॥
कदु नि छरति रदी तिहि गमा । स्वजाति यकमय हरिधामा ॥
आचारिनि बहु कीन विचारा । जगत्राथ दै चरे अचारा ॥
तिनको तहं आचार न चाले । सत्य कबीर वचन को राखे ॥
( १३२) बोधसागर
इमि शुरू इरि मंदिर थपवाईं । पूरब कथा बहुरि अब्र आई ॥
श्वपच सुदशेन तन तनि गय । रोकजाय गुर् बिनती कियञ॥
हे सतशुङ् अस दाया कीजे । मेरे मात॒ पिता गति दीजे॥
श्वपचके सातु पिता जो रहे । पर्मेदेह गुरू ज्ञान न कटे ॥
ताते बहुरि देदह सो धारी । दविजङख्म प्रकटे नर॒ नारी ॥
पुकि भक्ति प्रतापते सोई । पच देदह तजिके द्विज होई ॥
रूषति नाम् पिताक रहेड । भरिया नाम माताको कदे ॥
चन्द्वार तेदि नयको नौ । नारी पुरूष बै तेहि र्गौ ॥
जब दोनों द्विज ङ तन पाई । नरहरि खकछमना नाम धराई ॥
जगन्नाथ के योग पग धारे । सत्य कबीर चले चैँदवारे ॥
दो जीव तारनके काजा । चदवार गुर् आनि बिराजा ॥
सत्यकबीर वचन--चोपाइं
जगन्नाथसे जब पग धारे । तबहि आनि पचे चैदवारे ॥
बाक ङूप धरयो तिदि ठामा । कीनेहु तार्मारिं विश्राम ॥
कमल पतर पर॒ आसन खाई । आठ पहर हम तौ रहाई ॥
नरहरि नारि ल्छमना जोई । तारके उपर पर्ची सोई ॥
पुज देत सों आस लगाई । करि असनान विनय रविराई॥
अजर रे विनवे कर॒ जोरी । सुन्दर पुहेत चित दौरी ॥
ततछन हम अचल प्र आवा । दमक देखि नारि हरषावा ॥
बालख्प दहै मय्यो ओदी । विप्र नारि यह ठे गई मोही ॥
बहुत योस तिहि सग रहा । नारि पुरूष मिलि सेवा खाञ॥
जब हम उटे पलग ञ्ञटकोरा । सुवरन मिरे तिन्दें यक तोरा॥
तिनके दय न शब्द समाई । बाखकं जानि प्रतीत न आई॥
ताहि देह नहिं चीन्हो मोदी । भयो प्त तबही तन ओदी ॥
नरतिय जब दोनों तन त्यागे । जन्म लीन जोरदा है जागे ॥
स्वसमवेदबोध ( १३३ )
नीष नीमा जोह जोखाही । काशी नथ बसे दोड ताही ॥
तादी न कबीर तखाई। कमल पुष्प तां रह जई ॥
बालकं शूप तहा इम लीने । कमल घुष्य प्र आसन कने ॥
तहं बारह बालक पौढाॐ । केरे इत्र वाढ सभा ॥
तिरि ओसरमें नीह जोलाहा । नारि गौन संग ल्य तादा ॥
तषावत जब भै सो नारी । ताख्ये जर अचवन षग धारी॥
नीमा दषश्ठि बाल प्र परे । देखत दरश मोद मन भरे ॥
जिमिरवि दरश पद्य विकशाना । धाय धर्यो धन रंक समाना ॥
तब सो बालक छियौ उगह । रे बालक नीङ्वहं आहं ॥
करोधवन्त जोरा तब भे । नीमासे तब ठेसे कंडेड ॥
काको बालक तें ठे आई । नमे मेरी हेय ईसाई ॥
नथके लोग रहसेगे मोही । गौनहि तिय बारक संग जोही॥
जोलहा रोष कीन तिदि बारी । बेगि देह तम बालकं हारी ॥
हषं शुना बनि नारी खाई । तब हम तासं बचन सुनाई ॥
बाल बचन
छन्द्--सुनह बचन दमार नीमा तोहि कदो सञुञ्चायके ।
पटी प्रीतिके कारने तोहि दरस दीनो आयके ॥
आपने गृह ठे चरो मोहि चीन्हिके जौ शर करो ।
देहं नाम दृढाय तुमको फंद यमके नहि प्रो ॥
सोरग-सुनत बचन अस नारि, नीरू जस न राखेऊ ।
ठे गरं नम्र मञ्चार, काशी नगर पहूचेॐ ॥
चोपाई
लै बालक जब धरको गे । नमर लोग सब देखत सै ॥
नम्र नारि नर ्शंसी लाई। नारि गौन संग बालक ल्याई ॥
जोलहा नि सुनि खाजित दई । बाल बर्तांत कहै सब सोहं ॥
( ९३४ ) लोधसागर
यह बारुक तखावमे पई । नीमा देखि तादि ठे आहं ॥
कमरूपुष्प शिञ्चु सेज बनाई । इरषित नारि सो छियौ उठाई ॥
जोरा यदपि कथा प्रकासी । तञ लोग सब करते हँसी ॥
बहत दयौस तिदि मौन रहा । जोख्दा जाने बारुक भा ॥
बारुक रूप तासु अइ रहते । खानपान तहं नरि कदु गहते ॥
बिन भोजन तन छवि सरसाहं । दिनि दिन देदकी दीरघताई ॥
जोलहा एनि पडितन बोलाये । बालकं नाम॒ धरनको आये ॥
पडित करन जो लगे विचारा । तब शिशु निजसुख बचन उचारा॥
नाम कबीर हमारा अदईं । ओर नाम जनि पडित कदं ॥
यह सुनिके सब चकत मेड । शिज्ञु निजनाम आपते के ॥
कोड करै यह दानो देवा कोहं कटै यह अरुख अभेवा ॥
कोई ईश्वर अश बतावा ' कोद कर आप देह धरि आवा॥
पडित निज निज भौन सिधारा । बिन भोजन बीते बहु बारा ॥
जोरृहा तब मनम दख पाई । भोजन करो कबीर गोसाईं ॥
जोह जोखाही दखित निहारी । तब हम तिनते बचन उचारी ॥
कोरी यक बचिया रे आवो । कोरा भांडा एकं मगावो ॥
ततचछन सो जोटदा चङि जाई । ग कि बछिया कोरी स्याई ॥
कोरा भांडा एक गहाई । भंडा बलिया शीघदी आई ॥
दो कबीरके सम्युख आना । बलिया दिशादष्ि निज ताना॥
बचिया डेढ सो मांडा धरेऊ । ताके थनहि दधते भरे ॥
दूध हमारे आगे धरी । यहिविपि खानपान नित करदी॥
तबसे जोलहा डरे बहूता । मरे घर है अचरज पूता ॥
केते दिन यहि विधि चलिगेञ । संग बारुकन खेखत॒भेञ ॥
कृथे बारकन प्रति विज्ञाना । सो जडवत नर्हि कछु पहिचाना॥
तब साधन सग गोष्ठि करादी । अगम ज्ञान कंथ तिनके पाह ॥
स्वसमवेदबोध् (१३५ )
सुनि साधुन मन अचरज होई । यह तो सिद्ध वुरूष है कोई ॥
सब्र जोटहा मिकूके यक बारा । नीडः ते असर बचन उचाश ॥
बालककी सुत्रत करवावो । तिहि कारन सब साज मँगावो॥
ताहि काट अस कथा कहाई । नाई सुत्रतको बोल्वाई ॥
तब नाई कबीर दिग आया । ठे अस्तुरा निकट नियशया॥
पांच ईद्री ताको दिखखवो । काटि खे जो तोहि मनभावो॥
यह लखि भभरिके नाई भागा । सुब्रत नदीं कीन उर छागां ॥
पुनि जोन अस कौतुक कीना । तब बोलाय काजीको लीना ॥
एक गाय तिहि काठ गाई । काजी ताको जबह कराई ॥
जिहि ओसर अस कौतुक ठाना । सत्यकबीर मरम सब जाना ॥
खेखत रहे बारुकन माहीं । तेहि छन धायके पृहे तादी ॥
गऊ घात जब देखत भेज । दया धारि काजीते कृडेड ॥
बहुविधि काजीको सयुञ्चाई । महापाप जिव घात बताई ॥
काजी खनित हं शिर नायो । बिनती करै न उत्तर आयौ ॥
तबहि कबीर गऊ दिग जाई । मरी गाय तिहि काक जिवाई॥
तब जोरहा गृह तजे कवीरा । अब नहि रहौ तमारे तीरा ॥
विकल भये तब नीमा नीह । नम चहं दिश बालकं हर ॥
दरुटत सुत न र्घ्यौ नर नारी । रूदन् बिलाप करं दोड भारी॥
विकर बिलोकि दया उर आई । तब कबीर तेहि दियो देखाई ॥
नीड नीमा बिनती करदी । प्रभु हमरे ग्रह पुनि पग धरदही॥
तब दम तिनते बचन उचारी । एसा पाप कीन तुम भासी ॥
तब जोलहा बोठे शिर नाई । नहिं यह पाप मेरी समताई ॥
मिल जोरहन कीनी बरियाईं । ताकी खबर न मैं कठ पाई ॥
तापर कृपा बहुरिके कीना । पुनि ताके गृहमे पग दीना ॥
बार चरि है विविधि विधाना। सो संकेत न होय बखाना ॥
(९३६ ) बोधसागर
चरखा जग अनेकं परचारा । कलक सो छिखिं दोय विस्तारा॥
रामानद गुरू जिमि गदेऊ । वेद् मते प्रथमे सो के ॥
केते योस जोरहा गृह बासा । अजो न ता दिय ज्ञान प्रकासा॥
बार बार तेहि नास टाई । तिनको नहि प्रतीत गुर् आह॥
बारखुक जानि न गु्षद गदे । ताते परमधाम नरि ठदेऊ ॥
जोलदाकी जब आयु पराई । मथुरा नर देह घर जाई ॥
सकल कथा मैं कीन प्रकाशा । जिमि शूकर जोरा गृहवासा॥
श्वपचके मात पिता जो रेड । श्रीपा इलपति नाम सोके ॥
बहुरि लछमना नरहर सोई । नीमा नीरू सोई रोई ॥
तिन दुरहैके तारणके काजा । जोलहा गुश्शड आनि बिराजा॥
गभवास कबहु नदि आवे । निज इच्छा नर तन द्रसवे ॥
द् सलमान नहि सोह । बाल बद्ध अङ् युवान होई ॥
दाया करे देह नर धरही । जीव अनंत कोटि छे तरदी ॥
जरा मरण कहू नहि तादी । सदा समान एकरस आही ॥
सो वृतांत अब करो बखाना । जिमि कबीर काशी कथ ज्ञाना॥
षट॒द्रसन ञ्जग्रनको अवे । अगम ज्ञान सबको सञुञ्चवि ॥
सत्यपथको कीन प्रचारा । रिसा कमै निद निरधारा ॥
तीरथ व्रत अर् मूरति पूजा । जीव हने ईश्वर कथ दूजा ॥
जीवचात करिहै जो कोईं। वासा तास नरकमे होई ॥
पाहन को प्रजे पाखंडी। गर काटे जो सम्मुख चंडी ॥
बकरा मुरगा जबह जो करदी । बिस्मिद्टह कटि धमे उचरही॥
सो सब पापकम बतलाये । हद् तुकं सुनत दख पाये ॥
वैरभाव दोनों कुरु धरदीं । सत्यकबीर टेक नहिं टरदीं ॥
मिलि विप्रन अस युक्ति बनाई । किमि कबीरकी इरमत जाई ॥
केसी गोष्ठि सबन मिलि ठाना । करि प्रपंच अस कीन बहाना॥
स्वसमवेदबोध | ( १३५)
जहौ तदं बह विप्र सिधारा । सत्यकबीर केर भंडारा ॥
निवता दियो चहँ दिश जाई । साधुनकी जमाति चङखिआई ॥
भीर भई साधुनकी भारी । ग्रह तजि सत्यकमीर सिधारी ॥
आयके विष्णु भये भंडारी । साधुनको आदर कर भारी ॥
पोषन भरना विष्णुको कर्मा । आयके गहि रखीनों निजधर्मा ॥
सत्य करवीर कर्मेते न्यारा । मायाको सब खेर पसारा ॥
भाया सदा जाघुकी दासी । सके कोन करि ताकी ससी ॥
सब साधुनको हरि सनमने । विप्र सकृरु देखत खिसियाने ॥
मरमं न कोई क्ख्यो दिदि बारा । धन्य कृतीर धन्यं भंडारा ॥
दोहदा-काशी कदी कबीरपर, भई साधुनकी भीर!
जो कड किया सो हरि किया, होय करवीर कीर ॥
चोपाई
आद्र भोजन दचछिना पाई । धन्य धन्य कहि साधर सिधाई॥
काजी पंडित करं बिचारा। जाय कबीर कौन विधि मारा ॥
काशी तेदि कार बताई । शाह सिकन्द्र पहंचा आई ॥
इति
ग्रयनिरभयज्ञान--सत्यकबीर वचन
साखी-कलिमरं काशी प्रकरयौो, सुनो सन्त धर्मदास ।
सत्य पथ परचारेऊ, निदक मये उदास ॥
शाह शिकंद्रके तन, भयो ज्वार उतपान ।
दुखब्याकुल अति विकल्तनः काशी पंचा आन ॥
चोपाई
पूरे शाह रसा कोड भाई । जाते मेरो कष्ट दुराई ॥
साखी-काजी पंडित मिलिके, कदा शाहसे जाय ।
है कबीर द्रषेश यकं, ताको लेह बलाय ॥
( ९३८ ) जोधसागर
चोपाई
कै शाद् तेरि तुरत ङ आवो । साइत एक ॒विख्ंब न खावो ॥
साखी-आये धायके रोग बहु, आतुर बोरे बेन ।
चलो कबीर शापे? ५ आये तोरि टेन ॥
च्तरधप
गये शाके सन्मुख जबदी । ज्वाखा देह दूर भई तबरी ॥
उष्िकि शाह भयो तब टाटा । मोरिते अधिक मेम तब बाटा ॥
साखी-शाह न छोड दमक, बटयो प्रेम मनमारि ।
शेखतकी तेहि पीर थे, सो सुरञ्चे मनमारहि ॥
च) पाई
कहै तकी सुन शाह सिकंदर । इमते कियो तफाउत अतर ॥
जोलहाते तुम कीनेह यारी । हमते अन्तर कियौ बिगारी ॥
कह सिकंदर तुम हमरे पीरा । वह द्रदमंद दरवेश फकीरा ॥
कहै मारफत राहकी बाते राखा जान जो मेरा जाते ॥
एेसे शाद कल्यो समुञ्चाईं । तबहँ न शेखतकी शरमाई ॥
काशीके पडित अर् काजी । शेखतकी मिली परवच साजी ॥
कंट् काजी सुल॒शादके पीरा । कैसे मारा जाय कबीरा ॥
यह जोलदा जो मारा जाई । तौ इम सबकी टरे बलाई ॥
करै तकी सुन पंडित काजी । क्या कबीर जोरा रै पाजी ॥
चारो तो आतशमे जारो । चाहो टूकं ट्रक करि डारो ॥
चादौ जलके बीच इबाओ । चाहो देगमें ओंँच दिरावो ॥
चादो दाथीसे चिरबाओ। चाहो खाक त्वचा भरवावो ॥
चादो तो देवाख्मे सारो चाहो बोरी बोरी काटो ॥
चादौ मोदडे तोप उडावो । चाहो कूपमे जिअत दबाओ ॥
साखी-मेरा नाम शेख तकी, भ सिकंद्रको पीर ।
देखो केसे बाचिहै, केसा फकर कबीर ॥
स्वसमवकेदबोध ( १३९ )
काजी पंडित सव हरषाना । जिमि पंकज विकसे लखि भाना॥
कह काजी तुमते सब होड । तुम रेषा दजा नहिं कईं ॥
इस जोरदेने कृफुर मचाया । दोनों दीनकीं अदल मिया ॥
साखी -तीरथ वत एकादशीं, रोजा ओर नमाज ।
ये सव कष न मान, कै एक॒ शिरताज ॥
खसी वा अुरगी गायनी, पीर निमित इम देह ।
सबको कटै कसाइ है, एेसा काफिर येह ॥
चोपाई
कृशीके लोग हमे नहि माने । जोलहाकी सब सिफत बखानें ॥
साखी-भाग दमारे शखजी, तुम इर पहंचे आय )
जौँ यह जोलहा गा सबको कंटक जाय ॥
कहै तकी सुन काजी, इमते बाटी रार ।
जीअत कबहु छोडो, न अब यहि डारो मार #
शेखतकी परपंच करि, गये शाहके पाह ।
हमे देख तहं बैठे, अधिक जरे मनमाहं ॥
कहे तकां चित रोष धरिःसुनो सिकन्दर बात।
कहा हमारा मानहू, तब दवे कुशात् ॥
सोरठा-यहि जोरहै त्र मार, नहीं तो देगा बददुआ ।
तुमको करो खुवार, जान माल सब गलेगा॥
साखी-करै सिकन्दर पीर सुन, मोदि व॒मारि पनाह ।
जो चाहो सो करो यहि, तुमे कोई रोके नाह ॥
चोपाई
कहो कबीरके मारन तई । इदवां मेरी कड न बसाई ॥
पीर फकीर जात अछ्छाहा । मेरो जोर न पहंचे ताहा ॥
( १४० ) बोधसागर
सखाखी-जों वह रोतो रेअत, तो हम करते जोर ।
व्ह अलूमस्त फकीर है, तदा न फाबे मोर ॥
तुमह कदी ससुञ्चायके, पीर फकीर अद्छाह ।
अब तुम कहते मारने, यह न दोय हमपाह ॥
चोपाई
अहो पीरजी तुम वह एका । अपने मनम करो विवेका ॥
उन तुमरो क्कु नारिं बिगारा । काहे तुमने ङफुर पसारा ॥
बुजरूग सब ॒नेकी फरमावे । जोर जुम कषु नादीं भावे ॥
साखी-कहा हमारा मानिये, छोड दीजिये रार ।
कुह सुखह दे बेविये, अल्खह् ओर निहार ॥
कटै तकी सुलतान सन, तुमे नदीं कु दोष ।
जोभैंकहों सो मानिये, कर मेरो संतोष ॥
कै सिकंद्र पीर खनः मेरो शिर बर रु ।
फकिर कबीर न मारिये, यह मांगे मोहि देह ॥
चोपाई
सुनतदहि तकी क्रोध परजारा । शिरते ताज जमीन दे मारा ॥
निषरटदि विकर देखि तिरि भाई । तब हम शासे कहा बुञ्ञाईं ॥
कहै कबीर सुनो सुरताना । करो पीरको बचन प्रमाना ॥
कटै सिकंदर सुनो रहो पीरा मन मानेसोकंरो कबीरा ॥
साखी-डारह मारि कबीरको, हम नरि मानँ उन ।
ताका कबहु न भला हो, करे फकरको खून ॥
चौ पाद्
शेखतकी तब॒ उटे रिसाईं । है कोई बांध कबीरदहि भाई ॥
साखी-शेखतकी आपि उठे, काजी पेडित आर ।
बध बोध सब कोई कटे, कोई न करे गोहार॥
स्वसमवेदबोध ( १४१ )
बाह बांपि पग बांधिके, बोर गंगजलरु नीर ।
निःसंशय निश्चित सो, निरभय सदा कबीर ॥
गंगाजलपर आसन, वद परे खहराय।
जन कबीर सतनाम बल; निरय मंगर गाय ॥
शाह सिकंदर देखही, अङ् ठउडटि सब लोग ।
धनि कदीर सव कोड कटै, शेखतकी भा सोम ॥
चोवाई
शेखतकी तब मीने हाथा । सुखे ख नईं अवे बाता ॥
शेखतकी तब करै बनाई । अबकी कसनी बदौ न भाई ॥
अवकी बार कवीरहि पावो । देगि भूदिके आच दिवो ॥
देग॒ आंचते बचे कवीरा । तौ जानौ अछछाहको तूर ॥
कृहै कबीर नाम परकासा । तासो गयो सिकंदरके पासा #
शाह सिकंदर उरिभे ठे । अधिको प्रेम ताञ्च उर बाटे ॥
रोखतकी कह कोधित वेना । धुने शीस राते भये नेना ॥
सुन करवीर कह तकी मयाना । तुम कीनो चैटक इम जाना ॥
साखी-अवहि तोदि कीमा करे देग भूदि देव आच ।
देव ओँ चदे बौचिहो, तो कबीर तम सोच ॥
कहै कबीर सुन शेखतकि, करो जो तम मनभाव ।
हम जेसेको तैसा, देग॒ आंच दिख्वाव ॥
चौपाई
तुम नाटकं चेटकं मन रावा । हमरे चटकं नाम प्रभावा ॥
शेखतकी तुम आप हो जेसो । हमको त॒म मति जानो तेसो ॥
साखी-कीमा करने कारने, शेख धारो तरवार ।
खांड़ा गहि शिर ना कटे, शेखतको गे हार ॥
करै तकी इहि जोरुहा, बाध्यो खांड़ा मोर ।
( १४२ ) बोधसागर
ताते देही ना कटे, खगे अतर् हो भोर ॥
देग ` युसखडछप सम॒देहू, मोडा समूद रिसाय ।
आप ओं दिद्वावई, गद् कतहु नदि जाय ॥
चौपाई
देख रोग ॒ सब बहुत तमासा । हम पुनि गये सिकन्दर पासा ॥
साखी-शाइ सिकन्दर पीरपे, खबरि पई साच ।
है कबीर पास दमारे, कारि दिरखावो ओंच ॥
चौपाई
सो सुनि तकी देग मुख खोला । खन्न देखि वाको मन डोला ॥
आतर तकी शादे आये । हय देखि पुनि शीश डउोलाये ॥
बहुरि तकी लजित दह कंदई । जोरहापे कड चटकं अदृईं ॥
साखी-देग अच जर बांचेऊ, नरि व्यापे तन पीर
बहुरि अथि जरि बाचिहो,तो तुम सो च कबीर॥
चौपाई
विसि कबीर करै सुन शेखा । करो जो अवे तुमरे रेखा ॥
शेखतकी बह काठ. मगाया । अति विस्तार अंबार ल्गाया॥
साखी-तादि बीच मोहि मदके, दीन्देसि अथि लगाय ।
अग्नी धाय बतानी) जन कबीर गुन गाय ॥
चौपाड
कृ तकी यह ॒रबोँध्यौ आगी । याको चेटकं सब पर रागी ॥
तब जानो तम सांच फकीरा । धरती गाड बचे कवबीरा ॥
के कबीर सत नाम प्रतापा । कतहु नदिं व्यापे तनतापा ॥
साखी-त॒म मति चूको शेखजी, करो जो तुबर मन होय ।
के कबीर मोदि डर नहीं, निभेय नाम समोय ॥
सेखतकी पुनि कूप खुदाये । गर पग बांधि ताहिमं नाये ॥
स्वसमवेदनोध ( १४३ }
साखी-ईया बषाथरते भरे, दीनो कूप अंदाय ।
कृहै तकी अबकी मरे, सो करे खुदाय ॥
चोषाडं
शेखतकी अल्लाह मनवै.। अबकी बार न जीअत अवे ॥
हम पुनि गये शाहके पासा । तबहि सिकन्दर वचन प्रकासा॥
साखी -कै सिकन्दुर् पीर खनः किसको गाड़ो क्ष ।
सो कबीर इह बेठ ई, अदभुत ख्या अन्रूप ॥
चीपाइं |
रेखतकी व्याकर द्वि बो । नैन नासिका मस्तकं डोरे ॥
साखी-यदहि जोखहाके पसम, तारो अटक आहि}
ताते गाड़ नहिं मड, जरे न काटा जाय ॥
अब गहि कर पग बांधिके, हाथी दैव इलाय ।
हाथी धरि धरि चीरि है'तब कु नाहि बसाय॥
खूनी पील गायके, दीन्हेसि मद्य पिलाय ।
कर षग बधि हाथी हरे हाथी चला पराय ॥
केतनो केरे महाउत, गज सम्भ्ुख नहि आव ।
कृहै तकी अब तोपके, मोड़ राखि उड़ाव ॥
गोला दारू भरि दिहसि, राखे मोहड तोप ।
कहं कबीर सतनाम बख.निर्भय रद्य निशोक॥
चरे सिकन्द्र निज घरे, हमक लीने साथ ।
शेखतकी सी रदे, शाह इलाहाबाद ॥
चोपाई
काशीके बरह्मन अरु काजी । सुरछि रहे सब दिरफत बाजी ॥
साखी-एक यौस गंगा तरै, बेठ सिकन्दर शाह ।
शेखतकी हमहू तहँ, सुरदा यकं बहा जाय ॥
न.९ कबीर सागर ~ ६
( १४४ ) बोधसागर
चोपा
कहै तके सुन फकर कबीरा । सुरदा फेर जिलावह धीरा ॥
साखी-करै कबीर गरीब हम, तुम बादशादके पीर ।
सुरदा तुमि जिखावहू, सतशुर करै कबीर ॥
चोपाइ्
शेखतकी चितवे चित खाई । अर्ल श्ुरदा देह जिलाई ॥
साखी-अर्लह पीर मनाइया, शेखतकी बहु बार ।
सुरदा जिंदा न इवा, बदहिगो रेत म्ञार ॥
चोपाड्
शेखतकी कड सुनो कबीरा । भरदा तुमि जिरखावहू फीरा ॥
साखी-उटि अुरददि हम चितवा, दरते नैरे आय् ।
द्रत निभेय नामके, रदा फेर जिरखाय ॥
मुरदेको अस बोखेऊ) उट कुद्रत कम्माल ।
कर कुबड़ी धर टेकिञ,सजि जिव भया सो बाल॥
चोपाद
सुत कमाल कदि उत्तर दीना । उठि कमाल तब अस्तुति कीना॥
गुरू सत्त जो की कमाला । गुर् कबीर मोहि कीन निहाला ॥
साखी-कटै कमाल पुकारिके, शुरू ह सत्य कबीर ।
मुरदेसे जिदा किया, गन्दी गली शरीर ॥
शेखतकी मन मूचिके, कद धनि धन्य कबीर ।
तुम अल्लाह खुदाय हो, तुम मेरे गुर् पीर ॥
कहे कबीर सुन शेखजी,तम ओखियाकि जात।
रोजा निमाज कर बद गी, बेटो नबी जमात ॥
जो अल्कछह फरमाया, सो नहिं करता कोय ।
हाल हराम चीन्दै नदीं, केसे मुसर्िम होय ॥
स्वसमवेदवबोध ( १४५ )
साखी-जबतक ददं पराई, दिखें अवे नाहि)
कोटि बदगी खता है, परे सो दोजखमाईि ॥
जेसा दिक है आपना, तैसा सबका जान ।
द््दैमन्द अह मिरे, कै कबीर प्रमान ॥
शाह सिकद्र तकी मिलि, गढ़ भये कृरजोर ।
बकसो चरक कबीर तुम,जो कृ ओशन मोर ॥
चौपाई
कटै कवीर सुनो शाहं प्यारे । तुम हमार कठ नाहं बिगारे ॥
` तुमरे पीर जो कसनी रीना । खरा खोट इम सबही चीन्डा ॥
हम निं दें बदढुवा काहू । जो मम अरि हम सेवत बाह ॥
हमरे मित्र दुष कोह नाहीं । सब हमरेमे इम सबमारहीं ॥
हम काहूको कदा सरपं । करे सोतेसो फर ॐ अपिं, ॥
साखी-जेसो बीज कोह बोइहै, तस फर चाखे आप् ।
कह कवीर सत कहत हौ, मों पुण्य नहिं पाप ॥
कहर कुफर दिर दोजखी,मोम दिखे इर फकीर।
निरभय नामसो समरथ, सदर करैं कबीर ॥
् चोपाई
एेसे कदि काशी चलि आये । धमेदास तोहि सेन बुञ्ञाये ॥
सत्यकबीर वचन--चौपाई
रोग ॒सोग बहु दुःख दटाये । केते परचाको देखलाये ॥
दीनो जिव दाना । सो क्कु इहां न करौं बखाना ॥
सोइ प्रसंग बहुरि अब गाई । कलमं जिमि प्रथु पथ चलाई॥
सत्य कबीरके शिष्य सुजाना । चार शरू जो कीन प्रमाना ॥
तिनमे धमेदास बड़ अंशा। वेश बयालिसि जासु प्रशंसा ॥
बो० सा० ९।
(९४६ ) बोधसागर
चमेदासख धरनीमे आये । करि प्रपच तिहि कार अरमाये॥
चभदास सक्त ओतारा । भूल्योौ पुरूष नाम निज सारा ॥
प्रतिमा पूजाम रुपटाई । परमपुरूषकी सुपि बिसराई ॥
तीरथ बत आचार अपारा । कम उपााको ग्योहारा ॥
पुरुष दचन--चोौपाईं
पुरूष अवाज उठी तिहि बारा । ज्ञानी बेगि जाहु संसारा ॥
सुकृत भवसागर चलि जाई । कार जाल्ते गये भुलाई ॥
तिनकरँ जाय चेतावहू ज्ञानी । जाते वेश चे रजधानी ॥
वशा बयालिसि अश हमारा । सकृत गेह ठेर अवतारा ॥
ज्ञानी बेगि जाह तुम असा । घमेदास उर मेट्ह शंसा ॥
ज्ञानी वचन--चोपाई
चरे ज्ञानी तब शीस नवाई । धमदास हम तुम खमि आई ॥
पुरुष अवाज कडा तुम पासा । चीन्दो शब्द् गहो विश्वासा ॥
धमंदास वचन-चोपाई
धनि सतश् तुम मोर चेतावा। कार जारूते मोहि बचावा ॥
मँ कंकर त॒व दासके दासा । खीन उबारि काटि यम फांसा॥
मेरे चित अति इष समाना । तुव गुण मोहि न जात बखाना॥
भागी जीव शब्द् तुम माने । पूरण भागते तुव वर उाने ॥
म अघकमीं इटिरु कटोरा । रहयो अचेत भम चित भोरा॥
मोहि आय तुम लीन जगाई । धन्य भाग तुव दरशन पाईं ॥
कदिये मोहि जीवके मूला । रविके उदय कमल मन पला ॥
भवसागर कौनी विधि ष्टे । यमबेघन कोनी विधि ट्टे ॥
कृरौं भक्ति कै योग कमावौँ। दें दान के तीर्थं नहावोँ ॥
करौं यज्ञ के इद्री साधौ । बादर फिरौं किं मनको बधो ॥
करो अचार कि साधन साधौ । बतं करौ के इरि अवराधोँ ॥
स्वसमवेदबोध ( १४७ )
जो तुम कहो सोह सो करॐ । वचनं तुमार इदयमें धर ॥
सत्यकन्ीर वचन--चोपाडं
सुन धमदास में सत्य बतावों । यवसागरको इःख मिटा्वों ॥
सुन धममदास भक्ति पद् उचा । इहि सीटी कोह बिरला पह॑चा॥
योगीं योग साधना करं । भवसागर तेऊ नहिं तर ॥
दान देय सोह फल पवि । भवसागर अुक्तैको अवे ॥
तीथं नहाये जो फर दोही । सवे मर्म समञ्ावों तोही ॥
जन्म खेय सुन्द तन पावे। संयति दौरि बहुरि जग अव
ञ्चे घर ख्व ओतारा। बाह्मण क्षजीको व्यौहारा ॥
इद्र साधन रहै अति नीका । बिना भक्ति जानो सब फीका॥
इद्री साधन है तप भारी। तामस तेज कोघ इकारी ॥
कोध किये गति मुक्ति न पवे। भक्ति महातम हाथन अवि ॥
बतं एक भक्तिको परा । ओर बतं कीजे सब द्रा ॥
ओर बतं सब यमकी फ़सी । भक्तीबतं मिङे अविनाशी ॥
हारि अवराधनकी सुनि बाता । कटो भेद तुम सुनियो ज्ञाता ॥
हरिहर नाम सदा शिव केरा । ताति भिरि न भवको फेरा॥
बहुत प्रेमते शिवको ध्यावें । रिध अर् सिद्ध दव्य बह पवे॥ `
जो मन चित निश्वय करि धरई । गिरि कैलास में बासा करई ॥
फिरके कारु इषपेटे तादी । डारि देय भव चक्कर मादी ॥ `
साखी-शिव साधनकी यह गति, शिव है भवके हप ।
बिन समञ्चे यह जक्त सवः पन्यो महा अमकूप ॥
चोपा
हरिहर नाम विष्णुको भाखा । ञ्चभ अर् अञ्यभ कर्म दवे राखा॥
इनमे करे कलो सदाहं । करे भोग जीवन भरमाई ॥
बहुत प्रीतिसे विष्णुहि ध्यावे । सो जिव विष्णुषुरीमे जाव ॥
विष्णुपुरी सो निरभय नाहीं । फिरि क डारि देह भव माहीं ॥
( ९४८ ) बोधसागरे
खाखो-दहरोहर नाप जो विष्णुको, जाने किय जिव जेर ।
चौरासी भरम सदा, भिटि न भवको फेर ॥
चौपाड
हरिद्र ऋ्याको रै नाऊँ । रजगुण व्यापि रहा सब गाऊ॥
ब्राह्मणको पृजे संसारा । सो जिव होय न मवके पारा ॥
साखी-यदहि तिनगुनकी भक्ति, मति भूखो भमदास ।
इनके उप्र निरथ॒न, तहां योगीको बास ॥
चौपाड्ं
नियंण धाम निरञ्जन भाई । जिन सगरी उपपत्ति बनाई ॥
निगंणते मन भया प्रचडा। ताते बसे सकल जह्यण्डा ॥
नियेण अश सकर ओतारा । पीर पगेबर सब तन धार ॥
यही निरञखजनकेर पसारा । तामे अटका सब संसारा ॥
धमदास तुम भक्त सनेही । इनमे जनि अटकावो देही ॥
भक्त अनेकं भये जग माहीं । निरभय घर कोड पावत नादी॥
भक्ति करे तब भक्त काव । भगतिसे रहित बचनको पावे॥
चौदह रोक बसे भग मादी । भगसे न्यारा कोहं नादीं ॥
सत्य नामकी खबरि न पाह । क्या करि भक्ति करो रे भाई॥
जग्मे भक्त दोय भे भारी । श्रू प्रहलाद् सदा अधिकारी ॥
ये दोनों जन दवै त्रत साधा । एकि एकं इष्ठ आराधा ॥
धुव तौ गृ तजि बाहर गय । नारदको उपदेशी भय ॥
छठे मास प्रकटे इरि आई । राज दियो वेकुठ पठाई ॥
सादि हजार वषे करि राज् । कुर्टब सहित वेकुड विराज् ॥
एक दयौस जब परलय आई । ताहि बासते देय गिराई ॥
दुतिय भक्त प्रहलाद कदाई । इद्रासनको सुख जो पाई ॥
स्वरग दोन चौकरी युक्ती । बन्धनभावते भई न शक्ती ॥
स्वसमवेदबोध ( १४९ )
साखी -इद्रराजको भोगिके, फिर भवसागरमादिं ।
यह सगुनकी भक्ति है, निर्भय कबहुँ नाहि ॥
ध्ममदास् वचन-चौपाह
कौन भांतिसे करिये भक्ती सतगुर् मोहि तावो युक्ती ॥
निशुन सद्गण पार छ्खवो । तीसर न्यारा मोहि छ्लावो ॥
सत्य कबीर वचन- चोपाई
एक पुरूष रै अगम अपारा । सब घट व्यावकं सबसे न्यारा ॥
ताको भक्ति करे जो कोहं तको आवागमन न होई ॥
आदि ब्रह्म निं था ओंकारा । निन ङ्य नहीं विस्तारा ॥
नहिं तब बीज नहीं अकरा आदि भवानी चन्दन चुरा ॥
पुरूष कहो तो पुरूषो नाहीं । पुरूष भया मायाके माहीं ॥
शब्द् कटो तो शब्दो नाहीं । शब्द भया मायाके माहीं ॥
द्रे बिन होय न अधर अवाजा । कहो काहि यह काज अकाजा ॥
नाम कहोतो नाम न ताको । नामराय काल है जाको ॥
है अनाम _ अक्षरके माहीं । निह अक्षर कोड जानत नाहीं ॥
धमदास तहं बास हमारा कार अकाल न पव पारा ॥
धमदास बचन
धमदास कह सुनो गोर्सोईं । इन बातेन बनबेकी नाहीं ॥
संशय किये एक दी ओरा। त॒म दी हते कि टै कोड ओरा ॥
सत्य कबीर वचन चोगाई
जौ प्रतीति होय उर तोरे। भवको मेरि संग रह मोरे ॥
आदि पुरूष निदअक्षर जानो । देही धरि मँ प्रकट बखानो ॥
मोहि न व्यापो जगको माया । कहन सुननको है यदह काया ॥
देह नदीं अरु दरसे देही । रहौ सदा जह पुरूष विदेही ॥
गुप्त रहौ नाहीं लखि पाया । सो म जगम आनि चेताया ॥
({ ९५५० ) बोघसागर
चारो युगम चारों ना) माया रहित रहौ सब ठॐ ॥
सबसे कंद्यो पुकारि पुकारी । कोई न माने नर अर् नारी ॥
इनको दोष कंद नहि भाई । घर्मराय राख्यो बिलमाई ॥
धमदास वचन-चोपाई
डे स्वामी मे तुमको चीन्हा । आदि अतको भेद सब ीन्हा॥
तुम री वार तुमहि हो पारा । तमदहीते उपजा संसारा ॥
समरथ सब गति पाई तोरी । अब सब संशय चछ्रटी मोरी ॥
अब यहि मवम बहुरि न आबवों। तुमरे चरणकृमल चित खा्वौं ॥
सत्य कबीर वचन--चौपाई
कहै कवीर सुनो धमेदासा । सकर भेद यैं ़ीन प्रकाशा ॥
अब तुम भक्ति करो चित खाई । सेवो साधु तजि मान बड़ाई ॥
` पिरे कु मरजादा खोवे । भयते रहित यक्त तब रोव ॥
सेवा करो छोड़ि मत दूजा । गुरूकी सेवा गरूकी पजा ॥
गुरसे करे कपर चतुराई । सो हंसा भवधम आहं ॥
ताते ग॒रश्से परदा नाहीं । परदा करे रहै भवमारीं ॥
गुरु हे मात पिता गरू सेवा । गङ् सम ओर नहीं कोड देवा ॥
शरुसे अन्तर कबहुँ न करिये । सर्वैस रे शुरु आगे धरिये ॥
साखी-गुरूको मरिमा अगम है, शिव विरंचि नहि जान ।
गुर सतयुरूको चीन्दिके, पये पद ॒निरबान ॥
घधमदरास वचन
साखी-कमं भम भव भार सब, दिया भारम ओंक ।
सतगुरूके परतापते, मिर गया सबही धोख ॥
[१
अथ धमदासजीको कथा--चौपाई ।
धरमंदासकी कथा बखानो । वेश्यके कुर तनधृरि प्रकटानो॥
घर्मबइदछव परम अचारी । जासु सुजस गावे संसारी ॥
स्वसमवेदबोध ( १५१ )}
धमदास गुर् चरनन परेड । तनमनधनत्रणस्षम प्रिहरेड ॥
छप्पनकोरिकिं संपति सारी ! दियौ इगय सो रंक भिखारी॥
एके पुज परम प्रिय जादी । तजत बार नहिं खायौ ताही ॥
नारि पुर तजि भये उदासी । धभधुरंधर शुन गनं रासी ॥
तन मन गहे भक्ति सो गाद । खतशूचरनप्रीति अति बादी॥
प्रख्यौ ताको क्ति प्रभावा तब तेहि सतश् बचन सनावा॥
धर्मदास स॒निये मम बानी । तुमरे शह परकटैगमो आनी ॥
दशमे मास रेह ओौतारा । इसन काज देह निज धारा ॥
सो जीवन को पार छंववे। वशकेर कंडिहारं कहावे ॥
मेरे बचनते सो तन धारे। बचन चुरामनि नाम षकारे ॥
धमदास वचन--चोौपा
दे प्रथुहम इद्री बस कीना । केसे अंश जन्म तौ लीना ॥
धमदास अस बचन सुनाई । तब सतथ॒ू तिहि कष्य ञ्जा)
पुरषं नाम धमन लिखि देहो । ताते अंश जन्म जो ङो ॥
लख सेनमे देहं ल्खाई । धमदास सुनिये चित खाई ॥
ङ्ख पान पर्ष सदिदाना । आमिन देह पान प्रवाना ॥
धमदास आमिनिहि बोखाई । ठे सतथुरूके चरन टिकाई ॥
धमदास परवाना दीना । आमिन पाय दडवत कीना ॥
दृशये मास जब पूजी आसा प्रकटे अंश चुरामनि दासा ॥
सतगुरु बचन ते प्रकटे आई । बचन चुरामनि नाम कहाई ॥
सुक्तामनि पुनि नाम है ताका । जाते चटी वेशकी साका ॥
इति
अथ चारों गुरुकी कथा-चोपाई |
स्वसमवेद सतश् सुख बानी । चौदह कोरि ज्ञानकी खानी ॥
तत्त्व ज्ञान पुनि ताते काढा । चारो वेद कान तिहि गढ़ा ॥
ऋग यज साम अथवेन चारो । ताते सब जग धमं प्रचारो ॥
( १५२ ) बोधसागर
स्वस॒मवेदको चारो अंगा । ताते र भये अनेकनं टमा ॥
चारो वेद चह गुर् गदे । परमपथ जाते जिव खृहेऊ ॥
चारो गुरूकी कथा बखानो । सुकृत आदि मेद अं प्रमानो॥
इति
अथ घ्रथमगुर् भवसागरमं उत्तर दिशा गोसांडं धमदासजी-चोपाई्
रोकमे सुकृत अंश कडलाईं । भवसागर धर्मदास गोसाई ॥
उत्तर दिशा तासु शूवाईं । गदि ऋगवेद जो पथ चलाई ॥
जम्बूदीपो भारथ _ खंडा । प्रकटे गदृबानौ महि मेडा ॥
सो गह कोट ज्ञानक बानी । पथ प्रचार कीन रजधानी ॥
वेश बयाल्खि ताने पाया । भवसागरे पथ चलाया ॥
इति
अथ धमदासजीकं बय लिस वंशक्ते नाम
दोदा-बचन चुरामनि प्रथम कह, बहुरि सुदर्शन नाम ।
कुलपति नाम प्रमोद् गुरू, कोल नाम गुणधाम ॥
नाम अमोरु काव पुनि, सुरति सनेरी जान ।
दद्ध नाम सादहिष कटो, पाक नाम प्रधान ॥
प्रकट नाम साहिब बहुरि, धीरज नाम कह फेर ।
उग्र नाम सादेव कदो, उदे नाम पुनि टेर॥
गीध नाम साहिब तथा, नामप्रकाश काय ।
उदित मुकुन्द बखानिये, अथे नाम पुनि गाय ॥
ज्ञानी सादिब हस मनि, सुकृत नाम अजनाम ।
पुनि रसनाम ङ गगमनि, परस नाम अभिराम ॥
जाग्रत नाम अर् भरगमनी,) अकड़ कंडमणि होय ।
पुनि संतोषमनी को, चातक नाम गनोय ॥
आदि नाम नेह नाम है; आदिनाम महानाम ।
स्वसमवेदबोध ( १५३ )
पुनि निज नाम बखानिये, साहेषदास गणयाम ॥
उदेदास करू नाम पुनि, हगमनि महामनि इस ।
युक्तामनि धमदासके, बिदित बयाखिस्च बस ॥
अथ वयपालिस वंलकी स्थिति वणन-चौपाई
वशबयालिसकी धिति भाखों । खत्य कृवीर प्रमान जो राखों॥
वीस दयौस अङ् वर्धं पचीसा । सिंहासन धिति येती दीका ॥
वषं पचीस बीस दिन केरी । भोग पूर्णं थित दहो जिदहिवेरी॥
गदी सपि जो अधिकारी । निज इच्छा पर धाम पधारी ॥
जबलों थित करार नहि एजे । तबरों राजसिहासन भजे ॥
तिनको कबहु न मृत्युकी पीरा । अमर कीन तेहि सत्यकनीरा॥
गरीको करार नियरवैं। सन्त महत खबरि तब पतै ॥
सुने सन्त पृथ्वी चहुं खूटे । दरशन हत जाय तहं जृटे ॥
ठेहि चखानेको जब बीरा । जग प्रत्यक्ष निरखे तेहि तीय॥
यहि विधि आप टोकचलि जाई । सन्त महन्त बिदा तब पाई ॥
हेसन प्रति गही भिति ठेस । वश बयाङ्क्ि भेजे जेसे॥
संवत पद्रहसौो अर बीसा । वञ्च थापतेहि समयसे दीसा॥
जब् तेरी पीदी चङि आवे । शक्तामनि तबही प्रकटावे ॥
धर्म कबीर होय परचारा । जहंतहँ सतयरु सयस उजारा॥
इति
अथ दुतिय गुरुभवत्ागरमं दक्षिण दिशा गोसांइं चतुभुजदासजो-चोपाईं
लोकम अकह अंश परकाशा । महिम सोई चतुभंजदासा ॥
दृक्षिणदिशि गुर ताहि प्रसंशा । ताके है सत्ताहस वंशा ॥
यजरवेद विधि पंथ चलाई । कुशदर द्वीप माहि प्रकराई ॥
नग्र॒ करनाटक तेहि रजधानी । गह रकसार ज्ञानकी बानी ॥
इति
( ९५४ ) बोधसागर
अथ चतुभुजदासजोकं सताइस वंशकं नाम-चौपाई
पथम् प्रेम कड दुतिय इरासा । तीजे अर्नद् चोथ विश्वासा ॥
पचम ॒दहित्त भरति है छव । सतवे निरख बिबेक ह अय्वे ॥
नोवे सत्त छमा दशमे . वद् । ग्यरहेँ धीरज बरद अनहद् ॥
तेरे शीर संतोष चोदरं । पेदे सुमति बुद्धि सोरे ॥
सदव पुनि भक्ती जाना । उच्रिस दया बीसवें जाना ॥
एकिंस कृपा विचार बाइसे । एकपन तेइस मोक्ष चौषिसे ॥
पचिसवे मेद॒ छबीसवें मोखा । सत्[ईसवे सुमती चोखा ॥
लछोकमें यह सब नाम काये । मदि न्यारे नाम धराये ॥
इति
अथ तृतीये गुडभदसागरमं गोसाँइ बंकजी पुव दिशा--चौपाई
लोकम जो ई अंश काया । भवसागर बेकेजी. राया ॥
सोख्ह वश तासुके होई । पूरब दिशि प्रकटे सोई ॥
पृक्ष द्वीप द्रभगा नगरे । सामवेद मम भाषे सगरे ॥
सो गहि मूलज्ञानकी बानी । पथप्रचार आषनो ठानी ॥
इति
अथ राय बकजीके सोलह वंशकं नाम जो लोकमें प्रसिद्ध हे-चौपाई
माया प्रथम कूम दुसरोई । तीसर अदल अष्ट कह सोई ॥
चौथ निरंजन छतर सुनि पचम । छठे आपसुनि पेख अुनिसप्तम॥
अष्येजीत ख॒निनौमशीतलखनि। दशमे भगुञुनि म्यरहे कंटघुनि॥
बरहे कलंकसुनि तेरह गगसुनि । चोदहे विरगञुनि पदहेसोऽनि॥
सुनि सो रदे जलरंग गोसौई । षोडश्वेश केरि युरूवाई ॥
| इति |
, अथ चौथे गरुभवसागरमं गोसांइ सहतेजो पश्चिमदिश्ञा-चौपादं
अश दिरम्मर लोकम होई । सहतेजी भवसागर सोई ॥
स्वसमवेदबोध ( १५५ )
पथम दिशा कं गुरुवाई । वेद अथर्वन् ताने पाई ॥
शालमल्य जो द्वीप कहाई । मानपुर शरमं सो प्रकराई ॥
कथे ज्ञान लहि बीजक बानी । सात वंश तके परमानी ॥
इति
अय सहतेजी क सातवंशके नास-चोौषाई
प्रथमवषे पारस कहवाये । इतिये स्वातिसनेशी माये ॥
तीजे भृगसमीप बखानी । चौथे रहरर्सिधु कहि गानी ॥
पथम दीपक ज्योति कहाई । वुनि जलभाष षष्ठमे जोई ॥
सप्तम मल्यागिर कहि रेरा । सात वश सहतेजी केरा ॥
निज निज वेशन युत गुरूवारी । सत्यकबीरको धर्मं वचाय ॥
जक्त जीवको कर उपदेशा । परम धरमको कहै वैदेशा ॥
इनते इतर पथ बहृतेरो । सत्यकबीरकी कषा धनेरे ॥
इति
अथ सत्यकबीरकं बारह पथ वणन--चौपाई
बारद पेथके नाम बतावो । प्रथम नरायणदास कहावो ॥
जेट पच धर्मदासके सोईं। जाग पंथ दूसरो होई ॥
तीजे सुरति गोपार पुकारा । मूर निरंजन चौथ उचारा ॥
पचम पथ आहि रकसारी । छठवां भाग पथ प्रसारी ॥
ीजकं छे ज्ञान सुनाया । सतयेमं सतनामी आया ॥
अष्टम पथ कमारी होई । नौमें राम कबीर कोई ॥
दशमे प्रेम धामकी बानी । ग्यरहं जीवा पंथ बखानी ॥
बरे एकं अचारज आयौ । अपनौ नाम कबीर बतायौ ॥
ारद पथ सुयश शरु गेह । सतगुरु कृपा परमपद पह ॥
इति
( १५६ ) बोधसागर
अथ सत्य कबीरकं इतरपथ वर्णन चौपाई
परथमे नानक पन्थ बखानो । पानप बहुरि पथ कहि गानो ॥
दाख मलोक पन्थ परचारा । बहुरि गरीबदासर विस्तारा ॥
इत उत ॒देशन देशन समाहीं । सत्यकबीर पन्थ जरं तादीं ॥
जहतहं देखो सत्य कबीरा । ईहिद् शुसरूमान गर् पीरा ॥
निज इच्छते सो तन धारे । कार्जाङूते जीव॒ उबारे ॥
कबहु योनि संकट नहिं आवे । जीव दया करि सतशुङ् ध्यावै ॥
जिन जिन सतगुरूको पहिचाना । सो अवश्य लह पद् निर्बाना ॥
शग्द्
हम बसें चामके धाम इम कोई क्या जाने ॥
पञ्युपखी नरनाग जहां ख्गि सवे चामको साज ।
चामे चामको दाम बटोरे चामरंगको राज ॥
चामे माडे चमे पोवै चाभ करे रसोई
चामे चामको परसि जिवावे चाम करे सो होई ॥
चामे गवे चाम बजावे चाम करावे नाच।
चाम चामको भाव बतावे चाम बीच है सांच ॥
करै कबीर सुनो भाई साधो हम है पुरे चमार ।
जो कोई हमको पहिचान उतरे भवनिधि पार ॥
सो गुर् खोज सो सन्त सुजाना ॥
जो गुरु खोजि अमरघर आवे पावे मूल ठेकाना ।
जिन गुर् गुरू पञ निरमायेरच्यो जमीं असमाना ॥
तिनके केम कटे भवबधन जिन ओदियुरूको जाना।
टीका मूर बिनपरगट कीनो चौदह कोरिजो ज्ञाना ॥
नहीं बोर भाषामे आवे शब्दसेन सो जाना ।
आशा बन्धते परगर कीनो जो जैसे अञुमाना ॥
स्वसमवेदबोध ( १५७ )
सारशब्द दियौ है पुरूषने आप तो शप्त रहाना ॥
जिदि पारसते पुरूष ददने करि चौका बधाना ।
कहै कबीर ये अगम शु है सदी आप परवाना ॥
दोहा-जेते पथ कवबीरके, भिन्न भिन्न बिधि थाव ।
कहं चौका अङ् आरती, कंठी माला छाप ॥
तिलक ङ कंठीमाञ कह, कहं शब्दहि निरधार।
कटु ओद् कहु भित्र कञ्च, सबको तारन इार ॥
कोई जिगुणकी भक्तिमय, कोहं तिनते न्यार।
योग युक्ति करि अुक्तिपद्, पावत यहि संसार ॥
इति
अथ नारायमदासजोकी कथा--चोषाई
धमदासस्ुत दास नरायन । भित्रकथा कृञ तञ्च बतायन)
न्यारो पथ आपनो उना । बारहं पथमे ताञ्च मिलना ॥
वश माह दै भेद बखाना। प्रथम नारायणदासहि जाना ॥
वचन चुरामणि दुतिय बताई । वशकेरि कंडिहारी पाह ॥
दोनों जगमे पथ चरै । ध्मदासके वश कहाँ ॥
इति
अथ जगजीवनदासजी सत्यनामन्षो कथा--चोपाई
सतनामी जगजीवन दासा । अवध देशम पथ प्रकाशा ॥
कोटवा न्मे सो प्रकटाना । आहि मध्यमहि ईिदस्थाना ॥
राजपूत कुर कर॒ उङुराई । सतगुरु कृषाते पंथ चटाई ॥
न्यारो ज्ञान आपनो भाखा । ताके भई बहत शिषसाखा ॥
कारी तिलकं देहि निज माथा । आन्दर बधं अपने हाथा ॥
आद एक भांतिको धागा । केठीके बदले कर लागा ॥
इति
( १५८) नोधसागर
अथ रामकबीरजोकी कथा--चोपाई
राम कबीरकी कथा कीजे । वेरागिनको ज्ञान गदीजे ॥
ठाङ्कर प्रतिमा पूजे सोई । रामकृष्णको ध्यावे ओई ॥
इत कबीर पथिनसे मेखा । उत मेरागिनम मिखि खेला ॥
रामङ्ष्ण सम्बधी जोई । प्रीति करे पूजे सव सोई ॥
इति ं
अथ नानक शाटजीकी कथा--चौपाई
नानकशाह कोन तप भारी । सब विधि भये ज्ञानअधिकारी॥
भक्ति भाव ताको कखि पाया । तापर सतगुङ् कीनो दाया ॥
जिदा खूप धर्यो तब साई । प्रथु पजाब देश चरि आई ॥
अनदद् बानी कियो पुकारा । सुनिके नानक दरश निहार ॥
सुनिके अमर रोककी बानी । जानि परा निज समरथ ज्ञानी॥
नानक वचन
आवा पुरूष महागुङ् ज्ञानी । अमरखोककी सुनी न बानी ॥
अजं सनो प्रथु जिदा स्वामी । कर्द अमरलोक रहा निज्ञधामी॥
काहू न कहौ अमर निखबानी । धन्य करवीर परमश् ज्ञानी ॥
कोड न पावे तुमरो मेदा । खोज थके ब्रह्मा चहँ वेदा ॥
जिन्दा वचन
जब नानक बहते तप॒ कीना । निरंकार बहते दिन चीन्हा ॥
निरकारते पुरूष निनारा । अजर द्वीप ताकी टकसारा ॥
पुरूष बिछोह भयौ तुव जवते । काल कठिन मग रो क्यौ तबते॥
इत तुव सरिस भक्त नरि होई । क्यों परपुरूष न मेटेड कोई ॥
जवते हमते विद्कुरे भाई ।. साठि दजार जन्म तुम पाई ॥
धरि धरि जन्म भक्ति भरुकीना । फिर कार चक्र निरंजन दीना॥
गहन मम शब्द तो उतरो पारा । बिन सतशब्द रदे यम द्वारा ॥
स्वसमवेदनोध ( १५९ )
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा । ओर जीवको कौन चलावा ॥
निरंकार सब स्रष्ठि थुखावा । तुम करि भक्तिखोरिक्योआवा॥
नान वचन
धन्य पुक्ष तुम यह वद् भाखी । यह वद अमर युप्त कह राखी ॥
जबल य॒म तुमको नि पावा । अगम अपार भमै केखावा ॥
कहौ गौर्सौईं हमते ज्ञाना । परमयुरूष इम तुमको जाना ॥
धनि जिदा प्रथु युक्ूष पुराना । बरिररे जन तमको पहिचाना॥
जिन्दा कवचनं
भये दयार पुरषं गुर् ज्ञानी । गहो पान प्रवाना बानी ॥
भरी भई तुम हमको पावा । सकरो पंथ कालको धावा ॥
तुम इतने अब भये निनारा । फेरि जन्म ना होय तुम्हारा ॥
भली सुरति त॒म हमको चीन्हा । अमरयतर हम मको दीन्हा ॥
स्वसमषेद हम कहि निज बानी । परमपुरूष गति तुम्हे बखानी)
नानक बकेचन
धन्यं पुरूष ज्ञानी करतारा । जीवकाज प्रकटे संसारा ॥
धनि कृरता तुम वदी छोरा । ज्ञान तुम्हार महा बर जोरा ॥
दिया दान यर् किया उवारा । नानकं अमरलोकं पग धारा ॥
इति
चौपाड
यहि विधि नानकं गुरुपदं गहे । शिष शाखा तेहि जगे रहेड॥
शुश्पद तजि बहु पथ चाये । अन्य देवकी सेव गहाये ॥
परमपुरुष पद् नहिं परटिचाना । भाति अनेक बनायो बाना ॥
अजह गुरकी तीन निशानी । गहै कटक गुरुकी निज बानी॥
द्वितिये सत्यनामकी साका । तृतिये देखा श्वेत पताका ॥
्षजी कुल नानक तन धारी । ताको सुयश गाव संसारी ॥
इति
( १६० ) बोधसागर
अथ गरोबदासजीको कया--चौपाई
ग्रोबदासको कंथा बखानो । जारके कर्मे सो प्रकटानो ॥
दिद्धी निकर नभ छोरियानी । सतगुरू कृषा भयो सो ज्ञानी ॥
खत्यकवीरको सशय उचारा । जक्तमारि निज पथ पसारा ॥
खतयुरूको अस्तुति भरु गावे । अधिक प्रीति मनमा्िं बदढावे॥
एकसो वषे ताहि चरि गय । प्रकट गरीबदासर तब भय ॥
इति
अथ कबीर आचार वणंन--चोपारं
सत्यनामकी सेवा धारा । सुभिरण ध्यान नाम निरधारा॥
सतगुरु वणेन प्रीति सुहाये । मूरतिको नहि शीस नवाये ॥
तीरथ बत मूरति भमजाला । सत्यभक्ति गहिये सत चारा ॥
निरणण सरशणको तनि दीजें । सत्यपुरूषकी भक्ति गदीज्ञे ॥
सत॒ शुरूकी सेवा धारे । तन मन धन अर्षण कृरि डा२॥
कोटिन तीथं गुरूके चरना । संचय सोच पोच सब हरना ॥
दुखी दीन देखत दुख लागा । परमारथ पथ तन धन त्यामा॥
गृही साधु दौड एकं समाना । परमदयार दोहूको बाना ॥
मयय मांस भष जगम जोई । महा मलीन जानिये सोई ॥
परम दया सब जिवपर पाठो । अधोदष्ठि मारगमे चालो ॥
रिसा कमे जेते जगमादीं । ताके कबहु निकट न जादीं ॥
सब जीवनकी कर रखवारी । जीवघात कूं बात न चाली॥
वृषौ ऋतु जब जिव अधिकारा । तब नरि कबहु पथ पग धारा ॥
अमल नाम जग्मे दै जेते। सकल अभक्ष जानिये तेते ॥
सत्यकबीर बचन
साखी -विष्णुधम् जेनी दया, ुसरमान यकतार ।
ये तीनों जब जानि ठे, तब जिव उतरे पार ॥
स्वसमवेदबोध { १६१)
चोपाई
तीनों जही दोय संचटया। सो कबीर आचारको ट्टा ॥
शौच अचार श्जुद्ध सब करनी । उञज्वरु क्रिया बडदव बरनी ॥
अतर बाहर परम पुनीता । हिसा रहित कमं चितचीता ॥
जस जनी जिव दाया पाला । ताही सम कबीर अनि बाख ॥
शुसरखुमानके जिमि अद्छहा । ताहीते निज नेह निबाहा ॥
तिमि कबीर अुनिके सतनामा । रह लौटखीन सदा सो तामा ॥
स्वसरमवेद् विधि करि ज्जुभकर्मा । सार शब्द गहि पव मर्या ॥
सतशुन गहे बहव तातं । भाषे प्रय यपर्षकी बतं ॥
श्रु भेष सब ॒ शुङाचारा । ञ्ुञवर्ण शङ्के व्यौहारा ॥
शली रोपी त॒लसी माख । कंठी केठमे तिलक विशाल ॥
सूच ई शिखा बहव बाना ' योग युक्ति यरूधसं परमाना ॥
केरकमंडर चोला पिरे । चचां ज्ञानमाहिं बड़ गहरे ॥
ततत्वमारिं निःतत्त्व बताई । ्ीना ज्ञान कथे ऋषिराई ॥
असन वसन विधिवत सो धरई । ध्म॑वस्तु क्क संग्रह करदी ॥
| इति
अथ तिलकस्वरूपवणंन- चोपाई
उद्धयुण्ड अङ् दंडाकारा । शु्रतिलक तेहि सोह छिलारा॥
नासा अग्र भागते काढा । मस्तक अत प्रयत लो गडा ॥
नाकर्बांस दोउ भरकुटी बीते । मस्तक अंत प्रयतलों खीचे ॥
दंडाकार सो तिरक बताई । तासु महामन कहो न जाई ॥
यमदंडनको दंडक ठंडा । कमं॑भमं सो कर शतखंडा ॥
परम् बइरख्व तिलकं जो धारी। तिलकदेखि यम बिलखिसिधारी
ताको अर्थं कदो किमि जाह । सुर नर सुनि को पार न पाई ॥
गो० सा० ९|
{ ९६२ ) सोधसागर
दोय स्वरूप अकार बखाना । एक थूल यक सृक्षम जाना ॥
सुषम रूप अकार दै एदी । विष्णु विश्वेभर किये तेही ॥
स्वर व्यजन दै भांतिके अक्षर । सबदीको मह पितु अकारबर ॥
स्वर अक्षरको आदि अकारा । सोई सवे धमे नय सारा ॥
स्थर स्वरूप अकार जो कदिये। सकल स्वरनके आदिमे छ्िये॥
स्थुरु रूष हे जग विस्तारा । सृक्षम शूष रमे संसारा ॥
प्रम पुरूष रै आदि अकारा । अमरु अर्ेख अभेद अपारा ॥
आदि अकार जो गह्य विकारा ताते भयो सकर संसारा ॥
आदि अकारते तीनों शन ई । सतश॒णशूष अकार विष्णु है ॥
थूरु अकार विकार गरेता । सबही वणेन भारिं रमता ॥
वासुदेव सो रमे चराचर । रुखि नहिं परत सो अरुखञअगोचर॥
संसत महं सोई आकारा । अदिफ पारसीमाहं पुकारा ॥ `
सो अदिफ अद्धीह काया । ताहि अरिफते सबजम जाया ॥
ताकी सिफत कदी नदिं जाई । पीर पर्यबर षार न पाईं ॥
जो कोई अद्धिफ परहिचाना । तादी हवमा भिरि जाना ॥
चार खानि, जेते जगमादीं । बिना अदछिफ कतहू कड नादी॥
करं प्त क. प्रकट निहारी । यद अ्टिफ सब मादिं बिहारी॥
देखे ताहि कोड कोई साधू । जिनके इदये ज्ञान अगाधरू ॥
तेहि अदिफकी कथा अपारा । गिरा गनेश शेष कथिदारा ॥
नर बपुरा सो किटि विधि कईं । शिव सनकादिक मूकं ह रह ॥
सत्य कवबीरको तिरक दै येही । वंशके साधु जो मस्तकं देही ॥
इतर पथको तिलक दै न्यारे । वेद॒ धमकी रीति विचारे ॥
इति
अथ सत्यकबीरको धामक्षेत्र वणन-वार्ता
सहज सुरति संप्रदा धीरज धाम दशमद्वार शिषुदी तीरथ ॥
स्वसमवेदबोध ( १६३ )
सुष्मना सुख विलास । काया रामशाखा अगम इष्ठ । निर्धित
नाम उवाशी लौ माला मनसा देवी मनसो दैव अलख अचा-
रज सत्य गोर सञ्ज्ञ शाखा वेदविचार खासा सुमिरन निह
अक्षर म प्रीति वरिकिमा जीव योग ऋषि निजमन निजब-
इव निर्भय शक्ती शङ शब्द शुङूयार येता धाम क्षे्न अविः
नाशीकी सेजपर कवीरने ञ्नाया । इतना अथं छ काशी कबीर
शुर रामानन्द् पास आया ।
इति धामक्षेत्न
अथ जीवके अतकालको वणन--चौपाई
अंतकाल जब जिवको अवे । यथा कमं तस देही पावे ॥
हठ द्वार जब जीव निकाशा । नरकखानिमे तको बासा ॥
उरे नरक शीस बल जाई । ताहीमे पुनि रहै समाई ॥
नाभिद्रार जो प्रान चलाना । जलचर योनि माहि परकंटाना ॥
मूलद्रार कर जीवं षयाना । पञ्च॒ योनिमें ताञ्च व्किाना ॥
जीभ द्वारते जिव कटि अवे । अत्रलानिमे बासा पव ॥
श्वासद्ारते जिव जब जाता । अडजखानिमे सो प्रकटता ॥
नेच द्वार जब जीव सिधारा । मक्खी आदिक तन सो धारा ॥
श्रोन द्वारते जिव जब चाला । प्रेम देह पावे ततकाला ॥
दशमद्रारते निकसे प्राना । राजा होय भोग विधि नाना ॥
रंभ द्वारते जिव जब जाता । परम पुरूषके लोक समाता ॥
। इति
अथ हंसनको स्थानवणंन सत्य कबीर वचन-चोपाईं
तेज अड है पाटंग बारा। दरे पारग मध्य अधियारा ॥
सालोकुक्ति मृतलोक ब्खाना । मानसरोवर तिहि अस्थाना ॥
धीया अंश तहां बेरा । चौसठ कामिनि संग विहारा ॥
( १६४ ) बोधसागर
जो कोड बाम मताको ध्यवे। सो साखोकं भुक्तिको पव ॥
सदस साठ वेंकट रहाई। तदा सुमेर रहा ठदराई ॥
सराय अविनाशी रहईं । पुण्य पापको रेखा गदड ॥
तरौ सामीप सक्ति है सोई । नौसे सखी तेरह संग रोई ॥
पांच शिखा सुमेर रहाईं। पांचो अश कला तह खाई ॥
ईशान कोन धुव आसन कीना । बाइब कोन इन्द्र॒ अस्थाना ॥
नेत कोन यमनको थाना । अभ्रीकोन इन्द्र॒ अस्थाना ॥
जाको घमरायमे करिया । मध्य विष्णु सिंहासन रदिया॥।
सदस ॒साटि वेङुण्ठ प्रमाना । तर्दति ्ुन्य डोरि बंघाना ॥
मारग जो निर्वानहि ध्यवें। सो समीप वेङुठहि पतिं ॥
मरूते शून्य अठारह कोरी । तर्हवा र्गी ्ुन्यकी डोरी ॥
यन्य मध्य दै द्वीप अनूषा । तदा निर्जन ज्योतिस्वषूणा ॥
अंधकार दै शून्य मञ्ञारा । दवै पाल्ग शून्य बिस्तारा ॥
चार करोर ज्योति उजियारी । शोभा अद्भत तासु निहारी ॥
साङ्प सक्ति सोई तब पाईं । मारग भेद अघोर चराई ॥
आगे अक्षरको अस्थाना । पारटेग एक तदति जाना ॥
अक्षर योग माया विस्तार । अक्ति सायुज्य महै मतधारी॥
तति चार वेद॒ परमाना। चौथी सुक्तिको यही ठेकाना ॥
तदते आमे कोड न गेऊ। यह् मत चारो वेदनं कहे ॥
धमदास वचन--चोपाई |
धमेदासर विनती चित खाई । साहेब कटो मेद॒ सथुञ्ञाई ॥
चार युक्ति अस्थान बतावो । आगे को भेद् जिमि पावो ॥
बस्ती ञ्न्य बीचकी भाखो । समरथ मोहि गोय जिनिराखो॥
सत्य कबीर वचन
धर्मदास तुम भर्के जानी । जो ब्रूज्ञो सो कों खानी ॥
स्वसमवेदबोध ( १६५ )
एक असंख अक्षरते अगे । अर्चित नामको डोरी खमे ॥
अधर द्वीप है ताको नामा । परम रम्य अक्षर विश्रामा ॥
निरते प्रेम सुरति तिहि द्वारा । तिहि सग सखीं बारदहनारा ॥
तीन अंश अगे परमान ओह सोहं को अस्थाना ॥
आठ अश तद्वो उवजाये । अंश वंश अस्थान बनाये ॥
ओह सोह होत उचारा । तदति श्चुन्य डोर बंधाना॥
आगे सहज सुरति अस्थाना । तदति ्चन्य डोर बधाना ॥
अगे शून्य है पांच असंखा । मरू सुरत अस्थान विसंखा ॥
तेहि सग दस बावन इनारा । पांच बह्म उनते उपचारा ॥
चार असंख शुन्य तेहि आगे । इच्छा सुरति तर्द अञरागे ॥
खात सनेदी जिनको धारा । तिन संग हंस षचीस इजा ॥
आगे शून्य -असंख द्रे जाना । तहां अद्र सरति अस्थाना ॥
पांचदजार ईस संग साचे । तिनकी सुरति ईस सब बाचि ॥
जहाँ अकर केर परमाना । तिल परमान दार अङमाना ॥
बिहग शब्द तहँ लागी डोरी । चटि हसा गये पर्ष सोरी ॥
साखी-सोरह असख लोक है, धमन करो विचार ।
चार असख है < बरती. बारह सुतर पसार ॥
चपा
आदि अन्त अर वंश पसारा । तरहैखगि देख शून्य विस्तारा ॥
यतना तनि जब होय निनारा । हसा अवे लोक हमारा ॥
हे चीन्दि सतश् रस पीये । कमे तोरिके युग युग जीये ॥
निशदिन सतु सरति गावे । साधु सन्तके चिते समवे ॥
जापर दया सन्त गुर केरी । तिनकी कटी कर्मकी बेरी ॥
करि करनी अभिमान भुलाई । तन छूटे यम रे धरि खाई ॥
तन मन धने प्रीति लगावै। सो हसा सतटलोक सिधावे ॥
सत्यलोकं है अधरस नीपा। ता मध्ये सत्तास द्वीपा ॥
( १६६ ) बोधसागर
खत्य शब्दको टेका दीना । एसे बिधि पुहमी रचि लीना ॥
खागर सात तरं विस्तारा चि हसा जरं करे विहारा ॥
पुहुपद्वीप दै मध्य सिहासन । कलाद्रीप ₹ंसनको आसन ॥
खाखी-अविगति भूषन अंगम, अबिगति करे गार ।
अबिगति बस्तर शजई, अबिगति करे अहार ॥
इति
अथ परलय कवणन--चोौपाई
तीन प्रकारकी सषि बखानो । प्रथमे बह्म सि कटि मानो ॥
दवितिये जीवकि सशि कायौ । ततिये माया सृष्टि बतायौ ॥
ब्रह्य सशि आचिन्त प्रमाना । जीव सृष्ठि अक्षरते जाना ॥
माया सृ्ठि निरञ्जन करता । सिरजे पोषे पुनि संहरता ॥
माया सशि जाय बिनसाई । जीव बह्म नरि प्रलेतने आई ॥
रचना सेखि निरंजन केता । गूमट शीस माहि धरि देता ॥
शिरमे गुमट अजब कहाई । सकल सृष्टि तेदिमा् समाई ॥
प्रलयको ययोस आव जेहिबारा 1 जक्त समस्त होय सहारा ॥
पुनि जरते पूरे संसारा । उढे चह दिसि खरि अपारा ॥
जल्की एसी बृद्धि बताई । अति उतम पानी चटहि जाई ॥
पुथ्वीते उपर जर सोई । दश योजन खों ॐचा होई ॥
अन्तकार कखियुग जब आव । चीन्द भयापन बहुत देखा ॥
सवासौ वषे अ्रहन निरधारा चंद महण सत वषं बिचारा ॥
ताहि नते लेखा जे कलियुग रोकं प्रवाना दीजे ॥
नानक वचन
पररय की बिधि को दयाला । अलख ज्योति वषं केहि ख्याला॥
काट बली तुमको नि माना । प्रख्यकाल तेहि कहा रिकाना ॥
{जदा वचन
सुन नानक यह भेद अपारा । कार प्रख्य जब करे संहारा ॥
स्वसमवेदबोध ( १६७ )
रचना निगलि निरंजन छेता । अमरलोकसे अलगहि रहता ॥
ले रचना फिरता सो रदई । गुमट शीशमे सब जिव गह ॥
प्रख्यं द्रीपते पुष निनारा । सो साहिब नहिं जग ओतारा ॥
प्रख्य निरंजन संग पस्ारा। ठे बेड सब आष मञ्ञारा ॥
तेज शूष वतै नौ खंडा। छेयं समेटि सकर अह्ंडा ॥
तीन देव चौकी उरि जाई । मेरु खमेर सिञ्च चङि आ ॥
ञुत्र अकाश वर्तं नौ खंडा । पोच तच्वको रहैन क्ंडा॥
ञकार मठ रहै समाई । सो फिरता रह आत्रमे भह ॥
सत्तर युग लों चुत रहईं । ता पीके अति संकट गृह ॥
तब युग सत्तर शन्न रहीता । भ्रल्य कर सब जिवन भरीता ॥
फिर अमरावति छह सिधाईं । फिर सतपुङ्षको रत भह ॥
दुखित होय अरजी तब लाया । पुङ्ष दयार देह अन भाया ॥
तवर्हिं पुरूष ज्ञानको टेरो । जाय त्रम कौजं फरो ॥
कटो _निरंजनपे अब्, जाई । कूमे पीय्ये बेव्ड भइ ॥
चलिके फिर दम तापं आये । पुरूष बचन ताको ससुञ्ञाये ॥
सुनो निरंजन बचन हमारा । जाय कमपे करो पसारा ॥
रचना करो सकल ब्ह्नडा । जाय कू्मपे रोषौ इडा ॥
सुन्यौ निरंजन सो फरमाना । सुनिके बचन कियौ परमाना ॥
खनि सो बचन निरंजन धाये । जहां कम तइवा चकि आये ॥
बैठ कूर्मेपे सतशब्द उचारा । रचना प्रकट भई सतसारा ॥
पंचतत्व परगट तब कीना । सात शून्य पर आसन दीना ॥
जलके उपर मदी छवाई । नवो सड सूमेर रचाई ॥
तहँ सुमेर परबत फैखाई । तब युखते अद्या प्रकटा ॥
मिलि दोनो तिरदेव उपाई । यदि विधि सब रचना फैखाई॥
उपजे ब्रह्मा विष्णु महेशा ॥ नारव शारद गौरि गनेशा ॥
| च
( ९६८ ) बोधसागर
अथ नरक वर्णन--चोपाई
प्रथमटि जरु रंगी कदि गाया । ताके उपर कूमे बताया ॥
कूभैके ऊपर मीन करीते। मीनके उपर कच्छप थीते॥
कच्छपपर बाराद बखाना । तापर शेष नाग अस्थाना ॥
शेषनाग निज शिरपर धारा । प्रथ्वी सहित सकर मदहिभारा ॥
सात नरक चौरासी कुंडा । पर तामे पापिनको ञजुडा॥
तहं यमदूत ताडना करदी । देड प्रचंड जीव दुख भरदी ॥
इति
अथ चौदह यमकं नाम
दोदा-सृत्यु शग प्रथमे कहो, कोपित अध बताय ।
दर गदानी तीजे कदो, मन मकरंद जताय ॥
चितचंचरु पचम गनौ, छठे अपबेरु नाम ।
अघ अचेत है सप्तमं, कमरेख पुनि मान ॥
अभिघंट नौमे कहो, काटसेन पुनि चीत ।
मनसा मर्दं ग्यारह, . बरहे कद भयभीत ॥
पुनि ताटका दै तेरह, सूरधार दशचार ।
यमगन जेते नरकर्मे, ये चौदह सरदार ॥
इति
अथ सत्यकबीरकं गुप्त होनेका वणन--चौपाई
संवत पद्रहसो उनदत्तर । देश उडेसे सतश् पगधर ॥
पुनि मगहर चिगे य॒रुदेवक । दू भुसरमान जह सेवक ॥
बीरर्सिंह नरनाथ बेला । सत्तकबीरको सो तँ चेला ॥
बिजलीखोँ पठान सोऊ राजा । शिष्य कबीरको तदा विराजा ॥
विज्जलीखां जब यह सुनि पाई । अब शुरु जगसे जाह छपाई ॥
तब तासे पृष्ठो सो मेवा ्िदू असलमान गुरुदेवा ॥
वसम्बेदबोध { १६९ )
जब सतशुरूको निज तन त्यागे । कोन धम पञयुको शुभ लागे ॥
दिद कधौ म्रसलमाना । भरत्युकमं किहि बविधिते ठाना ॥
तब कृषीर तेहि उत्तर देऊ । जौँ वम लखोथ इभारी ठेठ ॥
तौ अपनी कुटरीति विचारा । भ्रत्युक्मे कर तेहि अदसारा ॥
पुनि गर बीरसिह गृह गय । राजा रानी ईर्षित भयऊ; ॥
चादर तानके पौदे जाई । भये अबो कबीर . गोसाई ॥
राजा रानी जब अस खे । विकल भये सतगुङ्् तन तजेड।॥
रुदन करे जब राजा रानी । नय शोर भा लोगन जानी ॥
बिजलीखां त्रपको शुरभाईं । खनत खबर तुरिते उटि धाई ॥
बीरर्सिहसे बचन सखनावो । सतग्रङ् रखोथ हमै देखलावो ॥
नृप गुरुलखोथ जो परगट कीन्हा । बिजलीखां तेहि जोरसे छीना ॥
रे भाग्यो सो गाडौ जाई। राय बीररसिंह तब रिसिथाईं ॥
ले निजु सेन संग तेहि बेला । चटे बीरंसिंह राय बेला ॥
दोनों दिशिते दल उमड़ने । एक न कहा एकको मने ॥
जब घमसान होनेप्र भय । तब अकाशबानी अस कहे ॥
कवित्त
अकथ कहानी तहं बोरे नभवबानी सुनो, दोह दर ज्ञानी ॥
जिव हानीमें न दीजिये । बिज्खीखां पठान कह गदे हो पठान॥
पीर, सिदजी बघेल दहपेल मति कीजिये ॥ हाड चाम देह ॥
जन्म मरन न पीर एसो, साहिब कबीर सत्य बातको पती-
जिये । कुर खुदाय निं खोथ कहँ पाय कङ्क, तहं दरसाय
दोऊ भाग करि रीजिये ॥
चोपाई
यह सुनि दोनों रह ठहराईं । तब चरके सो कबुर खुदाई ॥
अस अचरज तहँ देख्यो जाई । कतहु लोथ यर हष्टि न आई ॥
( ९७० ) बोधसागर
कञुरमे चादर पुष्य सो पाईं, खे दोनों दरे भाग बनाई ॥
खुसरमान तेदि कबुरभे धरेड । ईद् ठे खभाधसो करेड ॥
दिद्नके कीर चौरा रै । तुरकनके कबीर रोजा रै ॥
इत॒ हद् सेवे शुरूदेवा । भुरशिद् श्ुसर्मान उत सेवा ॥
बाटशूप जब शङ प्रकटाना । कमरुपुष्पमे कर निज थाना ॥
अतकारु जब गयौ दुराईं । गौरम सोइ पुष्प देखलाई ॥
आदि अत जाके न्ह देही । जन्म मरन कबहुँ न्ह तेदी ॥
सकर विकार तो जो प्रथुषारा । जीवकाज तनधर संसारा ॥
स्यौ निरादर दुःख अधिकार । निज दासनको दास कहाई ॥
सो सब जीव देतको दीसा। समरथ परमशुरू जगदीशा ॥
कब्ुर बीचते गये रोपाई । मथुरा नभे पर्हैचे जाई ॥
नीरू नीमा जोखह जोरा दी । तन तजिके प्रकटे तादी ॥
दोनोको निज शब्द गाई । जाते भवनिधि फेर न आई ॥
मथुरा नम्रते बहुरि सिघाईं । धमदास दिग सतशुङ् आई ॥
धमेदासदहि बड़ भांति शिखाई । सदितदेह पुनि गयौ रोपाई ॥
महा कठिन युग कटिथुग दोई । शुभ करनी जिव करे न कोई ॥
यज्ञ योग जप तप ब्रत दाना । भावन भक्ति विषय ल्षटाना॥
तिनको काज् कौन बिपि सुधर । बिन कबीर युङ् पार न उतरे ॥
दयारसिश्ु तेहि पार वाति 8 सत्यकबीर कि सरन जो आवे॥
बावन बीर कबीर कंदावो ॥ कलिुगकेर जीव शुक्तावो ॥
अथ स्वसमवेदकी स्फुटवार्ता-चोपाई
एकलक्ष अरु असी हजारा । पीर पयबरको ओतारा ॥
सो सब आहि निरंजन वेशा । तन धरि धारि निज पिता प्रसशा॥
दृश ओतार निरंजन केरे । राम कृष्ण सबमाहिं बडेरे ॥
स्वसमवेवबोध {( १७१ )
पूरन आप निरंजन होई । या फेरफार नरं कोडं॥
दोहा-पांच सदम अश् पांचसौ, जब कलियुग वित जाय ।
महापुर्ष फरमान तब; जग तारनको आय ॥
दिन्दु तुकं आदिक सबै, जेते जीव जहान ।
सत्य नामकी साख गहि, पर्वं वद निर्बानि ॥
यथा सरितगण आपी, भिरे सिन्धुम धाय)
सत्य सुकृत के मध्ये तिमि, सबही पंथ समाय ॥
जबलगि पूरण होय नर्हि, ठीकेको तिथि वार ।
कपट चातुरी तबो, स्वसमबेद् निरधार ॥
सबहिं नारि नर शुद्ध तब, जब टीका दिनि अंत)
कपट चतुरी ओडक, शरण कबीर गृहत ॥
ठकं अनेकन हि गयो, युनि अनेक हो एकं ।
हेस चरे सतटोक सब, सत्यनामकी टेक ॥
धर घर बोध विचार दहो, दुर्मति दूर बहाय।
कटियुगमे इक दै सोह, बरते सहज सभाय ॥
कहा उग्र कह छुद्र ही, इर सबकी भवभीर )
सो समान समष्टि है, समरथ सत्य कबीर ॥
बिनय~चोपाई
बिन्ती करौं संत शङ् पाहीं । जो मम दोष न खदय गहाहीं ॥
निज अपराध कौं किन खोली । कहं कहूं मेँ बद्ल्यों युर बोटी॥
मम बानी अशू सदृगुर बानी । दोनों यहि मत मेरे सानी ॥
जरं जस उचित देख तस कीना । सक्षम यरु वाणी गहि टीना ॥
मेरो दोष न क तँ रेखब । सत्य कबीरङ़ी बानी देखब ॥
सत्य कबीरको अ्रन्थ निहारा । सब कड टिख्यों ताहि अबुसारा॥
इति भीस्वसमवेद धर्मबोध
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श्री कबीर साहिब
नं.९ कबीर सागर - ७
सत्यघ्ुक्ृत, आदिअदटी, अजर, अचिन्त, परहष,
घुनीन्द्रः कस्णामय, कबीरः धरति योम, संतान,
धनी, धर्मदास, चरामणिनाम, अदरशैन नाम
कुलपति नाम.प्रबोध यस्वाछापीर केव नाम,
अमो नाम, सुरतिसनेदी नाम, इकनामः
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरन नाम
उग्र नाम, दयानाम को दया
वेश ग्याटसकी दया ।
अथ च्रबधस्णर्
विशत्तमस्तरगः
धमबोध प्रारम्भः
गृहीधमं वणन
दोहा-ग्रदाश्रमीके धर्मको, वणन कंरों सजान।
जिहि आश्रम आश्रम सकर, आश्रम कतहु न आन ॥
सांञ्च सकार मध्याहको, सन्ध्या तीनों काक ।
धमे क्म तत्पर सदा, कीजे सुरति सभर ॥
गोऽ सा० ९
( १७८ ) बोधसागर
कोटिन कंटकं चेरि ज्यों, निस्य क्रिया निज कौन ।
सुमिरन भजन एकांतमे, मन चचरु गहि रीन ॥
साध शुरू सेवा करे, श्रद्धा प्रेम सहीत।
देव परम प्रथु ध्यावई, करि अतिशय मन प्रीत ॥
तन मन साधु जो सेवई, जपे निरंतर नाम,
शृदी सो पवि परमपद, योग समाधि न काम ॥
पुरूष यती सो जानिये, निज तिय तीय विचारं ।
मात बहिन पुजी सकर, ओरी जौ जग नार ॥
तिय रेसो बत धमेधर, निज पति सेवत जोय ।
इतर पुरूष जे जगत्स पिता भ्रात सुत दौय॥
पतिकी आज्ञामे रहै, निज तन मनते खग ।
पिय विपरीत न कंड्ठ करे, ता तियको बड़ भाग् ॥
मनकामना विहायके, हषेसदित कर॒ दानं ।
सखो तन मन निरु भया, दोय पापक हान ॥
यज्ञ॒ दान बिन शुरू करे, निशि दिनि माला फेर।
निष्फल रै करनी सकल, सतगुरू भाषे टेर ॥
प्रथमे ग॒रूसे पथि, कीजे काज बहोर ।
सो सुखदायक होत दै, मेरे जिवका खोर ॥
अभ्यागत आगम निरखि, आद्र मान समेत ।
भोजन छजन बित यथा, सदा काल जो देत ॥
सोई म्लेच्छ सम जानिये, गृदी जो दान विरीन ।
यहि कारण नित दान कर, जो नर॒ चतुर प्रवीन ॥
पात्र कुपाज विचारिके, तब ॒दीजे तेदि दान।
देता रेता सुख कृद, अन्त दोय नरि हान ॥
भूखा साध भिखारि कोड, नरि आवे जब द्वार ।
धमबोध ( १७९ )
तादिनि मन पतात बहु; करत अकर अहर ॥
भोजनपाकं निहारिके, इत उत द्वारे आक)
अभ्यागत भूखा निरखि; मारे तत्क्षण ईक ॥
बिन हरिकृपा न सन्त पिर; संत भमिखन सयखसार ।
तिनके आश्रय शुक्ति गति, सङ्ट सकल निवार ॥
गृही होय तो भक्ति कर, नातो कङ् वैरा ।
दोह भावते एक गहु; थोथी कथनी त्याग ॥
फल कारण सेवा करे निशि दिनि याचे राम ।
कह कबीर सेवक नही, ` चरै चायुना दाम ॥
सनन सगे इट्म्ब हतु, जो कोड द्वारे आं ¦
नहीं निराद्र कर कोह, राखे सबको भवि ॥
रहै सदा निज गेहे, सुभिरनमे कौलीन ।
एेसे ग्रहीको काम कद, करवा अर् कौपीन ॥
कौड़ी कौड़ी जोरि, कीने लक्ष करोर)
कौड़ी एक न सग चरे केतो दाम बटोर ॥
जो धन हरिके हेत नर्द; धरम राह नहि जात ।
सो घन चोर कवार गह, धर छतीपर खात ॥
सतको सौदा जो केरे, दम्भ छिद्र छल त्याग
अपने भागको धन रुर, प्रधन विषसों राग ॥
भुखा जेहि धरते फिर, ताको लागे पाप।
गृरी पाप ठे जात टै पाप आपनो थाप॥
साश्रु.न जवे जाहि धर, ता घर जवं भ्रृत।
कटिमल सित सो जानिये, टे न कबहूं इत ॥
गृही भक्त निज धमरत, ताको साधु विचार ।
परमप्रीति जेहि सा त परम धमं धन धार ॥
प्रथमहि साधुं जवा भोजन भोग
६ ९८० )
बोधसागर
णेसखे पापको टालय, कंटे नित्यको रोग ॥
जाके सुख सब धाम हे, मनं विरक्त दो जादि ।
शरी सो साघू जानिये, दागन लागे तारि ॥
जो सुत बित मिथ्या रखे, दुख सुख एक समान ।
परम भक्त सो गृही सोह, पावे पद् निबान ॥
हरिपद प्रीति रगाइये, ओरते तजि निर्वाह ।
शहरी दोय के साधते, यही तरनकी राह ॥
यद्यपि उत्तम कम करि, रहै रहित अभिमान ।
साधु देखि शिर नावते, करते आदर मान ॥
बार बार निज त्रवणते, स्ने जो घम पुरांन।
कोमर् चित्त उदार नित; हिसा रदित बखान ॥
न्याय घम युत कमे सब, कर न कबहु अन्याय ।
जे अन्यायी लोग है, बांधे यसपुर जार्थ॥
सरल सुभाव रदे सदा, कोह द्रोह न विषाद् ।
प्रीति शद्ध ॒सत गुन गहे, संतत संत प्रसाद ॥
अर्थ-जो कोष द्रोद ओर मिथ्या विचारसे रदित रोकर
कृषट रदित सन्तोकी कृपा चाहता है वह सन्तोकी दयासे शांत
शुद्ध सत्य ओर पुण्य रूप पदाथं सत्यपर पारखको प्राप्त
होता है । ्
पाथा छाम संतोष कर, त्ष्णा तरल तरंग ॥
उठन न पवि इदयमे, कीजे ज्ञानते भग ॥
गृही साधु दोड जानिये, चक्र धमे रथकेर ॥
दोह बिन कारज ना सरे मिरके कङिमरु पेर ॥
१ पुरान कथा, धमं निर्णय जिसके अन्दर लिला हो ओर जिसमें ध्मवोररोकौ कुथा हो 1
धमबोध
ग्रहकारजमे पाप बहु; नित छग शुत छोय ।
तादित दान अवश्यरहैः दूर ताते होय ॥
चक्री चौका चह अह; आङ् अङ् जख्थान ।
ग्रह आश्रमीको नित्य यह, पाप वचबिधि जान ॥
ओर युगनमहं ग्रही कर; योग यज्ञ मख जाप ।
कल्म सो कङ्क होय नहि, कटे दानते पाप ॥
यथायोग जग लोग सब, बिन खव कौजे दान ।
कह राजा कह रंक है, दोनों एक समान ॥
जो धन पाय न धमरत, नहीं दान ब्यवहार ।
सो शिर पर्वेको भारभरि, बधे यमपुरं दवार ॥
गुरुजन जो परिवारके, कर॒ आदर सतकार ।
ल्घु गुरूलोग जो योग जस, कर्को पालनहार ॥
पु पौ बनितादि जे, इतर जेते लघु देख ।
भटो सिखावन दीजिये, जाते भला बिसेखं ॥
जो गुर्ूजन परिवारके, रधघुको शीख न देत ।
जो ककु ओगुन सो करे, अध शिर अपने ठेत ॥
सोई मित्र सोहं सगा, भल शिख शिष्चहि दिखाव ।
तरूण अवस्था सुख लै, गुरूजन सीख प्रभाव ॥
मारि ताडिकि हठ किये, बार अध्मका राह ।
शुभण ज्ञानके पथमे, बांधि चलाओं ताह ॥
मातु पिता सो शत्रुर, बाल पटे नाहि)
हेसनमें बकला यथा, तथा सो पण्डितमाहिं ॥
पिरे अपने धम्भको, भटी भांति सखाय ।
अन्य धमकी सीख सुनि, भटकि बालब्ुधि जाय ॥
अपनो धम न जनेऊ, सीख्यो न्यारो ध्म । `
(१८१)
( १८२ ) बोधसागर
अज्ञानी यहि विधि किते, भूलि ते गद्यौ अकम ॥
जेते श्ररी दै जगतमे, निज निज चरके भूष ।
इकुम चे निज मौनम, भरूपतिके तदर्प ॥
जिमि नरप चटे बजायके, धरती बस कर खेय ।
परजा सब तेहि बश भये, बिनयते भूषति सेय ॥
इमि सब गदी निशान दे, व्याहको सजे बरात ।
भूमि नारि कदि प्रजामे, उत सुतादि खु जात ॥
जो कठ धनको राभ दो, शुद्ध कमाई कीन ।
धनतेदशवे अंशको, अपने गुरूको दीन ॥
जो गर्निकर निवास कर, तो सेवां कर नित्त ।
जो क दूर अनत बसे, ध्यान कंरे करि दित्त ॥
छढे मास यर्ूदरश कर, सेवा कर निज वश्य ।
छठे मास जो पटच वर्हि, वरषमें करो अवश्य ॥
गुर विरक्त जो रेड नरि, शिष्य निज आरतदेह ।
गुर आज्ञा अनुसार तो, दान पुण्य कर देइ ॥
अथ गृहस्थर्को वशेष लक्षण
सत्यबचन प्रथमे करो, दुतिये दया बताय ।
तीजो तप चौथे शोच, दोनो भांति कराय ॥
बाहर जूते शौच कर, अन्तर ज्ञान के द्वार ।
पचे तितिक्षा इच्छा, षट सतसंत निक्वार ॥
सप्तम सम दम अष्टमे, नवम अर्दिसा होय ।
ब्रह्मचम्यं दशमे कडा, त्याग एकादश जोय ॥
बरे स्वाध्यायरि करो, अरु तेर मृदु चित्त ।
चौदह तोष पुनि पदर, साधु सेव करे ध नित्त ॥
विषयत्यागकर सोदे, सहे प्रथा सुखोपाय ।
१ सत्यस्त्य ।
धमबोध ( १८३ )
मौन अगरह सो कडा, ब्रथा बोर न गवाय ॥
उनर्विंश इस देदसे, आतम न्यारा जान।
विस्वं जो अघ्नादि क्क; बाँरिके भोजन पान ॥
ब्रह्म इकिसवे सवेमय;, नरयें निरख विशेखं ।
वाहसवें पुनि श्रवण कह, तेहस कीर्तन ठेख ॥
स्मरंति चौविश पच्चीसवे, पूजा सेवन छबीश ।
बन्दन दास्य अगहसे, सख्य स्वापेणा तीस ॥
- इति ३० लक्षण
केते जनकादिकं ग्ररी, जो निज धम्मयबीन ।
पायो श्ुभगति आपहू, ओरनह गति दीन ॥
हरिके हैत न देत धनः, देत मारगमाईहिं ।
तेसे अन्यायी अधम, बांधे यमपुरं जाहि ॥
जो दीने सो पाहहैः ढने जो बोया बीज)
जो नदि बोया बीज है, पवे नहिं कङ्क चीज ॥
गाडा घन डा ब्रथा, जो दीना सो मोर।
ऋर विचार करे नदीं, ल्गे न इरिकी ओर ॥
निज धनके भागी जिते, सगे बन्धु परिवार ।
जेसा जाको भाग रै दीजे धम्म संभार ॥
अपने भागको लीजिये, दै हराम पर दक्र ।
सूकर गायकी सोँहपर, अदकं ओर जनि त्क ॥
गह्यो सुदामा भाग हरि, भयो महा कंगार ।
ओर भाग विषसों तजो, धम्मनीति निडपाल ॥
तेन मन धन हरि हेत दे, चेत भक्ति कर प्रीति।
यहि संसार असार लखि, चर जनक विपरीति ॥
१ सुमिरन । २ आरेमसमर्पण ।
{ ९८४ ) बोधसागर
घन सन तन सब जायगो, रहे न जो कड दीस ।
मुरख बृथा गर्वौव सो, भक्ति भजे जगदीश ॥
महातिभिर चेरे इ्दय, विषयभोग रषटान ।
सुमति न आई अजौ उर मरनकार नियरान ॥
खाट परे तब ञ्जखईं, नयनम अवि नीर ।
तब कल्क यतन बने नरी, तबु ग्यापे भृतु पीर ॥
देखे जब यमदूतको, ठट मे सन्श्ुख आय ।
महाभयंकर भेष लखि, इत उत जीव काय ॥
सकल शिथिर इन्द्री मई, रहा न कोई ओटः।
अब कहं मागिके जादौ, यमगण पकरी ्ोर ॥
पुण्य भजन कीना नरी, नरि संतनसे इत ।
बार बार पछतात मने, चिड़या चुन गहं खेत ॥
इति गृहीधमेकाः वणन समाप्त
अन्य गृहीधमं वणेन
( कबीर सग्रह )
दोहा-जो मानुष गरृहधम युत, राखे शीर विचार ।
गुरमुख वाणी साधु सग, मन वच सेवा सार ॥
सेवकं भाव सदा रदे, अहम न आने चित्त ।
निर्णय कखे यथार्थं विधि, साधुनको कर मित्त ॥
सत्य शीर दाया सदित, बरते जगग्यवहार ।
गुरू साधुके आश्रित, दीन बचन उच्चार ॥
बहू सं्रह विख्यानके, चित्त न आवे तादि ।
मधुकर इव सब जगतस, घटि बद खि बति ॥
प्रीति सदा गरू पारख करई । संगति साधु सदा आचरः ।
उत्तम मध्यम जग व्यवहारा । निणयसदित करे अनुसारा ॥
धर्मबोध ( १८५ )
दोहा-ग्रहीधमे बड़ खटपट, तामे रहि इशियार ।
लोक वेदकी रीति सब, करता सहित विचार ॥
जीवघात आदिक करम; करे न कबह भुल ।
सोह रक्षा जीवन करे, प्रेम सहित अनुकूख ॥
बाणी अधिय कहै नर्हि, कहै सबन उपकार )
ठहरे पद बोधित शरू क्वे भक्ति गोडार ॥
चारि खान बहु जीयरदहिः इखदाई जो होय ।
जरे तो रक्षे जीव कहँ, अस कह गहे चुप सोय ॥
गुरू साधुं सन्मानई, मिथ्या जाकहिं त्याग ।
सांच इददय दाया सदहित,निज सुख शर् अद्खराग ॥
दीन दयालको मत लखे, शिष्य स्वतःषद् थर् ।
साधु गुर सम जानिके, सबहि सन बच धीर ॥
साधुनकी जल अन्नते, वल्ल सहित करे रच्छ
शक्य यथारथ अदुकम; गुरुसेवी शिष्य स्वच्छ ॥
ग साधुपद् दीधजग, है शिष्य सबन प्रमान ।
जिषिधि ताहि सेवन करे, आपु दास पद् मान ॥
हे शिष्य जे दासातने, ईताते तेहि भीन)
तेईं॑गुरु पारख लखे, दंत कल्पना कीन ॥
तई उत्तम पारखी, ग॒रूमतके अधिकार ।
हेता नाशे शिष्य जो, हंस थीर पदसार ॥
दास भाव सेवा सहित, भक्ति साधु यरुकेर ।
यरि प्रकार हंसा वसे, सेवकको नहिं फेर ॥
निर्णय जो य॒रुखुखही सूना । ताहि मनन साक्षातह ॒गूना ॥
प्रेम लगावे अस्ति पद माही । ठरे यरु पचाइत पाही ॥
| इति
( १९८६ ) बोधसागर
अथ वराग धसे वर्णन
दोदा-दयापारु. सब जीवके, बोले सत्य विचार ।
मन कमे बानी त्यागकर, मेथुन अष्टप्रकार ॥
काठचि्रकी नाव जो, ताहू दिशि मत देख । `
देखतदी तन विष चदे, सपं दैशकर रेख ॥
मनमतग माने नरी, महा अहाउत ज्ञान ।
ताते अंङ्कश दीज्यि, हदो कछिमरुकी हान ॥
सुवरण मिट्टी एकसम, दत्त अदत्त न केत ।
कार्य्यं माज कु लीजिये, मोजन छजन हेत ॥
सकल परिभ्रह त्यागिये, सक्षम तनके काज ।
च्म वस्तु जो राखिये, तौ ना दोय अकाज ॥
भय नहि देत न करतभय, निभय इट मनजास ।
सर्पं सिह आदिक लखे, रच डरे न्ह तासं ॥
काटा सपे शरीरम, सब जग डारयो खाय ।
साथ अग ना-मोडई, ज्यों भवे त्यों खाय ॥
सम्मुख आवत बाण खि, कबहु न मोडत अग ।
सैर न तजि थिरताभजे, दोय प्राण जौ भग ॥
पर्वतसे ट्टी शिला, शिरपर आवत देख ।
सरकत नरि निज टौरते, प्राणघात निज रेख ॥
भूमि सन के काठ पर, जीव घातना रोय ।
लोर पोट कीजे सरी; ना पडि रहिये सोय ॥
योग ध्यानम दृद सदा, शुद्ध दय निन्थ ।
आढ पहर जपम रहे पाव प्रम पद् पन्थ ॥
धर्म पुराण विचार नित, युरूको बचन प्रमान ।
शांति सरल अक्रोध चित, इन्द्री दम शम जान ॥ `
धमंबोध ( १८७}
तजि चंचल्ता भावको, अनहिक्षा रह नित्त ।
हट समापिआसनअचल, छितिसो क्षमाहै चित्त ॥
घेरे विपति अनेक जो, आसन तजे न संत।
दुःख द्रन्द् छखि भाग मति, दढ संकल्प गहत ॥
शुद्ध अचार बिचार मयः नहिं मनमें मद्मान ।
धीरज धम्मं संतोष महि, छद भोजन परमान ॥
राग द्वेष नहिं शत्रु हितः तजे दषं हकार ।
शीतउष्ण समदुःख सुख, भिय अभियं यकसार ॥
मान ओर अपमान समः, तजे जक्त की आस
चाह रहित संशय रहितः हषं शोक नहिं तास ॥
अधो दशि मारग चले, चार हाथ महि देख)
जाग्रत मौन मधुर बचन, मन संकल्प न छख ॥
पाच कुपा्र बिचार गृह, भिक्षा दान जो छेत!
नीच अकर्मी सूम घर, दान महा दख देख ॥
सदा होय मलपात जिरि देहिमे जोन द्वार ।
सुखी ठौर एकन्त रुखि, ताको दीजे डार ॥
देह को विरह नाम हैः रोग दुःख बहु घेर।
धीरज धरे मनम सदा, दुख करि काहू न टेर ॥
अपने मन कोई करं भावे करे न सेव)
कासे निं जांच कष्कु, यदी संतको रेव ॥
लाभालाभ जयाजयौ, गंध कुगंध समान ।
हप कुरूप समलखे, यरु दरिको गनगान ॥
संध्या तीनो काल दृट्, कम क्रिया विधिरेख ।
दम्भ छिद्र छल रचे नर्हि,प्रथु अनन्य जो देख ॥
१ छित्िसो - पुथ्वीके समान भ्रमापान।
१९९२८८१). ` ` बोधसागर
प्रथम विराग विवेक पुनि, ज्ञान ओर विज्ञान ।
चारो नयनपुनीत जेहि, पर ओगुन मल्खान ॥
अपनो ओगुन देखते, ओरन को गुन दीख ।
निन्दा गली सब तजे, यहि सतगरूकी सीख ॥
यह् दुनिया खुदार है, तामे लगे स्वान ।
ताते जगसुख साज सब, त्यागत संत सुजान ॥
स्वरम आदि जो सुख घने, कीट बीटवत जान ।
मन इन्द्र विपरीति कर, दखदेही निं यान ॥
जगमे गू अनेक दै, सतश् सांच टरटोल ।
कांचकी टेर बखेर बहु, गह मणि एक अमो ॥
संत जौहरी जानसो, ज्ञान नैन निङ्आर।
सार बस्तुको गरि छियो, त्याग्यो सकल असार ॥
सदा काल तप तन दहे, ओर छोर यकसार ।
सो सूरे साधू कहो, उतरे भवनिधिषार ॥
सुरा तो क्षणम मरे, जरे सती क्षणममांह।
परम सुर साधू कटो, खदा कार तन दाह ॥
मूरखते मत ज्ञान कड, मौन धारि बहु ।
जेहि पथ विषयनमे चरे, चरखा जान तेहि देहु ॥
उत्तम ज्ञान न आव तेहि, छोड देत निज धम्म ।
ताते तेदि न दराइये, दोय अधिकं मति भमं ॥
कोइ कुधम्मं अज्ञानते, गहि रीना जो संत।
ज्ञान भये अवगुण लखे, तजिये ताहि तुरंत ॥
अजर अमर रकखि आपको, तप दद् ध्यान गहत ।
देह गेह सब तुच्छ रे, जान सुजान करत ॥
इद्री तत्व प्रकृतिसे, आतम जाने पार।
ध्मेबोध ( १८९ )
जाप एकं पठ नहि टे, ट्टे न पावे तार ॥
जद जव करते थकि गये, दरि यशं गावे सन्त ।
कै निज धमं पुराण पट, सो धम सिद्धत ॥
मोहको जब ठम त्याग नही, तबल्ग नहीं वेराग ।
जो मन्म वैराग नहि, तौ समाधि नहिं खग ॥
दुखको तजि भगे नदीं, सुख नहिं चाइत सोय ।
नेह कोध भय त्यागिये, बुद्धिकी थिरता हीय ॥
आष जो सचके आपये, कम बटोरे आव।
विषयते इदी सचियेकटे देहको पाप॥
इन्द्री भोग न पाव जब, भृतक सो रहि जात ।
तब इद्वियन षरे जो, सो आतम दशति ॥
बुद्धिवन्त जे पुरूषवर, बक्करि इद्र साध ।
विषयन ध्यावन काम उग, कोह मोहकर बाधं ॥
मोहते सुधि बुद्धि नाश है, सुधि बुधि बिन श्रतहोय ।
जवे इद्वियनको वश कियो; तवे शांति कह सोय ॥
शांतिते मन थिरता गहे, मन थिरताते योग ।
योग ॒ध्यानसुध्यानते, ज्ञान गहै सब लोग ॥
ज्ञानते आतम लभै, लाभन ताहि समान ।
इन्द्री दम नित जायन, तबदी बुद्धि भिरान ॥
मनम जो विषयन भजे, कम्म तजे का होय ।
सर्वं मनोरथ त्यागिये, बुद्धि शांति तब होय ॥
काका फुकर फ्रि नहीं, इद्रहि जाने रक।
सात गांड कोपीनके, तऊ न साधुको शंक ॥
इरिकी भक्ति कबीर कर्, तजि विषया रस चोज ।
बारबार नहिं पाये, मनुज जन्मकी मौज ॥
( १९० ) बोधसागर
कबीर दरीकी भक्ति बिन, धिक जीवन् संसार ।
धु्वौँकेर धोखाहरा जात न खगे बार ॥
कवीर-जबलग नाता जातिका तबलग भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोड शूरमा, जाति वरण कुर खोय ॥
कवीर- भक्ति निशानी अुक्तिकी, चदे संत सब धाय ।
जिनजिन मनलस किया,तिनही तिन जहडाय॥
कवीर-जबरुग आशा देदकी, तबलग भक्ति न होय ।
आशा त्यागे इरि भजे, भक्त कदावे सोय ॥
सब इद्विनके भोगम, राग द्वेष तनि देहु ।
काम कोध रजयुणर्हिते, नेद न कीजे एह ॥
ठौर पुनीत निहारिके, कर आसन विस्तार ।
अभयशांति ब्रह्मचर्यगदि, इमि समाधिको धार ॥
ष्ठि न इत उत तानिये, रगमहं ध्यान खगाय ।
चित्त चचलको रोकिंके, रसरसते बेठाय ॥
दीपशिखा बिन पवनके, इमि योगी मन थीर ।
योग जो करे वैराग युत, सो मेरे मवभीर ॥
ज्ञानी रोगी अदी, जिज्ञासु ये चार ।
सो सबही इरि ध्यावते, ज्ञानी उतरे पार ॥
गोज ऊच अर् नीच जो, पावत है जग जीव ।
आरस नरि अर् व्याली, ताने तमगुण कीव॥
ताते ज्ञानको गोप रहै, हिरदयमे अंधियार।
रजतमको सतपेर जब, होई ज्ञान ईद्विद्रार ॥
मृदु श्चचि हो यर सेदयेन्रह्मचय्यं चित खाय ।
अनरिसा तप दान युत, निग्रह मौन गहाय ॥
कृ्मके फलको त्याग है, देह कमे निं त्याग ।
घर्मबोध {( १९१)
मनकामनाऽदहकार अत, सो राजस दख भाग ॥
श्ुभअञ्ुम न्ह जान जो, किये सहित अभिमान।
रिसायुत है कम्भ जो, तामस ताहि बखान ॥
थोरे दिनके कम्मरको, बहुत अबार लगाय ।
आरद कारज किये; तामे तम सरसाय ॥
क्षमासमान न तप कोई, सुख न्ह तोष समान ।
तृष्णासम नहि व्याध कोङःधम्म न दया समान॥
ब्रतके पचो अंग हैः त्याग न चाहे न मोह)
निःसंशय निर्प्रीहतां, यह पचो विधि जोह ॥
योगके पचो अग ई क्षमा अष्कायि ॐ बतायं ।
समरष्ठि आनन्दमय, फिरि अनन्य कदल्य ॥
भक्तिके पचो अग है, नामरटन शुनं धार)
सत्य शान्ति अर प्रेमहढ़, सुरति न चरनन रार ॥
भक्तिमे तीन प्रकारके प्रेम कहावे संत ।
हप देह अत्यन्त जो, तीनो नाम बदत ॥
ज्ञानके लक्षण अब कदी, दश प्रकारके ज्ञान ।
नित अको वैरागयुंत, इन्द्रीद्मन बखान ॥
दयापर परमार्थी, क्षमावत निर्धार ।
शोर्कैहीन निर्लोभ करहि, निभयं चित्तं उदार ॥
शेम दमे विरागं विवेकं है, ज्ञानके साधन चार ।
साच्िकि राजसि तामसी, नियंण अद्धा सार ॥
अंग योगके पोच यह, संयम मौनं यकंन्त ।
विषयत्याग आतमं निरखः; होय दुःखको अन्त ॥
० निष्काम }
( ९९२ ) बोधसागर
पौँच अंग विज्ञानके, सत्यबचन निःशंकं ।
सुखदुसख खम परमाथी, रह विवेकं निकलेक ॥
ओरन ओगुन देखि कह, ओग॒न अपने आदि ।
अपनो ओशन देखिये, जगत ब्रह्म द्रसादि ॥
ओरनमें ओशन रखे, निज ओयगुन नहिं जान ।
अघकार उमे वसे, युत जडता अज्ञान ॥
जो कल्क कना चाहिये, चौड कहो बजाय ।
पीे दोष न भाषिये, असरत बचन सुनाय ॥
इदय तरान् तौरके, तब शुखं बाहर कीन ।
मधुरी बानी बोल्के, परमारथ चित दीन ॥
येच मंच सब त्यागिये, अन्यदेव मति ध्यायं ¦
जो साधू एेसा करे, सोई शुक्ति पद् पाय ॥
चौदह विद्या सीखके, पूरण पण्डित रदो ।
मूकं बने सब त्यागिके, वन्दनीय रै सोह ॥
कबीर भान्प्रकाश अन्तगत साधु लक्षण समाप्त
अथ विमल लक्षण वणन
प्रथम संसार भली प्रकारसे चराना, पश्चात् षरमाथंका
विचार रहण करना । विवेकियोंको सदा ध्यानं रखना चाहिये
कि, संसार छोड़ परमार्थका टोंग करना अथवा प्रमा्थको
छोड़कर केवर संसारम दी निमय रहना भूखंता ओर दुःखका
कारण है, इस देतु विवेककी चरितार्थता इसीमे है कि, संसार
ओर परमार्थं दोनों मयादापूवेकं चलाये जाव ।
संसार छोड़ परमार्थं करने खगे तो खानेको अन्न मिलेगा
नहीं, फिर भूखे मरनेवारोसे परमाथं क्या हो सकेगा ! अंतमे
ससारयात्ाके लिये नाना प्रकारके उचित अनुचित भ्यवहारोमं
धरम॑बोध ( १९३ )
फसाना होगा । ओर इसप्रकार फसे इए युरूषका फिर परमार्थे
लगना दुस्तर है ।
इसी प्रकारसे परमार्थको डकार केवर संसारयें ही मय होनेसे
पारलोकिकं ज्ञानताके कारण अन्तमं नाना प्रकारके दखों सहित
बारम्बार गभंकी कठिन यन्बणाको सहना होगा । स्वामाके
कामको छोड़कर घर्मे वेठनेवालेको स्वामीकी ओशरसे नाना-
प्रकारका कटोरवाणी ओर उखाहनाके सहित लोगोकी निन्दा
उठानी पडती है.उसी प्रकारके पारलौकिक ( सदथङकी आज्ञा )
धम्मं ( परमार्थको ) छोडकर संसारम दी मथर रहनेवालेकी शुक्ति
ओर सुख छट जावेगा ओर कठिन यमका दण्ड सहना पडेगा ।
परवृत्तिमें रहनेपर भी ज्ञानद्रारा आसक्ति शक्तिरहितं निडषं
रहता है वही उत्तम टै क्योकि वह सदा प्रमपद्षर स्थित
सारासारके विचारमें संलय रहता है ।
प्रबृत्तिमे कुशल पुरूष निवृत्ति मागंको सहजम ही परा कर
सकता है, परन्तु प्रवृत्तिमे जो शल नहीं है उसको परमार्थमे भी
कदापि सफलता नहीं होती । शंकराचायांदि महात्मागण जो
बात्यावस्थासे ही त्यागी थे उन्दं भी अन्तमं म्रबत्तिके अबुमवको
प्राप्त करनेका यतन करना पड़ा ।
विशेषकर उपदेशकों ओर धम्मं गुरुओ ओर आचार्य्य आदि
ग्ररूकोरिके पुरुषोंको तो अवश्य उभयप्रकारसे दक्ष ओर अन॒-
भवी होना चाहिये ।
इसी हेतुसे उचित दै किं, शान्तिसे विचारपूर्वक धम्मं ओर
नीतिके अनुसार संसार ओर परमाथ दोनोको ही चलाना चाहिये;
ेसा न करनेसे अनन्त दुःखोका भागी होना पड़ेगा ।
बो० सा० ९।
` = क ५ + ` कका. कोति ग
व
( १९४ ) बोधसागर
जौवोका स्वभावं अनुकरण करनेका है तो जो मष्य शरी-
रमे आकर असमे भरका उसको क्या कहना !
साखी-जियत न तरे सये का तरिहो, जियते जो न तरे ।
गही प्रतीति कोन जिन जासों, नर ताह मर ॥
~अ! जक ।
मरे पीके बनावका विचार भी जीवित अवस्थामें ही कर
खेना मनुष्यका कर्तव्य दै ।
लोकम प्रत्यक्ष दीख पडता दै कि, जो सदा जागत रहता है
वह सुखी रहता है ओर गाफिरु दुःख उठाता है । इस कारणसे
संसार ओर परमाथं उभयम जो चैतन्य है वही सुखी ओर
सवेको समाधान करनेको योग्य है ।
दोहा-धन्य घन्य तारण तरण, जिन परखा संसार ।
तेद बन्दी छोर रै, तारण तरण उबार ॥
सारशब्द निणंय !
जो जीवित अवस्था स्वे प्रकारसे शक्ति सम्पन्न होनें
पारखको प्रात नहीं होता है वह कारके कठिन आक्रभणके
समय क्या कर सकतां है, उस समय तो कालके अधीन होकर
चौरासीके दी मार्गमे जाना दोगा । इस हेतुसे जहौँतक शीघ्रता
हो सके पूवज महात्मा रखोगोका ओर सतथ॒श्के बताये मार्गका
बारम्बार विचार कर पारखको प्राप्त कर सत्यपदको प्राप्त होना
चाहिये । क्योकि जीव अनुसरण शीर है एकको देखकर
दसरा मागं अ्रहण करता है । |
गुणवान्, बुद्धिमान्, विद्वान् ओर सदाचारी रोगोकी संगति
कृरके उनके सदृगुणोका म्रहण करना ओर अवगुणोंका त्याग
कृरना चाहिये । इस प्रकारसे जो सर्वके गणकी परीक्षा कर अहण
ध्मंबोध ( १९५ )
योग्यको रहण करता रै ओर त्यागने योग्यको त्यागता दहै,
के मनको दइखाता नहीं है, ओर मवष्यमा्रके ज्ञान ओर
चित्तकी परीक्षा करता है वही उत्तम पुष है, उसीको मलष्य
कृहलाना शोभा देता ह । सवं मवष्योमे उसकी सामान्य बुद्धि
होती रै, स्वं प्राणियोँषर एकभावसे दया रखता है, उनके
ज्ञानक तारतम्यतासे उनके द्वारा इखडधखको प्राप्त इआ मी
सदा उनको दया दृष्टस देखकर अनेक प्रकारसे उन्हं अज्ञानके
धीसे निकालकर पारख राज्यम भराप्त करानेकी ज्चुभ इच्छक
धारण किये रहता ह ।
बलिहारी तेहि युर्ूषकी, प्रचित परखनहार ॥
-बीजक्सा० १३२
इसी प्रकारसे विमट लक्षणका अनन्त स्वह्षं है, सदाचारी
पारखी जब इन लक्ष्णोकी ओर ञ्जकता है तब उसे स्वयव् भरकाश
प्राप्त होता है ओर नित्य नवीन सुलक्षणको जानता जातां है)
अथ म्खलक्षण वणेन .
भूखं दो प्रकारके होते है- मूखं,२ पठितमूखं इन दोनों भकार `
के सूर्खोके लक्षण विचिभभरकारके कोतुहटसे पूर्णं है,इन्दीं लक्षणों
द्वारा मनुष्यप्राणी लोकिक ओर पारलौकिक इःखोको भाप्त होते
हैइसी कारणसे उनको जानना उन्हे परखना, उनसे अलग
रहनेका प्रयत्न करना ओर इन लक्षणोकर युक्त प्राणिर्योकी सदा
उपेक्षा करनेके हेतु दोनोके लक्षणोको भिन्न २ छिखिता हूं ।
जो प्रपची है, जिसको आत्मज्ञान नदीं है, जो अज्ञानी है,
उसे मूखं कहते है-यद्यपि देसे मूर्खोके लक्षणका विस्तार बहत
है तथापि यहां संक्षेपसे छिखा जाता है।
( ९९६ ) बोधसागर
अथ मखंलक्षण
जिसके उद्रसे जन्म ख्या एेसी माताके साथ विरोध करे
ओर श्रीको प्यार करे, सवे परिवारोंको छोड़ दे, केवर शीके
वंश होकर रदे, अपने अन्तर गुप्त बातको उससे कदे उसे मखं
जानना । परश्जीके साथ प्रेम करे, श्वसुरके घरमे वास करे,
नीचकी कंन्यासे विवाह करे वह मखं है ।
बर्वानके साथ गवे करे, सन ममता रखे, बरु बिना सत्ता
दिखे, आत्मस्तुति करे, देशम रदके दुःख भोगे ओर बाप
दादेकी बड़ाई दके उसे मखं कहते ह । बिना कारणके दहसे
अत्यन्त अविवेकी ( अथात् अवसर बिना बोले रसे ) ओर
बहुतोका शु दो उसे मूखं जानो ।
अपने सम्बन्धियों ओर परिवारके रहते हए उनकी उवेक्षा-
कर परायोसे मित्रता करे, रात दिन पराया छिद दतां रहै
वह मूख हे ।
जडां बहुतलोग बेटे दां उनके बीचमे जाकर सोना ओौर
परदेशमे जाकर बहत खाना-एेसा मूख ॒बिना दूसरा कौन
केर सकता हे ।
मान॒ अपमानकी जिसे समञ्लन हो, जिसका मन सदा
व्यसनके वशम पड़ा दो उसे मूखं जानना ।
परायेकी आशासे परिश्रम करना डकर जो निश्ब्यम होकर
आनन्द माने वह मूख रै
मूखे घरमं बड़े विवेकी बनते रै, बहत बोलकर अपने
परिवार ओर योम बकता बनते है परन्तु समामे शम्माति
है, भयभीत होकर श्चखसे बोर नदीं निकार सकते ।
धमबोध { १९७ )
बद्धक निकर ज्ञानीपना प्रकर करे, सात्विक ओर खरल
ददयके जीवोंसे छल करे, अपनेसे श्रष्ठके साथ स्नेह करने
जावे, ओर किसीका उपदेश माने नहीं उसे मखं मानना ।
एकदम विषयी ओर निन होकर म्यादासे बाहर कायं
कृरता पिरे, रोगी हने षर भी ओषध न यहण करे, वथ्य
सेवन न करे, जो कुछ सन्धुख आवे उसे त्याग करे नहीं उसे
मूखं जानो ।
अकेले परदेश जावे, परिचय बिना साथ करे ओर एकदम
जाने वञ्च बिना किसी बडे नगर (शहर ) य जावे यह लक्षण
मृखमें दी होते है ।
जहो अपमान होता हो वहां बारम्बार जावे, जिखको भान `
अपमानका कुछ विचार नदीं वह मखं है
अपने नोकरके धनी होजानेषर उसकी सेवाभे रहै ओर
जहां मन लगे नहीं वहाँ रहे वह भूखं है । _ १
मूखं बिना विचारे तनिक अपराधपर भी दंड देते है, सहज
सहज बातोमे कृपणता दिखाते दै ।
देव पितरको नहीं मानता, शक्ति बिना बडी बडी बतिं करना
ओर सदा मूखंसे अपशब्द बोलना मूखका काम है ।
घरमे अपनी बड़ी बहाइरी प्रकट करे ओर बाहर गरीब बन
फिरे उसे मूख जानना ।
नीचकी मित्रता, परश्चीके साथ एकान्तम संभाषण ओर
मागे चलते खाना भूख लक्षण रै ।
किये उपकारको माने नहीं, उपकारको भी अपकार माने
अपना थोडा किया बहुत बतावे एसे कृतघ्रको बुद्धिमान् सूर्खं
कहते है
( १९८ ) बोधसागर
तामसी, आरूसी; मनसे कुरिर ओर अधीर भख होता है ।
विदा वेमव, घन, पुर्ूषाथ, बल ओर मान बिना मिथ्या
अभिमान करनेवाला सूखं होता रै ।
लाई, रुफगई, लबारपना, कम, कुरिरुता, बेगरजी-
पना ओर मखिनता सखंका लक्षण है।
दांत, आंख, दाथ, वश्च ओर पग सर्वकार मेला रखे सो
सूखे ओर ऊचे चटकर वश्च पिरे, बाहर चौतरेषर बहत वैठ-
कर प्रायः नगे शरीर रहै सो मूखं है । |
वैधृति, व्यतिपात ओर कितने कुखुदूर्तेको अपशकुनकी
बात गिने सो मूख है ।
कोधसे, असिमानसे ओर कुबुद्धि से अपना आष दी घातं
करे एेसा अव्यवस्थित चित्तवाला भूख है ।
अपने सुददके साथ खेदके साथ व्यवहार कर, सुख
ओर शांतिका शब्द भीं न बोरे ओर नीच जनोंकी स्तुति
करे वह मूख हे ।
अपनेको सवप्रकारसे पणं माने, शरणागतको धिक्कार ओौर
लक्ष्मीका भरोसा करे वह मूर्खं है ।
पुत्र, कलच, ओर स्री अर्थात् सांसारिक विषय वासनाको
दी मख्य मानकर उसीर्मे ुग्ध दोकर जो परमात्माको भूर जावे
उसे मूखं जानना चाद्ये ।
"करनी पार उतरनी” “जस करनी तस भरनी" ।
दोहा-कबीर कमाई आपनी, कदी न निष्फल जाय ।
सात समुद्र आड़ा पड, मिरे अगा धाय ॥
-अगको साखी ।
जो इस ` भावको नहीं समञ्जता हे वह मूखं है, पुरूषोकी
अपेक्षा जो ल्ियोंको विशेष मान दे वह मूख हे )
धमंवोव { १९९ )
जो दुर्जनके साथ भाषण करे, मर्थादाको त्यागकर ओर
आंख मूंदकर मार्गं चले वह भ्ररखं है ।
पितर, गरू, देव, माता, पिताः भराता, गुरूभाई, बड़ी बहिन
चाची, गुरूपत्नी, शूबहिन ओर स्वामी आदि अशूजनोका
द्रोह करे वह मखं है ।
गभीरताको छोडकर बोरे आद्र बिना बोरे, बिना षके
बोरे, निन्य वस्तुको अंगीकार करे, मागं छोडकर चङे ओर
कुकर्मी मित्र केरे वह मखं है ।
दूसरेको दुखी देखकर रसे, सुख माने ओर दसरेको चखी
देखकर दुख माने, ईषा ओर वैरसे ददयको जलवे ओर गड
वस्तुका शोकं करे वह मूख है । {
अपनी प्रतिष्ठाकी रक्षा करना जाने नदी, सदा इसी उदय
कृरे ओर हँसी ठर्ठा करके भी कड ॐ2 उसे अखं जानना ।
अपनेसे पूरा दो सके नदीं ठेसी शतं करे, विना काके डी
बृडबड करे, बोलनेकी रीति जाने नहीं उसे म्रखं जानना ।
वञ्च शच्च विना उच स्थल प्र जा बैठे ओर अपने मोका
विश्वास घात करे वह मूख हे ।
चोरको अपनी पहचान बतलाये, दृष्टि षडी दई वस्तु ममि
कोधमें अपना अहित केरे वह मखं है ।
नीच रोगोकी संगति करे, घमंडके साथ बात केरे, बायें
हाथसे पानी पीये वह मूर्खं है ।
समथके साथ मत्सरता करे, अलभ्य वस्तुकी आशा करे
ओर अपनेही घरमे चोरी केरे वह मूख रै ।
परमात्मा विना_ मलुष्यपर विश्वास रवे ओौर निरर्थक
अपनी आयु नष्ट केरे बह सूर॑ है।
( २०० ) बोधसागर
संसार दुःखसे भरा है" एेसा जानने पर भी देवोको गाली दे
ओर मि्ोको भरा बुरा कंडे वह मूख है ।
अर्प अन्यायके लिये मी क्षमा न करे, सदा बरछीके नोक
पर भो रहे ओर विश्वासघात करे उसे मखं जानो ।
समर्थके साथ विरोध करे, जनमंडली जिसको देखकर
करोधित दो, घडीमें भटा घडी बुरा हो उसे मुखं जानो ।
पुराने सवकोंको छुडाकर नया सेवकं रखे ओर जिसकी
सभा नायकं विना हो वह मूखं है ।
अनीतिसे धन प्राप्त करे, न्यायनीति ओर ध्मेको छोड दे
तथा साथके आदमियोको त्याग दे वह मूख ३ ।
अपना पेसा दूसरेके पास रखे, दूसरेका अपने षास रखे,
नीचरोगोके साथ व्यवहार करे वह मूख है ।
अतीतका अत टट, कुयाममे जाकर वासं करे ओर हमेशा
चिन्तामे रहे सो मूखं है ।
दो जन बात करते हो वहां जाकर बैठे ओर दोनों हाथसे
शिर खुजरावे वह मूख हे ।
पानोमे थूके, पगसे पग खुजरवे, नीच मनुष्यकी सेवा करे
वह मूख हे । |
खरी ओर बारकको संह चढावे अर्थात् निडर करे, परञ्जीके
साथ कृद करे, बहुत कालकी मर्यादाको इल्की केरे, शंगे
जीवको कारण विना मारे ओर मूरख॑से मेरी करे वह मूख है ।
दोकी लडाई ञ्चगडेको खड़ा होकर देखे ओर टी बातको
सञ्ची ओर सच्चीको श्जूटी माने वद मूस है ।
लक्ष्मी मिलनेपर पटी पहचान भूर जावे ओर पूज्य
वर्गोपिर इकूमत चलाषे वह मूख है ।
धमंबोध ( २०१)
अपने स्वाथ तक नत्रता दिखलावेःस्वार्थ निके पीछे बेषरवाह
होजावे ओर उपकार करनेवाख कार्यं न करे वह शखं है ।
जो अक्षर छोडकर पटे, पुस्तकृकौ ओर दृष्टि न रखे ओर
अपनेको बहुत बुद्धिभान् प्रकट करे उड भख है ।
स्वयम् कभी पाठ करे नहीं? दरसरोको पाठ करने दे
नहीं ओर पुस्तकोंको बांधकर रखे वह अह्यमूखं है ।
इस प्रकारसे संक्षेषमे मूर्वोका खक्षण वर्णन किया, अवनी
हितको कामना करनेवाला पुरुष् इनका विचार कर सदा ही
इन दुगणोंसे बचनेका प्रयत्न करे, जिससे मूर्खोकी पक्तिसे
निकठकर उत्तमोंकी गिनतीमे अवे ।
अथ पठित मृखका लक्षण वेन
पीछे मूखंका लक्षण वर्णन कर आये, अब् उनका लक्षण
वर्णन करूगा कि, जो इद्धिमान् ओर पड--किखकर भी सूरं
है । अर्थात् विद्वान् होनेपर भी जिनमे मूखंता होती है उन्द
पठितमूखं कहते है ।
बहुत शाच्र ओर अन्थोका पठन पाठन ओर श्रवण क्रिया
रो, बह्मज्ञानकी वातां कर्, प्रन्तु टी आशा ओर मिथ्या
अभिमानका त्याग न करे एेसे विद्रावको तोतेके ज्ञानसमान
अज्ञानी मूखे जानना ।
मुक्त पुरूषोके चरितरको बारम्बार अुखसे कहता है परन्तु
उनके सदाचारका अनुकरण ४१८६ नहीं ओर स्वधर्मके साध-
नको तुच्छ हष्टिसेदेखता है तथा ओरोकोउनकेआचरणसे हटाता
हो उसे पढ़ा इआं मूखं समज्ञा । |
( २०२) बोधसागर
अपने ज्ञातापनके अभिमानसे सर्वम दोष ख्गाता रहै, प्राणी
सामे छद्रान्वेषण किया करता है, उसके शिष्य अथवा
अधीनस्थ जुष्य उसको आज्ञासे बाहर चलनेवाले हों, जिसके
ह दूसरोका दिल दुंखाता हो, रएेसे पडितको परितमूर्खं
सखमङ्चा ।
सम्पूणं पुस्तक बांचे बिना अन्थको तथा अन्थकारको दूषण
देना, अन्थके गणको भी अवश्ुण ही समञ्चना, थोडे अवशुणको
देखकर संपूणं अवशुण किसीमे कल्पना करलेना पठितौ के
अतिरिक्त दूसरे किससे हो सकता है !
सदाचार ओर सदछछक्षणोसे हास्य मानकर, सदाचारी ओर
स॒द्छक्षण युक्त पुरूषोकी निन्दा करता है, सदा उनको नीचा-
दिखानेकी चिन्तामे लगा रहता है, वह जो कुक नीति अथवा
न्याय अपने दोषोको छिपानेके लिये करता है सब् छर छिद्से
भरे होते है । =
मे ज्ञानी हू, सर्वज्ञाता हं ेसा भिथ्यासिमान रखकर प्रत्येक
का्यमिं हाथ डालर देता है परन्तु कार्य्यं सिद्ध न होनेषर
मिथ्या कोधके वश हो जाता है। ठोगौके अधिकारका विचार
किये बिना उनसे बोलनेका साहस करता है ओर बचन जो
बोरुता है वह भी कठोर ।
बहुश्चुतपनके कारण वक्ताका सभाम अपमान करता है
मिथ्या बकवाद् करता द ।
जिस बातके लिये दूसरोफो दृषित कहता वदी बात अपनेमें
होते इए भी उसे जान नहीं सकता ।
अभ्यास द्वारा सवे विद्या पराप्त कर केता है परन्तु उसके
द्वारा जगतका कुछ उपकार नहीं कर सकता, किंसीका उससे
भाधान नहीं होता ।
धर्मनोघध ( २०३ )
जिष प्रकार हाथी स्वर्श विषयमे हन्ध होकर ओर भर्वेरा
गन्धे छुन्ध होकर बन्धनको प्राप्त हेता है उसी प्रकार पठित-
मूखं संसारमें फसता है।
वह् शियोमरे इष्य होता है, उन्दीका संग करता है, उन्दीका
अपनी वाणी द्वारा निहवण करता ह ओर नीच कामम भव्रत्त
रहता है ।
जिससे उसके मानकी हानि होती रहती है उसीको इड रखता
है, ओर अपनेको शरीर समञ्चता इअ सदा उसीके खट्न
पालने लगा रहता है|
सदगुू परमात्माकी स्तुतिको छोड़कर सत्य धम्मं अन्थोका
लिखना ओर रचना छोड़कर सांसारिक मचुष्योको बरसा
करता रै उनकी मिथ्या बड़ाई करता है, उनके विषयमे बरसा
कृरता रहै, उनके विषयमं कविता बनाता 2, जिससं छ
सांसारिक काभ हा उसीकी बडाई करता ह जो दषिगोचर
होता है उसीको सत्य जानता हैणेसा जो विद्वान दो वह भूखे
ही कहलाने योग्य है ।
क्ियोके अवयवका वर्णन करता रहै, शृद्कार रसकी कवितामें
अपना समय बिताता है, नाटकादिके दावभावके वणेन करनेमं
अपनी ठेखनीको षिसता दै वह इईंश्वरको भ्र जाता हे ।
वैभवको प्राप्त हो सवं प्राणीमा्रको तुच्छ समञ्जता है ओर
स्वयम् नास्तिकं बनता है ।
व्युत्पन्न, ६१ गी १ ब्रह्मज्ञानी, सन्यासी, साञ्चु, महत आदि
उच्च उपाधिको धारण करनेषर भी पराकृत जनोको ब्यापार
धन्धाके भविष्य कनेका काम उटाता ह वह महामूखं है ओर
उसे दम्भी विषयामिलाष पठितमूखेके पदको प्राप्त जानना ।
( २०४ ) बोधसागर
जो किसीकी मी परी बातको सुने बिना उसके शुणदोषमें छिद्र
हटने रगत है ओर दूसरेकी उन्नति देख नहीं सकता है ैसे
दूषित विद्धानको परितमूखं कहते ह ।
भक्तिके साधन, वैराग्य ओर भजन विना भक्त ओर शम-
दमादि साधन विना ब्रह्मज्ञानी, ओर सत्यासत्यकी परीक्षा
विना अपनेको केवल समुखसे दी यक्त, बह्मज्ञानी ओर पारखी
कहलानेकी कामनावाले पठित पुर्ूषोको मुखं कहा जाता है।
स्वध्मके नित्य नैमित्तिक कम्मेमिं ्रद्धादीन, उचङ्ल्मे भी
जन्म धारण कर नीच कम्मोमें प्रवृत्त दहोनेवाखा विद्रान मखं है,
यसका आद्र करनेवाला यदि नीच पुरुष भी दो तो उसकी
मिथ्या प्रशंसा करता दै ओर पीठ पीछे उसकी निन्दा करता है
ससे पठितमूखं जानो ।
`'सुखपर एक ओर पीठ पीके दसरा” एेसी जिसकी आदत हो,
नोलनेकी बात अलग ओर करनेकी अलग हो, संसारमें अत्यन्त
प्रवृत्ति करने पर भी परमा्थको पिद्छारे ओर अपने वचनको सिदध
करनेके ल्यि अपने ज्ञातव्यका आश्रय ठे। सांची वातको किनारे
छोडकर लोगोकी रुचिके अनुसार बात करे, एेसे अपने
जीवनको पराधीन ओर मृतकं करनेवाले विद्धान को पठितमूखं
जानना ।
जो लोगोको दिखलनेके लिये दम्भ किया करता दै,अकतव्यको
कर्तव्य मानकर उसमे प्रवृत्त होता रै, मनम सीधा ओर योग्य
मार्गको जानते इए भी रोम (लालच) से, अथवा मान-बडाईकी
इच्छा, या किसी भी परके पक्षपातसे सत्य त्याग करके टेे
रस्ते चरता है उसे पारखी मदामूखं ओर ज्ञानिर्योकी सभासे
बाहर समते ई, यदि वद उच आसन पर भीवेड होतो क्या!
घ्मबोध ( २०५ )
रातदिन उत्तम उत्तम अन्थोका अवण करते हये भी अपना
अवगुण त्याग नदीं करता है, अपना हित आप समञ्चता नहीं
है, तत्वनिदपणके श्रवण मननको जहौ उत्तम मनुष्य वैव्ते डं
उनकी मसखरी करता हो, वह॒ मिथ्याज्ञानी कदापि अपना
हित नहीं कर सकता ।
अपना शिष्य अनधिकारी होकर अपमान करने खगे
तब भी उसकी आशा न छोड, अन्थोको सनते, या विचारते
अथवा किसीके अुखसे उपदेश द्वारा अने कतव्यकौ खामी
( कसर ) कछ मालूम हो तो कोधित शकर गडबड करने
लगे तो यदि वह रोगोमिं बहुत बुद्धिमान् भी ्रसिद्धं हे तो भी
उसे महामुखं जानना ।
वैभवमे मथर होकर सतगररूकी उपेक्षा करे ओर अवनी
गु्परम्पराको याद केरे उसे भी मखं जानना, यद्यपि वहं
वैभवप्रतापसे जगतमे बुद्धिमान् कहलता हो ।
जो ज्ञानकी बात कहकर धन जमा करता है, कृषणके समान
धन भोगता रै धनके लिये दी परमा्थकां बात करता ई,
स्वयम् तो कर सकता नहीं ओर दसरोको वही बातं सिखाता
ओर ब्रह्मज्ञानका उपयोग अनधिकारी विषयलरम्पट लोगोके
समक्ष करता हो, एेसा महेत, गोस्वामी ओर साधु संतं भक्ति-
मा्गको भरष्टकर पक्षपात द्वारा वैर विरोध बढ़नेवाला है ।
परिवार त्यागकर साधु वेष धारण कर रेनेवालोको संसार
तो छट ही गया ओर इधर परमार्थका भी साधन नहीं हो सका
हेसा जो धम्भेमर्यादाको अष्ट करनेवाला हो वह धम्मविरोधी
मूखं कहराता है ।
( २७६ ) बोधसागर
जिस घम्मका स्वांग बनाया हो, उस धम्मंके उप्र पडते
इए विधभियोके आक्रमणकी उपेक्षा कर जो स्वमान मर्यादाकी
मरभ्मतमे र्गा रहे उस घम्मेविष्वसी मिथ्या स्वांगधारीको
मूख समञ्चना चादिये ।
स्वधम्मेकीं जिन बातों ओर कर्मसि हंसी होती हो, उन
कर्मो ओर बातोमे प्रकृत होकर, स्वधम्मेके सिद्धान्तको न
जाननेवारे, अथवा उसकी निन्दाकरनेवाले धम्मे दृषियोंसे जो
मेरु मिराप बढ़ावे वह घम्भघाती सूखं रहै ।
इस प्रकार संसारम भरे कराते इए भी मूखताके ही
वनमे भटकनेवालोका संक्षेपसे वणन किया । सजन जन
इसे विचारे ओर आत्मसुधारके मागेको पक्षपात रहित होकर
ग्रहण कर ।
इति श्रीधम्पंनोध प्रथम भाग समाप्त
भारतपथिक कबीरपंथी स्वामी श्रीय॒गलानन्द् (विहारी)
द्रारा संशोधित
खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशनः,
बम्बडं-४
न. १० बोधसागर
संस्करण : फरवरी २०१९, संवत् २०७५
मूल्य : २१० रुपये मात्र ।
कः
प्युद्रक्क एव्र प्रक्काशक्कः
¶ नौ
शेखर शनि्ष्ण्दत््ः
अध्यक्ष : श्रीवेकटेश्वर प्रेस,
रकेमराज श्रीकृष्णदास मार्ग,
भुवं ~ ४००9 ०, ॥ =
जक न १9
© सर्वाधिकार : प्रकाशक द्वारा सुरक्षित
0010875 & 700151615 :
40612] 911141151120858,
000: 310 \/@1114216511\/81 01655,
1418102] 9)11147510826355 8/9, 71) 1161820},
11108; - 400 004.
९0 9116 : 0010:1५///.16-51111.601
@1)8॥ : 1406712/@#/511.6011
2117180 0# 5212४ 828] 7017 //5. 1416€1172| 31114113112083585
00116105 51 \/611816511\/81 71655, ॥1011108} - 400 004,
21 10817 9107 \/811(2165\/81 21655, 66 12080581 11051118
2512318, 7५06 411 013.
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बोधवागर-
कृमाख्बोध
का वा क ० डि शः नण कक ~
भारतपथिक कबीरपथी
स्वामी श्रीयुगलानन्दद्वारा संग्रहीत
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खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन,
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श्री कबीर साहिब
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सत्यघुकृत, आदअदटी, अजर अचिन्त, पुरूष
नीर, करुणामय, कबीर रति योग संतायन,
धनीधमंदास उरामणिनाम, दशन नाम,
कुलपति नाम, प्रबोध शस्वालापीर केवलनाम,
अमोठ नाम, युरतिघनेहदी नाम, ईक नाय,
पाकनाम, प्रगट नाम, धीरन बाम, उञ
नाम, दयानामकी दया, वंश
ग्याटीसकी द्या ।
अथ श्रीषोधसागरे
कमाठबोष प्रारम्भः
एक्िस्तरङ्ग :
चौपाई
शाह सिकन्दर दिद्धी सुरुताना। मेढे तख्त करे रजधाना ॥
बहुतेक दिवस आनन्दमें गय । एते कायाको बेदन भय ॥
देह अभि उठी अधिकाईं । रेन दिवस शाहा सधि नाहीं ॥
बहुतेकं इम कियो सुल्ताना । फेर ओलिया
लिया सिद्ध युखाना ॥
कोई विधि जरन दूर नर्हिजाई । दिन दिनि उदी चरे अधिकाई ॥
(२) बोधसागर
शाहसिकन्द्र प्रतिज्ञा
दोहा-दीन द्नीका म धनी, मेरा जाय प्रान ।
मेरा बेदन जो हरे, मनवांछित पावे दान ॥
रसा कोई ओलिया नाहीं । मेरे तनकी तपन बुञ्चादीं ॥
वजीर वचन्
कहै वजीर सुनो सुरखुताना । काशी एक फकीर सयाना ॥
वहां एक ईद् फकीर रदाईं । चौदहसो वरष् जिनउमर धराई॥
सब दिन्द् कदमो पे जाहीं। सब दिन्दरके पीर कहाीं ॥
उनको चरणारविन्द धरो तुम जाई। दर्शन करत जलन भिर जाई ॥
रामानन्द कै सुनी बड़ाई । शाह सवारी काशी आई ॥
दोदा-आय इनीके बादशाह, सब संगहि दरुछाय ।
जलन भिरनके कारने, कदमो पहुचे जाय ॥
चोपाई
भयो प्रभात जलन अधिकाया। जब रामानंद कहै दर्शन धाया॥
शाह सिकन्दर दशन आये । सबही अमीर सङ चङ्धाये ॥
आये मण्डप आये सुलताना । रामानंद दिर रहै खिसियाना ॥
शादको अग्नि उठी अधिकां । भये विकर सही ना जाई ॥
आहि जहि तब कीन पुकारा । रामानन्द तब भुखफेरि सिधारा॥
देखि दशा भई अति कोधा । कहै वजीर सुनो सब योधा ॥
देखो इस काफिरकी गुमरादी । चदृत कोध मोहि रद्योनजादी ॥
दीन दुनीके शाद सुखताना । जिनको नमे सकर जहाना ॥
सो काफिरके कदमो आवे । देखत तेहि काफिरुह फिरावे ॥
सो काल चटयो बल्वडा । नफरके घटमें भयो प्रचण्डा ॥
एसो तेग चायो जायी ) कारो शिरधड दूर गिरायी ॥
ताह अवसर अचरजअस भयञ। देखत दुनी अचम्भो ठ्य ॥
कमाठनोध (३)
कटे अक्सो धार बहायी । आधा रक्त अह दूध चलाई ॥
शाह सिकंदर अन्देशा भाने । भेद न जानै मन्मांहि तवाने ॥
स्वामीके तन चलत दृह धारी । हाहाकरे तब दुनिया सारी ॥
दोदहा-गुङ् रामानन्द मारिया, काशी नगर म्या ।
जाहके वेदन षट बढयो, जस भई संसार ॥
यक तो वेदनको दबभारी । इसरे अचरज परी अगारी ॥
के सिकन्दर मन अकृलायी । ठेसा कोई ओलिया नाहीं ॥
हमरे तनको तपन बुञ्ावे । बहरी अचरज को मेद बते ॥
सबही करै सुनो सुल्ताना । इनका शिष्य यक अहे याना ॥
भरर गौ कड बार जियाया । बहुतक अचरजतिनदिखलाय ॥
रामानन्दहर ते अधिक बड़ाई । सत्यकवबीर कै सवं ताईं ॥
तिनको दरशन करिये श्ञाहा । सो पुनि कटि अचरजको राङा#
सुनत॒ वचन सिकंदर भाई । कीन द्रश्च कवीर पँ जाई ॥
शाह सिकंदर दर्शन अये । भिरिगयीतवनसबड्ःखमिटाये॥
जबरी शाह कियो दीदारा। भिटि गयी तपनअभिकीञ्चारा॥
कहै ञ्ञाह तुम सच्चे साईं । तुमरे दरश तपन बुञ्ज ॥
दोहदा-जबही तपन बुश्चायउ, सतशुङ् दीनदयाल ।
भह ग्रतीत तब श भयो शिष्य तेहि बार ॥
पा
भयघुरीद जरहाके आयी । तब हा-जलकरंन-नाम धराई ॥
ज्ञान ध्यान चरचा बह कीन्हा । डाइसिकंद्र इारणजब लीन्हा ॥
१-इस शब्दकं ऊपर बहुत विचार किया, किन्तु शुद्धशब्दका पता नहीं लगा जुल
करन न तो फारसी या अरवी शब्द हं न संस्कृत या हिन्दी । कमालबोधको एकही भ्रति
मेर पास हे जो सम्मत् १९११ का लिखा हुआ है । विशेषता यह है कि यह पुस्तक खास पं श्री
पाक् नाम साहवके समयमे उ.हीके हुज् रमे रहनेवाले एक संतकीलिखो इई है तथापि इसमं
इतनी अशुद्धियां हं कि एक २ चौपाईको पढनेमें दो दो मिनट लग जाता है तथापि हजारों
सन्देहं सहित कापी लिखी जाती हे ।
नं. १० बोधसागर -२
(५४) बोधसागर
सतरत्तर खाखसो बीरा लीन्हा । सबदीं जीव अमरकर दीन्हा ॥
सतहत्तरलाखनिवलोकसिधाने । अपने अवगुनसबगये हिराने ॥
तञ सिकंद्र यकं विनती खावा । मिहर गुङूकरि ताहि रख्खावा ॥
अरो साहिबमो्िमन्थ खाई । बाचे अन्थ दिल समचार ॥
तब सद्वूर इङ्म अस कीना । जस मांग्योश्चाह तस तेहि दीना॥
नवी सिन्दको रेह बुलायी । कागजकमलसबसाथखिवायी ॥
शाह सिकन्द्र तुरत बुलाये । सवालखा खसोतेदी बेर आये ॥
सवाखाख देह बीर तब कीना । सोऽ सिकन्दर सब सुधिटीना॥
तनमनधन जब अपण कीना । शिरके साट साहब चीन्हा ॥
पिरे शाह जब दिल्ली आये ' काजी शा सब सुनि पाये ॥
शेखतकी रहे उनपर पीरा । सब भि गये उनके तीरा ॥
सब मिक करै सुनो मम पीरा । शाहसिकंद्र कसभये अधीरा ॥
काशी मारं गये जब शादा । कीरदि कीन्ह गु नरनाहा ॥
सतन तको बहते रिसियाना । का तुम कहौअसबातबिराना ॥
एसा केसा स्यार खिलायो । केसे मोरा अुरीद फिरायो ॥
चलो जाइये शाह दरबारा । सब भिलि पूं ज्ञानविचारा ॥
जुखहा सुरीद् कससो भय । सो सब पूर्तं तिका भे ॥
केहि कारण शुरीद सो हआ । काजीश्ुल्ला सब कर सूआ ॥
स॒ब् मिलि आये भरे दरबारा । वेठे तख्तशाह सरदारा ॥
तिन करं आद्रङा!हभलदीन्हा । तिन पुनि प्रश्न पूछ्िसो लीन्दा॥
कहो शाद तुम काँ मत पाये । केसे अपना हस्म फिराये ॥
काफिर करै मुरीदकस तुम हये । काजीुर्खा सब कदं यये ॥
दीनके घर कहै टोटा भाई । दीनका कर आदिरो आई ॥
सो तुम केसे दियो मिरायी । चार बिदिस्त अद्छाह फरमायी॥
१ नाम
कवाछ्वोधं ( ७)
इनक तजि आगे कहं जाओ । चार ञुकाम खहूत सो भाओ ॥
दीन इस्छाम असक दरसायो । सोतुम छोड़ि कभटका खायो
दीन दुनीके तुम सरदारा। केसे मेय्यो दीन ठुम्हारा ॥
खुदाके अदी काजी कद्व । दीन इसखामको राह बतं ॥
दीन इसलाम असल ३ भाई । ओर से जग कफर चलाई ॥
भिकन्द्र वचन
सुनत सिकन्दर उत्तर दीन्हा । सबको मन अचरज असभीना ॥
भुके काजी भरे बुखाना । तिनहू भ्रङे छाये फरमाना ॥
दीनका घर दूर दहै भाई । बिन जाने तम असर ठहराई॥
किसने बिदिस्त वेङ्कण्ड बनाया । दीनका असर किसने फरयाया ॥
दोहा-काजी अदा भूलिया, भरे सकर जहान ¦
भुदम्मद् भूरे सवेश, सो लाये फरमान ॥
षा
एते सतशुङ् दिल्ली अये । शाहसिकन्दर बहुत खुखपाये ॥
जमुना बिच है महर शुवारक । बैठे पीर जह होऽके फ़ारकं ॥
काजी युदटाको जिय इये । शेखतकी तुरत चङ् आये ॥
शेखतकी वचन
कहशेखतकी जलम तम कीना । रुरीद हमार फिरायके लीन्डा॥
काह कियो सनो मति धीरा । चरम किया तुम दास कबीरा॥
कौन इरम शाहको दिखायी । कौन सुधि त॒म नाम नायी ॥
कबीर वचन
मियाँ हम इलम फकीरी बो । समरथ नाम लिये जग डो ॥
हम द्वश ह दर्पं दिवाना । सतकी चाल चरे जग जाना ॥ ..
काजीस्युल्लछा वचन
निराकार जिन कुरान बखाना । नूर जो उतरयो सब जगजाना॥
कही खुदाकी ओर निनारा । इसका हमको कहो विचारा ॥
( & ) नोधसामर
कबीर बचन
निराकार है खदाका कीया । इनको तीन लोकसों दीया ॥
इनरीं रचे जो वेद् कराना । विहिस्त वैकुण्ठ इनदीं जो ाना॥
दोहा-निराकार निन करै, रांचि रहे संसार ।
वेद् कुरान इन्हीं किये, साहिब सूर निनार ॥
काजी खहा वचन
ज्ञान कियेसे बनि नरह आयी । अपनी अजमत देह दिखाई ॥
अजमतसे हम सच करि माने ) नरि तो करहू ञ्जु अभिमाने ॥
दीनका चर सब अठ परायी । तो पुनि इय तुम्हार चरायी॥
जो कडु इम हमार चलायी । तो इम तुमको रेव भिखायी ॥
दोदा-दमारे दिल एेसी र्गी, फएिराय सिकन्दर साय ।
सखून आदिका मेरिया, सब दिन दिये उडाय ॥
हमारे दिल ेसी लगी, तुम कच्चे प्याला पिलाय ।
कहे शेखतकी कबोरसे, फिराय सिकंदर साय ॥
कबीर वचन
मिर्योजी आवेतो खावे सरी, दम केदिबसे तन माह ।
तुम खाये सकल जहानको, तौ सी छक्के नारि ॥
एकं सुदा यस्रुना म आया । सो जलकरनके नजर प्राया ॥
देख यारो उसकी जिदगानी । कंडा देखा इन जग्मे आनी ॥
ओ्ी उमर यह कहं पारं । सुरत शुभान कष्ठ कहा न जाई ॥
इसका जीव गया किहि ठायी । काजी युदा कदो समञ्ञायी ॥
शेखंतकीको आगम नारीं । हमारे पुत्र कमानेको जादीं ॥
दुर. भोमको दीन प्याना। उल्टा नाव यञ्रुना बहराना ॥
-इूबे जीव जो एकं इजारा । सुरदा बहे जाय असरारा ॥
कमाठनोध ` १ (७)
देखो पीर किताब राना । हम कर दुमको सन्माना ॥
यहि अुदाको रेह हकराईं1 इदम तब रहं ठव शरनाईं ॥
जो यह मृदौ आवे नारीं) तब तुम कर सब ञ्ुठ बड़ाई ॥
सखुन तीन काजी ईकारा । ञ्रदा बहाजाय भअञ्जधारा ॥
दिखाओ कबीर इलम फकीरी । यहि श्ुरदाको चेह ईकारी ॥
काजीञद्ठा वचनं
हम सब धरे तुम्हारे पाई) जो यह भरदा खेह उुखाई ॥
जो यह सुरदा अवे नाहीं। तो त॒म श्चूठे शाई भरमाई ॥
ऊदरत कमालकरहिकबीर इखावा। शुरदादोरीसमरथ चरणसषमावा॥
काजीधा देखें डे) अुदीसे जिन्दा करि डारे॥
सतश् अकमिलाप जव कीना । इय ककीरी उसको दीना ॥
दोहा-मुरदासों जिन्दा किया, दिलखसों दीनं मलक ।
शाह परतीत दिखाहया, उत्पन्न दास कमाल
चौपाई
शेखतकी हरषे मन माई । छाय कमाली मैट चडाई ॥
दो सुत अहै तुम्हारी शरना । तुमसे मिरे जरा ओर मरना ॥
शेखतकी तब शीश नवावा । बेहद साहब सच हम पावा ॥
कबीर वचन
जाह कमाल कोडञल्कं चेताओ। चौरासीसे जीव सुक्ताओ ॥
चले कमार तब शीश नवाई । अहमदाबाद तब पहैचे आई ॥
द्रियाखान पठानि नामा । तहँ जाय पुनि कीन्ह ख्कामा॥
साठ अरीद् क्रिये. तेहि _ गई । अधिक प्रीति पठान जनाई ॥
तन मनसे बह सेवा कीन्हा । इलम फएकीरी उसको दीना ॥
कृमाढठ वचनं
सुनो दरियाखान सखुन हमारा । इम फकीरी सदा बड़भारा ॥ `
(८) बोधस्ागर
जो त॒म चारु चरौ भरपूरी । तब तुम पचो पुरूष इजूरी ॥
कबहू तुम जो इको चेला । शिकस्त करे तब तुमको काला ॥
जो तुम चेखा चकं करो जाई । तब तुम परिहो चौरासी माई ॥
इतनी सिखावनं उसको दीया । दिन सोलह उसके घर रदिया॥
दोहा-इल्म फकीरी अरूमस्ता दिवाना, कीना एक उपाय ।
एकं पाव बधि बेदको, दूजे किंतेब रवैधाय ॥
चौपाहं .
वेद कितेब जो बडयारा । चरे जात नगर मँश्चारा ॥
मच्य चोकम खड़ भय जाई । प्रानी बहुत तमाशे आई ॥
बायां पाँव दन्द दिखरावे बचे बेद वैकुण्ठ सो पावे ॥
ददहिना पौव दीन दिखखा३ । पडे कुरान बिहिश्त को जावे ॥
वेद् कितेब दो बड़ भारी । जदि २ भयी दुनियौँ सारी ॥
दोनों दीन पौव तरे दीना । एेसा है कोई अरमस्त नवीना ॥
चरे सकर पुनि दिया पुकारी । जाय खड़े भये शाह दरबारी ॥
दोदा-तुमहौ अमद शादडा, अचरज देखो आय ।
वेद् कितेब पावों तले, दोऊ दीन भिटाय॥
चौ पादं
कोपे अहमद आप सुल्ताना । जड़ो जंजीर फकीर दिवाना ॥
जंजीर युदकमकर एेसी । उपर रहो भुबकिर दशबीसी॥
रहै न सयानी भये विनाया । बाहर चौकमे खड़ा दिवाना ॥
सोई जोड़ा फिर दिखलवे । दोनों दीनको फिर ससुञ्चावे ॥
फिर जाय सब कीन पुकारा 1 है जिन्दा खड़ा चौक निधांरा॥
कहे शाह युषकिरसे तबही । केसे गया जिन्द पुनि जबही॥
मुबकिठ वचन
कृहे सुबकिल सुनु सुरताना । रेसी अजमत हम नदिं जाना ॥
कमाठ्वोधं (९)
सात बेर जो जडे जंजीरा । बाहर चौक खडा फक्ीरा ॥
अहमद्शाह वचन
अबकी . लाय जमीं गाढो ! षच् २ ईटा सब् मिलि माये ॥
जो कोहं दया करे उसयर जाई । उसके धरको देद् जरह ॥
दोदा-खहे खागि कमाल्को, उपर ईटा अपार ।
तन मनकी कङ्क सुधि नहीं, इम फकीरी सार ॥
चौपाई
द्रियाखान कचरी जावे । आगु पड़ी भीड़ दिखलावे ॥
कदे सुवकिर खनो दरियाई । कमारुके प्र है कृठिनाई ॥
इलम फकीरी सेर तम पाह । मारो इय फकीरके ताइ ॥
जो तुम इनपर इटा न डारो । तब तुम सारी खिदमत हारो ॥
मारो इग होयकर राजी । नहितोतमषरहोय शाहनराजी॥
द्रियाखान वचनं
कौन उपाय करो मँ सां । कैसे घुरशिदपर ईंट चलाई ॥
मेरी इल्म फकीरी जाइ । जो में इनपर गद कर जाई ॥
तब हजरत ससपर बहुत रिसांईं । तवदीं फएूरु एक लीन उढार ॥
द्रियाखान विवेकं निधाना । भेद फूर मन करे तिवाना ॥
जो एूरे हम मरिहीं जाई । मेरो जन्म अष्ट होय जाई ॥
देखि नावन शाह रिसाना । कठिन बोध प्रकट दिखलाना ॥ `
देखि कोध दरिया जब लीना । पखुरी एकं एूर सो छीना ॥
सोई पुरी शरूपं चख्िया । रागत पुरी अचेत ह परिया॥
दरियाखान शति दिग गय । प विन्ती यङ ॥
पहर एक महं चेत तब आवा । द्रियाखान तब अरज सुनावा॥
सुनहु सत शर विनती मोरी । इतनी ईटा प्री ठम धोरी ॥
इतनी इटा परी त॒म संगा । तब त॒म काहे न मोच्यो अगा ॥
हमतो पूरन पुरी डारा । ताते त॒म दोय पड़ बेकरारा ॥
( १० ) नोधृसागर
दोहा -याका मरम पाया नही, सतयुरू कहो सञञ्ञाय ।
एतिक ईटा मारसे, तुम कटं ना विकटाय ॥
एके पखुरी एूरसे, खागी इतनी चोर ।
होय विकल धरनी भिरे, रो गये लोटम पोर ॥
कं माङ वचनं
बिना भेद उन ईटा डारा । तमतो हमको चीन्के मारा ॥
मोँसे इरूम फकीरी पाई ! ताते तुम ` मोदकं मारा ।भाई ॥
यह दुनिया ई कारुका चारा । इसपर चरे न अमर इमारा ॥
ताते देह छांडिदमभये नियारे । डरे कोटिक ई> अपारे ॥
देखत तुमको देह समोये । शिष्य को दुर्शनदेहमँ होये ॥
भली कीन तुम मोको मारा । अपनी इरम फकीरी हारा ॥
बडतेक ज्ञान हम तोहि सुञ्चावा । तौहू तुम मम मरम न पावा ॥
दोहा-इलम फकीरी चरकी तेरी, सुनह् खान पठान ।
दोजख जाहू मोजे, यह सतशुङ्का फरमान ॥
द्रियाखान वचन
सब दुनिया खोजत कहं जाई । भुञ्चको कोने दोजख फरमाई ॥
कभा वचन
भूत॒ खानिमे रहो समाई । सब जग जाने तेरे ताई॥
जानि बुञ्ि तुम मोको मारा । सब भ्रूतनका बनो सरदारा ॥
सब भूतनमे करो बादशाही । सबमे तेरी चरे दुहाई ॥
एती खबर शाह सुन पावा । जिन्दांक्ंशिरकाटनफरमावा ॥
के द्रियाखान सुनो सुखताना । जिन्दानदीकोईओभौल्ियाजाना॥
यह सुनि शाह बहुत रिसाया । वुरतदहि पोस्तं काटि गाया ॥
१-कमाल साहब उस समय जिन्दा वेषमे थे । जिन्दा वेषका हाल देखो ग्रन्थ जिन्दा
बोध आगम ज्ञानम : २-चमड़ा ।
क्लाठबोध (११)
जवरीं छाती चीरन खमे । शादी महस्य आग तब जामे॥
पड़ अहमद जो बहत उरी । शाहकी देह अधि तब भटी ॥
शाह् कहे चहु जिन्दा पासा । जिन्दा चङे तब काशी वासा॥
जिन्दा गया काशी अल्थाना । खनी शाह मनही पताना ॥
द्रियाखान कहँ संम लिवाई । चला शाह काशी कं जाई ॥
हस्ती घोडा जयि मँगाई। जर जौहर बह मार भराई ॥
खेचर ऊंट हाथी बह खीना । गिनत बरे निं आवे मीना ॥
चरे अहमद आप अलताना । इनिया संग उरि चली निदाना॥
एक मास दिन सत्ताइस जाई । अहमद पचे काशी माई ॥
कमाल पहल युङ् पहं आये । सतद्रङ् सन्यख माथ नवाये ॥
आये अहमद सतशुर् पासा । बारम्बार खचे ऊच उसासा ॥
जर जवाहिर माल उतारा ठे सतर्क चरणों धाय ॥
बहुत कहू क्क बरनी न जाई । इमी प्रूठ नहिं दीन शसांह ॥
साहब कमाल यसां करि आये) इमरे तनक अगिन छूगाये ॥
यह सुनि सतश् बहत रिसाये। तब कमालको वचन सुनाये ॥
हमको मिरे सो जीव उवार! ठमतो लये दव्य भंडार ॥
दोहा-नाम रतन धन बेचिके, लाया मार हमार )
बडा वश कंबीरका, उपजा पत॒ कमार ॥
कौड़ीसे रीरा भया, दीरेसे भया लल ।
आषे साहिब कबीर दै, पररा भक्त कमार ॥
` चोपाई
इतना कदी दया प्रथु कीना । शाहको इख छुड़ाये टीना ॥
साहब नजर करी भर परी । शाहकी जलन भई तब दूरी ॥
द्रियाखान वचन
द्रियाखान कहे कर॒ जोरी । सुज समरथ विन्ती मोरी ॥
(१२ ) नोधसागर
दम तो रुका पखुरी डारा । कोन चकं रै गुरू दमारा ॥
पिरे इरूम फकीरी दीना । फिर के जनम भ्रतको कीना ॥
कोन उक अपराध ग॒सोहं । सो समरथ मोहि देह बताई ॥
थोडा चूक बहत दुखं दीना । हो समरथ यै होऊ अधीना ॥
भूत जनम बड़ रोय मीना । महा दख तुम सदा जो दीना ॥
शेसी उक है कडा हमारी । भूत खानिका दुख बड़ भारी ॥
सतगुर् वचन
सुनो दरिया यकं बात हमारी । पटरी बोधिं भयी खुवारी ॥
बिना कसनी इम तोहि दीन्हा । बिनाकसनीतुमगङ्नहि चीन्दा॥
निरखि परखिके जिन सिर दीना) सो कह ना दोय मीना ॥
पहर जगम जीव चितायी । सम्चि सीख पुनि दीजे तादी॥
इरम दिया जब रहा न कोई । पीर शरुरीदके वेष होय जोई ॥
कलियुग जीव कालके सारा । सीखे चतुराई केरे अपारा ॥
इतम खेनकु गरा ठाने । कसनी सुनी कोध मन आने ॥
कसनी परीक्षा
पिरे कसनी कसं अपारा । तन मन धन यह तीन विचारा॥
यह तीच दै अगुण सारी । यह तीनों मिखि भक्ति उजारो॥
यहि तीनों मिखि गुरुके बस होईं। करहु सुरीद इलम दे सोई ॥
दोदा-यह तीनों अरपे नदीं, कोटिक कहे बनाय ।
कहै कबीर सत मानहूः तेदि जिव गोता खाय ॥
तचो पाईं
यह तीनों तुम दीना नादीं। इम फकीरी सहज तुम पाई॥
तुमको कसनी नदीं लगारा । तुम दोजखकानर शुरूको मारा॥
अपना कौर तुम गये दिरायी । ताते जनम भ्रतको पायी ॥
कमाटनोष (१३)
तुम ता ओंगन बहते कीन्हा । दो नजर वुम यङ नरि चीन्हा॥
अब तो इमसो कष न होई । गुङ्का शब्द हआ होय सोहं ॥
इसे दोष गुङ्का नाहं । वुम्हरी दुर्मति भत गति पाह ॥
दोहा-तुम जानो इम भूखिया, दिखे रहे इखास ।
कलयुग जीव बह भली, सो रहे तुमरे पास ॥
चौ पाह
बहुतकं शिष्य दोर्येगे भाई । सो सतयुकसो कौट रैघाई ॥
तन मन धन चरणों धरि एेसी ख्षारी ख सो करिह ॥
एेसी कहि वह शब्द् सो रहै । शब्द ठे& पुनि एक न दडटै ॥
साचा कोल इजूरी कीना । कौर चरक सो तुमको दीना ॥
एसा कलिका कठिन तमाशा । बहुत रगे तमरे पाता ॥
जो कोह दोह है कौल मीना । ताको जनम भूतको दीना
दोहा-सब दोजख फिरि आइ तब वम करो सम्हार ।
इल्म फकीरी साधिके) उतरो भवजल पार ॥
चौपाई
अहमद शाह चरे शिरनायी । धनिसतशङ् भे तव बर जाई॥
हमरे तनकी तपन बुञ्जायी । द्रियाखां चरे पछ्तायी ॥
सत्य भूपकीं राह चलायी । जंसा किया तैसा एर पायी ॥
शिष्य होयके दुमंति करदीं । सो तो जनम भ्रतको धरहीं ॥
कृमाडङ . कचन
तबहीं कमार कहै शिर नाई । है समरथ कर् कौन उपाईं ॥
कैसे चलि पथ इमारा । केसे होहहदिं जीव उबारा ॥
कंसे आवागमन मिगाऊ । सो साहब मोहि भाषि सुनाड॥
केसे उतर भवजल पारा । सतयुर मेरा कर उबारा ॥
( १९६ ) बोधृसागर
ड सत शरु वचन
सुनड कमारु करू चित्त राई । तुमरे पथमे सक्ती नाहं ॥
प्रथस शिष्य दरियाको कीना । ताको जन्म भूतको दीना ॥
प्ररे इल्म फकीरी दीना । फिरके जन्म भ्रूतको कीना ॥
उनरी जन्म थतको पायी । शब्द् पाय पुनि गये गर्वोयी ॥
पथ न चरे एेसे सुनि छू । प्रथम बोध विचली पुनि गेहू॥
दोहा-पथ न चरे कमाङ्जी, कोटिक करो उपाय ।
धोखे जीव बिगोय दो, धमंराय धेरिखाय ॥
| कभराढड वचन
हाथ जोरिकिं शीश नवायी । समरथ मोहि कहो समञ्चायी ॥
पंथ न चरे कोन विधि करिये । कदोतो अरोष पांव हम धरिये॥
बै है जेठा शिष्य गुसौई । पथ ना चर्ई भौजल भाई ॥
बिना पथ मोहि कौन पिकिने । कमार् कबीर सबै जग जाने॥
₹त्खर वचन्
सतशुङ् करै कमाल सुने बानी । पंथ चलनकी सुधि पहिचानी ॥
कमार नाम ठे पथ चखा । कदी ज्ञान घर घर सयञ्जाऊ ॥
इल्म फकीरी राखो इम पासा । ओर सखी पद् करो प्रकाशा ॥
यदी शब्द् करो गुरु आहं । बिद् साधना रहे सब ताईं ॥
रदनि गहनि तुम देह बुद्चाईं । सो जिव धमं सुन्नमों जाई ॥
चारों युगमों अटल मम दासा । तुम साखी षद करो प्रकाशा ॥
यह् राह मेटि भाषो अधिकारा । निश्चय षरिदहो नकं भंज्ञारा ॥
साखी-प्रमारथ तुम ॒साजहू, करहू शब्दं विचार ।
भोसागरमे भय नहीं, सोऽहं नाम अधार ॥
कमाट-वचन चौपादं
समरथ गरू रेसी सुनि रू । इम फकीरी किस देह ॥
कमाछ्बोधं ( ३१५ )
कौन ठौर घर रहे निदाना । सो समरथमोहि कटो वरमाना॥
सो म कटं शिष्यनरे आमे । श्रत शब्द् चरण चित खमे ॥
एती आगम कहो सुधारो । चरण टेकि प्रञ्ु करो निदाय ॥
पंतङ₹ वचन् ॑
सुनो कमाल निज कों विचारा । जब सतथ्ञ्ुखते शब्द उचारा॥
कलियुग आया कटं प्रमाना । बधो गदं होय अस्थाना ॥
सुकृत अंश प्रकटे संसाया) अश खोकते आये इमाय ॥
सो धर्मदास घर ठेई ओतारा । उसका पथ चरे संसारा ॥
वश ग्याछिसि अविच राज् । सोह जीवनका करिदै काज ॥
उनका वीरा शब्द जो प्तं । सोइ ईसा छक सिधति ॥
ओर जीव वाचे नहिं कोई । कोटिक ज्ञान करे पुनि जोह ॥
आगम तुमको कटं सथुज्ञाईं । ङद्रत कमार खनो चितलाई॥
जोई इत्म पुर्षके पासा । सोहं वशम होय प्रकाशा ॥
विना फए़कीरी इत्म निं जाने । शुक्ति बिना योगी बडराने ॥
युक्ति सार कोई हंसा परवे। रोकं जाय बहुरि नहि अबे॥
आवत जात मिलि रहै समाई । विना फकीरी इलम कहं पार ॥
सतशुक बिना युक्ति नहि आवे । बिना युक्ति फकीरी षकतावे ॥
पांच तीनको करदं निरासा । सोई फकीरी इ्ल्म जिन पासा ॥
रुगन तत्वकी युक्ती जाने । सोह योगी है युक्ति पराने ॥
नहि तो कथनी कथि अपारा । बिल परिचय बडे संसारा ॥
दोरा-कथनी करनी चतुराई, कीना षांबों पार ।
वेश छाप शङ् युकती पावे, इलम फकीरी सार ॥
कमाङ वचन
चरण ठकि हम करे निहोरा । हमरे जिव शङ होय निवेरा ॥
भौसागरमे बड़ दुख होहं । महा आस दुख व्यापे सोई ॥
कठिन जस है भवजल धारा । जाते सतगुरु करहु उबारा ॥
( १६ ) बोधसागर
सतगुरु वचन
कुद्रत कमाल सुतअश हमारा । तुमरे जिवका करो उबारा ॥
इरुम फकीरी तुमको दीना । जीव उवार अपना करलीना ॥
सोई इल्म मम ॒राखु पासा । साखी पद तुम करट प्रकाशा ॥
जो यह इल्म बाहर जायी । तो इम तुम बिद्करेगें भाई ॥
इम यरी धमं दासको दीना । जाते ईस अमर करि रीना ॥
दोदा-बन्धे कोर कमालके, सतशुङ के पुकार ।
धरमदासके वेश विना, कौन उतारे पार ॥
आगे बानी माषं भाई। दास कमार सुनो चितटाईं ॥
कलियुग मेद् कर परकाशा । दस पर्चा रोकं निवासा ॥
विगम मति देस जब होई । सत्य कदी सत्यलोक समोई ॥
आगम भेद कदी सयुञ्ञाईं । भोजल ब्रत तुरत बचाई ॥
बश व्यालिसि सौपी गरूबादी । जो ब्रूञ्ये तेहि दें बतादी ॥
सोहं इदम सोपा उनपासा । सब ॒ जीवनकी पुरं आसा ॥
वश दया जाहि पर होई । होय पुनि ईसा अम्मर सोहं ॥
कृह कवीर इम सतदी भाखा । सुनो कमार गोय नरि राखा ॥
दोहा-कलमाते कल उपज्यो, सब करु कर्मा माहि ॥
सो कर्मा दिया कमालको, सब करु करमादि समाि॥
जीवत मृतक होय रहे, जाग्रत माहि समाय ।
इरम फकीरी अरम सदी, आवे जाये बराय ॥
समरथ सतयुर् भरिया, भये मद् मस्तु निहाल ।
प्रेम प्याखा सदी किया, युक्ता खेर कमार ॥
इति ` कमाठ्बोष
कमाट्वोध (१७)
विवेचन
भि
कमालबोधकी केवल एकी प्रति सम्वत १९११ की छलिखी
हुईं मेरे पास है । जिस परसे यह पुस्तक छापी गयी है । पाठक!
एकवार आप अवरागसागर आदिथन्थोमें लिखे बारह पथका हा
स्मरण कीजिये फिर इस अन्थोके आशयसे भिखाहये। अव आप
स्वयम् विचार कीजिये आप किस अन्थको सत्य ओर किसको
असत्य मानते ह। ओर अन्थोमे कमाल साहवको साक्षात कार्दत
लिखा है। इस अन्थमें कबीर साहेव खास वदी भेद जाय॒ धमंदास
सादवको बतलाया है वही मुक्ति भेद कमाल्को बतलने की बात
कटते दँ । मला बतलाइये तो वह सत्य की यह ! इसी प्रकार
केवीरपन्थके सब अन्थोमें गड़बड़ ओर परवांपर तथाविषयान्तरका
भेद है इन्दं गरन्थोको कबीरपन्थीय॒रू ओर महन्त लोग अपनामामे
दर्शक मानते ओर धमण्ड करते दै । यही कारण है किं आज कोह
भी कबीरपथी महत साधू ओर सेवक किसी विचार पर स्थिर न
होकर मारे मारे ओर मरकते फिरते है। ओर षिषयवापनामं दृप्तो
संसारकी मर्यादा ओर सत्यगुरूकी आज्ञाका उछेवन करन करने
योग्य क्मोँको करके कबीरपथकी निन्दा करा रहे है । यही गड-
बड़ देखकर अच्छे २ विचारपने सत्यगुरूके उपदेशको समञ्जने
ओर जाननेवारे खोग कबीरपंथी कहलानेसे दी खजित होकर इस
पन्थको छोड़ते जाते रै जिसके पणं वृत्तान्त कबीर धर्मसारमें
लिखा जायगा. इति
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श्रीबोधसागरे-
शासगुजार
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भारतपथिक कबीरपंथी
स्वामी श्रीयुगलानन्दद्वारा संग्रहीत
गंगाविष्ण॒ श्रीकृष्णदास
अध्यक्ष-“लक्ष्मी वेङ्टेधरः' स्टीम-म्रस
कृल्याण-बम्बर्.
पनर्मुद्रणादि सर्वाधिकार शश्रीवेकटेश्वर' मुद्रणयन्तालयाध्यक्षाधीन है
` नं. १० बोधसागर -३
सत्यनाम
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॥।
॥ |
1 ॥॥
वर----
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न्य काक --- क दी ~ ~
(र क)
श्री कबीर साहिब
पत्ययकृत, आटि अदी, अजर, अचिन्त पुरुष,
पनीन्द्र, कष्णामय, कवीर, धुरति योग, संतायन,
धनी धमदाघ, चरमणिनाम, अचददन चामं
कुट्पति नाम, प्रबोध यस्बाछापीर, केवल नामं
अमो नाम, अरतिसषनेही नाम, ईक्त नाम
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम
उग्रनाम, दया नाम की व॑
न्यालीस॒की द्या
अथ श्रीबोधसागरे
बक्छजाः् प्रार्मः
द्रा्चिशस्तरगः
चो पाईं
कहै कबीर सत्य प्रकाशा । श्रोता सुरति धनी धर्मदासा ॥
सत्य सार सुकृत युण गायो । अविचल बाह अ पद पायो ॥
संशय रहित सदा सो गाऊ । शीरकूप सब दिमकर ना ॥
कुला हंस उजागर । मोह रहित सब सुखके सागर॥
६८.) बोधुस[गर
तेहि पुर जरा सरण अरम नाहीं । मन विकार श्ढी नहि तारं ॥
सत्य लोकं हैसन सुख होई । सो सुख यहां न जाने कोई ॥
जाने सो जो उदां रहाई 1 ईदां आय कहै ससुर ॥
आवत जात बार नहिं खवषे। उहांकी चार सोई यहां रमे ॥
जो समञ्च सोई उतरे पारा । बिन समञ्जे सब यमके चारा ॥
समय-अमरखोककी महिमा, सत्य शब्द उपदेश ।
हसं हेतु सो य ः यमकर देश ॥
|
अमरलोककौ अबिगति बानी । धरमदास भैं कहूं बखानी ॥
जो समञ्चे सो उतरे पारा । बिन समञ्जे सब यमके चारा ॥
प्रथम शरण सतगुङ् गुण गां । अक्षरभेद सकट सुधि पाॐ ॥
सत्यलोक कर भाव अपारा । सो भवसागर केरे पसारा ॥
भाषों अग्र अथकी बानी । भाषौ द्वीप जहां मि खानी ॥
भाषो पुरूष पुरूषकी काया । भावों अभी अमान अमाया ॥
भाषो पुरुष रोककी बानी । भाषों समै खहज सहिदानी ॥
जो काया प्रथु आप स्वारा । सो सशुञ्चाह कदो व्यवहारा ॥
अमर तार अखण्डित बानी । श्वासा पार सार सदहिदानी ॥
जबही क्या प्रभु आप सुधारा । कहौं विचारि ताञ व्यवहारा ॥
जेतिक श्वासा पुर्षकी देहा । तार तार कर कों सनेहा ॥
जेतिकं वचन पुरूष उच्चारा । ते तेह वचन नाम अधिकारा॥
श्वास पारस आदि निरबाना । सोरह सुतकी नाल बखाना ॥
समय-पांच अमीकी देह धरि, प्रकटी ज्योति अपार ।
सुरति संग ॒निहतच्तव पुर, पुरूष होत श्वास यंजार ॥
ध्मेदास वचन-चोपाई
हाथ जोरिके टेकेड पा । सादब कदो तर्हवाके भाऊ ॥
श्ासयञार ( ३)
कृटौ लोक कर प्रकट विचारा 1 जहल दीपं कर विस्तारा ॥
बरनी द्वीप यत्त अनुसार । बरनौं जहौ खमि सकर पसारा ॥
वरनौं सोरह सुतकर भा । तीन शक्ति कैसे निरमा ॥
पुरूष स जेता अबुक्लारा । ताकर कं सकर विस्तारा ॥
केहि विधि सोरह सुत प्रकाशा । केहि केहि करा रदी बासा ॥
कां विस्तारि सकल अस्थाना । सत्यलोक ओर यमके थाना ॥
कैसे आदि अन्त प्रयु कीन्हा केसे रवा देहकर चीन्डा ॥
कैसे भये निरंजन राया । कैसे तीन खोक निरमाया ॥
केसे उपजन विनशन कीन्हा । काह जानि बाजीयम दीन्हा ॥
कैसे न्द्री देह बनाई। केसे जीव परा वसि आई ॥
कैसे जीव अपनपौ दरसे । कैसे जीव बुर्षं पग प्रस ॥
समय-काया मध्ये श्वास है, धासा मध्ये सार :
सार शब्द् विचारिके, साहब कहो सुधार ॥
स॒तयुरु वचन चोपाई
धर्मदास जो पे आई । आंदि अन्त सब कों उञ्चाईं ॥
कटां लोक लोककी बानी । कों पुरूष सुतकी उतपानी ॥
कहं संदेश दया करि तोद । शक्ति जान जो प्रे मोही ॥
सुनहैँ सन्देश आदि निरबाना । जाके खनत कार छ माना ॥
सुमिरइ आदिपुरुष दरबारा । सुमिरत आप हंस होय पारा ॥
समय-तीनलोकके भीतर, रोफि रद्यो यमद्रार ।
वेद शाश्च अगवा कियो, मोद्यो सब संसार ॥
चौपादं
धर्मदास चित चेतह जानी । कों बुञ्ञाय अगरकी बानी ॥
पुरूष अजावन रहा जो देहा । तत्त्व बिहीन सुरति सनेहा ॥
` -ल् पाद्री
( & ) नोधसागर
खारि करी सिदासन जोरी । पंच अचित आपं अंजोरी ॥
चारि करी चारिउ परवाना । शक्ती भीतर वह अङलाना ॥
खमय-करि करि सहा परिमल, बाससुबासकी खानि ।
तेज करी जो प्रगट मह, तामहं आई समानि ॥
चोपा
पुरूष अचित चिन्ता जब कीन्दा। उपज्यो सुरति शब्दको चीन्दा॥
रहे गतत प्रकट मई काया । चासा सारशब्द निरमाया ॥
श्ब्दहिते रै पुरूष अस्थुरा । शब्दहि मय है सबको मूला ॥
शृब्द्हिते बडु शब्द उचारा । शब्दे शब्द भया उजियारा ॥
श्ब्दहिते मव सकर पसारा । सोई शब्द जिवके रखवारा ॥
प्रथमशब्द भया अनुसारा । नीहतत्त्वं एक कमर सुधारा ॥
नीहतच्वपर आसन कीन्हा । रचना रची सकल तव रीन्हँ ॥
र्यो पुष ` द्वीप मनिभारी । खस अटसी द्वीप सुधारी ॥
असि वृक्ष एक राशि बनाई । अग्रवास तदं रही समाई ॥
समय-पेड पात निज एर मर्ह, प्रगदी बास अनूप ।
पारस निहतत्वहि पुरषः, सुरति हंसको हष ॥
चौपाई
जब पारस सुरति भये स्थाना । अगर प्रताप निमिष उरआना॥
पुरूष प्रसन्न नाम उच्रारा । शासापर सब रचनि सुधारा ॥
श्वासा सार शब्द गु्ारा । पांच अमीको भयो विस्तारा ॥
पांच अभीको जो विस्तारा । ताहि अमी सब लोकं सुधारा ॥
श्वासा पुहप अगरकी खानी । सोरद सूनु भये उतपानी ॥
पांच अमी सादबके अंगा । पांच तत्व समरत्थ प्रसङ्गा ॥
श्वासा स्नेह सवे उपजाया । बानी बानी वरन बनाया ॥
सत्यलोक सबही को मूला । भयऊ सत्य सो सब अस्थूखा ॥
श्वासणथाश ( ५)
शासासार सत्य कर भां । अभी आदि उपजी तैहिनाङॐ)॥
( सत्यसार शासा संभारी ! अमी आदि षारस तहं धारी ॥
श्वासा आदि सुरङ्ग बाना । रंग अभमीकर भा बधान ॥
श्वासा अजर नाम अनुमाना । प्रकदी अमी अजर अजना ॥
अद्र नाम थासा परकाशा ) उपजी अमी अमान खवासरा ॥
खासा निरने भ्या अबुस्ारा । अधर अमीका भा विस्तारा ॥
श्वासा पांच प्रकटि विस्तारा । वांच अमीकर भया वारा ॥
पांच अमी पाचों अधिकारा । वांचतत्व तेहि संग धारा ॥
पांच अमी सब क सुधारा ¦ कांच तच्व षै शुत्त्सारा ॥
समय-प्ंच अमीते पांच भए, पांच नाम अधिकारं ।
सैन सेह उत्पन्न भई, अमी तत्व विस्तार ॥
पाड
सोरह श्वासा सार सहाया । सोरह शुतकी थकरी काया ॥
सोरह सतकी सोरह नाला । एकते एक अमान रिवाल् ॥
पंप नाम श्वासा अबसारी । उपजे सुरति हंस पति भारी ॥
रति समानी प्रथुको देहा । बाहर भीतर एक स्नेहा ॥
पांच अमीकी प्रकटी देहा । सुरति कीन्ह तेहि माहि सनेहा॥
जेतिक पुक्ूष खान निर्माया । पांच अमीते सबकी काया ॥
पाचों अमी साहबके अंगा । नाल सात उपजी तेहि सङ्गा ॥
सात नार्कर एके भाऊ । सातौ रहै पुरुषके ठा ॥
पुरूष सुरति कहं अयुवा कीन्हा । सार्तौ नाक सौपत तेहि दीना ॥
सातो ना सुरति जब पाईं । ताहि नेहमों रहे समाई ॥
क्षण बादर क्षण भीतर आवै । देह विदेह दोऊ दरस ॥
अमरतार निःअक्षर किये । सो पुरूष सुरति कह देड ॥
समय-अमर निरक्षर सङ्ग लिय, अधं ध्वजा फहराय ॥
पलटि समानि सरति पुरुष, देहमे अक्षय छिपाय ॥
(६) बोधसागर
चौ पाईं
( सोरु सतक उत्पत्ति प्रकार )
सुरति नेह प्रथु इच्छा कन्दा । सोरह सुत उपजावे रीन्हौँ ॥
सत्यनाम श्वासा अदुमाना । सुकरेत अंश मये अशुआना ॥
दूजी श्वासा बाहेर आई । उपजे सहत ्ुन्य तिन्ह पाई ॥
तिसखरी श्वासा पुहुप सनेही । तेदिते भई दहर्मारी देही ॥
सोथी श्वासा तेज स्नेहा । तेहिते मई रधर्मकी देहा ॥
पांचइ श्वासा नाम खुमारी । उपजी कन्यां आदि कमारी ॥
शीर नाम स्वासा निरमयॐ । छ्य अश सजनं जनं भय ॥
सतय स्वासा नाम अनंगा । उपजे अश भृगीश्चुनि संगा ॥
अय्यै स्वासा नाम सुेली । उपजे कूम शीस उर मेखी ॥
नव्ये स्वासा नाम सोहगी । नाम ते उषजे सुत संरवगी ॥
दसय स्वाषा नाम रसीखा । जाते उपजी सरवन लीला ॥
ग्यरदं श्वासा नाम सुरंगा । सुत स्वाभावं उपजे तेहि संगा ॥
ब् रहं स्वासा नाम सुमादां। भाव नाम सत उषजे ताहां ॥
तेरहं स्वासा अख्य सुमा । उपजे खत विवेके तेहि ना ॥
चौदह स्वासा अमर बखाना । उपजे सुत संतोषं सुजाना ॥
पद्रहे स्वासा परेम सनेहा । उपजी कदर बरूह्यकी देहा ॥
@% षोडशेस्वासा नामजलरद्धी । उपजी देया पालन सङ्घो ॥
षोडश स्वासा षोडश बानी । उपजे भोग संतायन ज्ञानी ॥
सोलह स्वासा नाम बखाना । उपजे सोखह खत निरवाना ॥
सोरह सुत कर एके मूला । भिन्न भिन्न प्रगटी अस्थुला ॥
एके पिता एक ग्यवहारा । सब जो रहि पुरूष द्रबारा ॥
` # कड एक प्रतियोमें इस चौपाईको एसा लिखा है की," सतरहे श्वासा अदत सुबानी'"
परन्तु षोडश, सुतकी उत्पत्ति वणन करते हुये सतरहवे की उत्पत्ति वणेन असङ्गत जानकर
यही शुद्ध जान पड़ा ।
श्वासयजार ( ७ )
एक रपौवते सेवा करीं । पुङ्ष वचनं शीशपर धरहीं ॥
तेवा करति रदी लौटीना । पुरूषखोकते होहि ना भीना ॥
समय-सोरह सुतकी एक सूखा; एकते एक अधीन ।
कर जोर सेवा कर, पेमभक्तं खोटीन ॥
चौ पाह
सेवा करत बह दिनि गय । पुरूष अवाज अधर श्नि मयॐ॥
अर्धं अवाज भई जब बानी । निकसी अगर बासकी खानी ॥
सबतर रोकं द्वीप रहि अइ । बिमलख्वास भरप्ूरि रडाइ ॥
अगर वास सब हसन पाईं निमलबासर सदा खखदाई ॥
पीअत अग्रत सब अघने आषु आघ पुर सवै सिधाने ॥
धर्मराय सेवा अधिकाने । सो सब तोहि कहौ सदहिदाने ॥
छलके बचनपुरूषं सो लीन्हा । पाछे दूद खोक यहं कन्हे ॥
समय-ओर सवे सुत वबेठे, अपने अपने स्थान ¦
धरभरोष सबते कियो, गम भम विगरान ॥
धर्मदास वचन-चौपाईं
धर्मदास विनवे करजोरी । साहब डु संय मोरी ॥
ओर सब सत अष छिपाने । धर्मराय केसे बिगराने ॥
केसे ओर सब सुत सब भारी । धममराय कैसे भये बिकारी ॥
| सतगुरु वचनं
धर्मदास सुनहं वितलाई । कदां संदेश आदि समञ्जाईं ॥
जब प्रकरे प्रथु अमर तारा । निकसी अधर निरक्षर धारा ॥
भई अवाज अधरसे बानी । निकसी अगर बासकी खानी ॥
पारस परिमर महक बसाहं । सोई परिमरु सुरति इराई ॥
६.८ ) नोधसागर
अग्र छिपाय आप् पदराखा 1 सुरति स्नेह सुख प्रकटी भाखा॥
प्रथस पुरूष सुख भाषा आई । भाषा अमर पारस निरमाईं ॥
माषा बचन सया अधिकारा । भाषिते मा सकट विस्तारा ॥
भाषा वचन पुरूष उचारा । सो सब सत्यलोक व्यवहारा ॥
भाषा बोर पुरूष उच्ारा । सेवह सत्यखोकके द्वारा ॥
श्वासा सार तार जोरि आना अधर अमान ध्वजा फहराना ॥
भाषा स्वर बानी अङ्खुमाना । श्वास सार तार जरि आना ॥
निमिष माहं अनेक संचारा । बचन समान श्वास शु्ारा ॥
नाब स्नेह _ शब्द म॑क्षारा । (बचन समान श्वास यजारा)॥
श्वासा नेह देह भई जबहीं । भाषा सहज बचन भा तबहीं ॥
आगेकी उत्पत्ति प्रकार
प्रथम सकी निकक्षी खानी । उपजे सुत सुकृत सम आनी ॥
निमिषनेद प्रसन्न सुधारे । नाममूकु टकसार् उचारे॥
भो विस्तार निमेश्च एक गय । १ 0,
मूलगुप्त मस्तकं निं देखा । आदि नाम अमरघर रेखा ॥
पेडके गहे मूर धतु गाजा । सोई भर पूरु फर खगा ॥
चडि गये मूल ओं शाखा । मूर मिरे तबदहि रचि शाखा ॥
गुप्त मूर्ते प्रकटी शाखा । पव भूल पड गहि राखा ॥
पेड देखि पव फलव । पव फेरे अन्त नरि पावै ॥
पटव चदे पेड़ चित राखा । मिले सूल तब फररस चाखा ॥
आदि अन्त दुह पेड समाना । आपहि राखा आप पटिचान ॥
जागि सुरति पनि पेड निदारा । फटरसि चाखी बीजगहि डारा ॥
बीजाते सोई फल रोह । फर रस लेड म तनि ई ॥
जागि सुरति सपन मिट गये । दुह चितमेटि एकचित भये ॥
श्ास्खञ्ार (९ )
दृजी श्वासा प्रथुकी देहा । उपजे सहज खख नेहा ॥
तिसरी श्वासा एर सनेदी । जाते भई हमारी देही ॥
देह महि द्रे रे विदेदी । देह मन भये ज्ञान रस देदी॥
काये काया रदी वाका । सब चौथी श्वासा प्रकाशा ॥
काया अविर अविर बास्रा ¦ )) #
चौथी श्वासा निकरे चाहा । तब चिता उपजी मनमाहा ॥
विता प्रकट भई दिक जबहीं । आपते आप अुखाने तबदीं ॥
आपु शरीर आपु तब आका । बिमर प्रकाश उदितं तन ताका॥
कायाहप भई उजियारी । निम॑ंर्देह बिषरू तन भारी ॥
बिमल प्रकाश कीर्तीं जब देखा । ब्ण॑त बने न ताकर केखा ॥
बिमरू प्रकाश किरणजब देखा )) 1) १)
कृला अनत अत नहीं पव । बरणत जिह्वा लक्षण अवे ॥
देखत शूप लीला अधिकारा । आप आपनपौ कीन्ह बिचारा॥
कृमटकरि महँ मा उजियारा । देखा आदि अंत विस्तारा ॥
आपु बरन सब देखा जबदीं । दुबिधा शूप आं भई तवबदीं ॥
कमल आंकी प्रथु देखा जबहीं । हमरे हूपको दो सर अबदीं ॥
इतना कहत बार नहीं लाये । निकसि कमल्ते बाहर आये।
छोडी कमल प्रु भये निनारा । तबदीं कमर भया अंधियारा॥
कमल श्चँकि देख्यो सबन्यारा । भये तिमिर तनतेज अपारा ॥
अंधकार प्रथु देखा जबहीं । काया ज्योति मिन भह तवहीं॥
निमिषि एकमे संशय अवि । निमिषि एक आनंद जनाव ॥
विस्मय इषं ॒दोड एक ठऊ.। एक पुरूषकर दोउ सुभा ॥
आपुते आय भया अतिचारा । तेहि अवसर प्रथु वचन उचारा ॥
उटि अब जो शब्द सतभाऊ । केमल्मध्य कस शुन्य रहाञ ॥
घरही वचन पुरूष संधाना । तब चौथी शासा बंधाना ॥
( १०) बोधसागर
तेज पंज भौ गं शरीरा । एकी नार्देखा बरु वीरा ॥
कसर नार धरि एका जबही । चौथी श्वासा निकसी तबही ॥
पका कमर तेजके नेहा । चला प्रसेव पुर्ूषकी देहा ॥
फूकत् कमर बार नहि रागा । भय उजियार तिमिर सब भागा॥
कारण कारु पट यहं धोका । दुई चित मूर तेजमदं रोका ॥
चौथी श्वासा विषयी सनेदी । सोह विकार धर्मकी देदी॥
सोई विकार तिमिर अधिकारा ता संग भयड धमं ओतारा ॥
तिरी श्वासा य॒प्तहि राखा । तासो जोर निरजन भाखा ॥
पूकत कमर तेज गरि गय । तेहिते काल ज्योति धरि मय ॥
महा बलि देदह धरिके वेग । जानो ध्म॑हीं रौ जेट ॥
तेज रुगन श्वासा अब्वसारा । ताते धम॑राय बरियार ॥
तेजतिमिर संग ्ुन्य निवासा । सबतर भयो कार प्रकाङ्ञा ॥
समय-आसा धरे बहुत दिन बीते, प्रेम भक्ति रोलीन ।
आश धरे बहुतथुग गये, भक्तिमावं आधीन ॥
(ज्योति दौ लगिज्वाल्तेमाखा। तेहि ते नाम निरञ्जन राखा) ॥
निराकार आकार धराये) जोति काल बहुनाम कदाये ॥
चौदह द्वार काल जो भाखे। सुनि सो सेनाम मन राखे ॥
सांक्रित अण्ड भयो प्रचंडा । एूटत अण्ड भयो बहु खण्डा॥
चौदह बुन्द अमि ठरि गयऊ । चौदह अश तादिते भय ॥
चौदह पौरिया ठरि बैटारा । इन चौदड बहु ज्ञानपसारा ॥
आपसमान सवे रि राखे । चौदह कोटि ज्ञान तिन भाखे ॥
चौदह अंस धरम तदं पाये । ते चौदह विद्या तर पाये ॥
वही चौदह अगम अपारा । तापर कारु धरम बटपारा ॥
धरम समाधि चितदी यमधारा । चोदइ मोह को तनवारा ॥
श्वास्चयआार ( ११ )
ताकी कला करै को पारा। जेहिके युतकोटिन उजियारा ॥
कोटिन कला केरे बह भारी । आगहि पुरुषं आपही नारी ॥
आपहि वेद आदी वानी । आहि कोटिन ज्ञानबखानीं ॥
आपं अजर अवै गाह कवे । शूर नाम गहि धोख ठ्गविं ॥
नाना ज्ञान कथे बहु बानी । प्रकटो आदि आयपय्चणजानी ॥
कृ गि कहो ज्ञानके भा } बहत कार बह नाम धरा ॥
सुरति सरोतर जागे नाहीं । मनपथ पवन चञ्चला तादी ॥
एक पाव सन्शुख खड, कर जोरे छौरीन ।
एक पाव सन्धुख खड, कर जोरे आधीन ॥
धर्मदास वचन-चौपाईं
धर्मदास विनवे चितलाई । समरथ मोहि को सथ्चाई ॥
(धरमदास विनवहि कर जोरी । दया करो श्रु बन्दी छोरी ॥
वमरइ उत्पति जस पाई ११ १ )) ॥
ऊपजै तस॒ भये कसाई । उपज्यो चित चंचल दुखद्ई ॥
पुरूष तेज सम न्य संचारा । ता संग भया धमं ओतारा ॥
शीर विकार सहित तन पारं । प्रथमे भक्ति दजे अन्या ॥
भिति कियसिजब रहा अकेला । अघके संग मया अपेला ॥
सो अघ उन कैसे पाई। केहि विधिषुरूषताहिनिरमाई ॥
साहब कहौ भेद ससुञ्चाई । केसे कन्या पुरूष बनाई ॥
केसे धर्मराय तेहि पाईं। तौन मेद तुम कहो युसांडं ॥
कौ विचारि दो कर भा । दुह कर जोरिके वन्दो पा ॥
सतर वचन
धर्मदास भँ तुम्हे रखावो । आदि अन्त सब भेदबताओ ॥
चौथी श्वासा संग अधिकारी । श्ुन्यते जग भये उजियारी ॥
पुरूष कमलप्र बैठे आह । गहं गमं उपजी शितराई ॥
( ३२ ) नोधसागर्
पुरूष कसरुप्र बेटे जबहीं । परिमर उदित भया तन तबरी॥
शीतल पवन सोहावन खानी । मू कमटर्षर आसन उनी ॥
सिदासनपर सत्य विराजे । पार सनेह देह महे गाजे ॥
पारस तेज मया तन माही । पैँचईं श्वासा उपजी तादी ॥
उपजन श्वासा देह निहारा । तन पसेव मइ मरु निनारा ॥
काया चैर पुरूष जब जाना ¦ मीजी मेर अबला बर्ठाना ॥
गणड तेज भा अवर शरीरा ¦ पे महं स्वास. गंभीरा ॥
तेहि स्वासा सग पारस मारी । कायाते मथि मेरु निकारी ॥
तनते मेरु काटि प्रथु ङीन्हा । सोहं मेख रचि पु्ी कीन्हा ॥
करी पी कर उपर लीन्हा । उपज्यो प्रेम सहजको चीन्हा ॥
महं पुरी प्रथु देखा जबहीं । सुरति कीन्ह पारसके तबहीं ॥
नि्मर पारस श्वासा पचा । रहा सभारा मेखकी बचा ॥
आप मेल्ते श्वासा कन्द । ता उपर बहुरंग जो दीन्ौँ ॥
देके रंग बरन सब फेरा। भीतर मेर मोह समद षेरा॥
उप्र शोभा रंग बनावा । भीतर खार रंग तेहि छवा ॥
पांच अमीकर पांच सुभा । पौँचतत्व तेहि संग बनाऊ ॥
वांच अमीते पुरूष शरीरा । ताते णांच तत्व भए धीरा ॥
चाच अमी ते तत्व बनावा । पांच अमी तेदिसंगनिरमावा ॥
पांच तततव ॒पांचो व्यवहारा । तेहिते मय सकर विस्तारा ॥
पुरूष मेरुते पु्ी कीन्ह । पांच तत्तव तेहि भीतर दीन्हँ ॥
अपि सुरती ते पुती कीन्हा ११ ११ ) ॥
भीतर बादर तत्व पसारा । पाचों तत्व रग अधिकारा ॥
पांच रंग तत्वकी धारा । चौथ तत्व रंग बहु धारा॥
पांच तततव पाचों रग भारी । पाचों रंगते कला पसारी ॥
तत्व रगते लीखा धारी । पांच तत्व परचों रंग धारी ॥
श्वासयआआर ( १३ )
तत्व रंग बह लीला धारी पुत्री बहुत विचित्र सवारी ॥
तासु कला अनंत पसारी । ताते बहुत अहं विस्तारी ॥
व्रणि न जाय हप उजियारी । खन धर्म॑नि नैं कहौ विचारी ॥
काल अनंत प्र पुञी कीन्हा । पार्त सार ताहि मै दीन्हा ॥
उत्पति पारस युजी पावा । भरकटी कला अनंत भावा ॥
नवशिख देहयुधा प्रघ कीन्हा । वचं श्वासा भीतर दीन्हा ॥
जब धासा काया यह आई । प्रकटी ज्योति जगाम आई ॥
अजब अङ्ग बना बह रंगा) पारस सार ताहि के संगा॥
निर्भर उदित ताहि सो देता । चमक बिजली कला अनंता ॥
तत्त॒रंगकी उठे तरंगा । शोभा विशद मनोहर संगा ॥
पँचई श्वास जब बाहर कीन्हा । उत्पन पारस ता संग दीन्ां ॥
श्वासा परस मिलि भये एका । शोभा वरन हप रख ठेका ॥
उपजी कन्या कला अपारा । हष अत्र भया उजियारु ॥
जव कन्याप्रभु उत्पन कन्द । पांचो श्वासा तासङ्ग दीन्हा ॥
ता शवासामह पारस भारी । वांचतत्व सङ्क देह सवारी ॥
उपजी कन्या अगम स्वभावा । अराग कडि पुरषं बुखावा ॥
आरे अङ्क बना निरवाना । शोभा सरति शूप सुख साना ॥
जब कन्या प्रथु देखा हेरी । का अनंत पकी देरी ॥
देखि ङ्प चितहरषित कीन्हा । उत्पति पारस ता संग दीन्हा ॥
जानै शब्द् शूर रहि वासा । सरतिनिरतिकीन्हां तहां पासा ॥
पुरषं रचा जब आपु शरीरा । उपजी खरति निरति गंभीरा ॥
कायाके दकल्के व्यवहारा । जो चाही सो सबही सुधारा ॥
दहिने अग तेज कर दाऊ । बाये शीतर सबे सुधा ॥
भध्यम पुरूष ॒सुरति अक्रा । ताहि सुरति संग पारस परा ॥
तादी दिनि तीनों शण ठ्य । ईंगरा पिगखा सुखमन किय॥
( १९६) नोधसागर
तीनो घर कर तीन सुभा । शीतर तेज सत्यकर भाऊ ॥
असी अथ्रभा तेज शरीरा । उपजे चंद्र सुर दोऊ वीरा ॥
अथतेज ओ सत्य सुरणा । तीन शक्ति उपजी तेहि संगा ॥
कला अनता शक्तिके पासा । लीखा बहुत विचि प्रकाशा ॥
तिनह संग अरै द्वो वीरा। इक शीतल इक तेज शरीरा ॥
तीनो शक्ति अंग दोउ वीरा । काया सथिकथि कहै कनीरा ॥
अभयदहि शक्ति है चन्द्र सनेहा ईगला नारी संग उरेहा॥
उरगनी शक्ति रहे सुख मरना । चैतन शक्ती सुर्यं॑प्रमाना ॥
सबसे मध्य जहौ सुरति तरंगा । सुरति निरति कायाके संगा ॥
नख शिख ज्योति विराजे अगा । शोभा विशद मनोहर संगा ॥
पांचतत्व तिया रक्ती राजे ताहि सङ्ग दोय वीर विरज ॥
तच्वरंग शक्ती न घर कीन्हा । तेहि महं उपजनि पारस दीन्हा ॥
उपजनि पारस भा परसंगा । उपजी ज्योति कटा बहुरेगा ॥
पचईं श्वासा देह समाई । उपजी हपकला अधिकारं ॥
जागो देद अखडित अगा । शोभित महं कला प्र्तगा ॥
उपजनि अङ पुरुषके संगा । भाखों मेद कला बहु रंगा ॥
जब कायामो आई श्वासा । जागि ज्योति पुहुप प्रकाशा ॥
उपजा रूप अखंडित बानी । बोले बचन पुद्षकी खानी ॥
मधुर बचन ओर रीला धारी । देखि हप तब पुरूष दुखारी ॥
हये मधुर धुनि लीला धारी । वचनदूप खि आप दरारी ॥
समय-पांचतत्वतिये शक्ती संग, चन्द्र सूयं दोड वीर ।
तीनों घर श्वासा रमे, बाहर भीतर तीर ॥
चोपा
उपजी शूप रग की खानी । बोरे अमी विरहकी बानी ॥
उपजी कन्या कला अनरूपा । पुरूष उत्पन ओ पुरूष स्वरूषा॥
श्वास्गु्ार @ 9
जेदि पारस सष उत्पत्ति कीन्हा । सो पारस कन्या कदं दीन्हा ॥
पारस हाथ महा बल जाना । तब कन्या कभा अभिमाना ॥
उपजा रग रोष गंभीरा । वटी अमी सरोवर तीरा ॥
यहि विधि सोरह् स॒तनिरमाया । चिन्न भिन्न अस्थान बनाया ॥
जेहिको जेता तन विततार । तेहिको तेसा खोक धारा ॥
काटको रोक सत्ताईस दीन्हा । काको सात पांचदशचीन्हा ॥
काहू चौदह काट बीशा) काहू सरह काट उनीशा ॥
काहूके बारह पन्द्रह तीसा । काइ इकडस बाइसं चोौवीसा ॥
काहू छतीस बतीसहि भारी । दीन्हीं वासर भये अधिकारी ॥
सब कह दीन्दों लोक बनाई । आषु रई भरञुं अछ्प छिवाई ॥
उत्पनि पारस पुथिहि दीन्हा । सौपिड तेज ध्मं॑सोँ लीना ॥
ताते धमं भये बी बेडा । वैठो सात द्वीप नौ खंडा॥
जिहि बिधि रचनापुरूष बनाई । तैसी कला धमं निरभाई ॥
रचना रचि मनम पछिताई । न्य शरीर जीव कहँ वा ॥
जीवन बिना जीव नहि होई । रचि अस्थल बैड शख गोहं ॥
जेिविधिरचनापुरूषदिकीन्दां । तंसहि धमं रचा सब चीन्होँ ॥
पुरूष संम।न रची अस्थाना । वेटि शन्यमे करे अतुमाना ॥
जेहि पारस प्रथु रोक बनाया । सो पारथ प्रथु कहां पाया ॥
सो पारस अब कहौं पाऊं । जेहि पारसते जिव निरमाॐं ॥
हैरत॒ पारस आये तवां । बेटि सरोवर कामिनि जहवौँ ॥
कामिनि धर्मं भये एक ठ । अंकमिखाय कीन्हबह भा ॥
शीर रंग रस कीन्ह मिलापा । धम रोष हो कीन्ह विलापा ॥
करे विलाप कला बह भारी । अख चतुराई इदय विकारी ॥
कामिनसों कीन्हों व्यवहारा । उपजा रंग शूप रसधारा ॥
धमं कहै कामिनिसो बाता । गहै अग चमकावै गाता ॥
( १६ ) बोधसागर
कामिनि देह कामकी खानी । बोरे मधुर बिरहकी बानी ॥
उपजा मोह महा मद् भारी । कामिनि कामकला असारी ॥
देखि करा अजुसार थुखाना । व्याङ्कुल भये रंग अभिमाना ॥
कामिनि देखि घमं अकखानां । उपजा रग रोष अभिमाना ॥
घमं कहे कामिनिसो बानी | तोरे है पारस सहिदानी ॥
सो पारस अब तुमरे पासा जाते पूजे मनकी आसा ॥
सो पारस देह मोरे हाथा । तुमह रदो हमारे साथा ॥
धसेराय जब कही कुवानी । तब कामिनि चितशंकानी ॥
कामिनि कहै धघम॑सों बानी । काहे धमं होड अज्ञानी
इम तुम एक पुरूषकर कन्दा । तुमकर्ददीन्दसोदमहुकोदीन्हाँ ॥
हम ख्हुरे तुम जेठे भाई । हमसों कडा करह अधिकाई ॥
), । एकं नार कुबारग वानी ॥
बहनिरि भाहि दोत कुबानी । आगे चलिहै यहि सहिदानी ॥
जब कामिनि कही अस्बानी । धमराय चित इदुबिधा आनी ॥
कामिनि चल हमारे देशा । कहा कर मानह उपदेशा ॥
छर बरु कृरि अपने पुर खावा । तदं आनिके रारि बढावा ॥
धमराय कामिनसों बोला । शोभा ख॒रति अमीरस डोखा ॥
निरखि नेन कामिनिसों बोरे । शक्ति अधीन बेन बह खोखे ॥
सोखह शशि कला शशि परी । तीनों शक्ति कर द्री ॥
नेन निरखि मृति होय ञ्जकि। तत्व निःतत्वं आप तनताके ॥
विधि छेखाइवधिकविधि बोरे । निरखत अंग २ तव डोरे ॥
अतरगति विधिविधिदिमनायो । कुमति हाथपरसाजनिआयो ॥
विधि वर दीन्ह बुन्दच्ुकं आई । वितमकार एक रच्यो उपाई ॥
यहि पुर एक अचंभो ठ्य । पारसको सुप्रताष जनये ॥
इच्छा ङ्प दषं ॑चित जागी । श्वेत सरोवर वार न लागी ॥
श्वास्चखञार (१७)
भ्रूल्यो धरम चितहि अककलाना । देसो सरवर मैं नहिं जाना ॥
अक्षयअयूनिविधि पारस्षयामा । कडा अचम्भो आनिदलाना ॥
देखो तेहि पारसको चीन्ौँ । जेहिते मानसरोवर कीन्हा ॥
चुर मलीन उदय शशि जोना । बानी बरन अग तुअलोना ॥
जादिन पृक्षं रचा तुअदेहा । तादिन मोहि तोर चरासनेडा ॥
मों कारण तदि पुरूववनावा ! तू इरूमोते अग चछिपावा ॥
तोहि कारण यै रचना कन्द । रचिकेखानितोहि चित दीन्हा ॥
न १ , 1 मोहि कारणतौर्दिरचनाकीन्डौ॥
देहनात हमरे धर नाहीं। हम तुम रहै एक चर माहीं ॥
उत्पति पारस तमरे पासा । जते पज मनकी आसा ॥
देहं सवै हम रचा बनाई । पारस दं छम ह जियाई ॥
हम तुम खानि रची बहू बानी । जाते होय ना एकौ इनी ॥
जैसी रचना पुरूष प्रकाशा । तैसी रची लोकं रदिवासा ॥
जीव सीव रचि खानि बनाई । जाते ज्योति ज्ञान फैखाईं ॥
( जीव रची सब खानि बनाई । जागे ज्योति ज्ञान फटा ) ॥
लाज संङचि ओ स्वी सगाई । बरण बिचारि इत बिगराई ॥
ठाव ठाव रचि राखी आपा । माता पिता शोक संतापा ॥
शज्युर भशर ओ भमित भाई । शिवशक्ती रचि पूजा गाई ॥
१ 1 ,) । हंसन खाज माव नात रवैधाहइं ॥
रची अचार कपट विस्तारा । तीरथ ब्रत प्रतिमा देवहारा ॥
9) ११ १ । तीरथ व्रत ओं नेम अचारा) ॥
वेद कितेब धरि फंद रवार । रची दीनो वोय पवेत भारी ॥
हओं दीन इए राह चाहं । ञ्चगर करे रहै अश्ञ्ञाईं ॥
एक एकते रारि बाहं । मुक्तिपथते रै युरखाई ॥
दोउ दिन बौँधी मरजादा। रची बाद ममताओस्वादा ॥
१ बेट ) बोधसागर
एटि विधि रची सकर दुनियाई । रोभ मोह राल्च बरिआहं ॥
रचि खानि करिय रजघानी । राज पाठ सिंहासन ठानी ॥
त॒म आद्या अर् हम अभिमानी । बारह खण्ड छह ोकके बानी ॥
( त॒म अश्च इमदही अविनाशी । बारह खण्ड छः रोकके वासी )॥
पाप पुण्य दोए रची अपारा । जाक सेवे यह संसारा ॥
पाप पुण्य खट फन्दा होई । जाम अर्चि रहै सब कोई ॥
योग ज्ञान ब्रत संयम पूजा । सोरहमहीं ओर नर दूजा ॥
रवी श्धा मायादि विकारा । पुङ्ष रोकको भूदिये द्वारा ॥
रची कोच माया विकरारा । पुङ्ष रोकको शयो द्वारा ॥
पुरुषरोकं इर रचि लीजे । इकछत राज हमहि तुम कीजे ॥
तुमरे, संग दहै पारस सूरा । जते होय सकर विधि पूरा ॥
जेहि ते रोक पुरूष प्रकारा । सो षारस है तुमरे षासा ॥
सो पारस अब हमको देहु । रंग हमारा सवै तुम ठेहू ॥
कामिनी के वचन बुद्धि धीरा । उपजेह कालप बरूवीरां ॥
जो जो वचन कडेड तुम भाई । सो हमरे चित्त एक न आई ॥
पुरूष रोक कस शुदा इदयारा । ठे आरापए अपने शिरभारा ॥
जो छल हमते कीन्दहु भाई । तसो छर तुम्ह युगतहं जाई ॥
पारस कामिनी धरा दुराई । हाथ मे शिर धुनी पछताई॥
हाथ मिजि छिन छिन पछिताई । केडे कामिनि धममहि सञुञ्ञाई ॥
कामिनि कहै कुबुदधि समञ्ञाईं । दम तुम चल पुरूष पं जाई ॥
बकसे पुरूष दयाकरि तोही । शीश नवायके लीन्हसि मोदी॥
बिन दीय बरिआईं ठे । पुरूष कोक पुनि जाए न पेौ॥
कामिनि कडा वचन परवाना । ध्म॑रायके भयो अभिमाना ॥
कामिनि तोरि उदधि है थोरी । अबना जाऊ पुर्षशकी खोरी ॥
घुरुषलोक इदं रचि राखा । रच्यो विचारि बुद्धि बरुभाखा॥
श्वास्तग्ार ( १९ )
अब तौ पुर्षत्रास्र नदि मोदी । गह वादको राला तोही ॥
ते कृन्या का उहकति मोदी । स्वा पुरुष मम कारण तोही ॥
(तं कामिनि कृटोर् निमी । ) 9१ ११ 2) ॥
पिरे वचन विरहते बोली । खामी कठिन कामकी मोटी ॥
काम सतावै निश दिनि मोही दे पारकं लर तोही ॥
कामिनि कहै घर्म सुबु बाता) चडि कालिमा तोहरे गाता ॥
हठ निग्रह कामिनि किह ताह । ध्मशाय पक्री तब बही ॥
गदी बाह कामिनिकी जबदी । काम बाण चट व्यापे तब ॥
धर्मरोषं कामिनिषर कीन्हा । गदहिपगशांसलीरतेहि लीन्हों ॥
लीलत कामिनि शब्द उचारा । पुरूष २ कारे कन्हं पुकारा ॥
कामिनि पुरूष नामजवब लीन्हा । आज्ञा पर्ष अशही दीन्हा ॥
गोगजीत आये तेहि वारा । सतं बान सो कारहि यारा ॥
पुर्ष कोपि तापर कीन्हा । कन्या उगलधर्मतब दीन्हा ॥
(उगली कन्या बाहिर आई ।) > + „> ॥
हाहाकार रोषके धावा । कामिनि पारसकृहां चोरावा॥
कामिनि कम्प देख विषधाा । षारसं मानसरोवर डरा ॥
मानसरोवर अल्ते अंगा । गयडउ पता जहां जलरंगा ॥
परीक्षा चार पारस प्रवाना । उपजी चारखान निरवाना ॥
एक प्रीक्षाते सरबर गय । पारसके सम पारस ठउ्यऊ ॥
दूजो अश मयो निरबाना । शिला सिध पवेत परमाना ॥
रतन शिखा ताहिकी धारा। सो पाजी वारे संचारा ॥
तीसर अंश नार प्रगटय । अंशहि अंश चरयुन भयऊ ॥
चौथा अङ कामिनि अनुमाना । जाते स्वगं नकं परवाना ॥
अश्रि अंश अशते मानी । एक प्रती चौगुना उतपानी ॥
चार २ शण गुणहि समाना । अशते अंश च परवाना ॥
( २० ) नोधसागरं
पारख सानसरोबर मारी ! पारस बुद्धि आपरी आदीं ॥
पारस कामी न बहुत इुरावे । सुतं सनेद तहां फिर आवे ॥
पारस अत नाहे ठहराई । बासशूप कामिनिसंग धाईं ॥
कामिन कारूषुङ्ष पद् प्रसे । पारसनीर ने मह द्रसे ॥
नैन निरख सूरत अराग । घमं अंश कामिनितन लागी ॥
पारस अंश चिते नरि डोरे ! बहुरि २ कामिनसों बोरे ॥
पारस अशवट रञ्चा छपाई । निकसी कन्या बाहर आई ॥
जेहि कारणकामिनि इठ कीना । पारस संग छन सो रीना ॥
उत्पत्ति पारस धमं तब पावा । कन्या रदी तारके गंवा ॥
जब कगि कन्यां मइ सियानी । तब खमि धमं रची सब खानी ॥
खानि वानी रचि कीन पसारा ' बेदवाद् बहुमत विस्तारा ॥
दोहा-रचना रची लोककी, शशि घर रहा समाय ¦
पुरूष नाम जाने नदीं, ताते रोक न जाय ॥
(रचा रची खोककीं, नख सिख रहा समाई \)
पुर्ष नाम जाने विना, सत्य लोक् नहिं जाई ॥)
चौपाई
पुर्ष नाम ज्ञानी जो पवे। लोकं दीप पलमोंि ठदहावे॥
पुर्ष नाम जाने नहि भेद । रचे खानि चौरासी फन्दा ॥
५) )> (चित च॑ंवलओंअन्धअमेदा) ॥
दुख सुख सबे र्वी बहूर्भाती । जरा मरण पूजा ओं पाती ॥
रचि सब खानिवेहि अभिमानी । तब गि प्री महं सयानी ॥
उपजा जोबन रसको भावा । तब कन्या कह विरह सतावा ॥
कामिनी कदे धमसो बानी । मतो तुमरे दाथ बिकानी ॥
सतं डोला एके पारस लीन्हा । मदन भुवद्गमके वसि कीन्हा ॥
जोबन बिरह महामद गाजे । बिज्चु संयोग गभं नहिं ऊजे ॥
श्वासगुजार ( २१ )
मोह मदाद्चर बरे लागी । मन समाध कामिनि सों लामी॥
ग्भ कयि भा करदी राजा कामिनि सोह इह दिशवाजा ॥
मनसालदर उद् मद् मन मण । काम दहन धन आहत दये ॥
उपजा मदन मोह ओंगाहय । पुत्री पितासों भयड विवाहा ॥
साखी-बहनीसे बेटी भई, बेटीसों मह नार ।
नारीसों माता मई, भनसा छहर पसार ॥
चौपाई
बरबस धर्मराय हरटीन्हा । बिन छ्ेखा रजधानी कीन्हा ॥
विषया वेद व्याह जमनाता । चौदह कारु संघ उतयाता ॥
चौदह पारस ठोक निसानी । शब्द व्याह चौदह यमहानी ॥
मनसा व्याह -देव तिषरगधी । हसना इस भगत गवी ॥
सुरत हस धट रचो विदानी । धमं समाध वसा आनी ॥
उपजा मदन मोह ओगाहा । कन्या पिताहितबभयाविवाहा॥
(कन्या व्य्ङ्कट भहं तेहि माहा ।, १) १) ) ॥
धमराजको उपज्यो भावा । कामिनि हदय हाथ बतखावा॥
उपजी रंग ॒रोषकी खानी । कामिनि चरण गहो तब जानी॥
मनसा हरि ताहि तेह दीन्हा । उपजी तीन खोककर चीन्डा ॥
काभिनि संग करे सुख भारी । उपजा तीनि रोक अधिकारी ॥
तीनि शक्ति पुरूष संघ दीन्हा । तीनों सत॒ उपजवे लीन्हां ॥
(पाच तत्व तीन यण चीन्ां ।) १) 2 १३ ॥
तीनउ सुत उपजे बहुरंगा । पारस रहा धर्मके संगा ॥
(पारस रहा ताके संगा।) ” "2 )
तीनहुं सुत उषपजे अधिकारा । धर्मराय तव भया निरारा ॥
तीनों सुत कहं दीन्दी भारा । धर्मराय उच भये निरारा ॥
राजपाट कामिनि कदं दीन्हा । आपन बास श्न्यमर लीन्दां ॥
( २२ ) नोधसागर
कामिनि दशे सदा रो खव । राज पार सब कीति बना ॥
99 न १) ( । तीनों सुतको राज सिख )॥
राजं नोति सुत चित्तहि धरदीं । मनसा ध्यान पिताको करदीं॥
खोजत खोजत बह युग गय । पिता पुसो मेर न भयऊ ॥
ध्यान धरत बहते युग गय । ) / छ ¢
कामिनि पुरूष एकसंग रद । सूतकी बात पुरूष सों कृटऊ॥
वहांकी बात न सुतसों माखे। केरे इखार सदासँग राखे ॥
इदि विधिबहुतदिवसचखिगयॐ । सुत न खोज पिताकर कियऊ॥
धरत ध्यान बहते युग गय । पिताको खोज करत तब भयञ॥
मातासों प्छे सुत बाता। पिता हमार क्लं गये माता॥
माता कहै स॒तन्हसों बानी । पिता तुम्हार महं नहिं जानी ॥
रचना सकर हमहीं होई । हमसो दूसरा ओर न कोई ॥
रचना सब मोदीते होई । दूसर जान परो नहि कोई ॥
हमदी पिता हमही ह माता । इमी तीनि रोककी दाता ॥
मदां छांडि कोड दूसर नादी । तुम जो पृं सो कहं कादीं ॥
तीन लोक महं दूसर नाहीं । माता कपट करै मन मारीं ॥
तब सुत सोच कीन्ह मनमाहीं । पिताका भेद बतावत नाहीं ॥
आपु आपु कह सुत सब टे । माता वचन कटै सब ञ्जूठे ॥
तब माता कटै बचन रिसाई । पिताको दरश करहु तुम जाई॥
माता कहै पूर ले धावहु । पिताके शीस परसिके आवहू॥
पुटप सामापि वासरे धाओ । पिताके शीस परसिके आओ॥
चरे पु पिताकी आसा। पिता रहे पुजनके षासा॥
खोजत बहुत दिवस चङि गयऊ। पिताको दशे कतहु निं भयञ॥
तीनों सुत सो दरशन भयऊ । "2
पिता निकट सुत दरि सिधाये । खोजत कतं अन्त नहिं पाये ॥
$वासगज्ञार ( २३)
खोजि थाकिं माता पहं आए । काइ सोच काह श्चंठ छना ॥
ब्रह्मि भाषा शठ सदेशा । सङ्कचि वचननर्दिकहेवोमहेज्ञा॥
भाषा विष्णु सत्यकी रेखा । खोजि थाक पिता नरि देखा)
माता बिर्ेसि कदी तब बानी । ब्रह्मा ठ इ्ूढ तौ खानी ॥
शिव लजाय शिर नीचे राला साच ठ ठको नहिं भाषा ॥
ताते करहु योग॒ तप जाई । जटा बढाय विभूति रमाई ॥
( तुम सुत करो योग तप जाई । शीश जटा तन भषम चडाहै) ॥
रेह आमण्डल भेषसो कीन्हा । शिवको थापि भवनी दीन्दा ॥
साखी-जप तप योग समे इड, अगे ध्यान पसार ।
माना कद्यो कोष करि, चतुरखंखं अन्ध अहर ॥
भातहि कीन्ह विष्णु षर दाया । श्ुखहि यके कण्ठ ख्गायां ॥
सत्य वचन सुत बोलेड बानी । तनह खोक करहुं रजघानी ॥
शिव ब्रन्मा करिह तोर सेवा । गण गन्धव ऋषि स॒निं देवा ॥
ब्रह्मा मोसों ड ल्गावा । तेहि कारण विधि ञ्ुठ कंडावा॥
ब्रह्मा वेद पढे बहु भांति। इकरम कर दिवस ओ राती ॥
( विद्या वेद षड बह भाती । कुकरम करे दिवस ओं राती)॥
एहि अवयण गायत्री गाई । बह्मा दोष शाप तिन पाह
मृत्यु लोक गो धरे शरीरा । अघ अगते चौरासी थीरा ॥
गोय होय नारी कल्यारी । अघ निचोए होए पातक भारी ॥
जहो लग पुटप खान परकाशा । निरधिन ठरे त्हारो बासा ॥
जुटी बात वेद मे निर्माहं। च्यार वर्णम बड़ी बड़ाहं॥
पिरे चारों वरन पुजव । दक्षिणा कारण गरा कटावे ॥
गरा कटाए करावे प्रजा । गाये समे जह्मा नदीं दूजा ॥
लए भंड पडिवो रमाह । ब्राह्मण भए सो कार कसा ॥
( २९४ ) बोधृसागर
खाए अखज चरे एडा३ । जस मडवाको शान अघाई ॥
ब्राह्मणहूको अदी आसा । हरि नरि भजेन हरिके दासा ॥
कहके भिर ब्रह्मा कंरोए । उत्तम जन्म षाय जड खोए ॥
जूटठी बात वेदं निरमाई। चार वरण आश्रमर्दि दा ॥
ऋषि अगसी सहस्र बखानी । ते ब्ह्माके सुत उतपानी ॥
जेते ऋषि तेते मतधारी । अस्तुति करि हसेव तुम्हारी ॥
ब्रह्मादिक सुनि देव गण भारी । अस्तुति करि विष्ण तुम्हारी॥
निशिदिन ध्यानपिताकोधरिहो । किंचित ध्यान जोतअञ्सरिदो ॥
साखी-बिचक्ि गयडउ निजनामको, गहे कुमारग जानि ।
तीनलोकं गुण विस्तरेऊ, निरन आदि भवानि ॥
चोपा
कहै कबीर सुनो धर्मदास । दोऊमिखि यह मत परषाशा ॥
यह सब खेर कामनी कीन्हा । निरजन बास श्चून्यभौ खीन्हा ॥
ज्योति निरंजन ध्यान रुखाहईं । शिव ब्ह्याको मेद सुनाई ॥
सेव्हु विष्णु निर्न ध्याना । हे सुत वचन निश्चय मम जाना॥
ताते ज्ञान अगम फलाहो । जते तामस सिद कहा हो ॥
सिद्ध न कामत दोहै भारी । ज्ञान अगम रुण होहि भिखारी ॥
अंश दहन तन तामस भारी । असुरभाव पञ्च वासु वतारी ॥
मतपा खंड ठगोरी रोना । षट दरशन पाखंड खिरोना ॥
यत्र मन्त्र विखया अधिकारी । अन्तर ध्यान भक्त तुव धारी॥
तव गुण सहस नाम ऊचरिदहै । एक अंश चौसठ योगिन दोइदे॥
कर खपररे मंगर गेहे यह उपदेश महादेव देहे ॥
( शकर चिह्न इदै सोपेदं।) > १) ॥
रजरुचि सतग॒न दया समानी । असुरहतन भक्तन रजधानी ॥
आगम को संघ सुनि छिन्दे । जहां जसभाव तहांतस कीन्डेउ॥
श्वासय ( २५ )
चारि खानि ब्रह्मे निरमाई । चामहि त्वचा छ खौ लाई ॥
शिवको वरन मेद॒नहिं होई । क्रोधहूप धरि भेष विगोई ॥
मात विष्णुपर दाया कीन्हा । पिता दिखाय निकटहि दीन्ह॥
(अनुभव दया विष्णु परकन्हीं । )
पिताको दशी विष्णु जव पावा तब माता कह शीश नवावा ॥
माता पिता एक द्व गय । विष्णु देखि चित र्षित भयॐ॥
माता पिता एक मिलि गय । विष्णु समाय जोति मरहगयॐ॥
तेहि पारे जग सिरजे ठे । ताको वरण सविस्तर के ॥
प्रथमे चारि खानि निरमाह । लक्ष चौरासी योनि बनाई ॥
चारि खानिकी चारिउ बानी । उपजी तीनिलोक सहिदानी ॥
चारि खानि रचि कियो पसारा । चारि वरन गाखण्ड वारा ॥
(चोदहथुवन करयो विस्तारा ।
लक्ष चौरासी योनी कीन्हा । चारि खानि महं ठ्कदही चीन्ह॥
लक्ष चौरासी बचन बखाना । चारि खानि जीव एके खाना ॥
रचना रची सखा बहु रगा । सुर नर अनि गणका अतरंगा ॥
कामदेवकी का अनेगा । पञ्च पक्षी सुर नर अनि संगा ॥
कामकटा सबही भरमावे । शिव शक्ती संग काम लगावै॥
उत्पति प्रख्य रची अविनाशी । कामिनि काम कार्की फँशी॥
कनकं कामिनी फन्द बनावा । तेहि फन्दे सबही अश््ञावा ॥
कनकं कामिनी फंदा कीन्हा । चार खानिमें एके चीन्हा ॥
नर बानर कीर पतग संवारी । सबके सग करे रखवारी ॥
(नर नारि जत खान सवारी । सब धट काम करे रखवारी ॥
पड पक्षी जत कीट पतगा । रक्षकं भक्षक सबके सद्म ॥
श्वासा सार हेय यज्नारी । पांचों तत्व संग विस्तारी ॥
पांचों तत्व तुरं बर जोरा । तापर चदे साह ओं चौरा ॥
( २६ ) बोधक्षागर
चारिड खानि दोय शजारा । स्वासा चरे अखडित धारा ॥
देददशा जस पुरूष सवारा । तेसी देह रची करतारा ॥
पांच तत्तव तीनो शण साजा । आठ काठ पिजरा उपराजा ॥
( अष्टधातु पिजरा उपराजा ) ॥
पिजरामे सुगना एक रई । वाकी गति मञारी ठद्ई ॥
(यामध्य सखुवना एक रहई । दावपरे मंजरी गद्ई ) ॥
सुगना पडे दिवस ओ राती । रक्षकं पिजरा ऊपर संघाती ॥
रक्षक भक्षक सङ्ग रहावे। सदाः षवे घात रुगावे ॥
) एक चातकं एकं सुआ पदृावे ॥
जस सुअना पिजरा मह गदईं । एेसो देह पराण दख सई ॥
नख सिख रचा कार फुख्वारी । एूटी वास बास सवारी ॥
कनकं कामिनी कारु बनाई । चारि खानि महं रहा समाई ॥
कामिनि काम सवारे जानी । चारिउ बखानि रहा विकशानी॥
चारि खानि महं श्याम अमाना। कार कुरिलतेहि मादि समाना॥
काल कलाकी खानि बनाई । शिव शक्ती महँ रहा समाई ॥
(दया क्षमाकी खानि बनाई । नर नारि महं रहा समाई ) ॥
सुरनर सुनि सबही कह उदके । चारिखानि सबके चट महके ॥
चारिखानिकी सब उतपानी । जेतिकं तीनि कोकं सहिदानी ॥
तीन लोक श्वासा विस्तारा । स्वासाते भा सकर पसारा ॥
श्वासा संग काट अवतारा । विष अमृत दोनों संचारा ॥
श्वासा संगम काल ओकाली । श्वास संग भये वनमाली ॥
प्रक्रति पचीस सङ्ग जारी । पञ्च पांचदश मारु तमारी ॥
चन्द्र॒ सुर श्वासा संग परा । इगखा पिंगला सुष्मनि जोरा ॥
दोहा-श्वासा संग श्वासा, तेहिसे उपजा बरि आर ।
` चन्द्रघुथं दै श्वासामध्ये, सकर विधिविस्तार ॥
श्वासयओआआर ( २७ )
शिव शक्ति खुखधाम है जो चितज्ञानसमाय ।
सुखसागर अभिराम है, काठ््ासदरिजाय ॥
चोपा
चन्द्र॒ सूर जीवन सदिदानी । शक्ति शिवकी उपजे खानी ॥
(संयोग जड़ चित विदानी ) ॥
एक संग विष लहरी समानी । एक संग बसे अमृतकी खानी ॥
एक संग मन बसे अपारा । एक संग अमी जीव रखवारा॥
एक संग काम कोध इखभारी । रोम मोह पाषंड विकारी ॥
अकार खाल्च ओ ममता । चित्र ओछतिखाज प्रतिहता ॥
एते एक वीरके साथी । माया मद् जस मगर शथी ॥
एकं संग शीतल शीटघुमेषी । इकं संग छेमा सुबधि विशेषी ॥
एक संग भक्ति रहे हितकारी । ज्ञान विवेक संतोषं सुधारी ॥
दया ` दीनता निर्भय रमता । धीरज मतीसहज सुधि समता॥
दुई घर दुवो राव कर वासा । इक धर राह केतु प्रकाशा ॥
राह अमावस सूर्य॑हि भासे । आसे केतु पूरणीमा चीं फसे॥
दोड करे यहि भांति बसेरा । खन बाहर खन भीतर डरा ॥
( दोड करे एक नगर बसेरा ) ॥
एकहि रथ दो असवारा । बाहर भीतर मध्य दवारा ॥
पाचों अविचल तुर तुषवारा । ता ऊपर है जीव असवारा ॥
एक तुरे पिरे षट नेहा एकं नील रग दै देहा॥
कबेत एक लार बहु रगी । एस सब्ज इरियारे अंगी ॥ `
एक श्याम स॒श्की रंग भारी । पाचों एकते एक अधिकारी ॥
एक श्याम बदन कूपचारी । आप आप पाचों अधिकारी) ॥
पाचों बसे एकी संगा। एकी रथ मन जीव सुसंगा ॥
एक तब रे पाचों वासा। दाना घास पानीकी. आसा ॥
( २८ ) मोधसागर
पांसो पांच घाट जर पीवे। दाना घास खाए सुख जीवे ॥
पाचों तुरे परर परु धावे | छिनर्बोधदि छिन खोरि कुदावे ॥
छिनबादहिर छिनमोतर आवहि । पाचों पांच दंड फिरि घावरि॥
सुखरवर पार सो तवे क आवे । सकर पराश तवे ठे आवे) ॥
इ६ि प्रकार जादी ओर आवहि । कोई नियरे कोई दर सिधावदि॥
सुरग तुरे जोजन भरि जावे । सकि योजन उढ सिधति ॥
इरियर दइ योजन प्र जावे । योजन तीन पति पहंचावे ॥
देसा चारि योजन जो जावे) फिरिके दंडवत बेरे अवै ॥
(श्याम रग अवे नारि जाई) ॥
यहि विधि पाचों आवे जाहीं । अपनि अपनि भजिरूके माही
पांच तुरे रथ एक सुधारा 1 तापर मन जीवं असवार ॥
जीव पराहै मनके हाथा । नाच नचि राचै साथा ॥
पाचों तुरे होय असवारा । चेरे कारु कलीके दारा ॥
यहि धोखा गहि जीव थुलाना । सत्य शब्दको भाव न जाना ॥
सत्य लोकके तुरे तुखारा । ता पर सतशङ् असवारा ॥
हाहाकार करे चह भाती । करे शिकार दिविस ओ रती ॥
रथ ऊपर चदि तुरो कदवे । मारि जनावर छे घर आवे ॥
मारे बाण जान प्र तानी । नख शिर वेधे धाव न जानी ॥
ताहि जानवरके शिर नादी । ङ्धिर मांस देह नहि तादी ॥
देखत देदटृष्टि निं आवे । षिन देखे असमाने धावे ॥
( बिन देखे असमानहि धावे । ता घोकेमे जिव डहकावे ) ॥
पसा देखो जनावर जोरा । बन ओ नगर केरे घनघोरा ॥
एेसो विषम जनावरं भारी । मारि पारधी लीन्ह संभारी ॥
मारि जनावर नगर बसव वाहि ओर देहे बिलम ॥
एक नगर दुह रदे नरेशा । भिन्न २ दोनों कर देशा ॥
शास्यञजार ( २९ )
ताहि नगर दुह महल बनाये । दंड दरवानी तहां रडाये ॥
महा विकार दोऊ दरवानी । दो रायकी सेवा उनी ॥
केरे उतपन्न दो रजधानी । धर्मं धीर ओ आदि भवानी ॥
जो कषु उत्पति श्रमं होई । सो सब बांटि ठेहि चष दोई ॥
षारि खजाना धरै इराई । छेखा खरच उठावहि राई ॥
लेखा जानि खरच उठाई । ठ्ेखा खर्व उठते आई ॥
एक हवेली दस दरवाजा । अहृठ हाथ गढभीतर राजा ॥
राजा प्रजा सवेहि रहावे। इकछत राजं चङे नहि पावै ॥
दोड राहके श्र बता । बाहर भीतर भकट दिखा ॥
एक् घर वसे मोह वरप भारी । ताकी साज विषय अधिकारी ॥
दूसरे घर विवेकं बठधारी । ताकी सात सवै हितकारी ॥
इकघर राजा एकघर रानी । विधि संयोग भिव आनी ॥
एकघर सूर एक धर चन्दा । एकं तेज विष अशत मन्दा ॥
इकंघर शक्ती इकघर शीवा । इकधर मन ठकचघर जीवा ॥
इक घर पाप एकघर पुन्या । इकर साच एकघर श्जुन्या ॥
इकघर भक्षक बसे अपारा । इकघर रक्षक है रखवारा ॥
इकं राजा कर रक्षकं नाऊ । रक्षा केरे सदा सदं गॐ ॥
एक राजाकर भक्षक ना । भकष सवे न छंड़ि का #
दून तृपति एकषुर माहीं । एक रथ चै एक सङ ताष्ठी ॥
प्रथमहि क्षकं दोह असवारा । तशं जाय जहां है करतारा ॥
विषम सरोवर पबे जाई । पठि विषम जल माहि नाई ॥
करि असनान तीथं परमे । आई अकि ज्योति तह दरसे॥
9 दु परतिमाको दशन पव । आदिं निरंजन ज्योतिदिखावे॥
काली काल्प विस्तारा । नाना रंग तरङ् अपारा ॥
देखि ङूप मन हषं समवे । ज्यों पतङ्ग दीपक कँ धावै ॥
न. १० बोधसागर -४
(३० ) नोधस्ागर
देखत बहत सुदावन ज्योती 1 नाना रङ्ग रागे बहु मोती ॥
जब प्रसे तड तेज अपारा । खगे आंच महा विष ्आारा ॥
सो विष छे भक्षक घ्र अवि । आनि जीव कँ घोरि पियावे ॥
विषपिखाय जिव घातं रुगावै । रथते उतरि आपु घर आवे ॥
जब विष चदे आष बिसरावै ¦ तब रथ् चटिके रक्षकं धवे ॥
रक्षक दरि देश कहँ धावै । विषम सरोवर पार सिधावे ॥
विषम सरोवर तजि है पारा ! जाइ जहां सतनाम पियारा ॥
अमर चोखना देखे जाई । चरण स्वकूष मरह रहे समाई ॥
परसे सुरति नामके पाया । भिटे जहर भई निमंलकाया ॥
दया तरे चदि उतरे पारा ¦ प्रसे अमी वततत विस्तारा ॥
अमी तततव तुरे जब परस । अथर ज्योति अखंडित द्रसै ॥
वरे अचरत अग्रही धारा । पिवे जीव विष होय निनाय ॥
खख सागरम सुधारस षी । ठे असरत फिरि धरहि सिधि ॥
घरमों आइ रहा उहराई । अग्र अमी धर राख छपाई ॥
घरी आध - घर माहि जडावे । भक्षक जहर बहुरि रे आदे ॥
फेरि जहर जीवहि प्हचवे । जीव सुग्ध दोह अमी गँवा ॥
जब भक्षक विष जीव पिव । फिर रक्षक अधृतकह धावे ॥
एहि विधि रक्षक भक्षक धावहि । एकं विष एक अश्रेत खावहि ॥
विषम सरोवर भक्षक जां । रक्षकं सुख सागर पहचाई ॥
इदिविधि दो करे रजधानी । इक दाक्ूण इकं शीतर बानी ॥
जादिनघर विधिने दृश्कीन्हा । तादिन सोपि खजाना दीन्हा ॥
दोड चृपतिके दोह स्वशूषा । राखे दाम चन्द् सर भूषा ॥
इकृघर शयं एक घर चन्दा । इक दुख दाक्ण एक अनन्दा ॥
सकल समाज दोऊके हाथा । अविधि समानखजानासाथा ॥
भमर मता दो घर भारी । श्वासा सार सुधारि सुधारी ॥
श्ासणजार ( ३१ )
वौरिके दाम दोड चर दीन्हा । अघ्रतविष् विंशवास्कर कीन्हा
रचि खानी बहू रंग अपारा ! देह भाहि बह देह उधारा ॥
(रची देह बहु रग अपारा । विष अभरत बह रग अपारा) ॥
अमर देहं एक देह रञ्चारा । बाहर भीतर मध्य इआरा ॥
(अष्ठ देह यदि देह मँञ्जारा । बाहर भीतर मध्य अखारा) ॥
चारि विरु है चारि तरंगा । चारि सुरंग एक बहु रगा ॥
(चारि विमल है फएटिक तरंगा । चारि सुरंग श्याम बहरंगा) ॥
दृह उज्वल ह बाहर बासा । दइ उज्वल जरूमध्य प्रकाशा
(दुड उज्वठ दल मध्य प्रकाशा । श्याम श्रम अधर इंडवासा ॥
श्वासा सुरंग अधर इइवासा । जरद नीर घर माहि निवासा ॥
बाहर इह सफेद बहुरंगा । इय अनन्त सत शक्ती संगा ॥
पार बसै सत्वं सुकरतको डेरा । यध्यनें विषय सरोवर वैरा ॥
निस्तत्तवकमलघुङृतसःयवासा । विषम सरोवर कार निवासा ॥
पुडुषदीप साहेबको बासा । सुखसागर ज्ञानी रहि बासा ॥
ताके ओर काल उद्वासा । मान सरोवर काम निवासा ॥
ताके ओर काल्की आसा । विषम सरोवर काम निवाा ॥
सबके डरे निरंजन वासा । धरम दास तुम क्खो तयाशा ॥
धमेराई सुख पौन उड़ाई । विषकी लहरि ध्वजा फराह ॥
ज्ञानीके शख ज्ञान प्रकाशा । अमरसार सुधा रहि वासा ॥
गुप्त आं्जरी पुरूष बनाई । अक्षे अमान ध्वजा ` फहराई ॥
प्रकट आआंञ्जरी कार प्रकाशा । तेजपज विविधि रदिवासा ॥
रचना बाहरकी भाषा । सो रचना भीतर रचि राखा ॥
जो भीतर सो बाहर दरशे । तत्त्वहि तत्त्व तत््वतहं द्रशै ॥
तत्त्वकि रथचदवि बाहर आहं । अमीकी रथ तहां परश धाई ॥
क्षण बाहेर क्षण भीतर अवे । सतगुरूमिरे ओं सहज बु्लाबे ॥
( निरसि परसि जब रे जाह ! )
( ३२ ) नोधस्षागर
चारि तीर्थम प्रतिमा मारी । सत्यसुकृत तहौँ पुरूष ओ नारी ॥
स्वाखा संयम राह सुधारी । देवरु चारि देव दै चारी ॥
चट भीतर घट राह अपारा | चांद सूर्यं ताके रखवारा ॥
उतर चद तीरथ कहै धावै । परसि तीथं अभृत रे अवे ॥
एकजीव दइ अग समाना । जन्द्र सू्यंके हाथ बिकाना ॥
दक्षिण स्वर तीरथको धावै । तीरथ परसि जहर छे आवि ॥
शृ्क्ष जब पूनो जब आवे ! तबही जीव चन्द घर अवं ॥
जलग तत्व चद असवारा । सो परसे धाइअमृत रसधारा ॥
जीव॒ चन्दके साथेहि धव । योजन चारि पार पडावें ॥
करि असनान पुरूष पग परसे । निमंर ज्योति अखंडितदरसे ॥
जब फिरि चन्द्र सरोवर अवि । बहुरि जीवर्सगदहि फिरि धवि ॥
आवत जात बार नहि छै । प परु जीव दरस तहां षावे ॥
कृष्णपक्ष अमावस जब आवै । तब फिरि जिव सूर्यघर अवे ॥
सू्यं॑तेजपर होड असवारा । बरसे अभि अखण्डित धारा ॥
जाय निकसि योजन परवाना । विषय सरोवर करे अस्नाना ॥
परसे देव निरंजन पाई | लागे आर जीव ङुंमिखाईं ॥
जीव सूयं फिरि कमर समवे । षर बादर परु भीतर अवि ॥
सर्यसंग विष पीवै अधाहं । मूच्छित होय चन्द्रघर जाई ॥
जाय अमावस परिवा आप । चटि रथं उपर चन्द्र सिधावे ॥
वायु तत्वपर ` दोय सवारा । चले चंद दुह योजन पारा ॥
विषम सरोवर पार सिधावे । भान सरोवर पारस पव ॥
नामिनि एक सरोवर माहीं । पीय अभृत विषछांडे तादीं ॥
सो विष खाय चन्द्रधर आवे । अमृतकी ककु खबर न पव ॥
पल पठ करे तीर्थं अस्नाना । भीतर बाहर एक समाना ॥
अमत रै भुजगिनि पासा । भीतर बाहर एकं प्रकासा ॥
श्वास्यञार ( ३३ )
साह विष ठेय तीर्थको अवे । चंद कमर प्र जाय समवै ॥
एटिविधि चंदरपक्ष चलि जाई । पाछे जीव चर्यं॑धर जाई ॥
पूनिमा बीते परि आष) तब रथ चटिके धर्यं सिध ॥
सुरंग तुरं पर दोय असवारा । योजन तीनि जाय चटिारा ॥
सुखसागरमे पैटि नहाई। परसै योग संताय न पाई ॥
अमृत॒ मानसरावर माहं) कामिनि दरि धरे बोडे ताह ॥
सो अमान सुखसागर माहां । सुर्यके संग पीवे जिव ताह ॥
पिये अमी जिव सूर्यके संगा । मिटे तवत होय शीतख्अंगा ॥
पर भीतर पठ बाहर अवे । पीव असी रस तेज समति ॥
जबदी सय॑ अमीरस पव । चंदहि पकरि आघुवर छव ॥
जब चंदा अवे रवि द्वारा | डोह संक्रमण तैज अपारा ॥
तेज किरण पूरण जब होई । द्रशहि कार तवै रि सोई .॥
तपे तेज बारहको धवे । सुखसागरमें पडि नह ॥
सुखसागरमों कर॒ अस्नाना । उदितकमल्हो द्वादश भना)
सरुयंषर चंद होय जब जोरा । तब धर काक करे चनधोरा #
चन्दर सूर्यं कह राह जो फँसे । षट चन्दा पर सूर्यहि यासे ॥
इहि विधि देह दुडनको बाजी । पनम धरिहि अमावससाजी ॥
चन्द्र सूयं के जाय अकाशा । सुखुनिके घरदोउकर फसा ॥
भुसकि तुरौपर होड असवारा । षेरे शशि सूर्यअकाशकेद्वारा ॥
जंबरद्रीप कार अस्थाना । सहज शन्य कह करे पयाना ॥
सहज श्यन्यमहं पहुचे जाई । सदज रहावे संग ठख्गाई ॥
योजन डेढ सदजकर बासा । तवं करे कार रहवासा ॥
सहज. कालसों अंतर नाहीं । जीवहि छठे सहजकी बाहं ॥
पलमें जबद्वीपदि आवे । पलमरँ सहज श्यन्यकँ धावै ॥
एदिविधि चंदर सूयं दोह कासे । का सहज दोय जीव गरासै ॥
( ३४ ) बोधसागर
चंद ॒सुयं॑दोउ अशत पावे । कारु सहज संग बाए लगाव ॥
बाए रुगाय् श्चा ठेई छीनी । जहर देह चिव बुद्धि मरीनी ॥
जीवहि खदा कारुकी आसा ! तजि असत विष करदी मासा ॥
कालि राह केतु होइ आव । कारू चंदरहि सूयं सता ॥
काल्हि अशत जीवसों ङेदी । कारहि जक थल बाजी देदी॥
कालहि प्रण मसत रै जाई । देदह विषं अभृत लेड छुडाईं ॥
कारूहि आगे पाके धावे । कारहि रचै कारु बिगडाति ॥
कालहि चारि खारि रचि राखा। कालहि सब घट बोले भाखा ॥
चट २ काल करे रखवारी । एक देहं इइ अग सवारी ॥
एकग चंद एक अग सुर । श्वासा वारख श हजूर ॥
इकडइस् हजार छम्सये श्वासा । इतने एक चरी प्रकाशा ॥
निशिवासर बीते युग चारी । देओं अंग श्वासा संचारी ॥
दशं हजार आवसे भारी । श्वासा चंद स्नेह सुधारी ॥
जेतिक श्वासा चंद्र स्नेहा । तेतिक चले शुयं॑सग नेहा ॥
दशदहजार तीनिसे घादी । चले चन्द्र अङ् सुयंकी बादी ॥
दइ इजार दुई्से अधिकारा । ताको भेद एक विस्तारा ॥
मध्यद्रार सहजके जाई । ता सुतब्रह मों रहै उहराई ॥
बाईस हजार चारिसे ऊने । जाप जपे जिव आप विहूने ॥
एकजीव तीनों चर संगा । राह केतु शशि सुर्यं अनंगा ॥
जाप जपे ओर तीर्थं नहाई । परसे देवर देय सहाई ॥
जब जिव सत्य सुकृत पग प्रशं । तब निज ज्योति भखंडितद्रशे ॥
जब जीव आदि निरञ्जन द्रशे । दीरामे ज्योति तत्वजसपरशे ॥
तासु भेद भ कं बनाई । असिे गगन क्षुधा छाई ॥
ज्ञब परिवा पूनमकी साधी । तब चंदरहि रे अविहि बोधी ॥
राइकारु हो जाय समाई । अमृत छोडि पीव दुखदाई ॥
श्वासयञार ( ३५ )
चन्द्के सुगममे जीवहि भसे । अण रगाय न्यम कावि ॥
राह काल जिव चन्द्र समाई । विष तजि ष्रत होइ इंड़ाई ॥
इहि विधि राह चन्द्रं कह घेरे । गहन गरासि ज्ञान कह केरे ॥
असत छोड़ि विषं सङ कगे । ज्ञान भमी उवजे नदि पै ॥
इदि विधि सूर्यहि केतु गरासे । अभरत इरि विष तेज तरासे ॥
इदि विधि दोउ सतवे काला । ता संग जीवहि करै बिडाल ॥
जब चन्दा कहं राह गरासे । करमकार व्या होय कसि ॥
उग्र होत है अस विवेखे। शशि ओर धर्यं दो घर देखे ॥
छंड़ केतु आप धर आवै । अपने घरमहँ शर्य समाव ॥
सुरंग तुरेपर बाहर जाई । उखसागर अहँ वेडि नाई ॥
योग सन्ताहनके पग परश । नि्म॑ख्ज्योति अखण्डित दरश ॥
अगत पीवे तेज बर पव । पर परू पीवे बहुरिवर अवै ॥
आपुहि मह विष अछछप छिपे । बहू विधि अमी अधारसं पावै ॥
पल भीतर पर बाहर जाई । जीवका भरू परसि सुखहाईं ॥
पुनि जो चरू सूर्यकी श्वासा । पूरण तत्व तेज परकासा ॥
कबहं सुर्यं चन्द्र॑घर जाई । चन्द्रहि खाम श्यं वलिताई ॥
ज्यों लगि रहै चन्द्रधर सूरा । तब कगि अमी अमान इजूरा ॥ -
इहि विधि तत्व डानि जब आवे । विद्रत्पुरष हो अधिक पठाव ॥
चन्द्र सनेह जीव तब पवे । पावे जानि भव बहुरि न आवै ॥
शशि ओर सूरय॑घ्रहण जब होई । तब देख तन भेद ॒बिरोई ॥
ग्रहण आसि छंड़े जब क्रा । तब घर आवै शशि ओौर सुरा॥
अपने अपने घर जब अवं । तब नर्द कोई ॑तत्व॒गवावे ॥
एकके घर एकं जब अवे । कोई जीते कोई तत्व गवावै ॥
रहण भस होत जब जाने । तो शशि धरही सुरे आने ॥
शशि घर आवे शशि धरजाहं । अभरबास बासे रोख ॥
( ३६९ ) बोधक्ञागर
पुडपबासं तिर राखे छाई । तबके वासना बाहर जाई ॥
पुडुपके भीतर बास राई । सोई बास बाहर महकार ॥
बाहरते भीतर ॐ आवे। ताके भीतर आनि समाव ॥
ताते वासन बाहर जाई । तिलके भीतर रै उहराई ॥
तिक्ते बासन बाहर आवे । बाहरते जो भीतर समवे ॥
भीतर वेधि एक जब होई । बास तेरुमो रहै समोई ॥
खमय-तो गि वास बहत विधि, ज्यों खमि प्रना तेल ।
तेर लाज छाडिके डरे, इइ भिलि दोय कुरर ॥
चौपाई
बास् तेर महं रहे समाई । तेर काड़ नरि बाहर जाई ॥
तेरूके सग॒ बास महकाईं । बासके संग तेर रह छाई ॥
समय-्हा बास जहां तेर रहं जहौ तेर तहँ बास ।
एकं संग दूनों बसौ, महक वासर सवास ॥
चो पाह
इहि विधि रहै दो इक ठा । एके वासना एक सुभा ॥
बाहर कंहि जब अग लगावे । दुहे प्रतिमाको हप दिखावै ॥
सुरति एूरु मन तिरख्की खानी । नाम बास जीव तेल बसानी ॥
बाहर फू भीतर फुलवारी । रवि शशि करे दोय रखवारी ॥
तिरु एूरे पिखियाकी खानी । दिनफूे निशि गिरतनजानी ॥
एेसो छूर कृजिम उपराजा । तत्व तैर सबमध्य विराजा ॥
सोई ततव मो अग्र सनेहा । तत्वह तत्तवं भिर तिर देहा.॥
तिर ओ पूरु एक सम किय । तेहि पाठे पुनि प्राण बसियञ॥
दुख दीयते निकसे तेला । फुल देह तजि भय फुरेला ॥
यहि विधि गरू शिष्य जो दोई । सुक्ति पंथ पव पुनि सोई ॥
धर्मदास यद अदधत बानी । की विचारि सुकृत सदिदानी॥
श्वासखञ्आर ( ३७ )
उत्पतिकी गति सब इम पाई । परलेकी गति कहौ अद्याई ॥
रक्षक भक्षक एकि सङ्गा । कहौ विचारि दोजको अङ्का ॥
जव साहब शिवशक्ति बनाई । सो तौ गम्य समे इम पाई ॥
सो शिवशक्ितिकालरचिराखा ! दोनों अङ्नवरि प्रकटी भाखा ॥
कामदप विष बाण बनाया कला अनन्तधरि प्रकटी काया
चर घर शिवशक्तीष्ुत नारी । बिरह वियोगसोगञ्ुख भारी ॥
नाना शूप रग उपराजा ।उपजनिविनसनिश्चखदखसाजा॥
कुल व्यवहार सकुचओौ छाजा । नात गोत रस लीखा साजा ॥
चारि खानि बानिधरि गाजा । चारि बणं ओं शमं उवराजा ॥
लाज वरन कूरी कुर कान् । योग्य यज्ञ बत दान समाज ॥
संपति बिषति रकं ओ राजा । अत्र वल्ल माया उवराजा ॥
सब उपर मन आप विराजा । मनबसि होय सर सब काजा ॥
मन इन्द्री महँ मोग संयोगा । मने स्वाद् ओं स्वाद् वियोगा ॥
मनहरता मन करता सोगा । मने रोग ओइखसुख भोगा ॥
मनते कोई ओर न दजा । मनसाहवब मन सेवकं पुजा ॥
मन देव मन प्रतिमा साजा । मनपूजा सन तीथं विराजा ॥
मन शिवभक्ष्ती बिरह अपारा । ङधिरबिन्दु मनसिरजनहारा ॥
मने जियावन मरने हारा । मनदिअश्चमश्चम क्मग्योहारा॥
कमा कमै मनदिते दोई। भोग करं भगत सोह ॥
मन मथित मन चेतन हारा । चारि खानि मनखेल षसारा ॥
मनशीतर मन तेज अपारा । मनश्वासा मन बोलनि हारा ॥
समय-चन्द्र सूर्यं संग मन वसे, श्चुभ अद्यम् मन आहि ।
श्वासा शासा मन बसे, कहि बरण गुण तादि ॥
चौपाईं
खानि खानिमनहोयअसवारा । फैट रहा मन अगम अपारा ॥
( ३८ ) बोधृसागरं
चारि खानि सन रहा समाई । चारि चक्र चदि बोरे आई ॥
रोम रोस सन रहा समाई! आपदि मारे आपदि खाई ॥
आपदि सिश्चकं आपहि दाता । आपदि ईश्वर आपु विधाता ॥
आपहि चोर आप रखवारा ' आपहि रचे आप संहारा ॥
आपदि सीखे आप विसरावे । आपहि मेरे आप बना ॥
आपरि अन्ध आपडषिदाय । आपहिज्योतिआपडजियारा ॥
आपहि तिमिर आप अधियारा । आपहि मासपक्ष व्यवहारा ॥
आप निरक्षर अक्षर होई । यपत प्रकट होय बोले सोई ॥
नानारङ्ग ज्योति दिखखावे । आदिं अन्त मनमनहिसमवे ॥
मनही नाद शून्य महँ बोरे । मनदीं ज्योति श्ुन्यमरँ डोरे ॥
मनदी कह म्ब ध्यान लगाव । मनको अन्त न कड पातै ॥
मनी शाञ्च वेद दै चारी । तीनरोकं मन कथा पसारी ॥
निगंण सगुण मनदीकी वाजी । कवी पुराण कोकमन साजी ॥
ब्रह्मज्ञान कथि मनि सुनावै । आषु छिषाय दूसर दिखखावे ॥
समय-आदिअन्तमन कतां, चारि खानि मनबास् ।
बन्द् छोरि करी मोषे, कहू मन्ब प्रकाश ॥
चौपाई
सुनहु सदेश दसषति आगर । पुरुष पुराण हंसपति सागर ॥
सुरति पुङ्ष दसनके नायकं । ज्ञान अनूप सुनी चितरायक ॥
कहो अम आग्रकी खानी । कहो ज्ञान विज्ञान बखानी ॥
चार खानिके श्वासा जेती । कदो विचारि चले दम तेती ॥
अचल खानिप्रथमहि विस्तारा । तेहि पारे पिंडज अनुसारा ॥
तिसरे अण्डज खानि सचारा । चोथे उषमज रचा अपारा ॥
चारि खानिको रचना भारी । चारि खानि संगहि अनुसारी ॥
प्रथम खानि सतसुकरत कीन्हा । रचना रचे निरजन लीन्हा ॥
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तो कक "क
शाक्यओार ( ३९ )
प्रथम अक्षय वृक्ष प्रु कीन्हा । अक्षय बट है ताकर ॐीन्डां ॥
आदि अन्त विंडज अब्र । जाते जग शिवशक्ति युधारा ॥
तिसरे अंडज अर्थं निवासा । जाति जग र्यी परकासा ॥
चोथी खानि अमीरज कन्दा । तेहि संयम उषयजकर चीन्हा ॥
चारि खानिकी चारि बानी । श्वासा नेह देह सदिदानी ॥
चारि खानि मह एके श्वासा । क्रं खंडित कडू पूर प्रकाशा ॥
अचल खानिकी श्वासा भारी । चाल तीस पांच अधिकारी ॥
गिनती सौ हजार ओ लखा । श्वासा अचङ खानि यंहराखा ॥
चारि पहर चारि जग भारी । तीनी पहर श्वासा अधिकारी ॥
एक पहर वह उनशुनि रई । ताते कार न आर गहै ॥
तीन तच्वकी रचना भारी । अचर खानकीं देह धारी ॥
धृरती तत्व भास अस्थूखा । जल ओ तेज ताहि कर शला ॥
बां आकाश नर्हि रहिवासा । तातेजड अचल खानि परगासा॥
तत्व बिहून देह अबुसारा । तते जड नहिं वचनं उचारा ॥
गृहन जास होत नरि ताही। ताते बहू विधि बाठत जाही ॥
जाको गहन गारसे काला । सौ नहिं बाट बेलि बेहाल ॥
अचर्सानि बहुभांति सवारी । नाना रंग हष अधिकारी ॥
कतहं छोर कतहु बड भारी । कतहूं साय सरवन उखधारी ॥
एक सक्षम है एकं अस्थूलखा । एकं अभृत एक विषकर मूला ॥
एक खात पलमह मरि जाह । एक खातकड् अवधि बडाई ॥
इक खडा इकं कडवा होई । एकं मधुररसं खावें सोई ॥
एक विसौँहध विषके शपा । नामशब्द गुण मेद अनूपा ॥
पांच सदा ओ पांचौ रोगा । पांचौ ओषध पाचों भोगा ॥
पांच वास ओर पांच कुबासा । पांच पचीस रंग ॒परकासा ॥
पांच पानि पाचौ रहि बासा । पांच श्युभ ओर पांच विश्वासा ॥
( ४० ) बोधसागर
षच षां सखकर पसारा ' पांच रग श्वासा अङ्सारा ॥
तीनि तत्त अस्थुरु निवासा । तीनि मध्य इहं बाहर वासा ॥
पाच तत्तव खब इनके पासा । जहांरुगिआप खखनि परकासा॥
प्च तत्तव तीन शण साजा ! नारि एक तामध्य विराजा ॥
चरु खानिमह कीन्डे वासा । तासध्ये श्वासा रहि वासा ॥
चन्द्र स्यं बिन श्वासारीनी । ताते खानि जड भई मसीनी ॥
अचर खानि ताते जड होहईं ! सूयं चन्द्र नदिं मध्य समोई ॥
नारी एक श्वासा संग ताह । जहार अचल्खानि जगमाहां ॥
नारिसुषुमण अचल घटबाखा ! वाहि संग श्वासा रहि वासा ॥
ता घट दोई नारी नदीं होई । ताते चन्द्र सूर्यं नरि दोई॥
इगला पगला नाहिन बास्रा । ताते र्वि शशि नाहि निवासा॥
चन्द्र ध घटके रखवारा । एहिं डोर एहि बोलन हारा ॥
चन्द्र सूयं बिन जागे नाहीं । तते अचर खानि जगसमारीं ॥
दुई दिन कोई मास गलिजाई । कोह छ भास कोई वषं राई ॥
कोई दश वषं माह जग राते । कोहं तीस चाछिस तन दासे ॥
कोइ पचास साठि रहि वासा । कोई सत्तरी कोहं असी नेवासा॥॥
वे इकावन कोई तन राखा । कोड सौ हजार कोह लाखा ॥
कोड कोटि कोई अरब निवासा । कोह पेड चारों युग वासा ॥
इहिविधि अचलखानिकरभावा । ओषधि व्याधिरोग उपजावा ॥
एकं सजीवन जड़ी अनूषा । एक जडी विष तेज सरूषा ॥
समय-कोई शीतल कोड तेज है, कोई पारसकी खानि ।
फूल विना फल उपजे, सब फरफूरु समानि ॥
| चौपाई
इदिविधि अचलखानिउषजावा । तेदि पाछे अंडज निरमावा ॥
अडज खानि सजीवक कीन्हा । चन्द्र सूयं सद्ग जीवन दीन्हा ॥
श्वाञ्चखजार ( ४१)
नख शिख खचोष उपराजा । शासा खहज अधं धुनिगाजा ॥
दुह सूर्यं एकं सहज धर जुन्या । तिहि चर कमं पायन युन्या॥
दुई घर इईगला पिगलाभारी ) बाद श्यं ्ंग जीव संचारी ॥
ताकी धवासा शक्ति बुधारी । अश्रेत प्रसत्रसहज सुख भारी ॥
वांच तत्व रथ साजी थारा तापर चंद सूयं असवारा ॥
ताके संग जीवं उठि धवे। मन तरंग ङ्य उपज ॥
सुरंग तरे पर हेय असवारा । सयं स्नेह जाए चदि पारा ॥
विषभ सरोवर पैव जाई । विष धाराम पठि नडशईं ॥
कृरि असनान ध्यान लौ छे । धमराय कड माथ नवावैं ॥
प्रसरे शाय निरंजन देवा । पक मरू करं ज्योतिकर सेवा ॥
चरण प्रसि भरमत घर अव । रविजीवहि विष आनि पिव ॥
रषि रथ रहै चन्द्र॒ उखि धावै । तुर छीखा खरबर पचाव ॥
जीव सहित शशि पहुंच्यो जाह । मान सरोवर पठि बहाई ॥
करि असनान देवपग परश । कामिनि देह कमलरूयहं दरश ॥
रेके वास चन्द्र॒ घर आवे । घर आवत यम अहण कग ॥
परु पर कमर कमर महनवे । अडज खानि दशं नहिं पावै ॥
प्रते चरण सरोवर दोहं । आवत जात न खगे कोई ॥
श्वासा नेह देह व्यवहारा । एक खाख ओ सात हजारा ॥
एतिकं शासा अंडज खानी । करे इलाह बोरे बानी ॥
तत्त्व चे जोजन एक दोह । ्आा्रि पाटन बसे विरो ॥
खाज अखाज विचारे नाहीं । भमत रिरे सदा भव माहीं ॥
पल धरती पर पिरे अकासा । ज थर महिरमह पिरिेउदासा ॥
कायाके बह प सवारी । नानारंग वरन विष धारी ॥
चञ्चल कुटि कला मनधरदीं । नाना बानि शब्द उच्रदीं ॥
करे कल्पना जगर्मँह भारी । नाचै गवे करे खुमारी ॥
( ४२) बोधस्रागर
उड़ अकाश तरुवर फलुखादीं । पानी उतरि षीवे जगमादीं ॥
जो चन्दा घर चन्दा आवे । तो चन्दा सत्यलोक सिधातै ॥
मान सरोवर पठि नदावे। विष तजि अमृत घर छे आरै ॥
पुष्प द्वीप दोय एिरि घर आवे । पुष्प द्रीपमरँ जाय समा ॥
एटि विधि चन्द्रमदणको देखे । चन्द्र अंशकी श्वास विषेखे ॥
आयु अश श्वासा महँ पावै । तो चन्दा न्ह मूर गमावै ॥
अश जो आयु घरहिफिरिआवे । पूरी तत्व सदा सुखपावे ॥
उद होते सुरवर आवे तादिन चंदा रल गमाव ॥
एटि विधि सुर सतावे कारा । मदण गरासि करे जजाखा ॥
उग्रह होतें श्वास विवेखे। शशि ओ सुर दोऊ घर देखे ॥
जहां पीव पानी सब आवै । तहां दृतरे फंदा लावे ॥
एकं तरूवर बनखासा लावदहि । एकजल पीत चुगत रसतावहि ॥
एकं पींजरा महं जीव आवदि । रामनाम कह सदा पटठावहि ॥
एकं अमृत मुकताफल खादी । एकजराहारफल्आनिअचघादी॥
एक जीव मारिक केरे अहारा । एक जीव जीवहि कर चारा ॥
एकं जोने बर बजाये अधीना । एकउज्वलजल ज्योतिमलीना॥
जीव एकमत बहत अपारा । एकउज्वलजलज्योतिअपारा ॥
श्वासा तेजी ज्ञानगा देहा । काम कराते बहुत सनेहा ॥
अडज देह महाबु भारी । वचन विचारि करे सब आरी ॥
शुभ ओ अञ्चुभ ददी ह तादी । एक मधुर एक तेज सुहादीं ॥
एकं सुहावन बचन सुनावहि । एक अपावन सुनतन भावहि ॥
तीनलोक भरि रहा समाई । ज्ञान गमान करे सेवकाई ॥
बिविध ज्ञान लीए तन डोरे । ऋतुऋछत्र बिरदका रिं बोले ॥
तेजदहीन नाना दशा कन्दा । ताकर भेद न काहू चीन्हां ॥
शवासयञार ( ४३)
समय-एक अधीन एक दारण, एके एके खाय ।
षह वानी जगमों कहि, सनौ भेद वचितलाय ॥
चोपा
अण्डज कला अनन्त सुधारा । तेहि षीछ पिण्डज अद्वसारा ॥
कला अपार तत्व बहकरङ्गा । सिरजी पिण्डज मके सङ्घा ॥
पाचतत्व निश वासर सङ्गा । जाकर पहर तादिके रङ्गा ॥
पोचो पोच तत्वके साथी । गाय मैस घोडा ओर हाथी ॥
खच ऊनी छेरी खारी। चदि चाही भंजासै पाय ॥
सो नदीं सुवरी कीनरी भाटी । माली नौसी गही क्ली ॥
कदा ठगी बरन बहु्मोती । मदही ते नरकी उतवाती ॥
पाच तत्व सबहीके संगा । श्वासाके संग चले तुरंगा ॥
पाचों तत्व पांच पुरजादीं। भ्रीत पौँच ह छतरके माहीं ॥
पोच कुच पांच मोकामा । पांच सरोवर पांचहि धामा ॥
पाच देवल पचे देवा । पाच करहि पांच कर सेवा ॥
पाचां मद सम पच उदासी । पाचों पांचञ्चन्य अविनाशी ॥
पाचों आवही पांचौ जादी । पांचौ पांच महँ पांच समाई ॥
पाच शुन्य पांच अस्थूल । पचि पांच पांचकर भला ॥
पांचहि दोयधर एकजो आवे । पांच पांच तबदी सस्व ॥
पांचौ सात राइ रोह धावे। तिनहीके धर मंगल गावै ॥
पांच तीनि जब ` सात समाव । पंद्रह मेरि एक घर आक ॥
पंचहि तीन सात एकं धारा । पाचों नाद बजाक्न हारा ॥
पांचौका है खेल अपारा। पाचों करही एक विस्तारा ॥ `
पाचों दशके माहि समाई । पांचौ आवहि पांचौ जाई ॥
भोर गुफा पांचोकर याना। बाजे तार मृदंग बैधाना ॥
जब पांचौ दशके घर जाह । तब दश पंचहि आनि समाई॥
( ४९६) बोधस्रागर्
जब दश पाच गुफामरहैआवदि । सधुरी तान अर्धघुनिगावहि ॥
कोई चटा कोइ ताल बजावदहि ।कोईशखनादकोडआरूरिलावदि॥
कोईकिकिनििचिनिकिन्नरिवीना। कोई मेरिभरदंगओटोरसदीना॥
कोई तारी कोई उेन॒ बजावर्ि । रहसि रहसि नानायुणगावि॥
सारंग जल तरंग ॒धुनिधारी तबलाचहंओरनरर्सिगाडफारी॥
इहिविधि मोरश॒फा धुनि गाजे । नानारंग मध्र धुनि बाज ॥
बाजे बाजन होई शुनि गाजा । बिजरी चमके मोहै राजा ॥
दश ओ पाँच पचस समते । तब धरनी घरियार बजवे ॥
पांच पचीस दश दशहि समावे ! शुफाके ऊपर शुरली बजा ॥
बाजे भुरली करा अनन्ता । जगे कमरा सो चै मन्ता ॥
निञ्चैर इरे गशफाके द्वारा । रवि शशिपांचतत्वउजियारा ॥
श्वासा सार सदज घर वासा । रविशशि पंचतत्व प्रकाशा ॥
भोर गुफामरहं बाजन बाजे । रवि शशि श्वाक्षासंयमगाजे ॥
समय-नाना बाजन बाजी, नानारंग अपार ।
मन ओ जिव इक संगी, अविनाशीके द्वार् ॥
पाहू
मन नाच परु रे ओ गावे। आप नाचिकेजिवहि नचाव ॥
जीव नचे अविनाशी आगे । मन जिव रहै खदा सगलागे ॥
आनदधाम होत दिनराती । दीसे ज्योति दीवा बिनुबाती ॥
मुरली बाजे निञ्चर इरे नाडी सुषम मन्दिर भरे ॥
निर्भय सदा न जाति अजाती । निवेश सदा न परजा पाती ॥
स्वगे नकं ओ नदी है ताहां । ज्योति उजागर निगुण नाहां ॥
सरथण _ निरगुण एके माहा । दीखे ज्योति निरंजन ताह ॥
सात तीन पचा जब एका । दुई घर वास एक म ध्र ठेका ॥
उतरि युफासे जब घर आवै । आपु आपु कह चहूदिश धाव
श्ातयआर ( ४५)
पर घर आवै पर घर जाई । पांचतच्व ्ंग खदा सहाहं ॥
वांच तत्त श्वासा अक्षवारा । फिरहिं शहरवार ओ पारा ॥
जहौ बादर ह शहर देवाला । तहँ पांचो वुरे फिरै चौफाल्या॥
ता ऊपर आतम चि धत । पर बाहर पङ भीतर अव ॥
पांच तरे श्वासा चटि धवि । सरवर पाच प्रसि घर आवै ॥
सरवर पांच पांच तहां घाटा । गली एक पवेत इड बाटा ॥
पांचौ तत्व चरै एक साथा । रविशशि श्वासा नाथ अनाथा॥
पाचौ तत्व धर वाहर जाई । ता संग कमल इरी उममाई ॥
जादिन षांच तख नहिं अवै । एक तत्तव निश वास्षर धावे ॥
ता दिन पांच तच शुणपावे । क्खै तुरे जो बाहर धै ॥
नाहर चाक चलत गहि ठे । श्वास उभाव बंद तहां देईं ॥
एक तख निश वाक्षर धवे । इषरी तत्व संग नहिं छै ॥
पाच तत चीम्हि जब षवे । जो बाहर चरे ताह शु पावै
पाचौ तख जीव संग अवे । पर बाहर षर भीतर धावै ॥
ताकर पव पाचों मोकामा । केह त वंचके धामा ॥
पाचों पांच सरोवर जादीं। अमी असमान बिरह रसखाहीं ॥
दुई पुपर सुख सागर परशै । अमी अंक सत्य सुकृते द्रे ॥
तौ अमीरस पीवत अघाना । रवि शशि संग जीव नि्वाना ॥
उतपति पारस तहां पावे । ठे पारस फिरि धरहि सिधावे॥
द्वेमन विष एक मनै अमाना । परसे आदि अन्त शहिदाना॥ `
कालि काल जोति उनजियारा । तहँ एक नागिनवसे अपारा ॥
सो नागिन घर भीतर बासा। बाहर भीतर एक निवासा ॥
नस शिख वेधि रहा विष प्रा । वासा संयम शरि ओर सूरा॥
पांच तत रहो धट पांचा । पांचहि साथ जीवकर साचा ॥
रवि शशि श्वासा संग बसव । उत्पति प्रख्य गहन लगाव ॥
( ९६ ) बोधक्षागर
दइ घर रवि शशि जीव बसव । इक घर राहु केतु भच्छावे ॥
चारिउ चारि दिशा चङि जाई । फिर चारिऊ एक्मौह समाई ॥
इड स्री परशि फिरि अवि । दई फिरि ञ््नरी बाहर धावे ॥
चर आवत राखे अटकावे । राह केतु दोर रहन रगा ॥
जादिन पांच तत्व नदि धावे । तादिन कालगहन नरि लवे ॥
द्वो त्रे जा निकसे धाह । फोरी द्वारी बाहर जाई ॥
बाहर अमी असमान अमाया । उत्पति पारस नारी काया ॥
नारी नेह निर्न काया । ताते शिव शक्ती उषजाया ॥
एहि निजबुञ्चह धरमन माया । नाना वानी वरन बनाया ॥
शिवकाया पति सूर्यं ॑सनेहा । उगे चन्द्र शक्तिकी देहा ॥
शिवकी देह सूयं प्रथु साजा । शक्ती देह चन्द रै राजा ॥
रवि शशि पांच तच्वदइकाया । एक एक संग उपजे काया ॥
एकतत्व निश वासर धावे । जीवका मुरु परोस सुख पावे ॥
जीव मरु पारस परवाना । ठेउत्वति पारस जाय सिकाना॥
मन जिव तत्व एक चटि धवे । ऊ पारस अपने चर आवै ॥
पारस आनि जगवे कामा । बिरह बाण मारे संयामा ॥
दोई॑ तत्व निर्वाण उजागर । दइ घटशिवशक्ती मनि आगर ॥
पारस एक दुवोकी काया । चंद्र सूयं सगरी उपजाया ॥
चंद्र उगे शक्तीकी देहा । चले तव॒ जररंग सनेहा ॥
एक तच चंद्र घर धारा) सात रोज एके व्यवहारा ॥
सात वार निश वासर धावै । परु पर बटे चटे न्ह पावे ॥
पारस परसि होइ जिव पूरा । शक्ती शशि घरशिव घर सरा ॥
एकतत्व संग पारस पावे । राहु केतु नरि गहन लगि ॥
त्ख तार ट्टे नदि पवे। बिना सिघनी काल समावे ॥
एकै पेली एक जो धावै । तौ शक्ती नहिं पारस पावे ॥
श्वास्यञ्ार ( ४७ )
ट्टे तार तत्वकी जबहदी। काल सन्धि पावें घट तवही ॥
ट्टे तत्व होय दुख क्रा । चन्दहि पेटी उ घर सूरा ॥
धरि शशि सूर्यं काट ठे जाई | बाधि अकाश रा विरमाई ॥
चन्द्र॒ सूर्यं शासा सदिदानी । पारस तत्व रेह अस छानी ॥
पारस टूटत दोय मदीना ) निंशवासर जीव काल अधीना।॥
पारस सद्हि रेह निचोई । छांडि देह जब जाने सोह ॥
चिन बाहर छिन भीतर धाया । जरापरण व्यपे आ माया ॥
एक तत्व सङ्ग समे विगोई । एक तत्वं उपजे सब कोई ॥
शिव धर सूयं होय उजियारा । एक तत्व निश वासर धारा ॥
पारस परसि होय विधथिषूरा । प्रेम पकाश गे घटं सूरा ॥
एकतत्व चले रवि धारा । सूर्य सिघि घट तेज अपार ॥
शक्ती देह चन्द्र॒ रखवारा । चरे तत्व जल रङ् अषारा ॥
ठकतत्व निशवासर धवे । सातबार दटटे नहिं पावै ॥
एक समाधि रइत अस्थूला । तब शक्ती घट शूरे कला ॥
फूलत फू तहां अकुलाईं । मनबिकार तन ह्धिर चराई ॥
ताहि समे तन खीर समाव । शिव सनेह रचि कामं जनिं ॥
ताहि समै शिवशक्ती परशं । रति श्चि अमी गभ तेहिद्ररै।
रहै गभ काभिनिकी देहा । उपजे जातकं वरन सनेहा ॥
पुरूष देह शशि चठैजो धारा । कन्या उपने कला अपारा ॥
सूयं स्नेह चे जो धारा । उपजे कन्या कटरा अपारा ॥
सूर्यं सनेह चे जो धारा । उपजे सरति सार कमारा ॥
रहै गभं तब काया साज । ङधिर मांस तिरुतिर उपराज ॥
पांच तत्व तीनों यण मूला । तासों रचे गभं अस्थूला ॥
शिवके शास्र वाये स्वषूपा । शक्ती गहै जानिके शषा ॥
शिवके रूप शक्ति गहि ठेई । तब साचा ` महँ ` जावन देई ॥
( ४८ ) नोधस्ागर्
जावन जाये साचा साष्ां। थाका रोय ङचिरके ताहां ॥
तेडि थाकको रचना भारी । तीन लोककी विष सवारी ॥
तौन रोकको जेतिक खानी । सो सब थाका माधि समानी ॥
उपजा थाका थारू सवारी । ग्भभेद यह कौ बिचारी ॥
थर् थहाए मारु निरमाया । महरहिके माहीं जखहि समाया॥
जरुके मध्य सहर बनवाया । यहलहिके मधि रचना खाया ॥
सहरूके बार धन वह छाजा । पवरि पगार बना दरवाजा ॥
खांचा अजं जरे नदिं कही । शोच मदिर चाहै सबही ॥
साचा मांहिलोक दियोरसडारी । नख शिख शोभा सवे खधारी ॥
तीनि रोक रचा परमाहीं । गटके गढ पति गासौ तारी ॥
प्रथमे सायर सात सुधारा । पर्व॑त अहर र्यो अधिकारा ॥
अढारह सदस बहतर नारा । पांचतत सब साज खधारा ॥
अटारहं गंडा नदी बनाई । सब तरि नीर रहा पुनि छाई ॥
लोह हान स्तभ अस्थुलखा । बटे ख्गि सवारे भला ॥
आगे सवारे दुह युज दंडा । सात द्वीप द्वीप पुहमी नौ खंडा॥
बहुरि सवारे दूनौ खम्भा । मदन महा बहर उपने रम्भा ॥
नासिका चटाई मस्तक भारा । इकर जोरिकै निकासी धारा ॥
अने नेच चि अधं बनाई । कीरा कीला मधी नवाह ॥
नौमी कूटी दश गुफा बनाई । सात वर नौ नाल लगाई ॥
उतर मेर सिरजा अस्थूला । सरवर मारि कमर बड एूलखा॥
नाभि माह नखशिख कराई । एूला एूल बास घट छाई ॥
बाहर बास तन मांह समाई । सोई बास इन्द्र होय धाई ॥
इन्द्री रसना रङ्ग जनाई । छिग जल हरिसे भरमि बनाई ॥
आदो अङ्क रचा अस्थूला । शिवशक्ती दोउ सम तूला ॥
सोह अङ्ग रक्ती सोई अंग शीवा । शो एकं एकं सम नीवा ॥
श्वास्यञ्ार ( ४९ )
नख शिख अंग एक अनुहारी । देह स्वभाव वचन इह मारी ॥
शक्ति देह विरह अधिकारी । शिव आशिष शक्तिको चारी ॥
इहि विधि रचना रची बिखोई । गभं सनेह॒संप्ररन सोई ॥
नखशिख रचा गर्भं अस्थाना । कात द्वीव नौखण्ड बाना ॥
एक द्वीषं सातो दीषा। सात सुकृत वैदिमाय समीषा॥
प्रथमै गमं ॒द्रीप उपजावा । ता ऊषर रचना बिख्मावा ॥
ठकद्ीप नोखण्ड वनाव ) चिङ्कटी सात तशं निरमावा ॥
ठक द्वीपमे सातो नाला । सातो कमर अधर इडमाला ॥
सरवर सात कमर तहां साता । रंग पांच वाचौ उतवाता ॥
वाचके मध्यहि पांच रसीला । जिङ्खटीयध्य एकतां कीला ॥
ता कीलामहं कानी छागी । पौन सनेह आतमा जागी ॥
ता कीरामहं कखागी डोरी । हटा गाडि पवन अकञ्चोरी ॥
ता खूटा महँ डोरि र्गा । मन पवना गहि राङ्खं खाई ॥
छि मन पवन इरा चेरी । इक धर श्ुन्य एक घर फेरी ॥
चया होय पवन अकञ्चोरे । इगला पिंगला सुषुमण जरे ॥
रवि शशि मनपोना गहि जोरी । खुट न लाभि सबनकी डोरी ॥
मेरे दंडपर शखूटा गाडा। नदी तीन ता ऊपर बाडा॥
खूटाकी बाई दिशि टै गंगा । विम शीतल बहे नीर तरंगा॥
चन्द्र सनेही जिव जल परशै । सुरति स्वरूप धनी दिर द्रशे।॥
तासु खूटाके दिने अंगा । यश्ुना नदी बहै बहुरंगा ॥
कीति नीर ओर पीत तुरगा । कहर लार् तेज विष संगा ॥
तहां बसे सुर जीवके साथा । खर एक वयास हाथा ॥
कला अनेत शूप रस नाथा । से अर्थं नहिं दीसे माथा ॥
बाढि नदी ५८ जो दोउ करारा ! शीतर तेज बहै दोड धारा ॥ `
तिसरी नदी है शप्त प्रवाहा । नाजल थाह न होय अथाहा ॥
( ५० ) नोधुसागर
खटा तर रोय निकरी धारा । चली सरस्वती फोरि पगारा ॥
सथ्य हरि विषधार सखानी । गगा यमुना मध्य समानी ॥
चिकी संगम भयउ भिलावा । मनही पवन रेत वबिरमावा ॥
संवरशफा साघवकर थाना । बसे भरिविणी प्रयाग स्थाना ॥
ज्रविणी तर वसे प्रयागा जागत सोवे भाग अभागा ॥
गनि गंधव सुनि सबके थानां । सुरनर केरे पैटि अस्नाना ॥
तेतिस कोटि देवगण नारी । किन्नर शुणी केचनी भारी ॥
यक्ष यक्षनी देव कुमारी । नागसुता अप्सरा सुभारी ॥
चडि विमानसबकरिदैजोहारी । काया मध्य इह अदभुत भारी॥
असुरपिशाचचारिखानिजलादहर। अवेणी तट करी लाद ॥
यक्ष यक्ष असुर सब देवा । बसे याम करे माधवं सेवा ॥
तीन लोक जब जीव निवासा । सो सब करे वेणी बासा ॥
तेहि धविणी तर माधो देवा । सब भिक करे तादिकी सेवा॥
तब प्रयाग रोइ चडि प्रवाहा । गंगासागर संगम जादा ॥
देश देश गंगा फिरि आई। घाट घाट बहु क्षे बनाई ॥
जहां तहां जप ध्यान रगत । योग्य यज्ञ त्रत बात नहावै ॥
ऋतु बसंत प्रयागदि धावहि । मकर महीना वजार कगावहि॥
अरध उरध बिच खागी हारा । भीतर बाहर ओघट घाटा ॥
गभमादि सब युगति बनावा । तीनि कचहरि तदां बसावा ॥
जहां नदी संगम परवाना । तैवा रचा एक अस्थामा ॥
संगम बीच गुफाके तीरा । साति द्वार गुफामरं बीरा ॥
एकद्रार होय शब्द सुधारे । एक द्वार होय शूप निहार ॥
एकं द्वार दोय बास बसव । एक द्वार होय अग्र समवे ॥
एक द्वार होय खाद संवारे । एकं द्वार होय न्याय निवार ॥
एक् द्र।र दोय नाद् उचारे । सत्य सुक्रृतकी रहनि विचारे ॥
श्ासयञ्ार ( ५३)
सात नार चोदह सुरभा । सातों करहै एकं सभा ॥
सातों सात शून्य मह वासा । सातो बसे गफाके वासा ॥
गुफाके मध्य कंदरा वासा । तदं ्षातों मिलि करे निवासा॥
एतिक कुज द्वीपरी शोभा । आवागमन मोहमद लोभा ॥
कज भवरकी रचना भारी ५च्न्यसहज धुनिसकल सुधारी॥
दुवहु नार केसे के सोरी! एक अुखवकनारू मह जोरी ॥
अग्र॒ नीर अमरकी डोरी) शोभानारदहोय विष रसधोय॥
कुजे द्वीप रचि सुधर बनावा । नेह अमर पद क्षीर समावा ॥
सुधर दीप परनाभि संवारा । नाभी मण्डर पौन किवार ॥
पौन घोर नाभी रस कीला । मध्य सरोवर जं शीला ॥
जम्बु द्वीप यम करदि स्थाना । ताहि द्रीपमाहि जीवं अलना ॥
नामि द्वीप रचि कच्छ बनावा । इदरी आसनको रंग उभावा ॥
कच्छ कृला निज द्वीप सुधारा । त॒ वसन्त जावन विस्तारा॥
कच्छ द्वीप काशी अस्थाना । नरनारी हि करे अस्नाना ॥
वृरूणा असी गंगके तीरा । मनि कणिका निंर नीरा ॥
खिग जलहरी मारि समाना । नर नारि पएजदही धर ध्याना ॥
पूजहि कामिनी मगल गावहि । रहसि रइसि खिगही न्हवावहि॥
अक्षत चंदन विल्व चटावहि । धूप दीप दै तत्व र्गावहि ॥
भामिनी भाव एूरखरंग धरही । करि असनान बसन थुहधरही॥
सोह बसन नर नाटक मोही । काशी तेहि वसनकी छांही ॥
सोह बसनकी वास उडानी । योग भोग छख्की सहिदानी॥
बसन सुम दर् ध्वजा उडाई । कच्छ द्वीप शिवं शिव शरनाई ॥
कच्छ द्वीप रचा रस कोपा । छिग जलहरी घर घर रोषा ॥
कच्छद्रीप शिवको अस्थाना । शक्तिमांहि शिवआपसमाना॥
शिवशक्ती रंग रूप रसीला । शिवसमान शक्ती गहि लीला॥
( ५२ ) नोधसागेर
गभे सनेड रचा जब द्वीपा । खिगिजखहरी सदा समीपा ॥
कच्छद्वीप रचि प्रन कीन्ह । पाछे पच्छ द्वीप पग दीह ॥
पच्छ दीप रचि रंग बढावा । रंग रोस है बिरत स्वभावा ॥
ष्क्षद्रीप रचि पच्छ पसारा ! प्रक्षद्रीप रचि गर्भं सुधारा ॥
खमय-कच्छद्रीप तर पच्छद्रीप है, कच्छ प्लक्षकर भाव ।
दुनो द्वीप कर एकं कंला है, रंगरोषं कर दाव ॥
फुक्षदरीप रवि गभे संभारा । पाके मानद्रीप विस्तारा ॥
पुक्षद्रीप बाहेर सुधारा । द्वीप दी कच्छपके द्वारा ॥
बारडइ दीप रचि पूरण कीन्हा । पाके मीनद्रीप पग दीन्हा ॥
मीनद्रीप रस कंज असमाना । करहि इरदर द्वीप समाना ॥
मीन द्वीप रचि परगटी माया । पूरन महं गभ अहं काया ॥
मीनद्धीप तनको व्यवहारा । चमक चपल ज्योति उजियारा॥
चली चिर चिर बख्वानी । दाभिनि दमके बलके बटानी ॥
मीनद्वीप मन मवन महीपा । सख इख सराग दीषा॥
मीनद्वीप रचि प्रण कीन्हों । पाछे उधाद्रीप पग दीन्ह ॥
मीनद्रीप सुख अभरत टीन्दां । पाछे सुधाद्वीप षग दीन्हौँ ॥
मीनद्रीप सुख अमृत नेहा । च सदशन द्वीप उरेहा ॥
सुदशनचक्र द्वीप निर्बाना । सुधा वारि सत्य शुक्तिहि साना॥
सुदशेनद्रीप पति गण आगर । परमानंद प्रम शणसागर ॥
सातों द्वीप रचा निबाना। काया ब्रह्म भया बंधानां ॥
दवीप सुधारी कमर परकासा । कमर्बास पगटी चहं पासा ॥
व्रथमहि मकाद्रीप निरमावा । उमराव कमर तेहि माह बनावा॥
उमर कमल मकरि कस जाना । खाख पखुरी दरुकी अलुषाना॥
मकर तार डोरी तहां लागी । दरशे खरति सदा अलुरागी ॥
दूजे पद्य द्वीप निरमावा। कमर कूर्म तेदिमांहिबनावा॥
श्वासयजारं ( ५३ )
ताकी डोरी सतसम देखा । कमलनाखके मध्य बिशेखा ॥
तीजे द्वीप लंबनी नेहा । धर्मकमरु तेहि माहि सनेहा ॥
ताकी डोरी अथर सनेहा। अअनाकं तेहि मांह उरेडा ॥
चौथे द्वीप श्चाञ्चरी कीन्ह । इमं कमल दामिनको चीन ॥
ताकी डोरी सदर स्वपा । चमके धारा तार अनूपा ॥
पांचए ्चिलमिल द्वीप संवारा । ताके कमल सुम खुखसारा ॥
ताकी डोरी धुओंके नेहा । अन्ध कार अकार उश्डा॥
पांचौ द्वीप अर्धं रहि वामा । पांचौ कमर ता ऊपर बासा ॥
पांचौ कमङ्मे प्रतिमा पांचा । लगी डोरी अधं धर साचा ॥
कोई लक्ष कोई उत बनवे' कोई हजार कोड सब निरमावे॥
कोई कमल पेखुरी सांचा । डोरी अधं पांचहुके पांचा ॥
ब्ह्माद्रीप चरमांहि निवा । तेदि महं उष्वंकमर् षरकाशा)
प्रथमहि अमी कमर निरमावा । अमी अमान अधश्ुनि छवा ॥
तहवां होड शासयल्ाग । बरसे अमी अखण्डित धारा ॥
अमी अमो अर्धं रहि वासा । शासासार शुडष परकासा ॥
निश वासरको जाने मूखा । श्वासासार शब्दसम तला ॥
निश दिन होय श्वासा गंजारा । सातसे ग्यारह मठ इजारा ॥
अमी कमल अमान सो नाखा । अट्रगईसदर पंखुरी रिसाला॥
तेहि महं चरे पवनकी धारा । श्वासा साथ शब्द् गुजारा ॥
निश वासर श्वासा विस्तारा । छः सै अवे इकीस इजारा ॥
उनताठिस इजार एकसे आवें । एतिकं चिङ्करद्वार होय धवे ॥
दुइ दल कमह शासा आवे । इकंडस इजार छः सेः धावे ॥
बाहस इजार ` चारिसं उने । जाप जापे जिव आप बिहूने ॥
एतिक श्वास दोह दलम आवे । पल बाहर परु भीतर धावै ॥
दूसर कमर अटाञ्चर माहा । लकं ज्योति अधंधुनि तहा ॥
( .९७ ) बोधृस्ागर
खख पेखरी कमरु अनूपा । तरां वसे मनज्योति स्वरूपा ॥
ताहि कसर पर बाजन बाजे । बानी अधर मधुर धुनि गाजे ॥
कूं कमर मकरंदी राजा । तहां विराजति शोभित साजा॥
तहां चरनि घरियार बजावे ' घनी घनी टकोर ख्गावे ॥
दश ओर पचहत्तर श्वासा । इतना एकं घरी परकासा ॥
एतिक श्वासा सहज घर अवि । तहां घरनि घरियार बजा ॥
छसे पचहत्तर की सददानी ! एकं टंकोर टरोकवि जानी ॥
इहि विधि चारि टंकोर टोकावे । ताकर भेदं सन्त कोई पावे ॥
राह केतु संग व्याछिनि रोके । ताको ममं कोई जनि अलोकै॥
एक पहर मारे विधि परा । गहन ग्रासे शशि ओ श्रा ॥
गहन गरासत निरखे श्वासा । रवि शशि राइ केतुपर्काशा ॥
ताहि संग एक नागिनी रहै । चड़ी चड़ वहं जीवहि गहै ॥
श्वासा सोरदेगम गहन गरासे । आगम जानिके जीवहि जसे
श्वास! सोरह गहन लगाव । छट्ये मासदहि काल सतावें ॥
श्वासा परख घरीकी राखे | दमि चले सो आगम माखे ॥
एदिविधि श्वापचलेषुनिजबरी । इइ हजार सातसे तवबदी ॥
पुजे घरि पूरण दोय जबही । पहरके टोर मारे पुनि तबदीं ॥
एतिक श्वासा प्रहर प्रमाना । घरि चारि गरज बघाना ॥
आठ घरी इुपहरि जब अवे । टोके गहर महन नरि खावे ॥
चारि घरी चारिउ युग मूला । चारि प्रहर चारिउ समतूला ॥
चारिउ युग एकं पदरके मादी । चारि प्रहर चारि शुग तादी ॥
प्रथम प्रहर सतयुग परवाना । तापर प्रथम धरी निर्वाना ॥
सतयुगमे युग चारि अपारा । चारिउ युगको नाम निरारा ॥
प्रथमहि सतयुग रोपे थाना । चारों युग तेहि मांहि समाना ॥
सतय॒ग प्रथम घरी निबोना । कीलक युग तेदिमांदि समाना॥
श्वासगञ्जार ( ५५ )
कीटक युगकी श्वास सारा 1 छसे स्तरे पोच धारा ॥
एति श्वासा कीलक युग महीं । षरसे जीव अधरकी अही ॥
बीतत घरी गरज घहराई । कार टकोरां मरे धाह ॥
इह॒ युग अन्त कवे घरी ! नागिनि भासे सन्थुख खरी ॥
व्रथम कीलकं दोय स्षंषारा । वाक युगका यत विस्तारा ॥
सतयुग धरि दस्र जब अवै । तेहि श्वास कमत अग पावे ॥
कमत युग दोह कोधबरियाया । उत्पति थोर बहत संघारा ॥
कमत युगकी श्वासा जाने । @ः से सरह पांच बखाने ॥
एतिक श्वासा कामत युगमाहीं । यण अवर्ण दोड निरवेह तारी॥
बीतत कामतक मोद युग अवे । तिखरी धरी बास्ना धावै ॥
आवा गोन विचारे कोई । युग कमोद अख षविं सोई ॥
तिसरी धरी सतयुगके आई । तब कमोद् थग होय सहाई ॥
यग कमोद सतयुग महं अवे । इखी सुखी नर सब खख पावै
युग कमोदकी प्ररे होई । दुखी खी जाने सब कोई ॥
तब जो होर सूयं संचारा । महाविरोध उपज अधिकारा ॥
चन्द सनेह होय जो दीना । महाञ्चफलङ तन होय मलीना ॥
श्वासा चरे सातसे भारी । एुग कमोदकी कथनी हैन्यारी॥
युग कंकवत कि होय प्रकाशा । अतिही दुजं विषयकी जसा ॥
चौथी घरी कोध बेकारा। महा कठिन हों ताकी धारा॥
चौथी घरी निकट जब अविं । सतयुग अंत ॒कंकवत पातै ॥
सतयुग अत होय नहि पावे । युग कंकवत आय शिरनावै ॥
युत॒कंकवतकाल बरिआरा । कायके बह करे बिकारा ॥
काया कहर गरासे आई । तब न मेद् मै कहौ बुञ्ाई ॥
काया कहर हो प्रचण्डा । नखशिख व्यापि रहै नौखण्डा॥
( ६ ) नोधस्ागर
युग कंकवत कारुकी बानी । कालकला मति सब दिन जानी॥
युग कंकवत समहाबरु योधा । अन्तकारु सतयुग पथ सोधा ॥
सतयुग अन्त केकवत माही । अन्त कारकौ व्यापे छदी ॥
युग कंकवत सोह को खानी । काम कोध ममता रुषटानी ॥
अन्तकारु सतयुगकर भय । चारिउ जग प्रलेतर गयं ॥
समय-एकहि युगके बीते, चारों युग भये नाश
एकनद् चारेड युगखाए, सतुग क न्ह गरास ॥
चौ पादू
कीलकं कंमोद् चंद सनेहा । कृमत कंकवते सूर्थं सनेहा ॥
भाज॒ग अन्त एक सग चारी । चारि घरी शब्द एक नाद संघारी॥
एकं नाद् एक पहर कदावा । चारि घरी तेहि माहि समावा ॥
चारि घरी चारिउ युग बीते । शब्दनाद् रवि शशि धर जीते ॥
सतयुग अन्त बाज्ञ धरियारा । उताथुग कर भया विस्तारा ॥
दुसरे युग॒ भयो विश्वासा । दृसरे पहर तेज भ्रकासा ॥
तेज रुगन श्वासा रदी बासा । ताते इसर युग प्रकासा ॥
तरेता युगकर भा अनुसारा । ता युगहि ते व्यवहारा ॥
भेता युगकी पंखुरी चारी । चारि घरी युग चारि बिचारी ॥
जैसा युग सतयुग महँ देखा । सोह गति उता महं रेखा ॥
जब जब अन्त दोय युग केरा । तब तब नाद् कारु घन चेरा ॥
तेता युग मर्ह कला अपारा । योग त्त तीरथ आचारा ॥
प्रथम घरी दोय कोध अपारा । अहंकार अभिमान पारा ॥
ताकर नाम चिता युग राखा । चित चञ्र चकित अभमिलाषा॥
चक्रितयुग अलोप जब भयऊ । ठोकफिं रकोर नाद तब् कियङ॥
होत नाद मतु अधा धवे। खागत पककमर नर्द खावें ॥
चक्रित युग बीती जब गय । तेहि पा बुद्धि युग भयऊ ॥
श्वास्तयञार् ( ५७ )
बुद्धी युगकी बुदी अपारा । ताय्रग महाकारं बरियारा ॥
ज्ञान गर्येद होड असवारा । बुद्धि युगभान फोरे महिभारा ॥
बुधिक बधिक बौँधिकरे कमाई । विषे चतुराई मति समाई ॥
एही बिधि बुषि युगचलि जाई । तेहि पीछे मन बरत आई ॥
मन मतंग महामद माता! तेज तपस्या ग्यापे गाता ॥
मनयुग उच नीच सतटीला । बरवे ्ारी विकैको शीला ॥
मन युगकी भासा बहरी । ज्यों जलमध्ये उठे तरगी ॥
मन युगराज बीतिगा जबहदी । अहंकार युग उपजा तबही ॥
अहंकार युग अन्त समाना । पर पतंग हार नहिं याना ॥
हारे नदीं आपु अकारा । गरजे इच्छ हारे घुख भारा ॥
अहंकार युग श्वासा अनी । गरि मडि रषं फिरि चनी ॥
अहेकार उद्रेगम अपारा शासा हीन तत्व छिनधारा ॥
अहकार युग बीते जवदही । उताकी प्ररे भह तबही )
रेता अन्तकाल जब कीन्हो । आधी निशा टंकोरजोदीन्डौँ ॥
आधी रात नाद घन बाजा । महानिशान मेव जब्र गाजा ॥
रेता आदि अन्त भ्यवहारा । उपजा इवा षरकला अपारा ॥
द्ापर युगकी कला अनन्ता । सुखदुखमध्य आदिहुखअन्ता॥
प्रथम चरी द्वाप्रको आई । अथनाम युग महा समाई ॥
अर्थनाम युग द्वापर माहां। अथं अहनिश व्याप ताहां ॥
अर्थनाम युग धरी समाना । घरिके बीते युग क्षय माना ॥
एक युग बीते दसर आवा । धर्मनाम युग तदीं धरावा ॥
धर्मयुग धरनी धरु साचा । श्वासा छदसे सतरी पचा ॥
ध्मेषार ओ धीर तरद्का । धरममेयुग रोग वियोग सुरङ्का ॥
धर्मनाम युग बीते जबही। गहर काठ युग बरतें तबदी ॥
गहरकाल युग॒कहर कमाई । रविरथ बीच ध्वजा फदराईं ॥
( «< ) लोधृसागर
गहर उंकोर जब धरनी मारा । गहर कहर रस ज्ञान अपारा ॥
गहर यम युग बीता जबरी । मोक्ष महाबल उपजे तवबही ।
स्नक् नाम जग सत्य सरगा । निभिषि लक्ष दलस्ात तुरंग ॥
सोक नाग युग बीति जब जाई । द्वापर अुगकी पररे आई ॥
जब प्ररे द्वापरकी दोर आदि अन्त सबजाय बिगोहं ॥
द्वापर अन्त बिशुरवन भारी । दुःख प्रचड सुखसबे खुवारी ॥
बीता दापर कखिथग आवा । कलियुग काटकंलके भावा ॥
कलियुग महं युगचार खमाना । चारिड युगको करे बखाना ॥
चारिड युगकी अथं कहानी । बिन परिव सबयसको खानी ॥
सतशुङ् विना न होय गिग । चारिउ चरी कार्की दा ॥
चारि चरी युगचारि बैधाना । कौं मेद सुबु संत सुजाना ४
प्रथमहि युगकर चेतन ना ! चेतनि चित करे सब ठा ॥
चेतनिथुगम्ह चिताको धामा । विस्मय इषं दनो विश्रामा ॥
चेतनि विता करे सब गॐ । महदा बली है श्वास शुभां ॥
तीनि ताप तपे ब्ह्मण्डा । भरमि भूत व्यापेनौ खण्डा ॥
भमित पौन भमंकी खानी । भम हाथ सब इनी विकानी ॥
पठे गुने संसारा । बिनसतशुङ् नहि चित्त सुधारा ॥
सतगुरू भिर दोय सत व्रुला । तेहि णाक उत्पतिकर भूता ॥
दरस युग बुद्धी बर्नामा । ज्ुची अ्चची करं जो कामा ॥
ताकी सख्या बहत बिचारा । छःसं सत्तरि दण्ड पसारा ॥
पाच दण्ड वाकी रहि बासा । ताका भेद कारु प्रकासा ॥
बुद्धी कुञुद्धी दोड कर भा । एकदिथुग दोउ रहनि बताखः ॥
बुद्धि दीन भ मत पसारा। बिनु ओंककंश नर्द होत सुधारा॥
अङ्कश दईं मिरे यर परा । मोड महामद विष्य दूरा ॥
बुद्धि नाम ॒युगकी सदिदानी । सुमति सनेद सुरति रूपटानी ॥
श्वास्चणञ्जार् ( ५५९ )
सुद्धि नाम युग पारस सनेही । चित अभिमान रहे न्दी ॥
बुद्धि नाम युग बीते जबहीं । इच्छा राशि गरा तबही ॥
इच्छा युगकौ अकथं कहानी । नह सन्देश को सहिदानी ॥
इच्छा आदि बुरूषकी काया ! ताञ्च नेह सबं छोग बनाया ॥
सो इच्छा है जीवन नेहा । रही समाय जहां लौ देहा ॥
ता युगमाही विषयं विंकरारा । ज्ञान न उपज भं पसारा ॥
ता युग माहि धरे नहि धीरा । कालक्च रोमहि व्यै पीरा ॥
इच्छा युगकी अटपट डोरी । शहर संधार होय निश चोरी ॥
जब जब इच्छा युग विस्तारी । काया कष्ठ होय इख भारी ॥
ता युगकी बाकी युगतावे। इषि नाहि अदृष्टि दिखें ॥
अत्न अहार करे जब कोई । इच्छा युग तब पूरण होई ॥
तासे युगकी दूसरी धारा सत्र मिरे तो होय उबारा ॥
सतयुङू शरण अमर पद पयवे । इच्छा समय दरी विसरति ॥
इच्छा युगकर तार पसारा। छाज महा बर तजे विकारा ॥
सातों दण्ड इच्छा कर भावा । दण्ड षंच सखातहि विसरावा ॥
पच शन्य इच्छा कर साथी । मद् माते जस मङ्कु इाथी ॥
तास नेह संयम जब पावे । इच्छा मेरि गरव विसरा ॥
इच्छा युगका एतिक बानी । सतशुङ्् मिटे होय इटानी ॥
जाहि देह सतस॒क्ती बीरा । ताकह काठ देइ नहि पीरा ॥
समय-कालतासम्यापे नदीं, इच्छा युगके मारि ।
सतशुरूसो परचय करे, परसे निर्ण नाई ॥
चोपा
चोय युगको करौ बखाना । घमं महाबल माह समाना ॥
अभय तरंग ताहि यग नामा । संशय रहित सदा बिसरामा ॥
तेहि युग माहि सरव सुख होई । अहंकार व्यापे नहिं कोर ॥
(६० ) नोधसा णर
तेदिथुग साहि सुधाक खानी । बोरे धीर मधुर धुनि वानी ॥
ज्ीनी रङ्् तारंग विराजे । नाना नाद अधं धुनि गाजे ॥
खातो द्वीप होइ उजियारा ' दामिनि दमके शहर मञ्ञारा ॥
वन ओ दृक्ष सघन सब होई । सदा बसन्त खेरे सब कोई ॥
षट हतु सहा एक सस तूला । एके बानी एकं अस्थूला ॥
साहब सेवक एके रोह । सदा बसन्त खेरे सब कोई ॥
साहब सन्त ख्ख सब कोई । साहब सेवक रखे न दों ॥
( एफे बास बसे सब कोई)
साहब सेवककी एके शोभा । चीस्हि न परे अङ्की ओभा ॥
साहब सेवकं बरन दुहेला । एके ब्रण शुरू ओ चेख ॥
जैसे पूरु बास कह तोरी । पातै कूल बास गहि जोरी ॥
पाछे पूरु शोभासों देही । तिरु तजितेर बास गहि ठेदी॥
विना मेद् जीव दोह अन्धेरा । पाके परे काल्की चेरा ॥
सीख बिना शुरू टे नादीं। बिरि फिरि षरिरैभोचक मादी
गुरू सुबास है कूर सनेही । सीख स्वरूप आसिका देही ॥
गुर् बिन कौन उतारे षारा। कठिन कार है भौजक धारा ॥
समय-विनसतशुङ् नदि बाचे, फिरि बडे तेहि माहि ।
भवसागरके आसते, गङ् पकरी बांहि ॥
चौपाई
युगत रगकी कला अपारा । बिना मेदको करे विचारा ॥
जस तरंग जलमाह विराजे । एेसे शब्द् शीश पर छाज ॥
मन मकरन्दीके गुण एसा । कोटके बास विषधर जैसा ॥
अभ्नि बीच काया कह डे । सागर माञ्च दन होइ चदे ॥
पर्वत मारि उडावे छारा । पमी मेटि करे मसि आरा ॥
सूयं मेटि सब॒किरन वनाव । पवन बांपि काया दिखराव ॥
श्वास्षगुञ्जार ॑ ( ६१)
पानी बांधि अग्रिको डहै। पालख मेटि गरमि नदिं चाहै॥
तीन लोककी जेतिकं खानी । करे बास स्वक्ी सहिदानी ॥
विष दाङ्ण विषयाषसि होड । मार भरे जियवै सोई ॥
जो चाहै सो सवे षने! मनकी कल हाथ जो अकै ॥
मन भूखां ओ मने अघाना । मनै पियाक्षाकर जल पाना ॥
मन सुरा मन कायर दीजा | मनै विरह विरहिन सङ भीजा॥
मन दारण मन कही सियारा । मने तास ओ मनै पियारा ॥
मन राह मन राव कवे । मनै बिना यन हाथ न अव ॥
भन बाहर मन सबके माहीं । मनते भिन्न कोऊ जग नाहीं ॥
मन सर्वज्ञ चराचर माहीं मनते करता इसर नाहीं ॥
मनही देह मनहि पुनि रेदं । मनवबसि काम छहरिबस सोई॥
मन लोभी मन कृषणी होई । मन उदार यन दावा सो$ ॥
मन पापी मन अष दो । मनै भक्ति करि तारे सोह॥
मनै छेख मन करे अछरेखा । मनही स्वग नकको छेखा ॥
मनहि मरे मन मन नरके जाई । मन बसि जीव सदा पिताहं ॥
करता जीव रंग मन आहीं। शोभा सकर रंगके माहीं ॥
रंगदेखि सब जगहि थुलाना । रंगकूपको एकं रिकाना ॥
बिन रंगरूप होर कीका । रंगदूष मिलि देखिय नीका ॥
नीकं देखि सब शीश नवाते । निरखि देखिके शीश इलावे ॥
नीके लागि रहा सब कोई । अनस नीक मनते होई ॥
ताते इह मन कर्तां भाखा । तिरश्ण डोरी बांधिजगराखा॥
मन हषित होय गावे गीता । मन उत्कण्ठमन करै पुनीता ॥
भन खोजी वादी रोईं। मने रु सयुञ्चवै सोई ॥
भन वारे मन आनि जड़ । मनमलीन दशड दिशि धावै ॥
` मन अज्ञान मने सज्ञाना। मन कषिता मन चतुर प्रमाना॥
नं. १० बोधसागर - ५
( &> ) बोधसागर
सनन्द धरि भाषा बोरे । मन अस्थिर मन चञ्रु डोे॥
सने ध्यान धरि वेद बखानै । मने नबोडा कर न वैंधानै ॥
सन षट चक सन विप्र तेधाना । मनके सकट शूप है ठाना ॥
सन नट नाटक अहा समाना । सन नट सव कथे असिमाना ॥
सनहि अटारह पटे पुराना । मन मन कहि ससुञ्चावे ज्ञाना॥
सन चउदय विद्या अधिकारी । मन अिङ्री मर खव तारी ॥
सनकी ज्योति सकल उजियारी । मनकी छया सन अधिकारी ॥
मनरीसों सब सरदी काजा । सन है सात द्वीफको राजा ॥
मन बिव सरेन एको काजा । मनके ऊपर मनि विराजा ॥
( मननवखण्डदशहुदिशगाजा । )
सतगुङ् सीख मनहिको कीन्हा । मनते भक्ति मनते एथचीन्हा ॥
मन माने तो सवे बनावे । मन बितुपन्थसो कौन चलावे॥
मन चीन्है तो अनकहं पावे । बिनु मन सत्यशब्द नरि आव ॥
मन चीन्दै तो सब बश होई । बिनु चीन्दै सब जात बिगोई ॥
तीन रोक जो बाहर भाखा । सो सब आनि देहम राखा ॥
मन चीन्है तो दहाथहि अवे । तीनहि खोक देहम पावे ॥
जो बाहर सौ भीतर पावें । तीन खोक पर भांह दिखा ॥
तीन लोकते बाहर बासा। भन चीन्हेतो रोइ प्रकाशा ॥
जब गि मनको अन्त न पावै । तौ गि इह मन हाथ न आवे॥
समय-तीनरोक रँ देदमर्है, रोमरोम मन ध्यान ।
बिन सतगुरू नहि पाडये, सत्यशरण निजनाम ॥
चौपाई
खात द्वीप काया अस्थाना । सातों द्वीप कमर बंधाना ॥
नाक साति र्ना गति देहा सातो सुरकर एक सनेहा ॥
तहको मेद ईस जो पावै। दुबिधा दूर मति संब गवेव ॥
श्वा्थञ्जार ( ६३)
पातै मेद करे विश्ामा । पल पठ प्रशं निद्यंण नामा ॥
आवत जात बार नहि खव । प्रवे नाम अमर षद पवि ॥
नार सात खर एक श्किना ) ताके निकट इसके थाना ॥
नदी तीन बादी गम्भीरा) साम तरां गोफाके तीरा ॥
तहां वैरि . अजा लौ छव । रोम रोम की सव सुधि षव ॥
रस ओ विरस तहांकर मेखा । होत बसन्त शरू तहं चेला ॥
श्रु समाधि ह अट्ट ग्रमाना ) चेला अग्रवास् मह साना ॥
चेखा बास शफा महँ करई । पल पर सुरति शब्दवंर धरं ॥
बिगुण तेजकी दीखे काया । दामिनि दकि कोरें बाया ॥
ज्ञो शङ् भिङे तो षांजी प्रवे । बिन पांजी षिचही भटक ॥
घांजी पावै सुरति सनेही। पूरण तत्वं चङे जब ददी ॥
कृरे चन्द्र तापर असवारी । व्रीति परण जागे मारी ॥
प्रेम पियाला तहां पीवदि । निशवासरचित आनंदं दीवहि॥
चेतनि चेत होय बल जोरा । जागतं साह न भूत चोरा #
श्वासा चारि लगनकर भावा । जब उषजे तब संगहि आवा ॥
चारि गन दइ भाव अपारा । उपजे विनंशे क्रम व्यवहारा ॥
ठकं लगन संग उपज काया । एक खगन बह सुख समाया ॥
एक रगन दुख दारुण हो । शब्द गहे नहि दुर्मति खोई ॥
एकं लगन संग उपज काया । एक ठगन बहसुख समाया ॥
एकं गन दख दारुण होहं । शब्द् गहे निं दुर्मति खोई ॥
एक लगन संग उपजे काया । मोह महामद विषकी छाया ॥
विलसत उपजत सब जीव जाह । ना गुरू मिरेना अर्थहि पाई ॥
चारि ख्गनकर नाम निराला । इह सुक्ती दइ कार कराला ॥
उत्पति संग सुधाकी आया । दुखदारूण होइ तजे काया ॥
( ६9 ) बोधस्षागर
जे खनि रगत सँवारे बीरा । उत्पति कै सग तजे शरीरा ॥
बाकी जवनिकारु खि राखा । मेरे अक कार्की शाखा ॥
उतपति दोत छ्िखि यसराया । सो सब दीसे नरकी काया ॥
खातो द्वीप र्खे सहिदानी वासि बाकी कमं निसानी ॥
ज्ञेतिक श्वास चे नर देहा । ताकर जाने सवे सनेहा ॥
दस विस्तार छ्िखि सब दा } पाके करे करे जे चा ॥
द्वीप द्वीपकर अग जराव) करपग प्ररो प्रकट दिखावे ॥
चौरासी लक्ष योनिनकी धारा । नरकी देह ते कमं अपारा ॥
चोरासीकर पातकं भारी । नरकी देह सब ङ्िखि विचारी ॥
करपाछछे वासिरु छिखि राखे बाकी अकं मध्यै भाखे ॥
जमा शीसपर लिखे बिचारी । नित उटीके न्यावे निर्बारी ॥
सातों द्वीप सुधारे रेखा । एेसा यभकर वरवसं देखा ॥
कृरमज चारि अक छिखि देहं । वाके सबसों निरणे रेह ॥
शेखा इराछि छिखे विष एजा । लसन मसा छिखे तिर गजा ॥
चक्र लिखि ओ आपदि बसे । सन्धि लिखे जीवन कर फस ॥
नखशिख छ्िखि कमकी खानी । गुण ओगुण नहि मेरे जानी ॥
जाहि द्वीप जस अकं लिखावे । तहां तहां तस चाक चलावे ॥
रवि शशि अक दोउ छिखि रई । षे दोष जीव कं देदं ॥
श्वासा स्नेह छ्खि सहि दानी । पाष पुण्य थुगतावे जानी ॥
जेयुनि लगन दोय उतपानी । लगन केतुक सबही हानी ॥
दोउ लगत साधं शशि सूरा । पावे सत शुर हारु हजूरा ॥
जो गङ् मिरे तो मेरे रारी। बिनसतयुङू सब यमकी बारी ॥
सतय बिना न दोय उबारा । केतो ज्ञान कथे संसारा ॥
ज्ञप तप योग यज्ञ त्रत पूजा । कार सनेह ओर निं दूजा ॥
श्वासगञ्जार ( ६५ )
तप साधे रदसे मन माहीं । काल करमकी च्खे न छहीं॥
विद्या वेदकी करे उचारा कर्मवश जीव भये यमचारा ॥
जव गि इदय श्ुद्ध नि होई । तव गि पार न पव कोहं ॥
जादी खगन तन जग रही । ताही खगन तजे जो देद्ी॥
सो जीव उतरि जाय मौ पारा । नहि तौ अटकि रहै संसारा ॥
काटहि बस जो तजे शरीरा । ताकह काठ देइ बड़ पीरा ॥
लगन केतुकी दोय न न्यारा । पाछे र्हं गरभ ओतारा॥
नकं खानि भुगते चौरासी । धरि काया बांधे विसवासी ॥
सतगुर् बिना कगन नहिं पावे । अन्तकाल यम धोखा छगातै ॥
जीवत कथे बहू ज्ञान अपारा । कार चतुराहं छन्द वसार ॥
कर्मकी वेशी सबं जीव फस । इरी न मानै अनै हास १
तादिन भूखि है सब चतुराई । जादिन काल धरे तन आई ॥
शूरख चतुराई सहज वेराना । छोटे बड़ ममं नरि जाना,॥
ताते सत गुरू खोजह भाई । जाते कर्मं भसं मिटि जाई ॥
कुगन केतुकी देह वबहाईं । बाकी सवे कार्की जाई ॥
जे मुनि जन तजे शरीरा । गहै न काल विषयके तीरा ॥
कागद करि जाय भवं पारा । मे यमकर सकर पसारा ॥
सतयु्सेती चाल गहि खेई । ताकह कारु दगा नहिं देई ॥
समय-काल दगा सब मेटिके, उतरह भवजर पार ।
यमकी चाल बिचारिकेः बहुरि न शो ओतार ॥
चोपाई
धर्मदास ओरो सनि रू । जीवन बाह जानिके देह ॥
जाको होह सत्यको रेखा । नख शिखदेखह अङ्गविशेखा ॥
चतुर शीर दोऽ निरखेउ जानी । करपर देखहु भक्ति निशानी ॥
शंख चक्कर देखेह थाना । लक्षण जानि सुधारे पाना ॥
( ६६ ) बोधसागर
डोरे मधुर शीखुकी बानी । तेहि तन होय ज्ञानकी खानी ॥
परिनि अव समाजो होई । शब्द विवेकी जाने सोई ॥
खसज रोय जारि कर माहा । यश विस्तार ज्ञान अवगाहा ॥
परक पसार छ जो डो । रोक निशानि अश्च जन॒ खोई ॥
नासिका नेह होय जो मासा! इरि कठोर रोग तन वासा ॥
सौरनीपर जो गजौ गजा । तामस तेजं विषयको पूजा ॥
कोतह गरदनी एचातानी । बजा गाडर विषकी खानी ॥
शख चतुराई दय कठोरा । बोरे ञ्जीन कोच कर जोरा ॥
इन जीवन जनि बोधह जानी । अन्तकार पुनि होवे हानी ॥
नारी नेह विचार जानी । देखडू देह दीप सहि दानी ॥
राज गुञ् निरखेद अनुहारी । कर पगशीस लक्षहि विचारी ॥
चंचल चारु पोल होय पा । तेहि जनि कृबह चरण छुआ ॥
गुख होय जेहि मास छिलारा । तेहि बोधते होर कमं अपारा॥
बोट थुजग ओ जीव भुजगी । विष बरजोर बसे तेहि संगी ॥
ने य॒ज ए उंच छिलारा । कामरुहरि बहु जहर पसारा ॥
हसत वदन चारे चतुरंगा । बोधत ताहि होत सुख भंगा ॥
नेन शेष निरखे जेहि ओरा । ताक कष्ट देह तन चोरा ॥
शुभ रंश होई विषखानी । क्षीरे छिर विष बाखककी हानी ॥
सो गुण छडि तासु शरीरा । द्वादश केवर बसे बरूवीरा ॥
नाभिकमल होइ रेखा तीनी । बाएं अङ्ग रोए शशि रीनी ॥
कच्छदीप होइ गुजर चितेरा । परसत ताहि कारको चेरा ॥
जङ्दीप होइ शख गदीला । दसन मासा होई जो ईरा ॥
तेहि परसे ओ बेधे जानी । य॒ शिष्य दोनोकी दानी ॥
मीनहि दीप विकट होई रेखा । ताके अङ्ग काकी रेखा ॥
बच सुआ बछ गूगी होई । कलपत जाय कारपुर रोई ॥
श्वास्यञ्जार ( ६७ )
कूर्मं स्नेह लक्ष कर जोरा । चतुर सनेह ज्ञानबर जोरा ॥
वग छतनार होइ जेइ जानी । पुस्तर्षाव प्र कार कुबानी ॥
समय-चरण षठो स्म दोय कर, घटिका पलो अरमान ।
ज्ञान सनेहदी दूत है रोम रोभ भगवान ॥
चौपाहं
दूनो अग विचारेह जानी । एकरजं भक्ति एकं विष खानी
दो अंग लक्षण गहो शरीरा । पाठे देह शुक्ति ब्रबीरा ॥
वरिचय भेद विचारह जानी । पान रेत जिवं होय न हानी ॥
लक्षण रक्ष्य होय सम तूला । पावै सतद्र् अक्तिके सला ॥
समय-आदि निशानी देखिके, बांए दहने बाम ¦
शब्द सनेह नेह करिः तब दीनों निजनाम ॥
चौपाई \
बंए अङ्ग मसा जो दोहं । तीरथ अङ्करेवा हो दोह ॥
वांए अग विषयकी बासा। माया सघन वश कर बासा॥
दहने अग विषय जो दोहं । शीस संपति सुख गास सोड॥
विकटदंत होय जेहि बारी । शीख्वंत सुख पेम खधारी ॥
बिरर विद्कर खख जम्ब सनेही । विहसत वदन सदा सुखनेदी ॥
उज्ज्वल नेह सदा सुखदाई । शीर सनेह भक्ति बहताईं ॥
ईस गमन सतशुर् सों नेहा । म्री बोरे मेम सनेहा ॥
कर षद् कोमर शरद् शरीरा । सुत संपति जैसे दारुण धीरा ॥
मञुर बात ओ चमके देहा । सबते बोरे सुरति सनेहा ॥
सुरतिवंत प्रीतमकी प्यारी । पष्छो लांव जेठ पुर भारी ॥
श्यामगात लदसन तन माहा । माया संघ न ओ मासे नाहा ॥
राजवरण परिय श्याम शरीरा । पिया हि आहिपरीमल गंभीरा॥
वगरूधि अख आमिष जो होई । तन भरसेव सुत सुति विगोई ॥
( &< ) बोधसरागर
रूभे गात सोर तन भारी विरह विकार कोधअधिकारी॥
छोर शरीर पातरी वामा आषु तजे अन्त विश्रामा॥
निहरभी वचितवनि एेचा तानी ' बहुते पुरूष एकं पटरानी ॥
विहसत बोरे करिरु निहारे । आषु जरे ओरन करट जारे ॥
आगे चे पाछे तन देखे । ण ओगुण एको नहिं रेखे ॥
उपर रसे सनही पछताईं । देहं थोर बहत पुआई ॥
एकं थन छोर कठोर बानी । एक् थनञ्चारूरि विषकी खानी॥
नाभी पर तीनि दोह रेखा ' सुखसम्पति सपनेहु नदीं देखा ॥
इन्द्र माञ्च य॒ होई भारी । जो परसै तेहि कैर खुरी ॥
मोट पतग चाकरी चाल । तेहि देखत भिय होई बेहाख ॥
पग पात्र परो छत नारा । प्रसन बास प्रे यम धारा ॥
कनअंगरी अधर तिन खमे । आपु नाह तजि प्रचर बागे ॥
अस लक्षण होइ जाके गाता । प्रान रेड करै यम घाता ॥
करम्भ लिलार खम्भ जो होई। जो षरशे सो जाय बिगोई ॥
केर पग परो गु सनेदी । परसत दई माट्धकी देही ॥
जोरे पुर करमह होईं। नाहरि नाक भासे सोई ॥
अहि दोय लक्ष तिरञ्चला । काल स्व्यं होई अस्थूखा ॥
सुक्तिपन्थ कबहू नर्द चाहै । सदा विकार विरहं रस राह ॥
` चञ्चल चित्त थिर नदिं दोईं । भजन भग रसं भक्ति बिगोई ॥
वर्णी षस बिसंभर जोरी । नेच बिलोन रंग होड गोरी ॥
ब्त पिरे प्रकट निं होई । अन्तर भषति ऊषर दोह छोर॥
प्ेमवन्ती होइ सुरति निहारे । आप तरे ओरन कं तारे ॥
करे दंडवत निभेय नारी । भक्तिवन्त बहु लीखा धारी ॥
बिगसित बदन शीर्की आखी । कर परिवार भक्तिगणसाखी ॥
सतथर् नाम सुने सचुपावे । मण्डर चारि शब्द् फेकावे ॥
श्वासथञ्जोर् ( ६९ )
हषित होइ सतश् शण गावे । भक्ति कि बात खदा मन मावे॥
गुह सनश्चुख दोह सेवा छवि । सदाकाल तेहि मस्तक लवे ॥
संपुट वदन क्षीणता दौ । सतशङ् शब्दहि एकं बिरोई ॥
सतर देखि न प्रदा अनि । शब्दकी चार संदा पदिचनि ॥
सदा अधीन रहै तनमांही । भागे काल देखिके ताद्दी ॥
कर जोरे सनश्चुव शिर नवे । लाज कानकी दशां मिटे ॥
चेसी लक्ष गहै तन पासा । वावन पान रोक होड वासरा ॥
ठेसी लक्ष विचारेड इसा । दीन्हैड ताहि शब्दकर अंशा ॥
राज काज कह देह बडाई । मेद सुधारत कार पराई ॥
माता बेटी मई नेबारी। छना तजिके कार विडारी ॥
लोक लाजकी दशा मिटे । तौ रिषएुकार निकट नटि अविं ॥
रामचन्द्र िथुवन के राजा । लोक खाजबरि कपिदलसाजा॥
जानि परी नहिं यमकी वानी । ताते कार कीन्ह तन हानी ॥
लाज लिये तन करे उदासा । तेहि मन भरम भ्॒तकरबासा ॥
गु्सों करे कपट चतुराई । चार बिहून काड्षुर जाई ॥
भक्त कहावे लजना नदिं तोरे । निश्चक काक नकं महं सोरे ॥
भक्त करे कल दश्चा मिटावे । प्रदा गनि काल्षुर जवे ॥
सो सतयुङ जो होय सयाना । चार चलवे शब्द परमाना ॥
आगत प्रदा मेटि बहाव । पाछे भक्ति पन्थ महं आदवेः॥
कपट छंडिकं शीस उतारे । हंस दशा धरी शुक्ति सुधारे ॥
शीस उतारि इशथ पर र्हं । पे पाव तादिपर देई॥
भक्तिका चित इषित शे । ममता मोह रहर तज दोई ॥
कामिनि कनककालकरफन्दा । मयडउ कार कषटि मन मन्दा॥
दबो शीस अपना लाई । ुक्ति पथ पावे तब भाई ॥
पव मेद॒ शब्द् सदि दानी । काल कृठ्पना मेः जानी ॥
( ७० ) बोधृसागए
समय-निडरी निडर नाचे, चारिउ अचर छोरी ।
घनी पियारी होड रहै, यमसो तिद्खुका तोरी ॥
चौपाई
इहि विधि शुक्ति गहे जो कोई । ताको आवागौन न होई ॥
आवागौन . शिचारे जानी । काया कष्ट होड नरि हानी ॥
सतगुरू शब्द जो रागा रहै । निकसि चरण सतशुङको गर ॥
तीन लोकं नाद जय जाई । सतगुरूकौ पग रदे समाई ॥
तिसरी शासा साधे जानी । कुरु अभिभानमिरैसबखानी ॥
नरको लक्ष पारख करि रू । पा वाह तादी कड देहु ॥
चंचरु चपल ऊुरिरु तन दों । पान पयवे तन जाय बिगोईं ॥
ताको रक्षन नकंकी_ खानी । बोधत इई इ्वोकी हानी ॥
राजा वरण तन बन्सी छाव । आप नष्ट होइ ओर नशावे ॥
जो वाकी संगति बेटे जाई । अपनी दशा ताहि पहराई ॥
सो सतणुरु जो दोय सियाना । लक्षण देखि देइ तब पाना ॥
आगत पान धरे वितलखाई । पाछे निर्णयं शब्द् बुञ्चाई ॥
पानलेत् चित दित. होई । चालं चले निं दुम॑ति खोई ॥
ताहि देह गुरू पिपीलका । रक्षण हीन रेष होइ जिसका ॥
तापर अक छ्खि सदिदानी । कार कराधरि देह निशानी ॥
जेखा लक्ष _जादिपह होई । पान देह तेहि तहँ बिरोई ॥
मामत पौन छित तेहि माहा । दिटे इराका युरूको ताहो ॥
जाके होई सुमतीकी खानी । तादी देह ुरुनाम निशानी ॥
राज ब्रण सुख शीतर बानी । ताघट होई ज्ञानकी खानी ॥
पूरी तव पान जो पावे। यमकी नाक छेदि घर अवे॥
राजवणं होय क्षीण शरीरा । ता घट काट करे नहि पीरा॥
राजबरण शख गंज चतेरा। सो जिव होय कालको चेरा॥
श्ासयओार ( ७१ )
तापर काठ छिखे सहिदानी । बोरत धीर इदयं बानी ॥
लक्षण भेद कटो सदहिदानी । कालसभा भयभीत निशानी ॥
कालकला निरखेह बह भाती । करहु विचार दिवस ओ राती ॥
कृपण होय माया नई छडे । जोरी जोरी बरनि महँ गाडे ॥
आशा रहे तहां ल्पटाईं । शुक्ति दोय नहिं यमघर जाई ॥
देह ताहि विष गंजित पाना । करम रेख सब देह प्याना ॥
नेत बिरोन मसा अख दोह । करत कल्पना जाय विगौई ॥
वा शीश होय अख दी । इद्य कठोर दया नर तादी ॥
मध्यं कपोल होई तिर खानी । बि तत्व रे बोरे बानी ॥
वाये विभो मासा जो होई । दृहिने दारण तेज समो ॥
वाये विभौ तादहिके हदोहं। अंत चरे जिव सर्व॑स्च खो ॥
गृहरी चितवनि सख चतुराई । कपट चोर होई इखदाई ॥
छोरी गदन राजस भारी । भिथ्या बोके होय खरी ॥
ता घट जीव दया नरि होई । बोधत ताहि कारु पुर रोई ॥
जान उपज कमती शरीरा । तेहि जनि देह युक्ति बरूवीरा॥
एक समय पान जो पवे। आपु जाह संगति बगरावे ॥
विषयहि लम्पट दोय चआरी । इनते होह है पन्थ खुआरी ॥
शब्द् पेलीजानि पांव छुआवहु । महाविकार तन कष्ठहि पाड ॥
ताते भागम कहौ पुकारी । मति कुडाय पान निङ्आरी॥
षित वदन रहै दिनराती । शरसा प्रीति केरे जेव स्वाती॥
सोपेदी सदा स्वाती आसा । उपजे युक्ती ज्योति परकासा ॥
रहनि गहनि ब्रञ्चे करजोरी । दीन्देह ताहि शब्दकी डोरी ॥
गुरु सन्युख होइ सेवा खव । काम कोध ममता बिसरा ॥
सदा अधीन रहे गुरुआगे । पावे शब्द सहज अरागे ॥
( ७२ `) नोधसागर
शुरूपद् छंडि अनत नरि जाई । चशे अमी रस पीवै अघाई ॥
खसमता धीर दोह जेहि गाता । तेहि यमकबहि करे नरि घाता॥
शुङूगम भेद बूञ्चि सब पावे । ममता मोह सवै विसरावे ॥
समय-गुरूको आज्ञा अवै, गुरूकी आज्ञा जाय ।
कहै कवार सो इस भए, बहुबिधि अमृत खाय ॥
चौपाई .
क्षीण अधर ओ नेच विसाखा । श॒रूगमी बोरे शब्द रसाला ॥
जो कोइ तपत ताहि पहं आवे अथ्त सीचिके ताहि जडावे ॥
पावे अपरत इषित होई । मोह महाबल जाह बिमई ॥
ञ्दकी परच बोरे बानी ) तन अभिमान विसारे खानी ॥
तत्व तमाशा निश दिन देखें । भाव अभाव एक करि लेखे ॥
आसन मारि समाधि रगावे । एक पग संपुट पाछे रवि ॥
उरूटी बाह शीशपर राखे । पूरणतत्व अमीरस चास ॥
पलकन मारे राखे साधी । तिरषेणी तट राखि समाधी ॥
अमर महातम तत्वदहि राता । दशं सूख सागरके दाता ॥
ज्ञान महातम तबही पयवे अमर समाधि एकपरु रव ॥
तबरी मिटे काल करदाऊ । दुविधा दूसर सब बिसरा ॥
अमर समाधि महा फल पावे । जमदाङ्न तेहि शीश नवते ॥
करपग कोमल रोग न ब्यापे। कारु कला तेहि देखिके कपे ॥
अखंड मंड शुफाके तीरा । दरश ज्योति अखंडित धीरा ॥
जो देखे तो प्रकटे चोरा । देखे बिना ज्ञान होय भोरा ॥
तत्व समाधि लगाव जानी । उपज ज्ञान अमी रस खानी ॥
बत्य सुकृत पग परसे जाह । रोग न ग्यापे कार न खाई ॥
तत्व तमासा गुश्युख देखे । तत्व छाडि निहतत्व भिबेखे ॥
तत्व समाधि करे नित प्रजा । सत्य सुकृत तनि ओर न दूजा॥
श्वाच्चयुजारं ( ७३ )
पोँवके उपर पौव चडि हाथ फेरिके संघट खव ॥
संपुट शीश अवै जानी । निरखे अरध उरधकी वानी ॥
कसनी कसे बहत्तर डोरी । उरति शब्दा राखे जोरी ॥
अधर अवाज छले निरबाना । राग छतीसो शने धाना ॥
रखी टेर अधं भनि होई । ज्ञानशफा चडि निरलेह सोई ॥
सनत अधं धुनि उन् भ्ुनिराता । बश्च आहि अन्तकी बाता ॥
मन मकरंदी के शुण पवि । मगन होह चंचरु नहिं धावै ॥
मन सर दोई सरे सब काजा । अंडे कपट शीश विद्खराजा ॥
नख शिश मने बियपे सोहं । मन चीन्हे मन अपे होई ॥
येह मन शक्ती येह मन सीवा । येह मन प्च तत्वको जीवा ॥
इह मन ल्के उन सुनिररै। तीन लोककी बाति करै ॥
उन खुनीमे रहै रहवं। ताकर ईस कार नहिं पावै ॥
उन्नी मह॑ कवे तारी । अङ्गम महलमरसुरतिवैठारी
उनय्ुन महं जो वासाकंरे। अगम महलमें रति छे धरे ॥
समय-उन चदी आकाशको, गहं गगनप्र छटि ।
ठेस चरे जो जात है, रहै शिर कूटि ॥
उन सुनीमें धमंदासबसे, बकं नार गहिजोर ।
शिर उपर ४५. तहे तहां शीत शब्दकी डोर ॥
पादं .
उन्नी सांची खरति है बासा । धमंदास गहि राखह पासा ॥
सोहं सार मूर धुनि राता। तास नेह मिरे दाता॥
समय-हसा सोहग मान केरे, निकसि खेर भेदान ।
तहां सुरति बेगरिके, ६४ प्रति खवे ध्यान ॥
पा
अमर आसन करौ बिचारी । धर्मदास यह कथा निनारी ॥
( ७४ ) बोधसागर
जो कोई सरु ठीक धरि अवे । सोहं अमर समाधि लगावै ॥
खार समानं रहै दिन राती । पावे आदि अन्त उतपाती ॥
अम्र महातम पावे नीका । अमर समाधि को गहै धरि ठीका॥
पांच पचस सकल सब जाने । आवत जात श्वास पहिचान ॥
श्वास सार शब्द निङूआरे । अमरसमापि को मेद् विचारे ॥
निशि वासर है शब्द समाना । जागत सोवत एक ठिकाना ॥
अमर धुनि शब्द् समाई । बो ज्ञान गमी अधिकाई ॥
रावि अमर मरु महतारी । अरर रहै मति टरति न हारी॥
अमर् सुदावन आसन् मूला । नख शिख मेद् गहै अस्थूल ॥
तनकी रक्ष्य र्खे विस्तारा । लक्ष्य अलक्ष श्वास गंजारा ॥
लक््य र्खे सो साधु कहावे । बिना लक्ष्य सतर नरि पावे॥
सतगुरु चीन्दैे के सहिदानी । कार व्यार भयभीत निशानी॥
कारु कार बन रेख बनावा । नख शिवं जानै तासु सुभावा ॥
पत्री भ्रीव नासिका भारी । भृङुटी देह नेह होइ कारी ॥
दहिन यीव मासा को बासा। गुण गंभीर ज्ञान परकासा ॥
नेच रसा बदन मनिहारा । शब्द सनेदी सदा पियारा ॥
सदा दय सतगुरूको आसा । बोले ज्ञान गमी परकासा ॥
पूरण लक्ष पक्ष दौड दोईं । शब्द् गहै बह भेद ॒बिरोई ॥
लला पाट रेखा होई चारी । सुरति सनेदी सुरति सुधारी ॥
तेदि जानेद पीछल सदिदानी । पाछिल बोध भये सब हानी ॥
सुनत शब्दं मिले सो आनी । शब्द सनेद गहै चित्त जानी ॥
पलक छच ओ जीने व । 4 ध कपट सब ८ ॥
ताकद जानह हस सदे । आ य॒म प्रदा ॥
भीतर वचन केदे दित जानी । पाछिक सुरति भह जत हानी ॥
च्रण टेकिं चित बोधह जानी । जाते आगे दोइ न हानी ॥
रोष कर तो मोर दोदाई । रको रोष रोक नदिं जाई ॥
श्ासयजार ( ७५ )
समय-गुरूते माथेते उतरे, शाब्द बेहूना होय ।
ताको काठ धसीर है, रासि सके न कोय ॥
चौपाई
शरु भूद्धी कर एक सुमा । मेदे करम करे अकता ॥
शीख जो मन बसिदुबिधा करई । शुर पुरा होई चित ना धरई ॥
चिततो धरे शीख बिगारे) आपु सहित भवसागर डारै ॥
दीन दयाल गुरुनकी रीति । जेसे चन्द चकोरहि प्रीति ॥
सीखे सिखापन बहुविधि देही । भरम मेटि निर्मल करि ॐेई ॥
शीख भेद जो पे आईं। र दोह तौ उठे रिसाई॥
पूर होइ तो शीखहि बोधे । कलह करपना तजिकै सोघे ॥
शीश अज्ञान पार निं पाईं । ताते केरे कपट चतरा ॥
करे ङरिरूता बोठै जोरा । युर पुरा होड करै निहोरा ॥
समय जानि वचन मुख बोले । कहं शीतर कं तेजस डोले ॥
समय जानि बचन् सुख बो । कटं तेजस कं शीतर डोले॥
जब जब शिष्य करे अज्ञानी । दय शुद्ध शख करै ङबानी॥
भाव विचारि शिष्य सों कददीं । शिष्य की दशा जो नीके छहदी॥
जोर कडनको शिष्य उराई । शुरुशब्द महँ लेह ॒मेराई ॥
गुर परा हीय ताहि सुधारे । करम कारि भव सागर तारे ॥
गुर् सुवास सबके सुखदाई । गरु राखे तो काल न खाई ॥
जानेह ताहि काक अभिमानी । काल अङ धरि प्रकटे आनी॥
गुर नाता धरि शिष्य नशाई । रहनि गनि नरि एकं लखाई॥
अज्ञान दिसासे शिष्य कहावै । गुरु होय शरूगम ससुञ्ावे ॥
शिष्य कंरे बह चञ्चर्ताईं । गुरू पुरा होय खेह बचाई ॥
गुरुको दशा ज्ञानकी भाऊ । अज्ञान दशाते शिष्य कदाड॥
रण ज्ञान गमी जेहि होई । दंस उवारन सत गरु सोई ॥
( ७६ ) बोधसागर
सखतगुङू कटा अनन्त कहावे । ताकर भेद शिष्य किमि पावे॥
ताते शिष्य किय अज्ञाना । गुर् बतावे शाब्द निर्वाना ॥
शिष्य नाता घरिजो कोड आवै सतश् रोइ सत राह बतवे ॥
गुर् सोई जाको चित भीरा । सुरति सरोतर साजे वीरा ॥
केतो चक शिष्य सों परईं । सतशुङ् पूरा सब परि हरई ॥
समय-जाका चित्त सञुद्रसा, बुद्धिवन्ता मति धीर ।
सो धोखे विचरे नहीं, सतशु् कहै कीर ॥
चौ पाईं
लक्षण लक्ष्य बिचारे जानी । निरखे आदि अन्त सहि दानी
शरू पूरा शिष्य होय उदासा । शरूगमन रेड शब्द परकासा ॥
आदि अन्तकी परिचय रई । पाछे मेद॒ शब्द तेहि देई ॥
परखे परिचय प्रखे रेखा । शब्द सनेह सुनि रेखा ॥
जिङ्टी तीर गज् जो होई । परिख शब्द रहै तन गोई ॥
ममता मोहद करे हकारा । अन्तर कुटिरू चतुर वरिआरा॥
पलक भुअङ्कः परोहन साथा । इदय मटीन नवावे माथा ॥
वरौनीपर जो गञ्च शखा। महा सुबुद्धि दोह शख पुला ॥
हदय मलीन दोय सुख छादी । गङ् गमि शब्द् विचारे नाहीं ॥
हसन मासा होय खुखमाहीं । शक्ती रबी जम) हिक छंदीं ॥
राज बरन ओ रवी देहा । गुूगमि शब्द् विचारे नेहा ॥
नेच कीति कुरि वृक्षकी शाखा । बोरे सदा मधुर धुनि भाखा ॥
व्रण छीन लो नेच मीना । इदयं कषर शुख रह अधीना ॥
भ्रुकुटी ॐच शीश छतनारा । ज्ञान महाबरु कथे अपारा ॥
लम्बी नासिका अवण है छोटा । इदय शुद्ध शख बोरे सोटा ॥
राज बरनहि मोट तन भारी । छोर शरीर ज्ञान अधिकारी ॥
मोरी नासिका ऊच छिलारा । ज्ञानदीन मन कथे अपारा ॥
श्वासथञार ( ७७ )
पातरि अधर कषोलन्ह मासि । ज्ञान महाबल कथे निरासा ॥
धरनी धीर धरै गरमाई। उदी दरबर ओ बहताई ॥
आगे अ्रीव गंज होइ भारी) भाया सवन क्रोध अधिकारी ॥
भुज भुञअग नागिनि मनिहारा । करषग रसना रेख सुधारा ॥
शेवा चारि दोय चतुरंगा । कार कला धरि प्रकटे अंगा ॥
करषर होड दीर्घं भेण्डारा । ताके निकट भजनकी धारा ॥
सोई धार अखंडित होई । क्षीण भग मति गहे बिरो$ ॥
धारा भिलि अवधी कह आह । ईसदशा धरि पथ चलाई ॥
सो धारा दोह मोट सनेही । ज्ञान गहै मति धरे ना देही ॥
वारसि धारया भिके सुधारा ङदयश्चुद प्रीतम मनियारा ॥
भेजनभग कहँ नरि होई । गहै शब्द गरभेद विड ॥
यृशकी रेख विचारे जानी । जे पलो जीषकी खानी ॥
तैसे ताहि बिचारह रेषा । तहँ तहं तख कमं विशेषा ॥
अवधिके नीचै चंग होई । अयश करत यंश षवे सोई ॥
विश्वा जानि लक्ष गहि छे । जख विश्वा तख खभिरण देड।
बरिश्वा बीस होय नर पररा । शब्द सनेही शङ्गमि जरा ॥
अंडज होड जड जनमे आई । घटी बढी होइ अक छिखाई ॥
पिंडज खानि देह धरि आवे । बारह पंद्रह अंक चदव ॥
उष्मज होड जग ठेह अवतारा । नरके कर दश अक सधारा ॥
अचल खानि जग जन्मे आई । बत्तिस विश्वा अक चटाई ॥
चारि खानिकी कखे निशानी । दीह ताक शब्द सहि दानी॥
खानी लक्ष विश्वा खि राखे । कमं अकम मित्रके भाखे ॥
पिंडज चारि भांति तन होहं । कमं अकर्म सुधारे सोई ॥
कृमीं नाहर धातिकं जेता । अक सुधारि छित कर तेता ॥
जे के करमह सती ओ गेडा । छ्खि अकं करमकर बेडा ॥
५ ७< ) नोधसागर
गाय ख परमारथ खानी जैसे अक सुधारे जानी ॥
प्लु पक्षी परमारथ होई । नख शिख रेखा र्खे बोई ॥
अडज चार बरनकी काया । कमं अकमं तदं निर्माया ॥
अडज मीन सफल तन होई । तेसे अक सुधारे कों ॥
अडज पक्षी तन निरदाया । तरी तदं तस अक चराचरा ॥
करमी पछी जोरा बाजा । तैसे अंक सुधारे साजा ॥
अडज नाग कर्मकी खानी । बोरे कारु नरक सदिदानी ॥
ऊष्मज बरन चारि तन होई । गम अवगुण सब छिखि बिरोई॥
भृगी आदि कीट सुखदाई । भजनके अक लिखि यमराई ॥
बहुतक कीट होय सुखदाई । मारि खात नर रोग नशाई ॥
तासु च्वि परमारथ खानी । कमं अकमंकी सुनिये बानी ॥
एक कीट दुखदाई होई । कीरदि कीट खात है सोह ॥
सो निशान करमकर होई । जेतिक अकं छ्खि तन सोई ॥
एकं कीट नर ष्ठि न आवे । तेहि अवशुणते कार नचाव ॥
अचर खानि की चारि निशानी। गरम शीतल लिखे असरतवानी॥।
गुण ओगुणको केरे विवेका । शुण अवगुण नरके कर रेखा ॥
सो सतगुक् जो सोड सयाना । चारि खानिको रखे निशाना ॥
पाप पुण्यको करे विचारा । ताहि तहां निज षान सुधारा ॥
कर्म जीव कमंहिकी खानी । काल कर्मकी बोरे बानी ॥
सतगुरू सोइ जो लक्ष्य विचारे । रक्ष्य विचारिके पान सुधारे ॥
चोर साहइको कंरे विचारा । भाव विचारि षान निङ्आरा ॥
कृपी जीव कर्मबसि अधां । शब्द सुनत चित होड विष मंदा॥
अस कर्मज जब देख विचारे । कर्म भिराय पान निङ्आरे ॥
खानिकी लक्ष फेरि जब लेहं । तब तेदि शब्द् परीक्षा देही ॥
विश्वा निरखि विचारे रेखा । गुण अवशुणका जाने रेखा ॥
श्वासयजआर ( ७९ )
कर वलौ कर रेख विचारे । तिरछि विषमको रेख सुधारे
तिरा रेख ॒विस्नाकी खानी । जस देखे तस बोरे बानी ॥
विषम रेख कर्मज अधिकारी । जत कर्मज तत रेख खधारी ॥
ततका मल दरि फमे वनारी । खनो धर्यनि यै कौ विचारी ॥
नेख उज्ज्वट दोह अंज चितेर कलह कल्वना यमकर घेरा ॥
कृरपर लिखे विषमकी खानी । गुण ओगयुणकी छ्खि निशानी)
तिरछा रेख ॒ नारीकर नेह ) ताघ्चु नैह छत खता उरेडा ॥
माता पिता बन्धु भरतारा) विषमरेख यम लिखि विचारा ॥
अवधि तीर दोड तिरा उरेहा । भक्ति यंडार विषमकर नडा ॥
मीन पृ मंडार खधारी । ख संयति विभौ तन टारी ॥
नवो खण्ड यमरेख खधारी । ख संपति विभौ तन ररी ॥
गुण अवयुणसबतवबहि लिखावहु। युक्ति जानिके ईस चेतावंह
हसा दासा तवबही नर पव । जब करताकी दशा मिदव)
कार क्म कालकी खानी । चार चखवे नरकाग समानी ॥
काकं कुबुद्धि तेज तनमाही । सतश् शब्द बतावह ताही ॥
काकं कुबुद्धि तजे इरलाई । तब सतगुरूके शरण समाई ॥
काके कुबुद्धि तत चाल मिटे । तब निवन परमद पावे॥
बुद्धि फेरि पलुटावे बानी । सतशुरू शब्द गहे सहिदानी ॥
लोके लाज इल दशा डवे । तब ॒ कोआते हस काव ॥
यम रेखन की जाने बानी । सौ सतशुङ्ू सोई तत्त्व ज्ञानी ॥
रेखा विना न रेखा पवि। बिन रेखा नि गुरू काव ॥
सूकर खान गीष ओतारा । बितर यमरेख लखे नहि पारा ॥
यमकी रेख सकल जब जाने । गुण अवशुण तबही पहिचाने॥
करपर होय चक्रकर थाना । शंख सीप गुर भेद बखाना ॥
पाचों चक्र होय सम तूला । योगकटा चतुरथ अस्थूखा ॥
( <° ) बोधसागर
एकचक अथवा दइ रोई । कु ज्ञानी कडु दुर्मति खोई ॥
तीनि रोय तो होय उदासा । चार होयतो सूर्यं प्रकाशा ॥
पचो शख रोय करमाहा । इख दारिद जान अवगाहा ॥
सीप होई तौ रोय उदासा । शब्द प्रतीत शब्दकी आसा ॥
नखशिख रेख बिचारेह जानी । तबहि सुधारे दसकी खानी ॥
समय-नख शिख जानिके, तबहि सुधारे पान ।
भमेभूत नह दशी, हंस रोय निर्वान ॥
चोपा
निखेह आदि अत सदिदानी । गुण अवगुण देख बिर्छानी॥
कमजीव कारु अधिकारा । कर्मके घर रेह अवतारा ॥
वरण भेद परिखे कुरु जाती । रेखा ठेख देखे उतपाती ॥
कर्मी कार कमं वश होई । गुण अवगुण सबदेखिबिरोई॥
उपजे चोर जरी र्ट । कमी कारु कमं धरि हटा ॥
कामीके घर कर्मी होई । कम रेख तब देख बिरोई ॥
कमं खानि कायाम बासा । सुने शब्द चित होई उदासा ॥
भम भरूतकी गहै निसानी । प्रजे शिखा ओ उखे पानी ॥
मार् मार् मुख बानी भाखे । मन बशि जीव कारु घर राखे॥
ने बिरह रस भ्रुकुटी छीना । कबहू चंचल कबं मलीना ॥
बालक होई पौनके साथी । मदमातै जस भेंगरु हाथी ॥
तिन जीवनकी दशा मिटे । षाछे सत्य शब्द समुञ्चावै ॥
पद्य युरक जाके तन होई । सो क्मीं जग जीवै लोर ॥
दया ख्गनकी परमित पावे ' निर्मरु हो सत्यलोकं सिधावे॥
नेत॒ विशार रक्तकी आईं । सुरति सनेह ज्ञान बइताई ॥
जब तब चितम संशय आवे । ज्ञान गम्यते मार बहाव ॥
ताकी निर्णय अगम सुभा । पावे सत्य शब्दको दांड ॥
श्वास्चगुजार् ( ८१ )
काग बुद्धि मन दशा डवे । षवे शब्द् खोक सो अश्व ॥
स्वेत कुष्ठ मद॒ गात मलीना । कम विश विषयी ौटीना ॥
जद कुर मोती मनी भारी । धुन्ध कुहर बहिरी रकतारी ॥
ञुन्य भाग्य दाग म्रतिमारी फोकट कुष ओं गंध वपहारी ॥
रक्तविकार जहर धुनि फीका । अंग मीन कमंको टीका ॥
पाचिल कर्मज नरकीं देहा । वरे सतश् शरण सनेहा ॥
तासु निशान परखिके काया ) नेञ गञ्च विषवाण बनाया ॥
कमं निशान दशा वपरहिराया । तनविकार युरूवचन नभाया ॥
तेहि जनि देह युक्ति बर बीरा । निश्चय काट करं बड पीरा ॥
पीरा सहै जीव शब्द न मने । युङ् निन्दा निशिबासग्जने ॥
निन्दा करत जाइ यमदेशा । ज्ञान बुद्धि नाह गहै खदेशा ॥
गुरूकी दया जो शखमहं आने । खोम रहरि ममता सनसानै ॥
कबर न रोहि ताहिकरकाजा । कितनों करे ुद्धिकर साजा ॥
गुरू निन्दा कृष्ठीं ओतारा । पर रौर नरककी धारा ॥
सो सतग॒ङू जो होहि सयाना । ैसे जीव कँ देह न पाना ॥
पान लेह अति :गडवे। स्वगं नकं महं ठव न पावे॥
तनकी दुर्मति रहै न पारा। भज राज नकंकौ धारा ॥
कर्मी खानि दहे नर पावे प्छिल अवद्ण संगि अवे ॥
तेहि जनि देऊ. शब्दसहिदानी । मानह सत्य शब्दके बानी ॥
धोखे आइ षान जो रेह । पाके सञुञ्चि सिखावनि देइ ॥
सुनत॒सिखावन हषित होई । तादि देह गुरुशब्द् बिटोई ॥
गुरू की आस करे लौ लीना । सुनत सिखापन होऽ अधीना ॥
माने आस रहै लो लाई । पावत पान करम करि जाई ॥
उतपनि लगनजो साधहू धीरा । ताहि खगन संग साजहूबीरा ॥
नाम पान पौँजी सथु्ञाय । सत्य शब्दकी रहनि बतायड ॥
( <> ` बौधस्ागर
कामिनि कनक कराकी फंदा । अरे दनौ शीश मनमंदा ॥
कासिनि अरपे कनक उुरावे । इहि विधि ईसलोकन्िंआवे ॥
कनकं अरपि ङलभावदिखावे । वाजी दिखाइके कलाक्िषावे ॥
कासिनि कनक करे र सम तूखा । षवे शब्द सुक्तिकर मूला ॥
चाल विना लागे बडि वारा । तामे नहि है दोष हमारा ॥
चाल चले इलदशा मिटे । सक्तिसार धरि रोक सिधावे ॥
कथनी कथे करनी नरि जाने । ताते अवगुण समे बखाने ॥
कथनी कथे रोकं नरि जाई । भात कहै नई भख बुञ्ञाई ॥
पानी कहै प्यास नरं जाई । कथनी कथे पा पृछताईं ॥
कथनी थोथर करनी सारा । कथनी कथि कथि हये गँवारा॥
कथनी कथि जो करनी करै । कहै कबीर सो प्राणी तरे ॥
समय-करनी बोरे पारकी, करे ठे व्यवहार !
करनी कर शब्दे गहै, उतरे भवजर वार ॥
चौपाई
महा शून्यके भीतर रई । सत्यलोक की बातें कई ॥
कहे अथं कथ _ करे विचारा । कहै कबीर सो शिष्य इमारा ॥
कृथं आन करे जो आना । सो अब जानह पञ्च समाना ॥
जेसा कटे करे पुनि तैसा । है हमं _हमदीं सो रेस ॥
करनी करे कहै तब बाता । ताहि मिरे गङ् समरथशाता ॥
कथनी कथे गभं दोय भारी । बिनु करनी सब यमकीबारी ॥
समय-करनी गभं निवारनी, मुक्ति सारथी सोय ।
कथनी केथि करनी करे, तो शुक्तादर दोय ॥
पाइ
विधि गहै शब्दकी आसा । निश वासर हम ताके पासा ॥
1 कर शूरा । करनी किये मिरे शर्पूग् ॥
शर होय करनी मन ` खव । भक्ति करे जगबहुरि न आदे ॥
श्ासयञार ( ८३)
करनी शरा कथनी सार । करनी केवल उतरे पार ॥
करनी करं श्रमा दोह । काद्र करनी करे न कोई ॥
यरा होय तौ करनी अवि । कादर होई सो बार कजात ॥
समय-श्यरा सोह सरादिये, अग ना पिरे छोड ।
टर सकल वद् खोलिकै मेटे तनकर मोह ॥
चो पा
सदा अधीन रहै तनमारीं । परिवे शब्द विचारे बाद्दीं॥
रहे अधीन सतयङूके आगे । निशबाक्षर सेवा चित लागे ॥
जो टमि नहीं अधीनता अवे । तब ल्मि सत्य शब्द् ना पावै॥
समय-नहीं दीन नहि दीनता, नहीं खन्त सन्मान ।
ताघर यम डरा किये, जीवते भया मसान ॥
चौपाई
सदा अधीन रहै जो भ्रानी । दीनेह ताहि शब्द् सहिदानी ॥
कुल अभिमान महानद भारी । भक्ति पन्थ गहि वाहि धारी ॥
शब्द् ठह कुख्दशा न तोरे । तेहि यम विषम सरोवर बोरे ॥
भक्ति करे ल कानि न खोवे । आवागौन गभं सुख मेवे ॥
जननी बेरी भेनी बाला । बदिन भयए ततक्षण काला ॥
इन्ते होदि मक्तिकी हानी । खाज नदी मह बोरे आनी ॥
कुलकी राह बहारे रोही । टना तयारी इती बिगोई ॥
समय-कुलकरनीके कारने, हसा गये बिगोय । |
तब काको कुक खाज है, जब चला चलाको होय ॥ `
चौपाहं
कामिनि कनकं कालकी खानी । कार कला धरि बोरे बानी ॥
इनते होय भक्ति कर नाशा । ताते बहुरि गभ महँ वासा ॥
परदा प्रकेट जबे ना होई । बोरे वचन मधुर धन सोई ॥
( <४ ) बोधसागर
प्रदे रहै लाजकी रधी परदा साथ काल्की सधी ॥
गरूसो कपट करी घन लीनी । सुरति निरति बिनुकारु अधीनी॥
कासिनी परदा सति सो ठन । छाज लिये मुख बात न आने॥
गुरूके परदा बचे नाहीं । ब्रूडे विषम सरोवर मारीं ॥
गुरूखम मात पिता सो नाहीं । गुर् बिन ब्रूटि सरोवर मादीं॥
गुरूखम मात पिता नहि होई । मात पिता गुरू जान सोई ॥
सखमय-जे कामिनि प्रद रहै, गुरमुख सुने न बात ।
ते कामिनि कुतिया मई, पिरे उघारे गात ॥
चौपाई
लोकलाज पति सवे विचारा । लक्षण रक्ष्य सवे निरधारा ॥
जाको रोई भक्तिकी आसा । सतय चरण करे विसवासा ॥
तजे गभ जो निकसी आसा । पावै सतु चरण निवासा ॥
यमको अन्त जानि जो पावै भवसागर तब साधु काव ॥
सतगुर् चरण गहै चित जानी । मेट इटि कर्मकी खानी ॥
सन्त कटावे अन्त सम्हारी चौदह काट चरण चित धारी॥
चौदह यमकर सकल पसारा । सतगुङ् शरण रोई निकयोरा ॥
सोरासी कर करम अपारा बिनु सतगर् का केरे उबारा ॥
गुरू करता गुरूदेव नरेशा । बिन गुरूगम सब मेद अनेशा ॥
गुरूसे दूसर ओर न कोह । जाते मुक्ति पदारथ होई ॥
समय-गुरूकरता कर मानिये, रदिए शब्द समाय ।
दशन कीजे बन्दगी) सुने सुरति खगाय ॥
चौ पादं
आगे मिरे बन्दगी कीजे । पछि चरण कमल चित दीजे॥
ब्द सुरति मिखि रहै समाई । ताप तपे नरि सुरति समाई ॥
एके देद एक अस्थूल । एके भाव भक्ति कर मूरा ॥
श्वासयञखार ( € )
शिष्यके हिरदै गरुके वासा । शिष्य रहै युरूचरण निवासा ॥
गुह शिष्यसों अन्तर नाहीं । मन दहै एक देह इड ताहीं॥
शब्द स्वहप गकर वासा । सुरति स्वहप शिष्यकी आक्षा॥
समय-गुरू समाना शिष्य मर्हे, शिष्य लियाकरि नेह ।
विलगाये विक्गे नही, एक प्राण इइ देह ॥
चौ पादं
ताहि ग॒ूसों सत्य जो कीजे } बाहर अति चित्त ना दीजं॥
जो गु शिष्य इदय नहिं होई । तासों खत्य करे नहिं को ॥
गु बाहर शिष्य भीतर अवे । इबिधा धोखा काठ तेहि खव ॥
सत्य होय सो सत्यहि जानं । युरकरं राखि डदयमहं अनि ॥
गुरू इदये सो बसे निनारा । सत्य करत जाई यभद्रारा ॥
गङ् शिष्यसों बादर बसई । सत्य करत कार तेहि उखई ॥
गुङकी मति अते रहै बासा । शिष्यकी मती गरक पासा ॥
एेसे गुरूसों सत्यजो करदं । सेवा करत कार तेहि धरहीं ॥
शिष्य सयान गू अज्ञानी । धोखे शो दनोकी इनी ॥
गुरू शिष्यकी मति एके होई । सत्य कंरे तारे कुर दो ॥
गुरूकी मति जो शिष्य न पावे । काज विस्तार विता मन छे ॥
गुरूको मेद लखे नहिं बानी । सत्य करे कमती अज्ञानी ॥
नवका उप्र बहुजीव चटावे । खेवा विना पार नदिं पावें ॥
खेवनहार चीन्हि जब दी । पाठे पोवं नउका पर देदी ॥
खेवन हार चीन्हि नहि पावे। नउका चटे सो मखं कदावे ॥
सागर सुमति य॒क्तिकी धारा । ममती न्याव ज्ञान कडहारा ॥
करे विवेकं चोर ओ साहू । बिना विवेक घाररागुनकाहू॥
चोर जानिके पौव न देडं। साधु जानिके पारद जे ॥
चोर साहूकर भाव बतावा । सागर नाव धार दिखलवा ॥
( <& ) नोधृस्रागर
चोरके नाव चडे जो कोई । सागर पार कबहुँ नर्हिं रोई ॥
साइकी नाव रोह असवारा । सागर उतरत लाग न वारा ॥
खाग्र पार शुक्ति कर वासा । जो शङ् मिरेतो करे निवासा ॥
घ्र चर गड घरि घर चेखा ! खाल्च बचे पिरे अकेला ॥
जेसे शान कामबश घिं । त्रष्णा बोधे अग लगाव ॥
तृष्णा मिदि गांडि चरि जाई ' पारे शीश धुनि पिताहं ॥
एटि बिधि होइ इुवोजग भूटा । कारु कलाधरि गहै न खटा ॥
ेसी सत्य करे जो कोई) धोखे जाय काल बसि रोई ॥
गुरूकीो करनी शिष्य जो पवि । तब सत्य करे सत्यलोकं सिधावे ॥
समय-सत्य तो तासों कीजिये, जवां मन पतियाय ।
ठाव वकी सतीसों, इरुकटंकं चटि जाय ॥
चोपा
अंकके मिटत कंक मिरि जाई । अकके रहत अकटंक न जाई॥
अक लिखा यम एहतन मादा । अकं भिटाई देह तेरि माहा ॥
नख शिख अक छिखा यमराई । चौदह कला थाना बेगई ॥
गुङूगमि शब्द जानि जो पावे । तब चौदह यमफन्द भिटवि ॥
एटि फन्द सुर नर अनि भूरे । देड धरी धरि सब जग स्मुरे ॥
चौदह काक बिकार अन्याई । नर नारी घट रहै समाई ॥
भिन्न भित्नरके न्याय विखोवै । पारस निहार अन्तभ्रुख गोते ॥
प्रथम काल कामके अगा । नख शिर भ्यापे विषे थुजंगा॥
चित्तमंग ओ इर व्यवहारा । काज स्नेह सुच बरपारा ॥
आल्ख निद्रा शूप बरियारा । खल्च रोभ मोह कर धारा ॥
विषय वास बसे बेकारा । इन्द्र चौदह मिि भक्तिउजारा॥
भक्ति प्रतीत शितल इन्दनासी । प्रेम बिगारि लगावहि फासी ॥
द्या धीरज संतोष न आवे । सुमति सहज रे दरि बहव ॥
श्वासयआार ( ८७
निर्भय ज्ञान विवेक ग्रासे । सुरति निरतिखे उपजत फँसि ॥
सो सतगुरु जो होय सयाना । निर्भय कगन् देह तिहि पाना ॥
निर्भय दशा मूर सुञ्चवे । क्र कपट ओर भमं बहव ॥
निर्भय रोह भय तिलका टया । नरनारी अङ् यमसों इटा ॥
लगन सनेह गहै सहिदानी } उतपति प्रलयं विचारे खानी ॥
आदि अन्तकी लगन विचारे । सत्य दिशा धरि हंस उवारे ॥
चन्द् सूर्यं की गरै निशानी । आदि अन्तं ुङभेद बखानी ॥
चंद सनेह ठह ओतारा । सोह कगन गहि उतरे पारा ॥
ताहि चन्दकी नाकी पवे। सौ पंजी गहि लोकं सिधावे ॥
सूर सनेह विषम जम जोरी । प्रलयं कार चौरासी डोर ॥
सूयं स्नेह होइ सन्धारा । मारिके बहुरि खड ओंतारा ॥
जत उपज तत षिन प्रानी । सयं सनेहं सबनकी हानी ॥
चोद सुर्यं दोय गठके राजा । पौरि पगार बनौ दरवाजा ॥
अहठ दाथ गढ भीतर साजा । कपटभाव माया उपराजा ॥
दुडइ दरवाजे बानो किंवारा । एकपट रहै एकं खुले किंवारा ॥
दोइ रगनकी राइ संवारी। आवत जात र्खे वेपारी ॥
आवत एकं राह चलि अवे । फिर तेहि राह जान नहिं प्व ॥
जौनी राह महलमहं अवे । तशं स्वाति शक्ता बरषावे ॥
तौ स्वाति सक्ता बरषावे। फिरि तेहि रायजाय जो खावे॥
सुक्ता होय जग बहुरि न अवे । देवहूप होय जय जय पावे ॥
जब आवै तब खे कवारी । जात समय किरि मारत तारी॥
जब वह द्वार जान न्ह पवे। तारी मारि बहुरि तहं धावै ॥
जाने बिना होय मतिहीना । भूलि प्रे होय कारु अधीना॥
आवत जौन तुरे चटि अवे । सोइ तुरे यम फेरि छिपवें ॥
आने तुरे आन सो द्वारा। ताते पैर कालके धारा ॥
ता
१ ददः) बोधसागर
शरे आदि तुरो अस्थाना । ताते कारु देहि वैषि खाना ॥
जो वह तरो अन्त जीव पवे । खोकि कपाट बाहरको धावे ॥
आदि तरो चटि बाहर जाई । पारे काट ररै खिसि आई ॥
आदि तरौ बि द्वार न पावे । बहुरि बहुरि चौरासी अवे ॥
घर्मदास विनती अनुसारी । सतथुरू रदो यैं तुम बलिहारी ॥
आदि अन्त प्रथु करौ बुद्याईं । पकर न पावे कार कसाई ॥
अन्त करे पुनि गर्भम बासा । काया धरे कर रहि वासा ॥
कायाते जब बहिर जाई । ताकर भेद कटो समुञ्चाईं ॥
मे आधीन हा मतिके थोरा । चरण टेकि प्रथुकरौ निहोरा ॥
आदि अन्त प्रथु कहौ बुञ्ञाईं । सो सब जानो चरणं समाई ॥
वतेमान भाषेहु उतपानी । जानेहु आदि भेद सहिदानी ॥
न्त अवस्था कटौ बखानी । जाते आगे रोय न हानी ॥
जाहि द्वार प्रथमे चि आवे । तुम प्रसाद् शब्द् रखुखि पावे ॥
कमं अकमं वरण कुरु जाती । कहे बुञ्चाय दिवस ओराती ॥
कमं अकमं भाषहू बहु भावा । थमकर अन्त नजरि सब आवा॥
कंमरेख कारु लखि राखा । गुर्प्रताप जानी सब शाखा ॥
गुणअवयुण सब कटि सस॒ज्ञायह । गुरू शिष्यकर भाव बतायहु॥
सो सब जानि गदी सदिदानी । आदिमेद गङ् नाम निशानी॥
नखशिख कार छिखा सदिदानी । सो सब जानिपरी मोहि बानी॥
केरम रेख काठ लिखि दीन्दां । सो हम जानि रषिम लीन्टा॥
गुण अवगुण दोऊकर भाऊ । परिख काल करमकर भाज ॥
जहां २ काल लिखी सदहिदानी । तू अद्या टै सब पहिचानी ॥
नखशिख रेखा काल बनावा । सो जोरेख जानि सब पावा॥
आदि मध्य भाषह सदिदानी । सो निशान जानी सब वानी ॥
ज्ञो भरि कहेड सिखावन आनी । सो सब जानिकरौ दि्छानी॥
शास्या ( ८९ )
कटेह बुञ्ञाय भुक्तिके नाहा । रेखा परखि देह ताहि बाहा ॥
गुणअवगुणसबमोदिरखि आवा रेखा प्रखि तब पथ चखावा ॥
भाषेह आदि लक्षकी खानी । सो सब जानि गहय सहिदानी ॥
गुणअवगुणसबमोदहिखलि आवा। परख लक्ष ईंसकर भावा ॥
लक््य अलक्ष्य दो लखि ठ । पछ बह हंस कहि दह् ॥
नर नारी लक्षण देखि शरीरा । पे देहो शक्तिके वीरा ॥
करपर रेखा ख्खौ सुभा । शीश दय नाभी कर दा ॥
कृच्छ जंग ओ मीन निशानी । लक्षण प्रि चेतावो जानी ॥
चौदह काल विषमकर दा । शरण सनेह देस अक्ताऊ ॥
चौरासी कर बीज अंदर । संशय मेटि दह मतिषुरा ॥
करमी जीवहि सूम पठायहु । निःकर्मीं कह खोक पठायह ॥
यह सव भेद विचारेह जोरा । दगा देह नहिं प्रवे चोरा ॥
उत्पति भेद सवे म पाया । वर्तमान इदये महं आया ॥
चरण टेककी करौं निहोरा । अंत अवस्था भाषहु थोरा ॥
जादिन अंत अवस्था होई । तादिनकी गति कहौ बिखोई ॥
जादिन अत अवस्था अवे । पानी भेद को सञ्ञा ॥
जाते हैसहि कार न खाई । अक्ति दो सतलोके जाई ॥
जेसे आवा गमन बतायहु । आदि मध्य सबकदि सयुञ्चायह्॥
तेसे कहो अंतकी बानी । जाते न होय जीवकं हानी ॥
धर्मदास मे तुम्दै बुञ्ञाईं। अत दशाकर भेद बताई ॥
जा दिनि रस देह तजि जाई । ता दिनकी गति कहो बुलाई ॥
सोरह खाईं॑दृश _ दरवाजा । रवि शशि संग जीव तहां गाज
आवा गौन करं दिन राती । गहौ निशानछोडि कुल्जाती॥
धर्मदास कुर जाति गँवावहु । तब तुम शब्दहि पारख पावहू॥
शशिके संग गभं जीव अवे । जरंगतत््व चटि आनि समावे॥
(९० ) नोधृसागर
ताहि संग रै उहराईं। देह सनेद गै यमराई ॥
काया परचे गहे निशानी । अतकाल जीव करेन हानी ॥
जादिन अमर कार्की अवे) आगम भेद हस जो पावे ॥
पावे सेद चित रोय सयाना । गुरूते रेह खधारस पाना ॥
काया परिचय आगम जाने । आदि अंत कह भेद बखाने ॥
प्रथमरि देह हमारी जो देखे । सो परिचय अवधी घट टेखे॥
अंत देह हम यमकं दीन्हीं । जानि गहै जीव ताकर चीन्॥
देह हमारी निश दिन देखे । पूरण अरर स्फर तन र्खे ॥
जब देखे बिद शीशकी काया । तब जाने घर कारु समाया ॥
छटए मास अवधि नियरवे । हमरि देह य॑म अच्छप् छिपावे ॥
अपनी देह दिखे काला । तब जीव जाने काल जंजाखा॥
हमरी देह ठे शून्य समावे । अपनी देह प्रकट दिखरवे ॥
यमकी देह शीश ॒ बि दोई । तेहि देखत जीव जाई बिगोई ॥
हमरी देह विमरु विस्तारा । कार देह बहुरंग अपारा ॥
जदं श्याह ओ नीर सुरंगा । ओर रंग बहु कटा तरंगा ॥
हमरी देह रग ॒बिञ् दोई । नखशिख निर्मङ देखे सोई ॥
जादिन आदि पुरूष निमोया । तादिन देह वरण हम पाया ॥
इ देह धरि उद्वां आए । कला अनंत जीव ससुञ्चाए ॥
देह धरे बहु रीखा कन्दा । ताते देह कारुकर चीनं ॥
कारुकटा विष बान बनाया । सोइ विषनीर विषे दिखखाया॥
जब हम चले पुङ्षके पासा । काया रदी अधरदी बासा ॥
काया त्यजी इम मए निनारा । सोह काया रदी संसारा ॥
कायाकारु लीन्ह सदिदानी । अपने देश बसायसि आनी ॥
सो काया सबही दिखलाया । जो देखे सो थीर रहाया ॥
सो काया जो अधरदि देखे । शशि संपति सुखबिभोविशेखे॥
श्वास्यआार @ 2,
ता काया की यह सहिदानी । सो काया मय हाथ विकानी॥
एसा कारु भया अज्ञानी । हमसे छीन्हि सन्देह निसानी ॥
नरकी देह कालके हाथा । जौँ चे ताहिके साथा ॥
काया सरी गली इदहाईं जाई । जाह जानि गहै यमराई ॥
गहै काल ओ ठेखा ठेई। धौखा लाइ नरकं महं देह ॥
तेकाया कर करै विचारा । तीन खोक तजिहोए निन्यारा॥
सहज सून मह पकर काका । अहिं साथ करे जज्जल ॥
काया धरिके छनित कीन्हा । तेहि कायाकर मनि चीन्हौँ॥
देह धरे कीरहिसि अति चारा | ज्ञां साथ जा नहि पारा ॥
सो ई जो इहह विषेखे । कंठ ध्यान धरिदम कह देखे ॥
अखंड मंडी मह काया रहई । ताकर मेद जानके गह ॥
एद काया तजि ईदहं वासा । ओई तजी शेयलोकं निवासा॥
सत्य शब्द जानं जो कोहं। तको आवा गौन न होड ॥
शब्द शब्द् जो जीव न षवे । ज्लौह साथ गर्भं फिरि आवै ॥
आवा गौन ल्खे सहिदानी । आदि अंतकी बञ्चे बानी ॥
गुण अवगुण ओके संगा ताते काल करै मतिभंगा ॥
ईं ञ्ञमकि दिखवे गाता । आदि अतकी ब्रन्चै बाता ॥
हमरी क्योकर ध्यान लगावै । देखत ताहि परम सुख पापै ॥
जब वह काया काठ चुरवे। काया परिचय आगम पावे ॥
काया परिचय मेद बिचारे। नाम समिरिके दस उवार ॥
अग अगकी परिचय देखे । आगमजानि हरषितमन ठेखे॥
हषित रहै सदा दिरमादीं । शोक मोह कड व्यापे नारीं ॥
कर ओं शीश्च जानिके भावा । मास बरष कर आगमपावा ॥
आगम जानि गहै सहिदानी । बोरे सत्य शब्दकी बानी ॥
आगम जानि रहै खौ लाई । छटत देह रोकं तब जाई ॥
( ९२ ) बोधसागर
समाधान रोड आगस पावै ता घट चोर न मूसन आवे ॥
रूगन जानि जो पंजी पावे तत्त्व सनेद विलोक सिधावे ॥
आगसकी गति काया देखे । पवत नाम मंडल हित रेखे ॥
पवत पांच नाम अवुमाना कहौ भेद सुन संत सुजान् ॥
पाचों पर्वत नजरि समवि । काया मेद नजरि तब आवे ॥
रवि लीला एकं पर्वत भारी । चंद उनेह दूसर अधिकारी ॥
द्डके बीच सुमेर अनुमाना । देखत ताहि रस निबाना ॥
चोथे मख्या गिरि केलासा ! गोमत नाम पंचणए परकासा ॥
पचो पवेत देखे सोई । गुरूगमि बुद्धि जाहि तन होई ॥
जब देखे तब कुरु शरीरा । विन देखे जाने तन पीरा ॥
रवि गिरि जादिनि नजरेनआवे । तेजहि तन ना कष्ठ जनाव ॥
चन्द्र शिखर जादिन निं देखे । इभ्यशोक कु हानि विवेखे ॥
जादिन केलास नजरेनहि अवे । भिज दानि इख खबरिजनवि ॥
गोमत पहार नजरि नरि आवे । कायां कष्ट देश दुख पवे ॥
गिरि स॒मेर जादिनहीं देखे । अन्तकार तन चाव विशेखे ॥
रसना कान नजरि निं अवै । मास सातम कार चर्व ॥
जाको रसना चमक वासा सो नहि देखे सदा निवासा ॥
पवेत धवला नजरि नहि अवे । मास एक महं भृस्थु जनये ॥
तादिन काल चोकीअग अवे । धुवमेडल नजरे नरि अवि ॥
सो सतयरू जो दोय सयाना । जेसुन जानि देह तेहि पाना ॥
जबते काया आगम नहि पावै । तबते अमी बीज नि पवि ॥
काम वसी पावे जो तादी । बोरे विषम सरोवर मारीं ॥
काया श्वास चे पर मेहा । काट वश्य रोय सड देहा ॥
पिम लहरी जो गवे जानी । पंजी द्वार ठकखे सदिदानी ॥
चंद उगै सूर्यं अथवे जबही । इस सुजन तन यागे तब्दी ॥
श्वासयञओार ( ९३ )
पूरी तत्वं दोय असवारा । पर्वे सत्य खोक दरबार ॥
सिधु तेज होय तजे शरीरा । चरे तेज चौराशी हीरा ॥
उतपनि खगन देह तजि जाई ) संकट ग्भ धरे नहिं आहं ॥
अपनी काया आपु विचरे | आपन आगम आपु सुधारे ॥
आरो आगम कहौ इुञ्लाई । जातें अवधि आनकी पाईं ॥
शुरू आपु घट प्रखे जानी । तब पवि शिष्यकी सदहिदानी ॥
तन परि आसपरेजो प्राणी । तब निरखे ताकी खहिदानी ॥
ई मकि जोत नहि द्रशे | काया कष्ट काल नहिं परश ॥
गगन अवाज सुने निं बानी । कर वकी कखे निज्ञानी ॥
मधीक जहो दूना करं । पो सब पुहमीमों धरं ॥
जेठा पव उपर उठे । ताञ्च ल्इरा उरि देखते ॥
निपरू सहुरा ष्टौ उठि अवे । ताघ्चु जेठ वह अटक रहा ॥
अटल रहै की यह सहिदानी । काया कष्ठ होय नरि इनी ॥
सो पो पुहमीते डो | देह तजे अस आगम बोडे ॥
दरश भयावन वदन मीना । लंपट बोरे काल अधीना ॥
तादी भूत ताहि दिखलवै । महा भयंकर मोट दशस ॥
कर पग शीतल स्वै शरीरा माथ तपे ओ पायर बीरा ॥
ओषध का शण ग्यापे नाहीं । निय अन्तकाल है तादी ॥
नासिका नेह बासा नहि अवे । थोथरी जिह्वा स्वाद न भवे ॥
हाथ पौव पुह्मी महं मेके । कापि मेरु काल संग खेरे ॥
छिन छिन माथ इटावे सोहं । जान अन्त कार पेहि होई ॥
आपन भाव दिखिावे जबही । विषम कालाघट व्यापेतबदही ॥
स्वपने शीश कारि कोहं छेईं । श्यामवरण कामिनि रति देई॥
भइसा गदहा हाथी देखे । नाग धान ओ भाट विशेखे ॥
ञ्ूरी बींद परे निशि सोई । चलं देह तजि सर्वस खोई ॥
न. १० बोधसागर - €
(न बौोधसागर
समय-गगन गरजे बिज्री ना चमर्कै, तहां दुनो बन्द् देई।
कह कीर दिन पांच सातम, दंस पयाना ेई ॥
चौ पाईं
काया परिचय भेद विचारे आपु तरे ओरन कर तरे ॥
सो सतगरू जो होय सयाना । श्वासा नेह केरे बन्धाना ॥
परिखे कगन तत्तव॒ निर्बाना । गुण अगुण सब केरे बखाना ॥
निशवासर चरे सरकी धारा । कायाकष्ट होड अधिकारा ॥
तिथि अद्ुमान र्खे सदिदानी । श्वासा सूर चरे बरदानी ॥
बधिकके प्रहरे आपु उबारे। चन्द सनेह सेद निश्वारे ॥
श्वारा सार गहै सरिदानी । शशिके घर मह सूयं उगानी ॥
जेतिक श्वासा सूयं उगाईं । चन्दाके घर पीवे अचाई ॥
काया कष्टताप भिरि जाई शीरु ईस रोवे सुखदाई ॥
कारुकी अवधि मिरे जानी । समाधान होड गहै निशानी ॥
तेज सुनरकी खा अतिचारा । ताते चरे चन्द्रकी धारा ॥
महा अनन्द सफल तन होई । कार करा नई व्यापे सोई ॥
जब जब काल सतावे आनी । तब तब भेद करे बिरु छानी ॥
सायै लहरि समुद्र सनेरी । तबसुख पावे यइ जग देदी ॥
साधन केरे कै लोलीना । तत्त्व स्नेह होय नहि छीना ॥
प्राण आत्माके गुण पवे। जो सतगुर् निज भेद बतावे ॥
परिचय तत्व साधना करटं । धोखे प्राण न केबहूं परईं ॥
ह्ला श्वा करे अहारा। सोई गहिहै मेद विस्तारा ॥
काम कोध तजि करे फकीरी । ज्ञान बुधि धारे तत्व धीरी ॥
वाद विवाद सबै विसरावे। दुविधा दूसर निकर न आवे ॥
श्वासा सार गहै गंजारा । जाप जपे सतनाम पियारा ॥
अजपा जाप जपे सुखदाई । आवे न जाय रहै ठउदराई ॥
श्वा्गञ्ञार ( ९.५ )
चारि कमलकी परिचय जाने । गहै मेद निज तत्त्व बखाने ॥
फ़ाहा रोपि करे निश्बारा। आदि अन्त सब करं सुधारा ॥
योजन चार कै बन्धाना। आस्न मारि रहै निर्बाना ॥
चारि योजन सखूटी विस्तारा । ड फा जो करे सुधारा ॥
सुधा षूद नर नाटक माहीं । खटी उपर रोप छहीं॥
बैठे आसन भूल सुधारी । देखे परिचय श्वास विचारी ॥
चरे शास रतना गति नेहा । रवि शशि उदय विचारे देडा ॥
फादा सनमुख वेटि रहि । निरखे ताहि तत्तव जब धावे ॥
पांचौ फाहा रोपे जानी तत्व सनेह केरे विख्छानी ॥
रविके घर दोय श्वासा अवि । योजन एकं तीनि तहं धव ॥
एक योजन एक एके विचारा । प्रलय प्रचंड तेजकी धारा ॥
ताहि लगनकी गहै निशानी । कड सुखउपजे कड होय हानी
मूलकमल ताकर रहि बासा । तेज्यज है इद्धि प्रकाशा ॥
ताहि कमलकी देखे आशा । म्रूलकमर तब होय प्रकाशा ॥
तास लगन ठे साजह बीरा । उपजे बुद्धि ज्ञान गंभीरा ॥
ताहि लगनकी रषांजी पावे । तेजपज मह बहुरि न अवे ॥
दूजै योजन तनि ` प्रकाशा । ताहि तत्व की देखे आज्ञा ॥
निषेत कमल महं ताकर वासा । काया मध्य सुभर रहि बासा ॥
योजन तीन जो रै विस्तारा । प्रथ्वी तत्वं जानकी धारा ॥
ताहां बसे पवन बर वीरा । जाहि पवन संग उपज छीरा ॥
ताके संघ सवारह वीरा । निर्मल हस होय गंभीरा ॥
श्वासा साथ पारस सहिदानी । विन रसनाकी बोरे बानी ॥
दुसरी घडी चन्द्र सनेहा । गरो बिचार देखिके देहा ॥
ताकी श्वासा चछर चोचण्डा । कहे कबीर मभिटि इखदण्डा ॥
ब्मीनी श्वास दोह गुजारा । चले प्रचंड बाकी धारा ॥
( ९६ ) सौधसागर
दुई योजन पेज बिचारा ) पौनविजय बर तहँ सुधाया ॥
पुटप कमरूमहै ताकर वासा । देहमध्य नाभी रहि बासा ॥
जाते होय क्षीर बंधाना । होह खटाई स्वाद् अमाना॥
पुहप कमल होड खगन विचारे । पौन सनेद पान निश्वारे ॥
ताहि तत्व श्वासा चडि धवे । सोड कमल जानि जो पावे ॥
जौन कमर तत्वकी धारा । तौन कमर नेव विस्तारा ॥
जारि तत्त्व सग॒ पान षटवे । तारि कमरुमहं रे पहुचे ॥
आन कमटपर जीवकर बासा । आनते षान केरे परकासा ॥
आन कमलमहं पटच याना । धोखे काल करे पछताना ॥
जाहि कमरृपर जिवका बासा । तदा बयान कर रु प्रकासा ॥
बारुकं की जिह्वा रहि बासा । सुभर कमरुमहं करे निवासा ॥
तारी लगन जीवके गहरं । पावत पान काठ न ददहं ॥
संशय कमल देह जनि पाना । नहि तौ ईस दोय अज्ञाना ॥
उपरहि पान लेह यमराजा । संकट शिष्य गुर्कह राजा ॥
सुरति कमल जीवकर बासा । ताहि कमट्षर साधु श्रासा॥
पूरी तत्व चङे जब धारा । योजन चारि जाय चटिषारा॥
सुरति कमलपर ताकर बासा । त्दैवा पान करे परकासा ॥
पालता पौन ताके संगा! परसत ताहि दोय नहिं भगा॥
पवन सजीवक केरे अनुमाना । सो रसि ठे जाय ठिकाना ॥
समय-चारि कमलम चारि पोनहै, चारिउ कमर अपीव ।
दाज पान सुधारिके, जाहि कमरपर जीव ॥
चतुरंगीकी च्छ नर्हि, तवदि खधारहु पान ।
दरादरा कमल विचारि हो, चौकाके अनुमान ॥
सोका चन्दन कीजियो, मल्यागिरिको नाम ।
चायो कमल सुधारक) मध्य तादहिके घाम ॥
श्वासयुार ( ९७ )
चौका चारि शुधारके, चारि कमक अस्थान ।
चारि पौन उरेहिके, देखो सुरति अमान ॥
तुरति सनेदी पौन करः मिरह सरति सुधार ।
चारिउ अकं धारके, जर दङ् धरेड सुधार ॥
प्रथमहि चौका कीजिये, चारि खट अजुमान ।
चौरासी द्वीप सुधारिहै, सत्य छोकं सहिदान ॥
उपर खुरी द्रीपके, भीतर चौका चारि।
द्रादशदल निर्वान है, देखो सरति विचारि ॥
माया छ विस्तारहूः सती नाम विश्वासं !
दरादशदल तहँ खरचिके, कीण्डू प्रेस अकाश ॥
जापर बसे निरक्षर, ताहि तत्वकौ नाम)
शब्दसुधारस खानि है, इम तुम तेहिके धाम ॥
शब्द सुरतिको नाम गहि, समिर शब्द सुधार ।
तब सिंहासन पग धरे, रचे खोक विस्तार ॥
चौपाई
कदली दल आनेह पनवारा । धरह नारियर परेम सुधारा ॥
सन्रख कलशारे साजेडजानी । बाती पांच धरेड तहँ आनी ॥
आसन टिखेह र्गनको नामा । भर्मभ्रत भाज तजि धामा ॥
दहिने राखह दर परवाना । मेटे जहर अभी धरि ध्याना ॥
निर्म नीरकी देड दुहाई । जहर नीरकी दशा मिटाईं ॥
आसन ठे कगनको नामा । खगन सनेह सुधारे धामा ॥
खरचा पाच धरेउ तिहि माहां । प्रकटे सत्य शब्दकी छहां ॥
बहुबिपि बाससुगन्धमिखयहू । चोकाके ददिने धरवायह ॥ `
ताके निकट शिला अस्थाना । रेखा रोपि करे बन्धाना ॥
सत्यशब्द छे रसै बनायह । ताके उपर शिखा वेगयहु ॥
( ९< ) बोधसागर
शिला उपर फिरि अकसुधारेहु । शुक्तीकी श्वासा तँ चारे ॥
ता उपर पुनि धरहु कपूरा । काल अश होवे सब दूरा ॥
चोकाके बाएं अस्थाना। आरति थार धरे सहिदाना ॥
आदयाके श्वासा खख मरी । ताको नाम सुधारह पूरी ॥
अक सुघारिके आसन कीन्हे । ताके उप्र थार ज दीन्टेह ॥
तिखरी श्वास करूणा मेँ उचारहु । सुभिरणसारसस्यश्ुखभाखहु ॥
सुगन्ध सुपारी तापर राखह् ¦ ॥
चोका कलश मध्य अस्थाना । धरह मध्य धोती ओ पाना ॥
नरियर मिष्टानमध्यमे राखेहु । घोती पान बचनअभिलावेह ॥
इदिविधिको यह सब विधिपूरा । सुमिरतके इम होव इजृरा ॥
रोक निशान पुरूषजो भाखा । सो हम गुप्त एको नहि राखा ॥
सबं विधि ज्ञान तुम्हें हमदीन्दां । अब हम लोकं पयाना कीन्हा ॥
नारियर दे ब्रह्मा कर माथा) सो दम दीन्ह तम्हारे दाथा ॥
ताके मध्य॒ जीव सहिदानी । मानततादिकियह बिरनी ॥
ज्योति कपूर किये प्रसङ्गा । काल अग परसतहोड भङ्गा ॥
सतं श्वासा ताके सद्धा । जाते यमकर मिरे तरंगा ॥
जेसी लक्ष्य जीवके पासा । हाथ नारियर नीकसुतासा ॥
कमं जीव कमके बांधा । निर्णय मेद् न जानहिं अन्धा ॥
अद्ध छिपाइ करे जिव ॒बोटा । ताकर होय नारियर खोटा ॥
निमरु देस दोय सुखदाई । मोरत नारियर वास उडाई ॥
निम अकर सेतपुर होई । शब्द सनेही भीतम सोई ॥
जैसी दशा जीवकी जानी । प्रकट होय जब नरियरभानी ॥
जेते पर ताकी काया । सो नरियरमें होय सुभाया ॥
नरियर एकं होय जलरंगी । सतगुङू संत्यशब्द परसंगी ॥
पारसते ताकी उतपानी । ईस दया धीर निकसी खानी ॥
श्वासखञओआर ( ९९ )
क्मीं एकं रोष निमावा। निरखत तादि तत्व कर भावा।॥
कपट सनेह कर्मं सदिदानी । ताकर अङ्गसत्य करे हानी ॥
[ब्द विचारि करे शरूआई । प्री तत्व ख सङ्क खाई ॥
जेतिक लक्ष जीवकी काया ) तेते पान साथ निर्माया ॥
रेखा गु विचारे जानी । विषमतिछर करिह जिम हानी ॥
गुरूकी रेखा जाहि षर रोई । छत सोहावन पशं मिति सोई ॥
गु ओ छ शरन युकतायह । ताहि पानपर अकं चटायह ॥
सत्य शब्द पारस परसायह । ॥
पारस मनि है तत्व सनेही । ताघ्च लगन छे पान उरेदी ॥
पावत पान हस घर जादी)
पौन सजीवकं जावन नेहा । तत्तव खगन ठे सुरति खनेह् ॥
सत्य नाम सुकृत सठिहारा । सो सदहिदानीं पान उधार ॥
छचके छल होई जेहि पाना । तापर अक ज्व नि्बाना ॥
जाहि देह दंसन कद खादा । पान छत मणि दीजे तादा ॥
निशदिन रहँ जो सुरति समानी । सो दीजे सीखन सहिदानी ॥
धर्मदास तम जेठे भाई । हम छहुरे कीन्हा अधिकाई ॥
तुम्हरी वस्तु तुमहि करं दीन्हा । अब हम रोक पयाना कीन्हा ॥
जेते जीव आहि जगमाही । सो सब अवे तुम्हारे ही ॥
तुम्हरे शिर जीवन कर भारा । आदि अन्तको तुम कंडिहारा॥
तुमरे हाथ जीवकर काजा । काल उस तब तुम कं लाजा॥
वंश वयालिस लके राजा । ज्ञान गम्य सदे तेदि साजा ॥
उन्हके पास जीव जेते जावै । सो सब सत्य खोक कह आक ॥
बंशके वश छ मनिदारा । सोई शब्द सुत वश हमारा ॥
जेदिवां देह सो ठेकर जाई । काल इसे नरि मोरि इहाई ॥
बशके बांह जीव जत आवे । यमकी नाकं छेदि घर जाँ ॥
(३००) नोघस्ागर
बश बयाखिख राज तुम्ारा जिन्हसों पन्थ चङे संसारा ॥
कोरिन्द दगा वेशपर पराई । करै कीर नाम बल ताई ॥
नाय कीर पान रहै सारा। इटै नाम काल रस उबारा ॥
नाम कबीर कहो गुर्ूराई बावन खख दगा मिरि जाई॥
जाहि देइ आओ नाम निशानी । दख उबारि केरे राजघानी ॥
वेश समादहिं हंस हिया मादी । ईस देहि जीवन कह वादी ॥
अहनिश नाम इमारो खेदं ' ताकों कार दगा नरि देर ॥
भजनी मजन करे सुकदावे । अमर सनेह् समापि ठग ॥
शारु दशा धरि इस उबारे ¦ विषम छहरि भवसागर तारे ॥
वंश बयाछ्िसि अश हमारा । करम शीश छ नि आरा ॥
कंलावन्त ॒श्ूुदर सुखदाई सके नायक शरण सहाई ॥
वराके चरण शश ङुरबानी । अङ्क अङ हमरी सहिदानी ॥
जाके मस्तकं दीन्दं हाथा काठ करम नहि ताके साथा ॥
चरण ए रज असरत लेहं । ताक काल दगा नहि देई ॥
द्या प्रीत सब जानत रद्हं । कार कमं सब इरि सदे रदी ॥
जासों करै सत्य दित बानी । ताकी कार करे नरि हानी ॥
जोन जीव सत्य पारस पावे । छोडे देह रोकं सो आवे ॥
सुख सनेदसो पारस पावै । सो निश्चय सुखसागर अवे ॥
देह धरि प्रकटे संसारा । ब्द बिदेह दस रखवारा ॥
जाकह देहि सत्यकर भारा । सोई शब्द सुत वैश हमारा ॥
कृरनी . करे वेशकी चाला । ताको नादि सतवे कारा ॥
करं राज ओ पन्थ चटावह । शब्दं सनेह ईैस शुकतावहु ॥
राज पार सोपो अनुमाना । जम्बुद्वीप छ करहि अपारा ॥
आगे चङि है पन्थ विस्तारा । कारुका छक करहि अपारा॥
तुमरे घर प्रकदीदि अन्याईं । हंस दशा धरि पन्थ ननाई ॥
श्वास्खञार ( १०१ )
कपटकी भक्ति करि विचारा । काजधाज पाखंड पसारा ॥
ज्ञानदशा धरि पंथ चह । ममता बोधि जीवं भरमेहै ॥
तहां आपु दृट् राखह ज्ञाना । काठकिकला होय पिसि माना॥
बाहर कार चतुराइ भखीदी । सदा अमान शुक्तिते रखीही ॥
सत्य दहाईं रिरि जहां टिकि न कील कलाकी तहां ॥
जो जिव शब्द हमार न मानी ! सो जने वो है यमकी खानी ॥
आन मेरि दुविधा फेटइहै । सो जिव सपने मोहि न पडहै॥
शब्दकी शरण गहि लोखा । निम॑रु ईस होड सखदाई ॥
काल कला धरि प्रकटदहि आई । षिररे इस रहै उदरई ॥
काल कला मुख भापहि जबही । इटि चित्त इसन कर तबही ॥
भापिदि ज्ञानदृष्टि म्यवहारा । सुरति डोखाई केरे अतिचारा ॥
कालपथ महू प्रकटिरि आई । ज्ञानमेटि भाषहि अलुराई ॥
शब्द वंशकी निदा करि है। ममता बोधि काटष्चख परि ड)
आप थापी वश उठे है। शब्द् मेरि जीवन भरपैड॥
एक परिपच वाधि है सोहं। जो नहिं ईसं हमारी होई ॥
जब परिपच सुनाइहि कारा । शब्दन सुमिरेतेहिकेरे बेहाखा ॥
मन बच आश शब्दकी करि ३ । कार्की चारु चित्तना धरि है॥
मन वच जानि शब्द् कदं धरिहै । निश्चय सत्यखोकं सो जेर ॥
पाषण्डकी गति देह बहाईं । शब्दकी शरण गहै चितलाई॥
शब्दकी आप शब्द रो लाई । शब्द छोडि नहिआन चलाई॥
शब्द पाइ करि है अभ्यासा । सुमिरन भजन शब्द विश्वासा॥
अमर समाधि शब्द् अवराधे । अक्षरमांह निरक्षर सापे ॥
पूरी तत्व लखे जो केोडं। पूरण ज्ञानगम्य जेहि होई ॥
वेश सदाहि या तत्व समाई । बेद करे तो मोरि दुहाई ॥
बश दयाते सब मिटि जाई । सुमिरि बश बयाङिसि पाई ॥
( १०२ ) बोधस्रागर
खसय्-मनसा वाचा कमणा, तहि तच्च समाय ।
अक्षरमांरि निरक्षर द्रशे, अधर ध्वजा फहराय ॥
दामिनि केसी दमक जिमि, एसी शब्दकी डोर ।
करै कबीर पहु चाइ दों, हंस सुजनकी जोर ॥
चोपाई
अक्षर माह निरक्षर पव । छोडि देद पांजीकी धावे ॥
पाजी द्वार सत्यकी धारा । जर्रंग चौकि सुकृत रखवारा॥
आदि अन्त दम तुमकद दीन्हा । अब हम लोग पयाना कीन्डा॥
तुम साहब सतलोकं सिधाए । इम सेवक संसार रहाए ॥
निश बासर तमीं ठे ठेदों । परपर द्रश तुमरिको दैदों ॥
चिन छिन रदो तुम्हारे पासा ' धमदास मोहि व॒म्हरो आसा॥
तुम दो भाई प्रेमहित मोरा । दसन जाय करौ वदि छोरा ॥
लोक॒ बोडदइसा वेढे रदिदो । गुदारोक मिरिरे सों कदि दौ॥
समय-भेद पुरुषको तासों किदो, जो शब्द पारखी होय ।
द् पारखी भिरे नहि, तासों राखेह गोय ॥
चन्द्र सूयं चटि जल पिति, वितु रसना रस सोय ।
तासों कदि दों शब्द्निरक्षर, नेह धरो जनि गोय ॥
बिञ्च॒ रसना रस पोवन जाने, कहा निरक्षर पव ।
करै कबीर तारि परिदरहु, कारु कटा धरि आवें॥
सक्षम वेद भेद नरि जाने, कथनी कथि लपटान ।
गुरूगम भेद विचारे नादं, यमपुर जाय निदान ॥
चंद सनेद खे सदिदानी, तुरति दोय असवार ।
दुई करजोरी महारस पीव, सतण॒रू रारण अधार॥
संयम करे अघर धुनि साधे, सत्यसुकृत रखवार ।
शुरुकी दया साधुकी संगति, उतरे भवजल पार ॥
श्वासणञआर ( १०३ )
काया परिचय जानिके, पकर हट कडार ।
नावं लगाव घाट कह; खेह उतरे पार ॥
वथिम लहर जो गवैः, नाव छमा चाट ।
उतरि पांजी सोधिके, तब पवि निज घाट ॥
चद् उदय जब होत है, सूर्यं अस्त बलदीन ।
इहै लगन दै आदि की, जेसुनिकरसुरलीन ॥
जलरग महरम जाई रहै, करे जाह विराम ।
सतगुङ् शब्द बतावहि, तब प्रवे निज धाम ॥
अन्तकी राह _ बराइके, चरं आदिक राई ।
आसन पावे लोकं महं अक्षयु शृक्षको छि ॥
धर्मदास इसनके नायकः, माथे राख नाम |
अब हम चले रोक कर, तुम जाय करां विश्राम ॥
चौपाई
स्वेत मिठाई उत्तम पान । सत्यवचन भाषह भमान ॥
आरति करी कीन्हे भा । नरियर मोरपांच मिषा ॥
भक्तिभाव कन्दे बहुभांती । सतु दखह संत बराती ॥
शब्द सुरति ते गांरि जरावड । भावर की बेदन परिरावड ॥
तिरक बन्दन बहुबिधि कीन्हेउ ।पांचसाधुमिखिआशिष दीन्डेउ॥
पञ्च जने मिलि अर्पण कीन्हेउ । डरत तिन्ह पुहमीमे दीन्देड ॥
समय-डर पारस उर प्रेमशुङू, डर करनी डर सार ।
डरता रहै सो उबरे, गाफिछ खासीमार ॥
तत्व तिलकं तिहु रोकर्मे, सत्यनामनिज सार ।
जन कबीर मस्तकं दिया, शोभा अगम अपार ॥
शोभा अगम अपार, पार बिरखे जन पावे ।
अमर रोकको जाय, बहुरि कबहुँ नहिं अवे ॥
( ३०९६)
नोधसागर्
अखण्ड फनिसनी तिरक ₹ै, अक्षय ब्क्ष रै सार।
असर महात्मा जानिके, केरेतिरुकतत्वसार ॥
जिङ्टी अपरे सूर रै भङुरीमध्यनिशान।
बरह्मद्धीप अस्थुरु है अभ्रतिरुक निरबान ॥
अमर तिरक शिर सोहै, बेसाखी अबुहार ।
शोभा अविचरु नामक, देखहुसरति विचार ॥
जास तिरुक अस्थान ई, तासु नाम अस्थीर ।
खब॒ लिलटे सोभरी, तच्वतिलकगम्भीर ॥
संता अयनकी खानिहै, महिमा है निजनाम ।
अक्षयनामतेदितिकुककोः क्षयनहि अक्षयविश्राम ॥
मध्यशगुफा जहां सुरति है, उषर तिलकंको धाम ।
अमर समाधि लगावै, अंग अंग अस्थान ॥
कंठी कंठ बिराजे, उज्वल रस अमान।
सुख उञ्वर चक्षु उज्वर, उज्वरु दशा न रोय ॥
जो उज्वल है भीतर, ऊपर उज्वर सोय ।
अतर कपर मलीनता, उपर ओर न होय ॥
जोन भाव भीतर बसे, ऊपर बरत सोय ।
( भीतर ओर न देखिये, उपर ओर न रोय ) ॥
जौन चारु संसारकी, तौन संतको नाहि।
डीभि चालु करनी करे, संत कंदी नहि ताहि ॥
साधु सती ओ रमा, ज्ञानी ओ गजदेत ।
एतौ निकसि न बहुरे, जो युगजाय अनत ॥
साधु चार जो जानिरै, साधु कदां सोय ।
बिन साधे साधू नहीं, साश्च कराते होय ॥
श्वास्षखञार (१०५)
साधु कहावन कठिन है ज्यों खाडकी धार ।
उगमगदहै तौ कटि परे, गहै तो उतरे पार ॥
साधू सोई जानिये, जो चरे साकी चाल ।
परमारथ ठछागा रहैः बोके बचन रसाल ॥
संगति करिये साध्रुकी) हरे सकल तन व्याधि ।
नीची संगति अषाध्ुकां, आगे पहर उपाधि ॥
निश वासर साधू मिले; मिटे विषम तन पीर ।
तासु नेह निं जड, सदा सफर तनथीर ॥
साधुनसों सगति केरे, जागत सोवत शर |
तासु संगमे र वरहा, ज्यों कर सदा क्माल॥
जाके इदये सत्यहो, सोई सक्तके साथ ।
साधु २ सोदे ताहि, खोजि रेह नगमनीमाथं ॥
साधु न संकट सों परे अगमन इमी होय ।
दुर्जन मारि बहाश्टै पला न पकेरे कोय ॥
तन मन शीतल शब्दपर, बोखत बचन रसा ।
कहै कबीर तेहि दासको, गांजि स्के ना काल ॥
ररा काग विष बोकरा, कूकर नाग मञ्चार
नाहर विषधर दत, भ्त वट ओं षार ॥
सब कह बाधी कबीर, आन घाट बारे डार ।
बार घाट बन ओघवट, मोहिं खसमकी आश ॥
मते चलो कबीरके, कबहि न होय बिनाश।
भागे यमदूत भत यम, काक न तिका टट ॥
हस चले है रोक कहं, काल रहा शिर कूट ॥
चोपा
धर्मदास सुनो शब्द सन्देशा । जादि देहु ताहि मिटे अन्देशा॥
जाके घर तुम्हरी सदिदानी । तहां प्रगट इम तुमहि समानी॥
( ३०६९ ) बोध्सा गर
जो कोई लेह तम्दारो नावा ताके शिर मह मन्दिर छावा॥
सन्त दसाधरि पन्थ चलाबह । छापा तिलक कंठी पदिरावह ॥
वैरागी वैराम्य पटावहु। गृहि बासी रहनी समञ्ञायडू ॥
वैरागी उन सुनि घर करई । दषं शोक कु चित नदिं धरई॥
खूखा सूखा केरे अहारा ।निशदिनरविशशिसूरदिखधारा॥ `
विकशित बदन भजनके आगर । शीतर सदा प्रेम सुखसागर ॥
वैरागी आसन आरभे । माखा तिलकं सुमिरिनि थभे ॥
पश्चिम रूदरि जो गवे जानी । अजपा जाप जपे सदिदानी ॥
रहिता रहै बै नहिं कबरी । सो वैरागी पावे इमदी॥
ह्मे पाय दमदी अस दोईं। आवा गौन मिटावे सोई ॥
आवा मौन मिट काया । सदा अधीन रहै तत्व समाया ॥
काया धरि काया कह बोधे । आवां गौन रदित घ्र शोषे ॥
जीवत मरे मरे पुनि जीवे । उनमनि बसे महारस पीवे॥
मदा श्यून्य मों रदे समाद । मरे न जीवे अवे न जाई ॥
एसी विधि वैरागी सोई। दममिकि रहे इमहि असदोई ॥
गदी रोइकं रहै उदासा । शब्द् कमाई शब्दं विश्वासा ॥
गरी दगा कोटि जो पाई । कै कबीर भक्ति बतलाई ॥
गरी भाव भक्ती जो सापे । सन्त साधु सेवा आराधे ॥
घर तजि बादर कबि न जाई । गुरू नाम भक्ति करे रोराई ॥
भक्ति करे निय सदिदानी । गरू ओ साधर एककरि जानी ॥
जहो साघु तहां सतयुरु वासा । जहां सतगुरु तरह सुक्ति निवासा॥
जदो मुक्ति तहां लोक उजागर । जहां लोक तहा रहै सुखसागर॥
जहौ सुख सागर तदं कवीरा । भक्ति मध्य बादर ओ तीरा ॥
जहौ मध्य तहँ पुरूष अमान । जह बादे तदा रस॒ खजान ॥
जौँ तीर तौ निर्म धीर । जरा मरण नरि भ्यापे पीर ॥
श्वासयञओार ( ३१०७ )
जहां पीर तहां संशय धीर । संशय मध्य असंशयं नीर ॥
जहां नीर ॒तदां खख संतोषा । जरा भरण नहिं व्याप धोखा ॥
जहां धोख तदयं अवि धीर् । जहां धीर तहां गहिर् गम्भीर् ॥
जहां गभीर तहां भिर् होई । जहां थिर तहां हरी न सोई॥
रहरि नाहि तहां अपि होई । आपा मेटि होई रहै समोह ॥
ममता मोह हरि तजि जोई । भाव भक्तिके माद्ष गोई ॥
मनसा गहै होय निर्वान पावे सत्य सदी अस्थाना ॥
नातर् रिरि अवे संसारा)
संसार आहके भक्ति कमाई । भक्ति कमाईइके भक्ति कहाई ॥
भक्ति कदाहइके रहै उदासा । सतथुरू मिरे सत्य विश्वासा ॥
सतगुर्ूते दूसरे गङ् नाहीं । आवा गौन रहितं घर जाहीं ॥
सतर मिरे तो संशय भागे । संशय बहुरि अङ्ग नहिं छाभै॥
सतर सुख संतोषके नायकं । षरमारथ सो सदा सहायं ॥
समय-साधु बडे परमारथी, घन ज्यों वरव आय ।
तप् बुञ्ञवे आनक, आपनो आपन खाय ॥
जसे वृक्ष न फल भखे, नदी न अँचवै नीर ।
त्यों परमारथ कारने, संतन धरो शरीर ॥
सन्त सरादिये ताहिको, जाके सतर टेक ।
टेक निबाहै देह भरि, रहै शब्द मिलि एक ॥
सत्यशब्द् हितमानिके, सुमिरि सतय॒रू धीर ।
धमदास त॒व वशके, एके गुरू कीर ॥
चौपाई
सत्य सुकृत समिर चित मादी । टूटत वज राखि रेड राही ॥
समय-सत्य सुङृतके बाल कह, जो वितवे कर दीठ ।
ताजन लगे चौरै, शनहगारके पीठ ॥
( १०८ ) बोधसागर
जहा करौ तो जग तरै, प्रकट क्यो न जाय ।
गुप प्रवाना लेड हो घर्मनि, राखो शीश चटाय॥
दसा तुम मतडरपौ कारसों कर मेरि परतीत ।
सत्य लोकं पहुंचा, चलिहों भवजल जीत ॥
इति अथ उदय रकसार, श्वास गंजार सम्पूणं ।
जो देखा सो छ्िणिा, मम दोषन दीजिए ॥
भूर् चक अक्षर ठेव सधारी ॥ समय नाम गोरसोईं साहेब
लक्ष्मणदासजीको कोरि कोरि दण्डवत् सब संतन महतनको
कोरि कोटि दण्डवत् । मोकाम गोरखपूर मदा काजीपुर छोर
लीखा भवानी बकस सब संतनके कंकर ॥ असर पुस्तकाजुसार
नकल किया ।
इति श्वासगञञार संपुणं
षे
श्रीबोधस्ागर-
आगमनिगमबोध
भारतपथिक कबीरपंथी
स्वामी श्रीयुगलानन्दद्धारा संग्रहीत
1
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,
अध्यक्ष-“लक््मीवेङ्टे-धर' ` स्वीम्-प्रस,
कृल्याण-बम्बर.
पुनर्मुद्रणादि सर्वाधिकार शश्रीवेंकटेश्वर' मुद्रणयन्त्रालयाध्यक्षाधीन है
यााककृकयकणकाणण्कानयानुष्गकृगपिकान्ययोतक कुक
[षता रि ~ सतकम्यमतनसारकायाकृ
ह
सत्यनाम
द कं
त ~ न्य =-= ~~
री
श्री कबीर साहिब
३॥
(0
॥ ||| 7
॥
|
पत्यघ्कृत, आदि अदली, अनर. अचिन्त पर्ष,
यनीन्द्र, करुणामय, कवीर्, सरति योग्, संतायन,
धनी धमदास, चररामणिनाम, घदशंन नाम,
ऊुटपति नाम, प्रबोध ष्वाछापीरः केव नामः,
अमो नाम, घुरतिसनेही नाम, चक नामः,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरन नामः
उग्रनाम, दयानामको दया, वंश
ग्याटीसकी दया
१.4
अथ श्रीबोधसागरे
आगमनिगमबोधपारथः
श
अयध्िशस्तरगः
साखी-वेद् शाघ्चको मत अबे, अगम निगम प्रमाण । `
अब वर्णन सोई छिखो, पटो सकल दे ध्यान ॥
अथ ब्रह्मा ओर जगत उतपत्ति चौपाई
आदि ब्रह्म अब वर्णन करे । अहशब्दमे सो थित धरें ॥
ताहि शब्दकरि चित एरिआया । चित ददृता करि मन परकराया ॥
(२) बोधसागर
सनते तन साचा मे पांचों। मन स्वरूप बह्माको वाचो ॥
मन बल्या ब्रह्मा मन सोह जस संकट्प करे तस होई ॥
रचे अविया शक्ति विधाता । जिरि अनात्ममे आत्मलख्खात)॥
बह्मा सोड अविद्या कारण । विद्या राचे ताहि निवारण ॥
उठे तरंग सिधु जसे बहुरि समाय ताहि पनि तैसे ॥
ब्रह्माते इमि जगत प्रकटाई । फेरि लीन तामे है जाई ॥
सत्य शुद्धे मनको फुरना । सो कारण सब दुःखको जुरना॥
उपे खपे दिधिते जिव कैसे। अथिते चिनगारी खि जैसे ॥
दुःख मरु बासना विकारा) मनी कर्मं हप निज धारा ॥
मन अङ् कमं एकदी आही । कमलसुगन्धमेद जिमि नाहीं ॥
मनमे जो संकल्प फुराई। सो अक्र क्म कटाई ॥
कमं कि पूवे देद॒ मन अहह । मनमय देह कर्मका गई ॥
जो कु सत्य असत्य गरोई । मनको कियो सत्य सब होई ॥
इति
अथ चारवणकी उत्पत्तिवणन-चौपाई
ब्रह्मा मुख ब्राह्मण प्रकटाये । ब्राह्मणको इमि अर्थं बताये ॥
प्रथम अक्षर पविता थाप । द्वितिये अक्षर तेज प्रताप ॥
द्वितीये बहते क्षिय भयेऊ । अक्षर आदि पराक्रम गहे ॥
द्वितीये अक्षर रक्षा कारी । त्रतीये वैश्यको अर्थं उचारी ॥
प्रथम शाब्द स पति गह सोई । दूजे अर्थं पालना होई ॥
चौथे चरणते द्र उपाये। ताको एेसे अर्थं बताये ॥
प्रथम शब्द् तुच्छता बताई । द्वितीय दीनता अङ् सेवकाई ॥
वेद् पाठ षटफमं जने । तीन बरणके हेतु बनेऊ ॥
चर्हके संस्कार कम न्यारो । ब्राह्मण वर्णको मेद उचारो ॥
ब्राह्मणमें दै मेद रै सांचो। पंच गौड अर् द्राविण पांचो ॥
आगनिगमबोध् (2
पेच गौोडको नाम वबखानो । गौडकनौजियासारस्वति मानो॥
उत्कल मेथि रपांचों गौडा । बहुरि बखानो पंच जो इविडा॥
द्राविड गुजराती अर् नागर । मशराष्द् तैलंग उजागर ॥
इनते बहुरि अनेकन मय न्यारे न्यारे नाम सो कहे ॥
वैरागी दश ब्राह्मण जह | वैदके धमं ध्वजाधर येई ॥
क्षजीमे दे भाग प्रशंसी । एक सूर्यं द्वितिये शशिवंशी ॥
वैश्यनमे बह भांतिक भनिया । अथवार् आदिक बहु बनिया॥
शुद्र भेष भाषे विधि नाना । तिनको इहां न करो बखाना ॥
ब्रह्मा चायो वरण बनाईं। ताके मन पुनि विता आई ॥
बिन रेखक जगकाज न सरिहै । केवकं गणक कमं को करिहै ॥
यहि विपि बह्म जो करे विचारा । चिचथ्॒त्त प्रगटे तहि बारा ॥
इतिं
अथ चित्रगु्तजीकी उत्पति कथा व्णन- चौपाई
लीने कर ठेखनि मसिदानी । प्रकटे वि्रय्प्त शुणखानी ॥
ब्रह्माकी अस्तुत उच्चारे । सो धुनिसुनि बिधि पलकडउघारे
बरह्माकी तब आज्ञा पाह । तपको चिजगुप्त अन जाई ॥
वारह वषं कीन तप गाटे। पुनि मे ब्रह्मके सन्थुख गदे ॥
तव ब्रह्मा निज स॒भा रगाये । सुरनर खनि भूपति चङि आये ॥
ऋषी सिसिरसा तदहं पुधारा । निजकन्या वरहैत॒ विचारा ॥
कन्या चिच्रय॒प्त को ब्याहा । महिपमन्वतर पुनि अस चाहा॥
भूष॒ मन्वंतर सरूरजको पोता । ताहि सभा तिहि ओसर होता॥
सो अपनी पुरी देऊ । दोऊ तिय चिचरय॒प्त वर गहेउ॥
पुर॒ यपो दोनों नारी । एकते आठ एकते चारी ॥
माथुर गौड अर् कनं भनीजे । बालमीकं श्रीष्वजरि गनीजे ॥
सकसेना श्रीवास्तव ॒रेसे । श्रना अम सकं है तेसे॥
(8) नोधसागर
भटनागर करु श्रेष्ठ कहाये । निगम नाम बारह बतलाये ॥
द्वादश चिचग्॒तके जाये कायथ रेखक गणकं काये ॥
चिजगप्त॒ धर्मरायके द्वारे । पुण्यपापको रेख उचारे ॥
तिमि ताके खत पृथ्वी मारी । राजद्वार पर खेखकं राही ॥
| ति
अथ चार आश्रमृको वणेन
दोहा-ब्रह्मचयं गिरदस्थ . पुनि, बानप्रस्थ संन्यास ।
भिन्न सिन्न इनके घमं, मरम वेद प्रकाश ॥
इति
अथ चार वेदोकी उत्पति कथा वणेन चौपाई
चोषड् वाक्य ब्रह्मसुख भे । चारों वेद ताहिते किय ॥
असी सहख कमकांड प्रमाना । सोलह सख उपाह जाना ॥
चार दजार कदावे ज्ञाना । यह भिकांडमत षेद बखाना ॥
चारो मम वाक्यको रीका । लक्ष छोकं व्यास कृत रीका ॥
जेते शाघ् पुराण काये । चारों वेद कि आस गहाये ॥
चारों वेद् मूलं सब केरा महाबाकं अब करो निबेरा ॥
प्रथमे जो ऋगवेद कहायो । पूरब मुख ब्रह्मा प्रकटायो ॥
ब्रह्मकी बानी भई येही । प्रज्ञाना बह्म कहि देही॥
महाज्ञान किये प्रज्ञाना । बरह्म अथं परमेश्वर जाना ॥
यहि महा वाक्य रचे ऋगवेद । कम उपाह ज्ञान भिमेदा ॥
पूरब दिश ऋगकी अधिकां । द्वितिये यज्ञवंद कहि भाई ॥
दक्षिण मुख ब्रह्मा निज खोरे । अरे ब्रह्मा अस्मी सों बोखे ॥
अहे अथं में ब्रह्म दै ईश्वर । हौं अस्मी कदे दों ईश्वर ॥
यहि मह बाकते यज्ुर बनाये । दक्षिण देश अधिकं फैलाये ॥
सामवेद ॒तृतिये विख्याता । सख पिम ब्रह्माकी बाता ॥
आगनिगमवौध् (५)
महावाक्य ब्ह्लाकी येही । त्वमसी ताते कडि देही ॥
तत्व ईश्वर त्वं जीव काये । हौ पुनि स्मीको अर्थं बताये ॥
पिम दिशतेदिअधिकपसारा । तीनों विधि ताको व्यवहारा ॥
चौथे वेद अथर्वण भाषी । उत्तर शख ब्ह्लाकी साषी ॥
तीनों वेदसे ताहि निकारा ) तामं महावाक्य यह धारा॥
अहे आत्मा व्रह्म पुकारो । ताका ठेसो अर्थं .बिचासे ॥
अहह मे आतमदहै आपा) ह्म नाम प्रयेश्वर थापा ॥
मदी हौं परमेश्वर आतम । उतरमे यहि वेद महातम ॥
चार युक्ति चहुं वेदन माहीं । प्रथमे विधि जिरहिक्मकराी ॥
द्वितीये अर्थं बाद बतखाये। अस्तुति ओर कर्मफल गाये ॥
तरतिये मंज जो देव अराधरू। चौथे नाम कथा ज्जुचि साध् ॥
षट प्रकारकी विधि चहं वेदा । प्रथमे जग उत्पति नवेदा ॥
द्वितिये प्रल्यको ग्यौरा गना । ततिये खरश्चनि चरितवखाना ॥
चौथे मन्वन्तर कथ दशचारो । पचम सुरसुरपति व्यौहारो ॥
छटये धमशाक्च॒बिधिभाषा । तामं कथा भांति बह राखा ॥
विद्या सकर जगत व्यौहारा । ज्ञान विधान अनेक प्रकारा ॥
ब्रह्मवाद माषे विधि नाना। जाके पटे रभिदहो ज्ञाना ॥
चार वेद बुधि विद्या मखा । रचे शाञ्च षट तिहिअवङ्ल ॥
इति
अथ षट् शाञ्लनको वणेन चौपाई
अब षटशाञ्चको वर्णन सुनिये । प्रथम न्याय ऋगवेदतेगनिये ॥
गौतम न्याय केतकि करता । अस बिचार ताके उर वरता ॥
सर्वं महं परमेश्वर जाना । एकते बहुरि अनेक बखाना ॥
उत्पति प्रल्य कथा बखाने । नित्यानित्य बाद् बह उने ॥
द्वितियमीमांसाशास्लजोकदिया । यजवेंदते ताको गहिया ॥
(£) बोधसागर
ज्ेभिनि सीमांसखक रचतारी । शिष्य प्रसिद्ध भये बह बादी ॥
प्रसेश्वरहि अकतं जाना । जक्त अनादि अनंत बखाना ॥
ज्ञान सुक्ति सब कमेके द्वारा । कमेके बशी भूत संसारा ॥
सुक्ति दोय जिव ज्ञानके ममी । बह्मा दोय करन भर कमं ॥
ततिय शाञ्च वेदांत बताये ! सामवेदते ब्यास बनाये ॥
एक ब्रह्म द्वितिया कङ्क नारीं । स्वप्न समान जक्त दरशादीं ॥
ब्रह्मम जबरी माया डोरे । ताको तब ईश्वर कहि बोरे ॥
ईश्वर तीन भाग _ पुनि भय । रज सम तमयुननामसोकडेऊ ॥
जेते जक्त मंद व्योहारा। यदी तीन सबके करतारा ॥
कमे रदितसो ब्रह्म बखाना । कम स्वरूप तीन ये जाना ॥
मायायुक्त भये जब तीनों । तिहि कारण ईश्वर कहि दीनों॥
ब्रह्म अविद्या युक्त जो होई। ताको जीव कहै सब कोई ॥
तरिशणनब्रह्म अङ् जग जिवक्षारे । सबही एक स्वप विचारे ॥
भित्र अविद्या करिके माना । दै शक्ती तिहि मांह बखाना ॥
यकं विक्षेप शक्ति कलाये । द्वितिये अबरनशक्ति बताये ॥
शक्ति विक्षेपते जग उपजाये । अबरन शक्ती ज्ञान दुराये ॥
ज्ञानके उदय युक्तिपद धरदी । वेदाती यह निर्णयं कृरही ॥
चौथे सांख्यशाश्च मत गाढा ' ताहि अथर्वेण वेदते काटा ॥
रचे तादहिको कपिल मुनीशा । सो अकतां कथ जगदीशा ॥
सबही रचना प्रकृति कराये । जक्त अनादि सदा यहिभाये ॥
काहू वस्तुको नाशन होई । करता म करतूत समोहं ॥
देविधि भाषे पुरूष महातम । जीव आतमा अशू परमातम ॥
पुरूष प्रङृतको जब दो मेला । दोय सकर रचनाको खेला ॥
पुरूष पेगुला परकृत अन्धी । दोह बिन नदिं जगरचना बंधी ॥
प्रलय कालतिह गुन समताई । रचनाम सतगुरु अधिकाई ॥
आगमनिगवोधं (७)
पुरूषते महातत्व प्रकटाई । पुनि ईंकार इन्द्रत्वं गाड ॥
प्रलयको घौस बहुरि जब आवे । इन्द्र तख सब तहँ समवि ॥
जिहि कमसे जो दियौ देखाई । तिहि कम २ सब जाहि इंपाई॥
पचम शाच्च पतंजल कहेड । वेद अथर्वणस्े सो गहे ॥
ऋषि पातजलि ताहि बनाई । वर्णन साख्यशाच्च सम ताईं ॥
योग युक्ति तिहि मोहि बाना । ज्ञान द्वारते युक्ति प्राना ॥
छठे शाघ्च वैशेषिकं भाये । श्नि कणाद कतां कहखये ॥
वेदः अथर्वेणते गहि टीना । यह षटशाञ्चको वर्णन कीना ॥
इति श्री षट्शान्च
अथ चार उपवैद वर्णन
दोहा-आयुवेंद धलुवेद पुनि, गन्धववेदं बखान ।
अ्थवद ये चार हैँ, तिनकी निणंय उन ॥
चोपाई
प्रथमे आयुवेद करतारा । ब्रह्मा पजापति अश्वनीङ्गमाय ॥
धन्वन्तरि आदिकं रच तादी । कामशाद्च वेदादिकं जाही ॥
द्वितिये धवुवंदके करता । विश्वामित्र नाभ सो धरता ॥
ब्रह्मा प्रजापति से जोई । विश्वामित्र सिखे युन सोई ॥
सकट युक्ति शिष कीन प्रचारा । परजा पाटन के व्यौहारा ॥
शच्च प्रहारकिं युक्ति है तामे । युद्धकरनकी बिधि वह वामे ॥
आयुध दोय प्रकारके युक्ता । एक हैयुक्त अर् दवितिय अथुक्ता॥
ततिये अुक्तापक्त कहा । यं युक्त चीथेको ना ॥
हाथसे जो चक्रादि चरखाये। ताको नाम सक्त बतलाये ॥
तरवार आदि अशक्त. बखाना । बरी सुक्तायुक्त प्रमाना ॥
बहुरि तीर आदिकं अर् गोली । यंच युक्त तिनको कहि बोली ॥
क्त आयुधको अच्च कीजै । अरु असुक्तको शाघ्च भनीजे ॥
५) बोधक्षागर
सने चार प्रकार नामं धर । घीटचटरथचट गजचट पद् च२॥
अखशुन सशण॒न बहुत विधिभाषा । क्षी धमं सकल तह राखा ॥
ततिये गन्धवे वेद बताये । ताहि मरथजीने प्रगराये ॥
नाद् वृत्य सुर तार अनन्ता । विविषि भांतिसे ताहि बदंता॥
युक्ति अनेकन देव अराधू । निरविकल्प पुनि कथे समाधू॥
सोथे अथवेदं विधि किये । नाना युक्ते ताहिमे लिये ॥
नौति शाञ्च अङ् अशारूटा । शिलष सष आदिक सतिगूटा॥
धन उपाय बहू बिधि तहलदिये । अर्थं वेद् यहि कारण गहिये ॥
द्रव्य उपाजन रीति बनाई । अर्थं वेद् पुनि अस अथाई ॥
केसेड निपुण दोय नर जो । भाग बिना धन कहै न कोड ॥
ताते अन्त कथे बेरागा। सब चातुरी बथा इमिलागा ॥
चहं उपवेदको यह सिद्धांता । सब तजि हो विरक्तं बुधवन्ता॥
वेद उपवेद कि विधिम पागा । अन्त शुख्य वैराग अश् त्यागा॥
दति
अथ चार उपवेद षट् अंगवणन- चौपाई
शिक्षा कर्प व्याकरण वरनो ।पुनिनिसक्तिज्योतिषचितधरनौ॥
पिगृख सहित कट षर अङ्गा । विविधि भांति भाषे परसंगा॥
प्रथमे शिक्षा शाम के । नाना भांति फिं युक्ती गहे ॥
वेदके शब्द न माह बखाना । अक्षरनके अस्थानको ज्ञाना ॥
पाणिनीय है ताके करता । युक्ति चातुरी बह तह धरता ॥
द्वितीये कल्पके सूजन मादी । वेद् किं विधिसो कै तदाहीं ॥
कर्मके अनुष्ठान विधि गायन । पाणिनि पातंजटि कात्यायन॥
तृतिये कथे म्याकरण जोई । वेदक शब्दबोध तिरि होई ॥
पाणिनीय आदिक बहर तेरे। कतां सोह व्याकरण केरे ॥
चौथे निरुक्त शाघ्चके माहीं । एेसी निणंय कीनो तादीं ॥
आमभनिगथबोध् (९)
अपर सिद्धषद वेद जो होई । ताञ्च अर्थं बोधक 8 सोई ॥
यास्क अनीश्वर कथे बखानी । नाम निषपन निर्णयं उनी ॥
आदित्य आदिकं अङ् बहूतेरे । रचित निकश्क्त शाच्च तिन केरे॥
पचम पिगर कौन बखाना । पिगलश्रुनिरचि छंद विधाना
छरये ज्योतिष कारको ज्ञाना । आदित्यादिक मं बखाना ॥
इति चार् उपवेद
अथ अढारह पराणोकि नाम-चौपां
ब्रह्म बहुरि वयवतं बानो । बावन अश् बह्मांड मानो ॥
मारकण्डय भविष्य काव । नरद विष्णु पुराण बत ॥
ग्ड बराह अर् पद्म गनीजे । भागवत मीन वो कूर्म करीन
ल्ग वायु पुराण बताया । फिर अस्कंधो अथि कहाया ॥
इतिं
अथ शाच्चके अदारह प्रस्थान वंणेन-चौपाङ
शाद्चके दै प्रस्थान अरा । या बिधि तिनकोनाम उचारा॥
चार वेद उपवेद रै चारी। वेदनकफे षट् अंग विचारी ॥
धर्मशाञ्च मीमांसा न्याइ । चौथे पुनि पुराण बतलाई ॥
उप पुराण पौराण अनेका । अटरहेकी नियम न एका ॥
स्पती महाभारत रामायण । मंवशाश्च नाना विधि गायन॥
वाम तंज देवीके राखा। नारद पचरा् पुनि भाषा ॥
देव अराधन बिधि बह मनते । कायं ताते भरु गनते ॥
इ
अथं चारवैद को बाद वणन-चोपाईं
प्रथम कटै ऋगवेद बखानी । निराकार परमेश्वर मानी ॥
निररेषो सो अलख अगोचर । निराखव सो जान जह्मबर ॥
द्वितीय अथवेण भाषत होई । निरालम्ब निप न कोई ॥
( १० ) बोधृसागर
नदिं निशेण नरं सथैण कदे । जो कोह मरा मुक्त सो भै ॥
जेसे पञ वृक्ष ते टूटा ।फेरन सो तश्वरमे नूटा॥
षेसो जीव मरा यकवारा । बहुरि नदीं ताते तन धारा ॥
तृतीय यज्ुर अस कहे बहोरी । इन दोनोकी मतिभई भोरी ॥
सगुण बह्म नरायण होई । क्षीर समुद्र शयन कर सोई ॥
दश अवतार सोई धरिलीनो । गोपीनके संग कीडा कीनो ॥
चोथेसाम कह पुनि मत अषना । यै सब जानो ज्जुठ कृष्ना ॥
नहि सगुण नहिं निरणुण देवा । नहीं दृष्टि गोचरको मेवा ॥
सम्पूरण रहै बह्म अखण्डा । तत्वमसी अदैतसे मण्ड ॥
इति
अथ षटूशाच्चकी बादवणन- चौपाई
प्रथम मीमांसा शाख आचारी । कमं थापि निज ज्ञान उचारी ॥
जो कष्ठ राभ जक्तसे कीना । सो सब जान क्म आधीमा ॥
कमेदि अधिष्ठान जिवकेरा । कमते करे जक्त मे फेरा॥
कमे प्रवृत कमे र्य पावे । कर्महि इखसुख जीव थुगातै ॥
भूत भव्य बत मानिकं जोह । कमं अधीन जान सब सोई ॥
अज इरि इर सनकादिक जेते । कमं अधीन जान सब तेते ॥
कमे अधीन ज्ञान अर् योगा । जो जस करे भोग तसभोगां ॥
कम॑ स्वतत्र सवे परगवै । जो जस करे सो तस्र फल पायै॥
द्वितिय बाद वयशेष वदंता । कमे निं जानिये सतता ॥
कर्मतो कालकि बसमे होई । कार पाय कर्मकरै न कोई ॥
जब कतहु परगात न होई । भोर कर्म तब केरे न कोई ॥
जो मध्यान न सन्ध्या आवे । बिना काक को कर्म गावे ॥
बार कूम ना हो तर्नाई । युवा कमं नि शिञचुकरि पाई॥
युवा कमे करि सके न ब्रूढा। वृद्ध॒ कमं तरुनाई गूढा ॥
आगमनिगमबौध (8)
ताते यह निश्चय करि मानो । कर्मं काल्की ष्च मरे जानो ॥
कालदि बह्म ओर नहिं कोई । काट पाय अज हरि इर होई ॥
काठ पाय पुनि सो बिनसाही । उतपति प्रलयकाल बश आही ॥
कालि ते सुख इख लता । कार स्वतन्त कर्मं वरतन्ता ॥
जब चाहे करम कर नर छोई) कार किये ते कवन न होई ॥
ताते काल सत्य करि मानी ! कमं असत्य वैशेषिक बानी ॥
तृतीय न्याय निज मत अथाई । काक है छीन छीन है जाई ॥
घरि बटि जाय काठकी बाते । कार कथं नास्ती दोड ताते ॥
अस्ति एक परमातम आही । तीन काल अवि अङ् जादी ॥
निज बश ईशर कालको धरई । जब जस चाहे तव तस करई ॥
ग्रीषम वषां काल बनवै। वषको ओीषय दिले ॥
चाहे रक रावकरि द्वारी । भूयतिको पुनि करे भिखारी ॥
सकल सूजधर इश्वर एसे । नाचे जग कठपुतली जैसे ॥
ताते परमेश्वर है अस्ती। कार वो क्म सभाव है नास्ती॥
चोथे पतञ्ञलि कह यह छेखा । कष्टो कहां तुम धर देखा ॥
तुम नहि जौँ ईश्वर लखिषाई । तौ पुनि कैसे ताहि बताह ॥
केसो इश्वर होइ रे भाहं। बिन देखे कह कहो बु्ाईं ॥
ईश्वर वहां सो कैसे जाना । बिव अनुभव भाखेअबमाना ॥
पीतर पाथर प्रथमा प्रजो । अवुमानहिते मनम श्ूजो ॥
यह सब ञ्युठ भरमको फन्दा । आतम श्चद सिदानन्दा ॥
सो हम जोग मागं ते जाना । तमको निक अतुभवज्ञाना॥
तुम प्रतिमा प्रजो यदि र्खे । हम जह्लांड पिडमें देखे ॥
तम दो श्रूटो इम र सांे। ईधरकी अनभौ तुम काचे ॥
ताते योग॒ सत्तकरि जानो । ओर सकर ञ्जा करि मानो॥
पथम सांख्यपती अस बोखो । तम सब मिथ्याजमयुत डोरो॥
( १२. ) नोधसागर
यकदेशो अनुभव अर् ज्ञाना । सो कछ कामको नहीं बखाना ॥
नद्य सवे देशी कह सोई । साक्षी स्वे अकतां होई ॥
सख करतूत प्रकृती ठाना योग समाध साधना नाना ॥
उतपति अस्थित पर्य कर्मा । सो सबही प्रकृतके घर्मा ॥
पाचों तत्त्व पचीस प्रकृती । चारो देह आदि सब नास्ती ॥
इेश्वरको जो जाननहारा । सर्वसाक्षि सो आसति षकारा ॥
ये सब अनित्तमे नित्तको आस्ती । योग आदि सब मिथ्या नास्ती॥
ञे वेदान्ती एेसे कई । मिथ्यावाद सकल यइ अद्र ॥
एक अखण्ड ब्रह्म है जोई । तामे अस्ति नास्ति न्ट कोई॥
आप आप सम्पूरण व्यापा । अमकरी अिषुटी तामे थापा ॥
ध्याता ध्यान घेय नरि कोई । ज्ञाता ज्ञान होय नहिं जोई ॥
रह्म अखण्ड अद्रेत एकरस । ताति देत याष भाषे कस ॥
नित्य नित्य समाधि है जोई । तमे सो सम्भवे न कोई ॥
देखन अर देखनमे आये । देखनहार ब्रह्म॒ बतलाये ॥
ब्रह्मते इतर ओर न कोई । नास्ति ओर सब मिथ्या होई ॥
सोरठा-वाद् करे इमि सोय, चार वेद षट शाञ्च मिलि ।
भेद न पव कोय, अगम अपार अकथ कथा ॥
स॒त्य कबीर वचनं
साखी-वेद हमारा भेद है, हम वेदनके माहि ।
जोन मेदमें म बसो, वेदौ जानत नाहि ॥
अथ विष्के चौवीसर अवतारको-वर्णन
दोदा-मीन कूम बाराह कद, नरहरि बामन बक ।
परशुराम रघुराम कद, कृष्ण बुद्ध निष्करुक् ॥
ग्यासकपिर इदयमरीव पृथु, यज्ञऋषभ सनकादि ।
दत्त मन्वतर बद्विपति, धानन्तर दसादि ॥
आमवनिगवयोध ( १३ )
चौपाई
हरि ओता बहुत जग ॒बांही । तिनकी कथा कदी नहिं जाही ॥
हरि ओतार जेते जग भे । राम कष्ण सर्वोपरि कषेः ॥
स॒जस जास जगमा बलान् । यण गण गव वैद घराना ॥
हरिम चक्र वतं तिह पुरके । कोड शबर नरि सम्बुख फरके ॥
ताते तिनकी कथा न ठ्खो । वेद् पुराण न अधनी देखो ॥
जहौ तद इरिमदिर सेवा । पूजँ विष्णु विश्वंभर देवा ॥
तीन देवम होह है सोहं । घट घट माह बिराजे ओद्वी ॥
चारों विधिकी श्रुति ठहीजे । विष्णु देवकी सेवा कीजे ॥
इति विष्के चौबीस अवतार
अथ ब्रह्माकै बट् अबतारके नाम
दोदा-गौतम कलि कणाद अनि, व्यासो जैमिनि जान ¦
मंडनमिश्र ग ब्रह्म जग भरकटान ॥
इ
अथ शिवजीकै ग्यारह श्रकै नाम
दोदा-स्षकपाटी उयंबको, केपि कपदिं श्रग व्याधि ।
बहुरूपो वृष शम्भु इरि, रेवत वीरभद्रादि ॥
इति ग्यारहर्ढर
अथ बह्लाके दैहिक ओर मानसिक पत्रनके नाम-चौपाईं
ब्रह्मा द्र खत प्रथम उपाये । एकं दक्ष एक अभि कहाये ॥
दक्षते सूरयको ओतारा । अभिते बहुरि चन्द तत॒ धारा ॥
सूर॒ चन्द रु क्षभ्री भे । पुनि सातो ऋषि देही गहेऊ ॥
भृगु अजी अङ् पुलह बतावो । फिर अगिरा पुलस्त कहावो ॥
नारद ओौर वरिष्ठ उचारा । पनि कह सनकादिक ओतारा ॥
ब्रह्मा मानसी पुर बतावो। अन्री ओर अगिरा गावो ॥
नं. १० बोधसागर - ७
( ३४ ) बोधसागर
पुरु पुरखस्तो कृत॒ गनीजे । भृगु प्रचेत वाशिष्ठ कीजे ॥
पुनि बह्म ततु सुतकह नामा । दक्ष प्रजापति धर्मो कामा ॥
कोष सोभ मद् सोह उपाये र हषे मृत्यु दशनाम बताये ॥
इ।त
अथ चौदह विष्णके नाम्
दोहा-यज्ञ विभ शत॑सेन हरि, पुनि वैङटो होय ।
पुनि अजितो बामन कहो, स्वंभूमि ऋषि भोय ॥
पुनि अमूति भरमम तरै, बहुरि सुधामा जान ।
योगेश्वर ब्रहद्धान ये, चौदह विष्णु बखान ॥
अथ चौदह इद्रकै नाम
दोहा-यज्ञो रोचनसतजितो, बहुरिषिशिखविभ् जान ,
तथा मं द्रुम जानिये, फेर पुरंदर मान ॥
बछि अद्थुत शंभू कटो, पुनि वैधृत उच्चार ।
रितुधामा पुनि यौसपति, शुची इईददशचार ॥
अथ चौदह मलुके नाम
दोदा-मनु स्वयंभू सारोचको, उत्तम तामस रवतत ।
चाश्चु शतवत सावर्नी, दक्ष सबरनी सत्त ॥
ब्रह्म सवनी धमं सवनी, श्द्रसावनीं होय ।
देवसावनीं इन्द्रसावर्नी, ये चौदह मन्न रोय ॥
इतिं
अथ सप्तस्वगेके नाम
दोहा-भुवरोक अर् स्वर्गं कहं, महररोक जनलोकं ।
तपरोको सतोकं है, सात नामको थोक ॥
इति सपतस्वगे
आगमनिगमनोधं ( १५ )
अथ स॒प्त पावाठकै नामं
दोहा-अतल वितल सतटोक ही, फेरि तखातङ होय ।
महातखा वाता षुनि, अत रसातल जोय ॥
इवि भप्त पाताछ
अथ नौवरोके नाव चौपाई
प्रथम भूमि भूलोकं बखानी । दजे भुवरखोक है वानी ॥
स्वगरोक पुनि अधिको घेरा । पितर खोक युनि वाय टेरा॥
पचम शून्य लोक आकाशा । अन्तर लोक हकार पकाशा ॥
सप्तम सत्यलोक मह तच् । अष्टम रोका रोक कडततू ॥
ॐ शब्द तद्वां ते शोहं । मायाको घेरा ह सौोहं॥
ताके प्रे नामे अस्थाना । शुद्ध स्वक्ष निरंजन जाना ॥
शब्द् निरञ्न ते उत पानी । ताते तब माया प्रकटानी ॥
मायाते महततव प्रसार । महा तत्व से भा हका ॥
अकार आकाश उपायो । पनि आकाश वायु प्रकटायो ॥
वायुते अग्नि अभ्िते पानी । ताते यह थरोकं बखानी ॥
इति
अथ सपरदरीप ओर बह्मांडको वर्णन
दोहा-प्रथमे जम्बूद्ीप कह, शाकद्वीप कर फेर ।
कच कुशा शरमल्प पुनि, पुक्षो पुष्कर टेर॥
चोपाई
ताते परे योजन दश्च कोरी । कंखनकी प्रथ्वी ठे जोरी ॥
परम प्रकाश मान महि सोई । तासु प्रे परवत यक होई ॥
रोकालोकं नाम सो भाषा। महाश्युन्य बन तापर राखा ॥
उग्र उदधि यकं ताते आगे । बहुरि अग्नि ताते पर रगे ॥
1 बोधसागर
पौन दसशगना पुनि पर॒ तादी । तास परे दशगुन नभ आदी ॥
तासु परे योजन यकं खाखा । सघन कंध ब्रह्मण्डको राखा ॥
इति सत्तदीप
अथ अष्टवसुओंकै नाम
दोहा-प्रथम दौन पुनि प्रानकह, ध्र अकं अचि प्रमान ।
दोषा वसू विभावसु, अष्ट बसू ये जान ॥
इति अष्ट वसु
अथ चार युगोकी आयुस्थितिवणेन चौपाई
चारों युगकर रेखा प्रमाना । कृत उता द्वापर कटि जाना ॥
सतथुगकी आयु इमि कसे । खह् लक्ष अहस सहसे ॥
चेताकी आयू पनि भाषा । छानवे सहश्च अक् बारह लाखा॥
आठ लक्ष चौसठ दज्जारा । द्वापर आयु करो विचारा ॥
बत्तिस सदस चार लक्ष किये । कलियगको यदह छेखा खदिये ॥
चारों युग यक टर गदीजे। एक महायुग ताञ्च कीजे ॥
एकं सहस्र महा युग रोह । कल्प एक शुनि किये सोहं ॥
चोद् मन्वेतर कल्पमे होई । कट्प एक ब्रह्मादिक सोई ॥
एेसे दिनको लेखा लीये । एकस वषे लो ब्रह्मा जीये ॥
एक सदस ब्रह्मा रै बीते तब एक घडी विष्णुकी रीते ॥
ताके दिनते करि पुनि लेखो । निसो वषं विष्णु थित देखो ॥
जबदशलक्ष विष्णु बित जादी । घडी एकं तब ङ्द्र॒सिराही ॥
ताहि वषं पुनि रेखा कये । निज सौ वषं कद्र पुनि जीये ॥
ग्यारह रद्र जो उगि खपिजाना । रमा शिवा यकं घडी प्रमाना ॥
निज सौ वषं किं आयू पाई । सहसशिवा जबउगि खपजाई ॥
तब मायाको पलभर दोहं व्यौरा वेद बखाने सोई ॥
यह रेखा यकं भयो प्रमाना । प्रयु माया गति काह न जाना॥
आगमनिगमबोध् ( १७ )
चँ युगमे आभर नर केरी । र्लदश सल सच्च सत केरी॥
याहूको नरं कीन प्रमाना ५ थित है विविधि विधाना॥
द
अथ चौदह रत्नके नाम
दोहा-श्रीमणि रंभा वाणी, अमी शंख गजराज ।
कद्पद्रुम शशि धेनु धनः धन्वन्तर विष बाज॥
इति चौदह रत्न
अथ पंचप्रकारकै यज्ञ वणन
दोदा-अभ्यागत आद्र करै, बहुरि बेदको पाड ।
आहत भतन यज्ञ कह, पितर॒ यज्ञकी गट ॥
इति पृचप्रकार यन्न
अथं कमं उपासना ओर ज्ञानको वर्णन- चौपाई
मारग तीन वेद् जो भाषा । ग्रथमहि कमं कांडको शषा ॥
पुनि उपासना ज्ञान कंडादी । तिहुके तीन देवतनं माही ॥
कम इन्द्र कम कांड गहाये । अन्तःकरण उपासक गाये ॥
ज्ञान इन्द्री सो ज्ञान ग॑ता । यह तिह देवको भेव भनंता ॥
भूरख कदां उपासक होई । कमं ज्ञान यामे नहिं कोई ॥
कमं उपासना ज्ञान जो तीनी । चौदह इन्द्रीते कहि दीनी ॥
जबलो नर्द तिहुकोसम ताई । कोहं कर्म शुद्ध ॒ नरं पाई ॥
एक राथ जो चोरी करई । देदह समस्त बन्दिमिं प्रह ॥
कमं उपासना ज्ञान गहाई। भटी भांति तिमे मिराई ॥
हट हौ गहै शुक्ति जिव पवैं। अब कमनको भेद बतं ॥
जो कोई पित्रकिुक्तिकि हेता । तन मन धन अपनो सब देता ॥
पितर॒ खोकमं सो चलिजा€ । पुनि जो जेसो कमं करार ॥
कोहं गंधरवैके लोक समाही । देवक्रमी परजा पति पाही ॥
(३८ ) लोधसागर
हिरण्य गभ गङ् पंडित जासी । यज्ञ करंत चन्द्रपुर वासी ॥
जीव आतमाको शुण येरी। जेहि ओसर जेसी गह देदी ॥
भ्रम भयते संयुक्त जो. होई | भ्रमही रूप बनावे सोई ॥
ज्ञान बुद्धि जब होय संघा । ज्ञान शूष दो अम भय कटा ॥
पुण्य पाप कर्मनते जूटा । धा जीव भह तादी खटा ॥
तिहि अनुसार कमं सब करई । जेसो कर्मं धाम तस धरई ॥
जसौ देह कमं कर तैसा । सदा आत्माको शण रेसा ॥
जीव बासनाते नित पूरन । जस वासना तादहिते जूरन ॥
मनम यथा मनोरथ होई । अंतकाल फर पावे सोहं ॥
रही लगी जह जीवकी आशा । शुष्म तन धरि तहकरबासा ॥
पु कामना जाको दोहं । पु देह धरि प्रकटे सोई ॥
पु्को एेसो उचित बतावे । पिताकि मन कामना पुरां ॥
पिता मनो जो सुतन पुरावे । तौ पितु बहुरि देह धरि आव॥
पितु अपने मनोरथं कोदहेरे। धरे देह निज इच्छा परेरे ॥
ज्ञान अङ् परमारथ के कारण । जीव कीन मादुष वषु धारण्॥
अबलो कथा प्रसंग जो रदेऊ । बधकामना व्यौरा कहेऊ ॥
वर्णन अब कीजे कड तिनको । रदित कामना मन है जिनको॥
सकल कामनाको जो त्यागे । कारण द्रे तिहि माह विभागे॥
होय कामना जो क्क दीये। फेर न चाह भोगिभल लीये ॥
द्वितिये ज्ञानदृष्टि मनकामा । तुच्छ दि देवे सब तामा ॥
मिथ्या सकल जो क्क द्रशाई । जानि अनित्य न नेद रुगाई ॥
आतम ज्ञान स्वै पर जानी। ताते स्वं खाभको मानी ॥
` आतमते सब कछ प्रकटाना । तारि लाभ सब लाम रृहाना॥
सकल कामना जो कोई त्यागे । आतम ज्ञान तासु उरजागे ॥
जो कल चितम चाह चेरे । तौ बीन तन यह जिव हेरे ॥
आगबनिगमबोधं (१९ )
जाके इदय कामना नाहीं । जह्य स्वह्यं कीजै तादी ॥
रहित मनोरथ अमर है सोई । मयनहार कातिक जिव होई ॥
छन्द-सब चाह उतरते दाह भे तब शुक्ति याकी सन्ध है)
जब खोन करिये बामना तिहि कामना जिव अन्ध है॥
यहि लोककी वहि खोककी तिहि शोकम यह बन्ध है ।
चाह चमारी चरहरी तिहि एरी इरगन्ध् है ॥
जिमि सपं त्यागे केचुली इमि चाह उतरे त्याभिये ।
तजिताहि फणि फिरि चाह नहि यौ पुनि ना तामे पामिये॥
मद मार विषय बिकार डारके हपते अदराभिये ।
दलमर्ितिखख्दररङितज्ञानते ब्ह्महो जिय जाभिये ॥
जो निष्काम कमको करही । तिनको कबं न घाटा प्रदी ॥
चाह न कमे पलनते जादी । निधय अधिक फल कमतेतादही॥
नफादैतु जो कर्मको गहते । घाटा इ पुनि सोई सहते ॥
जिनको फटनका इच्छा नाहीं । जो प्रथुकृपासे तिहि भिर जाहीं
सो फल नफामें रेख लगाये । एेसी सथञ् अक्तिपद पाये ॥
जप तप तीथादिक त्त दाना । सहित मनोरथ जाने जना ॥
इनको फट जो कोहं चाही । सो जिव असुर रोकमें जादी॥
कर्मके बन्धनम सो बांधा । ब्रथा सो निज इन्द्रीको साधा॥
बादिसो आपनो मह सुख खोई । अन्धकारमें अधिक बिगोई ॥ `
जो कोई है आतम ज्ञानी । सर्वमहं सो आपुहि जानी ॥
पुण्य पाप सुख दुःख सब जोह । नकं स्वग आदिक जो होई ॥
ब्रह्मा विष्णु शूद्र अभिमानी । सो सब अपनी देह बखानी ॥
भरम रज बन्धा जीव अज्ञानी । सो ट्रे आतम जब जानी ॥
जिनमे नहिं साधूकी करनी । बचन बनाय ज्ञान बहुबरनी ॥
( २० ) नोधसागर
खाघू नहिं भांड हे सोईं। ताते अधिक न शठ है कोई ॥
तिनते मखो जानिये सो । आगम फर आसा कर जोञ॥
कम् उपासना ज्ञान जो होई । भिन्न भिन्न तिदिफलकर जोई॥
ज्ञानते इतस भेद विचारा । तिनको फलहुबतावज्योन्यारा॥
सो अक्षर अभ्यासी अहं । ताहि न अर्थी पण्डित कदई॥
कमं उपासना ज्ञान जो तीनी । एकै फल तीनते कटि दीनी ॥
सनबन्धौो यकं दूजा हैरो । ज्ञानको अर्थं जाननौो रेरौ॥
कमको मम न इद्य गहायां ¦ न्हिउषास्य गणको कखिषाया॥
कमं उपासना ठे तिनके ' क्कु व्योरा हिय नरि जिनके॥
कमंको अथं याहि बिधि कहना । चाक चलन सुक सब गहना ॥
जाके दय हो उत्तम ज्ञाना करनी तासु विश्ड रुखाना ॥
ताहि ज्ञनते गुन क्क नारीं । कमं उपासना बथा करादहीं ॥
साची प्रीत उपासना सोई । होय एकता रहै न दोह ॥
जबलो नि यदह गुन दरशाई । कसं उपासना ज्ञान व्रथाई ॥
जो कोई विषयनको त्यागे । ताके दय ज्ञान यह जागे ॥
ज्ञान हृष्टि करि तब सो जाना । कर्मोपासन योगो ज्ञाना ॥
चारों चार तत्वसे किये । रचनासकलस्चष्टितिहि रुहिये॥
चारों मिभित सम सुख दाई । घरि बटि भये न सुख कोई पाई॥
बिना ज्ञान करा कम जो लोग । कर्मोपासन अथवा योग ॥
सो निशि दिनजौ निजतन कसदही। आशा तष्णायुति बुधि नशचही॥
कर्मोपासन योग समाधा । ज्ञान सहित जो कोई साधा ॥
सो सबं विषम अविद्या जानी । जीयत जीवन भुक्त सो प्रानी ॥
ये विदेद युक्ति लद सोहं । जिनके दय ज्ञान अस दोहं ॥
मरण काल निहि ओसर आवे । देदकिं नेद जीवको छे ॥
तनकी भ्रीतिसे दुःख बड माने । काहूको नहिं तब परिचाने ॥
आआगमनिमभबोध ( २१)
जीव आत्मा यह तिहि बेरे । इदविनको निञ्च संग सकेठे ॥
सब ईदी तजि निज छूटे । जाय जीव आतम ते जुरे ॥
उरमह दिसे बुद्धिके शूप । मूतं ठक तामे स्तब गूषा॥
तनधारि तन आपुदहि जाना । इदि सकर रहित मे ज्ञाना ॥
हृष्टि तव॒ खनते हिख्ही । सक्षम तन गति सजत मिरी ॥
सवन प्रथ्वी माह समाई । रसना स्वाद वणा में जाई॥
वाकं अभिमें पौन समीरा । दिज्ञाखौन मन शशिके तीरा॥
भूताकाश बुद्धिकर थाना) जिव सष संगरे करे याना ॥
जो जिव भरे कमको करता । हगार बाहर पग धरता ॥
सूयं माह सब जाय समाई । इमि सब इदी राह गाई ॥
भले कमं जिनके अधिकाईं । ब्रह्मरध कटि बाहर आई ॥
जेसो कमं करे जो कोई। तेसी राह गहै एुनि सोई ॥
जिवको बासा तनते इटे । आवा गौन शासको इरे ॥
जड समान देही रहि जाई । जीव नवीन कंरेवर षाह ॥
अहं बोलिके जीव सिधारे । हौं भँ परथमहि शब्द उचारे ॥
सहित कमं जिव करे प्रयाना । तजि तनथुरखसौ सिग रहाना॥
निज ॒कमंनके प्रेरित येही । सदा नवीन धरे जिव देही ॥
जिमियकं भूषण भनि सोनारा निज इच्छाते ओर संवारा ॥
तैसे देह जीव यह गईं । पुनि पुनि गहै तजे अतिग ॥
पूरन काल जीवको बाजा। उधं गमनको करै समाजा ॥
अधर रोक दोड ोकके बीवे । कमं तहां जब जिवको खींचे ॥
ज्यों जाग्रत स्वपने भरमाई । अपने कर्मको फल इमि पाई ॥
सरन गदिकर सुरनमे बासा ।असुरको यनगदिदुःखचहपासा॥
प्राण स्वप्नमे देखत सोहं । जागरित माह विचारे जोई ॥
ताहि समान गहै सो देहा । दख सुखको है कारण येहा ॥
( २२ ) बोधूसागर
स्वपर खमान नकं अर् स्वगा । इच्छारहित अहित अपवर्गं ॥
णेखे निज अद्खमान गहाय । नकं स्वगं अक्मध्य गहाये ॥
मारग सुक्ति कंडाबे सोई | सूरय मंड वेधे जोई ॥
ब्रह्म लोक की मारग पाईं ताहि संग निज बास गहाई ॥
जिमि दीपक घटज्योति अपारा जीव आतमा शूषं सोधारा ॥
नसाजारु आतमकी ज्योती । सो बहुरंग ठग की होती ॥
श्वेत हरित दुति प्रीती देखाये । भूरा रंग ताञ्च प्रगटाये ॥
नसन प्रकाश तासु उर दोहं । शुक्त होत पचे. जो कोई ॥
सुषुम्णामे मिलि एकसौ नारी । उत्तम मध्यम रोकं सिधारी ॥
केती नशा अधोञख आदीं । अधोगती को सो ठे जादीं ॥
गहै गख तिहि मारग जबहीं । अधोगती जिव पहुचे तबदीं ॥
यहि विधिनकं स्वगे जिव जादी । थित प्रमाण दखञ्चखलह तादी॥
पूरण जब करार हो आय । तब मृत मंडरु वासा पावे ॥
कृमके बधन जिव तन धरदी । चार खानिमं दख सुख भरदी ॥
स्वेदज जरायुग अंडज पिडज । नाना ब्रन हष निज २ सज ॥
अंतमे जीव सुरति रह जादी । ग होय सो धरितन तादी ॥
इ
अथ जीवको योनिप्रवेशवणन- चौपाई
योनि प्रवेश जीव जब करता । कोई धृष भारग पग धरता ॥
देह वानमे जाय समाई । वीयं ङ्प दहविसो प्रगटाई॥
मेव बन्द मारग ते कोई । हो रसङूप ओषधि सोई ॥
तेहि भोगीके बीयं मंञ्चारा। केते प्राण वायुके द्वारा ॥
पौन पथ गहि केते समाई । केते धान खेत प्रवेशाई॥
चावल आदिक अन्नम रहईं । नाना वर्णं रूप सो गहई ॥
केते गगनम स्थित गाई । चद्र किणमें रहे समाई ॥
आगमनिंगमबोध ( २३)
किर्णमा्ग ओषधहि समाहदी । किते पुष्य कल्ये भरजादी ॥
तनधारी तिहि भोजन करही । जड आतमके वीर्ये भरही ॥
सो सुखोसि मे वषित सारे । ्षिजर गभ॑में सोहं सिधारे ॥
दृध यथा है धरते षरा! तिमि बीरजमं सब जिव ज॒रा ॥
वीरज दूरबीन ते देखो । चङतदिरूतजिवअनितनिरेखो ॥
अथ शंरीरवक्षवणन- चौपाई
एकं प्रणवते सब संसारा । खवको आदि सवं करतारा ॥
ब्रह्म सोई ओंकार कीजे । मन ओंकार न भेद गरीजे ॥
ओंकार मन कमं निरंजन । क्म स्वह जबतको रंजन ॥
कृते फटी तीन पनि शाखा । रज सत तम जगकारन राखा॥
करमते करत होय निहकर्मा । आगम ज्ञान गहि ट्टे भ्या ॥
तृष्णा अन्थि कर्मेम प्रई । सोह जीवको बधन करडं ॥
आतम परमातम यह ष्पा । विषयमे भलि षरा अरय कषा ॥
विषय वा सना त्यागे जोह । ब्रह्म स्वशूप जानिये सोई ॥
आतम परमातमा विहंगा । दोनों एकं स्वरूप यकं टंगा ॥
एक है पछी एक है छया । छाया नहिं आया रुखि पाया॥
मूर थूल जह तहं प्रथु आप । भ्रमकरि न्यारा न्यारा थापु ॥
पड़ा जीव यह अिगुनके फंदा । भूखा रूष चिदानन्द कन्दा ॥
काया वृक्ष उर्व है मूला । हठ शाल पी फट एला ॥
मूल परम परुषको भवा । पेड निरंजत शाख अभिदेवा ॥
पाती जान सकल संसारा । सत्य कबीर वचन उचारा ॥
सत्यं कबीर वचन-शब्द्
सार शब्दसे बाचिहो मानो इतबारा हो ।
अक्षय पुङ्ष यक ब्क्ष है नीरंजन डारा हो ॥
ययय
१. शरीर वृक्ष का चित्र देखो “कबीर भानु प्रकाश” मे।
(२४) नोधृसागर
शाखा तिरदेवा बने पाती संसारा हो ।
बरह्मा वेद सरी किया शिव योग पसारा दो ॥
विष्णु माया उतपति किया उरला व्यौहारा हो ।
तीन रोक दशहु दिशा रोके यमद्वारा हो ॥
ज्योतिस्वहू्पी हाकिमा जिन अमल पसारो दो ।
अमरु मिरावो ताहिको पठावो भवषारा हो ॥
कृहै कबीर तिहि अमर करो निज होय हमारा हो ।
चौपाई
यजरवेद भाषे भरु टंगा । जिमि आतम परमात्मा बिहगा॥
बहुरि यकादश गीता कंदई । जेसे फंस जीव गरू गई ॥
कामिकं जोव बधा बह बन्धन । फसा आश त्ष्णाके धदन ॥
साखी-माया सुं न मन शवा, मरि अरि गई शरीर ।
आशा तृष्णा ना सुहं, यों कथित कै कबीर ॥
॑ इति शरीर बश्च वणेन
् अथ संप्रदाय धर्मवर्णन--चौपाई
वेदम दोय संप्रदा जानी । यकं श्री यकं शंकरी बखानी ॥
श्री सम्प्रदा विष्णुकी दोहं । शिव सभ्प्रदा शंकरी सोई ॥
दोहभु्मे चार चार विपि भाखो । न्यारो न्यारो नाम सो राखो ॥
प्रथमे विष्णु सम्प्रदा किये । चार भाग पुनि तामे लिये ॥
प्रथमे श्री संप्रदा बखानो । रामात्रज आचारय भानो ॥
द्वितिये शिव संप्रदा प्रचारी। विष्णु श्याम ताके आचारी ॥
तृतिये ब्रह्म संप्रदा साका । माधवानद् आचारय जाका ॥
सनकादि संप्रदा चतुथ । निबादित्य अचारय पुष्टे ॥
प्रथम कटो श्रीसत अ्थाई । माव कृथा सुनाई ॥
१
आगमनिगमनोध ( २५ )
अथ रामादुजजीकी कथा-चौवा
होन लगी जब धर्मकी हानी । शेषते तब कह शारंग पानी ॥
धरणी जाय धरो ओताश । करो तहां अति ध्यं प्रचारा ॥
भगवतकी जब आज्ञा वाये । तब धरणी धर धरणी अये ॥
केशव यज्ज्वा विप्र कदा । कान्तिमती माताको ना ॥
ताफे गरहमे सो तनधारी । घमं धुरंधर परम अचारी॥
आठ सौ वर्धके उपर होने । कांविपुरीके उत्तर कोने ॥
देश उडीसे के दिश लच्छिन । भ्रृत नगरी ओौतार धरे तिन ॥
जक्त॒ माह आचार चलाय । घुनि पुरूषोत्तम पुरम अयि ॥
तहां जाय निज मनहि विचारा । जगनब्राथमेँ चरे अचार ॥
जगत्राथ नर्हिं मान्यौ सोई । मेरे पुर आचार न होई ॥
तब हरि एसी कीन्ह उपाह । रामा्र॒ज कह छियौ उडाई ॥
निज पुरे रा्िके माही । धर दियो रंग पुरीम तादी ॥
रामानुज को निच अस्थाना । तोतादरी दक्षिणम जाना ॥
एकसो बीम वषो जीये । शङ् षीदी इमि वणन कये ॥
इति
अथं रामाचुनजीकी य॒रूपीटी वणन
दोहा-प्रथमे नारायण कहो, दितिये लक्ष्मी जान ।
विश्वसेन त्रतीय कदो, पुनिसठकोप बखान ॥
पञ्चम श्रीनाथो कहो, पुंडरीकाक्ष है षष्ठ ।
राममिश्र सत्य कदे, यमुना चारय अष ॥
नौमे पूणाचाजं है, रामाच॒ज है तासु ।
ग्यारह देवाचाजं है, हरियानन्द् है जासु ॥
तास राघवानन्दजी, ताके रामानन्द ।
पन्द्रह रामानन्दके, शिष्य अनन्तानन्द ॥
( २६ ) बोधसागर
बहुरि अनन्तानदके, ृष्णदासजी शिष्य ।
बहुरि कीरुजी तासुके, लगता गदी दिख्य ॥
कोते पुनि पंद्रह गनो, लगता जयपुर माहि ।
हरिप्रसादलों ेखिये, चोदह पीटी ताहि ॥
उत्रीस सौ तेरह संवत रो, ठा कीजे तास ।
ईर जक्तसे भिन्न ह देत ध्म परकाश ॥
इति
अथं जिदण्डीको वणन-चौपार्ह
श्री सम्प्रदाके जो संन्यासी । शह तजिके जब होहि उदासी ॥
दण्ड हाथमे धारे सोई । सो यक ढाककी करी होई ॥
तीन शाख तिहि रुकुटी माहीं । नाम अिदण्डी ताञ्च कहारीं ॥
जो कोह सो दण्ड गाये । नाम दण्डी तायु कराये ॥
वस्र श्ेतके सिगरफ रंगा । भगवां आदिक धारे अङ्गा ॥
| इति जिदण्ड
अथ रामानन्दजीकी कथा -चोपाईं
रामानन्द विप्र ओतारा। मथुरा नथमेंसोतन धारा ॥
धन विद्यते पूरन रहेऊ । सब लुटाय संन्यासी भयऊ ॥
यक ओसर शरू रामानन्दा । बिचरत भिले राघवानन्दा ॥
ताहि राघवानन्द बताई । काल तुम्हारा प्हचा आई ॥
मृत्यु सुनत रामानन्द डरे । राघवानन्दसे बिनती केरेऊ ॥
मै विद्याम जन्म मायौ । भजन विदीन मृत्यु नियरायौ॥
मोपर दया करो गोसांरं। कार फन्दते रेड छोडाई ॥
राचवानन्दः कृपा तब कने । ताहि आपनी दीक्षा दीने ॥
सी युक्ति बहुरि सो करे । तासु प्राण ब्रहनांडमे धरेडः ॥
भृट्यु कार बीता . जब सारा । तब बअन्नांडसे प्राण उतारा ॥
आगमनिगमनौध ( २७ )
अधिक कृषा ङ् तापर कीनो । रामानन्दको यह वर दीनौ ॥
आयू सादे सात सौ वर्षा । बकसिदीन अक्को हिय इर्बा ॥
गुक् सेवा चिरकाठ बिताये । षुनि रामानन्द काशी अये ॥
रामान॒ज की सम्ब्रदा माही । अधिकं अचार देखिये तादी ॥
कुक खेदको कारण वाहं । रामानन्द अचार अुखाई ॥
आचारिनमे जब पग दीने । वगसे तब तिहि बाहर कने ॥
दोदा-बहुरि राघवानन्दजी; रामानन्दसे भाष ।
अब न्यारी निज सम्पद, कजे मन अभिलाष ॥
वाड
रामानन्द सम्पदा न्यारी । तादिनसे यै अलग अचारी ॥
रामानन्दको घना पसारा। धमं आपनो जग विस्तारा ॥
रामानदके शिष्य घनेरे ! सिद्ध प्रसिद्ध भे जक्त बडेर ॥
अनता अक् सत्य कबीरा । सरसरा खखानन्द मतिधीरा ॥
भावानन्द पीपा रविदाक्षा। धनाआदि शनगन परकाशा ॥
केते सिद्ध साधु शनधारी । रामानंद परसारा भारी ॥
बावन द्वारा जाको भाषा। १ बहु शिष साषा ॥
इति
अथ भीसम्पदायको धामक्षत्र वणन-वाती
अयोध्या धममेशाला चित्रकूट खुखविलखास गोदावरी प्रदक्षि-
णाक्षज धदुषतीथं रामनाथ धाम अच्युतगोज शुङवणं सीता इष्ठ
जानकी मन्ञ राम उपासना मंत्र राधवानदमहापरसाद अनन्त
शाखा सामीप्य युक्ति भ्रोनद्रार लक्ष्मी आचायं विश्वामित्र ऋषि
योगवाशिष्ठ सुनि हनूमान देवता हत्रुमान मन् राम गायजरी
ऋग्वेद हरिनाम अहर पि रामाचुज वैष्णव ।
| इ
(२८ ) सोधसागर
अथं शिवसंपरदाय वणेन- चोपाई
विष्णुकांचि दक्षिणके सारी । षिदेराजको मन्द्र तादी ॥
तर्हैवा परमानन्द अनीशा । मजन ध्यान धारे जगदीञ्चा ॥
तापर शिवजी कीनी दाया । हरि उपासना भेद बताया ॥
शिवजी खख्य अचारज पाका । ताते चरी सम्प्रदा शाका ॥
विष्णं श्याम सम्प्रदाे यरी । अधिकं प्रसिद्ध भयो मतिजेरी॥
भ्रई प्रसिद्ध ताहिके नामा । विष्णु श्याम आचारय यामा॥
धमं तासु उद्वितकं होई । ईश्वर जक्त सेद नरि कोई ॥
जबहि बल्ला चारय भयऊ 1 कड उपासना भिन्न सो कियञ॥
गोड भरामहि सो पग दीने। बृन्दाबनमे वासा कने ॥
यह सम्प्रदा चार यह धरी । बारुकृष्ण की सेवा करी ॥
भिन्न भित्र गदी तहां अदई । नारि पुरूष हरिसेवा गद्ईं ॥
नन्द यशोदा आपको जानी स पु3 सो भियहरि सेवा गनी ॥
इति
अथ विष्ण श्यामजीकी कथा ओर गुरूपीदीवणेन- चोपाई
विष्णु श्याम द्विजकक ओतारा । दक्षिण देशमाह पु धारा ॥
गुरू पीटी ताकी इमि किये । शिवके परमानन्दकौ लिये ॥
ताके पुनि आनन्द ॒सुनीशा । पुनि प्रकाशयघुनि श्रीङृष्णदीशा॥
नारायणघ्रुनि जेसुनि श्रीययुनि । इमि उनचास पीटी वीती युनि ॥
उनचासवीं पीटी जब आई । विष्णु श्याम तबहीं प्रकराई ॥
ताके शिष्य लक्ष्मण भट भे । तासु बर्लभाचारय के ॥
ताके विडृलनाथ प्रसशा । एेसे प्रकटे पन्द्रह वेशा ॥
पन्द्रहवीं पीटी जब आईं । मनसा राम तबे प्रकटाईं ॥
विष्णुश्यामसे ये सन्द्रहभो ४ उन्नीससौ तेरदरो ॥
इति
आमभनिगमबोष ( २९ )
अथ शिवसम्पदायको धामक्च्र वणन-वार्त
विष्णुकांची धर्मशालामाकंडयक्षेज इन्द्ध खख विखास पुर्बो-
तम धाम ठक्ष्मी इच जगत्राथ उपासी हुक मंज विषरारि शाखा
वामदेव आचार्थं साथ्ज्य क्ती नेवद्वारा इरिनाम अहार यड्वेद्
अच्युत गोच शु वणं बट कृष्ण परिमा जल्बिद् ऋषि नारद
देवता विष्णुश्याम वैष्णव ।
इति
अथ बह्मसेषदायवणन चौपाहं
कह अब ततीय सम्प्रदा सोई । बह्मा आदि अचारयं डोह ॥
आदि काल नारायण देवा । ब्रह्मासे भाषे यह देवां ॥
यहि सम्प्रदा आचार्यं सयाना । मये अआधवानदं प्रधाना ॥
मै सम्प्रदा विदित तिहि नाऊ। माधवाचार्य गहे भल भा ॥
काचि पुरीके पिम दक्षिण । दिज ल्मे ओतार गह तिन ॥
द्वेतादरेत धमं निज केरे। इश्वर निज मायाको मरेरे॥
तब यहि जगकी रचना हहं । ईर भिन्न मिला पुनि सोई ॥
गुर् पटी अब कहो बखानी । आदि अचारय सारंगपानी ॥
द्वितियेब्रह्मा ततिये नारद । चौथेग्यास जो इदि विशारद ॥
सुद्धा चार्यं नरहरा चारय । सप्तम कहै माधवा चारय ॥
माधवाचारजते रेख उचारा । पननिन्द लो वंश अगरा ॥
इतिं
अथं बह्मसप्रदायके धामक्षे् वणंन-वातां
अवंतिका पुरी धमंशाला बदििकाश्रम धामा नेभिषारण्य सुख-
विलास अङ्गपातक्षे्र सावित्री इष्ठ बह्मोपासी विष्णु देस मंज हेस
देवता सालोक अक्ति मोक्ष द्वारा श्वी कालचायं अद्वेत शाखा
( ३० ) बोधसगार
अच्युत गोच शुक्र वणं दरिनाम अहार परमहंस ऋषि नारायण
पाषद् अथवेण वेद माघवाचा्यं वेष्णव ।
इति
अथ सनकादिक संपदायव्णन-चौपाई
चोथी संप्रदाय सनकादिक । भिबादित आचार्यमरयादिक ॥
अरूण ऋषीधर द्विजकुरु टेरा । निकट गोदावरि नय संगेरा ॥
चमे वशिष्ठि देत सो धारा । अहि कुडलन्िं अरितेन्यारा ॥
जग इश्वर नदिं मित्र रहाई । सदाकाक दोकी यकताई ॥
शर् पीटी यदि भांति बतायन । प्रथम हस ओतार नरायन ॥
पुनि सनकादिक नारद्. कदिये । चौथे निम्बादित को रिय ॥
निम्बादितसे रेखा _ ठनिये । पेतिसपिदिदरिव्यासलोगनिये ॥
भये प्रतापवान ररिव्यासा । ताते भ यह ध्म प्रकाशा ॥
जो दरि व्यासके शाखा भेऊ । नाम तास दरिव्यासी कहे -॥
सो भराम हरि व्यासके अशा । ताहूको गुन अधिकं प्रसंशा ॥
पुनि इरिव्यास ते ठेख रगाई । संवत उत्नीस सो तेरह ताईं ॥
बारह पीठी गह सिराई। माखनदास देह तब पाईं ॥
इति
अथ सनकादिक संप्रदायके धाम क्षेत्र वातां
मथुरा घमंशाला क्षे गोमती बृन्दावन छखविलास्र गोवेधन
परिक्रमा द्वारावती धाम ङ्किमिणी इष्टगोपालउपासी वंशगोपाट
मं गोपारु गायत्री हसं शाखा सारूप्य मुक्ति नासिका द्वारा
सनकादिक आचाय नारदं सुनि ढवीसा ऋषि गरुडदेवता साम
वेद श्रीभद्र महाप्रसाद अच्युत गो ज्युक्लवणे दरिनाम अहार
निबादित वेष्णव ॥
आओगमनिगमबोध ( ३१ ).
अथ चारों भादईंका धामश्ेत्र वणेन- वार्ता
माता वरूणावती पिता अगस्त्य युर ध्म॑ऋषि स्वगं
नगरी अच्युत श्ुङ् वणं अनत शाखा सामवेद ॥ निष्काम
भिक्षा धाम रंगनाथ सुखविलासर कोटषाट हरिनाम आहार परम
बदिकाश्रम क्षे मठ वेकुण्डलक्ष्मीदेवी नारायण ॥ देवता पजा
अक्षय बरकी श्रीरंग सम्प्रदाय उख खाडा शन्य स्थान शुमेर
परिकमा बीजम ॥
इति
अथ चारों संप्रदायके तिलक स्वरूप-चौपाईं
श्री संप्रदायके जो आचारी । चरणचिह्व प्रथु तिरक सवारी ॥
दोय लकीर उं गत दैरे। श्री अङ् नारिबीच तिहि केरे ॥
हेठ तिलक हरिको सिंहासन । जोरी बनावे निचटीलरन ॥
मध्यमे लाल वरन श्री करही । दीपशिखाजिरहिषिधिलखिषरदी
एता पीता वरन श्री होई । रामानन्द संप्रदा सोह॥
दितिये विष्णुश्यामविधि जोहे । दोय रुकीर खीलारमे सोहे ॥
हेठ सो सिंहासन श्ुन्य है बीचे। जाति बरनते चित नहिं खींचे ॥
साधू होहि. बिरक्त न होहि । कह मरयादं पाना होहि ॥
तृतिये न संप्रदा किये । दोय लकीर उध्वेगत दिये ॥
हे सिंहासन ताहि. बनाई । चरणचिह रधु माथ सोदाई ॥
चौथे निम्बादित्य जो साजे । दोय कीर खीलखार विराजे ॥
हेठ सिंहासन बन्दु विचारा ह पुड् अर् वैष्णव चाल ॥
इ
अथ वेष्णवके द्वादश तिरक वणेन
दोहा-उ्वपुड् मस्तक प्रथम, अद्मरभपुनि जोय ।
१ तिलकोका चित्र देखो "कनोर भान् प्रकाश मं ।
( ३२ ) बोधसागर
त॒तिय नेर दोउ कंटपुनि, उर नाभी फिर रोय ॥
उर दौड दिश थुज दोय पुनि, तथा पृष्ट परमान ।
ब्रन ब्रष्णवके यदी, द्वादश तिरकं बखान ॥
इति दादश तिरक
अथ वेष्णवके दशचिन्ह वणन
दोहा-मद्र मेषतशोचकर पुनि, तुरखुसी गरू माथ ।
रामङ्ष्णको मंत्र गह, गोपी घरतिका साथ ॥
शिखा सूज करमण्डलो, धौत वञ्च गुश्वाक ।
चिह्न वेष्णवके दशो, चार संप्रदा साक ॥
इति
अथ बावनदारेकै नाभ
दोहा-प्रथम अनता जी के, साहिब सत्य कबीर ।
पुनि सुरेश्रानदजी, सुखानन्द मति धीर ॥
अनभय नन्द् भ्रुरारजी, अथदासजी काल ।
दीपाजी रवि दासजी, नामदेव दटशील ॥
खोजी जंग दिवाकर, वीरम त्यागी जान ।
परशराम नाभा टिरखा, मोखा नेन बखान ॥
पूरन बेराटी कहे, बहुरि घमण्डी देव ।
ज्ञा निकरुबवा दरि बशजी, राघावा वभ येव ॥
गोक्ुक विल करम चद, जोगानदी जोय ¦
धरनीदास मटूकजी, असख देवनी दोय ॥
माघो कानी रामरावल, आत्माराम प्रकाश,
लार तरगी देव भडग, भगवान तुरसीदास ॥
टी नरायण राम रंगी, चतुरा नागा होय ।
नित्यानन्दी राम कबीर, श्यामानन्दी सोय ॥
आगमनिगम बोध ( ३३ )
ट्नूमान दास कमाख्जी) चेतन स्वामी नाम ।
दास चतुर्भुज राम जयु, मन पुनि कह दँदूराम ॥
इति बावनद्वार
अथ स्नात अखाडनके नामं
दोदा-गरटबी निरालंबी कड, संतोषी विख्यात ।
निरवानी दीगम्बरी, षोकी निरमोहि सात ॥
इति सात अखाडन
अथ तेरह परमभागवतके नाय-चौपाह
नारद पडरीक प्रहखादा । व्यास वशिष्ठ पराशर वादा ॥
भीषम श्कमांगद् विभीषनौ । ५ चन अम्बरीष ज्ञुकं सेनौ ॥
इ [त्
अथ रामानन्दजी ओौर सत्यकवीरकी कथा- चौपड
सत्यकबीर मनुष तन लीने । जोढहाके धर बासा कौने ॥
अगम ज्ञान कथ साधुन पाहीं । सुनि आश्रयं करे मनमाही ॥
निज निज मनम करे विचारा । बालक नहीं सिद्ध ओतारा ॥
सत्यकबीर वचन शब्द
साखी-तब हम साध सिद्धते, कथे गुष्टि घन ज्ञान ।
सिद्ध साध मिलिमोकह पूछे ग॒रूको नाम ॥
चोपाईं
गुरू नहि नाम कौ क्यों ओद । तब वे दोष देहि सब मोदी ॥
साकठ होई कथ्यो बह ज्ञाना । गुरूविन युक्ति न होय निदाना ॥
तब अपने मन कीन बिचारा । तब युरू उठो दरद संसारा ॥
हम गुश्पुक्ति हटावन आये । गुरूमारग जिवरोक पठाये ॥
गुरू धारनको मनहिं बिचारा । रामानेदसे वचन उचारा ॥
रामानन्द शुरु दिक्षा दीजे। गुरुपूजा क दमसे टीजै ॥
(३४ ) बोधस्षागर
तब रासानन्द बचन सुनाई । शूद्रके कान न रगौ भाई ॥
रामानन्द न दिक्षा दीने । तब कबीर अस उद्यम कीने ॥
वौच पथमे पौटे जाह । जिहि मारग रामानन्द आई ॥
पिला पहर राति जब आवे । रामानन्द असनानको जावे ॥
चरे जात मारगमे जबहीं । खगा खराॐं ठोकर तबहीं ॥
तब पुकारिके रोवन लागे | रामानेद खडे मे आगे ॥
बारुक देखि दया उर आई । रामानद कहे समुञ्चाईं ॥
मतिरोवो मति करो एुकारा । राम नाम किन कहु मेरे बारा ॥
तब कबीर सो शिक्षा पाई । गुरू शिष्यको भाव बनाई ॥
रामराम धुनि रटनि लगाया । रामानदसे बचन सनाया ॥
सत्यकबीर् वचन
गुरुजी सञुञ्चि गरो मोरे बादीं। ओरनसो चेला इम नारीं ॥
जो बाखक घुनघुनवा खेर सो बालक इम नादी ।
चौदह सो चौरासी चेरे तिनमध्ये हम नाहीं ॥
दम तो लेते सत्तको सौदा पाखंड पूजवै हम नाहीं ।
बाह गहो तो गदिके पकरो फेर टि ना जाीं ॥
हाड चाम मेरे नदिं कोई चटा जाति दमनाहीं ।
तुमसे नावमें केवट नाहीं रहरि उ बिकरारा ॥
गुर् समेत शिष्य जब बडे कौन उतारो पारा ।
जो तुमरे कड्क उद्यम नादी भीख मांगि किन खाहू ॥
सूरि सजीवन जानत नारीं भ्ूकि न बाधो काहू ।
सूखे कामे ज्यों घन लागे लोहे लागी काई ॥
बिन पर्तीत गरू जौ कीज तो कारु घसीरे जाई ॥
कदे कबीर सुनौ रामानद् यह सिखखेव हमारी ।
निरखि परखिके चेला कौजे तारकी बलिहारी ॥
आगमनिगमबोध ( ३५ )
चौपाई
रामानन्द गये असनाना । तब कृवीर श्र कियौ पयाना ॥
भोरहि कण्ठी तिरक ठगाये । नय्रलोग सब देखन आये ॥
पूछे किमि यह मेष बनाये । तब कवीर यह उत्तर सनाय ॥
रामानन्दको गुर इम धारा । तति देसे भेष संवारा ॥
रामानन्द खबर जव पाई । तव कवबीरको टेरि बोला ॥
रामानन्द गुर् परदा धारा) सत्य कबीर से बचन उचारा ॥
रे जोलहा ते कहसि न मोदी । कब दीक्षा दीनां तोदं ॥
गुरूजी राम ष्ण तुम मेरे । रेन पन्थ प्रकटे कथो तरे ॥
तुम तब रामनाम मोहि दीना । में निज जन्मघुफल्करिलीना॥
कहै गुरू यह वारक रहे । गकर छगा राम तिहि कहेड ॥
गुक्जी हेमही रहै सो बारा । राम राम सुनि भयेनिहाल ॥
कृद गुरू तु वेश्य किं शुदा । वहतो इता बार बुधि भोरा ॥
तिदि छिनबारृषूप दिखलाओ। तब य॒ रामानंद पतियायो ॥
पे जोलहा ब्रह्मवादि करादी । अन्तर ओर सोदियौ बाई ॥
कहै साधु गुरूसे समुञ्चाईं । कवीरदिचल्दानकदिये साहं ॥
अनतानद कहै परचाये । कबीर सो ब्रह्महूपधरि आये ॥
दीजे द्ररन इनको स्वामी । ये आहि बरह्मसोअन्तरयामी ॥
तबहु न दशन दीन गुसाई । तब हम सन्युख गभे जाई ॥
साखी -गफामाई गोपरहचही' प्के को तम॒ आड ।
मे कबीर सेवक अदो, अजहू नई पतियाह ॥
चोपाहं |
रामानद् काव युर मेरा । सत्त कबीर मं सेवकं तोरा ॥
गुर सोई जो शिष्य चितावे । शिष्य सोई युरूसेवा लावे ॥
कौ गुरु य॒श्ज्ञान विचारी । को है पुरुष कौन है नारी ॥
( ३६ ) नोधसागर
कोन पुरूषको सुमिरो नामा । कदो कदां अविचल निजधामा ॥
क्रो ध्यान कीजे किरि केरा । तन छृटे कह होय बसेरा ॥
रामानद कहै सु परता । गुश्खुख ज्ञान रहो संञ॒क्ता ॥
आपे पुरूष आप टै नारी कहो ज्ञान वितराख संभारी ॥
सखुभिरड् दशरथ सुत श्रीरामा । अवधपुरी अविचर्निजघामा ॥
श्याम स्वरूप ध्यानमन धारो । तन छ्टे वेङण्ड सिधारो ॥
कटै कबीर सुनो गुरुदेव । यह सभरुञ्चाय कहो मोहिमेवा ॥
गसचन्द्र॒ अतामे मय । काहृदुखाय काह सुख दयं ॥
खोभमोह जत वन वन डोला । तच्प्रकृत संगतितिहि बोला ॥
जोन बाटते रघुपति आये । सूत कौशस्याको कदलाये ॥
जब अता तब राम भुवारा। कौन पुश्षको सकलपसारा ॥
साखी-अहो गरू समुञ्ञाहये, कोहै सिरजन हार ।
रामचन्द्र गुर बदेड, कौन नाम आधार ॥
चोपाई .
कृटत निगम अस करे विचारा । पर्वे अवरम जन्वसो न्यारा ॥
तात मात बधुसखो नहिं ताही। ना व्ह आवना वह जाही ॥
श्याम शेत नदि किये तादी । इन्द्रासन वेकुण्ड न जादी ॥
तीन खोक सब परलय दोहं । निज धाम कहो कहां है सोई ॥
स्वगे लोक तुम राखी आशा । फिर फिरि दोय गभे वासा ॥
साखी -स्वगेनरक न्यारा, सो मोदि देह चिह्वाय ।
कृट्वाते जीव आये, कदोगुङ् सञुञ्चाय ॥
चोपा
सुनह कवीर कहो सो गददू । करिये योग अमर चै रदहू ॥
आसन साधह बांध मूला । अषटकमख्दरू निरखडृ पला ॥
आगमनिंगमबोध ( ३७ )
चन्द् सुर गरि कीजे मेला । मन पौना श्जुभ निधर खेखा ॥
चडि अकाश अग्रत रसपीवो । तब कबीर तुम छग यम जीवो ॥
साखी-स्वगं नरकते न्यारा, ज्योतिषुरुष निर्वान ।
तहर्वसि जीव आइया, कहो अङ सदहिदान ॥
चौ पाईं
कृ कबीर खनो हो स्वामी । तुम हो ततद्ङू अन्तरजामी ॥
योगके किये अमर जो होई। तौ पुनि योगी मरे न कोई॥
कामो साधे आसन भ्रूखा। जौँ नहिं मेरे संशय श्चुखा ॥
का भो अष्कमल्के पेखे । जौ नहिं आप इष निज देखे ॥
क्/ भो चन्द पूरके मेख । जौँ नहि शब्दश्चरति गहि खेला॥
का भो घुष्युनि जाय समाये । जौ नाहीं अक्षर लखि पाये ॥
क्याअकाश चटि अमृत पीये । जनि नाम अमी चित दीये॥
ज्योति स्वहूपी पुरूष बतायह । ज्योति काल तीनों पुरुबायह् ॥
यहिजिव नाहि ज्योतिसे आवा । परम ज्योतिसे अश उवावा ॥
जो जिव ज्योति पुरूषते होई । नौ काहे जिव जाय बिगोई ॥
ज्योति निरंजन काल अन्याई । सिदि तपी सब धीरधरिखाई ॥
साखी-बह्मा विष्णु महेश्वर, सुर नर अनि सब ्ार ।
ज्योति निरंजन सब कटै, खायो बारंबार ॥
चोपाईं
जहि कहत हो पुर्ष निर्वाना । वही आदि तो काल देवाना ॥
साखी-योग यज्ञ जपतीरथ, यह सब यमके जाल ।
कहै कबीर सतनामबिन, कबह न ॐडे काल ॥
पांच तीन जहवां नरि, नदीं प्रकृत प्रवेश ।
रविशशिपानीपौननर्हि, तहको कहो सदेश ॥
( ३८ ) बोधसागर
चोपा
कहे गुर तुम शिष भये मोरे । यह सब बुद्धिको दीनेह तेरे ॥
करै कबीर सब तुम प्रतापा । हमरे तुमहि माया अर् बापा ॥
तब गुरू मपर भये दयाला । निजकरदियो सुमिरिनी माला ॥
करै गुरू सुन साधु कबीरा) तुम तो सेवकं दहो मतिधीरा ॥
सवानंद् विप्र यक आये । तिन पुनि क्ते गोष्ठि कराये ॥
ताहि जौत गुर शिष्य करावा । तब शुरू इम कह तिलककरावा ॥
सब पर श्रेष्ठ हमे गङ् कीना । दम पुनि सबते रहै अधीना ॥
साखी-यरूके सब शिष्य मोहिको, बोर शुशूसमान ।
दम गुर् साधु अधीन है, भाषे निर्भय ज्ञान ॥
शब्द
लख कोई बिरलापद् निर्वान । बिन रसना सुर धरर ध्यान ॥
तामे दरसे पुरूष पुरान । कमं छोडि सब भर्मं नसान ॥
दुरमति छोडि कमर धर् ध्यान । तीन रोकमे कारू समान ॥
चौथे लोकम नाम निसान । रामानन्द गुरू केरे बखान ॥
दास कबोरको निरमर ज्ञान ।
् इति
मेरो नाम कवीरा दो जगत गङ् जादिरा।
तीन रोक मागा मेरा अिकृटी है अस्थान ॥
पानीपौन समेरसमाना इस विधि रच्यौ जहाना ।
गगन मन्दिरमे बासा मेरा मंजनि रै अस्थाना ॥
ब्रह्मबीज इमदीसे आया हमरे सकल जहाना ।
अनहद रहर गगन गढ उपंजे बाजे सोदे तारा ॥
गुप्त भेद वादीसे किये जो निज होय दमारा ।
भवबथनसे छह छोडाहं निरमरू करो शरीरा ॥
आगमनिगमनोध् ( ३९ )
सुर नर थुनि कोई भेद न पे पव संतभगभीरा ॥
वेद् कदापि पार नहि पव एसे मतिके धीरा ।
कै कबीर सुनो रामानन्द दोनों दीनके पीरा ॥
चौ पा
रामानन्द कवर कहानी । जक्तमाह बह विधि बिहरानी ॥
कदु मे सक्षम लिख्यौ बनाई । कीरति जास जक्तमे छाई ॥
सत्त कबीरको चरित अनेका । सो कड इहां लिख न्हिए्का ॥
केते प्रचा गुङ्हि देखाई । तब ताके हिय निश्चय आह॥
मे घनधोर शष्ट यङ् पाह । अगम ज्ञान सनि बोर ताही ॥
राभानद् बवंचन
दोहा-मे जाना तुम जोरहा, मोहि पंडा बंड धोष ¦
मू दिक्षा मोहि देव कबीर, जीवत अविं संतोष ॥
करता तुम हो साधू हो, सत्य कबीर ह देव ।
तनमन तमको अपि, कटह दीक्षा मोहि देव ॥
सत्य॒कवीर वचन-शब्द
साखी-काल करन्ते आज कर, आज करते अब् ।
ओसर बीता जात है व्यौहार करोगे कब ॥
काल करते काल दै, मोहि भरोसा नाहि ।
यह तन काचा कुम्भ है; विनशि जाय छनमाहि ॥
घडी पलकको सुधि नदीं कालको साज ।
कारु अचानक मारे है ज्यां तीतरको बाज ॥
पाड
योगी गोरख नाथ प्रतापी । तास्तेन पृथ्वी पर व्यापी ॥
काशी नगरमे सो परग परही । रामानन्दसे चर्चां करी ॥
चरचामे गोरख जय पव । कटी तोरे तिलक डवे ॥
(९० ) बोधस्षागरं
खत्य कबौर शिष्य जब भयऊ । यह वृत्तांत तब सो सुनि लयञ॥
गोरखनाथके उरके मारे । वैरागी नदि वेष सँवारे ॥
तब कबीर आज्ञा अनुसारा । वैष्णव सकट स्वरूप संवारा ॥
सो सुधि गोरखनाथ जो पायो । काशीनमर शीघ्र चङि आयो ॥
रामानन्दको खबरि पठाई । चर्चा करो मेरे संग आई ॥
रामानन्दकी पदिली पौरी । सत्य कबीर बडे तिहि गौरी ॥
कह कबीर सुन गोरखनाथा । च्चा करो हमारे साथा ॥
प्रथम करो चचां सग मेरे पीछे मेरे शङ्को रेरे ॥
बालकं रूप कबीर निहारी । तब गोरख ताहि बचन उचारी॥
सत्यकबीर वचन्--शृढद
कबके भये वेरागी कवीरजी कबके सये वैरागी ।
नाथजी हम जसे मये वैरागी मेरी आदि अन्त सुधिलामी॥
धुध्रकार आदिको मेला नहीं शुरू नहीं चेखा ।
जबका तो हम योग उपासा तबका फिरो अकेना ॥
धरती नहीं जदी टोपी दीना ब्रह्मा नदीं जदका दीका ।
शिवशंकरसो योगी नादीं जदका ञ्ञोखी शिक्का ॥
द्वापरकी इम करी फावडी उताको हम दंडा |
सतयुग मेरी फिरी इुदाई कटिथुग परो नौखण्डा ॥
ङ्के वचन साधुकी संगत अजर अमर घर पाया ।
कहै कबीर सुनोदो गोरख जब हम तच्व खाया ॥
जो बृञ्च सो बावरा क्ष्या उभर हमारी ।
असंख युग परल्य गरं तवबके बह्मचारी ॥
कोटि निरंजन हो गये पररोक सिधारी।
हम तो सदा महबरूब दै सोरे अह्मचारी ॥
दश कोटि ब्रह्मा भये नौ कोरि कन्हैया ।
आगमनिगमबौधं ( ४१)
सात कोटि शंभर भये मोरी एक पठेया ॥
कोटिन नारद हौगये महम्मदसे चारी)
देवतनकी गिनती नदीं है क्या सृष्टि विचारी ॥
नहिं बढा नहि बाखक नहीं भाट भिखारी ।
कहै कषीर सुन गोरख यह उमर इमारी ॥
अविधरू अविगतसे चलि आये कोई भद् मरम नहिं पाया।
ना मेरो जन्म न गर्भवसेरा बाख्कं हं देखखाया ॥
काशीनय जङ्क बिचडरा तहां जोखाहे पाया ।
माता पिता मोरे कङ्क नादींन मेरो गृहदासी ॥
जुलाहाको सत आनिकदाया जगत करत है हंसी ।
धड नहिं मेरे गगन कड नाहीं सञ्च अगम अपारा ॥
सत्य स्वरूपी नाम सादेषका सोहै नाम इमारा ।
अधरद्रीप निं गगन शफमिं तदं नि पस्तु हमारा ॥
ज्योतिषदपी अलख निरञ्जन सो जपे नाम हमारा!
हाड चाम छोहू निं मोरे दीं सतनाम उपासी ॥
तारन तरन अभ पददाता कै कबीर अविनाशी ।
गोरखवचन
कौन रा कौन पानी गरु मूड कौन बानी ॥
सत्यकबीर वचन
शब्द् छरा निरञ्जन पानी गर मूड निरबानबानीं ।
गोरखवचन्
कौन द्र कौन देरवेश कौन शूने मूंडे केश ॥
कौन पुरूको सुमिरो नांव मांगो भिक्षा भांडो गांव ॥
सत्यकंबीर वचन
मन दर पौन दरषेश शू गोर्विदने मूड केश ॥
अलख पुरूषको सुमिरो नांव मगो भिक्षा तारो गांव ॥
( ४२ ) बोधृसागर
गोरख वचन- चौपाई
कोन तुमारी उतपति कीनी । किसने तुमको माला दीनी ॥
कोन शुरू दीनो उपदेश । उतारो माला करो आदेश ॥
केनीर वचन
आदि पुरूषने उतपति कीनी । सिरजन हारने माला दीनी ॥
गुरू गोविद दीनो उपदेश । न उतारों माला नाकरों आदेश॥
गोरख वचन्
क्याछेउटो क्यार बेटे रहो कौनकी छाया ।
कोन माह ॒निरजन पेखे कैसे त्यागी साया ॥
कबीर वचन्
एके उठ एके वेड रहै एककी छाया ॥
एके माइ निरजन पेखा सहजे त्यागी माया ॥
गोरख वचन
कोन तुमारी डिब्बी बोलिये कौन तुमारा चावल ॥
कौनसो तुममे सिद्ध बोख्यि कौनसो तुमरो रावल॥
कृबीर वचन
काया हमारी डिन्बी बोलिये कमं हमारे चावल ॥
एक हमसे सिद्ध बय ओर सकल है रावल ॥
गोरख वचन
कोन तुमारी दरी बोख्ियि कौन तमारा धागा ॥
कोन तुमारी रोपी बोखिये काहेते मन लागा ॥
कबीर वचन
काया हमारी गद्री बोल्यि पौन हमारा धागा ॥
गगन हमारी रोपी बोल्िये अलख पुर् मन कागा॥
आगमनिगमवोध ( ४३)
गोरखवचन
कौन तुमारी तिरक बोलिये कौन तुमारा छपा ॥
कौन तुमारी जाति बोले कहा वुमारी आस्ता ॥
कृबीरवचन
तत्त्व हमारी तिरक बोल्िये राम नाम है डखापा॥
वैष्णवं हमारी जाति बोलिये शब्द मंडख्मे आसा ॥
गोरचवचन
शब्द कासे आया कहो शब्दको विचार ॥
नहीं तो तिलक माला धरो उतार ॥
कृबीरवंचनं
शब्द धरती शब्दे अकाश । शब्दै वांच तत््वके बास ॥
कह कषीर हम शब्द सनेही । शब्द न विनते बिनसै देही ॥
गोरखवचनं
अंडान मंडान चार खुरो दै कान॥
जान तो जान नातो रोटी मारा उरे आन ॥
| कबीरवचन
अण्डान धरती मंडान आकाश चायो खट चारोंखूरी चंदसू्यदे
कान ना जानो मातरा तो शङ् रामानदकी आन ॥
शेली सिगी ओर खटपटी । फिर बोलो तोरों कनपदी ॥
गोरखवचन
आसन बाधो बासन बाधो अरु बाधो नौद्रारा ॥
तोहि बाधो तेरे रुको बाधो निकसे कौने द्वारा ॥
केबीरवचन
आसन युक्ता वासन भुक्ता सक्ता नौ द्वारा ॥
मे युक्ता मेरो यरुभी सक्ता निकसे दशमे द्वारा ॥
६ ॐ. ) बोधसागर
चोपा
गोरखनाथ कबीर समाजा । विविध ज्ञान विज्ञान विराजा ॥
चची पच बहुविधि उनो । विदित जक्तमे रोगन जानो ॥
इहांसो कथा लिखो नहिं कोई । अन्त बाद जिहि ओसर होई ॥
मोरख नमं मये तिहि बारा । विनय सहित निज बचन उचारा ॥
गौरखवेचन
नवो नाथ चौरासी सिद्ध, इनको अनदद् ज्ञान ।
अविचल घर कबीरको, यहं गति विरखाजान ॥
द्यारी ण्डा कबरी, शली टोपी साथ ।
दाया मई कबीर की, चदाह गोरखनाथ ॥
धमेदास दचन्
दोहा-बाजा बाजा रहितका, परा नगरमे शोर ।
सतर खसम कबीर है, नजर न आषे ओर ॥
नानकशाह वचन
शब्द-वाह वाह कबीर गुर् पूरा रै ।
परे श॒रुनकी मे बलि जदो जाको सकर जहूरा दै॥
अधर रेच परे है गुरूनके शिव ब्रह्मा जह शख है ॥
श्वेत ध्वजा फदरात गुरूनके बाजत अनदद् तूरा है ॥
पूणं कवीर सकर घट द्रशं हरदम दाख हजूरा है ॥
नाम कबीर जपे बडभागी नानक चरणको धूरा है ॥
स॒त्य कबीरवचन नानकशाहभरति
शब्द-वाह षाह लडके जीतारहु ।
मंडयेकी रोरी बथुयेकी भाजी ठंडा पानी पीतारहु ॥
परेमकि सुई सुरतिको धागा ज्ञानगरुवरी सीतारह ॥
आगमनिगमबोध ( ४५)
यहि रख्डकेकी बड बड अंखि्यां नितपति द्रश्न करतार ॥
कटै कबीर सनो भाई र्डके रामरतसिक रस पीतारड ॥
मकं दास वचन्
राब्द-जपो रे भाई साहिब नाम कबीर ॥
एक समय शुर्वंशी बजाई कार्िदीके तीर ।
सुरनरभुनि सब चकित भये है अङ् यञ्ुनाजीको नीर ॥
काशी तजि युङ् मगहर आये दोदीनके पीर ।
कोड गाड कोड अभ्िजखवे नेक न धरते धीर ॥
चार दागते सतगुङ् न्यारा अजर अमरो शरीर
जगन्राथको मंदिर थापे इटि गये सायर नीर ॥
आसा रोपि सखुदं हटाये एसे शु गभीर ।
दास मटक श्छोक कहतहै खोजह खसम कषीर ॥
दादूराम वचन
साखी-अधर चार कबीरकी, मोसे कही न जाय ।
दाद् कूदे मिरग ज्यौ, पर धरनि पर आय ॥
दिन्दूको सतश् सही, असल्मानको पीर ।
दाद् दोनों दीनम, अदी नाम कबीर ॥
हिन्दू अपनी इद चरे, युसलमान इद् माह ।
दादू चार कबीरकी, दोउ दीनम नाह ॥
दाद् बेठे जहाजपर, जो दरियाके तीर ।
जल्की जेती मछरी, रटे कबीर कबीर ॥
नाना वचन
दोहा-वानी अरबो खरबो, अन्था कोरि हजार ।
करता पुरूष कबीर, रहै नाभे विचार ॥
नं. १० बोधसागर - ८
( ९& ) नोधसागर
गरीबदास वचन
साखी-गरीबपंजा दस्त, कबीरकासिरपर धारो दंस ।
जम कंकर चपे नरी, अधर जात दै वंश ॥
श्रीमहादेव उवाच
श्लोक-यः सुखसागरो दाता बीजज्ञानं तथेव च ।
आद्यन्तरदहितो लोके यः कसीर इहोच्यते ॥
कलांशेन गतो भ॒भ्यां विलासा सत्य संज्ञकः ।
दीनोद्धारेतिदक्षः कवीरसंज्ञः इदोच्यते ॥
कतां कोन्यायकारी च व्यक्ताव्यक्तःसनातनः ।
रमते सत्यखोके यः स कबीर इदोच्यते ॥
पारवतीजीने पृछा कि कबीर किसको कहते ह ! उनके उत्तरम
शिवजीने कबीर सादिबकी स्तुतिमे सौ एक .-श्टोक कहे है उस
ग्रन्थको कबीर एकोत्तर कहते हँ जो सामवेद ओर पाता खण्ड
है उसमसे यह तीन श्छोक छ्खि है ।
इति
अथ वैष्णव आचार वणेन-चौ पाईं
सहित विचार आचार घनेरे । उज्वल क्रिया तासकी हेरे ॥
नित दातन मलन तन करही । शोच श्रिया भली भांतिसेधरदी॥
मांस मद्य आदिक दै जेते। जानि अभक्षन संमरह तेते॥
जप तप ध्यान धुन्धते धारे । गकुरकी पूजा विस्तारे ॥
मूरति होय किं मानस ध्याना । उभय भांति हरि सेवा ठाना ॥
अथ मूर्तिपूजा आढ प्रकार वणेन
दोदा-मनोमयी परतक्ष करी, चित्र बखानो काठ ।
मादी भात ध्यानमय, प्रतिमा पूजा आठ ॥
आगमनिगमबोध ( ४७ )
चोपादं
प्रथमरहि पानी विद्या जानो । बिनविद्या किमिदहरि पहिवानो॥
द्वितिये पुष्पको अर्थं कीजे । एक देवकी टेक कीजे ॥
तृतिये चावल अर्थं सुनाओ । भोग अङ्युचिपरधान्यनखाओ॥
चौथे चन्दनते इमि जानी । काम कोधकी कीजे हानी ॥
कीना डद द्रष सब जोई। उरे द्र बहाओ सोई ॥
पचम धूप अथं इमि किये । ग्रीतिं देव गरमीते गहिये ॥
छटये दीपको अर्थं बताओ । बुद्धिदीप निज इदयं जगाओ ॥
अथ शुक्तिस्वहप वणन-चौपार्
जीवते व्रह्म होय जो कोई । शुक्तनाम भाषे ति सोई ॥
चार भांतिकां मुक्ति प्रमाना। साखोको सामीप बखाना ॥
साषूपो सायुज्य कीजे । एेसो तिनको अर्थं गहीजै ॥
सालोक प्रभु छोक निवासा । सामीपा हरिके दिग वासा ॥
साषूपा प्रथु रूप हो भाषा । सायुज्यौ हरिमें मिक दासा ॥
जस वासना दास उर होहं। तैसी शक्ती पावे सोई ॥
जब उपासना पूरण भे । जीवनशचक्त ताहि तब कहेड ॥
परम धामको जब सो जवे। हरिपारषद तासु दिग अवै ॥
जब इहरिधामको चालन कगे । थूल देहको तब सो त्यागे ॥
टिगदेद तब धारण करई । पांचो तत्व देह परिहरई ॥
जब भूलोकते आगे चाला । प्रथ्वी तत्त्व देह तब डाखा ॥
बहुरि देह पानी की धारा । तब जसतसखर लंषिहो पारा ॥
बहुरि अभ्रिदेही गह सोई । पार अग्नि षेरा तब होई ॥
फेर वायुकी देहको धारी । पौन पेर बाहर पग धारी ॥
इमि तन त्यागत गहतनवीना । सकट घेर बाहर पग दीना ॥
चलि ब्रह्मांड पार जब कीता । मायापार भो अिशणातीता ॥
( ४< ) बोधसागर
पुनि परमात्म प्रकाश बखाना । तामे जाय करे असनाना ॥
करि असनान खिगतन छोडा । दिन्य देह अबिकारी जोडा ॥
ज्ञानानेद जह्य तन पाई निज स्वामी के द्वारे जाई ॥
आद्रयुत प्रथुके दिग आवै । इरिशण विविधि मांतिसे गावे ॥
प्रथु दाया साया ते छटा । कृठिन दुःखते प्रथुषद् जूटा ॥
ब्रह्मानद मगन सन दोहं यद्यपि ठएेसो समरथ सोई ॥
रचे अमित ब्रह्मांड जो चाहे । पारपोषिके पुनि तिहि टाहे ॥
तदपि बह्म सुख एसो खरं । ओर दिशा नहि तो चितबदई ॥
याहूमे ग्यौरा बहु तेरा कथा क्क छिखिये तिनकेरा॥
ग्यौरा वेद कहे यदि भाये । जो कोहं सक्त स्वरूप समाये ॥
सागरम जस बुद् समाना पै वह बुद् आपको जाना ॥
बहुरि कहै अति एेसो ठेखो । एसी शुक्ति जीवको देखो ॥
पुष्पमाक जेसे हरि केरो । अथवा जैसे भूषन हरो ॥
यदिविधि जिव हरि अगमं व जिदहि ओसर समायाते इटा ॥
इतियुक्त
अथ परलोकमं पण्यात्मा ओर प्रमात्भाको वर्णन
दोहा-कथा को पररोककी, जब जिव त्यागे प्रान ।
भुरछा मृतके गत भये, पुनि तिरि जक्त फुरान ॥
चोपाई
जीवकी जब मूरा गत होई । इद्रिन सहित आप तन जोई ॥
पिल स्मृतिदहि दियो बिसराई। जन्म ॒धरंत आपको पाईं ॥
बाट युवा ब्ृद्धादिक माना । जाति पांति कुलम टपटाना ॥
अरम करिके जित जगको देखा । जेसे क्क ॒स्वपनेको रेखा ॥
जाग्रत स्वप्न मेद् निं कोहं । स्वप्नहुमे स्वपर्नांतर होई ॥
अमरी करि पितु माता जाना। मिथ्या भास गहे अज्ञाना ॥
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आगमनिगभनोध (४९) `
मृतक होय जीव जिहि बारा । देह अन्त बाहक् तव धारा ॥
बहुरि वासना प्रेरि ठे अवि । अधि भौतिक देही दिखलवे ॥
अधि भौतिक देहि जब पाया । इखञ्खको कारन यह आया ॥
हदय कमल अंगुष्ठ ्॒रमाना । जीव अकाञश्च जौ नाम बखाना ॥
ताहि कमलम भर्म॑त रई ! लोक अनन्त दृ्टिमें गहई ॥
तहं कोटिन ब्रह्मांड निहारी । हदय कृमरू निज माह विचारी॥
तीन प्रकार पुण्य जन राङ्ी । भूरख यनि धानां अभ्याशी ॥
त॒तिये सवं शिरो सुनि ज्ञानी । भिन्न २ गति निर्णय उनी ॥
धानां भ्यासीकी यह बाता । तन तनि इष्ठ देव टिम जाता ॥
अपने इष्ट देव पुर जाई । नाना विधि ख भोग कराई ॥
नहिं मूरख नहि ज्ञानी जोह । सुखसे निज तनं त्यागे सोई ॥
बहुरि जन्म जगम सो षाहं। पुनि सो आतम लय उडाह ॥
अष ज्ञानीकी कथा बखानी । तजत देह सबं सखकी खानी ॥
घरुक्ति विदेह तासुको टीका । जिनके ङदय ज्ञानको दीका ॥
पापीको अब मरण बतावो । महा इख ताके उर छवो ॥
जिनको अज्ञानिनको सङ्गा । उत्तम शुद्धि होय जिहि भंगा ॥
पापी चार कमं जो करही । श्रुति बिर्दढ मग माह बिचरदही॥
तजे देह जब रसे रोगा । तिनको षेर श्रू सौ सोगा ॥
विषय इद्धि जास पटानी । दुसह दुःख पव सो प्रानी ॥
हो पदार्थसे तिनि वियोगा । धित कंठ स्मृत सुख भोगा ॥
नैन ताञ्च दोउ तब फरि जादी । कांति विषूप अग हो ताही ॥
अंग उपांग टूट तिहि बारी । प्रान निकसिगहि मारग नारी ॥
होय पदाथं वियोग दुखारी । अस अवुमान करे दुख भारी ॥
अभि कंडे डरे जसे दुःसह पावे दखजिव जैसे ॥
सवं द्रव्य तिहि अमयुत भासा । नम पृथ्वी प्रथ्वी आकाशा ॥ :
(५० ) बोधसागर
प्रम कष पावे तिहि काला । नभते जज कोई मदमे डाखा ॥
पाथर सें घरि सनहु पिसाना । जिमि तन भोडरमें भरमाना ॥
अध कूषमे जेसे गेरा.। मानहु कोर्ट धरि पेरा॥
रथते गिरे जीव जिमि नीचे । रस्सी ज्यों गरुडारिके खींच ॥
दुःख अनैत प्रकार बखानो । कह खो ताकी निणेय उनो ॥
मूत दोय गहै जडताईं । ताके कमं जुरहि सब आईं ॥
जिमि किशान बीजनको बोवे । समय पाय ताको फर टोवे ॥
प्रान अपान कला दोउ ट्टे । विषय वियोग महा दुख जूटे ॥
सत्यु समय जब जिव सुरकछाना । गगन लीन हो पौन अङ् प्राना॥
ताहि प्रानमे चेतन ताई। चेतनता बासना गहाई ॥
सहित बासना चेतन प्राना । गगन ष है गगन समाना ॥
यथा गंघको पौन गाई । ताहि खदित नम स्थित कराई ॥
तिमि चेतन बासन सहिते जाय अकाश माह सो थीते ॥
तिहि अनुसार बहुरि जगफुरता । तब कार्ते सो तिहि चरता ॥
दोय प्रकारके जीव दखानी । पापी अङ् पुण्यातम प्रानी ॥
पुनि तिने कर तीन विधाना । एक महा पापी करि जाना ॥
द्वितिय मध्य त्रतिये लघु होई । तीन प्रकार पुण्य जन सोई ॥
एकं महा पण्यातम छोई । पुनि मध्यम रघुको मतिजोई ॥
प्रथम महा पापी दख देरे। घन पखानसो ताको रेरे ॥
जड समान अुरछामे रई । वषं सदस्र न चेतन गहं ॥
ताद अर्मे दुख भूरी । बहुरि ताहि चेतनता पूरी ॥
जब ताके तनमे सुधि अवे । आको देह सहित खखि पव ॥
तब सो जायके नरकेमे परता । अमित कार तामं दुख भरता॥
नाना भांति परम दुख पाई । बहुरि नरकते बाहर आई ॥
देह अनत धरे पञ्च केरा । बहुरि सो माषको तन दरा॥
आगमनिंगमबोध ( ५१)
जब धारे सो माष देहा। महा नीच दारिद्र गेहा॥
सो तन धरि दुःखबहु भोगा । कबह न सुख षवेसो रोगा ॥
अब मध्यपापी गति वरणो । जाहि समय होतोको मरणो ॥
जडीभूत हो वृक्ष समाना । उर अंतर दख दौँदह काना ॥
कद्कुक कार पीछे सुधि अवि । अकं माह निज वासा पते ॥
नकं भोगि पुनि प्ञ्युतन धारी । फिर नरदेह केरि अधिकारी ॥
अब सुन ठघु पापीकी वाता । भूछित हो पुनि चेतन गाता ॥
नकं भोगि पनि पञ्च कलेवर । ताहि भोगिफिरमादुवतनधर ॥
अब पुण्यातमको कह ममां । जिनके जक्त मोह भर कर्मा ॥
मष्टा पुण्यजन जब मरिजवे । स्वगंसे तष विमान चङि अवै॥
तिहि बिमानपर तादि चटाई । आद्र सहित वाहि छे जाई ॥
जाहि देवताको सो ध्ववि। तासु लोकं निजं भौन बनते
अपने इषटदेव दिग जाइ । सबहि भांतितिदहिश्चखसखरसाई॥
भोगि स्वगं अवे नर देशा काहू फर्म करे प्रवेशा ॥
तिहि फलको पुरूष जो खाई । वीर्यं द्वार तिहि उद्र समाई ॥
जननी जठरते बाहर हो । उत्तम इख धनवेता सोई ॥
जीं बासना रहित दो येदी। तौसौं धरे संत शृह देही ॥
सहित बासना सुख सरसाया । रदित वासना भक्ति अमाया ॥
अब मध्यम धर्मी गति खनिये । प्रेरित पुण्यस्वगं अह गनिये ॥
अब ठु पुन्यातप गति कइई । मृत्यु पीछे अस चेतन गहर ॥
सगे बधु मम शिया कराही । ताते पितर रोक इम जादी ॥
पितररोकं सुख कहि महि आवे । जेसा कमं देहै तस पावै ॥
पापी सये दुःख चहं पासा । महा कठिनमारगतिरहिभासा ॥
जिहि मारग ताको रेजाई । कटकं ङ्गे चरन में तादी ॥
तपे तेज रमि तापे भारी । ताते ताको तन जर छारी ॥
( ९१२ ) नोधसागर
जो कोई पुण्यातम रोई छायाको अभव तिहि होई ॥
सुन्द्र सर वापी विधि नाना । चहदिश बने सोदहावनथाना ॥
` सुखदं पथसे तेहि लेजाही । पापीको सब बुःख द्रशादही ॥
घमेरायके दिगि जब जावे । चिरयुत्त तब ठेख लगावै ॥
चिचगुप्त कम कागज खोले । सबके पुण्य पापको बोरे ॥
विच्य॒प्त जस न्याव चुकावे । तैसे जीव इःख सुख पावे ॥
बडे पण्यते स्वगं बसेरा । जगे सब सुकर्म जिन केरा ॥
जहां तहां शोभित बन बागा । भति र्केद्रम तहं लागा ॥
इन्द्रके नन्दन बनकी शोभा । जाहि देखि ख॒निवरमनलोभा॥
देव अंगना केर छबि भारी ' महा मोहनी हप सैंवारी ॥
स्वगे गुन सुख कथे बहूता । लहे जीव निज पुण्य प्रसूता ॥
दोदा-जेसे स्वग॑में सुख घने, तिमि दुःखनकंअनत ।
होय जहां ता बहुविधि बेद् वदेत ॥
इति
अथ प्रखयवणन-चोपाह
तेताखिसि लाख बीस दजारा । चहँ युग आगु यक धारा ॥
ताको सहस गना पुनि किये । एकं ब्योस बरह्माको धरिये ॥
जेसी दिन तेसी है राती। जागे बह्ला रेन सिराती॥
दिनम करं जगतको काजा । रनम निद्राको सुख साजा ॥
रेनमें सबही जगत नशाना । चन्द्रं सूर्यं लग्रादिक नाना ॥
केते ऋषि भनि सरहितविधाता । जीये ओर सकल विनसाता ॥
बहुरि बेद॒ेसो अन॒माना । ब्रह्मा सहित सकर विनशाना ॥
दूजा ब्रह्मा पुनि तन धारी । कारय सकल करे संसारी ॥
जक्तको सूतक बहु नरि टूर । एकं मेरे दूजा पुनि जटे॥
न्यायशाघ् अर् सांख्य बखाना । सकलकृतमतिदिकालसिराना ॥
भ दोक या कोको क
आगमनिगवबोध ( ५३)
पुनि वेदान्त सो मता गदीते । कृतम जाक कवहूं नहि बीते ॥
एक मरे दृजा पनि होई । कारय जक्त सनातन सोई ॥
दोय प्रकारक प्रख्य होई । खण्ड प्रल्य महा परय सोई ॥
खण्डग्रलय पुनि दरैविधि कीनो । एसो ताको च्खा चीन्हो ॥
नाम चतुरमुख कत्पय कदीजे । चौदह मन्वंतर तामे कीजे ॥
एक मन्वंतर जब वित जवि । तष जग्मे जरु प्रलय अवै ॥
पृथ्वी जड चेतन संहारा सकर नसाहि ताहि जकधारा॥
एकं मन्वन्तरकी थित भाखा । तीस करोर पच्वासी खला ॥
मध्यमे दोय मन्वंतर केरे | संधी नान ताञ्को टेरे ॥
सह लक्ष सहस्र अगहस । तास्षन्धीको रेख कगाहइसर ॥
इतने कार जक्त निं रई । बरते ञ्चुन्य षेद अस कहं ॥
बाल भोग छघु प्रलय जाना । महा प्रख्य निश भोजन माना ॥
जब जो महाप्रख्य तिहि अवे । मरा जो निश्चय देह सो षाव ॥
होय सकल जब धर्म॑की हानी । पाप पयोधि बडे नर पानी ॥
कृतद् न दीख अचार बिचारा । मन मत पन्थ जक्त जिव धारा ॥
छन्दतोटक
सुत मानत मातु न तात जही । र सेवन देवन दान कदी ॥
कलि कौतुक घोर कठोर महा । खुखदुःखितको हरिनाम कहा ॥
कपटी लपदी नर नारि गना । नरि मानत सन्त महन्त जना ॥
तपसी लपसी जग खात रिरे । सुंडिका धनिका बनिकार भिरे॥
द्विज चिन्ह उने न वेद करिया । भगवां यक भेष अरेख पिया ॥
बह यजन ॒मन्बन दूर्व हरी । बिन राम रमे किमि काम सरी॥
बिरती षिन सिद्ध जती फिरते । नदि ज्ञान है चित्त बिना थिरते॥
कलिकाल कराख इकाल मरी । नर पीडक सो दख द्वद भरी ॥
तजि रूपवती युवती भरता । नरं गारि ठो परनारि रता ॥
( ५४ ) बोधसागर
तिय सन्दर पीय विहायगता । अरधंगन सङ्ग अनंग मता ॥
कर पाप अनत भन॑त कहा । परिताप संतापन रोग दहा ॥
श्तिपन्थ बिहायङकपन्थ चरे । तजि अम्मृतखछाकसो खाकडखे॥
गृह सम्पति देपति दीन भये । दरवेश अरेखको भेष भये ॥
नहि साघ विषय कमसाधतये । विन सार लखे यमद्धार गये ॥
मदनातुर युत्य रिरे युवती । किमि मोग नरा नरदी कुवती ॥
तिय गट भये जब घाट नरा । न अधार कटू विभिचार भरा ॥
उषिगि अति ध्मनके बकता । मनमानताजो जेहि सो छकता॥
ब्रणाश्रम धर्मके म्म नहीं। सब शंकर भे न सुकमं कीं ॥
समता बिगता ममता गरको । जिव रोग वो शोकनमें टरको ॥
अघ ओग॒न सौगन जीव त मन वांछित बोध न वेद् वदा ॥
द
यहि विधि जक्त धमं बिनसावे । तब इयथ्रीव प्रगट हो अवे ॥
शिर तुरंग देदी नर जाको । धावे सकर घरा परि पाको ॥
पौन प्रसंग अङ्ग तिदि पाई जीवकि बुद्धि शुद्ध है जाई ॥
लघु भरखय जब धर्मकि हानी । महाप्रलय अब को बखानी ॥
चीन्द अनेक भयावन होई । ओबा मरी भरी दुखजोई ॥
पञ्चिम दिशिते रवि उगि अवै । द्वितीया दक्षिणम प्रकटावें ॥
उतर पूरव सूरय देखे । दश दिशा दश रवि यह लेखे॥
एकं सूयं ॒प्रथमे ते रद । बडवा अग्रिते सोई कहे ॥
बडवानल अरु ग्यारह सूरा । द्वादश सूयं तेजते प्रा ॥
शिव पुनि तीसर नेन उघारा । शेषके मुखते अभि भ्रचारा ॥
महा तेज प्रथ्वीमे भरे । थावर जङ्गम सब कु जरे ॥
पौन प्रचंड अण्ड भरि पेखे । परवत उडदि तूलके रेखे ॥
गिरि सुमेरु आदिक गिर नाना । सूखे पत्र सो गगन उडाना ॥
भा म क ज को = क का ~ 9 = क =
आगमनिगमबोध् ( ५५)
सात सिधु तिहि काल छुभादी। जलकी वृद्धि एक द्वै जादी ॥
पुष्कर मेघ कीन पुनि कोपा । जरसे सकट भूभिको तोषा ॥
भुस धार पानी बरसाई। मोटा धार पुनिवक्षकि नाई ॥
बहुरि नदीकी धारा जेसे। नभसे पानी वरषे देसे ॥
ये तो जल दिज्ञा उर्थं चठता । पहुचे. ब्रह्मलोक परजंता ॥
ईद् कवेर आदिकं दिगपाल । भूगिके ब्रह्म लोकको चाल ॥
यहि बिधि सकल जलामय होई । जीव जंतु कं रहै न कोई ॥
पृथ्वी गलि जरे मिलि जाई । तिहि ओंसर भैरों प्रकटाई ॥
पृथ्वीते आकाश खों देही । महा भयानक रुदर है येही ॥
तिह इग मानहू सूयं है तीनी । एेसो तेज मयी कहि दीनी ॥
तिदही मेरोकी श्वासा चाले । पानीके उपर सो डाके ॥
पौन प्रचंड नासिका बादा। ताते दोय बारिको घाद ॥
ताकी धसा जल जब सोखे । रषे श्र पुनि अपे चोखे ॥
दश दिशा ञुन्य हवै जाई ।रविशशि अगन्यादिक बिनशार॥
गुन अर तत्व न कबहु प्रकाशा । सवे ्चन्य वतं चह पासा ॥
भरो तनते निज तन धारी। प्रकटे महा भैरवी नारी ॥
महदा भयावन मूरत् जाकी । सृप सिन्धुकर कंगन ताकी ॥
मानुष शया देखो जेसे। भैरों तनते प्रकटे जैसे॥
इद्र बेर वरुण यम् काला । तिनके खंडको पहिरे माखा ॥
नृत्त करे सो तहं तिहि बारा । अह अर करि शब्द् उचारा ॥
भैरो ओर भेरवी दोई । नृत्त करे तब शुन्यमें सोई ॥
बहुरि ख्य भेखी हवै जाई । भेरोके. तन माइ समाई ॥
अब क्कु शेष रहा नहिं खेला । तब भेरों रहि गयो अकेला ॥
दोदा-धरतीसे आकाशल, मेरोकी जो देह ।
सवं शून्य करि दशदिशा घटन रगी तब येह ॥
( ५९६ ) नोधसागर
प्रथसें पवेत सम भई, बहुरि ब्क्षके भाय ।
पुनि अंगुष्ठ पुनिरेनसम, पुनि सो गईं लोपाय ॥
सवै शून्य दशहू दिशा, पिसा सकर संसार ।
दश्य कतडं कडु ना हा, रहा अरखुख करतार ॥
बरह्माते खे जीव सब, जरह खनि कीट पतग ।
सक्ति विदेह महा प्रख्य, रचना पवि वेद् प्रसंग ॥
सब जिव खुक्ति विदेह ल, रचना जब पुनि दोय ।
आतम सत्ता बह्मने जक्त, फुरे पुनि सोय ॥
इति श्रीवेदधभं वणेन
अथ न्यायधमं वणेन
दोहा-कत्तौ पुरूष है देव जरह, शङ संन्यासी जान ।
न्याय शाञ्च सब मम कथा, धमं अंथ परमान ॥
अथ उत्पत्ति कथा वणेन
सोरठा-न्याय शाद परमान, नित्यानित्यको बाद बड ।
जग सबही प्रकटानः सृष्ष्म तच्वसे जानिये ॥
प्रलय बहुरि जब दोय; सक्षम परमाणू रहै ।
ताते थूल गरोय, दनो तिय॒नो चौगुण ॥
परमेश्वर करतार, आदि अंत नहिं ताको ।
गहे आप ओतार, देते सोहं चहं॑वेदको ॥
` नकं स्वरम आनित, जीवको सो शुभ ज्ञान ।
सो प्रथु सबको दितकरहे सो तासन आट बिधि ॥
चौ पाईं
प्रथमदि ज्ञान प्रयत्न दै दूजे । तीजे इच्छा सख्या चौथे ॥
पचम पुनि परमान गनीजे । परथक्त्वा षष्ठमे भनीजं ॥
पुनि संयोग विभाग कंहाये । ये ईश्वर गन आ गनाये ॥
आगमनिगमनौष् ( ७ )
जेती वस्तु जगते उपजाया । सोह पदारथते सबकी काया॥
तिनको मेद जो भटिविधिजाना। सोई प्रवे षद निवना ॥
तीनों शण इशधरके अंशा ५५५ ताही व प्रशसा ॥
द्।त्
अथ आदि सन्यासी दतचात्रेयजीको कथा-चौपाई
अगरी सुनि अनघया नारी । नारि पुरूष केनो तप भारी ॥
तीन देव तब हरिषित ` भे । ब्रह्मा विष्णु शम्थु जिहि कहे ॥
ताके भौन गौन तिहि कीने। आद्र मान तिन्ह षि दीने ॥
अनसुहया पुनि कीन रसोई । तीनों देवं जिवावत होई ॥
भे प्रसन्न तब तीनों देवा । मागो बर पूरण तवं सेवा ॥
तब अनसुहया वचन उचारे । तुम समान डौ पुत्र इसारे ॥
दीन सोई बर मांग्यो जोह । पुनि मारम् निजं खीनो ओं ॥
अनसुइया जसो वर षाया । तीन पुत्र भे ताके जाया ॥
तिहते तीन अंश प्रकाशा । दत्त चन्द्रमा अङ् इवांसा ॥
दत्त विष्णु ओतार काये । ब्रह्मा अंशते चन्द्र उपाये ॥
शिव ओतार कहे इवांसा । धमं चखा जग तिनकी आशा॥
दत्तसे दीगांबर संन्यासी । अवधूता मारग जो भाषी ॥
ब्रह्मा अशते चन्द्र उपाये । सो निज भौन अकाश बनाये ॥
दुरवासा ते ठंडी भेज । दंडी आदि ताहिको कहे ॥
दत्तात्रेय के चोबिस चेरे ५ कमं संन्यास गरेर ॥
इ
अथ दहितीय सन्यासी शंकराचायंकी कथा-चौपाहं
तूरने भ्य व्यास बर बानी । जब कडि होय वेद मतदहानी ॥
जंन बद्ध मत अधिक प्रसार । वेद धमं निददहि निरधारा ॥
जेन बद्ध विधि गह नर खोई । वेद धमं माने नदिं कोई ॥
( ९१८ `) नोधसागर
तिहि ओसर शिव परम सनेरी । वेद धमे थापे करि देदी ॥
जेसो आगम व्यास बखाने । जेन बुद्ध मत महि अधिकाने ॥
बेद् धमे तब भयो मीना ' बिरखा कोई आदर दीना ॥
बिक्रमादितके समयसे कहे । शंकर शंकराचार्य भे ॥
दक्षिण देश दिजङ्र ओतारा । वेद॒ धर्मको पालन हारा ॥
चडदिश जाय विजय दिग कीना । कथि निजज्ञान नीति जगरीना।
वेद घमं मरयाद् धराया । बादी सन्धुख तास पराया ॥
स्मृती धमं कीन प्रचारा । धम स्मातं नामसो धारा ॥
जेन बोधको जीत्यौ सोहं राजा शंकरकी वश होई ॥
तिहि ओसर भूपाल छुभाया । केते जेनी सरित बाया ॥
मंडन मिश्र ब्रह्मा ओतारा। धर्मं भिमांसा जग विस्तारा ॥
शंकर जब तापर जय पाईं । ताकी नारि ताहि सहाई ॥
मंडन मिश्र गये जब हारी । कामश्चाञ्च कथं ताकी नारी ॥
शकराचायं बाल ब्रह्मचारी । काम शाकल विद्या नहि धारी ॥
तिहि ओसर अस कारण भयऊ। ब॒षप अमकूक देह तजि गै ॥
योगके बक्ते शंकराचारय । चृषतन प्रवेश कियौ निज़्कारय॥
काम कला सीखे षट् मासा । च॒षतनमे कर भोग विखासा ॥
काम शाघ्रको अन्थ बनाई । सो अमरूकशतकं कदलाई ॥
नृप तन तजि मंडन पदँ आये । तासु नारि पर तब जय षाये ॥
मंडनमिश्र भे शंकर चेरा । ताको धर्मं गद्यौ तिहि बेखा ॥
इति |
अथ पूवं आचायनके नाम-चौपाई
जहां तो आदि संप्रदा चाली । पीठी पीदी कथौ निराली ॥
प्रथम विष्णु दूजे शिव दोहं । पुनि तृतीय वसिष्ठ सुनि जोई ॥
आगमनिगमबौध ( ५९)
पुनि संगत वशिष्ठ सुत भँ । ताके बहुरि पराशर कहे ॥
छट भ्यासदेव गरलानी । सत्ये खनि सुखदेव बखानी ॥
अष्टम गोडाचा्यं कोई १. गोर्विंद् पुनि शंकर होई ॥
इ
अथ शकराचाथंजीकै शिष्यके नामं
दोदा-प्रथमस्वरूपाचार्यं कहा, पृथ्वीधरा चारय टेर ।
` पद्याचारय तीसरे, तोदकाचारय फेर ॥
इति |
अथ दशनाम् न्ाप्ीको वणेन
दोहा-स्वषूपचार्यके शिष्य ह, तीरथ आश्रम जान !
पद्माचारयके दोय, पुनि; वन आरण्य बलान ॥
तोरकाचारयके पवतो, सागर भिरि शिष्यतीन |
पुथुराचायैके प पुरी म्रवीन ॥
इ
अथ शकरी अथवास्मात्त सेभदाय वणेन-चौपा्
अब शंकरी संपदा भाषो चार भेद पुनि तमे राखो ॥
पूरव पिम उत्तर दक्षिण. । चारों दिशा चार मठ्कोगिन ॥
अथ पएृवेदिशा वात्ता |
गोवर्धन म्ढ भोगंबार सम्रदा वन अरण्य पद् पुरूषोत्तम
कषे जगत्राथ देवता पद्चाचायं चेतन्य ब्रह्मचारी तीथं महोदधि
विमला देवी एेतरेय बराह्मण ऋगवेद कठ केन उपनिषद अकार
मातरा प्रज्ञान ब्रह्म महावाक्य । &
इ
अथ पथिमदिशा वात्ता
-पचचिम् दिशा शारदा मठ कीटबार संप्रदातीरथं द्वारिका क्ते
सिद्धेश्वर दवता भद्रकाली देवी स्वरूपाय नन्दा बरह्मचारी तीर्थं
( &° ) नोधस्रागर
गोमती सामवेद उपनिषद् आद्णकेनतत्वमसिमहावाक्यओंकार
साता तीथं आश्रम दै षद् ॥
इति
अथ उत्तर दिशा षातां
उतर दिशा जोशीमठ आनदबार संप्रदा पद् तीन गिरि पवेत
सागर क्षे बदिकाश्रम नारायणदेवतापुण्यागिरीदेवीजोरकाचाजं
नदा ब्रह्मचारी तीथं अलकनदा ब्राह्मण ब्रह्माअथवेणवेद् माड्क्य
उपनिषद आ माता अहं आत्मा ब्रह्मा महावाक्य ॥
इति
अथ दक्षिणदिशा वातां
दक्षिण दिशा गेरी मठ भूरीबार संप्रदा सरस्वती भारतीपुरी
पदानि क्षे रामेश्वर आदि वाराह देवता कामाक्षीदेवी.शेगीऋषि
पृथ्वौधराचायं तुंगभद्रा तीथं यजवेद ब्हदारण्यउपनिषद्ब्राह्मण
इच्छावश रै अहे ब्रह्मास्मि महावाक्य अधेमात्रा ॥ |
इति
- अथ सेन्यासआचार वणन
दोदा-सकर कमंको शोडिके, जो खेवै संन्यास ।
स्वगे आदिकं सब सुख घने, रहै न कोई आस ।
चोपाई
सुत बित नारि ईषणा तीनी । तजि संन्यास धर्मनिजटीनी ॥
यज्ञ वेदपाठ नरह भाषा । संग्रह सदा उपनिषद राखा ॥
कृरहि कमंडल हाथमे दडा । पिरे स्वद् पृथ्वी नौ खंडा ॥
कु खख साजन यकटे धरदीं । कासे विवाद् निं करदीं ॥
आगमनिगमबोध ( ६१)
सदा शौच असनाम जो कीना । संध्या बदरे आत्य छेीना ॥
जव केवह चित ॒चंचर् होई । पढे उपनिषदको तब सोहं ॥
ओषद सम भोजनकों भोगा । चाह नहिं कड सुख संयोगा ॥
शत्र मिज जगम न्दं कोहं । सदा सेन प्रथ्वीपर सोहं ॥
धरतीपर धरि भोजन करही । चार मास वषा न बिचरही ॥
फिर अकेठे संग न कोई) भिक्षा भोजन गहैन ओह ॥
सोलह ग्रास अहार व्रमाना ! खेय हाथषर भिक्षा दाना ॥
जाके धर भिक्षाको जादी । अुखसे तहं कड मागे नाहीं ॥
जेती बारमे गॐ दहाईं । शही द्वार तबलो उदरा ॥
जह मागन को कारण पावै । तशं प्रणवको शब्द उठत ॥
तीन बार कर॒ शब्द उठाना । जाते शृदी सनै निज काना ॥
तीन मौन के पांच कि साता । येते धरले भीखको जाता ॥
जौ भिक्षा संयोग न रदं । तौ संन्यासी भूखा रदईं ॥
भिक्षा छे पुनि बनहि सिधारे! मता श्रेष्ठ संन्यास उचारे ॥
पहिले वेदपाठ करि टीजे। तब पीछे संन्यास कीजे ॥
वेदक विधिते बोध न जबर । धमं ममं जाने कह तवर ॥
एेसी विधिते भोजन करही । मोट देहि जिहि नजर न परी ॥
सदा कारु आतम लौलीना । सकट भम भय तजि तिनदीना ॥
प्रथमे सब सस भोग भरीजे । सब ईद्रिनको तप्त करीजे ॥
तब पीछे टीजे संन्यासा। रहै न काहू वस्तुकि आसा ॥
शीतकार्को द्री एका । राखे सो निज सहित विषेका ॥
यह मध्यम संन्यास प्रमाना। अब उत्तमको क्रों बखाना ॥
नग्र॒ दिगम्बर बाना होई । शीत उष्ण दखसुखसह सोई ॥
सदहदुख सुखदुखसुखनर्दिमाना । एसे निज मनम अनुमाना ॥
ज्ञान अग्रिमे तन इम दाहा । अब याकी कद रदी न चाहा ॥
( &२) बोधसागर
यह विचार निज मनसे धारे । भृतक संन्यासीकफो नर्द जारे ॥
जोतेहि निज तन जिन दादी । ये दग्ध पुनिडचित न वाही ॥
दोहा-जो मध्यम संन्यासते, उत्तम विधि गरि खेय ।
परमहस ताको करै, नञ दिगंबर तेय ॥
काहूको परनामसो, करे न शीश इज्जकाय ।
सेवासे नहिं क्क सुखी, निरादरते नरि दख पाय ॥
मधूमासर भोजन दोउ, तजि दीजे निरधार ।
घातु वस्तु सुद्रादि सब, निं कर प्रसनहार ॥
चौ पाठं
भोजन पाकते राखे काजू । तजे इतर सुख स्वाद समान् ॥
पकं भोजन तजि ओर न छेदी । गृही जो पाक भोग नरि ददी ॥
ताहि गृदीको पापी जाना । देत नदीं जो भोजन दाना ॥
संन्यासीकीो तप बड यादी कषु काहूसे मांग जो नारी ॥
दण्डी संन्यासी जो होहं। दंड हाथमे धारे सोई॥
दंड बोसकी लकड़ी भाषा । सात गाटि पुनि तामे राखा ॥
सरस्वति आश्रम तीरथ तीनी । दंड अरण अधिकारी कीनी ॥
ब्राह्मण बिना न दंडी होई । द्विज गृहते अहार गह सोई ॥
चारों मव्के जो ब्रह्मचारी सोऊ विप्र कुरुते तज्लधारी ॥
उत्तम मध्य॒ कनिष्ठ संन्यासा । भित्र २ करि वेद प्रकाशा ॥
शिव अर विष्णुभाव नहि दृजे । पचम देव संन्यासी पज ॥
शिव नरर्सिहगणगतिरविदेवी । इन पांचोंकी सूरत देवी ॥
सिंहासन धरि पजा करदी। इष्ठ आपनो बीचमे धरदी ॥
अधिकं नेम जिदहि देवसे लवे । बीच सिदासन तिहि बेटावे ॥
च'पाइ ं
शिव शक्तीको धमं जो धरदी । चन्द्राकारतिख्कलिलारमेकरदी॥
योगा संन्यासी ब्रह्मचारी । भगवां भेष तिलक सो धारी ॥
आगमनिगमबोधं ( ६३ )
अथं मीमांसाधमं वणन
दोहा-देव अरख करतार जह, ङ दरषेष कडाय ।
शा मीमांसा धमं कह, कमफल जिव वाय ॥
चो पां
व्यास शिष्य जैमिनि ऋविराया । धयं मिस सो उहराया ॥
ताके शिष्यन करी सहाई । धर्मं भिमांसा जग कै ॥
शिष्यनको अस नाम उचारीं । भह कमार अङ् मिश्र भुरारी॥
बहुरि प्रभाकर कुरकहि टेरे । भे प्रसिद्ध जगमाह बडेर ॥
जैमिनि शिष्य इद्धिगणधारा । भली भांति निज धमं परचारा ॥
धमं मिमांसा जो कोई गहईं । ताके नाय मि्मांसक अहं ॥
एसो धमं सो कीन उचारा । ईश्वर नहिं जग सिरजनहारा ॥
जो कुछ दुख सुख जगमें होई । जीव कर्मैको कारण सोई ॥
जेसो कमं करे जो कोई । तैसो उदय ताहि को डोह ॥
ईश्वर नदिं कष्ठ करे करावें । नर स्वछंद जस कर तस पावे ॥
सृष्ठि अनादिनिध करि जानो । सदा स्वभाविक देसेहि मानो॥
परमागुनते जग उतपाता । ज्ञान कमं दोउञुक्तिको दाता ॥
वेदान्ती जस करे बखाना । तीन वेद इश्वर यण माना ॥
मीमांसकं नरं माने सोई । तीन वेद मानुष तन होई ॥
कमं सुकमं करे जो कोहं नर । होय सो ब्रह्मा विष्णु महेधर ॥
कृर्मेते जिव सब पद पावै। कर्महि उच नीच गति जवे ॥
जेतो देखो कमं परसारा । कर्मको खेल खिला जग सारा ॥
बरह्मन कमं करहि बिधि नाना । देव अराधन सुख ब्रत दाना ॥
होय यज्ञ॒ तिनके बहृतेरे। साधन करि करि देवन रेरे ॥
इति मीमांसा धमं
( &% ) बौोधसागर
अथ शिवधमे वणेन
डोडा-देव शूद्र योगी गुरू, योग सुक्ति चित धार ।
पातञखल यद भ २ कथे घमं व्योहार ॥
इ
अथ शेष अवतार कथा वणेन--चोपाईं
करे एक अषि संध्या तरषन । ताके अल प्रकटे धरि तन ॥
अजरूते करि बाहर परेड । नाम तासु पातांजर धरेऊ ॥
पातांजरु ३ शेष ओतारा । सो जग मक् शोधन हितकारा ॥
शाख चिकित्सा कीन प्रकाशा । देह रोगमल ताते नाशा ॥
शब्द् अशुद्ध उचारा मरु देता । पाणिनिकरनिकाभाष्य करंता॥
तिमि विक्षिप्त अतह मर शोधू । योग सूत्र करि जौव प्रबोधू ॥
प्रथम चित्तकि वत्ति निरोधन । कथे समाधि अङ् ताको साधन ॥
वैराग आदिकं विधि विधाना । कथे तहां साधन विधि नाना ॥
तैसे चित्त विक्षिप्त जो साधी । नाहित कीनो योग समाधी ॥
यम नियमों आसन प्रतिहारा । प्राणायाम धारण धारा ॥
ध्यान समाधि आठ यह भाषी । दवितिये पदमे सबसों राषी ॥
तिये पदमे योग विभूती । वरनो सकर जो सिद्ध प्रसूती॥
बहुरि चतुर्थदि चरणके मादी । मोक्ष योग फर बनं तारी ॥
इति
अथ नव नाथकि नाम
दोश-गोरखनाथ मछदरो, सुरतिनाथ मङ्ग नाथ ।
चर पट चम्बा ६५५६६ › चध्यु गोपीनाथ ॥
ह ॑
अथ गोरखनाथजीकी कथा चोपाई `
नवो नाथ सिद्धौ चौरासी । गोरख श्रेष्ठ सवे गण रासी ॥
^ च कतकः को क क क रं
आगमनिगमबोध ( ६५ )
मुढा सकट तादिने कीनो । एेसो योग माहि चित दीनो ॥
दोदा-यदरा सन्युख खेषरि भूचरि चाचरि जान ।
शामभवी उन्मीलनी, एनि अगोचरी मान॥
आत्म भावनी बहुरि कह; प्रण बोधिनगाय ।
सवं साक्षिनी आदि दै, शद्राते जित लाय ॥
चौपाहं
फेसो योगी भया समाधी । आगे भांति योग भलसाधी ॥
राज योग इढ योग॒ बखानो । आहठ अङ् कुण्डली परमानो ॥
योग ॒लेषिका तारक साधा । योग मीमांसकसंख्य खमाधा॥
आये योग भटी विधि कीना । एेसो योगी परम चवीना ॥
वृर कीन पुनि अपनी अङ्गा । करि चौरासी कल्प सख॒ढङ्गा ॥
फेसी वञ्न शरीर बनाई । कबं मरे न जरे न जाई ॥
सारी मांस देह गि गिरेड । हाड गूढ जमि एके भयर ॥
हाड गूद जब एकमे पागा । हीरा सम तनु चमकन लागा ॥
योगको रस भर गोरख टीना । सत्य कबीर प्रशंसा कीना ॥
केते गोरखनाथ के चेरे। सिद्ध भये गहि ज्ञान दुरे ॥
गोरख यती जक्त गुन गाये । योग शुक्ति जगमें फैलाये ॥
शिवजी आदि अचारय येहा । योग समाधि आदि गन गेहा ॥
पुनि नोनाथ सिद्ध चौरासी । योग धमं जग माह भ्रकासी ॥
शिव गोरख सम ओर न योगी । ब्रह्मानन्द योग रस मोगी ॥
अथ चौरासी सिदनके नाम `
दोहा-भद्कर सद्गर संघरो, जङ्गर रम दोय ।
टरम कनी फाहनीफा, लहुरूषपा सद्ग रोय ॥
लद्धर हनी रतन कड, पूरन बिवाखक बनं ।
जलका सिघडसुरतिर्सिध, निरतिसिधफेवखकर्न ॥
( ६६ )
बो धृसागर
समरथ असरन गौन शुरु, चतुर तैन राय एेन ।
केवर करन ओघड द्रवत, ईखरभरथरी भूतमेन ॥
कनका शंसु अक्षर देन, पलका निधि शिवराम ।
पिपर्का गिरधर सारस, कसक गेलस नाम ॥
सगनधार सुक्तौसरो, चलन नाचत सूर एेन ।
गिरवर जोति लगन कहो, जोति मनसिध सेन ॥
विमल जोति शीतल जरो, अघडधान्य पतिप्रान ।
तोर संयोग अकार् निर, बहुरि भोकसर जान ॥
राजकुमार बखानिये, विष्णुपति कष्णङ्कुमार ।
शकर योग ब्रह्म योग है, मीरहुसेन बिचार ॥
मीर जञ्रलीकं धारिजो, पुनि काखिद्र नैन ।
फिर नाछिन्दर नैन है, सरस्वती गुरूवन सेन ॥
गुफाबासी कल नासी, करके संगी दोय ।
यक रंगी केवक् कमी. पुनि कम नासी जोय ॥
कटकं विनाशी भूल मजी, योग तन्वी परमान ।
जग गिर दीपक रगी, आपो षशूपी जान ॥
फिर अकलेस प्रतापी, बीरम योगी नाम ।
खल समोगकू भोगी कदो, इन्द्रयोगी यण राम ॥
पुनि केदार योगी गनो, कीन धमकी बद्ध ।
मुनि विचि रहमी योगी, ये चौरासी सिद्ध ॥
अथ षट् यतिययोके नाम
दोदा--गोरख नाथो दत्तजी, पनि लक्ष्मण इनुमन्त ।
भैरो भीषम जानिये, ये षट् यती वदन्त ॥
इतिः
आगमनिगबोध (६७ )
अथ बारह पृथ वणन
दोहा-आह -कुनका प्रथम, तुसखईं कपिदान ।
तृतीये सप्तनाथ पथ है, चौथ घमं नाथ जान।
वैराग्य नाथके भरथरी, षष्ठम ग्भ नाथ ।
रामचन्द्र सप्तम कैः अष्टम लक्षण नाथ ।
फिर नटेश्वरी नवम है, पिगर दशम कहाय ।
पुनि धजपंथ इग्यारहै, बारह कानी फाय ।
इतिं
अथं अष्टंगयोगवणंन
दोहा-जमनियमोआसनकटोः प्राणायाम अगाध ।
प्रत्याहारो ध्यान कह, पुनि धारण समाध ॥
अथं यमकी दश शाखा वणन
दोहा-युक्ति सहित सब कर्मकर, ताकों यमबतलाय ।
जाते साधन खगमहो, सकर कटुषता जाय ॥
चौ पा
प्रथम अर्हिसा जीव बताई । नर पड्म आदिं एक समताई ॥
मनसा बाचा कर्मं या तीनों । काहृको कङ्क दुःख नहिं दीनो ॥
द्वितिये बोडे साची बानी । मिथ्यावाक्यते धमकी हानी ॥
ततिये पर धनको मति इरना । चौथे परतिय संग न करना ॥
पञ्चम दाया इदय महाईं । दुखी दरी करो सहाई ॥
छटये अचा ताहि बखानी । बुधिते धमं कीजिये प्रानी ॥
अहंकार मद मान न धरिये । ओरहि कबह तुच्छ मति करिये॥
सप्तम क्षमा ताहि को जाना । लाभालाम न सुखदुख माना ॥
अष्म धौत धमं भर साजी । जो कटु लाभ तामे राजी ॥
नवमे अल्प अहार करीजं ५ ९ शोच भली विधि कीजे ॥
{ति
( ६&< ) नोधसागर
अथ् नियमकी दशा शाखा वर्णन-चौपाई
परथमे तप द्वितिये खन्तोख्या 1 त॒तिये को कह नाम असंख्या ॥
शति ईंरवर हिय निश्चय जाना । चौथे धनते दीजे दाना ॥
पचम करता पुरूषको प्रजा । ताहि छोड न्यावो मतिदूजा ॥
पुनि सिद्धांत अवण है छट्ये । विद्वतं जनकी संगत गव्ये ॥
अति पुरान विद्यया आध्ययनां । सब श्जुभकर्म॑नमे चित देना ॥
सप्तम ओ इदी धिक्कारे । जब कड अल्ुचित कर्म निहारे ॥
अष्टम सत्य जाहि को कहते । भरे कमेकी इच्छा क्ते ॥
नवमे जब हरि चचा किये । इद्विन सहित चित्तको धरिये ॥
दशमे दोय अथं अस किये । तन मन धन इष्ठ जो गहिये ॥
प्रथुको हेतु सकट सुख त्यागे 4 ज्ञान शादु विषय षन दागे ॥
||
अथं चौदह आसन वर्णन- चौपाई
पद्मो बीरभद्र॒सुं संगकरी । पनि दन्दास वृथिक सँबासषरी ॥
बकरी मोर सिह जसको अस । समान अतरङ्जुढ पुनिमेठकजस ॥
अथत्चिविधि प्राणायाम वर्णनं
दोदा-प्रथम सहज मध्यम बहुरि, कथिन तीसरो आहि ।
प्राणायाम भिविधि. को, साधे योगी जाहि ॥
चौपाई
प्रथम सहज किये दरे शाखा । शासा परश्वासा मय भाषा ॥
पूरक कुम्भक रेचकं माही । तरस जान नाकाम है तादी ॥
द्वितिये परक इडाहै नारी । बाम नाकं नथुन थित ध।री ॥
बाहरकी वाय केजाहं। भरे इडा नाडीमें लाई ॥
कृम्भकको अस कारय् कथना । बन्द् करे दोउ नाकके नथुना ॥
थित प्रयन्त॒ रोके रहे पौना । रेकं कर्मं कौ अब तौना ॥
आगमनिगमनोध ( ६९ )
शनैः २ पुनि पौन निकारे। पिङ्कखा रग मारगको धारे ॥
बाहर पौन करो सो जबर । नथना बाब बन्द रख जबल ॥
तृतीये तहं करम आरम्भन । बाहर माज्ालो कर थम्भन ॥
माता ताहि कालको ना । नाम उचार शुद्ध करि वाङ ॥
नहि विलम्ब नहिं शी्रविवेका । शब्द् ङ्द सो माचा एका ॥
चौथे जब यह युक्ति संभाला । राले थित तमं क काला ॥
फिर द्विना फिर तिय॒ना करिये । तिथ्णते अधिकम जबवितधरिये
एकवावर रेसी विधि गना । कुंभके यह यक्ति वमाना ॥
इड़ाको पलरि पिंगला करना । घुनि पिगर ऽडाकरि धरना ॥
पंचम एसी युक्ति विलोको । वायूको निज चरते रेकौ ॥
छठे जो पूरकं रेचक भासा । आपते हे श्वासा पर श्वा्ा ॥
इकीस सहस अर षट् सबथापू । चङे श्वास सो अजया जाप ॥
तापर ध्यान करे जो को । ताको जाषपरेन दिन हेड ॥
सत्तम वृद्ध॒ होय वय तादी । वय परमान शासते आही ॥
द्वितिये मध्यम यहि विधि भाला। प्रथम प्राण वाय कर चाल ॥
बाहर अगल बाहर आवे । पुनि अदना वायु रे जावे ॥
प्राण कि ठैर अपान छे जाई । पूरकमें यह युक्ति करां ॥
द्वितिये कुम्भकमे यह डौरा । प्राण अपान करो कं ठोौरा ॥
रेकर बन्द् करो यहि उक्ती । बरते अंत रेचक दौ युक्ती ॥
पिरे सदाके ठंग न रहहं। फेर इडा वायु जो कहं ॥
जोर कियेते बाहर आईं । प्व न बादर अगुरु ताई ॥
तुतिये अष्ट कमम कहि दीनी । पूरक तीन अर कुम्भकं तीनी ॥
दो रेचक मे आट कर्मां। अब चौथेको भाखो ममां ॥
सचत थंभन त्यागन प्राना । पूरकगह रेचक निं ठाना ॥
( ७० ) नोधसागर
ताको ङम्भकं नाम बखाना । प्राणनको निज वशम आना ॥
एकस लाख अर् साठि इजारा । रो नर श्वास पर्णं जिरि बारा ॥
तिहि अवसर असयुक्तिजोकीये तौसौ दोसौ वर्षटौ जीये ॥
तृतिये कठिन कि शुक्ति सो अदहं । प्रथम खेचरी सुदा गदई ॥
एेसी लंबी जीभ बटावे। तामे पुनि तारि लगावै ॥
पुनि सो एेसी युक्त गावे प्राणवायु धोले नि पावै ॥
कान नाक सुख दगलों जोई । तदो जान न पावे सोई ॥
द्वितीये भ्चरि शद्रा गाई । दक्षिण पगकी एडी स्याई ॥
गुदा ख्गि जड दवि बही । बाम पाव एडी रख तादी ॥
बार २ एडी बदरे दोऊ । पुनि अपान उप्र सैैचेॐः ॥
अथ प्रत्यहारवणेन- चौपाई
प्रत्याहार सो नाम मनंतो । इन्द्री दमन कीजिये संतो ॥
प्राणायाम प्राण दम घारा। तिमि इन्द्र दम प्रत्याहारा ॥
प्रथमे विषम स्वादते भाजा । द्वितिये बड विरद जो काजा ॥
कबहू ताहि न करत सयाने । दृष्टद् ताके दिश नहि ताने ॥
तृतिये विषम सवथा त्यागी । मनहु दृष्टि सन्भुखते भागी ॥
चौथे इषे न शोक रहाईं । पचम प्राणायाम खटाई ॥
इवि `
अथ धारण अथवा प्रमेश्वरकी प्रीति-चौपाईं
प्रीतम प्रीति दिये अति बादे । सदा ध्यान सुमिरनमे गादे ॥
प्रथमहि ग॒रुको ध्यानगदीजे । दग सन्धुख जो क्क लदीज ॥
सो सब गुकूकी दाया जाना । बारह मातां खट ठाना ॥
होयरपक् जो पूरन जाना । माजा सदस दोसौ षट् पाना ॥
| इति
आगमनिंगमनोध ( ७१ )
अथ ध्यानको वणन-चौपार्ई
ध्यानते एसो ज्ञान गहीजे। ततिं बद्ध धारणा कीजे ॥
दो सदस पांच सो बानवे माघा । तिहि पहंवाव सुमात्रा ॥
इ।त
अथ समाधि वणेन-चौपाईं
अघम योग समाधि क्व सौ धारणा तदो पहं चवे ॥
पांच सहस एके सो चौरासो । माचा धारे शंकं विनासी
द्वितिये चिता द्र पराई तृतिये क्प हृष्टि प्रिय आई ॥
चौथे यह् चितवनि त्यागे । पच मोहि तोहि भेद न रमे
छठे नदिं क्कु रहा द्राई । सत्ये आप अपम छई ॥
तू मोहम तोहि माह समाई । जीवहि शिवकी मे एकताई ॥
सहस गिरा इत भाषे येही । जीअत सश्च त्याग जब देही ॥
सहज समाधी ज्ञात बखाना । प्राणवायुं तह लों परमाना ॥
एक सहस्र सत्तर अङ् दोहं । माजा लों जब निजवश हो ॥
ताको संयम नाम उचारा ४ अशं योग॒ निरधारा ॥
इ।त
अथ षट्चक्र भेदनकी युक्ति
दोहा-षट् चक्षरको भेदके, योगी जन चडि जाय ।
गगन गुफामे बासकर, आवागमन नशाय ॥
चोपाई
अब षट् चक्रको करो बखाना । मूरद्वार प्रथमे कहि गाना ॥
मूल द्वार कमर जो अहह । नाम अधार चक्र सो कई ॥
पाखुरि चार सो कमल विराजा । कृषा गने करे तिहि काजा ॥
गुदासे पानी सेवन लागे । खच खेच ज पुनि तिहित्यागे॥
यहि विधि य॒दा श्युद्ध कर जोई । बस्ती करिया नाम सो होई ॥
( ७२ ) बोधसागर
पुनि ऊपरको पौन चटाई । द्वितिये भेदन करे उपाई ॥
जो अधार च्छरके उपर । स्वाधिष्ठान चक्र है दूसर ॥
खग भूमिका परसों अहं । षट्दरु कमल तासुको कई ॥
पोनके बरु गुदाचक बधाई । स्वाधिष्ठान चक्रपर जाई ॥
स्वाधिष्ठानके भेदन काजा । द्वादश अंशुलको गज साजा ॥
सो गज खगम देत चलाई । खिगद्रार तिहि शुद्ध कराई ॥
अह गज करत क्रिया कँ लावे । बहुरि खगे दूध पिव ॥
ख्गिते सहतको खच जबहीं । गजकी क्रियापूर्णं हो तबहीं ॥
पोन खेच पुनि खिगके द्वारा । स्वाधिष्ठान बेधि चर पारा ॥
बहुरि अपान समान भिलाई । धोती क्रियाम तव मन लाई ॥
मणि पूरक चक्र जो कहं । नाभी द्वारेमे सो अदई॥
दश दरु कमल तासु परमाना । ताके मेदनको मन ठाना ॥
दो अगु पट चौडा लीने । अङू नौ हाथको खामा रीजं ॥
लीरे ताहि वख्रको सारा बहरिकाटि तिहि मैखनिकारा॥
तीन बार एेसी विधि सारा । बहुरि काटि तिहि मेरखनिकारा।॥
तीन बार ेसी विधि कीजे धोती क्रिया सो पूर्णं कीजे ॥
नाभिते बहुरि पौन उलटाईं । मणि पूरक चद्छर मेदा ॥
फेरि अपान पान जो दोई। मेरे प्रान माह तब सोई ॥
अनद् चक्र मेद॒ तब जाई । हदय स्थान माह जो पाई ॥
बारह पखुरी ताकी दोहं । हदये मध्य कमर सो जोई ॥
ताकी सिद्ध हेत जो दीशा। कुंजर क्रिया करे योगशा ॥
तीन बार भल पानी पीजे। पुनि पुनि सो उख्टीकर दीजे ॥
सवा हदाथकी दातन छना । भीतर नाड चलायसोदीना ॥
बार बार पानीको पीना। दातन डारि छोड पुनि दीना ॥
ताकी सिद्ध पणं जब लिये । कुंजर क्रिया नामसो किये ॥
आगमनिगमबोध ( ७३ )
बहुरि पौनको लेह उगईं । अनदद् चक्र भेदिके जाई ॥
प्रान अपान समाना. तीनों । कण्ठय तिनहि मेटि तब दीनो ॥
चक्र ॒विद्युद्ध कण्ठके म्राही । षोडश दर है कमल तोही ॥
योग ठषिका तादित करना । दूष अघार ते काया धरना ॥
सुक्ष्म बोलते कारय कीजे । युनि तव देसी जक्ति गदीजे ॥
जीभके हैरकी नस जौ सगरो । मस्का संधो खोनसे रगरो ॥
जीभ दहन पनि प्रातहि काला । या विधि रसना करो विशाल ॥
ठेसी अपनी जीम बढ । ऊर्वं द्वारम ताहि कग ॥
जरम अमृत चवे जोई। ताको पान करे तव सोई ॥
पीत अमृत जागी देहा । योग रंविका सिद्धभो येहा ॥
बहुरि विद्ुद्ध चक्रकी भाना । आगेको तब करे पयाना ॥
अभि चर दै रकुटी थाना दरे दख कमल ताञ्च परमान ॥
ताहि तनेती क्रिया कराई । बत्ती निजं नासिका चलाई ॥
नाकं शुद्ध करि वत्ती कीता । मूर्द्धा शुध भो ज्ञान गहीता ॥
पुनि उद्यान महा सुख पावे । बहुरि कण्ठते पौन उठे ॥
चक्र विद्युद्ध मेद जब खव । अभि चक्रमे वाय खव ॥
तिहि ओसर जिह्वा केजाईं । उर द्वारे माह र्गा ॥
बन्द करे तब उर द्वारा । अगरी च्कमभेदि हो पारा ॥
चलि ब्रह्माण्ड श्वास लय दोहं । कुंभकं करिके त शिथरोई॥
काम अरु कोध लोम मोहानी । तब इन सबकी सेन परानी ॥
कर॒ ब्रह्माण्डमे योगी वासा । जबहिं चटायो गगनम श्वासा॥
जह निं यस नहीं जदं राती । नहि सूरज शशि उड़गणपाती॥
तदं सुषुमना_ वेधि ब्ह्माण्डा । गडा जाय योगीके ण्डा ॥
जब ॒ब्ह्माण्डमे माहरम जाई । सङ्गी साथी सकट परा ॥
सद्धी साथी जब रहि गय । नि्वकर्प योगी तब भयऊ ॥
इति षट्चक्रं
( ७४ ) नोधृसागर
अथ दो पकारकी समाधि वणन--चौपाईं
दोयं भकार समाधि कीजै । सविकल्पो निर्विर्प गनीजे ॥
जो सविकर्प समाधि कडावि । ज्ञाता ज्ञान ज्ञेययुत ध्यावे ॥
चिषुटी भान सहित जब सोई । ब्रह्म बीच वृत्ती क्य होई ॥
खा सविकल्प समाधि कहाबे । निविकस्पको अब कहि गावे ॥
चिएुदी भाय रहित वृत्ती जब । ब्रह्मानन्द हो निर्धिकर्प तब ॥
जो सब करपको साघना जाने । निविकर्ष फर् तासु बखाने ॥
निविकर्प सखो पति दोईं । यतनो भेद ॒दोहूमे होई ॥
निविकल्पमें ब्रह्मा नन्दा । सुषुपतिमे अज्ञानको फन्दा ॥
निविकल्पमे चार द बाधकं । तिहि सचेत रह चातुर साधक॥
प्रथमे ख्य॒ विक्षेप बहोरी । पुनिकर अरशा स्वाद् कहोरी ॥
आलस निद्रा जब सरसाना । वृत्ती होय सुषुप्ति समाना ॥
ब्रह्मानन्दं भोग नदिं भोगी । सजग होहि तिहि ओसर योगी ॥
आस निद्रा दूर हटाई । फेरि वृत्ति निज रहि जगाई ॥
दवितिये पुनि _ विक्षेप बताई । वृत्ती जवे बहिर रै जाई ॥
कट पदार्थको कारण जाई । अन्तर वृत्ति बहिष॑ख होई ॥
हो सचेत योगी तिहि काल् । वृत्ती बहिरंतर शख बाला ॥
त॒तीये राग देश जो दोई। नाम कषाय कहां छे सोई ॥
राग द्वेष विधि कदो बखानी । यक बाहर एक अन्तर जानी ॥
बाहर धन दारादिकं शोचा । अन्तरकी चिता मन पोचा ॥
भूत भव्य चिन्ता मन आई । योगीकी समाधि विनशाई ॥
चोथे रसास्वाद अब भाषो । एेसे अर्थं तासुको राखो ॥
ब्रह्ानन्दते सुख अनुभव्र कर । दुख निवृत्तसे दय सुख भर॥
यू योगम विप्र॒ बताई । जबर नर्द निज प्रीतम पाई ॥
चितकी पच भूमिका आदी । प्रथम ज्ञेय नाम कंद तादी ॥
आगमनिगमबौधं ( ७५५ )
द्वितिये मूढता नाश कहिं । तृतिये को विक्षेप बतावै ॥
चौथे पुनि एकाग्रता दोह । पचम भूमि निरोधक होर ॥
अर्थं ताञ्च यहि भनि जाचना । लोकं बाना देव बासना ॥
शाल बासना आदिक जोई । क्षेप नाम ताहीको होई ॥
निद्रा आसना तुम युन षेरे। नाम ब्रूठता ताको 2ैरे॥
बाहर सुखवृती जब होई । नाम विक्षेव कवे सोहं ॥
चित्त एकाम होय जेहि बारा । ठकायता नाम सो धारा ॥
बह्माकार जवै ह जाई । ताको नाम निरोध बताई ॥
जो योगी निज वित्र इटावे । बरह्मानद सोई ख पै ॥
योगीको सब सुखसुरसवे । ज्ञान बिना वै युक्तिं न पावे ॥
केवस ज्ञान उगे जिहि बारा । तब योगी हौ बह्याकारा ॥
अष्ठ सिद्धि नौ निदि विराजा । योगी संगसकर्खं साजा ॥
इति समाधि
अथ ओंकार जापको वर्णन-चोपाईं
उकार जप सबको सारा। जिहि योगी परधामपधारा ॥
ऋद्धि सिद्धि यण ज्ञान काये । उन्कार भव पार कराये ॥
जो कोई शुद्ध जाप मन खावें । सकल पदारथ ताते पावे ॥
जाप अञ्जुद्ध करे जो कोड । वृथा परिश्रम ताको होई ॥
पु जने जिहि ओसर बाला । होय टेढ शिद्युजोतिहिकाला॥
जौँ बालकं सीघे नरि अवे । तौ निज मात परणबिनशवे ॥
उभ्कार जप ठेसो जानी । शुद्ध जाप बिन जिवकी दानी॥
जब इद्विनको वशकरि रीजे । ताको कल्प समाधि कीजे ॥
मन इदिनिको भूत काव । मनको बहुरि अकाश बता ॥
पुनि आकाश तीन विषि भाषा । चिदाकाश प्रथमे कटि राखा॥
मनको चिदाकाश कहि गाये । नभ समान चहुं दिशरदछाये॥
( ७& ) नोधसागर
जैसे नभको अन्त न कों तैसे मन अनत रै सोई ॥
द्वितिये सनाकाश करि रेरे। बह्माकाश नाम तिहि केरे ॥
ब्रह्माकाश करै इमि तेही। ब्रह्म सो व्यापक हैमन येदी॥
सवैसमयी जिमि ब्रह्म विराजे । तेसे यह मन सबमं गाजे ॥
तृतिये भूताकाश बखाना । मन अङ् बह्मते करे भिखाना॥
सनाकाश अर् भताकाशा । ताते ह् दोय प्रकाशा ॥
ब्रह्म दोउते पार बहता) थूल देह वासनाके सूता ॥
अविधि बासना करो बखानी । सत रज तम गुन ताको जानी॥
जब रजगुन तम गुण चरु जाई । शुष्म देह जीव तब पाई ॥
दोहा-यहि विधि सुक्ष्मता रहै, तन शूरता नशाय ।
जिदहि ओसर यहि शुन गहै, जीवन शुक्त कहाय ॥
दोय प्रकार समाधि कह, यकं चेतन जड एक ।
योगी भवसागर तरे, निज बर बुद्धि विवेकं ॥
इति
अथ अथर्वण वेद् योगत उपनिषद-चौ पा
सबते श्रेष्ठ विष्णु कदरवे । सोऊ योग समाधि रुगावै ॥
सदा योग मारग आचरदी । परम पुङ्ष ध्यान सो करी ॥
सो प्रकाश सब घट घटमारीं । तिहि चितवनी करं नर नादं ॥
भूखिविषय रति प्रथुदिविसारी । यदी अचंभौ मो मन भारी ॥
वस्तु अनित्य जासु मन भावे । महा भट सो जीव कावै ॥
पुत्र हो दूध जाय थन पीये । तकूण सुखीतिहिकरगदिीये ॥
यद्यपि जान भित्र तिय देही । तद्यपि जान पयोधर येदी ॥
जाहि द्रारते बाहर आवत । एेसो दख सदा नर पावत ॥
तामे पुनि पैठत सुख माना । कैसे भरे नर भिन ज्ञाना ॥
जाहि हपको जननी कहते । सोई निज दारा करि कडते ॥
आगमनिगमबोध ( ७७ )
कब जिहि निजपिता पुकारी । साहं हप निज भरता भारी ॥
निज मन माह बिचारिके देखो । पिता सोह प्रकटा सुद चेखो ॥
रहटा कूष डोची जैसे । अव जाय जक्त॒ यह तैसे ॥
यकं भरि अवे दूजा रीते । देसी भल माह जग बीते ॥
सुक्तिके मारगको नहि दंगा । चखां गाह षरा जम भ्रूटा ॥
ओंशनब्द हरि मजनके काजा ) तामे अक्षर तीन विराजा ॥
तिहि अक्षर तिह लोक बखानो । तीनों वेद॒ भिवेद् हि मानो ॥
अर्थं रेफ अच॒नासिक होई । सबसे सार जानिये सोई ॥
तनमे प्राण परवानयं सोना । तिर्य तेर धृत दधसे होना ॥
कल्म यथा सुगन्ध समाई । तैसे सार ताहि बतलाई ॥
ञजकारके अक्षर चारी । ताको किये अथं विचारी ॥
प्रथम अकार हि अ््मा जानो । दितिये ओंकार विष्णु पदिचानो
ह्दहि जान मकार स्वरूपा । ना निर्वचनसो ज्योति स्वह्या॥
बहुरि अकार ऋग वेद अदृईं । यजवैद ओंकारहि कईं ॥
सामवेद कह जान मकारो । अनिर्वचन नन्ना चित धारो ॥
तृतिये जाग्रत जान अकारा । स्वप्र अवस्था भाष ओंकारा ॥
फेरि मकार सुषुप्ती गाईं।नत्रा शूप जान तुरियाई ॥
चौथे पुनि अकार सृत लोका । मध्य् रोकं ओंकार बिरोका ॥
स्वगंको रोक मकार प्रमाना । तिहते प्र नकार बखाना ॥
पेचये मन कहं जान अकारा । ओ चितना बुद्ध माहकारा ॥
पुनि छययं बह्मच्यं अकारा । ओ गरदस्थको नाम पुकारा ॥
मम्मा वानप्रस्थ प्रकाशा । नत्रा जानि रेह संन्यासा ॥
सत्ये अकारदिरज शन भनिये। ओ सतमाको तम युन गनिये ॥
अग्ये अकार ज्ञान थीरता। तीनि ओकार मकार वीरता ॥
नत्रा न्याय कियो परमाना । नवम अकार कम करि माना ॥
नं. १० बोधसागर - ९
( ७< ) बोधसागर
पुनि कड् ओ उपासना सारा ' मम्मा ज्ञान नन्ना सब पारा ॥
ॐ कारको अथं अनतो । वणेन कौन सकै करि संतो ॥
प्रवण आदि सबहीको भाषा । ताते ओर अनेकन शाखा ॥
सन स्वरूप असं जो उरबासी । अधरकमल समताहिकप्रकाशी।॥
कमल नार ऊपरको राखा । हेठको ताके अुखको भाषा ॥
ताके बीच साह मन रहे । पावन होय प्रणवं जब कई ॥
प्रथम हि अक्षरके उच्चारे मनकी उज्ज्वलता जिव धारे ॥
द्वितिये अक्षरते दिर खिता । अनहद शब्द गगनसुनि सिरुता॥
चौथे अधं बिंदु बतखाई । ताते ज्योति माह मिरुजाई ॥
जब यह मन मलते बिल्गाना । होय शुद्ध बिदौर समाना ॥
सूरते अधिकं सूर जग मगई । परव प्रकाशमान तब कूगई ॥
दोदा-कोध आलस निद्रा बहुत, बह भोजन बह जाग ।
फाका करनो ८ षट्, योगी दीजे त्याग ॥
पाड
यहि विधि तीनि मास जब साधे। अंतर प्रे न मनको बास ॥
तृतिये मास हो सह गति वाकी । देव दृष्टि सब अपि ताकी ॥
मास पांचमे यह युन पावे । देव स्वषूष आप हं जावै ॥
छर्टये मास मिरे इरि मादी । प्रणव साधना सदा कराही ॥
अथ अथर्वेण वेद योगसुखा उपनिषद--चौ पाईं
प्रथम हि पद्य आसनको मारे । बेटि एकत ध्यानसो धारे ॥
द्वितिये नासा आगे देखे । टरे न दृष्टि ध्यान करि रेखे ॥
तृतिये दोड कर पग कह जोरी । चौथे मनको लेह बटोरी ॥
विषय बिकल्प अर् संशय कोई । मनके निकट न आवे सोई ॥
पचम पावन प्रणव को ध्याईं । छरये नामी सुरति लगाई ॥
सप्तम निज मन माह बिचारी । अश्चि बस्तु मादुष तनधारी ॥
आगमनिगमबौध ( ७९ )
तौन देह त्र् भौन बताये। तामे थम्भा चार लछगाये॥
एक बृड तीन थ॑म लघु साजे । पांच देवता नौ दरवाजे ॥
पृष अस्थि बड़ थंभ पुकारी । ताके निकट सुषुभ्ना नारी ॥
लघु थम्भा जो तीन कहाये । सो स्त रजं तम युन बतलाये ॥
पंच प्रवण सुर पांच उचारी । तेहि देह जिव गेह सवारी ॥
मनके र माहचित धारो । चयं मंडलाकार निहारो ॥
तेहि रविमंडर प्रणवं सिरेखो । प्रणवमें दीप शिखा पुनि देखो ॥
दीप शिखा उरध दिश जानीं । ज्योति स्वह्प ताहि अुमानी॥
तामे निज ध्यान दाहं । इमि योगी तन तजि तहँ जाई।॥
रवि मंड भनि शक्ष्मनि नारी । गेह पन्थ ब्रह्य रंधको कारी ॥
तन तजिके योगी इमि जारी । परम युङ्षके ह्व स्माह ॥
देसी युक्ति गहे सुख पागी । आलस निदा वश इर्थागी ॥
छन छन एेसी युक्तिको गदिये । यही -उनिषद देखत रहिये ॥
जो यह् थुक्रिति न हरदम होई । निश्चय तीन कारु कर सोई ॥
भोर मध्य दिनि सायंकालखा । नितप्रति गहि खीजे यह चाख॥
इति
अथ अष्टसिद्धियोके नाम चोपाई
प्रथमे अणिमा नाम कहावे। ताहि लहे लघु देह बनावे ॥
द्वितिये महिमा को बखानी । निज तनकी दीरचता ठानी ॥
तृतिये धिमा जो लदहिपावे । सो अपनो तन इड बना ॥
चौथे गरिमा नाम भनीजे । जो रहि निज तन भारी कीजे ॥
पंचम प्राप्ती नाम बतावो। सो रहि जह चाहो चर्जावो ॥
पुनि प्रकामिका छ्य अहई । जाते निज मनोरथं सब दई ॥
सतयं ईशता नामकं होई । जापर चै आप बड हो ॥
(८० ) बोधसागर
अस्ये वशियौ नाम कहाई । जेहि चाहे तिहि देत भ्रमाईं ॥
आयो सिद्धिमे मेद अनेका । जानि योगी सहित विवेका ॥
इति
अथ नव निधियोकि नाम
दोहा-महापद्य अर् पड्म कट, कच्छप मकर सुकुद् ।
खबं शंख अङ नीर कह, नवम कंडावे कुंद् ॥
दति
अथ योगी भेष वर्णन-चौपाईं
शरी सिगी समुद्रा काना भगवां व्ल विभरूत है बाना ॥
योग युक्ति साधन भल राखा । अजपा जाप जपे गति भाषा ॥
् क०भा० प्रकाशसे
इति भी आगमनिगमनोध समाप
श्रीवोधश्ागर-
सुमिरनबोध
ननवि--ॐ © गद्य
भारवपयिक कृबीरर्थथी
स्वामी श्रीयुगलानन्द् द्वारा संग्रहीत
= |
मद्रक व प्रकाञ्चक
गंगाविष्ण ू
भष्वक्ष-। ( लक््मीषेङ्करेश्वर ११ स्टीभ्-मरेस
कल्याण-चम्बह
=-= जः
भुवद ददि वर्बाचिकार “भोषदरेरवर” मुधमयन्त्रालथाच्कश्तके जीन टे।
सत्यनाम
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९२१५१
| |
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श्री कबीर साहिब `
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सत्यमुकृत, आदि अदली, अनर् अचिन्तपुसष
धनीन्द्र, कस्णामय, कबीर, घरति योग, संतायनः
धनी धर्मदास, बूरामणिनाम, दशन नाम,
कुलपति नाम, प्रबोध शस्वालापीर, केवल्नाम
अमोल नाम, युरतिसनेही नाम, हक्नाम
पकिनाम, प्रकट नाम, धीरन नामः
उग्र नाम, दयानामकी दया, बच
न्याठीसकी ट्या
अथ श्रीबोधागरे
सुमिरनबोध भारंभः
(छोटा )
चतुर््खिशस्तरद्गः
प्रथम बोध
( नित्य कमं षटकमं विधि वणेन ) सुमिरन आदि गायत्री
आदिगायत्री उमिरण सार । सुमिरन ईस उतारे पार ॥
कोटि अगसी घाट दै, यम बैठे तहं रोक ।
आदि गायत्री समिरिके ई॑सा होय निशोक ॥
(२) बोधृसागर
चाटी नाकि आगे तब जाई । सकल दूत रहे पछताई ॥
आगे मकरतार रै डोरी । जहां यम रहे शख मोरी ॥
ओह सोहे नामके, आगे केरे पयान ।
अजर लोकं बासा करे, जगमग दीष स्थान ॥
सुख सागर सान करी, होय रसका शूप ।
जाय पुरूष दशन करे जिस दिन परम आनन्द ॥
आदि गाय्री सुमिरिकि, आवागमन नसाय ।
सत्य लोक बासा करे, कँ कबीर संमञ्ञाय् ॥
सुमिरन ध्रभात गायत्री
अआ।दिगायतरौ अभ्मर अस्थान । सोहतत्व ठे हसाखरोक समान ॥
सत॒ गायत्री अजपा जाप । कहै कबीर अमर घ्र बास ॥
सत्य दै अमर सत्य है अन्य । सत्यदिमे कड पाप न पुण्य ॥
कटे कबीर सुनो धमंदास । यह गाय्री करो प्रकाश ॥
सुभिरण मध्याह्न गायन्री
अचित पुरूष दिरम्ब छाया । नाद विन्द होय कर्ता आया ॥
यमसो जीता रोकं पटाया । सुरति स्नेही हंस कहाया ॥
अचिन्त पुरूकी गायजी, दीन्द कबीर बताय ।
निशिदिन सुमिरण जो करे, करम भरम भिरि जाय ॥
सुमिरण सन्ध्या गायनी
बारइ जोजन कोट, यन्त ज पल्मे छूटे
यदि विधि सन्ध्या जपे, भर्मको आगम दूरे ॥
गायनी ब्रह्मा जपे, जपे देव महेश ।
गाय्नी गोविन्द् पटे, सतशुरूके उपदेश ॥
ताको काल न खाय, जो संज्ञा चीन्हे।
चरमे रदी अलोप, काटि हम बाहर कीन्हे ॥
तुभिरनवबौोध ( ३)
इन पर ठे सिद्धौ भनी, देव प्रजा गो शरीर ।
बरना वाचा पु दास्, चपलान् उबर इसनी शरीर ॥
शब्द पाय हिरदय धरे अस कथिक है कबीर । `.
ई षुमिरन मध्य। ज्ञ गायत्री
कदे कवीर अजपा घटे सूञ्धे । निगम नाम मोहि जो ब्ूञ्े ॥
तन मन धनर निखछावर् करे । सार नाम॒ गहिभौ जङ तरे ॥
अष्ट सिद्धिनौनिद्धिमागेसोदेडं । खुरासानखुरवेद्चखगेगाम्रवाड ॥
रिष सिप मार ग्र तराई नीयुनघरजाञ्चरतिपरकरटहोवसुञ्चे॥
खौजो सरति कमलके तीर । सतर मिरु गये सत्य कषीर॥
सुमिरन सोनेका
संयम नाम सदा चितलाई । जासों कार दगा मिरिजाई ॥
काल दगा धरि आते भेखा । जीव उक धरतीकी रेखा ॥
सोवत समय जो मारे तारी । सृत ॒सुज्ृतं केरे रखवारी ॥
कहै कवीर _ बकेन ञ्चा । सोवत जीव् नण्ट नहिं जाई ॥
अम्र पिछीरी ओदिकै, सुख मण्डलम सोय ।
कबीर एसे ङ् पाइके, कहा भक्तिको रोय ॥
उत्तर करो सिराना, पिम कीज पीठ ।
करै कबीर धम्मदाशसों, यमकी लगे न दीठ ॥
सुमिरन भरातः उठनेका
जो स्वर चङे प्रात _ संचारी । सोय पग धरि उठो संभारी ॥
दिवस समस्त इषं सो बीते । जहां जाय सो कारय जीते ॥
पुहमीमे पग दीजिये, सनो सन्त मति धीर ।
कर जोरे बिन्ती करो, दशन . देह कबीर ॥ `
सुमिरन दिशा जानेका
अत्न सकर तन पोख, शब्द ॒घुरति सो पेख ।
सुक्ष्म रुगन उतारो, काया निमंल होय इमार ॥
५.) बोधसागर
कहै कीर यरी तत्सार । चौरासी सो जीव उवार ॥
सुमिरन सरुद्वार धोनेका
खुरतिसंतोषसूमसजबभयाउतार । बयेकर परसे जर्टार ॥
सतशगुङ् शब्द गहोमति धीर । कै केबौर होय पाकं शरीर ॥
सुमिरनजरूपात्रका
धर्भराज चै तुम्हे बुञ्चाॐ। जरु पच्रका भेद बताञ ॥
जलपा्रको गदहिके, उत्तम करो बनाय ।
कं कबीर निर्म भये, संशय रम भिरिजाय ॥
सुमिरन तबा प्रक्षारनेका
तत्ततत्तका तबा, शब्दे छियो समोय ।
कै कबीर धमंदाससों, तबा निरमरू होय ॥
सुमिरन हाथ षरिआवनेका
मारी खाक मादी पाकं मादी चै मारी गरपाक ॥
कहँ कबीर इम शब्द सनेदही । सत्त शब्दसों षाक होय देही ॥
मृत्तिका ख्व हाथ लगाई । अजर नाम सुमिरो चितखाई ॥
मृत्तिका लीन्हों हाथमे, निमंर भया शरीर ।
कमं भम सब मेरिके, सुमिरो सत्य कबीर ॥
सुमिरन दातौन तोरनको
धन्य वृक्ष जिन दातोन दीन्हा । साधर संतर दाया कीन्हा ॥
दाया कीन्ह भया प्रकाश । रक्षा करे कबीर ध्म्मदास ॥
सुमिरन दातौन करनेका
सत्तकी दातौन संतोषकी आरी । सत्त नामरे घसो विचारी ॥
किया दतौन भया प्रकाश । अजर नाम गहो विश्वास ॥
अमी नामते पचे आय । कँ कबीर सतोकं सिधाय॥
तुमिरनबोध (५)
तुमिरन दातौन फारनेका
फटी दतौन भया प्रकाश । अजर अमर कषीर धर्मदाश्च ॥
हुमिरन शख धोनेका
मुख परसे श॒क्तायनि वासा । जिनके प्रसत लोक निवासा ॥
ठै जल मुख माहि चढवे। अगम्बुन नाभ हिरदे लले ॥
कहँ कबीर सुनो धर्मदास ! सो इसा सतलोक निवास ॥
हुमिरन अमरि उतारनेका
अमरी अमर ठोक. सो आईं । तीन लोकम निभये भई ॥
तन शोधो मन राखो धीर । अमरी उताशे खारी नीर ॥
कै कवीर अमर भई काया । निज शब्द अमीक्ा आया ॥
सुमिरन जल्मे पेठनेका
जो साहब दाया कर पाऊं । केर वन्दी जर याज्ञ समा ॥
पान निहपान सतश् शब्द परमान
सुमिरन स्नान करनेका
अमी सरोवर ज्ञान जल, ईसा पेठ नहाय ।
काया कंचन मन मगन, कर्मं भम सिरिजाय ॥
पडे सो जद्मडे जान । मान सरोवर कर कषान ॥
सोहं ईसा ताको जाप । कटै कबीर पुन्य नहि पाप ॥
केसी विधि करे क्नान। सोहसा सतलोक समान ॥
सुमिरन ज्ञान करके बन्दगीकेो
नहाय खोरके शीश नवाई। अल्ख पुरुषके दर्शन पाई ॥
अमी शब्दको कीजे जाप । कै कबीर अमरघर बास ॥
सुमिरन शोपीन परहिरनेका
पारा राखे शङ् हमारा ।
बारह बरष की कन्या आहं । उल्टा पारा रद्यो समाई ॥
( & ) नोधसा गर
ऊषर बन्दी छर विराजे षारा खसे तो सतश॒ङू राजे ॥
खत्तकी कोपीन बजका धागा । गङ् प्रतापसो बन्धन लागा ॥
कहै कसीर तजो अभिमान । पारा खसेतो सतश॒शूकी आन॥
सुमिरन जर भरनेका
जीव जन्तु सब दूर पराऊ, भरिदौ निर्भर नीर ।
इत्या पाप लागे नहीं, रक्षा करं कबीर ॥
सुमिरन जठ छाननेका
अग्रत जल निर्मल कर छाना । सतशङ् साइवके मन माना ॥
कहै कबीर भरम सब भागा । टूटयो जवे पुरानो धामा ॥
| सुभिरन तिक करनेका
तत्त्व तिरक तिहुँ रोके, सत्त नाम निज सार ।
जन कबीर मस्तकं दिये, शोभा अगम अपार ॥
पार कोई विररे पवे। पार पातवै सो संत कात ॥
योगी संकट बहुरि न आवे । करैं कबीर सतलोकं सिधावे ॥
सुमिरन दर्पण देखनेका
द् पेणमे मुख देखिये, कबहीं न दोय चितभंग ।
गुङूको बचन संतकी सेवा, चटे सवाया रंग ॥
सुमिरन चरणामृत महाप्रसाद पानेका
चरणामृत महाप्रसादजो लीन्हा । सत्य शब्दका सुमिरन कीन्ौ॥
अधं उ्धं मध्य धर ध्याना । कं कबीर सो संत सुजाना ॥
सुमिरन चरणामृत देनेका
हो साहब म बिन्ती लाॐ। कोन नामते षग पखराॐ ॥
द्दिने पग प्रथम दी जलनावे । बरु हमार सो पग पखरावे ॥
शब्द सार निर्मोलिक सारा । पग पखराओ ईंस हमारा ॥ ¦
यहि विधि पग पखराओं भाई । दगा धोख सब दूर पराई ॥
तुभिरनवोध ` ( ७ )
साखी-अजर नामको शुमिरन, चीन्है हंस हमार ।
कहैं कबीर धर्मदास सो, शीश न आवे भार ॥
तुमिरनमहाप्रस्राद देनेका
पके अत्रको असन कीजे । पांच तच्वको भोजन दीजै ॥
जवे जीव ममि प्रदं । अजर नामको कीजे याद् ॥
एकं रवा हाथमे खेवे। महाप्रसाद दासको देवे॥
महाप्रसाद एकं धनीको, जाको सब विस्तार ।
मुरख लेख न षवे. कहँ कबीर बिचार ॥
सुमिरन महाप्रसाद पानेका
एक रवा हाथमे लीन्हा । उयनामका सुमिरन कीन्हा ॥
महाप्रसाद एसी विधि पवें। यमकीं दसी निकंट नहिं अवे)
उम नाम हदय लौखाई। एेसी विधि प्रसादं जो पाई ॥
साखी-कहैं केवीर धर्मदाससो, महाप्रसाद जो खेय ।
काल दसी सब टे, यमदि चुनरी देय ॥
तुभिरन चरणामृत पानेका
चरणामृत शिष्य जो ठेई। अम्बुज नाम इदय चित देई॥
लागे नहीं कालककी छदी । चरणोदकं जो डेय सहाई ॥
ठेसी विधि चरणोदक रेह । यमि चुनौटी निसिदिन दे६॥
ले चरणोदकं माथ नवव । तीन दण्डवत तब पहंचावे ॥
साखी-करैं कबीर धमंदाससो, यह शिष्यको व्यवहार ।
दगा धौख सब मेटो, रस उतारो पार ॥
सुभिरन जलठ्पीनेका
उत्तम शीतर निंर नीर। अमृत पिय तिरषा गईं दूर ॥
सत्य् मिरु गये सत्यकवीर । भागो कार विषमके तीर ॥
१ बोधसागर
सुमिरन घर बुहारनेका
सुमति इुहारी केर गहि रीना । कचरा कुमति दूर कर दीना ॥
बावन लाख दगा मिरि जाई । साहबकबीरकी फिरी दुहाई ॥
सुमिरन घर पोतनेका
हरियर गोबर नि्मरु पानी । चौका पोते सुकृत ज्ञनी॥
सवा लाख चूक बकसये । चौका पोत जेवनार चटाये ॥
कहे कबीर सुनो धर्मदास । दसा पहचे पुरूषके पास ॥
सुमिरन चल्हामं अग्नि बारनेका
चरहा हमारे चोहट, सब धर तपे रसो ।
संत सुकृत भोजन करे, हमको कत न होइ ॥
सुमिरन रसौई बनानेका
सुत सुकृत कीन्हा जेवनारा । ताते करत न रगे बारा ॥
सतघरी दो पहरि यां सांञ्ा । लक्ष्मी बेदी रसोई मांञ्जा ॥
सत्त पकवान लक्ष्मी करे । तीनलोकका उदर भरे ॥
कदे कबीर लक्ष्मी सभुञ्चाय । संत ॒सुहेखा बैठे आय ॥
सुमिरन थारी परोसनका
चन्दन चौका कंचन थारी । दीराखारु पदुमकी री ॥
बहुत भांति जेवनार बनाये । प्रेमप्रीति सो पारस कराये ॥
सत॒ सुरेखा भोजन पाई । सत्तसुक्रत सतनाम गुसाई ॥
सुमिरन प्रसाद अपणेका
संत समाज धरती स्थूला । प्रसाद चटावें धर्मं निर्मूला ॥
ओट साक क्षमाके दीन्हा । सोई शब्द जो पावे चीन्हा॥
नीर निरंतर अन्तर नेद । शब्द् अगाधजो लागे देह ॥
कें कबीर चितजित जनि उरो । नाम सुमिरि जर अर्पण करो॥
तुभिरनबौध | (९)
तुभिरन अचवनं करनेका
कृरि प्रसादजल अचवन कीन्हा। अचवन करिके खचां टीन्हा ॥
दूत भूत सब गये प्राय । जब देके सतगुरुके पाय ॥
हुभिरन पाकर बन्दगी कृरनेका
बारी तेरी बलरई, पल्म सो सो बार ।
सदृग् मोपर गाया करो, साहवकवीर सिरजनहार ॥
घुभिरन सुपारी मोरनेका
सेत सुपारी मोरके, अमीअकं लोलाय ।
करैं कबीर धम्मदाससे, ईस लोकको जाय ॥
सुमिरन पान चानेका
गुरूकबीरने बीरा. दीन । हंस बचाय कालसो कीन्हा ॥
सत्य लोकम बैठे जाई । सत्त सुकृत जहं पाप राह ॥
कहै कबीर जे हस उबारे। जरा मरण भव कष्ठ निवारे ॥
सुमिरन रोपी ठगानेका
तरे धरती उपर आकाश । चाद सूयं दोऽ पाट ॥
तेति कोट आगे पार। सोई जानो सतय॒शूकी हाट ॥
नौनाथ चौरासी सिद्धजीत ओघ बोध ।
धरमदासके मस्तक दीन्हा, कबीर विराजे साथ ॥
बादशाह एक खुटका, अखंड द्वीपके भूत ।
दुवश भूत बरह्माण्डके, सोई साधु य॒रुरूप ॥
| सुमिरन दीपक बारनेका
आदि अत एकं ज्योति है, स्थिरस्थीर ह नीर ॥
अवे सत्यकबीरके शब्दकी छरी । यम जालिमकी कारे गरी ॥
धमंदास कबीरके लागे पाई । बावन खखद्गा मिरि जाई ॥
(१०) बोधसरागर
सुभिरन आसन करनेका
सत्त पुरूषको सुभिरिके आसन करे बनाय ।
तापर इसा पोटई, कबीर घम्मदास सहाय ॥
सुभिरन कमर कसनेका
घमेदास कसना कसे नाम पान खियहाथ् ।
सत्यकबीर परै चावरीं, सकर सन्त छिय साथ ॥
सुमिरन रस्ता चर्नेका
शिरपर साहब राखिके चल्यि आज्ञा मोहि ।
आगे साहेब कबीर हांकदेत दै, तीनलोक डरना ॥
कागकागरे विकार कूकरामंजार । नाग नाहर दूत भूत बट षार्॥
सबको बांपि कबीर आन घाट के डार ।
घाट बाट बन ओघट मोहि खसमकी आस ।
मते चरे कबीरके कबहू न दोय निवास ॥
सुमिरन सात शिकारीका
अमीनाम, उद्धं नाम परिमर नाम, द्यावन्त, बालदीषं
सहज मूल अग्रमुनि सतनाम, सादबकं अमीनाम ) पुष्पं
सुगंधकंठकीसिलानिगम्यसुगंधयोगजीतनि्ेगमित ।
इति श्री षट्कर्म विधि नित्यकर्म सुमिरन
घत्ययुक्ृत, आदिअदटी, अनर अचिन्त, परुष
धुनीद्रः करुणामय, कबीर घरति योग, संतायन'
धनीधर्मदास्र उरामणिनाम, दशन नामः
कुलपति नाम, प्रबोध शस्बालापीर, केवनाम,
अमोल नाम, सरतिसनेही नाम, इक नाम
पाकनाम, प्रगट नाम, धीरन नाभ, उ
नाम, दयानामकी दया, वंश
उ्याटीसको दया ।
अथ प्रीबोधसागरे-
सुमिरनवाव बरारभः
पञ्च्बचिशस्तरङ्क :
द्वितीय बोध
(यरुआई विधिके सुमिरन) -सुमिरन चोकाके अजर गायत्री
अजर
गायज्री अजपान । अजर चौका अजर नाम ॥
अजर सिंहासन है परवान।
अजर थार भराये तहां । अजर पुरुष गवन किये जहां ॥
( १२ ) बोधसागर
अज्र नारियर सन्मुख धरिया । स॒ते सपारी आगे विस्तरिया ॥
छग इलायची जवां फरी । लोकी छग सोध बिस्तरी ॥
ज्ञान ध्यानकी केशर गारी ।
अम विचार परममत दिया । अमी अकं तामे कर छिया ॥
अज अमर पाटेबर ताना । अम्र सुगेध मों परवाना ॥
अजरपुरूषषेठेसिहासनसम्हारी । संग हस शोभा अधिकारी ॥
अजर आरती बहुविधि साजी । नानारंग तरंग विराजी ॥
उमगे प्रेम ज्ञान तह छाया । हंसा सोहेगम चौर दुराया ॥
उठे तरग बहत विधि बानी । अमी अभ्रतकाशसाहिसमानी ॥
दुविधा इरमत दूर बटाई । प्रीति मिडई थार भराई ॥
जगमग ज्योति रही ठदराई । परमर रसा रदो समाई ॥
मके तवां तूर अपारा । गरज शब्द चहँ ओंरे धारा ॥
चन्द्र सुर जदं गम् नदि पावा । सकल हंस वसन सुख आवा ॥
कंदे कबीर खनो धर्मदासा । यह छबिदेखतजगतदोउदासा ॥
हिम्मत प्रीतिसों आरती साजो । इत उत चित नेकं नरि राजो ॥
अञ्च गायत्री नामकी, येदी खक्तिको मूल ।
धमंदास दटके गहो, जदं अज्र अस्थुर ॥
राजद्वारे जिन को, पण्डित सुन करे वाद् ।
सो हंसा सतलोकके, टेहि शब्द परिचान ॥
अन्न गायत्री तमको दीन्हीं । एतीदयाहम त॒मपर कीन्हीं ॥
नादीं सुमिरन जिहा आवा । अधर निरन्तर ध्यानलगावा ॥
गायत्री मेद जाने कडिहारा । चौका निर्णय करे विचारा ॥
कहँ कबीर गायत्री कटसान । अजर अमर धरमूलटिकान ॥
सुमिरन अंशनके नाम बैठक पुजा
प्रथम कूप पीटपर चौका ।
सहज अशक वेठक मूलकरी । पूजा खडी सों चौका पोते॥
सुमिरनबोध (१३)
सुजन जन अंशको बैठक अग्रदीपः, पजा चन्दनको चरका ॥
भृद्रनि अंशकी बेठक मचल करी, प्रजा गादी चदिवा ॥
अंश पक्षपाटनकी बैठक पोहप दीप, पजा एल्माखा अमोघा ॥
अंश श्रवण लीलाकी बैठक जगमग दीप, प्रजा चोल्मा धोती ॥
अंश सर्वाग सतेकी वैठक अचिन्त दीप, पजा थारी कटोय ॥
भावनाम अंशकी वेठक उदै दीपः पजा दाख सहत ॥
सुतं सभाव अंशकी बैठक ज्ञानदीप, प्रजा बदाम मस्व अवीर ॥
अक्षर खभाव अंशकी वेढकं पाटंग दीप, प्रूना केरा फूट ॥
सन्तोष सुजान अंशकी बैठक अक्षय दीप, पूजा मिथि अष्टमेवा॥
कदल ब्रह्नाक बैठक सुखसागर दीप, पुजा खपारी हारा ॥
द्यापाल अंशकं बैठक आदि दीपः, पुजा आरी अष्ट सगन्ध ॥
जलरग अंशक बैठक प्रतार पांजी पूजा, पान खरचा माला ॥
परेम अंशकी बैठक अह्री दीप, पुजा धृत कषुर ॥
अष्टगी अंश्की बैठक मानसरोवर, पुजारिष्ट भोग विलास ॥
प्रथम चार चौका ताके मध्य सिदासन ।
पान मिष्टान्न नारियल पुरूषको भोग धृत पकवान ॥
उत्तर दिशा जम्बूद्ीप गुरु धर्मदास गोरो आरतीज्योतिभकाश॥
पूवं दिशा य॒रूराय बेकेज गोसाई कलश पांचौ वाती प्रकाश ॥
दक्षिण दिशागरु चतुथंनगोसोँईदलकी्चारी पांचपानखरचासाथ॥
पचिम दिशा गरु सहेते जी गोसाईं पासं न बशगादी ॥
इतनी विस्तार पुरुषसों ज्ञानी छ्मि ।
अपने. अपने स्थान वैशये । सब अंशकी लाग चकाये ॥
धमदास को सन्धि बताये। धर्मदास को नाम चुकाये ॥
पोडष अंश पान प्र॒ लीन्हें । युक्तामन सुरती की दीन्हें ॥
कहे कवीर सुनो धर्मदास ।यह भेदकडिहारसों कहो प्रकाश॥
(१४६) | बोधसागर
इतना सेदं कडार जो पावे । आप चले ओ जीव बचाव ॥
चभेराय रै चौका मारी । वह देखे सबके चतुराई ॥
खनो धघसदास चौका गुप्तरै। ताकी सन्ध्य प्रकट टै ॥
चार गुरूकी बैठक पूजा न्यारी न्यारी है ।
चार दिशा काये हेली । चार दिशा बादरेली ॥
एक एक गुरूके आठआख्पूजाहै । चार शुरूके बतीस साज ॥
एक एकगुरूकेसंगचारचारअशै। चार गुकूके सोरह अंश ॥
साखी-इतना मेद जो जाने, सो संचो कडिहार ।
इतना मेद नहिं पावे, तेहि छ्रे कारु बटमार ॥
चोकाबेढा एरक, गाफिर मया निशंक् ।
बिना भेद जो नारियर, मोर नाशिर चदे कृरंकं ॥
बलों काल हिडोरना, नदि जाने शब्दका तोल ।
कहै कवीर धमेदाससो, मम खारी प्रे न बोर ॥
सुमिरन वदी इकोत्तरी
अजर अचिन्त्यअकहअविनाशी। आदि ब्रह्मा अमरषुर वासी ॥
अदली अमी अनेहअजावन सोई। आदि नाम सत्य सुकते होई ॥
परमानन्द दै अखिल सनेदी । सत्य नाम तत्पुषं विदेदी ॥
निः कामी निर अक्षर सांचा । अजरअविगतसबहिनमो राचा॥
अमर अपार अनन्त अमेदा । अचर अचिन्त न जाने भेदा॥
अक्षय अगण अगोचर किये । अगमअरेखगदिसतवितरदिये॥
अभय आगाह अकथ बखाना । अम्बुज चरण ओ पुरूष पुराना॥
दीनबन्धु करूणामय सागर । दयासिथुं हसन पति आगर ॥
दीनदयारु सो अधम उधारन । दिरण्मय भवसागर तारन ॥
अङूप अथाह अनाहद राता । योगी जीत सबहिनके दाता ॥
करणा मय संतन सुखदाई । अभय अचिन्त्य नामयुणगाई॥
पुभिरनबोध ( 9५
सचिदानन्द सो सदा उजागर । योग संतायनयतिञ्चखसागर ॥
सुतं नामसों जपिये ज्ञानी । अमी अङ्कूर बीच सदिदानी ॥
प्रथम पुरूष सवहीके मला । अमीदीप नाम है अस्थूला ॥
आलख नाम पृ्षोत्तम गा । नाम शुनी सदा गहरा ॥
सर्वं मई साधनपति सोई । भक्तराज ब्ूञ्चो नर रोह ॥
सत संतोष सो सदा सनेदी । शब्दस्षहपी अविचल देदी ॥
प्राण नाकं पिब अग्रत बानी । सत्यलोकषति नाम बखानी ॥
सदगुरु जन्म निवारक जानौ । बन्दीचछोर निश्चय कै मानौ ॥
अवागमनके दुःख मिटावो । चौरासी लक्ष बन्द अुक्तावो ॥
शील दूष संतोष पियारा। र्मराय शिर मदन हारा ॥
सुक्तिदाता शीतल उनजियारा । नाम परायण भाण पियारा ॥
अस्थिर नाम अभयपद दाता । अक्षयराज नायकं विख्याता ॥
सत्यसाहैव कदो बहोर बहोरी । अक्षय वक्ष दिरामय डोरी ॥
पुटुपदीप मण्डप शु सांचा । हंस सोहंग नास बिच राजा ॥
सोहै शब्द नाम रै सारा । सत्यवचन बोले कडिहारा ॥
इच्छा खूप संत जन गावे । ज्ञानि बीज अमो कहते ॥
अबो अशोच असंशय धीर । नाम एकोत्तर करैं कबीर ॥
एकोत्तर नाम सुमिरे जो कोह । ताको आवागमन न होई ॥
नाम एकोत्तर सुमिरे जबही । सद्भर बेठे सिंहासन तबही ॥
आरती नाम एकोत्तर चहिये । एकोत्तर विनाननरियन गदहिये॥
आरती नाम एकोत्तर धारा । एकोत्तरी विनाकेसोकडिहारा ॥
विना एकोत्तर नहिं निस्तारा । कैसे निज मानो कडारा ॥
एकोत्तर नाम जने विस्तारा । सो जानो सांचो कडिहारा ॥
पांच नाम इनहीमों भाषा । सहज पक्ष पाखन है साषा ॥
सुतैसदजपालजरंगश्रवणहै भार । हंसनतिटखकणएकोत्तरिरेदोजाई)॥
ति
( १६ ) बोधक्षागर
बाय श्रवण लीरा सुत रै भाई । सते डोर कों ससुञ्ञाईं ॥
एकोत्तर निं जाने विस्तारा । सो जनि जानहु है कडिदारा ॥
जो नरि जानेएकोत्तर विस्तारा । मिथ्या सो जानो कडिदारा ॥
नहि तो पत आरै कडिहारा । छे जीवनको करे अहारा ॥
नाम एकोत्तर जाने नदीं, ओ धरे सिदासन पव ।
कै कबीर तेहि शीशपर, कोटि वज्रको घाव ॥
धघ्मदास हसन तिलक, एकोत्तरि रहो जान ।
अश सुजन जन सुक्तपद, सत्य शब्द् प्रवान ॥
पिण्ड ब्रह्मण्ड खोजके, राखो शब्दको आश ।
तिकभर काया मूरुकसख्मे, जहां पुङ्ष रदिवास ॥
कदं कबीर जो पाड, एकटक सुमिरे ध्यान ।
तिलभर काया सहज कमलम, जहां पुरूषको स्थान ॥
सहजनाम युग बांधिया, बावन नामकीं नेह ।
दीप अजयकी ध्यानम, भई सुतेकी. देद ॥
देह भई तब जानिये, गगनध्यान कौ रीन ।
सुत सो्देगम शब्द् है एकटक सुमिरो संतो जम होय बल्छीन ॥
सो शब्द् निज सांच रै, जपौ अजपा जाप ।
कहं कबीर ध्मदाससों, देखो अगम अगाध ॥
साहे शब्द निज साच है, गहि राखो त॒म पास ।
सोई शब्दमें सुकते, सत्य मानो धमंदास ॥
सुमिरन सार एकोत्तरी, चन्द्र सूर घडइसार ।
कहै कवीर धर्मदाससो, तासु नाम कडिदार ॥
ज्ञान गम्य जाने जो पावे । भवसागरमे धन्यगु काप ॥
इति एकोत्तर नाम सिंहासनध्यान नारियर अङ्गप्रथम स्मरण॥
चोका अङ्ग सत्यकबीर धमंदास को दीन्ह । अविच
तुमिरनबौध ( १७)
पुरूष नाम अबो अडोल नाम । अजाबन राय रनछोर नाम ॥
शम्भु सन्तोष नाम । उदैचन्द् अक्ष॑राज नाम ॥
एते नाम रहै खौ लाय । यमराजं तिहि देखि उराय ॥
अम्ब अपावननाम । अभ्र शम्भ नाम । एत सत्यकाया प्रकाश ॥
अजरनाम नरिथर सचार ।
अम्ब नाम वे पुरूष कावा । सोहं ईस तदहं विरमावा ॥
सोतो धर्मदासबेठे दे पुरुषपरान। सोहं सुतं तुम मोर जान ॥
बेहग नाम तुम जगम देहो । इस शेडाय कारसो रहो ॥
एही नाम जीव जो परवे। बोधे इस लोकम अवे ॥
मकमीरदरवानीदरवाजेहौगट। आवतजात्चखडपजेहतनकोनदिंगाड
एकोत्तरी नाम सुमिरे चितलाई । आवागमन रहित धर षराईं ॥
स्मरण हस्तश््या
सुनो धमंदास रस्तक्रिया सही । महापुरुष अख अपने की ॥
नरियर अंकरमो जीव रहाईं । तशं सुतं राखो उहराई ॥
नरियर उशय हाथ के ठे । नरियर मस्तिकं हाथ जो देह ॥
सुतं समाय जीवमो गये । नरियर अमरटोकं रे राखे ॥
महा पुरुषके दशन किये । चरण बन्दिके शीश नवायेऊ ॥
महा पुरूष छे अङ्ग लगाये । तब हंसा लिये हषं समाये ॥
अंङ्कर अंश विनवे करजोरी । महा पुरुष सुनी बिनती मोरी ॥
अंङ्कर अंश नाम रौ लाई । भवसागर ते ठे सुक्ताई ॥
महा पुरुष सुतं उतपानी । जाय सुतं काडिहार समानी ॥
कडिहार सुतं टीन्ह वितलोईं । सोई सुतं हसा मो आई ॥
माथे हाथ जीवके दिये । सुतं समाय दंस मो गये ॥
ग्ई॑ समाय रही उदराई । बहत अनद् इस तव . पाई ॥
(३८ ) नोधसागर
जब र्ग सुते रदी बारी । कोडकोई सन्तसोजानत आदी॥
टीका सुदित पूजे जब आई । यदह पिण्ड तबही खस जाई ॥
सुतं डस रे गये रेवाई। महा पुरूषके दर्शन पाई ॥
सहा पुरूषके चरण वाह । करे वन्दगी शीश नवाई ॥
महा पुरूष लिये अंक लगाई । सुतं ईस .नाम तिन पाईं ॥
अपने समसर ल्थि लगाई । महा पुरूष सम शोभा. पाई ॥
सुते देस विनवे कर॒ जोरी । महा पुरूष सुनो विनती मोरी ॥
भवसागर कंडिहार रडाईं । तिनके शब्द सक्त हम पाई ॥
धन्य शब्द् धन्य कडारा । तिनके शब्द मो हंस उबारा ॥
महा पुरूष चिते वितलाईं । भवसागर ते लेव शुक्ताई ॥
सक्तं रोय सतलोके आवे । छिन छिन युङ्के द्रशन पावै ॥
महा पुरूष शब्द उचारा । वे कंडिहार ई सुतं हमारा ॥
जहां जहां सतं चित्त राई । सोई दंस ॒रोकको आई ॥
अमे जीव दोय जसमादीं। तिन सनकी गहे जो बारीं॥
अमे जीवको नारिथर लेह । हस्त क्रिया नरियरको देई ॥
हस्त क्रिया नरियर जब पाई । भम खोक हंस ङे जाई ॥
जादि खानमें जीव रहाई। जहां जाय सुरतं समाई ॥
गई समाय रदी ठदराई। ईस उधार रोकं ठे जाई ॥
जो कडार हस्त क्रिया पावे । महापुङूष के सुरत समाव ॥
हस्त क्रिया गहे चित खाई । कै कवीर ईस लोकं सिधाई ॥
स्मरण सिंहासन बेठनेका
अगन गहे गदनी तहां पुरूष चेतो सन्त बिचार ।
सिंहासन है पुरुष को खतंसों रोषो पांव ॥
जीवन पार उतारों तुम्हारे शिर नहीं भार।
आदि पवन सों कठो मूलशोध कडिहार ॥
सुमिरनबोष ( १९)
कहें कवीर धर्मदास सो, सत्यघुरूष वचितराखं ।
अमी अंक जो जानै, जासु. जहाँ तत भाष ॥
ष्मरण द अर्षपणका
अरपो दिल चौकामे उत्तिम दर बनाय ।
करै कवीर धर्मदास सो सब अवण चिट जाय ॥
स्मरण पाषाण रर्खनका
पान पराण हाथकर टीन्हा । सब साडेवक्रा छमिरण कीन्हा ॥
सत्य पुरूष बोठे परवाना । बेठे पुरूष मध्य जौ स्थाना ॥
रेखा छिखो पाषाणमे, अवचित्य नाम घंट बोल ।
कहै कवीर धर्मदाससो, तब इसा होय अडोङ ॥
स्मरण नारयर रखनका
नरिथर नरियर नरियर खरी । नरियर मोरे सत्य कबीर ॥
ओरसो नरियल मोर न जाई । पांच शब्द् ठे नरियरमोरेकबीर
धर्मदास आई ॥ ्
स्मरण नरियर मोरनेका
जलदल छेके नरियर मोरा । सत्य इाब्द् गहिंतिनका तोरा ॥
मोरो नरियर इङकम कबीर । सत्य नाम गहि खगो तीर ॥
पुरूष नाम रै अमी अमो । नरिययर मोरो खसमनिहोर ॥
स्मरण नरियर मोढनेका
अमी सींचके नरियर कीन्हा । सो नरियर धमंदासको दीन्हा ॥
धर्मदास भृतु मण्डल आये । सकल सन्तमिखि मंगल गाये॥
नस्यिर मोरकेसत्यसुकृतकोशिरनाये । निकुतनामटेहंस बचाये ॥
कहे कवीर धम॑ंदास सों। नरियर मोरे वंश तुमार ॥
स्मरण तिनका तोरनेका
यह विरवा चीन्हे जो कोय । जरा मरण रहित घर होय ॥
(२० ) नोधसागर
कोन विरवा जो बोरूत है ताको चीन्दो । कबीरगोसाईकी आज्ञा
सों \ जिवसो यमसो तिनका टूट यमके भुखमें थूकं ॥
स्मरण ज्योती शीवरूकरनेका
साखी-आदि अन्त यक ज्योति है, अस्थिर थीरदहै नीर ।
सात द्वीप नौ खण्डे, एकि सत्य कबीर ॥
स्मरणभिढाइं माङ्म करनेका
श्वेत मिठाई उत्तम पाना । लोग खायची श्वेत प्रधाना ॥
केरा कदली ओर सुगन्धा । तबही हंसा रोय अनन्दा ॥
यदिविधिकरोमिठाई । करै कबीरधमेदाससोतबहमकोभोगरुगाई
स्मरण पानप्रसाद् माट्मकेरनका
चोका खेय भिगई धरी नरियर धोती षान ।
हसा वेढे आसन पर॒ परवंहि आज्ञासान ॥
पुरूष बेटे आसन सहि नादी मार ।
करै कबीर भिढई माह्ममानसरोवरषार ॥
स्मरन आरती सोपनेका
जोई आरती वारे, सोई बुञ्ञावै आन ।
जहां ज्योतिञ्चिलमिर करे, सोई पदिचान ॥
अपनो तन मन खोजो, आप करो चितएकं ।
शीतर करो आरती, पुरूषनाम गहिरेकं ॥
कहै कबीर यह सुमिरण, सन्तो करो विवेकं ।
अबकी बेरा चेतहु, तारों कटुम समेत ॥
स्मरण आरती प्रकाश करनेका
सोष्म नामरे आरती वारे आपतरे ओरनको तारे ॥
सोहंय मामनिज सुभिरके, करो आरती प्रकारा ॥
करे कवीर धर्मदाससों मिट गये यमके आस ॥
तुमिरनबोध (२१)
स्मरण परवाना टिश्वनेका
अमी अंककी लिखनी कीन्हा । सो छिखनी धर्मंदासको दीन्हा ॥
उल्टी छ्खिनी सीयेल द्वार । कटे कमं भये जर छार ॥
खोजतखोजतखोजिया, यह सन्तनको काय ।
पुरूष देह धर देखिया, ओर एकोत्तर नाम ॥
स्मरण अवाना त्राजनक्
अहो साहेव कौन अङ्कप्रवान साज । भाषो ठेखा अंममो ताको ॥
अदहीषमदासमभ्यअङ्गश्वानासाजो । अंक चटायनामस् खभाषो॥
अजावन नाम पानके ीन्हा ।सृतंसम्हार अङ्कतम चीन्डा॥
कहैकबीरधमंदाससोयदबीराअंकनामबिदेहचढावह्हंसहोकेनिशंक
स्परण प्वाना साजनका
अमी अकका वीरा शब्द्, सोहेगम डोर ।
कबीर हस लोक रेराखो, यमसे बन्दी छोर ॥
सुतं चटी आकाञ्चको, उनञुनमहर बनाय ।
सोई हस उजागर, जामो अमी समाय ॥
पुरुष मोहर अकह कबीर । काले सोहं धमंदास कबीर ॥
स्मरण भ्रवाना दनका
श्वेत पान अम्म्र रै छाया। सोपान अमोदिक पुर्षपटाया॥
भरमत पवन रिरे संसारा । पवन निमंल होय असवारा ॥
अमी अंक पुरूष छिखि दीन्डा, कमल पुरी सार ।
कँ कबीर क शंका नाहीं, रहो परुषके आधार ॥
स्मरण बवाना इनका
अजर मरूलसो बोरी उत्तारी खतं सोहंगम डोर ।
एदी सुमिरणपायके, दंसा उतर लक्ष करोड ॥
एह स्मरण हाथरे, कार् रहो सुरक्ञाय ।
करै कबीर धर्मदाससो, इसलोक पहंचाय ॥
( २२ `) नोधस्रागर
स्मरण कण्ठी बोँधनेका
कण्ठी कण्ठ विराजे , सतशर् तिरक कर दीन्द ।
जगसों तिज्का तोरिके, दस आपन कारि लीन्ट् ॥
माला कण्ठी नामकी, सतगुङ् शब्द विचार ।
बादविवाद् जो बालक, सो करे, ताके सुख परे छार ॥
कहै कबीर धघर्मदाससों, बालक कबहन न होय निनार।
् स्मरण पांच नाम
आदि नाम अजरनाम अमीनाम । पतारे सदा सिश्ु नाम॥
अकाशे अदली निरनाम । एदी नाम रहसको काम ॥
खारे कूची खोली कपाट । पांजी चटे भूल्के घाट ॥
भं भूतको बाधो, गोला कै कबीर प्रवान ॥
पाच नारे दसा, सत्यलोकं समान ॥
स्मरण दक्षा्म्र
सत्यसुकृतकी रहनी रहै अजर अमर गहै सत्यनाम ।
करै कीर मूकदशा, सत्य शब्द प्रवान ॥
स्मरण तिचुका तोरनेका
दृहिने छोडो धर्मका स्थाना । बाय चि्रशप्तको जाना ॥
सन्युख नासिका देव पयाना । तब यम चर देखके पाना ॥
टै घाट अढासी करोरी । हसा चे नामकी डोरी ॥
सो जीवत हंसा भये, लिये प्रेमकी डोर ।
सो जिव चङे सत्यलोकको, यमसों तिका तोर ॥
आसन वासन मन कल्पना ओ सवा भरत ।
एकोतरसे पुरूष के, यमसां तिनुका टूट ॥
कै कबीर सदशरू मिरे, मिथ्याके मुख चूक ॥
पुमिरनबोध ( २३)
तियुका तोरनेका
मनपाप मनसा पाष महापाप पापु पुरविखा पाप ।
नोह ब्रह्मा जाई । इम सद्यु्के शरण आई ।
आसन वासन मन कर्पना, एतो सवभूत ।
कहै कबीर सद्र मिरे, मिथ्याके यख शूक ।
तिका तोरनेका
आसन वासन मन कर्षना, देवो सवांधूत ।
यमसों तिनका ट्र साहब शब्द प्रगट भागेभूतयमदूत ।
` ये जीव भये कबीर साहेषके यमसों तिञ्का इट ॥
कालके सुख थुक यमसों तिका टट ॥
शब्दहिनेहलगावे कै कवीर धर्मदाससों कार्दगामिरजाय ॥
तिञुका तोरनेका
आसन बासन मन कल्पना, खेदो सवां भृत ।
कहै कबीर सतशङ मिरे, मिथ्याके सुख भूक ॥
जंजीरा तिका तोरनेका
भूति बाधो पि्ाचहि बाधां बांधों धीमर धाखा ।
तीन निरंतर मन्तरं बाधो मारों नाहर चोखा ॥
बोञ्चा बाधां बोज्ञहता बांधा पूजित बांधा पुजेरी बांधो।
मरहिया मनसा बाधो हारक बाधो फाटक बाधां ।
ओधट बाधं बाट बाधां नैहर ष सासुर बाधां ।
अरोसिन बाधो परोसिन बांधों बाधो डंकन डोरी ।
कटे केवीर भ्म सब बाधं निथुन तिनका तोरी ॥
स्मरण भ्रवाना पावनका
अजरकी छ्िखिनी हीरा पाना । सत्य सुकृत रिख प्राना ॥
देह पान र्वो कण्ठ कगाई । बालक देहू गभं में भाई ॥
( २९४ ) बोधृस्ागर
भाषा माषों अपबेर; परे अजर की छाय ।
सुक्तके अक्षर सुक्ता सन, दोय चुरामनि नाय ॥
स्मरण भ्रवाना पावनेका
अजर नास अजर है प्राना । अजर नाम सत्यलोक षयाना॥
अजर नाम गरू दिया बताय । कमं भमं सवं दिया बहाय ॥
कहै कबीर सुनो धम॑दास । अजर _नामते लोकं निवास ॥
स्मरण माथा पजा दनक
ठाटे दत करत है गोखा । धर्मदास सुख अजरे बोखा ॥
घर्मदास सुख बोरे बानी) दूत भूत गयेकुम्दिखानी ॥
अजर लोकं अजर है नाम । अजर पुरूष अजर पुषको नाम ॥
येरीनाम दयम राखो । जादिनकार दगापरे तादिनञ्रुख भाषो ॥
उत्तर दिशा जगन्राथके गइ ।
कहै कबीर घमंदास सों अजर बोर तुम जीवको सुनावो ॥
स्मरण दर प्रसाद ठेनेका
अमृतदल अमरापुरी, तिरख नाम निज चीन्ह ।
अजर नाम कबीरका, अमृत दृ करि दीन्हं ॥
इति सुमिरन चोकाको गारुवाई विधि सम्पूणं
अथ रिख्यते चौका विस्तार विधि
स्मरण चंदोवा ताननेका
सत्यसुक्रतको समञ्चके, कीजे मनको स्थीर ।
छ तनायो प्रेमसो, सदगुरू कटै कबीर ॥
पांच सुपारी पांच चटमें; स्वेत चदेवा सोय ।
कहे कवीर धर्मदास सो, आवागमन न दोय ॥
स्मरण खडीसो चौका पोतनेका
स्वेत मृत्तिका निर्मल पानी । चौका पोते सुकृत ज्ञानी ॥
तुमिरनबोध ( २५)
चोका पोतके चन्दन चढावा । सत्य खुङ्त् जिनलोक पावा ॥
कहै कबीर सनो धर्मदास । हसा गये पुरूषके पास ॥
चन्दन चोका पौतनेका
सिन्धु नीर घट अमी मगावा । सत्यसकतको शीश नवावा ॥
सोदं पवन् ठे कीन्ह परसारा । निङ्कत नाम छे ईस उवारा ॥
तन मन दैके चीन्द शरीर । अंकनाम कटि दीन्ह कंवर ॥
् स्मरण कनिकं चौका पौतनेका
कनक छानके निंर कीन्ह । सदज नाम दे चित ॒दौन्डां ॥
चौका पूरे युक्ति बनाई! सतश् दीन्हा भेद र्खाई ॥
कहै कबीर चौका है सारा। चौका बैठो सिरजन इरा ॥
स्मरण मानिक बनावनेका
अग्र आरती कर मन जाना । कीन पवनसो निकृसे पाना ॥
शब्द अन्त टै ताकर सार । सो जीवनका करे उबार ॥
उवार ईस करे लोक निवास बाहर तत्व जानेअंशवंश हमार ॥
सत्यनाम मगन जेहि भीतर । कँ कबीर इम प्रगट शरीर ॥
स्मरण थारमें परवाना धरनेका
थार प्रवाना कर सम तूला । आदि नाम भाषौ ख मूला ॥
मानिकं सवार भारम धरो । परवाना को सुमिरण करो ॥
कर कबीर सत्य दै सार। अंश वंश दंस उतारे पार ॥
स्मरण मानक ष्रनका
स्थिरहि थारमें मानिक धरो । एकनाम सुस्थिर इट गहो ॥
कृ कबीर गहो नाम अधार । निश्च हंस साधि कंडिदहार ॥
् स्मरण कपुर घृत प्रसेको
अग्र कपूर अग्र धृत धाइ सो कदली है वाहा नेह ॥
राब्द कपूर तहां रे . धरो । सतगुरु दयासों निय रहो ॥
करै कबीर सुनो धर्मदास । अम वास्मे करी निवास ॥
नं. १० बोधसागर - १०
( २६९ `) बोधसागर
स्मरण पान धोषनेका
सुख सागर है मरु स्थान । तहां उपजे श्वेते पान ॥
श्वेत पानकी अमर छाया । अमी पुरूष संदेश पाया ॥
कै कबीर सुनो संत सुजान । यदिविधि करो पान ओस्नान ॥
र्मूरण पान चढबवेनका
श्वेत पान लोकते आया । श्वेत पान पुरूष निर्माया ॥
दिया वंश धर्मदास को दीन्हों पान चराय ॥
लेह पान तुम शीश चटाय । श्वेत पान पावे निज भूल ॥
` हढमनपितकोराखोथीर। करैकबीरधर्मदाससोंपह चेरोकअस्थूलः॥
स्मरण दक बारनका
द्रु नाम दयाका मानाम करिपुर। नौग नाम वे पुरूष है।
बिन डोदीका पल । सुते खाय दल वाट जर दर धरहू सुधार ॥
केह कबीर धर्मपाससों भव तज ल्मे न वार ॥
स्मरण दर बनावनेका
यो दल सत्तर खोकसों जल आवा । सत्तर रखोकसों अशत रावा ॥
शब्दकी ज्ञारी अमृत भरी । तापेसा तोषरिचा धरी । तीन खरचा॥
पले तोराईं । कह कवीर यमदूत पराई ॥
नरियर जटा उतारनेका
प्रथम बीज धरतीको दीन्हा । लागे फर नरियर तहं लीन्हा ॥
सो नरियर सन्त जन पाये । सत्य सुककतको आनि चटढाये ॥
तीन लोकं रहै पिण्ड शरीर । भीतर बाहर एकि नीर ॥
कहे कीर सुनो धर्मदास । यदि विधिनरियर भयो प्रकाश ॥
स्मरण नरियर स्नानका
सुख सागर है मूक अस्थान । तहँ भये नरियरके स्नान ॥
श्वेत नरियर श्वेतहि छाया । अमी पुरुष सन्ध पटाया ॥
पुमिरनबोध ( २७ )
भरमित पवन पिरे संसारा । निमंल पवन ताहि अस्षवारा ॥
कँ कबीर सनो धम॑दास । द्रुम नरियर स्नान प्रकाश ॥
स्मरण कटश वरनका
दो पैसा ओ एक सुपारी अलश धरो उत्तम ॒विस्तारी ॥
सवासेर ठै तण्डल धरो | धर्मराय देख थरहरौ ॥
पांचो बाती देव ठेसाईं। तब गादी पर बटो आई ॥
हृदय चरण वंश॒के धरो । सत्य कमीरकदिधोकपरिहरो ॥
कटश सही करनेका
पांचतत्व घट भीतरपांचहिनाम । तासों दोय जीवको काम ॥
सो ठेवा तियवार कं कबीर सनो धमंदास । धम॑रायसो हसं
उबार । जोति अजररोककी अजटोक देह पहंवाय ॥ कहँ कनीर
सुनो कडिहार । सारशब्द गहो कसार ॥
स्मरण एर चढावनेका
सुकरेत वारिसों एरु मेंगाये । सहृजकी ्ारी आनि भराये ॥
सत्य पुरूषको आनि चढाये । धमदास उठ विनती रये ॥
हीरा मानिकं रागे मोती । सत्य पुर्षकी नि्म॑ख जोती ॥
स्मरण गादी बिछावनका
चौका धरो मिगईं आनी । नरियर पान कपूर भवानी ॥
पुरूष वेठ सिंहासन आई । हंसहि नाहीं भार रदा ॥
मान सरोवर कदली केरा । मेवा अष्ट लाय यह वेरा ॥
ल गलाइची सत्यलोककेछोदी । भौमे आनि मिटई होई ॥
कहँ कवीर खनो धर्मदास । सिंहासन बेठे मम दास ॥
स्मरण टूढ माढा बाधनेका
मन माली तन एूठ मेगाये । अमी अंक ले शब्द सुनाये ॥
मनकरवारी तन कह पोष । काया कचन महं निर्दोष ॥
कहै कबीर निज सुमिरो मोही । मारों यभ उबारो तोदी ॥
(२८ ) बोधक्षागर
स्मरण आरती धरनेका
सत्य जीव॒ आरती दै नाम । सतशरुङ् शब्द सनो परवान ॥
वोही नामसें बैठक ठे घनीको पान । अंश वंश गुरू कीजिये ॥
देह धरो निं आन । धीर शुरूको चीन्हके रहो सत्य मनलाय ॥
देखो खसम कबीर को दंसलोकको जाय `
स्मरण चोका हाथ देनेका
करधर चौका विनती कीन्हा । तुम्हरे कषे भार हम लीन्हा ॥
अहो साहेब मोहे नरि भार । यह चौका विस्तार तम्दार ॥
त॒म जागो ओ शब्द तुम्हारा । समरथ मोहि उतायो पारा ॥
घमदास विनती कर, तुम दो सत्य कबीर ।
शिरके भार उतारहू, गरिके खावौ तीर ॥
इति श्रीस्मरण खरवाईं मेदादि चोकाविस्तार विधि सम्पूण
अथ टिख्यते स्मरण अभेद
प्रथम समरथके मुखसो सदज अंश उतषन भये ताकोबीज ।
बुन्द दियो तामे सवं रचना आई ओ सात करी भई ॥
केरीकै नाम
प्रथम पोदप करी, दसरे मूल करी, तीसरे अम्बुकरी, चौथे सुघर
करी, पांचे सुखसागर करी, छरये पंकज करी, सातेमंज्रुकरी ।
दृसरे समरथके नेज सो इच्छा सुतंउतपनभई ॥ ताकोजावनबुन्द्
दियो तासों पांच अड भये ॥ तीसरे समरथकेश्रवणसोमूलसुतं
उतपन भई ताको अमी बुन्द दियो तासो पांच अड पोषेतासो `
पांच ब्रह्म उतपन भये तिनको आज्ञा दिये एक एकं ब्रह्म एक
एक अण्डमों आये चौथे समरकी नासिकासे सोदग सुतं
उतपन भये तासो पांच अण्ड एूटे तासों आठ अण्डभये ॥
सुभिरनबोध (२९)
अंशुनकै नाम
प्रथम अर्चित्य, दसरे जोग, तीसरे अक, चौथ सक्त, पाचि
हिरण्मय, छठे अक्षर, साते योगमाया, आठ निरंजन, अचिन्तको
चिन्ता नही, तेज अण्डके मालक) प्रवानः पाठ्ग
१२ वंस ॥९॥ प्रथम माया, सरे कमं तिसरे अद अष्ट, चौथे
निर्जन, पांचे नभ, छठे समीर, साते तेज, आये नीरः नवे
वृथ्वी ॥ ९ ॥ दूसरे जो अङ्ग दंस, तिनको बेढकं धीरज अण्ड दियं
अण्डको प्रवान पाटंग षचीस ॥ २५ ॥ ओर वंञ्च सोरइ ॥१६॥
वंशनके नाम
प्रथम अजरघ॒नि, दूसरे अगम सुनि, तीसरे हंसशनिः, चौथे चन्दर
नि, पांचे आपमुनि, छटये पुरूषभुनि, सतिं अलजितं उनि आ
कृलंक सुनि, नवे शीतलघुनि, दायें भीं युनि, ग्यारह कण्ठयुनिं
बारह कनक मुनि, तेरह बेदेग सुनि, चौदहे गंगथुनि, षन्द्रहे सोम
धुनि, सोरहे जटरंग ॥.१& ॥
तीसरे अकहअंश
तिनको वैठकछिमा अण्डभो दिया, अण्डको प्रवानव्यालिसि
॥ ७२ ॥ वंश सत्ताईस ॥ २७ ॥
| | वशकै नाम
प्रथम प्रेम, दूज इलास, तिसरे आनन्द चौथे विशाष पांच
हेत ॐ प्रीति, साते निरख, आटे विवेक, नवे सुमत, दशं क्षमा,
ग्यारह धीरज. बार आराद्, तेरह शी, चौद सतोष, पन्द्रह
सुमन, सोरहे बुद्धि सरे भाव, अगर भक्ती, उन्नीसवें दया, बीसे
ज्ञान, एकरसे फ्रिया, बाईसे विचार, तेडसे कपानि, चौषिसे संतोष
पचीसे मेद, छबीसे इच्छा, सताइसे भय, तिनको राज्य क्षमा
अण्ड पुरुषके दजूरी ॥
(३०) बोधसागर
चौथे सुरत अंश
तिनके बेठक सत अण्डमोदिये, अण्डको प्रमानं पालंग बहत्तर
॥॥ ७२ ॥ तिनके वंश बयालिस ॥ २ ॥
वंशनके नाम
प्रथम काय सवाग रहाई, सर्वाग कायाते बीज बुन्द निरमा
सीजबुन्दते अविगति काया। अविगत कायाकेदशो भेदले।कायाके
रूपसतं निर्माया । श्प सुतके सतगुरू सोके गंग पुरूष काये
गंग पुरूषके अचित पुरूष काये । अचित पुरूषके ज्ञानी अश
ज्ञानी अशके सुजनजन अश । सुजन जन अंशके चरा मणी नाम ।
चूरामणी नामके सुदर्शन नाम । दूसरे कल्पति नाम । तीसरे प्रमोद ।
नाम । चौथे कवल नाम । पचे अमोल नाम। छटे सुतं सनेदी नाम ।
साते दद्छनाम । आ याक नाम । नवे प्रकर नाम। दशे धीरज नाम।
ग्यारह उर नाम । बारह दया नाम । तेरहे ग नाम । चौदह प्रकाश्
नाम । पद्रहं अदिति नाम । सोरहं मुङन्द् सुनि । सवद अधरनाम।
अयरहं उद्धनाम । उनीसें ज्ञानी नाम ।... बाहसं अजरनाम ।
तेडसे रस नाम । चोविसे गंग मुनि । पचीसे पारस नाम छबीस
जाग्रत नाम। सताईसे भृगघनि। अटाइसे अखे नाम । उनतीसे. कंठ
मुनि । तीस संतोष दास । एकतीसे चाक ञ्नि । वत्तीसे अजरनाम
तेतीस्ें दर्गमुनि । चौतीसवे आदि नाम पेतीसवे मदा सुनि।
छतीसवें निज नाम । सतीसवें साहब दास। अडतीसवें उद्धदास
उनतालीसवें कर । चारीसवें दीघमुनि । एकतालीशवं महासुनि ।
साखी-वंश व्यारीसके आगम, चरामणि संतायन ।
वचन हमारा प्रकटे, निःअक्षर निज नाम ॥
तिनको राज सत अण्डमें, चौकी रोक पांजी ॥
तमिरनबोषं (३१ )
पाचि हिरण्मय अंश
तिनको वैठकं सुमत अण्डमों दिया अंडको प्रवान पालंग ॥६&३७॥
वश सात ॥ ७॥
वंशनकै नाम
प्रथम वंशपारन, दसरे स्वांतसनेदी, तीसरे भंगसनेदी, चौथे ॥
लरसिध, पांचेदीपकजोतः छट जलमाव; सातं मल्यागिरे॥७॥
तिनको राजस॒मत अंडमें पुरुषके इजूरी ॥
चार य॒रुके नाम-लोकके ओर भवत्ागरकै
प्रथमनाम लोकम जो ईस किये ओरभवसागरमेंगुर् चतु-
ज गोसाई तिनके वंश सोरह ॥ १६ ॥ दक्षिण दिश्चा सामबेद
पक्षद्रीप दरभंगा शदर तथा प्रकट भये ॥ तिनकोगलन्ञानबानी
ता बानीले पंथ चायो, बराह्मणङ्कटप्रकट भये ॥१॥ दृसरे नाम
लोकम अकह अंश किये ॥ २७ ॥ परवदिशा यजवेदकुशद्रीप
केरनाटरकं शहर तहां प्रकट भये । तिनको रकसारज्ञानतावाणीले
पथ चलायो ॥ २ ॥ कायस्थङकल शुद्र, तीसरेनामलोकमें सुक्रत
अंश किये ओर भवसागरमें य॒रुधमदास गोसांइकदिये तिनके
वंश ग्याछिस ॥ २४ ॥ उत्तरदिशा ग्वेद जम्बुद्रीपभरतखण्ड
बांधो शहर तथा प्रकट भये, तिनके कोर ज्ञान बानी ताबानी छ
पथ चाये ॥ ३ ॥ चौथे नामं लोकरमहिरण्मयअंशकदिये । ओर
भवसागरमें यरुसहेतेजी गोसाई किये तिनके वंश सात ॥ ७॥
पथिम दिशा अथर्वण वेद सिलमिट दीष मानिकपुर शहर तहां
प्रकट भये । तिनको बीजक ज्ञान बानी ता बानीरे पंथ चलाये
क्षतनियककुल ॥ % ॥
दशं सोहगकेनाम |
प्रथम पुरूष सोहं दसरे सदज सोहंग तीसरे इच्छा सोदंग ॥ `
( ३२ ) बोधसागर
चौये सुरु सोरेग पाचे वोर सोदेग छटे अचितसोदगसाते अक्षर
सोरग, आड निरंजन माया सो्ेगः नवें ब्रह्मा विष्णुं महादेव
सोरहग ॥ १० ॥
नो सुतेके नाम
प्रथम सज सर्त, द्सरे इच्छा सर्त, तीसरे मूर सुतं, चोथे सों
सुरत, पांचवें अचित सर्त, छठे अक्षरसुतं साते निरंजन सुतं, आरे
सुङ्त सुरत, नवं नौतम सुतं ॥ ९ ॥
दश प्राणकै नाम
प्रथम अपान, दृसरे समान, तीरे प्राणः, चौथे उदानः पांच
व्यान, छट नाग, साते कूम, आटे किलकिला, नवे देवदत्त दशमे
घनञेय ॥ १० ॥
आढ कर्मके नाम
प्रथम ज्ञानर्वनी, दूसरे रसनार्वनी, तीसरे वेदवर्नी, चौथे ध्यान-
वनी पांच अतरायः छट गोत, साते प्रमान, आः आव ॥ < ॥
तीन कमेके नाम
प्रथम संचित, दूसरे क्रियमाण, तौसरे प्रारब्ध ॥ ३ ॥
` दो कर्मके नाम
प्रथम विपि, दूसरे निषेध ॥ २ ॥
चार ज्ञानकै नाम
ब्रद्यज्ञान अंचितको, अनुभवज्ञान अशक्षरको त्वचाज्ञाननिरज-
नको, छदरज्ञान माया त्रिदेवाको ॥ ४ ॥
चार ज्ञानीके नाम
प्रथम पिशाच ज्ञानी, दूसरे पंडित ज्ञानी, तीसरे उन्मतज्ञानी,
` चौथे जडज्ञानी ॥ ४ ॥
तुमिरनबोध ( ३३ )
चार ध्यानकै नाम
प्रथम पंडीसीतध्यान, दूसरे हष सत्य ध्यान, तीसरे पद् सत
ध्यान चौथे पातीत ध्यान ॥ ४ ॥
चार् पदाथके नामं
प्रथम अर्थ, दूसरे धमं तीसरे काम, चौथे मोक्ष ॥ 9 ॥
तीन पदक नाम
प्रथम तचवपद, दसरे तत् पद, तीसरं असिषद ब्रह्म ॥ ३ ॥
तीन तापकै नाम
प्रथम अध्यात्म, दसरे अधिदेव, तीसरे अधिश्त ॥ ३ ॥
तीन जीवक नाम
प्रथम मोक्षी । दसरे विषय, तीसरे पामर ॥
पांच खानके नाम
प्रथम मनष्य खान । दूसरे पिण्डज खान । तीसरे अण्ड खान ।
चौथे उषमज खान । पांचे अस्थावर खान ॥
पांच वाणीके नाम
पथम सिगिनी वाणी । दूसरे बिगिनि वाणी । तीसरे किंगिनि
वाणी । चौथे ईंगिनि बाणी । पां रिगिनि वाणी ॥
पांच तत्वकै नाम
प्रथम आकाश । दूसरे वायु । तीसरे तेज । चौथे जल ।
पावे पृथ्वी ॥
तिनको बिभाग
माठुष सानमे सिगिनि वाणी आकाश, वायु, तेज, नीर । पृथ्वी
ये चार तत्व पिडज खानमें वतते है । तीसरे अण्डज खानमें
किगिनि बाणी; वायु, तेज, जरु ये तीन तत्त अंडज खानमें
( ३४ ) बोधसागर
वतेते है) चोय उषमज खानस ईगिनि वाणी, वायु, तेज, ये दो तत्त्व
उषमज खानमे वतेते ह । पांच अस्थावर खाने किगिणि वाणी
जरु एकं तत्त्व वत्तते है ॥
जो इनको प्रवानजात
प्रथम चार राख खान मानुषको } दूसरे पिडज नोराख जात ।
तीसरे अण्डज चौदह खाख जात । चौथे श्ेदज उषमज सताइस
लाख जात पाचि अस्थावर तीस खख जात ॥
अथ परुषसभ्रथसौ अंश भये तिनको नाम
प्रथम पुर्षके भिङ्कटी सो अङ्कर । पुरूष नेच सो इच्छा ।
पुरूषको नासिका सोहं पुर्षके सुखसो । अचित तेज अड पारग
बारदइ अचिन्त अंश प्रेम सुरतं । धीरज अण्डज पाटंग पचीस
जोदहग अश सोहं सुतं । छिमा अण्ड पालंग व्याटीस अक्
अश मू सुतं । सत्त अगुपाटंग बहत्तर सुकृत अश इच्छा खत ।
सुमत अण्ड पालंग चौसठ, दिरण्मय अन्त अंदर सुतं ॥
इति श्री सुमिरपांजी आदि षटकर्मं विधि, चोकाविधि गरुवादं
भेदादि विस्तार विधि सम्पूणं
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सत्यघ्रुकृत, आदिअदषी, अजर, अचिन्त, पर्ष,
एरनीन्द्र, करणामय, कबीर, घुश्ति योग, संतायन,
धनी धर्मदास, चरमणिनाम, शदशंन नाम,
कुट्पति नाम, प्रबोध यस्वालापीर केवर नाम,
अमो नाम, चरतिसनेदी नाम, ईक नामः
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरन नाम,
उग्रनाम, दयानामकी दया, बडा
् व्यालीसक दया
८१
_अथ श्रीबोधस्ागरे
सुमिरनबोध पारभः
द
षटूिशस्तरद्कः
तृतीय बोध
अथ गुरुमहिमा शतकं प्रारभ :
गरु संतन की आज्ञा पाई । गुरु मदिमा अमृतरस गाई ॥
गरू मिरे तो अगम बताते । मा ताहि नहिं आवे ॥
जेता नाम प जग माहीं । सबहीमे सत ग॒रूकी ॐहीं ॥
सतगुर सकट कलमके साखी । सकट भुवन शुरू तन्मय राखी॥
।
3
( ३६ ) नो धसागर्
खतशर अजर असर अविनाशी सतशर् परमसज्योतिपरकाशी ॥
शुरू गोविन्द् दोउणएकस्वहूपा । नाम रूप गुण मेद॒ अनूपा ॥
गुरू अविचरु पद् पूरणधामा । गुर् स्वामीगुङ् जग विश्रामा ॥
खतगुङू जनम मरनते न्यारा । सतश॒ङ सबका सि्जन हारा ॥
नगण गुरू खूषसे न्यारा । छइ रद्यो सबही संसारा ॥
दै सतश् सत पुरषे अपे । जासो प्रकट बरह्म भयो जापे ॥
साखी-गुङ् ईश्वर शुरू परब्रह्म, सतणुङू सबका देव ।
गुरू बिन पार न आवई, ताते शरणो लेव ॥
गुरूकी शरणा लीजे भाई । जात जीवं नरक नहि जाई ॥
गुरूकी शरण साधू जाने । गुरकी शरण मढ पहिचान ॥
गुर् सरणा सबहिनसे भारी । सञ्च गयो सोई नर नारी ॥
गुर् शरणा सो विन्न विनाशे । इरमति भाजे पातकं नशे ॥
गुरु शरणा चौरासी इट । आवगमनकी डोरी ट्टे ॥
गुर् शरणा यमदण्ड न लागे । ममता मरे भक्तिसे षागे॥
गुर् शरणासे प्रेम प्रकाशे । पारख पाद मिटे यम आसे ॥
गुर् शरणा परमातम द्रशे । अय गुण छोडि सतपद प्रशे॥
गुरू सुख दोय परम पद् पावे । चौरासी बहुरि न आव ॥
सत्य कबीर बतायो भेवा । धमदास कङ् गुङ्की सेवा ॥
साखी-ग॒रूकी सेवा जो करे, इदया ध्यान रगाय ।
काल जाल सो इूटिके, सत्य धामको जाय ॥
गुरूपद सेवे विरला कोहं । जापर कृषा सादबकी होई ॥
गुरू सेवा जो करे खभागा। माया मोह सकरम भागा ॥
नौ नाथ चौरासी सिद्धा । गरू चरणों सेवे बह विद्धा ॥
शुरके सेवे कटे दुख पापा । जनम जनमको मिरे सन्तापा ॥
गुरुकी सेवा सदा चित ॒दीजे । जीवन जन्म सुफलकरलीजे ॥
सुमिरनबोध ( ३७ )
चौविस रूप हरि आपुहिधरिया । शङ् सेवाकरि सबही बिरिया ॥
शिव विरंचि गुह सेवा कीन्हा । नारद् दीक्षा धुवको दीन्हा ॥
सकल शुनि गुरू सेवा चाही । युर सेवा करि पथ अवगाही ॥
गुशूसेवे सो चतुर सयाना । ुूपट तर कोड ओर न आना॥
गुर्की सेवा युक्ति निज पवे । बहुरि न ईसा भवजर अवि ॥
साखी-गरङ्की सेवा कीजिये, तजि मनका अभिमान ।
गुर बिव दोसर को न्दी, धर्मनि सतर जान ॥
योग दान जप तीर्थं नहाना । युर सेवा बिनु निषफलजाना ॥
गुर सेवा विन॒॒बहु पछतवे । फिरि फिरि यमके द्वारे जवे ॥
गुश्सेवा बिनु कौन जो तारे। भव सागरसे बाइर डरे ॥
गु्सेवा विनु जड का करि दै । काकी नाव बेठिकर तरि है ॥
गुरुसेवा विन कष न सरि है । महाअन्ध् कूपे महं ष्रि ई ॥
गुरुसेवा पित॒घट अंधियारा । केसे भ्रकटे ज्ञान उजियार् ॥
गुूसेवा विन सदा जो धावे । शर् ५ साच राह नहिं पाठे॥
शुक सेवा विदु कान फुंकावे । मर्वरि भवरि भवजले आवे ॥
गुङ्सेवा विन दन्द अधेरा । यू सेवा वि कारको चेरा॥
गुक्सेवा विन प्रेम विहूना । दिनि दिन मोह दोयम दूना ॥
साखी-गरूसेवा विन ना छुट, भवजलको सन्ताप ।
गुश्सेवा करि यर् ख, काटे सबही पाप ॥
शुरूख॒ख होई परम पद पवे । चौरासीमे बहुरि न अवे ॥
गुर्की नावं चटे जो प्रानी । खेद उतारे सतशगुर् ज्ञानी ॥
गुरुके चरण सदा चितलाना । क्यों भे तू चतुर सुजाना ॥
गुरू भगता शुरू आतम सोहं । वाहीके मन रहो समोई॥
गुरमुख ज्ञान ठे चेते सोई । भवम जनम बहुरि न रोई ॥
गर्युख प्राणी सदाईं जीवे । अमर होई ज्ञान रस पीवै॥
(३८ ) नोधसागर
गुरूसोटी चदि ऊपर जाई । सुख सागरम रहे समाई ॥
गोरी शकर ओर गणेशा । उनहू टीना शुरू उपदेशा ॥
गुरूखख सदाअररु अविनाशो । सुर नर सुनिसनबध्यानधरासी ॥
गुरूखुख सब भक्त ओ दासा । गुरुमदहिमा उनहीसे प्रकाशा ॥
साखी-ग॒रमुख को सबही मिरे, चार पदारथ सार ।
निशया को तो कुछ नदीं, वहे सो नरकहि धार ॥
गुरू वितु सुक्तिना पवे भाई । नकं उरद्धं चख वासा पाई ॥
गुरू विनु काहु न पाया ज्ञाना । युङ् बिनुरदीयमरोकसिघाना ॥
गुरू वियु पटे जो बेद् पुराना । ताको नारिं भिरे सतज्ञाना ॥
गुर विच जो सो पञ्च कदावे । मार् ब बुधि इम् होय जावै ॥
गुरू विच दान पुण्य जो करई । दोय निष्फर सब मतसो कदई॥
गुरू विज्ञ अमना टे भाई । कोरि उपाय करे चतुराई ॥
गुरु बिनु होम यज्ञ जो करई । जाय पुण्य पाप सो भ्रई ॥
भवसागर दै अगम आगहा । शुरू बिव केसे पव थाहा ॥
गुरु बिनु बरञ्चे सकर अचारी । तेतीस कोटि देव सब धारी ॥
गुर विज भरम ट्ख चोरासी । जनम अनेकं नरकके तासी ॥
साखी-गर आज्ञा अरहणकरि, छोड मनस्ुखताकार ।
गुर् कृपा तब पावहे, क्षणमें दोय निहार ॥
गुरूकी कृषा कटे यम॒ फांसी । विलम्ब न होय मिरे अविनाशी॥
गुरू कृपा शुकदेवदि पडया । चटि विमान वेङकण्ठदि गहया॥
गुरूकी कृपा जब नारद पय । मेरि चौरासी सुखी सो भयञ॥
गुरुकी कृपा रामपर सोद । जीवन सुक्ति पाइ जग मोर ॥
गुर् कृपा बामदेवहि दहया । गभ मार्ह ुरुज्ञानदि परया ॥
गुर् कृपा धुव जो दरसा। अरर अमान परमपद्परसा ॥
गुरु कृषा ते भये उजासी । सनकं सनन्दन नारदं भ्यासी॥
शी त 7 = (जात किः इतः शाह ३।॥
पुभिरननोध ( ३९ )
गुट कृपा ते जनक विदेही। सो ग्रह माहि परमपद ठी ॥
गु कृपा ते जन प्रहलादा । दैत्य होड भक्ति तिन साधा ॥
गष कृपा जो कोई षवे । सकलो दुरमति दूर बहव ॥
साखी -गुू कृषा एसी अहै खनो साशं चित दे ।
तति शु सुभिरण कड, रहे कालको रेह ॥
गङ् गर जाप करो मन मेरा) कार दूत नहिं अवे नेरा ॥
गुरुको ध्यान धरो नर नारी । सहजे सहज तरो संसारी ॥
गुर् गुरू सुमिरो मनसे प्यारो । य् गु कहो कोटि अवतारो ॥
श् गुरू जाप काज सबसारे । दुर्मति कपट दूर करि तारे ॥
गुङ् गुर जाप करो मन धीरा । य॒रूके नाम भिटे संब पीरा ॥
गर् गुरू मंज हदय धरीजे । तन मन धन सब अपण कीजे ॥
गुङ्को सुमिरन निशदिन कीजे । जीवन जन्म सफल करि लीजे॥
एक नाम यक् देत दिखाई । सो निजनाम कलपि नहिं जाई ॥
ग् सुमिरण निज नाम विचारे । आप तरे ओरनको तारे ॥
सतगङ शब्द नाम निरधारा । भव सागरसे उतरे पारा ॥
साखी-गुर्को सुमिरण कीजिये, निशदिन ध्यान कगाय ।
गुर लक्षण अब कहत हो, नह धीर चित लाय ॥
राग द्वेष दोनों से न्यारे। एसा गुरू शिष्यको तारे ॥
आशा तष्णा कबुद्धि जलाई । तन मन वचन सबन सुखदाई ॥
निरालम्ब भम रहित उदासी । निर्विकार जानो निवासी ॥
भिरमोही निरबंष निशंका । सावधान निरवान निषेका ॥
सार ग्राहीः ओर सरवज्ञी। संतोषी ज्ञानी सतसंगी॥
अयाचक जन निर अभिमानी । पक्षरहित अस्थिर शुद्धवानी ॥
निस्तरग बाही परपंचा । निष्करम निरङिक्त अबचा ॥
बोल अडोक भाखे सो साची । कोई बात कहै नहि कांची ॥
( ४०) बोधसागर
जेहि विधि कारज जिवका होई । नणय वाक्य उचारे सोई ॥
खार सन्धि कारुका फेरा' पारख खाई करे निबेरा ॥
साखी-जाति बड़ाई आश्रमदहि) मानबड़ाई खोय ।
जो सखतगुर् के पर लगे, सांच शिष्य है सोय ॥
गुर् आगे राखे माथ । करै बिनय दुख मेयो नाथ ॥
अहौ अधीन तुम्हारे दासा । देह अषने चरनन बासा ॥
यड तन भैं तोहि भेट चायो । अपनी इच्छा कुर न रखायो ॥
जो चाहो सो तम अब करो। या मांडको जेहि विधि भरो ॥
भवे धूष छांहमे डारो। मवि बोरो भवि तारो ॥
गुण पौरष कद ओ नहि मेरो । सब विधि शरण गही गुङ्तेरो ॥
मै अब वेढा नाव तुम्हारी आशा नदी सो करिये पारी॥
अपना कीजे गदहिये बारी । धरिये शिरपर हाथ गोसाई ॥
बह विधि विनती गुरसे करई । मान मोह इदयं नहि धरई ॥
देखि बिनयगुङ् होदि अनन्दा । तब पावे सिख परमानन्दा ॥
साखी-गुरूके आगे जायके, देसी बोरे बोल ।
करूर कपट राखे नहीं, अरज करे मनं खोर ॥
देखि प्रसन्नता ग॒रुकी भाई । ग॒रूते कदिये शीश नवाई ॥
ऋद्धि सिद्धि फलमेकद्ुनर्दिचाहूं । जगत कामनाको नरि खद ॥
चौरासी भैं बहु इख पायो । ताते शरण तुम्हरी आयो ॥
मुक्त होनेको मनमें अवे । अवागमन सो जीव डरावे ॥
सत्य भक्तिकी चाह हमारे । ताते पकव्यो चरण तिहार ॥
सत्य ॒ज्ञानते डदया भीनजे । यही दान दाता मोहि दीजे ॥
महँ दास सो ह उवबारी । हौं मच्छी तुम मिष्ट सुपारी ॥
हँ पतंग भँ तम रौ डोरा। म तो पिष तुम्हारे जोरा ॥
होड दयाल दया अब कीजे । ब्रूडत भव में बाहं गदीजे ॥
हुमिरनबोध ( ४१)
काल संधि ्ंईके जाला । पडिकेदुःखित भथो विहाला ॥
साखी-दया होय ङ् देवकी, टे अविद्याभान ।
मिथ्या माया सब मिरे, पवे अविचल ज्ञान
सारशब्द युते ववे । जाते जीव काज षनि आवे ॥
पुच्छ गुङसे सब अरथाई । सारशब्दको निर्णय भई ॥
जाते दोय जीवको काजा । पे सो होय निर्व्या ॥
भिविधि शब्दको पारख बट्धे । सत्य पदारथ तवहं सञचे ॥
सार शब्दको अङ्ग विचारे । मानुष लक्ष भरे निङ्आरे ॥
पट्ुवत धममको कप ठ्खावे । करि निरू आर सब शङ् बतवि॥।
हस स्वषूपह लीजे जानी । सबहि षतवे सतशर् ज्ञानी ॥
सांच इटा निर्णय करे। सत्यदहोयसो दिरदे धरे ॥
पद्का सौदा शरसे चवे । देखि अधीन श संव देवे ॥
गु सो देव सव कड भाई । क्षणम भटे कारु कलाई ॥
साखी-काल जार्से दटिके, मोक्ष मिलनकी चाह ।
सत्य मिलनकी युक्ति सब, गू बतावे राह ॥
गर्से पए ब्रह्मस्वरूपा । रसे पे प्रकृति अनतरषा ॥
ग्से पठे सक्षम तत्ता । गरूसे प्रे अगुण सत्ता ॥
गुशूसे पूछे महाकारण देही । य॒र्ूसे पे . तुरिया ठेही ॥
गुश्से पे पाच तनमता । युरूसे पके पचक याजा ॥
गुश्से पे सक्षम कारण । गुश्से पे स्थूल सवारन ॥
गुरसे पूछे ज्ञान अङ् कर्मा । दशो इन्द्र सहित स्वधर्मा ॥
गुरूसे प्रे अिङकटी भाई । चौदह यम सब देह बनाई ॥
गर्ूसे पे चतुदश स्थाना । चौदह देव तबे मनमाना ॥
चौदह पछि करे प्रवेशा। तबही पवे व्याछिस वेशा ॥
पचकोश सो गुरु से जाने। आतम ज्ञान तबही मनमाने॥
स) नोधस्ागर
साखी-पचकोशसत प्रकर जग, वेद कहे सत॒ सोई ।
परख बुद्धि निज षि बल, गरू कृषा करे जब होड ॥
देतादैत का करे विचारा । श्॒द्धादवैतका करे उपचारा ॥
विशिष्दैत अली बिधि जाने । पत प्रछत संबे मन माने ॥
कर्सोपासना केरे विचारा । ज्ञान विज्ञानका पावे सारा ॥
अथं चम मोक्ष ङ कामा । सबका प्रे असली धामा ॥
नवधा भक्तिको रूप पिकछाने । योगक्रियाको भली बिपि जाने॥
राजयोग हव्योग स्वशूषा । सबही आसन सिद्धि अनूषा ॥
ब्रह्म जीव अर् प्रङृतिका मेदा । द्रेतज्ञानका करे अछेदा ॥
नाना मत जग आहि जो भाई । सबका येद जो गुरूसे पाई ॥
आस्तिक नास्तिक मन अबहारा। सवदी फंदा करे विचारा ॥
पूछि ग॒ख्से सबरी सुधारे । गुरूके पारख कार फन्द् टारे॥
साखी-संसाररी पारख बिना, कैसे षवे ठेर ।
विध युक्ति अनमिर समे, भोग वहीं ओरकं ओर ॥
कालजालकी विकर रै चाला । जीव विकल तेहिमध्य विहाख॥
पारख यथारथ प्रथु प्रकाश् । कठिन महातम कार विनाञ्चू॥
कार चक्र चक्धी कथिनाई। पारख षाथे जात बिलाई ॥
पारख बर बहियां भोजेदी ।सबहीविधि चीन्ह पडाखलतेदी॥
गर् प्रसाद पारख दट पाये । विकर कटा यम जाल छुडाये॥
एक एक पारखे जेहि फासा। सो संक्षेप करे प्रकाशा ॥
जाते जीव बचे यमफांसा । शरणागत इट परख विलासा॥
भक्तिभाव प्रेमहि अधिकार । परख कदत बर कारु नशाई॥
कालकला नरि पवे ताको । भक्ति भाव गुरू पारख जाको॥
परम पारसी जीवन युकता । नदि पावे तेदी कालक उकता॥
साखी-बिन शरणागति परख गुरू, नहिं जीवन निस्तार ।
सरवोपरि गर् परख, लद तो दोय उवार ॥
तुमिरनबोष ( ४३)
गर् से दीक्षा टखीजे भाई। सदा शुङकी कीजे सेवकाई ॥
दीक्षा ठे जले जो आडा। सात जनम सो सिरजे पाडा ॥
सतशुक्की जो आज्ञा ठोपे। ता ऊपर यम राजा कोषे ॥
सतश् की जो अद्ष न राखे । ताको दोजख शास्तर भाखे ॥
सतगरू की न लाये विश्वासा । ताको काक करत है यासा ॥
गुर्सेती गरूमान जने । जनम जनम सो यमघुरजवे ॥
गुरसद़् आडी च्दी बोले। शान होइ सो वरवर डो ॥
गुरूसङ ज्ञान ग्वं दिखवे । कोरि जनम कूकर को वाव ॥
गुरूसे बाद करे नरनारी । कोटि जनम सो नरकं रवञ्चारी॥
गक्को शब्द मेरि पग धरई । यम ककर के फन्दे प्रई ॥
साखी- गरूपीटीते उतरे शब्द् विहना लेय ।
ताको कार धसीरि है, राखी सकं नहिं कोय ॥
सतश् की मरयाद न धरई । क्ख चौरासी ङण्डमे प्रई ॥
गङ्को शब्द न सुने अज्ञानी । भवसागर डवे अभिभानी ॥
गङूको देखि धरत अभिमाना । ब्यास बचन पड नरकनिधाना॥
गुरूको ज्ञान मेरि मत थाप । तीन ठोकमे बडो ते पापी ॥
गुङ्को मेरि बखानत आपा । धरती भार मरत तेहि पापा ॥
गुरसे सो उचा चटि बैठे। सात कुण्ड नरकमें पैठे॥
गुरसे उल्टा बचन खनव । सात जनम कोटी को पावे ॥
गुरुको उलट सुनावे वेना ।सात जनम अन्धा होयसो नेना॥
गुरुको छोड देव॒ जो पूजे । बाहुर होय दिवस न्ह सज्ञे ॥
गुर् को छोड अनत जो जवि । उदक होय सो जन्म भँवावे ॥
साखी-शिवप्रूजामे बेठिके, ग॒रूसे करि अभिमान ।
काकथुञ्ुण्ड शिवशापते, पडयो चोरासीखान ॥
गुरुनिन्दा जाके मुख उपजे । कोटि जनम गदहा दो निपजे ॥
( खे ) चोधसागर
गुरू निन्दा जाके सुख रोई । ताको सुख ना देखो कोई ॥
अपने सुख गुरू निन्दा करई । शकर शरान जनम सो धरई ॥
गुरू को निन्दासनेजोकाना।सोतो पावे नरक निधाना ॥
गुरू निन्दा सनेजो ्रवणसुनयी । अपने हाथ पाख निज इनयी ॥
गरू निन्दकं नारायण रोई । वाको चख ना देखौ कोहं ॥
गुरू निन्दक धरती पग चम्पे । ताके भार धरनि अति कम्पे ॥
गरू निदक अवनी प्र सोवे । धरती धरत शेष अति रोवे ॥
गर् सिद्क जब दी शख बोरे । धरती गगन मेङ् थह डले ॥
गर् निन्द्कं जो बचन सुनि । ज्ञानी कान यदिके जावे ॥
साखी-गुर् निन्दा डो सुजन, गङ् स्तुति मन धारि।
गरूको राखो शीश पर, सब विधि करे गुहारि ॥
सतयरू भिरे परम सुखदाई । जनम जनम का दुःख नशाईं ॥
सतशगुङू मिरे तो अगम बतावे । यमकी आंच ताहिनदि आवे॥
सुख सम्पति अपनो नरि प्राणी । समञ्च देखु तुमनिश्वय जानी
तीरथ व्रत ओर सब प्रजा । गुरू बिनु होवे सबदी दूजा ॥
धारा दोई भर जग मादीं। ग्रह वैराग बिन ओरन आदीं॥
दो गुरुकी कृपासे पावे । गुरू बिन मेदसोकोन बतावे ॥
कृरि त्याग सब ग्॒को दीजे । पारख पाई सदा सुख रीजे ॥
गिरदी रदी मगति अलुसारे । तन मन धनअपेणकरि डारे ॥
दशवां अश शुरू को दीजे। जीवन जन्म सुफर कृरलीजे ॥
सतग॒रूके सब आगे धरिये । शीश नाई शर्ूदंडवत करिये ॥
साखी-गरर् सो मेद जो लीजिये, शीश दीजिये दान ।
बहुतक भोंदू पचिघुये, राखि जीव अभिमान ॥
गर्ते रहे सदा मन जोरी । जेसे नटुवा चढत दै डोरी ॥
पारख तार चटी भयनदिं पावे । छे पारख श्र दोई जावे ॥
सुमिरनबोध ( ४५)
लोपे नहीं सतग॒रूका वाचा । सो सतयुशका सेवकं साचा ॥
सोह शिष प्रवे पारख धारा । सो$ पे सत्य सो बाद ॥
निर्मोही सतय की रीती । साचा सेवकं खव प्रीती ॥
मिलि पारखसवमयमिरिजाव ! युरुमुख शब्द सदारौ खावें ॥
देखि दुसह दुख जीवन केरी । दया करी पारख प्रभु प्रेरी ॥
निज पद जानि दया सोकरई । बन्धन जीव छटावन रूह ॥
केतिक पारख प्रथुके पराये । जरा मरण यम जार मिटाये॥
जिन्ह जिवल्हे पारखप्रु केरा । महाराज यम जीव निवेश ॥
साखी-गुङ् महिमा परण भई, सतर किरपा कन ।
संतनकी वाणी बहत, यायं संहं खन ॥
पाटफेर वणेन
गुरूमहिमा सबते अधिका । शिव शिवाप्रति यही टाई ॥
ग्यास वचन ओ वेदे गाया ! गुङूसे अधिक नहीं र्ुराया ॥
सत्यगुर् कवीरह परखाये । धर्मदास गुरू महिमा माये ॥
रामहरस ज् पूरण दासा । सबही यरु महिमा परकाशा ॥
जेते भये जग बुद्धिमति धारी । सब यरूमहिमा कौन उचारी॥
सवका सार यामधि प्ये। अब याकी महिमा सुन ल्इये॥
तीनों सध्या जो यहि पटयी । छोडि कुमारग सतपथ छखहयी॥
साची श्रद्धा मनम ठाई । बृक्ि बृक्चिके पाठ कराई ॥
बिन ब्रञ्चे सो शुन्ध अँधेरा । परि अभिमानखायजग फेरा॥
गुरुके लक्षण भङिविधि यांचे । यम फन्दाते तबही वांच ॥
साखी -श्रञ्च विवेक सह जो पटे, गुरूमदहिमा यक बार ।
कवीर -दीनदयार तेरी, तुरत उतारे पार ॥
योग यज्ञ अर् जप तप॒ अह । पटि गुरूमदहिमा सब फट रइई॥
विष्णु सदस अङ् भगवद्रीता । भागवत आदिक आब्पुनीता॥
( ४६ ) बोधसागर
एकवार शङ् मरिभा पटयी । सोफरु सबही क्षणम लदहयी ॥
काशौ क्षे बहुविधि दाने। गया प्रयाग पुष्कर असनाने॥
सो फल सबरी यामपि पवे । श्रद्धासरहित जो पाठ करावे ॥
निमंरु दोय पाठ जो करर सो नर सहजे भरवंनिधि तरई॥
ठेद् पुराण अरु शाघ् विलोई । जादिनिकस्योगरूमहिमासोई॥
गरू महिमा सारको सारी । गिरिजाप्रति भाष्यो िषुरारी॥
शुरू महिमा गुरूगमसे गाया । चटि सत पारख नादबजाया ॥
सत्तकबीर जब दाया कनी । गुरूमदहिमा तब वणन कीनी ॥
सासी-गुरुमदहिमा गुरु गम अहै, जाने सन्त सुजान ।
पटे विचारे मन करे, पावै मोक्ष निदान ॥
शरूमदिमा शतक यहि नामा । पाठ कयि पूरे सब कामा ॥
सो चोपाई यामि. आदी । बीस दोहरा साख सदाई ॥
दो चोपाई दइ सो साखी । फर वर्णन महँ पुनि राखी ॥
पांच चोपाई यक सो दोहा । संख्या तिथि वणंनमहं जोहा ॥
या विधि पूणं भयोयदन्था । जाते जिव पवे सत पंथा ॥
याको पाठ 4 करे जो कोई । उभय आनन्दफरू पावे सोई ॥
गुरुसतन पाॐतिन शिर नाॐ । मात पिताके बि बि जाऊँ॥
सत्य कबीर सत्य गुर् राई । जिनकी कपा परख पद् पाई ॥
धमदास गुर् जग आये । करि उपदेश जगजीवचिताये॥
राम रहस पूरण गुर् राई । सबको वन्दो शीश नवां ॥
साखी-नभ रस निधि चन्द्र कह, पौष प्रणिमा जान ।
बिक्रम सम्बत जानिये, रविवासर दिनि मान ॥
दरति भ्रीयशूमहिमा शतक समाप्त
तुमिरनबोध ( ४७ )
अथ शह उपदेदामहिमायोग प्रारम्भः
दोदा-गुर् संत वन्दन कष, ददै खखको पर ।
गुरुमादिमा बरनन करू, शिर धरि पद्रजधूर ॥
सन्त सवै शिर ऊपरे निस्प्ही निज नाम ।
सवके मस्तक युक्ति गूः पूरे मनके काम ॥
चौपाहं
प्रत्रह्मको आदि मनां । तिनकी कृषा युङूचरनन पाङ ॥
गुरू सोई सव ॒सिरजन ` हारा । य॒रूकी कृषा होय भवपारा ॥
गुर बिन होम यज्ञ नहिं कीजे । शरक आज्ञा माहि रहीजे ॥
गुरू संतनके चरण मनायो । ताते बुद्धि उत्तम पै पायो ॥
सब इष्टनमें सतणुर् सारा । सो खमिरावे पुरूष हमारा ॥
शरण दोय शिष अवै कोई । सहज पदारथ पावे सोह ॥
गुरु सुरतक सुरधेठ॒ समाना । अवे चरण शुक्ति परवाना ॥
मन वांछिति फर प्रवे सोह । प्रीति सहित जो सुमिरे कोह ॥
तन मन धन अपिं गुरु सेवे । होय गतान उपदेशदहि खे ॥
गुर बिन पदारथ ओर न जानें । आज्ञा मेरि ओर नहि माने ॥
सतगररूकी गति दिरदय धारे । ओर सकट बकवाद् निवार ॥
गुरुके सन्थुख बचन न कहै । सो शिष रहनि गहनि खुखलहे ॥
गुरसे बैर करे शिष जोह । भजन नाश अरु बहुत बिगोई ॥
पीटि सहित नरके परिह । यरु आज्ञा शिषरोपन करिह ॥
चेलो अथवा उपासक होई । गर् सन्युख रे ज्जठ सजो ॥
निश्चय नरक प्रे शिषर सोई । वेद् पुराण भनत सब कोई ॥
सनयुख गुरूकी आज्ञा धारे । अर् पाछे ते सकट निवारे ॥
सो शिष घोर नरकमें परि । रुधिर राध पीवे नरि तरिहै ॥
युखपर बचन कर प्रमाना । घर पर॒ जाय करे विज्ञाना ॥
( ४८ ) बोधसागर
जह् जावे तदे निदा करई । सो शिष कोध अगिनते जरई ॥
एेसे शिषको ठटोर जो नारीं । गुरू रख रोपत है मनमादीं ॥
वेद् पुराण करै सब साखी । साखी शब्द सवे यों भाखी ॥
साङुषं जन्म पायकर खोवे । सतश् विञ्ुखा थग युग रोवे ॥
ताते सतगुङ् शरना ीजं । कपट भाव सब दूर करीजे ॥
पग यज्ञ॒ तप दान करावे । गुरू विसुख फल कबहु न पावै ॥
गुरूदी जपतप तीरथ किये । गुरूदीं सांच अर् मिथ्या पदिये॥
सतणुर् बिना शुक्ति नि को$ । उच नीच भावै जो रोई ॥
आतम बय गुरू ते मेरा, ताके शरणों आयो चेरा ॥
चार युगन जे संति भयऊ । ब्रह्मह्ष होय पारहि गय ॥
सो जानडु गङ् संग प्रभा । लोक वेद न आन पराॐ ॥
दोदा-गुर् आज्ञा जिन जिन रदी, स्यो सकर विधि काज॥
नरक रूप जग दूर धस्यो; श्रीग महाराज ॥
उपदेश प्राति ठक्षण- चौपाई
दोड कर जोरि गुरूके आगे । करि बहु विन्ती चरनन रागे ॥
अति शीतर बोरे सब वेना । मेरे सकल कपके वैना॥
हे गुरूतुम दो दीनदयाला । भेदं दीन करो प्रतिपाला ॥
तुम बन्दी छोर अतिदहि अनाथा । भवजर ब्रूडत पकड़ हाथा ॥
दे उपदेश गुरू मं सुनाओ । जनम मरन भवदुःख छुडाओ ॥
यो अधीन दोय शिष जबहीं । शिषपर कृपा करे गुर् तबहीं ॥
गुरसे शिष जब दीक्षा मागं । मन क्रम वचन धरर धन आगे ॥
देसी प्रीति देखे गुरू जबही । ग॒प्त॒ मंज सुनावे तबदी ॥
अङ् भक्तियुक्तिको पथ बतावं । बुरो दोय को पथ छंडावे ॥
ठेते शिष उपदेशी पावे । होय दिष्य दृष्टि पुरुषपंजावे ॥
सुभिरनबोध ( ४९ )
गुरुसेवा माहात्म्य
गेगा युना बद्रीश समेते जगत्नाथादि धाम ह तेते॥
सेवे फल प्राप्त होय न जेतो । य॒श्सेवामे पव फट तेतो ॥
गङ् महातम को वार न पारा । वरणे श्िवसनकादिकञअवतारा॥
गुरू महिमा मोषे वरणिन जाई । महिमाअनन्तमममतिखषुताई॥
गुर् भावना
गुरूको पुरुप तब्रह्मफरं जाने । ओर भाव कबहूं नहिं आने ॥
काम क्रोध रदहितशुङ्् मेरा। पाप पुण्यका करत निवरा ॥
काम कोप लोभ समाना। तो शिष जानहु तीन समाना ॥
यही इृष्टिसे गुरुको सवे । तबतन मन धन गुङसबको देवे ॥
तनकरि टहल करे गङ् सेवा । सो शिष ठै युक्तिको मेवा ॥
बचन उचारे पृषुम सम वाणी । इभ्य र्गवें युहित जानी ॥
डच नीच सबही सुन टीजे ¦ कबीर बचन परमाण करीजे ॥
मरे ओर कष्ठ नरि चदिये । युङ् भावना युदय खदिये ॥
दोह-सात द्वीप नो खण्डे, ओ इकीस ब्रह्मण्ड ।
सतगुक् विना न बाचिहौ, काल. बड़ो प्रचंड ॥
यहीभाव भक्तिका लक्षण किये । गुर्केभावविनभवजल बहिये ॥
जिन बातनसे युङ् दख पावे । तिन बातनको दूर बहवे ॥
वेद् पुराण सवे भिरि गवे । नेमी धर्मी चौरासि न जावै ॥
अष्ट अङ्कसों दंड परनामा । संध्या पात करे निषकामा ॥
गुङूफो शिष एसे नहि माने । सो उयतापजरत चारो खाने ॥
योगी यती तपी आशरमा । बिच यर् कोड न जाने मरमा ॥
गुरुचरणोदकं माहात्म्य
कोरिक तीरथ सब करआवे। शर चरणाफल तुरतदि पावै ॥
कदाचित चरणामृत पावे । चौरासी गत सतलोकं सिधावे ॥
का
( ९१० `) बोधृसागर
कोटिक जप तप केरे करावे । वेद् पुराण समे मकि गावे ॥
शुरूपद रज मस्तकं पर देवे । सो फल तत्कालदहि सेवे ॥
दोडहा-गुरू चरणोदक अनन्त फर) हइमते कदी न जाय ।
मनकी पुरवे कामना, जो ख्व चित्त गाय ॥
सतग॒रू समान को हतु, अन्तर करो विचार ।
कागा सो रैसा केरे, दरसावे ततसार ॥
गुरू महिमा भ॑य यर, करै कबीर समञ्चाय ।
पाप ताप सबही ररे, अमरलोक के जाय ॥
इति श्रीगुरु उपदेश महिमायोग समाप
काम
[कबीर पंथी भारत पथिक स्वामी श्रीयुगलानन्दद्वारा संगृहीत ओर संशोधित
कबीर दशन लाडइत्रेरीसे संपादित]
हुमिरनवोध (. १)
गुरमहिमा प्रार॑भः
प्रथम खण्ड
चौपाई
गुर्की शरणा लीजै भाई । जाते जीव नरक नहिं जाई ॥
गर मुख हो परम पद् परवे। चौरासी बहुरि न अवे ॥
गुरु पद सेवे विरला कोई । जापर छपा साइबकी होई ॥
गुरू विद युक्ति न पावे भाई। नरक उद्धभुख वासा पाईं ॥
ग्को कृपा कटे यम फांसी । विलम्बनहोयमिरेअविनाशी ॥
गर् वितु काह न पाया ज्ञाना । ज्यों थोथा भुसछ्डेकिशाना ॥
गङ् महिमा शुक देवजो पाईं । चटि विमान वैङ़ंडे जाई ॥
गर् वियु पटे जो वेद पुराना । ताको नारिं मिरे भगवाना ॥
शुर सेवा जो करे सुभागा माया मोह सकलञनम त्यागा॥
गुरूकी नाव चटे जो प्राणी । खेद उतारे सतथुर् ज्ञानी ॥
तीरथ वरत ओर सव पूजा । गर विन देवता ओर न दूजा॥
नौ नाथ चौरासो सिद्धा । गुशूके चरण सेवे गोविन्दा ॥
गुर बिनु प्रेत जनम सब पावे । वषं सहस्र गभ मांहि रदवे ॥
गुर् वियु दान पुण्य जो करही । मिथ्या होय कबहूनर्हिफलदी॥
गर् विरु भरमन छट भाई । कोटि उपाय करे चतुराई ॥
गुर् विनु होम यज्ञ जो साधे । ओरो मन दश पातक बाधे ॥
सतग॒र मिरे तो अगम बतावे । यमकौ आंचताहि नहिं अवे ॥
गुरुके मिरे कटे दुख पापा । जनम जनमको मिरे संतापा॥
गुरुके चरण सदा चित दीजे । जीवन जन्म सुफल कर लीजे॥
गुरू चरण सदा चित जानो । क्यो भूरे तम चतुर स्थानो॥
गुर् भगता मन आतम सोह । वाके दिरदे रहं समोई ॥
( ९१२ ) बोधस्ागर
गुरू खुख ज्ञान रे चेतो भाई । माष जन्म॒ बहुरिन्िं पाई ॥
सुख संपति आपन नरि प्राणी। समश्चि देखु तमनिश्वयजानी ॥
चौविख गुरू दरि आपरि धरिया। शुरू सेवा हरि आपरि करिया ॥
गुङूकी निदा सुने जो काना । ताको निश्चय नरकं निदाना ॥
दशवां अश गुरूको दीजं । जीवन जनम सुफल कर जें ॥
यु खख प्राणी काहे न हज । इद्य नाम सदा रस पीज ॥
गुरू सीटी चडि ऊपर जाई । सुखसागरमं रहे समाई ॥
अपने सुख निदा जो करई । ञ्युकर श्वान जन्म सो धरई॥
निग॒रू करे करे युक्ति आशा । कैसे पावै छक्ति निवासा ॥
ओरो सुकृत देह जो पावे । सतर बिन शक्ती निं आवे॥
गौरी शंकर ओर गणेशा । सबही लीन्हा शर् उपदेशा ॥
शिव विरंचि शरू सेवा कीन्हा । नारद दीक्षा धुवको दीन्हा ॥
सतयुरू मिरे परम सुखदायी । जनम जन्मका दुःख नसाई ॥
जबगुरू किया अरलअविनाशी। सुर नर सुनि सब सेवकं रासी ॥
भवजन नदिया अगम अपारा । गुर् बिल्ल कैसे उतरे पारा ॥
गुरू बिनु आतम केसे जाने । सुख सागर कैसे पहिचाने ॥
भक्ति पदारथ कैसे पावे । गुङ् विव कीन जो राह बताते ॥
गुरसुख नाम देव रेदासा । शुरू महिमा उनहूं परकासा ॥
तेतिस कोटि देव भिपुरारी । य् विन भरले सकल अचारी ॥
गुरुविनु भरम लख चौरासी । जनम अनेकं नरकके बासी ॥
गुरूविनु प्च जनम सो पावे । फिर २ गभं बासमे आवे ॥
गुरू विमुख सोई दख पावे । जनम जनम सोई उहकावे ॥
गुर् सेवे जो चतुर स्थाना । युर पटतरकोई ओर न आना॥
गुरुकी सेवा युक्ति निज पावे । बहुरि न ईसा भवजल आवे ॥
भवजलं छटन यरी उपाई । शुरूकी सेवा करो सब धाई ॥
सुमिरनबोध ( ५३)
साखी-सतद्् दीन दयाल रै, देवे भक्ति अकाम ।
मनसा वाचा कर्मना, सुमिरो सतथङ् नाम ॥
सत्य शब्द के प्रटतरे, देवको कंड्कु नाहि)
कले शुरू संतोषिये, इवस रही मन माहि ॥
अति उण्डा गहरा घना, बुद्धिवन्त मति धीर ।
सो धोखा विरवे नही, सतश् मिरहि कबीर ॥
इति भी भ्रथमखण्ड शुरुषहिभा समाप
अथ शद्देवकी महिमा प्रारंभः
द्वितीय खण्ड
गुरूदेवकी महिमा बरणौ । जे युङ् देव ॒तम्हारी शरणो ॥
गावत जे ुण पार न पवे। ब्रह्मा शकर शेष युण गावे ॥
प्रथमहि श्युण रेसा कीन्हा । तारक मंज रामको दीन्हा ॥
माता तिलकं दिया सखूपा । जाको बन्दे राजा ओ भूषा ॥
ज्ञानगुध उपदेश बताया । दया धमकी राह चिन्हाया ॥
जीव दया षटहीमे होई। जीव दया व्रह्म है सोई ॥
गुरूसे आधीन चेत्य बोरे । खरा शब्द उर अन्तर खोटे॥
खारा मिशरी बचने. खमें। गुरुके चरणों चखा रमँ ॥
भीतर दिरदे ग॒शूसों भके। ताके पीछे रामह मिरे ॥
गुर् रीञ्चेसो कीजे कामा । ताके पीछे रामर्हिं रामा ॥
शिष सरस्वतीय॒ङ् यञ्ुना अङ्गा । राम मिरे सब सरिता गङ्गा ॥
चेला ग्म शर्म राम । भक्ति महातम न्याया नाम ॥
गुरु आज्ञा निरबाहें नेम । तब पवे सरवज्ञी प्रेम ॥
सरवज्ञी राम् सकर घट सारा । है सबही म सब सों न्यारा ॥
एसी जाने मनम रहै। खोजे ब्रञ्चे तासो करै ॥
५ «१९९ ) मोधसागर
गुरूको सरिमा संक्षेप मनी । गुरूकी महिमा अनत घनी ॥
ओतार धरी इरि गुरू करे । गुरू कयि तब नारद् तरे॥
साख पुरातम रेसी सुनी । बात हमारी गुरू चरणों बनी ॥
कीडी जैसा यै हों दासा । पडा रहा शङ् चरणों पासा॥
गुर् चरणों राखों विश्वासा । गुहि पुरावे मनकी आसा ॥
साखी-गुङ गोविन्द् अर् शिष भिक, कीन्हा भक्ति विवेक॥
तिरबेनी धारा बही, आगे गङ्गा एक ॥
गुरूकी महिमा अनत रै, मोसो कदी न जाय ।
तन मन शुरूको सौपिके, चरणों रों समाय ॥
दति शीद्दितीय खण्ड गुर महिमा समाप्त
अथ शर्महिमा प्रारंभः
ततीयखण्ड
शुर सतपद भज अमृतवबानी । गङ् बिनु नहीं २े प्राणी ॥
गुरु है आदि अन्तके दाता । गुर् है अक्ति ष्दके दाता ॥
गुरु गङ्गा काशिदहि स्थाना । चारषेद गुरूममसे जाना ॥
अरसठ तीरथ अमि २अवे। सो फल शुङ्के चरणों पावे ॥
गुरुको तजे भजे जो आना । ता पञ्च याको फोकट ज्ञाना ॥
गुरु पारस परसे जो कोई। लोहाते जिव कञ्चन दोई ॥
शक गुरु किये जनकश्वेदेही । वो मे शुङ्के प्रम सनेही ॥
नारद गुरू प्रहलाद पटाये । भक्तिेतु जिन दशन पाये ॥
काकथुश्चंडि शथु गरू कीन्हा । अगम निगम सब कडि दीन्हा ॥
ब्रह्मा गुरू अग्निको कयि । होम यज्ञ जिन यज्ञ दिये ॥
वशिष्ट सुनि गुूकियिरघुनाथा । पाये दरशन भये सनाथा ॥
कृष्ण गये दुर्वासा शरणा । पाये भक्ति जब तारन तरना ॥
सुमिरनबोध ( ५५ )
नारद उपदेश पिमरसे पाये । चौरासीसे तरत बचाये ॥
गरू कंद सोहं है सांचा। बिद परचे सेवकं है काचा ॥
गुर् सामरथ स्वके पारा । गहे शरण उतरे भवपारा ॥
कै कबीर युङ् आप अकेला । दशो ओतार अहका चेला ॥
साखी-राम कृष्णसों को बडा, तिनहू तो युङ् कीन्ह ।
तीन छोकके वे धनी, सो गुरू आगे अधीन ॥
हरिसेवा युगचार हैँ युङ् सेवा षर एक ।
तास पटतर ना तरे, संतन किया विवेक ॥
अथ प्रचलित गुरूमहिमा कबीर दशन रड्ेरीके संस्थापक
कवीरषथी भारतपथिक स्वामी श्रीयुगलानन्दद्वारा संग्रहीत
संशोधित ओर सम्पादित ।
इति श्रीतृतीय खण्ड ग॒रुमहिमा समाप
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=
1
बोध-सागर
( कवीर चसखि बोध प्रारभ )
1
भारतपथिक कबीर पथी-
स्वामी श्नीयुगलानन्द वारा संशोधित
र
खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन,
बम्बडुं-४
जः भ
न. ११ बोधसागर
संस्करण : फरवरी २०१९, संवत् २०७५
मूल्य : २०० रुपये मात्र ।
© सर्वाधिकार : प्रकाशकं द्वारा सुरक्षित
पुद्रच्छ एड एरका रव्छः
खेखराकः श्रि क्ष्ण्द्ा स्तः"
अध्यक्ष : श्रीवेकटेश्वर प्रेस,
रखेखराज श्रीकृष्णदास म्बा,
मुबङ् - ४०० ©<.
1115 & 20151615 : ~
(4168119 3111147517720855,
000: 3) #/61116316511#/21 71855,
14181713] 3)17141511260255 129, 71 (48120,
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८512818, 2५06 411 013.
११1}
॥
सतथनाम
श्री कबीर साहिब
परत्यघरङृत, आदि अदी, अजर अचिन्त, पुष,
धुनीन्द्र, कषणामय, कवी? घरति योग संतान,
धनी धर्मदास, चशमणिनाम, दशन नाम
कुटपति नाम, प्रबोध गष्वाछापीर, केव नामः
अमो नाम, घरतिसनेदी नाम, इक नाम,
पाकनाम, प्रकट नाम, धीरज नाम
उग्र नाम, दया नामकी दया, वैश
व्यालीसक दया _
अथ श्रीषोधसागरे
स॒परत्रिशतिस्तरगः
कबीर च खि बोध प्रारम्भः
दोहा-गुङ् कबीर जग विदित है, भक्त युक्ति दातार ।
जिव अुक्तावन कारने, आये जगत मं्यार ॥
कीन्ह चरित नाना जगत, सोई करों बखान ।
परमानन्द यश पाइ है, नहिं पावा कोड आन ॥
उभय आनेदके प्राप्तिको, साधन अरै अनूप ।
गरू चरित गायन करी, होवे ईंसन भ्रूष ॥
( ३७९ ० )) बोधसागर ६
सस्य एरुषको आज्ञा
सत्यपुरूषने ज्ञानीजीसे कडा किः रे ज्ञानीजी ! कार
पुरूषने समस्त जीवोंको फैसाकर मार छिया, सब जीवं भटक
भटक कर कार्की फाँसीमें षड गये, कोई जीव मेरे लोकें
नहो आता सेने सुकृति जी (धर्मदास) को सत्य पथके व्रचा-
रके खयि पृथ्वी प्र भेजा था-उनको कारषुरूषने धोखा देकर
कोक वेदम फसा छया ओर धर्मदासजी सत्यपुरुषकी भक्तिको
छोडकर कारपुरूषकी भक्ति खग गये । इस कारण आप् षथ्वी
पर जाओ ओर सुकृतिजीको चेताकर अुक्िपंथ पथ्वीप्र प्रकट `
करो । तव ज्ञानीजी सत्यपुर्ूषकी आज्ञा शिरोधार्यं कर दंडवत्
प्रणाम करके सत्यलोकसे बिदा हए! `
कबीर साहिबका काशीमं प्रकट होना
सम्वत् चोदह सौ पचपन विक्रमी ज्येद्ठ सदि प्रणि
सोमवारके दिन सत्यपुरुषका तेज काशीके छहर ताराबसं
उतरा, उस समय पृथ्वी ओर आकाश प्रकाशित हो गया!
स समय अष्टानद् वेष्णव उस ताराब पर बैठे थे । बृष्टि हो रशी
थी, बादल आकाशे धिरे रहनेके कारण अंधकार अया
इंआ था, ओर बिजली चमक रदी थी, जिस समय वह प्रकाशं
ताखाबमे उतरा उस समय समस्त तालाब जगमग जगमग करने
लगा ओर बड़ा प्रकाश हआ । वह प्रकाश उस तालाबमं उदर
गया ओर प्रत्येक दिशाँ जगमगाहटसे षरिपु्णं हो गयीं
ओर इस आश्र्य॑मय प्रकाशको देखकर अष्टानंदजी आश्चर्यः
न्वित इए । प्रकाशक फेकते दी मयूर चकोर आदि नाना प्रका-
रके पक्षी ओकने च॒हचहाने खगे, कमर तथा नीखकमलके पुष्व
लदलदाने ओर वरे शूजने रगे ! अष्टानन्दजीने जो उस तेजके
७ कबीर चरितरबौध ( १७९१ )
देखा तो आनकर उसका समस्त विवरण रामानन्द स्वामीसे
कहा कि, हे स्वामीजी ! मेने छहर तालषमे ठक रेसी ज्यो
तिका निरीक्षण किया है जिससे भुञ्चको अत्यन्त आश्रयं हआ
है । उस ज्योतिको आकाशसे उतरते ओर रहर तालाब उरते
देखा जब पह प्रकाश उस तालाषमे उतरा तब ताखब ज्योतिसे
प्रकाशित हो गया । यह बात सुनकर रामानन्द स्वामीने अष्टा-
नन्द्से कहा किः वह प्रकाश जो तुमने देखा था उसका
कौतुकं शीघ्र दी वम्हारे देखने तथा खनने आववेगा ।
वंह तेज बालकके आकारे हआ उस जरके ऊपर कम-
लोके पुष्पम उतराने ओर बाखकोके सदश शथ पाव फेकेने
खगा वह तेज अपनी समस्त प्रभाओंको परथक्ह करके अवष्यके
ब्च्चेके आकारमें दिखलायी दिया ।
नीषके पूवेजन्भका बृ्तान्त
श्वपच सुदर्शनके जो माता पिता थे वे दोनों भङ्गीका शरीर
छोड़कर ब्राह्मण ब्राह्मणीं हए थे, ओर चदबोर नगरमे रहते थे,
इनके प्रेमसे कबीर साहब इनके घर गये ओर उनको सुक्ति-मार्गं
बतलाने रगे, परन्तु उन्होने ध्यान नदीं दिया, तब सत्य गर्
उनके गहसे अन्तर्धान हो गये । इसके उपरान्त वे दोनों ह्मण
ब्रह्मणी परोकगामी हकर काशीमे जोखहा जोाही
हए ओर उनका नाम नीरू ओर नीमाह्वाद है । सुदर्थनजीके
माता पिता तीसरे जन्ममे जोखहा जोलादही इए थे । इनको
सुक्तिप्रदान करनेके निमित्त पुनः कबीर साहब उनके घर गये
ओर काशी लहर तालाबमे भरकट हए ।
कबीर साह्वका नीमाको भिठना
नीरू जोलाहा काशी नगरीमें रहता था, एक दिवस वह अपनी
( १९७९. २ ) बोधसा गर <
शली सहित चखा आता था, देवात् वह रहर तालाबके समी-
पसे होकर निकला । उसकी नली नीमा प्यासी इइं ओर जलं
पीनेके निसित्त उस ताखाब प्र गयी वहीं देखा तो एक बड़ा
री खन्दर बारक कमरमें पैरता फिरता है ओर हाथ पौव
फक रहा है! उस बालकको देखकर नीमा तालाबके भीतर
यु सकर उस बच्चेको अपनी गोदमे उठा ख्या ओर तालाबसे
बाहर निकरकर नीषूके पास गयी ।
नीमा ओर नीहकी बातचीत
तब पका कि, यह् किक्षका रुडका के आयी है ! तव नीमाने
उत्तर दिया कि, मेने ताखाबमें पाया है । नीखूने कहं दिया
कि, यह् कुडका जहांसे तू के आयी है वहां दी रख आ नदीं माम
यह् किसका र्ड़का है । तब उस ज्लीने उत्तर दिया कि, रएेसा
सृन्द्र बालक तो मेँ कदापि नहीं पकूगी । तब नीहने कंडा
किं, रोग सुद्चकेो संगे ओर रद्वा उड़ा्वेगे किं छकरवेहीमं
नङ अपनी खीके साथ एक पु भी ङे आया, इस कारण इस्
बाककको तु पफेकि आ । इस बातको जब नीमाने स्वीकार नहीं
फिया तब नीरू अपनी श्ीको मारने पीटनेपर प्रस्तुत हआ
ओर क्िडकियां देने लगा । अब वह शली खंडे खड़े अपने
चित्तमें लिता करने गी । इतनेमें वह वालक स्वयम् बोर
उठा कि, एे नीमा भं तेरे पूर्वजन्म प्रेमके कारण तेरे घर आया
हूं । त अुञ्चको मत पैक ओर अपने घ्र ठे चर यदि मेरा
कहना मानोगी तो गैं तुम्दं आवागमनके फेरेसे छड़ा दगा ओर
मुक्तिप्रदान करंगा, समस्त दुःख संताप हर कर ५. शब्द्
बतलाऊंगा किं, जिससे कभी कारके फंदेमं नदीं पड़ेगी ।
कबीर चरित्रिबोध ( १७९. ३ )
जव वह वालक इस प्रकार बोल तो उसकी बात सुनकर
नीमा निर्भय हो गयी, बाठककी बात खनकर नीह भी ङक नही
मोखा । अव वे दोनों प्रसत्रतापूर्वैकं उस बालकको छेकर अपने
ध्र आये । जव काशीके छोगोने देखा कि; नीह तो अपनी
छ्ीके साथ एक पुर भी ठे आया तो लोग ण्डा ओर हंसी करने
लगे । तब नीड्ने छोगोको समञ्चाया किं; इमने यह बाटकृ
कहर तालाबमें पाया है, बाठकका ऊरू विवरण कह सनाया,
फिर बुखाकर पने लगा कि इस बाल्कका क्या नाम रखना
चाहिये । ब्राह्मण परा स्थि विचार हीर थै, इतनेमें वह
बालक स्वयम् बो उठा किं ए ब्राह्मण ! मेरा नाम कबीर ड,
दसरा नाम रखनेकी चिन्ता मत करो । यह बात खनकर सबं
लोग अत्यन्त चकित इए कि यह बालक तो स्वयम् ही अपना
नाम बतखता है यह केसा बालक है यह किसी सिद्धका अव-
तार है कि कोई देवता है ! काशीमिं स ॒बातकी चचा घर धृर
होने ठगी कि, नीके घरमे एकं बच्चा आया है सो बातें करता
है । फिर नीहने काजीको बखया ओर पा कि, इस वाल्क
का क्या नाम रखना चाहिये । जब काजी किताब खोलकर
बालकका नाम स्थिर करने लगा तब इरानके मध्यमे बाककेके
चार नाम निकरे कबीर १ अकबर २ किवरा ३ किबरिया ये
चार नाम देखकर काजी प हो रहा ओर अपने दातोके
नीचे अशुटी दबाने क्गा । फिर फिर वह करान खोल-
कर देखता तो समस्त रान उसको उन्दी नामोंसे भरा दिख-
लाई दिया । अब काजीके मने अत्यन्त सन्देह उत्पन्न हआ
( १७९९ ) षोधृसरागर १०
कि, ये चारों नाम तो खुदाके द अब क्या करं हमारे धर्मकी
अप्रतिष्ठा इई ।
ग्रौबदासजीकी पारख, अगकी सख्यो
काशीपुरको कर्द किया, उत्तरे अधर अधार ।
मोभिनका सजरा इआ, जङ्गख्मे दीदार ॥
कोटि किरन शशि माव सुधि, आसन अधर विमान ।
परसत पूरण ब्रह्मको, शीतर भिंड ओ प्रान ॥
गोद छया सुख चूमिके, हेम हप अरूकन्त ।
जगर मगर काया करे, दमके पद्य अनन्त ॥
काशी उमडी शुक मया, मोमिनका घर वेर ।
कोई कह ब्रह्मा विष्णु है, कोड कहे इदर॒दुबेर ॥
कोई कह वर्ण धर्मराय है, कोई कोड कहता ईश ।
सोह कला सुभान गति, कोई करै जगदीश ॥
भगति अक्ति के उतरे, मेटन तीनों ताप्।
मोमिन घरडरा लिया, कहै कीरा बाप ॥
दूध पीवे नहिं अन्न मखे, नहीं पलने इूलत
अधर आसन है ध्यानम, कमर् खिला पूर्त ॥
कोई कदे छल ईश्वर नहीं, कोड किन्नर कंहलाय ।
कोई कहे गुण ईशका, ज्यों ज्यों मारिये साय ॥
काशीमे अचरज भया, गयी जगतकी निंद ।
से दृल्हा उतरे ज्यों कन्या बरबिद् ॥
खल्क ॒सल्क देखन गया, राजा परजा रीत ।
जम्बरदीप जहानमे उतरे, शब्द अतीत ॥
1 सकल कुरान कबीर है, हरफ लिखे जो लेख ।
काशी के काजी कहे, गथी दीनकी टेक ।।
११ कबीर चरखि्रिबोध ( १७९ )
दुनी कहे यह देव दैः देव कहै यह ईश ।
दश करै परब्रह्म है प्रर न विश्वे वीश॥
काजी गये कुरान छे धर ठ्डकेको नड ।
अक्षर अक्षरम एर, धन्य कवीर बर जोड ॥
सकल कुरान कवीर है, हरफ चज्खि जो छख ।
काशीके काजी करैः गयी दीनकी रेकं ॥
शि? उतरे शिवपुरीसे;, अविगतं -दन विनोद ।
महके कमल खुशी भया, ल्या इशको गोद् ॥
नजर नजरसे मिक गयी, क्रिया दशं प्रणाम ।
धन्य मोमिन धन्य पूरना, धन्यं काशी निष्काम ॥
सात बार चचां करः बो बाक्क वैत ।
शिव सो कर मस्तक धरयो,खा मोमिन यकं धेनु)
अनभ्यावरको दुइतदही, दष दिया ततकाङ ।
पीयो बालक बह्म गति, वहां शिव भये दयाल ॥
कृष्र मानुषके जब भई, नित दुनिया वर देहि।
चरण चरे तत परीमे, यहि शिक्षा नित ठेहि ॥
जब काशीके सब काजिर्योको यह समाचार मिला तव् वं
इस समाचारको खनकर बड़ ही चिन्तित इए कि, यह केसा
आश्रयं अद्भुत व्यापार है कि, समस्त ङरानमे कवीर दही
कबीर दिखाई देता है । अव कोन उपाय करना चाहिये कि;
ेसे दरिद्री जोखाहेके पुत्रका इतना बड़ा नाम न रक्खा जावे ।
फिर फिर कुरान खोकर देखते तो यही चारों नाम निकटते।
इन चारों नामोके सिवाय ओर कुछ नदीं निकला । तब काशी-
के काजियोने आपसमे सम्मति की ओर नीरूसे कहा कि, पे
नीरू! तू इस बलकको अपने घरके भीतर छेजाकर मार
( ३२७९९ ) नोधसागर १२
खपा \ तब वह जोरहा कीर साहबको अपने घरके भीतर
ङे गया आर उनको छरीसे काटने खगा, छुरी एक ओरसे दूसरी
र पार निकर गईं न कोई घात इआ ओर न रोदूका एकं
बंद री निकला ओर न गरे प्र कोई चिह्न हआ । नीरू यह
आाश्चयमय वृत्तान्त देखकर एकदस उर गया ओर थर थर
कौपने रगा उसके हाथसे छरी गिर गयी ओर वह अचेत सा
हो गया 1 तब कबीर साहब् बोरे कि, एे नीरू ! मेरा कोई माता
पिता नहीं है) न चै उत्पन्न होता ह न मरता ई, न सुञ्चको कोई
मार सकता है, न मे किक्षीको मारता ई । ओरन मेरा शरीर
है न मेरे मांस चमं दड़ी ओर रक्त दै ओर यैं स्वयप्रकाश ह |
यह बात सुनकर जोखाहा अत्यन्त मयमीत इअ । अन्ते
विवश होकर जब यह वृत्तान्त प्रकट हआ तब कबीररी नाम
ठहराया । किसीका छ वश न चखा कि, उसको बदर सके ।
बाठलीलखा
बिना भोजनादि फिये दी कबीर साहबका शरीर बड़ा होता
जाता था ओर दिन प्रति आपका तेज तथा प्रताप बढता जाता
था । जब जोलाहा जोखादीने देखा कि, बालक तो कुक मोजन
कृरता नीं है तब वे अपने मनम अत्यन्त चिन्तित होकर कहने
लगे किं एे कबीरजी ! आप कछ भोजन करो यदि आप् अन्न
न खाओगे तो हम भी नहीं खारयेगे । तब कबीर साइवने उत्तर
दिया कि, एे नीरू ! गायकी एक कुर्वारी बछिया ओर कुम्हारके
घरसे एक कोरा बरतन रे आओ । कबीर सादबको आज्ञालसार
नीद गया ओर कोरी बछिया दँढकर ओर ुम्हारके गृदसे
एकं ब्रतन ठे आया । तब कबीर सादबने उससे का किं, इस
बछियाको मेरे सामने बांघ दौ ओर उसके स्तनोके नीचे
१३ कबीर चरित्बोध ( १७९७ )
बरतन रख दो, फिर कबीर साहबने उस बल्ियाकी ओर देखा
तो उसके स्तने द्ध निकलने लगा जिससे बरतन भर गया
वही दूध लेकर नीहने कृषीर साहबके यँहके सामने रख दिया ।
फिर तो नीह नित्य उसी प्रकार प्रतिदिविस किया करता था ।
जब कबीर साहिव कुछ बड़ इए ओर ॐटे-छोटे कडकोके
साथ खेलने ठगे तव आष उन क्डकोसे बह्मज्ञानकी बातें
किया करते थे । वे बेसमञ्च लड़के कबीर साहबकी बातको तनिक
भी नहीं समञ्जते बतिकं जब वह उन्हँ समञ्चाने लगते तव
वे मुँह देखने ठग जाते । फिर छ दिनोके पशात आप्
साध्ओं के साथ ज्ञानगोष्ठी कने ल्गे। जब साधर लोग
आपका ज्ञान सुनते तब अत्यन्त चकित होते कि, यह कोयं
बालक इस प्रकारकी बातें केसे करता है। इन बातोकी सधि
तो किसी साधको भी नहीं है । तब साधुओंको विदित हो गया
कि, ध बालक नहीं बरन् कोई सिद्ध दी लड़केके वषमे भरकट
हआ है ।
कबीर साहवकी बालकपनके अनेक लीलओंक्ा विवरण
गर॑थोमे छिखा है-उस समय जलनके रोगका काशीं प्रकोप
था । एक वृद्धा स्री आई ओर कबीर साहवसे बोली कि मँ
जलन रोगसे व्यथित हूः आप धूल यमिद्वी खे रहे थे,
कबीरजी बोठे, यदि तेरी इच्छ हो तो मेँ आरोग्य खा कष ।
तब कबीर साहवने उस श्चीपर थोडीसी धूक डाल दी ओौर वह
आरोग्य हो गयी जिसपर वह प्रसन्न होती चली गयी । इस
प्रकारकी बातोका छ विवरण ह नहीं सकता । `
कुछ दिवसोके उपरत समस्त ॒जलाहे एकमत हो
कहने लगे कि ए नीह ! अब तुम अपने पुजका स॒त्नत ( ते
( १७९.< )} नोधृसाग्र १४
ल्मानी ) कराओ । फिर एकं दिन सुकररर करके जुखाहे एकञमित
इए ओर काजीको बुराया । जब नाई उस्तरा रेकर कवीर
साहबके सामने गया तब आपने पांच ङ्ग उसको दिखलाये
आर उससे कहा कि, इन पां चोमेसे जिसको चाहे त काट छे।
यह् अवस्था देखकर नाई तो भयभीत होकर भाग गया ओर
आपका सुत्रत नदीं इ ।
एकं दिनि आपं छोटे-छोटे बच्चोके साथ खे रहे थे.उस समय
काजीने गोवधका प्रबध किया ओर ग्के जबह करनेका समय
आया तब आपने सब वृत्तांत जान लिया कि, काजी गडके
जबह करनेके विचारमे है । एेसा जान करके बाककोके साथका
खेलना छोड़कर गउकी ओर दौड । जवतक गायके समीप
पहुचे तबतक तो काजीने गञको समाप्त कर दिया । कबीर
साहब आकर उस काजीको उपदेश देने रुगे जिससे रजित
होकर काजी अपने अपराधके निमित्त क्षमाका प्रार्थी इ ।
॥६ कबीर साहब उस गउको जीवित करके ओर आष अत-
घान हो गये ।
क जब आप अतधान दो गये तव॒ जलाहा जलादी आपको
दरद्ने लगे । जब कहं दिनों तक कबीर साहब उन्हे नहीं भिरे
तब उनको बड़ा दुःख इआ ओर वे कूट-फएूट कर रोने रुगे ।
समस्त नगरमे इद् डाखा पर आप कहीं नहीं मिले । उसको
तीन दिनि भूखे प्यासे बीत गये, अत्रजर कुछ भी उसके दमे
नहीं गया । वे अत्यन्त निषे तथा अशक्त हो गये । जब
आपने उन दोनोको नितांत दी विहर पाया तब आप उनके
सामने पकट हो गये । आपको देखते ही वे प्रसन्न होकर चररणोपर
गिर पड़े ओर कहने रगे किं, आप किधर चङे गये ! हम
१५ केवर चरेत्रबोष ६ १५७९९
दरंटते-टरंटते हैरान हो गये ! तब कबीर साहबने उत्तर दिया किः
तुमने महापाप किया किं, गउको जबह करवाया । जोलहा
जोटाही अनेकं सौगंधं चने खगे कि, इमने यह कार्थं नहीं
करवाया षरन् इमे इस बातकी तनिक भी सुधि नहीं ह, यह
कायं काजीका है जव उन दोनोने बहुत कछ प्राथना तथा
बरिनती की तब कबीर साहबने दोनोको निर्दोष समञ्चकर उनके
घर् प्र गये ।
जब आप छोटे २ बाखकोके साथ खेरूते थे तब “राम राम"
“गोर्विद गोविद" “ हरि हरि ” कहा करते थे तब अुसल्मानं
लोग सुनकर कहते थे कि, यह बालकं कटर काफिर होगा । तब
उनको कबीर साहब यह प्रत्यु्तर देते थे किं, काफिर वह होगा
जो दूसरोका मार दूटता होगा, काफिर वंह होगा जो कषट-
भेष बनाकर संसारको ठगता हौ, काफिर वहं है जो निर्दोष
जीवोका प्राणनाश करता शेगा, काफिर व्ह होगा जो मंस
खाता होगा, काफिर वह होगा जो मदिरा पान करता होगा
ओर काफिर वह होगा जो दुराचार तथा बटमारी करता शेगा
म किस प्रकार काफि हूं ।
साखी -कबीर साहब
गला कारकर बिसमिल करे, ते काफिर बेदरूञ्च ।
ओरनको काफिर कै, अपनो ङफ़ न सञ्च ॥
कुछ दिनके बाद कबीर साहबने गलेमे यज्ञोपवीत डार
खिया ओर अपने माथेपर तिलक र्गा लिया, तब बाह्मण
देखकर कने ख्गे कि, यह तो तेरा धर्मं नदीं है तूने वेष्णव
वेष केसे बनाया ! तु राम राम गोर्विद गोविद नारायण
नारायण कहता है-यह तो मेरा धमं है तेरा धर्मं नहीं । तब कबीर
६ ५४७० ) बोधसागर १६
साड बाह्मणोको उत्तर देते कि, इम तो ताना तनते है, जने
तुम्हारा किंस प्रकार इआा ! ओर गोर्विद ओर राम तो हमारे
ङदयंमे बसते है, तुम्हारे केसे हए । तुम तो गीता पठते
दो ओर सांसारिकं धनफे निमित्त सदैव धनादयोके द्वार द्वार
पर दौडते ओर भटकते रहते हो, हम तो गोर्विदके अतिरिक्त
ओर किसी अन्यको नहीं जानते ह । इतना सुनकर ब्राह्मण
निरूत्तर दो जाते फिर तो हिन्दू तथा सुसरूमान दोनों आपके
साथ वाद् विवादं किया करते ओर सब परास्त होने खगे । जब
साशुओने देखा कि, यह रख्डका तो बड़ा ज्ञानीं है, तब वे रोग
पूते कि, कबीरजी आपका गुर् कौन है, उस समय तो आपका
कोई गुर् नीं था-इस प्रश्नपर आप नि्त्तर निस्तब्ध हो जाते।
तब साश्रु रोग आपको ताना मारते कि, बिना गु्के तुम्हारा
ज्ञान किंसी काम नदीं आवेगा-ओौर न बिना गुर्के किंसीको
मुक्ते मिलेगी, तुम्हारा यह सब वातताखाप तथा ज्ञान व्यथे है।
जब साधु लोग कबीर साहबपर इस प्रकार कटाक्ष करने रगे
तब आपने रामानदं स्वामीको युङ् करनेका संकल्प किया ।
जिस समय आपने स्वामी रामानदको युङ् करनेका संकल्प
किया उस समय आपको प्रकट हए पूरे पांच वषे हो चुके
थे ओर आपकी प्रसिद्धि भारतके बहत भागोंमें हो चुकी थीं ।
आप रामानन्द स्वामीके पास गये ओर विनय किया कि,
स्वामीजी ! सुञ्जको दीक्षा देकर अपना शिष्य कीजिये ओौर
सुञ्चसे य॒रूदक्षिणा लीजिये अुञ्पर कृपा कीजिये । यह बात
सुनकर स्वामीजीने उत्तर दिया कि, मेँ शद्रको दीक्षा नहीं देता ।
रामानन्द् स्वामी ओर कबीर स्ाहबकी वातांखापका वृत्तान्त
भक्ति द्रावड देश थी, यहां नहीं एकं विरञच ।
कृबीर चरित्रबौध ( १८०१ /
उत ॒भूतको ध्यावना, पाखंड आर प्रप ॥
रामानन्द अनन्द भये, काशी नगर मंञ्चार ।
देश द्राविड छङ़िकि, अये परी विचार ॥
योग युक्ति प्राणायाम करि, जीता सकल शरीर ।
तिखेणीके घास्य, अटक रहै बलवीर ॥
तीरथ वरत एकादशी, गंगोदकं _ अस्नान ।
पूजा विधि विधानसो, सवकलासौं मान ॥
कृरे मानसी सेव नित, आत्मतत्वकौ ध्यान ।
पट पूजा आदि मेद गति, धूप ओं दीप विधान ॥
चौदह सौ चेरे किये, काशीनगर मञ्चार ।
चार सम्पदा चलत रैः ओर रै बावन द्वार ॥
पांच वरषके जब भये, काशीमाहिं कबीर ।
दास कबीर अजीवकटा, ज्ञानध्यान शण थर